The Constitution of India The Union Judiciary LLB Law
The Constitution of India The Union Judiciary LLB Law:- The Constitution of India Most Important Part of
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अध्याय 4
संघ की न्यायपालिका (The Union Judiciary)
- उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन,—(1) भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा जो
ब्य न्यायमूर्ति और, जब तक संसद् विधि द्वारा अधिक संख्या विहित नहीं करती है तब तक, सात-से अनधिक अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा।
भारत के मुख्य न्यायमूर्ति आर,
- संविधान (अड़तीसवां संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 2 द्वारा खंड (4) अंत:स्थापित किया गया और संविधान Sinासवा संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 15 द्वारा (20-6–1979) से उसका की धारा 15 द्वारा (20-6–1979) से उसका लोप किया गया।
- उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) याधीशों की संख्या) (संशोधन) अधिनियम, 2008 (2009 का 11) की धारा 2 के अनुसार अब यह संख्या तीस है।
(2) || अनुच्छेद 124क में निर्दिष्ट राष्ट्रीय याशि हस्ताक्षर और आदी सहित अधिएर हा शायाधीश तब तक पद धारण करेगा जब तक वह पैंसठ वर्ष की 2[* * *] [
परन्तु यह कि]—
(क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग | सकेगा;
(ख) किसी न्यायाधीश को खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से हटाया जा सकेगा। 4r (क) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की आयु ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से अवधारित की जाएगी जिसका संसद् विधि द्वारा उपबंध करे।]
१२) कोई व्यक्ति, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा जब वह भारत का नागरिक है और
(क) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम पांच
वर्ष तक न्यायाधीश रहा है; या
(ख) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम पांच
वर्ष तक अधिवक्ता रहा है; या
(ग) राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता है। स्पष्टीकरण 1.-इस खंड में, “उच्च न्यायालय” से वह उच्च न्यायालय अभिप्रेत है जो भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में अधिकारिता का प्रयोग करता है, या इस संविधान के प्रारंभ से पहले किसी भी समय प्रयोग करता था।
स्पष्टीकरण 2.-इस खंड के प्रयोजन के लिए, किसी व्यक्ति के अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात् ऐसा न्यायिक पद धारण किया है जो जिला न्यायाधीश के पद से अबर नहीं है।
(4) उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक । साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ऐसे हटाए जाने के लिए संसद् के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल | सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन, राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दे दिया है।
(5) संसद् खंड (4) के अधीन किसी समावेदन के रखे जाने की तथा न्यायाधीश के कदाचार या असमर्थता के अन्वेषण और साबित करने की प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन कर सकेगी।
- संविधान (निन्यानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 2 द्वारा (13-4-2015 से) “उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायधीशों से परामर्श करने के पश्चात्, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे” शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- सविधान (निन्यानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 2 द्वारा (13-4-2015 से) पहले परन्तुक का लोप किया गया। यह संशोधन संप्रीम कोर्ट एडवोकेटस अन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 11 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। संशोधन के पूर्व, यह निम्नानुसार थापरन्तु मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से सदैव परामर्श किया।
स्थान पर प्रतिस्थापित। यह साधन । इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- अचान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम 2014 की धारा 2 द्वारा (13-4-2015 से) “परन्तु यह और कि” शब्दों के
(6) उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति, अपना पद ग्रहण करने के पहले राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा।
(7) कोई व्यक्ति, जिसने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किए हैं, भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं करेगा।
1[124क. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग-(1) राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के नामक एक आयोग होगा जो निम्नलिखित से मिलकर बनेगा, अर्थात् :
(क) भारत का मुख्य न्यायमूर्ति, अध्यक्ष-पदेन;
(ख) भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से ठीक नीचे के उच्चतम न्यायालय के दो अन्य ज्येष्ठ न्यायाधीश- सदस्य, पदेन;
(ग) संघ का विधि और न्याय का भार साधक मंत्री-सदस्य, पदेन;
(घ) प्रधान मंत्री, ‘भारत के मुख्य न्यायमूर्ति और लोक सभा में विपक्ष के नेता या जहां ऐसा कोई विपक्ष का नेता नहीं हैं वहां, लोक सभा में सबसे बड़े एकल विपक्षी दल के नेता से मिलकर बनने वाली समिति द्वारा नामनिर्दिष्ट किए जाने वाले दो विख्यात व्यक्ति-सदस्य; परंतु विख्यात व्यक्तियों में से एक विख्यात व्यक्ति, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यकों वर्ग के व्यक्तियों अथवा स्त्रियों में से नामनिर्दिष्ट किया जायेगा : ।
परंतु यह और कि विख्यात व्यक्ति तीन वर्ष की अवधि के लिए नामनिर्दिष्ट किया जाएगा और पुनर्नामनिर्देशन के लिए पात्र नहीं होगा। |
(2) राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का कोई कार्य या कार्यवाहियाँ, केवल इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएंगी या अविधिमान्य नहीं होंगी कि आयोग में कोई रिक्ति है या उसके गठन में कोई त्रुटि है।
124ख. आयोग के कृत्य-राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के निर्मलखित कर्तव्य होंगे,
(क) भारत के मुख्य न्यायमूर्ति, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और उच्च न्यायालयों के मुख्य
न्यायमूर्तियों तथा उच्च न्यायालयों के अन्य न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए व्यक्तियों की सिफारिश करना;
(ख) उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायमूर्तियों और अन्य न्यायाधीशों का एक उच्च न्यायालय से
किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानांतरण करने की सिफारिश करना; और (ग) यह सुनिश्चित करना कि वह व्यक्ति, जिसकी सिफारिश की गई है, सक्षम और सत्यनिष्ठ
124ग. विधि बनाने की संसद् की शक्ति–संसद, विधि द्वारा, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति और उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायमूर्तियों और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया विनियमित कर सकेगी तथा आयोग को विनियमों द्वारा उसके कृत्यों के निर्वहन, नियुक्ति के लिए व्यक्तियों के चयन की रीति और ऐसे अन्य विषयों के लिए, जो उसके द्वारा आवश्यक समझे जाएं प्रक्रिया अधिकथित करने के लिए सशक्त कर सकेगी।] |
- न्यायाधीशों के वेतन आदि.-2[(1) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो संसद्, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। |
(2) प्रत्येक न्यायाधीश ऐसे विशेषाधिकारों और भत्तों का तथा अनुपस्थिति छुट्टी और पेंशन के संबंध में । ऐसे अधिकारों का जो संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन समय-समय पर 6 जाएं और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किए जाते हैं तब तक ऐसे विशेषाधिकारों, भत्तों और । अधिकारों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा:
- संविधान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 3 द्वारा (13-4-2015 से) अंत:स्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोई एडवोकेटस आन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम् । न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- संविधान (चौवनवां संशोधन) अधिनियम, 1986 की धारा 2 द्वारा (1-4-1986 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित है।
परन्तु किसी न्यायाधीश के विशेषाधिकारों और भत्तों में तथा अनुपस्थिति छुट्टी या पेंशन के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
- कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति.-जब भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का पद रिक्त है या जब मुख्य न्यायमूर्ति, अनुपस्थिति के कारण या अन्यथा अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है। तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक न्यायाधीश, जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। |
- तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति.-(1) यदि किसी समय उच्चतम न्यायालय के सत्र को आयोजित करने या चालू रखने के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीशों की गणपूर्ति प्राप्त न हो तो ‘[राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उसे किये गये निर्देश पर, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से] और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्, किसी उच्च न्यायालय के किसी ऐसे न्यायाधीश से, जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए सम्यक् रूप से अर्हित है। और जिसे भारत का मुख्य न्यायमूर्ति नामनिर्दिष्ट करे, न्यायालय की बैठकों में उतनी अवधि के लिए, जितनी आवश्यक हो, तदर्थ न्यायाधीश के रूप में उपस्थित रहने के लिए लिखित रूप में अनुरोध कर सकेगा। ।
(2) इस प्रकार नामनिर्दिष्ट न्यायाधीश का कर्तव्य होगा कि वह अपने पद के अन्य कर्तव्यों पर पूर्विकता देकर उस समय और उस अवधि के लिए, जिसके लिए उसकी उपस्थिति अपेक्षित है, उच्चतम न्यायालय की बैठकों में, उपस्थित हो और जब वह इस प्रकार उपस्थित होता है तब उसको उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियां और विशेषाधिकार होंगे और वह उक्त न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करेगा।
- उच्चतम न्यायालय की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की उपस्थिति.-इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, 2[राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग] किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति से, जो उच्चतम न्यायालय या फेडरल न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चता है। 3[या जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है और उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए सम्यक् रूप से अर्हित है,] उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जिससे इस प्रकार अनुरोध किया जाता है, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान, ऐसे भत्तों का हकदार होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे और उसको उस न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियां और विशेषाधिकार होंगे, किन्तु उसे अन्यथा उस न्यायालय का न्यायाधीश नहीं समझा जाएगा।
परन्तु जब तक यथापूर्वोक्त व्यक्ति उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की सहमति नहीं दे देता है तब तक इस अनुच्छेद की कोई बात उससे ऐसा करने की अपेक्षा करने वाली नहीं समझी जाएगी।
- उच्चतम न्यायालय का अभिलेख न्यायालय होना.-उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी।
टिप्पणी
उच्चतम न्यायालय के लिए, सांस्थिनिक स्वतन्त्रता का प्रावधान इस अनुच्छेद में किया जाता हैं जो संस्थान को स्वयं अवमान के लिए दण्डित करने के लिए समर्थ बनाता है। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-आन-रिकार्ड एसोसिएशन एवं एक अन्य वि० भारत मेघ, ए० आई० आर 2016 एस० सी 117 : (2016) 5 एस० सी० सी० 1. ।
- संविधान (निन्यानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 4 द्वारा (13-4-2015 से) ** भारत का मुख्य न्यायमूर्ति धन की पर्व सहमति सै” शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 चर 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- संविधान (निन्यानबेदी संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 5 द्वारा (13-4-2015 से) ** भारत का मुख्य न्यायमूर्ति” शब्द के स्थान पर प्रतिस्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आरः 2016 एस सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित के दिया गया है। इस पर उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 3 द्वारा (5-10-1963 से) अंत:स्थापित।
यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय में अन्य चीजों के साथ-साथ न्यायालय निर्देशों के अनुपालन को प्रवर्तित करने के लिए शक्ति निहित करता है। उच्चतम न्यायालय को उसके अवमान के लिए दण्डित करने की अधिकारिता और शक्ति है। यह विधान है, जो उच्चतम न्यायालय को उसके आदेश के अनुपालन को प्रवर्तित करने के लिए प्राधिकृत करता है। दण्डित करने की शक्ति किसी प्रयोजन को पूरा नहीं करेगी, यदि अनुपालन को प्रदर्शित करने की शति का अभाव था। सुबतराय सहारा वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 3241 : (2014) 8 एम सी० सी० 470. |
- उच्चतम न्यायालय का स्थान.-उच्चतम न्यायालय दिल्ली में अथवा ऐसे अन्य स्थान या रथाना । में अधिविष्ट होगा जिन्हें भारत का मुख्य न्यायमूर्ति, राष्ट्रपति के अनुमोदन से समय-समय पर, नियत करे ।। |
- उच्चतम न्यायालय की आरंभिक अधिकारिता.-इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते। हुए,–
(क) भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच, या
(ख) एक ओर भारत सरकार और किसी राज्य या राज्यों और दूसरी ओर एक या अधिक अन्य।
राज्यों के बीच, या
(ग) दो या अधिक राज्यों के बीच, किसी विवाद में, यदि और जहां तक उस विवाद में (विधि का या तथ्य का) ऐसा कोई प्रश्न अंतर्वलित है। जिस पर किसी विधिक अधिकार का अस्तित्व या विस्तार निर्भर है तो और वहाँ तक अन्य न्यायालयों का अपवर्जन करके उच्चतम न्यायालय को आरंभिक अधिकारिता होगी:
1[परंतु उक्त अधिकारिता का विस्तार उस विवाद पर नहीं होगा जो किसी ऐसी संधि, करार, प्रसंविदा, वचनबंध. सनद या वैसी ही अन्य लिखत से उत्पन्न हुआ है जो इस संविधान के प्रारंभ से पहले की गई थी या निष्पादित की गई थी और ऐसे प्रारंभ के पश्चात् प्रवर्तन में है या जो यह उपबंध करती है कि उक्त अधिकारिता का विस्तार ऐसे विवाद पर नहीं होगा।] ।
2[131क. केन्द्रीय विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के बारे में उच्चतम न्यायालय की अनन्य अधिकारिता.-[ संविधान (तैतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 4 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित] ।] |
- कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों से अपीलों में उच्चतम न्यायालय की अपीली अधिकारिता.-(1) भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की सिविल, दांडिक या अन्य कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी [यदि वह उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134क के अधीन प्रमाणित कर देता है] कि उस मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान् प्रश्न अंतर्वलित है।
(2) 4[* * *]
(3) जहां ऐसा प्रमाण-पत्र दे दिया गया है [* * *] वहां उस मामले में कोई पक्षकार इस आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकेगा कि पूर्वोक्त किसी प्रश्न का विनिश्चय गलत किया गया है। [* * *]
| स्पष्टीकरण.-इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, “अंतिम आदेश” पद के अंतर्गत ऐसे विवाद्यक का विनिश्चय करने वाला आदेश है जो, यदि अपीलार्थी के पक्ष में विनिश्चित किया जाता है तो, उस मामले के अंतिम निपटारे के लिए पर्याप्त होगा।
- उच्च न्यायालयों से सिविल विषयों से संबंधित अपीलों में उच्चतम न्यायालय की अपील अधिकारिता.-6[(1) भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की सिविल कार्यवाही में दिए गये |
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 5 द्वारा परंतुक के स्थान पर प्रतिस्थापित ।।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 23 द्वारा (1-2-1977 से) अंत:स्थापित ।।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 17 द्वारा (1-8-1979 से) **यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित कर दे’ के स्थान पर प्रतिस्थापित ।।
- संविधान (चव,लोसवा संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 17 द्वारा (1-8-1979 से) खंड (2) का लोप किया गया।
- संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 17 द्वारा (18-1979 से) कुछ शब्दों का लोप किया गया।
- संविधान (तीसवां संशोध) अधिनियम, 1972 की धारा 2 द्वारा (27-2-1973 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित है।
किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी ‘[यदि उच्च न्यायालय
50 अनुच्छेद 134क के अधीन प्रमाणित कर देता है कि]
(क) उस मामले में विधि का व्यापक महत्व का कोई सारवान् प्रश्न अंतर्वलित है; और
(ख) उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चय आवश्यक है।]
(2) अनुच्छेद 132 में किसी बात के होते हुए भी, उच्चतम न्यायालय में खंड (1) के अधीन अपील करने वाला कोई पक्षकार ऐसी अपील के आधारों में यह आधार भी बता सकेगा कि इस संविधान के निर्वाचन के बारे में विधि के किसी सारवान् प्रश्न का विनिश्चय गलत किया गया है।
(3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में तब तक नहीं होगी जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे।
- दांडिक विषयों में उच्चतम न्यायालय की अपीली अधिकारिता.–(1) भारत के राज्यक्षेत्र में। किसी उच्च न्यायालय की दांडिक कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, अंतिम आदेश या दंडादेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी यदि-
(क) उस उच्च न्यायालय ने अपील में किसी अभियुक्त व्यक्ति की दोषमुक्ति के आदेश को
उलट दिया है और उसको मृत्यु दंडादेश दिया है; या
(ख) उस उच्च न्यायालय ने अपने प्राधिकार के अधीनस्थ किसी न्यायालय से किसी मामले को विचारण के लिए अपने पास मंगा लिया है और ऐसे विचारण में अभियुक्त व्यक्ति को सिद्धदोष ठहराया है और उसको मृत्यु दंडादेश दिया है; या
(ग) वह उच्च न्यायालय 2[अनुच्छेद 134क के अधीन प्रमाणित कर देता है कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील किए जाने योग्य है। परन्तु उपखंड (ग) के अधीन अपील ऐसे उपबंधों के अधीन रहते हुए होगी जो अनुच्छेद 145 के खंड (1) के अधीन इस निमित्त बनाए जाएं और ऐसी शर्तों के अधीन रहते हुए होगी जो उच्च न्यायालय नियत या अपेक्षित करे।
(2) संसद् विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्यक्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की दांडिक कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, अंतिम आदेश या दंडादेश की अपील ऐसी शर्तों और परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट की जाएं, ग्रहण करने और सुनने की अतिरिक्त शक्ति दे। सकेगी।
| 3[134क. उच्चतम न्यायालय में अपील के लिए प्रमाण-पत्र.-— प्रत्येक उच्च न्यायालय, जो अनुच्छेद 132 के खंड (1) या अनुच्छेद 133 के खंड (1) या अनुच्छेद 134 के खंड (1) में निर्दिष्ट निर्णय, डिक्री, अंतिम आदेश या दंडादेश पारित करता है या देता है, इस प्रकार पारित किए जाने या दिए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र, इस प्रश्न का अवधारण कि उस मामले के संबंध में, यथास्थिति, अनुच्छेद 132 के खंड (१) या अनुच्छेद 133 के खंड (1) या अनुच्छेद 134 के खंड (1) के उपखंड (ग) में निर्दिष्ट प्रकृति का प्रमाण-पत्र दिया जाए या नहीं,
(क) यदि वह ऐसा करना ठीक समझता है तो स्वप्रेरणा से कर सकेगा; और
(ख) यदि ऐसा निर्णय, डिक्री, अंतिम आदेश या दंडादेश पारित किए जाने या दिए जाने के ठीक पश्चात् व्यथित पक्षकार द्वारा या उसकी ओर से मौखिक आवेदन किया जाता है तो करेगा।]
- विद्यमान विधि के अधीन फेडरल न्यायालय की अधिकारिता और शक्तियों का उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य होना.-जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय को भी किसी ऐसे विषय के संबंध में, जिसको अनुच्छेद 133 या अनुच्छेद 134 के उपबंध लागू
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 18 द्वारा (1-8-1979 से) “यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित करे’ के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 19 द्वारा (1-8-1979 से) “प्रमाणित करता है” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 20 द्वारा (1-8-1979 से) अंत:स्थापित।
नहीं होते हैं, अधिकारिता और शक्तियां होंगी यदि उस विषय के संबंध में इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले किसी विद्यमान विधि के अधीन अधिकारिता और शक्तियां फेडरल न्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य थीं। |
- अपील के लिए उच्चतम न्यायालय की विशेष इजाजत.-(1) इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, उच्चतम न्यायालय अपने विवेकानुसार भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी वाद या मामले में पारित किए गए या दिए गए किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दंडादेश या आदेश की अपील के लिए विशेष इजाजत दे सकेगा।
(2) खंड (1) की कोई बात सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी। न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित किए गए या दिए गए किसी निर्णय, अवधारण, दंडादेश या आदेश को लागू नहीं होगी।
टिप्पणी
यह अनुच्छेद सुधारात्मक अधिकारिता है, जो उच्चतम न्यायालय में विधि को स्पष्ट रूप से सुस्थापित करने के लिए विवेकाधिकार निहित करती है। यह विधि को संदिग्ध बनाने के बदले भविष्य के लिए उसे आबद्धकर पूर्व निर्णय बनाने के लिए विधि को प्रवर्तनीय बनाती है। संक्षेप में, यह विधि को घोषित करती है, जैसा कि अनुच्छेद 141 के | अधीन है। पंजाब राज्य वि० रफीक मसीह, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 696 : (2014) 8 एस० सी० सी० 883. इस अनुच्छेद के अधीन उच्चतम न्यायालय की शक्तियाँ अव्यवधानित हैं और निरपवाद रूप से तब | सहायता ली जाती है, जब उच्चतम न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि व्यक्ति के साथ मनमाने ढंग से कार्य किया | गया है। ओम प्रकाश सूद वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 3833 : (2003) 3 एस० सी० सी० 473. विशेष अनुमति याचिका में हस्तक्षेप अनुज्ञेय है, यदि आदेश विपर्यस्त है और विधि के स्थापित सिद्धान्त के विरुद्ध होने कारण विधितः असमर्थनीय है। एडारा हरीबाबू वि० तुलूरी वेंकट नरसिम्हा एवं अन्य, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 597 : (2016) 2 एस० सी० सी० 640. |
- निर्णयों या आदेशों का उच्चतम न्यायालय द्वारा पुनर्विलोकन.-संसद् द्वारा बनाई गई किसी | विधि के या अनुच्छेद 145 के अधीन बनाए गए नियमों के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय | को अपने द्वारा सुनाए गए निर्णय या दिए गए आदेश का पुनर्विलोकन करने की शक्ति होगी। |
- उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता की वृद्धि.-(1) उच्चतम न्यायालय को संघ सूची के विषयों में से किसी के संबंध में ऐसी अतिरिक्त अधिकारिता और शक्तियां होंगी जो संसद् विधि द्वारा प्रदान
करे। |
(2) यदि संसद् विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसी अधिकारिता और शक्तियों के प्रयोग का उपबंध करती है तो उच्चतम न्यायालय को किसी विषय के संबंध में ऐसी अतिरिक्त अधिकारिता और शक्तियां होंगी जो भारत सरकार और किसी राज्य की सरकार विशेष करार द्वारा प्रदान करे। |
- कुछ रिट निकालने की शादियों का उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त किया जाना.– संसद् विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 32 के खंड (2) में वर्णित प्रयोजनों से भिन्न किन्हीं प्रयोजनों के लिए ऐसे निदेश, आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई निकालने की शक्ति प्रदान कर सकेगी।
1[139क. कुछ मामलों का अंतरण.– 2[(1) यदि ऐसे मामले, जिनमें विधि के समान या सारतः समान प्रश्न अंतर्वलित हैं, उच्चतम न्यायालय के और एक या अधिक उच्च न्यायालयों के अथवा दो या अधिक उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित हैं और उच्चतम न्यायालय का स्वप्रेरणा से अथवा भारत के महान्यायवादी द्वारा या ऐसे किसी मामले के किसी पक्षकार द्वारा किए गए आवेदन पर यह समाधान हो जाता है कि ऐसे प्रश्न व्यापक महत्व के सारवान् प्रश्न हैं तो, उच्चतम न्यायालय उस उच्च न्यायालय या उन उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित मामले या मामलों को अपने पास मंगा सकेगा और उन सभी मामलों को स्वयं निपटा सकेगा :
परंत उच्चतम न्यायालय इस प्रकार मंगाए गए मामले को उक्त विधि के प्रश्नों का अवधारण करने के पश्चात ऐसे प्रश्नों पर अपने निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस उच्च न्यायालय को, जिससे मामला मंगा लिया। गया है, लौटा सकेगा और वह उच्च न्यायालय उसके प्राप्त होने पर उस मामले को ऐसे निर्णय के अनुरूप निपटाने के लिए आगे कार्यवाही करेगा।] ।
1.. संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 24 द्वारा (1-2-1977 से) अंत:स्थापित ।।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 21 द्वारा (1-8-1979 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित।
(2) यदि उच्चतम न्यायालय न्याय के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसा करना समीचीन समझता है तो वह सी उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित किसी मामले, अपील या अन्य कार्यवाही का अंतरण किसी अन्य 3 यालय को कर सकेगा।] |
- उच्चतम न्यायालय की आनुषंगिक शक्तियां.–संसद्, विधि द्वारा, उच्चतम न्यायालय की ऐसी नुपूरक शक्तियां प्रदान करने के लिए उपबंध कर सकेगी जो इस संविधान के उपबंधों में से किसी से संगत न हों और जो उस न्यायालय को इस संविधान द्वारा या इसके अधीन प्रदत्त अधिकारिता का अधिक नावी रूप से प्रयोग करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों। |
- उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि का सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होना.उच्चतम यालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होगी।
टिप्पणी
पूर्व निर्णय उस सिद्धान्त को अन्तर्विष्ट करते हुए न्यायिक विनिश्चय है, जो प्राधिकारित तत्व को निर्मित करता जिसे विनिश्चय आधार कहा जाता है। अन्तरिम आदेश, जो अन्तिम रूप से और निश्चायक रूप से विवाधक का निश्चय नहीं करता है, पूर्वनिर्णय नहीं हो सकता। असम राज्य वि० बराक उपाध्याय डी० यू० के० संस्था, ए०
ई० आर० 2009 एस० सी० 2249 : (2009) 5 एस० सी० सी० 694. । विधिक स्थिति पर विचार किए बिना न्यायालय का केवल निर्देश पूर्व निर्णय नहीं है। विष्णु दत्त शर्मा वि० मंजू र्मा, ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 2254 : (2009) 6 एस० सी० सी० 379. ।
न्यायालय को पूर्व विनिश्चय का अनुसरण करना चाहिए, जो अंगीकार किए गये मत से तर्क के बावजूद समय में रिवर्तन के साथ अडिग है। मेडले फार्मास्युटिकल्स लि० वि० केन्द्रीय आबकारी और सीमाशुल्क आयुक्त, 2011) 2 एस० सी० सी० 601.
पूर्व निर्णय का सिद्धान्त वहाँ लागू होगा, जहाँ न्यायालय का निर्णय उच्चतम न्यायालय के समक्ष अन्तिमता प्राप्त कया है। लैण्ड एक्वीजीशन आफिसर वि० कारी गौडा, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 2322 : (2010) एस० सी० सी० 708. | वृहत्तर संख्या की पीठ द्वारा अधिकथित विधि न्यूनतर या समान संख्या की किसी पश्चातवर्ती पीठ पर आबद्धक । वृहत्तर पीठ द्वारा बाद में अधिकथित विधि पर अभिभावी होगी। न्यू इण्डिया एश्योरेन्स कं०लि० वि० हिल्ली ल्टी परपज कोल्डस्टोरेज प्रा० लि०, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 86. । विनिश्चय, जो अनवधानता से है, आबद्धकर प्रभाव धारण करने के लिए इस अनुच्छेद के निबन्धनों में घोषित बधि नहीं है। राजस्थान राज्य वि० जगदीश नारायण चतुर्वेदी, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 157 = 2009) 12 एस० सी०सी० 49.
उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि के, यदि कोई हो, परिप्रेक्ष्य में दिए गए मामले में तथ्यों का मूल्यांकन कि ना केवल कुछ विनिश्चय या अन्य का अनुसरण करना सामान्य अनुक्रम में निष्कर्ष को शुद्ध करने के लिए न्यायाल * अधिकरण को निर्दिष्ट नहीं करता। ओरियण्टल इन्श्योरेंस कं० लि० वि० मीना वरियाल, ए० आई० आर० 207 एस० सी० 1609 : (2007) 5 एस० सी० सी० 482. | निर्णितानुसार का सिद्धान्त न्यायिक विनिश्चयों में निश्चितता और संगति की उन्नति करता है और यह विधि वे
कास में सहायता करता है। व्यक्तियों के लिए मार्ग निर्देश प्रदान करने के अतिरिक्त, कि परिणाम क्या होगा, य इ विधिक कार्यवाही का चुनाव करता है, तो सिद्धान्त न्यायिक प्रशासन की प्रणाली में लोगों के विश्वास में व रता है। अन्यथा भी यह अनिश्चितता, सन्देह को निवारित करने के लिए आज्ञापक आवश्यकता है। न्यायिक औचित्र और शालीनता माँग करती है कि देश के उच्चतम न्यायालय द्वारा अधिकथित विधि को प्रभावी किया जाना चाहिए। वरत संघ वि० मेजर एस० पी० शर्मा, (2014) 6 एस० सी० सी० 351. | जब उच्चतम न्यायालय निर्णय प्रदान करता है, तब यह सभी न्यायालयों पर आबद्धकर है। भारत के राज्य क्षेत्र भी प्राधिकारियों से उसकी सहायता में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। न्यायालय द्वारा विधि या निर्णय का वेचन उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि है। सोम मित्तल वि० कर्नाटक सरकार, ए० आई० आर० 200 स० सी० 1528 :(2008) 3 एस० सी० सी० 574. । । न्यायालय को उच्चतम न्यायालय के बहुमत के निर्णय का अनुसरण करना चाहिए और न कि अल्पमत क सर्स विडियोकान इण्डस्ट्रीज लि० वि० महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 2843, |
- उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन और प्रकटीकरण आदि के बारे देश.--(1) उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा। सा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्य है और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद
द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए और जब तक इस निमित्त इस प्रकार । उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगी। |
(2) संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाजिर कराने के, किन्हीं दस्तावेजों के प्रकटीकरण या पेश कराने के अथवा अपने किसी अवमान का अन्वेषण करने या दंड देने के प्रयोजन के लिए कोई आदेश करने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी।
- उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति.-(1) यदि किसी समय । राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो वह उस प्रश्न को विचार करने के लिये उस न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात् जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित कर। सकेगा।
(2) राष्ट्रपति अनुच्छेद 131 2[* * *] के परंतुक में किसी बात के होते हुए भी, इस प्रकार के • विवाद को, जो 3[उक्त परंतुक] में वर्णित है, राय देने के लिए उच्चतम न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा।
और उच्चतम न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात् जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय । प्रतिवेदित करेगा।
144, सिविल और न्यायिक प्राधिकारियों द्वारा उच्चतम न्यायालय की सहायता में कार्य किया। जाना.— भारत के राज्यक्षेत्र के सभी सिविल और न्यायिक प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय की सहायता में कार्य । करेंगे।
4[144क. विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के निपटारे के बारे में विशेष उपबंध.-[ संविधान (तैतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 5 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित] ।]
- न्यायालय के नियम आदि.-(1) संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय समय-समय पर, राष्ट्रपति के अनुमोदन से न्यायालय की पद्धति और प्रक्रिया के, साधारणतया, विनियमन के लिए नियम बना सकेगा जिसके अंतर्गत निम्नलिखित भी हैं, अर्थात्-
(क) उस न्यायालय में विधि-व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों के बारे में नियम;
(ख) अपीलें सुनने के लिए प्रक्रिया के बारे में, और अपीलों संबंधी अन्य विषयों के बारे में, जिनके अंतर्गत वह समय भी है जिसके भीतर अपीलें उस न्यायालय में ग्रहण की जानी । हैं, नियम;
(ग) भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तन कराने के लिए उस न्यायालय में कार्यवाहियों के बारे में नियम;
5[ (गग) 6[अनुच्छेद 139क] के अधीन उस न्यायालय में कार्यवाहियों के बारे में नियम;]
(घ) अनुच्छेद 134 के खंड (1) के उपखंड (ग) के अधीन अपीलों को ग्रहण किए जाने के
बारे में नियम;
- उच्चतम न्यायालय (डिक्री और आदेश) प्रवर्तन आदेश, 1954 (सं० आ० 47) देखिए।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) “के खंड (G)” शब्दों कोष्टकों और अंक का लोप किया गया।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) “उक्त खंड’ के स्थान पर प्रतिस्थापित। ।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 25 द्वारा (1-2-1977 से) अंत स्थापित।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 26 द्वारा (1-2-1977 से) अंत:स्थापित।।
- संविधान (तैतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 6 द्वारा (13-4-1978 से) “अनुच्छेद 131क और 139क” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
(ङ) उस न्यायालय द्वारा सुनाए गए किसी निर्णय या किए गए आदेश का जिन शर्तों के अधीन रहते हुए पुनर्विलोकन किया जा सकेगा उनके बारे में और ऐसे पुनर्विलोकन के लिए प्रक्रिया के बारे में, जिसके अंतर्गत वह समय भी है जिसके भीतर ऐसे पुनर्विलोकन के लिए आवेदन उस न्यायालय में ग्रहण किए जाने हैं, नियम;
(च) उस न्यायालय में किन्हीं कार्यवाहियों के और उनके आनुषंगिक खर्चे के बारे में, तथा उसमें र्यवाहियों के संबंध में प्रभारित की जाने वाली फीसों के बारे में नियम; ।
(छ) जमानत मंजूर करने के बारे में नियम; ।
(ज) कार्यवाहियों को रोकने के बारे में नियम;
(झ) जिस अपील के बारे में उस न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि वह तुच्छ या तंग करने वाली है अथवा विलम्ब करने के प्रयोजन से की गई है, उसके संक्षिप्त अवधारण के लिए उपबंध करने वाले नियम;
(त्र) अनुच्छेद 317 के खंड (1) में निर्दिष्ट जांचों के लिए प्रक्रिया के बारे में नियम।। (2) [[* * *] खंड (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, इस अनुच्छेद के अधीन बनाए गए नियम, उन न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या नियत कर सकेंगे जो किसी प्रयोजन के लिए बैठेंगे तथा एकल न्यायाधीशों और खंड न्यायालयों की शक्ति के लिए उपबंध कर सकेंगे। |
(3) जिस मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान् प्रश्न अंतर्वलित है। उसका विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिए या इस संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन निर्देश की सुनवाई करने के प्रयोजन के लिए बैठने वाले न्यायाधीशों की [[* * *] न्यूनतम संख्या] पांच होगी: | परन्तु जहाँ अनुच्छेद 132 से भिन्न इस अध्याय के उपबंधों के अधीन अपील की सुनवाई करने वाला न्यायालय पांच से कम न्यायाधीशों से मिलकर बना है और अपील की सुनवाई के दौरान उस न्यायालय का समाधान हो जाता है कि अपील में संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का ऐसा सारवान प्रश्न अंतर्वलित है। जिसका अवधारण अपील के निपटारे के लिए आवश्यक है वहां वह न्यायालय ऐसे प्रश्न को उस न्यायालय को, जो ऐसे प्रश्न को अंतर्वलित करने वाले किसी मामले के विनिश्चय के लिए इस खंड की अपेक्षानुसार गठित किया जाता है, उसकी राय के लिए निर्देशित करेगा और ऐसी राय की प्राप्ति पर उस अपील को उस राय के अनुरूप निपटाएगा। |
(4) उच्चतम न्यायालय प्रत्येक निर्णय खुले न्यायालय में ही सुनाएगा, अन्यथा नहीं और अनुच्छेद 143 के अधीन प्रत्येक प्रतिवेदन खुले न्यायालय में सुनाई गई राय के अनुसार ही दिया जाएगा अन्यथा नहीं। |
(5) उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रत्येक निर्णय और ऐसी प्रत्येक राय, मामले की सुनवाई में उपस्थित न्यायाधीशों की बहुसंख्या की सहमति से ही दी जाएगी, अन्यथा नहीं, किन्तु इस खंड की कोई बात किसी ऐसे न्यायाधीश को, जो सहमत नहीं है, अपना विसम्मत निर्णय या राय देने से निवारित नहीं करेगी। |
- उच्चतम न्यायालय के अधिकारी और सेवक तथा व्यय.-(1) उच्चतम न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियां भारत का मुख्य न्यायमूर्ति करेगा या उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या अधिकारी करेगा जिसे वह निर्दिष्ट करे:
परन्तु राष्ट्रपति नियम द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं दशाओं में, जो नियम में निर्दिष्ट की जाएं, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहले से ही न्यायालय से संलग्न नहीं है, न्यायालय से संबंधित विनिर्दिष्ट पद पर संघ लोक सेवा आयोग से परामर्श करके ही नियुक्त किया जाएगा, अन्यथा नहीं। |
(2) संसद् द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय के अधिकारियों
और सेवकों की सेवा की शर्ते ऐसी होंगी जो भारत के मुख्य न्यायमूर्ति या उस न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा, जिसे भारत के मुख्य न्यायमूर्ति ने इस प्रयोजन के लिए नियम बनाने के लिए प्राधिकृत किया है, बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएं:
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 26 द्वारा (1-2-1977 से) खंड (3) के उपबंधों” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
- संविधान (तैन्तालिस्वा संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 6 द्वारा (13-4-1979 से) कुछ शब्दों, अंकों और अक्षरों का लोप किया गया।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 26 द्वारा (1-2-1977 से) “न्यूनतम संख्या के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
परन्तु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिए, जहाँ तक व वेतन, भत्तों, छुट्टी या पॅशनों से संबंधित हैं, राष्ट्रपति के अनुमोदन की अपेक्षा होगी।
(3) उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उर न्यायालय के अधिकारियों और मैत्र को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, भारत की संचित निधि र आरित होंगे और उस न्यायालय द्वारा ली गई फीस और अन्य धनराशियां उप निधि का भाग हाँगी ।
- निर्वचन,– इस अध्याय में और भाग 6 के अध्याय में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि के किसी सारवान् प्रश्न के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उनके अंतर्गत भारत शासन अधिनियम, 1935 के (जिसके अंतर्गत उस अधिनियम की मंशोधक या अनुपूरक कोई अधिनियमिति है)। अथवा किसी सपरिषद् आदेश या उसके अधीन बनाए गए किसी आदेश के अथवा भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के या उसके अधीन बनाए गए किसी आदेश के निर्वचन के बारे में विधि के किसी। सारवान् प्रश्न के प्रति निर्देश है।
अध्याय 5 (Chapter V)
भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (Comptroller and Auditor General of India)
- भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक,- (1) भारत का एक नियंत्रक-महालेखापरीक्षक होगा। जिसको राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा और उसे उसके पद से केवल उसी रीति से और उन्हीं आधारों पर हटाया जाएगा जिस रीति से और जिन आधारों पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है।
(2) प्रत्येक व्यक्ति, जो भारत का नियंत्रक-महालेखापरीक्षक नियुक्त किया जाता है, अपना पद ग्रहण करने से पहले, राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा।
(3) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक का वेतन और सेवा की अन्य शर्ते ऐसी होगी जो संसद्, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक वे इस प्रकार अवधारित नहीं की जाती हैं तब तक ऐसी होंगी जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं:
परन्तु नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के वेतन में और अनुपस्थिति छुट्टी, पेंशन या निवृत्ति की आयु के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
(4) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, अपने पद पर न रह जाने के पश्चात्, भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी और पद का पात्र नहीं होगा। |
(5) इस संविधान के और संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, भारतीय लेखापरीक्षा और लेखा विभाग में सेवा करने वाले व्यक्तियों की सेवा की शर्ते और नियंत्रकमहालेखापरीक्षक की प्रशासनिक शक्तियां ऐसी होंगी जो नियंत्रक-महालेखापरीक्षक से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएं।
(6) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उस कार्यालय में सेवा करने वाले व्यक्तियों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, भारत की संचित निधि पर भारत होंगे। |
- नियंत्रक-महालेखापरीक्षक के कर्तव्य और शक्तियाँ.- नियंत्रक-महालेखापरीक्षक संघ के
और रा ३ तथा किसी अन्य प्राधिकारी या निकाय के लेखाओं के संबंध में ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जिन्हें संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किया जाए और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, संघ के और राज्यों के लेखाओं के संबंध में ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जो इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले क्रमश: भारत डोमिनियन के और प्रांतों के लेखाओं के संबंध में भारत के महालेखापरीक्षक को प्रदत्त थी या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य थी।
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