LLB 1st Year Semester Specific Performance Contract
LLB 1st Year Semester Specific Performance Contract:- LLB 1st Year 1st Semester Law of Contract 1 (16th Edition) Part 2 Chapter Chapter 3 Specific Performance of Contracts Notes Study Material Question Paper With Answer in Hindi English (PDF Download) Available on This Post.
अध्याय 3 (Chapter 3 LLB Notes)
संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन (SPECIFIC PERFORMANCE OF CONTRACTS)
विनिर्दिष्ट पालन (Specific Enforcement)
विनिर्दिष्ट पालन से सम्बन्धित विधि का विकास इंग्लैंड में साम्या न्यायालयों द्वारा किया गया था। प्रारम्भ में, साम्या न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री इस आधार पर पारित करते थे कि विधि में यथायोग्य उपाय उपलब्ध नहीं था। अत: वादी को यह दर्शित करना पड़ता था कि परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनसे साम्या न्यायालयों का हस्तक्षेप न्यायोचित होगा। इंग्लैंड में साम्या एवं विधि न्यायालय के विलयन के पश्चात् यह स्वीकार किया गया कि न्यायालय केवल विशेष परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर सकते थे। भारत में, पृथक साम्या न्यायालय कभी भी स्थापित नहीं किये गये। अत: यह कठिनाई उत्पन्न नहीं हुई। भारत में साम्या सिद्धान्तों को सामान्यतः अधिनियम के प्रावधानों के रूप में ही अपनाया गया। अतः उन्हें विधि के भाग के रूप में ही लागू किया गया। भारत में संविदा विधि के मूल सिद्धान्त भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 में उल्लिखित हैं परन्तु उनमें विनिर्दिष्ट पालन का उल्लेख नहीं है। विनिर्दिष्ट पालन के सिद्धान्त तथा नियम पहले विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 में दिये गये थे। बाद में 1877 के अधिनियम को संशोधित करके विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 पारित किया गया।
विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री सामान्यतया दो प्रकार की होती है। पहले प्रकार की डिक्री विनिर्दिष्ट पालन के उन मामलों में पारित की जाती है जहाँ संविदा की विषयवस्तु ऐसी होती है कि संविदा भंग होने पर प्रतिकर न तो यथायोग्य अनुतोष होता है तथा न ही उचित तथा युक्तियुक्त होता है। दूसरे प्रकार की डिक्री उन मामलों में पारित की जाती है जहाँ संविदा की विशेष एवं व्यावहारिक विशेषताओं के कारण प्रतिकर का अभिनिश्चय करना कठिन एवं अव्यावहारिक होता है।
विनिर्दिष्ट पालन के कुछ मूल एवं महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं जिन्हें न केवल स्वीकार किया गया है वरन् सामान्यतया न्यायालय उन्हें लागू करते हैं। सर्वप्रथम महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। दूसरा मौलिक सिद्धान्त यह है कि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष उन मामलों में प्रदान नहीं किया जाता है जहाँ प्रतिकर एक यथायोग्य अनुतोष है। तीसरा भलीभाँति स्थापित सिद्धान्त यह है कि न्यायालय उन मामलों में भी विनिर्दिष्ट अनुतोष प्रदान नहीं करते हैं जिनमें न्यायालय द्वारा पर्यवेक्षण या निगरानी आवश्यक होती है तथा न्यायालय इसे सुविधाजनक रूप कर सकते हैं। यह सिद्धान्त इस बात पर आधारित है कि न्यायालय कोई ऐसा आदेश या डिक्री पारित नहीं करते हैं जिसे वह प्रवर्तन न करा सकें। 1963 के अधिनियम के पूर्व यह भी एक सिद्धान्त था कि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष उन मामलों में प्रदान नहीं किया जाता था जहाँ संविदाओं में पारस्परिकता नहीं होती थी। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 (4) द्वारा इस सिद्धान्त को समाप्त कर दिया गया है।
संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन के सम्बन्ध में उपबन्ध विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के भाग 2 के अध्याय 2 में दिये गये हैं। इस अध्याय की पहली धारा अर्थात् धारा 9 संविदा पर आधारित अनुतोष के वादों में प्रतिरक्षाओं से सम्बन्धित है। धारा 9 में स्पष्ट किया गया है कि जहाँ किसी संविदा के बारे में किसी अनतोष प्राप्त करने हेत दावा इस अध्याय के अधीन किया जाय तो सिवाय इसके कि कोई अन्यथा हो, वहाँ वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध उक्त अनुतोष का दावा किया जाय, तो वह किसी भी ऐसे आधार का अभिवचन प्रतिरक्षा के तौर पर कर सकता है जो उसे संविदाओं से सम्बन्धित किसी भी विधि के अधीन उपलभ्य हो।
धारा 9 एक नयी धारा है। ऐसी कोई धारा निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 में नहीं थी। इस नयी धारा में यह स्पष्ट किया गया है कि संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के किसी वाद में, प्रतिवादी अपनी पतिरक्षा में वह सारे आधार ले सकता है जो उसे संविदाओं की किसी विधि में उपलभ्य हैं, उदाहरण के लिये प्रतिवादी भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 में उपलभ्य आधार जैसे पक्षकारों की अक्षमता, कपट, भूल, असम्यक् असर, उत्पीड़न आदि ले सकता है।
विनिर्दिष्ट पालन के अनुतोष के लिये डिक्री प्राप्त करने के लिये यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि प्रवर्तनीय संविदा अस्तित्व में है। इसी प्रकार वादी द्वारा यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि संविदा के महत्वपूर्ण निबन्धन तय थे। स्थावर सम्पत्ति की संविदा का लिखित होना आवश्यक नहीं है। परन्तु यदि
औपचारिक लिखित करार बाद में किया जाना था तो यह सिद्ध करना आवश्यक है कि उक्त करार के निबन्धन मौखिक रूप से तय कर लिये गये। दूसरी ओर प्रतिवादी, प्रतिरक्षा में यह आधार ले सकता है कि संविदा के बारे में दोनों पक्षकारों की सम्मति एक ही अर्थों (consensus ad idem) में नहीं थी अर्थात् संविदा की विषयवस्तु या उसके निबन्धनों के बारे में एक ही अर्थों में सम्मति नहीं थी।
संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन की दृष्टि से विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 में संविदाओं को दो कोटियों में विभाजित किया गया है-(1) वह संविदाएं जिनका विनिर्दिष्ट प्रवर्तन कराया जा सकता है, तथा (2) संविदाएं जिनका विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं किया जा सकता है। इन दोनों कोटियों की विवेचना यहाँ अलग-अलग की जायेगी।
1. संविदाएं जिनका विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन कराया जा सकता है(Contracts which can be specifically enforced)
(i) दशायें जिनमें संविदा का विनिर्दिष्ट पालन प्रवर्तनीय है (Cases in which specific performance of contract enforceable)-विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 के अनुसार-
अध्याय 2 में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय किसी भी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन न्यायालय के विवेकानुसार निम्नलिखित मामलों में प्रवर्तित कराया जा सकता है
(क) जबकि उस कार्य का, जिसे करने का करार हुआ है अपालन द्वारा कारित नुकसान का अभिनिश्चय करने का कोई मानक विद्यमान न हो, अथवा
(ख) जबकि वह कार्य, जिसके करने का करार हुआ हो कि अपालन के लिये धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष न पहुँचाता हो।
स्पष्टीकरण-जब तक और जहाँ तक कि तत्प्रतिकूल सिद्ध न किया जाय, न्यायालय यह उपधारित करेगा कि
(i) स्थावर सम्पत्ति के अन्तरण की संविदा के भंग का धन के रूप में प्रतिकर द्वारा यथायोग्य अनुतोष नहीं दिया जा सकता, तथा
(ii) जंगम सम्पत्ति के अन्तरण की संविदा भंग का इस प्रकार अनुतोष दिया जा सकता है सिवाय निम्नलिखित दशाओं के
(क) जहाँ कि सम्पत्ति मामूली वाणिज्य वस्तु न हो अथवा वादी के लिये उसका विशेष मूल्य या हित की हो अथवा ऐसा माल हो जो बाजार में सुगमता से अभिप्राप्त न हो,
(ख) जहाँ कि सम्पत्ति प्रतिवादी द्वारा वादी के अभिकर्ता या न्यासी के रूप में धारित हो।
उपर्युक्त धारा निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 12 (ख) तथा 12 (ग) के समकक्ष है। इस निरसित अधिनियम की उक्त धारा में दिये गये कुछ दृष्टान्त निम्नलिखित हैं
1. ब्रिज मोहन बनाम श्रीमती सुग्रा बेगम (1990) 3 जे० टी० 255 (एस० सी०).
2. श्रीमती मायावती बनाम श्रीमती कौशल्या देवी, (1990) 3 जे० टी० 205 (एस० सी०).
(अ) ‘क’ एक मृतक चित्रकार के चित्र तथा दो दुष्प्राप्य चीनी बर्तनों के क्रय करने का करार करता है तथा ‘ख’ उन्हें ‘क’ को बेचने का करार करता है। इस संविदा में कोई ऐसा मानक नहीं है जिससे अपालन से होने वाले नुकसान को अभिनिश्चित किया जा सके अत: ‘क’ ‘ख’ को संविदा पालन के लिये विवश कर सकता है।
(आ) ‘क’ ‘ख’ के हाथ एक घोड़ा, 1000 रुपये में बेचने की संविदा करता है। ‘ख’ न्यायालय से विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी है जिसके द्वारा ‘क’ को निदेश दिया जाय कि वह घोड़ा ‘ख’ को दे तथा ‘ख’ ‘क’ को 1000 रुपये दे।
(इ) ‘क’ ‘ख’ के लिये एक चित्र बनाने की संविदा करता है, तथा ‘ख’ चित्र के लिये 1000 रुपये देने का करार करता है। ‘क’ चित्र बना लेता है। ‘ख’ ‘क’ को 1000 रुपये देकर चित्र प्राप्त करने का हकदार है।
(ई) ‘क’ ‘ख’ को कुछ प्लेव-अंश बेचने तथा ‘ख’ उन्हें खरीदने का करार करता है। ‘क’ विक्रय, को पूर्ण करने से इन्कार कर देता है। ‘ख’ ‘क’ को करार के विनिर्दिष्ट पालन के लिये विवश कर सकता है क्योंकि अंश सीमित संख्या में हैं तथा बाजार में सदैव उपलब्ध नहीं हैं तथा उनके कब्जे से अंशधारक की प्राप्ति होगी जो अन्यथा प्राप्त नहीं की जा सकती।
धारा 10 के अनुसार दो दशाओं में संविदा का विनिर्दिष्ट पालन प्रवर्तनीय है। पहली दशा वह है जहाँ कि जिस कार्य को करने का करार हुआ है यदि उसका पालन नहीं होता है तो इससे होने वाली वास्तविक हानि को अभिनिश्चित करने का कोई मानक विद्यमान नहीं है। उदाहरण के लिये उपर्युक्त दृष्टान्त (अ) में चित्रकार की मृत्यु हो चुकी है अत: वैसा ही चित्र दुबारा नहीं बन सकता है तथा चीनी के बर्तन दुष्प्राप्य हैं अत: वास्तविक नुकसान को अभिनिश्चित करने के लिये कोई मानक नहीं है। दूसरी दशा वह है जबकि कार्य, जिसको करने का करार हुआ है, उसका पालन न होने पर यदि धन के रूप में प्रतिकर दिया जाय तो उससे वादी को यथायोग्य अनुतोष नहीं पहुँचेगा। धारा 10 में दिये गये स्पष्टीकरण के अनुसार, स्थावर सम्पत्ति के मामले में जब तक कि इसके विपरीत सिद्ध न कर दिया जाय, न्यायालय यह उपधारित करेगा कि धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष नहीं होगा। जंगम सम्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार की उपधारणा साधारणतया उत्पन्न नहीं होती है। परन्तु इसके दो अपवाद हैं जिनके विषय में न्यायालय इसी प्रकार की उपधारणा करेगा। पहले अपवाद में वह मामले आते हैं जहाँ सम्पत्ति साधारण वाणिज्यिक वस्तु नहीं है या वह वादी के लिये विशेष मूल्य या हित की है या वस्तु ऐसी है जो सरलता से बाजार में उपलभ्य नहीं है। इसी प्रकार ऐसे संविदा के अपालन के बारे में भी उपधारणा उत्पन्न होगी जहाँ कि सम्पत्ति प्रतिवादी द्वारा वादी के अभिकर्ता या न्यासी के धारित किये है।
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि व्यक्तिगत सेवाओं की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है तथा जहाँ किसी व्यक्ति को नौकरी से हटा दिया गया है साधारणतया न्यायालय यह घोषित नहीं करेगा कि निकाले गये व्यक्ति को सेवा में माना जायगा तथा संविदा विद्यमान है। इस नियम के निम्नलिखित तीन अपवाद हैं-
(i) जहाँ किसी लोक सेवक को संविधान के अनुच्छेद 311 के उल्लंघन में निष्कासित करने का प्रयास किया जाता है या निष्कासित किया जाता है।
(ii) जहाँ किसी कर्मी (Worker) को औद्योगिक विधि के अन्तर्गत निकालने का प्रयास किया जाता
(iii) जहाँ कोई विधिक निकाय किसी अधिनियम के आज्ञापक (Mandatory) उपबन्धों के उल्लंघन में कृत्य करता है।
उपर्यक्त नियम उच्चतम न्यायालय ने एक्जीक्यूटिव कमेटी, वैश्य डिग्री कालेज शामली बनाम लक्ष्मी नारायण (Executive Committee, Vaishya Degree College, Shamli v. Lakshmi
3. फाल्के बनाम ग्रे, (1859) 113 आर० आर० 493.
Narain)4 में धारित किया था। प्रस्तुत वाद में कार्यकारी समिति (Executive Committee) कोआपरेटिव सोसाइटीज अधिनियम, 1912 के अन्तर्गत रजिस्ट्रीकृत थी तथा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध (affiliated) थी। बिना विश्वविद्यालय का अनुमोदन प्राप्त किये, कार्यकारी समिति ने कालेज के प्रधानाचार्य को सेवा से निष्कासित कर दिया। प्रधानाचार्य ने इस आदेश के विरोध में वाद किया। परीक्षण न्यायालय ने वाद खारिज करते हुये निर्णय दिया कि कार्यकारी समिति एक विधिक निकाय नहीं है अतः वह विश्वविद्यालय के अधिनियम, नियम तथा उपनियमों से बाध्य नहीं है। इसके अतिरिक्त वादी यह सिद्ध करने में असफल रहा कि उसने प्रतिवादी अथवा कालेज के साथ कोई संविदा निष्पादित की थी। अतः न्यायालय ने वादी की प्रार्थना कि ‘यह घोषणा की जाय कि वह सेवा में विद्यमान है तथा व्यादेश जारी करने की प्रार्थना’ अस्वीकार कर दी।
उक्त आदेश के विरुद्ध अपील करने पर प्रथम अतिरिक्त सिविल एवं सेशन न्यायाधीश ने परीक्षण न्यायालय के निर्णय को उलट दिया तथा वादी के पक्ष में व्यादेश जारी कर दिया। प्रतिवादी (जो अब अपीलार्थी है) इस आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुये यह धारित किया कि कार्यकारी समिति एक विधिक निकाय है अत: यह विश्वविद्यालय के अधिनियम तथा नियमों से बाध्य है अतः वादी व्यादेश का अनुतोष प्राप्त करने का अधिकारी है।
उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध प्रतिवादी (वर्तमान अपीलार्थी) ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उच्च न्यायालय का निर्णय त्रुटिपूर्ण है। उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अपीलार्थी अथवा कार्यकारी समिति एक विधिक निकाय नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तुत वाद उपर्युक्त तीनों अपवादों में नहीं आता है अत: वादी व्यादेश का अनुतोष पाने का अधिकारी नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अन्तर्गत अनुतोष प्रदान करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है, अनुतोष की माँग अधिकार के रूप में नहीं की जा सकती है। न्यायालय अनुतोष ठोस विधिक सिद्धान्तों के आधार पर प्रदान करता है। न्यायालय का कार्य न्याय प्रदान करना है तथा वह ऐसा करते समय अन्याय तथा अत्याचार का शस्त्र नहीं बन सकता। अतः अपना विवेक प्रयोग करते समय न्यायालय को न्याय तथा ऋजुता (justice and fairness) के सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिये तथा अपने विवेक का प्रयोग तभी करना चाहिये जब ऐसा करना न्याय के लिये आवश्यक हो।
धारा 10 के स्पष्टीकरण के अनुसार, जब तक और जहाँ तक कि तत्प्रतिकूल सिद्ध न कर दिया जाय न्यायालय यह उपधारित करेगा कि स्थावर सम्पत्ति के अन्तरण की संविदा के भंग का धन के रूप में प्रतिकर द्वारा यथायोग्य अनुतोष नहीं दिया जा सकता। परन्तु जैसा कि धारा 20 में उपबन्ध है विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री के मामले में न्यायालय की अधिकारिता विवेकानुसार है तथा न्यायालय ऐसा अनुतोष देने के लिये इस कारण बाध्य नहीं है क्योंकि ऐसा करना विधिक होगा। दामाकेरला अन्जनेयूलू बनाम दाम केरला वेन्कट ससय्या (Damacherla Anjaneyulu v. Damacherla Venkata Seshaiaha)5 के वाद में वादी ने प्रतिवादी के भूमि के क्रय के लिये संविदा की थी। संविदा का अपालन होने पर वादी ने विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त करने हेत वाद किया। प्रतिवादी ने विनिर्दिष्ट पालन का विरोध किया क्योंकि इस दौरान उक्त भूमि पर कुछ गोदाम तथा अन्य महँगी इमारतें बना ली थी। उच्च न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन के प्रवर्तन की डिक्रा पारित कर दी। अपील में उच्चतम न्यायालय के सम्मुख यह प्रश्न था कि उच्च न्यायालय द्वारा विनिदिष्ट पालन की डिक्री पारित करना उचित था अथवा नहीं। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि उच्च न्यायालय द्वारा यह निष्कर्ष उचित था क्योंकि जहाँ एक ओर वादी संविदा के पालन हेतु तैयार तथा इच्छुक था, प्रतिवादी संविदा भंग का दोषी था, परन्तु पूर्ण न्याय करने के लिये उच्च न्यायालय को विनिर्दिष्ट
4. एस० आर० तिवारी बनाम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, आगरा, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 888; तथा यू०पी० स्टेट वयरहाउसिंग कार्पोरेशन लि. बनाम चन्द्र किरन त्यागी, ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 1680 का वाद भी देखें।
5. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 1641.
अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 का आवाहन करना चाहिये था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि चूँकि भूमि पर गोदाम तथा अन्य इमारतें बनायी जा चुकी थीं विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष दिये जाने से प्रतिवादी को विशेष कठिनाई होगी। यह एक उपयुक्त वाद है जिसमें विक्रय विलेख का निष्पादन न करा के प्रतिकर दिया जाना उचित होगा। अत: उच्चतम न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री को रद्द करते हुए आदेश दिया कि प्रतिवादी वादी को 1,25,000 रुपये प्रतिकर के रूप में दे।
परन्तु जहाँ किसी गृह के विक्रय की संविदा के मामले में गृह पर कोई अभिभार नहीं है या उसे उत्तर प्रदेश के 1934 के 25वें अधिनियम की धारा 24 के अन्तर्गत सभी प्रकार के अभिभार से वाद के दायर करते समय मुक्त हो चुका है, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित की जा सकती है।
करतार सिंह बनाम हरजिंदर सिंह (Kartar Singh v. Harjinder Singh)8 के वाद में कोई सम्पत्ति संयुक्त रूप से प्रत्यर्थी तथा उसकी बहिन के नाम थी तथा वह अपने एवं बहिन की ओर से 20,000 रुपये में विक्रय करने की संविदा की। उसने प्रत्यर्थी से यह भी करार किया था कि वह विक्रय विलेख का रजिस्ट्रीकरण करायेगा। परन्तु उसकी बहिन ने सम्पत्ति में अपने हिस्से को बेचने से इन्कार कर दिया। वादी द्वारा वाद करने पर न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री जारी की। परन्तु उच्च न्यायालय ने धारा 12 के उपबन्धों को ध्यान में रखते हुये उपर्युक्त निर्णय को उलट दिया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट कर निचले न्यायालय के निर्णय को बहाल करते हुये कहा कि यह वाद धारा 12 के अन्तर्गत नहीं आता है। प्रस्तुत वाद संविदा के एक भाग के पालन का नहीं था। प्रत्यर्थी ने संविदा पूर्ण सम्पत्ति के विक्रय के लिये की थी अपने तथा अपनी बहिन के भाग की सम्पत्ति की। वास्तव में अपीलार्थी तथा प्रत्यर्थी की बहिन के मध्य कोई संविदा नहीं थी। केवल वैध संविदा अपीलार्थी के अपने हिस्से हेतु प्रत्यर्थी के साथ थी। इन परिस्थितियों में वैध संविदा के लिये विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्रदान किया जा सकता है तथा यह अनुतोष इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि सम्पत्ति का विभाजन करना पड़ेगा। यह अनुतोष इस आधार पर भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सम्पत्ति कई जगह बटी हुई है।
विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष साम्या विधि पर आधारित है अत: बहुत कुछ पक्षकारों के आचरण पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिये के० एम० माधवकृष्णन बनाम एस० आर० स्वामी (K.M. Madhav Krishnan v. S.R. Swami)10 के वाद में सम्पत्ति के विक्रय का करार था तथा सम्पत्ति (गृह) में किरायेदार थे। क्रेता ने किरायेदार को 15,000 रुपये देकर सम्पत्ति अपने कब्जे में कर ली तथा उसे इस धन को विक्रय धन से कम करने को भी नहीं कहा तथा विनिर्दिष्ट पालन के हेतु वाद में पूर्ण विक्रय धन का भुगतान करना भी स्वीकार किया। यद्यपि अपीलार्थी के अनुसार इस बात का साक्ष्य था कि प्रत्यर्थी ने उक्त 15,000 रुपये का शेष विक्रय धन (अर्थात् 1,79,989) से कम करने का करार किया था परन्तु अपीलार्थी ने कभी भी यह माँग नहीं की कि विक्रय धन से उक्त 15,000 रु० कम किया जाय तथा वह पूर्ण शेष धन देने को तैयार तथा इच्छुक था। इस प्रकार साम्या अपीलार्थी के पक्ष में थी। अत: मद्रास उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अपीलार्थी (क्रेता) विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री का हकदार है।11 इस वाद में प्रत्यर्थी की ओर से यह भी तर्क किया गया कि मुकदमेबाजी के दौरान सम्पत्ति की कीमत में वृद्धि हो गई अत: बिल पालन की डिक्री पारित करना असाम्यापूर्ण होगा। उच्च न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर माया अभिनिर्धारित किया कि सम्पत्ति की कीमत में वृद्धि विनिर्दिष्ट पालन को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता है।12
6. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 1642.
7 गया प्रसाद बनाम सुरेन्द्र बहादुर सिंह, ए० आई० आर० 925, 931-932 : (1987) 2 एस० सी० 383.
8. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 854.
9. तत्रैव पृष्ठ 857.
10. ए० आई० आर० 1995 मद्रास 318.
11. तत्रैव, पृष्ठ 329. 12. तत्रैव, पृष्ठ 328.
धारा 10 के स्पष्टीकरण (ii) (क) के अनुसार, जब तक तथा जहाँ तक इसके विपरीत सिद्ध न कर दिया जाय, न्यायालय यह उपधारित कर सकेगा कि जंगम सम्पत्ति की संविदा में प्रतिकर यथायोग्य अन्तोष होगा। परन्तु इस नियम का एक अपवाद यह है कि यदि सम्पत्ति साधारण वाणिज्य वस्त नहीं है या वादी के विशेष कीमत या हित की है या बाजार में सरलता से उपलब्ध नहीं है तो विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री जारी हो सकेगी। विजय मिनरल्स प्राइवेट लि. बनाम विकास चन्द्र डेब (Vijaya Minerals Pvt. Ltd. v. Bikash Chandra Debe)13 के वाद में एक प्रश्न यह था कि क्या मैंगनीज तथा लोहा खनिज पदार्थ धारा 10 के अर्थों में एक साधारण वाणिज्य वस्तु (ordinary article of commerce) है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मैंगनीज तथा लोहा खनिज पदार्थ कुछ क्षेत्रों से ही प्राप्त होता है जहाँ इनकी खाने हैं। अत: यह साधारण वाणिज्य वस्तुयें नहीं कही जा सकती हैं।
स्थावर सम्पत्ति के विक्रय की संविदा में जहाँ एक निबन्धन के अनुसार विक्रय धन का एक भाग देने का अनुबंध है तथा विक्रेता द्वारा उस धन से अपने रहने के स्थान का क्रय करना है, यदि क्रेता निर्धारित समय के अन्तर्गत धन के उक्त भाग का भुगतान नहीं करता है तथा वह अपने हिस्से की संविदा का पालन के लिये इच्छुक नहीं है तो विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान नहीं की जा सकती है।14
टी० एल० मुड्डू कृष्णन बनाम श्रीमती ललिथा रामचन्द्र राव (T.L. Muddu Krishnan v. Smt. Lalitha Ramchandra Rao)15 के वाद में पक्षकारों के मध्य स्थावर सम्पत्ति के विक्रय का करार था। प्रस्तुत वाद में अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध करार की शर्तों के पालन हेतु आज्ञापत्र व्यादेश (mandatory injunction) प्राप्त करने की प्रार्थना की थी। तत्पश्चात् उसने वाद-पत्र (Plaint) को संशोधित करके विनिर्दिष्ट पालन की भी प्रार्थना की। यह संशोधन उसने संविदा पालन की तिथि के तीन वर्षों बाद की थी। उच्चतम न्यायालय ने वाद-पत्र में उक्त संशोधन को नामंजूर कर दिया। क्योंकि इसकी अवधि मर्यादा (limitation) की अवधि के समाप्त होने के बाद की थी।16
बनवारी लाल अग्रवाल बनाम राम स्वरूप (Banwari Lal Agrawalla v. Ram Swarop Agrawalla)17 के वाद में स्थावर सम्पत्ति के स्वामी तथा किरायेदार के मध्य उस सम्पत्ति के विक्रय की संविदा थी जिसमें जो किरायेदार के कब्जे में थी। किरायेदार ने कुछ अग्रिम धन सम्पत्ति के स्वामी को दिया तथा शेष धन निर्धारित समय के भीतर दिया जाना था। किरायेदार ने स्वामी के पास सार्टीफिकेट आफ पोस्टिंग द्वारा उसके भाग की संविदा पालन के लिये नोटिस भेजी। परीक्षण न्यायालय के अनुसार यह नोटिस अवैध थी क्योंकि सार्टीफिकेट आफ पोस्टिंग द्वारा भेजी गई थी तथा न्यायालय ने विपरीत निष्कर्ष निकाला कि क्रेता (किरायेदार) अपने हिस्से की संविदा का पालन करने के लिये तैयार नहीं था। अतः इस आधार पर परीक्षण न्यायालय ने क्रेता द्वारा विनिर्दिष्ट पालन के लिये किया गया वाद खारिज कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को उलट दिया क्योंकि करार का कोई निबन्धन ऐसा नहीं था जिसके अनुसार शेष धन का भुगतान करने पर करार समाप्त हो जाता। दूसरी ओर इस बात का यथेष्ट साक्ष्य था कि सम्पत्ति के स्वामी (विक्रेता) ने अपने भाग की संविदा के पालन का आशय कभी व्यक्त नहीं किया तथा न ही पालन किया।
अत: पटना उच्च न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान करने का आदेश किया। परन्तु उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री साम्या पर आधारित है तथा न्यायालय के विवेकानुसार जारी की जाती है। दावाकृत सम्पत्ति करार की तिथि से जितने समय तक उसके कब्जे तथा उपयोग में रही वह उसके लिये प्रतिवादी को किराया दे।18
13. ए० आई० आर० 1996 कलकत्ता 67, 78.
14. मेसर्स पी० आर. देब बनाम सुनन्दा राय, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1504, 1506, 1507.
15. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 772.
16. तत्रैव, पृष्ठ 775.
17. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 88.
18. तत्रैव पृष्ठ 93.
धारा 10 की स्थिति स्पष्ट करते हुये उच्चतम न्यायालय ने एम० एस० मधूसूधनन बनाम केरल कौमुदी प्राइवेट लि. (M.S. Madhusoodhanan v. Kerala Kaumudi Pvt. Ltd.)19 में धारित किया है कि कुछ प्रतिबन्धों के अधीन एक प्राइवेट कम्पनी के अंशों का धारक अंशों को अपने चुने हुये व्यक्ति को बेच सकता है। ऐसी संविदाओं का पालन विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 (जो विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1877 की धारा 12 के समकक्ष है) के अधीन कराया जा सकता है। अनेक वादों में यह धारित किया गया है कि प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी के अंश बाजार में आम तौर से उपलब्ध नहीं होते हैं।20
जहां विक्रय के करार के मामले में प्रतिवादी को अग्रिम धन दिया जाता है परन्तु विक्रय विलेख का निष्पादन नहीं होता है तथा प्रतिवादी दो विभिन्न आधार लेता है-(i) नोटिस के उत्तर में अग्रिम धन की वापसी की बात करता है तथा (ii) लिखित कथन में यह आधार लेता है कि उक्त धन ऋण के पुनः भुगतान में दिया गया था। उच्च न्यायालय का निर्णय कि ऋण के आर्थिक भुगतान को स्वीकार करने से वादी ने विनिर्दिष्ट पालन के दावे का अभित्याग किया गया था, उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि यह तर्क मान्य नहीं होगा। परन्तु प्रस्तुत वाद में वादी एवं प्रतिवादी दोनों की मृत्यु होने के कारण तथा मकान प्रतिवादी के कानूनी प्रतिनिधियों के कब्जे में होने के कारण उच्चतम न्यायालय ने निदेश दिया कि उक्त प्रतिनिधि वादियों को कानूनी प्रतिनिधि सात लाख पचास हजार दें।1
(ii) न्यासों से संशक्त संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन (Specific Performance of Contracts connected with trusts inforceable)-धारा 11 (1) के अनुसार, विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय, संविदा का विनिर्दिष्ट पालन न्यायालय के विवेकानुसार प्रवर्तित कराया जा सकता है जबकि वह कार्य जिसके करने का करार हुआ है, किसी न्यास के पूर्णत: या भागतः पालन में हो।
परन्तु धारा 11 (2) में स्पष्ट किया गया है कि न्यासी द्वारा अपनी शक्तियों के बाहर या न्यासभंग में की गई संविदा का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है।
धारा 11 निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धाराओं 12 (क) तथा 21 (ङ) के समकक्ष है। यहाँ पर उक्त धारा 21 (ङ) में दिये गये निम्नलिखित दृष्टान्तों का उल्लेख वांछनीय होगा।
(अ) ‘क’ भूमि का न्यासी है तथा उसे भूमि को 7 वर्ष के लिये पट्टे पर देने की शक्ति है। ‘क’ एक संविदा ‘ख’ के साथ भूमि को 7 वर्ष के पट्टे पर देने के लिये करता है तथा यह भी करार करता है कि 7 वर्ष के अवसान के पश्चात् पट्टा नवीनीकरण होगा। इस संविदा का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं हो सकता है।
(आ) एक कम्पनी के निदेशक को कम्पनी के अंशधारकों की सामान्य मीटिंग की अनुमति से बेचने का अधिकार है। निदेशक ऐसी अनुमति प्राप्त किये बिना कंपनी को बेचने की संविदा करते हैं। इस संविदा का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं हो सकता है।
(5) ‘क’ ‘ख’ दो न्यासियों को न्यास सम्पत्ति को एक लाख रुपये में बेचने का अधिकार प्रदान किया जाता है। ‘क’ एवं ‘ख’ न्यास सम्पत्ति को 30,000 रुपये में बेचने की संविदा करते हैं। इस संविदा का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं हो सकता है क्योंकि यह संविदा न्यास के लिये इतना हानिकारक है कि यह न्यास भंग है।
(iii) संविदा के भाग का विनिर्दिष्ट पालन (Specific performance of part of contract)-संविदा के भाग के विनिर्दिष्ट पालन के सम्बन्ध में उपबन्ध धारा 12 में दिये गये हैं। धारा 12 के अनुसार
19. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 909, 934-935.
20. देखे राम लन्डिया बनाम सूरजमल सागरमल, ए० आई० आर० (36) 1949 एस० सी० 211, 218; बैंक ऑफ इंडिया लि० बनाम जे० ए० एच० सिनाय, ए० आई० आर०. 1950 पी० सी० 90.
21. बन्शीलाल सोनी (मृतक) प्रतिनिधियों बनाम कस्तूर चन्द बेगानी (मृतक) कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा, ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 2628, 2630.
इस धारा में एतस्मिन् पश्चात् अन्यथा उपबन्धित के सिवाय न्यायालय किसी संविदा के किसी भाग के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश नहीं देगा।
(2) जहाँ कि किसी संविदा का कोई पक्षकार संविदा में अपने पूरे भाग का पालन करने में असमर्थ है वह भाग जिसे अपालित रह जाना है, पूरे भाग के मूल्य के अनुपात में बहुत कम है तथा उसके लिये के रूप में प्रतिकर दिया जा सकता है, वह दोनों पक्षकारों में से किसी भी के वाद लाने पर न्यायालय संविदा में उतने भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निदेश दे सकता है जितने का पालन किया जा सकता है तथा शेष के लिये धन के रूप में प्रतिकर दिलवा सकता है।
(3) जहाँ कि संविदा का कोई पक्षकार उसमें के अपने भाग का पालन करने में असमर्थ हो वह भाग जिसे अपालित रह जाना है या तो
(क) सम्पूर्ण का काफी या प्रचुर भाग हो यद्यपि उसका धन के रूप में प्रतिकर हो सकता है; या
(ख) उसका धन के रूप में प्रतिकर नहीं हो सकता है। वहाँ वह विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री प्राप्त करने का हकदार नहीं है किन्तु न्यायालय दूसरे पक्षकार के वाद लाने पर चूक या व्यतिक्रम करने वाले पक्षकार को यह निदेश दे सकता है कि संविदा के अपने उतने भाग का, जितने का वह पालन कर सकता है, विनिर्दिष्ट पालन करे, यदि दूसरा पक्षकार-
(i) (खंड (क) के अधीन आने वाली दशा में, पूरी संविदा के करार में तथा प्रतिफल उसमें से उस
भाग के प्रतिफल को, जिसे अपालित रह जाना ही है घटाकर दे दे या दे चुका हो तथा खंड (ख) के अधीन आने वाली दशा में पूरी संविदा के लिये प्रतिफल, कोई कमी किये बिना, दे दे या दे चुका हो, तथा
(ii) दोनों दशाओं में से हर एक में संविदा के शेष भाग के पालन कराने के सब दावों को तथा शेष की कमी के लिये या प्रतिवादी के व्यतिक्रम या चूक द्वारा उसे हुई हानि या नुकसान के लिये प्रतिकर प्राप्त करने के समस्त अधिकार को त्याग दे।
(4) जबकि संविदा का कोई भाग जिसका, यदि उसे अलग से ले तो विनिर्दिष्ट पालन किया जा सकता है और किया जाना चाहिये, उसी संविदा के ऐसे अन्य भाग से पृथक और स्वतन्त्र आधार पर खड़ा है जिसका विनिर्दिष्ट पालन नहीं किया जा सकता है या नहीं किया जाना चाहिये, वहाँ न्यायालय पूर्वकथित भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निदेश दे सकता है।
स्पष्टीकरण-संविदा का कोई पक्षकार उसमें के अपने पूरे भाग का पालन करने में इस धारा के प्रयोजनों के लिये असमर्थ माना जायगा, यदि उसकी विषय वस्तु का कोई प्रभाव जो संविदा की तारीख को आस्तित्व में थे उसके पालन के समय अस्तित्व में नहीं रह गया है।
धारा 12 निरसित 1877 के अधनियम की धाराओं 14 से 17 तक का मिश्रित रूप है। संविदा के एक भाग के विनिर्दिष्ट पालन के सम्बन्ध में धारा 12 एक पूर्ण संहिता है।
उपयुक्त धारा 12 (1) में एक सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है कि साधारणतया न्यायालय सावदा के किसी एक भाग के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश नहीं देता है।
जहाँ कि कोई सम्पत्ति प्रत्यर्थी तथा उसकी बहिन की संयुक्त रूप से है तथा प्रत्यर्थी पूरी सम्पत्ति को 20,000 रुपये में बेचने की संविदा करता परन्त उसकी बहिन अपने हिस्से को बेचने से इन्कार कर देती है, नादष्ट पालन प्रत्यर्थी के हिस्से का हो सकेगा। यह मामला संविदा के एक भाग का नहीं है अतः धारा 12 अन्तर्गत नहीं आता है। इस मामले में दो संविदायें थीं-(i) प्रत्यर्थी तथा क्रेता के मध्य, (ii) प्रत्यर्थी की
तथा क्रेता के मध्य । वास्तव में प्रत्यर्थी की बहिन तथा क्रेता के मध्य वैध संविदा नहीं थी। वैध सावदा पल प्रत्यर्थी तथा क्रेता के मध्य थी अत: उसका विनिर्दिष्ट पालन हो सकता है।22
इसी प्रकार प्रिथी उर्फ संसी आदि बनाम जती राम तथा अन्य आदि (Prithi Alias Sansi etc. v. am and Others etc.)23 के वाद में वादी ने अपनी भूमि 50,000 प्रति किला (Killa) के हिसाब से
22. करतार सिंह बनाम हरजिंदर सिंह, ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 854, 857.
23. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 1598.
प्रतिवादी के हाथ बेचने का करार किया तथा 24,000 रुपये अग्रिम धन वादी ने प्रतिवादी को दिए। तत्पश्चात प्रतिवादी संविदा के अपने पत्र का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक था तथा 81,000 रुपये शेष प्रतिफल के रूप में देने को तैयार था तथा सभी न्यायालयों ने इस बात को स्वीकार भी किया। दूसरी ओर वादी ने संविदा के अपने भाग का पालन नहीं किया। अतः वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त करने के लिये वाद किया। परीक्षण न्यायालय ने उसके पक्ष में निर्णय देते हुये विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित कर दी। परन्तु अपील में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने परीक्षण न्यायालय के निर्णय को इस आधार पर उलट दिया कि कुछ अन्य लोग (रमेश आदि) के कब्जे में भूमि थी तथा उनके पक्ष में करार का निष्पादन 5 दिसम्बर 1994 को हो चुका था तथा निर्णय दिया कि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष उचित नहीं होगा। वरन् वैकल्पिक अनुतोष प्रतिकर अधिक उपयुक्त होगा। द्वितीय अपील में उच्च न्यायालय ने उक्त निर्णय को उलट दिया तथा परीक्षण न्यायालय के निर्णय को बहाल कर दिया। प्रस्तुत अपील वादी ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध की थी। उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज करते हुये उच्च न्यायालय के निर्णय का अनुमोदन करते हुये कहा रमेश आदि सद्भाव (bonafide) के क्रेता नहीं थे तथा आदेश दिया कि प्रत्यर्थी के पक्ष में विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित की जाय। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि यदि वादी का तर्क स्वीकार किया जाय तो किसी भी संविदा का प्रवर्तन सम्भव नहीं होगा तथा पक्षकार तृतीय पक्षकार को कब्जा दिलाकर संविदा से बचना चाहेंगे।24
धारा 12 (1) में प्रतिपादित सामान्य सिद्धान्त के तीन अपवाद हैं। यह निम्नलिखित हैं-
(क) पहला अपवाद धारा 12 (2) में दिया गया है। इसके अनुसार, यदि किसी संविदा का कोई पक्षकार संविदा में अपने पूरे भाग का पालन करने में असमर्थ है परन्तु जितने भाग का पालन नहीं हो सकता है वह भाग के अनुपात में मूल्य में कम है तथा उसके लिये धन के रूप में प्रतिकर हो सकता है, दोनों पक्षकारों में से किसी भी पक्षकार के वाद दायर करने पर न्यायालय संविदा में से उतने भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निदेश कर सकता है जितने का पालन हो सकता है तथा शेष के लिये धन के रूप में प्रतिकर दिलवा सकता है।
उदाहरण के लिये श्रीमती बैकुण्ठी देवी बनाम महेन्द्र नाथ25 के वाद में जीवाराम नाम के व्यक्ति की कुछ भूमि जिसमें एक मकान भी था, में आधा हिस्सा था। उसने अपने हिस्से को 3000 रुपये में बेचने का करार प्रत्यर्थी के साथ किया। जीवाराम के मृत्यु के पश्चात् उसकी पुत्री (जो प्रस्तुत अपील में अपीलार्थी है) को उक्त हिस्सा प्राप्त हुआ। प्रत्यर्थी ने जो मृतक जीवाराम का भतीजा था; ने उक्त करार के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद किया। इसी दौरान चकबन्दी कार्यवाहियाँ चल रही थीं तथा इसके परिणामस्वरूप जीवाराम के हिस्से में सिवाय थोड़ी सी भूमि को छोड़कर लगभग वही भूमि आई जो उसने बेचने का करार किया था। केवल थोड़ी सी भूमि जो जीवाराम के हिस्से में नहीं आई थी, मूल्य में सारी भूमि के अनुपात में बहुम कम थी। विनिर्दिष्ट पालन के लिए वाद चकबन्दी कार्यवाही पूर्ण हो जाने के पश्चात् दायर किया गया था। परीक्षण न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री पारित कर दी किन्तु अपील में इस आदेश को उलट दिया गया । उच्च न्यायालय की पूर्ण न्यायपीठ ने पुनः अपीलीय न्यायालय के निर्णय को उलटकर परीक्षण न्यायालय के निर्णय को बहाल कर दिया। उच्च न्यायालय की पूर्ण न्यायपीठ के इस निर्णय के विरुद्ध प्रस्तुत अपील उच्चतम न्यायालय में की गई। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय का अनुमोदन करते हये अपील खारिज कर दी। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय में कहा कि भूमि का जो भाग जीवाराम के हिस्से में नहीं आया था, मूल्य में पूर्ण भूमि के अनुपात में बहुत कम था तथा यह परिस्थिति धारा 12 (2) के अन्तर्गत आती है। अतः उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त करने का हकदार है।
(ख) दसरा अपवाद धारा 12 (3) में है, तथा इसका उल्लेख ऊपर किया गया है:
भाग 12 (3) के विषय में यह उल्लेखनीय है कि संविदा के भाग पालन को पक्षकार मकदमे के किसी भी चरण में स्वीकार कर सकता है। परन्तु यदि एक बार पक्षकार यह तय कर लेता है कि वह भाग पालन अस्वीकार कर देता है तो वह अपने निणय से मुकर नहीं सकता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने साडीत कौर बनाम नौरता सिंह (Surjit Kaur v. Naurata Singh)26 के वाद में दिया। उच्चतम
24. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 1599.
25. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 1514.
26. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 2927, 2931-2932.
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि करार में प्रतिकर का धन तय कर दिया गया है तो बिना कारण स्पष्ट किये उस धन को कम करना उचित नहीं होगा।27
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 12 (3) के उपबन्धों को उस दशा में लागू नहीं किया जा सकता है जब सविदा में विनिदिष्ट रूप से संविदा के एक भाग को अलग करने का आशय होता है। ऐसी दशा में न ही विधि न ही साम्या क्रेता के पक्ष में है कि उसे विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष दिलाया जाय।28
(ग) तीसरा अपवाद धारा 12 (4) में दिया गया है। धारा 12 (4) के अनुसार जहाँ, संविदा के दो भाग हैं तथा उसमें से एक भाग को यदि अलग से लिया जाय तो उसका विनिर्दिष्ट पालन किया जा सकता है तथा किया जाना चाहिये जबकि उसी संविदा का दूसरा भाग ऐसे भाग से पृथक तथा स्वतंत्र आधार पर खड़ा है जिसका विनिर्दिष्ट पालन नहीं किया जा सकता है, न्यायालय पहले भाग के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश दे सकता है। उदाहरण के लिये, सरदार सिंह बनाम श्रीमती कृष्ण देवी (Sardar Singh v. Smt. Krishna Devi)29 के वाद में सम्पत्ति (मकान) जिसे बेचने का करार किया गण संयुक्त रूप से दो भाइयों की थी। एक भाई ने पूर्ण सम्पत्ति बेचने का करार किया। क्रेता ने विनिर्दिष्ट पालन का वाद किया तथा न्यायालय ने डिक्री उसके पक्ष में जारी की। नगरपालिका रजिस्टर में सम्पत्ति संयुक्त रूप से दोनों भाइयों के नाम थी। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि निचले न्यायालयों का निर्णय त्रुटिपूर्ण था क्योंकि उन्होंने अपने विवेक का प्रयोग करते हुये पूर्ण सम्पत्ति के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश दिया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सम्पत्ति (मकान) विभाजीय थी तथा अपीलार्थी संविदा का पक्षकार नहीं था। अतः साम्या एवं न्याय की माँग है कि संविदा का आंशिक अनुपालन होना चाहिये। अतः प्रत्यर्थी ने जो संविदा की थी केवल वह एक भाई (करतार लाल) के हिस्से अथवा आधी सम्पत्ति के ही लिये वैध थी। अतः उच्चतम न्यायालय ने परीक्षण न्यायालय द्वारा पारित विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री को संशोधित करके सम्पत्ति के आधे हिस्से के लिये अनुमोदन कर दिया।30
हक न रखने वाले या अपूर्ण हक वाले व्यक्ति के विरुद्ध क्रेता या पट्टेदार के अधिकार (Rights of Purchaser or lessee against person with no title or imperfect title)-विनिदिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 13 के अनुसार-(1) जहाँ कि किसी स्थावर सम्पत्ति को ऐसा व्यक्ति, जिसका उसमें कोई हक न हो अथवा केवल अपूर्ण हक हो, बेचने की अथवा पट्टे पर देने की संविदा करे. वहां क्रेता या पटटेदार के इस अध्याय के अन्य उपबन्धों के अध्यधीन निम्नलिखित आ अर्थात्
(क) यदि विक्रेता अथवा पट्टाकर्ता ने संविदा के पश्चात् सम्पत्ति में कोई हित अर्जित किया हो तो क्रेता या पट्टेदार ऐसे हित में से संविदा की पूर्ति के लिये उसे विवश कर सकता है
(ख) जहाँ कि हक को विधिमान्य बनाने के लिये अन्य व्यक्तियों की सहमति आवश्यक है तथा विक्रेता या पट्टाकर्ता की प्रार्थना पर वे सहमति देने को बाध्य हों, वहाँ क्रेता या पट्टेदार उसको उक्त सहमति प्राप्त करने को विवश कर सकता है और जबकि हक को विधिमान्य बनाने के लिये अन्य व्यक्तियों द्वारा हस्तान्तरण करना आवश्यक हो और विक्रेता या पट्टाकर्ता की प्रार्थना पर वे हस्तान्तरण करने को बाध्य हों तब क्रेता या पट्टेदार उसको ऐसा हस्तान्तरण प्राप्त करने के लिये विवश कर सकता है।
(ग) जहाँ कि विक्रेता अभिभार रहित सम्पत्ति के बेचने की प्रव्यंजना करता है किन्तु सम्पत्ति क्रय-धन से अधिक राशि के लिये बंधक पर रखी हुयी है तथा विक्रेता को केवल मोचन का ही अधिकार है वहाँ क्रेता उसे उस बंधक का मोचन कराने के लिये बंधकदार से विधिमान्य उन्मोचन और जहाँ आवश्यक हो, वहाँ हस्तान्तरण भी अभिप्राप्य करने के लिये विवश कर सकेगा।
(घ) जहाँ कि विक्रेता या पट्टाकर्ता संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद करता है और हक के अभाव या अपूर्ण हक के आधार पर वाद खारिज हो जाए वहाँ प्रतिवादी को जमा राशि, यदि कोई हो, उस पर ब्याज सहित वापसी का और वाद के अपने खर्चे पाने का अधिकार है तथा ऐसे जमा या निक्षेप ब्याज
27. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 2932.
28. एच० पी० ए० इण्टरनेशनल बनाम भगवानदास फतेह चन्द दासवानी, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 3858, 3877.
29. ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 491.
30. तत्रैव, पृष्ठ 497-498.
और खर्चों के लिये उस हित पर यदि कोई हो, धारणाधिकार है जो उस सम्पत्ति में विक्रेता अथवा पट्टाकर्ता का हो जो संविदा की विषयवस्तु है।
(2) उपधारा (1) के उपबन्ध जंगम सम्पत्ति के विक्रय या भाड़े की संविदाओं को भी, यावत्शक्य, लागू होंगे।
धारा 13 निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 18 के समकक्ष है। वर्तमान धारा 13 तथा निरसित धारा 18 में केवल यह अन्तर है कि वर्तमान धारा 13 में विधि को स्पष्ट कर दिया गया है क्योंकि कई निर्णय एक दूसरे के विरोधी थे।
धारा 13 क्रेता या पट्टेदार को ऐसे संविदा के ऐसे पक्षकार के विरुद्ध अधिकारों से सम्बन्धित है जिसका सम्पत्ति में कोई हक नहीं है या केवल अपूर्ण हक है। यदि वाद में संविदा का ऐसा पक्षकार वाद में दावाकृत सम्पत्ति में कोई हित प्राप्त करता है, तो क्रेता या पट्टेदार से ऐसे हित के संविदा का पालन करने हेतु विवश कर सकता है।
जहाँ संविदा के किसी पक्षकार ने खेती की भूमि का अन्तरण करना इस शर्त के अध्यधीन स्वीकार किया था कि कलेक्टर से भूमि को गैर-खेती के प्रयोजनों में परिवर्तित करने के लिये अनुमति प्राप्त करेगा, ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन तब हो सकेगा जब बाद में किसी अधिनियम के पारित होने से उक्त भूमि का गैर-खेती प्रयोजनों हेतु परिवर्तित करना क्रेता के लिये सम्भव है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने रोजसारा रामजी भाई, दहयाभाई बनाम जानी नरोत्तमदास लल्लू भाई (Rojasara Ramjibhai Dahyabhai v. Jani Narotamdas Lallu Bhai)31 के वाद में विनिर्दिष्ट पालन हेतु वाद उक्त अनुमति प्राप्त होने के तीन वर्षों के भीतर किया गया था अतः उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि वाद मर्यादा अधिनियम द्वारा वर्जित नहीं था।32
संविदाएं जिनका विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है (Contracts which cannot be specifically enforced) (LLB Question Paper Study Material)
धारा 14 के अनुसार, (1) निम्नलिखित संविदाओं को विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता, अर्थात्
(क) वह संविदा जिसके अपालन के लिये धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष है,
(ख) वह संविदा जिसमें सूक्ष्म या बहुत से ब्यौरे हों अथवा जो पक्षकारों की वैयक्तिक अर्हताओं या स्वेच्छा पर इतनी आश्रित हो अन्यथा अपनी प्रकृति के कारण ऐसी हो कि न्यायालय उसके तात्विक निबन्धनों के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन न करा सकता हो,
(ग) वह संविदा जो अपनी प्रकृति से ही पर्यवसेय हो,
(घ) वह संविदा जिसके पालन में ऐसा सतत-कर्तव्य पालन अन्तर्वलित हो जिसका न्यायालय पर्यवेक्षण नहीं कर सकता है।
(2) माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 (1940 का 10) में यथा उपबन्धित के सिवाय वर्तमान या भावी मतभेदों को माध्यस्थम के लिये निर्देशन करने की कोई संविदा विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित नहीं की जायगी, किन्तु यदि कोई व्यक्ति जिसने (ऐसे माध्यस्थम्-करार से, जिसे उक्त अधिनियम के उपबन्ध लागू होते हों, भिन्न) ऐसी संविदा की हो और उसका पालन करने से इन्कार कर दिया हो, किसी ऐसे विषय के बारे में वाद लाए, जिसके निर्देशन की उसने संविदा की है, तो ऐसे संविदा का अस्तित्व उस वाद का वर्जन करेगा।
3) उपधारा (1) खण्ड (क) या खण्ड (ग) या खण्ड (घ) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हये भी न्यायालय निम्नलिखित दशाओं में विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन करा सकेगा-
(क) जहाँ कि वाद ऐसी संविदा के प्रवर्तन के लिये हो जो-
(i) किसी ऐसे ऋण के प्रतिसंदाय को प्रतिभूत करने के लिये, जिसे उधार लेने वाला तत्क्षण प्रतिसंदत्त करने को रजामन्द न हो, बन्धक निष्पादन करने या कोई अन्य प्रतिभूति देने के लिये हो
31. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 1912, 1916, 1918.
32. तत्रैव, पृष्ठ 1918.
परन्त जहाँ कि उधार का केवल एक भाग दिया गया हो, वह यह तब जबकि उधार देने वाला संविदा के निबन्धनों के अनुसार उधार का अवशिष्ट भाग देने को रजामन्द हो, अथवा-
(i) किसी कम्पनी के कोई डिबेन्चर लेने और उसके निमित्त संदाय करने के लिये हो, (ख) जहाँ कि वाद(i) साझेदारी के प्रारूपिक विलेख के निष्पादन के लिये हो, साझेदारी के कारबार का चलाना पक्षकारों ने प्रारम्भ कर दिया हो, अथवा
(ii) किसी फर्म के साझीदार के अंश के क्रय के लिये हो,
(ग) जहाँ कि वाद ऐसी संविदा का प्रवर्तन कराने के लिये हो जो कोई निर्माण तैयार करने के लिये या भमि पर कोई अन्य संकर्म के निष्पादन के लिये हो, परन्तु यह तब जब कि निम्नलिखित शर्ते पूरी हो जाएँ, अर्थात्
(i) निर्माण या अन्य संकर्म संविदा में पर्याप्त रूप से प्रमित शब्दों में वर्णित हो कि न्यायालय
निर्माण या संकर्म की ठीक-ठीक प्रकृति का अवधारण करने में समर्थ हो सके,
(ii) संविदा के पालन में वादी का सारभूत हित हो और हित भी ऐसी प्रकृति का हो कि धन के रूप में प्रतिकर उसके अपालन के लिये यथायोग्य अनुतोष न हो, तथा
(iii) संविदा के अनुसरण में प्रतिवादी ने उस समस्त भूमि या उपके किसी भाग का कब्जा अभिप्राप्त कर लिया हो जिस पर निर्माण तैयार या अन्य संकर्म निष्पादित किया जाता है। धारा 14 निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 21 (क), (ख), (घ), (छ) के समकक्ष है। धारा 14 के अनुसार निम्नलिखित संविदाओं का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है
(1) जहाँ धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष है-धारा 14 (1) (क) के अनुसार, वह संविदाएं जिनके अपालन के लिये धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष है उनका विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है। उदाहरण के लिये, यदि ‘क’ ‘ख’ से करार करता है कि वह एक मास के भीतर 1000 बोरे, बासमती चावल प्रदान करेगा। ‘क’ चावल प्रदान करने में असफल रहता है। ‘ख’ के वाद करने पर इस संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि इसके अपालन के लिये धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष होगा।33 इसी प्रकार उन कम्पनियों के अंश के विक्रय की संविदा जो सरलता से बाजार में उपलब्ध है, का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है।34 परन्तु यदि संविदा ऐसे अंशों की है जो बाजार में सरलता से तथा तत्काल उपलब्ध नहीं है तो स्थिति भिन्न होगी तथा ऐसे मामले में न्यायालय विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन करा सकता है।35
अशोक कमार श्रीवास्तव बनाम नेशनल इन्श्योरेंस कं० लि. (Ashok Kumar Srivastav v. National Insurance Co. Ltd)36 के वाद में अपीलार्थी को एक संविदा के अन्तर्गत निरीक्षक 19.9.80 को कुछ शर्तों के अधीन नियक्त किया गया था। 13.3.1982 को प्रत्यर्थी कंपनी ने 30 दिन की नोटिस देकर इस आधार पर निकाल दिया कि वह प्रीमियम के निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहा। अपीलार्थी ने वाद किया तथा यह आधार लिया कि उसका निष्कासन अवैध है, तथा यह घोषणा की जाय कि वह अब भी सेवा में है।
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलार्थी द्वारा दायर किया वाद विनिर्दिष्ट अन्तोष अधिनियम. 1963 की धारा 14 (1) (क) के अन्तर्गत पोषणीय (maintainable) नहीं है। परन्तु न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि धारा 14 के अन्तर्गत वाद पोषणीय नहीं है परन्तु सिविल न्यायालय धारा 34 के अन्तर्गत घोषणात्मक अनुतोष के लिये वाद स्वीकार कर सकता है।37
33. गार्डेन काटेज फूड्स मिल्क, मार्केटिंग बोर्ड (1984) एस० सी० 130 के वाद को भी देखें।
34. देखें : चित्र बनाम हाकस्ट्रेसर, (1979) सी० एच० 447.
35. देखें : लैन्गेन एण्ड विन्ड लि० बनाम बेल (1922) सी० एच० 685 तथा जानसन बनाम जानसन (1989) 1 आल० ई० आर० 621.
36. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 2046.
37. तत्रैव, पृष्ठ 2048-2049.
(2) सूक्ष्म या बहुत से ब्योरे अथवा व्यक्तिगत अर्हताओं या स्वेच्छा पर आश्रित आदि संविदायें-धारा 14 (1) (ख) के अन्तर्गत ऐसी संविदाओं का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं किया जा सकता है जिनमें सूक्ष्म या बहुत से ब्योरे हों या जो पक्षकारों की व्यक्तिगत अर्हताओं या योग्यताओं या स्वेच्छा पर आश्रित हों।
लमले बनाम वैगनर (Lumley v.Wagner) 38 के वाद में प्रतिवादी ने वादी से करार किया था कि वह उसके थियेटर में कुछ अवधि तक अभिनय करेगी। करार के निबन्धनों के अनुसार, प्रतिवादी उक्त अवधि में किसी अन्य थियेटर में गाने या अभिनय नहीं करेगी। कुछ समय बाद परन्तु उक्त अवधि के भीतर प्रतिवादी ने अन्य थियेटर में गाने की संविदा की तथा प्रतिवादी ने वादी के साथ अपनी संविदा का पालन करने से इन्कार कर दिया। वादी द्वारा विनिर्दिष्ट पालन कराने के लिये वाद किया गया। परन्तु न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन कराने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।
भारत में भी यह सिद्धान्त मान्य है। कार्यपालिक समिति, उत्तर प्रदेश राज्य भाण्डारागार निगम, लखनऊ बनाम चन्द्र किरण त्यागी (Executive Committee State Warehousing Corporation, Lucknow v. Chandra Kiran Tyagi)39 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि व्यक्तिगत सेवा की संविदा के विनिर्दिष्ट प्रवर्तन का आदेश सामान्यत: नहीं दिया जा सकता है। परन्तु इस नियम के निम्नलिखित तीन अपवाद हैं
(i) जहाँ किसी लोक सेवक को संविधान के अनुच्छेद 311 के उल्लंघन में पद तथा सेवा से निष्कासित किया जाता है।
(ii) जहाँ किसी कर्मचारी को औद्योगिक विधि के अन्तर्गत पदच्युत किया गया हो, और
(iii) जहाँ कोई कानूनी निकाय अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन में कृत्य करती है।
उपर्युक्त नियम का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने कार्यकारिणी समिति, वैश्य डिक्री कालेज, शामली बनाम लक्ष्मी नारायण (Executive Committee Vaishya Degree College, Shamli y. Lakshmi Narain)40 के वाद में कर दिया।
यही नियम उच्चतम न्यायालय ने जितेन्द्र नाथ विश्वास बनाम मेसर्स इम्पायर आफ इंडिया ऐण्ड सीलोन टी कंपनी (Jitendra Nath Biswas v. M/s Empire of India and Cylone Tea Co.)41 के वाद में लागू किया है। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यह भली-भाँति स्थापित निर व्यक्तिगत सेवा के नियोजन की संविदा का विनिर्दिष्ट प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है तथा यह भी स्पष्ट है कि औद्योगिक विधि के सिवाय, संविदा की विधि या सिविल विधि के अन्तर्गत, जिस कर्मचारी की सेवायें समाप्त की गई हैं वह पुनः स्थापना या पुनः बहाली (reinstatement) या पिछले वेतन प्राप्त करने का अनुतोष प्राप्त नहीं कर सकता। अधिक से अधिक वह संविदा भंग के लिये नुकसान का अनुतोष प्राप्त कर सकता है।42 यही नियम उच्चतम न्यायालय ने कायस्थ पाठशाला, इलाहाबाद बनाम राजेन्द्र प्रसाद (The Kavashta Pathshala Allahabad v. Rajendra Prasad)43 के वाद में लागू किया। इस वाद में प्रत्यर्थी एक प्राइवेट शैक्षिक संस्था में अध्यापक था। उसने इस संस्था में केवल एक या दो वर्ष तक कार्य किया तत्पश्चात उसे निलम्बित कर दिया गया। कई बार पक्षकारों के मध्य मुकदमेबाजी हुई जो वर्षों तक चली। इस पर पत्यर्थी शैक्षिक कार्य से 25 वर्षों तक विलग रहा तथा वकालत के पेशे में कार्य करता रहा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन परिस्थितियों में प्रत्यर्थी की अध्यापक के रूप में पुनः बहाली न्यायोचित नहीं होगी।
38. (1852)1 डी० जी० एम० 604.
39. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 1244.
40. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 888.
41. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 255; (1989) 3 एस० सी० सी० 582.
42. तत्रेव्, प्रष्ठ 257.00 आई० आर० 1991 एस० सी० 1525 नंदगंज सिहोरी शूगर कं० लि. राय बरेली बनाम बदी नाश दीक्षित को भी देखें।
43. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 415.
न्यायालय ने पुनः बहाली का अनुतोष प्रदान न करके उसे नुकसानी के रूप में तीन वर्षों का वेतन देने का निर्णय दिया।44
राम साहन राय बनाम सचिव, सामान्य प्रबन्धक (Ram Sahan Rai v. Sachiv Samanya Prabandhak)45 के वाद में जिला सहकारी बैंक ने बिना आदेशात्मक नियमों के उपबन्धों एवं नियमन का पालन करते हुये तथा बिना नैसर्गिक सिद्धान्तों का पालन करते हुये एक कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया। कर्मचारी ने सिविल न्यायालय में एक घोषणात्मक वाद किया तथा न्यायालय से प्रार्थना की कि नौकरी से निकाले जाने का आदेश अवैध, अकृत एवं शून्य घोषित किया जाय। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यद्यपि जिला सहकारी बैंक की उत्तर प्रदेश सहकारी संघ अधिनियम, 1965 के अन्तर्गत एक सहकारी संघ की प्रास्थिति है तथा यह सहकारी भूमि विकास बैंक अधिनियम, 1964 के अन्तर्गत निर्मित है विभिन्न नियमों, उपनियमों एवं नियमनों का परीक्षण करने से यह ज्ञात होता है कि राज्य सरकार बैंक एवं इसके कर्मचारियों पर नियंत्रण रखती है। यह नियन्त्रण राज्य सरकार उपयुक्त दण्ड देने में अनुशासनात्मक कार्यवाहियों द्वारा अभियोग लगाने की प्रक्रिया, कारण बताओ नोटिस देकर सुनवाई का अवसर प्रदान करने आदि की प्रक्रिया द्वारा रखा जाता है। अत: नियोजक बैंक एक कानूनी निकाय तथा राज्य की प्रास्थिति रखता है। बैंक ने कर्मचारी को सेवा से निकालने में नियमों एवं नियमनों के उपबन्धों एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन नहीं किया। अत: सामान्य सिद्धान्त का तीसरा अपवाद कि व्यक्तिगत सेवाओं की संविदा का साधारणतया विनिर्दिष्ट पालन नहीं किया जा सकता लागू होगा, अत: कर्मचारी का वाद कि वह निरन्तर सेवा में है तथा उसे सभी पारिणामिक लाभ देय होंगे, पोषणीय होगा 46
शिव कुमार तिवारी (मृतक) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाम जगत नारायण राय तथा अन्य (Shiv Kumar Tiwari (D) by LRs V. Jagat Narain Rai and others)47 के वाद में अपीलार्थी एक कालेज में अस्थायी लेक्चरर नियुक्त किया गया था। जिला इन्सपेक्टर ने उसकी नियुक्ति का अनुमोदन बं के आधार पर किया था। उक्त अनुमोदन 1973 के पश्चात् नहीं दिया गया। तत्परचात् प्रत्यर्थी को शिक्षा विभाग ने लेक्चरर नियुक्त किया। अपीलार्थी ने कालेज के विरुद्ध सिविल वाद किया जिसमें शिक्षा विभाग एवं प्रत्यर्थी को पक्षकार नहीं बनाया। सिविल न्यायालय ने निर्णय द्वारा घोषित किया कि अपीलार्थी कालेज का स्थायी लेक्चरर है। अत: शिक्षा विभाग के सम्बन्धित क्षेत्र के डिप्टी डायरेक्टर ने आदेश पारित किया। सिविल न्यायालय के निर्णय के फलस्वरूप अपीलार्थी कालेज का स्थायी लेक्चरर हो गया तथा प्रत्यर्थी की सेवायें समाप्त की जाती हैं। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सिविल न्यायालय का निर्णय शिक्षा विभाग पर बाध्यकारी नहीं है तथा डिप्टी डायरेक्टर का आदेश अपास्त होने योग्य है। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि अपीलार्थी द्वारा विबंध (estoppel) का तर्क मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के उपबन्धों को ध्यान में रखते हुये सिविल न्यायालय उक्त घोषणा नहीं कर सकता था 48
(3) पर्यवसेय प्रकृति की संविदाएं (contracts which are determinable by their nature)-धारा 14 (1) (ग) के अनुसार वह संविदा जो अपनी प्रकृति से ही पर्यवसेय हो उसका विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता है।
धारा 14 (1) (ग) निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 21 (घ) के समकक्ष है। अत: यहाँ निरासत धारा 21 (घ) का दृष्टान्त उल्लिखित करना वांछनीय होगा क्योंकि इससे वर्तमान धारा 14(1)(ग) को समझना सरल हो जाता है।
44. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 420, 422, 434.
45. ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1173.
46. तत्रैव, पृष्ठ 1176.
47. ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 211.
48. तत्रैव 214-215.
निरसित धारा 21 (घ) का दृष्टान्त निम्नलिखित है-‘क’ तथा ‘ख’ एक कारोबार में साझेदार हो जाते हैं। संविदा में साझेदारी की अवधि स्पष्ट नहीं की गई। इस संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि यदि ऐसा कराया जाय तो ‘क’ या ‘ख’ तत्काल साझेदारी का विघटन कर सकते हैं।
इसी प्रकार ऐसी संविदा का भी विनिर्दिष्टत: पालन नहीं कराया जा सकता जिसका प्रतिसंहरण संविदा के दोनों पक्षकारों में से कोई भी कर सकता है।
उदाहरण के लिये जहाँ कृषि भूमि बेचने का करार गैर-किसान के साथ किया जाता है तथा ऐसा करार अधिनियम के अन्तर्गत अवैध है ऐसे करार के विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान नहीं की जा सकती है।50
(4) ऐसी संविदायें जिनके विनिर्दिष्ट पालन हेतु न्यायालय का पर्यवेक्षण आवश्यक है-धारा 14 (1) (घ) के अनुसार, वह संविदा जिसके पालन में ऐसा सतत कर्तव्य का पालन अन्तर्वलित है जिसका न्यायालय पर्यवेक्षण नहीं कर सकता है।
धारा 14 (1) (घ) निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धारा 21 (छ) के समकक्ष है। धारा 21 (छ) में निम्नलिखित दृष्टान्त दिया गया था
‘क’ स्वयं द्वारा निर्मित रेलवे को ‘ख’ द्वारा उतनी भूमि पर 21 वर्ष तक प्रयोग करने की सीवदा करता है जो ‘ख’ की भूमि से गुजरती है तथा संविदा के अनुसार ‘ख’ पूर्ण रेलवे लाइन को कुछ शर्तों के साथ प्रयोग कर सकता है तथा वह ‘क’ से कह सकता है कि वह इंजन शक्ति प्रदान करे तथा पूर्ण लाइन को ठीक रखे। ‘ख’ के अनुरोध पर इस संविदा के विनिर्दिष्ट पालन को अस्वीकार कर दिया जाना होगा।51
उपर्युक्त दृष्टान्त तथा धारा 14 (1) (घ) से यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय ऐसी संविदा का प्रवर्तन नहीं कराता है जिसमें ऐसे सतत् कर्त्तव्य का पालन अन्तर्वलित होता है जिसके लिये लगातार पर्यवेक्षण आवश्यक होता है तथा साधारणतया न्यायालय कुछ निर्मित करने या मरम्मत करने के विनिर्दिष्ट पालन करवाने का आदेश नहीं देते हैं।52
उदाहरण के लिये, दुर्बल वर्ग के लोगों के लिये शहरी भूमि अधिकतम सीमा अधिनियम की धारा 21 के अन्तर्गत बनायी गई योजना के अनुसार गृह निर्माण के करार के पक्ष प्रवर्तित करने को न्यायालय अस्वीकार कर देगा क्योंकि इसके लिये न्यायालय का निरन्तर पर्यवेक्षण आवश्यक है।53
माध्यस्थम्-माध्यस्थम् के मामले में धारा 14 (2) में उपबन्ध है कि माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 में यथासम्बन्धित के सिवाय वर्तमान या भावी मतभेदों को माध्यस्थम् के लिये निर्देशन करके किसी भी संविदा का विनिर्दिष्ट प्रवर्तन नहीं किया जायगा। परन्तु यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसी संविदा करता है जिसमें ऐसे माध्यस्थम् करार से जिस पर उक्त माध्यस्थम् अधिनियम के उपबन्ध लागू होते हैं भिन्न है तथा उसके पालन से इन्कार कर देता है, किसी ऐसे विषय के बारे में वाद लाए जिसके निर्देशन की उसने संविदा की है, तो ऐसी संविदा का अस्तित्व उस वाद को वर्जित करेगा। इस प्रकार धारा 14 (2) द्वारा वर्जन मा अधिनियम, 1940 के प्रावधानों के अधीन है।
धारा 14 के अपवाद-धारा 14 या तो उन संविदाओं से सम्बन्धित है जो विनिर्दिष्टतः प्रवर्तनीय नहीं हैं परन्तु उपधारा (3) में कुछ अपवाद दिये गये हैं। धारा 14 की उपधारा (3) में वह दशायें दी गई हैं जिनका विनिर्दिष्ट पालन, उपधारा (1) के खण्ड (क) या खण्ड (ग) या खण्ड (घ) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हये भी, का प्रवर्तन कराया जा सकता है। यह दशायें उपधारा (3) के खण्ड (क) से खण्ड (ग) तक दी गई हैं जिनका उल्लेख धारा 14 के उल्लेख के साथ पहले ही किया जा चका कैं।
49. यह. दृष्टान्त स्काट बनाम रेमेन्ट (1868) एल० आर० 7 इक्यू 112 के तथ्यों पर आधारित है।
50. देखें : अश्विनी कुमार मनीलाल शाह बनाम छोटाभाई जेठाभाई पटेल, ए० आई० आर० 2001 गजरा
51. यह दृष्टान्त ब्लैकेट बनाम बेट्स (1865) एल० आर० 1 सी० एच० 117 के तथ्य पर आधारित
52. देखें : रिपब्लिक स्टोर्स (ट्रेडर) बनाम जगजीत इन्डस्ट्रीज लि० 1 सी० डब्ल्यू० एन० 646 सीपीसैकवाड बनाम सावजीभाई हरीभाई पटेल, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1462,
53. महामहिम महारानी शान्तिदेवी पी० गैकवाड़ बनाम सावजीभाई हरीभाई पटेल. ए० आई० आ 1479.
वे व्यक्ति जिनके पक्ष में या विरुद्ध संविदायें विनिर्दिष्ट प्रवर्तित की जा सकेंगी कौन विनिर्दिष्ट पालन अभिप्राप्त कर सकेगा (Who may obtain specific performance)-धारा 15 के अनुसार, इस अध्याय अर्थात् विनिर्दिष्ट अन्तोष अधिनियम, 1963 के भाग 2 के अध्याय 2 में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय किसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन निम्नलिखित व्यक्तियों द्वारा अभिप्राप्त किया जा सकेगा
(क) उनमें से किसी भी पक्षकार द्वारा,
(ख) उनमें से किसी भी पक्षकार के हित-प्रतिनिधि या मालिक द्वारा।
परन्तु जहाँ कि ऐसे पक्षकार की विद्वत्ता, कौशल, शोधनक्षमता या कोई वैयक्तिक गुण संविदा का सारवान अंग है या जहाँ कि संविदा यह उपबन्ध करती है कि उसका हित समनुदेशित नहीं किया जायगा, वहाँ उसका हित-प्रतिनिधि उसका मालिक संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराने का हकदार न होगा, जब तक कि ऐसे पक्षकार ने संविदा के अपने भाग का विनिर्दिष्ट पालन पहले ही न कर दिया हो या उसके हितप्रतिनिधि या मालिक द्वारा किया गया पालन दूसरे पक्षकार द्वारा पहले ही प्रतिगृहीत न किया जा चुका हो,
(ग) जहाँ कि संविदा विवाद पर का व्यवस्थापन या एक परिवार के सदस्यों के मध्य संदेहपूर्ण अधिकारों का कोई समझौता हो, वहाँ तदधीन लाभ पाने का हकदार किसी भी व्यक्ति द्वारा,
(घ) जहाँ कि किसी आजीवन द्वारा किसी शक्ति के प्रयोग में कोई संविदा की गई हो, वहाँ शेष भोगी द्वारा,
(ङ) सकब्जा उत्तरभोगी द्वारा जहाँ कि करार ऐसी प्रसंविदा है जो उसके हक पूर्वाधिकारी के साथ की गई हो और उत्तरभोगी उस प्रसंविदा के लाभ का अधिकारी हो,
(च) शेष के उत्तरभोगी द्वारा, जहाँ कि करार वैसी प्रसंविदा है, और उत्तरभोगी उसके लाभ का हकदार है। उसके भंग के कारण सारवान क्षति उठाएगा,
(छ) जबकि किसी कम्पनी ने संविदा की हो और तत्पश्चात् वह किसी दूसरी कम्पनी में समामेलित हो गई हो, तब उस समामेलन से उद्भूत नई कम्पनी द्वारा,
(ज) जबकि किसी कम्पनी के सम्प्रवर्तकों ने उसके निगमन से पहले, कम्पनी के प्रयोजनों के लिये कोई संविदा की हो और संविदा के निबन्धनों द्वारा समर्थित हो तब उसे कम्पनी द्वारा :
परन्तु यह तब जब कि कम्पनी ने संविदा को प्रतिगृहीत कर लिया हो और संविदा के दूसरे पक्षकार को ऐसा प्रतिग्रहण संसूचित कर दिया हो।
उपर्युक्त धारा निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 23 के समकक्ष है तथा दोनों धाराओं में शाब्दिक परिवर्तन के सिवाय कोई परिवर्तन नहीं है तथा विधि वही है। धारा 15 पक्षकारों के उन प्रकारों का उल्लेख करती है जो संविदा के आधार पर वाद कर सकते हैं। इसमें विनिर्दिष्ट पालन के उपाय से सम्बन्धित कोई नया सिद्धान्त नहीं आता है।
जहाँ कि पिता ने कर्ता के रूप में पैतृक सम्पत्ति के विक्रय की संविदा की है तथा विक्रय विलेख के निष्पादन के समय भावी क्रेता यह माँग करता है कि अवयस्क पत्र को सम्मिलित किया जाय क्योंकि उसे संविदा से लाभ पहुँचा है तो यह माँग अयुक्तियुक्त नहीं है क्योंकि सम्पत्ति पैतृक था तथा भा ने पिता के विरुद्ध डिक्री प्राप्त कर रखी थी, उसे बचाने के लिये संविदा से प्राप्त अग्रिम धन से उसका भुगतान किया था। क्रेता ऐसी परिस्थितियों में विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी होगा तथा अग्रिम धन की वापसी के वैकल्पिक अनुतोष के दावे से विनिर्दिष्ट पालन के अनुतोष पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।54
हबीबा खातून बनाम उबैदुल हक (Habiba Khatun v. Ubaidul Haq)55 के वाद में मल विक्रेता ने एक गह-सम्पत्ति बेचने के लिये क्रेता के साथ एक करार किया तथा उसी दिन उक्त सम्पत्ति के
54. बी० एक्स० जोसेफ बनाम टी० पशुपति, ए० आई० आर० 1994 मद्रास 193, 201.
55. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 3236.
प्रतिहस्तान्तरण (reconveyance) का भी एक करार निष्पादित किया। प्रतिहस्तान्तरण के करार के अनुसार, यदि मूल विक्रेता क्रेता को विक्रय के करार का प्रतिफल तीन वर्षों के भीतर देता है तो क्रेता उसे उक्त सम्पत्ति वापस कर देगा। यदि मूल विक्रेता की उक्त अवधि के भीतर मृत्यु हो जाती है तो मूल विक्रेता के ‘केवल’ पुत्र तथा उसके बच्चे उक्त अवधि के भीतर सम्पत्ति वापस प्राप्त करने के अधिकारी होंगे तथा यह अधिकार मूल विक्रेता के अन्य उत्तराधिकारियों को प्राप्त नहीं होगा; परन्तु इस अवधि के दौरान यदि मूल विक्रेता के पुत्र तथा उनके बच्चे जीवित नहीं रहते हैं उस दशा में मल विक्रेता के अन्य उत्तराधिकारियों को सम्पत्ति वापस प्राप्त करने का अधिकार होगा। मूल विक्रेता की मृत्यु उक्त तीन वर्षों की अवधि के भीतर हो गई। तत्पश्चात् मूल विक्रेता के लड़के ने अपना अधिकार एक तीसरे व्यक्ति या अजनबी को समनुदेशित कर दिया। इस अजनबी या तीसरे व्यक्ति ने विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद किया। अतः न्यायालय के सम्मुख प्रश्न यह था कि क्या मूल विक्रेता के पुत्र को व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त हो गया था जिससे वह अपने अधिकार को किसी अजनबी को समनुदेशित कर सकता था।
परीक्षण न्यायालय, अपीलीय न्यायालय तथा उच्च न्यायलय ने प्रतिहस्तान्तरण के दस्तावेज का यह निर्वचन किया कि शब्द ‘केवल’ से यह पता चलता है कि मूल विक्रेता (अमीर जहाँ बेगम) की तीन वर्षों के अन्तर्गत मृत्यु होने पर उनके लड़के (इरफान हसन खाँ) उसके बाद उनके बच्चों को अन्य उत्तराधिकारियों की अपेक्षा वरीयता दी गई थी तथा उनके जीवित न रहने पर अन्य उत्तराधिकारियों को प्रतिहस्तान्तरण का अधिकार मिलता। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह मत सत्याभासी (Plausible) प्रतीत होता है।56
अपीलार्थी का यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि केवल शब्द से यह पता लगता है कि प्रतिहस्तांतरण का अधिकार कुछ चुने हुये व्यक्तियों को दिया गया था। अर्थात् यह एक शुफा या अग्रकयाधिकार (preemption) की योजना की ओर संकेत करता है तथा शुफा के अधिकार का उपभोग इन्हीं चुने हुए व्यक्तियों द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जा सकता था तथा उन्हें समनुदेशित करने का अधिकार नहीं था। इस तर्क को स्वीकार न करने का कारण स्पष्ट है। जहाँ तक मूल विक्रेता का सम्बन्ध था, उसे तीन वर्षों के भीतर प्रतिहस्तान्तरण का अधिकार था। यदि वह इस अधिकार का प्रवर्तन कराता तो वह पूर्ण स्वामी के रूप में अधिकार के प्रवर्तन के पश्चात् सम्पत्ति को अजनबी के हाथ बेच सकती थी। यदि मूल विक्रेता की मृत्यु हो जाती तो उक्त तीन वर्षों के भीतर उसके बच्चे इस अधिकार का प्रवर्तन करा सकते थे तथा दस्तावेज में ऐसा कुछ भी नहीं था जो उन्हें सम्पत्ति को समनुदेशित कराने से रोक सकता था। अत: पूर्ण दस्तावेज का अध्ययन करने से यह नहीं कहा जा सकता है कि ‘केवल’ शब्द के कारण मूल विक्रेता के उत्तराधिकारियों को केवल व्यक्तिगत अधिकार ही प्राप्त हुआ जिसका वह हस्तान्तरण नहीं कर सकते। अत: मूल विक्रेता के लडके द्वारा प्रतिहस्तान्तरण करने के अधिकार का समनदेशित करना वैध था।57
उपर्युक्त धारा 15(ख) के उपबन्धों के अन्तर्गत विनिर्दिष्ट पालन कोई भी पक्षकार या उनका हितप्रतिनिधि करा सकता है। “कोई भी पक्षकार” अभिव्यक्ति में स्पष्टतया संविदा के पक्षकार के अन्तरिती तथा समनदेशिती जिनके पक्ष में अधिकार विद्यमान है, सम्मिलित है। परन्तु धारा 15 (ख) के परन्तुक में ऐसा विनिर्दिष्ट पालन का अधिकार उपलब्ध नहीं है जहाँ संविदा में यह उपबन्ध है कि हित को समनदेशित नहीं किया जायेगा। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने हाल के वाद श्याम सिंह बनाम दर्याओ सिंह (मृतक) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा (Shyam Singh v. Daryao Singh (dead) by L.Rs)58 में दिया। उच्चतम यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि जब तक दस्तावेजों में ऐसे शब्द या अभिव्यक्ति न हो जिनसे समनदेशित करने या पुनर्विक्रय के अधिकार के अन्तरण की निषिद्धि हो तथा धारा 15 (ख) के स्पष्ट शब्दों को ध्यान में रखते हये दस्तावेजों में परिलिक्षित निषिद्धि नहीं पढ़ी जा सकती है। केवल इस कारण कि दस्तावेजों में पक्षकारों के उत्तराधिकारी का उल्लेख है परन्तु समनुदेशिती या अन्तरिती का उल्लेख नहीं है।
56. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 3240.
57. तत्रैव पृष्ठ 3240-3242.
58. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 348. 351.
अतः अधिनियम के अन्तर्गत मूल संविदा-पक्षकार के हित हेतु उपलब्ध समनुदेशित करने का विधिक अधिकार की उपलब्धता से इन्कार नहीं किया जा सकता 59
अनुतोष का वैयक्तिक वर्जन (Personal bars to relief) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 16 के अनुसार-संविदा का विनिर्दिष्ट पालन किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में नहीं कराया जा सकता
(क) जो उसके भंग के लिये प्रतिकर वसूल करने का हकदार नहीं है, अथवा
(ख) जो संविदा के किसी मर्मभूत निबन्धन का, जिसका उसकी ओर से पालन किया जाना शेष है, पालन करने में असमर्थ हो गया है, या उसका अतिक्रमण करता है, या संविदा के प्रति कपट करता है अथवा जान-बूझकर ऐसा कार्य करता है जो संविदा द्वारा स्थापित किये जाने के लिए आशयित संबंध का विसंवादी है, अथवा
(ग) जो यह प्रकथन तथा सिद्ध करने में असफल रहता है कि उसने संविदा के उन निबन्धनों से
भिन्न जिनका पालन प्रतिवादी द्वारा निवारित किया गया है, ऐसे मर्मभूत निबन्धनों का, जो उसके द्वारा पालन किये जाते हैं, उसने पालन किया है अथवा पालन करने के लिये, वह सदा तैयार तथा रजामंद या इच्छुक रहा है।
स्पष्टीकरण-खण्ड (ग) के प्रयोजनों के लिये
(i) जहाँ कि संविदा में धन का संदाय अन्तर्ग्रस्त हो, वादी के लिये आवश्यक नहीं है कि वह प्रतिवादी को किसी धन का वास्तव में निविदान करे या न्यायालय में निक्षेप करे कि सिवाय जबाक न्यायालय ने ऐसा करने का निदेश दिया हो.
(i1i) वादी को यह प्रकथन करना होगा कि संविदा का उसके शुद्ध अर्थान्वयन के अनुसार पालन कर चुका या पालन करने को तैयार और इच्छुक है।
धारा 16 निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धारा 24 के समकक्ष है। निरसित धारा 24 में निम्नलिखित दृष्टान्त थे(-
क) ‘क’ ‘ख’ का एजेन्ट या अभिकर्ता है। वह ‘ग’ से उसका मकान खरीदने का करार करता है परन्तु वह ऐसा एजेन्ट के रूप में न करके अपनी ओर से करता है। ‘क’ इस संविदा का विनिर्दिष्ट पालन नहीं करा सकता है।
(ख) ‘क’ ‘ख’ को एक मकान बेचने का विनिर्दिष्ट वार्षिक किराये पर उसी मकान के विक्रय की तारीख से 15 वर्ष तक रहने का करार करता है, ‘क’ दिवालिया हो जाता है। न तो ‘क’ तथा न ही उसका समनुदेशिती (assignee) ही उक्त संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन करा सकता है |
(ग) ‘क’ ‘ख’ को एक मकान बेचने, जिसमें अलंकरण (Ornamental) पेड़ है, की संविदा करता है। निवास के रूप में अलंकरण पेड सम्पत्ति की कीमत में एक सारवान तत्व है। ‘क’ ‘ख’ की सम्मति प्राप्त किये बिना उक्त पेड़ काट लेता है। ‘क’ उक्त संविदा का विनिर्दिष्ट पालन नहीं करवा सकता है।
(घ) ‘क’ ‘ख’ से कुछ भूमि पट्टे पर लेता है। ‘क’ भूमि को कूड़ाकरकट (waste) के समान प्रयोग करता है अथवा भूमि का बहुत खराब प्रयोग करता है। ‘क’ उक्त संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन नहीं करवा सकता है।
(ङ) ‘क’ ‘ख’ को एक अपूर्ण बने मकान को किराये पर देने की संविदा करता है। ‘क’ साथ में यह भी करार करता है, कि वह उक्त गृह को पूरा बनवा देगा तथा ‘ख’ यह स्वीकार करता है |
59. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० पृष्ठ 352; टी० एम० बालाकृष्णा बनाम एम० सत्य नारायण, ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 2449; हबीबा बनाम उबैदुल हक, ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 3236.
कि वह मकान की मरम्मत करवाता रहेगा। ‘क’ मकान के निर्माण को बड़े ही दोषपूर्ण ढंग से पूरा करता है। ‘क’ संविदा का विनिर्दिष्टत: पालन नहीं करवा सकता है। परन्तु ‘क’ तथा ‘ख’ दोनों ही एक दूसरे के विरुद्ध प्रतिकर के लिये वाद कर सकते हैं।
धारा 16 के अनुसार, संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में नहीं कराया जा सकता है जो यह प्रकथन करने तथा सिद्ध करने में असफल रहता है कि वह संविदा के मर्मभूत निबन्धनों का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक (Ready and willing) है। संविदा के मर्मभूत निबन्धनों का पालन करने के लिये तैयार तथा इच्छुक रहने का प्रकथन केवल उन्हीं मामलों में आवश्यक है जहाँ वादी पहले से ही संविदा के अपने भाग का पालन कर दिया है। जहाँ वादी के लिये कोई संविदात्मक दायित्व शेष नहीं रहता है, वादी द्वारा उक्त प्रकथन करने में असमर्थ रहने का कोई कानूनी परिणाम नहीं होगा।60 ‘तैयार तथा इच्छुक’ शब्दों से तात्पर्य यह है कि वादी संविदा के उन भागों को जो उसके पालन पर निर्भर करते हैं, पालन करने को तैयार था। वादी द्वारा पालन किये जाने के संविदा के निबन्धन दो प्रकार के हो सकते हैं
(i) जिनका पालन दूसरे पक्ष द्वारा वचन को पूरा किये जाने के पूर्व किया जाना है, तथा
(ii) जिनका पालन दूसरे पक्ष द्वारा वचन पूरा किये जाने या पालन किये जाने के पश्चात् होना है। जहाँ, वादी ने विक्रय धन या प्रतिफल से अधिक धन बैंक में जमा कर दिया है तथा न तो प्रतिवादी ने इस मामले में कोई पूँछताछ या जाँच की तथा न ही न्यायालय ने वादी से पासबुक दिखाने को कहा, यह प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि वादी संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक’ या रजामन्द नहीं था।61
जहाँ किसी वाद में वादी ने प्रतिहस्तांतरण की प्रसंविदा के विनिर्दिष्टत: पालन के लिये वाद किया परन्तु उसमें यह प्रकथन नहीं किया कि वह संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक है, वादी विनिर्दिष्टत: पालन की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने अब्दुल खादेर रोथर बनाम पी० के० सारा भाई (Abdul Khader Rowther v. P. K. Sara Bhai)62 के वाद में दिया।
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 16 के अन्तर्गत विनिर्दिष्टतः पालन की डिक्री प्राप्त करने लये पक्षकारों के मध्य वैध तथा प्रवर्तनीय संविदा सिद्ध करना आवश्यक है। वैध तथा प्रवर्तनीय संविदा की अनुपस्थिति में विनिर्दिष्टत: पालन की डिक्री पारित नहीं की जा सकती है।63
जहाँ सम्पत्ति के विक्रय में क्रेता को शेष धन का भुगतान करता है तथा विक्रेता उसे अनुबद्ध समय के भीतर भुगतान करने की नोटिस देता है, इस नोटिस से समय संविदा का सार हो जाता है। क्रेता भुगतान करने कल रहता है। तत्पश्चात यदि क्रेता विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद करता तो वह विनिर्दिष्टतः पालन की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है।64
विनिर्दिष्टतः पालन के वाद में यदि क्रेता कोर्ट-फीस कम लगाता था तो उससे अस्वच्छ (unclean) आशय का संकेत नहीं मिलता है तथा वाद-पत्र के लौटाये जाने पर यदि क्रेता एक दिन के अन्दर पूर्ण कोर्टफीस जमा कर देता है तो इससे यह सिद्ध होता है कि वह संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक है।65
भाग 16 (ग) के उपबन्ध इस मामले में कठोर हैं कि यदि वादी वाद में यह प्रकथन नहीं करता है कि वह संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार तथा रजामन्द या इच्छुक है तो वह विनिर्दिष्टतः पालन
60. टेखें . त्रिम्बक शंकर तिडके ऐण्ड कं० बनाम निवराती शंकर तिडके, ए० आई० आर० 1985 बम्बई 128.
61 श्रीमती इन्दिरा कौर बनाम शिवलाल कपूर, ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1074, में न्यायालय ने मुसम्मात रामरती औराबनाम दारिका सिंह, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1134 में घोषित विधि का अनुसरण किया।
62. आई० आर० 1990 एस० सी० 682, 684; उच्चतम न्यायालय ने ओसेफ वर्षीस बनाम जोसेफ अली. (1969)2 एस० सी० सी० 539, 543 में दिये गये निर्णय का अनुसरण किया।
63. सोहन लाल बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर० 1991 एस० सी० 955.95507 बनाम नागबन्दी वेंकट नरसिआ, ए० आई० आर० 1994 आन्ध्र प्रदेश 220, 254-255.
64. समनेरी वेन्कटेश्वरुलू बनाम नागबन्दी वेंकट नरसिआ, ए० आई० आर० 1000
65. ए० आई० आर० 1994 आन्ध्र प्रदेश 244.
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