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LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Six Part Notes

 

LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Six Part Notes:- LLB (Bachelor of Law) Modern Hindu Law Most Important Chapter 6 Vaivahik Anutosh Notes and Study Material Sample Model Question Answer Paper in Hindi English (PDF Download) this Post, LLB All University Notes Available this Post.

 

LLB Notes

उसे अनुतोष नही मिलेगा। इस अपबन्धन (Bar) के लागू होने के लिये यह आवश्यक है कि प्रत्यर्थी का वैवाहिक अपराध याचिकाकार के दोष या निर्योग्यता में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जड़ा हुआ है। उदाहरण लीजिये, यदि अजीदार द्वारा प्रत्यर्थी को रतिज रोग लगा है तो अर्जीदार विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है। यदि पति ने सदैव ही पत्नी की जानबूझ कर उपेक्षा की है या कुरता का व्यवहार किया है तो पति दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है। जारकर्म के आधार पर न्यायिक पृथक्करण या विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित नहीं होगी, यदि जारकर्म का प्रोत्साहन, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पति ने दिया है। उन्मत्तता के आधार पर विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण की याचिका सफल नहीं हो सकती है। यदि यह सिद्ध हो जाये कि अर्जीदार की क्रूरता, उपेक्षा या दुव्यवहार के कारण प्रत्यर्थी विकतचित्त हआ है। क्ररता के आधार पर न्यायिक पृथक्करण या विवाहविच्छेदकी याचिका सफल नहीं होगी, यदि क्रूरता का प्रकोपन अर्जीदार ने दिया था। अभित्यजन के सम्बन्ध में यह स्थापित मत है कि यदि प्रत्यर्थी ने अर्जीदार का अभित्याग उसके दुर्व्यवहार या दुराचरण के कारण किया तो अर्जीदार की याचिका सफल नहीं हो सकती है। स्वच्छ हाथों से आने का तात्पर्य यह है कि अजीदार ने स्वयं कोई वैवाहिक दुराचरण या दुर्व्यवहार नहीं किया है। हरगोविन्द बनाम रामदुलारी में पति ने पत्नी की जारता के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिका प्रेषित की। यह पाया गया कि पति ने भी दूसरा विवाह कर लिया था। न्यायालय ने कहा कि यह विवाह ट चका है। अत: इसका विच्छेद करना ही ठीक है। टूटे विवाह को बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं है।

यह मत न्यायसंगत है और औचित्यपूर्ण है। दूसरी ओर मीरा बनाम राजेन्द्र कुमार में पति ने दूसरा विवाह कर लिया। उसकी प्रथम पत्नी ने दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की एक तरफा डिक्री प्राप्त कर ली क्योकि पति गैरहाजिर रहा। उसने न ही डिक्री का पालन किया न ही पत्नी को कोई भरण-पोषण दिया। कुछ समय पश्चात् इस आधार पर कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री का पालन नहीं हआ है उसने विवाह-विच्छेद की याचिका पेश कर दी। याचिका को खारिज करते हुये न्यायालय ने कहा कि पति के हित में डिक्री पारित करने का तात्पर्य होगा उसे उसी के दोषों का लाभ देना। आदर्श प्रकाश बनाम सरिता में पति ने पत्नी की क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिका प्रेषित की थी। यह सिद्ध हो गया है कि उसने पत्नी को दहेज की मांग पेश करके हैरान-परेशान किया था। न्यायालय ने कहा कि यदि उसके पक्ष में डिक्री पारित की जायेगी तो तात्पर्य यह होगा कि उसे अपने दोष का लाभ प्राप्त हो गया। ध्यान देने की बात यह है कि इस वाद में पति पत्नी की क्रूरता सिद्ध नहीं कर सका था।

अशोक कुमार बनाम शबनम में भी पति ने पत्नी को दहेज की मांग द्वारा परेशान करके वैवाहिक गृह छोडने को बाध्य कर दिया था। न्यायालय ने कहा कि अभित्यजन के आधार पर पति के पक्ष में विवाहविच्छेद की डिक्री पारित करना उसे उसके दोष का लाभ पहुँचाना होगा।

‘असमाधेय विवाह भंग का आधार’ शीर्षक के अन्तर्गत हम देख चुके हैं कि हमारे कुछ उच्च न्यायालयों ने यह मत व्यक्त किया है कि यदि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री की याचिकाकार ने अवहेलना की है या उसके पारित करने में बाधा उपस्थित की है। कुछ निर्णय इनमें कुछ भिन्न है। इन सभी निर्णयों की समीक्षा नहीं की गई है।

यदि अर्जीदार के आचरण का प्रत्यर्थी के दराचरण से कोई सम्बन्ध नहीं है तो वह धारा (23) (1) (क) के अन्तर्गत दोषी नहीं होगा। अत: पति यह तर्क नहीं दे सकता कि पत्नी का उसके साथ न रहना ही इस दूसरे विवाह का कारण है। या दूसरी पत्नी ने उसके साथ विवाह यह जानते हुये किया था

1. शचिन्द्र बनाम नीलिमा, 1970 कल० 38.

2. माती बनाम साधु, 1961 पंजाब 152.

3. 1986 मध्य प्रदेश57.

4. 1986 दिल्ली 136.

5. 1987 दिल्ली 203.

6. 1989 दिल्ली 121.

7. मोहन लाल बनाम मोहन बाई, 1958 राजस्थान 73,

विवाहित पुरुष है। इसी भांति पत्नी के जारकर्म के आधार पर पति की विवाह-विच्छेद की याचिका पत्नी के इस तर्क से कि पति द्वारा उसके साथ सहवास न करने के कारण उसने जारकर्म किया खारिज नहीं की जा सकती है।

एस० बनाम एस० में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि समनुदेशन का सिद्धान्त हिन्दू वैवाहिक विधि का अंग नहीं है परन्तु सशीला बनाम प्रेम में न्यायालय ने कहा कि अर्जीदार यदि सद्भाविक नहीं है और अर्जी किसी अन्य अभिप्राय से ही दी गयी है तो उसे डिक्री नहीं मिलेगी। न्यायालय ने कहा कि अर्जीदार एक ओर से दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री चाहता है दूसरी ओर वह प्रत्यर्थी पर जारकर्म का दोषारोपण करता है, दोनों बातें साथ-साथ नहीं चल सकती हैं।

विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के लागू होने के पश्चात् यह उपधारा उन्मत्तता के आधार पर प्रेषित की गई शून्यकरणीयता की अर्जी पर लागू नहीं होगी।

उपसाधकता (Accessory) (LLB Mock Test)

उपसाधकता अंग्रेजी दाण्डिक विधि का शब्द है, इसका अर्थ है अपराधी के अपराध में सक्रिय भाग लेना। कोई व्यक्ति आपराधिक कृत्य के होने के पूर्व, होने के समय, या होने के पश्चात् अपराधी के अपराध में उपसाधक हो सकता है। भारतीय और अंग्रेजी विधि में अपराध के समय सक्रिय भाग लेने वाले व्यक्तियों को सहअपराधी कहते हैं। उदाहरणार्थ, “प”क’ के अपराध में इन स्थितियों में उपसाधक हो सकता है, ‘क’ ‘प’ के साथ जाता है और कहता है कि वह ‘ख’ को मारना चाहता है क्या वह अपनी तलवार उसे दे सकेगा-‘प’ अपनी तलवार उसे दे देता है और ‘क’ ‘ख’ को मारना चाहता है क्या वह अपनी तलवार उसे दे सकेगा। ‘प’ अपनी तलवार उसे दे देता है और ‘क’ ‘ख’ की हत्या कर देता है, या ‘क’ ‘ख’ के छुरा भोंक देता है जबकि ‘प’ ने ‘ख’ को पकड़ा हआ है; या ‘क’ ‘ख’ की हत्या करके ‘प’ के पास आता है और ‘प’ से कहता है कि क्या वह ‘ख’ के शव को छिपाने में उसकी सहायता करेगा? ‘प’ ‘क’ की सहायता कर देता है। तीनों ही स्थितियों में ‘प’ उपसाधकता का अपराधी है। यही स्थितियाँ वैवाहिक अपराधों के सम्बन्ध में भी हो सकती है |

यह ध्यान देने योग्य बात है कि उपसाधक का अपबन्धन केवल जारकर्म पर ही लागू होता है, अन्य वैवाहिक अपराधों पर नहीं। जारकर्म के सम्बन्ध में उपसाधना के उदाहरण लें-यदि पति पत्नी द्वारा जारकर्म करने के लिये अन्य व्यक्तियों को निमंत्रित करता है या उस समय जब पत्नी जारकर्म में रत है पहरा देता है या पत्नी जारकर्म करने जाती है, पति उसे अपनी संरक्षकता में वापस लेने जाता है, इन तीनों स्थितियों में पति उपसाधकता का अपराधी है। उपसाधकता का अपराध तभी गठित होता है जब वैवाहिक अपराध में जान-बूझ कर सक्रिय भाग लिया गया है।

यह सिद्ध करने का भार याचिकाकार पर है कि वह उपसाधकता का अपराधी नहीं है। उपसाधकता का अपराधी होने पर वह अनुतोष की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है।

मौनानुकूलता (Connivance) (LLB Question Paper)

मौनानुकूलता अंग्रेजी धार्मिक न्यायालयों का पुरातन सिद्धान्त है। मौनानुकूलता के होने पर याचिकाकार को वैवाहिक अनुतोष प्राप्त नहीं हो सकता है। यही नियम अंग्रेजी वैवाहिक विधि में था और वहाँ से भारतीय विधि में आ गया। यह अपबन्धन भी जारकर्म पर ही लागू होता है।

मौनानुकूलता (कन्निवेन्स) कनायवर से बना है जिसका अर्थ है, ‘आंख मारना’ । मौनानुकूलता निम्न दो भाँति से हो सकती है-

1. गोबिन्द राव बनाम अनन्दी बाई, 1976 बम्बई 433.

2. मातो बनाम सन्तराम, 1961 पंजाब 152.

3. 1961 दिल्ली 79.

4. 1976 दिल्ली 321.

(1) प्रत्याशित सम्मति (Anticipatory willing consent); या

(2) आपराधिक उपमति, (Culpable acquiescence) सक्रिय या निष्क्रिय।

मौनानुकूलता और उपसाधकता के बीच मुख्य अन्तर यह है कि उपसाधकता में याचिकाकार प्रतिपक्षी के वैवाहिक अपराध में सक्रिय भाग लेता है, जबकि मौनानुकूलता में वह कोई सक्रिय भाग नहीं लेता है, केवल मौन सम्मति देता है। मौनानुकूलता में भ्रष्ट (आपराधिक) सम्मति का अभित्यक्त या विवक्षित रूप होना आवश्यक है। अपराध में सक्रिय भाग लेना आवश्यक नहीं है। उदाहरण लें, यदि प्रतिपक्षी एक प्रस्ताव रखती है या निर्दिष्ट करती है, कि वह जारकर्म द्वारा धन उपार्जित करना चाहती है और याचिकाकार अपनी स्पष्ट अनुमति देता है, या इस तरह का आचरण करता है जिससे उसकी सहमति निर्दिष्ट होती है, तो फिर वह मौनानुकूलता का दोषी है, यद्यपि सक्रिय रूप से उसने कुछ नहीं किया है। दूसरा उदाहरण लें, पत्नी किसी व्यक्ति को रात्रिभोज पर निमन्त्रित करती है, अतिथि पत्नी के साथ अनौचित्यपूर्ण स्वतंत्रता लेता है। पति अतिथि की नीयत समझ कर किसी बहाने से वहां से बाहर चला जाता है तो यह आचरण मौनानुकूलता की संज्ञा में आयेगा। प्रथम उदाहरण है, प्रत्याशित सहमति का, और दूसरा है आपराधिक उपमति का। अवश्यंभावी रूप से मौनानुकूलता वैवाहिक अपराध से पूर्ववर्ती होती है। यदि प्रथम कृत्य के लिये सहमति सिद्ध हो जाये तो यह कोई प्रतिरक्षा नहीं है कि दूसरे या अन्य कृत्यों के लिये सहमति नहीं दी गई थी। परन्तु यदि पति ने एक व्यक्ति विशेष के साथ जारकर्म करने की सहमति दी हो तो उसका तात्पर्य यह है कि उस आधार पर पत्नी चाहे जिसके साथ, चाहे जितनी बार जारकर्म कर सकती है। एक बार मौनानुकूलता के सिद्ध होने के पश्चात् न्यायालय समस्त तथ्यों और परिस्थितियों की जांच करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकता है। हो सकता है पृथक कृत्य जिसके लिये सहमति दी गई थी, और अन्य कृत्यों के बीच इतना समय व्यतीत हो चुका हो कि यह कहना अनौचित्यपूर्ण हो कि प्रथम कृत्य के लिये दी गई सहमति वाद के कत्यों के समय भी विद्यमान थी।

केवल अनवेक्षा (In-attention), उपेक्षा, मूढ़ता, प्रज्ञाहीनता (Imprudence) या मन्दता मौनानुकूलता की संज्ञा में नहीं आते हैं। इसी भाँति सत्य का पता लगाने के लिये गुप्तचरी करना मौनानुकूलता नहीं है। परन्तु कभी-कभी यह हो सकता है कि याचिकाकार गुप्तचरी की सीमा का उल्लंघन करके ऐसा आचरण करने लगें जो प्रतिपक्षी को जानबूझ कर अपराध करने के लिये प्रोत्साहित करे और उस प्रोत्साहन के फलस्वरूप यदि प्रत्यर्थी जारकर्म करता है तो फिर वह मौनानुकूलता की परिधि में आ जायेगा, और याचिकाकार की यह प्रतिरक्षा कि उसका हेतु गुप्तचरी था, व्यर्थ होगी। ऐसी स्थिति में आपराधिक सहमति विवक्षित मानी जायेगी।

उपमर्षण (Condonation) (LLB Question Answer)

हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत उपमर्षण का अपबन्धन जारकर्म और क्रूरता पर ही लागू होता है। अन्य किसी भी वैवाहिक अपराध पर उपमर्षण प्रतिपादित नहीं होता।

बहधा यह कहा जाता है कि उपमर्षण का अर्थ है ‘अपराध को खरच कर फेंक देना’ या ‘अपराध को सोखना’ ताकि पूर्ववर्ती स्थिति फिर स्थापित हो जाये। लाक्षणिक रूप से उपमर्षण की स्थिति की यह अच्छी अभिव्यक्ति है। परन्तु यथार्थ में क्या अपराध खुरचकर फेंका जा सकात है या किसी अपराध को सोखा जा सकता है? विधि के अन्तर्गत उपमर्षण के दो आवश्यक तत्व हैं-

(क) क्षमा, और

(ख) पुनर्धिष्ठापन और पूर्वकरण (Reinstatement)।

केवल क्षमा पर्याप्त नहीं है, उपमर्षण के लिये अपराधी पक्षकार का निर्दोष पक्षकार द्वारा पूर पुनराधिष्ठापित करना है, यथापूर्व की स्थिति में लाना है, अर्थात अस स्थिति में जो अपराध थी।

1. मोरेनो बनाम मोरेनो, 1920 कलकत्ता 439.

अपराध के समस्त तथ्य जाने बिना दी गई क्षमा निरर्थक है। अपराध के समस्त तथ्य जानने के पश्चात प्रतिपक्षी को क्षमा करके पुनराधिष्ठापित करने पर ही अपमर्षण होता है। पुनराधिष्ठापन से तात्पर्य है दाम्पत्य जीवन का पूर्ववत् स्थापित होना। पक्षकारों के बीच पूर्ण सहचर्य और सहवास स्थापित होने पर ही अपराधी पक्षकार का पूनराधिष्ठापन (Reinstatement) हो सकता है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर उपमषण नहीं होगा। उदाहरणार्थ, पत्नी से उसके जारकर्म की पूर्ण कथा सनकर पति उससे कहता है, ठीक ह जा हा गया वह हो गया मनं तुम्हें क्षमा किया, परन्तु आज से हम लोग पथक-पथक कमरों में सोयेंगे और रहेंगे। यह क्षमा भले ही हो, परन्तु अपमर्षण नहीं है, क्योंकि क्षमा करने के पश्चात् पति ने पत्नी पुनराधिष्ठापन नहीं किया है।

भगवान बनाम अमरकौर2 में अर्जी प्रेषित करने के कुछ समय पूर्व तक साहचर्य था, परन्तु उस समय तक उसे पत्नी के जारकर्म का ज्ञान नहीं था। वैवाहिक अपराध के ज्ञान होने के पूर्व का किया गया सहवास उपमर्षण की व्याख्या में नहीं आता है। पत्नी के जारकर्म के ज्ञात होने के पश्चात् पति ने पत्नी ने साथ सहवास नहीं किया था। अतः यह उपमर्षण नहीं कहलायेगा। इसी भांति सप्तमी और जगदीश चन्द्र में पति-पत्नी अगस्त सन् 1963 तक साहचर्य करते रहे और एक ही कमरे में सोते रहे, तत्पश्चात् पति ने क्रूरता का आचरण आरम्भ कर दिया। उसके पश्चात भी पत्नी उसी घर में रहती रही, यद्यपि क्रूरता के प्रकोप बढ़ने पर बीचबीच में कुछ समय के लिये बाहर भी रहती रही। परन्तु अगस्त, 1963 के पश्चात् पत्नी ने पति के साथ मैथुन नहीं किया। वे रहे एक ही गृह में, परन्तु उनके बीच बातचीत तक बन्द रहती और वे पृथक-पृथक कमरों में सोते थे। न्यायालय ने कहा कि पत्नी वैवाहिक घर में रहने मात्र से साहचर्य स्थापित नहीं होता है, अत: उपमर्षण नहीं हुआ। खैराती लाल बनाम पुष्पारानी4 में पत्नी ने दो-तीन वर्ष पहले जारकर्म किया था, उसके पश्चात् पति पत्नी के साहचर्य में रहता रहा। न्यायालय ने कहा कि यह उपमर्षण की संज्ञा में आता है। मदन लाल बनाम सुरेश कुमारी में पत्नी ने विवाह के छः माह पश्चात् एक बालक को जन्म दिया। पति ने पत्नी को गृह से तुरन्त निकाला। कुछ समय उपरान्त अपने पिता के यहां चली गई। पति वहां गया और पत्नी को डांटा-फटकारा और उसके बालक के पिता का नाम जानने का प्रयत्न किया। उसके कुछ समय उपरान्त उसने वैवाहिक अनुतोष की याचिका प्रेषित कर दी। न्यायालय ने कहा कि इन तथ्यों के द्वारा उपमर्षण नहीं होता है।

क्रूरता या जारकर्म करने के पश्चात् भी यदि याचिकाकार प्रतिपक्षी के साथ मैथुन करता है तो यह उपमर्षण की संज्ञा में आ सकता है। दास्ताने बनाम दास्ताने में पति ने पत्नी की क्रूरता के आधार पर याचिका प्रेषित की। यह तथ्य स्थापित था कि पत्नी के क्रूरतापूर्ण आचरण के पश्चात भी पति पत्नी से मैथुन करता रहा और उसी दौरान उसके एक पुत्री ने भी जन्म लिया। न्यायालय ने कहा कि सामान्यत: क्रूरतापूर्ण आचरण के पश्चात् मैथुन का पुनः स्थापन क्षमा और पुनराधिष्ठापन का द्योतक है और उपमर्षण की संज्ञा में आता है। न्यायालय ने पति के आचरण को उपमर्षण की संज्ञा दी और पति की याचिका को खारिज कर दिया। गुजरात उच्च न्यायालय ने भी कहा है उपमर्षण का सबसे अच्छा साक्ष्य है मैथुन का प्रवर्तन या पुनस्र्थापन यदि प्रत्यर्थी के जारकर्म के समस्त तथ्यों के ज्ञान के पश्चात् भी याचिकाकार उसके साथ मैथुन करता है तो यह उपमर्षण की संज्ञा में आयेगा। पुनर्मिलन की इच्छा व्यक्त करना उपमर्षण नहीं है। तपन कुमार बनाम ज्योत्सना10 में एक समझौते के अन्तर्गत पति-पत्नी 1-1/2 साल तक साथ रहे। इसे उपमर्षण माना गया।

1. पुथु बनाम जयश्री, 1990 केरल 306.

2. 1962 पंजाब 144.

3. (1969) 83 कलकत्ता वीकली नोट्स 502.

4. 1973 पंजाब और हरियाणा 72.

5. 1988 दिल्ली 93.

6. 1975 सुप्रीम कोर्ट 1534.

7. मगन लाल बनाम बाई देई, 1971 गुजरात 33, और देखें; जगन बनाम वरूप. (1972) मद्रास ला जनल 77, सदन सिंह बनाम रेशमा, 1982 इला० 52.

8. चन्द्रमोहनी बनाम अविनाश, 1967 सुप्रीम कोर्ट 581.

9. गन्टा बनाम गन्टा, 1992 आन्ध्र० 76; निर्मला बनाम वेदप्रकाश, 1993 हि.प्र. 1.

10. 1997 कलकत्ता 134.

दास्ताने बनाम दास्ताने और चन्द्र मोहिनी बनाम अविनाश में उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि प्रत्यर्थी के कुकृत्य की पूरी जानकारी के पश्चात् मैथुन या सहवास जारी रखना या पुनः स्थापित करना उपमर्षण की संज्ञा में आता है। इस लेखक का निवेदन है कि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी तो याचिकाकार को होती ही है-श्रीमान दास्ताने अपनी पत्नी के प्रत्येक कृत्य से अवगत थे-परन्तु फिर भी सहवास जारी रखता है, मैथुन भी करता है इसलिये नहीं कि उसने प्रतिपक्षी की क्रूरता का उपमर्षण कर दिया है, बल्कि इसलिये कि उसके लिये कोई अन्य चारा नहीं है, क्योंकि उसके संतान है उसका ख्याल उसे है, उसे अपने परिवार की मान-मर्यादा भंग होने का डर सताता है, वह समाज से भी डरता है और इसलिये विवाह की गाड़ी को खींचे ले जाता है, जब तक कि वह पस्त होकर गिर नहीं पड़ता और तभी वह विवाहविच्छेद की याचिका प्रेषित करता है, तो क्या उसके लिये न्यायालय के दरवाजे इसलिये बन्द हो जाये कि न्यायालय उसकी मजबूरी (असमर्थता) को उपमर्षण की संज्ञा देता है? रीता बनाम ब्रिजकिशोर3 में दिल्ली उच्च न्यायालय के मान्य न्यायाधीश श्री मांगीलाल जैन के इस मत से यह लेखक सहमत है कि सहवास को जारी रहने से उपमर्षण का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। क्रूरता के बावजूद सहवास को जारी रखे रखना हमारे परिवारों में आम बात है, क्योंकि कई स्त्रियों अपनी इच्छा कि विरुद्ध भी क्रूरता के आचरण सहती रहती हैं, क्योंकि उनके पास अन्य कोई मार्ग नहीं है, कभी इस आशा में भी कि सम्भवतः स्थिति सुधर जाये, कभी माता-पिता को पीड़ा से बचाने को; कभी जग-हसाई से बचने के लिये; कभी अपत्यों के हित हेतु; और कभी अपनी असमर्थता, आर्थिक और अन्य के कारण। परन्तु क्रूरता के पश्चात् सात-आठ माह साथ रहने से उपमर्षण होना माना जा सकता है।

कपट पर जो विवाह के शून्यकरण का आधार है। उपमर्षण का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। सोमदत्त बनाम राजकुमारी में इस सम्बन्ध में गलत प्रतिपादना की गई है।

मैथुन का प्रवर्तन या पुनःस्थापना दाम्पत्य जीवन के पुनर्स्थापन के ध्येय से होना चाहिये। यदि एक पक्षकार मैथुन के लिये पुनः मिलन की आशा में तैयार हो जाये परन्तु मैथुन के पश्चात् भी पुनः मिलन न हो सके तो फिर यह उपमर्षण नहीं होगा।

पक्षकारों ने यदि दाम्पत्य जीवन का पुनर्स्थापन कर लिया है, तो यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि उन्होंने मैथन का भी पुनस्र्थापन किया है। दाम्पत्य जीवन का पुनस्र्थापन उपमर्षण का पर्याप्त साक्ष्य है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश मुकर्जी ने ठीक कहा है कि कुछ ऐसे विवाहित व्यक्ति भी होते हैं जिन्होंने वासना के आधिपत्य में जाने के स्थान पर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है और वे पूर्ण-ब्रहमचर्य का जीवन व्यतीत करते हैं। वे (पति-पत्नी) आपस में एक दूसरे को अपना जीवन साथी मानते हैं और उन्होंने मैथुन का पूर्ण बहिष्कार कर दिया है। यदि ऐसे व्यक्ति एक दूसरे से विलग हो जायें और कुछ समय पश्चात् पुनः दाम्पत्य जीवन स्थापित कर लें, तो यह उपमर्षण है, और मैथुन के पुनरस्थापन के साक्ष्य की कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि यह न कहा जाये कि पूर्ण दाम्पत्य जीवन का पुनरस्थापन नहीं हआ है। लेखक का निवेदन है कि इस भांति के असाधारण व्यक्तियों के अतिरिक्त भी यदि पति-पत्नी ने दाम्पत्य जीवन पूर्ण रूप से पुनर्स्थापित कर लिया है तो यह उपमर्षण होगा; उन्होंने वैवाहिक मैथुन की पुनर्स्थापना कर ली है या नहीं, इसकी साक्ष्य आवश्यक नहीं है और यदि दूसरे पक्षकार की ओर से साक्ष्य में यह स्थापित भी हो जाये कि मैथुन पुनर्स्थापित नहीं हुआ तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता है, जब तक कि यह निष्कर्ष न निकले कि दाम्पत्य जीवन की पूर्ण स्थापना नहीं हई है।

1. 1975 सु० को० 1534.

2. 1967 सु० को० 501.

3. 1984 दिल्ली 291.

4. देवी दास बनाम ज्ञानवती, 1993 मध्य प्रदेश 14: निर्मल बनाम वेद, 1993 हि०प्र० 1.

5. 1986 पं० और ह0 191.

6. क्वीन बनाम क्वीन, (1969) 3 आल इंग्लैंड रिपोर्ट्स 1212.

7. के० बनाम के०, 1951 नागपुर 395.

उपमर्षणित अपराध का पुनरुजीवित होना-शों के साथ उपमर्षण जैसी वस्तु कुछ नहीं है। बार उपमर्षण होने के पश्चात् उनका प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता है। परन्तु हर उपमर्षण में यह विवक्षित शर्त है कि अपराधी पक्षकार उपमर्षण के पश्चात् न ही उपमर्षण अपराध को पुनः करेगा न ही अन्य कोई वैवाहिक अपराध करेगा, और न ही कोई दुराचार करेगा। यदि वह वैसा करेगा तो उपमर्षणित अपराध पररुज्जीवित हो जायेगा और दसरा पक्षकार इस भाति पुनरुज्जीवित अपराध के आधार पर वैवाहिक निवारण पाने का अधिकारी होगा। अत: उपमर्षणित अपराध निम्न स्थितियों में पुनरुज्जीवित हो सकता है

1) उपमर्षणित अपराध को पुनः करने से,

(2) किसी अन्य वैवाहिक अपराध करने से, और

(3) किसी वैवाहिक दुराचरण करने से।

प्रथम स्थिति स्पष्ट ही है। यदि जारकर्म उपमर्षणित किया गया था तो पुनः जारकर्म करने से (उसी जार से या अन्य जार से) जारकर्म का अपराध पुनरुज्जीवित हो जाता है। दूसरी स्थिति का एक उदाहरण लें, यदि उपमर्षणित अपराध जारता था और उपमर्षण के पश्चात् प्रतिपक्षी ने संपरिवर्तन किया या क्रूरता की तो भी उपमर्षणित अपराध, अर्थात् जारता, पुनरुज्जीवित हो जाती है और याचिकाकार जारता के आधार पर विवाहविच्छेद की याचिका प्रेषित कर सकता है। तीसरी स्थिति का एक उदाहरण लें, उपमर्षणित अपराध जारकर्म था। उसके पश्चात् प्रतिपक्षी ने जार के साथ (या अन्य किसी व्यक्ति के साथ) जारकर्म तो नहीं करता है परन्तु उसके साथ ही रहता है, उसके साथ आलिंगन भी करता है। यह कोई वैवाहिक अपराध तो नहीं है, परन्तु वैवाहिक दुराचार अवश्य है, जारकर्म का उपमर्षण अपराध पुनरुज्जीवित हो जायेगा। एक और उदाहरण लें, उपमर्षणित अपराध क्रूरता है उसके पश्चात् प्रतिपक्षी याचिकाकार का अभित्याग कर देता है। यह विधिक अभित्यजन की परिभाषा में इसलिये नहीं आता है कि कालावधि के दो वर्ष पूर्ण नहीं हुये हैं; यह वैवाहिक दुराचार कहलायेगा और क्रूरता का उपमर्षणित अपराध पुनरुज्जीवित हो जायेगा।

संक्षेप में उपमर्षण में यह शर्त निहित है कि अपराधी पक्षकार अपने वैवाहिक उत्तरदायित्व और कर्तव्यों का पूर्ण पालन करेगा और इसी आधार पर उसके साथ दाम्पत्य जीवन पन:स्थापित किया जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सदैव के लिये उपमर्षण इस शर्त के साथ है। यह अपराधी पक्षकार के परिवीक्षा में रहने के सदृश्य है परन्तु परिवीक्षा का समय सीमाहीन नहीं हो सकता है। हर मामले में एक समय बीतने पर परिवीक्षा समाप्त हो जाती है। अत: उपमर्षणित अपराध भी एक समय व्यतीत होने पर पुनरुज्जीवित नहीं हो सकता है। उदाहरण लीजिये-करता का अपराध उपमर्षणित किया गया था। पक्षकार सात वर्ष तक साथ-साथ रहे उसके पश्चात एक दिन अपराधी पक्षकार ने दूसरे पक्षकार के एक चांटा मारा; इस आचरण से सात वर्ष पूर्व के क्रूरता का उपमर्षणित अपराध पुनरुज्जीवित नहीं होता है।

दुस्संधि (Collusion) (LLB Study Material)

विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के लागू होने के पश्चात् दुस्सन्धि का अपबन्धन (Bar) विवाह की अकृतता (Nullity of marriage) पर लागू नहीं होता है। अन्य वैवाहिक अनतोषों पर यह अपबन्धन लागू होता है। यहि पक्षकारों के बीच वैवाहिक निवारण प्राप्त करने की दुस्संधि है तो वैवाहिक अनतोष के आधार के सिद्ध होने पर निवारण नहीं मिल सकता है। वृहत् रूप से देखें तो दुस्संधि का तात्पर्य अपनी सहमति द्वारा अनुतोष प्राप्त करना है। दुस्संधि की वैधानिक कोई परिभाषा नहीं है। न्यायाधीशों ने भी कोई सतध्य परिभाषा नहीं दी है। दुस्संधि का अर्थ है, पक्षकारों या उनके अभिकर्ताओं के बीच कोई करार, विन्यास. इन्तजाम या संविदा, अभिव्यक्त या विवक्षित, जिसका अभिप्राय है कोई आधार न होने पर भी वैवाहिक अनूतोष, न्यायालय पर कपट करके, तथ्यों की अत्युक्ति या तथ्यों के निग्रह द्वारा, या झूठी गवाही द्वारा प्राप्त करना। हिन्दू विवाह आधानयम का धारा 23 (1) (ग) के अन्तर्गत न्यायालय के लिये यह जांच

1. यदुराज बनाम सुन्दरबाई, 1969 गुजरात 21.

2. बील बनाम बील, (1950) ऑल इंग्लैंड रिपोर्ट्स 539.

करना अनिवार्य है कि पक्षकारों के बीच दुस्संधि नहीं है। पक्षकारों के बीच दुस्संधि के बीच दुस्संधि नहीं है। इसके सबूत का का भार याचिकाकार पर है। प्रत्येक याचिका में यह आवश्यक है कि पक्षकारों के बीच दस्संधि । परन्त यदि मुकदमें के तथ्य ऐसे है जिनमें दुस्संधि के संबंध में कोई प्राक्कथन आवश्यक नाही फिर दुस्संधि के सम्बन्ध में पृथक्करण की कोई आवश्यकता नहीं है।

भारतीय न्यायालयों के समक्ष अभी तक दुस्संधि का कोई वाद नहीं आया है। इंग्लैंड में इसका एक बहुत अच्छा दष्टान्त उपलब्ध है, उन मुकदमों में जिन्हें होटेल बिल केसेज के नाम से जाना जाता है। इन मकदमों के तथ्य प्रायः एक से ही थे। पति किसी महिला को एक होटल में ले गया। वहां के रजिस्टर में श्री और श्रीमती के नाम से एक कमरा लिया। होटल रजिस्टर में और होटल बिल में पति ने अपना और इस महिला का नाम श्री और श्रीमती दर्ज कराया। वे रात भर कमरे में रहे, सुबह पति घर वापस आ गया। दूसरे दिन पत्नी ने पति को जारकर्म के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिका प्रेषित कर दी और होटल का रजिस्टर और बिल की कापी साक्ष्य में प्रेषित की, एक-आध मौखिक साक्ष्य इस बात की दिला दी कि पति और अन्य महिला उस कमरे में साथ-साथ रात भर रहे। इन वादों में पति न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ या पत्नी की साक्ष्य के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं दी और इस भांति विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने का प्रयास किया।

जोगिन्दर बनाम पुष्पा में एक अन्य स्थिति थी। पति ने पत्नी की सहमति से दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री प्राप्त की। पत्नी ने डिक्री का पालन नहीं किया। अत: पति ने धारा 13 (1) (ix) वर्ष 1964 के संशोधन के पूर्व के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद की याचिका प्रेषित की। पूर्ण पीठ ने कहा कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की सहमति-डिक्री विवाह-विच्छेद का आधार हो सकती है। न्यायाधीश श्री महाजन ने कहा कि सहमति द्वारा उपलब्ध की गई प्रत्येक डिक्री को दुस्संधि द्वारा उपलब्ध की गई डिक्री नहीं कहा जा सकता है। यदि सिद्ध करना होगा कि सहमति द्वारा उपलब्ध की गई डिक्री दुस्संधि का परिणाम है। पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका पर दस्संधि का अपबन्धन इसी आधार पर लगाया जा सकता है, अन्यथा नहीं। यही मत सरोज बनाम सुदर्शन में उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त किया है।

वही दुस्संधि वैवाहिक अनुतोष पर निबन्धन होगी जिसका ध्येय न्याय का दुरुपयोजन या ध्वंस करना हो। अत: यदि पक्षकार अपत्यों की अभिरक्षा, उनके भरण-पोषण या पक्षकारों के भरण-पोषण के सम्बन्ध में कोई करार, व्यवस्था, संविदा करें या सम्पत्ति का इन्तजाम करें तो यह दुस्सन्धि के अन्तर्गत आयेगा। परन्तु यदि पति पत्नी को भरण-पोषण की अधिक राशि देने का वचन पत्नी की इस सहमति पर देता है कि वह विवाहविच्छेद की याचिका का विरोध नहीं करेगी, तो यह दुस्संधि होगी।

अधर्मज संतानों का अधिकार-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 के अधीन शून्य एवं अवैध विवाह से उत्पन्न सन्तान को पैतृक सम्पत्ति (सहदायिकी सम्पत्ति) में उत्तराधिकार का दावा करने का अधिकार नहीं है। हिन्दू विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 जो दिनांक 25.7.1976 से प्रवृत्त हुआ, के आधार पर हिन्दू विवाह अधिनियम में महत्वपूर्ण परिवर्तन ला दिये गये हैं। सामान्य विधि के अधीन किसी सन्तान को वैध माने जाने के लिये उसे विधिपूर्ण विवाह से उत्पन्न होना चाहिये। यदि स्वयं विवाह ही सांविधिक उपबन्ध के उल्लंघन में होने के कारण शून्य है, तब ऐसे विवाह से उत्पन्न हुई सन्तान, स्वयंमेव था इस प्रकार घोषित या शून्य किये जाने पर, को ऐसे विवाह के पक्षकार से उत्पन्न हुई सन्तानों, को दोगला बनाने का प्रभाव रखने वाला होगा। बहु-विवाह, जो पहले अनुज्ञेय था और हिन्दूओं में पहले काफी प्रचलित था और जिसे समाज पर बुरा प्रभाव डालने वाला समझा जाता था. को हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की विधि बनाकर संसद के आदेश द्वारा समाप्त कर दिया गया था। सन्तानों की वैध प्रास्थिति, जा काफी कुछ उनके माता-पिता के मध्य वैध या शून्य विवाह पर निर्भर करती थी, इस प्रकार माता-पिता के कृत्यों पर अवलम्बित थी. जिस पर निर्दोष सन्तानों की कोई पकड था नियंत्रण नहीं था। किन्तु उनका भा प्रकार की त्रुटि के बिना ही निर्दोष सन्तानों के जीवन में और समाज की आंखों में उन्हें अधर्मज रूप मानकर स्थाई पीड़ा झेलनी पड़ती है। विधायिका ने इस बड़ी सामाजिक बुराई को समाप्त क 1० का बनाकर वास्तव में एक प्रशंसनीय तथा अच्छा कार्य किया था। उसी समय, आ सन्ताना को, भले ही अधर्मज ही धर्मज रूप में माने जाने के लिये निर्दिष्ट करने में काल्पनिक नियम को

1. 1969 पंजाब और हरियाणा 357 (पूर्णपीठ)

2. 1984 सु० को० 1562.

निर्मित करने के दौरान इस बात के होते हुये भी कि विवाह शून्य या शून्यकरणीय था, ने केवल माता-पिता की सम्पत्तियों पर ही इसकी प्रयोज्यता को सीमित कर दिया था जहाँ तक यह ऐसी सन्तानों के उत्तराधिकार या दाय का सम्बन्ध है। जहाँ तक अधिनियम की धारा 16 का सम्बन्ध है यद्यपि कि इसे उन सन्तानों को धर्मज करने के लिये अधिनियमित किया गया था जो अधर्मज होकर अन्यथा पीडित होते, उसी समय यह अभिव्यक्त रूप से उपधारा (3) में उपबन्ध करता है, जो अध्यारोही खण्ड भी है, यह कि उपधारा (1) या उपधारा (2) की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जायेगा कि वह ऐसे विवाह के किसी ऐसे अपत्य को जो अकृत और शून्य है, या जिसे धारा 12 के अधीन अकतता की डिक्री द्वारा अकृत किया गया है, उसके माता-पिता से भिन्न किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में या सम्पत्ति के लिये कोई अधिकार किसी ऐसी दशा में प्रदान करती है जिसमें कि यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो वह अपत्य अपने माता-पिता का धर्मज अपत्य न होने के कारण ऐसा कोई अधिकार रचाने या अर्जित करने में असमर्थ होता। स्वयं विधायिका के ऐसे अभिव्यक्त कानून को ध्यान में रखते हुये ऐसी सन्तानों, जिन्हें धारा 16 के आधार पर, अधर्मज रूप में माना जाता, को अधिनियम की धारा 16 के मात्र उद्देश्य या प्रयोजन का आश्रय लेकर तर्क की कोई काल्पनिक या अनुमान सम्बन्धी प्रक्रिया का आश्रय लेकर उसमें अनुध्यात अधिकार से भिन्न कोई अतिरिक्त अधिकार देने के लिये गुंजाइश नहीं है। ऐसा किये जाने का कोई भी प्रयास अधिनियम की धारा 16 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट उपबन्ध के उल्लंघन की कोटि में आयेगा अपितु वह विधायन में अभिव्यक्त इच्छा के विरुद्ध भी निर्वचन के रूप में न्यायालय द्वारा पुनर्विधायन किये जाने का प्रयास होगा। अधर्मज पुत्र के उत्तराधिकार का अधिकार उसके पिता की स्वअर्जित सम्पत्ति तक सीमित है।

द्वितीय विवाह से उत्पन्न संतान-शून्य विवाह से उत्पन्न सन्तान को केवल माता-पिता की सम्पत्ति में ही अधिकार प्राप्त होगा न कि पैतृक सम्पत्ति में। द्वितीय विवाह से उत्पन्न सन्तान अधर्मज नहीं है एवं उत्तराधिकार के मामलों में उसे समान अधिकार प्राप्त है।

उत्तराधिकार-प्रथम विवाह की विद्यमानता के दौरान दूसरा विवाह-पहली पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह होने की स्थिति में, दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्रियों को उत्तराधिकारी होने से अपवर्जित करते हैं।

अनुचित विलम्ब (Undue Delay) (LLB Notes in English)

दस्संधि की ही भांति अनचित विलम्ब सभी वैज्ञानिक अनुतोषों पर निबन्धन है। वैवाहिक कार्यवाही सिविल प्रक्रिया है परन्तु थोड़ी भिन्न है। प्रत्येक सिविल कार्यवाही के लिये परिसीमा अधिनियम, 1963 परिसीमा निर्धारित करता है। यदि सिविल कार्यवाही उस परिसीमा के भीतर न आरम्भ की जाये तो वह समय वर्जित हो जाती है। परन्तु वैवाहिक कार्यवाही के लिये कोई परिसीमा निर्धारित नहीं है। क्या इसका तात्पर्य यह है कि वैवाहिक कार्यवाही चाहे जब आरम्भ की जा सकती है। एक ओर तो मान्यता यह है कि वैवाहिक कार्यवाही में शीघ्रता नहीं करनी चाहिये, समय बहुत से मतभेदों को मिटा देता है, दसरी ओर विधि का यह भी नियम है कि वादकरण के आरम्भ होने के पश्चात् वाद दायर करने की सीमाहीन स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती है, चाहे कार्यवाही वैवाहिक ही क्यों न हो। इन दो नियमों में सामंजस्य स्थापित करने के लिये वैवाहिक कार्यवाही के सम्बन्ध में अनुचित बिलम्ब के सिद्धान्त का विकास हुआ। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 23 (1) (घ) में यही नियम विद्यमान है। ‘कार्यवाही’ संस्थिति करने में कोई अनावश्यक या अनुचित विलम्ब नहीं है।

1. ‘जीनिया कियोटीन एवं अन्य बनाम कुमार सीताराम मांझी एवं अन्य, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 457 (एस० सी०).

2. राजनाथ टबे बनाम उप संचालक चकबन्दी, 2013 (121) आर० डी०759: भारथा माथा बनाम आर० विजय रंगनाथन, (2010) 11 एस० सी० सी० 483 : 2011 (2) ए. डब्ल्यू० सी० 1376 (एस० सी०).

3. कुंती देवी बनाम अपर जिला न्यायाधीश, 2013 विधि निर्णय एवं सामयिकी 503 (इला०),

4. श्रीमती किरन देवी एवं एक अन्य बनाम अशोक कुमार एवं अन्य, 2004 विधि निर्णय एवं सामयिकी 554.

5. राम बनाम कष्णास्वामी, (1973) 1 मद्रास लॉ जर्नल 2003; रुकमणी बनाम श्रीनिवास, 1984 कर्नाटक 131.

वैवाहिक कार्यवाही में इस नियम की यह विलक्षणता है कि कोई विलम्ब जिसका युक्तियक्त स्पष्टीकरण दिया जा सकता है, वह अनावश्यक या अनुचित विलम्ब नहीं कहला सकता है। कसौटी है-क्या विलम्ब आपराधिक है? यदि अर्जीदार का आचरण ऐसा है कि उस पर विबन्ध (Estopel) किया जा सकता है या विलम्ब यह जाहिर करता है कि अर्जीदार क्षति महसूस नहीं करता है। तो यह अनुचित बिलम्ब होगा। जिस विलम्ब का कोई औचित्यपूर्ण समाधान नहीं है, वह अनुचित बिलम्ब है। याचिका प्रेषित करने में अनुचित, बिलम्ब नहीं हुआ है, इसके सबूत का भार याचिकाकार के ऊपर है।

वैवाहिक कार्यवाही में अनुचित विलम्ब का आधार यह है कि विलम्ब से यह अनुमान होता है कि सम्भवत: अपराध का उपमर्षण हो गया है, या अपराध में उपमति है या अपराध के प्रति उदासीनता है या पक्षकारों के बीच दुस्सन्धि है, या इतने विलम्ब के बाद याचिका प्रेषित करने में कोई अन्तरस्थ हेतु है। परन्तु यदि बिलम्ब का युक्तियुक्त स्पष्टीकरण दिया जा सकता है तो कोई भी विलम्ब अनावश्यक अनुचित नहीं होगा।

एस० बनाम आर०3 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि यह जानने के लिये कि किसी कार्यवाही में अनावश्यक या अनुचित बिलम्ब हुआ है, समाज का वातावरण और उस परिवार की परिस्थितियों और परम्पराओं जिसमें पक्षकार रहते हैं, का जानना आवश्यक है। समाज में विवाह-विच्छेद को सदैव ही बुरा माना गया है। इसे पाप भी माना जाता है। जो भी हिन्दू विवाह-विच्छेद चाहता है उसे साहस इकट्ठा करना पड़ता है। इस तथ्य की न्यायिक अपेक्षा ली जा सकती है। इस मत का समर्थन किया गया है निमो० बनाम निक्की में न्यायाधीश जगदीश सिंह ने कहा कि विलम्ब पर विचार करते हुये न्यायालय को हिन्दू समाज की परम्परायें और पृष्ठभूमि को नहीं भूलना चाहिये और यह भी नहीं भूलना चाहिये कि हिन्दू नारी न्यायालय के समक्ष निवारण के लिये आने में संकोच करती है। अधिकांश रूप से हमारे न्यायालयों ने विलम्ब के सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण अपनाया है। कम्प बनाम राम पति ने विवाह की अकतता की याचिका सात वर्ष के विलम्ब से प्रेषित की और स्पष्टीकरण में कहा कि वह अब तक अपनी पत्नी को पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद के लिये तैयार करने में संलग्न था। न्यायालय ने याचिका खारिज करते हये कहा कि विलम्ब का यह स्पष्टीकरण युक्तियुक्त नहीं है, वर्षों से पति विवाद को मान्य मानता आया है, विवाह शून्य घोषित नहीं किया जा सकता है। प्रतीत यह होता है कि अपत्यों के अधर्मज हो जाने की आशंका से न्यायालय ने यह मत लिया। सुरिन्दर बनाम गुरुदीप में पुनः मिलन के प्रयत्नों में खोया गया समय विलम्ब का युक्तियुक्त स्पष्टीकरण माना गया।

तेज सिंह बनाम सुरजीत कौर में पत्नी ने पति द्वारा दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका देने से सात वर्ष पूर्व पतिगृह छोड़ा था। इस अवधि में पति ने उसकी तनिक भी परवाह नहीं की, न ही भरणपोषण दिया और न ही उसकी खोज-खबर ली। पत्नी द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 488 के अन्तर्गत भरण-पोषण की आज्ञा प्राप्त करने के पश्चात पति ने याचिका प्रेषित की थी। इस विलम्ब का कोई युक्तियुक्त स्पष्टीकरण पति नहीं दे सका। न्यायालय ने इसे अनुचित विलम्ब ठहराया। सान्ता देवी बनाम रमेश चन्द

1. विनोद बनाम अरुण, 1977 दिल्ली 24.

2. मोहिन्द्र बनाम कुलवन्त, 1976 दिल्ली 140; शकुन्तला बनाम अमरनाथ, 1982 पं० और ह० 2213; विरुपाक्षी बनाम सरोजनी, 1991 कर्नाटक 128.

3. 1968 दिल्ली 79; विनोद बनाम अरुणा, 1977 दिल्ली 24.

4. 1968 दिल्ली 260.

5. देखें, निझावन बनाम निझावन, 1973 दिल्ली 200, जहां पर 10 वर्ष का विलम्ब था। हिन्दू नारीत्व के लिये न्यायालय में जाना बड़ा कठिन निर्णय है। आर्थिक निर्भरता और सामाजिक लांछन का भय उसकी

कठिनाइयों को और भी बढ़ा देता है।

6. 1969 आन्ध्र प्रदेश 92.

7. 1973 पंजाब एण्ड हरियाणा 134.

8. 1962 पंजाब 195.

9. 1969 पटना 27.

में सात वर्ष, थिमय्या बनाम थिमय्या में पांच वर्ष का विलम्ब जिसका कोई युक्तियुक्त स्पष्टीकरण नहीं था. अनुचित विलम्ब माना गया। दूसरी ओर न्यायालयों ने दस और बीस वर्ष के विलम्ब को भी अनुचित विलम्ब नहीं माना है। स० बनाम आर02 में पक्षकारों का विवाह सन् 1949 में हुआ था और वे पति-पत्नी की भांति सन् 1956 तक रहे। उसके पश्चात् पत्नी यह कहकर पतिगृह को छोड़कर चली गई कि नपुंसक पति का सहते-सहते उसके धैर्य का बांध टूट गया है। फिर 1962 में विवाह की अकृतता के लिये उसने याचिका प्रषित की। न्यायालय ने कहा कि 1949 से 1955 तक के समय (जबकि हिन्दू विवाह अधिनियम लागू नहीं था) के विलम्ब का प्रश्न नहीं उठता है, उसके पश्चात् के सात वर्षों के विलम्ब का पर्याप्त स्पष्टीकरण पत्नी ने यह कह कर दिया कि उसके माता-पिता जिसके पास वह रह रही थी, बहत रूढिवादी और कट्टरपंथी थे, उन्होंने उसे याचिका प्रेषित नहीं करने दी, उनको डर था कि कहीं वे जाति से बहिष्कृत न हो जायें, न्यायालय के नाम से ही वे डरते थे। यह एक पूर्णतया भारतीय स्थिति थी और न्यायालय ने उसे स्वीकार किया। ए० बनाम बी03 में इसी आधार पर प्रेषित की गई पत्नी की याचिका में विलम्ब का कारण पत्नी ने अपने पति का विरोध और अपना यह भय बताया कि उसके द्वारा विवाह की अकृतता की डिक्री प्राप्त करने के कारण उसकी बहिनें अविवाहित रह जायेंगी। पत्नी अपने माता-पिता के पास रह रही थी। न्यायालय ने इसे उचित बिलम्ब ठहराया। इसी भांति निमौ बनाम निक्का में ग्यारह वर्षों का विलम्ब, लीलथम्मा बनाम कानन में पांच वर्ष का विलम्ब, ज्योतिष चन्द्र बनाम मीरा’ में इक्कीस महीने का विलम्ब तोवियास बनाम तोवियास में छब्बीस वर्ष का विलम्ब और शान्ती देवी बनाम गोविन्द में नौ वर्ष का विलम्ब अनुचित नहीं ठहराया गया। ये चारों ही पत्नी की याचिकायें थीं। प्रथम में पत्नी ने कहा कि उसका कोई इरादा न्यायालय में जाने का नहीं था, परन्तु जब उसने उत्तराधिकार में कुछ सम्पत्ति पाई तो पति ने उसे संत्रास देना आरम्भ कर दिया; हार कर उसे याचिका प्रेषित करनी पड़ी। दूसरे में पिता और पति के बीच दुविधा में फंसी पत्नी की असहाय थी। तीसरे में माता-पिता के परिवार की परिस्थितियां थीं (यह भय कि समाज में भर्त्सना न हो, बहन अविवाहित न रह जाये), चौथे में था नारी का मातत्व, उसकी छोटी-छोटी दो पुत्रियाँ और एक पुत्र जिनके स्वावलम्बी होने तक उसने याचिका प्रेषित नहीं की और अन्तिम वाद में मेल-मिलाप के प्रयत्न नौ वर्ष तक चलते रहे।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि शून्य घोषित करने की याचिका पर विलम्ब का अपबन्धन लागू नहीं होना चाहिये। याचिका कभी भी की गई हो, उसकी सुनवाई इस कारण से वर्जित नहीं होगी कि याचिका में विलम्ब किया गया है।

हमारे न्यायालयों का यह प्रयास सराहनीय है। उन्होंने तकनीकी दृष्टिकोण न अपनाकर तथ्य और सामाजिक परिस्थितियों का व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया।

जीवन निर्वाह भत्ता से इन्कार करना धारा 23 (1)(क) के अर्थान्तर्गत “दोष” है-पत्नी द्वारा दाखिल याचिका पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित किये जाने के पश्चात् पति और पत्नी का सहवास के लिये अपने-अपने कार्य को करने का कर्तव्य था। पति से यह अपेक्षा की गयी थी कि वह पत्नी के प्रति । एक कर्तव्यपरायण पति के रण में कार्य करे तथा पत्नी का यह कर्तव्य था कि वह पति के प्रति एक स्वामिभक्त पत्नी के रूप में कार्य करे। यदि न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिये जाने के पश्चात् दोनों पति

1. (1972) मैसूर लॉ जर्नल 25.

2. (1969) दिल्ली 79.

3. 1967 पंजाब 152.

4 1968दिल्ली 160 और देखें, लीला विरुद्ध राव, 1963 राजस्थान 178.

5. 1966 मैसूर 170 रुकमणी बनाम श्रीनिवास, 1984 कर्नाटक 131.

6. 1970 कलकत्ता 266.

7. 1968 कलकत्ता 133.

8. 1983 रा०811.

9. ऐना देवी बनाम बचन सिंह, 1980 इलाहाबाद 174.

पत्नी सफल सहवास के प्रयोजन के लिये कर्तव्यनिष्ठ योगदान करते हैं तब यह युक्तियुक्त रूप से कहा जा सकता है कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में पति अपनी पत्नी के प्रति भरण-पोषण का भुगतान करने से इन्कार करने में एक पति के रूप में कर्तव्य करने में असफल रहा है। तद्द्वारा उसने अधिनियम की धारा 23 के अर्थान्तर्गत “दोष” कारित किया है।

वर्तमान मामले में अपीलार्थी न केवल ऐसा प्रयास करने में असफल रहा है अपितु उसने पत्नी के लिये भरण-पोषण के रूप में 100-/ प्रतिमाह की छोटी रकम का भुगतान करने से भी इन्कार कर दिया है और न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के पश्चात् एक वर्ष की सांविधिक अवधि की समाप्ति के लिये समय की प्रतीक्षा करता रहा है ताकि वह सरलता से तलाक की डिक्री प्राप्त कर ले। परिस्थितिवश युक्तियुक्त रूप से यह कहा जा सकता है कि उसने पत्नी का भरण-पोषण करने से इन्कार कर न केवल वैवाहिक दोष कारित किया है और ऐसा रूखा व्यवहार अपनाकर सम्बन्ध को बिगाड लेना चाहा जिससे पुनः सहवास असम्भव हा जाये अपितु उसने तलाक का अनुतोष प्राप्त करने के लिये उक्त ‘दोष’ का लाभ लेने का प्रयास भी किया है। ऐसे व्यतिक्रम पूर्ण आचरण को मामले के तथ्य तथा परिस्थितियों में किसी ऐसे पर्याप्त महत्व न रखने वाले मामले के रूप में नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता है जो धारा 13 (1) (i-क) के अन्तर्गत उसे तलाक की डिक्री प्राप्त करने के लिये अनधिकृत कर सके।

विघटित विवाह विवाह-विच्छेद का आधार नहीं-विवाह-विषयक मामले नाजुक मानवीय तथा भावनात्मक सम्बन्धों के मामले होते हैं। इसे पति अथवा पत्नी के साथ यक्तियक्त समायोजन हेतु पर्याप्त मात्रा में पारस्परिक विश्वास, सम्मान, आदर, प्रेम तथा स्नेह की माँग होती है। इस सम्बन्ध में सामाजिक मानदण्डों के अनुरूप होना पड़ता है। दाम्पत्य आचरण को अब ऐसे मानदण्डों तथा परिवर्तित सामाजिक व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुये बनायी गयी संविधि द्वारा शासित होना पड़ता है। इसकी सगठित, स्वस्थ, न कि विक्षब्ध तथा रन्ध्री (porous) समाज के निर्माण हेतु विवाह-विषयक मानदण्डों को विनियमित करने के लिये व्यक्तियों के हित में साथ और व्यापक परिप्रेक्ष्य में नियंत्रित किये जाने की मांग की जाती है। विवाह की संस्था सामान्य रूप से समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखती है और महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अत: विवाह-विच्छेद के अनुतोष को अनुदत्त करने का संयमित (strait-jacket) फार्मूले के रूप में “अप्रतिष्ठाप्यपूर्ण ढंग से भंग विवाह’ के किसी निवेदन को उपयोजित करना उचित नहीं होगा।

दर्तमान वाद में, अपीलार्थी के जारकर्मी आचरण के अभिकथनों को विशुद्ध पाया गया है और अवर न्यायालयों ने उसी निष्कर्ष को अभिलिखित किया है। इन परिस्थितियों में, हमारे विचार में हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 23 के अधीन अन्तर्विष्ट प्रावधान आकृष्ट होंगे तथा अपीलार्थी को अपने ही दोष का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जायेगी। चीजों को गलत अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिये और न ही किसी ऐसे दोषी पक्षकार को विधि के अधीन कोई अनुज्ञेयता अनुमत की जानी चाहिये जिसे न्यायिक कार्यवाही में तथ्य के निष्कर्ष को अभिलिखित करके ऐसा होना पाया गया हो; यह कि पति अथवा पत्नी को कठिन परिस्थिति में जाने के लिये विवश करना और पत्पश्चात् दूसरे पक्ष की ओर से दृष्टान्तपूर्वक अभित्यजन का अभिवाक लेना बिल्कुल सरल होगा जो दोषकर्ता के हाथों लम्बे समय से कष्ट उठा रहा है तथा दाम्पत्य बन्धन से बाहर निकल जाना कि विवाह भंग हो चुका है। कहीं ऐसा न हो विवाह की संस्था तथा दाम्पत्य बन्धन सरलता से तोड़े जाने योग्य हो जाने के उद्देश्य की पूर्ति कर सकेगा जिसे दोषकर्ता सबसे अधिक स्वागत करेगा जो हृदय से, अपने दोषपूर्ण कृत्य का भार उस दूसरे पक्ष पर डालकर इस परिणाम की इच्छा करता था जिसे वह टूटने के कगार पर ले जाने वाला अभित्याजक अभिकथित करता है।2.

1. हीराचन्द श्रीनिवास मनगांवकर बनाम सुनन्दा, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1285 : 2007 निर्णय एवं सामयिकी 311 (एस० सी०).

2. चेतनदास बनाम कमला देवी, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1709 : 2001 (4) एस 250: 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 397 (एस० सी०); और भी देखें: रोमेश चन्द एस०पी० त्रिवेदी, 1993 (a (2) एस० सी०सी०7: श्रीमती चन्द्रकला बिबेटी स. सी० सी0 232: श्रीमती सरोज रानी बनाम सुदशन कुमार सावित्री, 1995 (2) एस० सी० सं और भी देखें: रोमेश चन्दर बनाम श्रीमती सी०90. बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा , 1984 (4) एस० सी०

अन्य वैध आधार

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 23 (1) (ङ) के अन्तर्गत याचिकाकार को सिद्ध करना होगा कि अनुतोष अनुदत्त न करने के लिये अन्य कोई वैध आधार नहीं है। यह खण्ड अभी न्यायालयों की व्याख्या के लिये नहीं आया है। इसका क्या तात्पर्य है कि यह कहना कठिन है। यह अविशिष्ट खण्ड है। मल्ला के चौदहवें संस्करण के विद्वान सम्पादक का कहना है कि यह खण्ड संसद् की अत्यधिक सावधानी का द्योतक है। यह उन आधारों को उपदर्शित करता है जो पहले ही अधिनियम में विद्यमान हैं। संपादक महोदय ने इसके उदाहरण में शून्यकरणीय विवाह के इस आधार पर हवाला दिया है जिसके अन्तर्गत विवाह के समय पत्नी के गर्भवती होने पर पति को याचिका विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् एक वर्ष के अन्दर प्रेषित करनी चाहिये। लेखक का निवेदन है कि यह व्याख्या खण्ड का अत्यधिक सरलीकरण है। यह शर्त तो धारा 12 में है ही, धारा 23 (1) (ङ) के न होने पर भी याचिका एक वर्ष पश्चात् प्रेषित नहीं की जा सकती है। डेरेट के अनुसार यह खण्ड भारत और विदेश में संचित ज्ञान (जिसके अन्तर्गत वैवाहिक अनुतोष को प्राप्त करने के अधिकार पर अंकुश लगाये जाते हैं) का प्रयोग करने की स्वतंत्रता न्यायालय को देता है। विद्वान लेखक ने उदाहरण के रूप में यह कहा है कि अभित्यजन और जारता में रह रही पत्नी इस आधार पर कि पति ने गुदामैथुन (या अन्य वैवाहिक अपराध) किया है विवाह-विच्छेद की डिक्री पाने की अधिकारिणी नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि धारा 23 (1) के निबन्धनों के अतिरिक्त अन्य निबन्धन भी न्यायालय प्रतिपादित कर सकते हैं; ये वे निबन्धन हो सकते हैं जो अंग्रेजी विधि में मान्य हैं (विषेश संचित ज्ञान से लेखक का यही तात्पर्य प्रतीत होता है) । इस लेखक का निवेदन है कि धारा 23 (1) (ङ) के अन्तर्गत अन्य किसी निबन्धन को लागू करने का प्रश्न नहीं उठता है।

मेल-मिलाप (Reconciliation) (LLB Study Material)

धारा 23 (2) के अन्तर्गत पुन:मिलाप का उपबन्ध है। उपधारा (2) इस भांति है-

‘इस अधिनियम के अधीन कोई अनुतोष अनुदत्त करने के लिये अग्रसर होने के पूर्व न्यायालय का यह प्रथमतः कर्तव्य होगा कि वह ऐसी हर दशा में जहाँ कि मामले की प्रकृति और परिस्थितियों से संगत रहते हुये ऐसा करना सम्भव हो, पक्षकारों के बीच मेल-मिलाप कराने का पूर्ण प्रयास करे।’ विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अनुसार जब विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण की अर्जी संपरिवर्तन, उन्मत्तत्ता, कुष्ठरोग, रजित रोग, संसार-त्याग या मृत्यु की अवधारणा के आधार पर प्रेषित की जाती है तो न्यायालय के लिये पुनः मिलाप कराने का प्रयत्न करना आवश्यक नहीं है।

अधिनियम की धारा 23 (2) प्रत्येक न्यायालय को अधिनियम के अधीन किसी अनुतोष को प्रदान करने के लिये कार्यवाही करने के पूर्व पक्षकारों के बीच सुलह कराने का प्रत्येक प्रयास कराने का समादेश देती है।

धारा 23 की उपधारा (2) न्यायालय का यह कर्तव्य निर्धारित करती है कि न्यायालय पक्षकारों के बीच मेल-मिलाप का प्रयास करेगा यह न्यायालय का कर्तव्य है और इसका न्यायिक ढंग से पालन करना आवश्यक है। परन्तु यदि न्यायालय ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया है तो इस आधार पर डिक्री शून्य नहीं हो सकती है। विजय बनाम आलोक में न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि न्यायालय पुनः मिलाप का आदेश नहीं दे सकता है, प्रयत्न कर सकता है, मेल-मिलाप, मेल-मिलाप है, प्रपीड़न नहीं है। न्यायालय ने पाया कि पक्षकार मेल-मिलाप के लिये तैयार नहीं थे। स्थिति कुछ भी हो न्यायालय को प्रयत्न अवश्य करना

1. मुल्ला , हिन्दू लॉ, 796.

2. इन्ट्रोडक्शन टू मार्डन हिन्दू लॉ, पृष्ठ 181.

3. श्रीमती साधना श्रीवास्तव बनाम अरविन्द कुमार श्रीवास्तव, 2006 वी० एन० एस० 169 (इला०).

4. रघुनाथ बनाम उर्मिला, 1973 इलाहाबाद 233.

5. राजरानी बनाम हरवंश, 1972 पटना 392; दिलीप भाई बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1983 बम्बई 1283; सीला बनाम सचेन्द्र, 1994 मध्य प्रदेश 208 में विपरीत मत व्यक्त किया गया है। परन्तु यह मत ठीक नहीं है।

6. 1969 कलकत्ता 477.

चाहिये। छोटेलाल बनाम कमला में न्यायालय ने कहा कि हो सकता है कि पक्षकारों के बीच इतना गहरा मनमुटाव हो कि मेल-मिलाप की कोई भी आशा न हो, परन्तु फिर भी मेल-मिलाप का प्रयास न्यायालय को करना चाहिये। यह दूसरी बात है कि न्यायालय के प्रयास के बावजूद मेल-मिलाप न हो सके, पर प्रयास करना आवश्यक है।

मेल-मिलाप का प्रयास कभी भी किया जा सकता है। यह न्यायिक कार्यवाही के आरम्भ होते ही किया जा सकता है’ या कार्यवाही समाप्त होने के पूर्व किसी भी समय किया जा सकता है।

1976 के संशोधन द्वारा अब भी यह उपबन्ध बनाया गया है कि यदि पक्षकार चाहे या न्यायालय यह उचित समझे तो कार्यवाही को यक्तियक्त समय तक, परन्त 15 दिन से अधिक नहीं, स्थगित कर सकता है और पक्षकारों के विवाह की पक्षकारों द्वारा बताये गये किसी व्यक्ति या न्यायालय द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति को पुनः मिलाप के लिये सौंप सकता है। ऐसा व्यक्ति अपनी रिपोर्ट न्यायालय को पेश करेगा और कार्यवाही के निर्णय में न्यायालय उस रिपोर्ट को ध्यान में रखेगा।

(6) समनुषंगी अनुतोष (Anciliary Relief) (LLB Study Material in Hindi)

वैवाहिक मामलों में दो समनुषंगी कार्यवाहियां बहुधा होती हैं। एक, पक्षकारों के भरण-पोषण के सम्बन्ध में, दूसरी अपत्यों की अभिरक्षा (Custody), शिक्षा और भरण-पोषण के सम्बन्ध में। ये कार्यवाहियां दो अवस्थाओं में हो सकती हैं, प्रथम वैवाहिक कार्यवाही के दौरान, द्वितीय वैवाहिक कार्यवाही में डिक्री पारित होने के पश्चात्। सन् 1958 तक अंग्रेजी विधि में ये कार्यवाहियाँ अनुषंगी समझी जाती थी। मेट्रीमोनियल काँजेज ऐक्ट, 1950 के अन्तर्गत यदि मुख्य कार्यवाही खारिज हो जाती थी तो अनुषंगी कार्यवाही अपने आप समाप्त हो जाती थी। मेट्रीमोनियल काजेज ऐक्ट, 1973 के अन्तर्गत मुख्य कार्यवाही के खारिज होने के पश्चात् भी ये समनुषंगी कार्यवाहियाँ चल सकती हैं, अपत्यों की अभिरक्षा, शिक्षा और भरणपोषण के मामले अब अनुषंगी कार्यवाहियां नहीं मानी जाती हैं। अधिनियम में यह भी उपबन्ध है कि जब तक अपत्यों के सम्बन्ध में सन्तोषप्रद इन्तजाम न हो जाये, वैवाहिक कार्यवाही में डिक्री पारित नहीं की जा सकती है। भारत में हम इंग्लैंण्ड की सन् 1950 के पूर्व की स्थिति को मानते आ रहे हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत ये कार्यवाहियां अब भी अनुषंगी कार्यवाहियां है और मुख्य कार्यवाही के खारिज होने पर ये समाप्त हो जाती हैं । अब कुछ न्यायालयों ने विपरीत मत व्यक्त करते हुये यह कहा कि कार्यवाही के खारिज होने के उपरान्त भी न्यायालय भरण-पोषण की राशि निर्धारित कर सकता है। परन्तु उच्चतम न्यायालय न विपरीत मत व्यक्त किया है और यह निर्णय दिया है कि यदि मूल याचिका खारिज हो जाती है तो समनुषंगी अनुतोष नहीं दिये जा सकते हैं। धारा 24, 25 और 26 के अन्तर्गत की गई कार्यवाहियां हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत की गई कार्यवाहियां हैं।8

1. 1967 पटना 269.

2. देखें, लक्ष्मी बनाम दुर्वासुलुर, 1966 आंध्र प्रदेश 73; जीनूबाई बनाम निनगप्पा, 1963 मैसूर 3; सुषमा . बनाम ओम, 1993 पटना 156.

3. रघुनाथ बनाम उर्मिला, 1973 इलाहाबाद 233; छोटे लाल बनाम कमला, 1967 पटना 269.

4. सकी बनाम छावर लाल, 1975 राजस्थान 134; जसविन्दर कौर बनाम कुलवन्त सिंह, 1980 पं० एण्ड ह.220.

5. मीना बनाम दशरथ, 1963 कल० 428; शान्ताराम बनाम मालती, 1964 बम्बई 83, अकसम बनाम पार्वती, 1967 उड़ीसा 1633; परषोत्तम बनाम देवश्री, 1973 राज० 3 गुरुचरण बनाम रामचा पंजाब और हरियाणा 206; चन्द बनाम राजेश, 1988 इलाहाबाद 81.

6. शिला बनाम 1989 आन्ध्र प्रदेश 8; सदानन्द बनाम सलोचन, 1989 बम्बई 220; मोदीलाल बनाम मोदीलाल, 1991 बम्बई 440.

7. चाँद धवन बनाम जवाहर लाल धवन, 1993 क्रि० लॉ० ज० 2930: गंडम सुजाता बनाम व्यकट, आ० प्र० 154.

8. मुन्नी लाल बनाम कृष्ण रानी, 1983 पं० और ह० 247.

 

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