The Constitution of India Legislative Power of The Governor LLB Law
The Constitution of India Legislative Power of The Governor LLB Law:- The Constitution of India Chapter IV Legislative Power of The Governor LLB Low Study Material Notes Previous Year Mock Test Paper in Hindi (English)
अध्याय 4 (Chapter IV)
- विधान-मंडल के विश्रांतिकाल में अध्यादेश प्रख्यापित करने की राज्यपाल की शक्ति–
(1) उस समय को छोड़कर जब किसी राज्य की विधान सभा सत्र में है या विधान परिषद् वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदन सत्र में हैं, यदि किसी समय राज्यपाल का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी । परिस्थितियां विद्यमान हैं जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो वह ऐसे । अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उन परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत होंः ।
परन्तु राज्यपाल, राष्ट्रपति के अनुदेशों के बिना, कोई ऐसा अध्यादेश प्रख्यापित नहीं करेगा, यदि
(क) वैसे ही उपबंध अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को विधान-मंडल में पुरःस्थापित किए जाने के लिए राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी की अपेक्षा इस संविधान के अधीन होती; या ।
(ख) वह वैसे ही उपबंध अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए। | आरक्षित रखना आवश्यक समझता; या
(ग) वैसे हर उपबंध अंतर्विष्ट करने वाला राज्य के विधान-मंडल का अधिनियम इस संविधान के अधीन तब तक अविधिमान्य होता जब तक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त नहीं हो गई होती।
(2) इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो राज्य के विधानमंडल के ऐसे अधिनियम का होता है जिसे राज्यपाल ने अनुमति दे दी है, किन्तु प्रत्येक ऐसा अध्यादेश
(क) राज्य की विधान सभा के समक्ष और विधान परिषद् वाले राज्य में दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा तथा विधान-मंडल के पुनः समवेत होने से छह सप्ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले विधान सभा उसके अननुमोदन का संकल्प पारित । कर देती है और यदि विधान परिषद् है तो वह उससे सहमत हो जाती है तो, यथास्थिति,
- हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1970 (1970 का 53) की धारा 46 द्वारा (25-1-1971 से) अंत:स्थापित ।।
- पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 (1971 का 81) की धारा 71 द्वारा (21-1-1972 से) हिमाचल प्रदेश राज्य के विधान-मंडल के स्थान पर प्रतिस्थापित ।।
- मिजोरम राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 34) की धारा 39 द्वारा (20-2-1987 से) अंत:स्थापित।
- अरुणाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 69) की धारा 42 द्वारा (20-2-1987 से) मिजोरम राज्य के विधान-मंडल” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।।
- 5. गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 (1987 का 18) की धारा 63 द्वारा (30-5-1987 से) “अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम” के स्थान पर प्रतिस्थापित।।
संकल्प के पारित होने पर या विधान परिषद् द्वारा संकल्प से सहमत होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा; और (ख) राज्यपाल द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण.-जहां विधान परिषद् वाले राज्य के विधान-मंडल के सदन, भिन्न-भिन्न तारीखों को पुनः समवेत होने के लिए, आहत किए जाते हैं वहाँ इस खंड के प्रयोजनों के लिए, छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तारीखों में से पश्चात्वर्ती तारीख से की जाएगी।
(3) यदि और जहां तक इस अनुच्छेद के अधीन अध्यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है जो राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम में, जिसे राज्यपाल ने अनुमति दे दी है, अधिनियमित किए जाने पर विधिमान्य नहीं होता तो और वहाँ तक वह अध्यादेश शून्य होगाः ।।
परन्तु राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम के, जो समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के बारे । में संसद के किसी अधिनियम या किसी विद्यमान विधि के विरुद्ध है, प्रभाव से संबंधित इस संविधान के उपबंधों के प्रयोजनों के लिए यह है कि कोई अध्यादेश, जो राष्ट्रपति के अनुदेशों के अनुसरण में इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित किया जाता है, राज्य के विधान-मंडल का ऐसा अधिनियम समझा जाएगा जो । राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा गया था और जिसे उसने अनुमति दे दी है। (4) [* * *]
अध्याय 5 (Chapter V)
राज्यों के उच्च न्यायालय (The High Courts in The Sates)
- राज्यों के लिए उच्च न्यायालय.-2[* * *] प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा।
- उच्च न्यायालयों का अभिलेख न्यायालय होना.- प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय । होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी।
- उच्च न्यायालयों का गठन.- प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूर्ति और ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे। | 4[* * *]
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्ते.-(1) 5[अनुच्छेद । 124क में निर्दिष्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर, राष्ट्रपति] अपने हस्ताक्षर और मुद्रा । सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश 6[अपर या । कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा । में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह 7[बासठ वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है]:
- संविधान (अड़तीसवां संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 3 द्वारा खंड (4) (भूतलक्षी प्रभाव से) अंत:स्थापित किया। गया और संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 27 द्वारा (20-6-1979 से) इसका लोप कर दिया । गया।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) कोष्टक और अंक (1)” का लोप किया गया। संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) खंड (2) और (3) का लोप किया गया।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 11 द्वारा (1-11-1956 से) परंतुक का लोप किया गया।
- संविधान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 6 द्वारा (13-4-2015 से) ”भारत के मुख्य न्यायमति से उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मरव्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्, राष्ट्रपति” शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा (1-11-1956 से) 12 द्वारा ‘‘तब तक पद धारण करेगा जब तक कि वह साठ वर्ष की आयु प्राप्त न कर ले” के स्थान पर प्रतिस्थापित।।
- संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा (5-10-1963 से) साठ वर्ष” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
(क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा;
(ख) किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा;
(ग) किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र में किसी अन्य उच्च न्यायालय को, अंतरित किए जाने पर रिक्त हो जाएगा।
(2) कोई व्यक्ति, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा। जब वह भारत का नागरिक है और
(क) भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है, या
(ख) किसी [* * *] उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार । । कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है; -[* * *]
स्पष्टीकरण.-इस खंड के प्रयोजनों के लिए[
- भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या उसने किसी अधिकरण के सदस्य। का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है। जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है;] ।
4[ (कक)] किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी
सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात् । [न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है। अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का । विशेष ज्ञान अपेक्षित है];
(ख) | भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता ।
रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी। सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने, यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसे किसी क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है।
[(3) यदि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का विनिश्चय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति द्वारा किया जायेगा और राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होगा।] ।
- उच्चतम न्यायालय से संबंधित कुछ उपबंधों का उच्च न्यायालयों को लागू होना.-अनुच्छेद 124 के खंड (4) और खंड (5) के उपबंध, जहां-जहां उनमें उच्चतम न्यायालय के प्रति निर्देश हैं वहां
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य में के शब्दों का लोप किया गया।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 36 द्वारा (3-1-1977 से) शब्द ‘या” और उपखंड (ग) अंत:स्थापित किए गए और संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) उनका लोप किया गया।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) अंत:स्थापित।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (क) को खंड (कक) के रूप में पुन: अक्षरांकित किया गया।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 36 द्वारा (3-1-1977 से) न्यायिक पद धारण किया हो। के स्थान पर प्रतिस्थापित।।
- संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा ( भूतलक्षी प्रभाव से) अंत:स्थापित ।
वहां उच्च न्यायालय के प्रति निर्देश प्रतिस्थापित करके, उच्च न्यायालय के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उच्चतम न्यायालय के संबंध में लागू होते हैं।
- उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान.-1[* * *] उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति, अपना पद ग्रहण करने से पहले, उस राज्य के राज्यपाल यो उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा।
- स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि-व्यवसाय पर निबंधन.-कोई व्यक्ति, जिसने इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, उच्चतम न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों के सिवाय भारत में किसी न्यायालय या किसी प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं करेगा।
स्पष्टीकरण.-इस अनुच्छेद में, “उच्च न्यायालय” पद के अंतर्गत संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 के प्रारंभ से पहले विद्यमान पहली अनुसूची के भाग ख में विनिर्दिष्ट राज्य का उच्च न्यायालय नहीं है।
| 221. न्यायाधीशों के वेतन आदि.-4[ (1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो संसद्, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।]
(2) प्रत्येक न्यायाधीश ऐसे भत्तों का तथा अनुपस्थिति छुट्टी और पेंशन के संबंध में ऐसे अधिकारों का, जो संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन समय-समय पर अवधारित किए जाएं, और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किए जाते हैं तब तक ऐसे भत्तों और अधिकारों को, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगाः ।
परंतु किसी न्यायाधीश के भत्तों में और अनुपस्थिति छुट्टी या पेंशन के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
|222. किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण.-(1) राष्ट्रपति, [अनुच्छेद 124क में निर्दिष्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर] [* * * किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण कर सकेगा। |
7[(2) जब कोई न्यायाधीश इस प्रकार अंतरित किया गया है या किया जाता है तब वह उस अवधि में दौरान, जिसके दौरान वह संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 के प्रारंभ के पश्चात् दूसरे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवा करता है, अपने वेतन के अतिरिक्त ऐसा प्रतिकात्मक भत्ता, ऊ संसद् विधि द्वारा अवधारित करे, और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किया जाता है तब तक ऐस प्रतिकारात्मक भत्ता, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा नियत करे, प्राप्त करने का हकदार होगा।] |
- कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति,-जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति = पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायमूर्ति अनुपस्थिति के कारण या अन्यथा अपने पद के कर्तव्यों का पालन |
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) “किसी राज्य में शब्दों का लोप किया गया।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 13 द्वारा (1-11-1956 से) अनुच्छेद 220 के स्थान प्रतिस्थापित ।
- 1 नवम्बर, 1956.
- संविधान (चौवनवां संशोधन) अधिनियम, 1986 की धारा 3 द्वारा (1-4-1986 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित
- संविधान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 7 द्वारा (13-4-2015 से) ‘भारत के मुख्य न्यायमति परामर्श करने के पश्चात् ” शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसि ति, भारत संघ ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 14 द्वारा (1-11-1956 से) “भारत के राज्यक्षेत्र में के” शब्द लोप किया गया। संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 5 द्वारा (5-10-1963 से) अंत:स्थापित।
- संविधान (स संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 14 द्वारा (1-11-1956 से) मूल खंड (2) का लोप किया गया।
करने में असमर्थ है तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक न्यायाधीश, जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
[224. अपर और कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति.-(1) यदि किसी उच्च न्यायालय के कार्य में किसी अस्थायी वृद्धि के कारण या उसमें कार्य की बकाया के कारण राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि उस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या को तत्समय बढ़ा देना चाहिए तो 2[राष्ट्रपति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के परामर्श से] सम्यक् रूप से अर्हित व्यक्तियों को दो वर्ष से अधिक की ऐसी अवधि के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करे, उस न्यायालय के अपर न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगा।
(2) जब किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न कोई न्यायाधीश अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है या मख्य न्यायमूर्ति के रूप में अस्थायी रूप से कार्य करने के लिए नियुक्त किया जाता है 3[तब राष्ट्रपति, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के परामर्श से, सम्यक् रूप से ] अहित किसी व्यक्ति को तब तक के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकेगा जब तक स्थायी न्यायाधीश अपने कर्तव्यों को फिर से नहीं संभाल लेता है।
(3) उच्च न्यायालय के अपर या कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति 4[बासठ वर्ष ] की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात् पद धारण नहीं करेगा।]
[224क, उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति.--इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, 6[ राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग किसी राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उसे किये गये किसी निर्देश पर, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से ] किसी व्यक्ति से, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जिससे इस प्रकार अनुरोध किया जाता है, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान ऐसे भत्तों का हकदार होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे और उसको उस उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियां और विशेषाधिकार होंगे, किन्तु उसे अन्यथा उस उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नहीं समझा जाएगा:
परन्तु जब तक यथावत व्यक्ति उन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की सहमति नहीं दे देता है तब तक इस अनुच्छेद की कोई बात उससे ऐसा करने की अपेक्षा करने वाली नहीं समझो जाएगी।
- विद्यमान उच्च न्यायालयों की अधिकारिता.-इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए | और इस संविधान द्वारा समुचित विधान-मंडल को प्रदत्त शक्तियों के आधार पर उस विधानमंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी विद्यमान उच्च न्यायालय की अधिकारिता और
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 15 द्वारा (1-11–1956 से) अनुच्छेद 224 के स्थान पर प्रतिक्षित।
- संविधान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 8 द्वारा (13-4-2015 से) “तो राष्ट्रपति सम्यक् रूप से शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए आई आर० 2276 एस० सी० 117 दाल मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है। संविधान निन्यानवां संशोधनअधिनियम, 2014 की धारा 8 द्वारा (13-4-2015 से) *तब राष्ट्रपति सम्यक् रूप से शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित । यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ने रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत स ए आई आर 2016 एस सी 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश दारा अभिडित कर दिया गया हैं। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 6 द्वारा (5-10-1963 से) * साठ वर्ष के स्थान पर प्रतिस्थापित है । संविधान (पंद्रह संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 7 द्वारा (5-10-1963 से) अंत:स्थापित।। संविधान निन्यानवा संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 9 द्वारा (13-14 2015 से } *किसी राज्य के उद्ध न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति, किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से ” शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित।
उसमे प्रशासित विधि तथा उस न्यायालय में न्याय प्रशासन के संबंध में उसके न्यायाधीशों की अपनी-अपनी 78 । तयां, जिनके अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने की शक्ति तथा उस न्यायालय और उसके सदस्यों की का चाहे वे अकेले बैंठे या खंड न्यायालयों में बैठे विनियमन करने की शक्ति है, वही होंगी जो इस । संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले थीं: |
1[परन्तु राजस्व संबंधी अथवा उसका संग्रहण करने में आदिष्ट या किए गए किसी कार्य संबंधी विषय की बाबत उच्च न्यायालयों में से किसी की आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग, इस संविधान के प्रांरभ से ठीक पहले जिस किसी निबंधन के अधीन था वह निर्बधन ऐसी अधिकारिता के प्रयोग को ऐसे प्रारंभ के पश्चात् लागू नहीं होगा।]
टिप्पणी (Notice)
इस अनुच्छेद के अधीन किसी विद्यमान उच्च न्यायालय की अधिकारिता और प्रशासित विधि परिरक्षित की जाती । । मदास बार एसोशियेशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 1571 : (2014) 10 एस० सी० सी० 1. |
इस अनच्छेद के अधीन शक्तियों के प्रयोग में उच्च न्यायालय द्वारा विरचित नियम केवल प्रक्रिया के नियम हैं। और मल विधि को गठित नहीं करते और वे नियम अनुच्छेद 348 (2) में अन्तर्विष्ट संवैधानिक प्रावधानों के भावार्थ को प्रभावित नहीं कर सकते। डॉ० विजय लक्ष्मी साधो वि० जगदीश, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 600 : (2001) 2 एस० सी० सी० 247. |
2[226. कुछ रिट निकालने की उच्च न्यायालय की शक्ति.-(1) अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी 3[ * * *] प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, [ भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए] उन राज्यक्षेत्रों के भीतर किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश, आदेश या रिट जिनके अंतर्गत 4[बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई] निकालने की शक्ति होगी।]
(2) किसी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निदेश, आदेश या रिट निकालने की खंड 1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन राज्यक्षेत्रों के संबंध में, जिनके भीतर ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिए वादहेतुक पूर्णतः या भागत: उत्पन्न होता है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी उच्च न्यायालय द्वारा भी, इस बात के होते हुए भी किया जा सकेगा कि ऐसी सरकार या प्राधिकारी का स्थान या ऐसे व्यक्ति का निवासस्थान उन राज्यक्षेत्रों के भीतर नहीं है।
[(3) जहां कोई पक्षकार, जिसके विरुद्ध खंड (1) के अधीन किसी याचिका पर या उससे संबंधित किसी कार्यवाही में व्यादेश के रूप में या रोक के रूप में या किसी अन्य रीति से कोई अंतरिम आदेश
(क) ऐसे पक्षकार को ऐसी याचिका की और ऐसे अंतरिम आदेश के लिए अभिवाक् के समर्थन | में सभी दस्तावेजों की प्रतिलिपियां, और ।
(ख) ऐसे पक्षकार को सुनवाई का अवसर, दए बिना किया गया है, ऐसे आदेश को रद्द कराने के लिए उच्च न्यायालय को आवेदन करता है और ऐसे आवदन को एक प्रतिलिपि उस पक्षकार को जिसके पक्ष में ऐसा आदेश किया गया है या उसके काउंसेल को दता है वहां उच्च न्यायालय उसकी प्राप्ति की तारीख से या ऐसे आवेदन की प्रतिलिपि इस प्रकार दिए जाने की तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर, इनमें से जो भी पश्चातवती हो, या जहां उच्च न्यायालय उस अवधि के अंतिम दिन बंद है वहां उसके ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति से पहले जिस दिन उच्च न्यायालय
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 29 द्वारा (20-6-1979 से) अंत:स्थापित । संविधान (बयालीसवा संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 37 द्वारा (1-2-1977 से) मूल परंतुक का लोप किया गया था।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 38 द्वारा (1-2-1977 से) अनुच्छेद 226 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
- संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 7 द्वारा (13-4-1978 से) “किन्तु अनुच्छेद 31क और अनुच्छेद 226क के उपबंधों के अधीन रहते हए” शब्दों, अंकों और अक्षरों का लोप किया गया।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1-8-1979 से) कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित।
- संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1-8-1979 से) खंड (3), (4), (5) और (6) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
खुला है, आवेदन को निपटाएगा और यदि आवेदन इस प्रकार नहीं निपटाया जाता है तो अंतरिम आदेश यथास्थिति, उक्त अवधि की या उक्त ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति पर रद्द हो जाएगा।] |
1[(4) इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति से, अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चत न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण नहीं होगा।
टिप्पणी
यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय में मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए कि व्यक्ति या प्राधिकारी को विभिन्न रिट जारी करने की शक्ति निहित करता है। मद्रास बार एसोसिएशन वि० भारः संघ, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 1571 :(2014) 10 एस० सी० सी० 1.
हमारे संविधान में शक्तियों का पृथक्करण इतना कठोर नहीं है, जैसा कि संयुक्त राज्य में शक्तियों के पृथक्कर के तत्वों में से एक जाँच और सन्तुलन की प्रणाली है। इसे भी हमारे संविधान द्वारा मानयता दी गयी है और अनुच्छे 226 तथा अनुच्छेद 32 (न्यायिक पुनर्विलोकन) जाँच और सन्तुलन के लक्षणों में से एक है। सुप्रीम कोर एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन एवं एक अन्य वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 :(2016) 5 एस० सी० सी० 1.
। उच्च न्यायालय को वाद के पक्षकारों को उन कारकों को जिनका न्यायालय में पक्षकारों के बीच मुकदमे के अवधारित करने में मूल्यांकन किया था, जानने के लिए समर्थ बनाने के लिए इस अनुच्छेद के अधीन उसके असाधारण अधिकारिता के प्रयोग में पारित आदेशों के समर्थन में कारणों को अभिलिखित करना चाहिए। पी० शेषाद्रि वि० मंगती गोपाल रेड्डी , ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 1883 :(2011) 5 एस० सी० सी० 484.
इस अनुच्छेद के अधीन उच्च न्यायालय की अधिकारिता साम्यापूर्ण और वैवेकिक है। उच्च न्यायालय की शक्ति की अन्याय तक पहुंचने के लिए प्रयोग किए जाने की अपेक्षा की जाती है, जहाँ कहीं यह पाया जाता है। ईस्टर्न कोल फील्ड्स लि० वि० बजरंगी रविदास, (2014) 13 एस० सी० सी० 681.
जैसा कि अनुच्छेद 12 में उपबन्धित है, किसी इकाई को प्राधिकारी होना अभिधारित किया जाता है तो उसके परिणामस्वरूप यह अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय की रिट याचिका के अध्यधीन हो जाती है। डॉ० जनत जैया पॉल वि० एस० आर० एम० विश्वविद्यालय, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 73.
उच्च न्यायालय की अन्तर्निहित अधिकारिता का प्रयोग आदेशिका के दुरुपयोग को निवारित करने या न्याय के उद्देश्य को सुनिश्चित करने के लिए कार्यवाही को विखण्डित करने के लिए किया जा सकता है। भारत संघ वि. रमेश गाँधी, (2012) 1 एस० सी० सी० 476.।
सरकार को नीति को परिवर्तित करने की शक्ति और क्षमता है, यदि नीति परिवर्तित की जाती है तो किसी को शिकायत करने की जरूरत नहीं है, लोकनीति को केवल तब चुनौती दी जा सकती है, जहाँ वह कुछ संवैधानिक या कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करती है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन वि० मध्यप्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 1989 : (2011) 7 एस० सी० सी० 639. |
इस अनुच्छेद के अधीन कार्यवाही में, उच्च न्यायालय अनुशासनिक प्राधिकारी के निष्कर्ष पर अपीलीय प्राधिकारी के रूप में सुनवायी नहीं करता और जहाँ तक आनुशासनिक प्राधिकारी के निष्कर्ष का समर्थन कुछ साक्ष्य द्वारा किया जाता है। वहाँ उच्च न्यायालय साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन नहीं करता और साक्ष्य पर भिन्न और स्वतन्त्र निष्कर्ष पर आता है। भारतीय स्टेट बैंक वि० रामलाल भास्कर एवं एक अन्य, (2011) 10 एस० सी० सी० 249. । न्यायालय द्वारा राज्यनीति का मूल्यांकन अनुज्ञेय नहीं है। केरल बार होटल्स एसोसियेशन एवं एक अन्य वि० केरल राज्य एवं अन्य, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 163. न्यायालय को नीति के मामलों में या सरकार के किसी विभाग या कानूनी निकायों के दिन प्रतिदिन के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। भारत संघ वि० जे० डी० सूर्यवंशी, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3605 : (2011) 13 एस० सी० सी० 167.।
धिर रिट जारी करते समय इस अनुच्छेद के अधीन उच्च न्यायालय की शक्तियाँ अत्यधिक व्यापक हैं। यदि कल्पिक उपचार है, जो विशिष्ट मामले अधिकारिता का प्रयोग करने से उच्च न्यायालय को प्रवारित नहीं करता वैकल्पिक कानुनी उपचारों की दृष्टि में, जब उच्च न्यायालय इस अनुच्छेद के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करने से इनकार करता है, यह केवल स्वअधिरोपित निर्बन्धन है। डी० आर० इण्टरप्राइजेज लि० वि० सहायक कले सीमाशुल्क एवं अन्य, 2015 (8) स्केल 686. 1. संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1-8-1979 से), खंड (7) को खंड (4) के रूप में पुनसँख्यांकित किया गया।
ऐसा कोई सार्वभौमिक नियम या विधि का सिद्धान्त नहीं है, जो रिट न्यायालय को तथ्यों के विवादास्पद प्रश्न को 80 अन्तर्यस्त करने वाले न्यायनिर्णयन को स्वीकार करने से वर्जित करता है। वास्तव में विधिक सिद्धान्त के क्षेत्र में, कोई उन या विवाद अनुच्छेद 226 की न्याय निर्णायक अधिकारिता के परे होगा, यदि ऐसा न्याय निर्णयन मौखिक साक्ष्य ओर लेने की अपेक्षा करेगा। लेकिन, प्रज्ञा के मामले के रूप में, अनुच्छेद के अधीन उच्च न्यायालय सामान्यता उस विवाद को स्वीकार करेगा, जो विधि के सम्यक लागू करने के लिए सही तथ्यों को अवधारित करने के लिए चतिवादित प्रश्नों और पक्षकारों के परस्पर विरोधी दावों का न्याय निर्णयन करने के लिए उससे अपेक्षा करेगा। मेसर्स ल ईस्टेट एजेन्सीज वि० गोवा सरकार, ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 3438 : (2012) 12 एस० सी० सी० 170. ।
इस अनच्छेद के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करते समय उच्च न्यायालय परिसीमा के किसी कठोर नियम द्वारा आबद्ध नहीं है। यदि सरकारी कार्यवाही की ऋजुता से सम्बन्धित लोक महत्व का सारभूत विवाद्यक उत्पन्न होता है, तो न्यायालय तक पहुँचने के लिए विलम्बित दृष्टिकोण न्यायालय द्वारा अधिकारिता के प्रयोग में स्थिर नहीं होगा। के० ली, रामचन्द्र राजे अर्श (मृत) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा एवं अन्य वि० कर्नाटक राज्य एवं अन्य, (2016) 3 एस० सी० सी० 422. |
1[226क. अनुच्छेद 226 के अधीन कार्यवाहियों में केन्द्रीय विधियों की सांविधानिक वैधता पर विचार न किया जाना।.-[ संविधान (तैतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 8 द्वारा (13-478 से) निरसित] ।] । 227. सभी न्यायालयों के अधीक्षण की उच्च न्यायालय की शक्ति.-2[(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, सभी न्यायालयों और अधिकरणों का अधीक्षण करेगा।]
(2) पूर्वगामी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय
(क) ऐसे न्यायालयों से विवरणी मंगा सकेगा; ।
(ख) ऐसे न्यायालयों की पद्धति और कार्यवाहियों के विनियमन के लिए साधारण नियम और
| प्ररूप बना सकेगा, और निकाल सकेगा तथा विहित कर सकेगा; और
(ग) किन्हीं ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और । लेखाओं के प्ररूप विहित कर सकेगा। |
(3) उच्च न्यायालय उन फीसों की सारणियां भी स्थिर कर सकेगा जो ऐसे न्यायालयों के शैरिफ को। तथा सभी लिपिकों और अधिकारियों को तथा उनमें विधि-व्यवसाय करने वाले अटर्नियों, अधिवक्ताओं और । प्लीडरों को अनुज्ञेय होंगी: |
परन्तु खंड (2) या खंड (3) के अधीन बनाए गए कोई नियम, विहित किए गए कोई प्ररूप या स्थिर की गई कोई सारणी तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबंध से असंगत नहीं होगी और इनके लिए राज्यपाल के पूर्व अनुमोदन की अपेक्षा होगी।
| (4) इस अनुच्छेद की कोई बात उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या । उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण पर अधीक्षण की शक्तियां देने वाली नहीं समझी जाएगी। (5) 3[* * *]
टिप्पणी
इस अनुच्छेद का मुख्य उद्देश्य उच्च न्यायालय द्वारा उसके क्षेत्र के अन्तर्गत न्याय के प्रशासन पर कठोर प्रशासनिक और न्यायिक नियन्त्रण रखना है। इस अनच्छेद के अधीन उच्च न्यायालय की अधीक्षण की शक्ति किसी परिनियम द्वारा। नियन्त्रित नहीं की जा सकती। शालिनी श्याम शेटटी वि० राजेन्द्र शंकर पाटिल, (2010 ) 8 एस० सी० सी० 329.
| इस अनुच्छेद के अधीन अधिकारिता अनच्छेद 226 के अधीन अधिकारिता से भिन्न है। न्यायिक आदेश को उता अपील या पुनरीक्षण द्वारा या अनुच्छेद 227 के अधीन निहित हो सकती थी और न कि अनुच्छेद 226 और छद 32 के अधीन रिट द्वारा। अनच्छेद 226 के अधीन कार्यवाही उच्च न्यायालय की मूल अधिकारिता के प्रयोग में
- संविधान ( बयां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 39 द्वारा (1-2-1977 से) अंत:स्थापित ।
- खण्ड (1) संविधान संशोधन) अधिनियम 1976 की धारा 40 द्वारा (1-2-1977 से) और तत्पश्चात् संविधान ६ लालसिवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 31 द्वारा (20-6-1979 से) प्रतिस्थापित होकर उपरोक्त रूप में आया। |
- संविधान संविधान (बयालीस पथन) अधिनियम, 1976 की धारा 40 द्वारा (1-2-1977 से) खंड (5) अंत:स्थापित किया गया भी उसका संविधान (चवलासवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 31 द्वारा (20-6-1979 से) लोप किया गया।
है जब कि अनुच्छेद 227 के अधीन कार्यवाही मूल नहीं है बल्कि केवल पर्यवेक्षणीय है। राधेश्याम वि० छबिनाथ, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 3269 : (2015) 5 एस० सी० सी० 423. | अपीलीय या पुनरीक्षणीय अधिकारिता परिनियमों द्वारा विनियमित की जाती है, जब कि इस अनुच्छेद के अधीन अधीक्षण की शक्ति संवैधानिक है। यद्यपि शक्ति अपील के सामान्य न्यायालय की शक्ति के समान हैं, फिर भी अनुच्छेद 227 के अधीन शक्ति का यदाकदा और केवल समुचित मामलों में अधीनस्थ न्यायालयों और अधिकरणों को उनके प्राधिकार की सीमाओं के अन्तर्गत रखने के प्रयोजन के लिये प्रयोग किये जाने का आशय है और न कि केवल त्रुटियों को सुधारने के लिये। राधेश्याम वि० छबिनाथ, ए० आई०आर० 2015 एस० सी० 3269 : (2015) 5 एस० सी०सी० 423.
इस अनुच्छेद के अधीन, हस्तक्षेप की शक्ति यह देखते हुये सीमित है कि अधिकरण अपने प्राधिकार की सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करता है। पश्चिम बंगाल राज्य वि० समर कुमार सरकार, (2009) 15 एस० सी०
सी० 444.
शक्ति का प्रयोग घोर अन्याय या न्याय की विफलता उत्पन्न करने वाले मामलों में किया जा सकता है, जैसे जब (i) न्यायालय या अधिकरण ने अधिकारिता धारण किया है, जो उसको नहीं है, (ii) अधिकारिता का, जिसे वह धारण नहीं करता, प्रयोग करने में असफल रहा है, ऐसी असफलता न्याय की असफलता से उत्पन्न हुयी है और (iii) अधिकारिता, यद्यपि उपलब्ध है, का प्रयोग ऐसे ढंग में किया जा रहा है, जो अधिकारिता की सीमा का अतिक्रमण करने के समान है। राधेश्याम वि० छबिनाथ, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 3269 : (2015) 5 एस० सी० सी० 423.
- कुछ मामलों का उच्च न्यायालय को अंतरण.-यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में लंबित किसी मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में। विधि का कोई सारवान् प्रश्न अंतवलित है जिसका अवधारण मामले के निपटारे के लिए आवश्यक है 1[तो वह 2[* * *] उस मामले को अपने पास मंगा लेगा और-]
(क) मामले को स्वयं निपटा सकेगा, या ।
(ख) उक्त विधि के प्रश्न का अवधारण कर सकेगा और उस मामले को ऐसे प्रश्न पर निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस न्यायालय को, जिससे मामला इस प्रकार मंगा लिया गया है, लौटा सकेगा और उक्त न्यायालय उसके प्राप्त होने पर उस मामले को ऐसे निर्णय के अनुरूप निपटाने के लिए आगे कार्यवाही करेगा।
टिप्पणी
इस अनुच्छेद के अधीन संविधान के निर्वचन को अन्तर्ग्रस्त करने वाले प्रश्नों का विनिश्चय अकेले उच्च न्यायालय द्वारा तब किया जाना चाहिये, जब उसका अधीनस्थ न्यायालय ऐसे प्रश्न को प्रश्न करता है। मद्रास बार एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 1571 :(2014) 10 एस० सी० सी० 1.
3[228क. राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के निपटारे के बारे में विशेष उपबंध.-[ संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 10 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित] ।]
- उच्च न्यायालयों के अधिकारी और सेवक तथा व्यय.-(1) किसी उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियां उस न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति करेगा या उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या अधिकारी करेगा जिसे वह निदिष्ट करेः ।
परन्त उस राज्य का राज्यपाल 4[* * *] नियम द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं। दशाओं में जो नियम में विनिर्दिष्ट की जाएं, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहले से ही न्यायालय से संलग्न नहीं है, न्यायालय से संबंधित किसी पद पर राज्य लोक सेवा आयोग से परामर्श करके ही नियुक्त किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 41 द्वारा (1-2-1977 से) “तो वह उस मामले को अपने पास मंगा लेगा तथा-” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
- संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा १ द्वारा (13-4-1978 से) * अनुच्छेद 131क के उपबंधों के अधीन रहते हुए” शब्दों, अंकों और अक्षर का लोप किया गया।
- संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 42 द्वारा (1-2-1977 से) अंत:स्थापित। |
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11-1956 से) जिसमें उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है,” शब्दों का लोप किया गया।
(2) राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्ते ऐसी होंगी जो उस न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उस 82 न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा, जिसे मुख्य न्यायमूर्ति ने इस प्रयोजन के लिए नियम बनाने के लिए प्राधिकृत किया है, बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएं: परन्तु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिए, जहां तक वे वेतनों, भत्तों, छुट्टी या पेंशनों से। संबंधित हैं, उस राज्य के राज्यपाल के 1[* * *] अनुमोदन की अपेक्षा होगी।
(3) उच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उस न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे और उस । न्यायालय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धनराशियां उस निधि का भाग होंगी।
2[230. उच्च न्यायालयों की अधिकारिता का संघ राज्यक्षेत्रों पर विस्तार.-(1) संसद्, विधि द्वारा, किसी संघ राज्यक्षेत्र पर किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार कर सकेगी या किसी संघ राज्यक्षेत्र से किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का अपवर्जन कर सकेगी।
(2) जहां किसी राज्य का उच्च न्यायालय किसी संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करता है, वहां–
(क) इस संविधान की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के विधान-मंडल को उस अधिकारिता में वृद्धि, उसका निर्बधन या उत्सादन करने के लिए सशक्त करती है; और
(ख) उस राज्यक्षेत्र में अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्ररूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह राष्ट्रपति के प्रति निर्देश है।
- दो या अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना.–(1) इस अध्याय के पूर्ववर्ती उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद्, विधि द्वारा, दो या अधिक राज्यों के लिए अथवा दो या अधिक राज्यों और किसी संघ राज्यक्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित कर सकेगी।
(2) किसी ऐसे उच्च न्यायालय के संबंध में-
(क) [* * *] ।
(ख) अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्ररूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश है जिसमें वे अधीनस्थ न्यायालय स्थित हैं; और
(ग) अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे उस राज्य के प्रति निर्देश हैं, जिसमें उस उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है। | परन्तु यदि ऐसा मुख्य स्थान किसी संघ राज्यक्षेत्र में है तो अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के, राज्यपाल, लोक सेवा आयोग, विधान-मंडल और संचित निधि के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे क्रमश: राष्ट्रपति, संघ लोक सेवा आयोग, संसद् और भारत की संचित निधि के प्रति निर्देश है |
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा (1-11–1956 से) “जिसमें उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है,” शब्दों का लोप किया गया।
- संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 16 द्वारा (1-11-1956 से) अनुच्छेद 230, 231 और 232 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
- संविधान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 की धारा 10 द्वारा (13-4-2015 से) खण्ड (2) के उपखण्ड (क) का लोप किया गया। संशोधन के पूर्व खंड (क) निम्नानुसार था : *(क) अनुच्छेद 217 में उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उन सभी राज्यों के | राज्यपालों के प्रति निर्देश है जिनके संबंध में वह उच्च न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है,” ।। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय के तारीख 16 अक्टूबर, 2015 के आदेश द्वारा अभिखंडित कर दिया गया है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व स्थिति को बनाए रखा गया है।
- [ संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 16 द्वारा (1-11-1956 से) निरसित ।]
अध्याय 6 (Chapter VI)
अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts)
- जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति.-(1) किसी राज्य में जिला न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति तथा जिला न्यायाधीश की पदस्थापना और प्रोन्नति उस राज्य का राज्यपाल ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करके करेगा।
(2) वह व्यक्ति, जो संघ की या राज्य की सेवा में पहले से ही नहीं है, जिला न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए केवल तभी पात्र होगा जब वह कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता या प्लीडर रहा है और उसकी नियुक्ति के लिए उच्च न्यायालय ने सिफारिश की है।
टिप्पणी
जिला न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति राज्य के राज्यपाल में निहित है, जिसका उसे सम्बद्ध उच्च न्यायालय के परामर्श से या सिफारिश पर प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार उच्च न्यायालय से परामर्श और सिफारिश राज्य के राज्यपाल द्वारा शक्ति के प्रयोग की पूर्ववर्ती शर्त है। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 1994 एस० सी० 268 : (1993) 4 एस० सी० सी० 441.
अनुच्छेद 233 के अधीन परिकल्पित सलाहकारी प्रक्रिया में उच्च न्यायालय द्वारा की गयी सिफारिशें राज्यपाल पर आबद्धकर हैं। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन एवं एक अन्य वि० भारत संध, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 117 : (2016) 5 एस० सी० सी० 1. |
1[233क. कुछ जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियों का और उनके द्वारा किए गए निर्णयों आदि का विधिमान्यकरण.-किसी न्यायालय का कोई निर्णय, डिक्री या आदेश होते हुए भी,
(क) (i) उस व्यक्ति की जो राज्य की न्यायिक सेवा में पहले से ही है या उस व्यक्ति की, जो
कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता या प्लीडर रहा है, उस राज्य में जिला
न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की बाबत, और।
(ii) ऐसे व्यक्ति की जिला न्यायाधीश के रूप में पदस्थापना, प्रोन्नति या अंतरण की बाबत, जो संविधान (बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966 के प्रारंभ से पहले किसी समय अनुच्छेद 233 य अनुच्छेद 235 के उपबंधों के अनुसार न करके अन्यथा किया गया है, केवल इस तथ्य के कारण कि ऐसे नियुक्ति, पदस्थापना, प्रोन्नति या अंतरण उक्त उपबंधों के अनुसार नहीं किया गया था, यह नहीं समझ जाएगा कि वह अवैध या शून्य है या कभी भी अवैध या शून्य रहा था; ।
(ख) किसी राज्य में जिला न्यायाधीश के रूप में अनुच्छेद 233 या अनुच्छेद 235 के उपबंध के अनुसार न करके अन्यथा नियुक्त, पदस्थापित, प्रोन्नत या अंतरित किसी व्यक्ति द्वारा य उसके समक्ष संविधान (बीसवां संशोधनअधिनियम, 1965 के प्रारंभ से पहले प्रयुक् अधिकारिता की, पारित किए गए या दिए गए निर्णय, डिक्री, दंडादेश या आदेश की औ किए गए अन्य कार्य या कार्यवाही की बाबत, केवल इस तथ्य के कारण कि ऐ नियक्ति, पदस्थापना, प्रोन्नति या अंतरण उक्त उपबंधों के अनुसार नहीं किया गया था, य नहीं समझा जाएगा कि वह अवैध या अविधिमान्य है या कभी भी अवैध या अविधिमान रहा था।]
- न्यायिक सेवा में जिला न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्तियों की भर्ती.-जिला न्यायाधीशों से भि व्यक्तियों की किसी राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्ति उस राज्य के राज्यपाल द्वारा, राज्य लोक सेवा आय से और ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करने के पश्च और राज्यपाल द्वारा इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार की जाएगी।
- अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण.-जिला न्यायालयों और उनके अधीनस्थ न्यायालयों – नियंत्रण, जिसके अंतर्गत राज्य की न्यायिक सेवा के व्यक्तियों और जिला न्यायाधीश के पद से अवर कि पद को धारण करने वाले व्यक्तियों की पदस्थापना, प्रोन्नति और उनको छुट्टी देना है, उच्च न्यायालय
- संविधान (बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966 की धारा 2 द्वारा अंत:स्थापित ।
निहित होगा, किन्तु इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसे किसी व्यक्ति से उसके अपील के अधिकार को छीनती है जो उसकी सेवा की शर्तों का विनियमन करने वाली विधि के अधीन उसे है या उच्च न्यायालय को इस बात के लिए प्राधिकृत करती है कि वह उससे ऐसी विधि के अधीन विहित उसकी सेवा की शर्तों के अनुसार व्यवहार न करके अन्यथा व्यवहार करे।
टिप्पणी
यह अनुच्छेद अधीनस्थ न्यायालयों पर पूर्ण प्रशासनिक नियन्त्रण का प्रयोग करने के लिये उच्च न्यायालय की शक्ति के लिये प्रावधान करता है। नि:सन्देह, इस नियन्त्रण का विस्तार अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना में अनुसचिवीय कर्मचारी और सेवकों को शामिल करते हुए अधीनस्थ न्यायालयों से संलग्न सभी कृत्यकारियों तक है। यदि प्रशासनिक नियन्त्रण का प्रयोग प्रशासनिक और अनुसचिवीय कर्मचारियों तक नहीं किया जा सकता है, अर्थात् । यदि उच्च न्यायालय न्यायिक अधिकारियों के अतिरिक्त जिला न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों के अन्य प्रशासनिक कृत्यकारियों और अनुसचिवीय कर्मचारी पर नियन्त्रण की उसकी शक्तियों से वंचित किया जायेगा, तो उसमें उपबन्धित अधीक्षण का प्रयोजन विफल हो जायेगा और ऐसा निर्वचन पूर्णतया अधीनस्थ न्यायालय के सामान्जस्यपूर्ण, दक्ष और प्रभावी कार्य का विनाशक होगा। न्यायालय संस्थान या अवयव हैं, जहाँ सभी अंग न्यायालयों की सम्पूर्ण प्रणाली को पूरा करते हैं और जब संवैधानिक प्रावधान दोनों न्यायालयों और न्यायिक पद से सम्बन्धित व्यक्तियों को आच्छादित करने के लिये ऐसे व्यापक आयाम का है, तो न्यायालयों के अन्य अंगों अर्थात् प्रशासनिक कृत्यकारियों को और उसके संस्थापन अनुसचिवीय कर्मचारियों को नियन्त्रण के क्षेत्र से अपवर्जित करने के लिये कोई कारण नहीं होगा। ऐसा नियन्त्रण प्रकृति में अनन्य, विस्तार में व्यापक और प्रवर्तन में प्रभावी है। रेणू एवं अन्य वि० जिला और सत्र न्यायाधीश, तीस हजारी एवं एक अन्य, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 2175 : (2014) 14 एस० सी० सी० 50.
- निर्वचन.-इस अध्याय में,
(क) जिला न्यायाधीश” पद के अंतर्गत नगर सिविल न्यायालय का न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, संयुक्त जिला न्यायाधीश, सहायक जिला न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, अपर मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश हैं; ।
(ख) न्यायिक सेवा” पद से ऐसी सेवा अभिप्रेत है जो अनन्यत: ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनी है, जिनके द्वारा जिला न्यायाधीश के पद का और जिला न्यायाधीश के पद से अवर | अन्य सिविल न्यायिक पदों को भरा जाना आशयित है।
- कुछ वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों पर इस अध्याय के उपबंधों को लागू होना.-राज्यपाल, लोक अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकेगा कि इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंध और उनके अधीन बनाए गए नियम ऐसी तारीख से, जो वह इस निमित्त नियत करे, ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, जो ऐसी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएं, राज्य में किसी वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्त व्यक्तियों के संबंध में लागू होते हैं।
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