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LLB 1st Year Semester Remedies for Breach of Contract Notes

 

LLB 1st Year Semester Remedies for Breach of Contract Notes:- Hello Friends LLB law of Contract 1 (6th Edition) Chapter 13 Remedies for Breach of Contract के Notes हम आपको अपनी वेबसाइट के माध्यम से Free पढ़ने के लिए दे रहे है जिसे हमने LLB 1st Semester / 1st Year 2019 2020 Exam / Question Papers के लिए तैयार कर रहे है जिसे आपको अच्छे से पढ़ना है | LLB 1st Year Notes and Study Material Question Paper in PDF Download करने के लिए हमें कमेन्ट करे |

 

अध्याय 13 (Chapter 13 LLB Notes Study Material)

संविदा के उल्लंघन के लिए उपचार (REMEDIES FOR BREACH OF CONTRACT)

बिना उपचार के अधिकार का कोई महत्व नहीं होता। अतः विधि में किसी भी अधिकार के उल्लंघन के लिए उपचार का प्रावधान होना चाहिये। संविदा विधि के लिए भी यही बात उपयुक्त है। संविदा विधि से सम्बन्धित कोई भी पुस्तक संविदा के उल्लंघन के उपचार की विवेचना के बिना अपूर्ण रहेगी। अत: इस अध्याय में भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अध्याय 6 में उल्लिखित उपचार का संक्षेप में विवेचन करने की चेष्टा की गई है।

ऐन्सन (Anson)1 के अनुसार, संविदा के उल्लंघन के उपचारों को निम्नलिखित 3 शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है

(1) नुकसान (Damages),

(2) क्वान्टम मैरियट (Quantum Meruit),

(3) विशिष्ट पालन तथा व्यादेश (Specific Performance and Injunction) ।

नुकसान (Damages)-नुकसान के लिए अधिकार स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह उपदर्शित करना आवश्यक है कि संविदा के उल्लंघन से उसे हानि हुई है। परन्तु यदि वह यह सिद्ध भी कर लेता है तो विधि प्रतिवादी को उसकी हुई प्रत्येक हानि को देने को बाध्य नहीं करेगी। कुछ ऐसी हानियाँ होती हैं जो दूरस्थ होती हैं और जिनके लिए वादी को प्रतिकर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

अतः इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम नुकसान की दूरस्थता की विवेचना करना वांछनीय होगा।

नुकसान की दूरस्थता (Remoteness of Damages)-जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि संविदा के उल्लंघन से हुई प्रत्येक हानि की पूर्ति करने के लिए वादी उत्तरदायी नहीं है। इस सम्बन्ध में सामान्य सिद्धान्त यह है कि वादी उन नुकसानों को पूरा करने के लिये उत्तरदायी नहीं है जो कि दूरस्थ हैं। इस सम्बन्ध में हैडले बनाम बैक्सनडेल (Hadley v. Baxendale)3 में न्यायाधीश एल्डरसन (Alderson, J.) ने विधि प्रतिपादित की थी।

इस वाद में वादी की मिल धुरे के टूट जाने से बन्द हो गयी थी। अतः वह धुरे को ग्रीनविच भेजना चाहता था जिससे कि उसको देखकर एक वैसा ही नया धुरा बना सके। वादी ने उक्त धुरे को प्रतिवादी, जो कि सामान्य वाहक था, को ग्रीनविच ले जाने के लिए दिया। प्रतिवादी को केवल यह बताया गया कि उसके द्वारा ले जाने वाली वस्तु मिल का टूटा हुआ धुरा है तथा वादी मिल का स्वामी है। प्रतिवादी ने उक्त वस्तु को ग्रीनविच निर्माता के पास देने में अपनी उपेक्षा द्वारा विलम्ब कर दिया। वादी को कई दिनों तक नया धुरा बन कर नहीं मिल पाया और इसके परिणामस्वरूप उन्हें उन लाभों की हानियाँ हुईं, जो कि वह इन दिनों में अन्यथा अर्जित करता। अत: उन्होंने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया। प्रतिवादी का तर्क था कि वह उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि नुकसान दूरस्थ था। एक्सचेकर के कोर्ट (Court of Exchequer) ने पुनरीक्षण का आदेश इस आधार पर दिया कि जूरी (Jury) को गलत निदेश दिया गया था। न्यायाधीश ने निर्णय देते हुये कहा कि जब दो पक्षकारों ने संविदा की है और उनमें एक उसका उल्लंघन करता है तो उल्लंघन के परिणामस यह नुकसान दिया जाना चाहिये जो कि उचित तथा युक्तियुक्त रूप से सोचे जा सकते हैं कि या तो वह

1. ऐन्सन्स ला आफ कन्ट्रैक्ट, 23वाँ संस्करण, पृ० 505.

2. तत्रैव, पृ० 505-6.

3. (1845) 9 ऐक्सचेकर 381.

प्राकृतिक रूप से हुए अथवा जब पक्षकारों ने संविदा की थी तो उनकी पूर्वकल्पना में ऐसा नुकसान था। न्यायालय के शब्दों में

“Where two parties have made a contract which one of them has broken the damages which the other party ought to receive in respect of such breach of contract should be such as may fairly and reasonably be considered either arising naturally, it, according to the usual course of things, from such breach of contract itself, or such as may reasonably be supposed to have been in contemplation of both parties, at the time they made the contract, as the probable result of the breach of it.”4

प्रस्तुत वाद में उपर्युक्त सिद्धान्त को लागू करते हुए न्यायालय ने कहा कि मान लिया जाय कि वादी के पास कोई दूसरा धुरा होता तो स्पष्ट था कि ऐसी दशा में उन्हें हानियाँ न हुई होती, या जिस समय उन्होंने उसको धुरा भिजवाया था, उस समय मिल में कोई अन्य खराबी हो सकती थी। जब तक कि प्रतिवादी को वह विशेष परिस्थितियाँ न बताई जायँ, जिनमें कि नुकसान हो सकता है, प्रतिवादी दूरस्थ नुकसान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

हैडले बनाम बैक्सनडेल के वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त में निम्नलिखित दो शाखायें हैं-

(क) पहली शाखा उन नुकसानों से सम्बन्धित है जो कि प्राकृतिक रूप से या वस्तु के प्रायिक (usual) क्रम में हुआ करती हैं। इन्हें हम सामान्य नुकसान (General Damages) कह सकते

(ख) दूसरी शाखा उन नुकसानों से सम्बन्ध रखती है जो कि संविदा करते समय पक्षकारों के पूर्व कल्पना में थी। इन्हें विशेष नुकसान (Special Damages) कह सकते हैं।

सामान्य नुकसानी (General Damages)-सामान्य नुकसान पक्षकारों के उस ज्ञान पर निर्धारित करता है जो कि उन्हें संविदा करते समय होता है। उदाहरण के लिए, हैडले बनाम बैक्सनडेल’ में वादी ने प्रतिवादी को केवल यह परिस्थितियाँ बताई थीं कि जो वस्तु वह ले जा रहा है, वह मिल का टूटा हुआ धुरा है तथा वादी उस मिल का मालिक है। चूंकि प्रतिवादी को केवल यह ज्ञान था; अतः वादी संविदा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप प्रतिवादी से केवल सामान्य नुकसान प्राप्त कर सकता था।

इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रमुख वाद हार्न बनाम मिडलैण्ड रेलवे कम्पनी (Horne v. Midland Railway Company)7 है।

इस वाद में एक संविदा के अन्तर्गत वादी को एक विशिष्ट दिन फ्रांसीसी सेना के लिए लन्दन में सैनिक जूते परिदत्त करने थे। वादी ने उक्त जूतों को ले जाने के लिए प्रतिवादी को नियुक्त किया तथा उसे जूते लन्दन पहुँचाने के लिए परिदत्त कर दिये। प्रतिवादी ने उन जूतों को पहुँचाने में विलम्ब कर दिया; अतः क्रेता ने उन जूतों को लेने से इन्कार कर दिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध साधारण हानि तथा उस नुकसान के लिए भी दावा किया जो कि उन्हें उन जूतों के अस्वीकार होने से हुई। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी प्रतिवादी से वह विशेष हानियाँ प्राप्त नहीं कर सकते थे जो कि उन्हें जूतों को अस्वीकार करने से हुई। ऐसी हानियों को प्राप्त करने के लिए उन्हें यह सिद्ध करना चाहिये कि उन्होंने प्रतिवादी को उन विशेष हानियों के बारे में सूचित कर दिया था जो कि उन्हें जूतों के विलम्ब से परिदान किया जाने से हो सकती थीं।

दृष्टान्त

रतलाम में फैक्ट्री लगाने हेतु कुछ मशानरी के बक्से वादी ने जहाज द्वारा भेजे जाने के लिए प्रतिवादी को परिदत्त किये। प्रतिवादी उक्त बक्सों में से एक को पहुंचाने में असफल रहा परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि उक्त डिब्बे में मशीनरी का कोई बहुत महत्वपूर्ण भाग था जिसके बिना फैक्ट्री खड़ी नहीं की जा सकती

4. हैडले बनाम बैक्सनडेल, (1845)9 ऐक्स चेकर 381, पृ० 354.

5. ऐन्सन, नोट 1, पृ० 509.

6. देखें नोट 3.

7. (1873) एल० आर० 8 सी० पी० 131.

थी। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध न केवल मशीनरी के उक्त भाग के खोने के लिए नुकसानी प्राप्त करने हेतु वरन् कार्य के बन्द रहने से होने वाली हानि के लिए भी नुकसानी प्राप्त करने का वाद किया।

वादी मशीनरी के खोये भाग की कीमत तथा कछ सामान्य नुकसानी ही प्रतिकर के रूप में प्राप्त कर सकता है। वह विशेष नुकसानी अर्थात् कार्य बन्द होने से होने वाली हानि के लिए प्रतिकर प्राप्त नहीं कर सकता है। इस सम्बन्ध में हैडले बनाम बैक्सेनडेल का वाद तथा धारा 73 एवं दृष्टान्त (त) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हैडले बनाम बैक्सनडेल की विवेचना ऊपर की गई है तथा धारा 73 तथा उसके दृष्टान्त नीचे दिये गये हैं।

विशेष नुकसान (Special Damages)-विशेष नुकसान केवल उसी दशा में प्राप्त किये जा सकते हैं जब कि वादी तथा प्रतिवादी ने संविदा करते समय उसकी पूर्वकल्पना कर ली थी। इस सम्बन्ध में सिम्पसन बनाम लन्दन नार्थ रेलवे कम्पनी (Simpson v. London North Railway Company) का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं

वादी बहुधा अपनी वस्तुओं के नमूने प्रदर्शन हेतु कृषि प्रदर्शनियों में भेजा करते थे। बेडफोर्ड (Bedford) में अपनी वस्तु को प्रदर्शित करने के उपरान्त उसे न्यू कासिल (New Castle) में प्रदर्शित किये जाने के लिए न्यू कासिल पहुँचाने हेतु प्रतिवादी कम्पनी को दिया तथा उसे निर्देश दिया कि उक्त वस्तु न्यू कासिल (New Castle) निश्चित रूप से सोमवार तक पहुँच जाना चाहिये। प्रतिवादी कम्पनी की उपेक्षा से वस्तु के नमूने देर से पहुंचे तथा वह न्यू कासिल की प्रदर्शनी में प्रदर्शित नहीं किये जा सके। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वस्तु को न्यू कासिल की प्रदर्शनी में प्रदर्शित न किये जाने से हुई हानि प्राप्त करने के लिए वाद किया। इस वाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि कम्पनी उक्त हानि के लिए उत्तरदायी है, क्योंकि कम्पनी इस बात को जानती थी कि विलम्ब होने से वादी को नुकसान हो सकता था।

इस सम्बन्ध में एक अन्य उल्लेखनीय वाद विक्टोरिया लान्डी (विन्डसर) लिमिटेड बनाम न्यूमैन इन्डस्ट्रीज लिमिटेड (Victoria Laundry (Windsor) Ltd. v. Newman Industries Limited) है।

इस वाद में वादी कपड़ों को धोने वाले तथा रँगने वाले थे तथा अपने कारोबार का विस्तार करना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने एक नया बायलर (Boiler) खरीदने के लिए प्रतिवादी से संविदा की। प्रतिवादी ने बायलर को 5 जून तक परिदत्त करने का करार किया, परन्तु वह बायलर का परिदान नवम्बर में कर पाये। अत: वादी ने इस विलम्ब के परिणामस्वरूप हुई उन लाभों की हानियों के लिए वाद किया जो उन्होंने उतने दिनों में अर्जित किया होता। न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुये कहा कि प्रतिवादी संविदा करते समय यह जानता था कि वादी को बायलर की तुरन्त आवश्यकता थी तथा उसके परिदान में विलम्ब होने से वादी को नुकसान हो सकता था।

पूर्वकल्पना का मापदण्ड (Test of Foreseeability) उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि हैडले बनाम बैक्सनडेल में प्रतिपादित नियम की दो शाखायें हैं। विक्टोरिया लान्डी (विन्डसर) लिमिटेड बनाम न्यूमैन इन्डस्ट्रीज लि010 में इन दोनों शाखाओं के पारस्परिक सम्बन्धों को उपदर्शित करने का प्रयास किया गया है। परन्तु अब यह अन्तिम रूप से स्वीकार किया जाता है कि सार में दोनों शाखायें एक ही सामान्य नियम को प्रतिपादित करती हैं।11 यह सामान्य नियम पूर्वकल्पना के नियम कहे जा सकते हैं। प्रभावित पक्षकार केवल उसी हानि को प्राप्त करने का अधिकारी है जो कि संविदा करते समय संविदा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप हुई हो, जिसकी पूर्वकल्पना की जाती थी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि पक्षकारों को उस समय इस विषय में कितना ज्ञान था।12

* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 4 (ग)।

8. (1876) 1 क्यू० बी० डी० 274.

9. (1949) 2 के० बी० 528.

10. (1949) 2 के० बी० 528.

11. देखें : कौफेस बनाम सी० जारनिकोव लि०, 3 डब्ल्यू० एस० आर० 1491, 1502.

12. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 508.

भारतीय विधि-भारत में इस सम्बन्ध में विधि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 73 में वर्णित है। धारा 73 के अनुसार-

“जब कि कोई संविदा भंग कर दी गई है तब वह पक्षकार, जो कि ऐसी भग्नता से पीड़ित होता है, उस पक्षकार से, जिसने संविदा भंग की है, अपने को उस भग्नता से हुई किसी ऐसी हानि या नुकसान के लिए, जो कि ऐसी घटनाओं के प्रायिक अनुक्रम में प्रकृत्या ऐसी भग्नता से उद्भूत हुई अथवा जिसके बारे में पक्षकार उस समय जब कि संविदा की गई थी, यह जानते थे कि संविदा-भंग का सम्भाव्य फल वह हानि या नुकसान होगा, प्रतिकर पाने का हकदार है।

उपर्युक्त प्रावधान से यह स्पष्ट है कि संविदा अधिनियम के निर्माताओं ने हैडले बनाम बैक्सनडेल13 में प्रतिपादित नियम को पूर्ण रूप से अपनाया है। धारा 73 का एक विशेष गुण यह है कि इसमें अधिक संख्या के दृष्टान्त दिये हुए हैं जो कि इस नियम को बिल्कुल स्पष्ट कर देते हैं और सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रखते। धारा 73 की परिधि में संविदा द्वारा सृजित आभार से मिलते-जुलते हुए आभार का निर्वहन करने में असफलता के प्रतिकर-सम्बन्धी नियम को शामिल किया गया है। इसके अनुसार

“जब कि संविदा द्वारा सृजित आभारों के सदृश कोई आभार उपागत कर लिया गया है और उसका निर्वहन नहीं किया गया है तब उसका निर्वहन करने में असफलता से क्षत कोई व्यक्ति, चूक करने वाले पक्षकार से वैसे ही प्रतिकर पाने का हकदार है मानों कि ऐसे व्यक्ति ने उस आधार का निर्वहन करने की संविदा की थी और उसने अपनी उस संविदा को भंग किया है।”

अत: उपचार की दृष्टि से संविदा तथा संविदा-सदृश (Quasi-Contract) में कोई अन्तर नहीं रखा गया है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि धारा 73 का एक विशेष गुण यह है कि इसमें अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं। यदि कोई वाद इन दृष्टान्तों के अन्तर्गत आ जाता है तो न्यायालय उसे इसके अनुसार निर्णीत करते हैं। उदाहरण के लिए, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा करनदास एच० थैकर बनाम मेसर्स सरन इन्जीनियरिंग कम्पनी लिमिटेड (Karandas H. Thacker v. M/s Saran Engineering Company Limited)14 नामक वाद में न्यायालय ने दृष्टान्त (2) का हवाला देते हुये अपना निर्णय दिया था। इसी प्रकार हाल के एक वाद तलचर कोलफील्ड्स लि० बनाम सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लि० (Talchar Coalfields Ltd. v. Central Coalfields Ltd.)15 में निर्णय दृष्टान्त (ढ) [Illustration (n)] के आधार पर दिया गया है। धारा 73 में दिये गये दृष्टान्त निम्नलिखित हैं-

दृष्टान्त-(क) क, संविदा करता है कि वह किसी कीमत पर ख को 50 मन शोरा बेचेगा और परिदत्त करेगा और परिदान करने पर कीमत दी जायेगी। क अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देता है। ख, प्रतिकर के रूप में क से उतनी राशि, यदि कोई हो, पाने का हकदार है जितनी से कि संविदा वाली कीमत उस कीमत से कम है जितनी पर कि ख समान प्रकार का 50 मन शोरा उस समय अभिप्राप्त कर ले सकता था जिस समय कि वह शोरा परिदत्त किया जाना चाहिये था।

(ख) क, ख के पोत को बम्बई जाने और वहाँ पहली जनवरी को क द्वारा उपबन्धित किये जाने वाले नौपण्य को भरने और कलकत्ते लाने के लिए अवक्रय कर लेता है। वस्तु भाड़ा तब दिया जाना है जबकि वह उपार्जित हो गया हो। ख का पोत बम्बई नहीं जाता, किन्तु वैसे ही प्रलाभप्रद निर्बन्धनों पर जैसों पर कि क ने वह पोत अवक्रय पर लिया था, उस नौपण्य के लिए उपयुक्त प्रवहण यान उपाप्त करने के अवसर प्राप्त हैं। क इस अवसर का सदुपयोग करता है किन्तु उसे वैसा करने में कष्ट और व्यय उठाना पड़ता है। क ऐसे कष्ट और व्यय के लिए ख से प्रतिकर पाने का हकदार है।

* पी० सी० एस० (जे) (1991) प्रश्न 5 (क); पी० सी० एस० (1993) प्रश्न १ (अ); सी० एस० ई० (1995) प्रश्न 6 (अ)।

13. (1854) 9 एक्स चेकर 341.

14. ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 1981.

15. ए० आई० आर० 1978 कलकत्ता, पृष्ठ 454.

(ग) क, ख से कथित कीमत पर 50 मन चावल खरीदने की संविदा करता है। चावल के परिदान के लिए कोई समय नियत नहीं है। तत्पश्चात् क, ख को इत्तिला देता है कि यदि चावल निविदत्त किया गया तो वह उसे प्रतिग्रहीत नहीं करेगा। ख, क से प्रतिकर के रूप में उतनी रकम, यदि कोई हो, पाने का हकदार है जितनी से कि संविदा की कीमत उस कीमत से अधिक है जो कि ख उस समय चावल के लिए अभिप्राप्त कर सकता है जिस समय कि ख को इत्तिला देता है कि वह चावल प्रतिग्रहीत नहीं करेगा।

(घ) क, ख के पोत को 60,000 रुपये पर खरीदने की संविदा करता है, किन्तु अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है। क द्वारा ख को वह अधिकाई, यदि कोई हो, जो कि संविदा की कीमत उस कीमत से है, जो कि ख प्रतिज्ञा-भंग के समय पोत के लिए अभिप्राप्त कर सकता है, प्रतिकर के रूप में दी जानी चाहिये।

(ङ) क, जो कि नौका का स्वामी है, उल्लिखित दिन प्रस्थान करके मिर्जापुर को वहाँ विक्रय के लिए पटसन के नौपण्य (Cargo) को ले जाने के लिए ख से संविदा करता है। किसी परिवर्जनीय हेतु से, नौका नियुक्त समय पर प्रस्थान नहीं करती जिससे वह नौपण्य मिर्जापुर में उस समय के पश्चात् पहुँचता है जिस समय कि यदि उस नौका ने संविदा के अनुसार प्रस्थान किया होता, तो वह पहुँच जाता। उस तारीख के पश्चात् और नौपण्य के पहुँचने के पूर्व पटसन की कीमत गिर जाती है। क द्वारा ख को देय प्रतिकर का परिमाण उस कीमत का, जो कि नौपण्य के लिए ख मिर्जापुर में उस समय अभिप्राप्त कर सकता था जब कि यदि वह सम्यक् अनुक्रम में भेजा गया होता तो पहुँचता और उस कीमत का, जो कि उस समय, जब कि वह नौपण्य वास्तव में पहुँचा उसकी बाजार में है, अन्तर है।

(च) क, ख के गृह की निश्चित रीति में मरम्मत करने के लिए संविदा करता है और उसके लिए देनगी पाता है। क गृह की मरम्मत करता है लेकिन संविदा के अनुसार नहीं करता। ख मरम्मत की संविदा के अनुरूप करने का खर्चा क से प्रत्युद्धरित करने का हकदार है।

(छ) क अपने पोत को एक निश्चित कीमत पर ख को पहली जनवरी से एक वर्ष के लिए अवक्रीत करने की संविदा करता है। वस्तु भाड़े की दरें चढ़ जाती हैं और पहली जनवरी को पोत के लिए अभिप्राप्त अवक्रय संविदा कीमत से ऊँचा है। क अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है। उसे संविदा कीमत और उस कीमत के बीच के अन्तर के बराबर की राशि ख को प्रतिकर के रूप में देनी पड़ेगी जिस पर कि ख पहली जनवरी को और एक वर्ष के लिए वैसे ही पोत को अवक्रीत कर सकता है।

(ज) क, ख को लोहे की एक निश्चित मात्रा ऐसी नियत कीमत पर प्रदाय करने की संविदा करता है जो उस कीमत से ऊँची है जिस पर कि क उस लोहे का उपापन और परिदान कर सकता है। ख उस लोहे को लेने से दोषपूर्णतया इन्कार कर देता है। लोहे की संविदा कीमत और उस राशि के बीच का अन्तर, जिस पर कि उस लोहे को अभिप्राप्त और परिदत्त कर सकता है, ख द्वारा क को प्रतिकर के रूप में दिया जाना चाहिये।

(झ) क, ख को, जो कि सामान्य वाहक है, यह इत्तिला देकर कि उस यन्त्र के अभाव में क का पेच रुका पड़ा है, पेच तक अविलम्ब प्रवाहित किये जाने के लिए यन्त्र परिदत्त करता है। ख यन्त्र के परिदान में अयुक्तियुक्त विलम्ब करता है और उसके परिणामस्वरूप सरकार के साथ लाभदायक संविदा क के हाथ से निकल जाती है। क प्रतिकर के रूप में ख के उस लाभ की औसत रकम पाने का हकदार है जो कि उस समय के दौरान जिसमें कि उसका परिदान विलम्बित हुआ, पेच के चालू रहने से हुआ होता, किन्तु क सरकार के साथ संविदा के हाथ से निकल जाने से हुई हानि के लिए प्रतिकर पाने का हकदार नहीं है।

(ज) क, ख से यह संविदा करके कि वह 100 रुपया प्रति टन की दर से 1,000 टन लोहा कथित समय पर उसे प्रदाय करेगा, वह उसे यह बताकर कि वह ख से अपनी संविदा का पालन करने के प्रयोजन के लिए ग से संविदा कर रहा है, ग से 80 रुपया प्रति टन की दर से 1,000 टन लोहा लेने की संविदा करता है। ग, क से अपनी संविदा का पालन कराने में असफल होता है। क दूसरा लोहा उपास नहीं कर सकता और इसके परिणामस्वरूप ख संविदा का विखण्डन कर देता है। ग द्वारा क को, 20,000 रुपये जो कि उतने लाभ की रकम है जितना कि क, ख से अपनी संविदा के पालन करने पर करता, दिया जाना चाहिये।

(ट) क यन्त्र-विशेष को उल्लिखित कीमत पर नियत दिन तक बनाने और परिदत्त करने की ख से संविदा करता है। क उस यन्त्र को उल्लिखित समय पर परिदत्त नहीं करता है और इसके परिणामस्वरूप ख उस कीमत से, जो कि वह क को देने वाला था, ऊँची कीमत पर अन्य यन्त्र उपाप्त करने के लिए लाचार हो जाता है और उस संविदा का पालन नहीं कर सकता जो कि ख ने क के साथ अपनी संविदा के समय एक तीसरे व्यक्ति से की (किन्तु जिसकी संसचना उसने तब तक क को नहीं दी थी) और उस संविदा को भग्नता के लिए प्रतिकर देने को मजबूर हो जाता है। संविदा नियत यन्त्र की कीमत और ख द्वारा दूसरे उसी यन्त्र के लिए दी गई राशि के बीच का अन्तर प्रतिकर के रूप में क द्वारा ख्र को दिया जाना चाहिये, किन्तु वह राशि, जो कि ख द्वारा तीसरे व्यक्ति को प्रतिकर के रूप में दी गई हो, प्रतिकर के रूप में क द्वारा नहीं दी जानी चाहिये।

(ठ) एक वस्तु-निर्माता क पहली जनवरी तक गृह निर्मित और पूरा करने की संविदा करता है जिससे कि ग को, जिसे कि उस गृह को भाटक देने की ख ने संविदा की है, ख उसका कब्जा उस समय दे सके। ख और ग के बीच की संविदा की इत्तिला क को दे दी जाती है। क गृह को इतनी बुरी तरह से निर्मित करता है कि पहली जनवरी से पूर्व ही वह गिर जाता है और ख को उसका पुनर्निर्माण कराना पड़ता है। उसके परिणामस्वरूप वह उस किराये को, जो उसे ग से मिलता, हानि उठाता है और ग को अपनी संविदा की भग्नता के लिए प्रतिकर देने को लाचार हो जाता है। क द्वारा ख को गृह के पुनर्निर्माण के खर्च के लिए, किराये की हानि के लिए और ग को दिये गये प्रतिकर के लिए प्रतिकर दिया जाना चाहिये।

(ड) क यह समाश्वासन देते हुए ख को कुछ नौपण्य बेचता है कि वह एक विशिष्ट किस्म का है और इस समाश्वासन पर उसे ग को बेच देता है। वे वस्तुयें समाश्वासन के अनुकूल सिद्ध नहीं होती और ख, ग को प्रतिकर के रूप में धन की एक राशि का दायी हो जाता है। ख इस राशि को क द्वारा भरपाई किये जाने का हकदार है।

(ढ) क उल्लिखित दिन ख को कुछ धन देने की संविदा करता है। क वह धन उस दिन नहीं देता है। उस दिन धन न पाने के परिणामस्वरूप ख अपने ऋण चुकाने में असमर्थ रहता है और पूर्णतया बरबाद हो जाता है। ख को देनगी करने के दिन तक के ब्याज सहित उस मूल राशि के सिवाय, जिसके देने की उसने संविदा की थी, ख की और किसी भरपाई करने के लिए क दायित्वाधीन नहीं है।

(ण) क किसी कीमत के लिए पचास मन शोरा पहली जनवरी को ख को परिदत्त करने की संविदा करता है। तत्पश्चात् ख पहली जनवरी के पूर्व उस शोरे को पहली जनवरी के बाजार भाव से ऊँची कीमत पर ग को बेचने की संविदा करता है। क अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है। क द्वारा ख को देय प्रतिकर का प्राक्कलन करने में पहली जनवरी को बाजार में की कीमत, न कि वह लाभ. जो ख को ग के हाथ बेचने से मिलता, ध्यान में रखा जाता है।

(त) क रुई की 500 गाँठे ख को बेचने और नियत दिन परिदान करने की संविदा करता है। क, ख के अपने कारबार के संचालन के बारे में कुछ नहीं जानता। क अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, और ख रुई न होने के कारण, अपनी मिल बन्द करने के लिए लाचार हो जाता है। क मिल के बन्द होने से ख को हुई हानि के लिए ख के प्रति उत्तरदायी नहीं है।

(थ) क, ख को कोई कपडा जिससे कि ख ऐसी विशिष्ट किस्म की टोपियाँ अभिनिर्मित करने का आशय रखता है जिनके लिए उन दिनों के सिवाय और कभी कोई माँग नहीं होती, बेचने और पहली जनवरी को परिदत्त करने की संविदा करता है। वह कपड़ा नियुक्त समय के इतने पश्चात् परिदत्त किया जाता है कि टोपियाँ बनाने में उस वर्ष उपयोग में नहीं लाया जा सकता। ख, कपड़े की संविदा नियत कीमत और परिदान उसकी बाजार में कीमत के अन्तर को प्रतिकर के रूप में क से पाने का हकदार है, किन्तु वह न तो उन व्ययों को, जो कि उसे अभिनिर्माण के लिए की गयी तैयारियों में करने पड़े, पाने का हकदार है।

(द) क, जो पोत का स्वामी भी है, ख से संविदा करता है कि वह उसे पहली जनवरी को यात्रारम्भ करने वाले क के पोत में कलकत्ते से सिडनी ले जायेगा और ख, यात्रा-भाड़े का आधा भाग, निक्षेप के रूप में क को देता है। वह पोत पहली जनवरी को यात्रारम्भ नहीं करता और उसके परिणामस्वरूप कुछ समय के

लिए कलकत्ते में रुके रहने और उस कारण कुछ व्यय उठाने के पश्चात् ख एक अन्य जलयान में सिडनी के लिए प्रस्थान करता है और परिणामस्वरूप सिडनी में अत्यन्त देर में पहुँचने के कारण कुछ धनराशि की हानि उठाता है। क, ख को ब्याज सहित उसका निक्षिप्त धन और वे व्यय जो उसे कलकत्ते में उसके रुके रहने के कारण उठाने पड़े और पहले पोत के लिए करार पाये गये भाडे से दूसरी पोत के लिए दिये गये यात्रा-भाड़े की अधिकाई यदि कुछ हो, का दायी है, किन्तु उस धन के लिए दायी नहीं है जिसकी कि ख ने सिडनी में अत्यन्त देर से पहुँचने के कारण हानि उठायी है।

अन्य दृष्टान्त

‘अ’ ने ‘ब’ का जहाज किराये पर लिया कि वह निश्चित भाड़े पर ‘अ’ द्वारा दिये गये सामान को कलकत्ता से मारीशस पहुँचायेगा। ‘अ’ ‘ब’ को ले जाने के लिए कोई सामान नहीं देता है। ‘ब’ ‘अ’ के विरुद्ध नुकसानी प्राप्त करने के लिए वाद करता है।*

चूँकि ‘अ’ ने संविदा भंग की, ‘ब’ उससे प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकारी है। परन्तु जब तक विशेष परिस्थितियाँ न हों तथा पक्षकारों को संविदा करते समय उनका ज्ञान न हो, केवल सामान्य नुकसानी ही प्राप्त की जा सकती है।

इंग्लैंड के समान भारत में भी विशेष नुकसान वादी को तभी दिलवाया जा सकता है जब कि वह यह सिद्ध कर दे कि जिन विशेष परिस्थितियों में नुकसान हुआ, उनका ज्ञान प्रतिवादी को था। उदाहरण के लिए, नागपुर के एक वाद डोमिनियन ऑफ इण्डिया बनाम ए० आई० आर०लिमिटेड (Dominion of India v. A.I.R. Limited)16 में प्रतिवादी ने किताबों का एक पार्सल रेलवे से भेजा। रेलवे से 3 पुस्तकें खो गईं, जिसके कारण किताबों का पूरा सेट बेकार हो गया। परन्तु न्यायालय ने निर्णय दिया कि रेलवे 3 पुस्तकों की हानियों के लिए उत्तरदायी है। क्योंकि उसे इस तथ्य का ज्ञान नहीं था कि यह 3 किताबें किसी पुस्तक के भागों में से तीन भाग (volumes) थे।

इस सम्बन्ध में करसन दास एच० थैकर बनाम सरन इंजीनियरिंग कम्पनी लिमिटेड (Karsan Das H. Thaker v. M/s Saran Engineering Co. Ltd.)17 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध 20,700 रु० नुकसानी प्राप्त करने के लिए वाद किया। यह नुकसान उन्हें उस संविदा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप हआ जिसे उन्होंने जलाई. 1952 में प्रत्यर्थी के साथ 200 टन खरीदने के लिए किया था। प्रत्यर्थी उक्त लोहा का प्रदाय करने में असफल रहा। अतः अपीलार्थी ने एक अन्य फर्म से उक्त लोहे को खरीदा और उन्हें उसके लिए अधिक मूल्य देना पड़ा। परन्तु इस वाद में एक उल्लेखनीय बात यह है कि जब संविदा की गई थी तथा जब उसका उल्लंघन हुआ, दोनों ही समय लोहा एक नियन्त्रित वस्तु या वाणिज्या (controlled commodity) थी। अपीलार्थी का कहना था कि वह संविदा द्वारा लोहे को इतनी ऊँची दरों पर खरीद रहा था जिससे यह स्पष्ट होता था कि वह लोहा निर्यात के लिये खरीद रहा है। न्यायालय को निर्णय देना था कि प्रत्यर्थी इस बात को जानता था अथवा नहीं कि जिस लोहे को उन्हें प्रदाय करना था, उसका निर्यात होने वाला था।

परीक्षण-न्यायालय ने अपीलार्थी के पक्ष में निर्णय दिया किन्तु उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को उलट दिया था। उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में निम्नलिखित दो कारण बताये थे

(क) प्रत्यर्थी अपीलार्थी की ओर से इस सम्बन्ध में विलम्ब के कारण अपनी संविदा का पालन नहीं कर सका।

(ख) संविदा के उल्लंघन से कोई भी हानि नहीं हुई क्योंकि लोहे का नियन्त्रित मूल्य संविदा के समय (जालाई 1952) तथा उल्लंघन के समय (जनवरी, 1953) तक समान रहा। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उचित मानते हुये प्रत्यर्थी के पक्ष में निर्णय दिया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि

* आई० ए० एस० (1978) प्रश्न 3 (घ)।

16. ए० आई० आर० 1952 नागपुर 32.

17. ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 1981.

प्रत्यर्थी को यह नहीं पता था कि अपीलार्थी निर्यात करने के लिए लोहा खरीद रहा है। लोहे के ऊँची दरों पर खरीदने से यह संकेत नहीं मिलता था कि उसका निर्यात किया जाना था। अतः इस सम्बन्ध में न्यायालय ने दृष्टान्त ‘ट’ (Illustration K to Sec. 73) का हवाला देते हुये अपना निर्णय दिया।18

क्रय-विक्रय की संविदा में यदि विक्रेता माल का परिदान नहीं करता है तो नुकसानी का परिणाम बाजार की कीमत तथा संविदा करते समय की कीमत का अन्तर होगा। बाजार की कीमत के अनुसार इसलिए नुकसानी प्रदान की जाती है क्योंकि यह परिकल्पना (presumption) की जाती है कि वह क्रेता के लिए सही कीमत है।19 अतः निश्चयात्मक तत्व में संविदा भंग की तिथि तथा उस तिथि को बाजार में विद्यमान कीमत होती है। यह आवश्यक नहीं है कि क्रेता वास्तव में बाजार जाये तथा माल का क्रय करे। क्रेता की निष्क्रियता के लिए कानून उसे दण्ड नहीं देता। संविदा भंग के परिणामस्वरूप नुकसानी प्रदान करने का उद्देश्य वादी को नुकसान के सम्बन्ध में उस स्थिति में पहुँचाना होता है जिसमें वह होता यदि संविदा का पालन हुआ होता।20

यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि संविदा भंग होने पर, जो पक्षकार भंग का दोषी होता है उसी क्षण किसी धन का दायित्वाधीन नहीं हो जाता है तथा न ही शिकायत करने वाले पक्षकार दूसरे (या दोषी) पक्षकार से ऋण प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। संविदा-भंग के परिणामस्वरूप व्यथित पक्षकार को केवल नुकसानी के लिए वाद करने का अधिकार प्राप्त होता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संघ बनाम रमन आयरन फाउन्ड्री (Union of India v. Raman Iron Foundry)21 के वाद में दिया। इस निर्णय का अनुसरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने मिर्जा जावेद मुर्तजा बनाम यू० पी० फाइनेन्शियल कारपोरेशन, कानपुर (Mirza Javed Murtaza v. U.P. Financial Corporation, Kanpur)22 के वाद में किया है। उच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायालय को सर्वप्रथम यह निर्णय देना चाहिये कि प्रतिवादी दायी है तथा उसके पश्चात् यह निर्धारित करना चाहिये कि दायित्व क्या है? परन्तु जब तक यह निर्धारित नहीं हो जाता, प्रतिवादी का कोई दायित्व नहीं होता। 2 यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 73 तब लागू होती है जब पक्षकारों के मध्य एक वैध तथा बाध्यकारी संविदा थी जिसका भंग होता है। यही बात धारा 74 के लिये लागू होती है। यह बात उच्चतम न्यायालय ने तरसेम सिंह बनाम सुखमिन्दर सिंह (Tarsem Singh v. Sukh ninder Singh)23 के वाद में स्पष्ट की है।

जहाँ कोई संविदा अवैध रूप से अभिखण्डित की गयी है, ठेकेदार का उक्त संविदा के प्रत्याशित लाभ की वसूली या प्राप्त करने का दावा इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि जितने धन का उसने दावा किया है उसे उतनी ही वास्तविक हानि संविदा के उल्लंघन से हुई है।24

संविदा भंग के लिये नुकसानी प्रदान करने में मानसिक वेदना का कोई अलग शीर्षक नहीं होता है। अत: गाजियाबाद विकास प्राधिकरण बनाम भारतीय संघ (Ghaziabad Development Authority v. Union of India)25 के वाद में भू-खण्ड को आवंटित करने में विलम्ब होने पर मानसिक दावेदारी के लिये निचले न्यायालय द्वारा दावेदारी प्रदान की गई नुकसानी को अपास्त कर दिया।26

18. डेमरेज के लिए प्रतिकर के दावे हेतु देखें : टिम्बलो इरमाओस लि. बनाम मारगाओ जार्ज अनीबाल माटोस सिक्वेरिया तथा अन्य, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 734.

19. भारतीय संघ बनाम मेसर्स कामर्शियल मेटल कारपोरेशन, ए० आई० आर० 1982 दिल्ली 267, 268.

20. तत्रैव, पृष्ठ 269; फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया बनाम लक्ष्मी कैटिल फीड इन्डस्ट्रीज, ए० आई० आर० 2006 एस० सी० 1452 को भी देखें।

21. ए० आई० आर० 1974 एस० सी० 1265, 1273.

22. ए० आई० आर० 1983, इलाहाबाद 234, 240, 245.

23. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1400, 1404-1405.

24. द्वारका दास बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 1031, 1033-1034.

 25. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 2003.

26. तत्रैव, पृष्ठ 2005-2006.

जहाँ कि संविदा में नुकसानी प्रदान करने का वैकल्पिक उपबन्ध है, विनिर्दिष्ट पालन का न्यायालय द्वारा आदेश अनुचित होगा। उदाहरण के लिये, स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र बनाम पी० एन० बी० (State Bank of Saurashtra v. P.N. B.)27 में बैंक ने करार किया था कि वह क्रेता को कुछ यूनिट्स खरीदकर परिदत्त करेगा। क्रेता ने यूनिट्स का परिदान भुगतान कर दिया। संविदा में उपबन्ध था कि बैंक वैकल्पिक रूप में नुकसानी देगा। बैंक ने युनिट्स का परिदान नहीं किया। विशेष न्यायालय ने निर्णय दिया कि बैंक क्रेता को यूनिट्स परिदत्त करे। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय को उलट दिया। क्योंकि संविदा में नुकसानी प्रदान किये जाने का वैकल्पिक उपबन्ध था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय में कहा कि इन परिस्थितियों में विशेष न्यायालय द्वारा विनिर्दिष्ट पालन का आदेश देना अनुचित था।

जहां किसी संविदा में कार्य के निष्पादन की अवधि 18 मास रखी गयी। नियोजक सरकार को सीमेण्ट या स्टील प्रदाय करनी थी परन्तु नियोजक ने सीमेण्ट एवं स्टील प्रदाय करने में 15 से 26 मास तक विलम्ब किया तथा नियोजक द्वारा संविदा भंग सिद्ध हो चुकी है, ठेकेदार ने कार्य पूरा करने से इन्कार कर दिया। केरल उच्च न्यायालय ने धारित किया कि ठेकेदार कार्य पूरा करने से इन्कार करने का अधिकारी था। नियोजक सरकार ने कार्य पूरा कराने में हुये अतिरिक्त धन प्राप्त करने का दावा किया। उच्च न्यायालय ने धारित किया कि नियोजक सरकार उक्त खर्च हुये धन को ठेकेदार अदा करने का अधिकारी नहीं है। यह निर्णय केरल उच्च न्यायालय ने के० सी० सकारिया बनाम केरल राज्य की सरकार (K.C. Sakaria v. Govt. of State of Kerala)28 के वाद में दिया था।

नुकसान का परिमाण (Measure of Damages)*- यह निश्चय कर लेने के बाद कि वादी को किस विस्तार तक हानि हुई है, यह आवश्यक होता है कि इस हानि का धन के रूप में मूल्यांकन किया जाय। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दो सिद्धान्त उल्लेखनीय हैं :

(क) नुकसानों की प्रतिकरीय प्रकृति (Compensatory nature of damages);

(ख) होने वाले नुकसान को कम करने का कर्त्तव्य (Duty to mitigate the damages suffered)।

नुकसानों की प्रतिकरीय प्रकृति (Compensatory nature of damages)—संविदा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप नुकसान प्रतिकर के रूप में दिया जाता है, न कि दण्ड के रूप में। अत: उल्लंघन की नीयत या हेतु (motive) या प्रकार से नुकसान के परिमाण पर प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में नुकसान दिलवाये जाने का उद्देश्य यह होता है कि प्रभावित पक्षकार को लगभग उसी स्थिति में लाया जाय जिसमें कि वह होता यदि संविदा का पालन किया जाता। नुकसानी का परिमाण वह प्रतिकर होता है जो संविदा के भंग का स्वाभाविक परिणाम होता है या जिसकी परिकल्पना की जा सकती थी।29

होने वाले नुकसान को कम करने का कर्त्तव्य (Duty to mitigate the damages suffered)**-चूँकि नुकसान केवल प्रतिकर के रूप में दिया जाता है, अत: जिस व्यक्ति को नुकसान होता है, यह उसका कर्त्तव्य होता है कि वह वे सभी युक्तियुक्त कदम उठाये जिससे कि उल्लंघन से हुये नुकसान कम से कम हों। वह किसी ऐसे नुकसान के लिए प्रतिकर का दावा नहीं कर सकता है जो कि वास्तव में उपेक्षा से हुये हों। भारत में धारा 73 की व्याख्या में यह स्पष्ट किया गया है कि संविदा के भंग किये जाने से पैदा होने वाली हानि या नुकसान का प्राक्कथन करने में उन साधनों को ध्यान में रखना चाहिये जो कि संविदा के अपालन से हुई असुविधा का उपचार करने के लिए विद्यमान थे। अत: जिसे नकसान हुआ है

27. ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 2412, 2413.

28. (2006) 2 ए० आई० आर० केरल आर० 93.

* पी० सी० एस० (1991) प्रश्न 8 (क)।

29. देवेन्टा सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1987 इलाहाबाद 306, 308; कुक बनाम स्विनफेन. 1967 आल ई० आर० 299.

** सी० एस० ई० (1988) प्रश्न 1 (अ) के लिए भी देखें।

उसका यह कर्तव्य होता है कि वह ऐसे कदम उठाये जिससे कि नुकसान कम से कम हो। यदि वह ऐसे कदम उठा सकता है जिससे कि नुकसान कम हो, तो उसे उठानी चाहिये। परन्तु यदि वह ऐसा नहीं करता तो यह उसकी उपेक्षा समझी जायेगी और इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी होगा।

इस सम्बन्ध में प्रमुख वाद जमाल ए० के० ए० एस० बनाम मूला दाऊद सन्स एण्ड कम्पनी (Jamal A.K.A.S. V. Moola Dawood Sons & Company)30 उल्लेखनीय है। इस वाद में प्रिवी काउन्सिल ने यह निर्णय दिया था कि जो कि नुकसान के लिए वाद करता है, उसका कर्तव्य है कि वह वे सभी युक्तियुक्त कदम उठायें जिससे कि नुकसान कम से कम हो तथा वह अपनी उपेक्षा द्वारा हुये नुकसान के लिए दावा नहीं कर सकता। ऐसे नुकसान को संविदा-भंग की तिथि से विनिश्चित किया जायेगा। यदि संविदा-भंग के दिन वादी कुछ कर सकता था, या उसने नुकसान को कम करने के लिए कुछ किया तो प्रतिवादी को ऐसे कार्य से लाभ प्राप्त करने का अधिकार है।

इस वाद में वादी ने प्रतिवादी को कुछ शेयर्स (shares) के विक्रय की संविदा की थी तथा यह शेयर्स 30 दिसम्बर, 1911 तक परिदत्त किये जाने थे। इस दिन तक शेयरों की कीमत काफी घट गई थी। वादी ने शेयरों को उक्त दिन देने की पेशकश की और इसके लिए मूल्य माँगा। प्रतिवादी ने न तो शेयर ही लिए और न ही उसका मूल्य दिया। अत: वादी शेयरों को कुछ समय तक रखे रहा और जब शेयरों के मूल्य फिर बढ़ने लगे तो उसको बाजार में उन्होंने बेच दिया। यदि शेयर 30 दिसम्बर, 1911 को बेचे गये होते तो उसे 1,09,218 रुपये की हानि होती। परन्तु वादी ने उन्हें कुछ दिन रखकर बेचा और इस तरह उसे केवल 79,892 रु० की हानि हुई। परन्तु वादी ने प्रतिवादी के ऊपर 1,09,218 रुपये तक का दावा किया। प्रतिवादी ने तर्क किया कि वह केवल 79,862, रु० की हानि के लिए उत्तरदायी है। परन्तु प्रिवी काउन्सिल ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा है कि प्रतिवादी 1,09,218 रुपये देने का उत्तरदायी है। निर्णय देते समय लार्ड रेनबरी (Lord Wrenbury) ने कहा कि यदि विक्रेता के उल्लंघन के बाद शेयरों को रोके रहता तो होने वाली हानि और फायदे के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। प्रतिवादी उस हानि को देने के लिए जिम्मेदार है जो कि संविदा-भंग के दिन हुई थी।

एम० एन० गंगप्पा बनाम ए० डी० सेट्टी एण्ड कम्पनी तथा अन्य (M.N. Gangappa V. A.D. Setty & Co. and another)31 में उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त सिद्धान्त का अनुमोदन कर दिया।

इस सम्बन्ध में मेसर्स मुरलीधर चिरंजीलाल का वाद (M/S. Murlidhar Chiranjilal case)32 भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये-

(क) जिस पक्षकार ने संविदा के उल्लंघन को सिद्ध कर दिया है जहाँ तक सम्भव है तथा जहाँ तक धन द्वारा ऐसा हो सके, उसे ऐसी स्थिति में पहुँचाने की चेष्टा की जाय जैसे कि संविदा का पालन हुआ होता तो वह होता।

(ख) वादी का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह ऐसे सभी युक्तियुक्त कदम उठाये जिससे संविदा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप कम से कम हानि हो।

(ग) यदि वादी संविदा का उल्लंघन सिद्ध कर देता है और यह सिद्ध करने में असफल रहता है कि उसने हानि को कम करने हेतु युक्तियुक्त कदम उठाये, वह उस हद तक मुआवजा प्राप्त नहीं कर पायेगा जो वह अपने युक्तियुक्त कदम उठाकर कम कर सकता था।

30. (1916)1 एस० सी० 175:43 आई०ए०6 कलकत्ता 493

31. ए० आई० आर० 1972 एस सी0696.

32, ए० आई० आर० 1962 एस०सी० 366, 1 पैरा,

33. राम नानजप्पा बनाम एम० पी० मथस्वामी, ए० आई० आर० 1975 कर्णाटक 146 148 में कोटक उच्च न्यायालय ने उपयुक्त उच्चतम न्यायालय के बाद से यह तीन सिद्धान्त निकाले प्राणनाथ सूरी बनाम पर प्रदेश राज्य ए० आई० आर० 1991 मध्य प्रदेश 121, पृष्ठ 124125 भी देखें।

यही सिद्धान्त ब्रिटिश वेस्टिग हाउस इलेक्ट्रिक ऐण्ड मैनुफैक्चरिंग कं० लि० बनाम अन्डरग्राउन्ड इलाक्टक रलवे क० आफ लन्दन (British Westing House Electric and Manufacturing Co. Ltd. V. Underground Electric RIV Co. of London)34के वाद में प्रतिपादित किया गया था तथा इसका अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स मुरलीधर बनाम मेसर्स हरिशचन्द्र (M/s Murlidhar v. Harish Chandra)35 तथा ईश्वरदास बनाम भारतीय संघ (Ishwardas v. Union of India)30 के वादों में तथा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने फर्म भगवानदास शोभालाल जैन बनाम मध्य प्रदेश राज्य (Firm Bhagwandas Shobhalal Jain v. State of M.P.)37 के वाद में लागू किया।

यद्यपि वादी को हानि को कम करने के युक्तियुक्त कदम उठाने चाहिये, युक्तियुक्तता (reasonableness) का स्तर (Standard) बहुत ऊँचा होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि प्रतिवादी संविदा के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार है। विधि का उद्देश्य केवल यह है कि वादी को हानि कम करने के युक्तियुक्त कदम उठाने चाहिये। यह तर्क स्वीकार नहीं किया जायगा कि वाद की परिस्थितियों में कुछ अन्य कदम उठाये जा सकते थे जो प्रतिवादी के ऊपर एक बोझ लादते।8

नुकसान को कम करने के सिद्धान्त से उस पक्षकार को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है जिसने संविदा भंग की है परन्तु यह वह धारणा है जो न्यायालय नुकसानी प्रदान करते समय ध्यान में रखता है।39 चूक न करने वाले पक्षकार से यह आशा की जाती है कि वह कोई ऐसे कदम नहीं उठायेगा जिससे निर्दोष व्यक्ति को क्षति नहीं पहुँचे। अत: कानूनी कर्तव्य के पालन या उन्मोचन में किये गये कार्यों का भी तर्क उसके विरुद्ध नही लिया जा सकता है। सारांश में हर मामले में यह देखा जायगा किचकन करने वाले पक्षकार द्वारा किया गया कार्य युक्तियुक्त है अथवा नहीं

दृष्टान्त

‘क’ ने कुछ अंश ‘ख’ को विक्रय किये जिनका संदाय 31 दिसम्बर, 1972 या उसके पूर्व होना था। 31 दिसम्बर, 1972 को अंश पेश किये गये परन्तु ‘ख’ ने संदाय लेने से या उनके लिए भुगतान करने से इन्कार कर दिया। 31 दिसम्बर को संविदा मूल्य तथा बाजार मूल्य में 65,000 रुपये का अन्तर था। ‘क’ने इन अंशों को अगस्त 1973 में बेचा तथा 40,000 लाभ प्राप्त किया। ‘क’ संविदा भंग का दावा करता है। ‘ख’ यह दलील देता है कि है कि’क’न कोई क्षति नहीं उठाई है तथा इसके विपरीत संविदा भंग के पश्चात् 40,000 रुपये का लाभ हुआ है। क्या आप ‘ख’से सहमत हैं?*

संविदा भंग से होने वाले नुकसान का निर्धारण संविदा भंग के दिन किया जाता है। ‘ख’ ने संविदा की थी अत: वह इससे होने वाली क्षति के लिए उत्तरदायी थी। संविदा भंग के दिन संविदा मूल्य तथा बाजार मूल्य में अन्तर 65,000 रुपये था। अत: वह ‘क’ को नुकसानी या प्रतिकर के रूप में 65,000 रुपये देने के लिए दायित्वाधीन था। 31 दिसम्बर, 1972 के बाद यदि ‘क’ ने अंश नहीं बेचे तो यह उसका जोखिम था। मान लीजिये कि उसका अनुमान गलत निकलता तथा क्षति बढ़कर 80,000 रुपये या इससे कभी अधिक हो जाती तो क्या ‘ख’ इसके लिए जिम्मेदार नहीं होता। ‘ख’ की जिम्मेदारी केवल 65,000 रुपये तक ही थी तथा इसी के लिए वह दायी है। इस सम्बन्ध में ऊपर वर्णित जमाल ए० के० ए० एस० बनाम मूला दाऊद सन्स ऐण्ड कं० (1916) एवं एम० एन० गंगप्पा बनाम ए० डी० सेट्टी ऐण्ड कं० (1972) के वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

34 (1992) ए०सी०673.

35. ए० आई० आर० 1962 एस०सी० 366.

36. ए० आई० आर० 1955 एस० सी० 468.

37. ए० आई० आर० 1955 एम०पी०95.

38. आरजे मोहम्मद जैकब साहिब बनामद इण्डियन बैकलिक, मद्रास.ए.आई० आर०1975मदास701

39. एम० लछिया सेटटी एण्ड संन्स लिक बनामद काफी बोड, बगलार ए० आई० आर० 1981 एमसी017-18

40. तत्रैव, पृष्ठ 169.

* पी०सी० एस० (7990) प्रश्न 8 (ब)।

परिनिर्धारित नुकसान तथा शास्ति (Liquidated Damages and Penalty)*-धारा 74 के अनुसार, “जब कि कोई संविदा भंग कर दी गयी है तब, यदि ऐसी भग्नता की अवस्था में दी जाने वाली रकम के रूप में कोई राशि संविदा में नामांकित है, या यदि शास्ति के रूप में कोई अन्य अनुबन्ध संविदा में अन्तर्विष्ट है, तब भग्नता का परिवाद करने वाला पक्षकार, चाहे यह सिद्ध किया गया हो या सिद्ध न किया -गया हो कि उस भग्नता से वस्तुत: नुकसान या हानि हुई है, उस पक्षकार से उसे जिसने संविदा की है, – यथास्थिति उस प्रकार नामांकित रकम या अनुबन्ध शास्ति से अधिक न होने वाला युक्तियुक्त प्रतिकर पाने का हकदार होगा।”

अत: पहले से ही संविदा के पक्षकार यह करार कर सकते हैं कि संविदा भंग होने पर कितना धन नुकसान के रूप में देय होगा। लेकिन न्यायालय अपना निर्णय इस प्रकार देगा कि नुकसान इस उल्लिखित धनराशि से अधिक न हो। यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि जो पक्षकार संविदा के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार है, वह नुकसान का उत्तरदायी होगा, चाहे वास्तविक नुकसान हुआ हो अथवा न हुआ हो। धारा 74 के निम्नलिखित तथ्य हैं

(1) जब संविदा भंग हुई हो;

(2) संविदा में कोई धनराशि नामांकित हो जो कि संविदा भंग होने पर देय है, या शास्ति के रूप में कोई अन्य अनुबन्ध,

(3) इस बात से अन्तर नहीं पड़ता है कि वास्तविक हानि हुई है अथवा नहीं,

(4) जो पक्षकार यह दावा करता है कि संविदा भंग हुई, वह अन्य पक्षकार से जिसने कि संविदा भंग की है, युक्तियुक्त प्रतिकर पाने का अधिकारी है;

(5) प्रतिकर के लिए, ‘पी०’ ऐण्ड ‘क्यू’ ने कुश्ती प्रतियोगिता का करार किया तथा शर्त रखी कि जो पक्षकार निश्चित दिन पर उपस्थित नहीं हुआ उसे विरोधी पक्षकार को 500 रुपये देने पड़ेंगे। ‘पी०’ निश्चित दिन पर उपस्थित नहीं हुआ। ‘क्यू’ ने ‘पी०’ के विरुद्ध 500 रुपये प्राप्त करने का वाद किया।

‘क्यू’ अपने वाद में सफल होगा परन्तु उसे केवल युक्तियुक्त प्रतिकर मिलेगा जो 500 रुपये से अधिक नहीं हो सकता। यदि न्यायालय उचित समझता है तो ‘क्यू’ को प्रतिकर के रूप में संविदा में उल्लिखित धन अथवा 500 रुपये प्रदान कर सकता है। यदि न्यायालय 500 रुपये प्रतिकर के रूप में देना उचित नहीं समझता है तो वह 500 रुपये से कम कोई भी युक्तियुक्त धन प्रतिकर के रूप में प्रदान कर सकता है। परन्तु 500 रुपये से अधिक धन प्रतिकर के रूप में प्रदान नहीं किया जा सकता है । यह बात धारा 74 के दृष्टान्त (क) से भी स्पष्ट हो जाती है। यह दृष्टान्त नीचे दिया गया है।

धारा 74 की व्याख्या में यह भी स्पष्ट किया गया है कि चूक (default) की तिथि से बढ़े हुये ब्याज के लिए कोई अनुबन्ध शास्ति के रूप में अनुबन्ध हो सकता है। परन्तु यदि किसी करार में प्रावधान है कि धन की अदायगी की चूक होने पर उपभोक्ता 2 प्रतिशत प्रतिमाह अतिरिक्त ब्याज देगा तो यह अनुबन्ध शास्ति का न होकर विलम्ब के भुगतान का ब्याज के रूप में मुआवजा होगा। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने हाल के एक वाद41 में दिया है। अत: ऐसी परिस्थिति में अपीलार्थी को शास्ति से निर्मुक्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

अपवाद (Exception)-धारा 74 में अपवाद दिया गया है जिसके अनुसार, जबकि कोई व्यक्ति कोई जमानत, बन्धनामा मुचलका या उसी प्रकार की अन्य लिखत करता है, या किसी विधि के उपबन्धों के अधीन या केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार के आदेशों के अधीन कोई बन्धनामा किसी लोक-कर्त्तव्य या कार्य के पालन के लिए, जिसमें कि जनता का हित बद्ध है, देता है तो यह किसी ऐसे लिखत की शर्त के भंग होने पर उसमें वर्णित सम्पूर्ण राशि को चुकाने के लिए दायित्वाधीन होगा।

* सी० एस० ई० (1991) प्रश्न 5 (ब) के लिये भी देखें।

** पी० सी० एस० (1982) प्रश्न 6 (ख)।

41. द अदोना गिनिंग फैक्टी बनाम द सेक्रेटरी, आन्ध्र प्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, हैदराबाद, ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 1511,1512.

उपर्युक्त अपवाद की व्याख्या में यह स्पष्ट किया गया है कि जो व्यक्ति सरकार से कोई संविदा करता है, वह आवश्यक रूप से किसी लोक-कर्त्तव्य का भार नहीं लेता, या ऐसा करने की प्रतिज्ञा नहीं करता जिसमें कि जनता का हित बद्ध है, अर्थात् उपर्युक्त अपवाद को लागू करने के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि जो भी विलेख या बन्धनामा लिखा गया है, उसमें जनता का हित बद्ध है।

दृष्टान्त-धारा 74 में निम्नलिखित दृष्टान्त हैं

(क) क, ख से संविदा करता है कि यदि वह ख को एक निर्दिष्ट दिन 500 रुपये देने में असफल रहे तो वह ख को 1,000 रु० देगा। क उस दिन ख को 500 रु० देने में असफल रहता है। ख, क से 1,000 रुपये से अनधिक ऐसा प्रतिकर, जैसा कि न्यायालय युक्तियुक्त समझता है, प्रत्युद्धरित करने का हकदार है।

(ख) क, ख, से संविदा करता है कि यदि क कलकत्ते के भीतर शल्यज्ञ के रूप में व्यवसाय करेगा तो वह ख को 5,000 रुपये देगा। क कलकत्ते में शल्यज्ञ के रूप में व्यवसाय करता है। ख 5,000 रुपये से अनधिक ऐसे प्रतिकर पाने का, जैसा कि न्यायालय युक्तियुक्त समझता है, हकदार है।

(ग) क निश्चित दिन न्यायालय में स्वयं उपसंजात होने के लिए ऐसा मुचलका देता है जिससे कि ऐसा न करने पर वह 500 रुपये की शास्ति देने के लिए बाध्य है। उसका मुचलका जब्त हो जाता है। वह सम्पूर्ण शास्ति देने के लिए दायित्वाधीन है।

(घ) क, ख को छ: महीने के खत्म होने पर 1,000 रुपये 12 प्रतिशत ब्याज के सहित चुकाने का बन्धनामा इस अनुबन्ध के साथ लिख देता है कि ऐसा करने में चूक करने की अवस्था में ब्याज, चूक की तारीख से 75 प्रतिशत की दर से देय होगा। यह शास्ति के रूप में अनुबन्धन है और ख, क से ऐसे प्रतिकर के प्रत्युद्धरण का ही हकदार है जैसे कि न्यायालय युक्तियुक्त समझता है।

(ङ) क जो कि एक महाजन ख को धन का देनदार है, उसको निश्चित दिन दस मन अनाज परिदत्त करके वह धन चुकाने का वचन देता है और यह अनुबन्ध करता है कि यदि वह नियत परिमाण को नियत तारीख तक परिदत्त न करे तो वह 20 मन परिदान करने के लिए दायित्वाधीन होगा। यह शास्ति के रूप का अनुबन्ध है और भग्नता की अवस्था में ख युक्तियुक्त प्रतिकर पाने का ही हकदार है।

(च) क, ख को 1,000 रुपये के उधार को पाँच मासिक सम-किस्तों में चुकाने का वचन इस अनुबन्ध के साथ देता है कि किसी किश्त की देनगी करने में चूक होने पर सम्पूर्ण राशि शोध्य हो जायेगी। यह अनुबन्ध शास्ति के रूप का नहीं है और संविदा का अनुपालन उसके निबन्धनों के अनुसार प्रवर्तित कराया जा सकेगा।

(छ) क, ख से 100 रुपये उधार लेता है और 200 रुपये के लिए बन्धनामा, जो कि चालीस रुपये की पाँच वार्षिक किश्तों द्वारा देय है, इस अनुबन्ध के साथ लिख देता है कि किसी किश्त की देनगी करने में कुछ होने पर सम्पूर्ण राशि शोध्य हो जायेगी। यह शास्ति के रूप का अनुबन्ध है।

फतेहचन्द बनाम बाल कृष्ण दास (Fatehchand v. Bal Krishna Das)42 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में भारतीय विधि तथा इंग्लैण्ड में प्रचलित विधि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा कि भारतीय विधि में परिनिर्धारित नुकसान तथा शास्ति की प्रकति के अनुबन्धों के विषय में एक ही सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के अनुसार यदि पक्षकार पारस्परिक करार द्वारा अपनी संविदा में परिनिर्धारित सिद्धान्तों के विषय में यदि कोई अनबन्ध उल्लिखित करते हैं तो बाध्यकारी होता है। परन्तु यदि संविदा में अनुबन्ध शास्ति की प्रकृति का होता है तो न्यायालय उसका अनपालन कराने से इन्कार कर देता है। भारतीय विधि में यह अन्तर नहीं रखा गया है तथा स्पष्ट रूप से धारा 74 में यह नियम प्रतिपादित कर दिया गया है कि यदि पक्षकार संविदा के भंग नकसान के लिए कोई धनराशि उल्लिखित करते हैं या शास्ति की प्रकृति का कोई अनबन्ध संविधानमा तो न्यायालय को यह अधिकार है कि वह परिस्थितियो तथा संव्यवहार की प्रकृति को देखते हायर प्रतिकर दिलाये जाने का आदेश दे। परन्तु यह प्रतिकर संविदा में उल्लिखित धनराशि से अधिक

42. ए० आई० आर० 1963 एस० सी० 1405.

सकता है | उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी स्पष्ट किया है कि यह कहना अनचित होगा कि केवल तभी लागू होगी जब कि क्षतिग्रस्त पक्षकार वादी के रूप में अनुतोष प्राप्त करना चाहते हैं।

किसी पक्षकार को कोई विशेष लाभ प्रदान नहीं करती। यह एक ऐसी विधि की घोषणा करती है जो सभी पर समान रूप से लागू होती है

के० एन० राघवन बनाम शास्त्रीगल तथा अन्य (K.S. Raghavan v.S. Shastrigal and hathery43 में न्यायालय को एक चिटफण्ड की उपधारा का निर्वचन (interpretation) कर के यह निर्णय देना था कि अनुबन्ध शास्ति की प्रकृति का है, या अन्त:करण के विरुद्ध (Unconscionable) है। चिटफण्ड की उपधारा में निम्नलिखित प्रावधान था-(1) किश्तों की अदायगी में चूक होने पर सभी बाकी किश्तें इकटठा जमा की जायेंगी; (2) अभिदायक (subscribers) को लाभांश (dividend) में कोई हिस्सा नहीं दिया जायेगा तथा (3) पूरे बकाया धन पर 12% का ब्याज लिया जायेगा। केरल उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस वाद में अनुबन्ध शास्ति की प्रकृति के हैं तथा अन्त:करण के विरुद्ध हैं। केरल उच्च न्यायालय का यह निर्णय अब मान्य नहीं है क्योंकि एक हाल के वाद, पी० के० अच्युतन बनाम स्टेट बैंक ऑफ टावनकोर, कालीकट (P.K. Achutan v. State Bank of Travancore, Calicut)44 में केरल उच्च न्यायालय ने उक्त निर्णय को नामंजूर कर दिया या उलट (overrule) दिया। इस वाद में केरल उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने यह धारित किया कि कुरी संव्यवहारों का यह क्लाज कि किश्त के भुगतान में चूक होने पर पूरे बकाया धन को एक साथ 12 प्रतिशत ब्याज के साथ देना होगा, शास्ति (penal) की प्रकृति का नहीं है। अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने कहा कि ऐसा क्लाज किश्तों क समय पर भुगतान करने के उद्देश्य से रखा जाता है। ऐसे क्लाज की अनुपस्थिति में कुरी के अन्तर्गत सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रति उत्तरदायित्व पूरा करना सम्भव नहीं होगा। कुरी के फोरमैन तथा कुरी के सदस्यों के विशेष सम्बन्धों को देखते हुए उक्त क्लाज न तो शास्ति की प्रकृति का है और न ही अन्त:करण के विरुद्ध है।

इस निर्णय का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने के० पी० सुब्बाराम शास्त्री बनाम के० एस० राघवन (K.P. Subbarama Sastri v. K.S. Raghavan)45 के वाद में कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी स्पष्ट किया कि यह प्रश्न कि कोई संविदात्मक करार में कोई विशिष्ट अनुबन्ध शास्ति की प्रकृति का है अथवा नहीं विभिन्न तत्संगत तथ्यों के संदर्भ में न्यायालय द्वारा निर्णीत किया जाता है जैसे संव्यवहार की प्रकृति, पक्षकारों की स्थिति, सामान्य विधि के अन्तर्गत पक्षकारों के अधिकार तथा दायित्व। इन सब बातों पर विचार करके यदि न्यायालय पाता है कि अनुबन्ध प्रतिज्ञाकर्ता पर भार लादने वाला या अत्याचारी प्रकृति का है तो ऐसा अनुबन्ध शास्ति की प्रकृति का होगा।46

पृथ्वीचन्द रामचन्द सबलोक बनाम एस० वाई० शिन्डे (Prithivichand Ramchand Sablok v. S. V. Shinde)47 के वाद में मकान के स्वामी ने किरायेदार के विरुद्ध किराये के बकाया तथा परिसर का कब्जा लेने के लिये वाद किया। वाद पक्षकारों के मध्य समझौते द्वारा तय हुआ। समझौते की शर्तों के अनुसार किरायेदार परिसर का कब्जा मालिक को 10 अक्टूबर, 1970 तक दे देगा। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वादी डिक्री के निष्पादन के आधार पर कब्जा लेगा। शर्त संख्या 3 के अनुसार प्रतिवादी को एक छूट यह दी गई कि यदि वह सारा बकाया 10 अक्टूबर, 1970 तक दे देता है तो वादी उसके विरुद्ध कब्जा लेने का डिक्री निष्पादित नहीं करायेगा। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त निबन्धन किराये का बकाया प्रास करने के हेत था। यह निबन्धन शास्ति (penal) प्रकृति का नहीं था

43. ए० आई० आर० 1972 केरल21.

44. ए० आई० आर० 1975 केरल 47.

45. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 1257, 1259.

46. ए० आई० आर० 1987 एस०सी०1257.

47. ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 1929,

48. तत्रव, पृ० 1936, मेसर्स महावीर खाँडसारी शुगर मिल बनाम महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, ए० आई० आर० 1993 बम्बई 279.

मौला बक्स बनाम भारतीय संघ (Maula Bux v. Union of India)49 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से धारित किया है कि संविदा अधिनियम की धारा 74 के अन्तर्गत नुकसानी (damages) तभी देय होती है जब कुछ पूर्ववर्ती शर्ते पूरी हों। धारा 74 का लाभ तभी मिल सकता है जहाँ संविदा भंग हुई हो। अरविन्द कोल ऐण्ड कान्सट्रक्शन कं० बनाम दामोदर वैली कार्पोरेशन (Arvind Coal Construction Co. v. Damodar Valley Corporation)50 के वाद में पटना उच्च न्यायालय ने विधि की स्थिति स्पष्ट करते हुये कहा कि यदि संविदा ही पूर्ण नहीं हुई तो धारा 74 के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस वाद में निविदा खुलने के बाद भी पक्षकारों ने वार्ता एवं सौदेबाजी जारी रखी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पक्षकारों के आचरण को देखते हुई संविदा पूर्ण नहीं हुई। अत: धारा 74 के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता तथा प्रतिवादी द्वारा कथित क्षति सिद्ध करना व्यर्थ है।51*

धारा 74 के अन्तर्गत उपाय तभी उपलब्ध होता है जब कि पक्षकारों के बीच वैध तथा बाध्यकारी संविदा थी जिसका उल्लंघन हुआ है। यदि जब्त करने का क्लाज किसी ऐसे करार में है जिसमें पक्षकारों के मध्य एक ही विषय तथा एक ही अर्थों में सम्मति (consensus ad idem) नहीं है या संविदा के आवश्यक तथ्य या विषय के बारे में भूल है तो ऐसा करार लागू नहीं हो सकता है क्योंकि यह शून्य है। शून्य करार के आधार पर धारा 74 के अन्तर्गत उपाय प्राप्त नहीं किया जा सकता है।52

जहाँ संविदा में यह क्लाज है कि ठेकेदार कार्य बीमारी, मृत्यु या किसी अन्य कारण से छोड़ देता है तो कार्यकारी इंजीनियर को प्रतिभूति या जमानत का धन जब्त करने का अधिकार है, जमानत धन जब्त करना अवैध नहीं होगा।53

इसी प्रकार, जहाँ निविदा में यह शर्त उल्लिखित है कि निविदा के अन्तर्गत प्रस्ताव निविदा की तिथि से 45 दिनों तक वैध रहेगा तथा इस अवधि में प्रस्ताव में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकेगा, यदि प्रस्ताव या बोली रिजल्ट घोषित होने के पूर्व वापस ले लिया जाता है, अग्रिम धन जब्त किया जा सकता है क्योंकि एक बार बोली लगाने पर या प्रस्ताव 45 दिनों तक वैध रहा तथा यह तर्क या अभिवचन कि निविदा की शर्त के अनुसार परिणाम 30 दिनों तक घोषित नहीं किया गया। अत: अग्रिम धन जब्त नहीं किया जा सकता, स्वीकार्य नहीं होगा।54

वाणिज्यिक संविदाओं में विशेषकर जहां वाणिज्यिक कार्यकलाप विनियामक प्रशासन, जैसे टेलीकाम उद्योग के अधीनस्थ है, प्रतिनिर्धारित नुकसानी का उल्लेख वांछनीय है। यह विचार उच्चतम न्यायालय ने भारत संचार निगम लि. बनाम रिलायन्स कम्युनिकेशन लि. (Bharat Sanchar Nigam Ltd. v. Reliance Communication Limited)55 के वाद में व्यक्त किये थे। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि न्यायालय को सामान्यतया परिनिर्धारित नकसानी को दण्ड या हर्जाना की कोटि में नहीं रखना चाहिये। यह इस कारण है कि यह नुकसानी में अनिश्चितता को कम या न्यून कर देता है तथा परिणामस्वरूप मुकदमेंबाजी को न्यून करने में सहायक होते हैं। न्यायालय ने यह भी धारित किया कि इन नुकसानी में प्रयुक्त शब्दावली (Terminology) निर्णायक नहीं होती है वरन् यह एक कारकों में से एक कारक (one of the factors) होता है जिसे इन नुकसानी की वास्तविक प्रकृति निर्धारित करने के लिये ध्यान रखा जाना चाहिये।56

49. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 1955.

50. ए० आई० अप0 1991 पटना 14.

51. तत्रैव, पृष्ठ 20-21.

* सी० एस० ई० (1990) प्रश्न 5 (द) के लिये देखें।

52. तरसेम सिंह बनाम सुखमिन्दर सिंह, ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 1400. 1405

53. गुजरात राज्य बनाम दया भाई जावेर भाई, ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 270-2702.

54. देखें : महाराष्ट्र राज्य तथा अन्य बनाम ए० पी० पेपर मिल्स लि., ए० आई० आर० 2006 एस० सी०17881700 1790.

55. (2011)1 एस० सी० सी० (सि०) 192 : (2011)1 एस० सी० सी० 394.

56. तत्रैव, पृष्ठ 225-226.

संविदा को यथाधिकार विखण्डित करने पर प्रतिकर (Compensation on rightful rescission Contract) -संविदा अधिनियम की धारा 75 के अनुसार, जो व्यक्ति संविदा को यथाधिकार पण्डित करता है, वह किसी ऐसे नुकसान के लिए, जो उसने उस संविदा को पूरा न किये जाने से उठाया पतिकर पाने का हकदार है। उदाहरण के लिए, ‘क’ जो एक गायिका है, नाटक के प्रबन्धक ख से अगले दो महीने तक प्रत्येक सप्ताह में दो रात उसके नाटक में गाने की संविदा करती है और ख उसे एक रात के गायन के लिए 100 रु० देने का वचन देता है। छठी रात को क स्वत: उस नाटक से अनुपस्थित रहती है, जिसके परिणामस्वरूप ख उस संविदा को अपखण्डित कर देता है। ख उस नुकसान के लिए, जो उसने उस संविदा को परा न किये जाने से उठाया है, प्रतिकर का दावा करने का हकदार है।57 धारा 75 में उल्लिखित उपर्यक्त उपबन्ध की धारायें 39, 53, 55, 64 तथा 65 को पूरक के रूप में पढ़ा जाना चाहिये। इन धाराओं का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। धारा 75 के अन्तर्गत प्रतिकर के लिए दावा तभी पोषणीय (maintainable) होता है जब धारा 39, 53, 54 अथवा 55 के अन्तर्गत संविदा के विखण्डन के अधिकार का उपभोग किया गया है।58

यह सत्य है कि एक संविदा को विखंडित करने का अधिकार क्षतिपूर्ति के लिए अधिकार से अधिक इस पर कछ नियन्त्रण रख दिये गये हैं। इस पर पहला नियन्त्रण धारा 75 में ही दिया गया है। संविदा विखण्डित वही व्यक्ति कर सकता है जो इसका अधिकारी है या दूसरे शब्दों में विखण्डन यथाधिकार (rightful) होना चाहिये। वह व्यक्ति जिसने संविदा भंग की है अथवा संविदा का पालन नह किया है संविदा विखण्डित नहीं कर सकता है। धारा 39 के अनुसार, जब संविदा का कोई पक्षकार अपने वचन का पूर्णतः पालन करने से इनकार कर देता है या पालन करने से अपने आपको असमर्थ कर लेता हैं तो वचनग्रहीता संविदा समाप्त करने का अधिकारी हो जाता है। परन्तु यदि वह शब्दों या आचरण से संवित रखने की सम्मति देता है तो वह संविदा का अन्त नहीं कर सकता है। अत: दसरा नियन्त्रण यह है कि यदि वह शब्दों या आचरण से संविदा को जारी रखने की सम्मति देता है तो वह संविदा विखण्डित नहीं कर सकता है। धारा 75 के दृष्टान्त में यदि छठी रात अनुपस्थिति के बावजूद नाटक का प्रबन्धक गायिका को गाने देता है तो वह संविदा को विखण्डित नहीं कर सकता। विखण्डन करने का अधिकार अधिक उग्र है क्योंकि इससे संविदा समाप्त हो जाती है तथा जो पक्षकार यथाधिकार विखण्डन करता है तो प्रतिकर भी प्राप्त करने का अधिकारी होता है।

क्वान्टम मेरियट (Quantum Meruit)

ऐन्सन (Anson) के अनुसार, जब कभी संविदा के भंग होने पर किसी क्षतिग्रस्त पक्षकार ने अपने कार्य का कुछ अंश पूरा कर दिया है, जो कि वह संविदा के अन्तर्गत करने को बाध्य था, तो वह ऐसे किये गये कार्य के मल के लिए दावा करने का अधिकारी है। ऐसी दशा में यह कहा जायेगा कि वह क्वान्टम मेरियट के लिए वाद कर रहा है। ऐन्सन के मौलिक शब्दों में

“If the injured party, when the breach occurs, has already done part, though not all, of want he was bound to do under the contract, he may be entitled to claim the value of what he has done. In that case he is said to sue upon a Quantum Meruit.”)

ऐन्सन (Anson) ने यह भी स्पष्ट किया है कि क्वान्टम मेरियट नुकसान का रूप न होकर एक वैकल्पिक उपचार है 60

क्वान्टम मेरियट निम्नलिखित दशाओं में उपलब्ध हो सकता है

(1) जबकि भौतिक संविदा में उन्मोचन हो चुका हो,

57. धारा 75 का दृष्टान्त।

58. देखें: मिर्जा जावेद मुर्तजा बनाम यू० पी० फाइनेन्शियल कारपोरेशन, कानपुर, ए० आई० आर० 1983 इलाहाबाद 234, 241.

59. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 505.

60. तत्रैव, पृष्ठ 528.

(2) दावा उस पक्षकार द्वारा किया जाना चाहिये जिसने संविदा के पालन में चूक नहीं किया 61

भारतीय विधि-परनलाल शाह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Puranlal Shah v. State of U.P.)02 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि क्वान्टम मेरियट का सिद्धान्त अंग्रेजी विधि में प्रचलित है तथा भारत में भी इसे अपनाया जाता है।

इस वाद में वादी ने तीन मील लम्बे नैनीताल-भवाली मार्ग के निर्माण के लिए निविदा (टेन्डर) दी थी। निविदा में दी गई दरें संयुक्त प्रान्त द्वारा 30 दिसम्बर, 1943 को बनाई गई अनुसूची में उल्लिखित दर से 13 प्रतिशत कम थीं। उनकी निविदा को स्वीकार कर लिया गया। तत्पश्चात् वादी ने अधिक दरों को प्राप्त करने के लिए दावा किया। इस दावे के दो आधार थे-

(क) कार्य करते समय एक कड़ी चट्टान मिली थी, तथा  

(ख) संविदा की शर्तों के अनुसार पत्थर कार्य-क्षेत्र के पास ही मिलना चाहिये था जो कि नहीं मिला।

उच्च न्यायालय ने वादी के इस दावे को रद्द कर दिया, अर्थात् निर्णय दिया कि वह अधिक दर पाने का अधिकारी नहीं है। अत: वादी ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उचित बताया तथा अपने द्वारा निर्णीत एक पूर्व वाद ( अलोपी प्रसाद एण्ड सन्स लिमिटेड बनाम भारतीय संघ)63 का हवाला दिया। उस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि क्वान्टम मेरिएट कर तभी दिया जाता है जब कि जो कार्य किया गया है या जो सेवा की गई है. उसके लिए कोई दर निश्चित न हो। यदि कोई कार्य किया जाता है या सेवा की जाती है जो उसके लिए संविदा में कोई दर निश्चित है तो क्वान्टम मेरियट प्रतिकर का दावा नहीं किया जा सकता है। न्यायालय के शब्दों H–“Compensation Quantum Meruit is awarded for work done or services rendered when the price thereof is not fixed by a contract. For work done or services rendered pursuant to the terms of a contract, compensation Quantum Meruit can not be awarded where the contract provides for consideration payable in that behalf.”64

अलोपी प्रसाद एण्ड सन्स लिमिटेड बनाम भारतीय संघ (Alopi Prasad & Sons Ltd. v. Union of India) के वाद में दिये गये उपर्युक्त सिद्धान्त को राजस्थान उच्च न्यायालय ने हाल के एक वाद में राजस्थान सरकार बनाम मोतीराम (Rajasthan Govt. v. Moti Ram)65 में लागू किया है। इस वाद में संविदा की एक उपधारा में यह उल्लिखित था कि यदि कार्य में कोई परिवर्तन किया जाय तो संविदा अवैध नहीं होगी। इस वाद में प्रतिवादी ने क्वान्टम मेरियट प्रतिकर का दावा किया था, क्योंकि उससे संविदा के अतिरिक्त भी कुछ कार्य किया गया था। परन्तु उच्चतम न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुये राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि इस मामले में क्वान्टम मेरियट प्रतिकर का दावा नहीं किया जा सकता है क्योंकि संविदा में यह स्पष्ट रूप से लिखा था कि यदि अतिरिक्त कार्य लिया जाय तो संविदा अवैध नहीं होगीअर्थात संविदा में यह स्पष्ट किया गया था कि यदि अतिरिक्त कार्य लिया जायेगा तो उसकी देनगी संविदा में उल्लिखित दरों के अनुसार ही की जायेगी। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि क्वान्टम मेरियट के आधार पर प्रतिकर तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कि संविदा का नैराश्य हो गया हो।।

मेसर्स पटेल इन्जीनियरिंग कं० लि. बनाम इण्डियन आयल कारपोरेशन लि. (M/s Patel Engineering Co. Ltd. v. Indian Oil Corporation Ltd.)66 में न्यायालय ने यह धारित किया कि क्वान्टम मेरियट संविदा-सदृश पर आधारित है तथा यह तभी लागू होता है जब कि विवक्षित संविदा होती

61. ऐन्सन, नोट 1, पृष्ठ 529.

62. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 712.

63. ए० आई० आर० 1960 एस० सी० 588.

64. ए० आई० आर० 1960 एस० सी० 585.

65. ए० आई० आर० 1973 राजस्थान 223.

66. ए० आई० आर० 1975 पटना 212, 219.

है। व्यक्त करार की दशा में यह लागू नहीं होता है। यहाँ किसी पक्षकार ने पूर्ण या आंशिक रूप से संविदा का पालन किया है, वह संविदा की उपेक्षा करके क्वान्टम मेरियट के लिए दावा कर सकता है। परन्तु यदि संविदा का विखण्डन नहीं किया गया है या उसकी उपेक्षा नहीं की गई है तो क्वान्टम मेरियट के सिद्धान्त का आवाहन नहीं किया जा सकता है।

जहाँ सामान ले जाने की संविदा में रेलवे इस परिकल्पना के आधार पर कि सामान लम्बे रास्ते से जाना है अधिक किराया वसूल करती है परन्तु सामान को, कम दूरी वाले रास्ते से ले जाती है, परिकल्पना में तथ्य की भूल के कारण रेलवे ने जो अधिक किराया वसूल किया है उसे वापस करने के लिये दायित्वाधीन है तथा दावेदार उक्त अधिक धन प्राप्त करने का अधिकारी है। परन्तु रेलवे सामान को वास्तविक दूरी तक ले जाने का किराया क्वान्टम मेरियट के सिद्धान्त के आधार पर अपने पास रख सकती है।67

विनिर्दिष्ट अनुपालन और व्यादेश (Specific Performance and Injunction)

संविदा-भंग का सामान्य उपचार नुकसानी के लिए वाद है। परन्तु अपवाद के रूप में कुछ विशेष परिस्थितियों में न्यायालय संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का व्यादेश दे सकता है। इस सम्बन्ध में विधि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 में वर्णित है। इसी प्रकार कुछ विशेष परिस्थितियों में संविदा भंग को रोकने हेतु न्यायालय व्यादेश जारी कर सकता है। इस सम्बन्ध में भी विधि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 में वर्णित है।

67. ए० आई० आर० 1998 मध्य प्रदेश 24, 243, एसोशिएटेड सीमेन्ट कं० लि. बनाम भारतीय संघ।

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