LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Five Part Notes
LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Five Part Notes:- Bachelor of Law (LLB) 2nd Year Semester Wise Modern Hindu Law Books Chapter 6 Vaivahik Anutosh Most Important Notes and Study Material LLB Question Paper and Question Answers in Hindi English (PDF File Download) for all BA LLB University for Students.
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साथ उसके पति ने क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया था और वह इस आधार पर तलाक की डिक्री की हकदार है? का क्या अपीलार्थी ने युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना अपने पति के सहचर्य से प्रत्याहरण कर लिया था जैसा कि प्रत्यर्थी ने अपनी याचिका में अभिकथन किया है? अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1) (i-क) के अधीन तलाक याचिका में साक्ष्य से साबित था कि पति ने पत्नी के साथ, दुर्व्यवहार किया था एवं उसे शारीरिक एवं मानसिक क्रूरता कारित की थी, वहाँ तलाक याचिका को मंजूर कर लिया जाना चाहिये।
विवाह-विच्छेद की इस आधार पर मांग की गयी थी कि विवाह अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो चुका है। भंग केवल पति की ओर से था। पत्नी लगातार इस बात पर अडिग रही थी कि वह अपने पति के साथ अपने भावी सम्बन्ध को लेकर अत्यन्त चिन्तित है और यह कि उसकी सर्वोपरि चिन्ता अपने पति के साथ पनःमिल जाने और दाम्पत्य सम्बन्ध में उसके साथ सामान्य रूप से एक बार पुनः रहने की है। चूंकि पत्नी द्वारा दाम्पत्य सम्बन्धों के पथक्करण पर कोई सहमति नहीं है. अत: पति की ओर से लिया गया आधार स्वीकार्य नहीं है। विवाह के अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो जाने के कारण विवाह-विच्छेद की डिक्री प्रदान किये जाने हेतु विधान मण्डल द्वारा विवाह के अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो जाने के कारण को आधार के रूप में प्रावधानित नहीं किया गया है। अतः विवाह के अप्रतिष्ठाप्य रूप से भंग हो जाने के लिए लिया गया आधार स्वीकार्य नहीं है।
क्रूरता के आधार पर विवाह के विघटन एवं विवाह-विच्छेद के लिये पत्नी द्वारा याचिका-शीलभ्रष्टता एवं किसी पराये पुरुष के साथ अश्लील मेल-जोल रखने के अरुचिकर अभियोग को एवं विवाहेत्तर सम्बन्धों को रखने के अभिकथनों को अधिरोपित करना पत्नी के चरित्र, सम्मान एवं प्रतिष्ठा पर गम्भीर हमला है एवं वह निकृष्टतम कोटि के अपमान एवं क्रूरता के समतुल्य है। प्रश्न जिसका उत्तर दिया जाना आवश्यक है वह यह है कि क्या अपीलार्थी पति द्वारा पत्नी के बारे में प्रकथन, अभियोग और चरित्रहनन अधिनियम की धारा 13 (1) (i-क) के अधीन विवाह-विच्छेद के दावे का समर्थन करने के लिये मानसिक क्रूरता का गठन करता है। इस सम्बन्ध में विधि की स्थिति सुस्थापित हुई है और यह घोषित किया गया है कि शीलभ्रष्टता और किसी पराये पुरुष के साथ अश्लील मेलजोल तथा विवाहेत्तर सम्बन्ध के अभिकथन पत्नी के चरित्र, सम्मान, प्रतिष्ठा, प्रास्थिति और साथ ही स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रहार है। किसी शिक्षित भारतीय पत्नी के प्रसंग में विचार किये जाने और भारतीय दशाओं और मानकों द्वारा जांच किये जाने पर पत्नी को उपारोपित विश्वासघात की ऐसी अपनिन्दा सबसे निकृष्ट प्रकार के अपमान या क्ररता की कोटि में आयेगा, जो स्वयं आने आप में विधिनुसार क्रूरता को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है जिससे मंजूर किये जा रहे पत्नी के दावे का समर्थन होता है। लिखित काथन में किये गये अथवा परीक्षा के अनुक्रम में संकेतित और प्रतिपरीक्षा के माध्यम से किये गये इन अभिकथनों से विधि की शर्त पूरी होती है, इसे भी इस न्यायालय द्वारा दढतापूर्वक निर्दिष्ट किया गया है। इन अभिकथनों के सुसंगत अंशों का परिशीलन करने पर, कुटुम्ब न्यायालय और साथ ही उच्च न्यायालय द्वारा अभिलिखित निष्कर्षों पर कोई आपत्ति नहीं की जा सकती है। वे ऐसी गणवत्ता, मात्रा तथा परिणाम के हैं जिससे कि ऐसी मानसिक पीड़ा, वेदना और कष्ट कारित हो जो विवाहविषयक विधिनुसार क्रूरता की पुन: निश्चित धारणा की कोटि में आते हैं जिनसे गम्भीर और अन्तिम व्यवधान उत्पन्न होता है, पत्नी गहरा आघात महसूस करने के लिये विवश हो जाती है और वह यक्तियक्त ढंग से यह आशंका करने लगती है कि ऐसे पति के साथ रहना उसके लिये खतरनाक होगा जो उसे इस प्रकार से ताना देता रहा था और दाम्पत्य-गृह को कायम रखना असम्भव हो गया था ।
क्रूरता जिसे परिनियम द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है, की विधिक धारणा सामान्यतया ऐसे चरित्र के आचरण के रूप में बतायी गयी है जिससे जीवन, अंग अथवा स्वास्थ्य को (शारीरिक और मानसिक) खतरा उत्पन्न हो सकता हो अथवा उस खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो सकती हो। क्रूरता के सभी प्रश्नों में सामान्यतया नियम यह होता है कि सम्पूर्ण दाम्पत्य सम्बन्धों पर विचार किया जायेगा. यह कि नियम का उस
1. श्रीमती कला कुमारी बनाम राजभवन आनन्द, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 7091 और भी देखें:रमेश चन्द्र बनाम श्रीमती रमेश चन्द्र बनाम श्रीमती सावित्री, 1995 (25) ए० एल० आर० 536 और धर्मेन्द्र कुमार ऊषा कुमारी, 1977 (3) ए० एल० आर० 490.
2. दर्शन गुप्ता बनाम राधिका गुप्ता, 2014 विधि निर्णय एवं सामयिकी 1 (एस० सी०1; विष्णु दत्त शर्मा बनाम मंजू शर्मा, ए० आई० आर० 2009 एस० सी० 2254.
3. विजय कुमार रामचन्द्र भाटे बनाम नीला विजय कुमार भाटे, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 634.
समय विशेष महत्व होता है जब करता में न केवल हिंसक कृत्य सम्मिलित हो बल्कि तिकारक झिडकियां शिकायत अभियोग अथवा उपालम्भ भी सम्मिलित हो। यह मानसिक, जैसे कि जीवन के प्रति उदासीनता तथा सहवास की इच्छा का अभाव उसके साथ रहने से इंकारी, पत्नी के लिये घृणा तथा नफरत अथवा भारोरिक हिंसा जैसे काय एवं बिना किसी कारण के लैंगिक मैथुन से दूर रहना हो सकेगी। यह सिद्ध किया जायेगा कि विवाह के एक पक्षकार ने परिणामों को ध्यान में रखे बिना ऐसे ढंग से व्यवहार किया है जिससे किसो पति-पत्नी को विद्यमान परिस्थितियों में बर्दाश्त करने के लिये नहीं कहा जा सकता है और यह कि कदाचार से स्वास्थ्य को क्षति कारति हयो है अथवा उस क्षति की युक्तियुक्त आशंका कारित हुयी है। क्रूरता के बाद में विचार किये जाने वाले दो पक्ष होते हैं। अपीलार्थी के पक्ष से, क्या इस अपीलार्थी को उस आचरण को बदर्शित करने के लिये कहा जाना चाहिये था? प्रत्यर्थी के पक्ष से, क्या यह आचरण क्षम्य था? न्यायालय को विनिश्चित करना आवश्यक है कि क्या कुल मिलाकर दोषी आचरण कर था? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या संचयो आचरण यह कहने के लिये पर्याप्त रूप से गम्भीर है कि किसी ऐसे प्रति-हेतु, जिसे प्रत्यय विद्यमान परिस्थितियों में रख सकेगा, के सम्बन्ध में विचार करने के पश्चात् किसी प्रज्ञावान व्यक्ति के दुरिकोण से आचरण ऐसा है कि याची को बर्दाश्त करने के लिये नहीं कहा जाना चाहिये था।
डॉ० एन०जी० दस्ताने बनाम श्रीमती एस० दस्ताने,2 के वाद में, इस न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षण किया कि सामान्यतया अपने अभिवाक् को स्थापित करने का भार याची पर होता है कि प्रत्यर्थी ने याची के साथ करता की थी और यह कि अधिनियम के अधीन विवाह-विषयक वादों में अपेक्षित सबूत का स्तर युक्तियुक्त सन्देह से परे क्रूरता के आरोप को स्थापित करना नहीं होना चाहिये बलिक यह पता लगाने के लिये विभिन्न अधिसम्भाव्यताओं को प्रभावित करने वाला होना चाहिये कि क्या प्राबल्य अभिकथित उक्त तपको विद्यमानता के पक्ष में है। क्रूरता की प्रकृति क्या है इस बात को भी स्थापित किया जाना आवश्यक है, यह बताया गया है कि अंग्रेजी विधि के अधीन शर्त से भिन्न जो इस प्रकृति की होगी जिससे कि जीवन, अंग या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न हो ताकि ऐसे खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो सके, को प्रश्नगत अधिनियम के अधीन न्यायालय को मात्र इतना देखना पड़ता है कि क्या याची ने यह सिद्ध किया था कि प्रत्यर्थी ने याची के साथ ऐसी क्रूरता का व्यवहार किया था जिससे कि मस्तिष्क में युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि स्वास्थ्य, प्रतिष्ठा, कार्यवृत्ति या उसी प्रकार की बातों की हानि और क्षति की परिणामित सम्भावनाओं पर विचार करते हुये एक साथ रहना हानिकर या क्षतिकर होगा।
वी० भगत बनाम श्रीमती डी० भगत, के वाद में यह सम्प्रेक्षण किया गया है कि धारा 13 (1) (iक) में मानसिक क्रूरता को व्यापक रूप से उस आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीड़ा और कष्ट पहुँचाये जिससे उस पक्षकार के लिये अन्य पक्षकार के साथ रहना सम्भव न हो और पक्षकारों से युक्तियुक्त ढंग से साथ रहने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती हो या यह कि अपकृत पक्षकार से युक्तियुक्त ढंग से ऐसा आचरण करने और अन्य पक्षकार के साथ रहने के लिये नहीं कहा जा सकता हो। यह सिद्ध करना भी आवश्यक नहीं माना गया था कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे कि अपकृत पक्षकार के स्वास्थ्य को हानि कारित हो। वह ऐसा वाद या जिसमें पति ने पत्नी के विरुद्ध विवाहविच्छेद के लिये याचिका जारकर्म के आधार पर दाखिल की थी। उक्त कार्यवाहियों में पत्नी द्वारा दाखिल लिखित कथन में, उसने यह अभिकथन किया कि पति “मानसिक मतिभ्रम से ग्रसित था और यह कि उसका मस्तिष्क विकृत चित्त का था जिसके लिये उसे विशेषज्ञ मानसिक मन:चिकित्सा की आवश्यकता थी” और यह कि वह चित्तविक्षेपा (paranoid) असन्तुलन से पीड़ित था आदि और यह कि प्रतिपरीक्षा के दौरान उससे अनेक प्रश्न पूछे गये कि याची तथा उसके पितामह सहित उसके परिवार के अनेक सदस्य पागल किस्म के थे और यह कि सम्पूर्ण परिवार में पागलपन का क्रम चला आ रहा था। उक्त प्रसंग में, इस न्यायालय ने यद्यपि पल्ली के विरुद्ध लगाये गये अभिकथनों को सिद्ध नहीं माना था। लेकिन फिर भी पति के विरुद्ध लगाये गये पली द्वारा प्रत्यारोप निश्चित रूप से ऐसी प्रकृति की मानसिक क्रूरता का गठन करते थे कि पति से तत्पश्चात् यक्तियक्त ढंग से पत्नी के साथ रहने के लिये नहीं कहा जा सकता है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि
1. बिनीता सक्सेना बनाम पंकज पंडित, 2006 विधि निर्णय एवं सामयिकी 457 (एस० सी०) : 2006 (63) ए०एल० आर० 518 (एस० सी०).
2. एक आई० आर० 1975 एस०सी० 1534.
3. (1994)1 एस०सी० सी० 337.
पति यह कहने में न्यायोचित होगा कि उसके लिये पत्नी के साथ रह पाना सम्भव नहीं है। पत्नी के इस मत को नामंजर करते हुये कि वह अपने पति के साथ रहना चाहती है, न्यायालय ने यह सम्प्रेषण किया कि वह जानबयकर ऐसा हाव-भाव बना रही है जो पूर्णत: अस्वाभाविक तथा किसी विवेकशील व्यक्ति की समझ से परे था तथा न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी परिस्थितियों में स्पष्ट निष्कर्ष यह होना चाहिये कि उसने पति के लिये भी जीवन को नर्क बनाने के लिये ही पीडायुक्त जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया है।
दर्शन गुप्ता बनाम राधिका गुप्ता के वाद में पति द्वारा लिया गया आधार था कि पत्नी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है तथा उसके लिये पत्नी के साथ रहना सम्भव नहीं है। चिकित्सक द्वारा राय दी गयी थी कि पत्नी के स्वास्थ्य में 80% तक का सुधार हुआ था। अत: यह अभिलिखित नहीं किया जा सकता कि पत्नी ऐसे रोग से ग्रस्त है जिसका इलाज सम्भव नहीं है। पति अपनी पत्नी के उग्र व्यवहार को भी सिद्ध करने में सफल नहीं रहा था। अत: विवाह-विच्छेद के लिये, लिये गये आधार को न्यायोचित नहीं माना गया।
विवाह-विच्छेद : शारीरिक एवं मानसिक क्रूरता-अभिव्यक्ति ‘क्रूरता’ का प्रयोग मानवीय आचरण तथा मानवीय व्यवहार के सम्बन्ध में किया गया है। यह विवाह-विषयक कर्तव्यों एवं बाध्यताओं के सम्बन्ध म आचरण ही हैं। क्रूरता किसी व्यक्ति के आचरण का अनक्रम होता है जो अन्य व्यक्ति को प्रतकूल ढंग से प्रभावित कर रहा है। क्रूरता मानसिक या शारीरिक, आशयपूर्ण या आशयरहित हो सकेगी। यदि वह शारीरिक हो तो न्यायालय को उसका अवधारण करने में कोई समस्या नहीं होगी। यह तथ्य और परिमाण का प्रश्न है। यदि वह मानसिक है तो समस्या कठिनाइयों को जन्म देती है। प्रथमतः जांच क्रूर आचरण की प्रकृति के बारे में प्रारम्भ होगी; द्वितीयत: पति या पत्नी के मस्तिक में उस आचरण के प्रभाव से क्या ऐसी युक्तियुक्त आशंका कारित हुई थी कि अन्य पक्षकार के साथ रहना हानिकारक या क्षतिकारक होगा। अन्ततोगत्वा यह आचरण की प्रकृति और शिकायत करने वाले पति पत्नी पर पड़ने वाले उसके प्रभाव पर विचार करके निकाले जाने वाले निष्कर्ष का मामला है। यद्यपि, ऐसा वाद हो सकेगा जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण पर्याप्त रूप से विधिमान्य है और प्रत्यक्षतः अविधिपूर्ण अथवा अविधिक है। तत्पश्चात् अन्य पक्षकार पर प्रभाव या क्षतिकारक के प्रभाव में जांच अथवा विचार किये जाने की आवश्यकता है। ऐसे वादों में, करता तभी स्थापित होगी जब स्वयं आचरण सिद्ध किया गया हो उसे स्वीकार किया गया हो। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हये कि पक्षकार विगत दस वर्ष से अधिक समय से पृथक् रहते आ रहे हैं और भारी संख्या में पूर्वोल्लिखित दाण्डिक एवं सिविल कार्यवाहियां प्रत्यर्थी द्वारा अपीलार्थी के विरुद्ध प्रारम्भ हो गयी हैं, पक्षकारों के मध्य दाम्पत्य बन्धन पूरी तरद से टूट चुका है। पक्षकारों के मध्य विवाह केवल नाममात्र का ही है। विवाह इस कदर टूट चुका है कि उसके ठीक होने की कोई आशा नहीं है। जनहित एवं सभी सम्बन्धित व्यक्तियों का हित तथ्य की मान्यता में निहित है एवं यह विधित: मृत को घोषित करना है जो पहले से ही वस्तुत: मत हो। चुका है। आडम्बर को रखना स्पष्ट रूप से अनैतिकता के लिये बाधक है और वह सम्भावित रूप से विवाह के बन्धन को विघटित करने की अपेक्षा जनहित में अधिक प्रतिकूल प्रभावकारी है।
उच्चतम न्यायालय ने वी० भगत बनाम श्रीमती डी० भगत के मामले के विनिश्चय में निम्नलिखित सम्परीक्षण किया था-
“धारा 13(1)(क) में मानसिक क्रूरता को उस आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीड़ा और व्यथा को कारित करता है, जो उस पक्षकार के लिये दसरे के साथ रहने को सम्भव नहीं बनायेगा। अन्य शब्दों में, मानसिक करता ऐसी प्रकति की होनी चाहिये कि पक्षकारों से यक्तियुक्त रूप से एक साथ रहने की प्रत्याशा नहीं की जा सकती। स्थिति ऐसी होनी चाहिये कि दोषी पक्षकार को युक्तियुक्त रूप से ऐसे आचरण को करने के लिये और अन्य पक्षकार के साथ रहना जारी
1. दर्शन गुप्ता बनाम राधिका गुप्ता, 2014 विधिनिर्णय एवं सामयिकी। (एस० सी०) : (2013) ० एस० सी० सी01.
2. दर्शन गुप्ता बनाम राधिका गुप्ता, 2014 विधिनिर्णय एवं सामयिकी । (एस० सी०) : (2013) १ एस० सी०सी०1.
3. श्रीमती नीलू कोहली बनाम नवीन कोहली, 2006 विधि निर्णय एवं सामयिकी 540 (एस० स०)। 2006 (63) ए० एल० आर० 313,
4. 1994 (23) ए० एल० आर० 77 (एस० सी०) : 1994 विधि निर्णय एवं सामयिकी 532.
रखने कि लिये नहीं कहा जा सकता। यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी है, जो याची के स्वास्थ्य को उपहति कारित करे। ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचते समय पक्षकारों की सामाजिक स्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज, जिसमें वे रहते हैं या पक्षकारों के साथ रहने की सम्भावना या अन्यथा यदि वे पहले से पृथक् रह रहे हैं और सभी अन्य सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये, जिन्हें व्यापक रूप से अपवर्णित करना न तो सम्भव न ही वांछनीय है। जो एक मामले में क्रूरता है, वह अन्य मामले में क्रूरता की कोटि में नहीं आ सकता। यह प्रत्येक मामले में उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुये अवधारित किये जाने का मामला है। यदि यह अभियोग और अभिकथन का मामला है, तो उस सन्दर्भ पर विचार किया जाना चाहिये, जिनमें वे किये जाते हैं।”
एस० हनुमन्थ राव बनाम एस० रमानी, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने विनिश्चय में निम्नलिखित सम्परीक्षण किया था-
“…..तर्क पर विचार करने के पूर्व, यह निष्कर्ष निकालना आवश्यक है कि मानसिक क्रूरता क्या है, जैसा कि अधिनियम की धारा 13 (1) (i-क) के अधीन परिकल्पित है। जब दोनों पक्षकार मानसिक पीड़ा कारित करते हैं, तब मानसिक क्रूरता का व्यापक रूप से तात्पर्य ऐसी व्यापकता की पीड़ा या कष्ट है, जो पत्नी और पति के बीच बन्धन को पृथक कर देता है और जिसके परिणामस्वरूप पक्षकार के लिये असम्भव हो जाता हैं, जो अन्य पक्षकार के साथ रहने के लिये पीड़ित हुये हैं। अन्य शब्दों में पक्षकार जिन्होंने दोष कारित किया है, से अन्य के साथ रहने की प्रत्याशा नहीं की जाती।”
“…..अपीलार्थी को पत्नी द्वारा किये गये दोषपूर्ण कार्य का लाभ लेने की अनुज्ञा नहीं दी जा सकती जिसके लिये वह स्वयं उत्तरदायी था। ऐसे मामले में अपीलार्थी को यह परिवाद करने की अनुज्ञा नहीं दी जा सकती कि उसकी पत्नी उस पर मानसिक क्रूरता का कार्य करने की दोषी है और पुनः ऐसे कार्य द्वारा मानसिक पीड़ा और व्यथा को सहन किया है, जिसके परिणामस्वरूप वैवाहिक जीवन टूट गया है और उसको उसकी पत्नी के साथ रहने की प्रत्याशा नहीं की जा सकती…..।”
करता एवं अधित्यजन-क्रूरता में एक दूसरे पर मिथ्या, अपमानजनक, दुर्भावनापूर्ण, आधारहीन एवं नासाबित अभिकथन भी शामिल है। पति के साथ पत्नी का सात वर्ष से न रहना अधित्यजन के समान है।
पक्षकार पिछले 17 वर्षों से एक साथ सहवास नहीं कर रहे हैं। लगातार पृथकता की उनके मध्य लम्बी अवधि रही है। विवाह-विच्छेद की अनुमति मंजूर की गयी।
विधितः मृत विवाह-विवाह के दूसरे दिन ही पति तथा पत्नी के परिवारों के मध्य मतभेद उत्पन्न होने के कारण नवविवाहित दम्पत्ति पृथक हो गये थे। पत्नी द्वारा पति एवं उसके परिवार के विरुद्ध दहेज की मांग के सम्बन्ध में परिवाद दर्ज किया गया वहीं पति द्वारा क्रूरता एवं सम्परित्याग के आधार पर विवाह के विघटन की मांग करते हुए प्रतिदावा दाखिल किया गया था। दाण्डिक कार्यवाहियों के कारण विवाह अप्रतिष्ठाण्यरूष से भंग एवं विधितः मृत हो चुका था और विवाह के ठीक होने की कोई सम्भावना नहीं थी। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (1-क) के अधीन विवाह को पति या पत्नी दोनों में से किसी के द्वारा भी इस आधार पर प्रस्तुत की गयी इस याचिका पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विघटित किया जा सकता है कि अन्य पक्षकार ने विवाह के सम्पन्न होने के पश्चात् याची के साथ क्रूरता का व्यवहार किया था। निर्णयों की अंखला में इस न्यायालय ने बारम्बार पद “क्रूरता” के अर्थ को बताया है और उसकी व्याप्ति पर बल दिया करता उस समय स्पष्ट है जब एक विवाहिती ने दूसरे विवाहिती के साथ इस प्रकार व्यवहार किया हो। और उसके प्रति ऐसी भावना प्रकट की हो जिससे कि उसके मस्तिष्क में इस बात की आशंका उत्पन्न हो जाये कि अन्य विवाहिती के साथ रह पाना अपहानिकारक अथवा क्षतिकारक होगा। क्रूरता शारीरिक या मानसिक हो सकती है।
1.(1999) 3 एस० सी० सी० 620.
2. श्रीमती विमला देवी बनाम रामबाबू, 2004 विधि निर्णय एवं सामयिकी 636 : 2004 (55) ए० एल० आर0 599.
डॉ० विनोद कुमार गुप्ता बनाम श्रीमती दीपा गुप्ता, 2010 विधि निर्णय एवं सामयिकी 823 (इला०).
के० श्री निवास राव बनाम डा० ए० दापा, (2013)5 एस० सी०सी०226: ए० आई० आर० 2015 एस०सी०2164.
तलाक की डिक्री द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका-धारा 13 (i-क) (i) में उपबन्धित है कि विवाह का कोई भी पक्षकार तलाक की डिक्री द्वारा विवाह-विच्छेद के लिये इस आधार पर याचिका दाखिल कर सकता है कि विवाह के पक्षकारों के बीच में इस कार्यवाही में, जिसमें कि वे पक्षकार थे, न्यायिक पथक्करण की डिक्री के पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की कालावधि तक सहवास का पनरारम्भ नहीं हुआ, अथवा विवाह के पक्षकारों के बीच में, उस कार्यवाही में जिसमें कि दोनों पति तथा पत्नी पक्षकार के दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री के पारित होने के पश्चात् एक या उससे अधिक की कालावधि तक दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन नहीं है। धारा का यदि उसका सही ढंग से अध्ययन किया जाये, मात्र विवाह के किसी भी पक्षकार को तलाक की डिक्री द्वारा विवाह-विच्छेद के आवेदन-पत्र को उसमें उपबन्धित किसी भी आधार पर दाखिल करने के लिये समर्थ करती है। धारा यह उपबन्ध नहीं करती है कि जब एक बार आवेदक कोई आवेदन-पत्र उसमें विनिर्दिष्ट किसी शर्त को पूरा करने का अभिकथन करते हुये दाखिल करता है तब न्यायालय के समक्ष कोई विकल्प इसके सिवाय नहीं रहता कि वह तलाक की डिक्री मंजूर करें। धारा का ऐसा निर्वचन अधिनियम की धारा 23 (1) (क) या (ख) में किये गये उपबन्ध के विरोध में होगा। धारा 23 (1) में यह अन्तर्विष्ट किया गया है कि यदि न्यायालय का समाधान हो गया है कि अनुतोष मंजूर करने का कोई भी आधार विद्यमान है और आगे यह भी कि याची किसी भी प्रकार से ऐसे अनुतोष के प्रयोजन के लिये अपने ही ‘दोष’ या असमर्थता का लाभ नहीं ले रहा है और खण्ड (ख) में यह आज्ञापक उपबन्ध किया गया है कि न्यायालय स्वयं को सन्तुष्ट कर ले कि धारा 13 की उपधारा (1) के खण्ड (i) में विनिर्दिष्ट आधार पर आधारित याचिका के मामले में, याची ऐसे कृत्य या कृत्यों, जिसका परिवाद किया गया है, का किसी भी ढंग में उपसाधन नहीं रहा है, या उसकी उपेक्षा करता रहा है, या उसे माफ नहीं किया है, या जहाँ याचिका का आधार करता है याची ने किसी भी ढंग में करता को माफ नहीं किया है और खण्ड (खख) में जब तलाक की मांग पारस्परिक सहमति के आधार पर की जाती है तब ऐसी सहमति, बलपूर्वक, कपट या असम्यक असर द्वारा न प्राप्त की गयी हो। यदि धारा 13 (1) (i-क) और धारा 23 (1) (क) में के उपबन्धों का एक साथ अध्ययन किया जाये तब स्थिति जो प्रकट होती है यह है कि याची को दूसरे पक्षकार के विरुद्ध तलाक की डिक्री का अनुतोष प्राप्त करने के लिये कोई निहित अधिकार मात्र यह प्रदर्शित करने पर नहीं हो जाता है कि चाहे गये अनुतोष के समर्थन में आधार, जैसा कि याचिका में कथन किया गया है, विद्यमान है। इसे मस्तिष्क में रखा जाना है और पति-पत्नी के मध्य सम्बन्ध एक ऐसा मामला है जो मानव जीवन से सम्बन्धित होता है। मानव जीवन किसी अंकित पंक्ति के सहारे या संविधि द्वारा अन्तर्विष्ट किसी निर्मित नियम/अनुक्रम के सहारे नहीं चलता है। मस्तिष्क में यह भी रखा जाना चाहिये कि विवाह कि पक्षकारों के मध्य स्थाई रूप से सम्बन्ध तोड़ देने के लिये याची की प्रार्थना को मंजूर करने के पूर्व सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रत्येक प्रयास किया जाना चाहिये जो कि न केवल किसी व्यक्ति विशेष या उनकी सन्तानों के लिये महत्वपूर्ण होता है अपितु वह समाज के लिये भी महत्व रखता है। क्या तलाक की डिक्री द्वारा विवाह-विच्छेद का अनुतोष मंजूर किया जाना चाहिये या नहीं, यह मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। ऐसे मामले में यह इतना खतरनाक है कि विश्वव्यापी प्रयोज्यता के सामान्य सिद्धान्त को अन्तर्विष्ट नहीं किया जा सकता है।
विकत मस्तिष्क की असाध्यता के अधार पर कार्यवाही करने वाले पक्षकार को चिकित्सीय जाँच के लिये विवश किया जा सकता है-विवाह-विषयक न्यायालय को किसी पक्षकार को उसकी चिकित्सीय जांच कराने की शक्ति प्राप्त है। ऐसे किसी आदेश को पारित करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन गोपनीयता/व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा। यह अत्यन्त प्राचीन विधि है कि विवाह-विच्छेद की डिक्री के प्रदान किये जाने के प्रयोजनार्थ जो आवश्यक है वह यह है कि याची को यह स्थापित करना होगा कि प्रत्यर्थी के मस्तिष्क की विकृतता लाइलाज है अथवा उसका मानसिक असन्तुलन इस प्रकार का और इस सीमा तक है कि उससे अपने पति/पत्नी के साथ रहने की यक्तियक्त ढंग से आशा। नहीं की जा सकती है। ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये चिकित्सीय परिसाक्ष्य यद्यपि अनिवार्य नहीं हो सकेगा लेकिन नि:सन्देह वह न्यायालय के लिये पर्याप्त रूप से सहायक होगा। तथापि यह भी कहा जा सकता है कि ऐसा चिकित्सीय साक्ष्य विशेषज्ञों का साक्ष्य होने के कारण न्यायालय को विवाद्यक बिन्दु युक्तियुक्त सन्देह से परे स्वयं का समाधान करने की बाध्यता से मुक्त नहीं करेगा। अतः चिकि
1. हीराचन्द्र श्रीनिवास मनगांवकर बनाम सुनन्दा, ए० आइ० आर० 2001 एस० सी० 1285 : 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 311 (एस० सी०).
की सुसंगतता पर कोई विवाद नहीं किया जा सकता है। ऐसे सभी वादों में, जहाँ विवाह-विच्छेद की मांग यों कह लीजिये नपुंसकता, विखण्डित मनस्कता (schizophrenia) आदि के आधार पर सामान्यतया बिना किसी चिकित्सा जाँच के विवाह-विच्छेद की मांग की जाती है तो ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन हो जायेगा कि क्या ऐसे किसी आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग करने वाला अन्य पति या पत्नी उसकी पत्नी या उसके पति द्वारा किया गया अभिकथन सही है या नहीं। इस अभिकथन को सिद्ध करने के उद्देश्य से याची सदेव चिकित्सीय जांच पर ही बल देगा। यदि प्रत्यर्थी इस आधार पर चिकित्सीय जाँच से बचता है कि उससे गोपनीयता के उसके अधिकार का अथवा भारतीय संविधान के अनच्छेद 21 के अधीन यथा-परिकल्पित निजी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है तो इस प्रकार के अधिकांश मामलों में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना असम्भव हो जाता है। इससे वे आधार ही, जिनके आधार पर विवाह-विच्छेद अनुज्ञेय है, निरर्थक हो सकेंगे। अत: जब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा विनिर्दिष्ट रूप से प्रदत्त गोपनीयता का कोई अधिकार न हो और पदावली “निजी स्वतंत्रता” के विस्तीर्ण निर्वचन के साथ, इस अधिकार का संविधान के अनुच्छेद 21 में अर्थान्वयन किया गया है, तो उसे आत्यन्तिक अधिकार नहीं माना जा सकता है। जिस बात पर बल दिया गया है, वह यह है कि इस अधिकार पर कुछ सीमायें अधिरोपित की जानी आवश्यक हैं, और विशेषकर जहाँ दो प्रतिस्पर्धी हितों का परस्पर विरोध होता है। पूर्वोक्त प्रकृति के मामलों में, जहाँ विधान मण्डल ने इन आधारों पर विवाह-विच्छेद की मांग करने के लिये उसके पति/पत्नी को कोई अधिकार प्रदान किया है, तो ऐसी दशा में, उस पति/पत्नी के अधिकार का, जो प्रत्यर्थी की गोपनीयता के तथाकथित अधिकार के साथ विरोध होता है, इस प्रकार, न्यायालय को अन्तर्ग्रस्त हितों को सन्तुलित करके इन प्रतिस्पद्धी हितों में सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। यदि न्यायालय के समाधान पर पहुंचने के लिये और वाद के उस पक्षकार के अधिकार की रक्षा करने का जहाँ तक सम्भव है, जिसे अन्यथा अपने ही हित की रक्षा करने में असमर्थ पाया जाये तो, न्यायालय किसी समुचित आदेश को पारित करता है, ऐसी दशा में इस कार्यवाही का भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघनकारी होने के प्रश्न नहीं उठेगा। न्यायालय को, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 को ध्यान में रखते हुये यह भी सुनिश्चित करना होगा कि स्वयं की प्रतिरक्षा करने की किसी व्यक्ति के अधिकार की पर्याप्त रूप से सुरक्षा की जाये। विवाह-विषयक वादकरण के किसी पक्षकार की चिकित्सीय जांच निदेशित करने की न्यायालय की स्पष्ट शक्ति किसी व्यक्ति की गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होना नहीं ठहराया जा सकता है। विवाह-विषयक न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी व्यक्ति को चिकित्सीय जाँच कराने का आदेश दे सकेगा। न्यायालय द्वारा ऐसे किसी आदेश को पारित करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन निजी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा। तथापि, न्यायालय को ऐसी किसी शक्ति का प्रयोग तभी करना चाहिये जब आवेदक के पास दृढ़ प्रथमदृष्ट्या वाद हो तथा न्यायालय के समक्ष पर्याप्त सामग्री हो। यदि न्यायालय के आदेश के बावजूद, प्रत्यर्थी स्वयं की चिकित्सीय जांच कराने से इन्कार करता है तो न्यायालय उसके प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का हकदार होगा।
वीरेन्द्र कुमार बिस्वास बनाम हेमलता बिस्वास,2 में तलाक अधिनियम की धारा 19 के अधीन वाद में खण्डपीठ की ओर से बोलते हुये मुखर्जी, ए० सी० जे० ने, अनेक विनिश्चयों पर विचार करने के पश्चात्, विवाह के एक पक्षकार में उपदंश (syphilis) की विद्यमानता के आधार पर विवाह संविदा के विश्रान्ति हेतु निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया-
“इन परिस्थितियों में यह अभिनिर्धारित करना होगा कि वाद के सम्बन्ध में उस प्रकार का पूर्व अन्वेषण नहीं हुआ है जितना कि सम्बन्धित पक्षकारों के लिये परिणाम की गम्भीरता अपेक्षित थी। प.रिणामिक रूप से अपील अनजात की जायेगी और वाद को पुनर्विचारण के लिये प्रतिप्रेषित किया जायेगा। कपट के अभिकथन काअन्वेषण किया जायेगा एवं यह प्रश्न कि क्या प्रत्यर्थी की दशा में उपरोक्त यथा प्रयोज्य नपंसकता के जिस पर सतर्कतापूर्ण ढंग से विचार किया जायेगा। हम यह भी कह सकेंगे कि यह आवश्यक है कि प्रत्यर्थी के शरीर की समुचित चिकित्सीय जांच होनी चाहिये। इस बिन्दु पर ब्रिग्स बनाम मौरगेन, के वाद में लार्ड स्टोवेल के निर्णय से निम्नलिखित लेखांश को सन्दर्भित किया जा सकेगा-
१. शारदा बनाम धरमपाल, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 170
2. ए० आई० आर० 1921 कल० 459.
3. (1820) 3 फिल० 325.
यह कहा गया है कि इन अवसरों पर सबूत के लिये अवलम्ब लिये गये साधन स्वाभाविक मर्यादा का उल्लंघनकारी है, लेकिन प्रकृति ने अन्य काई साधन प्रदान नहीं किया है और हमें यह कहने की आवश्यकता है कि सम्पर्ण अन्तोष का प्रत्याख्यान किया गया है अथवा हमारे अधिकार क्षेत्र में साधन को लाग करने की आवश्यकता है। न्यायालय को अपनी निजी विषमता की धारणाओं के लिये न्याय का बलिदान नहीं करना होगा।”
ऐसे किसी वाद में जहाँ पक्षकार ने चिकित्सा परीक्षण में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया हो, तो न्यायालय समुचित ढंग से प्रतिकूल निष्कर्ष निकाल सकेगा। इसे स्त्री प्रत्यर्थी एफ० बनाम पी०.2 के वाद में निर्दिष्ट किया गया था और इसे बी० बनाम बी03 के बारे में पुनः लागू किया गया था। न्यायालयों को स्वाभाविक रूप से शारीरिक जाँच को आदेशित करने में व्यापक विवेकाधिकार का प्रयोग करना होगा और सदैव इस प्रकार करना होगा जो ऐसी शर्तों के अध्यधीन होगा जो स्वाभाविक विषमता तथा भावबोध के प्रति अतिलंघनता से संरक्षण प्रदान करेगा। हम यह नहीं समझ पाते हैं कि प्रत्यर्थी समुचित चिकित्सा जाँच पर आपत्ति नहीं करेगा।”
गोपनीयता के अधिकार को उच्चतम न्यायालय द्वारा लम्बी अवधि के पश्चात् सृजित किया गया है। तलाशी एवं अभिग्रहण के प्रसंग न्यायाधीशों की पीठ ने निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया था-
“When the Constitution makers have thought fit not to subject such regulation to constitutional limitations by recognition of a fundamental right to privacy, analogous to the American Fourth Amendment, we have no justification to import it into a totally different fundamental right, by some process of strained construction.”
इसी प्रकार से, खड़क सिंह बनाम उ० प्र० राज्य,4 के वाद में बहुमत से निर्णय में निम्नवत् सम्प्रेक्षण किया गया था-
“The right of privacy is not a guaranteed right under our Constitution and therefore the attempt to ascertain the movements of an individual which is merely a manner in which privacy is invaded is not an infringement of a fundamental right guaranteed by-Part III.”
पदावली “निजी स्वतन्त्रता” को विस्तृत निर्वचन के साथ इस अधिकार का भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में अर्थान्वित किया गया है। कुछ वादों में इन अधिकारों का विभिन्न अधिकारों में समामेलन होना माना गया है।
लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के निबन्धनों के अनुसार गोपनीयता का अधिकार आत्यन्तिक अधिकार नहीं है।
गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश राज्य,6 के वाद में निम्नवत् अभिनिर्धारित किया गया था :
“Assuming that the fundamental rights explicitly guaranteed to a citizen have penumbral zones and that the right to privacy is itself a fundamental right, that fundamental right must be subject to restriction on the basis of compelling public interest.”
1. नार्टन बनाम सेटन, [(1819) 3 Phill. 147]; पोलार्ड बनाम विबार्न, [(1928) 1 Hag. Ecc. 725]; एलेसन बनाम एलेसन, [(1728) 2 Lee Ecc 576] ; स्पैरो बनाम हैरीसन, [(1841) 3 Curt. 16]: जिनकी हैरीसन बनाम हैरीसन, [(1842) 4 Moo PC 96] में पुष्टि की गयी।
2. (1896) 75 LT 192.
3. (1904)P39.
4. ए० आई० आर० 1963 एस० सी० 1295.
5.देखें: आर० राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य एवं अन्य. ए० आई० आर० 1995 एस० सालमा पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ, 1997 (1) एस० सी० सी० 301.
6. ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 1378.
यदि दोनों पक्षकारों के मौलिक अधिकारों के मध्य विरोध हो तो वह अधिकार जो लोक नैतिकता में वृद्धि करता है अधिभावी होगा आर० राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य एवं अन्य के वाद में इस न्यायालय ने, तथापि छ: सिद्धान्तों की रचना करने पर यह भी कहा कि वे मात्र व्यापक सिद्धान्त हैं और न तो वे नि:शेष हैं और न ही पूर्णत: विस्तृत हैं। वे मात्र मोटे-मोटे सिद्धान्त हैं और निःसन्देह ऐसी कोई प्रतिपादन न सम्भव या वाछनीय नहीं है।
गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य (पूर्वोक्त) के वाद में निम्नवत् अभिनिर्धारित किया गया था-
“The right to privacy in any event will necessarily have to go through a process of case-by- case development. Therefore, even assuming that the right to personal liberty, the right to move freely throughout the territory of India and the freedom of speech create an independent right of privacy as an emanation from them which one can characterize as a fundamental right, we do not think that the right is absolute.”
भारत में गोपनीयता के अधिकार सम्बन्धित विधि की रूपरेखा तैयार करने पर, इस प्रसंग में यह अपेक्षा करना सुसंगत होगा कि भारतीय संसद द्वारा कतिपय विधियों को अधिनियमित किया गया है जहाँ अभियुक्त की कतिपय चिकित्सीय या अन्य प्रकार की जाँच की जा सकेगी।
उदाहरण के माध्यम से, हम मोटर यान अधिनियम की धारा 185, 202, 203, 204; दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 53 hथा 54 एवं बन्दी शिनाख्त अधिनियम, 1920 की धारा 3 को निर्दिष्ट कर सकेंगे। इस सम्बन्ध में, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 269 एवं 270 को भी सन्दर्भित किया जा सकेगा। इन विधियों की संवैधानिकता, यदि चुनौती दी जाये, का समर्थन किया जा सकेगा।
अग्रेतर इस बात की अपेक्षा की जा सकेगी कि बम्बई राज्य बनाम काठीकालू औगढ़,3 और दिल्ली राज्य (एडमिनिस्ट्रेशन) बनाम गुलजारी लाल टण्डन,4 के वाद में इस न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि हस्ताक्षर या हस्तलेखन के नमूनों को विवादित हस्तलेखन से तुलना करने हेतु देने का निदेश भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के खण्ड 3 का उल्लंघनकारी नहीं है।
विवाह विघटन की कार्यवाहियों अथवा बच्चे की अभिरक्षा के विवाद में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ऐसे विवाद्यक उद्भूत हुये हैं। इन कार्यवाहियों के अनुक्रम में, मानसिक स्वास्थ्य और पितृत्व उपयुक्तता पर किसी पक्षकार द्वारा कभी-कभी प्रश्न उठाया जाता है। अक्सर एक पक्षकार चिकित्सीय अभिलेख के माध्यम से अन्य पक्षकार के मानसिक स्वास्थ्य के साक्ष्य को सम्मिलित करने का प्रयास करेगा। तथापि, संघीय सामान्य विधि, राज्य सामान्य विधि, राज्य परिनियम और साक्ष्य की संघीय नियमावली मनोविश्लेषक-रोगी विशेषाधिकार को मान्यता देकर मानसिक स्वास्थ्य व्यवसायियों के साथ गोपनीय संसूचना को सुरक्षा प्रदान करने के महत्व को मान्यता दी गयी है। फिर भी इन न्यायालयीय कार्यवाहियों में अमेरिकन न्यायालयों द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उस दशा में कोई विशेषाधिकार आत्यन्तिक नहीं होता है विशेषकर जब उसका सम्बन्ध बच्चे की अभिरक्षा को रखने वाले माता-पिता की उपयुक्तता के अवधारण से हो, तो ऐसी दशा में बच्चे की अभिरक्षा और विवाह के विघटन की कार्यवाहियों को वह विशेषाधिकार गम्भीर रूप से प्रभावित कर सकता है। रि० मैथ्यू आर० के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि ऐसा विशेषाधिकार यदि प्रदान किया जाये तो वह बच्चे की अभिरक्षा तथा विवाह के विघटन की कार्यवाहियों को गम्भीर रूप से प्रभावित कर सकता है।
भरण-पोषण की धनराशि का अधिनिर्णय-जब तथ्यों से यह स्पष्ट है कि पति एवं पत्नी का एक साथ रहना सम्भव नहीं है, तो विवाह-विच्छेद की डिक्री मंजूर की जानी चाहिये एवं पक्षकारों की प्रास्थिति के अनुसार एकमुश्त भरण-पोषण की धनराशि अधिनिर्णीत की जा सकती है।
१. देखें. मि० “एक्स” बनाम हास्पिटल “जेड”, (1998) 8 एस० सी० सा० 296 तथा मि० “एक्स। बनाम हास्पिटल “जेड” (2003) 1 एस० सी० सी० 500.
2. ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 246.
3. ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1808.
4. ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 1382.
5. 113 Md. App. 701, 715,688 A2d; 955, 961.
वैवाहिक मामलों पर विचार करते समय न्यायालय को विधि के कठोर अनुपालन और विशिष्ट मामले तथ्यों से उद्भूत स्थिति के बीच सन्तुलन का पालन न करना चाहिये। यह पूर्णतया भिन्न स्थिति है, जहाँ यालय को कतिपय सम्पत्ति के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों का निर्वचन करना चाहिये। किन्तु जब न्यायालय को मानवीय सम्बन्ध, उसके जीवन और उनके भावी आजीविका पर विचार करना होता है तो न्यायालय की ओर से यह विचार करना आबद्धकर है कि क्या दो व्यक्ति जिनका मामला उसके समक्ष पेस किया जाता है, किसी तरह विधिक सिद्धान्तों के कठोर अनुपालन द्वारा लाभान्वित होंगे। हम पक्षकारों के कल्याण पर विचार करने और व्यावहारिक समाधान को निकालने के लिये बाध्य हैं। अधिनियम की योजना के अधीन विवाह का विघटन सामान्यतया अन्तिम विकल्प है, जिसका न्यायालय को प्रयोग करना चाहिये। किन्तु जब वर्तमान की तरह स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ उनमें से दोनों का एक साथ रहना सम्भव और व्यावहारिक नहीं है, वहाँ पक्षकारों को पति और पत्नी के रूप में रहने का निर्देश देना पूर्णतया अर्थहीन होगा। केवल नाम के लिये ऐसे विवाह को जारी रखने का उद्देश्य व्यर्थ होगा। ऐसी परिस्थितियों में सभी व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये, विवाह पुनर्जीवित होने के किसी अवसर के बिना भावनात्मक और व्यावहारिक दोनों रूप से समाप्त हो गया है। वर्तमान मामले में यद्यपि क्रूरता का मामला साबित नहीं किया जा सकता है, किन्तु अभिलेख से उद्भूत होने वाले तथ्य स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करते हैं कि दोनों का पति और पत्नी के रूप में रहना न केवल कठिन बल्कि असम्भव होगा, इसलिये विवाह-विच्छेद की डिक्री को मंजूर करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। ऐसे अनुरोध को मंजूर करते समय, यद्यपि पत्नी द्वारा भरण-पोषण के लिये दाखिल किया गया आवेदन नहीं हो सकता है, फिर भी पत्नी और शिशु का हित सर्वोच्च विचारण का होगा और न्यायालय द्वारा उसे ध्यान में रखा जाना चाहिये। भरण-पोषण के लिये ऐसा निर्देश न्यायालय द्वारा अधिनियम की धारा 25 के प्रावधानों के अधीन दिया जा सकता है।।
पत्नी भरण पोषण के लिये हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 24 एवं दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन दो विभिन्न फोरमों में कार्यवाहियां संस्थित करने की हकदार नहीं है।
पति द्वारा करता तथा अधित्यजन के आधार पर पत्नी के विरुद्ध तलाकयाचिका-प्रस्तुत मामले में पति एवं पत्नी ने एक दूसरे के विरुद्ध जारकर्म का आरोप लगाया। विचारण न्यायालय ने पति की याचिका को खारिज कर दिया। अपील में उच्च न्यायालय ने तलाक को मंजूर कर लिया। उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया कि उच्च न्यायालय का आदेश रहस्यपूर्ण है और पक्षकारों के मामले का तथा उनके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य पर कोई विचार विमर्श नहीं किया गया था। अधिनिर्णीत, कि कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 के अन्तर्गत अपालीय न्यायालय के रूप में उच्च न्यायालय का यह बाध्यकारी कर्तव्य है कि वह विचारण न्यायालय द्वारा लेखबद्ध किये गये निष्कर्ष तथा प्रदत्त विनिश्चय की शुद्धता या अन्यथा पर विचार करे। मस्तिष्क में सदैव यह रखना चाहिये कि उच्च न्यायालय अपीलीय अधिकारिता में अपील पर विचार कर रहा है। उसे अभिलेख के ऐसे साक्ष्य पर विचार करना चाहिये जिस पर विचारण न्यायालय ने अपने निष्कर्ष को आधारित किया था और विचारण न्यायालय के निर्णय को अपास्त करने के पूर्व अपने निष्कर्ष लेखबद्ध करने चाहिये।
मानसिक क्ररता के आधार पर तलाक-संशोधन अधिनियम, 1976 के बाद करता का अर्थ-हिन्द्र विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1) (i-क) के अन्तर्गत ‘मानसिक क्रूरता’ को व्यापक रूप से ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो दूसरे पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा तथा दख पहँचाती है जिससे उस पक्षकार का दूसरे पक्षकार के साथ रहना सम्भव नहीं रह गया हो। अन्य शब्दों में मानसिक करता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिये कि पक्षकारों से युक्तियुक्त रूप से एक साथ रहने की आशा नहीं की जा सकती है।
भरण-पोषण के भुगतान में असफलता-पति द्वारा तलाक की डिक्री का अनुतोष प्राप्त करने के लिये मात्र यह प्रदर्शित करने से निहित अधिकार प्राप्त नहीं होता है कि चाहे गये अनुतोष के समर्थन मा
1. श्रीमती पूनम गुप्ता बनाम घनश्याम गुप्ता, 2003 विधि निर्णय एवं सामयिकी 408.
2. अनिल बनाम मोनी, 2013 विधि निर्णय एवं सामयिकी 36 (इला०). अनुराधा ए० केलकर बनाम अवधूत जी० केलकर, 2001 विधि निर्णय एवं सामयिका मयिकी 712(एस० सी०).
जी० वी० एन० कामेश्वर राव बनाम जी० जबीली. ए० आई० आर० 2002 एस.स विधि निर्णय एवं सामयिकी 271 (एस० सी०). आइ० आर० 2002 एस० सी० 576 : 2007
आधार विद्यमान हैं। तलाक की डिक्री द्वारा विवाह विच्छेद का अनुतोष मंजूर किया जाना चाहिये या नहीं, यह मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। हिन्दू विवाह अधिनियम का उद्देश्य एवं प्रयोजन पति-पत्नी के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध बनाये रखना है न कि ऐसे सम्बन्ध को तोड़ने के लिये प्रोत्साहित करना है। पति, जिसने हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (i-क) (i) के अन्तर्गत तलाक की डिक्री द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका दाखिल की है, को इस आधार पर अनतोष देने से इन्कार किया जा सकता है कि वह न्यायालय के आदेश के बावजूद अपनी पत्नी तथा पत्री को भरण-पोषण का भुगतान करने में असफल हआ है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने सकारात्मक विनिश्चय किया है। अवैधता तथा अनैतिकता का वैवाहिक मामलों में अनुतोष प्राप्त करने के लिये किसी व्यक्ति की सहायता के रूप में समर्थन नहीं किया जा सकता है। पति न्यायालय के आदेश के बावजूद अपनी पत्नी एवं पुत्री को भरण पोषण का भुगतान करने में असफल रहा है। उसका भरण-पोषण का भुगतान न करना धारा 23 के अन्तर्गत ‘दोष’ है।
पुत्री की अभिरक्षा-बच्चे के हित का सर्वाधिक रक्षोपाय करने के सर्वोपरि विचार को विचारण में सम्मिलित करते हये, माँ के पक्ष में, बच्चे की अभिरक्षा प्रतिधारित करने हेतु पिता की तुलना में माँ को सदैव वरीय (preferable) मानते हुये, उच्च न्यायालय द्वारा किये गये सामान्य सम्प्रेक्षणों एवं टिप्पणियों का अनावश्यक होना ठहराया गया।
वैवाहिक विवाद-प्रस्तुत वाद में पक्षकारों के मध्य आपराधिक मामले सहित वैवाहिक विवाद विद्यमान था एवं विवाह का विघटन हो चुका था। पक्षकारों के मध्य एक समझौता विलेख निष्पादित किया गया था जिसमें यह निबन्धन था कि पति भावी, भूत एवं वर्तमान भरण-पोषण एवं सभी दावों के लिये पत्नी की 5,00,000/– (पाँच लाख रुपये) का भुगतान करेगा एवं पत्नी अपने सभी दावों को त्याग देगी तथा जेवरात गहने भी पत्नी का वापस कर दिये गये हैं एवं सभी सामान वापस कर दिये जायेंगे। पक्षकारों के मध्य सभी मुकदमों को खारिज कर दिये जाने का आदेश दिया गया एवं उच्चतम न्यायालय द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अधीन शक्ति के प्रयोग में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (ख) के अधीन पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद की याचिका को उच्चतम न्यायालय द्वारा डिक्रीत किया गया।
विवाह-विच्छेद के पश्चात् पुनः विवाह की वर्जना (LLB Question Paper)
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 15 को विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधित किया गया है। इस उपबन्ध के अन्तर्गत पक्षकार पुनः विवाह तब ही कर सकते हैं जबकि विवाह-विच्छेद की डिक्री के विरुद्ध अपील करने का कोई अधिकार न हो या अपील का ऐसा अधिकार होने की दशा में। अपील करने के समय का अवसान अपील प्रेषित किये बिना हो गया हो, या अपील प्रेषित की गई हो, किन्तु खारिज कर दी गई हो। अब यह स्थापित मत है कि यदि इस धारा को उल्लंधित करके विवाह सम्पन्न किया गया है तो वह शून्य होगा। परन्तु हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने लीला गुप्ता बनाम लक्ष्मी नारायण में मत व्यक्त किया है कि ऐसे विवाह शून्य नहीं हैं बल्कि मान्य हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उच्चतम न्यायालय ने मस्लिम विधि के अनियमित विवाह के संप्रत्यय को हिन्दू विधि में लागू करने का प्रयत्न किया है। स्पष्ट है कि धारा 15 विवाह की अकृतता पर लागू नहीं होती है।
स्पष्ट है कि यह उपबन्ध साधारण अपीलों पर लागू होता है। परन्तु क्या यह उपबन्ध उच्चतम न्यायालय में विशेष अपील पर भी लागू होगा? चन्द्र मोहनी बनाम अविनाश में उच्चतम न्यायालय ने
१. हीराचन्द्र श्रीनिवास मनगांवकर बनाम सुनन्दा, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1285 : 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 311 (एस० सी०).
2. कुमार वी० जागीरदार बनाम चतना रामतीरथ, 2004 विधि निर्णय एवं सामयिकी 543.
3. हरप्रीत सिंह आनन्द बनाम पश्चिम बगाल राज्य, 2004 विधि निर्णय एवं सामयिकी 128.
4. लीला बनाम लक्ष्मी. (1968) इलाहाबाद लॉ जर्नल 683; वत्सला बनाम मनोरमा, 1969 मद्रास 405%3B उसाचरण बनाम काजल, 1971; कलकत्ता 307, किशन बनाम कृष्ण, 1971 जम्मू एण्ड कश्मीर 31, चन्द मोहिनी बनाम विनाश, 1967 सुप्रीम काट 587; सुरेश बाला बनाम गुरुगोविन्द, 1983 दिल्ली। 230
5. 1978 सु० को 1351.
6. जम्बू बनाम मालती, 1974 कल० 260.
7. 1987 सु० को 581.
कहा कि यह उपबन्ध विशेष अपील पर भा लागू हाता है। सफल पक्षकार का यह कर्तव्य है कि वह देखे कि पिपी ने विशेष अपील के अधिकार का प्रयोग किया है। उसे समुचित समय तक प्रतीक्षा करनी चाहिये और खोजबीन रखनी चाहिये कि क्या विशेष अपील दायर की गई है। तेजेन्द्र बनाम गरमीत में उच्चतम यायालय ने इसी मत का दुबारा प्रतिपादन किया है। राधामनी बनाम रेशम लाल में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि दूसरा विवाह शून्य होगा?2 न्यायालय ने कहा कि यदि उच्चतम न्यायालय ने उसके पक्ष में विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित कर दी है तो पति दूसरा विवाह करने के पश्चात् उच्चतम न्यायालय में यह प्रतिकथन नहीं कर सकता है कि उसके विवाह करने के कारण उसकी पत्नी की अपील निष्फल हो गई है। उसे अ.ने कृत्य का फल भोगना होगा। इस लेखक का निवेदन है कि इस प्रतिपादना द्वारा कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। पक्षकार के लिये यह पता कर पाना हमेशा सम्भव नहीं है कि अपील हुई है या नहीं। विशेषकर जब वह दिल्ली से दूर रहता हो। यह खर्चीला काम है। इससे तो यह उचित होगा कि ऐसा उपबन्ध बनाया जाये कि डिक्री पारित होने पर प्रत्येक पक्षकार को छ: महीने तक दूसरा विवाह करने की अनुमति नहीं है।
रूढ़ि और विशेष अधिनियमों के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद
धारा 29 की उपधारा (1) के अन्तर्गत यह उपबन्ध है यदि विवाह अधिनियम के प्रतिपादन के पूर्व किसी रूढ़ि या विशेष अधिनियम के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद का कोई अधिकार था तो उस अधिकार पर हिन्दू विवाह अधिनियम के किसी भी उपबन्ध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अत: हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्व या पश्चात् हुये विवाहों का विघटन
(1) रूढ़ि के अन्तर्गत हो सकता है, और
(2) विशेष अधिनियमों के अन्तर्गत हो सकता है। रूढ़िगत विवाह-विच्छेद
सन् 1955 के पूर्व हिन्दुओं में रूढ़िगत विवाह उपलब्ध था और कुछ प्रान्तों और रियासतों में प्रादेशिक अधिनियम के अन्तर्गत भी उपलब्ध था। रूढ़िगत विवाह-विच्छेद अब भी मान्य है। इसका तात्पर्य यह है कि : (क) रूढ़िगत आधारों पर विवाह अब भी विघटित हो सकता है, और (ख) विवाह-विच्छेद की रूढ़िगत प्रक्रिया अब भी मान्य है।
इस भांति के विवाह-विच्छेद पर न ही तीन वर्ष का निबन्धन लागू होता है और न ही धारा 15 के अन्तर्गत पुनर्विवाह का प्रतिबन्ध । रूढ़िगत विवाह-विच्छेद पंचायत द्वारा त्याग-पत्र फरागतनामा,4 जातीय टिब्यनल (अधिकरण) या पक्षकारों के करार द्वारा, जैसा भी उपबन्ध रूढि के अन्तर्गत हो, प्राप्त किया जा सकता है। रूढ़ि युक्तियुक्त होनी चाहिये।
रूढि के अन्तर्गत पंचायत और जातीय ट्रिब्यूनल अब भी विवाह-विच्छेद के सम्बन्ध में अधिकारिता रखते हैं। प्रेम बाई बनाम चुन्नू लाल से यह स्पष्ट हो जाता है कि रूढ़िगत अधिकारिता को किस भाँति क्रियान्वित किया जाता है और न्यायालय उन पर क्या अंकुश लगा सकते हैं। इस मामले में पक्षकारों की पारस्परिक अनुमति द्वारा पंचायत ने विवाह-विच्छेद किया था। पत्नी ने यह कहकर न्यायालय में वाद प्रेषित किया कि पंचायत के सामने जब उसने अपनी अनुमति दी थी. उसकी आय 14 वर्ष थी और इसलिये वह स्वतंत्र रूप से सम्मति देने के आयोग्य थी, अत: यह घोषित किया जाये कि वह अब भी अपने पति की पत्नी है। न्यायालय ने वाद को खारिज करते हुये कहा कि जिस समय पत्नी ने अपनी अनुमति दी थी, उस समय विवाह-विच्छेद का अर्थ समझने के लिये वह पर्याप्त समझ रखती थी और पक्षकारों की जातियों (पक्षकार पटवा थे) में वैसा विवाह-विच्छेद रूढ़ि के अन्तर्गत मान्य है। म० गोविन्द राजू बनाम क० मुनिसामा” में
1. 1988 सु० को० 839.
2. 1990 मध्य प्रदेश 150.
3. चुखा बनाम लक्ष्मी, (1969) 2 सुप्रीम कोर्ट वीकली नोट्स 615.
4. गुरदीत बनाम अंग्रेज 1968 सुप्रीम कोर्ट 142.
5. 1961 मध्य प्रदेश 57; माधो बनाम शकुन्तला, 1972 इलाहाबाद 119; थिमक्कू बनाम बदलू, 1977 कर्नाटक 115.
6. 1997 सु० को० 10.
शुद्र पली का पति द्वारा त्यजन और उसका किसी अन्य पुरुष के साथ रहना तथा पति का पत्नी को वापिस लाने का कोई प्रयत्न न करना रूढिगत विवाह-विच्छेद माना गया। किशनलाल बनाम प्रभु विधि को एक नई दिशा देता है। न्यायालय ने कहा कि यह सिद्ध करना आवश्यक है कि पंचायत को विवाह-विच्छेट की अधिकारिता को न्यायालय अपनी समीक्षा में ला सकते हैं। रूढ़िवादिक विवाह-विच्छेद में रूहिकी अभिवचन (plead) करना तथा साबित करना अनिवार्य है। यह इसलिये आवश्यक है क्योंकि यह अपने आप कानून से अपवाद (excention) है सामान्य विधि के प्रतिकूल समुदाय में प्रचलित रूढ़ि को विनिर्दिष्ट रूप से साबित किया जाना चाहिये।
रूढ़िगत विवाह का विघटन-समुदाय में प्रचलित रूढ़ि के अनुसार पंचायत के माध्यम से विवाह का विघटन हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अधीन विवाह-विच्छेद प्रदान करने के लिए आधार नहीं हो सकता।
विशेष अधिनियमों के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के लागू होने के पूर्व कुछ प्रान्तों और रियासतों ने कुछ हिन्दू जातियों या जातियों के समूह के विवाह और विवाह-विच्छेद को विनियमित करने के लिये कुछ विधेयक पारित किये थे। इनमें से कछ अधिनियमों के अन्तर्गत पारस्परिक अनुमति द्वारा या पारस्परिक करार या त्यागपत्र द्वारा विवाह-विच्छेद मान्य ठहराया गया था दक्षिण भारत की मातृसत्ता वाली जातियों (जैसे मरुमखथायम् और अलीसन्तानम् जातियों) में विवाह सदैव ही व्यावहारिक, अनुबन्ध माना गया है। केरल उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने कहा है कि ट्रावन कोर नैय्यर अधिनियम के अन्तर्गत पारस्परिक अनुमति द्वारा विवाह-विच्छेद अब भी (हिन्दू विवाह अधिनियम के लागू होने के पश्चात्) विधिमान्य है। अन्य विशेष अधिनियम के बारे में भी यही बात है। गुरुबासव्वा बनाम इरव्वा में लिंगायतों में उद्दिकि विवाह को मानते हुये पहले विवाह का विच्छेद माना गया।
(4)
दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन
(Restitution of Conjugal Rights)
दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के अनुतोष का औचित्य
विवाह द्वारा पति या पत्नी पर एक दूसरे के साहचर्य और सहवास का दायित्व उत्पन्न होता है। परन्तु मान लीजिये, एक पक्षकार एक दूसरे के साथ रहने से इन्कार करता है तो दूसरा पक्षकार क्या प्रथम को उसके साथ रहने के लिये बाध्य कर सकता है।
प्राचीन विधि-व्यवस्थाओं में हम पाते हैं कि यहूदियों की विधि में दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का उपचार बनाया था। यह प्रतीत होता है कि यहूदी विधि से यह उपबन्ध अंग्रेजी विधि में आ गया और अंग्रेजी विधि से भारतीय विधि में आ गया। दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री का तात्पर्य है कि
1. 1962 राजस्थान 95.
2. यमनजी जाधव बनाम निर्मला, 2002 स० को० 971.
3. सुब्रामणि एवं अन्य बनाम रामचन्द्र लेखा, 2005 विधि निर्णय एवं सामयिकी 147 (एस० सी०); यामनजी एच० जाधव बनाम निर्मला, 2002 (2) एस०सी०सी०637.
4. महेन्द्रनाथ यादव बनाम शीला देवी, 2011 (1) ए० डब्ल्य० सी० 303 (एस० सी०).
5. यहाँ पर हम मद्रास और बम्बई प्रान्तों में हिन्दू विवाह और विवाह-विच्छेद सम्बन्धी अधिनियमों की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि हिन्दुओं की विशेष जातियों या वर्गों से सम्बन्धित विधेयकों की बात कर रहे हैं।
6. उदाहरणार्थ कोचीन मरुमखथायम अधिनियम, 1938, मद्रास मरूमखथायम अधिनियम, 1933 मद्रास अलीसनतानम अधिनियम, 1924 ट्रावनकोर इजहवा अधिनियम, 1925 नैय्यर अधिनियम, 1931.
7 अध्यापन बनाम पेरूकुटि, 1971 केरल 44; प्रेम बनाम आनन्दा, 1973 केरल 69; इस अधिनियम के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद होने पर हिन्दू विवाह अधिनियम को धारा 25 के अन्तर्गत भरण-पोषण की मांग। नहीं की जा सकती है।
8. 1997 कर्नाटक 7.
न्यायालय दोषी पक्षकार को निर्दोष पक्षकार के साथ रहने की आज्ञा देता है। प्रारम्भिक काल में इस आज्ञा का पालन प्रतिपक्षी की गिरफ्तारी करके याचिकाकार के सुपुर्द करके किया जा सकता था। उस समय यह उपचार पति को ही प्राप्त था। इस उ.मार का तब आधार था पुरुष का पत्नी पर साम्पत्तिक अधिकार-पत्नी पति की सम्पत्ति मानी जाती थी, अत: उसे अपने पति के साथ, उसके संरक्षण में रहना चाहिये और यदि वह पति को छोड़ कर चली गई है तो उसे अपने पति के साथ रहने के लिये बाध्य किया जा सकता था, जैसे गौशाला में से भागी गाय को उसके स्वामी के संपर्द किया जा सकता था। कुछ समय उपरान्त यह उपचार पत्नी को भी उपलब्ध हो गया। लगभग उसी समय दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री को प्रत्यर्थी की गिरफ्तारी द्वारा प्रवर्तित कराने का उपबन्ध समाप्त कर दिया, यद्यपि डिक्री अब भी विपक्षी की सम्पत्ति कुर्क करके प्रवर्तित की जा सकती थी। आगे चलकर अंग्रेजी विधि ने डिक्री के प्रवर्तन का यह तरीका भी छोड़ दिया। आधुनिक, अंग्रेजी विधि में दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के वैवाहिक अनुतोष को ही समाप्त कर दिया
भारतीय विधि में यह उपचार अंग्रेजी शासनकाल में स्थापित हआ। अंग्रेजी शासनकाल में यही एक ऐसा वैवाहिक अनुतोष था जो सब ही जातियों के सदस्यों को उपलब्ध था। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, यहूदी इसे प्राप्त कर सकते थे। कुछ जातियों की वैयक्तिक विधियों के अन्तर्गत इसका उपबन्ध था। कुछ सामान्य विधि के अन्तर्गत इस उपचार की माँग कर सकती थी आज भी स्थिति यही है। भारतीय विधि में दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री को प्रतिपक्षी की सम्पत्ति कुर्क करके प्रवर्तित कराया जा सकता है। – वर्तमान युग में लगभग प्रत्येक देश में दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के उपचार की आलोचना की गई है। इसे अमानवीय, घृणित और अनिष्टकर की संज्ञा दी गई है, यह मानव प्रतिष्ठा और मर्यादा का हनन करता है। क्या मनुष्य को उसकी इच्छा के प्रतिकूल अन्य मनुष्य के साथ (चाहे वह उसका पति या पत्नी ही क्यों न हो) रहने को बाध्य करना अमानवीय नहीं है? अत: इस उपचार को समाप्त करने की माँग की गई है। किसी भी साम्यवादी या समाजवादी देश में इस उपचार को मान्यता नहीं है। पश्चिम के अन्य देशों में भी इसे समाप्त किया जा रहा है। जहाँ यह उपचार है, भी वहाँ इसे प्रतिपक्षी की गिरफ्तारी द्वारा और उसकी सम्मति को कुर्क करके प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है। दाम्पत्य अधिकारों को प्रत्यास्थापन की डिक्री के उल्लंघन को वहाँ पर आन्वयिक अभित्यजन की संज्ञा दी गई है, जिसके आधार पर (अभित्यजन की कालावधि पूर्ण होने पर) विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त की जा सकती है।
दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के अनुतोष की संवैधानिकता (LLB Study Material in Hindi)
हाल में ही हमारे दो उच्च न्यायालयों आन्ध्र प्रदेश और दिल्ली के समक्ष यह प्रश्न आया है कि क्या दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का अनुतोष व्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध हैं? आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसका सकारात्मक उत्तर दिया है। जबकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसका नकारात्मक उत्तर दिया है।
टी० सरीथा बनाम व्यंका सुब्बाया3 में माननीय न्यायाधीश चौधरी के अनुसार दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का अनुतोष घृणित, क्रूर असभ्य नृशन्स और अमानवीय है। यह व्यक्ति के मानव मर्यादा और एकांतता के मौलिक अधिकार का हनन करता है। माननीय न्यायाधीश ने कहा कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का अनुतोष नारी की इस स्वतंत्रता का हनन करता है कि कब, किस समय और किस तरह वह गर्भ धारण करते सन्तानोत्पत्ति करना चाहेगी। दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री द्वारा राज्य उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध गर्भाधान के लिये बाध्य करता है। अत: न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि यह अनुतोष असंवैधानिक है।
इसके विपरीत दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश अवध बिहारी रस्तोगी के अनुसार दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का अनुतोष विवाह के पक्षकारों के बीच के मनमटाव को दूर करके उन्हें एक दूसरे के नजदीक लाता है, जिससे कि वे सद्भाव से साथ रह सकें। न्यायाधीश ने मत व्यक्त किया है कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का विवाह-विच्छेद के दोषिता सिद्धान्त और असमाधेय भंग विवाह के 1. मेट्रिमोनियल प्रोसीडिंग्स एण्ड प्रापर्टी ऐक्ट, 1970 धारा 20.
2. सिविल प्रक्रिया संहिता, आदेश 21 नियम 32.
3. 1983 आन्ध्र प्रदेश 356.
4. 1984 दिल्ली 66.
सिद्धान्त का एकीकरण करके पक्षकारों को नजदीक लाता है और उनके बीच मेल-मिलाप कराता है। प्रतीत ऐसा होता है कि यह बात कहते समय न्यायाधीश का ध्यान हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (iक) की तरफ था, जिसके अन्तर्गत दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री को एक वर्ष तक लागू न करने पर कोई भी पक्ष विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकता है इसी पृष्ठभूमि में न्यायाधीश ने कहा कि भारतीय संसद का ध्येय यह रहा है कि विवाह को एक साथ नहीं तोड़ देना चाहिये; कुछ अन्तराल देना चाहिये जिससे पक्षकारों के बीच मेल-मिलाप की सम्भावना को परखा जा सके। यह लेखक माननीय न्यायाधीश श्री रस्तोगी के इस मत से सहमत है कि पति-पत्नी के बीच मौलिक अधिकारों का प्रश्न नहीं उठता है, विवाह पति-पत्नी के उन अधिकारों का एक दूसरे के लिये समर्पण है। परन्तु यह कहना कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री का उद्देश्य पति-पत्नी को एक दूसरे के समीप लाना है, औचित्यपूर्ण और सही कथन नहीं है। जिन पति-पत्नी का विवाह असमाधेय रूप से भंग हो चुका है, उन्हें ऐसी डिक्री कभी समीप नहीं ला सकती बल्कि उससे दरार और गहरी तथा चौड़ी हो जाती है। इस लेखक का निवेदन है कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री को मेल-मिलाप के साधन की संज्ञा देना एक क्रूर तथा हास्यासाद बात है। जब एक पक्षकार दूसरे के विरुद्ध दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका प्रेषित करता है तो इसका ध्येय दूसरे पक्ष को उसके साथ रहने के लिये बाध्य करना है, और बाध्य करने की यही प्रक्रिया क्रूर और अमानवीय है। जिनका विवाह टूट गया है या टूट रहा है उसे बचाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिये, यह इस लेखक का मत रहा है, परन्तु यह न्यायालय की डिक्री द्वारा नहीं हो सकता है, इसके लिये अन्य सेवा की जरूरत है।
मनोवैज्ञानिकों, समाज-सेवियों और विधि-वेत्ताओं की जो इसे मानवीय ढंग से सुलझाने का प्रयत्न करें, और फिर भी यदि वे असफल रहें तो व्यक्ति और समाज के लिये यही कल्याणकारी होगा कि उस विवाह को कम से कम कटुता, कम से कम कष्ट, और कम से कम अपमान और तिरस्कार से विघटित कर देना चाहिये। अतः इस लेखक का निवेदन है कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के अनुतोष का कोई भी मानवीय औचित्य नहीं है और इस कारण इसे समाप्त कर देना चाहिये। उसके समाप्त करने का यही
औचित्यपूर्ण समुचित आधार है, वैयक्तिक मौलिक अधिकारों का हनन नहीं, क्योंकि पति-पत्नी के बीच वैयक्तिक मौलिक अधिकारों का प्रश्न नहीं उठता है। कुछ ऐसा ही मत उच्चतम न्यायालय ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार में व्यक्त किया है। माननीय न्यायाधीश सव्यसाची मुकर्जी ने कहा कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का अनुतोष संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के विरुद्ध नहीं है। आज दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री को प्रत्यर्थी की गिरफ्तारी द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है केवल उसकी सम्पत्ति कुर्क की जा सकती है। न्यायाधीश रस्तोगी की ही भाँति न्यायाधीश मुकर्जी का कहना है कि दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री पति-पत्नी को एक साथ रहने के लिये प्रोत्साहित करती है, यह विवाह को ट्टने से रोकती है। इस लेखक का निवेदन है कि माननीय न्यायाधीश का यह कथन औचित्य से दूर है; वे टूटे या टूटते विवाह की व्यथा को नहीं समझ पा रहे हैं । एक पक्षकार जब दूसरे का साथ छोड़ कर अलग रह रहा है तो विवाह टूट चुका है और यदि वह पूर्णतया टूटा नहीं है। तो याचिकाकार द्वारा दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका प्रेषित करते समय तो वह टूट ही चुका है, क्या न्यायालय की दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री उसे जोड़ सकेगी? लेखक का मत है कि ऐसा कदापि नहीं हो सकता है। टटे विवाह से निकल भागने के दाँव-पेचों के रूप में पति या पत्नी के दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका और उसकी डिक्री का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त उस विवाह में कुछ रह नहीं गया है। यह कार्यवाही एक जोर-दबाव से अधिक कुछ नहीं है।
दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन-जहां लड़की द्वारा विवाह की विद्यमानता से स्पष्ट इन्कार किया गया हो और न तो कोई वैध दस्तावेज उपलब्ध है.नही विवाहका साक्ष्य प्रस्तुत किया गया है तो दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का कोई प्रश्न ही नहीं उठतार
1.1984 सु० को 1562.
2. पल्लवी भारद्वाज बनाम प्रताप चाहान, 2011 (5) ए० डब्ल्यू० सी० 5099 (एस० सी०).
दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के अनुतोष के आधार (LLB Study Material)
धारा के अन्तर्गत जब पति या पत्नी ने अपने को दूसरे के साहचर्य से उचित कारण के बिना अलग कर लिया हो तब व्यथित दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये जिला न्यायालय में आवेदन, अर्जी द्वारा कर सकेगा और न्यायालय उस अर्जी में किये गये कथन की सत्यता के बारे में तथा इस बारे में कि आवेदन को मंजूर न करने का कोई वैध आधार नहीं है, अपना समाधान हो जाने पर तदनुसार दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन, डिक्री द्वारा कर सकेगा।
दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री पारित होने के लिये यह आवश्यक है कि पक्षकारों के बीच वैध विवाह हो।
धारा 9 के अन्तर्गत निम्न तीन शर्तों के पूरे होने पर दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री पारित हो सकती है।
(क) यह कि प्रतिपक्षी युक्तियुक्त कारण के बिना साहचर्य से अलग हो गया है,
(ख) यह कि न्यायालय याचिकाकार द्वारा याचिका से कथित बयानों की सत्यता के बारे में सन्तुष्ट है, और
(ग) यह कि अनुतोष देने के मार्ग में कोई अन्य बाधा नहीं है।
साहचर्य से अलग होने का अर्थ है याचिकाकार का साहचर्य बिना उसकी अनुमति या सहमति के छोड़ देना। पत्नी को पति का आदेश कि वह अपनी नौकरी छोड़कर उसके पास रहने आ जाये-क्या यह साहचर्य से विलग होना है? इस सम्बन्ध में हमारे उच्च न्यायालयों के समक्ष प्रश्न यह आया है कि पति के आदेशानुसार पत्नी का अपनी नौकरी या कार्य को न छोड़ना क्या साहचर्य से विलग हो जाना है? पंजाब उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत वाद के तथ्य ये थे। पति के आदेशानुसार पत्नी ने सिलाई का प्रशिक्षण लिया और डिप्लोमा प्राप्त किया। कुछ समय उपरान्त उसे एक नौकरी मिल गई तो पति-गृह से दूर थी। पत्नी ने नौकरी स्वीकार कर ली और वहाँ रहने लगी। कभी पति उसके पास आकर रह जाता था कभी वह पति के पास जाकर रह लेती थी। इस भाँति जीवन व्यतीत हो रहा था कि पति-पत्नी के बीच किसी बात पर मनमुटाव हो गया और पति ने पत्नी को आदेश दिया कि वह अपनी नौकरी से तुरन्त त्यागपत्र दे दे और उसके पास रहने लगे। मध्य प्रदेश के वाद के भी यही तथ्य थे। यहाँ पर पत्नी ग्राम सेविका थी। पति की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। दोनों ही वादों में दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका प्रेषित करने के समय तक दाम्पत्य सहवास होता रहा था। दोनों ही मुकदमों में अपने लिखित कथन एवं मौखिक साक्ष्य पत्नी ने कहा था कि वह पति के साथ साहचर्य और सहवास करना चाहती है, परन्तु नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। पंजाब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री ग्रोवर ने कहा कि संसार की किसी भी विधि के अन्तर्गत पत्नी अपने पति के साहचर्य से इस भाँति विलग नहीं हो सकती है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एक पूर्णपीठ ने इस मत का अनुमोदन किया है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री भार्गव ने कहा कि हिन्दू समाज की सामान्य मान्यताओं के के अनुसार पत्नी का यह कर्तव्य है कि वह अपने दाम्पत्य उत्तरदायित्व पति-गृह में रहकर पूरा करे और वह पति से पृथक घर बसाकर रहने की अपनी एकतरफा इच्छा को पति पर यह कहकर नहीं थोप सकती कि उसे इस बारे में कोई आपत्ति नहीं है कि जहाँ भी वह नौकरी करती हो पति उसके पास आकर रहे । माननीय न्यायाधीश ने और भी एक पग आगे बढ़कर कहा कि पत्नी का यह आचरण अभित्यजन की संज्ञा में आता है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि अपने मत के समर्थन में दोनों ही
1. प्रकाश बनाम परमेश्वरी, 1987 पं० और ह.37.
2. तीरथ कौर बनाम कृपाल सिंह, 1964 पंजाब 28.
3. गया प्रसाद बनाम भगवती, 1965 मध्य प्रदेश 212.
4. पजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने इस मत की पुष्टि का पाच्या प्रकाश, (1977) पंजाब एवं हरियाणा 642, इससे पूर्व सुरिन्दर बनाम सहारयाणा 13 में भी इस मत का प्रतिपादन किया गया था।
न्यायाधीशों ने मुल्ला के हिन्दू लॉ की धारा 555 का हवाला दिया है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि धाग 555 “भरण-पोषण” के अध्याय में है और वह पत्नी के भरण-पोषण करने के पति के उत्तरदायित्व से सम्बन्धित है। धारा 555 में कहा गया है कि पत्नी का प्रथम कर्तव्य है पति की आज्ञा पालन करना और उसकी संरक्षता में उसके द्वारा बसाये गये गृह में रहना। धारा में आगे कहा गया है कि अकारण ही पति से विलग रहने पर पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं है। न्यायाधीशों ने पति-गृह में रहने के पत्नी के उत्तरदायित्व को महत्व देकर पति के पक्ष में डिक्री पारित कर दी।
इन निर्णयों से यह निष्कर्ष निकलता है कि पत्नी अपनी स्वेच्छा से और पति की इच्छा के विरुद्ध कोई वृत्ति या व्यवसाय नौकरी नहीं कर सकती है। यदि पत्नी ने कोई वृत्ति अपना ली है या कोई व्यवसाय करने लगी है तो, इन निर्णयों मे प्रतिपादित मत के अनुसार, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि नौकरी, वृत्ति या व्यवसाय पति की सम्मति से या बिना सम्मति से किया था। पत्नी का यह कर्तव्य है कि जिस क्षण पति उसे नौकरी, वृत्ति या व्यवसाय छोड़ने के लिये कहे, उसे तुरन्त ही छोड़ देना चाहिये अन्यथा यह पति के साहचर्य से अलग हो जाने की संज्ञा में आयेगा।
कुछ निर्णयों में विपरीत मत का प्रतिपादन भी किया गया है। तीरथ कौर के मुकदमे में मुख्य न्यायाधीश श्री फालशा ने कहा कि स्त्री-पुरुष के बीच नियोजन के अवसर की समानता के इस युग में पत्नी द्वारा नौकरी करने और पति के आदेश पर उसे न छोड़ने को साहचर्य से अलग हो जाना नहीं कहा जा सकता है |
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री काटजू ने कहा कि पति के निर्देश पर पत्नी द्वारा अपने पद से त्यागपत्र दे देना दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री देने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है। माननीय न्यायाधीश ने यह भी कहा कि पत्नी पति की इच्छा के विरुद्ध भी नौकरी या अन्य कोई उप व्यवसाय (Profession), वृत्ति (Avocation) इत्यादि करे तो यह साहचर्य से विलग होना नहीं कहलायेगा और दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का आधार नहीं है। यह हर्ष का विषय है कि कुछ अन्य निर्णयों में भी इस मत को प्रतिपादित किया गया है।
लेखक का निवेदन है कि पंजाब एवं मध्य प्रदेश उच्च न्यायालयों ने पत्नी के पति के साथ, उसके गृह में, उसकी छत्र-छाया में रहने के दायित्व को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बताया है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में कुछ भी स्थिति रही हो, वर्तमान युग में यह पूर्णतया स्थापित नियम है कि हर परिस्थिति में पत्नी पति के साथ रहने के लिये बाध्य नहीं है। हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम की धारा 18 (2) के अन्तर्गत बताये गये आधारों के रहने पर पत्नी से पृथक रह सकती है। आज के युग में पत्नी पति पर नितान्त आश्रित नहीं है न ही वह उसका अभिन्न अंग है। आज पति-पत्नी दोनों को ही नियोजन के अवसर की समानता ही नहीं है. बल्कि दोनों ही कोई भी कार्य, नौकरी, वृत्ति या उपव्यवसाय कर सकते हैं और अपने-अपने कार्य के सम्बन्ध में, हो सकता है पृथक-पृथक घर बसा कर रहना पड़े, तो इसका अर्थ यह नहीं होगा कि पति-पत्नी ने एक दसरे का साहचर्य छोड़ दिया है। यह कहना संविधान के विरुद्ध होगा। यही नहीं, इस लेखक का निवेदन है कि न्यायाधीश सर्व श्री ग्रोवर, भार्गव, वर्मा और सन्ध्या वालिया ने साहचर्य (सहवास) का बहुत ही संकुचित अर्थ लिया है। उनके अनुसार साहचर्य का अर्थ है पत्नी का पतिगृह में रहना। अंग्रेजी निर्णय ब्राडशाँ बनाम ब्राडशा में न्यायाधीश सर न्यून ने कहा कि सहवास का अर्थ यह नहीं है कि भौतिक रूप से पति-पत्नी एक ही गह मे रह रहे हों, यदि ऐसा होगा तो ऐसे व्यक्तियों का एक बहुत बड़ा वर्ग होगा जिनके बारे में हम कहेंगे कि वे सहवास में नहीं रह रहे हैं, जैसे घेरलू नौकर-चाकर, जो दिन-रात एक गृह में नहीं रह सकते हैं
1.1975 रेवेन्यू लों रिपोर्टर 512.
2. शान्ती बनाम रमेश, (1972) इलाहाबाद लॉ जर्नल 317.
3. राधाकष्णन बनाम धनलक्ष्मी, 1975 मद्रास 333; मिंजूमल बनाम देवी, 1977 राजस्थान 141; दीपा बनाम दिनेश, 1993 इला० 244.
4. (1869) प्रोबेट 24.
परन्तु फिर भी साहचर्य करते है। यही बात रेलवे गाई, कण्डक्टर, ड्राइवर के साथ है। यह बात उन यापारियों के साथ है जो व्यापार के सिलसिले में महीनों घर से बाहर रहते हैं। इन सब उदाहरणों में, पतिपसी सहवास करते हैं। पत्नी ययह नहीं कह सकती है कि पति से साहचर्य से विलग हो गया है तो फिर विपरीत स्थिति में क्या पति का यह कहना कि पत्नी साहचर्य से विलग हो गई है औचित्यपूर्ण होगा? लेखक का निवेदन है कि पत्नी के नौकरी छोड़ने से इन्कार करने पर यदि पति उसका साहचर्य छोड़ देता है तो वह अभित्यजन का दोषी होगा और दो वर्ष व्यतीत होने पर पत्नी न्यायिक पृथक्करण या विवाह-विच्छेद की याचिका प्रेषित कर सकती है।
उसके पिता के घर भेज देना, या चले जाने देना और फिर पत्नी के प्रयत्नों के बावजूद पति द्वारा सहचर्य से विलग होना है और पत्नी दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री पाने की अधिकारिणी है।
युक्तियुक्त कारण-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 की उपधारा (1) में चर्चित “युक्तियुक्त कारण” की व्याख्या में उपधारा (2) के कारण न्यायालयों में व्यापक मतभेद था। विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 ने, उपधारा (2) को निरस्त कर दिया है। अतः युक्तियुक्त कारण के सम्बन्ध में धारा (2) के सन्दर्भ में दिये गये निर्णय अब निरर्थक हो गये हैं।
अभित्यजन के सम्बन्ध में हम पढ़ चुके हैं कि यदि प्रतिपक्षी ने याचिकाकार का या वैवाहिक गृह का अभित्याग औचित्यपूर्ण या युक्तियुक्त कारण से किया गया है तो वह अभित्यजन के वैवाहिक अपराध का दोषी नहीं होगा। यद्यपि सहचर्य से अलग हो जाने का तात्पर्य हर स्थिति में अभित्यजन नहीं है, फिर भी वह बहुत कुछ उसके सदृश्य है, और वहाँ भी यदि सहचर्य से अलग होना उचित कारण से है तो याचिकाकार के दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका खारिज हो जायेगी। लेखक का निवेदन है कि औचित्यपूर्ण कारण और उचित कारण दोनों वैवाहिक अनुतोषों के सम्बन्ध में एक ही अर्थ रखते हैं। अभित्यजन के सम्बन्ध में आने वाले मुकदमों के निर्णय में न्यायालय का यह स्थापित मत है कि औचित्यपूर्ण कारण विवाहविच्छेद, न्यायिक पृथक्करण और विवाह की अकृतता के आधारों से कम भी हो सकते हैं।
‘उचित कारण’ क्या है, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर है, और प्रत्येक मामले में पृथक-पृथक हो सकता है। गुरुदेव बनाम सरवन के केस में ‘युक्तियुक्त कारण’ की व्याख्या करते हुये न्यायाधीश श्री ग्रोवर ने कहा, कि ‘युक्तियुक्त कारण’ और ‘औचित्यपूर्ण कारण’ का अर्थ अवश्यम्भावी रूप से वैवाहिक अनुतोष का आधार नहीं है यदि याचिकाकार का आचरण और व्यवहार ऐसा है कि प्रतिपक्षी के लिये सहचर्य से विलग हो जाना उचित है तो वह ‘युक्तियुक्त कारण’ की परिभाषा में आयेगा। केवल इस कारण कि पत्नी अपनी प्रतिरक्षा सिद्ध नहीं कर सकी है, पति डिक्री पाने का अधिकारी नहीं है। विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 में अब यह अपबन्ध बनाया गया है कि यदि याचिकाकार यह सिद्ध कर दे कि प्रतिपक्षी ने अपने को उसके सहचर्य से विलग कर लिया है तो यह सिद्ध करने का भार प्रतिपक्षी पर है कि उसने अपने को युक्तियुक्त कारण से विलग किया है। विपरीत मत लेने वाले इसके पूर्व के निर्णय अब उचित नहीं हैं। लेखक का निवेदन है कि “युक्तियुक्त कारण” और “औचित्यपूर्ण कारण” का प्रयोग वृहत में किया गया है |
1. संध्या बनाम गोपीनाथ; 1983 कल० 16, सुशील बनाम प्रेम, 1986 मध्य प्रदेश 225.
2. 1959 पंजाब 162, और देखें; जगदीश बनाम श्याम, 1966 इलाहाबाद 150.
3. धारा १ का स्पष्टीकरण और देखें; आत्माराम बनाम नर्मदा, 1980 राज० 353; जया बनाम कृष्णन, 1995 कर्ना०139.
4. कुछ अन्य निर्णय में भी यह मत लिया गया है, गुरुचरण बनाम बरयाम, 1960 पंजाब 422; अलोपबाई बनाम रामफल, 1962 मध्य प्रदेश 2113; शकुन्तला बनाम बाबूराम, 1963 मध्य प्रदेश 10, मंगी बनाम 1962 इलाहाबाद 447, जगदीश लाल बनाम श्याम, 1966इलाहाबाद 150 रामकली बनाम सवा 1969 दिल्ली ला टाइम्स 519; साधु सिंह बनाम जगदीश, 1969 पंजाब 139; शान्ति देवी बनाम 1971 दिल्ली 295%; विजय बनाम आलोक, 1969 कलकत्ता 477, राधाकृष्ण बनाम विजय 1994 इलाहबाद 216.
. 5. तुलसा बनाम पन्ना लाल, 1963 मध्य प्रदेश 5; और देखें; अन्नामलाई बनाम परमई, 19655
“युक्तियुक्त” (reasonable cause) या “औचित्यपूर्ण कारण” (just excuse) से तात्पर्य है
(क) वैवाहिक अनुतोष (विवाह-विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण और विवाह की अकृतता) का कोई भी आधार, जैसे क्रूरता जारकर्म, संपरिवर्तन, नपुंसकता इत्यादि।
(ख) कोई भी वैवाहिक दुराचार जो वैवाहिक अनुतोष के आधार की परिभाषा में नहीं आता है, परन्तु फिर भी ऐसा दुराचरण है कि प्रत्यर्थी अर्जीदार के साथ नहीं रह सकता है।
(ग) अर्जीदार का कोई ऐसा आचरण या कृत्य जिसके कारण प्रत्यर्थी यह समझता है कि उसका अर्जीदार के साथ रहना असम्भव है।
उपर्युक्त (क) में आने वाले मामले सीधे सादे हैं-यदि अर्जीदार ने कोई ऐसा दुराचरण किया है जो विवाह-विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण या विवाह की अकतता का आधार बनता है तो उसे दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री नहीं मिल सकती है। उपर्युक्त (ख) और (ग) में आने वाले मामलों को हम कुछ उदाहरणों द्वारा समझ सकते हैं-अर्जीदार का यह हठ कि पत्नी उसके माता-पिता के पास रहे। अभित्यजन (चाहे दो वर्ष की कालावधि न भी पूरी हुई हो) अर्जीदार का कोई ऐसा आचरण जिनके कारण प्रत्यर्थी यह समझती है कि उसका अर्जीदार के साथ रहना खतरे से खाली नहीं है,3 अर्जीदार द्वारा अपनी शाकाहारी ब्राह्मण पत्नी को मांस खाने या मदिरा पान करने के लिये बाध्य करना,4 अर्जीदार की दूसरी पत्नी का होना, अर्जीदार को मदिरा या अफीम का व्यसन होना,6 अर्जीदार का मारपीट का दोषी होना, अर्जीदार द्वारा जारकर्म या व्यभिचार का झूठा दोषारोपण, अर्जीदार का आतंकित और भयभीत कर देने वाला आचरण, अर्जीदार का फिजूलखर्जी होना10, अर्जीदार (यदि पति है)11 का दूसरी स्त्रियों से, या (यदि पत्नी हो),12 दूसरे पुरुषों से घनिष्ठ सम्बन्ध होना युक्तियुक्त कारण है।
अंग्रेजी निर्णयों13 का अनुकरण करते हुये हमारे न्यायालयों ने मत व्यक्त किया है कि युक्तियुक्त कारण या औचित्यपूर्ण कारण “गम्भीर और भारी” (Grave and weight) या “गम्भीर और विश्वासोत्पादक” (Grave and convincing) होना चाहिये।14 साधू बनाम जगदीश15 में पंजाब उच्च न्यायालय ने कहा कि युक्तियुक्त कारण औचित्य से कुछ कम परन्तु सनक या बहम से कुछ अधिक होना चाहिये। कान्तिमेथी
1. दोषी बनाम कोहर सिंह, 1962 पंजाब 183; (अर्जीदार के दूसरी पत्नी थी), समराज बनाम अब्राहम, 1970 मद्रास 434, (अर्जीदार ने जारकर्म किया था); विजय बनाम आलोग, 1969 कलकत्ता 477 (अर्जीदार क्रूरता का दोषी था); सुरेन्द्र बनाम गुरूदीप, 1973 पंजाब एवं हरियाणा 134 (अर्जीदार क्रूरता का दोषी था)।
2. जोगिन्दर कौर बनाम शिवचरण, 1965 जम्मू एण्ड कश्मीर 95.
3. शान्ती बनाम बलवीर, 1971 दिल्ली 294.
4. चाँद बनाम सरोज, 1955 राजस्थान 88.
5 भगवती बनाम साधू 1961 पंजाब 181; सिद्धगोवडा बनाम परवकम्मा, 1965 मैसूर 299; मलप्पा बनाम निलव्वा. 1970 मैसूर 59; रोहनी बनाम नरेन्द्र सिंह, 1972 सुप्रीम कोर्ट 495 में पति द्वारा दूसरे विवाह करने की कोई प्रतिक्रिया पत्नी के मन में नहीं हुई, पत्नी ने पति का अभित्यजन दूसरे विवाह के पूर्व ही किया हुआ था।
6. वीर बनाम बीर, (1906) 94 लॉ टाइम्स 704 (अंग्रेजी निर्णय).
7. बटलेट बनाम बटलेंट, (1913) 29 टाइम्स लॉ रिपोर्ट्स 729 (अंग्रेजी निर्णय),
8 बाई जमना बनाम दयाल जी, (1920) 22 बम्बई ला रिपाट्स 241; सरला बनाम कृष्ण चन्द्र, 1982 राज० 220.
9. टिमिन्स बनाम टिमिन्स, (1953) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्ट्स 187 (अंग्रेजी निर्णय).
10. जी० बनाम जी०, (1930) प्रोबेट 72 (अंग्रेजी निर्णय).
11. रसेल बनाम रसेल, (1835) सो० जर्नल (अंग्रेजी निर्णय).
12. केम्पट बनाम केम्पट (1935) 2 आल इंग्लैंड रिपोर्ट्स 533 (अंग्रेजी निर्णय).
13 देखें. फोस्टर बनाम फोस्टर, (1953) 2 आल इंग्लैंड रिपोर्ट्स 518 (अंग्रेजी निर्णय).
14 श्याम लाल बनाम सरस्वती, 1967 मध्य प्रदेश 204; सत्या बनाम अजायब सिंह, 1973 राजस्थान 20
15. 1969 पंजाब 139.
बनाम परमेश्वर में न्यायालय ने निर्णय दिया कि वैवाहिक गृह में वृद्ध माता-पिता का निवास पत्नी के लिये घर छोड़ने का कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है। इसी भाँति पत्नी के इस आग्रह का कि पति उसके शहर में बस जाये ठकरा देनार या पति द्वारा कठोर पत्र लिखना पत्नी के लिये घर छोड़ देने का कोई औचित्य कारण नहीं है। कुछ निर्णयों में यह मत व्यक्त किया गया है कि पति का कोई आचरण या कृत्य जो पत्नी के लिये पतिगृह में रहना असम्भव बनाये युक्तियुक्त कारण है।
बाबूराम बनाम सुशीला में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पति-पत्नी सुखपूर्वक नहीं रह सकते हैं, तो भी प्रत्यर्थी के लिये पृथक रहने का यह युक्तियुक्त कारण नहीं
दाम्पत्य पति द्वारा पत्नी को वापस न लाना न्यायालय की डिक्री दोनो पक्षकारों की सहमति द्वारा भी पारित की जा सकती है। यह न्यायालय द्वारा मान्य और वैध है।
सबूत का भार-हमारे उच्च न्यायालय में इस बारे में मतभेद रहा है कि ‘युक्तियुक्त कारण’ को सिद्ध करने का भार किस पर है-अर्जीदार पर या प्रत्यर्थी पर। विधि विवाह (संशोधन) अधिनियम की धारा 9 में एक स्पष्टीकरण जोड़कर यह नियम निर्धारित किया गया है कि युक्तियुक्त कारण के सिद्ध करने के सबूत का भार प्रत्यर्थी पर होगा।
परन्तु यह ध्यान देने योग्य बात है कि सबूत का भार कि प्रत्यर्थी सहचर्य से अलग हो गई है, अर्जीदार पर है। उसके यह सिद्ध करने पर ही प्रत्यर्थी को यह सिद्ध करना होगा कि विलग होने के लिये उसके पास युक्तियुक्त कारण है।
वैवाहिक अनुतोष के अपबन्धन
दोषिता-सिद्धान्त के अन्तर्गत एक पक्षकार का दोषी होना और दूसरे का निर्दोष होना अनिवार्य है। धारा 23 के निबन्धनों के न होने पर ही याचिकाकार निर्दोष माना जायेगा। धारा 23 (1) के अन्तर्गत दिये गये आधारों को वैवाहिक अनुतोष पर अपबन्धन कहते हैं। अंग्रेजी विधि में इन्हें वर्जनायें भी कहा गया है। धारा 23 (1) के किसी भी अपबन्धन के होने पर वैवाहिक अनुतोष की याचिका खारिज कर दी जायेगी। न्यायालयों को इस सम्बन्ध में कोई विवेक नहीं है। धारा (1) के अन्तर्गत निम्न अपबन्धन है-
(1) कट्टर सबूत का सिद्धान्त,
(2) अपने ही दोष या निर्योग्यता का लाभ उठाना,
(3) उपसाधकता, (Accessory)
(4) मौनानुकूलता (Connivance)
(5) उपमर्षण, (Condonation)
(6) दुस्संधि (Collusion)
(7) अनुचित बिलम्ब, (Unreasonable delay); और
1. 1974 केरल 124.
2. जगजीत बनाम एकराम, 1973 पंजाब एवं हरियाणा 355.
3. मंजुला बनाम जबेरी, 1975 गुजरात 158, त्रिलोक बनाम सावित्री, 1972 इलाहाबाद 52
4. गुरहुब्र बनाम सरवन, 1966 पी० एल० आर० 744; त्रिलोक बनाम सावित्री, 1927 इलाहाबाद
5. 1964 मध्य प्रदेश 73.
6. जोगिन्दर बनाम पुष्पा, 1969 पं० और ह0 317 (पूर्ण पीठ); सुदर्शन बनाम सरोज, 192 । सुदर्शन बनाम सरोज, 1983 पं० और ह. 59.
7. राधाकृष्ण बनाम विजय लक्ष्मी, 1983 आन्ध्र प्रदेश 380.
8. विट्ठी बनाम रामदेव, 1983 इ० 371.
(8) अन्य कोई वैध आधार।
उपर्यक्त अपबन्धन की अवहेलना करके पास की गई डिक्री शून्य है। परन्तु अपबन्धन (2) उन्मत्तता के आधार पर प्रेषित की गई याचिका पर लागू नहीं होती है।
कट्टर सबूत का सिद्धान्त (Doctrine of Strict Proof) (LLB Study Material)
वैवाहिक कार्यवाही सिविल कार्यवाही है, और जिस तरह अन्य किसी सिविल मुकदमे में उसी भांति वैवाहिक मुकदमें में भी निम्न तीन स्थितियां हो सकती हैं
(1) प्रतिपक्षी सम्मन की तामील होने के पश्चात् भी न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं होता है, अतः न्यायालय उसके विरुद्ध एकतरफा कार्यवाही कर देता है,
(2) प्रतिपक्षी न्यायालय के समक्ष स्वयं या अपने अभिभावक द्वारा उपस्थित होकर याचिकाकार के दावे की स्वीकार कर लेता है, या
(3) प्रतिपक्षी याचिकाकार के दावे का प्रतिवाद करता है।
सामान्य सिविल मुकदमे में पहली स्थिति में न्यायालय वादी का साक्ष्य लेकर उसी समय वाद में डिक्री पास कर देता है, दूसरी स्थिति में पक्षकारों की सहमति के आधार पर पहली पेशी में ही डिक्री पास कर देता है, तीसरी स्थिति में वाद का विचारण होता है और न्यायालय पक्षकारों के साक्ष्य के आधार पर और पूर्ण सुनवाई के पश्चात् डिक्री पारित करता है। परन्तु मुकदमें में तीनों ही स्थितियों में तभी डिक्री पारित हो सकती है जबकि याचिकाकार अपना आधार संशय के परे सिद्ध कर देता है। इसी को कट्टर सबूत का सिद्धान्त कहते हैं।2
अंग्रेजी और भारतीय निर्णय इस बारे में एक मत हैं कि याचिका के आधार को सिद्ध करने का भार याचिकाकार पर है और याचिकाकार को यह आधार संशय की परिधि के परे सिद्ध करना चाहिये। कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री मुखर्जी ने कहा कि संशय की परिधि के परे सिद्ध करने में भार के कारण सिविल कार्यवाही क्षण में दाण्डिक कार्यवाही का रूप ले लेती है। क्योंकि दाण्डिक मुकदमें में भी सबूत की यही स्थिति है। इसका कारण यह है कि किसी विवाह बन्धन को वैवाहिक अपराध के संशय की परिधि के परे सिद्ध हये बिना विघटित कर देना उतनी ही बड़ी सामाजिक भूल होगी जितनी कि किसी अपराधी को बिना उसके अपराध के संशय का परिधि के परे सिद्ध हुये फाँसी के तख्ते पर लटका देना। उच्चतम न्यायालय ने भी यही मत व्यक्त किया है। परन्तु दास्ताने बनाम दास्ताने में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश श्री चन्द्रचड ने इस मत से थोडा भिन्न मत लिया है। उनका कहना है कि अर्जीदार वैवाहिक अन्तोष के आधार को सम्भावना के कांटे द्वारा यह भी सिद्ध कर सकता है अर्थात् वाद के समस्त तथ्यों का अवलोकन करके-क्या औचित्यपूर्ण सम्भावना यह है कि प्रत्यर्थी वैवाहिक दुराचरण का दोषी है? यदि उत्तर सकारात्मक है, तो अर्जीदार के पक्ष में डिक्री पास कर दी जायेगी।
अपने दोष या निर्योग्यता का लाभ उठाना (Taking Advantage on One’s Own Wrong of Disability) (LLB Notes in Hindi)
यह उपबन्ध और उपसाधकता एवं मौनानुकूलता साम्या के इस सूत्र पर आधारित है-“जो भी साम्या के समक्ष आता है उसके हाथ स्वच्छ होने चाहिये।” जो व्यनिरा अपने ही दोष या अपनी ही निर्योग्यता का लाभ उठाना चाहता है उस व्यक्ति के हाथ स्वच्छ नहीं हैं और वैवाहिक अनुतोष के आधार के सिद्ध होने पर भी
1. मनीलाल बनाम गंगावेन, 1976 गुजरात 98.
2. कमला बनाम राजेन्द्र, 1972 इलाहाबाद 338.
3. भारतीय निर्णय पाद टिप्पणी 176, 29 में दिये गये हैं.
4. विपिन चन्द्र बनाम प्रभा, 1957 सु० को० 176.
5.१९७५ सु० को० 1934.
6. गोपाल बनाम पुष्पवेणी, 1982; कर्ना० 329; गौरी बनाम विधु, 1986 गौहाटी 22; मीरा बनाम राजेन्द्र, 1986 कल० 240; लीला बनाम सचेन्द्र, 1994 मध्य प्रदेश 205..
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