LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Seven Part Notes
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समनुषंगी अनुतोषों के सम्बन्ध में पक्षकार आपस में करार भी कर सकते हैं। सामान्यत: ऐसे करारों को न्यायालय मान्यता दे दे, जब तक कि ऐसे करार दबाव द्वारा नहीं किये गये हैं, साथ ही न्यायालय उन्हें लाग करने के लिये बाध्य नहीं है।
भरण-पोषण और निर्वाहिका (Maintenance and Alimony) (LLB Notes in Hindi English)
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अन्तर्गत अन्तरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के व्यय, और धारा 25 के स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण के उपबन्ध हैं। अंग्रेजी विधि में अन्तरिम और स्थाई निर्वाहिका और भरण-पोषण पत्नी द्वारा ही मांगा जा सकता है। हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन यह पति या पत्नी किसी के भी द्वारा मांगा जा सकता है।
कार्पस जुरिस के अनुसार निर्वाहिका वह भत्ता है जो विधि के अन्तर्गत पति की सम्पत्ति में से पक्षकारों के बीच विवाह सम्पन्न हो जाना सिद्ध होने पर और यह सिद्ध होने पर कि वह पृथक भरण-पोषण की अधिकारिणी है, वैवाहिक कार्यवाही के दौरान या उसकी सम्पत्ति पर पत्नी को दिया जाता है। निर्वाहिका और भरण-पोषण का सिद्धान्त यह है कि पति का पत्नी के भरण-पोषण और निर्वाह का उत्तरदायित्व न केवल उस समय है जब कि वह उसकी पत्नी है, बल्कि उस समय भी जब वह उसकी पत्नी नहीं रहती है जैसे विवाह-विच्छेद के पश्चात् जब तक कि वह दूसरा विवाह न कर ले। प्रारम्भ में यह नियम विवाहविच्छेद पर लागू होता था अब यह नियम विवाह की अकृतता पर भी लागू होता है।
आज स्त्री-पुरुष की समानता के युग में, जहाँ स्त्रियां भी उपार्जन करने लगी हैं, प्रश्न यह उठाया जाता है कि भरण-पोषण और निर्वाहिका पत्नी द्वारा पति को देनी चाहिये, यदि पत्नी उस योग्य है। लगभग सभी साम्यवादी देश इस नियम को मान्यता देते हैं। अन्य देशों में भी यह नियम मान्यता प्राप्त कर रहा है। हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत पति और पत्नी दोनों एक दूसरे से भरण-पोषण की रकम मांग सकते हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 और 25 के अन्तर्गत भरण-पोषण और निर्वाहिका का अधिकार हिन्दू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम के उपबन्धों से स्वतन्त्र और पृथक हैं।
धारा 24 की संवैधानिकता-कृष्णामूर्ति बनाम उमादेवी में आन्ध्र उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि धारा 24 संवैधानिक है।
वादकालीन भरण-पोषण और कार्यवाही का व्यय :
वादकालीन भरण-पोषण को अन्तरिम भरण-पोषण या अस्थाई भरण-पोषण भी कहते हैं। यह वह भरण-पोषण है जो कार्यवाही आरम्भ होने से और डिक्री पास होने तक (चाहे याचिका मंजूरी की डिक्री हो, चाहे खारिजी की) न्यायालय की आज्ञा द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को देता है। हिन्दू विवाह अधिनियम में इसका उपबन्ध धारा 24 में है। इस धारा के अनुसार यदि इस अधिनियम के अधीन होने वाली किसी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत हो कि यथास्थिति, पति या पत्नी की कोई ऐसी स्वतन्त्र आय नहीं है जो उसके सम्भाल और कार्यवाही के आवश्यक व्ययों के लिये पर्याप्त हो, वहां वह पति या पत्नी के आवेदन पर प्रत्यर्थी को यह आदेश दे सकेगा कि वह अर्जीदाता को कार्यवाही में होने वाले व्यय तथा कार्यवाही के दौरान में प्रतिमास ऐसी राशि संदत्त करे जो अजीदाता की अपनी आय तथा प्रत्यर्थी की आय को देखते हये न्यायालय को यक्तियुक्त प्रतीत हो। यह दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका में भी दिया जा सकता है। इन तथ्यों के सिद्ध होने पर न्यायालय को भरण-पोषण और कार्यवाही के व्यय का आदेश देना
1.देखें, मनजीत सिंह बनाम सविता, 1984 पं० और ह0 281.
2. इसका एक अपवाद है, यदि पत्नी ने पति की उन्मत्तत्ता के आधार पर विवाह-विच्छेद कर लिया है तो पति भरण-पोषण की मांग कर सकता है।
3. आदिगरल बनाम आदिगरल, 1973 आन्ध्र प्रदेश 31; गोविन्द राव बनाम आनन्दी बाई, 1978 बम्बई 433.
4. 1987 आंध्र प्र० 237.
5. गणेशन बनाम राशमल, 1994 मद० 316.
ही होगा। उसे इस सम्बन्ध में कोई विवेक नहीं है। न्यायालयों को अपत्यों को आवश्यकताओं को पति के लिये भी रकम निर्धारित करने का अधिकार है। इस भाँते धारा 24 निम्न दो बातों के बारे में उपबन्ध बनाती
(1) प्रार्थी का भरण-पोषण और
(2) कार्यवाही का आवश्यक व्यय।
उपर्युक्त कथित दोनों अनुतोषों के लिये विवाह की अवता – विवाह-विच्छेद न्यायिक पृथक्करण और दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की कार्यवाहियों में न्यायालय आदेश दे सकता है।
प्रार्थना-पत्र कौन दे सकता है-पति और पत्नी-धारा 24 के अन्तर्गत प्रश्न उठता है कि पति और पत्नी से ज्या तात्पर्य है। स्पष्ट ही है कि वैध विवाह के पति-पत्नी में से कोई अन्तरिम भरण-पोषण के प्रार्थना-पत्र दे सकता परन्तु यहां पर यह तकनीकी अर्थ नहीं लिया गया है। विवाह के अवैध या शून्य होने पर भी उस विवाह के युगल पति-पत्नी कहलायेंगे और उनमें से कोई भी अन्तरिम भरण-पोषण के लिये प्रार्थना-पत्र दे सकता है।
प्रार्थना-पत्र का आधार है-प्रार्थी के पास उसको सम्भाल और कार्यवाही के आवश्यक व्यय के लिये कोई पर्याप्त स्वतन्त्र आय नहीं है। कुछ मित्र और नातेदार उसको आर्थिक सहायता कर रहे हैं या आर्थिक सहायता करने को तत्पर हैं, यह कोई ऐसा तथ्य नहीं है जिस पर न्यायालय आदेश देते समय ध्यान रखेगा। न्यायालय को प्रार्थी और प्रतिपक्षी की स्वतन्त्र आय को ध्यान में रखना है न कि अनुदान या खैरात को जो उसे दूसरे से मिलती है न्यायालय पक्षकारों की अन्य परिस्थितियों का ध्यान भी रख सकता है जैसे प्रार्थी का बीमार रहना या प्रतिपक्षी का परिवार बड़ा होना आदि।
प्रार्थी की आय-यह सिद्ध होने पर कि प्रार्थी के पास भरण-पोषण के पर्याप्त साधन नहीं है, न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह भरण-पोषण की आज्ञा प्रदान करे। आधार यह है कि भरण-पोषण के लिये उसके पास पर्याप्त आया नहीं है। यदि पत्नी की अस्थाई नौकरी मिल भी गयी है तो यह उसकी आय नहीं कहलायेगी।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि धारा 24 में शब्द ‘आय’ है, सम्पत्ति नहीं। गीता बनाम प्रभात में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि हम ‘आय’ शब्द का कितना भी वहत अर्थ निकालें उसके अन्तर्गत प्रार्थी की चल अचल सम्पत्ति नहीं आ सकती है जब संसद न शब्द ‘साधन नहीं बल्कि ‘आय’ का प्रयोग किया है तो यह प्रयोग जानबूझ कर किया गया है, उस अर्थ में कि ‘आय’ न देने वाली सम्पत्ति आय नहीं है। वह साधन भले ही हो आय नहीं कहला सकती है। अत: धारा 24 के अन्तर्गत उस सम्पत्ति का ब्यौरा नहीं किया जायेगा जिसके द्वारा कोई आय नहीं है। पिता से वसीयत में प्राप्त सम्पत्ति भी ऐसी आय नहीं है।
चित्रा बनाम ध्रुव10 में न्यायालय ने कहा कि पति की क्या आय है इसके सबूत का भार पति पर है यह विशेष कर जबकि पत्नी पति से काफी समय से पृथक रह रही है और पति की आय का ब्यौरा देने में असमर्थ है |
1. ऊषा बनाम सुधीर, (1974) 76 पंजाब ला रिपोर्टर 135; बाबू लाल बनाम प्रेम, 1974 राजस्थान 93; आरती बनाम कवरलाल, 1977 दिल्ली 76..
2. बीबी बलबीर बनान रघुबीर, 1974 पंजाब लॉ रिपोर्टर 135; ऊषा बनाम सुधीर, 1973 पंजाब और हरियाणा 248.
3. शान्ता राम बना- दुर्गाबाई, 1987 बम्बई 184
4. लक्ष्मी बनाम अयोध्या प्रसाद, 1997 मध्य प्रदेश45.
5. राधिका बाई बनाम साधुराम, 1970 मध्य प्रदेश 14; राधाकुमारी बनाम नैय्यर, 1983 केरल 139.
6.हमा बनाम लक्ष्मण, 1986 केरल 130.
7. कृष्णा बनाम वीरा, 1987 उड़ीसा 65.
8. 1988 कल03.
9. प्रेम नाथ बनाम प्रेमलता, 1988 दिल्ली 94.
10. चिन्ना बनाम ध्रव. 1988 कल०49.
मुकदमें के खर्च में प्रार्थी द्वारा जो मुकदमें की पैरवी में आने-जाने का खर्चा भी आयेगा।।
उर्मिला देवी बनाम हरी राम और कंचन बनाम कमलेन्द्र में पति जो काम करने के लिये पूर्णतया स्वस्थ था परन्तु बेकार था, काम नहीं कर रहा था। न्यायालय ने न्यूनतम वेतन को उसकी आय मानकर पत्नी के पक्ष में अन्तरिम भरण-पोषण की राशि निर्धारित कर दी। दूसरी ओर यह मत व्यक्त किया गया है कि पढ़ी-लिखी, डिग्रीयाफ्ता पत्नी जो काम करने में सक्षम है, पर कोई काम नहीं कर रही है, वह भरण-पोषण पाने की अधिकारणी नहीं है।
प्रदीप कुमार बनाम शालिजा5 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि धारा 24 में भरण-पोषण और गुजारे का अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवनयापन के लिये रकम देना।
यह धारा शब्द प्रयोग करती है कि प्रार्थी के पास स्वतंत्र आय और अपने को आलम्ब (support) करने का साधन नहीं है। इसका अर्थ केवल मूल अस्तित्व (bare existence) नहीं है। इसका अर्थ है कि प्रार्थी भी उस सुख सुविधा से रहे जैसे अप्रार्थी रह रहा है।
अन्तरिम भरण-पोषण की राशि निर्धारित करते समय न्यायालय पक्षकारों की सामाजिक और आर्थिक संस्थिति, प्रार्थी की औचित्यपूर्ण आवश्यकतायें, प्रार्थी की आय, प्रतिपक्षी की आय, आश्रितों की संख्या उनकी नातेदारी आदि बातों का ध्यान रहेगा।
उन मामलों में, जहां पुरुष, जो लम्बे समय तक महिला के साथ रहता था और यद्यपि वे विधिमान्य विवाह की वैध आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकते, को महिला के भरण-पोषण का भुगतान करने के लिये दायी बनाया जाना चाहिये, यदि वह उसे परित्यक्त करता है। पुरुष को कर्तव्यों और आबद्धताओं को किये बिना वस्तुतः विवाह का उपभोग करके विधिक कमी से लाभ की अनुज्ञा नहीं दी जानी चाहिये। कोई अन्य निर्वचन महिला को आवारा और निराश्रित बना देगा, जिसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में भरणपोषण का प्रावधान निवारित करने के लिये तात्पर्यित है।
किसी भी पक्षकार द्वारा सिद्ध करने पर कि परिस्थितियों में परिवर्तन हो गया है, न्यायालय इन आदेशों को बदल भी सकता है।
न्यायालय का स्वविवेक-प्रार्थी के भरण-पोषण की राशि निर्धारित करना न्यायालय के स्वविवेक पर है, और यह हर मामले के अपने-अपने तथ्यों के आधार पर निर्धारित की जाती है।10 यह ध्यान देने की बात है कि अन्तरिम भरण-पोषण के सम्बन्ध में पक्षकारों का आचरण महत्वहीन है।11 अंग्रेजी न्यायालयों की प्रथा को ध्यान में रखते हये कुछ न्यायालयों ने कहा है कि अन्तरिम भरण-पोषण की रकम प्रतिपक्षी की आय का पांचवा भाग होगा। परन्तु यह कोई कानूनी नियम नहीं है और इसका पालन करना अनिवार्य नहीं है।12 जम्मू
1. सरोज देवी बनाम अशोक कुमार, 1988 राज० 84.
2. 1988 पं० और ह081.
3. 1992 बम्बई 493.
4. कृष्णा बनाम पदमा, 1968 मैसूर 226.
5. 1989 दिल्ली 10.
6 वी० ऊषा रानी बनाम के० एल० एन० राव, 2000 पंजाब एवं हरियाणा 371.
7. देखें; उत्पल कुमार बनाम मंजुला, 1989 कल० 80.
8. चनमुनिया बनाम वीरेन्द्र कुमार सिंह कुशवाहा, 2011 विधि निर्णय एवं सामयिकी 50 (एस० सी०).
9. देवकी बनाम पुरुषोत्तम, 1973 राजस्थान 2; अनुराधा बनाम सन्तोष, 1976 दिल्ली 246.
10.केशव राम बनाम निर्मला, 1972 गुजरात 174; जमनादास बनाम सलिबू, 1975 हि०प्र० 18; प्राप्ति बनाम
रवीन्द्र, 1979 इला० 29; दिनेश बनाम ऊषा, 1979 बम्बई 173.
11. सशीला बनाम धनी, 1965 हिमांचल प्रदेश 12.
12 दिनेश बनाम ऊषा, 1973; बम्बई 173; धीरजबेन बनाम रमेश, 1983 गुज० 213: लता बनाम सिविल जज, 1993 इला० 1333; विनोद बनाम ऊषा, 1993 इला० 160.
और कश्मीर उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि आय के पांचवे भाग का नियम न ही औचित्य पूर्ण है और न ही विवेकपूर्ण।। परन्तु कुछ न्यायालयों ने इसे माना है।
कृष्णन बनाम थेलाम्बल में एक रोचक प्रश्न न्यायालय के समक्ष आया। न्यायालय द्वारा पत्नी के पक्ष में पास किये गये भरण-पोषण के आदेश की अवहेलना हेतु पति ने अपनी विवाह की अकृतता की याचिका प्रत्याहत कर ली। न्यायालय ने कहा कि पति द्वारा याचिका प्रत्याहत करने पर भी धारा 24 में ऐसा कोई उपबन्ध नहीं है कि जिसके अन्तर्गत न्यायालय द्वारा भरण-पोषण और कार्यवाही के व्यय का पारित किया हआ आदेश समाप्त हो जाये। यदि पति पत्नी को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के लिये बाध्य करता है।
और न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि पत्नी के भरण-पोषण के लिये पति व्यय दे तो उसे याचिका प्रत्याहत नहीं करने दी जायेगी। अन्यथा यह पत्नी का परिपीडन होगा क्योंकि कुछ व्यय तो वह उठा ही चुकी है। पति द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका वापिस लेने पर भी न्यायालय को उस तिथि तक के लिये वादकालीन भरण-पोषण की आज्ञा पारित करने का अधिकार है।
मैसूर उच्च न्यायालय के अनुसार याचिका खारिज होने तक की तारीख तक अन्तरिम भरण-पोषण का आदेश जारी रहता है और प्रतिपक्षी उस तिथि तक भरण-पोषण प्रार्थी को देने के लिये बाध्य है। अर्जी के खारिज होने के पश्चात् अन्तरिम भरण-पोषण के लिये प्रार्थना-पत्र नहीं दिया जा सकता है।
यह भी हो सकता है कि न्यायालय के आदेश के होते हुये भी कोई भी पक्षकार भरण-पोषण की राशि का भुगतान करने से इन्कार कर दे। ऐसी स्थिति में आदेश की अवहेलना करने वाला यदि प्रतिपक्षी है तो न्यायालय उसकी प्रतिरक्षा समाप्त कर सकता है और यदि वह याचिकाकार है तो न्यायालय उसकी याचिका की कार्यवाही को रोक सकता है। यदि भरण-पोषण का प्रश्न अपील में उठे तो न्यायालय उसकी अपील की कार्यवाही को रोक सकता है। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या भरण-पोषण की राशि की अदायगी कार्यवाही रोकने की तिथि तक ही दी जा सकती है। जयरानी बनाम ओम प्रकाश में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक दिया है। इस लेखक का निवेदन है कि कार्यवाही को रोकने का तात्पर्य यह नहीं है कि वैवाहिक अनुतोष की कार्यवाही समाप्त हो जाती है, कार्यवाही तो याचिका के खारिज करने पर याचिका में याचिकाकार के पक्ष में डिक्री पास करने की तारीख तक न्यायालय में लम्बित रहती है, अत: वादकालीन भरण-पोषण की राशि उस तिथि तक प्रार्थी को दी जा सकती है।
वीरेन्द्र बनाम अरुण10 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि वह न्यायालय का अवमान भी है। यदि प्रतिपक्षी सरकारी मुलजिम है तो भारत सरकार द्वारा भी भरण-पोषण की आज्ञा मनवायी जा सकती है।
1. राकेश बनाम विनोद, 1982 ज० और क० 95.
2. मुकुम बनाम अजीज, 1958 राज० 322; प्रसन्न बनाम सुरेश्वरी, 1969 उड़ीसा 12; सुशीला बनाम धनीराम, 1965 हिमा० 12.
3. (1969) 1 मद्रास जर्नल 328.
4. भंवर बनाम कमला, 1983 राज० 229.
5. मुनिरत्तन बनाम शन्तम्मा, 1971 मैसूर 253; देवकी बनाम पुरुषोत्तम, 1973 राजस्थान 2; अमरीक सिंह बनाम नरिन्द्र, 1979 पं० और ह0211; सोहन बनाम कमलेश, 1984 पं० और ह० 335.
6. चित्रलेखा बनाम रणजीत, 1977 दिल्ली 176.
7. मल्कान बनाम कृष्ण कुमार, 1961 पं0 42; अनिता बनाम विरेन्द्र, 1962 कल० 88; भूनेश्वर बनाम दिल्ली द्रोपदी, 1963 मध्य० 259; नायडू बनाम शन्तम्मा, 1971 मैसूर 25; अनुरुद्ध बनाम सन्तोष, 1976 14 246; त्रिलोचन बनाम महेन्द्र, 1963 पं0249: विनायक बनाम कमला, 1987 उड़ीसा 167; दशरथ सरोज, 1989 मध्य प्रदेश 242.
8. राम बनाम जनक, 1972 क० लॉ ज० 704; राम बनाम द्रोपदी, 1983 दिल्ली 346.
9. 1984 दिल्ली 301.
10. 1987 दिल्ली 120.
प्रतिपक्षी की वादकालीन भरण-पोषण की याचिका सुने बिना उसके विरुद्ध एक पक्षीय डिक्री पास करना उचित नहीं है और वैसी डिक्री अमान्य और शून्य होगी। परन्तु याचिका पर निर्णय शीघ्रातिशीघ्र लेना चाहिये।
प्रार्थना-पत्र दायर करने का समय-न्यायालय के लिए यह कोई बाध्यता नहीं है कि धारा 23 (2) के अन्तर्गत मेल-मिलाप की कार्यवाही होने से पूर्व वह धारा 24 के अन्तर्गत भरण-पोषण की डिक्री पारित नहीं कर सकता। सत्य तो यह है कि न्यायालय की धारा 24 के अन्तर्गत अर्जी पेश होने पर तुरन्त उस पर कार्यवाही कर देनी चाहिये।
अन्तरिम भरण-पोषण के लिये प्रार्थना-पत्र न्यायिक कार्यवाही के दौरान कभी भी दिया जा सकता है। कार्यवाही आरम्भ होने के दिन से लेकर कार्यवाही के अन्तिम दिन तक। यदि प्रार्थी याचिकाकार है तो वह याचिका के साथ प्रार्थना-पत्र दे सकता या और यदि वह प्रतिपक्षी है तो उस दिन जब से उसे याचिका के समन मिले हैं। याचिका के मंजूर या खारिज होने के दिन तक का प्रार्थना पत्र दिया जा सकता है, यद्यपि विवेकपूर्ण बात यह है कि उसे प्रार्थना-पत्र जितनी जल्दी हो सके, दे देना चाहिये।
जहाँ पत्नी प्रतिपक्षी है उसकी प्रार्थना पर अन्तरिम भरण-पोषण उसके द्वारा लिखित कथन (Written statement) देने से पूर्व दिया जा सकता है और यह शर्त नहीं लगाई जा सकती है कि वह पहले लिखित कथन दे। छगनलाल बनाम शकीला में राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि अन्तरिम भरण-पोषण के प्रार्थना-पत्र को यथा सम्भव शीघ्रता से निर्णीत करना चाहिये। याचिका के फैसले तक उसे निलम्बित रखना उचित नहीं है। याचिका के निर्णय के पश्चात् प्रार्थना-पत्र पर फैसला देना उचित नहीं है। उस स्थिति में भी जहाँ विवाह को नकारा जाता है अन्तरिम भरण-पोषण के प्रार्थना-पत्र पर निर्णय देना आवश्यक है। एकतरफा कार्यवाही को हटाने के लिये की गई कार्यवाही में भी प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है।
भरण-पोषण के लिये प्रार्थना-पत्र अपील या पुनरीक्षण (Revision) के दौरान भी दिया जा सकता है।
अन्तरिम भरण-पोषण का प्रार्थना-पत्र-उच्च न्यायालयों के नियमों में यह बताया गया है कि अन्तरिम भरण-पोषण के प्रार्थना-पत्र को किस भाँति लिखना है। यह प्रार्थना-पत्र उसी न्यायालय में देना होगा जहां वैवाहिक अनुतोष की याचिका दी गई है। प्रार्थना-पत्र में प्रार्थी को अपनी आय, प्रतिपक्षी की आय, सम्पत्ति का ब्यौरा, आय के स्त्रोत, आश्रितों के नाम, उनकी आय और पक्षकारों से उनकी नातेदारी देना चाहिये। प्रार्थना-पत्र के साथ हलफनामा भी होना चाहिये।
मुख्य प्रश्न है प्रार्थी की आर्थिक स्थिति-न्यायालय के समक्ष अन्तरिम भरण-पोषण के प्रार्थना-पत्र पर निर्णय देने के लिये केवल एक बात है-क्या प्रार्थी के पास अपने भरण-पोषण के लिये पर्याप्त आय नहीं है? यदि नहीं है, तो न्यायालय को भरण-पोषण की रकम निर्धारित करनी चाहिये।10 पत्नी को पतिगृह में जाने के लिये बाध्य करने के लिये अन्तरिम भरण-पोषण के प्रार्थना-पत्र को खारिज या निलम्बित नहीं रखा जा सकता है।
1. मीना बनाम प्रकाश, 1983 बम्बई 409.
2. इन्द्रा बनाम शैलेन्द्र, 1992 मध्य प्र० 72.
3. दिलीप बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1983 बम्बई 128.
4. लतिका बनाम निर्मला, 1968 कल० 68.
5. 1975 राज० 8.
6. मिथिल बनाम रामन, 1976 मद्रास 260; अमरीक सिंह बनाम नरेन्द्र, 1979 पंजाब और हरियाणा 211.
7 आरती बनाम कॅवरपाल, 1977 दिल्ली 76%; सुरेन्द्र बनाम कमलेश, 1974 इलाहाबाद 110.
8. हेमराज बनाम लीला, 1989 बम्बई 146; विनोद बनाम ऊषा, 1993 बम्बई 160.
9. शोभना बनाम अमरकान्त, 1959 कल० 455; तरलोचन बनाम मोहिन्दर, 1953 पंजाब 249; चित्रा बनामध्रव, 1988 कल० 98; श्यामा बनाम आशिम, 1988 कल० 123.
10 टारका दास बनाम भानूबन, 1986 गुजरात 8; हेमा बनाम लक्ष्मण, 1986 केरल 130
11. सीत बनाम गरगज, 1989 पंजाब और हरियाणा 223; सर्बजीत सिंह बनाम चरणजीत सिंह, 1997 पंजाब और हरियाणा 66.
बादकालीन भरण पोषण की तिथि-न्यायालयों के बीच इस बारे में मतभेद है कि वादकालीन भरणा व कोडिको वह किसी तिथि से पारित कर सकता है विवाद यह है कि क्या वैसी डिक्री वैवाहिक अशोर की याचिका को सारीख से दी जा सकती है, चाहे वादकालीन भरण-पोषण की अर्जी कभी भी दी गई को भी बह कि सह भादकालीन भरण पोषण की अर्जी की तिथि से ही दी जा सकती है। कुछ न्यायालयों ने यह मत मला किया है कि यह राशि जवाब दावे की तिथि या विवाद्यक की तिथि से निर्धारित की जा सकती है बाद कालीन भरण-पोषण को अजी की कोई भी तिथि हो। जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने यह निर्णय दिया है कि न्यायालय वाद पत्र दायर होने की तिथि से वादकालीन भरण-पोषण की राशि निधारित कर सकता है परन्तु यह आवश्यक है कि उस तिथि से वादकालीन भरण-पोषण मांगने का पार्थना-पत्रपषित कर दिया गया हो, अन्यथा न्यायालय यह राशि प्रार्थना-पत्र की तिथि से निर्धारित करेगा। जब तक कि विलम्ब का कोई युक्तियुक्त कारण न हो। कुछ न्यायालयों के अनुसार वादकालीन भरण-पोषण को राशि भएकालीन भरण-पोषण की अर्जी की तिथि से देनी चाहिये।
कार्यवाही को रोकना और प्रतिरक्षा को रद्द करना-कभी ऐसा भी होता है कि भरण-पोषण की डिको की अवहेलना जानबूझकर की जाती है। ऐसी स्थिति में यदि अवहेलना करने वाला पक्ष वादी है तो न्यायालय बाद में कार्यवाही रोक सकता है। यदि वह पक्ष प्रतिवादी है तो उसकी प्रतिरक्षा को रद्द किया जा सकता है |
विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम 2001 ने धारा 24 में परन्तुक (proviso) जोड़कर कहा है कि भरण-पोषण का फैसला पति या पत्नी तो समन की तामीली होने के पश्चात् 60 दिन के भीतर साधारण हालात में होना चाहिये।
वाद व्यय एवं अन्तरिम भरण-पोषण का दावा-हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अधीन भुगतान केवल याचिका के लम्बित रहने के दौरान अन्तरिम अवधि तक के लिये ही होता है।
अवयस्क पुत्री को भरण-पोषण-दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में इस अनुतोष को पुर:स्थापित करने का उद्देश्य विवाहित महिला या अवयस्क बच्चों के जीवन को प्रभावित करने के लिये किसी आवारागर्दी को रोकना है। यह महिला को पति के विरुद्ध प्रतिशोध लेने के लिये हथियार के रूप में वाद दाखिल करने का
अधिकार प्रदान नहीं करता है। यदि व्यक्ति असफल रहता है, तो वह साधारण कारावास के लिये दायी है। किन्तु यदि वह इस धारा के अधिनियमित करने की भावना को पूरा करने में असफल हो। न्यायालय की सदैव अनकम्मा की भावना या प्रवृति द्वारा मार्गदर्शित नहीं होना चाहिये। उसे पति को भुगतान करने की क्षमता पर भी ध्यान देना चाहिये। वर्तमान मामले में आवेदक, पति दोषी नहीं है बल्कि स्वयं पत्नी दोषी है। पुत्री उसके कारण व्यथित हुई है क्योंकि उसने किसी वैध कारण या समुचित हेतुक के बिना अपने पति के घर का अभित्याग किया है। अतः इस आवेदक को आवेदन की तिथि से भारित करना अत्यधिक अयुक्तियुक्त होगा। अभिनिधारित, भरण-पोषण का निर्धारण करते समय भुगतान करने वाले की क्षमता पर भी विचार किया जाना।
1. लतिका बनाम निर्मल, 1968 कल 68; अंजुला बनाम विमल, 1981 इला० 178; हेमा बनाम 1986 केरल 130.
2. नेहरू बनाम नेहरू, 1982 जम्मू और कश्मीर 98 (पूर्णपीठ).
3. भवर बनाम कमला, 1983 राज० 231: नरेन्द्र बनाम स्वराज, 1982 आन्ध्र प्रदश । अशोक, 1988 राज.84; लक्ष्मी बनाम कामा, 1992 उड़ीसा 58.
4. त्रिलोचन बनाम मोहिन्द्र, 1963 40249: मंगलम बनाम वेलायाधन, 1993 करल 1 अनुपमा, 1993 बम्बई 232: घासीराम बनाम अरुण 1994 उड़ीसा 15.
5. सुखन्द्र प्रसाद मिश्रा बनाम कटम्ब न्यायालय, इलाहाबाद एवं एक अन्य, Z मायका 394 और भी देखें: 2002 जे० टी० (7) एस० सी० 63.
6. इस्लामुद्दीन बनाम उ० प्र० राज्य एवं अन्य, 2001 विधि निर्णय एव | साम्यिका 608 (इलाक
लख० पीठ).
भरण-पोषण की स्वीकृति-यदि भरण-पोषण की स्वीकृति पूर्णतया वैध और न्यायोचित है तो उसकी बकाया धनराशि का भुगतान किश्तों में करने का निर्देश दिया जा सकता है।
भरण-पोषण भत्ता-सामान्यतः आदेश की तिथि से-लेकिन आवेदन की तिथि से भी संदेय, जब विशेष कारण अभिलिखित हों-दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 (2) की भाषा के परीक्षण से स्पष्ट रूप से यह प्रतीत होता है कि सामान्य परिस्थितियों में भरण-पोषण आदेश की तिथि से प्रदान किया जाना चाहिये। केवल असाधारण परिस्थितियों में इसे भरण-पोषण के लिये आवेदन की तिथि से भुगतान किये जाने का आदेश दिया जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ऐसी परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिये, जो न्यायालय को आवेदन की तिथि से उसे अनुज्ञात करने के लिये औचित्य साबित करे। उपधारा (2) की भाषा से कोई अन्य अनुमान अनुज्ञेय नहीं है। ऐसी एक असाधारण परिस्थिति विलम्बकारी युक्ति हो सकती है, जिसे पति द्वारा कार्यवाही के निस्तारण में अंगीकार किया जाये। अन्य स्थिति उसकी पत्नी के विरुद्ध की गयी अवर्णित क्रूरता हो सकती है। ऐसा करने के लिये कोई व्यापक आधार विनिर्मित नहीं किया जा सकता। अभिनिर्धारित, आवेदन की तिथि से भरण-पोषण भत्ता तब प्रदान किया जाता है, जब इसके लिये उचित एवं विशेष कारण दिया गया हो।
वादकालीन भरण-पोषण एवं कार्यवाहियों के व्यय का आदेश-के विरुद्ध अपील-पोषणीयता-कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम की धारा 19 की उपधारा (1) तथा उपधारा (5) का संयुक्त अध्ययन हमें यह स्पष्ट कर देता है कि उच्च न्यायालय में केवल एक ही अपील होगी, कि किसी कुटुम्ब न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या डिक्री से कोई अपील या पुनरीक्षण, सिवाय उसके जैसा उपधारा (1) में उपबन्धित है, नहीं दाखिल होगा और आगे कि किसी ऐसे निर्णय या आदेश के विरुद्ध कोई अपील दाखिल नहीं होगी जो अतवर्ती है। यह नहीं कहा जा सकता है कि विधायिका ने अधिनियम के अधिनियमन के उद्देश्य के विपरीत अधिनियम की धारा 28 की अकृत करने वाले हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अन्तर्गत पारित आदेश के विरुद्ध वर्ष 1984 में अपीलीय फोरम का निर्माण किया है जैसा कि विधेयक में कथन किया गया है।
अपत्यों के लिये भरण-पोषण
क्या धारा 24 के अन्तर्गत याचिका देने पर न्यायालय अपत्यों के भरण-पोषण के लिये डिक्री पारित नहीं कर सकता? क्या यह आवश्यक है कि धारा 26 के अन्तर्गत पृथक याचिका दाखिल की जाये? पटना, जम्म और कश्मीर और इलाहाबाद उच्च न्यायालयों ने मत व्यक्त किया है। धारा 24 के अन्तर्गत वादकालीन भरणपोषण की डिक्रियां पति या पत्नी के पक्ष में ही पारित हो सकती हैं, अपत्यों के पक्ष में नहीं इसके विपरीत दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश, पजाब और हरियाणा , कर्नाटक और उड़ीसा उच्च न्यायालयों ने इसके विपरीत मत व्यक्त किया। इन न्यायालयों के अनुसार धारा 24 और धारा 26 लाभकारी उपबन्ध है। जब अपत्य माता के पास रह रहे हों, तो माता के लिये ही भरण-पोषण की रकम निर्धारित करना और अपत्यों के भरण-पोषण की अवहेलना करना औचित्यपूर्ण नहीं है। बात तथ्य की है, प्रक्रिया की नहीं। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि
1. देवकीनन्दन पाण्डेय बनाम श्रीमती मीना पाण्डेय, 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 612 (इला).
2. समयदीन बनाम उ० प्र० राज्य एवं अन्य, 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 601 (इला०).
3. रविसरन प्रसाद उर्फ किशोर बनाम श्रीमती रश्मि सिंह, 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 559 (इला०).
4. बंकिम बनाम अंजली, 1972 पटना 80; पूरन बनाम कमला, 1980 ज० और क० 53; श्वान बनाम जैना, 1982 इ० 194.
5. दामोदर बनाम विमला, 1984 राजधानी लॉ रि० 180; कटमान्ची बनाम कटमान्ची, (1974) 2 आन्ध्र वी० नो० 359: नरेन्द्र कुमार बनाम सरोज, 1982 आन्ध्र 100; थिम्मप्पा बनाम नाग वेणी, 1976 कर्ना० 215. ऊषा बनाम सुधीर, 1975 हिन्दू ला रि० 1; महेन्द्र बनाम स्नेहलता, 1983 उड़ीसा 74 परन्तु देखें, विपरीत मत के लिये पुरुषोत्तम बनाम पुष्पा, 1983 उड़ीसा 270.
अपत्यों के वादकालीन भरण-पोषण की याचिका धारा 24 के अन्तर्गत है या धारा 26 के अन्तर्गत है। यदि अपत्यों भरण-पोषण की मांग की गई है तो न्यायालयों को न केवल अधिकारिता है बल्कि कर्तव्य भी है कि अपत्यों के भरण-पोषण की राशि निर्धारित करे। अपत्यों के भरण-पोषण के पृथक प्रार्थना-पत्र न होने पर भी न्यायालय उनके भरण-पोषण की राशि निर्धारित कर सकता है।
जहाँ माता-पिता दोनों उपार्जन करते हैं वहाँ अपत्यों के भरण-पोषण की दोनों की बाध्यता बनती है। भरण-पोषण दोनों अपनी आय के अनुपात (proportion) अनुसार देंगे।
स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका (LLB Study Material)
पति या पत्नी किसी के भी प्रार्थना-पत्र पर न्यायालय स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका की डिक्री निम्न में से किसी भी स्थिति में पारित कर सकता है
(क) याचिकायें डिक्री पास करते समय,या
(ख) डिक्री पारित करने के पश्चात् किसी भी समय किसी भी पक्ष के प्रार्थना-पत्र पर।
यदि याचिका खारिज हो जाती है तो फिर स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका के आदेश पारित नहीं किये जा सकते हैं, क्योंकि याचिका के खारिज हो जाने के पश्चात् न्यायालय को कोई अधिकारिता नहीं रहती है। इसी भांति यदि कार्यवाही पक्षकारों के समझौते के कारण समाप्त होती है और उस समझौते के आधार पर कोई डिक्री पास नहीं की जाती है, और कार्यवाही खारिज कर दी जाती है तो फिर न्यायालय को स्थाई भरणपोषण और निर्वाहिका के आदेश पारित करने की अधिकारिता नहीं है।
स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका के प्रार्थना-पत्र का आधार यह है कि प्रार्थी के पास पर्याप्त साधन नहीं है। यदि किसी पक्षकार के पास पर्याप्त साधन नहीं है तो न्यायालय स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका का आदेश पारित कर सकता है, यह बात तथ्यहीन है कि पक्षकार पढ़ी-लिखी (या पढ़ा-लिखा) और योग्य है |
शून्य और शून्यकरणीय विवाह की पत्नी या पति को भरण-पोषण और निर्वाहिका पाने का अधिकार है धारा 25 के अन्तर्गत ‘पति’ और ‘पत्नी’ शब्दों का अर्थ है, न्यायिक कार्यवाही के वे पक्षकार जिनके बीच विवाह का अनुष्ठान सम्पन्न हुआ है। धारा 25 के लिये विवाह के विघटन या विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित होने पर भी वे व्यक्ति ‘पति’ और ‘पत्नी’ ही कहलायेंगे, और इस स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका की मांग कर सकते हैं।
भरण-पोषण और निर्वाहिका की राशि निर्धारित करते समय निम्न बातों को ध्यान रखना न्यायालय का कर्तव्य है
(1) दोनों पक्षकारों की आय और सम्पत्ति,
(2) पक्षकारों के आचरण, और
(3) अन्य कोई विशेष तथ्य या परिस्थिति।
1. मनोज बनाम लीमा, 1987 कल० 230; दामोदर बनाम मीरा,, 1987 केरल 74.
2. पदम्जा शर्मा बनाम रललाल शर्मा, 2000 सु० को० 1398.
3. शान्ता राम बनाम मालती, 1964 बम्बई 83 हरी बनाम लीला. 1961 गुज० 202; सुषमा बनाम 1984 दि.1
4. विद्या बनाम पार्वती, 1967 उड़ीसा 102.
5. कृष्णा बनाम पदमा, 1968 मैसूर 226.
6. स्वामी नारायण बनाम जयलक्ष्मी. 1975 मद्रास 196. गोविन्द आनन्दी, 1970 गीता, 1977 दिल्ली 124
7. रत्नप्रभा बनाम द्रायास्वामी, 1982 कर्ना० 170.
उपबन्ध-धारा 25 एक सामर्थ्यकारी उपबन्ध है। यह धारा न्यायालय को वैवाहिक मामले में के लिये सशक्त करती है कि वह आवेदन करने वाले पक्षकार के तथ्यों परिस्थितियों पर विचार करे निर्णीत करे कि क्या स्थायी निर्वाहिका या भरण-पोषण मंजूर किया जाये या नहीं।
स्थाई जीवन निर्वाह भत्ता-सामाजिक प्रास्थिति, पक्षकारों की स्थिति, पति-पत्नी के जी की रीति तथा अन्य सहायक पहलओं के विचारगत स्थाई जीवन निर्वाह भत्ता का मंजूर किया जा सकता सम्पर्ण परिस्थितियों तथा सामाजिक पृष्ठभूमि, जिससे वर्तमान पक्षकार सम्बन्धित हैं और पति के कारबार दृष्टिगत जीवन निर्वाह भत्ता को न्यायालय द्वारा निर्धारित एकमुश्त रकम से संदाय पर निर्धारित किया गया |
स्थाई जीवन निर्वाह की धनराशि-पति ने मानसिक क्रूरता को साबित करके विवाह-विच्छेद के लिये मामले को निर्मित किया है। चूंकि डिक्री पारित की गयी है, इसलिये पत्नी अपने भरण-पोषण के लिये स्थाई जीवन निर्वाह के लिये हकदार है। यह अधिकथित किया जाता है कि स्थाई जीवन निर्वाह को प्रदान करते समय कोई गणितीय सन्नियम अंगीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि गणितीय यथा-तथ्यता नहीं हो सकता। यह पक्षकारों की प्रास्थिति, उनकी सामाजिक आवश्यकता, पति की वित्तीय क्षमता और अन्य आबद्धताआ पर आधारित होगा। स्थाई जीवन निर्वाह प्रदान करते समय, न्यायालय से इस तथ्य का उल्लेख करने की अपेक्षा की जाती है कि पत्नी के लिये निर्धारित भरण-पोषण की धनराशि ऐसी होनी चाहिये, जिससे वह उसकी प्रास्थिति और जीवन के ढंग पर विचार करते हये युक्तियुक्त आराम से रह सके, जिसका वह तब प्रयोग किया करती थी, जब वह अपने पति के साथ रहती थी। उसी समय, इस प्रकार निर्धारित धनराशि अधिक नहीं हो सकती या अन्य पक्षकार के जीवन की स्थिति को प्रभावित नहीं कर सकती।
दोनों पक्षकारों की आय और अन्य सम्पत्ति-भरण-पोषण और निर्वाहिका की राशि निर्धारित करते समय न्यायालय दोनों पक्षकारों की आय और अन्य सम्पत्ति को ध्यान में रखते हैं। पत्नी के पार्थना-पत्र पर न्यायालय पति की आर्थिक और सामाजिक प्रास्थिति का ध्यान रखते हैं, न कि उसके पिता को। सामान्यतया पत्नी उतनी धनराशि पाने की अधिकारिणी है जिसके द्वारा विवाह टूटने के पूर्व से जीवन स्तर को वह बनाये रख सकें पत्नी की स्वतन्त्र आय को भी भरण-पोषण की राशि निर्धारित करते समय देखना होगा। वेतन पाने वाले व्यक्ति का वह वेतन ही उसकी आय मानी जायेगी जो वह समस्त कटातियों के बाद घर ले जाता है। अत: बीमा की किस्तें, प्राविडेंट फंड का अभिदाय, वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण की राशि निकाल कर ही प्रतिपक्षी की आय निर्धारित की जायेगी। यह कटौतियां सद्भावपूर्ण (Bonafide) होनी चाहिये। न्यायालय को यह डिक्री पास करने की शक्ति है कि भरण-पोषण और निर्वाहिका की सकल राशि अथवा ऐसी मासिक या कालिक राशि दूसरा पक्षकार प्रार्थी को दे। अंग्रेजी प्रथा का अनुकरण करते हुये भारतीय न्यायालय ने कहा कि स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका की राशि पति की कुल आय की 1/3 भाग हो सकती है। कृष्णा बनाम पद्मा में पति की कुल आय 440/- रुपये थी। न्यायालय ने पत्नी के पक्ष में 120/- रुपये मासिक की डिक्री पारित की। यह ध्यान देने की बात है कि 1/3 का नियम न्यायालय के मार्गदर्शन के लिये है। न्यायालय को पूर्ण विवेक है कि वे चाहें तो इससे अधिक या कम राशि भी निर्धारित कर सकते हैं। शान्ती देवी बनाम राघव में राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि भरण-पोषण की राशि ऐसी होनी चाहिये कि प्रार्थी सम्मान और सुख से रह सके।
१. रमेशचन्द्र राम प्रतापजी डागा बनाम रामेश्वरी रमेशचन्द्र डागा, 2005 वी० एन० एस० 376 (एस० सी०).
2. विश्वनाथ अग्रवाल बनाम सविता विश्वनाथ अग्रवाल, 2013 विधि निर्णय एवं सामयिकी 37 (एस० सी०) (2012) 7 एस० सी० सी० 288 : ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 2585; के० श्रीनिवास राव बनाम डी० ए० दीपा, (2013) 5 एस० सी० सी० 226: ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 2164, यश्री बनाम यू० श्रीनिवास, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 415 : (2013) 2 एस० सी० सी०
4. सतवीर बनाम सुजाता, (1966) 70 कलकत्ता वीकली नोट्स 635.
5. दशरथ बनाम सरोज, 1939 मध्य प्रदेश 243.
6. सधमा बनाम सरोज, 1982 दिल्ली 176.
7. 1968 मैसूर 226.
8. 1986 राज० 13.
9. और देखें; विनोद बनाम कनक, 1990 बम्बई 120.
यदि पत्नी सुशिक्षित स्नातकोत्तर डॉक्टर है तो वह पति से भरण-पोषण पाने की अधिकारी नहीं होगी परन्तु पति अपनी सन्तान के लिये भरण पोषण देने के लिये बाध्य है।।
पक्षकारों का आचरण-यहा पर आचरण’ शब्द का प्रयोग वृहत् रूप में किया गया है। आचरण से तात्पर्य है-
(क) पक्षकारों का एक दूसरे के प्रति आचरण,
(ख) पक्षकारों का विवाह के प्रति आचरण, और
(ग) पक्षकारों का न्यायालय के प्रति आचरण।
एक समय था जब अंग्रेजी न्यायालयों का यह मत था कि वैवाहिक दुराचरण का दोषी पक्षकार, भरणपोषण और निर्वाहिका पाने का अधिकारी नहीं है। परन्तु अंग्रेजी न्यायालय इस दृष्टिकोण को छोड़ चुके हैं। और अब यह मान्य है कि प्रार्थी अपराधी पक्ष हैं और उसी के अपराध के कारण विवाह समाप्त हुआ है तो भी न्यायालय उसके पक्ष में भरण-पोषण और निर्वाहिका की आज्ञा पारित कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में हमारे देश में न्यायालयों का मत अभी पूर्णतया निश्चित नहीं हो पाया है। कुछ वैवाहिक अपराधों, जैसे जारकर्म के प्रति हम धर्मशास्त्रों का दृष्टिकोण अपना रहे हैं। केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि डिक्री पत्नी के जारकर्म के आधार पर पारित हुई है तो पत्नी भरण-पोषण नहीं पा सकती है। वैद्यलिंगम् न्यायाधीश का तर्क यह है- धारा 25 (3) के अन्तर्गत यदि डिक्री पारित होने के पश्चात पत्नी शीलभ्रष्टा हो जाती है तो पति के प्राथना-पत्र पर न्यायालय भरण-पोषण और निर्वाहिका की डिक्री को रद्द कर सकता है, भरण-पोषण प्रार्थना-पत्र की सुनवाई के समय पत्नी के जारकर्म की साक्ष्य की ओर न्यायालय को ध्यान देना होगा और न्यायालय उस आधार पर पत्नी को भरण-पोषण से वंचित कर सकता है। इस मुकदमें में यह कोई साक्ष्य नहीं थी कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के पश्चात् पत्नी शील-भ्रष्ट थी। सरदारी लाल बनाम विरलो में कश्मीर उच्च न्यायालय और शचिन्द्र बनाम बनमाला कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी यही मत लिया है। इससे कुछ भिन्न मत कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अमरकान्त बनाम सोवना में लिया है। न्यायालय ने कहा कि यदि पत्नी ने जारकर्म में रहना छोड़ दिया है तो वह क्षुधामार भरण-पोषण पा सकती है। धर्मशास्त्रों ने भी यही कहा है। परन्तु इस लेखक का निवेदन है, क्या यह मत वर्तमान समाज-व्यवस्था और सामाजिक धारणाओं के अनुसार है? क्या न्यायाधीश भट्ट का यह कहना औचित्यपूर्ण होगा कि यदि स्त्री का विवाह उसके जारकर्म के कारण विघटित हुआ है तो यदि उसे अपनी अनैतिकता की कमाई पर जीने दो यह कहना कि एक बार स्त्री ने दुराचरण किया है तो वह सदैव ही दुराचरण करेगी, मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। यदि भरण-पोषण और निर्वाहिका की आज्ञा के समय पत्नी शीलभ्रष्ट नहीं है तो भरण-पोषण की आज्ञा उसके पक्ष में पारित की जा सकती है। यदि ऐसा नहीं होगा तो सम्भावना यह है कि वह चरित्रभ्रष्टा का जीवन व्यतीत करने के लिये बाध्य होगी। जारकर्म को छोड़ अन्य वैवाहिक अपराधों के सम्बन्ध में न्यायालयों ने कुछ उदारता बरती है। जिस आधार पर पति की पत्नी के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण की डिक्री मिली है, उस आधार पर पत्नी की निर्वाहिका की अर्जी खारिज नहीं की जा सकती है। उमेश बनाम रामेश्वरी में न्यायालय ने मत व्यक्त किया है। इस आधार पर कि पत्नी के अभित्यजन के कारण विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित की गई थी उसे भरण-पोषण और निर्वाहिका से वंचित किया जा सकता है। यह अवश्य है कि भरण-पोषण की राशि निर्धारित करते समय न्यायालय उसके इस आचरण को ध्यान में रख सकता है। सुरेन्द्र बनाम फूलवन्ती में पति ने पत्नी के अभित्यजन के आधार पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की। पत्नी ब्रह्म कुमारी हो गई और आजन्मा ब्रह्मचर्यव्रत पालने का प्रण किया। पत्नी ने भरण-पोषण का
1.डॉ लोकेश्वरी बनाम डॉ० श्रीनिवास राव 2000 आंध्र प्र० 451.
2. राजागोपाल बनाम राजम्मा, (1966) केरल लॉ टाइम्स 891.
3. 1970 जम्मू एण्ड कश्मीर 150.
4. 1970 कलकत्ता 575, और देखें; रघुनाथ बनाम रुईवाला राव, 2000 (1972) 1 कलकत्ता वा नोटस 717
5. 1960 कलकत्ता 438 और देखें, वरलक्ष्मी बनाम हनुमन्थ, 1978 आन्ध्र प्रदेश 6.
6. देखें, वरलक्ष्मी बनाम हनुमन्थ, 1978 आन्ध्र प्रदेश 6.
7. 1982 राज० 83.
8. (1969) इलाहाबाद लॉ जर्नल 150.
प्रार्थनापत्र दिया। पति की आय 1500 रुपये मासिक थी। न्यायालय ने पत्नी को 550 रुपये मासिक देने का आदेश पारित किया। अपील में उच्च न्यायालय के समक्ष यह तर्क प्रेषित किया गया कि पत्नी ही विवाह तोड़ने की दोषी है अत: वह भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी नहीं है। न्यायालय ने कहा कि पाली परिस्थितियों का आखेट रही है। कोई भी पक्षकार दोषी नहीं है यद्यपि विवाह पत्नी के कारण टूटा है। एक हिन्दू दृष्टिकोण है और न्यायालय का मत सराहनीय है। एक कृत्य विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण के लिये वैवाहिक अपराध हो सकता है। परन्तु वही कृत्य भरण-पोषण के सम्बन्ध में दुराचरण नहीं कहलाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि आचरण अन्य विचाराधीन बातों में से एक है और उसे अत्यधिक महत्व नहीं देना चाहिये। प्रतीत यह होता है कि अब न्यायालयों का मत है कि पत्नी (या पति) इस कारण से स्थाई भरण-पोषण और निर्वाहिका पाने के अयोग्य नहीं है कि दोषिता आचरण जिसके कारण विवाह-विच्छेद हुआ उसके द्वारा किया गया था। यह दूसरी बात है कि भरण-पोषण की राशि निर्धारित करते समय न्यायालय इसे ध्यान में रखे । राजिन्द्र कौर बनाम अतिन्द्रजीत2 में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि पत्नी के पास भरण-पोषण के साधन नहीं हैं तो इसके शील-भ्रष्टा होने के आधार पर उसे भरण-पोषण से वंचित नहीं रखा जा सकता है।
पक्षकारों का न्यायालय के प्रति आचरण भी महत्वपूर्ण है। हो सकता है को कोई पक्षकार न्यायालय के साथ कपट करना चाहे, न्यायालय को भुलावे में डालने का प्रयत्न करे या कार्यवाही की प्रगति में रोड़े डाले। न्यायालय भरण-पोषण की डिक्री पारित करते समय ये सब बातें विचाराधीन रख सकता है।
अकृत विवाह-धारा 25 के अधीन पत्नी/स्त्री, जिसका विवाह अकृत घोषित कर दिया गया है, द्वारा स्थायी निर्वाहिका एवं भरण-पोषण का दावा वैध एवं पोषणीय है।
विशेष तथ्य और परिस्थितियां-धारा 25 के विशेष परिस्थितियों और तथ्यों को अभिव्यक्त रूप से नहीं कहा गया है। परन्तु न्यायालय को नि:सन्देह ही उन विशेष तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने का अधिकार है जो भरण-पोषण की समुचित राशि निर्धारित करने में सहायक होते है। उदाहरण लीजिये, प्रार्थी क्षय रोग से पीड़त है, अत: चिकित्सा के लिये उसे सामान्य से अधिक धनराशि चाहिये। न्यायालय इस विशेष तथ्य को ध्यान में रखकर भरण-पोषण की राशि निर्धारित कर सकते हैं जो सामान्य परिस्थिति में निधारित की गई धनराशि से अधिक होगी। दूसरी ओर प्रतिपक्षी यह कह सकता है कि उसके सात अपत्य हैं; वृद्ध मातापिता हैं, अविवाहित बहने हैं, उनका सबका भरण-पोषण वही करता है। इन विशेष तथ्यों को ध्यान में रखकर न्यायालय प्राथी के भरण-पोषण की राशि सामान्य से कम निर्धारित कर सकता है।
भरण-पोषण की राशि में फेर-फार-धारा 25 (2) के अन्तर्गत यदि न्यायालय का समाधान हो जाये कि उसके उपधारा (1) के अधीन आदेश देने के पश्चात् पक्षकारों में से किसी की परिस्थितियों में तबदीली हो गई है तो वह किसी भी पक्षकार के आवेदन पर, ऐसी रीति से जो न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हो. आदेश में फेर-फार कर सकेगा या उसे उपान्तरित अथवा विखण्डित कर सकेगा। उदाहरणार्थ; प्रार्थी यह कर सकता है कि बीमारी या किसी अन्य कारण से उसका व्यय बढ़ गया है, अतः भरण-पोषण की राशि बढा दी जाये। दसरा पक्षकार यह कह सकता है कि उसकी आय घटा दी जाये। वह यह भी कह सकता है कि प्रार्थी की पथक आय उसके भरण-पोषण के लिये अब पर्याप्त हो गई है (जैसे प्रार्थी को अच्छी नौकरी मिल गई हो) अत: भरण-पोषण के आदेश को विखण्डित (Rescind) कर दिया जाये।
वाद कालीन भरण-पोषण-पत्नी द्वारा स्वयं एवं दो पुत्रों के लिये वादकालीन भरण-पोषण के लिये आवेदन किया गया था, जब विवाह-विच्छेद की याचिका लम्बित थी। अभिनिर्धारित किया गया कि पत्नी विवाह-विच्छेद याचिका के लम्बित रहने के दौरान भी अपने लिये एवं अपने पुत्रों के लिये भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार है।
भरण-पोषण के आदेश का विखण्डन (Rescind)-धारा 25 (3) के अन्तर्गत, यदि न्यायालय का समाधान हो जाये कि पक्षकार ने उसके पक्ष में इस धारा के अधीन कोई आदेश किया है पुनर्विवाह कर लिया
1. उमेश बनाम रामेश्वरी, 1982 राज० 85; रामकिशान बनाम सावित्री, 1982 दिल्ली 458.
2. 1990 पं० और ह० 83.
3.रमेशचन्द्रराम प्रतापजी डागा बनाम रामेश्वरी रमेशचन्द्र डागा, 2005 वी० एन० एस० 376 (एस० । सी०).
4. रीतादत्ता बनाम शुभेन्दु दत्ता, 2006 वी० एन० एस० 49 (एस० सी०).
है, या यदि ऐसा पक्षकार पत्नी है और वह पतिव्रता नहीं रह गई है-यदि ऐसा पक्षकार पति है और उसने किसी स्त्री के साथ विवाह-वाह्य मैथुन किया है, तो वह आदेश को विखण्डित कर सकता है। भरण-पोषण और निर्वाहिका का आदेश निम्न किसी एक आधार पर विखण्डित किया जा सकता है
(क) भरण-पोषण और निर्वाहिका पाने वाले पक्ष ने पुनर्विवाह कर लिया है, या
(ख) वह (गली होने पर) पतिव्रता नहीं रही है, या उसने (पति होने पर) विवाह-वाह्य मैथुन किया है, या
(ग) किसी भी पक्षकार के मृत होने पर।।
एक तीसरी स्थिति भी है, जिसमें आदेश विखण्डित किया जा सकता है। भरण-पोषण के आदेश के पश्चात् यदि पक्षकार दाम्पत्य जीवन पुनः स्थापित कर लें, तो भरण-पोषण का आदेश विखण्डित हो जायेगा। लेखक का निवेदन है कि यह मत केवल न्यायिक पथक्करण या दाम्पत्य जीवन के प्रत्यास्थापन के सम्बन्ध में ही ठीक हो सकता है अन्यथा नहीं।
वैवाहिक अनुतोष की डिक्री के पश्चात् स्थाई भरण-पोषण की याचिका उसी न्यायालय में प्रषित हो सकती है जिसने डिक्री पारित की है अन्य में नहीं, चाहे उसे धारा 19 के अन्तर्गत अधिकारिता है। परन्तु पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भिन्न मत प्रतिपादित किया है ।।
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 25 एक सामर्थ्यकारी उपबन्ध है। यह धारा न्यायालय को वैवाहिक मामले में इस बात के लिये सशक्त करती है कि वह आवेदन करने वाले पक्षकार के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर विचार करे और यह निर्णीत करे कि क्या स्थायी निर्वाहिका या भरण-पोषण मंजूर किया जाये या नहीं। धारा 25 के अधीन पत्नी/स्त्री जिसका विवाह अकृत घोषित कर दिया गया था, द्वारा स्थायी निर्वाहिका एवं भरण-पोषण का दावा वैध एवं पोषणीय है। जहाँ डिक्री की मंजूरी द्वारा विवाह को अकृत एवं शून्य होने की घोषणा की जाती है वहाँ धारा 25 के अधीन स्थायी निर्वाहिका या भरण-पोषण अवार्ड करने वाला कोई भी आदेश असफल पक्षकार के पक्ष में पारित नहीं किया जा सकता
सन्तान की अभिरक्षा (LLB Study Material in Hindi)
दसरी अनुषंगी कार्यवाही सन्तान की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के सम्बन्ध में है। नि:सन्देह ही यह बहुत ही महत्वपूर्ण मामला है और न्यायालय के समक्ष एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है; क्योंकि यह माता-पिता से विलग सन्तान की समस्या के समाधान का प्रश्न है। कुछ वर्ष पूर्व कामन विधि-व्यवस्था वाले दशों में यह अनुषंगी मामला (Ancillary matter) समझा जाता था और माता-पिता के बीच एक विवाद के रूप में ही इसे माना जाता था। बालक भी इस कार्यवाही के पक्षकार हो सकते हैं। यह बात उस समय समझ के बाहर थी। इंग्लैंड में और अन्य देशों में अब इस दृष्टिकोण को छोड़ दिया गया है और अपत्यों को पक्षकार ही नहीं माना जाता है बल्कि उनकी समस्या के संतोषप्रद निपटारे के बिना न्यायालय को शक्ति है कि वह वैवाहिक अनुतोष की डिक्री को पारित न करे। भारत में हम अब भी बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जो विचारधारा इंग्लैण्ड में थी, वही अपनाये हुये हैं और स्थिति को परिवर्तित करने की ओर हमारा ध्यान ही
1. गुरदेव बनाम चन्नी, 1986 पं० और ह० 251.
2. बूसा बनाम बूसा, 1971 आन्ध्र प्रदेश 96.
3. सीताराम बनाम फली, 1972 राज0 317; मुनूस्वामी बनाम हमसा रानी, 1975 मद्रास 15; जगदीश बनाम भानमति, 1983 ब0 297.
4. दर्शन फेर बनाम मानेकसिंह, 1983 पं० और ह0 28.
5. रमेशचन्द्र राम प्रतापजी डागा बनाम रामेश्वरी रमेशचन्द्र डागा 2005 वी० एन० एस० 377 (एस० सी०); और भी देखें; नजीर अहमद बनाम सम्राट, ए० आई० आर० 1936 पी० सी० 253; मो० इकराम हुसैन बनाम उ० प्र० राज्य, ए० आई० आर० 1964 एस० सी०: यमनाबाई शनतराव आधव बनाम अनन्तराव शिवराम आधव, 1988 (1) ए० एल० आर० 530: राजकमार करवाल बनाम भारत स . आई० आर० 1991 एस० सी० 47; के० विमला बनाम के वीरास्वामी. 1991 (17) ए० एल० आर० 466 (एस० सी०); अम्बा योल्ला एम० सुब्बा रेड्डी बनाम पंदमम्मा, ए० आई० आर० 1997 19.
6. विस्तृत वर्णन के लिये देखें: इस लेखक का ग्रन्थ पेरेन्टल कन्ट्रोल, गार्डियनशिप एण्ड माइनर चिन्ड्रेन, अध्याय 27, पृष्ठ 312-321.
नहीं जा रहा है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा (जो सन्तान की अभिरक्षा इत्यादि से सम्बन्धित है) मैट्रीमोनियल काजेज ऐक्ट, 1950 की धारा 26 की शब्दश: नकल है।
धारा 26 के अन्तर्गत निम्न स्थितियों में न्यायालय के समक्ष अपत्यों (Children) की अभिरक्षा, भरणपोषण और सम्बन्धी प्रश्न निर्णय और आदेश के लिये आ सकते हैं
(क) वैवाहिक कार्यवाही के दौरान, अर्थात् याचिका प्रेषित होने की तिथि से लेकर डिक्री पारित होने की तिथि तक,
(ख) वैवाहिक कार्यवाही (वैवाहिक अनुतोष देते समय) में डिक्री पारित करते समय, और
(ग) डिको पारित करने के पश्चात् किसी भी समय इस स्थिति में प्रश्न न्यायालय के समक्ष निम्न दो रूपों में आ सकता है।
(1) जबकि वैवाहिक कार्यवाही में अपत्यों की अभिरक्षा की कोई कार्यवाही नहीं की गई थी, अतः अभिरक्षा इत्यादि के सम्बन्ध में बिल्कुल नई कार्यवाही, या
(2) जबकि वैवाहिक कार्यवाही में इस भांति का आदेश पारित किया जा चुका है, तो उस आदेश के प्रतिसंहत, निलम्बित या फेर-बदल के लिये प्रार्थना-पत्र।
विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 2001 में कहा गया है कि कोई भी अर्जी जो कि अपत्यों की पढ़ाई और भरण-पोषण से सम्बन्ध रखती हो वह साधारणतः प्रत्यर्थी को नोटिस की तामीली होने के 60 दिन के भीतर तय की जानी चाहिये।
ये आदेश सामान्यतः अपत्यों के बालिग होने पर समाप्त हो जाते हैं।
अंग्रेजी विधि में ऐसी डिक्री अब याचिका खारिज होने के पश्चात् भी दी जा सकती है। परन्तु हिन्दु विवाह अधिनियम के अन्तर्गत याचिका खारिज होने पर न्यायालय वैसी डिक्री पारित नहीं कर सकता है। सन्तान सम्बन्धी कोई आदेश न्यायालय तब ही दे सकता है जबकि उसे मुख्य याचिका में अधिकारिता हो।
हाल के कुछ निर्णयों में यह मत व्यक्त किया गया है भरण-पोषण की डिक्री न्यायालय याचिका के खारिज होने पर भी दे सकता है।
वेंकटा बनाम कमलाम्मा में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि धारा 26 के अन्तर्गत न्यायालय धर्मज और अधर्मज दोनों ही अपत्यों के सम्बन्ध में सभी प्रकार की डिक्री पारित कर सकता है |
अपत्यों के सम्बन्ध में अन्तरिम या स्थाई कोई भी आदेश अन्तिम नहीं होता है। किसी भी पक्षकार के प्रार्थना-पत्र पर न्यायालय किसी भी समय अपत्यों से सम्बन्धित किसी आदेश को प्रतिसंहृत या निलम्बित कर सकता है वह उसमें फेर-बदल भी कर सकता है। अपत्यों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के सम्बन्ध में न्यायालय को वृहत् शक्तियां और विवेक प्राप्त हैं। अपत्यों के बारे में पारित किये गये ओदशों और डिक्रियों पर रेस जुडिकेटा (res judicata) का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। यदि संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम के अन्र्तगत पत्नी का अभिरक्षा का प्रार्थना-पत्र इस आधार पर खारिज हो जाये कि वह जारकर्म में रह रही है तो यह डिक्री उसके द्वारा विवाह-विच्छेद की कार्यवाही के दौरान प्रेषित किये गये प्रार्थना-पत्र पर रेस जाडकेटा का काम नहीं करेगी। न्यायालय चाहे तो पत्नी के पक्ष में डिक्री प्रदान कर सकता है। वयस्क अपत्यों के सम्बन्ध में कोई डिक्री धारा 26 के अन्तर्गत नहीं पारित की जा सकती है।
यह एक मान्य नियम है कि अपत्यों के सम्बन्ध में किसी भी कार्यवाही में अपत्यों का कल्याण सर्वोपरि है, यद्यपि न्यायालय अन्य बातों जैसे अपत्य की आयु, लिंग उसकी अच्छा पर भी विचार कर सकता है।
1. मेट्रीमोनियल काजेज ऐक्ट, 1965 धारा 34.
2. शिला बनाम शिला, 1989 आन्ध्र प्र०8; सदानन्द बनाम सुलोचन, 1989 बम्बई 220; मोदीलाल बनाम मोदीलाल, 1991 बम्बई 44
3. 1982 आन्ध्र प्र०369.
4. तत्रैव.
5. खर वेंकटा बनाम मेरूगा, 1982 आन्ध्र प्रदेश 369.
6. करतार चन्द्र बनाम तारा देवी, 1982 बम्बई 15.
7.मदनलाल बनाम मीना, 1988 पंजाब और हरियाणा, 31; आयशा बनाम विजय, 1988 दिल्ली 149.
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