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The Constitution of India Fundamental Rights LLB Law

  The Constitution of India Fundamental Rights LLB Law:- LLB Low Most Important The Constitution of India Fundamental Rights Study Material Notes Mock Test Question With Answer Paper in Hindi and English Language, In order to determine whether an entity is an authority under this article, the Courts have to consider factors like the formation of the company, its objectives functions, its management and control, the financial aid received by it, its functional control and administrative control, the extent of its domination by the government, and also whether the control of the government over it is merely regulatory, and have to come to the conclusion that the cumulative effect of all the aforesaid writ jurisdiction of the High Court. Balmer Lawrie and Co. Ltd. and others v. Partha Sarathi Sen Roy and others,  

The Constitution of India Notes

भाग 3

मूल अधिकार (Fundamental Rights)

साधारण (General)

  1. परिभाषा.- इस भाग में जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यचों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधाम-मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्रधिकारी हैं।
टिप्पणी यह अवधारित करने के लिये कि क्या कोई हस्ती इस अनुच्छेद के अधिन प्राधिकारी है, न्यायालयों के कारकों जैसे कम्पनी का गठन, उसके उदेश्यों, क्रत्योंय. उसके प्रबन्धन और नियंत्रण, उसके द्वारा प्राप्त वित्तीय सहायता, उसके क्रियात्मक नियन्त्रण और प्रशासनिक नियन्त्रण, सरकार द्वारा उसके प्रभुत्व के विस्तार पर और इस पर भऊ विचार करना चाहिये कि क्या उस पर सरकार का नियन्त्रण केवल विनियमकारी है और इस निष्कर्ष पर आना चाहिये कि विशिष्ट कम्पनी या निकाय के निर्देश में सभी पूर्वक्त तथ्यों का समुच्चयी प्रभाव इसे उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता के ध्यधीन प्राधिकारी बनायेगा। बामेर लारी एण्ड कं. लि. एवं अन्य वि. पार्थ सारथी सेन राय एवं अन्य, (2013) 8 एस. सी. सी. 345. यदि व्यक्ति या प्राधिकारी इस अनुच्छेद के क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं आता बल्कि लोक कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है, तो रिट याचिका दाखिल की जा सकती है और परमादेश की रिट या समुचित रिट जारी की जा सकती हैं। लेकिन, ऐसे प्राइवेट निकाय को सारभूत रूप से या तो राज्यच कोष पर संचालित होना चाहिए या लोक कर्तव्य\लोक प्राक्रति की सकारात्मक आबध्दा का निर्वहन करना चाहिये या ऐसे कानूनी क्रत्य का निर्वहन करने के लिये उसे विवश करने के लिये किसी परिनियम के अधीन किसी क्रत्य का निवर्हन करने के लिये दायित्व के अधीन है। के. के. सक्सेना वि. इण्टरनेशनल कमीशन आन इरीगेशन एण्ड ड्रेनेज,(2015) 4 एस.  सी. सी. 670.        
  1. मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां.- (1) इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रव्रत सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों से असंगत हैं।
(2) राज्य ऐसी कोई विदि नहीमं बनाऐगा जो इस बाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती हैं या न्यून करती है और इस खंड के उल्लघन में बनाईं गई प्रत्येक विधि उल्लघन की मात्रा तक शून्य होगी। (3) इस अनुच्छेद में, जब तक कि संन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,- (क)  “ विध” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ी या प्रथा हैं: (ख) “प्रव्रत विध” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले पारित या बनाई गई विधि है जो पहले ही निरसित नहीं कर दी गई है, चाहे ऐसी कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में नहीं है। 1[(4)   इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के किसी संशोधन को लागू नहीं होगी।) टिप्पणी यह अनुच्छेद स्पष्ट और असंदिग्ध शब्दों में अधिकथित करना है कि संविधाम पूर्व विधियों को शामिल करते हुए वे सभी विधियां शून्य हैं, जो भाग 3 द्वारा प्रत्याभूत मूल अधिकारों से असंगत या के अल्पीकरण में हैं। खण्ड (3) विधि के क्षेत्र के अन्तर्गत सभी नियमों, विनियमों, अधिसूचना, विधि का बल रखने वाले रूढ़ि और प्रथा को लाता है। आदि शेव सिचारीयार्गल नाला संगम एवं अन्य वि. तमीलनाडू सरकार एवं अन्य, ए. आई. आर. 2016 एस. सी.: (2016) 2 एस. सी. सी. 725. इस अनुच्छेद का खण्ड (2) पबन्धित करता है कि कोई विधि अधिनियमित नहीं की जा सकती, जो संविधान के भाग 3 के अधीन प्रत्याभूत मूल अधिकारों के प्रतिकूल है ऐसे प्रावधान का उदेश्य यह सुनिश्चित करने के लिये हैकि विधि के किसी स्त्रोत से उद्भूत लिखत, स्थायी या अस्थायी, विधायी या न्यायिक या कोई अन्य स्त्रोत मूल अधिकारों के सम्बन्धित संवैधानिक प्रावधान का सम्मान करते हैं। इस प्रकार, इस अनुच्छेद का मूख्य उदेश्य विशेष रूप से मूल अधिकारों के सम्बन्ध में संविधान की सर्वच्चता को सुनिश्चित करना है। रेनू एवं अन्य वि. जिला एवं सत्र न्यायधीश, तीस हजारी एवं एक अन्य, ए. आई. आर. 2014 एस. सी. 2175 : (2014) 14 एस. सी. सी. 50.

   समता का अधिकार (Right to Equality)

  1. विधि के समक्ष समता.- राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विदि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगीं।
   टिप्पणी यह अनुच्छेद समादेश देता है कि राज्य कार्यवाही मनमानापूर्ण और विभेदपूर्ण नहीं होना चाहिए। इसे किसी असंगत विचारों द्वारा भी मार्गनिर्धेशित नहीं होना चाहिये, जो समानता के प्रतकूल हैं। सीनीयर डिवीजनल कामर्शियल मेनेजर वि. एस. सी. आर. कैटरर्स. ड्राई फ्रूट्स, फ्रूट जूस स्टाल्स वेलफेयर एसोसिएशन, ए. आई. आर. 2016 एस. सी. 668. यह अनुच्छेद नकारात्मक समानता की परिकल्पना नहीं करता और इसका प्रयोग किसी अवैधता को शाश्वत बनाने के लिये किया जा सकता। प्रवर्तनीय अधिकार की विधमानता पर आधारित विभेदीकरण का सिध्दान्त और यह अनुच्छेद केवल इसलि. तब लागू होगा जब, पक्षपातपूर्ण विभेदीकरण किसी युक्तयुक्त आधार या सम्बन्ध के बिना समान स्थिति में रखे गये समान लोगों के बीच किया जाता है, जो ऐसे विभेदीकरण की अपेक्षा करेगा। राजस्थान राज्य औधोगिक विकास एवं विनियोग निगम वि. सूभाष सिन्धी को आपरेटिव हाऊसिंग सोसाइटी, जयपूर, ए. आई. आर. 2013 एस. सी. 1226: (2013) 5 एस. सी. सी. 427. साम्या अनुच्छेद 14 का अभिन्न भाग है। केशव चन्द्र जोशी वि. भारत संघ ए. आई. आर. 1991 एस. सी. 284 : 1992 सप्ली (1) एस. सी. सी. 272.
  1. संविधान (चौबीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 2 द्वारा अंत:स्थापित।
अनुच्छेद 14 जो भारत के राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत विदि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण को प्रत्याभूत करता है, व्यक्ति को लागू है, जिसके अन्तर्गत गैर नागरिक भी होगा। अध्यक्ष, रेल परिषद् वि. चन्द्रिमा दास, ए. आई. आर. 2000 एस. सी. 988 (2000) 2 एस. सी. सी. 465. राज्य या उसके परिकरणों की प्रत्येक कार्यवाही न केवल ऋजु, वेध और सन्देह के परे होना चाहिये बल्कि किसी स्नेह या विमुखता के बिना होना चाहिये। इसे न तो विभेदीकरण का संकेत होना चाहिये और न ही अभिनति पक्षपात और भाई भतीजा बाद का प्रभाव उत्पन्न करना चाहिये। उड़ीसा राज्य वि. ममता मोहन्ती, (2011) 3 एस. सी. सी. 436. अवसर की समानता प्रमाण चिह् है और संविधान ने यह सुनिश्चित करने के लिये सकारात्मक कार्यवाही के लिये भी उपबून्धित कि. है कि असमानों को समान नहीं माना जाता। कर्नाटक राज्य वि. उमादेवी(3), ए. आई. आर. 2006 एस. सी. 1806 : (2006) 4 एस. सी. सी. 1. विधि के समक्ष समानता की अवधारणा आत्यन्तिक समानता के विचार को अन्तर्ग्रस्त नहीं करता। इसका तात्पर्य है कि समान को समान माना जाना चाहिये। विधान मण्डल को वर्गीकरण की व्यापक शक्ति है किन्तु बोधगम्य अन्तर पर आधारित होना च्हिये और उदेश्य से सम्बन्ध ह ना चाहिये। आशुतोष गुप्ता वि. राज्स्थान, ए.आई. आर. 2002 एस. सी. 1533 (2002) 4 एस. सी. सी. 34. जब तक किया गया वर्गीकरण वास्तविक और सारभूत सिध्दान्तों पर आधारित नहीं है, तब तक ऐसे वर्गीकरण को कायम नहीं रखा जायेगा। संसार चन्द अत्री वि. पंजाब राज्य, ए. आई. आर. 2002 एस. सी. 1618: (200) 4 एस. सी. सी. 154. अनुच्छेद 14 की अवैध और अविधिमान् कार्यवाही को विधिमान्य बनाने का कोई प्रयोजन या औचित्य नहीं है। एकता शक्ति फाउण्डेशन वि. शासन (एन. सी. टी. आफ दिल्ली), ए आई. आर. 2006 एस. सी. 2609 (2006) 10 एस. सी. सी. 337. विधायन के किसी भाग को मनमानापूर्ण और तदद्वारा असंवैधानक घोषित करना अनुज्ञेय नहीं है। सम्यकू प्रक्रिया का सिध्दान्त संविधान के अधीन लागू नहीं है। राजबाला एवं अन्य वि. हरियाणा राज्य, ए. आईय आर. 2016 एस. सी. 33: (2016) 2 एस. सी. सी. 445. राज्य को वैध प्रयोजन के लिये व्यक्तियों को वर्गीक्रत करने की शक्ति ह , युक्तियुक्त होने के लिये वर्गीकरण को बोधगम्य मानदण्ड तक आधारित ह ना चाहिये, जो व्यक्तियों में विभेद करता ह  और मानदण्ड को प्राप्त किये जाने के लिये अपेक्षित उदेश्य से सम्बन्द होना चाहिये। भारत संघ वि. एन. एस. रन्थम एण्ड सन्स. ए. आई. आर. 2016 एस. सी. 1273 (2015) 10 एस. सी. सी. 681. वैध प्रत्याशा अभिव्यक्त बॉवचन या प्रथा के संगत अनुक्रम से उदभूत होती है। ययह सरकार द्वारा पुर स्थापित नीती पर अभिभावी नहीं हो सकती, जो किसी प्रतिकूवता, ऋजुता या अयुक्तयुक्तता से ग्रस्त नहीं है। भारत  संघ एव एक अन्य वि. ले. क. पी. के. चौधरी एवं अन्य, ए. आई. आर. 2016 एस. सी. 966: (2016) 4 एस. सी. सी. 236.
  1. धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार प र निभेद का प्रतिषेध.- (1) राज्य, किसी नागरिक के विरुध्द केवल धर्म, मूलवं, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इसमें से किसि के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
(2) कोई नागरिक केवल, धर्म, मूलवांश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर- (क) दुकानों, सर्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरजन के स्थानों में प्रवेश, या (ख) पूर्णत: या भागत: राज्य-नीधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वनिक समागम के स्थानों के उपयोग, के संबंद में किसी भि निर्योग्यता, दायित्व, निर्बधन या शर्त के अधीन नहीं होगा। (3) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्. को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने रसे निवारित नहीं करेगी। 1[(4) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक द्रष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गो की उत्रति के लिए या अनुसूचित जातियो और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।]
  1. संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा द्वारा जोड़ा गया।
1[(5) इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उपखंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक द्रष्टि से पिछ़ड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गो कि उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए, विधि द्वारा,क कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक शिक्षा संस्ताओं से भिन्न, शिक्षा संस्थाओं में, जिनके अन्तर्गत प्राइवेट शिक्षा संस्थाएं भी हैं, जाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हो या नहीं, प्रवेश से संवधित हैं।] टिप्पणी अनुच्छेद 15 उसमें विनिर्दिष्ट आधारों पर विभेदीकरण को प्रतिषिध्द करता है किन्तु राज्य क्रियाकलापों से सम्पूर्ण क्षेत्र को भी आच्छादित करता है। इवांलंग्गी-ए-राइमबाई वि. जयन्तिया हिल्स डिस्ट्रिक्ट कौंउसिंल, ए. आई. आर.2006 एस. सी. 1589 :(2006) 4 एस. सी. सी. 620. अनुच्छेद 15 (5) राज्य पोषित शैक्षाणिक संस्थाओं और सहायता प्राप्त शेक्षाणिक संस्थानों के सन्दर्भ में विदिमान्य. है। अशोक कुमार ठाकुर वि. भारत संघ, ए. आई. आर. 2008 एस. सी. 1: (2008) 6 एस. सी. सी. 1. विभेदीकरण, जो प्रतिषिध्द है केवल धर्म, मूलवंश, जाति इत्यादि के आधार पर होना चाहिये, अन्य विचारणों के सात लिंग के आधार पर कोई प्रतिषेध नहीं है। एयर इण्डिया वि. नागरे मिर्ज, ए. आई. आर. 1981 स. स्. 1829 (1981) 4 एस. सी. सी. 335. सैन्य कर्मचारियों के प्रितपाल्य के लिये सैन्य शैक्षाणिक संस्थानों में 100% स्थानों का आरक्षण असंवैधानिक निर्णीत किया गया। आर्मी इन्सटीच्यूट ऑफ  हायर एजूकेशन वि. पंजाब राज्य, (2011) 15 एस. सी. सी. 512. जहां सरकार स्नातक स्तर से नीचे आरक्षण प्रदान करती है, वहाँ यह राज्य सरकार को स्नातकोत्तर स्तर पर भी आरक्षण प्रदान करने केलिये आबध्द नहीं करती । कुलशन प्रकाश वि. हरियाणा राज्., ए. आई. आर. 2010 एस. सी. 288 : (2010) 1 एस. सी. सी. 477. आरक्षित संर्ग के अधीन परीक्षा में उपस्थित होने वाले अभ्यर्थी नें विज्ञापन में वर्णित व्यवच्छेदन तारीख के पश्चात् जाति प्रमाण पत्रक पेस किया। लोक नियोजन में असमानता का निवारण करने केलिये आरक्षण की संवैधानिक अवधारणा के अनुसार, अभ्यर्थी को पद  पर चयन के लिये अनर्ह निर्णीत नहीं किया जा सकता। राम कुमार गिज्रोया वि. दिल्ली अधीनस्थ सैवा चयन बोर्ड, ए, आई. आर. 2016 एस. सी. 1098 : (2016) 4 एस. सी. सी. 754.
  1. लोक नियोजन के विषय में अवलर की समता.- (1) राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संवंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगो.।
(2) राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाती, लिंग, उदभव, ज्मस्तान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगी और न उसरसे विभेद किया जाएगा। (3) इस अनुच्छेद की कोई बहात संसद को कोई कऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेकी जो 2[किसि वर्ग या वर्गों के पद पर नीयोजन या नियुक्ति के संबंध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती है ] । (4) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियो या पदों के आरक्षण के लिए उपबंद करने से निवारित नहीं करेगी।]
  1. संविधान (तिरानबे संशोधन) ततअधिनियम, 2005 की धारा 3 द्वारा (20-1-2006 से) अंत:स्थापित।
  2. संविधान (सातां संशोधन) अधिनियम, 1965 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के या उसरके क्षेत्र में किसी तस्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन उस राज्य के भीतर नीवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती हो के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
  3. संविधान (सतहतरवां संशोधन) अधिनियम, 1995 की धारा 2 के द्वारा (17-6-1995 से) अंत:स्थापित।
  4. संविधान (पचासीवां संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 2 द्वारा (17-6-1995 से) प्रतिस्थापित।
1[(4ख) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को किसी वर्ष में किन्हीं न भरी गई ऐसी रिक्तियों को, जो खंड (4) या खंड (4क) के अधीन किए गए आरक्षण के लिए किसी उपबंध के अनुसार उस वर्ष में भरी जाने के लिए आरक्षित हैं, किसी उत्तरवर्तीय वर्ष या वर्षों में भरे जाने के लिए प्रथक् वर्ग की रिक्तियों के रूप में विचार करने से निवारित नहीं करेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ष के साथ जिसमें वे भरी जा रही हैं, उस वर्ष की रिक्तियोम की कूल संख्या के संबंध में पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा का अवधारण करने के लिए विचार नहीं किया जाएगा।] (5) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्ता के कार्यकलाप से संबंधित कोई पदधारी या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का मानने वाला या विशिष्ट संप्रदाय का ही हो। टिप्पणी अनुच्छेद 16 किसी पद पर नीयोजन या अवसर का राज्य के अधीन एक पद से उच्चतर पद में पदोन्नति से  सम्बन्धित मामले में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता के लिये प्रावधान करता है। गोविन्द दत्तात्रेय केल्कर वि. चीफ कन्ट्रोलर ऑफ इम्पोर्ट्स एण्ड एक्सपोर्ट्स, ए. आई. आर. 1967 एस. सी. 839. ढंग, जिसमें आरक्षण किया जाना है, राज्य द्वारा नीतिगत विनिश्चय का मामला है और अनुच्छेद 37 1 घ के अधीन राष्ट्रपति आदेश की युक्तियुक्तता और अपेक्षाओं के परीक्षण के उसके उत्तीर्ण करने के अध्यधीन चुनौती के लिये खुला नही है। एन. टी. आर. युनीवर्सिटी हेल्थ सर्विसेज वि. जी. बाबू राजेन्द्र प्रसाद, ए. आई. आर. 2003 एस. सी. 1947 :(2003) 5 एस. सी. 350 सरकारी सेवक की नियुक्ति राज्य का परमाधिकार है। सिटीजन्स फार जस्टिस एण्ड पीस वि. गुजरात राज्य ए. आई. आर. 2009 एस. सी. सी. 482. पद पर नियुक्ति के लिये अभ्यर्थी की उपयुक्तता या अन्यथा नियुक्ति प्रधिकारी का कर्तव्य है और न कि न्यायालय का चब तक नियुक्ति कानूनी प्रावधानों या नियमों के प्रतिकूल नहीं है। हरी बंश लाल वि. सहोदर प्रसाद महतो, ए. आई. आर. 2010 स. सी. 3515 (2010) 9 एस सी. सी. 655. संविधान के अधीन भी, अनुच्छेद 229 (1) के अधीन मुख्य न्यायमूर्ति को प्रदत नियुक्ति की शक्ति अनुच्छेद 16 (1) के अध्यधीन है, जो नियोजन स सम्बन्थित मामलों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता को प्रत्याभूत करता है। अवसर जेसे कि अनुच्छेद में प्रयुक्त है, से नियोन का अवसर अभप्रेत है और जिसे प्रत्याभूत किया जाता है, वग यहग गै कि नियोजन का यह अवसर सभी को समान रूप से उपलब्ध होगा। रेणु एवं अन्य वि. जिला और सत्र न्यायधीश, तीस हजारी एवं एक अन्य, ए. आई. आर. 2014 एस. सी. 2175 : (2014) 14 एस. सी. 50 सरकार या उसका परिकरण अपने कर्मचारियों की सेवा की शर्तों को परिवर्तित नहीं कर सकता और प्रतिकूल प्रभाव कारित करने वाला कोई ऐसा परिवर्तन विनिश्चय के पूर्व सुनवायी का अवसर प्रदान किये बिना प्रभावित नहीं किया जा सकता और वह मनमानपूर्ण तथा अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में होगा। बी. सी. पी. पी.मजदूर संख वि. एन. टी. पी. सी. ए. आई. आर. 2008 एस. सी. 336 :(2007) 14 एस. सी. सी. 234.  चयन सूची में अभ्यर्थीं के नांम का प्रकटन उसको नियुक्ति का धिकार प्रदान नहीं करता है। चयन सूची में केवल अभ्यर्ती के नाम का शामिल करना चयन किये जाने के लिये कोई अधिकार प्रदान नही करता, यदि रिक्तियौं में से कुछ खाली रहती हैं। सम्बध्द अभ्यर्थीं यह दावा नहीं कर सकता कि उससे विरोधी विभेदीकरण किया गया. है। उड़ीसा राज्य वि. राजकिशोर नन्दा, ए. आई. आर. 2010 एस. सी. 2100 :(2010) 4 एस. सी. सी. 777. चयनित अभ्यथी को नियुक्ति का कोई अधिकार नहीं हैं यदि पद का उन्मूलन सरकार द्वारा किया जाता हैं, जब तक पद का उन्मूवन दुर्भावनापूर्ण नहीं है। बालक्रष्णा बेहरा एवं एक अन्य वि. सत्य प्रकाश दास, ए, आई. आर. 2008 एस. सी. 223 : (2008) 1 एस. सी. सी. 318. चयन सूची में नामित तीन अभ्यर्थियों के पदतभार ग्रहण न करने के कारण, ऐसा पद कतयोग्यता क्रम में अकले अभ्यर्थियों को प्रदान नहीं किया जा सकता। खालि पदों के सम्बन्ध में किसी विदिक अधिकार के रूप मेंदावा नहीं किया जा सकता, विशिष्ट रुप से तब, जब उस सुसंगत वर्ष की चयन सूची को पहले ही समाप्त किया गया था। कुलविन्दर पाल सिंह एवं अन्य वि. पंजाब राज्य एवं अन्य, ए. आई. आर. 2016 एस. सी. 2281.
  1. संविधान (इक्यासीवां संशोधन) अधिनियम, 2000 की धारा 2 द्वारा (9-6-2000 से) अंत:स्थापित।
संवैधानिक योजना के उल्लंघन में की गयी नियुक्त शून्य होगी। नगरपालिका परिषद सुजानपूर वि. सुरिन्दर कुमार, (2006) 5 एल, सी. सी. 173. सम्यक प्रिक्रिया का अनुसरण किये बिना की गयी नियुक्ति अवैध है  और रद्द की जायेगी। झारखण्ड राज्य. वि. मन्शु कम्मकार. (2007) 8 एस. सी. सी. 249. पिछडे वर्ग को आरक्षण संवैधानिक समादेश नहीं है, यह सम्बध्द राज्य का परमाधिकार है। इ. वी. चिन्नैयाह वि. आर. प्र. राज्य, ए. आई. आर. 2005 एस. सी. 162 :(2005) 1 एस. सी. सी. 394 वरिष्ठता मूल अधिकार नहीं हो सकता बल्कि सिविल अधिकार है। उक्त अधिकार का उल्लंघन केवल तब अनुज्ञेय होगा, यदि परिनियम और/या अनुच्छेद 309 से संलग्न परन्तुक के अधीन विधिमान्य ढंग से निर्मित कोई नियम विदमान है। उ. प्र. राज्य वि. दिनकर सिन्हा, (2007) 10 एस. सी. सी. 548. राज्य से अनुच्छेद 14, 15 और 16 के अधीन और न कि किसी विनियमितीकरण योजना के अधीन उसकी संवैधानिक आबध्दता को पूरा करने में नियुक्ति करने की अपैक्षा की जाती है। कर्नाटक राज्य वि. के. जी. एस. डी. केण्टीन इम्प्लाइज वेलफेर एसोसिएशन, ए. आई. आर. 2006 एस. सी. 845 : (2006) 1 एस. सी. सी. 567. किसी कर्मचारी को पदोन्नति प्राप्त करने का अधिकार नहीं हैं किन्तु उसे पदोन्नति के लिये विचार किये जाने का अधिकार है। हरदेव सिंह वि. भारत संख, ए. आई. आर. 2012. एस. सी. 286 : (2011) 10 एस. सी. सी. 121.
  1. अस्प्रश्यता का अंत.- “अस्प्रश्यता” का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिध्द किया जाता हैं। “अस्प्र्श्यता” से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
टिप्पणी संविधान के निमार्ताओं का कारण या युक्तियुक्त आधार के बिना केवल परम्परागत अन्य विश्वासी विश्वासों के अन्ध और धार्मिक पालन से समाज को स्वतन्त्र करने के लिये द्रष्टिकोण अनुच्छेद 17 के रूप में अभिव्यक्ति पाया है। एन. आदिथ्यन वि. ट्रावनकोर देवास्वोम बोर्ड एवं अन्य, ए. आई. आर. 2002 एस. सी. 3538 : (2002) 8 एस. सी. सी. 106. यह अनुच्छेद अन्ध विश्वासों और विश्व सों पर, जिनका कोई मूलाधार या तर्क नहीं है, निर्मित जाति आधारित प्रथाओं पर प्रहार करता है। आदि शेव शिवाचिरयार्गल नाला संगम वि. तमिलनाडु सरकार, ए. आई. आर. 2016 एस. सी. 2019 : (2016) 2 स. सी. सी. 725.
  1. उपाधियों का अंत.- (1) राज्य, सेना या विधा संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपधि प्रदान नहीं करेगा।
(2) भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज् से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा। (3) कोई व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई उपादि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा। (4) राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से यता उसके अधीन किसी पूर में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा। स्वातंत्र्य- अधिकार
  1. वाक्-स्वातंत्र्य आदी विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण.- (1) सभी नागरिकों को-
  • वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्रय का,
  • शंतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का,
  • संगम या संघ 1[या सहकारी समितियां] बनाने का,
  • भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचण का,
  • ङारत के राज्यक्षेत्र के किसी भभाग में निवास करने और बस जाने का 2 (और)
  • 3[ * *  *]
  1. संविधान (सतानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2010 की धारा 2 द्वारा (15-2-2010 से) अंत:स्थापित।
  2. संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनि.म, 1978 की धारा 2 द्वारा (20-6-1979 से) अंत:स्थापित।
  3. संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 2 द्वारा (20-6-1979 से) उपखंड (च) का लोप किया गया।
  • कोई व्रति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने का, अदिकार होगा।
1(2) खंड (1) के उपखंड (क) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर 2[भारत की प्रभुता और अखंडता,] राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यो के सात मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमान, मानहानि या अपराध-उदीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंदन जहाँ तक कोई विधमान विधि अधिरोपित करती है वहाँ तक उसके प्रवर्त पर प्रभाव नहीं डालेगी या वेसे निर्बधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी। (3) उक्त खंड के उपखंड (ख) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए तअधिकार के प्रयोग पर 2[भारत की प्रभुता और अखंडता या] लोक व्यवस्था के हितों में युक्तियुक्त निर्बंधन जहाँ तक कोई विधमान विधि अधिरोपित करती है वहाँ तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नही डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करनेत वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी। (4) उक्त खंड के पखंड (ग) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर  2 [भारत की प्रभिता और अखंडता या]  लोक व्यवस्था या सदाचार के हितों में युक्तियुक्त निर्बंधनजहाँ तक कोई विदमान विधि अधिरोपित करती है वहाँ तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं जावेगी या वैसे निर्बधन अधिरोपित करनतके वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी। (5) उक्त खंड के  3 [उपखंड (ख) और उपखंड (ड़)] की कोई बहात क्त उपखंडों द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रयॉग पर साधारण जनता के हितों में या किसी अनुसूचित नजाति के हितों के संरक्षण के लिए युक्तियुक्त निर्बधन जहाँ तक कोई  विधमान विधि अधिरोपित करती है वहाँ तक उके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं जालेगी या वैसे निर्बधन अधिरोपित करने वाली कोई विदि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी। (6) उक्त खंड के उपखंड (छ) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों में युक्तियुक्त निर्बधन जहां तक कोई विधमान विधि अधिरोपित करती है वहाँ तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बधन अदिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी और विशिष्टतया 4[उक्त उपखंड की कोई बात- (;) कोई व्रति, उपजीवाक, व्यापार या कारबार करने के लिए आवश्यक व्रतिक या तकनीकी अर्हताओं से, या (;;) राज्य द्वारा या राज्य के स्वामित्व या नियंत्रण में किसी निगम द्वारा कोई व्यापार, कारबार, उधोग या सेवा, नागरिकों का पूर्णत: या भारत : अपवर्जन करके या अन्यथा, चलाए जाने से, जहाँ तक कोई विधमान विदि संबंध रखती है वहाँ तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या इस प्रकार संबंध रखने वालि तोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी)। टिप्पणी इस अनुच्छेद में उपवर्णित स्वतन्त्रतायें वे महान र मूलभूत अधिकार ह , जिन्हें नागरिक की प्रास्थित में अनतर्निहित नैसर्गिक अधिकारों के रुप में मान्या दी जाती हैं। पश्चिम बंगाल राज्य वि. सुबोध गोपाल बोस. ए. आई. आर. 1954 एस. सी. 92. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अपने परिक्षेत्र के अन्तर्गत तत्समय कर्तवय और उत्तरदायित्व को लाति है और उस स्वतन्त्रता के प्रयोग पर प्रतिबन्धित अधिरोपित करती है यह किसी संस्थान, कमोवेस न्यायपालिका के विरुध्द अनाधारित अभिकथनों को करने केलिये अनुज्ञप्ति प्रदान नहीं करती । इन रे. डी. सी. सक्सेना, ए. आई. आर. 1996 एस. सी. 2481 : (1996) 5 एस. सी. सी. 216. मतदान करकने और निर्वाचन ल़ड़ने के अधिकार की मूल अधिकार कि प्रास्थिति नहीं है। बदले में वे विधिक अधिकारों की प्राक्रति के हैं, जिन्हैं विधायी साधनों के माध्यम से नियन्त्रित किया जा सकता है। क्रष्ण मूर्ती एवं अन्य संविधान (पहला शोधन) अधिनि.यम, 1951 की धारा 3 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (2) के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविदान (सोलहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 2 द्वारा अंत:स्थापित। संविधान (चवालीसवा संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 2 द्वारा (20-6-1979 से) उपखंड (घ), उपखंड (ड़) और उपखंड (च) के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 3 द्वारा कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित। वि० भारत संघ एवं एक अन्य, (2010) 7 एस० सी० 202, कुलदीप नायर वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2006 एस० सी० 2137 : (2006) 7 एस० श्री० १ को भी देखें | यह अनुच्छेद नगारिकों को मूल अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 19 (1) द्वारा प्रदत्त अधिकार किसी व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है और किसी व्यक्ति द्वारा दावा नहीं किया जा सकता, जो भारत का नागरिक नहीं है और न ही हो सकता। यह अनुच्छेद नागरिकों को अधिकार प्रदान करता है, जैसे संगम नागरिकों का केवल समूह होने के आधार पर इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत मूल अधिकारों का, अर्थात् निकाय गठित करने वाले नागरिकों के अधिकार का दावा कर सकता है। लेकिन, नागरिकों का संगम उन अधिकारों का दावा नहीं कर सकता, जो नागरिकों के लिये खुले नहीं हैं। और उन निर्बन्धनों से स्वतन्त्रता का दावा नहीं कर सकता, जिसके अध्यधीन उसे गठित करने वाले नागरिक हैं ! धरम दत्त वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1295 : (2004) 1 एस० सी० सी० 712, अशोक कुमार ठाकुर वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 1 : (2008) 6 एस० सी० सी० 1 का भी देखें। । इस अनुच्छेद में पद सभी नागरिकों’ का तात्पर्य है कि प्रत्येक नागरिक इस अनुच्छेद के अधीन उपलब्ध अधिकारों का उपभोग कर सकता है, प्रत्येक विशिष्ट नागरिक, जिसके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है, न्यायालय में आवेदन कर सकता है। अशोक कुमार ठाकुर वि० भारत घ, ए० आई० आर० 2008 एस० सी० ।। (2008) 6 एस० सी० सी० | इस अनुच्छेद के अधीन वर्णित छ: स्वतन्त्रतायें किसी और चीज की आवश्यकता के बिना सभी नागरिकों में उनकी नागरिकता के परिणामस्वरूप अन्तर्निहित हैं। अलगापुरम आर० मोहनराज वि० तमिलनाडु विधान सभा, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 867 :(2015) 6 एस० सी० सी० 867, । लोक संस्थान के कार्य से सम्बन्धित सूचना का अधिकार मूल अधिकार है, जैसा कि इस अनुच्छेद में निहित है। उच्चतम न्यायालय ने अधिकतर मामलों में घोषित किया है कि स्वस्थ और उचित रूप से सूचित लोकतन्त्र के कार्य के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण मूल्य पारदर्शिता है। किन्तु न तो मूल अधिकार और न ही सूचना के अधिकार का प्रावधान आत्यन्तिक निबन्धनों में किया गया है। अनुच्छेद 19 (1) (क) के अधीन प्रत्याभूत मूल अधिकार राष्ट्रीय और सामाजिक हित के आधारों पर अनुच्छेद 19 (2) के अधीन निर्बन्धित है। भारतीय रिजर्व बैंक वि० जयन्ती लाल एन० मिस्त्री, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० संविधान के अधीन, प्रेस की स्वतन्त्रता की कोई पृथक प्रत्याभूति नहीं है और यह वही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है, जिसे अनुच्छेद 19 (1) के अधीन सभी नगारिकों को प्रदान किया जाता है। इसलिये, राय की कोई अभिव्यक्ति या तो मानहानि या न्यायालय अवमान की विधि या अनुच्छेद 19 (2) के अधीन अन्य संवैधानिक प्रतिबन्धों के अधीन सीमा का अतिक्रमण करने के दायित्व से मुक्त नहीं होगी। इसलिये, यदि नागरिक अनुच्छेद 19 (1) के अधीन स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करने के बहाने न्यायालय को कलंकित करने का प्रयास करता है या न्यायालय की गरिमा को कम करता है, तो न्यायालय यथास्थिति, अनुच्छेद 129 या अनुच्छेद 215, के अधीन शक्ति का प्रयोग करने का हकदार होगा। इन रे अरुन्धती राय, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 1375 : (2002) 3 एस० सी० सी० । राष्ट्रीय ध्वज को फहराने का अधिकार मूल अधिकार है। ध्वज की गरिमा और सम्मान के परिरक्षण के लिये अनुपालन किये जाने वाले मार्गनिर्देशों का प्रावधान करता है। वी० के० नासव वि० भारत संध, (2012) 2 एस० सी० सी० । | अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण.-(1) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी। (2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा। (3) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। टिप्पणी अनुच्छेद 20 (1) के अधीन जिसे प्रतिषिद्ध किया गया है, वह अपेक्षाकृत अधिक दण्ड का, जो अधिरोपित किया जा सकता था, अधिरोपण और कार्य कारित करने के समय विधि के उल्लंघन के लिये किसी व्यक्ति की ) 3 एस० सी० सी० जहाँ दो भिन्न अपराध भिन्न आवश्यक तत्वों से निर्मित किये जाते हैं, वहाँ इस अनुच्छेद के अधीन वर्जन लार नहीं है। इस अनुच्छेद के अधीन निर्णायक अपेक्षा यह है कि अपराध सभी पहलुओं में वही या समान है। राज्य (एन० सी० टी० आफ दिल्ली ) वि० नवजोत सन्धू, ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 3820 : (2005) 11 एस० सी० सी० । व्यक्ति को एक ही अपराध के लिये दो बार दण्डित नहीं किया जा सकता और स्वयं के विरुद्ध साक्षी होने के लिये विवश नहीं किया जा सकता। मनु शर्मा वि० राज्य (एन० सी० टी० आफ दिल्ली ), ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 2352 :(2010) 6 एस० सी० सी० । अपराध कारित करने की तारीख पर अधिरोप्य दण्डादेश विचारण के पूरा होने पर अधिरोप्य दण्डादेश का अवधारण करता है। अनुच्छेद 20 (1) के अधीन, जो प्रतिषिद्ध है, वह कार्योत्तर विधि के अधीन दाण्डिक कार्यवाही में दोषसिद्धि और दण्डादेश है। रवीन्द्र सिंह वि० हि० प्र० राज्य, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 199:। (2009) 14 एस० सी० सी० अनुच्छेद 20 (2) मूल अधिकार के मामले के रूप में दाण्डिक अधिकारिता के सुज्ञात सिद्धान्त को अधिनियमित करता है कि कोई व्यक्ति उसी अपराध के लिये दोहरे संकट में नहीं डाला जाना चाहिये। मकबूल हुसैन वि० बम्बई राज्य, ए० आई० आर० 1953 एस० सी० प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण.-किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। टिप्पणी इस अनुच्छेद को मूल अधिकारों का हृदय और आत्मा” होना कहा जा सकता है। मो० सकूर अली वि० | असम राज्य, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 1222 :(2011) 4 एस० सी० सी० | इस अनुच्छेद के अधीन प्रत्याभूत प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध उपलब्ध है। यह अनुच्छेद प्राइवेट व्यक्तियों द्वारा उल्लंघन के विरुद्ध प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण प्रदान करने के लिये आशयित नहीं है। सबीहा फैकेज वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 189 : (2013) 1 एस० सी० सी० 262. यह अनुच्छेद सभी नागरिकों को प्राण की गरिमा का वचन देता है। रामजेठमलानी वि० भारत संघ, (2011) 8 एस० सी० सी० यह अनुच्छेद अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्यक्तियों को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार के सिवाय उनके प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण करने की अपेक्षा करता है। यह अपने व्यक्तिगत लागू होने में न केवल अपने क्षेत्र के अन्तर्गत अभियुक्त के अधिकारों के प्रवर्तन अपितु पीड़ित के अधिकारों के प्रवर्तन को भी शामिल करता है। राज्य का संज्ञेय अपराध के कारित करने के अभियुक्त किसी व्यक्ति के विरुद्ध, जिसके अन्तर्गत उसका अपना अधिकारी, ऋजु और निष्पक्ष अन्वेषण के लिए प्रावधान करते हुए नागरिक के मानव अधिकारों को प्रवर्तित करना। कर्तव्य है। कतिपय स्थितियों में अपराध का साक्षी भी राज्य द्वारा संरक्षण की अपेक्षा कर सकेगा और प्रदान किया जायेगा। पश्चिम बंगाल राज्य वि० लोक तान्त्रिक अधिकार संरक्षण समिति, पश्चिम बंगाल, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 1476 :(2010) 3 एस० सी० सी० नागरिकों को व्यापक रूप से प्राण का अधिकार अर्थात् गरिमा, स्वतन्त्रता और सुरक्षा से रहने का अधिकार है, जो इस अनुच्छेद से उद्भूत होता है। इस संवैधानिक समादेश के विरुद्ध, तुच्छ व्यक्तिगत संरक्षण या असुविधा, यदि कोई हो, व्यापक लोकहित के पक्ष में समर्पित होना चाहिए। अविषेक गोयनका वि० भारत संघ, (2012) 5 एस० सी० सी० । निर्दोषता की उपधारणा मानव अधिकार है किन्तु मूल अधिकार नहीं। नूर आगा वि० पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 852:(2008) 16 एस० सी० सी० 417, अनच्छेद 21 अपने व्यापक अर्थ की दृष्टि में न केवल प्राण और स्वतन्त्रता को संरक्षित करता है बल्कि 20 प्रक्रिया पर भी विचार करता है। रंजीतसिंग ब्रह्मजीतसिंग शर्मा वि० महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 2277:(2005) 5 एस० सी० सी० । नागरिक का प्राण का अधिकार उसकी गिरफ्तारी पर स्थगित नहीं रखा जा सकता। इस अनुप्र रों पर स्थगित नहीं रखा जा सकता। इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत तयक्त मूल्यवान अधिकार का प्रत्याख्यान दोषसिद्धों, विचाराधीनों, निरुद्धों और अभिरक्षा में अन्य बन्दियों का ए निर्बन्धन अधिरोपित करके, जिसकी अनुमति विधि द्वारा दी जाती है, विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया जा सकता है, अन्यथा नहीं। महमूद नायर आजम वि० छत्तीसगढ़ राज्य, ए० आई० ॥ 2573 :(2012) 8 एस० सी० सी० । जीवित रहने का अधिकार इस अनुच्छेद के अधीन मरने के अधिकार को अधिकार को शामिल नहीं करता। अरुणा रामचन्द्र शॉन बॉग वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 1290 : (2011) 4 एस० सी० सी० ख्याति का अधिकार भी इस अनुच्छेद के अधीन प्राण के अधिकार का पहलू है। महमूद नायर आजम वि० छत्तीसगढ़ राज्य, ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 2573 : (2012) 8 एस० सी० सी० । दैहिक स्वतन्त्रता अत्यधिक मूल्यवान मूल अधिकार है और इसे केवल तब नियन्त्रित किया जाना चाहिए, जब यह मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार आज्ञापक होता है। एस० एस० म्हात्रे वि० महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 312 :(2011) 1 एस० सी० सी० विधि का पुरातन सिद्धान्त है कि मूल अधिकार के उल्लंघन का अपवंचन, विधि की आदेशिका के दुरुपयोग, उत्पीड़न इत्यादि को अन्तग्रस्त करने वाले मामलों में, न्यायालयों को व्यथित व्यक्ति को न केवल उसके प्रति किए गए अपकार का उपचार करने के लिए बल्कि अपकर्ता के लिए निवारक के रूप में कार्य करने के लिए भी समुचित प्रतिकर प्रदान करने की प्रचुर शक्ति है। आर० डी० भसीन वि० महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3393 :(2012) 9 एस० सी० सी० । नकली मुठभेड (डों), पुलिस अत्याचार से होने वाली मृत्यु में प्रतिकर प्रदान किया जा सकता है। नर्बदाबाई वि० गुजरात राज्य, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 1804 : (2011) 5 एस० सी० 5 एस० सी० सी० । व्यक्ति को एकान्तता का अधिकार है किन्तु इस अनुच्छेद के निबन्धनों में एकान्तता का अधिकार आत्यन्तिक अधिकार नहीं है। यदि दो पक्षकारों के मूलाधिकारों के बीच संघर्ष है, तो वह अधिकार, जो लोक नैतिकता में वृद्धि करता है, अभिभावी होगा। शारदा वि० धरम पाल, ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 3450 : (2003) 4 एस० सी० सी० 493. । शिशु का अधिकार केवल नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तक निर्बन्धित नहीं किया जाना चाहिये बल्कि इसका विस्तार शिशु की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर विभेद के बिना गुणवत्ता शिक्षा धारण करने तक किया जाना चाहिये। तिमलनाडु राज्य वि० के० श्याम सुन्दर, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3470 : ( 2018 एस० सी० सी० – इस अनुच्छेद के अधीन प्रत्याभूत प्राण का अधिकार त्वरित न्याय के अधिकार को प्रत्याभूत करता है, जिसमें न केवल त्वरित विचारण का अधिकार बल्कि दाण्डिक मामलों में त्वरित अन्वेषण का अधिकार भी निहित है। सुब्रत चटोराज एवं अन्य वि० आरत संघ एवं अन्य, (2016) 2 एस० सी० सी० । त्वरित विचारण के लिये अधोसंरचना प्रदान करना राज्य की ओर से संवैधानिक आबद्धता है। नूर मुहम्मद वि० जेठानन्द एवं एक अन्य, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 1217 :(2013) 5 एस० सी० सी० त्वरित विचारण और ऋजु विचारण सहचर अवधारणा है किन्तु गुणत्मक रूप से भिन्न अवधारणा है। पूजा पाल वि० भारत संघ एवं अन्य, ऐ० आई० आर० 2016 एस० सी० 1345 :(2016) 3 एस० सी० सी० अभियुक्त ऋजु अन्वेषण के लिये हकदार है। ऋजु अन्वेषण और ऋजु विचारण इस अनुच्छेद के अधीन अभियुक्त के मूल अधिकारों के परिरक्षण के सहवर्ती हैं। अपराध का पीड़ित समान रूप से ऋजु अन्वेषण का हकदार है। निर्मल सिंह कहलों वि० पंजाब राज्य,ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 984 : (2009) 1 एस० सी० सी० 441, जमानत नियम है और कारागार में सुपुर्दगी अपवाद है। जमानत की नामंजूरी इस अनुच्छेद के अधीन प्रत्याभूत । व्यक्ति को दैहिक स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन है। संजय चन्द्रा वि० सी० बी० अ०, ए० आई० 2012 एस० सी० 830:(2012} 1 एस० सी० सी० | निलम्बित विधान सभा सदस्य को निलम्बन की अवधि के दौरान वेतन और अन्य लाभों से वंचित करने वाला आदेश इस अनुच्छेद के अधीन आजीविका के अधिकार के मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं है। अलगापुरम आर० मोहनराज वि० तमिलनाडु विधान सभा, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० सी० 867 : (2016) 6 एस० सी० सी० 1[21क, शिक्षा का अधिकार.-राज्य, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति में, जो राज्य विधि द्वारा, अवधारित करे उपबन्ध करेगा।] टिप्पणी नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिये बालकों के अधिकार को इस अनुच्छेद के अधीन मूल अधिकार बनाया * नि:शल्क शिक्षा | गया है अब 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बालक को प्रारम्भिक शिक्षा तक पड़ोस के विद्यालय में निःशुल्क शि | प्राप्त करने का अधिकार है। बचपन बचाओ आन्दोलन वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2011 एस 3361 :(2011) 5 एस० सी० सी० | 1. संविधान (छियासीवां संशोधन) अधिनियम, 2002 की धारा 2 द्वारा (1-4-2010 से) अंत:स्थापित। कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण.-(1) किसी व्यक्ति को जो गिरफ्तार किया गया है, ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा या अपनी रुचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा। | (2) प्रत्येक व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध रखा गया है, गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गिरफ्तारी से चौबीस घंटे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अवधि के लिए अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा। (3) खंड (1) खंड (2) की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी जो (क) तत्समय शत्रु अन्यदेशीय है; या ख निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध किया गया है। (5) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन किए गए आदेश के अनुसरण में जब किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जाता है तब आंदेश करने वाला प्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को यह संसूचित करेगा कि वह आदेश किन आधारों पर किया गया है और उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा। संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 3 द्वारा (अधिसूचना की तारीख से, जो कि अधिसूचित नहीं हुई है) खंड (4) के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित किया जाएगा, (4) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली कोई विधि किसी व्यक्ति का दो मास से अधिक की अवधि के लिए निरुद्ध जाना शधिकत नहीं करेगी जब तक कि समुचित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति की सिफारिश के अनुसार अनि सलाहकार बोर्ड ने उक्त दो मास की अवधि की समाप्ति से पहले यह प्रतिवेदन नहीं दिया है कि उसकी राय में ऐसे निरोध के लिए पर्याप्त कारण हैं : परन्तु सलाहकार बोर्ड एक अध्यक्ष और कम से कम दो अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा और अध्यक्ष समुचित उच्च न्यायालय का सेवारत न्यायाधीश होगा और अन्य सदस्य किसी उच्च न्यायायय के सेवारत या सेवानिवृत न्यायाधीश होंगे: परन्त यह और कि इस खंड की कोई बात किसी व्यक्ति का उस अधिकतम अवधि के लिए निरुद्ध किया जाना प्राधिकृत नहीं करेगी जो खंड (7) के उपखंड (क) के अधीन संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा विहित की जाए। स्पष्टीकरण -इस खंड में, “समुचित उच्च न्यायालय” से अभिप्रेत है-
  1. भारत सरकार या उस सरकार के अधीनस्थ किसी अधिकारी या प्राधिकारी द्वारा किए गए निरोध | अनुसरण में निरुद्ध व्यक्ति की दशा में, दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के लिए उच्च न्यायालय;
  2. (ii) (सघ राज्यक्षेत्र से भिन्न) किसी राज्य सरकार द्वारा किए गए निरोध आदेश के अनुसरण
की दशा में, उस राज्य के लिए उच्च न्यायालय; और। (iii) किसी संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक या ऐसे प्रशासक के अधीनस्थ किसी अधिक गए निरोध आदेश के अनुसरण में निरुद्ध व्यक्ति की दशा में वह उच्च बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विनिर्दिष्ट किया जाए।”। (6) खंड (5) की किसी बात से ऐसा आदेश, जो उस खंड में निर्दिष्ट है, करने वाले प्राधिकारी के 7 ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं होगा जिन्हें प्रकट करना ऐसा प्राधिकारी लोकहित के विरुद्ध समझता है। (7) संसद विधि द्वारा विहित कर सकेगी कि| i (क) किन परिस्थितियों के अधीन और किस वर्ग या वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन तीन मास से अधिक अवधि के लिए खंड (4) के उपखंड (क) के उपबंधों के अनुसार सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किए बिना निरुद्ध किया जा सकेगा; । 2(ख) किसी वर्ग या वर्गों के मामले में कितनी अधिकतम अवधि के लिए किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन निरुद्ध किया जा सकेगा; और । 3(ग) 4[खंड (4) के उपखंड (क)] के अधीन की जाने वाली जांच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया क्या होगी । टिप्पणी यह अनुच्छेद व्यक्ति को इस तथ्य के होते हुये, कि ऐसा व्यक्ति न तो किसी अपराध को कारित करने के दिये दोषसिद्ध किया गया है और न ही विधि के अनुसार दण्डित किया गया है, निवारक रूप से निरुद्ध करने के लिये राज्य के प्राधिकार को मान्यता देता है। ऐसे निवारकै निरोध का आश्रय लेने के लिये राज्य का प्राधिकार अधिक कठोरता से । अनुच्छेद 22 के निर्देशों द्वारा विनियमित किया जाता है। सुभाष पोपट लाल दवे वि० भारत संघ एवं एक अन्य, | (2014) 1 एस० सी० सी० 280. | अपराध की गम्भीरता निवारक निरोध में असंगत है। अब्दुल नासर आदम इस्माइल वि० महाराष्ट्र राज्य, ए० | आई० आर० 2013 एस० सी० 1375 :(2013) 4 एस० सी० सी० 435. निवारक निरोध की आवश्यक अवधारणा यह है कि व्यक्ति का निरोध किसी चीज के लिये, जिसे उसने किया | है, उसे दण्डित करना नहीं है बल्कि उसे ऐसा करने से निवारित करना है। जी रेड्डैयाह वि० अ० प्र० सरकार, (2012) 2 एस० सी० सी० 389. _ भा० दे० सं० के अधीन अपराध की, चाहे जितना जघन्य हो, विशिष्ट घटना निवारक निरोध का आदेश जारी करने के लिये मामला निर्मित करने के लिये अपर्याप्त है। युम्मन ओगबी लेम्बी लेइम वि० मणिपुर राज्य एवं अन्य, ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 321 :(2012) 2 एस० सी० सी० 176. । अनुच्छेद 22 (2) के अधीन अधिकार केवल पुलिस द्वारा अवैध निरोध के विरुद्ध उपलब्ध है और यह न्यायिक आदेश के अनुसरण में कारागार में व्यक्ति की अभिरक्षा के विरुद्ध उपलब्ध नहीं है। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर व महाराष्ट्र राज्य, (2011) 10 एस० सी० सी० 445. । अधिवक्ता द्वारा प्रतिरक्षा किये जाने के अभियुक्त के अधिकार को विनिर्दिष्ट रूप से अनुच्छेद 22 (1) के अधीन मल अधिकार के रूप में मान्यता दी गयी है। के० विजय लक्ष्मी वि० अ० प्र० सरकार, उसके गृह सचिव 8 प्रतिनिधित्व, (2013) 5 एस० सी० सी० 489. । निरोध प्राधिकारी तथा निष्पादन प्राधिकारी की ओर से अत्यधिक सतर्क होना और उनकी आँखों को खुला खत आज्ञापक है किन्तु निरुद्ध को प्राप्त करने और निरोध आदेश को निष्पादित करने में आंखों को बन्द रखना न निरोध प्राधिकारी या निष्पादन प्राधिकारी की ओर से कोई उदासीन प्रवत्ति निरोध कार्यवाही के मूल प्रयोजन का शव न प्रयोजन को विफल करेगा और निरोध आदेश को व्यर्थ बनायेगा और सम्पूर्ण कार्यवाही को विफल करेगा। असम्यक विलम्ब, जिसके लिये कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता, इस उपधारणा को उत्पन्न करता है कि निरोध के आधारों और निरोध व प्रयोजन के बीच सजीव और सम्भाव्य सम्पर्क विच्छिन्न हो जाता है ! नरेश कमार गोयल वि० भारत संघ, ए° आई० आर 2505 एस० सी० 4421 : (2005) 8 एस० सी० सी० 276. संविधान { चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 3 द्वारा ( अधिसूचना की तारीख से, जो कि अधिसूचना नही हुई पखंड (क) का लोप किया जाएगा। संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा ३ द्वारा ( अधिसूचना की तारीख से, जा हुई है) उपखंड (ख) को उपखंड (क) के रूप में पुन:अक्षरांकित किया जाएगा। संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 3 द्वारा (अधिसूचना की तारीख से, हुई है) उपखंड (ग) को उपखंग (ख) के रूप में पुन:अक्षरांकित किया जाएगा। संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 3 द्वारा (अधिसूचना की त हुई है) बड़ी कोष्ठक में शब्दों के स्थान पर ”खंड (4) ” शब्द, कोष्ठक और अंक रखें जायेंगे। निरुद्ध को किसी विलम्ब के बिना निरोध के आधारों में विश्वास किये गये सभी दस्तावेजों, कथनों और अन्य यों की प्रतियों की आपूर्ति किये जाने का अधिकार है। निरोध के आधारों की संसूचना देने का प्रमुख उद्देश्य के निरोध के विरुद्ध शीघ्रातिशीघ्र प्रभावी ओर अर्थपूर्ण अभ्यावेदन करने के लिये समर्थ बनाना है। ताहिरा हैरिस ति, कर्नाटक सरकार, ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 2184 (2009) 11 एस० सी० सी० 438. आधारों की, जिन पर निरोध का आदेश किया गया है, संसूचना को अभ्यावेदन को नामंजूर करने वाले आदेश की संसचना से समीकृत नहीं किया जा सकता। नामंजूरी के आदेश की सूचना न देना अनुच्छेद 22 (5) का उल्लंघन नहीं है। भारत संघ एवं अन्य वि० सलीना, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 641 : (2016) 3 एस० सी० सी० 437. । जहाँ अभ्यावेदन का निस्तारण करने में स्पष्ट न किया गया विलम्ब है, वहाँ अनुच्छेद 22 (5) के अधीन निरुद्ध को प्रदत्त अधिकार का उल्लंघन होता है। राजम्मल वि० तमिलनाडु राज्य, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 684 :(1999) 1 एस० सी० सी० 417. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  1. मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध.-(1) मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। टिप्पणी इस अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्द “बेगार’ बलात् श्रम का रूप है, जिसके अधीन व्यक्ति को कोई पारिश्रमिक प्राप्त किये बिना कार्य करने के लिये विवश किया जाता है। बलात् श्रम का प्रत्येक रूप, “बेगार” या अन्यथा अनुच्छेद 23 के अवरोध के अन्तर्गत है और यह न केवल राज्य के विरुद्ध लागू होता है बल्कि यह किसी व्यक्ति द्वारा किये गये “मानव, बेगार में दुर्व्यापार और बलात् श्रम के अन्य समान रूप” को प्रतिषिद्ध करता है। पीपुल्स युनियन फार डिमोक्रेटिक राइट्स वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 1982 एस० सी० 1473 🙁 1982 ) 2 एस० सी० सी० 494. । लोगों को उनके वैध बकाये का विलम्बित मजदूरी भुगतान उनके अधिकार को प्रभावित करता है, जो राज्य द्वारा संविधान उल्लंघन के समान है। स्वराज अभियान (II, III ओर IV, वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 2953.
  1. कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध.-चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
  1. अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता.-(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, | सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो (क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बधन करती है; (ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खोलने का उपबंध करती है। स्पष्टीकरण 1.-कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा। – अर्थ लगाया जाएगा स्पष्टीकरण 2.-खंड (2) के उपखंड (ख) में हिन्दुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिन्दुओं का धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तद्नुसार लगाया जाएगा। टिप्पणी अनुच्छेद 25 से 30 के समूह में अन्तर्विष्ट धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतन्त्रा के मूल अधिकार के सम्भव अपवंचन के विरुद्ध संरक्षात्मक छत्र है। बाल पटियाल वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 3172 : (2005) 6 एस० सी० सी० 690. उपलब्ध स्वतन्त्रता लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अध्यधीन है, अनुच्छेद 25 स्वयं सामाजिक कल्याण और सुधार के हित में विधायन को अनुमति देता है, जो स्पष्ट रूप से लोक व्यवस्था, राष्ट्रीयता और राष्ट्र के लोगों के सामूहिक स्वास्थ्य का अभिन्न भाग है। जावेद वि० । हरियाणा राज्य, ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 3057 : (2003) 8 एस० सी० सी० 369. अनुच्छेद 25 और 26 के अधीन संरक्षण का विस्तार अनुष्ठानों और प्रथाओं, समारोहों और पूजा के ढंगों की प्रत्याभूति तक है, जो धर्म का अभिन्न भाग है। प्रथा धर्म का भाग केवल तब होता है, यदि ऐसी प्रथा आवश्यक और । अभिन्न भाग होना पायी जाती है। ये केवल वे प्रथायें हैं, जो धर्म का अभिन्न भाग हैं, जिनका संरक्षण किया जाता है। पुलिस आयुक्त वि० आचार्य जगीदश्वरानन्द अवधूत, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 2984 : (2004) | 12 एस० सी० सी० 770.
  1. धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता.- लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को-
(क) धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का, (ख) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का, (ग) जंगम और स्थावर संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का, और (घ) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का, | अधिकार होगा। टिप्पणी यह अनुच्छेद प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय को उसके मामलों का प्रबन्ध करने के लिए अधिकार प्रदान करते हुये यह स्पष्ट करता है कि किसी धार्मिक सम्प्रदाय के मामलों का प्रबन्ध करने के लिये अधिकार केवल धर्म के मामलों तक निर्बन्धित है। इसलिये संविधान के भाग 3 के प्रावधान प्रचुर रूप से यह स्पष्ट करते हैं कि धर्म की स्वतन्त्रता और किसी सम्प्रदाय के मामलों का प्रबन्ध करने के अधिकार निःसन्देह मूल अधिकार है जबकि वह लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अध्यधीन है और पुन: यह कि संविधान के भाग 3 में ऐसे अधिकारों को शामिल करना व्यापक लोक हित में समुचित ढंग में कार्यवाही करने से राज्य को निवारित करेगा, जैसा कि अनुच्छेद 25 और 26 दोनों के मुख्य भाग द्वारा समादेश दिया गया है। इसके अतिरिक्त, चूँकि धर्म की स्वतन्त्रता भाग 3 के अन्य प्रावधानों के अध्यधीन है, इसलिये नि:सन्देह अनुच्छेद 25 और 26 का भाग 3 में अन्तर्विष्ट अन्य प्रावधानों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग में अर्थान्वयन किया जाना चाहिये। आदि शैव सिचारियर्गल नाला संगम एवं अन्य वि० तमिलनाडु सरकार एवं अन्य, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 209 : (2016) 2 एस० सी० सी० 725.
  1. किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता.- किसी भी व्यक्ति को ऐसे करों का संदाय करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिनके आगम किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिए विनिर्दिष्ट रूप से विनियोजित किए जाते हैं।
टिप्पणी इस अनुच्छेद का उल्लंघन केवल तब होगा जब कर के सारभूत भाग का उपयोग किसी विशिष्ट धर्म के लिये किया जाता है। प्रफुल गोराड़िया वि० भारत संघ, (2011) 2 एस० सी० सी० 568.
  1. कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता.- (1) राज्य-निधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। |
(2) खंड (1) की कोई बात ऐसी शिक्षा संस्था को लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन राज्य करता है। किन्तु जो किसी ऐसे विन्यास या न्यास के अधीन स्थापित हुई है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है। (3) राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में थी ” उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहा। जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति ने. या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक न, इस SS सहमति नहीं दे दी है। टिप्पणी जब शैक्षणिक संस्थान का अनुरक्षण राज्य कोष से किया जाता है, तब कोई धार्मिक अनुदेश उसमें प्रदान नर्ह किया जा सकता है। सहायता की प्राप्ति पर, अनुच्छेद 28 (3) के प्रावधन सभी शैक्षणिक संस्थानों को लागू होंगे चाहे अल्पसंख्यकों या गैर अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित हो। टी० एम० ए० पाई फाउण्डेशन वि० कर्नाटक राज्य ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 355 : (2002) 8 एस० सी० सी० 481. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार
  1. अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण.-(1) भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा।
(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा। टिप्पणी अनुच्छेद 29 (1) का अध्ययन उपबन्धित करता है कि भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग में निवास करने वाले नागरिकों के किसी वर्ग को, जो स्वयं भिन्न भाषा, लिपि या संस्कृति धारण कर रहे है, उसका संरक्षण करने का अधिकार है और अनुच्छेद 30 (1) उपबन्धित करता है कि सभी अल्पसंख्यकों, चाहे धर्म पर या भाषा पर आधारित हैं, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान को स्थापित करने और प्रशासन करने का अधिकार होगा। कर्नाटक राज्य वि० एसोसिएटेड मैनेजमेण्ट आफ (गवर्नमेण्ट रिकागनाइज्ड इंग्लिश मीडियम) प्राइमरी एण्ड सेकेण्डरी स्कूल्स, । ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 2094 : (2014) 9 एस० सी० सी० 485.
  1. शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार. (1) धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
[(1क) खंड (1) में निर्दिष्ट किसी अल्पसंख्यक-वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति के अनिवार्य अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिए ऐसी विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खंड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बाधित या निराकृत न हो जाए।]. (2) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है। टिप्पणी अनुच्छेद 30 (1) के अधीन सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे धर्म पर या भाषा पर आधारित हों, उनकी पसंद के शैक्षणिक संस्थाओं को स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार होगा। इसलिये, धर्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक विद्यालयों को स्थापित करने और प्रशासन करने का विशेष, संवैधानिक अधिकार होगा और उच्चतम न्यायालय ने बार बार अवधारित किया है कि राज्य को अल्पसंख्यक संस्थानों के प्रशासन में हस्तक्षेप करने की कोई शक्ति नहीं है और केवल विनियमकारी उपाय निर्मित कर सकता है और गैर अल्पसंख्यक समुदायों में से विशिष्ट रूप से अल्पसंख्यक विद्यालयों में छात्रों के प्रवेश पर बल देने की शक्ति नहीं है, जिससे संस्थानों के अल्पसंख्यक प्रकृति को प्रभावित किया जाय। प्रमति एजूकेशनल एण्ड कल्चरल ट्रस्ट वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 2114 : (2014) 8 एस० सी० सी० 1. अनुच्छेद 30 (1) अल्पसंख्यकों को दो अधिकार : अपने पसंद के शैक्षणिक संस्थान को (क) स्थापित करने और (ख) का प्रशासन करने का देता है। अनुच्छेद 29 (2) और 30 (1) का वास्तविक 30 (1) का वास्तविक निहितार्थ यह है कि अल्पसंख्यक संस्थान में प्रवेश दिये गये बाहरी की अल्पसंख्या के साथ उसको अनुध्यात करते हैं। उसमें गैर सदस्य को प्रवेश देकर अल्पसंख्यक संस्थान अपने चरित्र को नहीं खोते और अल्पसंख्यक संस्थान होने से प्रविरत नहीं होते। सोसाइटी फार अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स आफ राजस्थान वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 3445 :(2012) 6 एस० सी० सी० 1.
  1. संपत्ति का अनिवार्य अर्जन.–[ संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 को । 6 द्वारा (20-6-1979 से) निरसित ]
  2. संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 4 द्वारा (20-6-1979 से) को
  3. संविधान (20-6-1979 से) अंत:स्थापित। द्वारा (20-6-1979 से) उपशीर्षक “संपत्ति का अधिकार का लोप किया गया।
कुछ विधियों की व्यावृत्ति] 2[31क. संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति.-3[(1) अनुच्छेद 13 में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, (क) किसी संपदा के या उसमें किन्हीं अधिकारों के राज्य द्वारा अर्जन के लिए या किन्हीं ऐसे अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए, या (ख) किसी संपत्ति का प्रबंध लोकहित में या उस संपत्ति का उचित प्रबंध सुनिश्चित करने के उद्देश्य से परिसीमित अवधि के लिए राज्य द्वारा ले लिए जाने के लिए, या (ग) दो या अधिक निगमों को लोकहित में या उन निगमों में से किसी का उचित प्रबंध सुनिश्चित करने के उद्देश्य से समामेलित करने के लिए, या (घ) निगमों के प्रबंध अभिकर्ताओं, सचिवों और कोषाध्यक्षों, प्रबंध निदेशकों, निदेशकों या प्रबंधकों के किन्हीं अधिकारों या उनके शेयरधारकों के मत देने के किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए, या (ङ) किसी खनिज या खनिज तेल की खोज करने या उसे प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए किसी करार, पट्टे या अनुज्ञप्ति के आधार पर प्रोद्भूत होने वाले किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए या किसी ऐसे करार, पट्टे या अनुज्ञप्ति को समय से पहले समाप्त करने या रद्द करने के लिए, उपबंध करने वाली विधि इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह 4[अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19] द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है। । परंतु जहाँ ऐसी विधि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि है वहाँ इस अनुच्छेद के उपबंध उस विधि को तब तक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं हो गई है:] |5[परन्तु यह और कि जहां किसी विधि में किसी संपदा के राज्य द्वारा अर्जन के लिए कोई उपबंध किया गया है और जहां उसमें समाविष्ट कोई भूमि किसी व्यक्ति की अपनी जोत में है वहाँ राज्य के लिए ऐसी भूमि के ऐसे भाग को, जो किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन उसको लागू अधिकतम सीमा के भीतर है, या उस पर निर्मित या उससे अनुलग्न किसी भवन या संरचना को अर्जित करना उस दशा के सिवाय विधिपूर्ण नहीं होगा जिस दशा में ऐसी भूमि, भवन या संरचना के अर्जन से संबंधित विधि उस दर से प्रतिकर के संदाय के लिए उपबंध करती है जो उसके बाजार-मूल्य से कम नहीं होगी।] (2) इस अनुच्छेद में, 6 [(क) “संपदा” पद का किसी स्थानीय क्षेत्र के संबंध में वही अर्थ है जो उस पद का या उसके समतुल्य स्थानीय पद का उस क्षेत्र में प्रवृत्त भू-धृतियों से संबंधित विद्यमान विधि में है। और इसके अन्तर्गत (i) कोई जागीर, इनाम था मुआफी अथवा वैसा ही अन्य अनुदान और [तमिलनाडु] और केरल राज्यों में कोई जन्मम् अधिकार भी होगा; | (ii) रैयतवाड़ी बंदोबस्त के अधीन धृत कोई भूमि भी होगी;
  1. संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 3 द्वारा (3-1-1977 से) अंत:स्थापित
  2. संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 4 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अंत:स्थापित ।
  3. संविधान (चौथो संशोधन) अधिनियम, 1955 की धारा 3 द्वारा ( भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
  4. संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 7 द्वारा (20-6-1979 से) * अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 अनुच्छेद 31” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।।
  5. संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1964 की धारा 2 द्वारा अंत:स्थापित।
  6. संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1964 की धारा 2 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) (क) के स्थान पर
प्रतिस्थापित |
  1. मद्रास राज्य (नाम-परिवर्तन) अधिनियम, 1968 (1968 का 53) की धारा 4 द्वारा (14-1-1969 से) “मद्रास” के स्थान पर प्रतिस्थापित |
(iii) कृषि के प्रयोजनों के लिए या उसके सहायक प्रयोजनों के लिए धृत या पट्टे पर दी । गई कोई भूमि भी होगी, जिसके अंतर्गत बंजर भूमि, वन भूमि, चरागाह या भूमि । के कृषकों, कृषि श्रमिकों और ग्रामीण कारीगरों के अधिभोग में भवनों और अन्य । संरचनाओं के स्थल हैं;] (ख) “अधिकार” पद के अंतर्गत, किसी संपदा के संबंध में, किसी स्वत्वधारी, उप-स्वत्वधारी, अवर स्वत्वधारी, भू-धृतिधारक, 1[रैयत, अवर रैयत] या अन्य मध्यवर्ती में निहित कोई अधिकार और भू-राजस्व के संबंध में कोई अधिकार या विशेषाधिकार होंगे।] | 2[31ख. कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण.-अनुच्छेद 31-क में अंतर्विष्ट | उपबंधों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, नवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट अधिनियमों और विनियमों में से और उनके उपबंधों में से कोई इस आधार पर शून्य या कभी शून्य हुआ नहीं समझा जाएगा कि वह अधिनियम, विनियम या उपबंध इस भाग के किन्हीं उपबंधों द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है। या उसे छीनता है या न्यून करता है और किसी न्यायालय या अधिकरण के किसी प्रतिकूल निर्णय, डिक्री या आदेश के होते हुए भी, उक्त अधिनियमों और विनियमों में से प्रत्येक, उसे निरसित या संशोधित करने की किसी सक्षम विधान मंडल की शक्ति के अधीन रहते हुए प्रवृत्त बना रहेगा।] [31ग. कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति.-अनुच्छेद 13 में । किसी बात के होते हुए भी, कोई विधि, जो 4[भाग 4 में अधिंकथित सभी या किन्हीं तत्वों] को । सुनिश्चित करने के लिए राज्य की नीति को प्रभावी करने वाली है, इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी । कि वह [अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19] द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनती है। या न्यून करती है और कोई विधि, जिसमें यह घोषणा है कि वह ऐसी नीति को प्रभावी करने के लिए। है, किसी न्यायालय में इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं। करती है। परन्तु जहाँ ऐसी विधि किसी राज्य के विधानमंडल द्वारा बनाई जाती है वहाँ इस अनुच्छेद के उपबंध उस विधि को तब तक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित । रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं हो गई है।] । 7[31घ. राष्ट्र विरोधी क्रियाकलाप के संबंध में विधियों की व्यावृत्ति.-[ संविधान (तैतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 2 द्वारा (13-4-1978) से निरसित]] सांविधानिक उपचारों का अधिकार
  1. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार.–(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।
(2) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे => या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।`
  1. संविधान (चौथा संशोधन) अधिनियम, 1955 की धारा 3 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अंत:स्थापित। .
  2. संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 5 द्वारा अंत:स्थापित।।
  3. संविधान (पच्चीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 3 द्वारा (20-4-1972 से) अंत:स्थापित ।।
4, २० के खंड (ख) या 4. संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 4 द्वारा (3-1-1977 से) * अनुच्छेद 39 के खंड खंड (ग) में विनिर्दिष्ट सिद्धांतों के स्थान पर प्रतिस्थापित । धारा 4 को उच्चतम न्यायालय द्वारा, मिनवी । अन्य वि० भारत संघ और अन्य, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 1789 में अविधिमान्य घोषित कर दिया 5. संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 8 द्वारा (20-6-1979 से)अनुच्छेद 31” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
  1. उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती वि० केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 एस० | दिए गए उपबंध को अविधिमान्य घोषित कर दिया है।
  2. संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 5 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित ।
अनुच्छेद 32-32 (3) उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोक्तव्य किन्हीं या सभी शक्तियों को किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए विधि द्वारा सशक्त कर सकेगी। (4) इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा। टिप्पणी उच्चतम न्यायालय को संविधान के भाग 3 में परिकल्पित अधिकारों को प्रवर्तित करने के प्रयोजन के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन व्यापक शक्ति है। कुगना नीमा लेपचा वि० सिक्किम राज्य, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 1671 : (2010) 4 एस० सी० सी० 513. अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन के लिए संविधान के भाग 3 में अन्तर्विष्ट एक या अन्य मूल अधिकारों के उल्लंघन का तत्व होना चाहिए। नेशनल काउन्सिल फार सिविल लीबर्टीज वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 2631 : (2007) 6 एस० सी० सी० 506. अनुच्छेद 32 भी संविधान के भाग 3 में अन्तर्विष्ट है, जो मूल अधिकारों की गणना करता है और न कि संविधान के अन्य अनुच्छेदों, के साथ, जो उच्चतम न्यायालय की सामान्य अधिकारिता को परिभाषित करते हैं। इस प्रकार स्वयं मूल अधिकार होने के कारण, उच्चतम न्यायालय का यह सुनिश्चित करना कर्तव्य है कि किसी मूल अधिकार का किसी कानुनी या संवैधानिक प्रावधान द्वारा उल्लंघन नहीं किया गया है या संक्षिप्त नहीं किया गया राज्य वि० लोक तान्त्रिक अधिकार संरक्षण समिति पश्चिम बंगाल, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 1476 : (2010) 3 एस० सी० सी० 571. जब राज्य की कार्यवाही मनमानापूर्ण है, तब उच्चतम न्यायालय ऐसे मनामानापूर्ण कार्यवाही को विखण्डित करेगा। आर० गाँधी वि० भारत संघ, (1999) 8 एस० सी० सी० 106. संवैधानिक न्यायालय का किसी अतिचार के विरुद्ध नगारिकों के संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण करना कर्तव्य है। उच्चतम न्यायलाय संविधान के प्रावधानों का अन्तिम निर्वचनकर्ता है। सोसाइटी फार अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स आफ राजस्थान वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2012 एस० सी० सी० 3445 : (2012) 6 एस० सी० सी० अनुच्छेद 32 के अधीन संवैधानिक उपचार वैवेकिक है। एक मामले में, उच्चतम न्यायालय वैवेकिक अनुतोष को नामंजूर कर सकता है, यदि व्यथित व्यक्ति कई वर्षों तक निष्क्रिय रहा है। अन्य मामले में, उल्लंघन की प्रकृति के आधार पर, न्यायालय विलम्ब की उपेक्षा कर सकेगा और प्रावधान की अविधिमान्यता की घोषणा करेगा। यह विभिन्न मामलों पर आधारित होगा। एक्सप्रेस पब्लिकेशन्स (मदुरै ) लि० वि० भारत संघ, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1950 🙁 2004 ) 11 एस०सी० सी० 526. न्यायालय विधि आयोजना को केवल उसके अधिकारातीत या असंवैधनिक होने के आधार पर विखण्डित कर सकता है किन्तु उसकी व्यहार्यता के आधार पर नहीं। भीम सिंह वि० भारत संघ, (2010) 5 एस० सी० सी० 538, न्यायालय द्वारा दण्ड को अधिकथित करना केवल संवैधानिक मूकता या प्रास्थगन के मामले में अनुज्ञेय है। सुप्रीम कोर्ट विमेन लायर्स एसोसिएशन (एस० सी० डब्ल्यू० ए०) वि० भारत संघ एवं अन्य, ए० आई० आर 2016 एस० सी० 358 🙁 2016 ) 3 एस० सी० सी० 680. जनहित वाद हथियार है, जिसका प्रयोग अत्यधिक सावधानी और सतर्कता से किया जाना चाहिए और न्यायपालिका को यह देखने के लिए अत्यधिक सावधान होना चाहिए कि जनहित के उचित पर्दे के पीछे दोपण प्राइवेट दुर्भावना, निहित और/या प्रचार की अपेक्षा नहीं है। इसका नागरिकों को सामाजिक न्याय का परिदान करने के लिए विधि के शस्त्रागार हथियार के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। जनहित वाद के आकर्षक ब्राण्ड नाम का रिष्टि के संदिग्ध उत्पाद के लिए प्रयोग किये जाने की अनुज्ञा नहीं दी जानी चाहिए। इसका लक्ष्य असली लोग अपकार या लोक उपहति का प्रतिशोध चाहिए और न कि प्रचार परक या व्यक्तिगत प्रतिशोध पर आधारित होना चाहिए। न्यायालय को यह देखने में सावधान होना चाहिए कि व्यक्तियों या सामान्य जनता के सदस्यों का निकाय, जो न्यायालय में आवेदन करता है, सद्भाव से कार्य कर रहा है और न कि व्यक्तिगत लाभ या प्राइवेट हेतुक या राजनैतिक प्रेरणा या अन्य परवर्ती विचारण से। बी० सिंह वि० भारत संघ ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1923 : (2004) 3 एस० सी० सी० 363. 1[32क. राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता पर अनुच्छेद 32 के अधीन कार्यवाहियों में विचार न किया जाना.-[ संविधान (लैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 3 द्वारा (13-41978 से) निरसित ।।
  • संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम 1976 की धारा 6 द्वारा (1-2-1977 से) अंत:स्थापित।
अनुच्छेद 33-37 1[33. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का, बलों आदि को लागू होने में, उपांतरण करने की संसद की शक्ति.-संसद, विधि द्वारा, अवधारण कर सकेगी कि इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से कोई- (क) सशस्त्र बलों के सदस्यों को, या (ख) लोक व्यवस्था बनाए रखने का भारसाधन करने वाले बलों के सदस्यों को, या (ग) आसूचना या प्रति आसूचना के प्रयोजनों के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को, या (घ) खंड (क) से खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी बल, ब्यूरो या संगठन के प्रयोजनों के लिए स्थापित दूरसंचार प्रणाली में या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को, लागू होने में, किस विस्तार तक निर्बाधित या निराकृत किया जाए जिससे उनके कर्तव्यों का उचित पालन और उनमें अनुशासन बना रहना सुनिश्चित रहे।] |
  1. जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवृत्त है तब इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर निर्बधन.- इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद विधि द्वारा संघ या किसी राज्य की सेवा में किसी व्यक्ति की या किसी अन्य व्यक्ति की किसी ऐसे कार्य के संबंध में क्षतिपूर्ति कर सकेगी जो उसने भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी ऐसे क्षेत्र में, जहाँ सेना विधि प्रवृत्त थी, व्यवस्था के बनाए रखने या पुनः स्थापन के संबंध में किया है या ऐसे क्षेत्र में सेना विधि के अधीन पारित दंडादेश, दिए गए दंड, आदिष्ट समपहरण या किए गए अन्य कार्य को विधिमान्य कर सकेगी।
  2. इस भाग के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए विधान.- इस संविधान में किसी बात के होते | हुए भी,
(क) संसद को शक्ति होगी और किसी राज्य के विधानमंडल को शक्ति नहीं होगी कि वह- (i) जिन विषयों के लिए अनुच्छेद 16 के खंड (3), अनुच्छेद 32 के खंड (3), अनुच्छेद 33 और अनुच्छेद 34 के अधीन संसद विधि द्वारा उपबंध कर सकेगी। उनमें से किसी के लिए, और (ii) ऐसे कार्यों के लिए जो इस भाग के अधीन अपराध घोषित किए गए हैं, दंड विहित करने के लिए, विधि बनाए और संसद इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र ऐसे कार्यों के लिए, जो उपखंड (ii) में निर्दिष्ट हैं, दंड विहित करने के लिए विधि बनाएगी; (ख) खंड (क) के उपखंड (i) में निर्दिष्ट विषयों में से किसी से संबंधित या उस खंड के उपखंड (Gi) में निर्दिष्ट किसी कार्य के लिए दंड का उपबंध करने वाली कोई प्रवत्त विधि, जो भारत के राज्यक्षेत्र में इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रवृत्त थी, उसके निबंधनों के और अनुच्छेद 372 के अधीन उसमें किए गए किन्हीं अनुकूलनों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए तब तक प्रवृत्त रहेगी जब तक उसका संसद द्वारा परिवर्तन या निरसन या संशोधन नहीं कर दिया जाता है। स्पष्टीकरण.- इस अनुच्छेद में, ‘‘प्रवृत्त विधि” पद का वही अर्थ है जो अनुच्छेद 372 में है।

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