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LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Eight Part Notes

 

LLB 2nd Semester Hindu Law Chapter 6 Eight Part Notes:- LLB (Bachelor of Law) Chapter 6 Vaivahik Anutosh की सांतवी Post हम आपको LLB Notes Study Material के रूप में दे रहे है जिसे आप LLB Question Answer Paper 2020 में पढ़ सकते है | LLB Exam Question Paper आ चुके है जिसे और LLB Semester Wise Exam Students देने भी लगे है | हम आपको अपनी इस Website में LLB Sample Model Paper and LLB Notes Study Material (PDF Download) पढ़ने के लिए देते है जिसे आप पढ़कर Exam Crack कर सकते है |

 

LLB Notes

यधपि धारा 6 के अन्तर्गत स्पष्ट शब्दा म इस नियम को मान्यता नहीं दी गई है, परन्तु इसमें कोई सन्देड नहीं है कि इस धारा के अन्तर्गत अपत्यों का ही हित सर्वोपरि (Paramount) है। भूपेन्द्र सिंह बनाम जसबीर और में माता पिता पथक रह रहे था माता पुत्री क साथ अपने माता पिता के साथ थी तथा पत्र अलग-अलग सानों पर पढ़ रहे थे। वे अपनी माता तथा बहन के साथ रहने के इच्छुक थे। पिता का मत था कि क्योंकि वह अभिभावक (guardian) है इसलिये कि बेटे कहां पढ़ेंगे इसका फैसला करना उसका अधिकार है, मान्य नहीं है। अपत्यों का हित सर्वोपरि है इसलिये संरक्षण माता को प्रदान किया गया। दिल्ली, मैसूर और राजस्थान उच्च न्यायालयों में मत व्यक्त किया है कि पांच वर्ष से कम आयु के अपत्य की अभिरक्षा सामान्यत: माता के पास होनी चाहिये अब यह भी मान्य नियम है कि अपराधी पक्षकार के पक्ष में भी अभिरक्षा का आदेश दिया जा सकता है।

हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पांच वर्ष से कम आयु के अपत्यों की अभिरक्षा साधारणतया माता को ही दिये जाने का नियम बनाया गया है। उस माता को जो दुराचरण की दोषी है, को भी पाँच वर्ष से कम आयु के अपत्य की अभिरक्षा दी जा सकती है। विशेषकर जब कि पिता की कुछ भी आय न हो और माता की आय अच्छी हो। परन्तु यदि माता पांच वर्ष से कम पुत्र, की उपेक्षा करती है, तो उसे संरक्षा से वंचित किया जा सकता है।

अपत्यों के मिलन (Access to Children)-जब पक्षकार पृथक हो जाते हैं तो न्यायालय एक पक्षकार को ही अपत्यों की अभिरक्षा दे सकता है। प्रश्न यह है कि क्या दूसरा पक्षकार अपनी सन्तान का मुंह देखने को भी तरस जाये, उनसे मिल भी न सके? क्या यह अपत्यों के हित में होगा कि वे बड़े होते जायें और अपने माता (या पिता) को जाने ही नहीं? इस समस्या का हल विधि ने यह नियम बनाकर किया है कि दूसरे पक्षकार को अपत्यों से मिलने का अवसर दिया जायेगा। किन्तु ऐसा अवसर नहीं दिया जायेगा जबकि वैसा करना अपत्यों के कल्याण में न हो। इस सम्बन्ध में हिन्दू विवाह अधिनियम और हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम में कोई सीधा उपबन्ध नहीं है। बात यह है कि अपत्यों से मिलन अभिरक्षा के संप्रत्यय का ही अंग है। जिस न्यायालय की अभिरक्षा के आदेश देने की अधिकारिता है, उसी न्यायालय को अपत्यों से मिलने का आदेश देने की भी अधिकारिता है। यहाँ भी अपत्यों का कल्याण ही सर्वोपरि है। सुन्दर बनाम गोपाल में न्यायालय ने कहा कि पिता का अपत्यों से मिलने का आदेश इसलिये दिया गया है ताकि अपत्य अपने पिता के विरुद्ध न हो जायें। हमारे न्यायालय इस सम्बन्ध में एक पग और आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने न केवल माता-पिता के पक्ष में मिलने के आदेश दिये हैं बल्कि अन्य नातेदारों के पक्ष में भी इस भॉति के आदेश दिये हैं। यह हिन्दू समाज की परिस्थितियों के अनुकूल ही है जहाँ संयुक्त कुटुम्ब अब भी एक बहुत महत्वपूर्ण संस्था है।

अभिरक्षा-संक्षिप्त प्रश्न जो वर्तमान वाद में विचारण के लिए प्रोद्भूत हुआ था, वह दो लड़कियों (पत्रियों) उम्र 17 एवं 11 वर्ष के अभिरक्षा के सम्बन्ध में था। दोनों पुत्रियां वर्तमान में पिता की अभिरक्षा में थीं और माता की पुत्रियों तक कोई भी पहुंच नहीं थी अथवा यहां तक कि उसके साथ संक्षिप्त भेंट भी नहीं हई थी। उच्चतम न्यायालय द्वारा पृथक रूप से लड़कियों के साथ बातचीत करने एवं उनकी आय शिक्षा, उनके भविष्य तथा अब माता के सहचर्य के महत्व के प्रश्नों को पूछने के पश्चात वे दोनों अत्यन्त स्पष्ट तथा

1. 2000 मध्य प्रदेश 330.

2. राधा बनाम सुरेन्द्र, 1971 मैसूर 69; चन्द्र बनाम प्रेम, 1969 दिल्ली 283; धीसी बनाम श्रीराम, 1972राजस्थान 256%; न्यायालयों ने हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 (क)। सहारा लिया है.

3. वेकटा बनाम कमलाम्मा, 1982 आन्ध्र प्रदेश 369.

4. मोहन बनाम संध्या, 1993 मद्रास 59.

5. कालीधर बनाम बेपियाम्मा, 1949 मद्रास 608; मोहनी बनाम विरेन्द्र, 1977 सुप्रीम काट

6. देखे.; निश्वत बनाम निश्वत, 1935 अवध 133; सुशीला बनाम कनवर 1948 अवध 2007 विपद, 1941 बम्बई 103; ज्वाला प्रसाद बनाम बच्चू लाल, 1942 कलकत्ता 215.

7. 1953 मध्य भारत 190; देखें, मोहिनी बनाम वीरेन्द्र, 1977 सुप्रीम कोर्ट 1359.

8. शान्ति बनाम ज्ञान, 1956 पंजाब 239; कालीपाड बनाम वेलिय्याम्मल, 1949 मद्रास, 608.

 

दृढ़ निश्चित थीं कि वे अपने पिता के साथ बने रहना चाहती हैं और वे अपनी मां के साथ नहीं जाना चाहती हैं। तथ्य एवं परिस्थितियों के दृष्टिगत यह महसूस किया गया कि यदि लड़कियों को बलपूर्वक पिता से छीन लिया जाता है और उन्हें मां को सौंप दिया जाता है तो इससे नि:संदेह उनकी मानसिक स्थिति पर प्रभाव पड़ेगा और वह उनकी बेहतरी तथा अध्ययन के हित में बिल्कुल ही वांछनीय नहीं होगा। ऐसी स्थिति में बेहतर अनुक्रम यही होगा कि मां को प्रथमत: बच्चियों से प्रारम्भिक सम्पर्क बनाने की अनुमति प्रदान की जाये, उनके साथ सम्बन्ध को बढाने दिया जाये एवं शनैःशनै: मां के रूप में अपनी स्थिति को प्रत्यावर्तित करने दिया जाये। बच्चों की अभिरक्षा से सम्बन्धित मामले में सर्वोपरि विचारण बच्चे का कल्याण तथा हित होता है न कि परिनियम के अधीन माता-पिता के अधिकार। यहां तक कि परिनियम जैसे कि संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 तथा हिन्दू अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 से भी स्पष्ट हो जाता है कि बच्चे का कल्याण प्रबल विचारण है। इस प्रकृति के मामले में जब पिता और मां बच्चे के कल्याण को संदर्भित किये बिना अपने वाद को लड़ रहे हों तो न्यायालय पर बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि विचारण के रूप में मस्तिष्क में रखते हुए न्यायिक रूप से अपने विवकाधिकार का प्रयोग करने का भारी कर्तव्य अधिरोपित किया जाता है। वाद के सुसंगत तथ्यों तथा परिस्थितियों में बच्चियों का सर्वाधिक हित और कल्याण तभी पूरा होगा जब वे पिता की अभिरक्षा में बनी रहती हैं तथा पिता की अभिरक्षा में विक्षोभ कारित करना वांछनीय नहीं है तथापि न्याय के हित की पूर्ति माँ को भेंट करने के अधिकार प्रदान करके हो जायेगी।

सन्तान की अभिरक्षा-इस मामले में पति तथा पत्नी के मध्य पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद हआ था। सहमति डिक्री के निबन्धनों में दोनों तलाकशुदा पति तथा पत्नी सन्तान के संयुक्त संरक्षक नियुक्त किये गये थे। सन्तान की अभिरक्षा प्रत्येक वैकल्पिक सप्ताह में प्रत्येक याची के पास थी स्थायी अभिरक्षा के लिये दोनों द्वारा परम्परा विरोधी याचिकायें दाखिल की गयी। माँ ने एक से अधिक सप्ताह के लिये सन्तान को विदेश ले जाने के लिये सन्तान की अभिरक्षा की मांग की थी। उच्च न्यायालय ने एक वर्ष के लिये सन्तान की अभिरक्षा माँ के पक्ष में मंजूर की, जो उचित नहीं है। सन्तान की अभिरक्षा को माँ के पास अभिरक्षा के लिये दाखिल याचिकाओं के निस्तारण तक के लिये दिया गया था। याचिकाओं को त्वरित गति से निस्तारण का आदेश दिया गया था, तब तक पिता को अपनी पुत्री से मिलने का अधिकार होगा या उसे प्रत्येक शनिवार और रविवार को प्रात: 10 बजे से 8 बजे रात्रि तक उसे बाहर ले जाने का अधिकार होगा। माँ को सन्तान को देश से बाहर जाने से प्रतिबंधित किया गया, यदि वह देश से बाहर जाती है तब उसे अपनी अनुपस्थिति में सन्तान को पिता की अभिरक्षा में रखना होगा। अभिनिर्धारित किया गया कि अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा से सम्बन्धित मामले में सन्तान का हित तथा कल्याण सर्वोच्च महत्ता का होता है न कि माता-पिता की सुविधा या उनकी खुशी

शिश का कल्याण-अभिनियम की धारा 13 में प्रयुक्त शब्द “कल्याण” का शब्दश: निर्वचन किया जाना चाहिए और इसे व्यापक भाव में ग्रहण किया जाना चाहिए। सन्तान के नैतिक तथा शिष्टता सम्बन्धी कल्याण पर भी महत्व दिया जाना चाहिए यद्यपि कि विशेष संविधि के प्रावधान जो माता-पिता और संरक्षक के अधिकारों को शासित करते हैं, पर विचार किया जाना चाहिए। यह संतान का कल्याण तथा हित है न कि माता-पिता का अधिकार है जो अभिरक्षा के प्रश्न को निर्णीत करने के लिये एक निर्णायक तत्व है। संतान के कल्याण के प्रश्न पर विचार तथा निर्णय प्रत्येक मामले के तथ्यों के संदर्भ में किया जाना चाहिए। यदि सन्ताने अपनी माता की अभिरक्षा में रहने से तथा मिलने से इन्कार करती हैं तो उन्हें अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए। तथा संतानें जो अपने पिता के साथ रहने की इच्छुक हैं उन्हें वयस्कता की आयु प्राप्त करने तक पिता की अभिरक्षा में रहने की अनुमति प्रदान की जा सकती है।

1. गायत्री बजाज बनाम जीतेन भल्ला, 2012 (2) ए० डब्ल्यू० सी० 1863 (एस० सी०).

2 कुमार वी० जहगीरदार बनाम चेतना के० रामतीर्थ, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 2179 : 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 404 (एस० सी०).

3. गायत्री बजाज बनाम जीतेन भल्ला, (2012) 12 एस० सी० सी० 471 : ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 541 : 2013 विधि निर्णय एवं सामयिकी 164 (एस० सी०).

शिश की अभिरक्षा-शिशु की अभिरक्षा से सम्बन्धित वाद के लम्बित रहने के दौरान पिता को शिश से जो माता की अभिरक्षा में है, सप्ताह में एक बार मिलने का अधिकार है। शिशु की अभिरक्षा में प्रमख विचारण शिशु का कल्याण है; न कि विधिक अधिकार एवं माता-पिता का विधिक अधिकार ।।

अवयस्क की अभिरक्षा-अभिलेख पर उपलब्ध निर्णय एवं डिक्री से यह पाया गया कि अवयस्क जिसकी अभिरक्षा की मांग की गयी थी वाद दाखिल किये जाने के समय 14 वर्ष का था। वह अब वयस्क हो गया है तथा अब किसी संरक्षक की नियुक्ति की आवश्यकता नहीं रही है। उसे उस स्थान का चुनाव करने की स्वतंत्रता प्राप्त है, जहाँ वह निवास कर सके।

अन्तरिम अभिरक्षा (Interim Custody)-अवयस्क बच्चे की अभिरक्षा एक संवेदनशील मामला होता है। यह एक ऐसा मामला भी होता है जिसमें भावनात्मक लगाव रहता है। ऐसे मामलों से अत्यन्त सावधानीपूर्वक निपटना चाहिये। अवयस्क बच्चों के प्रति पक्षकारों के लगाव एवं भावनाओं एवं अवयस्क के कल्याण के मध्य ऐसा सन्तुलन भी रखना चाहिये जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उच्च न्यायालय को इस मामले के तथ्यों में अवयस्क सन्तानों की अन्तरिम अभिरक्षा उसके पिता एवं दादा-दादी ने नाना-नानी की अभिरक्षा में परिवर्तन करने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिये।

 

अभिरक्षा से सम्बन्धित आदेश अपनी प्रकृति से कभी भी अन्तिम नहीं हो सकता है। तथापि कोई भी परिवर्तन के किये जाने से पूर्व उसे सन्तानों के सर्वोच्च हित में होना साबित किया जाना आवश्यक है। इस तरह के संवेदनशील मामले में किसी भी तत्व को निर्णायक नहीं माना जा सकता है। ऐशपूर्ण जीवन के लिये न तो समृद्धि ही और न ही क्षमता, न्यायालय द्वारा विचारण करने की अधिकारिता को बाधित करना चाहिये। यहाँ जयप्रकाश खदरिया बनाम श्यामसुन्दर अग्रवाल एवं एक अन्य,4 के वाद में न्यायालय के विनिश्चय का सन्दर्भ दिया जा सकता है। ऐसे मामलों में सामान्य रूप से, न्यायालय किसी एक पक्ष को अवयस्क बच्चों की अभिरक्षा मंजूर करने के दौरान दूसरे पक्ष को उन बच्चों से मिलने की सुविधा भी प्रदान करते हैं।

अवयस्क शिशु की अभिरक्षा-यह सुस्थापित है कि अवयस्क सन्तान का कल्याण अभिरक्षा के बारे में विवाद का विनिश्चय करते समय सर्वोच्च विचारण का है। यदि पिता की अभिरक्षा समान रूप से थी माता की अपेक्षा वेहतर ढंग से समुन्नत नहीं कर सकता, तो उसे अभिरक्षा की अनुज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि यह शिशु के कल्याण को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर सकता है। इस तथ्य पर विचार करते हुये, कि पत्नी की वित्तीय स्थिति, जो पति की वित्तीय स्थिति से उच्च है, जो उसके अभिवचनों के अनुसार बेरोजगार है, शिश अपने जन्म के समय से ही कभी भी पिता या उसके परिवार के साथ नहीं थी और महिला शिश होने के कारण यवती होने के समय माता द्वारा बेहतर ध्यान और मार्ग-निर्देशन दिया जायेगा, इसलिये माता की अभिरक्षा में उसे देना सर्वोत्तम होगा क्योंकि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में यह सर्वोत्तम ढंग से महिला शिशु के कल्याण और हित को पूरा करेगा।

1. विमलेन्दु कुमार चटर्जी बनाम दीपा चटर्जी एवं अन्य, 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 771 (एस० सी०).

2. राजेश कमार गुप्ता बनाम राम गोपाल अग्रवाल, 2005 विधि निर्णय एवं सामयिकी 609 (एस० सी०); बाल कष्ण रस्तोगी बनाम डॉ० श्रीमती रीना रस्तोगी, 2005 विधि निर्णय एवं सामयिकी 210 (इला०); पूनम दत्ता बनाम कृष्ण लाल दत्ता, 1988 (25) ए० सी० सी० 533 (एस० सी०); राजीव भाटिया बनाम गवर्नमेण्ट आफ एन० सी० टी०, डेलही, 2000 (41) ए० एल० आर० 215 (एस० सी०); वीना कपूर बनाम वी० के० कपूर 1990 (16) ए० एल० आर० 401 (इला०); श्रीमती कहकशां बानो बनाम ए० एम० अंसारी, 1982 (19) एस० सी० सी० 205 (एस० सी०); तेजिन्दर कौर बनाम इन्द्रपाल, 1997 (29) ए० एल० आर० 112; श्रीमती एलिजाबेथ दिनशा बनाम अरविन्द एम० दिनशा, 1987 (13) ए० एल० आर० 24 (एस० सी०); सैयद सलीमुद्दीन बनाम डॉ० रुखसाना, 2001 (45 ए०सी० सी० 367 (एस० सी०).

3. श्रीमती रजिया सुल्तान एवं एक अन्य बनाम मोहम्मद फुरकान, 2005 विधि निर्णय एवं सामायण (इला० पूर्णपीठ).

4. 2000 (6) एस० सी० सी०598. .

5. आर०बी० श्रीनाथ प्रसाद बनाम नन्दामरि जयकष्ण एवं अन्य, 2001 विधि निर्णय एवं सामयिकी 306 (एस० सी०) ; दीप्ती भण्डारी बनाम नितिन भण्डारी, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 525 (एस० सी०).

6. राजेन्द्र कुमार मिश्रा बनाम श्रीमती ऋचा, 2006 वी० एन० एस० 175 (इला०).

यह सुस्थापित विधि है कि बच्चे की अभिरक्षा के मामले में सर्वोपरि विचारण बच्चे का कल्याण है। मां जो छोटे से शहर में दरस्थ स्थान पर प्राइमरी पाठशाला में तैनात है अपने बच्चे को वह शिक्षा प्रदान नहीं कर सकती है जिसे पिता उसे बड़े शहर में प्रदान करता रहा है। अत: पिता को बच्चे की अभिरक्षा का हकदार निर्णीत किया गया।

 

पति-पत्नी की संयुक्त सम्पत्ति का बन्दोबस्त (LLB Notes in Hindi)

धारा 27 के अन्तर्गत किसी भी वैवाहिक अनुतोष की डिक्री पारित करते समय न्यायालय को यह अधिकारिता है कि विवाह के समय वर-वधू की संयुक्त रूप से दी गई सम्पत्ति का बन्दोबस्त कर दे। परन्तु स्त्रीधन यह पृथक संपत्ति के सम्बन्ध में ऐसी कोई डिक्री नहीं दी जा सकती है। यह आवश्यक नहीं है कि धारा 27 के अन्तर्गत प्रार्थना-पत्र के समाप्त होने के पूर्व दिया जाये। न्यायालय को यह विवेक है कि वह संयुक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई भी आज्ञा पारित करे। किसी भी समय पारित कर सकता है। डिक्री पारित होने के उपरान्त भी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि न्यायालय को पक्षकारों की संयुक्त या पृथक या अन्य किसी भी भांति की सम्पत्ति में डिक्रियां प्रदान करने की शक्ति हैं। इस वाद में पत्नी के जेवरों के बन्दोबस्त का प्रश्न था। निवेदन है कि यह मत गलत है। अब सत्यपाल बनाम सुशीला में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि पत्नी अपने जेवरों की वापसी के लिये धारा 27 के अन्तर्गत कार्यवाही नहीं कर सकती है; उसे पृथक दावा करना होगा। पत्नी के जेवर बैंक के लाकर में पतिपत्नी के नाम रखे गये थे और दोनों द्वारा संयुक्त रूप से कार्यवाही करने पर उन्हें निकाला जा सकता था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि ये जेवर उनकी संयुक्त संपत्ति है अत: वह आज्ञा पारित कर सकता है। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की एक पूर्णपीठ ने मत व्यक्त किया है कि इस धारा के अन्तर्गत विवाह के समय पत्नी को दिये गये दहेज पर यह धारा लागू नहीं होती है। लेखक का निवेदन है कि यह मत ठीक है। कोई भी पक्षकार व्यक्तिगत सम्पत्ति के सम्बन्ध में कार्यवाही नहीं कर सकता है।

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि वैवाहिक अनुतोष की कार्यवाही के दौरान पत्नी पतिगृह में निवास करते रहने की अधिकारिणी है।

दत्तक ग्रहण का अधिकार-जहाँ किसी व्यक्ति की दो पत्नियाँ हों और उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और एक पत्नी द्वारा दूसरी पत्नी की सहमति लिये बिना दत्तक ग्रहण किया जाता है तो ऐसा दत्तक ग्रहण अवैध नहीं होगा। अभिनिर्धारित, पहली पत्नी के दत्तक ग्रहण के पश्चात् दूसरी पत्नी का सम्पत्ति पर अधिकार समाप्त नहीं होता और दूसरी पत्नी को दत्तक ग्रहण के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।10

दत्तक ग्रहण की वैधता-एक दम्पत्ति द्वारा दत्तक गृहीत पुत्र को वसीयत के माध्यम से सम्पत्ति नैसर्गिक पुत्रियों को न देते हुये दे दी गयी थी। अभिनिर्धारित, ऐसी वसीयत निष्प्रभावी है और सम्पूर्ण सम्पत्ति नैसर्गिक पत्रियों में विभाजित होगी। चूँकि दत्तक ग्रहण में विहित शर्तों का अनुपालन नहीं किया गया है अतः ऐसा दत्तक ग्रहण भी अवैध होगा क्योंकि वैध दत्तक ग्रहण में लेन-देन का संस्कार आवश्यक है।।1

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अधिनियम के पश्चात् पति की मृत्यु के पश्चात पत्नी अपने पति की सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी। दत्तक पुत्र को ऐसी सम्पत्ति पर कोई अधिकार व्युत्पन्न नहीं होता।12

1. शेषनाथ रावत बनाम ममता रावत, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 557 (उत्तरा०).

2. सुभाष बनाम खन्ना, 1992 दि० 14; संगीता बनाम बालकृष्ण, 1994 बम्बई.

3. विजय बनाम नमिता, 1991 कल० 34.

4. कामता प्रसाद बनाम ओमवती, 1972 इला० 153.

5. 1984 इला० 81.

6. कामता प्रसाद बनाम ओमवती, 1972 इला० 153.

7. विनोद कुमार बनाम पंजाब राज्य, 1982 पं० और ह० 372 (पूर्णपीठ).

8. सरेन्द्र बनाम मनजीत, 1983 जम्मू और क० 86; अनिल बनाम ज्योति, 1987 इला० 88; सूरज प्रकाश बनाम मोहिन्दर, 1988 पं० और ह० 208.

9. वासुदेव बनाम छाया, 1991 कल० 399.

10 श्रीमती विजया लक्षम्मा बनाम बी०टी० शंकर, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1424.

11. जय सिंह बनाम शकुन्तला ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 1428.

12. सरोवर सिंह बनाम कानमल, ए० आई० आर० 2003 राज० 107.

दत्तकग्रहीता पुत्र अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् ही उनके द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति का अधिकारी होता है, उनके जीवनकाल के दौरान वह सम्पत्ति अपने नाम हस्तान्तरित नहीं करा सकता।

विदेशी द्वारा दत्तक ग्रहण-विदेशी माता-पिता द्वारा भारतीय बच्चों के दत्तक-ग्रहण की दशा में अनपालन हेत विभिन्न निर्णयों में दिये गये मार्गदर्शक सिद्धान्त उन बच्चों की कोटि के लिये लाग नहीं होंगे जो अपने जैविकीय माता-पिता के साथ रह रहे थे। न्यायालय को ऐसे वादों में संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 7 के अधीन आवेदन से संव्यवहार करना पड़ता है और इस बात से सन्तुष्ट हो जाने के पश्चात उसका निस्तारण करना पड़ता है कि बच्चे को दत्तक ग्रहण की जटिलताओं से भिन्न होकर स्वेच्छया दत्तक ग्रहण में दिया जा रहा है अर्थात यह कि बच्चा विधिक रूप से दत्तक माता-पिता के परिवार का होगा, वह किन्हीं वाहा कारणों से उत्प्रेरित नहीं है जैसे कि धन की प्राप्त आदि, यह कि दत्तक माता-पिता ने अपनी उपयुक्तता के समर्थन में साक्ष्य पेश किया है और अन्तिम रूप से यह कि यह ठहराव बच्चे के सर्वाधिक हित में होगा।

संरक्षक की नियुक्ति-प्रस्तुत वाद में एक व्यक्ति की मृत्यु पर उसकी पत्नी अपनी पुत्री के साथ अपने पिता (पुत्री के नाना) के साथ रहने लगती है जो कि उनका भरण-पोषण करता है। संरक्षक की नियुक्ति हेतु पुत्री के नाना एवं चाचा द्वारा याचिका दाखिल की गयी। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि, स्त्री एवं बच्ची के हित में नाना ही संरक्षक के रूप में उचित व्यक्ति है परन्तु अविभाजित हिन्दू परिवार की सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता।

अवयस्क की सम्पत्ति को हस्तान्तरित करने का अधिकार संरक्षक को नहीं है। अवयस्क हस्तान्तरित सम्पत्ति को वयस्क होने पर वापस ले सकता है।

(7) न्यायालय की अधिकारिता और प्रक्रिया (Jurisdiction of Court and Procedure)

हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 19 न्यायालय की अधिकारिता के सम्बन्ध में है। अधिकारिता के सम्बन्ध में दो प्रश्न उठते हैं

(क) वैवाहिक कार्यवाही किस न्या पालय में आरम्भ की जाये, और

(ख) वैवाहिक कार्यवाही किस स्थान पर आरम्भ की जाये?

न्यायालय जिसमें याचिका प्रेषित हो सकती है-हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत प्रत्येक याचिका जिला न्यायालय में प्रेषित करनी होती है। धारा 3 (क) जिला न्यायालय को परिभाषित करती है। इसके अन्तर्गत जिला न्यायालय से तात्पर्य है-

(क) नगर सिविल न्यायालय, यदि उस स्थान पर कोई है, या

(ख) आरम्भिक अधिकारिता का प्रधान सिविल न्यायालय, या

(ग) अन्य कोई सिविल न्यायालय जिसे राज्य सरकार से सरकारी गजट में अधिसूचना जारी करके अधिकारिता दी है।

आरम्भिक अधिकारिता वाले प्रधान सिविल न्यायालय के अन्तर्गत आते हैं-(क) प्रेसीडेन्सी नगरों के उच्च न्यायालय, यदि वहाँ नगर सिविल न्यायालय नहीं है, अन्य स्थानों पर (ख) जिला न्यायाधीश का न्यायालय, या (ग) अन्य निम्न सिविल न्यायालय जिन्हें राज्य सरकारों ने अधिकारिता दी है परन्तु न्यायालय जिला न्यायालय के बराबरी का स्थान नहीं ग्रहण करते हैं बल्कि उनकी प्रास्थिति वही रहता जो पहले थी। इसका तात्पर्य यह है कि उनके निर्णय से अपील सीधे उच्च न्यायालय में न जाकर उसी

1. चिरंजी लाल श्री लाल गोयनका बनाम जसजीत सिंह एवं अन्य, ए० आई० आर० 2001 266.

2. श्रीमती अनोखा बनाम राजस्थान राज्य, 2004 विधि निर्णय एवं सामयिकी 281 (एस० सि०)

3. श्रीमती श्वेता एवं अन्य बनाम धरमचन्द एवं अन्य, ए० आई० आर० 2001 एम० –

4. जगदेव प्रभात भाई जेठाभाई एवं अन्य बनाम परमार करसनभाई इल्हाभाई । 2002 गुज० 182; और भी देखें; गुनिया बनाम राघवी, ए० आई० आर० 200 करसनभाई इल्हाभाई एवं अन्य, ए० आई० आर० ‘ ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 215.

न्यायालय में (अधिकतर जिला न्यायाधीश के न्यायालय में) आयेगी जिनमें सामान्यतया उनकी डिकियों और आदेशों के विरुद्ध अपीलें की जाती हैं।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एडीशनल जिला न्यायाधीश का न्यायालय आरम्भिक अधिकारिता का प्रधान सिविल न्यायालय नहीं है। इस निर्णय के आधार पर पंजाब उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पंजाब कोर्ट ऐक्ट, 1918 के अन्तर्गत एडीशनल जिला न्यायाधीश का न्यायालय आरम्भिक अधिकारिता वाला प्रधान सिविल न्यायालय न होने के कारण धारा 19 के अन्तर्गत पारित की गई समस्त डिक्रियां बिना अधिकारिता वाले न्यायालय की डिक्रिया हैं, अत: शून्य हैं। पंजाब उच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि जिला न्यायाधीश उनके न्यायालय में प्रेषित वैवाहिक याचिकाओं को एडीशनल जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अन्तरित नहीं कर सकता है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने विपरीत मत लिया है। लेखक का निवेदन है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय का मत ठीक नहीं है। अधिनियम ने जब जिला न्यायालय को अधिकारिता दी है तो इसके पीछे ध्येय था। आरम्भिक अधिकारिता के प्रधान को अधिकारिता देना, जिला न्यायाधीश द्वारा एडीशनल जिला न्यायाधीश के न्यायालय में याचिकाओं के अन्तरण द्वारा इस ध्येय की पूर्ति में बाधा पड़ती है। अधिनियम, के अन्तर्गत जिला न्यायालयों को न्यायालय की हैसियत से सुनता है न कि व्यक्ति विशेष की।

 

स्थान जहाँ याचिका प्रेषित हो सकती है (LLB Study Material)

विधि विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 के पारित होने के पूर्व न्यायालय के समक्ष कुछ ऐसे मुकदमे आये जिनमें धारा 19 के उपबन्ध की अपूर्णता सामने आये मुकदमें में न्याय करने के ध्येय से न्यायालयों ने यह औचित्यपूर्ण समझा कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 का सहारा लिया जाय। गोमथी बनाम नटराज में न्यायालय की अधिकारिता स्वीकार करने की प्रार्थना प्रत्यर्थी ने न्यायालय के क्षेत्राधिकार में रहने के आधार पर दी। मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत दी गई न्यायालय की अधिकारिता को नकारता नहीं है, अत: वैवाहिक अनुतोष के वाद में न्यायालय प्रत्यर्थी के निवास के आधार पर अधिकारिता रखता है। इस ग्रन्थ के पिछले संस्करण में इस लेखक ने निवेदन किया था कि समाज कल्याण के दृष्टिकोण से यह निर्णय सराहनीय अवश्य है परन्तु हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की यह ठीक व्याख्या नहीं है। जहाँ तक न्यायालय की अधिकारिता का प्रश्न है धारा 19 अपने आप में एक सम्पूर्ण उपबन्ध है और न्यायालय उसके विपरीत नहीं जा सकते हैं। लेखक ने यह भी सुझाव दिया था कि धारा 19 को संशोधित करने के लिये प्रत्यर्थी के न्यायालय के क्षेत्राधिकार निवास के आधार पर न्यायालय की अधिकारिता होनी चाहिये। यह हर्ष का विषय है कि विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के इस सुझाव को मान्यता दी गई है। धारा 19 के अन्तर्गत अब निम्न आधार पर वाद न्यायालय की अधिकारिता में होगा-

(क) यदि विवाह के अनुष्ठानों को न्यायालय की अधिकारिता के भीतर सम्पन्न किया गया था,

(ख) यदि प्रत्यर्थी प्रेषित करते समय न्यायालय की अधिकारिता के भीतर निवास कर रहा है,

(ग) यदि पति-पत्नी न्यायालय की अधिकारिता में अन्तिम बार साथ-साथ रहे हों, या

1. वेलियाम्मल बनाम पेरियास्वामी, 1959 मद्रास 510; गंगाधर, 1960 बम्बई 42; मलप्पा बनाम मलप्पा, 1960 मैसूर 29; बलराज बनाम राजकुमारी, 1972 मद्रास 278.

2. कुलदीप बनाम स्टेट आफ पंजाब, 1959 सु० को० 391.

3. जनकदुलारी बनाम नारायणदास, 1959 पंजाब 50.

4. इसके फलस्वरूप संसद ने इन डिक्रियों को विधिमान्य करार देने के लिये एक विधेयक पास किया.

5. जनक दुलारी बनाम नारायणदास, 1959 पंजाब 50.

6. अजीत बनाम कानन, 1960 कलकत्ता 565.

7. पष्पा बनाम राधे, 1972 राजस्थान 260; देखें, बीना बनाम नरेन्द्र, 1977 राजस्थान 134.

8. 1973 मद्रास 247.

(घ) यदि अर्जीदार न्यायालय की अधिकारिता के भीतर निवास कर रहा है। उस स्थिति में जब प्रत्यर्थी विदेश में निवास कर रहा है या उसके जीवित होने के बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि तक उन लोगों ने कुछ नहीं सुना है जिन्होंने उसके बारे में, यदि वह जीवित होता तो सम्भवत: सुना होता।

विवाह-विच्छेद के वाद को संस्थित करने का न्यायालय-न्यायालय की अधिकारिता धारा 19 के अधीन शासित होती है। धारा 19 के उपबन्धों का अवलोकन दर्शाता है कि हिन्द विवाह अधिनियम के अन्तर्गत कोई आवेदन-पत्र ऐसे जिला न्यायालय के समक्ष पेश किया जा सकता है जिसके सामान्य अधिकारक्षेत्र में विवाह सम्पन्न हआ था या वाद के प्रस्तत किये जाने के समय जहां विपक्षी निवास करता है या जहा। विवाह के पक्षकारों ने अन्तिम बार एक साथ निवास किया हो और यदि जहां आवेदिका पत्नी है तब याचिका वहां दाखिल की जायेगी जहां वह वाद को प्रस्तुत किये जाने की तिथि पर निवास कर रही है।

विवाह का अनुष्ठान सम्पन्न होने का स्थान-जहाँ विवाह अनुष्ठापित हुआ हो उस स्थान से तात्पर्य है वह स्थान जहाँ कि विवाह के आवश्यक अनुष्ठान सम्पन्न हुये हों। हिन्दू विवाहों में जब भी बहुत सारे। अनुष्ठान सम्पन्न किये जाते हैं यद्यपि उनमें बहुत से विवाह की विधिमान्यता से तनिक भी सम्बन्धित नहीं। हैं। कुछ वर के घर पर होते हैं, कुछ वधू के। परन्तु विवाह उस स्थान पर अनुष्ठापित माना जाता है जहाँ विवाह के आवश्यक अनुष्ठान संपन्न हुये हों ये अधिकतर वधू के घर पर होते हैं। परन्तु वे अन्य स्थानों पर भी सम्पन्न हो सकते हैं, जैसे पंचायतघर, धर्मशाला, मन्दिर, गुरुद्वारा, होटल, डाक-बंगला। कोई भी स्थान क्यों न हो जहाँ भी आवश्यक अनुष्ठान सम्पन्न हये हों उसी स्थान के जिला-न्यायालय को याचिका प्रेषित की जा सकती है।

निवासअधिकारिता का आधार-धारा के अन्तर्गत अधिकारिता की तीन स्थितियाँ ‘निवास’ पर आधारित हैं-प्रत्यर्थी के निवास के आधार पर, पक्षकारों के अन्तिम बार साथ-साथ निवास के आधार पर, और अर्जीदार के निवास के आधार पर। अत: ‘निवास’ की व्याख्या जानना आवश्यक है।

निवास तथ्य का विषय है। किसी स्थान पर कोई व्यक्ति रह रहा है या नहीं यह मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है। सामान्यतया ‘निवास’ का अर्थ है स्थाई घर या वह स्थान जहाँ पर कोई व्यक्ति स्थाई रूप से रहता है। स्थाई निवास-स्थल इसके अन्तर्गत नहीं आता है। यदि किसी व्यक्ति का स्थाई घर है और वह अस्थाई रूप से अन्य स्थान में, स्वास्थ्य लाभ के लिये, या अध्ययन के लिये जाता है तो वह ‘स्थान’ उसका निवास नहीं कहलायेगा। जनक दुलारी बनाम नारायण में विवाह के तुरन्त पश्चात् पति-पत्नी अमृतसर में रहे। उसके पश्चात पत्नी पति को छोड़कर गुरदासपुर चली गई। पति पत्नी को मनाने के लिये गुरदासपुर गया और वहाँ कुछ दिन रहा। न्यायालय ने कहा कि अन्तिम बार पक्षकार साथ-साथ अमृतसर में रहे न कि गरदासपर में। परन्तु केवल इस कारण कि कोई स्थान पति का पारस्परिक कदीमी निवास-स्थल न्यायालय की अधिकारिता के लिये निवास-स्थल की परिभाषा में नहीं आयेगा, जबकि न वह पक्षकारों के विवाह के अनुष्ठान सम्पन्न होने का स्थान है और न ही वहाँ पति-पत्नी कभी रहें।

परन्तु एक स्थिति और भी है-मान लीजिये पक्षकारों ने कोई वैवाहिक घर नहीं बसाया है, न ही उनका कोई स्थायी निवास स्थान है, वे एक स्थान से दूसरे स्थान में रमते घूमते फिर रहे हैं। कभी नैनीताल, कभी शिमला, कभी मंसरी, कभी वाराणसी और अन्त में वे दिल्ली में आकर कछ दिन के लिये ठहरते हैं। और पति-पत्नी के बीच कुछ मनमुटाव होता है। पत्नी पति को छोड़कर चल देती है। वे किस स्थान पर अन्तिम बार रहे? इन स्थानों में से किसी को भी उन्होंने अपने वैवाहिक घर नहीं बनाया। उनका स्थायी निवास स्थल

1. श्रीमती हरिप्रिया बनाम मोहन सिंह मावरी, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 323 (उत्तरा०).

2. डेनिस बनाम डेनिस, 1951 नागपुर 24; रोव बनाम रोव, 1931 कलकत्ता 121 (ये मुकदम विच्छेद  अधिनियम, 1869 के अन्तर्गत है, जिसके अन्तर्गत भी निवास का यही उपबन्ध है), सरस्वता बनाम केशवन, 1961 केरल लॉ जर्नल 247; सरीधा बनाम व्यंकट, 1983 आंध्र प्रदेश 356.

3. 1959 पंजाब 50.

4. जीवन्ती बनाम किशन चन्द्र, 1982 सु० को० 3.

भी कोई नहीं रहा। इस स्थिति का हल हमारे न्यायालयों ने इस प्रतिपादना द्वारा निकाला है कि यदि पक्षकारों का कोई स्थाई निवास-स्थल नहीं है, न ही उन्होंने कोई वैवाहिक घर बसाया है तो जिस स्थान पर वे अन्तिम बार साथ-साथ ठहरे वही स्थान उनका अन्तिम स्थाई निवास स्थान माना जायेगा। यह टीका धारा 19 के शब्दों को बहुत ही खींच कर दी गई है, परन्तु यह समस्या का समुचित समाधान है। यही मत विवाहविच्छेद अधिनियम और हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत किया गया है। सुषमा बनाम अजीत सिंह’ में पक्षकारों के बीच विवाह का अनुष्ठान दिल्ली में सम्पन्न हुआ। पति का पिता चण्डीगढ़ में रहता था, वहीं उसका घर भी था। विवाह के पश्चात् वर-वधू चण्डीगढ़ के घर में आये और वहाँ पर मई 12, 1967 से जून 17, 1967 तक ठहरे। जहाँ से वे सैर के लिये उटकमण्ड (ऊटी) गये और लौटने पर जून 10. 1967 जून 17, 1967 तक वे दिल्ली पत्नी के पिता के यहाँ ठहरे। पति ने जब पत्नी से चण्डीगढ़ चलने के लिये कहा तो उसने जाने से इन्कार कर दिया। कुछ समय पश्चात् पति ने न्यायिक पृथक्करण की याचिका चण्डीगढ़ के न्यायालय में उपस्थापित की। अपील में उच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्न था कि क्या चण्डीगढ़ न्यायालय की अधिकारिता में पक्षकार अन्तिम बार साथ-साथ रहे। उच्च न्यायालय ने कहा कि चंडीगढ़ ही पति का पारिवारिक गृह है और उसे ही उसने अपना वैवाहिक गह बनाने का निश्चय किया था, अत: चण्डीगढ़ न्यायालय की अधिकारिता में है। पक्षकार दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के ध्येय से साथ-साथ रहे हैं या अन्य किसी ध्येय से यह बात निरर्थक है।

इस सम्बन्ध में एक अन्य स्थिति थी। पति और पत्नी दोनों ही नौकरी करते हैं और पृथक-पृथक स्थानों पर रहते हैं। कभी पति पत्नी के निवास स्थान पर चला जाता है और सुविधानुसार कभी पत्नी पति के यहाँ। उनके इस तरह एक दूसरे के साथ रहना ‘अंतिम बार’ साथ रहने की परिभाषा में आयेगा। यदि विवाह सम्बन्ध टूटने के पूर्व पति पत्नी के साथ निवास स्थान पर गया तो पत्नी का निवास स्थान ही वह स्थान होगा जहाँ वे अन्तिम बार साथ-साथ रहे। साथ-साथ रहने निवास का तात्पर्य यह नहीं है कि उन्हें यह भी सिद्ध करना है कि वे साथ-साथ सहवास भी कर रहे थे।

सिविल प्रक्रिया संहिता-वैवाहिक कार्यवाही सिविल कार्यवाही है, अत: सिविल प्रक्रिया के उपबन्ध इन कार्यवाहियों पर लागू होते हैं। धारा 21 के अन्तर्गत इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट अन्य उपबन्धों के और उन नियमों के जो उच्च न्यायालय ने इस निमित्त बनाये, अध्यधीन यह है कि इस अधिनियम के अधीन सब कार्यवाहियाँ, जहाँ तक हो सकेगा, सिविल प्रक्रिया संहिता द्वारा विनियमित होगी।

न्यायालय की अधिकारिता का प्रश्न तथ्य और कानून का मिला-जुला प्रश्न है।

प्रक्रिया-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में अधिकारिता और प्रक्रिया’ शीर्षक के अन्तर्गत धारायें 19 से 28 तक आती हैं। इन धाराओं में, धारा 23 ‘वैवाहिक अनुतोष के उपबन्ध’, धारायें 24-27 ‘अनुषंगी अनुतोष’, धारा 19 ‘अधिकारिता’ सम्बन्धी हैं। हम इन धाराओं की विवेचना कर चुके हैं। इस अध्याय में विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 में धारायें, 21-क, 21-ख, 21-ग. 23-क और 28-क को जोडा गया है। धारा 20 अर्जियों की अन्तर्वस्तु और सत्यापन, धारायें 22 प्रक्रिया, धारा 28 अपील, धारा 21क वाद के अन्तरण, 21-ख दिन-प्रतिदिन की सुनवाई, धारा 21-ग दस्तावेजी सबूत, धारा 23-क प्रतिदावे और 28 क डिक्री और आदेश को कार्यान्वित करने से सम्बन्धित हैं।

१. क्लेरेन्स बनाम क्लेरेन्स, 1964 मैसूर 67; सरोजा बनाम इमेन्यूल, 1965 मैसूर 12; तारा बनाम जयपाल सिंह, (1946)1 कलकत्ता 604; ब्राइट बनाम ब्राइट, 1980 (36) कल० 964.

2. ललीथम्मा बनाम केलेन, 1966 मैसूर 179; जगन बनाम स्वरूप, (1972)2 मद्रास लॉ जर्नल 77: सुषमा बनाम अजीत, 1973 पंजाब और हरियाणा 256 (पति-पत्नी केवल चार दिन साथ-साथ रहे); सन्तोष बनाम ओम प्रकाश, 1977 इलाहाबाद 97 (ति-पत्नी केवल छ: दिन साथ-साथ रहे).

3. 1973 पंजाब और हरियाणा 256.

4. पुष्पा बनाम अर्चना, 1992 मध्य प्रदेश 260.

5. प्रीतिमा बनाम मोहिन्द्र, 1984 प० और ह0 305.

6. रेनू बनाम सुरेन्द्र, 1986 दिल्ली 33.

7. राजश्री बनाम जज फेमिली कोर्ट, 1994 राज0 156; खन्ना बनाम ढिल्लों, 1964 सु० को0497.

 

याचिकाओं की अन्तर्वस्तु और समापन (Particulars in Petitions and Verification) (LLB Study Material in English)

धारा 20 के अन्तर्गत यह अनिवार्य है कि प्रत्येक याचिका में उन तथ्यों को जिनके आधार पर अनतोष मांगा गया है स्पष्ट रूप से कथन किया जाये। हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत उच्च न्यायालयों द्वारा बनाये गये नियमों के अनुसार प्रत्येक याचिका में इन तथ्यों का कथन स्पष्ट रूप से करना आवश्यक है। विवाह की तिथि और स्थान, पक्षकारों के नाम, प्रास्थिति और अधिवास उस स्थान पर नाम जहाँ पक्षकारों ने सहचर्य किया है या जहाँ याचिकाकर्ता निवास करता है (जिस भी आधार पर न्यायालय की अधिकारिता स्थापित की गई हो), विवाह की सन्तानों का नाम (यदि कोई है), जन्म की तिथि और यदि पक्षकारों के बीच अन्य कोई वैवाहिक कार्यवाही इसके पूर्व हुई है तो उसका पूरा ब्यौरा और निर्णय उच्च न्यायालयों के नियमों के अन्तर्गत कुछ आधारों पर अनुतोष मांगने पर कुछ अन्य तथ्यों का विचारण भी देना अनिवार्य है, जैसे जारकर्म के आधार पर याचिका में जार का नाम (यदि ज्ञात हो) तो देना अनिवार्य है।

धारा 20 के अन्तर्गत प्रत्येक अर्जी का सत्यापन उसी भाँति किया जायेगा जिस भांति सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत प्रत्येक वाद-पत्र का किया जाता है। यही बात ‘लिखित कथन’ पर भी लागू होती है।

सह-प्रत्यर्थी और मध्यक्षेप (Co-respondent and Intervention) उच्च न्यायालयों द्वारा हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत बनाये गये नियमों के अनुसार जब भी याचिका जारकर्म के आधार पर दी जाती है तो जार का नाम देना आवश्यक है। परन्तु यदि जार का नाम ज्ञात नहीं है, या वह मर चुका है; या न्यायालय किसी कारण से इस निष्कर्ष पर आता है कि जार का नाम देना आवश्यक नहीं है तो याचिकाकर्ता के लिये जार का नाम देना आवश्यक नहीं है।

हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत बनाये गये उच्च न्यायालयों के नियमों के अन्तर्गत यदि याचिका प्रत्यर्थी के जारकर्म के आधार पर दी गई है और जार को सहप्रत्यर्थी बनाया गया है तो यह आवश्यक है कि उसके पास याचिका की एक प्रतिलिपि और जारता के लांछन के तथ्यों की एक प्रामाणिक प्रतिलिपि भेजी जाये और यदि जार चाहे तो वह याचिका में हस्तक्षेप कर सकता है। यदि मध्यक्षेप आधारहीन सिद्ध होगा तो न्यायालय जार पर खर्च का भार डाल सकता है। पटना उच्च न्यायालय के नियमों में यह भी उपबन्ध है कि कोई भी व्यक्ति मध्यक्षेप का समुचित आधार सिद्ध करके किसी भी याचिका में मध्यक्षेप कर सकता है। लेखक का निवेदन है कि वैसा मध्यक्षेप सिविल प्रक्रिया संहिता के आर्डर 1, रूल 99 (2) के अन्तर्गत भी किया जा सकता है।

सरला बनाम शकुन्तला के वाद में पंजाब उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि जार आवश्यक और समुचित पक्षकार नहीं है।

प्रतिदावा-धारा 23-क के अन्तर्गत किसी भी वैवाहिक अनुतोष की याचिका से प्रत्यर्थी प्रतिदावा कर सकता है, अर्थात् उसी कार्यवाही में वह विवाह-विच्छेद न्यायिक पृथक्करण या विवाह की अकृतता का प्रतिदावा कर सकता है। याचिकाकार की दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की याचिका में यदि प्रत्यर्थी ने

1. देखें, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का नियम 5, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का नियम 2, राजस्थान उच्च। न्यायालय के नियम, अध्याय 32-ख का नियम 80 IE; पटना उच्च न्यायालय का नियम 8, उड़ीसा उच्च न्यायालय का नियम 41.|

2. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के नियमों का नियम 6; राजस्थान उच्च न्यायालय के नियमों के नियम 80 IG; पटना उच्च न्यायालय के नियमों का नियम 16%; उड़ीसा उच्च न्यायालयों के नियमों का नियम 51.

3. इलाहाबाद उच्च न्यायालय नियमों का नियम 16: राजस्थान उच्च न्यायालय के नियमों का नियम 80 IG: पटना उच्च न्यायालय के नियमों का नियम 20 उडीसा उच्च न्यायालय के नियमों का नियम (2).

4. नियम 18.

5. 166, पंजाब 337.

किसी भी आधार पर प्रतिदावा किया है और भरण-पोषण और निर्वाहिका की माँग की है तो याचिकाकार के अपनी याचिका वापिस न लेने की डिक्री न्यायालय पारित कर सकता है। नई धारा 23-क इस भाँति है

‘विवाह-विच्छेद या न्यायिक पथक्करण या दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये किसी भी कार्यवाही में प्रत्यर्थी, अर्जीदार के जारकर्म या अभित्यजन के आधार पर न केवल चाहे गये अनुतोष के लिये प्रतिदावा कर सकेगा बल्कि अर्जीदार के जारकर्म, क्रूरता या अभित्यजन सिद्ध होने पर न्यायालय प्रत्यर्थी के इस अधिनियम के अधीन ऐसा भी अनतोष दे सकेगा जिसका उस उपस्थिति में हकदार होता या होती जिसमें उसने उस आधार पर ऐसे अनुतोष की माँग करते हुये याचिका उपस्थापित की होती।

यह आवश्यक है कि प्रत्यर्थी अपने प्रतिवाद में प्रति-अनुतोष की प्रार्थना करे। प्रत्यर्थी द्वारा विवाहविच्छेद के आधार को सिद्ध करने से ही उसे वैवाहिक अनुतोष नहीं मिलेगा और उसमें प्रति अनुतोष की मांग नहीं की है तो उसे कोई अनुतोष नहीं मिल सकता है।

भरण-पोषण की कार्यवाही में ही विवाह-विच्छेद का प्रतिदावा किया जा सकता है।

कार्यवाही को रोकना-वैवाहिक अनुतोष की कार्यवाही में कई ऐसी स्थितियाँ हैं जब कोई भी पक्षकार कार्यवाही को रोकने का प्रार्थना-पत्र दे सकता है। कार्यवाही रोकने का कोई उपबंध हिन्द विवाह अधिनियम या उसके अन्तर्गत उच्च न्यायालयों द्वारा बनाये गये नियमों में नहीं है। न्यायालय के कार्यवाहीरोक का आदेश पारित करने की शक्ति सिविल प्रक्रिया संहिता धारा 10, आर्डर 41 रूल 5 और 6 एवं धारा 151 के अन्तर्गत है। अर्जीदार द्वारा किसी भी आदेश का उल्लंघन करने पर प्रत्यर्थी कार्यवाही-रोक का प्रार्थना-पत्र दे सकता है।

आपरिवर्ती प्रतिकथन-क्या याचिकाकार आपरिवर्ती प्रतिकथन कर सकता है। आपरिवर्ती प्रतिकथन से तात्पर्य है कि क्या उसी याचिका में न्यायिक पृथक्करण या दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन की प्रार्थना कर सकता है उनके न मिलने पर विवाह-विच्छेद की मांग कर सकता है। यह प्रश्न भावना बनाम मनोहर में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष आया और न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि वह वैसा कर सकता है। परन्तु सिंधया बनाम अकरम चन्द्र में गौहाटी उच्च न्यायालय ने विपरीत मत व्यक्त किया है। निवेदन है कि मध्य प्रदेश न्यायालय का मत अधिक औचित्यपूर्ण है।

अर्जियों का संयोजन (Joinder of Petitions)-कभी-कभी ऐसा होता है कि अर्जीदार ने न्यायालय में किसी वैवाहिक अनुतोष के लिये अर्जी दी है, तत्पश्चात् प्रत्यर्थी उसी न्यायालय में या अन्य किसी न्यायालय में उसी या अन्य किसी वैवाहिक अनुतोष की याचिका दे देता है। सिविल न्यायालयों को सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत वादों के संयोजन की शक्ति है, परन्तु यह शक्ति सीमित है। अब धारा 21-क इस सम्बन्ध में उपबन्ध बनाती है। इस उपबन्ध के अन्तर्गत यदि उस न्यायालय में इस भाँति की दो अर्जियाँ दी गई हैं तो न्यायालय उसका संयोजन करके सुनवाई करेगा। यदि ऐसी अर्जियाँ पृथक-पृथक न्यायालयों में प्रेषित की गई हैं दोनों अर्जियों पर साथ-साथ सुनवाई उस न्यायालय में होगी जिसमें पहली अर्जी दी गई।’ एक अन्य न्यायालय से दूसरे न्यायालयों को याचिका के अन्तरण की न्यायालय की शक्ति सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के अन्तर्गत भी प्रयुक्त हो सकती है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 21-क को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के साथ पढ़ना चाहिये।

सनीता बनाम अशोक में पत्नी ने बम्बई के एक न्यायालय में विवाह-विच्छेद की याचिका पेश की। उसके पश्चात् पति ने वैसी ही याचिका जयपुर न्यायालय में प्रेषित की। राजस्थान उच्च न्यायालय ने निर्णय

1. सी० सन्नचिह बनाम पदमा, 1983 कर्ना० 114.

2. सुलेखा बनाम रमाकान्त, 84 क० वी० नो0 716.

3. सत्यपाल बनाम सुशीला, 1984 इला० 81.

4. नीलम बनाम विजय, 1995 इला० 215.

5. मधुबेन बनाम महेन्द्र, (1976) 17 गुजरात लॉ रिपोर्ट्स 422.

6. 1992 मध्य प्र० 105.

7.1992 गोहाटी 95.

8. रामादेवी बनाम सुब्रमन्यम, 1982 आन्ध्र प्रदेश 10.

9. 1987 राजस्थान 19.

दिया कि पति की याचिका का बम्बई के न्यायालय में अन्तरण कर दिया जाये। प्रीति बनाम रवी! के तथ्य भिन्न थे। पति ने याचिका हाबड़ा न्यायालय में पेश की थी। पत्नी ने हावड़ा न्यायालय के समक्ष एक प्रार्थना प्रेषित करके यह प्रार्थना की कि पति की याचिका का बर्धमान के न्यायालय में अन्तरण कर दिया जाये क्योंकि वह वहाँ रह रही है। उसके लिये हावड़ा जाना बहुत कष्टदायक और खचीला होगा। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने उसका प्रार्थना-पत्र स्वीकार कर दिया और कहा कि न्यायालय की शक्तियाँ धारा 21-क के द्वारा सीमित नहीं हैं, उसे धारा 24 सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत वैसी शक्ति है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि पत्नी ने किसी वैवाहिक अनुतोष की याचिका बर्धमान के न्यायालय में नहीं दी हुई थी। यही मत पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने वेदप्रकाश बनाम सीमा में व्यक्त किया कि न्यायालय धारा 21-क की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है। न्यायालय के हित में वह सिविल प्रक्रिया संहिता में दी गई शक्तियों का खुला प्रयोग कर सकता है।

दिन-प्रतिदिन सुनवाई-विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम का सबसे अच्छा संशोधन है, दिन प्रतिदिन की सुनवाई का। यह सर्वविदित है कि वैवाहिक अन्तोष की कार्यवाही अन्य सिविल कार्यवाही की तरह ही वर्षों चलती है, और वैवाहिक अनुतोष की प्रक्रिया का यह सबसे दुःखद और अशोभनीय पहलू रहा है। अब धारा 21-ख यह नियम बनाती है कि किसी भी वैवाहिक अनुतोष की अर्जी का विवरण, उस दशा में सिवाय जिसमें न्यायालय विचारण का स्थगन आगामी दिन से आगे के लिये उन कारणों में करना आवश्यक समझे जो अभिलिखित किये जायेंगे, दिन-प्रतिदिन न्याय के हित में यथासाध्य तब तक निरन्तर चलता रहेगा जब तक कि वह समाप्त न हो जाये। परन्तु इस उपबन्ध का पालन कैसा हो रहा है, वह कामिनी बनाम बालाजी में स्पष्ट है। कुल मिलाकर उच्च न्यायालय से अपील के निर्णय तक 12 वर्ष लगे।

अर्जी का छ: माह के भीतर और अपील का तीन माह के भीतर विचारण-धारा 21-ख की उपधारायें (2) और (3) यह उपबन्ध बनाती हैं कि हर अर्जी का विचारण यथासम्भव शीघ्रता से किया जायेगा और जिस तारीख को प्रत्यर्थी की अर्जी पर सूचना की तामील की गई है उस तारीख से छ: माह के भीतर विचारण समाप्त करने का प्रयास किया जायेगा, और हर अपील की सुनवाई यथा सम्भव शीघ्रता से की जायेगी और जिस तारीख को प्रत्यर्थी पर अपील की सूचना की तामील की गई है उस तारीख से तीन माह के अन्दर सुनवाई समाप्त करने का प्रयास किया जायेगा।

छह माह की समयबद्ध अवधि-पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद के किसी भी आदेश को धारा 13-ख के अधीन विवाह-विच्छेद की याचिका के प्रस्तुत किये जाने के 6 माह पूर्व पारित नहीं किया जा सकता। उक्त अवधि में किसी भी प्रकार की ढील नहीं दी जा सकती है अथवा उसे कम नहीं किया जा सकता है।

बन्द कमरे में सुनवाई-विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 ने धारा 22 को संशोधित करके यह उपबन्ध बनाया है कि वैवाहिक अनुतोष सम्बन्धी हर कार्यवाही बन्द कमरे में की जायेगी। किसी भी व्यक्ति को ऐसी किसी कार्यवाही के सम्बन्ध में किसी बात को मुद्रित या प्रकाशित करना उस स्थिति के सिवाय विधिपूर्ण नहीं होगा जिसमें कि उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय का कोई निर्णय न्यायालय की पूर्व-अनुज्ञा से मुद्रित या प्रकाशित हो। इस धारा के उल्लंघन करने पर एक हजार रुपये तक का जुर्माना किया जा सकता है।

डिक्री और आदेशों का प्रवर्तन (Enforcement of Decrees and Orders)-धारा 28-क यह उपबन्ध बनाती है कि वैवाहिक कार्यवाही में पास की गई डिक्रियों और आदेशों को उसी भाँति प्रवर्तित किया जायेगा जिस भाँति किसी भी सिविल न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों को कार्यान्वित किया जाता है। किसी भी वैवाहिक अनतोष की कार्यवाही में समुचित अधिकारिता के न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय सर्वसम्बन्धी निर्णय है। ये निर्णय पक्षकारों पर ही नहीं, बल्कि अन्य सब पर भी निश्चायक हैं।

1. 1979 बम्बई 29.

2. 1987 प० एवं ह० 269. .

3. 1988 उड़ीसा 93.

4. विवेक कुमार बनाम उ० प्र० राज्य, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 773 (इला०) : 2012 (5) ए० डब्ल्यू० सी० 5591 (इला०).

5. सुभाष बनाम मनोहर, 1971 बम्बई 183.

क्या उस किसी आधार पर याचिका में डिक्री पारित हो सहती है जो कि याचिकायें अनुतोष का आधार नहीं हैं-यह स्पष्ट है जब तक याचिका में किसी बात को आधार नहीं बनाया गया है तो अन्य किसी आधार के सिद्ध होने पर भी उस आधार पर डिक्री पारित नहीं की जा सकती है। असमाध्य भंग विवाह, विवाह-विच्छेद का आधार नहीं है। अत: उस आधार पर विवाह विच्छेद की याचिका मंजर नहीं होगी। यह अवश्य है कि याचिकाकार अपनी याचिका को संशोधित कर सकता है।

मृत पक्षकार का प्रतिनिधित्व-अब यह मान्य नियम है कि वैवाहिक कार्यवाही किसी पक्षकार की मृत्यु के कारण समाप्त नहीं होती है। उसके प्रतिनिधि को पक्षकार बनाया जा सकता है।

धारा 27 का क्षेत्र-विवाह के सम्बन्ध में प्रदान की गयी सम्पत्ति धारा 27 के अधीन विचारणीय है, चाहे वह विवाह के पूर्व, विवाह के समय या विवाह के बाद दी गयी हो

अपील-धारा 28 के अन्तर्गत अपील की अवधि 305 दिन है। यानि डिक्री पारित होने के 306 दिन के भीतर अपील दायर होनी चाहिये। उच्चतम न्यायालय ने सावित्री पांडे बनाम प्रेमचन्द्र पांडे7 में कहा है कि यह अवधि बहुत कम है तथा यह 90 दिन की होनी चाहिये। और कहा कि इस निर्णय की एक प्रतिलिपि न्याय मंत्रालय में भेजी जाए, इस अधिनियम की इस धारा के संशोधन के लिये। अपील की अवधि निर्णय (judgment) की तिथि से आरम्भ होती है न कि डिक्री की वैवाहिक अनुतोष में पारित की गई डिक्रियों और आदेशों के विरुद्ध अपील उसी न्यायालय में प्रेषित की जा सकती है जिसमें कि साधारणतया उस न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों के विरुद्ध अपील की जाती है। जब किसी निम्न दर्जे के न्यायालय को अधिकारिता दी जाती है तो फिर उस न्यायालय की डिक्री और आदेशों के विरुद्ध अपील उसी न्यायालय में की जायेगी जिस न्यायालय में उस न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों के विरुद्ध साधारणतया अपीलें की , जाती हैं रियदि उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश अपील सुनकर निर्णय देता है, तो उस निर्णय के विरुद्ध उसी उच्च न्यायालय में लेटर्स पेटेण्ट अपील की जा सकती है।10

हमारे उच्च न्यायालयों के बीच इस बारे में मतभेद था कि अन्तरिम निर्णय (Interim orders) के विरुद्ध अपील हो सकती है या नहीं। विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम ने अब इस विवाह को यह उपबन्ध बनाकर समाप्त कर दिया है कि अन्तरिम निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं हो सकती है। परन्तु न्यायालय चाहे तो अपील को पुनरीक्षण (Revision) मानकर सुन सकता है।12

उन कार्यवाहियों में जो विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम के लागू होने के समय न्यायालय में चल रही थी, परन्तु जिनका निर्णय अधिनियम के लागू होने के पश्चात् हुआ है, उन पर अपील की परिसीमा नये अधिनियम के अन्तर्गत निर्धारित होगी।13.

अपील के दौरान किसी पक्षकार द्वारा विवाह करने पर अपील निष्फल नहीं होती है।।4

1. माया बनाम शिवचन्द्र, 1984 इला० 4.

2. राजिन्द्र बनाम अनिता, 1993 दिल्ली 135.

3. बदला सेट्टी बनाम बदला सेट्टी, 1994 आन्ध्र प्रदेश 13.

4. अरुण कुमार बनाम श्रीमती इन्द्रा, 2006 वी० एन० एस० 180 (इला०); राजेन्द्र कुमार मिश्रा बनाम श्रीमती ऋचा, 2006 वी० एन० एस० 175 (इला०).

5. अधिनियम संख्या 50 वर्ष 2003 द्वारा 30 दिन के स्थान पर 90 दिन, 23.12.2003 से प्रतिस्थापित.

6. अधिनियम संख्या 50 वर्ष 2003 द्वारा 30 दिन के स्थान पर 90 दिन, 23.12.2003 से प्रतिस्थापित.

7. 2002 सु० को०591.2

8. प्रदीप कुमार कालिता बनाम हीरन प्रोवा कालिता, 2002 गौहाटी 60 (फुल बेन्च).

9. परसराम बनाम जानकी बाई, 1961 इलाहाबाद 395%3; कल्याण बनाम तेज, 1961 पंजाब 480; चन्द्र स्वरूप बनाम मनोरमा, 1981 इलाहाबाद 320; मोहना बनाम गिरिजा, (1981) 1 एम० एल० जे0 3213 बेबी बनाम विष्णु चरण, 1984 इला2 151; माधवी बनाम मधुकर, 1984 बम्बई 293

10. दासी बनाम धनी राम, 1969 पंजाब 25.

11. मुनिला बनाम पायल, 1991 बम्बई 440.

12. नरेन्द्र बनाम सुराज, 1982 आन्ध्र प्रदेश 10.

13 देवी बनाम कमरजीव, 1980 कलकत्ता 1 (पूर्णपीठ); राज नारायण बनाम उर्मिला देवी, 1980 इलाहाबाद 344.

14. पीना बनाम रोमेश, 1995 पं० और ह. 213.

अपील की अवधि निकलने पर पुनर्विवाह मान्य होगा।

डिकी के विरुद्ध अपील का अधिकार-हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 28 निर्णय के विरुद्ध अपील का प्रावधान नहीं करती है। यह केवल डिक्री के विरुद्ध अपील का प्रावधान करती है और चंकि कदम्ब न्यायालय अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत अपील केवल निर्णय या आदेश के विरुद्ध होती है इसलिये किसी डिक्री के विरुद्ध कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत कोई अपील नहीं होगी। सिविल जज द्वारा पारित डिक्री के विरुद्ध कोई अपील हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 28 के अन्तर्गत हो सकती है। चूंकि वर्तमान मामले में आक्षेपित निर्णय एवं डिक्री को हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 28 के अन्तर्गत चुनौती दी गयी है और इस अपील का मूल्यांकन ₹ 10 हजार है, इसलिये धनीय क्षेत्राधिकार तथा अपीलीय क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालय के पास नहीं होगा। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अन्तर्गत मूल न्यायालय द्वारा पारित डिक्री के विरुद्ध कोई अपील सक्षम अपीलीय अधिकारिता वाले न्यायालय के समक्ष दाखिल होगी।

सुलह एवं पुर्नमिलाप-जहाँ कहीं विवाह के पक्षकारों के मध्य तनाव का कठोर होना प्रतीत होता है वहाँ पक्षकारों के मध्य पुर्नमिलाप कराने को प्रत्येक प्रयास को करने का न्यायालय का कर्तव्य होता है। इस उद्देश्य के लिये सम्बन्धित पक्षकारों को नियत दिनांक को उपस्थित होने के लिये निर्देश देने की शक्ति न्यायालय को है। यदि पक्षकार नियत दिनांक को उपस्थित नहीं होते तो न्यायालय अजमानतीय वारण्ट जारी कर सकता है।

सुलह आवेदन-अवर न्यायालय मामले में अग्रेतर कार्यवाही करने के पूर्व सुलह आवेदन का निस्तारण करने के लिए विधिक बाध्यताधीन है।

समझौता डिक्री-सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 96 की उपधारा (3) तथा कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 की उपधारा (2) पक्षकारों के मध्य समझोता के आधार पर पारित की गयी डिक्री के विरुद्ध अपील को बाधित करती है। संहिता का आदेश 23 नियम 3-क यह भी प्रावधान करता है कि कोई भी वाद किसी डिक्री को इस आधार पर अपास्त करने के लिये नहीं होगा कि समझौता जिसके आधार पर डिक्री पारित की गयी है, वैध नहीं था। समझौता डिक्री के मामले में व्यथित पक्षकार के पास केवल एक ही रास्ता यह है कि वह उसे कपट के आधार पर चुनौती दे। यह वैसा मामला नहीं है जिसमें कपट किये गये होने का अभिकथन किया गया है। आदेश 23 नियम 3 सि०प्र०सं० के अन्तर्गत आवेदन-पत्र को दाखिल कर, जिसे केवल लम्बित वाद में ही दाखिल किया जा सकता था, समझौता के आधार पर पारित डिक्री को चुनौती नहीं दी जा सकती है।

विवाह विच्छेद की नामंजूरी का प्रभाव-न्यायालय को जो देखने की आवश्यकता है वह अवैध सम्बन्ध के बारे में दुष्ट और हिंसक आरोप हैं जिन्हें पति द्वारा उन्मुक्ति के साथ लगाया जा रहा है। यदि तलाक से इन्कार किया जाता है तो पति और पत्नी एक साथ रहने में समर्थ नहीं होगें क्योंकि ऐसे क्रूर आरोपों द्वारा कारित घाव कभी नहीं भरेंगे एवं पति तथा पत्नी इसके पश्चात मतभेदों एवं विवादों के कारण एक साथ कभी नहीं रह पायेंगे। विधि की पालिसी गृहों को तोड़ना नहीं है बल्कि वह गृह जो निरन्तर लड़ाई-झगड़ों एवं “तू-, मैं-मैं” द्वारा, जैसा कि वर्तमान मामले में है, टूट गया हो, नरक हो जाता है और उसे टूट ही जाना चाहिये। इसी परिप्रेक्ष्य में विवाद को देखा जाना चाहिये। इस दृष्टिकोण से देखे जाने पर, एक मात्र उपचार जिसका समुचित होना प्रतीत होता है, तलाक प्रदान करना है।

1. डॉ० लोकेश्वरी बनाम डॉ श्रीनिवास राव, 2000 आंध्र प्र० 451.

2. श्रीमती सुमन बनाम बृजकिशोर, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 325 (इला०).

3. जगराज सिंह बनाम बीरपाल कौर, ए० आई० आर०.2007 एस० सी०2038 : 2007 वी० एन० एस० 481 (एस० सी०).

4. प्रियंका सिंह बनाम जिला न्यायाधीश, जौनपुर एवं अन्य, 2012 विधि निर्णय एवं सामायका 500 (इला०).

5. बीरसिंह राणा बनाम श्रीमती बीना राणा, 2012 विधि निर्णय एवं सामयिकी 326 (उत्तरा०)

6.विनोद कुमार राय बनाम श्रीमती मंजू राय, 2007 वी० एन० एस० 175 (एस० साजार शकश शर्मा बनाम सरोज शर्मा, 2007 वी० एन० एम०430 (एस० सी०), मन श्रीमता मिनाक्षी, 2007 वी० एन० एस० 850 (इला०).

 

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