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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 22 

Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 22 LLB Notes Study Material : Law LLB Books Notes and Study Material Indian Penal Code All Semester in PDF Download 1st Semester, 2nd Semester and 3rd Semester Available on This Post, Law LLB Most Important IPC Notes for Student, BA LLB 1st Semester Notes in PDF File Online Download Free Website.

 
 

 

सदोष अवरोध तथा सदोष परिरोध के विषय में

OF WRONGFUL RESTRAINT AND WRONGFUL CONFINEMENT

 

  1. सदोष अवरोध-जो कोई किसी व्यक्ति को स्वेच्छया ऐसे बाधा डालता है कि उस व्यक्ति को उस दिशा में, जिसमें उस व्यक्ति को जाने का अधिकार है, जाने से निवारित कर दे, वह उस व्यक्ति का सदोष अवरोध करता है, यह कहा जाता है। ।

अपवाद- भूमि के या जल के किसी प्राइवेट मार्ग में बाधा डालना जिसके सम्बन्ध में किसी व्यक्ति को सद्भावपूर्वक विश्वास है कि वहाँ बाधा डालने का उसे विधिपूर्ण अधिकार है, इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत अपराध नहीं है। दृष्टान्त क एक मार्ग में, जिससे होकर जाने का य का अधिकार है, सद्भावपूर्वक यह विश्वास न रखते हुए कि उसको मार्ग रोकने का अधिकार प्राप्त है, बाधा डालता है। ये जाने से तद्द्वारा रोक दिया जाता है। क, ये का सदोष अवरोध करता है। टिप्पणी अवयव-इस धारा के निम्नलिखित प्रमुख अवयव हैं (1) किसी व्यक्ति को स्वेच्छया बाधा डालना, (2) बाधा ऐसी हो जो उस व्यक्ति को उस दिशा में, जिसमें उस व्यक्ति को जाने का अधिकार है, जाने से निवारित कर दे। बाधा (Obstruction)—इस धारा के अन्तर्गत बाधा का अर्थ है शारीरिक बाधा। बाधा शारीरिक बल प्रयोग के अतिरिक्त धमकी या भय द्वारा भी उत्पन्न की जा सकती है। यदि बाधा सदोष है तो यह सदोष अवरोध होगा। सदोष अवरोध के लिये यह आवश्यक है कि एक व्यक्ति दूसरे को स्वेच्छया बाधा डाले। सदोष अवरोध का अर्थ है किसी व्यक्ति को उस स्थान से दूर रखना जहाँ वह रहना चाहता है और जहां उसे रहने का अधिकार है।51 सामीनन्दा पिल्लई52 के वाद में यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया था कि जनता के कहीं जाने के अधिकार में जहाँ और जब वह जाना चाहता है, २चमात्र भी विधि-विरुद्ध अवरोध उत्पन्न करना। न्यायोचित नहीं कहा जा सकता और धारा 341 के अन्तर्गत दण्डनीय है। सामीनन्दा पिल्लई53 के वाद में परिवादकर्ता एक भ्रमणकर्ता था। उस पर सन्देह कर पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसे एक सिपाही के कब्जे से दूसरे सिपाही के कब्जे में तब तक रखे रहा जब तक कि वह गन्तव्य पर नहीं पहुंच गया। जब उस व्यक्ति की शिनाख्त हो गयी तब उसे मुक्त कर दिया गया। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि चूंकि उसे पुलिस संरक्षण में एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया गया था अत: उसकी गतिविधियों पर जानबूझ कर बाधा उपस्थित की गयी थी। यह प्रक्रिया सदोष अवरोध है। सदोष अवरोध किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आंशिक अवरोध है। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर पवित्र तथा मुक्त है। अतः विधि उन व्यक्तियों को दण्डित करती है जो इस स्वतन्त्रता पर अतिक्रमण करते हैं। यह अपराध तब गठित होता है जब किसी व्यक्ति के संचालन (movement) को किसी दूसरे व्यक्ति के कार्य द्वारा स्वेच्छया निलम्बित कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में किया गया कार्य अवरोध उत्पन्न करने के आशय, या ज्ञान या विश्वास से किया गया होना चाहिये। अवरोध का अर्थ है किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता का उसकी इच्छा के विरुद्ध न्यूनन । अतः यदि कोई व्यक्ति निद्रा या अन्यथा द्वारा अपनी इच्छा शक्ति से वंचित कर दिया जाता है तो उस अवस्था में वह किसी अवरोध का पात्र नहीं बन सकता 54 बाधा का अर्थ है संचलन की इच्छा और यदि संचलन की इच्छा ही नहीं है तो संचलन पर बाधा उत्पन्न ही नहीं की जा सकती 25 किसी व्यक्ति के संचलन पर बाधा या तो बल प्रयोग द्वारा या प्रत्यक्ष या परोक्ष भय द्वारा उत्पन्न की जा सकती है 26 फलतः इस धारा के अन्तर्गत बल का प्रयोग किये जाने का भय न कि वास्तविक बल प्रयोग अपेक्षित है?

  1. नोट० एम० पी० 154.
  2. सामीनन्दा पिल्लई, (1882) 1 वेयर, 339.
  3. उपरोक्त सन्दर्भ.
  4. फतेह मुहम्मद बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1928 लाहौर 445.
  5. पगला बाबा बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1957 उड़ीसा 130.
  6. रिले बनाम स्टोन, 94 एस० ई० 434. ।
  7. ओम प्रकाश तिलक चन्द्र बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1959 पंजाब 134.

एक व्यक्ति एक दूसरे व्यक्ति के लिये एक ऐसे कार्य द्वारा जिससे दूसरे को यह प्रतीत हो कि उसका संचलन असम्भव, कठिन या घातक है अथवा उसका संचलन वस्तुत: असम्भव, कठिन या घातक बनाकर बाधा उत्पन्न कर सकता है। | निम्नलिखित कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें अभियुक्त ने संचलन को असम्भव, कठिन या घातक प्रती होने दिया (क) क अपनी खतरनाक भैंस को उचित नियन्त्रण में रखने से लोप करता है और ज को स्वेच्छया उस सड़क पर से गुजरने से भयभीत करता है जिस सड़क पर से होकर उसे गुजरने का अधिकार है। | (ख) अ, ज को धमकी देता है कि उस सड़क पर से जिस पर से गुजरने का ज को अधिकार है यदि वह गुजरेगा तो वह अपना जंगली कुत्ता उस पर छोड़ देगा। (ग) अ, ज को धमकी देता है कि यदि ज उस सड़क से जिस पर होकर उसे गुजरने का अधिकार है। गुजरेगा तो वह अपना कुत्ता उस पर छोड़ देगा। कुत्ता भयानक प्रकृति का नहीं है किन्तु अ, ज को इस बात का आभास कराता है कि वह भयानक प्रकृति का है और इस प्रकार उसे सड़क पर से गुजरने से रोकता है। निम्नलिखित उदाहरणों में अभियुक्तों ने संचलन को वस्तुत: असम्भव, कठिन या घातक बना दिया(क) अ, उस रास्ते के आर-पार जिस पर से होकर ज को गुजरने का अधिकार है, एक दीवाल बना देता (ख) अ एक घर में निवास कर रहा था। वह अपनी पत्नी तथा बच्चे के साथ बाजार जाता है। वापस लौटने पर वह पाता है कि उसके घर में बने बाहर से ताला बन्द कर दिया है। अत: अ उस पर घर में घुसने से वंचित हो जाता है जिसमें घुसने का उसे अधिकार है।8। इस धारा के अन्तर्गत जो कुछ भी अपेक्षित है वह है एक व्यक्ति के स्वतन्त्र आवागमन में बाधा। इस बाधा में प्रयोग में लाये गये साधन महत्वपूर्ण नहीं है। शारीरिक बल का प्रयोग भी आवश्यक नहीं है। सामान्यतया मौखिक निषेध या आपत्ति बाधा के तल्य नहीं मानी जाती 59 कतिपय परिस्थितियों में इसे धमकी या केवल शब्दों द्वारा60 कारित किया जा सकता है किन्तु इस अवस्था में इसका प्रभाव ऐसा होना चाहिये कि अपेक्षित बाधा का परिणाम उत्पन्न हो सके। बाधित व्यक्ति के मस्तिष्क पर ऐसे शब्दों का प्रभाव अधिक महत्वपूर्ण है न कि प्रभाव उत्पन्न करने का ढंग 61 केवल निर्देश या प्रदर्शन द्वारा सदोष अवरोध नहीं उत्पन्न होता।62 म्युनिसिपल प्राधिकारियों द्वारा घोषित लोक पथों पर सभी व्यक्तियों को समान अधिकार है। इसलिये समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग को ऐसे लोक पथों पर उनके अधिकारों के विधिपूर्ण प्रयोग से वंचित नहीं कर सकता है।63 लोगों को यह अधिकार है कि वे किसी शव को लोक पथ पर से ले जा सकें 64 । व्यक्ति (Person)-इस धारा को लागू होने के लिये यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता अवरोधित हुई हो। प्रश्न यह है कि क्या कोई नाजुक उम्र का शिशु जो अपने पैरों के सहारे नहीं चल सकता, अवरोध का विषय वस्तु बन सकता है? यह प्रश्न महेन्द्र नाथ चक्रवर्ती बनाम इम्परर65 के वाद में उठाया गया था। न्यायालय का कथन था कि इस धारा का विस्तार केवल उन मामलों तक ही सीमित नहीं है। जिनमें सम्बन्धित व्यक्ति अपने पैरों के सहारे चल सकता हो या अपनी शक्ति के अन्तर्गत भौतिक साधनों के सहारे चल सकता हो। मात्र भौतिक साधनों के सहारे चलने वाले व्यक्तियों को भी इस धारा के अन्तर्गत अवरोधित किया जा सकता है। एक दूसरा मुद्दा जो यहाँ विचारणीय है, वह यह है कि यदि किसी वाहन में कोई व्यक्ति बैठा हुआ है तो क्या ऐसे वाहन का सदोष अवरोध हो सकता है या नहीं। इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं है। इम्परर बनाम रामलाला66 के वाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि वाहन में बैठा व्यक्ति उतर कर जा सकता है।

  1. अरुमुगा नाडार, (1910) एम० डब्ल्यू० एन० 727.
  2. करतूरी नगम्मन, (1882) 1 वेयर 339.
  3. इन रे शन्मुघम, (1971) क्रि० लाँ ज० 182.
  4. नृपेन्द्र नाथ बसु बनाम किसेन बहादुर, (1952) 1 कल० 251.
  5. सुब्बाराव (108) 8 क्रि० लाँ ज० 212.
  6. सुन्दरेश्वर बनाम कन्थीमल, (1927) 50 मद्रास 673.
  7. सुब्रामनिया बनाम गणदिक्कम, (1963) II एम० एल० जे० 80.
  8. आई० एल० आर० 62 कल० 629.
  9. (1912) 15 बाम्बे एल० आर० 103.

तो वाहन के सम्मुख बाधा उत्पन्न करना सदोष अवरोध नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपनी बैलगाडी छोड़कर इच्छित रास्ते से जा सकता है किन्तु बैलगाड़ी ले जाने पर बाधा उत्पन्न कर दी जाती है तो यह नहीं कहा जायेगा कि उसे सदोष-अवरोध कारित हुआ। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया था।67 किन्तु मद्रास उच्च न्यायालय ने इसके विपरीत विचार व्यक्त किया। इन रे पेरिया पुत्रु स्वामी गोल्डन68 के वाद में किसी घुड़सवार को अवरोधित किया गया। न्यायालय के समक्ष यह दलील प्रस्तुत की। गयी कि वह घोड़ा छोड़ कर जहाँ भी जाना चाहे जिस भी दिशा में जाना चाहे जा सकता है। यह अभिनिर्णीत हुआ कि यह कार्यवाही सदोष अवरोध है। इसी प्रकार गोपाल रेड्डी बनाम एन० लक्ष्मी रेड्डी09 के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ कि स्वेच्छया किसी बैलगाड़ी के सम्मुख बाधा उत्पन्न करना जिनमें लोग यात्रा कर रहे हों, उन व्यक्तियों का संदोष अवरोध है जो बैलगाड़ी में बैठे हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह कथन कि यात्री बैलगाड़ी छोड़कर जा सकते हैं तथा उन्हें किसी भी प्रकार की हानि नहीं कारित की जायेगी, औचित्यहीन है। इस निर्णय को इन रे एम० अब्राहम70 के वाद में भी स्वीकार किया गया। मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय को पटना71 कलकत्ता72 तथा केरल73 उच्च न्यायालयों ने भी अपना समर्थन दिया है। उपरोक्त मामलों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त अधिक उपयुक्त है। यह सत्य है कि सदोष अवरोध एक ऐसा अपराध है जो मानव शरीर को प्रभावित करता है किन्तु अपराध उसी समय पूर्ण हो जाता है जैसे ही जाने वाले व्यक्ति को अवरोध किया जाता है और यह तथ्य कि उसे इस बात की आजादी थी कि वह वाहन से उतर कर जा सकता था, महत्वपूर्ण नहीं है। एक व्यक्ति को किसी भी दिशा में जाने से निवारित करना ही इस अपराध का सार है। अत: जाने (Proceeding) शब्द के अर्थ को संकुचित करने का कोई औचित्य नहीं है। उदाहरण- सदोष अवरोध के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं (1) अ ने ब से उसका मकान किराये पर लिया। अ मकान में ताला बन्द कर बाहर चला गया। अ की अनुपस्थिति में ब उस मकान में अपना ताला बन्द कर देता है।74 (2) अ, अपने मकान की छत पर था। ब सीढ़ी हटा लेता है जिससे अ छत पर ही रहने को बाध्य हो जाता है।75 अ और ब एक कुयें के सह-भागीदार थे। अ, ब को कुएँ से पानी लेने से इस आधार पर मना कर देता है कि ब ने कुएं में लगी धनराशि के अपने अंश का भुगतान नहीं किया था।76 लोक मार्ग को वैध रीति से उपयोग में लाने का अधिकार हर नागरिक को है। किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों पर यह प्रतिबन्ध लगा सके कि वे लोक-मार्ग का उपयोग नहीं कर सकते। यदि वह किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करता हो तो इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय होगा।77 यदि कोई व्यक्ति लोक मार्ग पर बाधा उत्पन्न करता है तो दूसरों को उसे हटाने का अधिकार होता है।78 किन्तु यह अधिकार प्राइवेट रास्ते पर नहीं मिलता क्योंकि उस पर दूसरों का केवल सुखाधिकार प्राप्त होता है।79 | निम्नलिखित कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें सदोष अवरोध गठित नहीं होता

  1. दुर्गापद चटर्जी बनाम नीलमनी घोष, ए० आई० आर० 1935 कल० 252.
  2. ए० आई० आर० 1927 मद्रास 507.
  3. (1947) मद्रास 555.
  4. ए० आई० आर० 1950 मद्रास 233.
  5. मंगल सिंह बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1941 पटना 384.
  6. माधव चन्द्र बनाम नलिनी, ए० आई० आर० 1964 कल० 286.
  7. कोट्टन बनाम केरल राज्य, (1960) केरल लॉ टाइम्स 789.
  8. लल्लू प्रसाद बनाम केदार नाथ, (1962) 2 क्रि० लाँ ज० 543.
  9. टी० सुभादू, (1884) 1 वेयर 340. ।
  10. लहन 9 (1925) 27 बाम्बे एल० आर० 1419.
  11. सुन्दरेश्वर बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 30 मद्रास 673.
  12. धर्मलिंग बनाम इम्परर, आई० एल० आर० 39 मद्रास 57.
  13. जिपू बनाम इम्परर, आई० एल० आर० 5 बाम्बे 487.

(1) अ एक सड़क पर कतिपय बाधा उत्पन्न करके पशुओं को जाने से रोकता है पर आदमियों के जा लिये कुछ जगह छोड़ देता है। ब को यह अधिकार है कि वह सड़क पर अपने घर के सदस्यों तथा पशओं ले जा सके।80 (2) अ और बे एक दुकान के संयुक्त स्वामी थे। ब दुकान को अ की सहमति के बिना एक दसरे – को किराये पर दे देता है और अ उसमें ताला बन्द कर देता है। किरायादार अ के विरुद्ध शिकायत दर्ज कर है। अ ने कोई अपराध नहीं किया है। अ उस सम्पत्ति का संयुक्त स्वामी है अत: दुकान में ताला बन्द करने अधिकार है तथा किरायादार उसका किरायेदार नहीं है।81 (3) स के बाड़े की दीवाल पर अ एक टिन की छत इस प्रकार रखता है कि वह छत जमीन से लग 7 फीट की ऊँचाई पर स के पक्के आंगन में लटकती है। छत लटकने से किसी का मार्ग अवरुद्ध नहीं होता। इसके नीचे सुविधापूर्वक लोग आ जा सकते हैं। यहाँ अ सदोष परिरोध नहीं कारित करता है क्योंकि किसी को मार्ग अवरुद्ध नहीं हो रहा है।82 (4) अ कुछ हरिजनों (निम्न वर्ग के लोगों) को एक मन्दिर के समीप एक लोक मार्ग में इस उद्देश्य से खडा कर देता है ताकि स अपदूषण के भय से एक धार्मिक जुलूस का संचालन न कर सके। अ इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय नहीं है।83

  1. सदोष परिरोध-जो कोई किसी व्यक्ति का इस प्रकार सदोष अवरोध कारित करता है कि उस व्यक्ति को निश्चित परिसीमा से परे जाने से निवारित कर दे, वह उस व्यक्ति का ”सदोष परिरोध” करता है, यह कहा जाता है।

दृष्टान्त (क) य को दीवार से घिरे हुए स्थान में प्रवेश कराकर क उसमें ताला लगा देता है। इस प्रकार य दीवार की परिसीमा से परे किसी भी दिशा में नहीं जा सकता। क ने य का सदोष परिरोध किया है। (ख) क एक भवन के बाहर जाने के द्वारों पर बन्दूकधारी मनुष्यों को बैठा देता है और य से कह देता है। कि यदि य भवन से बाहर जाने का प्रयत्न करेगा तो वे य को गोली मार देंगे। क ने य का सदोष परिरोध किया है। टिप्पणी अवयव-इस धारा के निम्नलिखित अवयव हैं (1) किसी व्यक्ति का सदोष अवरोध; (2) यह अवरोध ऐसा हो, जो उस व्यक्ति को किसी निश्चित परिसीमा से परे जाने से निवारित कर दे। जाने से निवारित करना (To prevent from proceeding)—सदोष परिरोध सदोष अवरोध का एक प्रकार है जिसमें किसी व्यक्ति को एक निश्चित परिसीमा के भीतर रोक लिया जाता है जिसके बाहर वह जाना चाहता है और बाहर जाने का जिसे अधिकार है। इस अपराध के पूर्णयन हेतु यह आवश्यक है कि परिरुद्ध व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर पूर्ण अवरोध लगा दिया गया हो। यह अपराध आंशिक अवरोध से संरचित । नहीं होता है। यदि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर पूर्ण अवरोध लगा दिया जाता है जिससे किसी भी दिशा में कुछ पलों के लिये भी जाने का विकल्प उसके पास नहीं रहता है तो यह कार्य सदोष परिरोध होगा। यदि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को केवल किसी विशेष दिशा में ही जाने से रोकता है किन्तु अन्य दिशा में। जाने के लिये वह स्वतन्त्र है तो ऐसा अवरोध, परिरोध की किसी भी कोटि में नहीं आयेगा।84 किसी व्यक्ति को एक विशिष्ट स्थान पर रोक रखना या किसी खास दिशा में जाने के लिये बलपर्वक बाध्य करना या किसी प्रकार उसके स्वैच्छिक कार्यों का शमन करना कैद करने के तुल्य है। वह व्यक्ति इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी होगा जो वाह्य बल प्रयोग द्वारा ऐसा करता है। यदि कोई व्यक्ति जाने के लिये इच्छक नहीं था तो ऐसे व्यक्ति का परिरोध नहीं हो सकता। इसी प्रकार किसी व्यक्ति का परिरोध सदोष नहीं हो सकता यदि

  1. (1899) 8 वेयर 340.
  2. बाई समरथ, (1917) 20 बाम्बे एल० आर० 106.
  3. छगन विट्ठल, (1927) 29 बाम्बे एल० आर० 494.
  4. । वेंकट सुब्बारेड्डी , (1910) एम० डब्ल्यू० एन० 72.
  5. बर्ड बनाम जोन्स, (1845) 7 क्यू० बी० 742.
  6. परनकुसम बनाम स्टुअर्ट, (1865) 2 एम० एच० सी० आर० 396.

परिरुद्ध व्यक्ति उसी स्थान पर जहाँ इसका परिरोध हुआ था, रहने का निश्चय करता है।86 सदोष परिरोध, परिरुद्ध व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध होना चाहिये। दोष परिरोध के लिये वास्तविक भौतिक बाधा का प्रमाण होना आवश्यक नहीं है। इसके लिये यह सिद्ध होना चाहिये कि परिरोधित व्यक्ति के मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव डाला गया था जिससे उसने ऐसा विश्वास किया कि वह अपना स्थान छोड़ने के लिये स्वतन्त्र नहीं है और यदि वह अपना स्थान छोड़ने का प्रयत्न करेगा तो उसे तुरन्त अवरुद्ध कर दिया जायेगा।87 किन्तु स्थान त्यागने के कारण भविष्य में किसी उपहति की धमकी इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त नहीं होगी यदि परिरुद्ध व्यक्ति यह जानता है कि वह वहाँ से जाने के लिये स्वतन्त्र है, और वह नहीं जाता है। किन्तु परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें उसे यह विश्वास हो जाता है कि यदि वह निकल भागने का प्रयत्न करेगा तो उसे तुरन्त पकड़ लिया जायेगा तब ऐसा कार्य सदोष परिरोध होगा।88 एक प्रकरण में प्रधान सिपाही ने सन्देह के आधार पर कुछ व्यक्तियों को कई दिनों तक बन्दी बनाये रखा। यद्यपि उन्हें हथकड़ी और बेड़ी नहीं पहनाई गई थी किन्तु उन्हें एक निश्चित परिसीमा के अन्दर रहने के लिये बाध्य कर दिया गया था। उनका भोजन या तो वहीं पहुँचा दिया जाता था या पुलिस संरक्षण में । उनके घर भेजा जाता था और भोजन के पश्चात् वापस लाया जाता था। यह अभिनिर्णीत हुआ कि प्रधान सिपाही इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी था।89 निश्चित परिसीमा (Circumscribing limit)—सदोष परिरोध का अर्थ है, इच्छा शक्ति या किसी बाह्य शक्ति द्वारा परिभाषित किसी परिसीमा के अन्तर्गत अवरोधित करने का विचार 90 किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट स्थान में अवरुद्ध करना या उसे किसी विशिष्ट दिशा में जाने के लिये बाह्य इच्छा द्वारा प्रेरित करना या उसके स्वैच्छिक कार्य को किसी प्रकार शमन करना उस व्यक्ति द्वारा कैद करने के तुल्य है जो बाह्य शक्ति का प्रयोग करता है।91 इस अपराध की संरचना हेतु एक विशिष्ट परिसीमा आवश्यक है। विद्वेष (Malice)–विद्वेष सदोष परिरोध के अपराध का आवश्यक तत्व नहीं है।92 नैतिक बल (Moral force)–शारीरिक शक्ति का प्रयोग किये बिना, केवल नैतिक बल प्रयोग द्वारा किसी व्यक्ति को एक स्थान पर रोक रखना, यह अपराध संरचित करने के लिये पर्याप्त है।93 परिरोध की अवधि (Period of Confinement)- इस धारा के अन्तर्गत अपराध संरचित करने हेतु परिरोध की अवधि महत्वपूर्ण नहीं है। किन्तु परिरोध की अवधि दण्ड की सीमा निर्धारित करने हेतु महत्वपूर्ण है।24। । उदाहरण- गोपाल नायडू95 के वाद में दो पुलिस अधिकारियों ने एक व्यक्ति को बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर लिया जो शराब के नशे में लोक शान्ति भंग कर रहा था। गिरफ्तार करने के बाद उन पुलिस अधिकारियों ने उसे पुलिस स्टेशन में बन्द कर दिया, यद्यपि उनमें से एक उसका नाम व पता जानता था। यह तथ्य स्पष्ट नहीं था कि वह व्यक्ति किस सीमा तक दूसरों की सम्पत्ति तथा उनके शरीर के लिये खतरनाक था। जिस अपराध के लिये उसे गिरफ्तार किया गया था वह एक असंज्ञेय अपराध था। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि चूंकि वह पुलिस अधिकारियों द्वारा असंज्ञेय अपराध के लिये बिना वारण्ट के गिरफ्तार किया गया था अतः उनका कार्य सदोष परिधि के तुल्य था। पुलिस अधिकारियों के कार्यों को केवल प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के आधार पर इस संहिता की धारा 81 के अन्तर्गत न्यायसंगत ठहराया जा सकता था। इस मामले में उपरोक्त धाराओं का लाभ पुलिस अधिकारियों को नहीं मिल सकता था। एक प्रकरण में अ अपनी कार में इलाहाबाद से कानपुर जा रहा था। रास्ते में ब उससे मिला और निवेदन किया कि वह उसे फतेहपुर तक, जो एक मध्यवर्ती कस्बा है, पहुँचा दे। अ, ब को फतेहपुर पहुंचाने के लिये 86. मोहम्मद्दीन, (1894) पी० आर० नं० 36.

  1. भागवत, (1971) क्रि० लॉ ज० 1222.
  2. । शामलाल जैराम बनाम इम्परर, 4 बाम्बे, एल० आर०
  3. 89. उपरोक्त सन्दर्भ.
  4. बर्ड बनाम जोन्स, (1845) 6 क्यू० बी० 742.
  5. परन कुसम बनाम टुअर्ट, (1865) 2 एम० एच० सी० आर० 396.
  6. धनिया बनाम एफ० एल० क्लिफोर्ड, (1888) 13 बाम्बे 376.
  7. दि ऐक्टिंग गवर्नमेंट प्लीडर बनाम वी० मुदाली, (1881) 1 वेयर 341.
  8. सुप्रसन्न घोषाल, (1866) 6 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 88.
  9. (1922) 46 मद्रास 605.

सहमत हो गया किन्तु फतेहपुर पहुँचने पर ब द्वारा बारबार निवेदन किये जाने पर भी अ ने उसे कार से नहीं। अपनी इच्छा के विरुद्ध वह कानपुर पहुँच गया। यहां अ सदोष परिरोध का दोषी है। सदोष परिरोध के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं (1) ब एक जेल डाक्टर, किसी अपराधी को, जो जेल में अपने कारावास की अवधि व्यतीत कर था जेल के एक कमरे में बन्द कर दिया ताकि अपराधी की इच्छा के विरुद्ध वह उसे एनिमा लगा सके 96 (2) ब एक कस्बे में रह रहा था जहां चिकित्सीय सुविधा उपलब्ध थी। ब ने अपने भाई स को भी सीकडों (heavy chains) में बांध रखा था, क्योंकि उसे कभी-कभी मिरगी के दौरे पड़ते थे। किन्तु निरीक्षण के पश्चात् जिला जज ने उसे स्वस्थ पाया और उन्होंने उसे न्यायालय में उपस्थित करने का आदेश दिया |97 (3) ब, एक स्त्री को, जो उसकी रखैल थी, कोल्हापुर से बम्बई ले आया और वहाँ उसे स के साथजो एक वेश्यालय की मालकिन थी, रखा। इससे पूर्व भी स को ब कई लड़कियाँ वेश्या के रूप में इस्तेमाल करने के लिये, पहुँचा गया था। उस स्त्री को वेश्या की तरह आचरण करने के लिये बाध्य किया गया, प्रवेश द्वार पर पहरे की व्यवस्था कर दी गई, तथा उसकी गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिये एक स्त्री की नियुक्ति कर दी गई थी, केवल कुछ अवसरों पर ही उसे निगरानी में बाहर जाने दिया जाता था। ब तथा स दोनों ही को इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान की गई।98 (4) स, किसी अपराध का अपराधी था जिसके लिये, उसे बिना वारण्ट के गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था। पुलिस अधीक्षक ब ने उसे निर्देश देते हुये पत्र लिखा कि वह अपने आपको, एक मजिस्ट्रेट के सम्मुख उपस्थित कर दे। पुलिस अधीक्षक ने दो सिपाहियों को भी भेजा कि वे, उनके साथ आयें तथा उसे किसी से भी बातचीत न करने दें। वह अर्थात् पुलिस अधीक्षक सदोष अवरोध का दोषी था।99 | (5) किसी व्यक्ति को एक कमरे में बन्द कर देना।। (6) किसी व्यक्ति को उसके स्वैच्छिक कार्य को शामिल करते हुये किसी विशिष्ट दिशा में जाने के लिये बाह्य बल प्रयोग द्वारा बाध्य करना। । पुलिस अधिकारियों द्वारा भ्रमवश शक्ति प्रयोग- एक प्रकरण में एक पुलिस अधिकारी ब वारण्ट के साथ म को गिरफ्तार करने के लिये गाँव आया। युक्तियुक्त छानबीन तथा समुचित आधार पर ब ने स को। गिरफ्तार कर लिया। ब को यह विश्वास था कि बन्दी बनाया गया व्यक्ति ही म है। स ने सदोष गिरफ्तारी के लिये ब के विरुद्ध वाद चलाया। यह अभिनिर्धारित हुआ कि ब ने कोई अपराध कारित नहीं किया, क्योंकि उसने सद्भाव में तथ्य की भूल कारित किया था। सदोष अवरोध तथा सदोष परिरोध में अन्तर (1) सदोष अवरोध किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का आंशिक अवरोध है जबकि सदोष परिरोध में स्वतन्त्रता पूर्णतया प्रतिबन्धित हो जाती है। (2) सदोष परिरोध, में सदोष अवरोध निहित है किन्तु सदोष अवरोध में सदोष परिरोध निहित नहीं है। सदोष परिरोध, सदोष अवरोध का एक प्रकार है। (3) सदोष परिरोध में एक निश्चित परिसीमा सदैव आवश्यक होती है जबकि सदोष अवरोध के अन्तर्गत ऐसी किसी सीमा की आवश्यकता नहीं होती। (4) सदोष परिरोध में सभी दिशा में जाना अवबाधित रहता है और परिरुद्ध व्यक्ति को या तो जाने की इजाजत नहीं रहती है या उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे बाध्य किया जाता है। सदोष अवरोध में किसी व्यक्ति को केवल एक या कुछ दिशाओं में ही जाने से अवबाधित किया जाता है, इनके अतिरिक्त अन्य दिशाओं में जाने के लिये वह स्वतन्त्र रहता है।

  1. वी० सी० शाहा, (1902) 30 कल० 95.
  2. शिम्भु नरायन, (1923) 45 इला० 495.
  3. बन्दू इब्राहिम, (1917) 20 बाम्बे एल० आर० 79.
  4. पी० एन० पान्तुलू बेनाम कैप्टन, आर० ए० सी० स्टुअर्ट, (1865) 2 एम० एच० सी० 396.
  5. गोपालिया कलैया, (1923) 26 बाम्बे एल० आर० 138.
  6. सदोष अवरोध के लिए दण्ड- जो कोई किसी व्यक्ति का सदोष अवरोध करेगा, वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि एक मास तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो पांच सौ रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।

केकी होमुसजी घारदा और अन्य बनाम मेहरबान रुस्तम इरानी और एक अन्य, 1क के बाद में अपीलांट /अभियुक्त मेसर्स घारदा केमिकल्स लि० कम्पनी का चेयरमैन और प्रबन्ध निदेशक था। अन्य चार अपीलार्थी कम्पनी के निदेशक हैं और अपीलांट नं० 6 एक वास्तुकार (Architect) है। घारदा भवन का। निर्माण पुराना होने के कारण उसे ध्वस्त कर पुनर्निर्माण की आवश्यकता थी। बम्बई म्युनिस्पल निगम द्वारा इस निर्माण के सम्बन्ध में कई कार्यवाहियां की गयी थीं। इस इमारत को ध्वस्त करने और पुनर्निर्माण करने हेतु प्रस्तावित कार्रवाई के सम्बन्ध में प्रथम प्रत्यर्थी (रेस्पान्डेन्ट) ने कई बार कार्यवाहियां प्रारम्भ की थीं । बम्बई नगर निगम ने भी कार्य बन्द करने की नोटिस दिया था जिसे बाद में वापस ले लिया गया कहा गया था। इस मामले में अपीलार्थीगण (अपीलांट्स) निर्माण स्थल पर उपस्थित नहीं थे। उन्होंने कोई कार्य सम्पादित नहीं। किया। उनके द्वारा किसी प्रकार का बाह्यकृत्य अथवा भौतिक अवरोध उत्पन्न करने का आरोप भी नहीं लगाया। गया था। मात्र इस कारण कि कम्पनी और बम्बई नगर निगम और/अथवा प्रथम प्रत्यर्थी के मध्य विधिक कार्यवाहियां लम्बित थीं उसका यह अर्थ नहीं होगा कि अपीलार्थियों का किसी रूप में प्रथम प्रत्यर्थी और उसके माता-पिता के साथ अवरोध कारित करने का अपराध से सम्बन्ध था। आगे यह भी कि सड़क के निर्माणाधीन होने के बावजूद प्रथम प्रत्यर्थी थाने (पुलिस स्टेशन) तीन बार गया। अतएव वह पुलिस स्टेशन जाने से अवरोधित नहीं किया गया। वास्तव में अधिकारियों द्वारा ठोस कार्यवाही की गयी थी। काम करने वालों को सड़क पर कोई काम करने से मना किया गया था। अतएव न्यायालय यह स्वीकार करने में असफल रहा कि इस प्रकार की परिस्थितियों में कम्पनी के प्रबन्ध निदेशक और अन्य निदेशकों तथा निर्माता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 341 के अधीन अपराध करने का दोषी कैसे कहा जा सकता है। । आगे यह भी संप्रेक्षित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता मात्र कतिपय कुछ मामलों को छोड़कर किसी अपराध के एक व्यक्ति द्वारा कारित किये जाने को प्रतिनिहित दायित्व की अपेक्षा नहीं करता है। किसी अपराध के कारित किये जाने की विधिक कल्पना द्वारा अथवा प्रतिनिहित दायित्व के सृजन द्वारा संविधि के प्रावधानों के अधीन स्पष्ट रूप से वर्णित होना चाहिए। अतएव कम्पनी के प्रबन्ध निदेशक अथवा अन्य निदेशकों को अपराध कारित कर दोषी मात्र इस कारण नहीं कहा जा सकता कि वे कम्पनी में पद धारण करते | हैं।ख । |

  1. सदोष परिरोध के लिए दण्ड- जो कोई किसी व्यक्ति का सदोष परिरोध करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो एक हजार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
  2. तीन या अधिक दिनों के लिए सदोष परिरोध- जो कोई किसी व्यक्ति का सदोष परिरोध तीन या अधिक दिनों के लिए करेगा, वह दोनों में से, किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
  3. दस या अधिक दिनों के लिए सदोष परिरोध- जो कोई किसी व्यक्ति का सदोष परिरोध । दस या अधिक दिनों के लिए करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

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