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LLB 2nd Semester Law Chapter 6 Second Part Notes

 

LLB 2nd Semester Law Chapter 6 Second Part Notes:- LLB (Bachelor of Law) Chapter 6 Conjugal Relief Second Part Notes Study Material in Hindi English ) PDF Download Sample Model Question Paper Available in This Post. LLB All Year Semester Wise Notes and Question Papers Download in PDF Please Comment in Box.

गुरवन्त रूढ़ि के अन्तर्गत एक परिवार के भाई बहन दूसरे परिवार के भाई-बहन के साथ विवाह करते हैं और होता यह है कि शादी के टूटने पर दूसरी भी टूट जाती है। भाई द्वारा विवाह-विच्छेद कर लेने पर बहन ने अपने पति के घर रहने से इन्कार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि वह अभित्यजन की दोषी है। गुरु बचन कौर वि० प्रीतम सिंह- में सम्मति द्वारा अभित्यजन जैसी चीज को नहीं माना गया।    अभित्यजन में एक पक्षकार का दोषी होना अनिवार्य है। इस केस में पति ने 7 वर्ष पश्चात् याचिका दाखिल की तथा व्यवसायिक पत्नी की स्थिति को कभी समझने का प्रयत्न नहीं किया। पत्नी पति के साथ अपने व्यवसाय के स्थान पर रहने को सदा तत्पर थी।

आन्वयिक अभित्यजन (Constructive Desertion) (LLB Notes in PDF Download)

हम ऊपर देख चुके हैं कि अभित्यजन एक स्थान-मात्र का परित्याग है बल्कि एक स्थिति का परित्याग है। दाम्पत्य जीवन का प्रत्याहरण करने वाला पक्षकार अभित्यजन का दोषी होता है, चाहे वह वैवाहिक घर में ही क्यों न रहता रहे। उदाहरणार्थ : मान लें पति ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है, या ऐसा आचरण और व्यवहार करता है कि पत्नी को घर छोड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं है, तो फिर घर छोड़ने वाली पत्नी नहीं, बल्कि घर छुड़ाने वाला पति अभित्यजन का दोषी होगा। एक दूसरे उदाहरण लें, पति, पत्नी से कहता है कि उनके बीच सब कुछ समाप्त हो गया, कोई सम्बन्ध नहीं रहे हैं, वे आपस में न मिलेंगे, न बातचीत करेंगे, अपने-अपने कमरों में रहेंगे, वे केवल प्रातः काल का नाश्ता करेंगे, परन्तु बोलेंगे नहीं जब तक कि अपत्यों के सम्बन्ध में कोई बात करना आवश्यक न हो। इस स्थिति में पत्नी के लिये दो ही मार्ग हैं। वह वेदनापूर्ण और अपमानजनक जीवन न सह सकने के कारण पति का घर छोड़ कर अन्यत्र चली जाये, या अपत्यों के हित में, या इसलिये कि उसे अन्यथा कहीं जाने का स्थान नहीं है, वह वहीं रहती रहे। कोई भी मार्ग वह अपनाये, दोनों में ही पति अभित्यजन का दोषी है। ये उदाहरण आन्वयिक अभित्यजन के हैं।

अंग्रेजी मुकदमें में लेंग बनाम लेंग में हाउस आफ लाईस ने कहा कि यदि एक पक्षकार शब्दों द्वारा या आचरण द्वारा दूसरे पक्षकार को घर छोड़ने के लिये बाध्य कर दे तो पहला पक्षकार अभित्यजन का दोषी होगा चाहे घर दूसरे पक्षकार ने छोड़ा हो। बोवरन बनाम बोवरन में न्यायालय ने कहा कि जो पक्षकार दाम्पत्य जीवन को समाप्त करने का उत्तरदायी है, वहीं अभित्यजन का दोषी है। ज्योतिष चन्द्र बनाम मीरा में पत्नी ने पति के अभित्यजन के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रेषित की। पत्नी ने कहा कि उनका विवाह सन् 1954 में हुआ था। वह कलकत्ता में पति के साथ वैवाहिक घर में रहने आई परन्तु पति को सदैव ही उदासीन, ठंडा, लैंगिक रूप से असामान्य और विपरीत पाया। विवाह के कुछ समय उपरान्त पति इंग्लैंड चला गया, पत्नी अपनी एम० ए० की परीक्षा की तैयारी में लग गई। इंग्लैंड से लौटकर भी पति उदासीन ही रहा और अधिकांश समय पत्नी से पृथक रह कर व्यतीत करने लगा। वह रात्रि को क्लब में बहुत देर से लौटकर आता कुछ समय पश्चात् पत्नी पति के कहने से पी-एच० डी० करने के लिये लन्दन चली गई, जहाँ वह सन्, 1948 से सन् 1951 के बीच रही। इस बीच वह दो बार भारत आई, परन्तु पति को वैसा ही उदासीन पाया। सन्, 1951 से भारत वापस आने पर कुछ समय वह अपने माता-पिता के पास जयपुर में रही। तत्पश्चात् वह अपने पति के घर कलकत्ता गई। परन्तु पत्नी के भाग्य में मानसिक क्लेश और वेदना के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। सन् 1952 में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवक्ता हो गई। यह समझ कर कि उसे विफल और अन्धकारमय जीवन ही व्यतीत करना है उसने स्वयं को अपने काम के प्रति समर्पित कर दिया। वह अपने पति-गृह के प्रति बिल्कुल उदासीन हो गई और अपने पति के प्रति मौन, अवज्ञा और अवहेलना का रवैया अपनाया, इसके फलस्वरूप पति-गृह में उसका जीवन कलह, शारीरिक यंत्रणा और मानसिक यातना से परिपूर्ण हो उठा। पत्नी ने अनुभव किया कि पति के मन में उसके प्रति विद्वेष, घृणा और जितणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और वह चाहता है कि पत्नी उससे पृथक रहे। एक ही घर में वे

1. सनत कुमार बनाम नन्दिनी, 1990 सु० को० 594.

2. 1998 इलाहाबाद 140.

3. देवी सिंह बनाम सुशीला, 1980 राज० 48; सुखमा बनाम निरंजन, 1983 दिल्ली 469: सनील वि. ऊषा, 1994 म०प्र०1.

4. (1955) अपील केसेज 402.

5. (1925) प्रोवेट 192.

6. (1970) कलकत्ता 266.

अपरचित हो गये। इस भाँति पति-पत्नी 1954 तक उसी घर में रहते रहे। नवम्बर, 1954 में पली ने पनि पर छोड दिया और एक किराये के मकान में रहने लगी। सन् 1955 में पली के पिता ने पति-पलीके समझौता कराने का प्रयल किया परन्तु वह विफल रहा। उसके पति ने पिता को घर से बाहर निकाल दिया और उसे घसीटता हुआ उस गृह में ले गया जहाँ पत्नी रहती थी, वहाँ गर्म तर्क-वितर्क हआ। पति ने कहा किया तो पत्नी विवाह-विच्छेद लेले, अथवा अपने पिता के साथ माण्डला में जाये, जहाँ पर उसका पिता उस समय रह रहा था। पत्नी द्वारा ये शर्त मानने से इन्कार करने पर पति क्रोध से लाल-पीला हो गया और पत्नी को बेंते जडी। जब पिता ने विरोध किया तो उसने पिता को भी मारने का प्रयत्न किया परन्त पिता और पुत्री (पत्नी की बहिन जो उस समय वहाँ थी) ने बेंत पकड़ ली। उसके पश्चात् उसने पिता और पुत्री को तीन चार चांटे मारे और पुत्री की बांह मरोड़ दी। इन तथ्यों के साथ पत्नी से पति की क्रूरता और अभित्यजन (याचिका विशेष विवाह अधिनियम के अन्तर्गत थी, जहाँ क्रूरता और अभित्यजन विवाह-विच्छेद के आधार हैं) के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिका प्रेषित की। कलकत्ता उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पति विवाह के पश्चात् पत्नी के प्रति सदैव उदासीन और ठंडा रहा है; पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध बहुत ही अस्वाभाविक रहे हैं और पति द्वारा दाम्पत्य उत्तरदायित्व की अवहेलना के कारण ही पक्षकारों के बीच यह दुर्भाग्यपूर्ण और कटु स्थिति उत्पन्न हुई। अन्त में पति ने पत्नी के प्रति पूर्ण उदासीनता, लापरवाही और अशिष्टता का रुख अपनाया; अपने ही घर में वह अपरिचित की तरह रहने लगा, पति के मन में पत्नी के प्रति घृणा और वितृष्णा के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। न्यायालय ने कहा कि पत्नी के वेदनापूर्ण और एकांकी जीवन के लिये पति ही उत्तरदायी है. उसने ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जिनसे कि पत्नी के लिये घर छोड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं था। इस भांति पति अभित्यजन का दोषी पाया गया। स्नेहलता बनाम केवल- और रंगानायकी बनाम अरुणा गिरि के मामले में पत्नी को बाध्य होकर पति का गृह छोड़ना पड़ा था, अत: वह अभित्यजन की दोषी नहीं थी। अनिल कुमार बनाम शेफाली में पति ने जबरदस्ती पत्नी को घर से निकाल दिया और उसे वापिस लाने की कभी चेष्टा नहीं की। पति की विवाहविच्छेद की याचिका अभित्यजन के आधार पर खारिज कर दी गई तथा पति को आन्वयिक अभित्यजन का दोषी माना गया।

सावित्री पांडे बनाम प्रेमचन्द्र पांडे में उच्चतम न्यायालय ने पुन: मत व्यक्त किया है कि अभित्यजन का अर्थ है वैवाहिक बाध्यतायें (matrimonial obligation) का त्यागना, न कि एक स्थान का त्यागना।

वास्तविक अभित्यजन और आन्वयिक अभित्यजन के तत्व एक ही हैं। दोनों के ही अन्तर्गत अभित्यजन का तथ्य और इच्छा का होना अनिवार्य है अन्तर इतना है कि प्रथम के अन्तर्गत अभित्यजन करने वाला पक्षकार घर का त्याग कर देता है, दूसरे में वह निष्कासन का आचरण करता है। आन्वयिक अभित्यजन में अभित्यजनकर्ता (Deserter) घर का त्याग नहीं करता है, वह घर में ही रहता है परन्तु दाम्पत्य जीवन का परित्याग करने के कारण वह अभित्यजन का दोषी होता है।

जान-बूझकर उपेक्षा करना (LLB Notes PDF)

न्यायाधीश सुब्बाराव के अनुसार जानबूझकर उपेक्षा करना आन्वयिक अभित्यजन है, अत: अभित्यजन के समस्त तत्वों का विद्यमान होना अनिवार्य है। लेखक की राय में जानबूझकर उपेक्षा करना आन्वयिक अभित्यजन का एक रूप हो सकता है या वह आन्वयिक अभित्यजन सदृश हो सकता है। वह आन्वयिक अभित्यजन नहीं है उससे कुछ भिन्न है। यह भारतीय सामाजिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में भारतीय संसद का अभित्यजन में एक नया प्रयोग है। कोई आचरण ऐसा हो सकता है कि वह अभित्यजन की परिभाषा पर ता। खरान उत्तरे किन्तु ऐसा आचरण है, जो अभित्यजन के समीप है या सदश है तो उसके होने पर वैवाहिक अनुतोष मिलना ही औचित्यपूर्ण है। उदाहरण के लिए, पति जानबूझकर पत्नी की उपेक्षा या अवहला करता

1. और देखें, श्याम चन्द्र बनाम जानकी, 1966 हिमाचल प्रदेश 70.

2. 1986 दिल्ली 162.

3.1993 मद्रास 174.

4. 1997 कलकत्ता 6 ओम प्रकाश बनाम मधु, 1997 राज० 204,

5..2002 सु०को591.

6. मीना बनाम लक्ष्मण,1964 सुप्रीम कोर्ट40; ताराचन्द बनाम नारायण देवी 197640 और ह० 200.

है, परन्तु उसकी इच्छा पत्नी को त्यागने की या वैवाहिक गृह का अभित्याग करने की नहीं है समस्त दाम्पत्य जीवन का वह अन्त नहीं करता है। न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने कुछ ऐसे ही तर्क का उत्तर देते हुये कहा यदि हम जानबूझकर उपेक्षा करने का यह अर्थ लेंगे तो फिर अभित्यजन के संप्रत्यय की परम्परागत सीमायें समाप्त हो जायेंगी और उसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन हो जायेंगे। लेखक का निवेदन है कि भारतीय संसद् ने अभित्यजन के संप्रत्यय में इस भाँति के परिवर्तन करने हेतु ही जानबूझकर उपेक्षा करने की अभित्यजन के संप्रत्यय में जोड़ा है। जानबूझकर उपेक्षा करना कोई नयी बात नहीं है। अंग्रेजी न्यायालयों ने कहा कि आकस्मिक या भूल द्वारा की गई उपेक्षा जानबूझ कर की गई उपेक्षा नहीं है। दूसरी ओर, जानबूझकर की गई उपेक्षा के लिये यह आवश्यक नहीं है कि उपेक्षा स्वेच्छा से या सोच-समझकर ही की जाये। अत: यदि कोई व्यक्ति सचेत होकर अनुचित रूप से अपने दाम्पत्य कर्तव्यों की अवहेलना करता है या उनका पालन करने में असफल रहता है तो वह जानबूझकर उपेक्षा करने का दोषी होगा। संक्षेप में, जानबूझकर अवहेलना करना उपेक्षा के अन्तर्गत आता है। वह अवहेलना तो कर्तव्यच्युत होने के कारण, यह जानते हुये होती है कि इसका फल कर्तव्यों की अवहेलना होगी। परन्तु प्रत्येक दाम्पत्य दायित्व या कर्तव्य की अवहेलना जानबूझकर उपेक्षा नहीं होगी। अवहेलना ऐसे दायित्व या कर्तव्य की होना चाहिये जो मूल दाम्पत्य दायित्वों और कर्तव्यों के प्रवर्गीकरण में आते हैं, मैथुन की अवहेलना या साहचर्य की अवहेलना। भरण-पोषण के दायित्व की अवहेलना भी इसके अन्तर्गत आ सकती है।

लेखक का निवेदन है कि हिन्दू सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर संसद ने जानबूझकर उपेक्षा को, अभित्यजन के साथ जोड़कर अभित्यजन को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया है। 1976 के संशोधन द्वारा धारा 13 (1) के स्पष्टीकरण में जानबूझकर उपेक्षा को अभित्यजन के एक प्रकार के रूप में रखा गया है।

नीलम सिंह बनाम विजय नारायण जानबूझ, कर उपेक्षा करने का वाद है। पति एक बैंक का मैनेजर था, वह पत्नी को अपने पास न रखकर, एक गांव में रहने को बाध्य करता था और उसकी प्रास्थिति के अनुसार उसे कोई सुख-चैन नहीं देता था, न ही पर्याप्त भरण-पोषण के साधन उपलब्ध कराता था। यह जानबूझकर उपेक्षा की संज्ञा में आता है और न्यायालय ने विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित कर दी।

औचित्यपूर्ण कारण

अभित्यजन करने वाले पक्षकार ने यदि अभित्यजन किसी औचित्यपूर्ण कारण से किया है तो वह अभित्यजन का दोषी नहीं है। औचित्यपूर्ण कारण की विवेचना हम ‘दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन’ के साथ करेंगे। पत्नी का अपना अध्ययन समाप्त करने के लिये पिता के घर रहना एक औचित्यपूर्ण कारण है।

विवाह का विघटन-पत्नी द्वारा दुर्व्यवहार, पति के प्रति उदासीनता एवं पति एवं उसके परिवार पर कलंक अधिरोपित करने के आधार पर क्रूरता को साबित किया गया था अतः पति को विवाह के विघटन प्राप्त करने का हकदार पाया गया था।

बिना सम्मति के

अभित्यजन का चौथा तत्व है-अभित्यजन करने वाले पक्षकार ने अभित्यजन दूसरे पक्षकार की सम्मति से नहीं किया है। यदि अभित्यजन दूसरे पक्षकार की सम्मति से है तो वह अभित्यजन का दोषी नहीं होगा। पक्षकार जब पृथक्करण के करार के अन्तर्गत पृथक रह रहे हैं तो उनमें से कोई अभित्यजन का दोषी नहीं होगा भगवती बनाम साधूराम में पत्नी एक समझौते के अन्तर्गत पति से पृथक रह रही थी। न्यायालय ने

1. बलबीर बनाम धीर, 1979 पं० और ह. 300.

2. 1995 इला० 255.

3. इन्दिरा बनाम शैलेन्द्र, 1993 म०प्र०59.

4. श्री बनाम यू० श्रीनिवास, (2013) 2 एस० सी० सी० 114 : ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 415: 2013 विधि निर्णय एवं सामयिकी 439 (एस० सी०).

5. सरेश बनाम सुमन, 1983 इला० 225.

6. देखें, वदरनम्मा बनाम कृष्णनम्मा, 1970 आंध्र वीकली रिपोर्टस 13.

7. 1971 पंजाब 181.

कहा कि वह अभित्यजन का दोषी नहीं है। सम्मति अभिव्यक्त हो सकती है या विवक्षित (Implied)। यह उस समय दी जा सकती है जब पक्षकार घर छोड़कर जाता है, यह उसके पश्चात् भी दी जा सकती है। बिपिन चन्द्र बनाम प्रभा में पति ने अपनी सम्मति बाद में दी जब कि उसने तार द्वारा पत्नी के पिता को सूचित किया कि वह पत्नी को न भेजे।

वैधानिक कालावधि (LLB Study Material)

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (i-क) के अन्तर्गत यह वैधानिक उपबन्ध है कि अभित्यजन वैवाहिक अनुतोष के लिये तभी आधार होगा जब कि अभित्यजन कम से कम दो वर्ष की कालावधि का है। दो वर्ष की कालावधि पूर्ण होने के पूर्व अभित्यजन का वैवाहिक अपराध गठित नहीं होता है। अभित्यजन एक चालू रहने वाला अपराध है; यह एक अपूर्ण अपराध है। इससे तात्पर्य यह है कि एक बार आपराधिक कृत्य के आरम्भ होने पर चालू रहता है जब तक कि वह अभित्यजन करने वाले पक्षकार के किसी कृत्य या आचरण द्वारा समाप्त न हो जाये। यह अपराध दो वर्ष की कालावधि पूर्ण होने पर भी तब तक अपूर्ण रहता है जब तक कि दूसरा पक्षकार न्यायालय में याचिका न प्रेषित कर दे। दूसरे शब्दों में, न्यायालय में वैवाहिक अनुतोष की याचिका प्रेषित करने पर ही अभित्यजन पूर्ण होता है, उससे पूर्व अपूर्ण रहता है, अतः यदि अभित्यजन करने वाला पक्ष चाहे तो याचिका प्रेषित होने के पूर्व अपने कृत्य या आचरण द्वारा उसे समाप्त कर सकता है। बिपिन चन्द्र बनाम प्रभार और लक्षमण बनाम मीना दोनों ही मामलों में पत्नी ने वैवाहिक गृह का परित्याग किया था दोनों में ही प्रश्न था कि क्या पत्नी समस्त वैधानिक कालावधि से अभित्यजन में रही? प्रथम मामले में उच्चतम न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पत्नी समस्त कालावधि तक अभित्यजन में नहीं रही और दूसरे में उच्चतम न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वह रही है। यह आवश्यक है कि दो वर्ष की कालावधि पूर्ण होने पर ही याचिका प्रेषित की जा सकती है।

अभित्यजन की समाप्ति

अन्य वैवाहिक अपराधों के अभित्यजन भिन्न हैं। जारकर्म का अपराध पति या पत्नी से अन्य किसी व्यक्ति के साथ मैथुन करते ही पूर्ण हो जाता है। इसी भांति क्रूरता का अपराध क्रूर कृत्य या आचरण के करते ही पूर्ण हो जाता है। परन्तु अभित्यजन का अपराध पति या पत्नी द्वारा स्वेच्छा से बिना दूसरे पक्षकार की सम्मति के और बिना किसी औचित्यपूर्ण कारण के स्थायी रूप से वैवाहिक गृह के परित्याग करने पर भी पूर्ण नहीं होता है। यह वैधानिक कालावधि की समाप्ति पर भी पूर्ण नहीं होता है। अभित्यजन एक ऐसा वैवाहिक अपराध है जो पूर्ण होने के पूर्व अभित्यजन करने वाले पक्षकार द्वारा समाप्त किया जा सकता है।

अभित्यजन का अपराध निम्न भांति से समाप्त किया जा सकता है-

(1) दाम्पत्य जीवन पुनः आरम्भ करके,

(2) मैथुन पुन: आरम्भ करके, एवं

(3) घर वापस आने की इच्छा व्यक्त करके, या पुनः मिलन का प्रस्ताव करके।

दाम्पत्य जीवन पुनः आरम्भ करके-न्यायालय में याचिका प्रेषित होने के पूर्व यदि पक्षकार दाम्पत्य जीवन का पुनः आरम्भ कर देते हैं तो अभित्यजन समाप्त हो जाता है। दाम्पत्य जीवन का पुनः आरम्भ आपसी सम्मति द्वारा होना चाहिये और इसका तात्पर्य पूर्ण पुनः मिलन होना चाहिये। अत: यदि अभित्यजन करने

1. 1957 सुप्रीम कोर्ट 176.

2, 1957 सुप्रीम कोर्ट 176.

3. 1964 सुप्रीम कोर्ट 40.

4. 1957 सुप्रीम कोर्ट 176.

5. 1964 सुप्रीम कोर्ट 40.

6. मदन वि० चित्रा, 1993 कल० 33.

वाला पक्षकार वैवाहिक गृह में, बिना पुनः मिलन की इच्छा के, आकर कुछ दिन ठहर जाता है तो यह दाम्पत्य जीवन पुनः आरम्भ करने की संज्ञा में नहीं आयेगा और अभित्यजन समाप्त नहीं होगा। दूसरी ओर यदि अभित्यजन करने वाला पक्षकार पुनः मिलन की सद्भावनापूर्ण इच्छा से दाम्पत्य जीवन पुनः आरम्भ करने के लिये वैवाहिक गृह में आता है, परन्तु दूसरा पक्षकार दाम्पत्य जीवन पुनः आरम्भ करने से इन्कार कर देता है तो भी अभित्यजन समाप्त हो जायेगा। इन्कार के क्षण से दूसरा पक्षकार अभिवजन का दोषी होगा और यदि यह स्थिति दो वर्ष तक चलती रहे तो पहला पक्षकार उससे अभित्यजन के आधार पर न्यायिक पृथक्करण या विवाह-विच्छेद प्राप्त कर सकता है।

मैथुन पुनः आरम्भ करके-मैथुन दाम्पत्य जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अभित्यजन के पश्चात् यदि पक्षकार मैथन पुनः आरम्भ कर दें तो अभित्यजन समाप्त हो ही जायेगा। दाम्पत्य जीवन को पुन: आरम्भ करने की दिशा में यदि मैथुन एक पग है, तो मैथुन के पुनः आरम्भ द्वारा भित्यजन समाप्त हो जायेगा। फिर चाहे कुछ समय पश्चात् पक्षकार इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दाम्पत्य जीवन का पुनः आरम्भ उनके लिये असम्भव है। यदाकदा मैथुन द्वारा अभित्यजन समाप्त नहीं हो सकता है।

घर वापस आने की इच्छा व्यक्त करके-अभित्यजन करने वाला पक्षकार यदि निष्कपट रूप से घर वापस आने की इच्छा व्यक्त करे तो अभित्यजन समाप्त हो सकता है। उदाहरण के लिये, अभित्यजन करने वाला पक्षकार पत्र द्वारा दूसरे पक्षकार को यह लिखता है कि वह दाम्पत्य जीवन पुनः आरम्भ करने का इच्छुक है। यदि अनुमति हो तो वह घर वापस आ जाये। परन्तु दूसरा पक्षकार या तो पत्र का उत्तर ही न दे या उसका स्वागत करने को तत्पर ही न हो, तो अभित्यजन समाप्त हो जायेगा। बिपिन चन्द्र बनाम प्रभावती में यही हुआ। पत्नी ने पति-गृह आने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु पति ने तार द्वारा सूचित किया कि वह न आये, पत्नी का अभित्यजन उसी दिन समाप्त हो गया।

हाल बनाम हाल में पति-पत्नी एक पृथक्करण के अनुबन्ध के अन्तर्गत पृथक् रह रहे थे। तत्पश्चात् पति ने पत्र द्वारा और मौखिक वर्तालाप में पत्नी से कहा कि अब वापस घर आकर रहने लगे किन्तु पत्नी ने इन्कार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि पति का प्रस्ताव सच्चा और निष्कपट था, अत: पत्नी अभित्यजन की दोषी है। पुनः मिलन के सच्चे और निष्कपट प्रस्ताव द्वारा अभित्यजन समाप्त किया जा सकता है। इस भांति के प्रस्ताव में कोई शर्ते या सीमायें नहीं होनी चाहिये। यह निश्छल और निर्मल प्रस्ताव होना चाहिये और प्रस्ताव में पूर्ण दाम्पत्य जीवन पुनः स्थापित करने के लिये होना चाहिये। प्रस्ताव का ध्येय यदि संभावित न्यायिक कार्यवाही को रोकना मात्र है तो फिर वह सच्चा प्रस्ताव नहीं है। श्यामचन्द्र बनाम जानकी में पत्नी ने, जिसे पति ने घर से निकाल दिया था, पति के विरुद्ध भरण-पोषण के लिये न्यायिक कार्यवाही की। इस कार्यवाही में पक्षकारों के बीच समझौता हो गया और पति ने पत्नी को अपने पास रखने और भरण-पोषण देने का वचन दिया। परन्तु पति अपने वचन से मुकर गया और न ही उसने पत्नी को वापस घर बुलाया, न ही भरण-पोषण दिया। पत्नी की ओर से जब कुछ व्यक्तियों ने पति को अपना वचन निबाहने के लिये कहा तो उसने इन्कार कर दिया और धमकी दी कि वह विवाह-विच्छेद की कार्यवाही करेगा। तत्पश्चात् उसने पत्नी के अभित्यजन के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रेषित की। न्यायालय ने उसकी या वका खारिज कर दी। उसने अपील की और न्यायालय के समक्ष पत्नी को वापस घर ले जाने का प्रस्ताव रखा। न्यायालय ने कहा कि यह प्रस्ताव न सच्चा है, न निष्कपट (Genuine)। पत्नी ने उसे ठीक ही अस्वीकार कर दिया है।

परन्त यदि प्रस्ताव सच्चा और निष्कपट है तो दूसरा पक्ष उसे अस्वीकार नहीं कर सकता है। यदि वह अस्वीकार करता है तो उसी क्षण से वह अभित्यजन का दोषी हो जायेगा। परन्तु दूसरा पक्षकार प्रस्ताव को स्वीकार करते हये कुछ औचित्यपूर्ण शर्ते रख सकता है और यदि अभित्यजन करने वाला पक्षकार उन शर्तों को

1. 1957 सुप्रीम कोर्ट 176.

2. 1960 आल इंग्लैण्ड रिपोर्ट्स 91.

3. 1966 हिमाचल प्रदेश 70.

न माने तो फिर अभित्यजन समाप्त नहीं होगा। शर्ते औचित्यपूर्ण हैं या नहीं यह निर्भर करेगा पक्षकार के बीते जीवन पर, अभित्यजन करने वाले पक्ष के कृत्य और आचरण, आदि पर।

सबूत का भार (LLB Notes in Hindi)

अभित्यजन सिद्ध करने का भार याचिकाकार पर है। पहले यह मत था कि उसे प्रतिपक्षी के अपराध के औचित्यपूर्ण संशय के परे सिद्ध करना होगा। परन्तु दास्ताने बनाम दास्ताने के पश्चात् अब यह मान्य मत है। कि औचित्यपूर्ण सम्भावना के आधार पर भी अभित्यजन सिद्ध किया जा सकता है। अभित्यजन के पांच तत्वों को सिद्ध करने का भार भी उस पर ही है।3।

क्रूरता (Cruelty) (LLB Notes in English)

क्रूरता का विधिक संप्रत्यय प्रत्येक काल में और प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न रहा है। सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ उसके अर्थ में भी परिवर्तन होते रहे हैं। एक युग था जब अंग्रेजी विधि यह मानकर चलती थी कि विवाह-विच्छेद का उद्देश्य अपराधी पक्षकार को दण्डित करना है, अतः उस युग में स्वेच्छा क्रूरता का आवश्यक तत्व था। नया युग आया और अंग्रेजी विधि में मान्यता यह बनी कि विवाह-विच्छेद की विधि का ध्येय निर्दोष व्यक्ति को संरक्षण देना है। अतः इस युग में स्वेच्छा क्रूरता का आवश्यक अंग नहीं रही। इस शताब्दी के मध्य में अंग्रेजी और अमेरिकी न्यायालयों ने क्रूरता की इतनी व्यापक व्याख्या की है कि उसके अन्तर्गत वस्तुत: विवाह-भंग सिद्धान्त को मान्यता दे दी गई।

इंग्लैण्ड और अमरीका में क्रूरता पर अनेक निर्णय हैं। भारतवर्ष में हिन्दू विवाह अधिनियम और अन्य वैयक्तिक विधियों के अन्तर्गत क्रूरता पर निर्णय कम नहीं हैं। क्रूरता की भारतीय व्याख्या और पश्चिमी व्याख्या में अन्तर होना स्वाभाविक है। हमारी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां वहां से नितांत भिन्न हैं। भारतीय समाज का सबसे विशिष्ट तथ्य है, संयुक्त परिवार-व्यवस्था। अधिकांश युगल आज भी संयुक्त परिवार में रहते हैं। उनकी समस्याएं पश्चिमी युगलों से भिन्न हैं। अत: क्रूरता की भारतीय व्याख्या अपने ढंग की हो तो आश्चर्य की कुछ बात नहीं है।

हिन्दू विवाह अधिनियम में अभिव्यक्ति “क्रूरता” को परिभाषित नहीं किया गया है। ‘क्रूरता’ मानसिक अथवा शारीरिक हो सकती है। ‘क्रूरता’ जो विवाह-विघटन का एक आधार है, को ऐसी प्रकृति को जानबूझकर तथा अन्यायोचित आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिससे जीवन, अंग या स्वास्थ्य, शारीरिक या मानसिक रूप में खतरा कारित हो या ऐसे खतरे के प्रति युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो जाये। “मानसिक क्रूरता” के प्रश्न का विचारण उस विशिष्ट समाज, जिससे पक्षकार सम्बन्धित होते हैं, के वैवाहिक बन्धनों के मानदण्ड उनके सामाजिक मूल्यों को प्रास्थिति, वातावरण, जिसमें वे रहते हैं, को ध्यान में रखते हुये किया जाना चाहिये। ‘क्रूरता’ जैसा ऊपर अंकित है, में ऐसी मानसिक क्रूरता सम्मिलित है जो वैवाहिक त्रुटियों की परिधि में आती है। ‘क्रूरता’ को शरीर से सम्बन्धित होना आवश्यक नहीं है। यदि पति या पत्नी के आचरण से यह स्थापित हो जाता है, और/या वैध रूप से यह अनुमान निकाला जा सकता है कि पति या पत्नी का व्यवहार ऐसा है कि इसमें दूसरे पक्षकार के मन में अपने कल्याण के बारे में यह आशंका उत्पन्न कर देता है तब ऐसा आचरण ‘क्रूरता’ की कोटि में आता है। विवाह जैसे संवेदनशील मानवीय सम्बन्धों में, किसी भी व्यक्ति को मामले की सम्भाव्यताओं पर विचार करना होता है। सन्देह की छाया से परे सबूत की अवधारणा को दाण्डिक विचारणों पर लाग किया जाता है और न कि दीवानी मामलों में और नाश्चत रूप से ऐसे संवेदनशील मानवीय सम्बन्धों जो पति और पत्नी का होता है, में भी नहीं। अतएव किसा

1. 1975 सु० को० 1934.

2. रत्नेश्वर बनाम प्रेमलता, 1986 पटना 308.

3. देखें, बिपिन चन्द्र बनाम प्रभावता, 1951 मोहिन्दर बनाम हरबंश, 1992.

4. देखें, इस लेखक का निबन्ध ब्रेकडाउन थिय चन्द्र बनाम प्रभावती. 1957 सप्रीम कोर्ट 176: लक्षमण बनाम मीना, 1964 सुप्राम काट 401 म हरबंश, 1992 पंजाब और हरियाणा 8; सुकुमार बनाम तृप्ति, 1992 पटना 52. का निबन्ध ब्रेकडाउन थियोरी इन हिन्दू लॉ1969 लॉयर 191-204.

भी व्यक्ति को इस पर विचार करना चाहिये कि मामले में मा सम्भावनायें हैं और विधिक क्रूरता का न केवल वास्तविक रूप में पता किया जाना चाहिये अपितु कृत्यों का या अन्य कारणों से परिवादी पक्षकार के मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप में पता किया जाना चाहिये। क्रूरता या तो शारीरिक या मूर्त हो सकती है या मानसिक । शारीरिक क्रूरता में दृश्यमान और प्रत्यक्ष साक्ष्य हो सकते हैं किन्तु मानसिक क्रूरता के मामले में किसी समय प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं भी हो सकते हैं। जिन मामलों में प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हो सकते हैं वहाँ न्यायालय से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घटनाओं जिन्हें साक्ष्य में लाया गया है, की मानसिक प्रक्रिया तथा मानसिक प्रभावों की छानबीन करे। वैवाहिक विवादों में साक्ष्य पर इसी दृष्टि से विचार करना चाहिये।

वैवाहिक जीवन का मूल्यांकन पूर्ण रूप में किया जाना चाहिये और कतिपय अवधि तक कुछ पृथक उदाहरण क्रूरता के समान नहीं होगा। गलत आचरण को उचित रूप से लम्बी अवधि के लिये पूर्व निर्णय होना चाहिये, जहाँ सम्बन्ध इस सीमा तक खराब हआ है कि दम्पत्ति के कार्यों और व्यवहार के कारण एक पक्षकार अन्य पक्षकार के साथ रहना अत्यधिक कठिन पाता है. जो मानसिक क्ररता की कोटि में आ सकता है। क्षणिक आवेग पर कतिपय कथन करना और बुजुर्गों के व्यवहार के बारे में कतिपय अप्रसन्नता अभिव्यक्त करने को क्रूरता के रूप में चित्रित नहीं किया जा सकता।

अभिव्यक्ति ‘क्ररता ‘ को मानवीय आचरण या मानवीय व्यवहार के सम्बन्ध में प्रयुक्त किया गया है। यह ऐसा आचरण होता है जो वैवाहिक कर्तव्यों और दायित्वों के सम्बन्ध में होता है। क्रूरता किसी व्यक्ति का ऐसा व्यवहार या आचरण होता है जो दूसरे पक्षकार पर प्रतिकूल रूप से प्रभाव डालता है। क्रूरता मानसिक या शारीरिक साशय या आशय-रहित हो सकती है। यदि यह शारीरिक है तब न्यायालय को इसका अवधारणा करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। यह तथ्य तथा डिग्री का प्रश्न होता है। यदि यह मानसिक होती है तब समस्या उत्पन्न हो जाती है। प्रथमतः क्रूरतापूर्ण आचरण के सम्बन्ध में छानबीन अवश्य ही की जानी चाहिये, द्वितीय, पति या पत्नी के मस्तिष्क में ऐसे आचरण का प्रभाव कि क्या उससे युक्तियुक्त आशंका या नुकसानदायक होगा। अन्ततोगत्वा यह अनुमान पर आधारित होता है जिसे आचरण की प्रकृति और परिवादी पक्षकार पर इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुये निकाला जाना चाहिये। तथापि ऐसे भी मामले हो सकते हैं। जहाँ आचरण, जिसकी शिकायत की गयी है, अत्यन्त ही खराब और स्वयंमेव विधिविरुद्ध या अवैध है। तब अन्य पक्षकार पर पड़ने वाले प्रभाव या हानिकारक प्रभाव की छानबीन की आवश्यकता नहीं होती है या उस पर विचार किये जाने की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे मामलों में, यदि आचरण से ही साबित हो जाता है। या उसे स्वीकार कर लिया जाता है तब क्रूरता स्थापित हो जायेगी।

‘क्रूरता’ का गठन करने के लिये, जिस आचरण की शिकायत की गयी है उसे ‘गम्भीर और बजनदार’ होना चाहिये ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि याची की अन्य पक्षकार के साथ रहने के लिये युक्तियुक्त रूप से आशा नहीं की जा सकती है। इसे “विवाहित जीवन के सामान्य रोने-धोने” से अधिक होना चाहिये। परिस्थितियों तथा पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुये इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये आचरण का परीक्षण किया जाना चाहिये कि क्या जिस आचरण की शिकायत की गयी थी। वह वैवाहिक कानून में क्रूरता की कोटि में आता है। जैसा कि ऊपर अंकित है, कई घटकों, जैसे पक्षकारों की सामाजिक प्रतिष्ठा, उनकी शिक्षा शारीरिक तथा मानसिक दशायें, प्रथा एवं रूढ़ियां की पृष्ठभूमि में आचरण पर विचार किया जाना चाहिये। उन परिस्थितियों की संक्षिप्त परिभाषा देना या विस्तृत विवरण देना कठिन है जिनसे क्रूरता का गठन होता है। तलाक चाहने के लिये परिवादी पक्षकार को हकदार बनाने के लिये इसे इस प्रकार का होना चाहिये। जिससे न्यायालय का समाधान हो जाये कि पक्षकारों के मध्य सम्बन्ध दूसरे पक्षकार के आचरण के कारण इस सीमा तक बिगड गये थे कि किसी मानसिक क्लेश, उत्पीड़न या प्रभाव के बिना जन लोगों का एक साथ रहना असम्भव होगा. करता का गठन करने के लिये शारीरिक हिंसा की आवश्यकता नहीं है और मानसिक क्लेश

आई० 1. ए. जयचन्द्र बनाम अनिल कौर, 2005 वी० एन० एस० 383 (एस० सी०) : 2006 (40) ए सी० 1 (एस० सी०).

2. गुरबख्श सिंह बनाम हरमिन्दर कौर, 2011 विधि निर्णय एवं सामयिकी 53 (एस० सी०)

3. उपरोक्तः शोभारानी बनाम मधुकर रेड्डी, ए० आई० आर 1988 एस० सी०121

एवं उत्पीड़न पहुँचाने वाले आचरण की निरन्तरता अधिनियम की धारा 10 के अन्तर्गत क्रूरता का गठन कर सकते हैं। मानसिक क्रूरता में ऐसी मौखिक रूप से दी गयी गालियां और गन्दी-गन्दी भाषाओं में बेइज्जती सम्मिलित हो सकती है जिससे दूसरे पक्षकार की मानसिक शान्ति में निरन्तर दखल उत्पन्न हो जाता है।।

क्रूरता के आधार पर तलाक याचिका पर विचार करने वाले न्यायालय को मस्तिष्क में यह बात रखनी चाहिये कि उसके समक्ष समस्या मानव की है और पति या पत्नी के आचरण में मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों पर भी तलाक की याचिका निस्तारित करने के पूर्व मस्तिष्क में रखनी चाहिये। तथापि, महत्वहीन या तुच्छ आचरण दूसरे पक्षकार के मस्तिष्क में पीड़ा उत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु आचरण को क्रूरता कहे जा सकने के पूर्व इसे कुछ सीमा तक गम्भीर होना चाहिये। गम्भीरता का वजन करना न्यायालय का कार्य है। यह देखा जाना चाहिये कि क्या आचरण ऐसा है कि कोई भी युक्तियुक्त व्यक्ति इसे सहन नहीं करेगा। इस पर विचार किया जाना चाहिये कि क्या, परिवादी से सामान्य मानवीय जीवन के एक भाग के रूप में स्वीकार करने के लिये कहा जाना चाहिये। प्रत्येक वैवाहिक आचरण, जिससे किसी अन्य पक्षकार को क्रोध आ सकता है, आवश्यक नहीं है कि वह क्रूरता की कोटि में आता है। पति-पत्नी के मध्य छोटे-छोटे सन्ताप तथा लड़ाईझगड़े, जो दिन-प्रतिदिन के विवाहित जीवन में होते रहते हैं, भी क्रूरता की कोटि में नहीं आते हैं। वैवाहिक जीवन में क्रूरता बिना किसी आधार के भी हो सकती है जो गूढ़ या जघन्य हो सकती है। यह शब्दों, हावभाव, या मात्र चुप्पी, हिंसात्मक या अहिंसात्मक हो सकती है।

एक सुखी वैवाहिक जीवन की नींव सहनशीलता, समायोजन तथा एक दूसरे का सम्मान है। कतिपय सहन करने की क्षमता तक एक दूसरे की गलतियों को सहन करना प्रत्येक विवाह में अन्तर्निहित होनी चाहिये। छोटी-छोटी बातें एवं तुच्छ मतभेद को इतना नहीं बढ़ा दिया जाना चाहिये ताकि जिसे स्वर्ग में बनाया गया होना कहा जाता है वह नष्ट हो जाये। प्रत्येक विशिष्ट मामले में, कौन से तत्व क्रूरता का गठन करते हैं, इसका निर्धारण करने में, समस्त लड़ाई-झगड़ों का उसी दृष्टि से तथा उपरोक्त रूप में, पक्षकारों के शारीरिक तथा मानसिक दशाओं, उनके चरित्र तथा सामाजिक प्रास्थिति को सदैव ध्यान में रखते हुये वजन किया जाना चाहिये। अत्यन्त तकनीकी तथा उच्च संवेदनशील दृष्टिकोण विवाह संस्था के लिये प्रतिउत्पादक होगा। न्यायालयों को आदर्श पति और आदर्श पत्नी के सम्बन्ध में विचार नहीं करना होता है। उसे अपने समक्ष एक विशिष्ट पुरुष तथा स्त्री के सम्बन्ध में विचार करना होता है। आदर्श जोड़े या मात्र आदर्श को सम्भवतया वैवाहिक न्यायालय के समक्ष जाने का अवसर नहीं प्राप्त होता है।

क्रूरता की परिभाषा-अभित्यजन की भाँति ही क्रूरता की कोई सुतथ्य व्याख्या देना कठिन है। न्यायालयों ने बार-बार कहा है कि क्रूरता के कृत्य और आचरण इतने विभिन्न और अनेक हो सकते हैं कि उन्हें परिभाषा की सीमा-परिधि में बाँध पाना असम्भव होगा। परिभाषा की दृष्टि से सबसे पहला प्रयास सन् 1897 में रसल बनाम रसल में किया गया। क्रूरता ऐसा आचरण है जिसके द्वारा जीवन अंग या स्वास्थ्य को शारीरिक या मानसिक चोट पहुँचे या वैसी चोट पहुँचने की सम्भावना हो 6ि हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अन्तर्गत क्रूरता स्थापित करने के लिये याचिकाकार को यह सिद्ध करना होता था कि प्रतिपक्षी ने उसके साथ ऐसी क्रूरता का व्यवहार किया है जिसके कारण उसके मस्तिष्क में यह औचित्यपूर्ण आशंका घर कर गई है कि उसके साथ रहना अपहानिकर (Harmful) एवं क्षतिकर होगा।

1. उपरोक्त.

2. उपरोक्त; नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली, 2005 (40) ए० आई० सी० 1.

3. उपरोक्त; दास्ताने बनाम दास्ताने, ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 1534 और भी देखें; हनुमन्त राव बनाम एस० रमानी, 1999 (3) एस० सी० सी०620; चेतनदास बनाम कमलादेवी, 2001 (43) ए० एल० आर० 789 (एस० सी०): जी०वी० कामेश्वर राव बनाम जी० जबीली, 2002 (46) ए० एल० आर० 383 (एस० सी०); श्याम सुन्दर कोहली बनाम सुषमा कोहली, जे० टी० 2004 (8) एस 166.

4. सुकुमार बनाम तृप्ति, 1992 पटना 32.

5. (1897) अपील केसेज 305.

6. सुरेश बनाम सुमन, 1983 इला0 225.

विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा क्रूरता की परिभाषा में परिवर्तन किया गया है। इस प्रकार परिभाषा यह है-“प्रत्यर्थी ने अर्जीदार के साथ क्रूरता का बर्ताव किया है।” यह संशोधन लॉ कमीशन की सिफारिश पर किया गया है। लॉ कमीशन का कहना है कि अब अंग्रजी विधि में क्रूरता का संपत्यय में ‘आशंका’ का कोई स्थान नहीं रह गया है, अत: हमें भी क्रूरता की परिभाषा को संशोधन कर लेना चाहिये। यह भिन्न बात है कि सन् 1976 में लॉ कमीशन ने 1950 के अंग्रेजी अधिनियम में दी गई परिभाषा को अपनाया है और 1973 के अधिनियम में दी गई परिभाषा को नहीं । यह बड़े खेद का विषय है कि हम अब भी अंग्रेजी विधि की नकल करने लगे हैं।

इस परिवर्तन का तात्पर्य यह होगा कि कोई आचरण, कत्य या लोप (Omission) जो क्रूरता का गाठत करता है, विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण के लिये पर्याप्त है, चाहे अर्जीदार के मन में औचित्यपूर्ण आशका न भी उत्पन्न हो। पुरानी परिभाषा के अन्तर्गत आने वाले वादों में कत्य या आचरण पर इतना महत्व नहीं दिया गया था। जितना कि आचरण या कृत्य द्वारा उत्पन्न आशंका पर दिया गया था। अब प्रतीत होता है। कि न्यायालय करता गठित करने वाले कत्य या आचरण पर अधिक बल देंगे। उसके द्वारा उत्पन्न आशंका पर इतना नहीं। फिर भी इस लेखक का निवेदन है कि न्यायालय कृत्य या आचरण द्वारा उत्पन्न औचित्यपूर्ण आशंका को नकार नहीं सकते हैं। यदि कत्य या आचरण द्वारा यह औचित्यपूर्ण आशंका अर्जीदार के मन में घर कर लेती है कि प्रत्यर्थी के साथ उसका रहना अब हानिकारक या क्षतिकर होगा तो प्रत्यर्थी क्रूरता का दोषी होगा। इसी कारण पुराने निर्णयों की यहां विवेचना की जा रही है।

हिन्दू विधि के संप्रत्यय क्रूरता के अन्तर्गत दोनों भांति की क्रूरतायें, शारीरिक और मानसिक आती हैं।

अधिनियम की धारा 13 के अधीन क्रूरता को विवाह-विच्छेद के लिये आधारों में से एक के रूप में विहित किया गया है। सुसंगत धारा 13 (1) (i-क) निम्न प्रकार पठित है-

“(i-क) विवाह के अनुष्ठापन के पश्चात् अर्जीदार के साथ क्रूरता का बर्ताव किया गया है।”

शब्द “क्रूरता” को अधिनियम में कही भी परिभाषित नहीं किया गया है। शब्द वैवाहिक आबद्धता या कर्तव्यों के सम्बन्ध में मानवीय व्यवहार या आचरण होना कहा जा सकता है, जो प्रतिकूल ढंग से अन्य को प्रभावित करता है। इस प्रकार व्यापक रूप से अधिकथित किये जाने पर धारा 13 (1) (i-क) के अधीन विवाह-विच्छेद के प्रयोजन के लिये आधार के रूप में “क्रूरता” को अन्य के प्रति एक दम्पत्ति का व्यवहार माना जा सकता है, जो उसके मस्तिष्क में युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न करे कि वैवाहिक सम्बन्ध का जारी रखना सुरक्षित नहीं है। क्रूरता भौतिक या मानसिक या साशय य अनाशय हो सकती है। शारीरिक क्रूरता तथ्य और डिक्री का प्रश्न है। इसमें दम्पत्ति में से एक का कार्य शामिल है, जो दम्पत्ति में से दूसरे के शारीरिक स्वास्थ्य, जीवन और अंगों को संकटापन्न करता है या ऐसी उपहति की आशंका के लिये कारण प्रदान कर सकता है। मानसिक क्रूरता दम्पत्ति का आचरण है, जो अन्य के मस्तिष्क में वैवाहिक जीवन के लिये भय और मानसिक कष्ट कारित करता है। मानसिक क्रूरता अन्य द्वारा व्यवहार या व्यावहारिक प्रतिमान के कारण दम्पत्तियों में से एक की मानसिक स्थिति या भावना है। मानसिक क्रूरता को प्रत्यक्ष द्वारा साबित करना कठिन है। यह मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से निकाले जाने वाले अनुमान का मामला है। दम्पत्ति में से अन्य के आचरण द्वारा दूसरे को कारित रोष और कुण्ठा की भावना का मूल्यांकन तथ्यों और परिस्थितियों में किया जा सकता है, जिनमें उनमें से दोनों रह रहे हैं। समुच्चय रूप से विचार किये गये सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों से अनुमान निकाला जाना चाहिये।

श्रीमती साधना श्रीवास्तव (उपरोक्त) में विवाह के लगभग 6 मास बाद पक्षकारों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध सामान्य नहीं था। पत्नी ने वैवाहिक गृह छोड़ दिया था और पति को दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन के लिये कार्यवाही प्रारम्भ करनी पड़ी थी। इसी दौरान विभिन्न दाण्डिक कार्यवाहियाँ पत्नी के भाई द्वारा प्रारम्भ की गयी थी, जो अधिवक्ता है, लेकिन, दाण्डिक कार्यवाहियों में से अधिकतर में अन्तिम रिपोर्ट पुलिस द्वारा अन्वेषण के बाद पेश की गयी थी। बाद में पक्षकारों ने समझौता किया था, जिसके आधार पर बच्चों की अभिरक्षा से सम्बन्धित पक्षकारों के बीच सिविल मुकदमेबाजी का निस्तारण किया गया था। गनी पति के साथ रहने के लिये आयी थी। उसके बल देने पर पति स्वयं परिवार से पृथक् हो गया था और नया

1. श्रीमती साधना श्रीवास्तव बनाम अरविन्द कुमार श्रीवास्तव, 2006 वी० एन० एस० 169 (इला०),

मकान लिया था। इसके पश्चात् भी पक्षकारों के बीच सुलह नहीं हुई थी और विवाद तथा मतभेद इस सीमा तक बढ़ गये थे कि पति ने पत्नी पर छोटे पुत्र की हत्या का आरोप लगाया था। वह गिरफ्तार की गयी थी और जेल भेजी गयी थी तथा बाद में इस न्यायालय द्वारा जमानत पर मुक्त की गयी थी।

ऐसी स्थिति में सामना करने के साथ प्रत्युत्तरदाता पति ने पत्नी द्वारा उसके साथ की गयी क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिये याचिका दाखिल की थी। उसने पति के उसके अग्रज की पत्नी की बहन के साथ अवैध तथा विवाहेत्तर सम्बन्ध धारण करने का अभिकथन करते हुये अपना लिखित कथन दाखिल किया था। जारकर्म और विवाहेत्तर सम्बन्ध का अभिकथन भावनात्मक आवेग का परिणाम नहीं था बल्कि विधि के न्यायालय के समक्ष अभिवचन में किया गया था। इन अभिकथनों की पुनरावृत्ति पत्नी द्वारा तथा उसके भाई द्वारा मौखिक कथन में की गयी थी। यद्यपि इस सम्बन्ध में विचारण न्यायाधीश द्वारा विरचित विवाद्यक पर पत्नी द्वारा बल दिये जाने की ईप्सा की गयी थी और उसे साबित करने के लिये कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया था। फिर भी किये गये अभिकथन प्रकृति में गम्भीर थे और केवल विवादास्पद बिन्दु पर बल न देना उनके प्रभाव को खोना नहीं होगा और वे मामले के अभिलेख पर थे। यद्यपि पत्नी के विरुद्ध किये गये जारकर्म की, अनाधारित अभिकथनों पर कार्यवाही के दौरान बल नहीं दिया गया था फिर भी माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उसे पति द्वारा क्रूरता का आचरण होना माना गया था, जिसने पत्नी को विवाहविच्छेद के अनुतोष की ईप्सा करने का हकदार बनाया था।

आर० बालासुब्रमण्यन बनाम विजयलक्ष्मी बालासुब्रमण्यन के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नलिखित सम्परीक्षण किया गया है-

“प्रत्युत्तरदाता की ओर से उपस्थित होने वाले विद्वान अधिवक्ता ने तर्क दिया है कि जहाँ तक प्रत्युत्तरदाता पत्नी के रूप में जारकर्म के अभिकथन का सम्बन्ध है, वहां तक वह दबाव डालने नहीं जा रहा है। यह उसके लिये उचित हो सकता है किन्तु तथ्य यह है कि अभिकथन कि पति के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति के साथ पत्नी का यौन सम्बन्ध था, जो पत्नी के विरुद्ध गम्भीर आरोप है और पति के क्रूर आचरण को दर्शित करता है, जो पत्नी को अधिनियम के अधीन या अन्यथा उसके विरुद्ध अनुतोष की ईप्सा करने का हकदार बनाता है।”

विजय कुमार रामचन्द्र भाटे बनाम नीला विजय कुमार भाटे,2 के मामले के अन्य विनिश्चय में भी उच्चतम न्यायालय ने अवधारित कया है कि विवाहेत्तर सम्बन्ध का अभिकथन पत्नी के चरित्र, सम्मान और ख्याति पर गम्भीर प्रहार करता है। यद्यपि ऐसा अभिकथन लिखित कथन में संशोधन की ईप्सा करके वापस लिया गया है, फिर भी वह क्रूरता के समान है, जो याची को विवाह-विच्छेद की डिक्री का हकदार बनाता है। न्यायालय द्वारा किये गये निम्नलिखित सम्परीक्षण को उद्धृत करना सुसंगत हो सकता है-

“इसके अतिरिक्त, लिखित कथन में किये गये अभियोग को निकालने की ईप्सा करते हुये संशोधन के लिये आवेदन का आदेश दिया गया था और बाद में किया गया संशोधन इस मामले में पति को ऐसा हानिकर दृष्टिकोण और कथन करके उनके प्रभाव के कारण क्रूरता से, जब किया गया था और अभिलेख पर लगातार बना हुआ था, उनके प्रभाव के कारण पत्नी को व्यवहार करने के लिये दायी होने से मुक्त नहीं करता। अधिनियम की धारा 13 की उपधारा (1) के खण्ड (i-क) की अपेक्षा का समाधान करने के लिये यद्यपि यह किसी विशिष्ट अवधि के लिये क्रूर व्यवहार नहीं है, जो कानूनी रूप से आवश्यक होना नियत की गयी है। उक्त प्रावधान के प्रयोजनों के लिये आपेक्षित मानसिक क्रूरता का गठन कौन करता है, यह ऐसी घटनाओं की गणितीय संख्या पर आधारित होगा और केवल ऐसे आचरण के लगातार अनुक्रम पर आधारित होगा किन्तु वास्तव में सघनता, गम्भीरता और उसके स्थिर प्रभाव के साथ ही, जब एक बार किया गया था और मानसिक प्रवृत्ति पर उसका हानिकर प्रभाव सहायक वैवाहिक गृह को कायम रखने के लिये आवश्यक है। याद स्वाद और निन्दा केवल सामान्य प्रकति का है. तो न्यायालयों को पन: ऐसे प्रश्न पर विचार करन आवश्यकता है कि क्या समय की अवधि तथा उनकी निरन्तरता और विद्यमानता उसे, जो सामान्यतया है,

1. 1999 (37) ए० एल० आर० 135 (एस० सा०).

2. 2003 (51) ए० एल० आर० 529 (एस० सी०).

अन्यथा बनायेगा, जो कार्य को इतना अधिक हानिकर और कष्टकर नहीं बनायेगा, जो दम्पत्ति को, जो उनसे आरोपित है, उचित रूप से और युक्तियुक्त रूप से यह निष्कर्ष निकालने के लिये बाध्य करे कि वैवाहिक गृह को बनाये रखना अब और सम्भव नहीं है। तीक्ष्णता के साथ किया गया सचेत और जनबूझकर कथन की जो लिखित कथन के माध्यम से अभिलेख पर रखा गया है, आसानी से उपेक्षा नहीं की जा सकती या केवल इस कारण परिणामहीन होने के लिये अमान्य नहीं किया जा सकता कि इसे अभिलेख से हटाया गया था। वर्तमान मामले में किये गये अभिकथन और परिगणित घटनायें, प्रकृति में स्वतः क्रूर होने के अतिरिक्त स्वयं तथ्य की स्वीकृति को गठित करते हैं कि भूतकाल में कुछ समय तक पति लगातार उनमें संलग्न रहा था, उनके प्रभाव के प्रति अनिष्ठुर और अविचारपूर्ण था। इस मामले में पति ने पत्नी से अत्यधिक क्रूरता से व्यवहार किया है, जो ऐसा तथ्य है, जो उस दिन सम्पन्न कार्य हो गया था, जब वे लिखित कथन में किये गये थे। वे लिखित कथन के संशोधन किये जाने का किसी तरह अभिलेख पर बने हुये थे और अमिट प्रभाव तथा कलंक, जो उन्होंने प्रारम्भ में उत्पन्न किया था, को स्वतः आदेशित संशोधन के साथ समाप्त हुआ नहीं कहा जा सकता। इसलिये, उसके विरुद्ध निष्कर्ष अभिलिखित करने के लिये इस सम्बन्ध में अपीलार्थी के उक्त आचरण पर विश्वास करते हुये अवर न्यायालयों में कोई अपवाद अंगीकार नहीं किया जा सकता।”

उच्चतम न्यायालय द्वारा पत्नी के मामले में जो सम्परीक्षण किया गया है, वह सही होगा और पति के मामले में भी उसी तरह समान होगा। हमारी राय में अपीलार्थी पत्नी द्वारा उसके लिखित कथन में प्रत्युत्तरदाता पति के विरुद्ध किये गये अवैध सम्बन्ध और विवाहेत्तर सम्बन्ध को धारण करने का अभिकथन केवल ऐसी प्रकृति की मानसिक क्रूरता गठित करता है कि प्रत्युत्तरदाता पति को युक्तियुक्त रूप से पत्नी के साथ रहने के लिये नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार, हम विचारण न्यायालय द्वारा अभिलिखित निष्कर्ष में काई अवैधता नहीं पाते कि पति के विरुद्ध पत्नी द्वारा किये गये अवैध सम्बन्ध और विवाहेत्तर सम्बन्ध को धारण करने का अभिकथन क्रूरता के समान है। अन्य तथ्य, जिसका पक्ष कुटुम्ब न्यायालय ने यह अवधारित करने में, कि पति क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री का हकदार था, लिया था, पति के विरुद्ध प्रारम्भ की गयी कई दाण्डिक कार्यवाहियां थी, जिसे मिथ्या होना पाया गया था और अन्तिम रिपोर्ट पेश की गयी थी। इस पर सन्देह नहीं किया जा सकता कि प्रत्युत्तरदाता पति को स्वयं उसे शामिल करके सम्पूर्ण परिवार की गिरफ्तारी और कारागार में परिरोध के कारण आघातक अनुभव को सहन किया था। गिरफ्तारी और कारावास का परिणाम समाज में पति और उसके परिवार की ख्याति की कमी में हुआ था। मिथ्या मामले में गिरफ्तार किये जाने और कारावास में रखे जाने की, जिसका परिणाम समाज में ख्याति में कमी में हुआ था, मानसिक पीड़ा भी क्रूरता के समान होगी। पुनः हम विचारण न्यायाधीश के इस निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधता नहीं देखते कि पति के विरुद्ध प्रारम्भ की गयी मिथ्या दाण्डिक कार्यवाही मानसिक क्रूरता के समान है, जो उसे उक्त आधार पर विवाह-विच्छेद डिक्री का हकदार बनाती है। यद्यपि पत्नी ने पति के साथ रहने के लिये अपनी इच्छा व्यक्त की थी किन्तु हमारी भावना और मामले के सम्पूर्ण तथ्य और परिस्थितियाँ भी निर्दिष्ट करती हैं कि पक्षकारों के बीच विवाद और भावनात्मक रूप से और व्यावहारिक रूप से समाप्त हैं। और वैवाहिक सम्बन्ध की निरन्तरता व्यथा और वेदना को दीर्धीकृत करने के समान होगा, जो स्वयं क्रूरता के सात । पर्वोक्त विवेचन की दृष्टि में, निष्कर्ष यह है कि पति-प्रत्युत्तरदाता हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i-क) के अधीन विवाह-विच्छेद की डिक्री का हकदार है और विचारण न्यायाधीश द्वारा पारित विवाह-विच्छेद का आक्षेपित निर्णय और डिक्री किसी हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं करता। पत्नी द्वारा दाखिल अपील निरस्त किये जाने के लिये दायी है।।

स्वेच्छा क्रूरता-वर्तमान अंग्रेजी विधि में स्वेच्छा क्रूरता का आवश्यक अंग नहीं है, क्रूरता का हेतु भी महत्वपर्ण नहीं है। क्रूरता के हेतु या स्वेच्छा के स्थापित होने पर उनका महत्व है, परन्तु उनके न होने पर भी अधिकार गठित हो सकता है। एक निणय में अंग्रेजी न्यायालय ने कहा ‘क्ररता के आचरण या कृत्य किस हेत से किये गये हैं, यह जानना आवश्यक नहीं है, हो सकता है कि वे प्रक्षुब्ध आवेशं के कारण किये।

1. श्रीमती साधना श्रीवास्तव बनाम अरविन्द कुमार श्रीवास्तव, 2006 वी० एन० एस० 169 (इला)

गये हों; कभी उन कारणों से जो प्रेम और स्नेह की रिक्तता को इंगित करता है, कभी-कभी अगाध प्रेम और स्नेह उनका कारण होता है, कभी डाह उसका कारण होती है। यदि कटुता का वातावरण हो, तो यह जानना आवश्यक नहीं है कि कटुता का स्रोत क्या है। इस मुकदमे में स्वेच्छा की आवश्यकता को अस्वीकार करते हये (इस मामले में प्रतिपक्षी पति की ओर से दलील यह थी कि क्रूरता के आचरण के समय वह विकृतचित्त था, अत: वह कूता का दोषी नहीं हो सकता है) अंग्रेजी न्यायाधीश रीड ने कहा कि उस असामान्य व्यक्ति के विरुद्ध वाद करना ही औचित्यपूर्ण होगा, इसलिये नहीं कि जो क्षति उसने पहुँचाई है उसका ज्ञान उसे होना चाहिये था, बल्कि इसलिये कि उसका आचरण और कत्य उसकी असामान्यता को देखते हुये भी, ऐसे थे कि उन्हें क्रूरता की संज्ञा देना ही होगा, यह असामान्यता उसके विकृतचित्त होने के कारण हो या अन्य किसी कारणवश हो।

यही मत हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत आने वाले वादों में व्यक्त किया गया है। भगवत बनाम भगवत में पति ने एक बार रात्रि में सोते हुये पली के भाई का गला घोटने का प्रयत्न किया, दूसरी बार अपने पुत्र का। यह स्थापित हो गया कि दोनों समय ही वह विकृतचित्त का था। पति की ओर से प्रतिरक्षा में यही कहा गया कि विकृतचित्त होने के कारण वह करता का दोषी नहीं है। इस प्रतिरक्षा को अस्वीकार करते हुये न्यायाधीश श्री नायक ने कहा कि पति का आचरण ऐसा है कि स्वेच्छा के आभाव में भी वह क्रूरता की संज्ञा में आता है। अत: उसका विकृतचित्त होना कोई अर्थ नहीं रखता है। सियाल बनाम सरला में यह प्रश्न विचित्र परिस्थितियों में आया। पति पत्नी का विवाह सन् 1940 में हुआ और विवाह से दो सन्तानें भी उत्पन्न हुई। प्रतीत यह होता है कि पक्षकारों के बीच कुछ मनमुटाव रहने लगा। पत्नी-पति का प्रेम और स्नेह पाने के लिये पागल थी। वह एक फकीर के पास गई और अपनी कहानी सुनाई और अपना ध्येय बताया। फकीर ने उसे कुछ भभूत दी और कहा कि रात को सोने के पूर्व दूध में मिलाकर पति को सेवन कराये, उसकी मनोकामना पूर्ण हो जायेगी। उसने वैसा ही किया। पर दुर्भाग्य, उसका फल कुछ और ही निकला। पति को उल्टियां हुई, वह बीमार हो गया, उसका भार घट गया, पेट में जलन रहने लगी और उपचार के लिये वह कुछ दिन अस्पताल में भर्ती रहा। पत्नी रात-दिन पति की सेवा में लग गई। उसने वह सब किया जो एक धर्मपत्नी कर सकती थी। उसे अपने आचरण पर बहुत क्षोभ था परन्तु पति को लगा कि वह इस स्त्री के साथ तो जीवन और प्राण संकट में ही रहेगा। पत्नी-क्रूरता के आधार पर उसने न्यायालय में न्यायिक पृथकरण की याचिका प्रेषित कर दी। याचिका स्वीकार करते हुये न्यायाधीश श्री शमशेर बहादुर ने कहा कि पति-पत्नी के बीच तनाव की स्थिति है, पति पत्नी के साथ रहने में डरता है। वह आशंकित है-कहीं इसी भांति का कोई अन्य कत्य या आचरण द्वारा वह उसके प्राण संकट में नडाल दे। पत्नी के आचरण के फलस्वरूप या आशंका औचित्यपूर्ण भी है। यह ठीक है कि पत्नी से यह कभी नहीं चाहा था कि उसके पति के प्राण या जीवन संकट में पड़े, परन्तु प्रश्न, कि पत्नी के आचरण के पीछे पत्नी की इच्छा पति के प्राणों को संकट में डालने की थी या नहीं, बल्कि प्रश्न है कि क्या उसके आचरण द्वारा पति के मन में औचित्यपूर्ण आशंका उत्पन्न हई है. उसका जीवन संकट में है? यदि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है तो पत्नी करता की अपराधी है चाहे उसकी इच्छा भी रही हो।

स्वेच्छया की गई क्रूरता तो करता है ही; यह एक बड़ा वैवाहिक अपराध है कि एक पक्षकार स्वेच्छा से ऐसा कृत्य करे या ऐसा आचरण करे जो दूसरे पक्षकार की भावना को ठेस पहुंचाये या उसे तिरस्कृत करे, या जानबूझकर ऐसा कृत्य करे कि उससे उसका स्वास्थ्य बिगड़े या मानसिक पीड़ा पहुँचे।

क्या क्रूरता याचिकाकार के प्रति ही होनी चाहिये-क्रूरता के वैवाहिक अपराध के लिये क्या यह अनिवार्य है कि क्रूरता याचिकाकार के प्रति ही हो, अन्य किसी के प्रति होने पर क्या करता की संज्ञा में नहीं।

1. विलियम्स बनाम विलियम्स, (1963) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्ट्स 991.

2. विलियम्स बनाम विलियम्स (1963) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टस 991, और देख, गाालन्स बनाम गोलिन्स, (1965) 3 आल इंग्लैंड रिपोर्टस 966.

3. 1967 बम्बई 80 और देखें, श्रीकान्त बनाम अनुराधा, 1980 कर्नाटक 8.

4. 1961 पंजाब 125.

आयेगी? नि:संदेह ही याचिकाकार के प्रति की गई क्रूरता तो क्रूरता है ही परन्तु कभी-कभी अन्य व्यक्ति के प्रति की गई क्रूरता को भी याचिकाकार के प्रति की गई क्रूरता मानी जाती है। कूपर बनाम कूपर में पति द्वारा अपनी सौतेली पुत्री के साथ व्यभिचार करने का प्रयत्न पत्नी के प्रति क्रूरता माना गया । न्यायालय ने कहा कि यह तथ्यहीन तर्क है कि पति की पत्नी का हृदय दुखाने की कोई इच्छा नहीं थी भारतीय मामले भगवत बनाम भगवत में भी तर्क यही दिया था कि पति के कृत्य पत्नी के प्रति नहीं थे और पति की इच्छा पत्नी को पीड़ा पहुँचाने की नहीं थी। न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार करते हुये कहा कि पति के आचरण से न केवल पत्नी को पीड़ा पहुँची है बल्कि उसके मस्तिष्क में यह आशंका पैदा कर दी है कि उसके साथ रहना संकटपूर्ण है।

परन्तु अन्य व्यक्तियों के प्रति किये गये कृत्य यदि याचिकाकार को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करते हैं, तो वे क्रूरता की परिभाषा में नहीं आते हैं। इस भांति प्रतिपक्षी का मदिरापान करना, जुआ खेलना, अपराध करना या किसी अन्य के प्रति लैंगिक अपराध (Sexual offence) करना, याचिकाकार को अपरोक्ष रूप से भले ही प्रभावित करे, प्रत्यक्ष रूप से याचिकाकार के प्रति क्रूरता की संज्ञा नहीं दी जा सकती है।

क्या क्रूरता का कृत्य या आचरण का ही होना चाहिये?-अंग्रेजी विधि में यह स्थापित नियम है कि क्रूरता का कृत्य या आचरण या तो प्रतिपक्षी का हो या उसके आदेश द्वारा किसी अन्य का, तो क्रूरता गठित होगी। तीसरे व्यक्ति का क्रूरतापूर्ण आचरण जो उसके आदेश से नहीं किया गया है, क्रूरता नहीं होगी। हिन्दू विधि में कुछ भी मत लिया गया है। हिन्दुओं में अब भी अधिकांश पत्नियां संयुक्त परिवारों में रहती हैं, संयुक्त परिवार की समस्त सुविधा और असुविधा सहित। कभी-कभी ऐसा होता है कि पत्नियाँ संयुक्त परिवार के सदस्यों के साथ क्रूरता का शिकार होती हैं पति असहाय से देखते रहते हैं; उस क्रूरता में उनका कुछ हाथ नहीं होता है, परन्तु वे उसका प्रतिकार भी नहीं करते हैं। संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में ही एक मामला आया श्यामसुन्दर बनाम शान्ति देवी का। विवाह के पश्चात् दहेज न लाने के कारण पत्नी को परिवार के सदस्यों ने कमरे में बन्द कर दिया, मारा-पीटा, खाना नहीं दिया। पति यह सब देखता रहा, उसने न तो पत्नी को यातना पहुँचाने से रोकने के लिये कुछ किया, न ही उसे बचाने के लिये। अन्त में पत्नी के माता-पिता ने पुलिस की सहायता से उसे छुड़ाया। न्यायालय ने कहा कि पत्नी के परिवार के सदस्यों के उस आचरण से बचाने का कोई प्रयत्न न करना पति का अपने कर्तव्यच्युत होना है, अत: यह आचरण स्वयं क्रूरता जैसा है। धर्मशास्त्रों ने भी यह निर्धारित किया है कि पत्नी की रक्षा करना पति का परम धर्म है। पति शब्द का अर्थ ही पत्नी की अभिरक्षा करने वाला है। धर्मशास्त्र में कहा गया है कि पति चाहे कितना ही दुर्बल क्यों न हो पत्नी की सुरक्षा करना उसका परम धर्म है।

क्रूरता का वर्गीकरण

आधुनिक वैवाहिक विधि में क्रूरता को दो वर्गों में रखा गया है-

(क) शारीरिक क्रूरता, और

(ख) मानसिक क्रूरता।

शारीरिक क्रूरता-शारीरिक हिंसा के वे कृत्य और आचरण जिनके द्वारा, अंग या स्वास्थ्य को चोट पईचे या चोट पहुँचाने की औचित्यपूर्ण सम्भावना को शारीरिक क्ररता की संज्ञा में आते हैं। प्रारम्भिक अंग्रेजी वैवाहिक विधि में अधिकांश रूप से क्रूरता इसी अर्थ में ली जाती थी। हिंसा के क्या कत्य और आचरण करता को गठित करेंगे। यह कहना सम्भव नहीं है क्योंकि प्रत्येक मामले के तथ्यों के अनुसार उसका निर्णय होगा। हो सकता है कि एक मामले में वे कृत्य और आचरण क्रूरता गठित करें, दूसरे में ने करें। यह याचिकाकार की संवेदनशीलता और अनुभूति-सम्पन्नता (Sensibility) पर निर्भर करता है।

1. (1954) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्ट्स 415.

2. 1976 बाम्बे 80.

3 1962 उड़ीसा 50.

भारतीय पृष्ठभूमि में न्यायाधीश दुआ ने सत्य ही कहा है कि हमारे यहाँ अधिकतर स्त्रियां स्वयं को अपने भाग्य पर छोड़ देती हैं और अपने पति के क्रूर और बुरे व्यवहार को सहती रहती हैं जब तक कि उनकी सहनशक्ति का बाँध न टूट जाये। इस मुकदमें में पति ने पत्नी के साथ दुर्व्यवहार किया और उसको बुरी तरह से मारा पीटा। न्यायाधीश ने कहा कि उसको चोट गहरी आयी है या ऊपरी इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। पति ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया है और उसे मारा-पीटा है, क्रूरता के लिये यही पर्याप्त है। हर सभ्य समाज के मापदण्ड पर ऐसे आचरण को क्रूरता ही कहा जायेगा। सियाल बनाम सरल भी शारीरिक क्रूरता का मामला था। सप्तमी बनाम जगदीश भी शारीरिक क्रूरता और मानसिक क्रूरता का मामला था। इस मामले में पति, पत्नी को गाली देता था, अनादर करता था, अपमानित करता था, और अन्त में एक दिन पिता के घर में उसने पत्नी को धक्का देकर दीवार से दे मारा, जिसके फलस्वरूप उसके शरीर पर खरोंचें आयीं। ज्योतिष बनाम मीरा भी शारीरिक और मानसिक क्रूरता का मामला था।

मानसिक क्रूरता-आधुनिक वैवाहिक विधि में मानसिक क्रूरता एक बहुत महत्वपूर्ण और संप्रत्यय है। वर्तमान युग में शारीरिक क्रूरता के मामले कम होते हैं, मानसिक क्रूरता के अधिक और मानसिक क्रूरता कभी-कभी शारीरिक क्रूरता से अधिक असहनीय होती है। प्रवीण मेहता बनाम इन्द्रजीत मेहता में उच्चतम न्यायालय ने मानसिक क्रूरता की परिभाषा देने का प्रयत्न किया है। न्यायालय ने कहा है कि मानसिक क्रूरता मन की और भावना की एक अवस्था है। यह एक निष्कर्ष या अनुमान लगाने का विषय है। यह अनुमान तथ्य तथा परिस्थितियों से लगाया जा सकता है। सप्तमी बनाम जगदीश में पति अपनी पत्नी को चरित्रभष्टा और वेश्या कह कर सम्बोधित करता था। न्यायालय ने कहा कि एक पति के लिये अपनी पत्नी को वेश्या, कुलटा और चरित्रभष्टा कहना, जबकि यह सब नितान्त झूठा है, एक बहत दु:खदायी प्रसंग है जिसे किसी सच्चरित्र पत्नी के लिये सह पाना असम्भव है। यह शारीरिक क्रूरता से भी हेय है। ऐसी क्रूरता की पृष्ठभूमि में दाम्पत्य जीवन सुचारु रूप से चलाना असम्भव है। ऐसे पति के साथ रहना अपनी स्वतन्त्रता और अपने स्वास्थ्य को संकट में डालना है। यदि सप्तमी के मामले में पति का व्यवहार निकृष्ट था तो श्रीपदाचार बनाम बसन्ता में पत्नी का आचरण कम हेय नहीं था। बहुत से चिड़चिड़े स्वभाव और कटुभाषी पत्नी, छोटी-छोटी बातों पर सदैव ही पति से लड़ती रहती थी, झगड़ा करती रहती थी, गाली देती रहती थी, अपमान करती थी, घर पर ही नहीं बाहर भी, मेहमान और नातेदारों के समक्ष भी तिरस्कार करती थी। एक दिन पत्नी ने बस में बैठे हुये यात्रियों के सामने पति को गालियां दी, अपमान किया, तिरस्कार किया और उसका कालर पकड़ कर खींच लिया। एक अन्य दिन उसके पति को भोजन पकाने के लिये बाध्य किया और जब पति ने भोजन परोस कर थाली उसके सामने रखी तो उसने यह कहते हुये कि क्या गोबर भोजन पकाया है. थाली उसके सिर पर दे मारी। एक अन्य दिन, जब पति अपने सहयोगियों के साथ अपने कार्यालय जा रहा था तो पत्नी ने उसका गला पकड़ लिया, उसने गालियाँ दी, तिरस्कार किया। पत्नी यह भी कहती थी कि वह चाहती है कि पति की मृत्यु किसी दुर्घटना में या कैसे भी हो जाय जिससे कि उसके बीमा और प्रावीडेण्ट फण्ड का रुपया उसे मिल जाये। पत्नी के इस आचरण ने पति का जीवन दूभर कर दिया, पास-पडोस, मित्रसम्बन्धियों के बीच वह हास्य और छींटाकशी का लक्ष्य बन गया। उसकी नींद हराम हो गई। स्वास्थ्य खराब रहने लगा। निःसन्देह ही न्यायालय ने पत्नी को क्रूरता का दोषी ठहराया। क्या पत्नी द्वारा मरणासन्न पति को न देखने जाना क्रूरता है? राजेन्द्र सिंह बनाम तारावत में एक दुर्घटना में बुरी तरह घायल होकर पति आसाम के एक अस्पताल में भरती हुआ। तत्पश्चात् उसे दिल्ली के अस्पताल में इलाज के लिये लाया गया। पत्नी दिल्ली में रहती थी। पत्नी न पति को देखने आसाम गई (उसके पास पैसे की कमी नहीं थी) और न । ही दिल्ली में गई। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इतनी उपेक्षा क्रूरता की संज्ञा में आती है।

1. कौशल्या बनाम वैसाखीराम, 1961 पंजाब 520.

2. 1961 पंजाब 125, इस मामले के तथ्य हम पहले दे चुके हैं।

3. (1969) 37 कलकत्ता वीकली नोटस 502.

4. 1970 कलकत्ता 266; इस मामले के तथ्य हम पहले दे चुके हैं। 1970

5. 2002 सु० को02582.

6. 1970 मैसूर 232.

7. 1980 दिल्ली 213.

दास्ताने बनाम दास्ताने भी मानसिक क्रूरता का एक अच्छा उदाहरण है। पत्नी, पति को सताने, खिजाने और पीड़ा पहुँचाने में प्रसन्नता का अनुभव करती थी। पत्नी के नातेदारों द्वारा पति और उसके नातेदारों पर लांछल लगाने, दोष मढ़ने और प्रतारणा करने में भी पत्नी प्रसन्नता का अनुभव करती थी। वह पति और उसके पिता पर झूठे लांछन लगाती थी। एक बार उसने पति से कहा कि उसके (पति के) पिता की वकालत की सनद झूठी और जाली है और उसे जब्त कर लिया गया है। वह बहुधा कहती है कि वह चाहती है। दास्ताने कुटुम्ब का विनाश हो। वह कहती ‘तुम्हारे पिता ने जो पुस्तक लिखी है, उसे जला दो और उसकी राख अपने मस्तिष्क पर धारण कर लो।’ वह पति से कहती है. ‘तम इन्सान नहीं हो; मनुष्य की योनि में दानव हो। भगवान करे तुम्हारी नौकरी चली जाये।’ दो बार उसने अपना मगल-सूत्र तोड़ डाला। जब पति के दफ्तर से लौटने का समय होता तो वह घर में ताला लगाकर कहीं बाहर चली जाती। वह अपनी पुत्रियों के जिह्वा पर लाल मिर्च का चूर्ण मल देती, पति के समक्ष उन्हें बुरी तरह से मारती-पीटती। वह रात को तेज रोशनी जलाकर पति के सिरहाने बैठकर उलाहने-ताने (Nagging) देती। पति की प्रताड़ना करती, गाली देती, इसी तरह के अनेक कृत्यों द्वारा उसने अपने पति का जीवन दूभर कर दिया।

सिंददगंगामा बनाम लक्ष्मण में मानसिक क्रूरता के प्रसंगों का संकलन किया गया है। एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार के जीवन में औचित्य और अनाधिकार हस्तक्षेप, एक पक्षकार द्वारा दूसरे पर बुरी तरह हावी होना या बुरा बर्ताव करना, अस्वाभाविक रूप से मैथुन करना, जारकर्म, शीलभ्रष्टा होने का झूठा आरोप लगाना या बुरी तरह से ताने-उलाहने देना, क्रूरता की संज्ञा में आते हैं। इसी भांति शुसन्नम्मा बनाम बरगीज3 में न्यायालय ने कहा शीलभ्रष्टा का आरोप, अपमान, गाली-गलौज और ऐसे की आचरण जो वैवाहिक जीवन को असम्भव कर दे या बहुत ही कटु और दयनीय बना दें, क्रूरता की व्याख्या में आयेंगे। कोनडल बनाम रंगानायकी4 में मद्रास उच्च न्यायालय के मतानुसार लगातार दुर्व्यवहार करना, दाम्पत्य मैथुन से इन्कार करना, जानबूझकर उपेक्षा और अवहेलना करना, और अन्य ऐसे ही आचरण जिनका बुरा प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है, क्रूरता के, अन्तर्गत आते हैं। अब यह स्थापित मत है कि जारकर्म या शीलभ्रष्ट होने का झूठा आरोप क्रूरता है। परन्तु यह अनावश्यक है कि आरोप झूठा हो, यदि आरोप झूठा हो, यदि आरोप सही है को क्रूरता गठित नहीं होती है।

पति द्वारा पत्नी की जारकर्म करने के लिये बाध्य करना या पति या पत्नी द्वारा बिना किसी औचित्यपूर्ण कारण के मैथुन से इन्कार करना भी, क्रूरता है।

चन्द्र बनाम सुरेशी में विवाह के दूसरे दिन ही पत्नी घर छोड़ कर चली गई। कुछ समय वह अपनी चचेरी बहन के पास रही और उस समय उसे कई अपरिचित व्यक्तियों के साथ-साथ आते-जाते देखा गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पत्नी द्वारा पति को अकारण ही छोड़ जाना। अपरिचित व्यक्तियों के साथ घूमना-फिरना ऐसे तथ्य हैं जिनके कारण पति को असहनीय मानसिक वेदना और पीडा पहँची है. अत: यह क्रूरता है।

1. 1975 सु० को०.

2. 1968 मैसूर 115.

3. 1957 ट्रावनकोर-कोचीन 27.

4. 1924 मद्रास 49.

5. कुसुमलता बनाम कामता प्रसाद, 1965 इला० 280; गुरुचरण बनाम नरयाम कौर, 1960 पं0 432; इकबाल कौर बनाम प्रीतम सिंह, 1963 पं० 242; कोहली बनाम कोहली, 1967 पं0 397: गंगम्मा बनाम हनमंथप्पा, (1965) 1 मैसूर लॉ ज० 683; सप्तमी बनाम जगदीश, 73 क० वी० नो० 402; स्वयंप्रभा बनाम चन्द्रशेखर, 1982 कर्ना० 295.

6. परसराम बनाम कमलेश, 1992 पं० और ह० 60.

7. डान बनाम हेन्डरसन, 1970 मद्रास 104.

8. ज्योतिष बनाम मीरा, 1970 कल० 266; श्रीकान्त बनाम अनुराधा, 1980 कर्ना० 8; शंकर बनाम माधवी, 1922 कल० 474.

9. 1971 दिल्ली 208.

जी०वी० एन० कामेश्वरा राव बनाम जी० जबीली में उच्चतम न्यायालय ने मानसिक क्रूरता की संकल्पना (concept) का और खुलासा किया है। न्यायालय ने कहा है कि यह आवश्यक नहीं है कि करता का स्वरूप युक्तियुक्त आशंका (reasonable apprehension) ही जताये कि याचिकाकार का प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकारक है। यदि कोई कार्य याचिकाकार को दु:ख पहुँचाने के लिये किया जाये तो वह क्रूरता होगी। पुनः सामाजिक स्तर एक सुसंगत विचार (reasonable consideration) है। इस केस में याचिकाकार पति बहुत सभ्य, पढ़ा-लिखा व्यक्ति था तथा पत्नी का व्यवहार उसके प्रति रूखा और क्रूरतापूर्ण था।

पत्नी द्वारा पति की उपेक्षा। उसकी रुचि केवल शिक्षा में। पत्नी द्वारा पति की सम्मति एवं ज्ञान कि बिना गर्भ समापन एवं गर्भपात। पत्नी का कार्य मानसिक क्रूरता के अन्तर्गत । पति इस आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री का हकदार है।

समरघोष बनाम जया घोष, में उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया था :

“कोई समान मानदण्ड कभी भी मार्गनिर्देश के लिये अधिकथित नहीं किया जा सकता, फिर भी, मैं मानवीय व्यवहार के कुछ उदाहरणों का उल्लेख करना सुसंगत समझता हूँ, जो मानसिक क्रूरता के मामले पर विचार करने में सुसंगत हो सकता है। उत्तरवर्ती परिच्छेदों में निर्दिष्ट उदाहरण केवल दृष्टान्तस्वरूप है और न कि सर्वांगीण-(i) पक्षकारों के पूर्ण वैवाहिक जीवन के विचारण पर, कठोर मानसिक पीड़ा, व्यथा और कष्ट, जो पक्षकारों के बीच एक दूसरे के साथ रहना सम्भव न बनाये, मानसिक क्रूरता के व्यापक मानदण्ड के भीतर ला सकता है। (ii) पक्षकारों के सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन के व्यापक मूल्यांकन पर, यह प्रचुर रूप से स्पष्ट हो जाता है कि स्थिति ऐसी है कि दोषी पक्षकार से युक्तियुक्त रूप से ऐसा आचरण करने के लिये और अन्य पक्षकार के साथ निरन्तर रहने के लिये नहीं कहा जा सकता। (iii) केवल काम-शैथिल्य या स्नेह की कमी सुधार की कोटि में नहीं आ सकती, भाषा की बार-बार कठोरता, ढंग का चिड़चिड़ापन, उदासीनता और उपेक्षा ऐसी मात्रा में पहंच सकती है कि यह दम्पत्ति के अन्य पक्षकार के लिये वैवाहिक जीवन को पूर्णतया असहनीय बना देता है। (iv) मानसिक क्रूरता मानसिक स्थिति है। दम्पत्ति में से एक में गम्भीर रोग, निराशा और कुण्ठा की भावना, जो लम्बे समय तक अन्य के आचरण द्वारा कारित किया गया था, का परिणाम मानसिक क्रूरता में हो सकता है। (v) अपशब्दपूर्ण और अपमानजनक आचरण का निरन्तर अनुक्रम प्रपीड़न, कष्ट देता है और दम्पत्ति के जीवन को दुखमय बना देता है। (vi) दम्पत्ति में से एक का निरन्तर अन्यायोचित आचरण और व्यवहार वास्तव में दम्पत्ति में से अन्य शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। परिवादित व्यवहार और आशंका का परिणामिक खतरा अत्यधिक गम्भीर, सारभूत और महत्वपूर्ण होना चाहिये। (vii) निरन्तर निन्दनीय आचरण, समझबूझ से उपेक्षा, उदासीनता या मानसिक स्वास्थ्य को उपहति कारित करते हुये दाम्पत्य उदारता के मानक से पूर्ण विचलन या उदासीनता सुख प्राप्त करना मानसिक क्रूरता की कोटि में आ सकता है। (viii) आचरण ईर्ष्या, स्वार्थ, स्वत्व बोधकता से अधिक होना चाहिये, जो दुख और असन्तोष कारित करता है और भावनात्मक परिवर्तन मानसिक क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की स्वीकृति के लिये आधार नहीं हो सकता। (ix) केवल तुच्छ उत्तेजन, लड़ाई, वैवाहिक जीवन का सामान्य टूट-फूट, जो दिन प्रतिदिन के जीवन में होता है, मानसिक क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की स्वीकृति के लिये पर्याप्त नहीं होगा। (x) वैवाहिक जीवन का पूर्ण रूप में पुनर्विलोकन किया जाना चाहिये और कई वर्षों तक एकमात्र उदाहरण क्रूरता की कोटि में नहीं आयेगा। अवचार निष्पक्ष ढंग से लम्बी अवधि के लिये निरन्तर होना चाहिये, जहां सम्बन्ध में इस सीमा तक कम हुआ है कि दम्पत्ति के कार्यों और व्यवहार के कारण, दोषपूर्ण पक्षकार अन्य पक्षकार के साथ अधिक समय तक रहना अत्यधिक कठिन पाता है, जो करता की कोटि में आ सकता है। (x1)

1. 2002 सु० को० 576.

3. सुमन कपूर बनाम सुधीर कपूर, 2009 विधिनिर्णय एवं सामयिकी की 447 (एस० सा०).

3. (2007) 4 एस० सी० सी० 511.

यदि पति चिकित्सीय राय के बिना और अपनी पत्नी की सम्मति या ज्ञान के बिना स्वयं बन्ध्याकरण शल्य-क्रिया कराता है और इसी तरह यदि पत्नी चिकित्सीय राय के बिना या अपने पति के सम्मति या ज्ञान के बिना नसबन्दी या गर्भपात कराती है, तो दम्पत्ति के ऐसे कार्य का परिणाम मानसिक करता हो सकता है। (xii) किसी शारीरिक अक्षमता या वैध कारण के बिना लम्बी अवधि तक मैथुन करने से इन्कारी का एकपक्षीय विनिश्चय मानसिक क्रूरता की कोटि में आ सकता है। (xiii) विवाह के पश्चात् या तो पति या पत्नी का विवाह से सन्तान उत्पन्न न करने का एकपक्षीय विनिश्चय क्रूरता की कोटि में आ सकता है। (xiv) जहाँ लम्बी अवधि तक निरन्तर पृथक्करण है, वहां उचित रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वैवाहिक बन्धन सुधार से परे है। विवाह कल्पना होता है, यद्यपि वैध बन्धन द्वारा समर्थित है। उस बन्धन को पृथक करने से इन्कार करके ऐसे मामलों में विधि विवाह की पवित्रता को पूरी नहीं करती, इसके प्रतिकूल, यह पक्षकारों की मात्र भावना को दर्शित करता है। ऐसी स्थिति में, यह इसका परिणाम मानसिक क्रूरता में हो सकता।

कौन से तत्व शारीरिक या मानसिक करता का गठन कर सकते हैं-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1)(क) के अधीन ‘क्रूरता में शारीरिक एवं मानसिक ‘क्रूरता’ दोनों सम्मिलित हैं। यदि अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य से वैध रूप से यह अनुमान निकाला जा सकता है कि विवाह के किसी पक्षकार का व्यवहार ऐसा है कि दूसरे पक्षकार के मस्तिष्क में अपने मानसिक कल्याण के विषय में आशंका कारित हो जाती है तब ऐसा आचरण क्रूरता की कोटि में आता है। सन्देह से परे सबूत का सिद्धान्त यहाँ लागू नहीं होता है। अधिनियम में अभिव्यक्ति “क्रूरता” को परिभाषित नहीं किया गया है। ‘क्रूरता’ मानसिक ‘अथवा शारीरिक हो सकती है। क्रूरता’, जो विवाह-दिघटन का एक आधार है, को ऐसी प्रकृति को जानबूझकर तथा अन्यायोचित आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिससे जीवन, अंग या स्वास्थ्य, शारीरिक या मानसिक रूप में खतरा कारित हो या ऐसे खतरे के प्रति युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो जाये। “मानसिक क्रूरता” के प्रश्न का विचारण उस विशिष्ट समाज, जिससे पक्षकार सम्बन्धित होते हैं, के वैवाहिक बन्धनों के मानदण्ड, उनके सामाजिक मूल्यों की प्रास्थिति, वातावरण, जिसमें वे रहते हैं, को ध्यान में रखते हये किया जाना चाहिये। ‘क्रूरता’, जैसा ऊपर अंकित है, में ऐसी मानसिक करता सम्मिलित है जो वैवाहिक त्रुटियों की परिधि में आती है। ‘करता’ को शरीर से सम्बन्धित होना आवश्यक नहीं है। यदि पति या पत्नी के आचरण से यह स्थापित हो जाता है, और या वैध रूप से यह अनुमान निकाला जा सकता है कि पति या पत्नी का व्यवहार ऐसा है कि इससे दूसरे पक्षकार के मन में अपने कल्याण के बारे में यह आशंका उत्पन्न कर देता है तब ऐसा आचरण ‘क्रूरता’ की कोटि में आता है। विवाह जैसे संवेदनशील मानवीय सम्बन्धों में, किसी भी व्यक्ति को मामले की सम्भाव्यताओं पर विचार करना होता है। सन्देह की छाया से परे सबत की अवधारणा को दाण्डिक विचारणों पर लागू किया जाता है और न कि दीवानी मामलों में और निश्चित रूप से ऐसे संवेदनशील मानवीय सम्बन्धों जो पति और पत्नी का होता है, में भी नहीं। अतएव किसी भी व्यक्ति को इस पर विचार करना चाहिये कि मामले में क्या सम्भावनायें हैं और विधिक करता कान केवल वास्तविक रूप से पता किया जाना चाहिये अपितु कृत्यों का या अन्य कारणों से परिवादी पक्षकार के मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप में पता किया जाना चाहिये। करता या तो शारीरिक या मर्त हो सकती है। या मानसिका शारीरिक क्रूरता में दृश्यमान और प्रत्यक्ष साक्ष्य हो सकते हैं किन्तु मानसिक करता के मामले में किसी समय प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं भी हो सकते है। जिन मामलों में प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हो सकते है वहाँ व्यायालय से यह अपेक्षा की जाती है कि वह घटनाओं, जिन्हें साक्ष्य में लाया गया है. की मानसिक प्रक्रिया नशा मानसिक प्रभावों की छानबीन करे। ववाहिक विवादों में साक्ष्य पर इसी दृष्टि से विचार करना चाहिये। अभिव्यक्ति करता’ को मानवीय आचरण या मानवीय व्यवहार के सम्बन्ध में प्रयुक्त किया गया है। यह ऐसा आचरण होता है जो वैवाहिक कर्तव्या आर दायित्वों के सम्बन्ध में होता है। करता किसी व्यक्ति का ऐसा यवहार या आचरण होता है जो दूसर पक्षकार पर प्रतिकूल रूप से प्रभाव डालता है। करता मानसिक या शारीरिक साशय या आशय रहित हो सकती है।।

1. ए. जयचन्द्र बनाम अनिल कौर, 2005 वी० एन० एस० 383 (एस० सी०).

अब हम मानसिक क्रूरता के कुछ दृष्टान्त लेते हैं : (LLB Notes)

असाधारण निर्दयता, जानबूझकर निर्दयतापूर्वक व्यवहार और अवहेलना एवं उपेक्षा-बसुन्धरा और दास्ताने के मामले असाधारण निर्दयता और अवहेलना के उदाहरण हैं। इनकी विवेचना हम ऊपर कर चुके हैं। इसी भाँति शान्ति बनाम राघव में पत्नी ने पति पर यह लांछन लगाते हुये कि पति नपुंसक है, उसके शोधग्रन्थ में आग लगा दी। पति कालेज में प्राध्यापक था। यह भी उपेक्षा और असाधारण निर्दयतापूर्वक व्यवहार है। छोटी-छोटी बातों पर पत्नी की भर्त्सना करना, भला-बुरा कहना भी असाधारण निर्दयता और उपेक्षा है।

व्यभिचार और शीलभ्रष्टता का झूठा लांछन-भारत में और विदेशों में भी इस सम्बन्ध में बहुत सारे निर्णय हैं जिनमें यह कहा जाता है कि पति या पत्नी द्वारा एक दूसरे पर व्यभिचार या शीलभ्रष्टता का झूठा लांछन लगाना क्रूरता है। कुसुमलता बनाम कामता प्रसाद में पति ने पत्नी पर शीलभ्रष्टा होने का झूठा लांछन वकील की नोटिस तथा अभिवचन में लगाया है। सप्तमी बनाम जगदीश में पति पत्नी को वेश्या और बाजारू औरत कहता था। मुकेश बनाम कामिनी में पत्नी पति पर लगभग प्रतिदिन ही या लांछन लगाती थी कि वह वेश्याबाजी करता है और पियक्कड़ है। नवल कुमार बनाम मीता में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि पति या पत्नी द्वारा एक दूसरे के चरित्र पर झूठा लांछन लगाना, उसे व्यभिचारी या व्यभिचारिणी कहना क्रूरता है।

पत्नी के चरित्र के विरुद्ध झूठे लांछन लगाने की बात हमें हमारे समाज की स्थिति, उसके मूल्य और हमारी मान्यताओं के संदर्भ में समझनी होगी क्योंकि हमारे यहाँ पत्नी के विरुद्ध ऐसे लांछन उसे अत्यधिक पीड़ा ही नहीं बल्कि हीन-भावना और मानसिक रूप से कष्टदायी होते हैं। इनके कारण कभी-कभी शारीरिक रोग और मानसिक कुंठायें भी जन्म लेती हैं।

क्या पत्नी द्वारा पति के प्रति व्यभिचार का झठा लांछन लगाना, क्ररता नहीं है? लेखक की राय में वह भी उसी तरह की क्रूरता है जैसे पति द्वारा लगाये गये लांछन । न्यायालयों ने भी वही मत व्यक्त किया है। परन्तु सोमसंकरन बनाम थनकम्मा में केरल उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि पत्नी द्वारा पति पर यह लांछन लगाना कि उसके उसकी बहन के साथ अनैतिक सम्बन्ध हैं, क्रूरता नहीं है। इस लेखक के पत में यह निर्णय ठीक नहीं है। किसी भी व्यक्ति को इस भाँति के झूठे लांछनों द्वारा असीम वेदना, पीड़ा और प्रताड़ना होगी। इसी भाँति कमलेश बनाम परसराम10 में मान्य न्यायाधीश पंछी ने कहा है कि व्यभिचार या शीलभ्रष्टा के झुठे लांछनों को क्रूरता की संज्ञा नहीं दी जा सकती है जब तक कि यह सिद्ध न हो जाये कि वे इतने भयंकर थे कि याचिकाकार के जीवन, स्वास्थ्य या अगों पर उतना खतरनाक प्रभाव पड़ा है। इस लेखक की राय में क्रूरता का यह अर्थ अब मान्य नहीं है। 19वीं शताब्दी में रसेल बनाम रसेला में अंग्रेजी

1. 1946 राज013.

2. सिद्ध बनाम लक्ष्मण, 1968 मैसूर 115.

3. 1965 इलाहाबाद 280.

4, (1970) 72 कलकत्ता 272.

5. 1984 दिल्ली 368.

6. 1986 कलकत्ता 150.

7. और देखें, गुरुवचन बनाम वरयाम, 1960 पंजाब 432; इकबाल बनाम प्रीतम, 1963 पंजाब 242; काह बनाम कोहली, 1969 पंजाब 3913 मोहिन्दर बनाम भागराम, 1979 पंजाब और हरियाणा 71, जब बनाम मोहन, 1987 बम्बई 220; पुष्पा बनाम अर्चना, 1992 एम० पी०260; अशोक बनाम विजय दिल्ली 182.

8. ए० बनाम बी०, 1985 गुजरात 21; सुनील बनाम ऊषा, 1994 एम० पी० 1 लीला बनाम राज0 128.

9. 1988 केरल 308.

10. 1985 पंजाब और हरियाणा 199.

11. (1897) 2 ए०सी० 305.

न्यायालयों ने क्रूरता की यह परिभाषा दी थी कि क्रूरता वह है जिसका स्वास्थ्य, अंग या जीवन पर भंयकर प्रभाव हो या वैसे परिणाम होने की सम्भावना हो। आज अंग्रेजी विधि ही नहीं बल्कि भारतीय विधि भी इस परिभाषा को छोड़ चुकी है।

लेखक की राय में कामिनी बनाम मकेश ठीक निर्णय है। पत्नी ने पति के विरुद्ध निरन्तर व्यभिचारी होने के झूठे लांछन लगाये। न्यायमूर्ति अवध बिहारी रोहतगी ने कहा कि क्रूरता के व्यवहार का कोई कक्ष, या कोई बीज नहीं है। स्वास्थ्य शरीर या अंगों को क्रूरता के किसी कृत्य या आचरण द्वारा भंयकर खतरे का सिद्धान्त अब पुराना पड़ चुका है। मानसिक क्रूरता अब करता की परिभाषा में आती है और व्यभिचार के झूठे लांछनों द्वारा जो मानसिक पीड़ा और वेदना होती है उसकी बराबरी शारीरिक क्रूरता से नहीं की जा सकती है। न्यायाधीश ने कहा कि यदि किसी भी कृत्य या आचरण के कारण पक्षकार सुखपूर्वक नहीं रह सकते हैं तो वह क्रूरता है।

नपुंसकता का झूठा लांछन और नपुसंकता-पति या पत्नी द्वारा एक दूसरे पर नपुंसकता का झूठा लांछन क्रूरता है।

परन्तु पति या पत्नी यदि नपुंसकता के कारण यौन सम्बन्ध स्थापित करने में असमर्थ हैं तो यह क्रूरता की संज्ञा में आयेगा। रीता निझावन बनाम बालकृष्ण में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि स्वस्थ पति-पत्नी में से कोई भी जानबूझकर संभोग नकारता है या वह शारीरिक या मानसिक कारणों से संभोग करने में असमर्थ है तो यह दूसरे पक्ष के प्रति क्रूरता है। यही मत पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय और हमारे उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त किया है।

मानसिक करता-पत्नी द्वारा इस आधार पर पति से विवाह-विच्छेद की मांग की गयी थी कि पति की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी और वह “पैरानाइड सीजोफ्रेनिया” नामक लाइलाज बीमारी से ग्रस्त था। यह बीमारी पति को उसके विवाह के पूर्व से थी और इसे छिपाया गया था। यह बीमारी दवाओं द्वारा नियंत्रित तो की जा सकती थी किन्तु जड़ से इसका इलाज सम्भव नहीं था। पत्नी को मानसिक एवं भौतिक क्रूरता के अधीन रखा गया था। विवाह के पाँच महीने तक ही पत्नी पति के साथ रही थी। विवाहोपरान्त पति-पत्नी के बीच सहवास भी अविद्यमान रहा क्योंकि पति सहवास की स्थिति में नहीं था। पत्नी को कारित मानसिक एवं भौतिक क्रूरता तथा पति के उन्मत्त होने के आधार पर पत्नी को पति के विरुद्ध विवाहविच्छेद की डिक्री प्रदान की गयी।

पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध यह आरोप लगाना कि उसका उसकी सगी बहन से अवैध सम्बन्ध थे। मानसिक क्रूरता का उचित मामला है और इस आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री उचित ही प्रदान की गयी।

अनुचित निकटता-ललिता बनाम राधामोहन में पति किसी अन्य महिला के साथ अनुचित निकटता का व्यवहार कर रहा था, यहाँ तक कि उसने उसे विवाह करने का भी वचन दिया था। न्यायालय ने कहा कि यह क्रूरता है। इसी भाँति यदि पति या पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के साथ अत्यधिक निकटता के सम्बन्ध रखते हैं तो यह भी करता है चाहे उनके बीच यौन सम्बन्ध न भी हो। परन्तु पति दूसरी स्त्री को प्रेमपत्र लिखना या पत्नी को अन्तरिम भरण-पोषण की राशि अदा न करना क्रूरता नहीं है।10

1. 1985 दिल्ली 221.

2. 1979 एम० एल० आर० 352.

3. 1973 दिल्ली 200.

4. हनमान बनाम चन्द्रकला, 1986 पंजाब और हरियाणा 308; शीराज मोह खान बनाम हफीजुन्निसा, 1981 स० को 1972; निर्णय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत है। मनजीत बनाम सुरेन्द्र, 1994 पंजाब और हरियाणा 4.

5. विनीता सक्सेना बन.न पंकज पंडित, 2006 (40) ए० आई० सी० 20 (एस० सी०) : 2006 वी० एन० एस० 570.

6. स्नेहलता बनाम राजा राय बहादुर, रायकवाड़, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 550 (उत्तरा)

7. 1976 राजस्थान 6.

8 वाचेल बनाम वाचेल, (1972) 116 एस० जे० 762 (अंग्रेजी निर्णय)

9. सत्या बनाम राधा, 1976 राजस्थान 156.

10. गड्डन बनाम बीरलाल, 1976 मध्य प्रदेश 53.

अन्य स्त्री के साथ निवास करना-यदि पति अन्य किसी स्त्री जो उसकी नातेदार नहीं है रहता है तो यह क्रूरता की संज्ञा में आयेग। पत्नी का ऐसी स्थिति में पति से पृथक रहना न तो क्रूरता और न ही अभित्यजन होगा।

झूठा दाण्डिक अभियोग-पति या पत्नी परस्पर झूठा दाण्डिक अभियोग रोपना क्रूरता है यद्यपि यह बात प्रत्येक वाद के अपने तथ्य और हालत पर निर्भर करती है। श्यामलाल बनाम सुरेश में पति और उसके सास-ससुर लगातार दुर्व्यवहार करते हैं, पत्नी ने थाने में उनके विरुद्ध रपट लिखवाई, जिसके कारण उसके पति और ससुर को दाण्डिक अपराध संहिता की धारा 107 और 151 के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु पत्नी द्वारा आगे कार्यवाही न करने पर मुकदमा खारिज हो गया। पति ने इस आधार पर कि पत्नी का आचरण क्रूरता है, विवाह-विच्छेद का वाद दायर किया। न्यायमूर्ति पंछी ने कहा कि यह क्रूरता नहीं है। इसके कारण यह था कि रपट झूठी नहीं थी बल्कि पत्नी द्वारा उसे आगे न बढ़ाने के कारण खारिज हुई थी। परन्तु राज किशोर बनाम राजकुमारी3 में पत्नी द्वारा की गई दाण्डिक कार्यवाही झूठी पाई गई। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह क्रूरता होगी। इसी भाँति कल्पना बनाम सुरेन्द4 में पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध झूठी फौजदारी की कार्यवाही को (ऐसे जुर्म में कि जिसमें पति की जमानत भी नहीं हो सकती थी और जिसमें पति को काफी परेशानी उठानी पड़ी) क्रूरता माना गया।

अफसरों को झूठी शिकायतें-पति या पत्नी एक दूसरे के अफसर से झूठी शिकायतें लगायें जिनके परिणामस्वरूप उनके नौकरी पर आंच आ सकती है तो यह क्रूरता होगी। मल्होत्रा बनाम मल्होत्रा इसका एक उदाहरण है। पत्नी ने पति के विरुद्ध न केवल उसके अफसरों को अपितु मन्त्री और प्रधानमंत्री को पत्र लिख-लिखकर झूठी शिकायतें की कि वह (पति) रिश्वतखोर है, चरित्रहीन है और निकम्मा है, जिसके फलस्वरूप पति के विरुद्ध जांच कमेटी बैठाई गई। परन्तु सब ही आरोप झूठे साबित हुये। ये झूठे आरोप पत्नी ने जानबूझकर पति के हैरान-परेशान करने के लिये लगाये थे। स्पष्ट है कि यह क्रूरता ही है। हरभजन बनाम अमरजीत में प्रतीत यह होता है कि पत्नी दुष्टा थी। उसने पति को हैरान-परेशान करने, उत्पीड़न करने के लिये हर भाँति की हरकतें कीं, यहाँ तक कि पति के विरुद्ध उसके अफसरों से झूठी शिकायतें की उसके बैंक के मैनेजर को (पति बैंक में नौकरी करता था) यह शिकायत की कि वह जानती है कि उसके पति ने बैंक के खाते में गबन किया है, जालसाजी की है और झूठे खाते लिखे हैं। यह आरोप झूठे सिद्ध हुये। इसी भाँति अरुणा बनाम रमेश में अपने वायुसेना में नियुक्त पति के विरुद्ध उसके अफसरों से झूठी शिकायतें की कि उसके पति का तीन वर्ष से किसी अन्य महिला के साथ अनैतिक सम्बन्ध है, उसका तबादला कर दिया जाये।

दुर्भावपूर्ण, कपटपूर्ण, निराधार, कलंकित करने वाले झूठे आरोप-दुर्भावपूर्ण, कपटपूर्ण, निराधार, कलंकित करने वाले झूठ आरोप भी क्रूरता की संज्ञा में आते हैं, ये चाहे पति या पत्नी के अफसरों से किये गये हों या सर्वसाधारण में फैलाये गये हों। ये आरोप भी कुछ वैसे ही हैं जैसे हमने इससे पूर्व के वर्ग में देखें हैं। शकन्तला बनाम ओम प्रकाश में पत्नी ने पति के विरुद्ध लोकसभा के सचिव (जहाँ पति नौकरी करता था) को पत्र लिखे जिसमें अनेक दुर्भावपूर्ण, निराधार, कलंकित करने वाले झूठे आरोप लगाये गये। इसके कारण पति को बहत ही मानसिक कलेश और संताप पहुंचा। किरन बनाम सुरेन्द्र सारदानन्द बनाम किरण10 और गिरधारी बनाम सन्तोष में पत्नी ने पुलिस में एवं अन्य कई जगह पति के विरुद्ध झठे

1. मदन बनाम चित्रा, 1993 कल० 33.

2.1986 पंजाब और हरियाणा 383; पी० के० विजयप्पन नायर बनाम जे० आमिनि अम्मा, 1997 केरल 170.

3. 1980 पटना 362.

4. 1987 इला0253.

5. 1987 दिल्ली 266.

6. 1986 पटना 41.

7. 1988 इलाहाबाद 239.

8. 1981 दिल्ली 53.

9. (1982) आर० एल० आर० (नोट्स) 37.

10. (1985) 28 दिल्ली लॉ टाइम्स 23.

11. (1982)1डी.स सी0180.

दुर्भावपूर्ण निराधार आरोप लगाये। जोर्डन बनाम चोपड़ा में पति ने पत्नी के विरुद्ध निराधार कलंकित करने वाले दुर्भावपूर्ण झूठे आरोप उसके अफसरों को लिखे पत्रों में लगाये, उसने लिखा कि पत्नी व्यभिचारिणी है. बदमाश है, चरित्रहीन है और यही बात सावित्री बनाम मूलचन्द में थी। न्यायालय ने कहा कि झठे. निराधार, कलंकित करने वाले, कपटपूर्ण, दुर्भावपूर्ण आरोप झूठे पत्रों में लगाये गये हों अफसरों को या पुलिस को भेजी गई शिकायतों में लगाये गये हों, क्रूरतापूर्ण आचरण है। यह लांछन चाहे वादपत्र में लगाये हों या कहीं और

क्रूरता, अधित्यजन एवं अपमान-अपीलार्थी (पति) का विवाह प्रत्यर्थिनी (पत्नी) के साथ हुआ था पति भारतीय सेना की सेवा में है। पति ने धारा 13 के अधीन याचिका में यह अभिवचन किया था कि पत्नी ने न केवल उसके साथ क्रूरता कारित की थी बल्कि उसके माता-पिता को उन्हें गालियां देकर अपमानित भी किया था। पति द्वारा यह भी अभिवचन किया गया है कि जब वह कारगिल क्षेत्र में राष्ट्र की सेवा करने के लिये अपनी ड्यूटी के लिये जा रहा था तो प्रत्यर्थिनी (पत्नी) ने कहा था, “तू लौटकर मत आना, मैं तेरी पेंशन खाऊंगी।” उसने यह भी कहा था कि उसकी पत्नी उसे पीटा करती थी और भद्दी गालियां दिया करती थी और उसे कई वर्षों पूर्व से उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने की अनुमति नहीं दी गयी थी। पत्नी प्रत्यर्थी द्वारा कारित क्रूरता के कृत्य अभिलेख पर पूर्णत: सिद्ध हये थे जो पति को विवाह-विच्छेद की डिक्री का हकदार बनाते हैं।

उपेक्षा, तिरस्कार, अनादर और उदासीनता-पति या पत्नी द्वारा एक दूसरे की उपेक्षा करना तिरस्कार करना, अनादर करना या उदासीनता दिखाना भी क्रूरता की संज्ञा में आते हैं। गुरुचरण बनाम सुखदेव में पत्नी अपना वैवाहिक गृह छोड़कर चली गई और वह दो माह की आयु के बालक को वहीं छोड़ गई जिसके कारण बालक की मृत्यु हो गई। न्यायालय ने कहा कि बालक के प्रति उसकी उदासीनता पति के प्रति क्रूरता है। दास्ताने बनाम दास्ताने और पदाचार बनाम बसन्था (जिनकी विवेचना हम पहले कर चुके हैं) तथा हरभजन सिंह बनाम अमरजीत भी इसी श्रेणी का एक विचित्र वाद है। पत्नी ने न केवल गृह का कार्य करने से इन्कार कर दिया बल्कि वह पति को खाने की मेज, खाने के बर्तन धोने और घर का अन्य कार्य करने के लिये बाध्य करती थी। वह मेहमानों के समक्ष पति की उपेक्षा करती, उसे तिरस्कृत करती और उसका अनादर करती थी, यहाँ तक उसने पति को चाँटें भी मारे। उसे वह गन्दी-गन्दी गालियां देती और बारम्बार यह धमकी देती कि वह आत्म-हत्या कर लेगी। शान्ता देवी बनाम राघव प्रकाश में अनपढ़ पत्नी पति का हमेशा ही अनादर करती थी वह कहती थी कि वह व्यभिचारी है, दुराचारी है, निकम्मा है, किसी काम का नहीं है। उसका पति एक कालेज में प्राध्यापक था। परन्तु सास की मृत्यु पर पतिगृह में न आना मात्र क्रूरता नहीं है।

पत्नी द्वारा पति का तिरस्कार एवं मानसिक क्रूरता-कोई सामान्य युक्तियुक्त व्यक्ति तीक्ष्ण और तीखी बातों पर विचार करने के लिए बाध्य हो जाता है। आचरण तथा परिस्थितियां यह स्पष्ट कर देती हैं कि प्रत्यर्थी-पत्नी ने वास्तविक रूप से उसका तिरस्कार किया था और मानसिक क्रूरता कारित की थी। उसका आचरण स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि उसके परिणामस्वरूप पति के मस्तिष्क में मानसिक क्लेश तथा विद्वेष उत्पन्न हुआ, उसने उसके चरित्र के विषय में असभ्य आरोप लगाये थे। उसने उसका अभियोजन करने के लिये दाण्डिक कार्यवाही के प्रयास किये थे जिसे वह साबित करने में असफल हो गयी थी। विद्वेष, नैराश्य तथा क्लेश और पति का मानसिक क्षोभ स्पष्ट है। इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जा सकता है कि अभिलेख पर लाये गये साक्ष्य का सामूहिक प्रभाव स्पष्ट रूप से पति के जीवन को असहाय बनाने के लिये

1. 1982 एन० ओ० सी० 313.

2. 1987 दिल्ली 52.

3. और देखें परिहार बनाम परिहार, 1978 राजस्थान, 140; पुष्पा बनाम कृष्ण, 1982 दिल्ली 107: जर्नेल बनाम सरवन, (1979) हि० ला रि0415%; अशोक बनाम सन्तोष, 1987 दिल्ली 63; भगत बनाम भगत, 1994 सु० को० 710.

4. प्रदीप कमार जुयाल बनाम श्रीमती कान्ती देवी, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 74 (उत्तरा०).

5. 1979 पंजाब और हरियाणा 98.

6. 1986 मध्य प्रदेश 41..

7. 1986 राज० 13.

8. नारायण बनाम श्रीदेवी, 1990 केरल 151; राजेन्द्र बनाम अनीता, 1993 दिल्ली 135.

पली की ओर से एक किलित उत्पीडन था। पति ने निजी तथा सार्वजनिक जीवन दोनों में ही तिरस्कार महसय किया था। नि:संदेह इससे उसकी ख्याति को धक्का पहुंचा था जो न कि जीवन की केवल एक खटास अपितु विशुद्ध प्रसन्नता तथा जीवन की एक अत्यधिक मूल्यवान महक भी है। यह अत्यंत संवदेनशील तथा विकसित मूल्य है। यह वर्तमान तथा भविष्य के लिए राजस्व नियंत्रक हैं। इस प्रकार यदि यह विश्लेषण किया जाये तो यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि उसके दिलों दिमाग ने अत्यंत ही तिरस्कार को महसूस किया होगा। समय के व्यतीत होने के साथ-साथ मीठे-मीठे सपने चकनाचूर होने लगे, इसके प्रभाव से दूरियां बढ़ती चली गयी, पत्नी के करतापूर्ण आचरण ने भावनाओं को ठण्डा कर दिया और पति की भावनाआका जला दिया क्योंकि उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया था। इस प्रकार यदि यह विश्लेषण किया जाता है तब पूरी तरह से स्पष्ट है कि इस मानसिक पीडा, क्लेश तथा उत्पीडन के साथ पति से पत्नी के आचरण को सहन करने तथा उसके साथ निरंतर रहने के लिए नहीं कहा जा सकता है। इसलिये वह तलाक की डिक्री प्राप्त करने का हकदार है।

उलाहने-ताने देना-निरन्तर उलाहने-ताने (Nagging) देना भी क्रूरता की परिभाषा में आते हैं। दास्ताने, बसन्था, हरभजन और शान्ता देवी इसके भी उदाहरण हैं। हरभजन बनाम अमरजीत2 में पत्नी पति को आत्महत्या करने की निरन्तर धमकी देती थी और उसे उलाहने-ताने देती थी, उसका तिरस्कार करती थी। अमरीक बनाम सुरजीत में पत्नी पति का अनादर करती थी, उसे तिरस्कृत करती थी और सबके सामने बेइज्जत करती थी। ये क्रूरता ही हैं।

निन्दनीय आचरण-निन्दा आचरण भी मानसिक क्रूरता का ही उदाहरण है। बसन्था, दास्ताने, हरभजन इत्यादि निन्दा या आचरण के उदाहरण हैं। कृष्णा बनाम आलोक में पत्नी बहुधा ही अपने पति की बिना स्वीकृति के और कभी-कभी बिना सूचना दिये अपने माता-पिता के घर चली जाती थी और वहाँ पर कई सप्ताह रहती थी, इससे पति के मन को क्लेश और संताप पहँचता था। यही नहीं यह भी सिद्ध हो गया था कि पत्नी बहुत ही शक्की स्वभाव की, आवेगशील और चिडचिडी महिला थी। वह तनक मिजाज भी थी और बात-बात पर बिना बात ही अपने पति पर बरस पड़ती थी, बुरा-भला कहती थी। पति और अपने ससुराल वालों के साथ दुर्व्यवहार करती थी। उसने पति के विरुद्ध पुलिस में झूठी रपट भी लिखाई। स्पष्ट है पति की मानसिक पीडा और वेदना अन्तहीन थी। ऐसे ही स्वभाव की पत्नी कल्पना बनाम सरेन्दः में थी। वह घर में मेहमान आने पर न चाय बनाकर देती न उनकी आवभगत करती। उसका पति और ससुराल वालों के प्रति व्यवहार न केवल कटुतापूर्ण था बल्कि अनादरपूर्ण और अशिष्ट भी था। उसने पति के विरुद्ध थाने में रिपोर्ट भी लिखाई। कुल मिलाकर यह महिला बहुत दुष्ट थी। दूसरी ओर आशा बनाम बल्देव में पति भी कुछ कम दुष्ट नहीं था। नौकरी-पेशा पत्नी का न केवल वह समस्त वेतन ले लेता था बल्कि उसे वह जेब-खर्च के लिये भी कुछ नहीं देता था। जब उनका अपत्य बीमार था तो वह दवा भी लेकर नहीं आया। वह उसका निरादर और तिरस्कार ही नहीं करता था बल्कि कभी-कभी उस पर हाथ भी उठाता था। अन्त में पत्नी घर छोड़कर चली गई। ये सभी वाद क्रूरता के ही उदाहरण हैं।

चन्द्र बनाम सुदेश में विवाह के दूसरे दिन ही पत्नी गृह छोड़कर चली गई, और किसी अज्ञात स्थान पर जाकर रहने लगी। उसके उपरान्त उसे अपनी चचेरी बहन के पास पाया गया। तत्पश्चात् उसे कई स्थानों पर भिन्न व्यक्तियों के साथ देखा गया। पत्नी का यह आचरण पति को अत्यधिक मानसिक संताप देने वाला शा। पति या पत्नी का कोई आचरण या दुराचरण या कृत्य जो दूसरे पक्ष को संताप पहुँचाता है, क्लेश पहँचाता है, निर्दयतापूर्ण आचरण है और क्रूरता की परिभाषा में आता है।

1. विश्वनाथ अग्रवाल बनाम सरला विश्वनाथ अग्रवाल, (2012)7 एस० सी० सी०288: ए० आई० आर० 2012 एस०सी० 2586.

2. 1986 मध्य प्रदेश 41.

3. 1975 हिन्दू लॉ रि044.

4. 1985 कलकत्ता 431.

5. 1985 इलाहाबाद 253.

6. 1984 दिल्ली 73.

7. 1971 दिल्ली 208.

8. देखें, सरव बनाम पयाव. 1959 केरल 75: ललिता बनाम राधा 1976 हि० लॉ रि० 140%; उमा बनाम अर्जुन, 1995 पंजाब और हरियाणा 312. राजेन्द्र बनाम अनीता एक विचित्र वाद है इसमें पत्नी पति के विरुद्ध झूठे आरोप लगाती थी और उसने यह कहा कि उसका पति निरन्तर दहेज मांगता रहता है। न्यायालय ने यह पाया कि पत्नी बहत ही बदमिजाज थी। उसने विवाह के प्रथम सात दिनों तक अपने पति को अपने पास नहीं आने दिया। वह सास को ताने देती थी कि उसे पति से पहले खाना नहीं खाना चाहिये। वह अपने को कमरे में बन्द करके उल्टी सीधी हरकतें करती थी। वह अपने पति को पत्र में बुरी-बुरी बातें और झूठे आरोप लगाती थी। उसने अपने ससुर की फोटो फ्रेम से निकाल कर फेंक दी और उसने अपने चित्र को लगा दिया। अपनी सास को गालियां देती थी और कहती थी कि वह बदतमीज है। एक दिन उसके चाचा और पिता आये तो रोने लगी और कहने लगी की उसका पति निकम्मा है और वह उसका खून पी जायेगी। वह अपने पिता और चाचा के सामने पति पर चप्पले फेंकती थी और अपनी सास और ननद को बूचर कहती थी। वह यह भी कहती कि वह अपने पति, सास, ननद को झूठे मामलों में फंसायेगी। न्यायालय को इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई मुश्किल नहीं हुई कि वह स्त्री क्रूरता की दोषी है।

मदोन्मत्तता-अभी तक के निर्णयों में मदोन्मत्तता करता की परिधि में नहीं मानी गई है। परन्तु मदोन्मत्तता के कारण दूसरे पक्ष को सन्तान पहँचे या मदोन्मत्त पक्ष दुर्व्यवहार करे तो यह क्रूरता होगी। रीता बनाम बृजकिशोर2 में न्यायमूर्ति श्री एम० एल० जैन ने कहा है-नि:सन्देह ही विश्व भर में अनेक समाजों में मदिरापान करना संस्कृति का अंग बन गया है। परन्त अत्यधिक मदिरापान विदेश और भारत में भी एक दोष माना जाता है। कोई भी व्यक्ति किसी भी विवाह के पक्षकार द्वारा अत्यधिक मदिरापान को सहन नहीं कर पाता है यद्यपि केवल मदिरापान विवाह-विच्छेद का आधार नहीं है परन्तु हमारे समाज में यदि पति या पत्नी दूसरे पक्ष द्वारा मदिरापान का विरोध करने पर भी अत्यधिक मदिरापान करता है तो यह क्रूरता होगी, क्योंकि ऐसी स्थिति में दूसरा पक्ष दु:खी और प्रतिपीड़ित होगा।

दाम्पत्य संभोग को नकारना-दाम्पत्य संभोग विवाहित जीवन का आवश्यक अंग है। विवाहित संभोग को निरन्तर और अकारण नकारना क्रूरता है। कई निर्णयों में यह मत व्यक्त किया गया है कि पत्नी यदि अकारण ही पति को निरन्तर संभोग और सहवास से वंचित रखती है तो यह क्रूरता है। हिन्दुओं में तो इसका और भी अधिक महत्व है। उनकी मान्यता है कि बिना पुत्र के कोई भी हिन्दू स्वर्ग नहीं जा सकता है। अन्य धर्मों में भी सन्तान प्राप्ति को महत्व दिया गया है। यही नहीं, आज के समाज में दाम्पत्य संभोग एक सुखतृप्ति का साधन भी है। अतृप्त यौन के कारण मानसिक रोग उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। यदि एक पक्ष दूसरे को संभोग का अवसर नहीं देता है तो यह व्यभिचार का भी कारण हो सकता है।

कभी संभोग से विरक्तता का कारण भय भी होता है। एक अंग्रेजी वाद पी० बनाम पी०3 में पत्नी गर्भवती होने के भय से इतनी भयभीत थी कि उसने अपने पति को मैथुन नहीं करने दिया। दूसरी ओर मैथुन से वंचित रखने के कारण पति को अत्यधिक मानसिक पीड़ा हुई यहाँ तक कि उसका स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा। न्यायालय ने कहा कि पत्नी ने पति को मैथुन से वंचित रखकर बहुत मानसिक पीड़ा पहुँचाई है; पिता बनने की उसकी औचित्यपूर्ण आकांक्षा को भी उस पहुंचाई है। अत: वह क्रूरता की दोषी है चाहे ऐसा उसकी मानसिक दुर्बलता या भय के लिये कारण ही हुआ हो। पति यह सब यातना भोगे इसका कोई उचित कारण नहीं है। ब्रेवरी बनाम ब्रेवरी4 में पति ने बिना पत्नी की इच्छा के अपनी नसबन्दी करवा ली, यह जानते हये भी कि पत्नी और सन्तान चाहती थी। बहुमत से न्यायालय ने निर्णय दिया कि पति ने न तो उसकी इच्छा के विरुद्ध नसबन्दी कराई और न ही पत्नी के स्वास्थ्य पर इसका कोई प्रभाव पड़ा। न्यायमूर्ति डेनिंग ने इसके विपरीत मत व्यक्त किया है। परन्तु स्वास्थ्य के कारणों से संभोग से वंचित रखना क्रूरता नहीं है। प्रतीत यह होता है कि यदि पति या पत्नी दूसरे को अकारण ही पन्तान-सुख से वंचित रखता है तो यह क्रूरता होगी। यदि पत्नी बिना गर्भ निरोधात्मक उपाय के संभोग नकारती है और पक्षकारों के अपव्यय नहीं है, न ही पत्नी के पास में निरोधात्मक वस्तुओं के बिना संभोग करने का कोई औचित्यपूर्ण कारण है तो वह क्रूरता होगी।

पति की इच्छा के विरुद्ध गर्भपात कराना-पति की इच्छा के विरुद्ध गर्भपात कराना करता है। सशीलकुमार बनाम ऊषा में पत्नी ने अपने प्रथम गर्भ पात पति की इच्छा के बिना ही नहीं बल्कि पति से

1. 1993 दिल्ली 135.

2.1984 दिल्ली 291.

3. (1965) 2 आल ई० रि० 456.

4. (1954) 3 आल ई० रि० 59.

5. 1987 दिल्ली 86.

 

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