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LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Forth Part Notes

 

LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Forth Part Notes Study Material:- Bachelor of Law (LLB) 2nd Semester Year Wise Most Important Books Hindu Law Chapter 6 Vaivahik Anutosh Free Onine Notes Study Material in Hindi and English Language (PDF Download) this Post Available, LLB Chapter 6 is Most Important Topic for LLB Exam Question Papers for all University.

सकता है। लेकिन इसमें न्यायालय पर यह प्रतिबन्ध भी अधिरोपित किया गया है कि वह पक्षकारों के मध्य पक्षकारों की सुलह की सम्भावनाओं को सम्भव बनाने के लिए 6 माह की अवधि समाप्त होने के पूर्व ऐसे विवाह-विच्छेद को प्रदान न करे। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने अनिल कुमार जैन बनाम माया जैन के वाद में यह आज्ञा दी है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अधीन उच्चतम न्यायालय के सिवाय अन्य किसी भी न्यायालय को पारस्परिक सहमति पर विवाह-विच्छेर, की डिक्री के प्रदान किये जाने हेतु निर्धारित 6 माह की आइपक अवधि को त्यजित करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है।

समझौते द्वारा विवाह-विच्छेद (LLB Question Paper)

क्या समझौते या राजीनामे द्वारा विवाह-विच्छेद किया जा सकता है? सत्य तो यह है कि पारस्परिक सम्मति द्वारा विवाह-विच्छेद भी समझौते या राजीनामे द्वारा किया गया विवाह-विच्छेद ही है, परन्तु हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत धारा 13-क की औपचारिकतायें पूरी करनी होती हैं।

मुनीश बनाम अनासयम्मा उर्फ पार्वथी, के वाद में विवाह-विच्छेद जो कि आर्डर 23, रूल 3 सिविल प्रोसीजर कोड के अन्तर्गत अभिलिखित किया गया, मान्य नहीं माना गया, क्योंकि वह धारा 13 तथा हिन्दू विवाह अधिनियम के विरुद्ध जाता है।

जोगिन्द्र सिंह बनाम पुष्पा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने दाम्पत्य अधिकारों के पुन स्थापन की एक डिक्री पक्षकारों को रजामन्दी या समझौते से पास कर दी। पूर्ण पीठ के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या यह डिक्री मान्य है। पूर्णपीठ ने इस डिक्री को मान्य ठहराया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष शिवनाथ बनाम सुनीताई में पक्षकारों ने राजीनामें द्वारा विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित करने की प्रार्थना की। इस वाद में पति ने दाम्पत्य अधिकारों से प्रत्यावर्तन की याचना की थी और पत्नी ने विवाह-विच्छेद की। लम्बी मुकदमेबाजी के पश्चात् पक्षकारों ने यह राजीनामा किया कि पति पत्नी को 15,000 रुपये उसके दहेज और भरण-पोषण के एवज में देगा और वह विवाह-विच्छेद के लिये राजी है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राजीनामे के आधार पर डिक्री पारित की दी। अपूर्व बनाम मनीषी6 में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भिन्न मत प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार बिना किसी आधार पर केवल राजीनामें द्वारा विवाह-विच्छेद तथा अन्य किसी वैवाहिक अनुतोष की डिक्री नहीं पारित की जा सकती हैं। पारस्परिक सम्मति द्वारा भी विवाहविच्छेद की डिक्री धारा 13-क की औपचारिकताओं को पूर्ण किये बिना नहीं पारित की जा सकती है।

विवाह का असुधार्य विघटन-जहाँ यह पाया जाता है कि दारों के बीच विवाह असधार्य ढंग से विघटित हुआ है और व्यर्थ हो गया है, स्थिति की आवश्यकता व्यथा और कटुता को समाप्त करने के लिये विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा ऐसे विवाह के विघटन की मांग करती है। अधित्यजन का प्रश्न प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से निकाले जाने वाले अनुमान का मामला है और इन तथ्यों को उस प्रयोजन के सम्बन्ध में देखा जाना चाहिये, जिसे उन तथ्यों द्वारा या आचरण तथा आशय की अभिव्यक्ति, पथक्करण के वास्तविक कार्य के पूर्ववर्ती और पाश्चात्वर्ती दोनों द्वारा प्रकट किया जाता है।

1. अनिरुद्ध कुमार द्विवेदी एवं एक अन्य बनाम प्रधान न्यायाधीश कुटुम्ब न्यायालय एवं एक अन्य, 2012 (3) ए० डब्ल्यू ० सी० 2264 (इला०).

2. 2009 (10) एस० सी०सी० 415:

3.2001 कनाटक 355.

4. 1969 पं० और ह० 397.

5. 1989 कलकत्ता 84.

6. 1989 कलकत्ता 115.

7. रेनोल्ट बनाम राजरानी, 1982 सु० को 1291 के निर्णय का अनुगमन किया गया है।

8. दुर्गा प्रसन्न त्रिपाठी बनाम अरुन्धती त्रिपाठी, 2006 बी० एन० एस० 159 (एस० सी०) और भी देखें अजना किशोर बनाम पुनीत किशोर, 2002 (46) ए० एल० आर० 238(एस० सी०), श्रीमती स्वाता वर्मा बनाम राजन वर्मा, 2004 (1) एस० सी० सी० 123.

9., उपरोक्त सनत कुमार अग्रवाल बनाम नन्दिनी अग्रवाल. 1990 ए० एल० आर० 182 (एस० साल एल. आर०196 (एस. टार अल्वार बनाम अध्यात्म भटार श्रीदेवी. 2002 (467 ए० एल० आर० सी०). 1० एन० कामेश्वर राव बनाम जी० जबीली, 2002 (46) ए० एल० आर० 383.

जहां पति एवं पत्नी 9 वर्ष से अधिक समय से पृथक् रह रहे हैं और उनके मध्य कई मुकदमे लम्बित हैं। तो यह विवाह-विच्छेद के लिये पर्याप्त आधार है।।

विवाह-विच्छेद का एक वर्ष का निबन्धन (One Year’s Bar to Remarriage) या विवाह का ऋजु-विचारण (Fair Trial Rule) नियम

पंच फैसले (Arbitration) द्वारा विवाह-विच्छेद किसी भी विवाह का विघटन पंच फैसले द्वारा नहीं हो सकता है।

अंग्रेजी विधि का अनुसरण करते हुये हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 14 में विवाहविच्छेद पर तीन वर्ष का निबंधन लगाया गया था। दूसरे शब्दों में विवाह-विच्छेद की याचिका सामान्यतः विवाह के पश्चात् प्रथम तीन वर्ष के दौरान में प्रेषित नहीं की जा सकती। विधि-विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा यह अवधि घटाकर एक वर्ष की गई है। इस उपबन्ध के पीछे सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक विवाह को ऋजु-विचारण का अवसर मिलना चाहिये। बहुधा यह होता है कि विवाह के आरम्भिक जीवन में पक्षकारों के बीच समायोजन की कठिनाई होती है, पक्षकार एक दूसरे को, एक दूसरे की आवश्यकताओं, और माँगों को एक दूसरे के स्वभाव, भावना आचार-विचारों को समझने में कुछ समय लेते हैं। यदि विवाह-विच्छेद की सुविधा उन्हें प्राप्त हो तो एक दूसरे से समायोजित होने का प्रयत्न करने के स्थान पर उन्हें प्रलोभन होता है विवाह-विच्छेद का। वे विवाह-विच्छेद, एक न वापस लिये जाने वाला पग, ले लेते हैं और फिर पछताते है। उस उपबन्ध का यही औचित्य है। परन्तु इस अवधि के व्यतीत होने पर भी यदि पक्षकार यह समझे कि विवाह-विच्छेद के अतिरिक्त उसके लिये अन्य कोई मार्ग नहीं है तो फिर वे विवाहविच्छेद ले सकते हैं। असाधारण परिस्थिति में इस अवधि के भीतर विवाह-विच्छेद लिया जा सकता है। लेखक का निवेदन है कि जहाँ पारस्परिक अनुमति द्वारा विवाह-विच्छेद मान्य है वहाँ जो ऋजु-विचारण नियम का औचित्य समझ में आता है, परन्तु जहाँ वह विवाह दोषिता आधारों पर या विवाह भंग के आधारों पर ही उपलब्ध है, वहाँ ऋजु-विचारण नियम का कोई औचित्य नहीं है। उदाहरण लें, विवाह के एक मास पश्चात् ही पति ईसाई हो जाता है, या जारता में रहने लगता है, तो क्या पत्नी से यह कहना औचित्यपूर्ण होगा कि तुम 11 महीने और विवाह को ऋजु-विचारण दो, या विवाह के तीन माह पश्चात् पत्नी दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री प्राप्त कर लेती है, पति उसका पालन नहीं करता, तो क्या कहना कि “नहीं, नहीं, अभी नौ माह और बाकी हैं, विवाह को ऋजु-विचारण दो,” औचित्यपूर्ण है?

धारा 14 के परन्तुक में दो अपवाद दिये गये हैं। परन्तुक के अन्तर्गत जिला न्यायालय किसी पक्षकार के आवेदन-पत्र दिये जाने पर किसी याचिका को एक वर्ष व्यतीत होने से पहले प्रेषित करने की अनुज्ञा इस आधार पर दे सकता है कि वह मामला याचिकाकार द्वारा असाधारण कष्ट भोगे जाने या प्रतिपक्षी की असाधारण दुराचारिता का है। किन्तु यदि जिला न्यायालय को याचिका की सुनवाई से यह प्रतीत हो कि याचिकाकार ने अर्जी प्रेषित करने की अनुमति किसी दुर्व्यपदेशन (Misrepresentation) द्वारा या मामले की प्रकति को छिपा कर ली थी तब वह डिक्री प्रभावी नहीं होगी, जब तक कि विवाह की तिथि से एक वर्ष का अवसान न हो जाये, अथवा उस अर्जी को किसी अन्य ऐसी अर्जी पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना खारिज कर सकेगा। जा उक्त एक वर्ष के अवसान के पश्चात् उन्हीं या सारतः उन्हीं तथ्यों पर दी जाये जो ऐसी खारिज की गई अर्जी के समर्थन में साबित किये गये थे।

परन्तुक के अन्तर्गत दो निम्न अपवाद हैं-

(1) मामला याचिकाकार द्वारा असाधारण प्रकट भोगे जाने का है, या

(2) मामला प्रतिपक्षी की असाधारण दुराचारिता का है।

असाधारण कष्ट या असाधारण दुराचारिता का क्या अर्थ है, हिन्दू विवाह अधिनियम इस बारे में मौन है। कष्ट और दुराचारिता शब्द ऐसे हैं जिनका वृहत कोई भी रूप लिया जा सकता है। यही कारण है कि उनके

1. श्रीमती पूर्णिमा मिश्रा बनाम सुनील मिश्रा, 2010 विधि निर्णय एवं सामयिकी 620 (एल० बी०).

2. राजकुमार बनाम अंजना 1995 पं० और ह० 18. ‘

3. मेट्रिमोनियल काजेज एक्ट, 1973.

साथ असाधारण शब्द जोड़ा गया है। इसका तात्पर्य यह होता है कि ये वे मामले नहीं हैं जो बहधा न्यायाल परन्त ये मामले हैं जो यदाकदा ही न्यायालय के समक्ष आते हैं। दुराचारिता में कछ नैतिक पतन की भावना निहित है। यदि नैतिक पतन या नतिक दोष का मामला नहीं है तो वह दुराचारिता नहीं कहलायेगा। असाध्य उन्मत्तता (Incurable insanity) दुराचारिता की परिभाषा में नहीं आ सकती है. यद्यपि कष्टप्रद स्थिति तो वह है ही। यह भी हो सकता है कि वह बात दुराचारिता में आ जाये, और वही बात असाधारण कष्ट में भी आ जाये। उदाहरणार्थ मान लें, एक ब्राह्मण स्त्री का पति मुसलमान हो जाता है और इस बात पर अड़ जाता है कि माँस एक ही रसोई में पकेगा तो यह पति की असाधारण दुराचारिता भी है और पत्नी के लिये असाधारण कष्टप्रद स्थिति भी है। कुछ दोषिता का आधार स्वयं असाधारण दुराचारिता है, जैसे बलात्कार, गुदा-मैथुन और पशु-मैथुन। इस भाँति कुछ दौषिता का आधार असाधारण कष्ट है, जैसे विपक्षी का संसार त्याग कर सन्यासी होना, पत्नी ने जारकर्म किया और जारकर्म के फलस्वरूप एक बालक को जन्म दिया है तो वह असाधारण दुराचारिता है। लेखक के निवेदन में जारता में रहना स्वयं असाधारण दुराचारिता है।

अंग्रेजी निर्णय बौमन बनाम बौमन में असाधारण कष्ट और असाधारण दुराचारिता की व्याख्या की गई है। इस व्याख्या को भारतीय न्यायालयों ने भी स्वीकार कर लिया है। अंग्रेजी निर्णय के अनुसार निम्न तीन स्थितियों में मामला असाधारण कष्ट या असाधारण दुराचारिता का होगा।

(क) यदि प्रतपक्षी ने एक से अधिक वैवाहिक अपराध किये हैं,

(ख) यद्यपि प्रतिपक्षी ने वैवाहिक अपराध तो एक ही किया है परन्तु उसका आचरण निन्दनीय है, और

(ग) यद्यपि प्रतिपक्षी ने अपराध तो एक ही किया है परन्तु यह अपराध-मात्र न होकर उससे कहीं अधिक है।

प्रतिपक्षी का याचिकाकार के साथ रहने से इन्कार करना मात्र असाधारण कष्ट की परिभाषा में नहीं आ सकता है। इस लेखक का निवेदन है कि यदि विवाह-विच्छेद की याचिका संपरिवर्तन के आधार पर दी जाये और साथ में यह सिद्ध हो जाये कि प्रतिपक्षी ने याचिकाकार को छोड़ दिया है, और छोड़ देना अभित्यजन की परिभाषा (चाहे वैधानिक कालावधि न भी पूर्ण हो) में आता है तो यह असाधारण कष्ट की संज्ञा में आ जायेगा। सविता बनाम प्राणनाथ के मुकदमे में तथ्य कुछ असाधारण थे। पक्षकारों का विवाह जन 11.1962 को हुआ था। विवाह-विच्छेद की याचिका नवम्बर 11, 1964 को प्रेषित की गई थी। प्रतिपक्षी ने धारा 14 के अन्तर्गत आक्षेप किया। प्रति-उत्तर में याचिकाकार के यह कहने पर कि प्रतिपक्षी ने उसे छोड़ दिया है, न्यायालय ने कहा कि असाधारण कष्ट की स्थिति नहीं है। याचिकाकार ने याचिका में संशोधन करने का प्रार्थना-पत्र दिया। याचिका अक्टूबर 18, जून 1965 तक लम्बित रही। इस समय तक तीन वर्ष परे हो गये। न्यायालय ने कहा कि याचिका खारिज करने का अब कोई औचित्य नहीं है, यदि याचिका खारिज कर भी दी गई तो याचिकाकार तुरन्त ही दूसरी याचिका प्रेषित कर सकता है।

यदि याचिका विवाह सम्पन्न होने की तिथि से एक वर्ष के भीतर प्रेषित की गई है तो धारा 14 (1) के अन्तर्गत यह प्रार्थना-पत्र देना आवश्यक है कि उसकी याचिका अपवादों के अन्तर्गत आती है। यदि एक वर्ष की कालावधि के पूर्व याचिका प्रेषित करने की आज्ञा दुर्व्यपदेशन द्वारा या मामले की प्रकृति छिपाकर ली गई है तो निर्णय देते समय न्यायालय यह शर्त लगा सकता है कि डिक्री एक वर्ष की अवधि पूर्ण होने के पश्चात् ही प्रभावी होगी या न्यायालय चाहे तो याचिका को खारिज भी कर सकता है परन्तु उसी आधार पर या सारतः उसी आधार पर एक वर्ष पश्चात याचिका लाने का प्रथम याचिका के खारिज होने का कोई प्रभाव नहीं होगा।

1. मेघनाद बनाम सुशीला, 1957 मद्रास 423 रेड आन डायवोर्स के आधार पर.

2. बीना बनाम प्रेम, 1972 करेन्ट लॉ जर्नल 93.

3. (1949) 2 आल इंग्लैंड रिपोर्टस 127.

4. मेघनाथ बनाम सुशीला, 1957 मद्रास 423.

5. सविता बनाम प्राणनाथ, 1976 जम्मू कश्मीर 89.

6. 1976 जम्मू एण्ड कश्मीर 89.

7. स्मृति बनाम दिलीप, 1982 कल० 574.

8. धारा 14 (2).

एक वर्ष की कालावधि के पूर्व याचिका प्रेषित करने की आज्ञा देते समय न्यायालय उस विवाद उत्पन्न सन्तान के हितों का और इस बात का ध्यान रखेगा कि क्या पक्षकारों के बीच उक्त एक वर्ष के के पहले पुनर्मिलन की कोई उचित सम्भाव्यता है।

दाम्पत्य अधिकारों की पुर्नस्थापना-वर्तमान मामले में उठाये गये विवाद पति-पत्नी के सम्बन्धों से तथा पुरुष शिशु की पैतृकता से सम्बन्धित हैं, शिशु का न केवल मामले के पक्षकारों के लिये महत्व है अपितु वह समाज के लिये भी सुसंगत है। ऐसे मामले में उठाये गये विवादों की संवेदनशील प्रकति को मस्तिष्क में रखकर अभिलेख पर के साक्ष्य पर सावधानीपूर्वक तथा गम्भीरता से विचार-विमर्श की आवश्यकता है। अभिलेख पर के साक्ष्य के सम्बन्ध में अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय तथा उच्च न्यायालय ने अपने-अपने निर्णयों में यह इंगित किया है कि सुसंगत साक्ष्य मौखिक तथा दस्तावेजी साक्ष्य दोनों, जो उपलब्ध थे, अभिलेख पर नहीं है। इसलिये विवाद में ऋजुपूर्ण तथा उचित न्याय-निर्णयन के लिये दोनों पक्षकारों को और साक्ष्य प्रस्तुत करने देने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।

पक्षकारों के मध्य साथ रहने के लिये समझौता/करार-विवाह विच्छेद की डिक्री के विरुद्ध अपील-उच्चतम न्यायालय ने भारी संख्या में वादों में इस बात पर बल दिया है कि भारतीय समाज में विवाह को न्यायालय द्वारा बचाने का प्रयास किया जाये और न्यायालयों द्वारा यदि सम्भव हो विवाह के बन्धन में मरम्मत करने के लिये दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की सभी सम्भावना के प्रयास किये जायें। प्रस्तुत वाद में, अवर न्यायालयों द्वारा पक्षकारों को पहले ही तलाक प्रदान किया जा चुका है, तथापि, पक्षकारों द्वारा दाखिल प्रथम अपील में उन्हें सद्बुद्धि आ गयी थी। वे सभी वादों को वापस लेना चाहते हैं एवं एक साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। उनका विवाह केवल तलाक की डिक्री को अपास्त करके बचाया जा सकता है अन्यथा उन्हें ऐसे सम्बन्ध में रहना पड़ सकता है जिसका समाज द्वारा सामान्यतया अनुमोदन नहीं किया जाता है लेकिन उसे उच्चतम न्यायालय द्वारा किसी अपराध का गठन न करते हुये मानकर स्वीकार किया गया है।

वैवाहिक मामला (धारा 10 के अधीन कार्यवाही)-विवाहित महिला को गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने का मूल अधिकार है। यह अधिकार भारत का संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्रत्याभूत है। किसी भी व्यक्ति को यह अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह किसी व्यक्ति के शान्तिपूर्ण विवाहित जीवन में असत्य अभिकथनों के आधार पर व्यवधान उत्पन्न करे।

कपट और दुर्व्यपदेशन के आधार पर विवाह-पति द्वारा क्रूरता एवं अभित्यजन के आधार पर तलाक याचिका-परमिन्दर चरन सिंह, आदि बनाम हरजीत कौर,4 में उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चित वाद के तथ्य निम्नवत हैं-

(1) अपीलार्थी ने दो आधारों अर्थात् यह कि प्रत्यर्थी ने उसका अभित्यजन कर दिया था और यह कि उसने उसके विरुद्ध क्रूरता कारित की है, पर तलाक के लिये हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अधीन भी आवेदन दाखिल किया था। विचारण न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि प्रत्यर्थी अपीलार्थी के विरुद्ध क्रूरता कारित करने के लिये उत्तरदायी थी और इसलिये अपीलार्थी को तलाक पाने का हकदार ठहराया गया था, तथापि अभित्यजन का अभिवाक् नामंजूर कर दिया गया। इससे क्षुब्ध होकर अपीलार्थी एवं प्रत्यर्थी दोनों ने अपीलें दाखिल की थी और सामान्य निर्णय से विद्वान एकल न्यायाधीश ने पत्यर्थी द्वारा प्रस्तुत अपील को अनुज्ञात किया एवं इस वाद में अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत की गई अपील को खारिज कर दिया। इस तरह विद्वान एकल न्यायाधीश ने यह अभिनिर्धारित किया कि अपीलार्थी यह सिद्ध करने में असफल रहा कि प्रत्यर्थी की ओर से या तो अभित्यजन हुआ था या क्रूरता कारित की गई थी। इससे होकर प्रत्यर्थी ने खण्डपीठ के समक्ष लेटर्स पेटेण्ट अपील प्रस्तुत की और दिनांक 19 जुलाई, 2001 के निर्णय से उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी द्वारा दाखिल लेटर्स पेटेण्ट अपील को खारिज कर दिया। उससे क्षुब्ध। होकर वर्ष 2002 की विशेष अनुमति याचिका (सिविल) अपील संख्या 401 तथा 502 से उद्भूत हान वाली सिविल अपीलों को दाखिल किया है।

1 मरुगय्याह बनाम अन्नाथाई, 2002 विधि निर्णय एवं सामयिकी 387 (एस०सी०)

2 श्री मंज देवी बनाम रोशन लाल, 2010 विधि निर्णय एवं सामयिकी 830 (इला

3. मोनिका ओहरी बनाम अमित मिश्रा एवं एक अन्य, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 133.

4. 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 588 (एस० सी०).

(2) अपीलाथा तथा प्रत्यर्थी के मध्य विवाह 28.1.1990 को हुआ था तथा उसे 30.1.1990 को पंजीकृत किया गया था। अपीलार्थी के अनुसार, विवाह के उपरान्त, अपीलार्थी फरवरी, 1990 में जर्मनी चला गया जहाँ वह अनेक विगत वर्षों से चिकित्सक के रूप में कार्य कर रहा था। प्रत्यर्थी जर्मनी में मार्च, 1000 में अपीलार्थी से मिली। उसने कुछ माह वहीं व्यतीत किये और जून, 1990 में वह भारत वापस आ गई और सितम्बर, 1990 में जर्मनी लौट गई। अपीलार्थी के अनसार, उसके लगभग 3 या 4 माह के पश्चात् प्रत्यर्थी ने अपना वास्तविक रंग दिखाया और अपीलार्थी से झगडा करने का प्रयास किया। यह अभिकथन किया गया है कि प्रत्यर्थी अपीलार्थी से धन हथियाना चाहती थी। जन, 1991 में, प्रत्यर्थी की माँ भी जर्मनी आ गयी थी और उन्होंने अपीलार्थी के साथ रहना प्रारम्भ कर दिया। 14.7.1991 को दाम्पत्ति को पुत्र का जन्म हुआ। अपीलार्थी ने यह अभिकथन किया कि फरवरी, 1992 में प्रत्यर्थी अपने बच्चे को लेकर अपीलार्थी की जानकारी और सहमति के बिना जर्मनी छोड़कर चली गयी। अपीलार्थी को इस बात की जानकारी हुई कि वह भारत में अपने माता पिता के साथ रह रही है, और उसको वापस लाने के उसके प्रयास विफल हो गये। अक्टूबर, 1992 तक, अपीलार्थी को यह जानकारी हो गयी कि प्रत्यर्थी अपने विवाह के समय तलाकशुदा थी और उसने उससे पूर्व मेरठ के किसी संजीत सिंह से विवाह किया था। अपीलार्थी ने अपने रिश्तेदारों के माध्यम से पूछताछ करवायी और इस तथ्य की पष्टि प्राप्त की। अपीलार्थी के अनुसार प्रत्यर्थी ने इस तथ्य का दमन किया था और अपीलार्थी इस धारणा में था कि वह अविवाहित स्त्री है और इसलिये प्रत्यर्थी एवं उसके परिवार के सदस्यों ने कपट तथा दुर्व्यपदेशन कारित किया तथा इन आधारों पर, अपीलार्थी ने विवाह को निष्प्रभावी किये जाने की मांग की।

(3) प्रत्यर्थी ने प्रति-कथन (counter-statement) दाखिल किया और अपीलार्थी द्वारा किये गये अभिकथनों से प्रत्याख्यान किया। प्रत्यर्थी ने यह अभिकथन किया कि अपीलार्थी तथा प्रत्यर्थी के मध्य विवाह दिनांक 14.5.1989 के समाचार-पत्र ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के वैवाहिक कालमों में अपीलार्थी द्वारा दिये गये विज्ञापन के अनुसरण में हुआ था। प्रत्यर्थी के पति ने प्रत्यर्थी का बायोडाटा देते हुये 14.5.1989 को पत्र लिखा तथा उसकी प्रास्थिति “विधित: तलाकशुदा” उल्लिखित की। प्रत्यर्थी द्वारा यह भी अभिकथन किया गया कि अपीलार्थी की माँ ने 27.5.1989 को उत्तर दिया था तथा उस पत्र में, अपीलार्थी की माँ ने लिखा था कि अपीलार्थी भी “विधित: तलाकशुदा” था। प्रत्यर्थी ने यह भी अभिकथन किया कि पक्षकारों के मध्य लगभग 8 माह तक बातचीत चलती रही और अपीलार्थी एवं उसके परिवार के सदस्यों ने प्रत्यर्थी की वैवाहिक प्रास्थिति के बारे में पता लगवाया और यह कि अपीलार्थी को सम्पूर्ण विवरण के बारे में सूचित कर दिया गया तथा उसने विवाह के लिये अपनी निजी स्वतंत्र इच्छा से एवं बिना किसी दबाव, कपट या बल प्रवर्तन के सहमति दी थी। प्रत्यर्थी ने यह भी अभिकथन किया कि अपीलार्थी ने अपने विज्ञापन में इस तथ्य को प्रकट नहीं किया था कि वह “विधित: तलाकशुदा” व्यक्ति था।

(4) विचारण न्यायालय ने, मामले पर विस्तार करने के पश्चात, यह अभिनिर्धारित किया कि प्रत्यर्थी की ओर से कोई कपट अथवा दुर्व्यपदेशन नहीं हुआ था। विद्वान एकल न्यायाधीश द्वारा इस निष्कर्ष का अनमोदन किया गया तथा इस विनिश्चय की खण्डपीठ द्वारा पुष्टि की गयी। एक दस्तावेज जिस पर अपीलार्थी ने निर्भर किया, विवाह के पंजीयन हेतु आवेदन प्रदर्श पी० डब्ल्यू0 6/1 था और अन्य दस्तावेज पदर्श पी० डब्ल्य० 6/2 है जो उक्त प्रयोजनार्थ दाखिल प्रत्यर्थी का शपथ-पत्र था। इन दोनों दस्तावेजों में, प्रत्यर्थी की प्रास्थिति “अविवाहित” दर्शायी गयी थी जबकि अपीलार्थी की प्रास्थिति तलाकशुदा की दर्शायी गयी थी। इसके आधार पर प्रतिवाद किया गया कि उसके पूर्व विवाह तथ्य का प्रत्यर्थी तथा उसके परिवार के सदस्यों द्वारा दमन नहीं किया गया था। प्रत्यर्थी ने यह अभिकथन किया कि इन दस्तावेजों को इस वाद के अपीलार्थी द्वारा तैयार किया गया था और प्रत्यर्थी से केवल इन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराये गये थे। इस तथ्य । को अपीलार्थी द्वारा उस समय स्वीकार किया गया जब उसकी पी० डब्ल्य० 1 के रूप में परीक्षा की गयी।। तदुपरान्त, स्वयं इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता है कि या तो प्रत्यर्थी या उसके माता-पिता ने कोई कपटपूण कुकथन किया था।

 

(5) यह दर्शित करने के दस्तावेज उपलब्ध हैं कि अपीलार्थी विवाह के समय प्रत्यर्थी का व त स भिज्ञ था। प्रदर्श पी० 3/आर० डी० अपीलार्थी की माँ द्वारा लिखा गया पत्र था। उस पत्र 14.5.1989 के उस पत्र का संदर्भ दिया जिसका सुरेन्द्र सिंह-प्रत्यर्थी के पिता द्वारा लिखा जाना अभिकथित है और इसमें यह उल्लेख किया था कि अपीलार्थी “भी” विधित : तलाकशुदा व्यक्ति है |

करने के लिये कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। इस प्रकार, तलाक के लिये अपीलार्थी द्वारा अभिकथित आधारों का समर्थन करने के लिये व्यवहारतः कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। समाधान करने के लिये इस तथ्य का कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं है कि प्रत्यर्थी अपीलार्थी के क्लीनिक पर गई थी और उसके विरुद्ध नारेबाजी की थी। वास्तव में, अपीलार्थी साक्षी के कटघरे में खड़ा नहीं हुआ था, केवल अपीलार्थी की माँ ही ने, जिसे कोई निजी जानकारी नहीं थी, साक्ष्य दिया था। विद्वान एकल न्यायाधीश ने ठीक ही यह पाया कि प्रत्यार्थी की अपीलार्थी द्वारा सम्पत्ति क्रय करने के सम्बन्ध में दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से इन्कारी ऐसा कोई कृत्य नहीं है जिससे कोई क्रूरता अनुमित की जा सकती हो। विद्वान एकल न्यायाधीश ने यह पाया कि याचिकाओं में किये गये अनेक अभिकथन संतोषजनक ढंग से सिद्ध नहीं किये गये थे और अपीलार्थी का आचरण निश्चित रूप से छल-रहित (above board) नहीं था। साक्ष्य से यह प्रकट हुआ कि फरवरी, 1993 में प्रत्यर्थी को अपने बच्चे के साथ अनाथालय जाना पड़ा और उससे यह इंगित हुआ कि प्रत्यर्थी को अपीलार्थी के घर से निकाल दिया गया था। जहाँ तक अभित्यजन के प्रश्न का भी सम्बन्ध है, विचारण न्यायालय और साथ ही विद्वान एकल न्यायाधीश ने यह पाया कि अपीलार्थी इस आधार को सिद्ध करने में बुरी तरह से असफल रहा।

विवाह को शून्य एवं अकृत घोषित किये जाने हेतु समुचित आधार साबित किया जाना आवश्यक है-धारा 5 प्रावधान करती है कि दो हिन्दुओं के बीच विवाह अनुष्ठापित किया जा सकेगा, यदि धारा में विनिर्दिष्ट शर्ते पूरी की जाती हैं। इसमें अधिकथित अन्य शर्तों के बीच खण्ड (i) में यह अधिकथित किया गया है कि विवाह के समय कोई भी पक्षकार चित्त विकृति के परिणामस्वरूप उसके लिये विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ नहीं है या यद्यपि विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ हो फिर भी इस प्रकार के या इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित न हो कि वह विवाह और सन्तानोत्पत्ति के लिये अनुपयुक्त हो। खण्ड (ii) हिन्दू विवाह के शर्तों में से एक के रूप में यह अधिकथित करता है कि पक्षकारों में से कोई चित्तविकृति, मानसिक रोग, पागलपन या मिर्गी से पीड़ित न हो और धारा 12 (1) (ख) निर्दिष्ट करती है कि कोई विवाह शून्यकरणीय होगा और बातिल किया जा सकेगा, यदि विवाह धारा 5 के खण्ड (ii) में विनिर्दिष्ट शर्त के उल्लंघन में हो। उक्त प्रावधानों के सामान्य अध्ययन से, यह स्पष्ट है कि इस धारा में विहित शर्ते, यदि साबित कर दी जाती हैं, तो पक्षकारों को विधिमान्य विवाह से वंचित कर देती है। विवाह स्वतः शुन्य नहीं है बल्कि खण्ड के अधीन शून्यकरणीय है। ऐसी शर्ते सबूत के कठोर मानक की उपेक्षा करती हैं। सबूत का भार पक्षकार पर है, जो न्यायालय से पहले से अनुष्ठापित विवाह-विच्छेद के लिये अनुरोध करता है।

वैवाहिक मामला-समझौता डिक्री-यह स्थापित विधि है कि पक्षकारों का आशय सम्पूर्ण दस्तावेज को पढ़कर ही निकाला जाना चाहिये, इसका सम्पूर्णतया अध्ययन किया जाना चाहिये। न्यायालय आस-पास की परिस्थितियों पर भी विचार कर सकता है। अपील को शपथ-पत्र द्वारा समर्थित समझौता आवेदन-पत्र के आधार पर निर्णीत किया गया था और पक्षकारों का आशय निकालने के लिये सम्पूर्ण दस्तावेज का अध्ययन करना चाहिये।

समझौता डिक्री यह उल्लेख करती है कि पक्षकारों का आशय यह था कि सम्पूर्ण विवाद को ही समाप्त कर दिया जाये। समझौता डिक्री का खण्ड I से III यह संकेत देता है कि अपीलार्थी को पाँच लाख रुपये दिये जाने थे किन्तु इसका कुछ भाग उसके लिये तात्पर्यित था। उसका एक भाग पुत्री के पालन-पोषण तथा कल्याण के लिये था। सम्पूर्ण डिक्री पर विचार करने के पश्चात् न्यायालय की यह राय है कि तीन लाख रुपये की पहली किश्त अपीलार्थी के लिये तात्पर्यित थी और रुपये दो लाख की दूसरी किश्त पुत्री के पालन-पोषण। और कल्याण के लिये तात्पर्यित थी। अपीलार्थी के लिये तात्पर्यित धनराशि नामतः प्रथम किश्त को पहले ही उसे दिया जा चुका है। दूसरी किश्त पुत्री के लाभ के लिये थी। वह दूसरी किश्त देय होने के पूर्व ही मर गया। थी। प्रश्न यह है कि क्या अपीलार्थी दूसरी किश्त के लिये डिक्री का निष्पादन करवा सकती है जबकि पुत्रा वह लड़की, जिसके पालन-पोषण के कल्याण के लिये यह देय थी, अब नहीं रह गयी है।।

1. आर० लक्ष्मीनारायण बनाम शान्ती, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 2110 : 2007 सामयिकी 654 (एस० सी०).

सिविल एकिया संहिता (सी० पी० सी०) का आदेश 2 पक्षकारों के मत्य. विवाह तथा दिवालिया होने का उपबन्ध करता है। इस आदेश का नियम 3, 4 एवं 6 कई वादियों या कई प्रतिवादियों में से किसी की मृत्यु हो जाने पर प्रक्रिया का और वादी का दिवाला कब वाद का वर्जन कर देता है, उपबन्ध करते हैं। आदेश 22 का नियम 3 और 4 यह उपबन्ध करते हैं कि वाद वारिसों के विरुद्ध केवल तभी जारी रखा जा सकता है। जब वाद लाने का अधिकार बचा हो। यह आगे कार्यवाहियों के उपशमन के लिये उपबन्ध करता है यदि वारिसगण को समय के भीतर प्रतिस्थापित नहीं किया जाता है। इस आदेश का नियम 11 यह उपबन्ध करता है कि यह इस स्पष्टीकरण सहित उन अपीलों पर लाग होता है कि शब्द वादी, प्रतिवादी और वाद में क्रमश: अपीलार्थी, प्रत्यर्थी और अपील सम्मिलित है। आदेश 22 का नियम 12 यह उपबन्ध करता है कि आदेश 22 का नियम 3,4 एवं 8 निष्पादन कार्यवाहियों पर लाग नहीं होते हैं। परिणाम यह है कि डिक्री के अधीन लाभ को डिक्रीधारी की मृत्यू पर ही पराजित नहीं किया जा सकता है। तथापि किसी विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिये वैयक्तिक लाभ मंजूर करने वाली डिक्री का निष्पादन केवल उसी प्रयोजन के लिये ही किया जा सकता है |

अभिनिर्धारित किया गया कि-(क) पक्षकारों के आशय को निकालने एवं किसी विशिष्ट भाग पर अभिव्यक्ति का निर्वचन करने के लिये किसी विलेख या संलेख या समझौता डिक्री का सम्पूर्णतया अध्ययन किया जाना चाहिये; (ख) किसी विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिये वैयक्तिक लाभ को मंजूर करने वाली डिक्री को केवल उसी प्रयोजन के लिये ही निष्पादित किया जा सकता है; (ग) डिक्रीत की गयी धनराशि की प्रथम किश्त अपीलार्थी के लिये तात्पर्यित थी और दूसरी किश्त पुत्री के पालन-पोषण एवं कल्याण के लिये तात्पर्यत थी। दूसरी किश्त की डिक्री पुत्री की मृत्यु के पश्चात् अनिष्पादन योग्य हो गयी थी। अपीलार्थी उसके लिये डिक्री का निष्पादन नहीं करवा सकती है; (घ) प्रथम किश्त (जो अपीलार्थी के लिये तात्पर्यित थी) द्वारा अपीलार्थी को पहले ही अन्तरित की जा चुकी धनराशि उसे दी जा चुकी है। यह उसकी सम्पत्ति थी। इसकी प्रास्थिति पुत्री की मृत्यु पर परिवर्तित नहीं हुई है। अपीलार्थी इसके किसी भी भाग को प्रत्यर्थी को वापस करने के लिये दयी नहीं है।

अधित्यजन के आधार पर विवाह-विच्छेद-वर्तमान मामले में विवाह लगभग 7 माह की संक्षिप्त अवधि तक जारी था। नोटिसों और उत्तरों के आदान-प्रदान और अन्ततोगत्वा पति द्वारा विवाह-विच्छेद याचिका दाखिल करने तक पत्नी की ओर से पति के साथ रहने का कोई प्रयास नहीं रहा है। वह अध्यापिका है और यह सामान्य ज्ञान है कि विद्यालयों में ग्रीष्म मास में लम्बा अवकाश होता है और विशेष रूप से सरकारी विद्यालयों में जहाँ, पत्नी अध्यापन करती है। कम से कम इन अवकाशों के दौरान पति से मिलने, जो कि अन्य स्थान में रहता है, के पास अपने पुत्र के साथ जा सकती थी और उसके साथ रह सकती थी। अभिलेख पर यह दिर्शित करने के लिये कोई चीज नहीं है कि कोई ऐसा प्रयास उसके द्वारा इस सम्पूर्ण अवधि के दौरान पति से मिलने के लिये किया गया था। एकमात्र पत्नी की ओर से अधित्यजन करने का चयन किया गया था जो उसकी ओर से अधित्यजन को साबित करता है। वह पत्नी द्वारा पति की जानबूझकर उपेक्षा के समान है। अत: विवाह-विच्छेद की डिक्री अधित्यजन के आधार पर उचित ही प्रदान की गयी।

विवाह विषयक मामलों में शारीरिक और मानसिक क्रूरता का प्रभाव (LLB Study Material in Hindi)

तलाक की याचिका मुख्यतः क्रूरता के आधार पर दाखिल की गयी थी। इस बात का अवलोकन करना पासंगिक हो सकेगा कि हिन्दू विवाह आधानयम, 1955 म वर्ष 1976 के संशोधन के पूर्व, करता हिन्दू

१. श्रीमती मंजलता शर्मा बनाम विनय कुमार दुबे, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 716 और भी र अन्टल खादिर रामी रडी, एक ई० आर० 1979 एस० सी० 553 : 1979 (1) एस० सी० सी० hon. तम्बोली रमनलाल मोतीलाल बनाम गांधी चिमनलाल केशवलाल, ए० आई० आर० 1000 एस० सी.1236: 1993 सप्ली0 (1) एस० सी० सी० 295, केशव कुमार स्वरूप बनाम पलोमोर (प्रा) लि. 1994 (2) एस० सी० सी० 10 और उड़ीसा राज्य बनाम दामोदरदास, 19962) एस० सी० सी0 216..

2. गीता जगदीश मंगतानी बनाम जगदीश मंगतानी, 2006 वी० एन० एस० 167 (एस० सी०)

विवाह अधिनियम के अधीन तलाक का दावा करने का कोई आधार नहीं था। यह अधिनियम की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण का दावा करने का ही आधार था। 1976 द्वारा करता को तलाक का आधार बनाया गया था। पदावली जिसे समाविष्ट किया गया है, इस विषयक है कि “जिसने याची के मस्तिष्क में युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि अन्य पक्षकार के साथ रहना याची के लिये अपहानिपूर्ण अथवा क्षतिकारक होगा।” अत: तलाक का दावा करने वाले पक्षकार के लिये यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकति का है, जिससे कि यक्तियक्त आशंका कारित हो कि अन्य पक्षकार के साथ रहना उसके लिये हानिकर या क्षतिकारक होगा।

न्यायालय को एन० जी० दास्ताने बनाम एस० दास्ताने, के वाद में 1976 के संशोधन की जांच करने का अवसर प्राप्त हआ था। न्यायालय ने इस बात का अवलोकन किया था कि”…..क्या करता के रूप में आचरण के आरोप ऐसी प्रकृति के हैं जिससे कि याची के मस्तिष्क में यक्तियक्त आशंका उत्पन्न हो सकती हो कि उसके लिये प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकारक या क्षतिकारक होगा।”

इस बात का मूल्यांकन करने के उद्देश्य से अंग्रेजी तथा भारतीय विधि दोनों में “क्रूरता” की धारणा की जांच करना समुचित है कि क्या क्रूरता के आधार पर आधारित अपीलार्थी की याचिका अनुज्ञात की जानी चाहिये या नहीं।

डी० टालस्टाय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द लॉ एण्ड प्रैक्टिस ऑफ डाइवोर्स एण्ड मैट्रीमोनियल काजेज” (छठवां संस्करण, पृष्ठ 61) में “क्रूरता” को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया था

“क्रूरता, जो विवाह के विघटन का आधार है, को ऐसी प्रकृति के इच्छायुक्त और अनौचित्यपूर्ण आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकेगा जिससे कि जीवन, अंग अथवा स्वास्थ्य को शारीरिक या मानसिक खतरा कारित हो सकता है अथवा ऐसे खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो सकती है।”

विवाह विषयक मामलों में “क्रूरता” की धारणा पर बर्टम बनाम बर्टम,2 के अंग्रेजी वाद में उपयुक्त ढंग से चर्चा की गयी थी, विद्वान न्यायाधीश स्काट ने निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया था

“क्ररता की उपधारणा को दर्शित करने के लिये अत्यन्त हलके ताजा साक्ष्य की आवश्यकता है, चरित्र की करता को आचरण और व्यवहार में सारा दिन और सारी रात स्वयं आचरण और व्यवहार में दर्शित करना अनिवार्य है।”

कूपर बनाम कूपर के वाद में निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया गया था- (LLB Study Material)

“यह सत्य है कि जितना अधिक गम्भीर मूल अपराध होगा उतना ही कम गम्भीर पुनर्जीवन का गठन करने वाले पश्चात्वर्ती कृत्यों की आवश्यकता होगी।”

न्यायमूर्ति लार्ड डेनिंग ने कैसलेफ्सकी बनाम कैसलेफ्सकी के वाद में निम्नवत सम्प्रेक्षण किया था-

“यदि करता के दरवाजे खोल दिये गये हों तो हमें शीर्घ ही स्वभाव की असंगतता के कारण तलाक प्रदान कर देना चाहिये। विशेषकर अप्रतिरक्षित वादों में यह सरल तरीका होता है। लोभ से दूर रहना होगा ताकि कहीं ऐसा न हो कि हम ऐसी कार्य स्थिति में लिप्त हो जायें जहाँ स्वयं विवाह की संस्था जोखिम में। पड़ जाती हो।”

इंग्लैण्ड में एक समय यह मत अपनाया गया था कि याची को विवाह-विषयक याचिका में युक्तियुक्त संदेह से परे अपना वाद स्थापित करना होगा लेकिन ब्लिथ बनाम ब्लिथ के वाद में हाउस ऑफ लार्डस् ने बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया था कि जहाँ तक तलाक अथवा दु:सन्धि या माफी जैसी तलाक की

1. (1975) 2 एस० सी० सी० 326 : ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1934.

2. (1944) 59, 60.

3. (1950) डब्ल्यू. एन0200 (एच० एल०).

4. (1950) 2 ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्ट, 398, 403.

5. (1966) 1 ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्ट 524; 536.

वर्जनाओं का सम्बन्ध है, किसी भी सिविल वाद जैसे वाद को अधिसम्भाव्यता की प्रबलता द्वारा सिद्ध किया जा सकेगा।”

आस्ट्रेलिया के उच्च न्यायालय ने राइट बनाम राइट के वाद में यह मत अपनाया है कि “व्यभिचार के विवाद्यकों सहित विवाह विषयक मामलों में अनुनय विनय का सिविल न कि दाण्डिक मानदण्ड लागू होता है।”

अत: उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित करने में त्रुटि कारित की थी कि याची को “युक्तियुक्त सन्देह से परे” क्रूरता के आरोप को सिद्ध करना होगा। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि “यह साक्ष्य की विधि के अनुसार होगा” लेकिन इस सम्प्रेक्षण की जटिलताओं के बारे में हम स्पष्ट नहीं हैं।”

लार्ड पीयर्स ने निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया था-

“क्रूरता” की व्यापक परिभाषा देना सम्भव नहीं है लेकिन जब दोषी आचरण अथवा दाम्पत्य दयालुता के सामान्य मानकों से विचलन के कारण स्वास्थ्य को क्षति कारित होती है अथवा उसकी आशंका कारित होती है तो मैं यह समझता हूँ कि यही क्रूरता है, बशर्ते कोई प्रज्ञावान व्यक्ति स्वभाव के उचित वृतान्त एवं अन्य सभी विशिष्ट परिस्थितियों पर विचार करने के पश्चात् इस बात पर विचार करेगा कि शिकायत किया गया आचरण ऐसा है कि इसे पति/पत्नी को इसे बर्दाश्त करने के लिये नहीं कहा जाना चाहिये।

लार्ड मेरीमन से सहमति है जिनकी मानसिक क्रूरता के वादों में प्रैक्टिस सदैव पहले इस विषयक अपना मन बनाने की थी कि क्या स्वास्थ्य को क्षति या आशंकित क्षति कारित हुयी थी। उस महत्वपूर्ण तथ्य के प्रकाश में, तब न्यायालय को यह विनिश्चित करना आवश्यक है कि क्या दोषी आचरण समग्र रूप से क्रूर था। वह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या संचयी आचरण पर्याप्त रूप से इतना कहने के लिये महत्वपूर्ण है कि किसी प्रज्ञावान व्यक्ति के दृष्टिकोण से, ऐसे किसी प्रतिहेतु के बारे में विचार करने के पश्चात् जिसे यह प्रत्यर्थी विद्यमान परिस्थितियों में ले सकता था, आचरण ऐसा है कि इस याची को उसे बदाश्त करने के लिये नहीं कहा जाना चाहिये था।

घर की विशिष्ट परिस्थितियां, दोनों पक्षकारों के स्वभाव तथा भावनायें एवं उनकी प्रास्थिति तथा उनके जीवन का रहन-सहन, उनके पूर्व सम्बन्ध तथा लगभग ऐसी प्रत्येक परिस्थिति जो शिकायत किये गये कृत्य अथवा आचरण से सम्बन्धित है, सभी सुसंगत हो सकेंगे।”

गोलिन्स बनाम गोलिन्स2 के वाद में लार्ड रीड ने निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया था

“किसी व्यक्ति ने क्रूरता की व्यापक परिभाषा को कभी भी देने का प्रयास नहीं किया तथा मैं ऐसा करने का प्रयास नहीं करना चाहता हूँ। काफी कुछ प्रत्यर्थी की जानकारी एवं आशय पर, उसके आचरण की प्रकृति पर और पति तथा पत्नी के चरित्र एवं शारीरिक या मानसिक दुर्बलताओं पर निर्भर करेगा और अधिसम्भाव्य रूप से कोई भी सामान्य कथन इस शर्त को छोड़कर अन्य सभी वादों में समान रूप से प्रयोज्य नहीं है कि अनतोष की ईप्सा करने वाले पक्षकार को जीवन, अंग अथवा स्वास्थ्य को वास्तविक या अधिसम्भाव्य क्षति दर्शित करनी होगी।”

विधि के सिद्धान्त, जिन्हें इस न्यायालय के निर्णयों की लम्बी श्रृंखला द्वारा बिल्कुल स्पष्ट किया गया है, निम्नवत् उद्धृत किये गये हैं__

सिराज मोहम्मद खान जान मोहम्मद खान बनाम हरीजुन्निसां यासीन खान के वाद में, इस न्यायालय ने यह अधिकथन किया था कि विधिक क्रूरता की धारणा सामाजिक धारणा और जीवन के रहनसदन के स्तरों में परिवर्तनों तथा वृद्धि के अनुसार परिवर्तित होती है। हमारी सामाजिक धारणाओं में प्रगति के विशेषता को विधायी मान्यता प्राप्त हुयी है, यह कि द्वितीय विवाह पृथक निवास तथा भरण-पाषण

1. (1948) 77 सी० एल० आर० 191, 210.

2. 1964 ए० सी० 644 : (1963) 2 ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्ट 966.

3. (1981) 4 एस० सी० सी० 250.

के लिये पर्याप्त आधार है। इसके अतिरिक्त विधिक क्रूरता को स्थापित करने के लिये यह आवश्यक नहीं है। कि शारीरिक हिंसा का प्रयोग किया जाये। निरन्तर दुर्व्यवहार, दाम्पत्य सहवास का बन्द कर देना, सोचीसमझी गयी उपेक्षा, पति के पक्ष से तटस्थता एवं पति के पक्ष से यह प्राख्यान कि पत्नी चरित्रहीन है, ये सभी ऐसे घटक हैं जिनके कारण मानसिक अथवा विधिक क्रूरता कारित होती है।

शोभारानी बनाम मधुकर रेड्डी के बाद में, इस न्यायालय को क्रूरता की धारणा की जाँच करने का अवसर प्राप्त हुआ था। शब्द ‘क्रूरता’ को हिन्दू विवाह अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है, उसे विवाह विषयक कर्तव्यों अथवा बाध्यताओं के सम्बन्ध में मानवीय आचरण अथवा व्यवहार के प्रसंग में आधानयम की धारा 13 (1) 6-क) में इसे प्रयोग किया गया है। यह किसी व्यक्ति के आचरण का अनुक्रम है जो दूसरे व्यक्ति को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर रहा है। क्ररता मानसिक या शारीरिक साशयपूर्ण बिना किसी आशय के हो सकेगा। यदि वह शारीरिक है तो वह तथ्य और कोटि का प्रश्न है। यदि वह मानसिक है। तो जांच क्रूर व्यवहार की प्रकृति के बारे में और तत्पश्चात् पति या पत्नी के मस्तिष्क पर उस क्रूरता के प्रभाव के बारे में प्रारम्भ होगी। क्या उससे इस बात की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हुयी थी कि अन्य पक्षकार के साथ रहना हानिकारक या क्षतिकारक होगा, अन्ततोगत्वा यह आचरण की प्रकति तथा शिकायत करने वाले पति या पत्नी पर उसके प्रभाव पर विचार करके निकाले जाने वाले निष्कर्ष का मामला है। तथापि ऐसे वाद हो सकेंगे जहाँ स्वयं शिकायत किया गया आचरण पर्याप्त बुरा और प्रत्यक्षतः अविधिपूर्ण या अविधिक हो। तत्पश्चात् अन्य पक्षकार पर प्रभाव या क्षतिकारक प्रभाव की जांच की जानी अथवा उस पर विचार किया जाना आवश्यक है। ऐसे वादों में, क्रूरता तभी स्थापित होगी जब स्वयं आचरण सिद्ध या स्वीकृत हो। आशय की कमी सवादम कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये बशर्ते मानवीय क्रिया-कलापों में साधारणतया शिकायत किया गया कृत्य अन्य प्रकार से क्रूरता के रूप में माना जा सकता था। क्रूरता में आशय आवश्यक तत्व नहीं है। पक्षकार के लिये अनुतोष को इस आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कोई जानबूझकर अथवा इच्छायुक्त दुर्व्यवहार रहा है।”

अभिकथित क्रूरता काफी हद तक उस जीवन के प्रकार पर, जिसे जीने के पक्षकार अभ्यस्थ हैं, अथवा उनकी आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं तथा उनके उन सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों पर निर्भर कर सकेगी जिन्हें वे महत्व प्रदान करते हैं। प्रत्येक वाद को उसके अपने गुण-दोष पर ही विनिश्चित किया जाना पड़ता है |

लार्ड डेनिंग ने शेल्डन बनाम शेल्डन- के वाद में यह कहा था कि “क्रूरता की कोटियां समाप्त नहीं ही हैं। प्रत्येक वाद भिन्न हो सकेगा। हम ऐसे मनुष्यों के आचरण से संव्यवहार करते हैं जो सामान्यतया एक सनहीं होते हैं। मनुष्य में आचरण के प्रकार की कोई सीमा नहीं है जिनसे करता का गठन हो सकेगा। मानव व्यवहार शिकायत किये गये आचरण को सहन करने की क्षमता या असक्षमता पर निर्भर करते हये करता के नये किस्म की किसी भी वाद में उत्पन्न हो सकेगी। इस तरह से क्रूरता का आश्चर्यजनक व्यापक विस्तृत क्षेत्र

वीभगत बनाम डी० भगत के वाद में, इस न्यायालय को “मानसिक करता” की धारणा की जांच करने का अवसर प्राप्त हुआ था। इस न्यायालय ने निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया था

“धारा 13 (1) (क) में मानसिक क्रूरता को ऐसे आचरण के रूप में व्यापक रूप से परिभाषित किया जा सकता है जिससे अन्य पक्षकारों को ऐसी मानसिक पीडा एवं कष्ट कारित होता है जिससे उस पक्षकार के लिये अन्य पक्षकार के साथ रहना सम्भव नहीं होगा। अन्य शब्दों में, मानसिक क्रूरता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिये कि पक्षकारों से एक साथ रहने की युक्तियुक्त ढंग से आशा न की जा सकती हो। स्थिति ऐसी होगा पापक्षकार से यक्तियुक्त ढंग से ऐसा आचरण पेश करने और अन्य पक्षकार के साथ रहने के लिए

1. (1988)1एस०सी०सी 105.

2.1966 (2) ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्ट 257 (सी०ए०).

3. (1994)1 एस०सी०सी० 337.

युक्तियुक्त ढंग से नहीं कहा जा सकता है। यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी है जिससे कि याची के स्वास्थ्य को क्षति कारित की जा सके। इस निष्कर्ष पर पहुँचते समय पक्षकारों की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षिक स्तर को ध्यान में रखा जायेगा और इस बात को भी ध्यान में रखा जायेगा कि वे किस समाज में विचरण करते हैं, पक्षकारों को कमी एक साथ रहने की सम्भावना तथा असम्भावना को भी ध्यान में रखना होगा बशर्ते वे पहले से ही पृथक रह रहे हों तथा अन्य सभी सुसंगत तथ्यों एवं परिस्थितयों जिन्हें पूर्ण रूप से पेश करना न तो सम्भव है, न ही वांछनीय, को भी ध्यान रखा जायेगा। किसी एक वाद में जो करता है वह किसी अन्य वाद में करता की कोटि में नहीं आ सकेगी। यह ऐसा मामला है जिसे उसे वाद के तथ्यों और विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये विनिश्चय किया जाना चाहिये। यदि वह अभियोगों तथा आरोपों का वाद है तो उस प्रसंग को भी ध्यान में रखा जायेगा, जिनमें उन्हें किया गया था।

शब्द क्रूरता को विवाह विषयक मामलों में शब्द के साधारण अर्थ में समझा जाना आवश्यक है यदि अपहानि कारित करने, परिपीड़ित करने या चोट पहुँचाने के आशय को शिकायत किये गये आचरण अथवा नृशंस कृत्य की प्रकृति को अनुमित किया जा सकता था तो क्रूरता को सरलता से स्थापित किया जा सकता था। लेकिन आशय की कमी से वाद में कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये। बिना किसी आशय के लेकिन किसी पक्षकार के अक्षम्य आचरण द्वारा क्रूरता के दृष्टान्त हो सकेंगे। क्रूर व्यवहार पक्षकारों के मध्य सांस्कृतिक विरोधाभास से भी उत्पन्न हो सकेगा। मानसिक क्रूरता को किसी पक्षकार द्वारा उस समय कारित किया जा सकता है जब किसी पति अथवा पत्नी ने यह आरोप लगाया हो कि याची मानसिक रोगी है अथवा उसे अपने मानसिक स्वास्थ्य को ठीक करने के लिये विशेषज्ञ मनोवैज्ञानिक उपचार की आवश्यकता है, यह कि वह चित्त-विक्षेपी विकास (paranoid disorder) तथा मानसिक दृष्टिभ्रम (hallucinations) से पीड़ित है और सबसे अधिक यह आरोप लगाने की अपेक्षा करता है कि वह तथा उसके परिवार के सभी सदस्य मामलों का समूह है। यह आरोप भी मानसिक क्रूरता का कृत्य ही है कि याची के परिवार के सदस्य पागल हैं और पागलपन की सतत् श्रृंखला (streak) उसके पूरे परिवार से ही चली आ रही है।” ।

सावित्री पाण्डेय बनाम प्रेमचन्द्र पाण्डेय के वाद में इस न्यायालय ने यह अधिकथन किया था कि मानसिक क्रूरता किसी पति/पत्नी का आचरण है जिससे किसी पक्षकार के दाम्पत्य जीवन को मानसिक कष्ट अथवा भय कारित होता है। अतः ‘क्रूरता’ में याची के व्यवहार का ऐसी क्रूरता के साथ उपधारण किया गया है जिससे उसके मस्तिष्क में युक्तियुक्त आशंका कारित हो सके कि याची के लिये अन्य पक्षकार के साथ रहना हानिकारक अथवा क्षतिकारक होगा। तथापि, क्रूरता को पारिवारिक जीवन की साधारण उठा-पटक से सभिन्न किया जाना आवश्यक है। उसे याची की संवेदनशीलता के आधार पर विनिश्चित नहीं किया जा सकता तथा उसे आचरण के अनुक्रम के आधार पर न्याय-निर्णीत किया जाना आवश्यक है जो, सामान्यतया, किसी पति/पत्नी के लिये अन्य पत्नी/पति के साथ रहना खतरनाक होगा।

उस वाद में, इस न्यायालय ने अग्रेतर निम्नवत् अधिकथन किया था-

विपिन चन्द्रा के वाद में दिये गये विनिश्चय का अनुसरण करते हुये, इस न्यायालय ने लक्ष्मण उत्तमचन्द कपलानी बनाम मीना के वाद में विधिक स्थिति को यह अभिनिर्धारित करके पुनः दोहराया कि अपने सार रूप में “अभित्यजन” का अभिप्राय पति/पत्नी के पत्नी/पति द्वारा उसकी सहमति के बिना तथा बिना किसी यक्तियक्त कारण के साशय स्थायी त्याग से है। अभित्यजन के अपराध के लिये, जहाँ तक अभियजन करने वाले पति/पत्नी का सम्बन्ध है, दो आवश्यक शर्तों का होना अनिवार्य है-(1) पथक्करण का तथ्य तथा (2) स्थायी रूप से सहवास को समाप्त करने का आशय (अभित्यजन का आशय) । इसी प्रकार से जहाँ तक अभित्याग किये गये पति/पत्नी का सम्बन्ध है, दो तत्व आवश्यक हैं-(1) सहमति की कमी, तथा (2) पूर्वोल्लिखित आवश्यक आशय का गठन करने लिये दाम्पत्य गृह को छोड़ते हुये पति/पत्नी को

I. (2002)2 एस० सी०सी०73.

2. ए० आई० आर० 1957 एस० सी० 176.

3. ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 40.

युक्तियुक्त कारण प्रदान करते हुए आचरण की कमी अभित्यजन को यथासिद्ध मानने के लिये कतिपय तथ्यों निकर्ष निकाला जा सकेगा जो किसी अन्य वाद में निष्कर्ष को प्रेरित करने के योग्य नहीं हो सकेगा। कहने नात्पर्य यह है कि तथ्यों का उस प्रयोजन के सम्बन्ध में विचार किया जाना आवश्यक है, जिसे उन तथ्यों द्वारा यह आचरण तथा आशय की अभिव्यक्ति द्वारा प्रकट किया गया हो जो पृथक्करण के वास्तविक कत्यों के पूर्व पश्चात् दोनों ही है।

इस वाद में, इस न्यायालय ने अग्रेतर यह अधिकथन किया कि क्रूरता का प्रतिपक्षी को कष्ट कारित करने के आशय से किया गया कृत्य नहीं कहा जा सकता है।”

गनान्थ पटनायक बनाम उड़ीसा राज्य के वाद में इस न्यायालय ने निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया था- (LLB Notes)

“क्रूरता की धारणा एवं उसका परिणाम प्रत्येक व्यक्ति के लिये भिन्न हो सकता है। उस सामाजिक तथा आर्थिक स्तर पर निर्भर करते हुये जिससे उस व्यक्ति का सम्बन्ध है, पूर्वोलिखित धारा के अधीन अपराध का गठन करने के प्रयोजनों के लिये क्रूरता को शारीरिक होना आवश्यक नहीं है। यहाँ तक कि मानसिक यातना अथवा असामान्य व्यवहार भी प्रस्तुत वाद में क्रूरता और परिपीड़न की कोटि में आ सकेगा।”

इस न्यायालय ने परवीन मेहता बनाम इन्द्रजीत मेहता के वाद में क्रूरता को निम्नवत् परिभाषित किया था-

“धारा 13 (1) (i-क) के प्रयोजनार्थ क्रूरता को एक पति/पत्नी द्वारा दूसरे के प्रति ऐसा व्यवहार माना जाना चाहिये जिससे पश्चात्वर्ती के मस्तिष्क में यह युक्तियुक्त आशंका कारित हो, कि उसके लिये दूसरे के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध को चलाते रहना सुरक्षित नहीं है। मानसिक क्रूरता पति या पत्नी में से किसी के साथ दूसरे के व्यवहार या व्यवहार की पद्धति के कारण मस्तिष्क की स्थिति तथा भावना है। शारीरिक करता के वाद से भिन्न मानसिक क्रूरता को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा स्थापित किया जाना कठिन है। यह आवश्यक रूप से वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों से निकाले जाने वाले निष्कर्ष का मामला है। एक पति या पत्नी में दूसरे पत्नी या पति द्वारा संताप, निराशा तथा हताशा की भावना का जायजा केवल उन तथ्यों एवं परिस्थितियों का अंकन करके ही लिया जा सकता है जिसमें दाम्पत्य जीवन के दो भागीदार रहते आ रहे हैं। निष्कर्ष को परिवर्ती तथ्यों एवं परिस्थितियों पर, जिन्हें संचयी रूप से लिया गया है, से निकाला जाना आवश्यक है। मानसिक क्रूरता की दशा में दुर्व्यवहार के दृष्टान्त को पृथक् रूप से लेना तथा तब यह प्रश्न करना कि क्या ऐसा व्यवहार मानसिक क्रूरता कारित करने के लिये, स्वयं अपने आप में पर्याप्त है, सही दृष्टिकोण नहीं होगा। दृष्टिकोण अभिलेख में उपलब्ध साक्ष्य से प्रोद्भूत होने वाले तथ्यों एवं परिस्थितियों के संचयी प्रभाव को लेने और तत्पश्चात् निष्पक्ष को निकालने का होना चाहिये कि क्या तलाक याचिका में याची दूसरे के आचरण के कारण मानसिक क्रूरता का शिकार रहा है।”

इस वाद में न्यायालय ने यह भी अधिकथन किया कि जब से पति और पत्नी पृथक हये हैं. अनेक वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इन परिस्थितियों में, युक्तियुक्त ढंग से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पक्षकारों के मध्य विवाह अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो चुका है।

चेतन दास बनाम कमला दास के वाद में इस न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षण किया था कि विवाह। विषयक मामलों का मूल रूप से उसके तथ्यों के आधार पर सम्प्रेक्षण किया जाना आवश्यक है। न्यायालय शब्दों में-

“विवाह-विषयक मामले नाजुक मानवीय तथा भावनात्मक सम्बन्ध के मामले हैं। इसमें पारस्वत विश्वास, आदर तथा पति या पत्नी के साथ युक्तियुक्त समायोजन के लिये पर्याप्त भूमिका के साथ स्नेह की मांग होती है। इस सम्बन्ध को सामाजिक मानव के अनुरूप भी होना आवश्यक है। दी ना आवश्यक है। दाम्पत्य आचार

1. (2002) 2 एस०सी० सी० 619.

2. (2002)5 एस० सी०सी० 706.

3. (2001) 4 एस० सी०सी० 250.

को अब इन मानकों तथा परिवर्तित सामाजिक व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुये विरचित परिनियम द्वारा शासित किया जाना आवश्यक है। इसे सुगठित, स्वस्थ न कि विक्षोभित तथा सारन्ध्र (porous) समाज को तैयार करने हेतु दाम्पत्य मानकों को विनियमित करने के लिये व्यक्तियों के हित में और साथ ही और अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में नियंत्रित किये जाने की ईप्सा की गयी है। विवाह की संस्था समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। तथा समाज में उसकी सामान्यतया महत्वपूर्ण भूमिका है। अत: यह समुचित नहीं होगा कि तलाक के अनुतोष के प्रदान करने के लिये पक्के फार्मूले के रूप में, “अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग विवाह के निवेदन को लागू किया जाये। इस पहलू पर वाद के अन्य तथ्यों एवं परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में विचार किया जाना आवश्यक है।”

संध्या रानी बनाम कल्याण रामनारायनन के बाद में इस न्यायालय ने इस मत को दोहराया तथा अपनाया था कि चूंकि पक्षकार विगत तीन वर्ष से अधिक समय से पृथक् रहते आ रहे हैं, इसलिये हमारे मस्तिष्क में कोई सन्देह नहीं है कि पक्षकारों के मध्य विवाह अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हुआ है। उनके एक साथ आने की किसी प्रकार की कोई सम्भावना नहीं है, अत: न्यायालय ने तलाक की डिक्री प्रदान कर दी।

चन्द्रकला मेनन बनाम विपिन मेनन के वाद में पक्षकार अनेक वर्षों से पृथक रहते आ रहे थे। यह न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उनके मध्य समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि इस न्यायालय के सम्प्रेक्षण के अनुसार विवाह अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो चुका है और उनके एक साथ होने की कोई सम्भावना नहीं है। इस न्यायालय ने तलाक की डिक्री प्रदान कर दी।

कंचन देवी बनाम प्रमोद कुमार मित्तल के वाद में पक्षकार 10 वर्ष से अधिक समय से पृथक् रह रहे थे और न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पक्षकारों के मध्य विवाह अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो गया था और पुनर्मिलाप की कोई सम्भावना नहीं थी एवं इसलिये न्यायालय ने यह निदेशित किया कि पक्षकारों के मध्य विवाह तलाक की डिक्री द्वारा विघटित हुआ है।

 

स्वाती वर्मा बनाम राजन वर्मा के वाद में याची द्वारा प्रत्यर्थी के विरुद्ध अनेक दाण्डिक वाद दाखिल किये गये थे। इस न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षण किया कि पक्षकारों के मध्य विवाह अच्छे सम्बन्धों को प्रत्यावर्तित करने और पक्षकारों के मध्य सभी वादकरणों को समाप्त करने तथा भविष्य में वादकरण की गुंजाइश न छोड़ने के उद्देश्य से अप्रतिष्ठाप्य रूप से बन्द हो चुका है ताकि वे तत्पश्चात् शान्तिपूर्ण ढंग से रह सकें तथा पक्षकारों के निवेदन पर भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अधीन इस न्यायालय में निहित शक्ति का प्रयोग करते हुये न्यायालय ने हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13-ख के अधीन अपने समक्ष पारस्परिक सहमति से तलाक के लिये आवेदन दाखिल किया और विवाह को विघटित किया एवं पारस्परिक सहमति से तलाक की डिक्री प्रदान की।

प्रकाशचन्द्र शर्मा बनाम विमलेश के बाद में पत्नी ने अन्य स्त्री की उपस्थिति के होते हये भी पति के साथ जाने और उसके साथ रहने के लिये अपनी इच्छा व्यक्त की लेकिन पति सम्भवतः इसलिये सहमत होने की स्थिति में नहीं था कि क्योंकि उसने पुनर्विवाह करके अपनी स्थिति को परिवर्तित कर लिया है। स्थिति जैसी भी हो, पुनर्मिलाप सम्भव नहीं था।

वी० भगत बनाम डी० भगत (पूर्वोक्त) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने मानसिक क्रूरता के आधार पर विवाह के विघटन की अनुमति प्रदान करते समय और विवाह के अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग होने एवं वाद की असाधारण परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुये यह अभिनिर्धारित किया था कि पत्नी के विरुद्ध व्यभिचार के आरोप सिद्ध नहीं हुये थे तद्द्वारा उसका मान-सम्मान तथा चरित्र दोषमुक्त किया गया था। इस न्यायालय ने अन्य विकल्प की तलाश करते समय यह सम्प्रेक्षण किया था कि तलाक याचिका 8 वर्ष से अधिक समय से

1. (1994) सप्ली०2 एस० सी० सी० 588.

2. (1993) 2 एस० सी० सी०6.

3. (1996)8 एस० सी० सी०90.

4. (2004)1 एस० सी० सी० 123.

5. 1995 सप्ली० (4) एस० सी० सी० 642.

लम्बित पडी हयी है एवं दोनों पक्षकारों के जीवन का अच्छा-खासा हिस्सा इस वादकरण में समाप्त हो गया है। फिर भी उसके समाप्त होने की कोई सम्भावना नहीं है और यह कि याचिका में एक दूसरे के विरुद्ध गये अभिकथन एवं पक्षकारों द्वारा किये गये प्रत्युत्तर से यह दर्शित होगा कि एक साथ रहने का प्रश्न ही नहीं उठता है एवं मेल-मिलाप की कोई सम्भावना नहीं है। इस न्यायालय ने भी निर्णय के निष्कर्ष भाग में यह सम्प्रेक्षण किया था कि-

“इस वाद में विलग होने के पूर्व, हम स्पष्टीकरण को संलग्न करना आवश्यक समझते हैं। मात्र इसलिये कि आरोप तथा प्रत्यारोप किये गये हैं, तलाक की डिक्री नहीं हो सकती है। न ही स्वयं तलाक की कार्यवाहियों के निस्तारण में मात्र विलम्ब कोई आधार है। पूर्ण विचारण के बिना अभिवचन (और अन्य स्वीकृत सामग्री) के आधार पर तलाक के प्रदान किये जाने की आवश्यकता हेतु वास्तव में कुछ असाधारण बातें होंगी। विवाह का अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग होना स्वयं अपने आप में कोई आधार नहीं है। लेकिन यह अवधारणा करने के लिये अभिलेख में साक्ष्य की संवीक्षा करते समय कि क्या अभिकथित आधार सिद्ध हुये हैं और प्रदान किये जाने वाले अनुतोष का अवधारण करने में उक्त परिस्थितियों को निश्चित रूप से मस्तिष्क में रखा जा सकता है। इस वाद में हमारे द्वारा उठाये गये कदम जैसा कोई असामान्य कदम केवल हल न हो सकने वाली समस्या को हल करने के लिये केवल तभी उठाया जा सकता है जब न्यायालय उसे दोनों पक्षकारों के हित में पाये।”

पुनः ए० जयचन्द्र बनाम अनिल कुमार के बाद में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह सम्प्रेक्षण किया कि अधिनियम में अभिव्यक्ति ‘क्रूरता’ को परिभाषित नहीं किया गया है। क्रूरता शारीरिक अथवा मानसिक हो सकती है जो विवाह के विघटन का आधार है, जिसे ऐसा प्रकृति के इच्छायुक्त तथा अनौचित्यपूर्ण आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकेगा जिससे कि जीवन, अंग या स्वास्थ्य को शारीरिक अथवा मानसिक खतरा कारित किया जा सके अथवा ऐसे खतरे की युक्तियुक्त आशंका को उत्पन्न किया जा सके। मानसिक क्रूरता के प्रश्न पर उस विशिष्ट जिससे उनका सम्बन्ध है, समाज के दाम्पत्य सम्बन्धों के मानकों, उनके सामाजिक मूल्यों, प्रास्थिति, माहौल, जिसमें वे रहते हैं, (के प्रकाश में) विचार किया जाना आवश्यक है। उपरोक्त यथा वर्णित, क्रूरता में मानसिक क्रूरता सम्मिलित है जो विवाह-विषयक दोष की परिधि में आता है। क्रूरता का शारीरिक होना आवश्यक नहीं है। यदि उसके पति/पत्नी के आचरण से, वह स्थापित हुआ है तथा/अथवा इस निष्कर्ष को वैध रूप से निकाला जा सकता है कि पति/पत्नी का व्यवहार ऐसा है कि उससे उसके मानसिक कल्याण के बारे में अन्य पति/पत्नी के मस्तिष्क में आशंका उत्पन्न होती है, तो यह आचरण क्रूरता की कोटि में आता है। विवाह जैसे नाजुक मानवीय सम्बन्ध में, व्यक्ति को वाद की अधिसम्भाव्यताओं को देखना पड़ता है। सन्देह से परे सबूत की धारणा को आपराधिक विचारणों के लिये लागू ‘किया जाना चाहिये न कि सिविल मामलों के लिये और निश्चित रूप से पति और पत्नी के सम्बन्धों जैसे नाजुक सम्बन्ध के मामलों में बिल्कुल नहीं। अत: व्यक्ति को यह देखना पड़ता है कि किसी वाद में कौन-सी अधिसम्भाव्यतायें हैं और विधिक क्रूरता का पता मात्र यथार्थ रूप में नहीं, बल्कि अन्य पक्षकार के कृत्यों अथवा लोप के कारण परिवादी पति/पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव के रूप में पता लगाना आवश्यक होता है। करता शारीरिक या मूर्त या मानसिक हो सकेगी। शारीरिकि क्रूरता में मूर्त तथा प्रत्यक्ष साक्ष्य हो सकता है। लेकिन मानसिक क्रूरता के वाद में उसी समय प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हो सकेगा। ऐसे वादों में जहाँ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य न हो तो वहाँ न्यायालयों से मानसिक प्रक्रिया और उन घटनाओं के मानसिक प्रभाव की जाँच करने की अपेक्षा की जाती है जिन्हें साक्ष्य में प्रकट किया गया हो। इस बात को दृष्टिगत रखते हुये कि विवाहविषयक विवादों में साक्ष्य पर विचार करना आवश्यक होता है।

क्रूरता का गठन करने के लिये, शिकायत किये गये आचरण का इतना “गम्भीर और महत्वपूर्ण” हाना चाहिये जिससे कि वह इस निष्कर्ष पर पहुँच सके कि याची पति/पत्नी से युक्तियुक्त ढंग से पति साथ रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। यह “विवाहित जीवन के साधारण उठा-पटक नायक गम्भीर होगा। परिस्थितियों एवं पृष्ठभूमि पर विचार करने के आचरण की इस निष्कर्ष पर पहुंचने के

1. (2005) 2 एस० सी० सी० 22.

लिये जांच की जानी आवश्यक है कि क्या शिकायत किया गया आचरण विवाह-विषयक विधि में क्रूरता की कोटि में आता है। यथा उपरोक्त वर्णित आचरण पर पक्षकारों के सामाजिक स्तर, उनकी शिक्षा, शारीरिक और मानसिक दशाओं, रूढ़ियों तथा परम्पराओं जैसे अनेक घटकों की पृष्ठभूमि में विचार किया जाना आवश्यक है। किसी यथार्थपूर्ण परिभाषा को निर्दिष्ट करना या उन परिस्थितियों का पूर्ण विवरण देना कठिन है जिनसे क्रूरता का गठन होगा। उसे इस प्रकार का होना चाहिये जिससे न्यायालय के अन्त:करण का समाधान हो कि पक्षकारों के मध्य सम्बन्ध अन्य पक्षकार के आचरण के कारण ऐसी सीमा तक बिगड़ गये थे कि उनके लिये मानसिक वेदना, यातना अथवा विपत्ति के बिना एक साथ रहना एवं तलाक को प्राप्त करने के लिये शिकायत करने वाले पति/पत्नी का हकदार बनाना असम्भव होगा। शारीरिक हिंसा क्रूरता का गठन करने के लिये बिल्कुल आवश्यक नहीं है एवं अपरिमित मानसिक वेदना एवं यातना कारित करते हुये आचरण के सुसंगत अनुक्रम से अधिनियम की धारा 10 की अर्थव्याप्ति में करता का भली-भांति गठन कर सकेगा। मानसिक क्रूरता में अन्य पक्षकार की मानसिक शान्ति के लगातार विक्षोभ को कारित करते हुये भद्दी एवं गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग करके मौखिक गालियां तथा अपमान सम्मिलित हो सकेंगे।

न्यायालय को, क्रूरता के आधार पर तलाक की याचिका से संव्यवहार करते समय, मस्तिष्क में यह बात रखनी आवश्यक है कि उसके समक्ष समस्यायें मनुष्यों की समस्यायें हैं तथा पति/पत्नी के आचरण को मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को तलाक की याचिका का निस्तारण करने के पूर्व मस्तिष्क में रखना आवश्यक है। तथापि, चाहे नगण्य हो या तुच्छ ऐसे आचरण से किसी अन्य व्यक्ति के मस्तिष्क में पीड़ा कारित हो सकेगी। लेकिन इससे पूर्व कि उस आचरणं को क्रूरता कहा जा सके, उसे कठोरता की कतिपय गहराई का स्पर्श करना होगा। न्यायालय का यह दायित्व है कि वह गम्भीरता का मूल्यांकन करे। इस बात को भी देखा जाना आवश्यक है कि क्या वह आचरण ऐसा था कि कोई भी प्रज्ञावान व्यक्ति उसे सहन नहीं करेगा। इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि क्या परिवादी को सामान्य मानव जीवन के अंग के रूप में सहन करने के लिये आहूत किया जाना चाहिये। प्रत्येक विवाह-विषयक आचरण, जिससे दूसरे पक्षकार को नाराजगी कारित हो सकेगी, क्रूरता की कोटि में नहीं आ सकेगा। पति/पत्नी के मध्य छोटी-मोटी चिड़चिड़ाहट, झगड़े जो विवाहित जीवन में दिन-प्रतिदिन घटित होते रहते हैं, भी करता की कोटि में नहीं आ सकेंगे। दाम्पत्य जीवन में करता निराधार किस्म की हो सकेगी, जो सूक्ष्म अथवा नृशंस हो सकती है, वह शब्द, अंग विक्षेप या मात्र चुप्पी द्वारा चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक द्वारा हो सकती है।

स्वस्थ विवाह का आधार, सहनशीलता, समायोजन और एक-दूसरे का सम्मान करना है। कतिपय सहन योग्य सीमा तक प्रत्येक दूसरे की त्रुटि की सहनशीलता प्रत्येक विवाह में अन्तर्निहित होनी आवश्यक है। छोटी-छोटी झिक-झिक (quibbles), छोटे-मोटे मतभेदों को बढ़ाया-चढ़ाया नहीं जाना चाहिये और इस कदर अतिरंजित नहीं किया जाना चाहिये जिससे कि वही नष्ट हो जाये जिसका स्वर्ग में बनाया जाना अधिकथित है। सभी झगड़ो का यह अवधारित करने में उस दृष्टि से मूल्यांकन किया जायेगा कि प्रत्येक विशिष्ट वाद में करता का गठन किस बात से होता है और जैसा कि उपरोक्त उल्लिखित है, पक्षकारों की शारीरिक और मानसिक दशाओं, उनके चरित्र तथा सामाजिक प्रास्थिति को सदैव मस्तिष्क में रखा जाना आवश्यक है। अत्यधिक तकनीकी एवं अत्यंत संवेदनशील दृष्टिकोण विवाह की संस्था के लिये हानिकारक होगा। न्यायालय को आदर्श पतियों से संव्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है। उसे अपने समक्ष विशिष्ट पुरुष तथा ‘त्री से संव्यवहार करना पड़ता है। आदर्श दम्पत्ति अथवा मात्र आदर्श दम्पत्ति को विवाह-विषयक न्यायालय के समक्ष जाने का सम्भवत: कोई अवसर प्राप्त नहीं होगा।

दर्गा पी० त्रिपाठी बनाम अरुन्धती त्रिपाठी के वाद में, उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षण किया था कि विवाह स्वर्ग में बनते हैं। दोनों पक्षकारों ने ऐसी हद पार कर ली है जहाँ से लौटकर वापस आना सम्भव नहीं है। व्यवहार्य हल निश्चित रूप से सम्भव नहीं है। पक्षकार इस प्रक्रम पर परस्पर मेल नहीं कर सकते हैं तथा अपने भूत की घटनाओं को दुःस्वप्र मानकर भुलाते हुये एक साथ नहीं रह सकते हैं, अत: हमारे पास अपील को अनुज्ञात करने एवं उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त करने तथा तलाक की डिक्री प्रदान करते

1. (2005) 7 एस० सी० सी० 353.

हुये कुटुम्ब न्यायालय के आदेश को अभिपुष्टि करने के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं। ललित मानिक स्वामी के बाद में उसने इस बात की चेतावनी दी थी कि तलाक प्रदान करने का असामान्य कदम केवल उस जटिल समस्या को हल करने के लिये उठाया जा रहा है, जिसे न्यायालय दोनों पक्षकारों के हित में पाता है।

विवाह का अप्रतिष्ठाप्य भंग (LLB Notes in Hindi)

विवाह का अप्रतिष्ठाप्य भंग हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन तलाक का आधार नहीं है। परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण तथा ऐसे अनेक वादों को आच्छादित करने के लिये जहाँ विवाह वस्तुतः मृत हो चुके हैं और जब तक इस धारणा को लागू नहीं किया जाता है तब तक तलाक प्रदान नहीं किया जा सकता। अन्ततोगत्वा विधान-मण्डल का यह कर्तव्य है कि वह विवाह के अप्रतिष्ठाप्य भग का तलाक के आधार के रूप में सम्मिलित करे अथवा नहीं लेकिन हमारी विचारित राय में विधान-मण्डल को हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन तलाक प्रदान करने के आधार के रूप में विवाह के अप्रतिष्ठाप्य भंग पर विचार करना होगा।

भारत के विधि आयोग की 71वीं रिपोर्ट में विवाह के अप्रतिष्ठाप्य भंग की धारणा से संक्षेप में संव्यवहार किया गया है। यह रिपोर्ट सरकार के समक्ष 7 अप्रैल, 1978 को दाखिल की गयी थी। हम सिफारिश को विस्तार से दोहराना समुचित समझते हैं। इस रिपोर्ट में, यह उल्लेख किया गया है कि विगत 20 वर्षों के दौरान और अब लगभग 50 वर्ष हो जायेंगे, एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न ने अधिवक्ताओं, समाजशास्त्रियों और अनुभवी व्यक्तियों का ध्यान आकृष्ट किया है अर्थात् क्या तलाक का प्रदान किया जाना पक्षकार के दोष पर आधारित होना चाहिये अथवा क्या उसे विवाह के भंग पर आधारित होना चाहिये? पूर्ववर्ती को विवाह विषयक अपराध के सिद्धान्त अथवा त्रुटि के सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। पश्चात्वर्ती को भंग के सिद्धान्त के रूप में जाना गया है।

रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भंग के सिद्धान्त का तत्व, जहाँ तक कॉमनवेल्थ देशों का सम्बन्ध है, काफी पूर्वतर अवधि के दौरान विधायी एवं न्यायिक परिवर्तनों में पाया जा सकेगा। (न्यूजीलैंड) तलाक और विवाह विषयक मामलों का संशोधन अधिनियम, 1920 में पहली बार इस स्थिति को सम्मिलित किया गया था कि तीन वर्ष या उससे अधिक समय के लिये पृथक्करण का करार तलाक हेतु न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करने का आधार था और न्यायालय को मार्गदर्शक सिद्धान्तों के बिना यह विवेकाधिकार प्रदान किया गया था कि क्या तलाक प्रदान किया जाये या नहीं। इस परिनियम द्वारा प्रदत्त विवेकाधिकार का प्रयोग वर्ष 1921 में सम्प्रकाशित न्यूजीलैण्ड के किसी वाद में किया गया था। न्यायमूर्ति सामण्ड ने, एक लेखांश में, जो अब ऐतिहासिक बन चुका है, इन शब्दों में भंग के स्थान को प्रतिपादित किया था

“मैं यह समझता हूँ कि विधान-मण्डल का यह आशय रखना माना जायेगा कि तीन वर्ष के लिये पथक्करण को इस न्यायालय द्वारा तलाक के लिये प्रथम-दृष्टया विधिमान्य आधार के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। जब उस अवधि के लिये दाम्पत्य सम्बन्ध का वस्तुत: विद्यमान होना बन्द हो गया हो तो, जब तक प्रतिकल विशेष कारण न हों, उसे विधितः भी विद्यमान होना बन्द हो जाना चाहिये। सामान्य रूप से यह बात पक्षकारों के हित में अथवा जनसामान्य के हित में नहीं है कि पुरुष तथा स्त्री को विधिनुसार पति और पत्नी के रूप में एक साथ बन्धन में रहना चाहिये जब कि लम्बी अवधि तक उनका वास्तव में इस रूप म होना बन्द हो गया हो। ऐसे पृथक्करण के वाद में विवाद के आवश्यक प्रयोजनों को विफल कर दिया गया है और उसका आगे चलते रहना सामान्यतया मात्र निरर्थक ही नहीं है बल्कि वह कुचेष्टाकारी भी है।”

रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि तलाक के आधार पर किसी विशिष्ट अपराध विवाह विषयक निर्योग्यता तक सीमित करने से उन वादों में अन्याय कारित होता है जहाँ स्थित र हो कि यद्यपि पक्षकारों में से कोई दोषी नहीं है अथवा दोष इस प्रकृति का है कि विवाह के पक्ष नहीं करना चाहते हैं लेकिन फिर भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमें विवाह को नही चलाया जा

1. (1) 2001 डी० एम० सी०679 (एस० सी०).

सकता है। ऊपर से देखने में विवाह पूर्णत: ठीक-ठाक है लेकिन वास्तव में ऐसा बिल्कुल नहीं है, जैसा कि अक्सर बलपूर्वक पेश किया जाता है, विवाह मात्र ऐसा ढांचा है जिसमें से सम्पूर्ण सार निकल चुका है। यह अधिकथन किया गया है कि इन परिस्थितियों में विवाह को मात्र आवरण के रूप में बनाये रखने की कदाचित ही कोई उपयोगिता है जबकि भावनात्मक एवं अन्य बन्धन, जो विवाह का सार होते हैं, पूर्णत: लुप्त हो चुके हैं। रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि यदि विवाह साररूप में और वस्तुतः विद्यमान होना बन्द हो गया हो तो तलाक से इन्कार करने का कोई कारण नहीं है तो अकेले पक्षकार यह तय कर सकते हैं कि क्या उनके पारस्परिक सम्बन्ध से उस बात की पूर्ति होती है जिसे वे चाहते हैं। तलाक को किसी हल्के रूप में तथा कठिन स्थिति से बच निकलने के मार्ग के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये। ऐसा तलाक पूर्व में की गयी गलतियों से असम्बद्ध होता है लेकिन उसका सम्बन्ध पक्षकारों तथा बच्चों को नयी स्थिति और परिवर्तनों के अनुरूप बनाना होता है जिसे ऐसे सर्वाधिक सन्तोषजनक आधार को खेजकर किया जाता है जिससे बदली हुयी परिस्थितियों में उनके सम्बन्ध को नियमित किया जा सके।

दिनांक 22 मई, 1969 को, चर्च ऑफ स्काटलैण्ड की महासभा ने अपने नैतिक और सामाजिक कल्याण परिषद की उस रिपोर्ट को स्वीकार किया था जिसमें विवाह-विषयक अपराधों के स्थान पर भंग को प्रतिस्थापित करने का सुझाव दिया गया था। उसे उद्धृत करना रुचि का विषय होगा जिसे उन्होंने अपने मूल प्रस्तावों में कहा था। विवाह विषयक अपराध अक्लर बिगड़ते हुये विवाह के हेतुक की अपेक्षा परिणाम होते हैं। तलाक के अभियोग सम्बन्धी सिद्धान्त से विवाह विषयक अपराधों के प्रोत्साहन मिलता है। कड़वाहट बढ़ती है और वह दरार, जो पहले से विद्यमान है बढ़ जाती है। पक्षकारों में कम से कम एक पक्षकार के दूसरे पक्षकार के साथ न रहने के निर्णय के परिणामस्वरूप कम से कम दो वर्ष की सतत् अवधि के पृथक्करण को भंग विवाह के एकमात्र साक्ष्य के रूप में कार्य करना चाहिये।

पक्षकारों के एक बार पृथक् हो जाने पर एक पृथक्करण के पर्याप्त लम्बी अवधि तक चलते रहने पर और उनमें से एक के एक बार तलाक की याचिका प्रस्तुत कर चुकने पर भली-भाँति यह अधारित किया जा सकता है कि विवाह भंग हो गया है। नि:सन्देह न्यायालय को गम्भीर रूप से पक्षकारों में मेल कराने का प्रयास करना चाहिये फिर भी यदि यह पाया जाता है कि भंग अप्रतिष्ठाप्य है तो तलाक को प्रतिधारित नहीं करना चाहिये। ये न चल सकने योग्य विवाह, जो काफी पहले प्रभावकारी नहीं रह गये हैं, को विधिनसार परिरक्षित करने के परिणाम पक्षकारों के लिये और अधिक दुख का स्रोत बनने के लिये बाध्य हो। जाते हैं।

मुख्यतः दोष पर आधारित तलाक की विधि भंग विवाह से संव्यवहार करने के लिये अपर्याप्त है। दोष के सिद्धान्त के अधीन दोष को सिद्ध किया जाना आवश्यक होता है। तलाक न्यायालयों के समक्ष मानव व्यवहार के ऐसे ठोस सिद्धान्त पेश किये जाते हैं जिनसे विवाह की संस्था बदनाम होती है।

हम मुख्यतः इस घटक से प्रभावित होते हुये हैं कि विवाह के एक बार अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो जाने पर विधि के लिये उस तथ्य की अवेक्षा न करना अवास्तविक होगा एवं समाज के लिये हानिकर तथा पक्षकरों के हितों के लिये क्षतिकारक होगा। जहाँ लम्बी अवधि तक सतत् पृथक्करण रहा हो, निष्पक्ष ढंग से यह अनमान लगाया जा सकेगा कि विवाह गठबन्धन अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो चुका है। विवाह मात्र कल्पना ही रह जाती है यद्यपि उसे विधिक सम्बन्ध का आश्रय प्राप्त है। उस बन्धन को विच्छेदित करने से इन्कार करके ऐसे वादों में विधि विवाह की पवित्रता के प्रयोजन को सिद्ध नहीं करती, इसके विपरीत उससे पक्षकारों की भावनाओं के लिये आदर भाव की कमी दर्शित होती है।

जनहित की मांग न केवल यह है कि विवाहित दर्जा, जहाँ तक सम्भव हो, जब तक सम्भव हो, जब भी साभव हो बनाये रखा जाना चाहिये लेकिन जहाँ विवाह इतना नष्ट हो चुका है कि उसके ठीक होने का आशा नहीं है तो जनहित उस तथ्य की मान्यता में निहित होता है।

चूँकि ऐसा कोई स्वीकार्य मार्ग नहीं है जिसमें पति/पत्नी को पत्नी/पति के साथ जीवन पुनः प्रारम्भ करने लिये विवश किया जा सकता है। किसी ऐसे विवाह के लिये पक्षकारों को सदैव बांधे रखने का प्रयास करने से कुछ भी हासिल नहीं होता है जो वास्तव में अस्तित्वयुक्त होना बन्द हो गया है।

कुछ विधिशास्त्रियों ने विवाह की डिक्री के प्रदान करने के आधार के रूप में विवाह के अप्रतिष्ठाप्य भंग को सम्मिलित करने हेतु अपनी आशंका भी व्यक्त की है। उनकी राय में, अधिनियम में ऐसे संशोधन से मानवीय प्रतिभा में वृद्धि होगी और वादकरण के मार्ग प्रशस्त हो जायेंगे एवं उससे और भी समस्यायें उत्पन्न होंगी हल किये जाने का प्रयास किया गया है।

विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, अन्य बहुमत का मत जिसका अधिकांश विधिशास्त्री समर्थन करते हैं, यह है कि मानव जीवन की अवधि संक्षिप्त होती है और दख कारित करने वाली स्थितियों को अनिश्चित काल तक बने रहने की अनुमति प्रदान नहीं की जा सकती है। किसी प्रक्रम पर विराम लिये जाने की आवश्यकता है। विधि ऐसी स्थितियों की अवज्ञा नहीं कर सकती है. और न ही उनसे उत्पन्न होने वाली आवश्यकताओं को पर्याप्त उत्तर देने से इन्कार कर सकती है।

धारा 13 में यथा-उल्लिखित विवाह-विच्छेद के आधार में कहीं भी विवाह के अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग के आधार पर विवाह-विच्छेद की अनुमति नहीं दी गयी है। यदि विवाह के अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग के आधार पर विवाह-विच्छेद प्रदान किया जाता है तो वह धारा 13 में नये आधार को जोड़ने के समतुल्य होगा। केवल विधान मण्डल द्वारा ही नये आधार को जोड़ा जा सकता है। यदि धारा 13-ख एवं 14 की शतों का पालन किया गया हो और पक्षकार एक साथ विगत पांच वर्षों से साथ न रह रहे हों और सुलह विलेख के सम्यक रूप से पति-पत्नी द्वारा अनुमोदित एवं सत्यापित किया गया हो तो विवाह को विघटित किया जा सकता है।

विवाह विघटन-क्रूरता एवं अधित्यजन के आधार पर-पक्षकारों के बीच विवाह-विच्छेद के लिये अधित्यजन का आधार तब उपलब्ध नहीं होता, जब पक्षकारों के बीच सहवास द्वारा विवाह पूर्ण न हुआ हो।

पत्नी द्वारा क्रूरता एवं अधित्यजन के आधार पर पति द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका-पति द्वारा इस आधार पर विवाह-विच्छेद का दावा किया गया था कि विवाह अप्रतिष्ठाप्य (irretrievably) रूप से विघटित हो गया है। पति जारकर्म का दोषी पाया गया था और अपने निजी “दोष” का लाभ उठाना चाहता था। अभिनिर्धारित किया गया कि उक्त आधार पर वह विवाह-विच्छेद का हकदार नहीं था और विघटित विवाह विवाह-विच्छेद का आधार नहीं है। विवाह के अप्रतिष्ठाप्यपूर्ण ढंग से विच्छेद हो जाने के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों में नहीं प्रदान की जा सकती। अत: विवाहविच्छेद के अनुतोष को अनुदत्त करने का संयमित फार्मूले के रूप में “अप्रतिष्ठाप्यपूर्ण (irretrievablv) रीति से विच्छेदित विवाह” के किसी आग्रह को उपयोजित करना न्यायोचित नहीं होगा।

अधित्यजन के आवश्यक तत्व-वैवाहिक कानून में ‘अधित्यजन’ एक विधिक अवधारणा का प्रतिनिधित्व करता है। इस शब्द की व्यापक परिभाषा देना कठिन है।

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (i-ख) सपठित स्पष्टीकरण के अन्तर्गत ‘अधित्यजन’ के लिये उसमें निम्न तत्व आवश्यक हैं-

(1) पृथक्करण का तथ्य;

(2) सहवास को स्थाई रूप से समाप्त करने का आशय-यानि अभित्यजन का आशयः

1. श्रीमती अलका बनाम राजेन्द्र कुमार, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 248 (इला०) : 2012 (2) ए. डब्ल्यू ० सी० 1540 (इला०).

2. श्रीमती रेखा देवी बनाम अभिषेक मिश्रा, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 763 (इला०) : 2012 (5) ए० डब्ल्यू ० सी० 4674 (इला०).

3. सावित्री पाण्डेय बनाम प्रेमचन्द्र पाण्डेय, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 591: 2002 विधि निण एवं सामयिकी 276 (एस० सी०).

4. चेतनदास बनाम कमला देवी, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1709, 2001 (4) एस० 250: 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 397 (एस० सी०); और भी देखें श्रीमत बनाम डॉ० एस० पी० त्रिवेदी, 1993 (4) एस० सी० सी०232: श्रीमती सरोज राना 1095 (2) एस०

(3) स्थायित्व का तत्व जो एक मुख्य शर्त है जो यह अपेक्षा करता है कि ये दोनों आवश्यक तत्व समपूर्ण संविधिक अवधि के दौरान निरन्तर बने रहने चाहिये।

इस न्यायालय ने सनत कुमार अग्रवाल बनाम नन्दिनी अग्रवाल, के मामले में, अधिनियम की धारा 13 (1) (i-ख) के अन्तर्गत एक मामले पर विचार कर यह अभिनिर्धारित किया था कि यह सुस्थापित है। कि अभित्यजन का प्रश्न एक अनुमान का मामला है जिसे प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों से निकाला जाना चाहिये और उन तथ्यों पर ऐसे प्रयोजन के सम्बन्ध में विचार किया जाना चाहिये जो उन तथ्यों या आचरण और आशय की अभिव्यक्ति पथक्करण के वास्तविक कृत्य के पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वी दोनों द्वारा प्रकट होता है।

चेतनदास बनाम कमला देवी, के मामले में इस न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार किया था कि क्या इस न्यायालय में पति द्वारा अपनी पत्नी को रखने के लिये किये गये प्रस्ताव को वास्तविक न होना अभिनिर्धारित किया गया था और उस पर गम्भीरता से विचार किये जाने योग्य नहीं था। उस सम्बन्ध में इस न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया था

“बहस के दौरान, अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता ने, सोसम्मा थामस (उक्त) के साथ अवैध सम्बन्ध रखने के विषय में अपीलार्थी के विरुद्ध किये गये अभिकथनों को प्रदर्शित करने के बाद भी, निवेदन किया था कि अपीलार्थी, तब भी प्रत्यर्थिनी कमला देवी को अपने साथ रखने को तैयार है। उसके अनुसार अपीलार्थी ने कभी भी उसके साथ रहने से इन्कार नहीं किया था। जवाब में, प्रत्यर्थिनी के विद्वान अधिवक्ता ने निवेदन किया था कि प्रत्यर्थिनी भी अपीलार्थी के साथ रहने के लिये तैयार थी परन्तु यह कि वह सोसम्मा थामस से अपने सम्बन्ध तोड़ ले। निवेदन कि अपीलार्थी तब भी अपने साथ प्रत्यर्थिनी को रखने के लिये तैयार था, की प्रवृत्ति बिल्कुल स्पष्ट है। यह अभिलेख पर है कि कतिपय (उसी) बन्धपत्र पर यह था कि प्रत्यर्थिनी को अपीलार्थी अपने साथ रखने के लिये गंगानगर ले गया था किन्तु वहाँ उसके साथ अपीलार्थी द्वारा तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया जा रहा था और अपीलार्थी स्वयं सोसम्मा थामस के कमरे में भोजन करता था और अपनी पत्नी और बहिन को अकेले भूतल पर छोड़कर रात में वहां रहता था। इस प्रकार के व्यवहार से, अपीलार्थी द्वारा किया गया प्रस्ताव इतना तुच्छ था कि उस पर गम्भीरता से विचार किया जाना था। उसी समय, शर्त, जिस पर प्रत्यर्थिनी उसके साथ रहने के लिये तैयार है, पूर्णतया न्यायोचित प्रतीत होती है, कहने का तात्पर्य यह है कि वह उसके साथ तब भी रहने के लिये तैयार थी परन्तु यह कि वह अन्य महिला से अपना सम्बन्ध तोड़ ले। यह स्पष्ट है कि यह अपीलार्थी का स्वयं का ही आचरण था जिससे प्रत्यर्थिनी को अपीलार्थी से पृथक रहना पड़ा था। कुछ अन्यथा नहीं किन्तु अपीलार्थी को ही केवल, ऐसी दुखद एवं दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिये दोषी ठहराया जाना चाहिये।

प्रथमत: अभित्यजित पक्षकार (पति या पत्नी) का ऐसा आचरण होना चाहिये कि जो अभित्यजन करने वाला पक्षकार था। यह न्यायोचित तथा युक्तियुक्त हेतुक प्रदान करता है कि वह सुलह न करे और जो उसे (पत्नी को) अपने वैवाहिक घर को वापस होने के लिये उसके निरन्तर बने रहने वाली बाध्यता से मुक्त कर देता है। इसमें किसी भी व्यक्ति को अभित्यजित पक्षकार (पति या पत्नी को) के आचरण पर ध्यान देना चाहिये। किन्तु एक अन्य बात भी है जो समान रूप से महत्वपूर्ण है, यानि कि अभित्यजित पक्षकार (पति या पत्नी) के आचरण का अभित्यजन करने वाले पक्षकार के मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव पड़ा है कि वास्तव में, यह उसे पृथक निवास करते रहने के लिये प्रेरित करता है तथा इस प्रकार अभित्यजन निरन्तर बना रहता है। किन्तु जहाँ तथ्यों पर यह स्पष्ट है कि अभित्यजित पक्षकार (पति या पत्नी) के आचरण का अभित्यजन करने वाले पक्षकार के मस्तिष्क पर कोई ऐसा प्रभाव नहीं है तब विधि का कोई ऐसा नियम नहीं है कि अभित्यजन अभित्यजित पक्षकार के आचरण के कारण समाप्त हो जाता है।”

यदि पति द्वारा दी गयी मानसिक क्रूरता साबित हो जाती है तब यह तलाक की डिक्री के लिये पर्याप्त है-प्रस्तुत वाद में अवधारण के लिये निम्न बिन्दु उत्पन्न हुये थे-(i) क्या पति-पत्नी अपीलार्थी के

1. आध्यात्म भट्टार अलवर बनाम आध्यात्म भट्टार श्रीदेवी, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 88 : 2002 विधि निर्णय एवं सामयिकी 163 (एस० सी०)..

2. (1990) 1 एस० सी० सी० 475.

3. आई० आर० 2001 एस० सा० 1709 : (2001) 4 एस० सी० सी० 250 : 2001 विधि निर्णय एव। सामयिकी 397.

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