LLB 1st Year Semester Legality of Object Notes
LLB 1st Year Semester Legality of Object Notes:- Law of Contract 1 Edition 16 LLB 1st Year / Semester की एक और नई पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थियो का स्वागत है | आज आप LLB Contract 1 Chapter 5 Legality of Object Notes Study Material in English Hindi में तैयारी करने के लिए दे रहे है जिन्हें आप PDF Download भी कर सकते है |
अध्याय 5 उद्देश्य की वैधता (LEGALITY OF OBJECT)
उद्देश्य या प्रतिफल की वैधता भी वैध संविदा का एक आवश्यक तत्व है। विधि में पक्षकारों के संविदा उत्पन्न करने की वैधता पर कुछ परिसीमाएँ लगाई गई हैं। ये परिसीमाएँ राष्ट्रीय तथा सामाजिक हितों की सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं। कुछ ऐसे उद्देश्य हैं जिन्हें विधि द्वारा वर्जित कर दिया गया है। ऐसे करार दो कोटियों में रखे जा सकते हैं-*
(1) अवैध करार (धारा 23), तथा
(2) शून्य करार (Void Agreement)-धारा 2 (ज) [2(g)] के अनुसार, ऐसा करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होता है शून्य कहलाता है। जैसा कि पिछले अध्याय में लिखा गया है विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार को संविदा कहते हैं। धारा 10 के अनुसार वह सभी करार संविदा है जो सक्षम पक्षकारों द्वारा स्वतन्त्र सम्मति से किये जाते हैं तथा जो विधिपूर्ण प्रतिफल तथा विधिपूर्ण उद्देश्य के लिये किये जाते हैं तथा जो व्यक्तिगत रूप से शून्य घोषित नहीं किये गये हैं। अत: शून्य करार वह करार होते हैं जिनमें धारा 10 में वैध संविदा में आवश्यक तत्व (सक्षम पक्षकार, स्वतन्त्र सम्मति, प्रतिफल, वैध उद्देश्य अथवा व्यक्त रूप से शून्य घोषित न हो) नहीं होते हैं। इस प्रकार हर वह करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होता है शून्य कहलाता है। शून्य करारों का सल्लेख धारा 24 से धारा 30 तक किया गया है। धारा 24 से धारा 30 तक वर्णित शून्य करार निम्नलिखित हैं:
(1) एकल प्रतिफल या उद्देश्य के किसी भाग के अवैध होने पर शून्य करार (धारा 24),
(2) प्रतिफल के बिना करार (धारा 25),
(3) विवाह के अवरोधार्थ करार (धारा 26),
(4) व्यापार के अवरोधार्थ करार (धारा 27),
(5) विधिक कार्यवाहियों के अवरोधार्थ करार (धारा 28),
(6) अनिश्चित करार (धारा 29),
(7) बाजी लगाने की अनुरीति का करार (धारा 30)।
इसके अतिरिक्त धारा 20 के अनुसार, जहाँ करार के दोनों पक्षकार करार की आवश्यक विषय-वस्तु के तथ्य के बारे में भूल करते हैं, करार शून्य होता है। इसी प्रकार, धारा 56 के अनुसार, किसी ऐसे कृत्य को करने का करार जो अपने आप में असम्भव होता है, शून्य होता है।
शून्य करार तथा अवैध करार में अन्तर
विधिशास्त्रीय कृत्य के सम्बन्ध में ‘शून्य’ (Void) के अर्थ होते हैं-बिना विधिक बल, प्रभाव या परिणाम के बिना बन्धनकारी; अवैध; अयोग्य; व्यर्थ; तथा अप्रभावी आदि। शून्य करार सभी विधिक प्रभावों तथा बल के बिना होते हैं। वह पूर्णतया अप्रभावी होते हैं। उनसे कोई विधिक सम्बन्ध, अधिकार या दायित्व उत्पन्न नहीं होते हैं। विधि की स्थिति का यह स्पष्टीकरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने नूतन कुमार बनाम द्वितीय अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, बाँदा (Nutan Kumar v. II Additional District Judge, Banda)1 के वाद में किया है।
दूसरी ओर अवैध करार ऐसे करार को कहते हैं जिसका प्रतिफल अथवा उद्देश्य विधिपूर्ण नहीं है। ऐसे करारों का उल्लेख धारा 23 में किया गया है। यह करार निम्नलिखित हैं :
* (1987) पी० सी० एस० (जे) प्रश्न 1 (अ)।
1. ए० आई० आर० 1994 इलाहाबाद 298 10 303, कृते न्यायाधीश डी० एस० सिन्हा।
(1) विधि द्वारा निषिद्ध करार;
(2) वह करार जो किसी विधि के उपबन्धों को निष्फल कर दे;
(3) कपटपूर्ण करार;
(4) वह करार जो किसी तीसरे व्यक्ति या उसकी सम्पत्ति को क्षति पहुँचाये; तथा
(5) अनैतिक तथा सार्वजनिक नीति के विरुद्ध करार।
धारा 23 के अन्तर्गत लोकनीति के विरुद्ध तथा अनैतिक करार अवैध न होकर वास्तव में शून्य होंगे तथा इस मामले में भारतीय विधि अंग्रेजी विधि से भिन्न है। शून्य करारों एवं अवैध करारों में निम्नलिखित अन्तर है:
शून्य करार वह होता है जिसका कोई विधिक प्रभाव नहीं होता है। एक अवैध करार वह करार होता है जो यद्यपि शून्य करार से इस बात में मिलता है कि जिसका तुरन्त पक्षकारों के मध्य कोई विधिक प्रभाव नहीं होता है। परन्तु इसके अतिरिक्त इसका यह प्रभाव भी होता है कि इसके सांपार्श्विक संव्यवहार भी अवैधता से अछूते नहीं रहते हैं तथा कुछ परिस्थितियों में प्रवर्तनीय नहीं होते हैं। यदि कोई करार केवल किसी अन्य करार का सांपार्श्विक (Collateral) है तथा उस अन्य करार के उद्देश्य को लागू करता है जो यद्यपि शून्य है परन्तु विधि द्वारा वर्जित नहीं है तो एक सांपार्श्विक करार के रूप में प्रवर्तित किया जा सकता है। दूसरी ओर, यदि यह उस युक्ति का भाग है जिसे उसे लागू करता है जो विधि द्वारा वर्जित है न्यायालय इसे स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि यह जो प्राप्त करना चाहता है वह उद्देश्य की अवैधता से प्रभावित है। जहाँ कोई व्यक्ति कोई अवैध संविदा करता है तथा अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वचन देता है कि उसमें कोई दोष नहीं है इस तरह का वचन एक सांपार्श्विक करार है तथा यदि दूसरा पक्षकार वास्तव में निर्दोष है तो वह नुकसानी के लिये वाद कर सकता है।
उपर्युक्त अन्तर उड़ीसा उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने रजत कुमार रथ बनाम भारत सरकार (Rajat Kumar Rath v. Government of India)2 के वाद में स्पष्ट किया था। इस वाद में सरकार वचत बैंक्स अधिनियम, 1873 की धारा 15 के अन्तर्गत बनाई गई डाकखाना मासिक आय लेखा नियम, 1987 बनाये। इन नियमों के अन्तर्गत बचत जमा की एक सीमा निर्धारित की गई जिसे मासिक आय योजना के अन्तर्गत स्वीकार किया जा सकता है। पेटीशनर ने सीमा से अधिक धन जमा कर दिया था। अत: डाक अधिकारियों ने निर्देश दिया कि सीमा से अधिक अर्जित किया गया धन वापस करे। यह उल्लेखनीय है कि पेटीशनर द्वारा सीमा से अधिक धन जमा करते हुये डाक कार्यालय द्वारा कोई आपत्ति नहीं की थी। इस वाद की विशिष्ट परिस्थितियों में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह मामला संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत नहीं आता है अत: ब्याज की वापसी का निर्देश उचित तथा मान्य नहीं है।
धारा 23 के अनुसार, उपर्युक्त प्रत्येक करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधि-विरोधी है। प्रत्येक करार जिसका उद्देश्य या प्रतिफल विधि-विरोधी होता है शून्य होता है। अवैध करारों की विस्तार से विवेचना नीचे की जा रही है :
अवैध करार (Unlawful Agreement)*
धारा 23 के अनुसार-“करार का प्रतिफल अथवा उद्देश्य-जब तक कि वह विधि द्वारा विनिषिद्ध नहीं है या ऐसे रूप का नहीं है कि यदि यह अनुज्ञात किया जाय तो वह विधि के उपबन्धों को निष्फल कर सया कपटपर्ण नहीं है, या उसमें दूसरे के शरीर या सम्पत्ति की क्षति अन्तर्ग्रस्त या विवक्षित नहीं है, या उसे न्याय अनैतिक या लोकनीति के विरुद्ध नहीं समझता, विधिपूर्ण होता है।”
इन अवस्थाओं में से प्रत्येक में करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधि-विरोधी कहलाता है। प्रत्येक करार, जिसका उद्देश्य या प्रतिफल विधि-विरोधी है, शून्य है।”
2. ए० आई० आर० 2000 उड़ीसा 32.
* पी० सी० एस० (1980) प्रश्न 2 (क); सी० एस० ई० (1979) प्रश्न 2 (ब)।
इन बातों को स्पष्ट करने के लिए धारा 23 में कई दृष्टान्त दिये गये हैं। इनमें से पहले चार दृष्टान्त वैध करारों के हैं, जो निम्नलिखित हैं:
(1) क अपने गृह को 10 हजार रुपये में ख को बेचने का करार करता है। यहां 10 हजार रुपये देने की ख की प्रतिज्ञा गृह को बेचने की क की प्रतिज्ञा है और गृह को बेचने की क की प्रतिज्ञा 10 हजार रुपये देने की ख की प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल है। यह विधिपूर्ण प्रतिफल है।
(2) क यह प्रतिज्ञा करता है कि यदि ग, जिसे ख को एक हजार रुपये देने हैं, उसे देने में असफल रहा तो वह ख को 6 महीने के समाप्त होने पर एक हजार रुपये देगा। ख तदनुसार ग को समय अनुदत्त करने की प्रतिज्ञा करता है। यहाँ प्रत्येक पक्षकार की प्रतिज्ञा दूसरे पक्षकार की प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल है। यह विधिपूर्ण प्रतिफल है।
(3) क ख द्वारा उसे दी गयी किसी राशि के लिए ख को उसके पोत का, यदि वह विशेष यात्रा में नष्ट हो जाए, मूल्य देने की प्रतिज्ञा करता है। यहाँ क की प्रतिज्ञा ख की देनगी के लिये प्रतिफल है और ख की देनगी क की प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल है और यह विधिपूर्ण प्रतिफल है।
(4) क ख के बच्चे का भरण-पोषण करने की प्रतिज्ञा करता है और ख उस प्रयोजन के लिए क को 10 हजार रुपये वार्षिक देने की प्रतिज्ञा करता है। यहाँ प्रत्येक पक्ष की प्रतिज्ञा दूसरे पक्ष की प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल है। वह विधिपूर्ण प्रतिफल है।
हाल के एक वाद टेनेट होम्स ऐण्ड रिजार्टस प्राइवेट लि०, इरनाकुलम बनाम ग्रेटर कोचीन डवलपमेन्ट अथार्टी (Tenet Homes & Resorts Pvt. Ltd., Ernakulam v. Greater Cochin Development Authority)7 के वाद में भूमि के विक्रय के लिये निविदा में यह शर्त थी कि सफल निविदादाता का दायित्व होगा कि वह निर्माण कार्य प्रारम्भ करे। संविदा के लागू होने के दिन रोक या रोधन (stay) आदेश ने निर्माण वर्जित कर दिया। पेटीशनर ने यह तर्क किया कि करार धारा 23 के अन्तर्गत विधिविरुद्ध या अवैध है। रोधन आदेश द्वारा समुद्रतट के भूमि की ओर 500 मीटर तक निर्माण वर्जित कर दिया। धारा 23 के अनुसार, प्रत्येक करार जिसका उद्देश्य या प्रतिफल अवैध है, शून्य है। परन्तु धारा 23 उन मामलों में प्रयोज्य होगा जहाँ प्रतिफल या उद्देश्य अवैध है। प्रस्तुत वाद में यह तर्क नहीं किया गया था संविदा का उद्देश्य अवैध है। इससे पेटीशनर को असुविधा हुई है जिसे पहले सोचा नहीं गया था। ऐसी इमारतें जिनका निर्माण होता था उनके लिये क्रेता ढूँढना कठिन होगा। परन्तु यह मामला धारा 23 के अन्तर्गत नहीं आता है?8
यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वाणिज्यिक या व्यापारिक संविदाओं के स्थायित्व का सिद्धान्त (doctrine of permanence or perpetuity) को प्रयुक्त नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसे मामले में एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के कारोबार को नष्ट कर सकते हैं।
इन दृष्टान्तों के उल्लेख के बाद अब उन करारों का उल्लेख वांछनीय होगा जिन्हें धारा 2 में अवैध घोषित कर दिया गया है। ये करार निम्नलिखित हैं*
(1) विधि द्वारा निषिद्ध (Forbidden by Law) धारा 23 के अनुसार, कोई भी करार, जिसका उद्देश्य या प्रतिफल विधि द्वारा विनिषिद्ध है, अवैध तथा शून्य होगा। कोई करार जो अधिनियम का उल्लंघन
3. धारा 23 का दृष्टान्त (क)।
4. धारा 23 का दृष्टान्त (ख)।
5. धारा 23 का दृष्टान्त (ग)।
6. धारा 23 का दृष्टान्त (घ)।
7. ए० आई० आर० 2001 केरल 279.
8. तत्रैव, पृष्ठ 281.
9. रोहित धवन बनाम जी० के० मलहोत्रा, ए० आई० आर० 2002 दिल्ली 151, 159; मार्टी-बेकर ऐयरक्राफ्ट कं० लि. बनाम कनैडियन फ्लाईट इक्युपमेन्ट लि०, आल० ई० आर० 1955 (2) 722.
* पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 3 (क)।
करता है या विधि द्वारा निषिद्ध है केवल शन्य ही नहीं वरन प्रारम्भ से ही अवैध होता है। कोई भी पक्षकार ऐसे करार को लागू या प्रवर्तित नहीं करवा सकता है तथा इससे कोई विधिक सम्बन्ध उत्पन्न नहीं होते हैं। किसी मामले या चीज जिस पर करार आधारित है अधिनियम व्यक्त रूप से निषेधाज्ञा दे सकता है। इसके अतिरिक्त इसके बजाय अर्थात् व्यक्त रूप से निषेध करने के बजाय केवल दोषी व्यक्ति के लिये दण्ड का प्रावधान कर सकता है तथा ऐसी दशा में यह माना जायगा कि अधिनियम ने निषिद्ध कर दिया है। दण्ड में निषेधाज्ञा अन्तर्निहित होती है।10 इस सम्बन्ध में पीयर्स बनाम ब्रुक्स (Pearce v. Brooks) का वाद उल्लेखनीय है । इस वाद के तथ्य निम्नलिखित है-
इस वाद में वादी ने प्रतिवादी को एक 4 पहिये वाली घोडागाडी किश्तों पर दी। किश्त 12 महीने के अन्दर अदा होनी थी। वादी को यह ज्ञात था कि प्रतिवादी एक वेश्या है और वह उक्त गाड़ी को अपने : अनैतिक पेशे के लिए प्रयोग करना चाहती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई भी व्यक्ति, जो किसी अवैध कार्य के होने में सहायक होता है या कोई वस्तु प्रदान करता है, तो वह उस वस्तु का मूल्य प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है। संक्षेप में न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त करार अवैध तथा शून्य था, क्योंकि इसका उद्देश्य विधि द्वारा वर्जित था।
एक अन्य वाद नन्दलाल बनाम थामस जे० विलियम्स (Nandlal v. Thomas J. Williams)12 में वादी ने एक शराब की दुकान खोलने के लिए उत्पादन शुल्क अधिनियम के अन्तर्गत एक लाइसेन्स प्राप्त किया। उक्त अधिनियम के अन्तर्गत लाइसेन्स का अन्तरण (transfer) तथा उपपट्टा वर्जित था। दूकान को साझेदारी में चलाना भी वर्जित था। दूकान चलाने के लिए वादी ने प्रतिवादी के साथ साझेदारी का करार किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त करार अवैध व शून्य था।13
रि महमूद एण्ड इस्पहानी (Re Mahmood and Ispahani)14 का वाद भी एक अच्छा उदाहरण है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
युद्ध के दौरान बिना लाइसेन्स के तेल के बीजों का क्रय-विक्रय निषिद्ध कर दिया गया था। वादी ने प्रतिवादी के साथ एक संविदा के अन्तर्गत उक्त चीजों के बेचने तथा परिदान करने का वचन दिया। संविदा के होने के पहले वादी को प्रतिवादी ने आश्वासन दिया था कि उसके पास आवश्यक लाइसेन्स था, तत्पश्चात् प्रतिवादी ने इस आधार पर बीजों को लेने से इन्कार कर दिया कि उसके पास लाइसेन्स नहीं था। न्यायालय ने इस वाद को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इस प्रकार की संविदा विधि द्वारा निषिद्ध थी।15
यदि वादी अपना शराब-विक्रय का कारोबार प्रतिवादी को इस उद्देश्य से हस्तान्तरित करे कि प्रतिवादी बिना लाइसेन्स के उक्त व्यापार चलाये तो वादी करार के अन्तर्गत निश्चित धन प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होगा क्योंकि उक्त करार विधि के विरुद्ध है।16
संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 23 के अन्तर्गत यह बताया गया है कि कौन से प्रतिफल तथा उद्देश्य विधिपूर्ण होंगे तथा कौन से नहीं । धारा 23 के अन्तर्गत विधायिनी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि कोई या कौन सी शर्ते या योग्यतायें हैं जिनके आधार पर कहा जा सके कि करार-विधि द्वारा वर्जित है। इसके लिये सम्बन्धित अधिनियम को देखना होगा। यह प्रश्न कि क्या विधि द्वारा वर्जित है अथवा क्या विधि के प्रावधानों को निष्फल कर देगा, सम्बन्धित अधिनियम के प्रावधानों के निर्वचन पर निर्भर करता है। यह विचार दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने बनारसी दास बनाम श्रीमती शकुन्तला (Banarsi Das v.
10. नतन कुमार बनाम द्वितीय अतिरिक्त जिला न्यायाधीश बाँदा, ए० आई० आर० 1994 इलाहाबाद 298.
11. (1866) L. R. I. एक्स 213.
12. 171 आई० सी० 948.
13. बद्ध राम बालक राम तथा अन्य बनाम द धूरी कोआपरेटिव-कम-मार्केटिंग-क्रम-प्रोसेसिंग सोसाइटी, धरी तथा अन्य, ए० आई० आर० 1972 पी० ऐण्ड एच0185.
14. (1921) 2 के० बी० 716.
15. तत्रैव, पृ० 124.
16. देखें : सिलवेस्टर लोयओला बनाम विक्टर मैनुएल फरनान्डीज, ए० आई० आर० 1981 गोआ 18.21
Smt. Shakuntala)17 में व्यक्त किया है। इस वाद में न्यायालय दिल्ली रेन्ट कन्ट्रोल ऐक्ट (1958) पर विचार कर रहा था। अधिनियम की धारायें 16 से 18 तक उप-किरायेदार बनाने को नियन्त्रित करती हैं। इन प्रावधानों में उप-किरायेदार रखना वर्जित नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि चूँकि उपकिरायेदार को रखना वर्जित नहीं है, उप किरायेदार की संविदा वैध है तथा अप्रवर्तनीय नहीं है।18.
मेसर्स डी० गोविन्दराम बनाम मेसर्स शामजी के ऐण्ड कम्पनी (M/s .D. Gobindram v. M/s Shamji K. & Co.)19 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विदेशी विनिमय नियन्त्रण अधिनियम, [Foreign Exchange Regulation Act, 1948] की धाराओं 5 तथा 21 पर विचार कर रहा था। धारा 5 के अनुसार, सिवाय इसके कि जो प्रावधान किया गया या कोई सामान्य अथवा विशेष उन्मुक्ति जो शर्त या बिना किसी शर्त के रिजर्व बैङ्क द्वारा प्रदान की गई हो, ब्रिटिश भारत में रहने वाला कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति को अर्जित करने या किसी व्यक्ति के पक्ष में कोई हित अन्तरित करने आदि के मामले में भारत के बाहर हेतु कोई भुगतान नहीं करेगा। धारा 21 के अन्तर्गत कोई व्यक्ति ऐसी संविदा या करार नहीं करेगा जिससे इस अधिनियम के किसी प्रावधान का उल्लंघन हो : उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि धारा 5 (1) विदेशी विनिमय नियन्त्रण अधिनियम के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उल्लंघन में हुई संविदा को निषिद्ध करता है। परन्तु धारा 5 (2) में प्रावधान है कि यदि कोई चीज बिना रिजर्व बैङ्क की अनुमति से नहीं की जा सकती तो इससे करार अवैध नहीं हो जायगा। धारा 5 (3) के अन्तर्गत नुकसानी ऋण आदि के लिये कानूनी कार्यवाही की जा सकती है परन्तु रिजर्व बैङ्क की अनुमति के सिवाय, निर्णय को लागू कराने के लिये कदम नहीं उठाये जायेंगे।
राज किशोर सहाय बनाम बिनोद कुमार, (Raj Kishore Sahay v. Binod Kumar)20 के वाद में पटना उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय को लागू किया। इस वाद में अमेरिकी कार के क्रय की संविदा थी। देश के बाहर रहने वाले पक्षकार को भारतीय करें भुगतान किया गया। पटना उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुये निर्णय दिया कि संविदा विदेशी विनिमय अधिनियम के उल्लंघन के आधार पर प्रारम्भ से ही शून्य (void ab initio) नहीं है क्योंकि धारा 5 में ऐसे भुगतान करना पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित नहीं है।21 भुगतान की वापसी एवं प्रतिकर के लिये धारा 65 के अन्तर्गत वाद किया जा सकता है।22
(2) वह करार जो किसी विधि के उपबन्धों को निष्फल कर दे (Agreement which defeat the provisions of any Law)-धारा 23 के अनुसार, यदि कोई करार ऐसी प्रकृति का है कि यदि उसकी अनुमति दी जाय तो वह किसी विधि के उपबन्धों को निष्फल कर देगा तो ऐसे करार के उद्देश्य या प्रतिफल को अवैध कहा जायेगा, और ऐसा प्रत्येक करार शून्य होगा। अतः किसी करार का उद्देश्य या प्रतिफल केवल इसी कारण अवैध नहीं हो सकता कि वह किसी विधि द्वारा वर्जित है वरन् इस कारण भी हो सकता है कि अपरोक्ष रूप से वह किसी विधि के उपबन्धों को निष्फल कर देगा।
दृष्टान्त (Illustrations)-(1) क उस अभियोजन को, जो लूट के लिए ख के विरुद्ध संस्थित किया है, छोड़ देने की ख से प्रतिज्ञा करता है और लूटी गई चीजों के मूल्यों का प्रत्यावर्तन की प्रतिज्ञा करता है। ऐसा करार शून्य होगा क्योंकि उसका उद्देश्य विधि विरोधी है।23
17. ए० आई० आर० 1989 दिल्ली 184, पृष्ठ 188.
18. तत्रैव, पृष्ठ 189.
19. ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1285.
20. ए० आई० आर० 1989 पटना 111,
21. तत्रैव, पृष्ठ 115; रावजी भाई मथुरा भाई सोलन्की (मृतक, विधिक प्रतिनिधि के द्वारा) बनाम बीजल भाई, देवजी भाई प्रजापति तथा अन्य, ए० आई० आर० 2004 गुजरात 102, 111 को भी देखें।
22. तत्रैव, पृष्ठ 117. 23. धारा
23 का दृष्टान्त (ज)।
(क) क की सम्पदा राजस्व के बकाया के लिये विधान-मण्डल के अधिनियम के उपबन्धों के अधीन, जिनसे कि चूककर्ता उस भू-सम्पदा को खरीदने से प्रतिषिद्ध है, बेची जाती है। ख क के साथ बात तय कर के खरीददार बन जाता है और यह करार करता है कि वह क से वह कीमत मिलने पर, जो कि ख ने दी है, वह सम्पदा क को देगा। यह करार शून्य है, क्योंकि इससे विधि का उद्देश्य निष्फल हो जायेगा।2
फतेह सिंह बनाम साँवल सिंह (Fateh Singh v. Sanwal Singh)25 के वाद में अभियुक्त को अपने अच्छे आचरण के लिए 5 हजार रुपये की जमानत देने को कहा गया, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 में प्रावधान है। अभियुक्त ने प्रतिवादी के पास 5 हजार रुपये जमा किये और उसे जमानतदार या प्रतिभू बनने के लिए मना लिया। अवधि की समाप्ति पर अभियुक्त ने 5 हजार रुपये वापस माँगे और न मिलने पर उसने प्रस्तुत दावा दायर किया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त करार अवैध है तथा वादी उक्त धन को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि उसे यदि ऐसा करने दिया जाय तो वह विधि के उपर्युक्त उपबन्धों को निष्फल कर देगा। न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 का उद्देश्य यह है कि प्रतिभू स्वयं खतरा लेकर अभियुक्त को न्यायालय में हाजिर करने की जिम्मेदारी ले।
राम सेवक बनाम राम चरन तथा अन्य (Ram Sewak v. Ram Charan [(Deceased by L-Rs) and another]26 के वाद में पक्षकारों ने कारोबार साझेदारी में चलाने का करार किया। यहाँ तक इस मामले में कोई अवैधता नहीं थी। परन्तु पक्षकारों ने यह भी करार किया कि वह कारोबार के कुछ भाग को छिपाये रखेंगे तथा उसे हिसाब के खातों आदि में नहीं दिखायेंगे, जिससे कि आयकर तथा विक्रयकर बचाया जा सके। आयकर तथा विक्रयकर की चोरी स्पष्टतया विधि द्वारा निषिद्ध है तथा हर दशा में उन विधियों के प्रावधानों को निष्फल कर देना है जिनके अन्तर्गत ये कर लगाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त करों की चोरी लोक-नीति के विरुद्ध है। अत: न्यायालय ने धारित किया कि जहाँ तक उक्त करार कारोबार के लाभों को छिपाने या गुप्त रखने से सम्बन्धित था या झूठे हिसाब बनाना था, वह पूर्णतया शून्य था तथा उसे लागू नहीं कराया जा सकता है। वादी उक्त अवैध करार को लागू करवाना चाहता था। निम्न न्यायालय ने उसके पक्ष में निर्णय दिया लेकिन निम्न अपील-न्यायालय ने वाद खारिज कर दिया। प्रस्तुत अपील में उच्च न्यायालय ने भी उक्त आधार पर अपील खारिज कर दी।
इसी प्रकार यदि साझेदारी फर्म के विरुद्ध वाद किया जाता है तथा कुछ साझेदारों को प्रतिवादी नहीं बनाया जाता है तो प्रतिवादी साझेदारों की माँग या दावे को स्वीकार करना साझेदारी अधिनियम की धारा 19 (2) में निषिद्ध है तथा यह धारा 23 के भी विरुद्ध है। ऐसा करार अवैध एवं शून्य होगा।27
(3) कपटपूर्ण (Fraudulent)-धारा 23 के अनुसार, यदि प्रतिफल कपटपूर्ण होता है तो वह अवैध होता है। इसे निम्नलिखित तीन दृष्टान्तों द्वारा ठीक से समझा जा सकता है
दृष्टान्त-(क) क, ख और ग अपने द्वारा कपट से अर्जित या किये जाने वाले अभिलाभों को आपस में विभाजन के लिए करार करते हैं, करार शून्य है, क्योंकि उसका उद्देश्य विधि-विरुद्ध है ।28
(ख) क, जो एक भूस्वामी के लिये अभिकर्ता है, अपने मालिक के ज्ञान के बिना अपने मालिक की भमि का ख के लिए पट्टा अभिप्राप्त करने के लिए धन पाने का करार करता है। क, ख के बीच करार शून्य है. क्योंकि उससे विवक्षित है कि क अपने मालिक से छिपाकर कपट करता है।29
सीताराम बनाम राधाबाई30 के वाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति शाह (Shah J.) ने अपने निर्णय में कहा कि न्यायालय एक अवैध करार को ऐसे व्यक्ति के कहने पर, जो कि उसका पक्षकार है, लागू
24. धारा 23 का दृष्टान्त (झ)।
25. (1878) 1 इलाहाबाद 751.
26. ए० आई० आर० 1982 इलाहाबाद 177.
27- देखें : तिलोकराम घोष बनाम श्रीमती गीता रानी साधूखन, ए० आई० आर० 1989 कलकत्ता 254, पृ० 259.
28. धारा 23 का दृष्टान्त (ङ)।
29. धारा 23 का दृष्टान्त (छ)।
30. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 534.
करने से इन्कार करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि इस नियम के कुछ अपवाद हैं जो निम्नलिखित
(अ) जब अवैध उद्देश्य को सारवान् रूप से प्रभाव में नहीं लाया गया तथा इसके पूर्व इसमें दिये गये धन या परिदत्त की गई वस्तुओं को प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है।
(ब) जब वादी प्रतिवादी का ऐसे कार्य में हाथ नहीं था, तथा
(स) जब प्रतिवादी को अपना दावा करने के लिए अवैधता पर निर्भर नहीं करना पड़ता है।31
(4)किसी अन्य व्यक्ति या उसकी सम्पत्ति को क्षति पहुँचे-धारा 23 के अनुसार, किसी करार का प्रतिफल या उद्देश्य अवैध माना जायेगा यदि इसके द्वारा किसी अन्य व्यक्ति या उसकी सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने का आशय विवक्षित है। यदि पक्षकार झूठा संव्यवहार करते हैं । उसका उद्देश्य किसी तीसरे पक्षकार को धोखा देना होता है तो ऐसे करार से कोई विधिक अधिकार या दायित्व उत्पन्न नहीं होते। दूसरे शब्दों में ऐसा करार शून्य होता है।
यदि दो व्यक्ति करार करते हैं कि वह एक कम्पनी के कुछ शेयर इसलिये खरीदेंगे जिससे कि दूसरे लोगों को भ्रम हो कि उक्त कम्पनी की बाजार में अच्छी स्थिति है, तो ऐसा करार अवैध होगा तथा उसे लागू नहीं किया जा सकता।32 रोमर बनाप नार्थ अमेरिकन न्यूजपेपर्स अलाएन्स (Roamer v. North American Newspapers Allience)33 के अमरीकी वाद में प्रतिवादी से एक करार किया गया, जिसमें यह विवक्षित था कि प्रतिवादी की एक तीसरे पक्षकार के साथ संविदा निष्फल हो जायगी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि ऐसी संविदा अवैध होगी।
हाल के एक वाद के० अब्दुल खादर बनाम द प्लान्टेशन कारपोरेशन आफ केरल लि. कोट्टायम (K. Abduikhadar v. The Plantation Corporation of Kerala Ltd., Kottayam)34 में केरल उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अभिनिर्धारित किया है कि कोई करार, जिसमें अन्य व्यक्तियों या उनकी सम्पत्तियों को क्षति पहुँचना निहित है, धारा 23 के अन्तर्गत शून्य होता है। ऐसे अवैध करार के उल्लंघन के लिए प्रतिकर का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता है।35
(5) अनैतिक तथा सार्वजनिक नीति के विरुद्ध (Immoral or opposed to Public Policy)यदि कोई करार अनैतिक है अथवा सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है तो धारा 23 के अनुसार ऐसा करार अवैध तथा शून्य होगा।
अनैतिक (Immoral)-‘अनैतिक’ शब्द की परिभाषा करना बड़ा ही कठिन है। किसी परिस्थिति में ‘अनैतिक’ क्या है, उस समय की नैतिकता के स्तर पर निर्भर करता है। परन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जो सदैव अनैतिक मानी जाती हैं; जैसे-यदि एक मकान-मालिक अपने मकान को एक वेश्या को वेश्यावृत्ति के लिये दे दे तो वह उसका किराया प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है क्योंकि यह करार अनैतिक है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी करार द्वारा अन्य व्यक्ति को किसी नाचने वाली लड़की के साथ संभोग करने के लिए पेशगी धन देता है तो ऐसे धन को पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करार अनैतिक होगा। – इस सम्बन्ध में अंग्रेजी वाद पीयर्स बनाम ब्रुक्स (Pearce v. Brooks)36 उल्लेखनीय है।
इस वाद में एक गाड़ी बनाने वाले ने चार पहियों वाली एक गाड़ी एक वेश्या को किश्तों पर दी। गाड़ी का प्रयोग ग्राहकों को आकर्षित करने अथवा वेश्या को वेश्यावृत्ति में सहायता देने हेतु था। धन का भुगतान न होने पर उसने
31. देखें ऐन्सन्स प्रिन्सिपल्स आफ इंगलिश ला आफ कान्ट्रैक्ट, 23वाँ संस्करण, पृष्ठ 343.
32. डोयरिंग मैकनाब ऐण्ड के० (1892) 2 क्यू० बी० 724.
33. 159 एन० वाई० 250.
34. ए० आई० आर० 1983 केरल 1.
35. तत्रैव, पृष्ठ 4.
36. (1866) एल० आर०1 ऐक्स०सी० एच० 213, 217-2183; अलेक्जन्डर बनाम रेयसन (1936)1 के० बी० 169 के वाद को भी देखें।
वाद प्रस्तुत किया। परन्तु न्यायालय ने इसके वाद को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसने जिस करार के अन्तर्गत उक्त गाड़ी दी थी, वह अनैतिकता के आधार पर अवैध था।
जब तक एक स्त्री का पति जीवित रहता है, वह बिना तलाक लिये किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकती है। जहाँ कोई व्यक्ति विवाहित स्त्री को बिना तलाक प्राप्त किये उसे प्रतिफल हेतु किसी अन्य व्यक्ति को देता है तो प्रतिफल का उद्देश्य अनैतिक तथा लोक नीति के विरुद्ध होगा। यह निर्णय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने श्रीमती कमला बाई बनाम अर्जन सिंह (Smt. Kamla Bai v. Arjan Singh) के वाद में किया। इस वाद में विवाहित स्त्री के पिता ने अपनी लड़की का विवाह एक अन्य व्यक्ति से कर दिया। उक्त अन्य व्यक्ति ने विवाह के पूर्व स्त्री के पिता के नाम कुछ भमि अन्तरित कर दी थी। उक्त स्त्री ने अपने पहले पति से तलाक प्राप्त नहीं किया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त अन्तरण का करार अनैतिक एवं लोक नीति के विरुद्ध होने के कारण शून्य है। यह भली भाँति स्थापित विधि है कि विवाह दलाली की संविदा जिसमें एक तीसरा व्यक्ति हस्तक्षेप करता है तथा दो व्यक्तियों के वैवाहिक सम्बन्ध से धन प्राप्त करना चाहता है लोक-नीति के विरुद्ध है तथा न्यायालय ऐसे करार को लागू नहीं करवायेगा। न्यायालय के शब्दों में:
“A woman connot marry another man while her husband is alive, except her marriage has been dissolve by divorce and, therefore, the transfer of suit property in favour of Prahlad Singh (father) was for immoral purposes and was against the public policy. It is settled law that a marriage brokerage contract where a third person intervenes and wants to make money out of the marital relationship between the two partners is against public policy and not enforceable by a court of law.” 38
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि जहाँ कोई संविदा या संव्यवहार अवैध है, यह आवश्यक नहीं है कि पक्षकारों द्वारा अवैधता का अभिवचन किया जाय तथा न्यायालय इसकी न्यायिक सूचना लेने को बाध्य है।39
संविदा अधिनियम के अन्तर्गत दृष्टान्त-(1) क, जो ख का मुख्तार है, उस रूप में ख अपने असर से ग के पक्ष में प्रयुक्त करने की प्रतिज्ञा करता है तथा ग उसे एक हजार रुपये देने की प्रतिज्ञा करता है। करार शून्य है, क्योंकि यह अनैतिक है 40
(2) क अपनी पुत्री को उपपत्नी के रूप में रखे जाने के लिए ख को अभिक्रय पर देने के लिये करार करता है। करार शून्य है, क्योंकि यह अनैतिक है, भले ही अभिक्रय पर देना भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code) के अधीन दण्डनीय नहीं है 41
एक वाद में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश सुब्बाराव (Subbarao, J.)42 ने अपने निर्णय में निम्नलिखित करारों का वर्णन किया है जो अनैतिकता के आधार पर शून्य है
उपपत्नी के रूप में रखे जाने का प्रतिफल, वेश्या घर में रखी जाने वाली चीजों का अभिक्रय या किराये पर देना, वेश्या के पेशे से सम्बन्धित वस्तुएं, भविष्य में अवैध सम्भोग के लिये धन देनगी का करार, विवाह के प्रतिफल की प्रतिज्ञा तथा तलाक की संविदाएँ।
राजस्थान का वाद श्रीमती नारायणी देवी बनाम प्यारे मोहन (Smt. Narayani Devi v. Pyare Mohan)43 भी उल्लेखनीय है। इस वाद में वादी को इस प्रतिफल में दान (Gift) दिया गया था कि उसके साथ भतकाल में संभोग किया गया था तथा उसने रखैल के रूप में अन्य सेवायें भी अर्पित की थीं। परन्तु इस
37. ए० आई० आर० 1991 मध्य प्रदेश 275.
38. तत्रैव, पृष्ठ 279.
39. तत्रैव, पृष्ठ 280; देखें: सूरसाईबालिनी बनाम फनीन्द्र मोहन, ए० आई० आर० 1965 एस० सी०1364.
40. धारा 23 का दृष्टान्त (ज)।
41. धारा 23 का दृष्टान्त (ट)।
42. देखें: घेरूलाल बनाम एम० मैया (1959) 2 एस० सी० आर० 342, 374-75.
43. ए० आई० आर० 1972, राजस्थान 25.
वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय न निणय दिया कि उक्त दान देने वाले का उद्देश्य अनैतिक या अवैध नहीं था। न्यायालय ने अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि दान देने का उद्देश्य भविष्य में सम्भोग करने का प्रतिफल होता तो यह अवैध होता।
दृष्टान्त
(1) ‘म’ ‘प’ की एक रखैल थी और दोनों का कुछ समय से पूर्व अनैतिक सम्बन्ध था। एक दिन _ ‘म’ ने ‘प’ से अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए उससे शिकायत की कि वह उसका शोषण कर रहा था। इस
पर ‘प’ ने उसके साथ अपने पूर्व सम्बन्ध के बदले में अपने कानपुर स्थित मकान को देने की तथा भविष्य में अपने सम्बन्ध बनाये रखने के लिए 1,000 रुपये प्रतिमाह देने की प्रतिज्ञा की। क्या ये प्रतिज्ञायें विधि के द्वारा प्रवर्तनीय हैं।
श्रीमती नारायणी देवी बनाम प्यारे मोहन (1972) के वाद में यह निर्णय दिया गया था कि भूतकाल में सम्भोग के लिये मकान देने का वचन अवैध प्रतिफल नहीं है; अत: यह प्रवर्तनीय होगा। अतः भूतकाल में सम्भोग के लिए कानपुर स्थित मकान देने का वचन विधि द्वारा प्रवर्तनीय होगा। परन्तु भविष्य में सम्बन्ध बनाये रखने के लिये 1000 रुपये प्रति माह देने का वचन धारा 23 के अन्तर्गत अवैध होगा।
(1) वादी का वाद यह है कि ‘जी’ की 15-6-1980 की मृत्यु के पूर्व वह उसके साथ 11 वर्ष तक रही थी। 1979 में लगातार बीमारी के कारण जब ‘जी’ ने सोचा कि वह अधिक दिन तक जीवित नहीं रहेगा, उसे अर्पित की गई सेवाओं के प्रतिकर के रूप में ‘जी’ ने वादी के पक्ष में मकान का दान विलेख (gift deed) लिखा जिससे कि वह और उसके बच्चे उसमें रह सकें। उसे उक्त मकान का कब्जा भी दे दिया गया। अगस्त 1980 में वादी ने ‘जी’ के बहिन के लड़के को उक्त मकान के एक हिस्से में रहने की अनुमति दे दी। परन्तु जब वादी ने उसे मकान के हिस्से को खाली करने को कहा तो उसने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अत: इस वाद द्वारा वादी मकान के उक्त हिस्से को कब्जे में प्राप्त करने के लिये दावा करती है। प्रतिवादी ने वाद का विरोध इस आधार पर किया कि दान शून्य था क्योकि इसका उद्देश्य भूतकाल में संभोग था जो कि अनैतिक था क्योंकि वादी ‘जी’ के साथ तब रखैल के रूप में रह रही थी तथा उक्त अवधि के भाग में वादी का पति जीवित था। प्रतिवादी ने यह भी दावा किया कि वह ‘जी’ का अकेला जीवित उत्तराधिकारी था अत: उक्त मकान उसे उत्तराधिकार में मिला।*
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है यदि किसी करार का उद्देश्य या प्रतिफल भूतकाल में संभोग है तो ऐसा करार अवैध तथा शून्य नहीं होगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय धीरज कौर बनाम विक्रमजीत सिंह (Dhiraj Kuer v. Bikramjit Singh)44 के वाद में दिया था। इसी प्रकार का निर्णय राजस्थान उच्च न्यायालय ने श्रीमती नारायणी देवी बनाम प्यारे मोहन के वाद में दिया था। इस वाद का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस मत का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने डी० नागरत्नम्बा बनाम कुमुकू रमय्या (D. Nagaratnamba v. Kumuku Ramayya)45 के वाद में कर दिया गया। परन्तु जहाँ संभोग (चाहे भूतकाल या भविष्य में हो) जारकर्म (adultery) होता है, करार अवैध तथा शून्य होगा क्योंकि जारकर्म अनैतिक तथा अवैध दोनों ही होता है। इस मामले में 11 वर्षों की अवधि के एक भाग में वादी का पति जीवित था। उक्त अवधि में वह जारकर्म की दोषी थी; अत: पूर्व करार अवैध तथा शून्य हो गया। इस प्रकार दान विलेख अवैध तथा शून्य था। चूंकि प्रतिवादी ‘जी’ का अकेला जीवित वारिस था, वह मकान प्राप्त करने का अधिकारी था।
धारा 24 के अनुसार, यदि एक प्रतिफल का कोई भाग एक या अधिक उद्देश्यों के लिये या एक उद्देश्य के लिए एक या अधिक प्रतिफल अवैध है तो करार शून्य होता है। अत: दान विलेख शून्य होगा तथा प्रतिवादी मकान प्राप्त करने का अधिकारी होगा।
* पी० सी० एस० (1981) प्रश्न 1 (ख)।
* सी० एस० ई० (1980) प्रश्न 1.
44. (1881) 3 इलाहाबाद 781.
45. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 253.
लोकनीति के विरुद्ध (Opposed to Public Policy) ** किसी करार का उद्देश्य या प्रतिफल यदि सार्वजनिक नीति के विरुद्ध होता है तो वह अवैध तथा शून्य होता है। परन्तु यह स्मरणीय है कि शब्द ‘सार्वजनिक नीति के विरुद्ध’ बड़े ही अस्पष्ट तथा अनिश्चित हैं तथा इसके अर्थ बड़े ही व्यापक हैं। इस बात को घेरूलाल बनाम महादेव दास (Gherulal v. Mahadeo das)46 में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सुब्बाराव ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने अंग्रेजी वाद फेन्डर बनाम सेन्ट जान मिल्डमे (Fender v. St. John Mildamay)47 में लार्ड एटिकिन (Atikin, L.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का अनुमोदन करते हुए कहा कि “सार्वजनिक नीति’ शब्द की धारणा बडी ही भ्रमात्मक है। यह अविश्वसनीय मार्गदर्शक है। विधि का प्राथमिक सिद्धान्त यह है कि पक्षकारों ने जो प्रतिज्ञा की है, उसको लागू किया जाय। परन्तु कुछ मामलों में न्यायालय पक्षकारों को उनके दायित्वों के आधार पर उन्मुक्त कर सकता है, यदि उनके दायित्व सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हैं या यह बहुधा पूर्वोक्तियों पर निर्भर करता है। इसके कुछ निश्चित शीर्षक हैं।”
चेशायर तथा फीफूट48 के अनुसार, ‘सार्वजनिक’ या ‘लोकनीति’ शब्दों के अर्थ बड़े ही स्पष्ट हैं। जिन हितों की यह रक्षा करना चाहता है, वे बड़े ही विस्तृत हैं। क्या लोकनीति’ के हित में है और क्या इसके विरुद्ध है, यह सामाजिक तथा नैतिक धारणाओं पर आधारित है तथा यह सदैव बदलती रहती है, अतः यह विधिक निर्णय के लिये बड़ा अस्थिर तथा खतरनाक आधार है। इन बातों ने न्यायालयों को सदैव परेशान किया है। परन्तु निम्नलिखित दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं-
(क) यद्यपि स्थापित नियमों को बदलते समय विश्व की दशाओं के अनुरूप बनाया जाना चाहिये। न्यायालय लोकनीति के नये शीर्षक खोजने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र नहीं है। न्यायाधीश यह निर्धारित नहीं कर सकता है कि उसके मत में समुदाय के हित में क्या है।
(ख) यदि कोई संविदा लोकनीति के मान्य किसी शीर्षक के अन्तर्गत आती है, तो भी ऐसी संविदा तब तक अवैध नहीं मानी जायगी जब तक कि इसके हानिकारक गुण बिल्कुल स्पष्ट न हों।
इंग्लैण्ड में ऐसी संविदा, जो लोगों के लिये हानिकारक होती है या जनता के विरुद्ध होती है, लोकनीति के विरुद्ध होने के परिणामस्वरूप शून्य होती है।49 यद्यपि यह देश संविदात्मक स्वतन्त्रता को स्वीकार करता है। ऐसी संविदायें, जो सामाजिक तथा आर्थिक हितों के विरुद्ध हों, निषिद्ध हैं।50 परन्तु इस सम्बन्ध में मतभेद रहा है कि कौन-कौन-सी संविदायें लोकनीति के विरुद्ध हैं। एक समय यह सोचा जाता था कि स्थापित नियमों को बदलती हुई दुनिया के अनुरूप ढाला जा सकता था, परन्तु न्यायालय लोकनीति का कोई नया शीर्षक (head) नहीं खोज सकते थे। तत्पश्चात इस धारणा में काफी परिवर्तन स्वीकार किया गया कि इस बात का निर्धारण कि लोक नीति के विरुद्ध क्या है, समय-समय पर बदलता है। हाल में इस धारणा में और अधिक परिवर्तन हुआ है तथा और गतिशील दृष्टिकोण अपनाया गया है। उदाहरण के लिये नागली बनाम फील्डेन (Nagle v. Feilden)51 में न्यायाधीश डैन्कवर्ट्स (Dancwerts L.J.) ने यह सुझाव दिया कि लोकनीति से सम्बन्धित विधि स्थिर नहीं रह सकती। समय के साथ इसे भी परिवर्तित होना चाहिये। यह भी परिवर्तनशील है। उनके मौलिक शब्दों में– “The law relating to public policy cannot remain immutable. It must change with the passage of time, the wind of change blows upon it.” यही मत मद्रास उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने कमला सगर मिल्स लि०, दिल्ली बनाम मेसर्स गंगा बिशेन भजन सिंह (M/s Kamla Sugar Mills Ltd., Delhi v. M/s Ganga
** आई०ए० एस० (1976) प्रश्न 3 (क); तथा सी० एस० ई० (1982) प्रश्न 1 (ग): सी० एस०ई० (1995) प्रश्न 5 (अ) के लिये भी देखें।
46. ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 781,795.
47. (1938) ए० सी०1.
48. ला ऑफ कान्ट्रैक्ट, तीसरा संस्करण, पृष्ठ 280
49. हेल्सबरीज लाज आफ इंग्लैण्ड, तीसरा संस्करण, जिल्द 8, पैरा 223, पृ० 130.
50. चेशायर, ला आफ कान्ट्रैक्ट, आठवाँ संस्करण, पृ० 319.
51. (1966) 2 क्यू० बी० 633, 650.
Bishen Bhajan Singh)52 में प्रकट किया है। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि लोकनीति के सिद्धान्त का आधार यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपने वाद का आधार अवैध या अनैतिक कृत्य पर रखता है तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति की सहायता नहीं करेगा। परन्तु ऐसा करने के लिए यह सदैव आवश्यक है कि न्यायालय का अन्त:करण संतुष्ट हो कि सम्बन्धित अनैतिकता, अवैधता या अयुक्तता मामले की जड़ तक जाती है तथा संविदा की नींव को हिला देती है। यदि परिस्थिति ऐसी है तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति की सहायता नहीं करेगा।53
एसोसिएटेड सीमेन्ट कम्पनीज लि. बनाम राजस्थान तथा अन्य (Associated Cement Companies Ltd. v. The State of Rajasthan and another)54 के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि लोकनीति किसी समुदाय में स्थिर या जड़ नहीं होती है। यह प्रत्येक पुश्त (generation) तथा उसी पुश्त में भी परिवर्तित हो सकती है। यदि ऐसा न हो तो लोकनीति निरर्थक होगी; अतः लोकनीति को विश्व की बदलती हुई परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होना चाहिये।55 इस वाद में विचाराधीन प्रश्न यह था कि राज्य सरकार द्वारा किसी कम्पनी से किया गया करार कि, उसे पट्टे पर दी गई भूमि नगरपालिका-क्षेत्र से परे रखी जायगी, लोकनीति के विरुद्ध होगा कि नहीं? उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि ऐसा करार लोकनीति के विरुद्ध होगा। क्योंकि राज्य सरकार को यह शक्ति प्राप्त नहीं है कि वह किसी विशिष्ट क्षेत्र के नागरिकों को नगरपालिका-पंचायत आदि स्थानीय निकाय से शासित होने से वंचित कर सके; अतः सरकार द्वारा किया गया ऐसा करार लागू नहीं किया जा सकेगा।
इन सिद्धान्तों के आधार पर यह सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया है कि ऐसी संविदा, जिसका उद्देश्य सरकारी कर की चोरी करना है या जो सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है या जो समुदाय के सामाजिक तथा आर्थिक हितों के विरुद्ध है, इस आधार पर शून्य और अप्रवर्तनीय होगी कि वह लोकनीति के विरुद्ध है। न्यायालय ऐसे व्यक्ति की सहायता नहीं करेगा जो अपना वाद अनैतिक या अवैध कार्य पर आधारित करता है। इंग्लैण्ड में यह भी स्वीकार किया गया है कि यदि अवैध प्रतिफल पूर्ण प्रतिफल का केवल एक छोटा-सा भाग है तथा यदि अवैधता में कोई आपराधिक कार्य शामिल नहीं था, तो अवैध भाग शेष प्रतिफल से अलग किया जा सकता है। ऐसी दशा में अवैध भाग शून्य तथा अप्रवर्तनीय होगा तथा शेष भाग प्रवर्तनीय कराया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, यदि अवैध उद्देश्य पूरा होने के पूर्व संविदा के एक पक्षकार ने संविदा को अपनी ओर से समाप्त कर दिया है तो संविदा के अन्तर्गत दिये गये धन अथवा परिदत्त किये गये माल को दूसरा पक्षकार वापस करा सकता है।56
इस सम्बन्ध में मेसर्स आनन्द प्रकाश ओम प्रकाश बनाम मेसर्स ओसवाल ट्रेडिंग एजेन्सी तथा अन्य (M/s. Anand Prakash Om Prakash v. M/s. Oswal Trading Agency and Others)57 का वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वाद में न्यायालय के सम्मुख एक ऐसी संविदा विचारणीय थी जिसके अन्तर्गत माल का विक्रय काला बाजार में होना था तथा प्रतिफल काले धन के रूप में दिया जाना था। सर्वप्रथम न्यायालय को इस बात पर निर्णय देना था कि प्रतिवादी के बिना प्रश्न उठाये क्या न्यायालय स्वयं इस पर विचार कर सकता है कि संविदा अप्रवर्तनीय है? देहली उच्च न्यायालय ने उत्तर दिया कि इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि पक्षकारों ने यह प्रश्न उठाया है अथवा नहीं। न्यायालय स्वयं इस प्रश्न पर विचार कर सकता है।58 न्यायालय के सम्मुख दूसरा प्रश्न यह विचारणीय था कि क्या काले बाजार में माल का विक्रय तथा काले धन के रूप में प्रतिफल का दिया जाना लोकनीति के विरुद्ध है? न्यायालय ने स्पष्ट
52. ए० आई० आर० 1978 मद्रास 178, 183-184.
53. तत्रैव, पृ० 184.
54. ए० आई० आर० 1981, राजस्थान 133.
55. तत्रैव, पृ० 137.
56. हैल्सबरीज लाज आफ इंग्लैण्ड, तीसरा संस्करण, जिल्द 8, पैरा 258, पृ. 150.
57. ए० आई० आर० 1976, दिल्ली 24.
58. तत्रैव, पृ० 26-27.
किया कि लोकनीति से सम्बन्धित विधि स्थिर नहीं रह सकती। इंगलैण्ड स्वतन्त्र व्यापार में विश्वास रखता है; फिर भी वहाँ अब न्यायालयों ने यह स्वीकार किया है कि लोकनीति से सम्बन्धित विधि में समयानुसार परिवर्तन होना चाहिए। भारत में भी यही मत मान्य होना चाहिए। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि ऐसी संविदा, जिसके अन्तर्गत माल काले बाजार में दिया जाना था तथा प्रतिफल काले धन में दिया जाना था, लोकहित के विरुद्ध होगी। जहाँ तक प्रस्तुत वाद का प्रश्न है, न्यायालय ने कहा-न तो माल का परिदान और न ही धन का भुगतान लोकनीति के विरुद्ध कहा जा सकता है। संविदा का उद्देश्य भी लोकनीति के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है क्योंकि स्पष्टतया उद्देश्य व्यापार करने का था। विक्रेता व्यापार के लिए विक्रय करना चाहता था तथा क्रेता धन अर्जित करने के लिए माल का क्रय करना चाहता था। इस संविदा में वैध तथा अवैध भाग अलग किये जा सकते हैं। जिस भाग के प्रवर्तन की प्रार्थना की गई है, वह वैध है; अत: वह प्रवर्तनीय होगा। न्यायाधीश एच० एल० आनन्द (H. L. Anand, J.) ने यह सुझाव दिया है कि लोकनीति से सम्बन्धित विधि में सुधार किया जाना चाहिये, जिससे कि न्यायालय ऐसी संविदाएँ, जिनका उद्देश्य सरकारी कर की चोरी करना है, को लागू न कर सके।59
जहाँ सरकार किसी व्यक्ति को निवास हेतु भूमि पट्टे पर देती है, पट्टेदार द्वारा ऐसी जमीन का अन्तरण लोक प्रयोजन को विफल कर देगा। सरकार इस सम्बन्ध में कानून बना सकती है। परन्तु जब तक सरकार कानून नहीं बनाती है ऐसा अन्तरण अवैध नहीं कहा जा सकता यद्यपि वह लोक नीति के विरुद्ध होगा।60
किसी विदेशी पंचाट (award) को इस आधार पर लोक नीति के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है कि मध्यस्थ (arbitrator) करार के पक्षकार का एक उच्च पद वाला अधिकारी हैं विशेषकर जबकि उक्त अधिकारी ने व्यक्तिगत रूप से विवादास्पद संव्यवहार नहीं किये थे तथा वह निष्पक्ष है।61
जहाँ दलित वर्ग के किसी सदस्य को भूमि संवैधानिक दायित्व के अन्तर्गत आवंटित की गई है, ऐसी भूमि का विक्रय द्वारा अन्तरण संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत लोक नीति के विरुद्ध होगा तथा क्रेता को भमि के ऊपर कोई अधिकार प्राप्त नहीं होंगे।62 यह निर्णय उपर्यस्त कलकत्ता उच्च निर्णय से भिन्न है अतः जब तक उच्चतम न्यायालय का निर्णय नहीं आता है स्थिति स्पष्ट नहीं है।
सेन्ट्रल इनलैण्ड वाटर ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन लि. बनाम बोजोनाथ (Central Inland Water Transport Corporation Ltd. v. Brojo Nath)63 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि संविदा अधिनियम में ‘लोक नीति’ या ‘लोक नीति के विरुद्ध’ शब्दों की परिभाषा नहीं दी गई है, इनकी प्रकृति ही ऐसी है कि इनकी ठीक परिभाषा देना सम्भव नहीं है। लोक नीति’ से तात्पर्य उस मामले से होता है जो लोक कल्याण या लोक हित में है। यह धारणा कि लोक कल्याण या लोक हित में क्या है तथा क्या इसके विरुद्ध है समय-समय पर बदलती रहती है। जैसे पुरानी धारणाओं के स्थान पर नई धारणाएँ आती हैं वह संव्यवहार जो पहले लोकनीति के विरुद्ध माने जाते थे अब नहीं माने जाते हैं। इसी प्रकार जहाँ लोक नीति का कोई स्थापित शीर्षक होता है, न्यायालय परिवर्तित परिस्थितियों में उसका प्रसार करने में हिचकते नहीं हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर नये शीर्षकों को भी मान्यता देते हैं।64
राजस्थान राज्य बनाम बसन्त नहाटा, (State of Rajasthan v. Basant Nahata)65 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि लोक नीति के विरुद्ध’ क्या है। यह संव्यवहार की प्रकृति पर
59. सेसर्स आनन्द प्रकाश ओम प्रकाश बनाम मेससे आसवाल ट्रेडिंग एजेन्सी तथा अन्य, ए० आई० आर० 1976. दिल्ली 24, पृष्ठ 29-30.
60.देखें : ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 1348, 1353, पश्चिमी बंगाल राज्य बनाम कैलाश चन्द्र कपूर |
61. आई० आर० 1998 ए० सी० 707,712 ट्रान्सोसियनाशापण एजसा (प्रा० लि.) बनाम ब्लैक शीशिया
62 ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 2676, 2677-2678, पापायिहा बनाम कर्नाटक राज्य।
63. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 1571.
64. तत्रैव, पृ० 1612; पी० राठीनाम बनाम भारतीय संघ ए० आई० आर० 1994 एस०सी० 1844, पृ० 1864-1866 भी देखें।
65. ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 3401, 3411.
निर्भर करेगा। पक्षकारों द्वारा किये गये अभिवचन तथा रिकार्ड पर लायी गई सामग्री से न्यायालय यह तय कर सकता है कि लोकहित में क्या नागरिकों के अधिकारों सम्बन्धी विधि स्पष्ट होनी चाहिए। लोकहित का सिद्धान्त कामन ला की एक शाखा में है तथा यह पूर्वोक्तियों से नियन्त्रित होता है।
इसके सिद्धान्त विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्थापित हो चुके हैं। यद्यपि विभिन्न परिस्थितियों में लागू करने के लिये न्यायालय इनका विस्तार कर सकते हैं। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत ‘लोक नीति के विरुद्ध’ एक बचाव है तथा संविदा की वैधता पर निर्णय लेते समय न्यायालयों को निम्नलिखित बातों पर विचार करना होता है
(क) सिविल प्रक्रिया संहिता के निबन्धनों के तहत आदेश (vi) के अन्तर्गत अभिवचन;
(ख) वाद को नियंत्रित करने वाला अधिनियम;
(ग) भारतीय संविधान के भाग तीन एवं 4 के उपबन्ध;
(घ) विशेषज्ञों के साक्ष्य
(ङ) वाद के रिकार्ड में लाई जाने वाली सामग्री; तथा
(च) अन्य तत्संगत बातें. यदि कोई हों।
जहाँ निगम ने (CIDCO) नियमों के अनुसार कोई भूमि खंड अन्तरित किया है, नयी जाँच के अनुसार ऐसे ‘आवंटन को लोक नीति के विरुद्ध’ रद्द करना उचित नहीं होगा। प्रस्तुत मामले में आवंटन नियमों के अनुसार किया गया था तथा निगम की माँग के अनुसार अपीलार्थी ने धन का भुगतान किया था तथा यह धनराशि सम्बन्धित समिति की संस्तुति से अधिक थी।66
लोकनीति के नये शीर्षक विकसित किये जा सकते हैं (New Heads of Public Policy may be evolved) –
घेरूलाल बनाम महादेव दास (Gherulal v. Mahadeo Das)67 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा था-यद्यपि सिद्धान्त रूप में न्यायालय लोकनीति के नये शीर्षक खोज सकता है, समाज के स्थायित्व के हित में यही बेहतर होगा कि न्यायालय नये शीर्षक की खोज करने की चेष्टा न करे।
रतनचन्द हीराचन्द बनाम अस्कर नवाज जंग तथा अन्य (Ratanchand Hirachand v. Askar Nawaz Jang and Others)68 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में विधि को स्पष्ट करते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय ने लोकनीति के नये शीर्षक के विकास को पूर्णतया वर्जित नहीं किया था। वास्तव में, वर्तमान गतिमान समाज में जिसमें कि सामाजिक मान्यताएँ जल्दी-जल्दी बदल रही हैं, नई परिस्थितियों का सामना करने हेतु लोकनीति के शीर्षकों का विकास और भी आवश्यक हो गया है। विधि स्थिर नहीं रह सकती। इसे समय की परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होना चाहिये तथा न्यायाधीशों का कर्त्तव्य है कि नयी दशाओं तथा धारणाओं का सामना करने के लिए नये तरीके अपनायें।69 प्रस्तुत वाद में न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि ऐसा करार, जिसका उद्देश्य सरकार के मन्त्री पर किसी व्यक्ति के प्रभाव को प्रयोग करना है, लोकनीति के विरुद्ध है। इस वाद में वादी ने स्वर्गीय नवाब सालार जंग की जायदाद के एक दावेदार (साजिद यार जंग) को करार के अन्तर्गत 75,000 रुपये दिये। जायदाद लगभग 60 लाख रुपये की थी। यह भी करार किया गया था कि जायदाद से मिलने वाले धन में एक आने का हिस्सा वादी को मिलेगा। धन का भुगतान होने के पूर्व ही साजिद यार जंग की मृत्यु हो गई; अत: वादी ने साजिद यार जंग के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद दायर किया। प्रतिवादियों ने वाद का, अन्य आधारों के अतिरिक्त इस आधार पर भी विरोध किया कि करार लोकनीति के विरुद्ध है; अत: अप्रवर्तनीय है। न्यायालय ने निणय दिया कि उक्त करार लोकनीति के विरुद्ध है; न्यायालय ने कहा कि यदि यह एक नया शीर्षक है तो भी हम इसे
66. देखें : सुनील पन्नालाल बन्थिया बनाम सिटी ऐण्ड इन्डस्ट्रियल डेवलपमेन्ट निगम, ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 1529, 1533.
67. ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 781, 795.
68. ए० आई० आर० 1976 ए० पी० 112.
69. तत्रैव, पृष्ठ 117.
मान्यता देने को तैयार हैं। परन्तु वास्तविक रूप में यह नया शीर्षक नहीं है। यह ‘लोक-सेवा’ को क्षति पहुँचाने सम्बन्धी करार के अन्तर्गत आता है।70
सेण्ट्रल इनलैण्ड वाटर ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन लि. बनाम ब्रोजोनाथ (Central Inland Water Transport Corporation Ltd. v. Brojo Nath)71 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि लोक-नीति से सम्बन्धित सिद्धान्त समय तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते हैं। उनमें उपयुक्त अवसर पर प्रसार या संशोधन की क्षमता है? यदि कोई वाद लोक नीति के शीर्षक के अन्तर्गत नहीं आता है तो भी लोक अन्त:करण के अनुरूप तथा लोक हित से सम्बन्धित अभ्यास को लोक-नीति के विरुद्ध घोषित करना चाहिये। ऐसे मामलों में न्यायालयों को संविधान की उद्देशिका (Preamble) से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये। यदि कोई पूर्वोक्ति नहीं है तो न्यायालयों को संविधान में वर्णित मूल अधिकारों तथा नीति निदेशक सिद्धान्तों में निहित सिद्धान्तों से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये।72 ___यदि कोई पत्नी गुजारे (maintenance) के लिए इकट्ठा धन लेकर करार करती है कि वह गुजारे के लिये दावा नहीं करेगी तो ऐसा करार लोक-नीति के विरुद्ध नहीं होगा। यह निर्णय मद्रास के उच्च न्यायालय ने मुनीअम्माल बनाम राजा (Muniammal v. Raja)73 के वाद में दिया। इस वाद में पत्नी को भूतकाल तथा भविष्य के गुजारे के लिये 500 रुपये दिये गये थे तथा उसने करार किया कि वह अब और गुजारा नहीं माँगेगी । न्यायालय ने धारित किया कि ऐसा करार लोकनीति के विरुद्ध नहीं है।
परन्तु यदि अवयस्क के विवाह के लिए धन दिया गया है तो यह लोक-नीति के विरुद्ध होगा तथा यह बात्वं सारहीन है कि विक्रय का पूर्ण प्रतिफल अवयस्क के विवाह के लिये नहीं था, क्योंकि यह धारा 24 के विरुद्ध होगा।74
केदारनाथ बनाम प्रह्लाद राव75 में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हिदायतउल्ला ने कहा कि कोई भी न्यायालय किसी ऐसे मनुष्य को सहायता न देगा जिसका वाद अनैतिकता या अवैध कार्य पर आधारित हो
जहाँ एक से अधिक न्यायालयों को अधिकारिता है, उनमें से एक को संविदा द्वारा अधिकारिता प्रदान करना क्या लोकनीति के विरुद्ध है?
जहाँ एक से अधिक न्यायालयों को वाद को सुनने की अधिकारिता है, संविदा द्वारा पक्षकारों का यह करार करना कि उनमें से एक को उनके विवाद निर्णीत करने की अधिकारिता होगी, धारा 23 एवं 28 का उल्लंघन नहीं होगा। ऐसा करार लोकनीति के विरुद्ध नहीं होगा। वाणिज्यिक विधि एवं अभ्यास ऐसे करारों की अनुमति देते हैं। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने ए० बी० सी० लैमीनार्ट प्राइवेट लिक बनाम ए० पी० एजेंसीज (A.B.C. Laminart Pvt. Ltd. V. A.P. Agencies)76 के वाद में दिया। न्यायमूर्ति के० एन० सैकिया (K.N. Saikia, J.) ने अपने निर्णय में कहा कि निसंदेह पूर्णरप से न्यायालय की अधिकारिता समाप्त करने वाला करार लोकनीति के विरुद्ध होगा। अत: वह अवैध एवं शून्य होगा। परन्तु यदि यह दर्शित कर दिया जाय कि जो अधिकारिता उन्होंने करार द्वारा स्वीकार की है वह संविदा के मामले में उचित अधिकारिता भी होगी तो यह नहीं कहा जा सकता कि करार ने न्यायालय की अधिकारिता समाप्त की है। न्यायमूर्ति सैकिया के शब्दों में :
……….there can be no doubt that an agreement to oust absolutely the risdiction of the court will be unlawful and void being against the public policy Ex dolo malo non oritur actio…………If on the other hand it is found that the jurisdiction agreed
70. ए० आई० आर० 1976 ए० पी० 119.
71. ए० आई० आर० 1986, एस० सी० 1571.
72. ए० आई० आर० 1986, एस० सी०, पृ० 1612.
73. ए० आई० आर० 1974, मद्रास 103, 108.
74. महेश्वर दास बनाम साखी देवी, ए० आई० आर० 1978, उड़ीसा 84, 86.
75. ए० आई० आर० 1960 एस० सी० 213, 217.
76. ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 1239, पृष्ठ 1245.
would also be a proper jurisdiction in the matter of the contract it could not be said that it ousted the jurisdiction of the court.”77
सार्वजनिक नीति के विभिन्न शीर्षक-सार्वजनिक नीति के निम्नलिखित शीर्षक हैं
जो राज्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाले (By tending to the prejudice of the State)इस शीर्षक को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(क) शत्रु से व्यापार करना-चूँकि शत्रु के साथ व्यापार करने से शत्रु को सहायता मिलती है, इसलिये ऐसे कार्यों को सार्वजनिक नीति के विरुद्ध कहा जाता है। उदाहरण के लिये युद्ध के समय में शत्रुदेश के नागरिकों के साथ संविदाएँ वर्जित होती हैं।
(ख) सार्वजनिक पदों तथा नियुक्तियों का विक्रय-सार्वजनिक पदों या नियुक्तियों का विक्रय भी सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है। उदाहरण के लिये क ख को कुछ धन देने का करार इसलिये करता है कि ख, जो कि एक सार्वजनिक कर्मचारी (Public Servant) है, अपने पद से सेवामुक्ति ले ले जिससे कि क की नियुक्ति हो सके। यह करार शून्य है, क्योंकि यह सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है। यहाँ पर दृष्टान्त के रूप में हाल के एक वाद एन० वी० पी० पान्डियन बनाम एम० एम० राय (N.V.P. Pandien v. M.M. Roy)78 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी को 15,000 रुपये इस प्रतिफल के लिये दिए कि वह प्रत्यर्थी के लड़के के लिये मेडिकल कॉलेज में सीट (Seat) अर्थात् प्रवेश दिलायेगा तथा अपीलार्थी ने ऐसा करने की प्रतिज्ञा भी की थी। परन्तु अपीलार्थी प्रत्यर्थी के लड़के का मेडिकल कॉलेज में प्रवेश नहीं करा सका। अतः प्रत्यर्थी ने 15,975 रुपये (ब्याज तथा लागत सहित) प्राप्त करने हेतु अपीलार्थी के विरुद्ध वाद किया। परीक्षण-न्यायालय ने प्रार्थी के पक्ष में डिक्री जारी कर दी; अतः अपीलार्थी ने प्रस्तुत अपील की। उच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि उक्त करार स्पष्टतया लोक-नीति के विरुद्ध था।79 न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि ऐसा करार ‘लोक-सेवा को क्षति पहुँचाने वाली प्रकृति के करार’ (Agreement tending to injure the Public Service) के शीर्षक, जिसका उल्लेख ऐन्सन की पुस्तक में किया गया है, के अन्तर्गत आते हैं। यदि इसे लोक-नीति का नया शीर्षक भी मान लिया जाय तो भी न्यायालय को इसे प्रयोजित करने से संकोच नहीं करना चाहिये।80 न्यायालय ने कहा कि प्रस्तुत वाद में प्रत्यर्थी ने 15,000 रुपये अपीलार्थी को इसलिये दिये थे कि वह चयन-समिति पर अपना प्रभाव डाल कर प्रत्यर्थी के लड़के को सीट दिलवा दे। स्पष्टतया यह लोक-नीति के विरुद्ध है। इस वाद में अगला विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या प्रत्यर्थी अपीलार्थी से अपने रुपये वापस पाने का अधिकारी है? न्यायालय ने निर्णय दिया, चूँकि दोनों पक्षकार समदोषी (pari delicto) थे, अतः न्यायालय प्रत्यर्थी की सहायता उसका धन वापस कराने में नहीं करेगा।81
(2) न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप या प्रतिकूल प्रभाव डालना (By tending to perversion of interference with the administration of justice)-(क) कोई भी करार, जिसका उद्देश्य न्यायालय के प्रशासन में हस्तक्षेप करना हो तो या उस पर प्रतिकूल प्रभाव डालना हो, सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है तथा शून्य है।
दृष्टान्त–(1) उदाहरण के लिये, ‘प’ ने ‘क’ से एक संविदा की जिसके अनुसार ‘प’ की एक मुकदमे में सफलता के लिये पूजा करने का वचन दिया। इस प्रतिफल पर कि यदि ‘क’ मुकदमा जीत गया तो वह डिग्री द्वारा प्राप्त धन का दसवाँ भाग ‘प’ को देगा। ‘क’ मुकदमा जीत गया परन्तु उसने डिग्री द्वारा
77. ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 1239, पृष्ठ 1242-1243.
78. ए० आई० आर० 1979, मद्रास 42.
79. एन० वी० पी० पान्डियन बनाम एम० एम० राय, ए० आई० आर० 1979 मद्रास 42, पृष्ठ 44.
80. तत्रैव, पृष्ठ 45. 81. तत्रैव!
धन का दसवाँ भाग ‘प’ को देने से इन्कार कर दिया। क्या ‘प’ को ‘क’ के विरुद्ध सफलता मिल सकती है। ‘प’ को ‘क’ के विरुद्ध वाद में सफलता नहीं मिलेगी क्योंकि उनके मध्य करार का उद्देश्य न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप या प्रतिकूल प्रभाव डालना था। इसी प्रकार का निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सती भगवान दास शास्त्री बनाम राजा राम (Sati Bhagwan Das Shastri v. Raja Ram)82 के वाद में दिया था।
(2) ‘डब्ल्यू’ ने अपने पति ‘एच’ के विरुद्ध तलाक के लिये वाद किया। वाद के लम्बित रहने के दौरान पति ‘एच’ ने पत्नी को निम्नलिखित प्रस्ताव भेजा : “मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारे भरण-पोषण तथा मेरे पुत्र को शिक्षा के लिये 260 रुपये तथा पुत्री के गुजारे तथा शिक्षा के लिये 60 रुपये दूंगा। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि बोनस का 60 प्रतिशत दूँगा तथा पुत्री के विवाह का व्यय दूँगा। परन्तु यह सब इस शर्त पर कि तुम अपना वाद वापस ले लो तथा हम लोग एक-दूसरे से अलग रहें।” पत्नी ने पति का उपर्युक्त प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तथा निम्नलिखित पत्र लिखा-
“आपके भुगतान करने के प्रस्ताव के प्रतिफल में मैं आपके विरुद्ध वाद वापस लेती हूँ……”
पेशी पर उपस्थित न रहने के कारण पत्नी का उक्त वाद खारिज हो गया। पति ने कुछ धन तो दिया परन्तु बाद में धन देना बन्द कर दिया। पत्नी का कहना था कि उक्त करार पति पर बाध्यकारी था। पति का कहना था कि करार लोकनीति के विरुद्ध था। अत: वह धन देने को बाध्य नहीं था। पक्षकारों के सम्बन्ध इतने खराब हो गये थे कि उनमें समझौता होने की कोई सम्भावना नहीं थी।
चूँकि करार का उद्देश्य न्याय के प्रशासन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तथा यह लोक नीति के उपर्युक्त वर्णित शीर्षक के अन्तर्गत आता है, करार लोक-नीति के विरुद्ध है, अत: करार शून्य है।
न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप शीर्षक निम्नलिखित रूप धारण कर सकता है :
(अ) कार्यवाही के चलाने के लिए (Maintenance)-इसके अर्थ होते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को इसलिये धन देता है कि वह मुकदमेबाजी प्रारम्भ करे तथा सम्बन्धित मुकदमे में उसका कोई हित निहित होता है तो ऐसा करार शून्य होता है।
(ब) चैम्पर्टी (Champerty)-इसके तात्पर्य होते हैं कि किसी अन्य व्यक्ति को किसी सम्पत्ति के प्राप्त करने में सहायता देना और सहायता देने वाले का उसमें यह हित हो सकता है कि वह उसमें से कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहे। इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण वाद श्रीमान् ‘जी’ का मामला (In the matter of Mr. G.)83 है। इस वाद में ‘जी’ एक एडवोकेट ने अपने मुवक्किल से करार किया। मुवक्किल ने अपने मुकदमे की फीस के रूप में एडवोकेट को 9,400 रु० देने का करार किया। इस करार में यह भी उपबन्ध था कि जितना धन मुकदमे से प्राप्त होगा, उसका 50 प्रतिशत धन एडवोकेट को मिलेगा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त करार शून्य था, क्योंकि सार्वजनिक नीति के विरुद्ध था तथा यह एडवोकेट के पेशे का अभिचार था।
इसी प्रकार, ‘द’ एक एडवोकेट अपने मुवक्किल से एक करार किया तथा जिसमें मुवक्किल ने लिखा था “मिनर्वा थियेटर लि० के मुझे जो 16,000 रुपये लेने हैं उसके लिये मैं आपको वकील धन प्राप्त होगा उसमें से आप 40 प्रतिशत ले सकते हैं। यह करार चैपर्टी है अतः लोक नीति के विरुद्ध है। अत: यह करार अवैध तथा शून्य है।
रतनचन्द हीराचन्द्र बनाम अस्कर नवाज जंग तथा अन्य84 के वाद में प्रतिवादियों ने इस आधार पर पीबाट का विरोध किया था कि करार चैम्पटी के प्रकार का था। न्यायालय ने कहा कि भारत में सभी
करार लोक-नीति के विरुद्ध नहीं हैं। वे तभी अप्रवर्तनीय होते हैं जब कि वे अन्त:करण के
हो। पस्तत वाद में करार का उद्देश्य सरकारी मन्त्री पर किसी व्यक्ति के प्रभाव को प्रयोग करना था। यह एक पर्ण करार था तथा दो स्वतन्त्र भागों में विभाजित नहीं किया जा सकता था; अत: यह लोकनीति के विरुद्ध था।85
* पी० सी० एस० (1982), प्रश्न 3 (ख)।
82. ए० आई० आर० 1927, इलाहाबाद 406.
83. ए० आई० आर० 1954, एस० पी०’557.
* सी० एस० ई० (1976), प्रश्न 3 (ख)
84. ए० आई० आर० 1976, ए० पी० 112.
85. तत्रैव, पृ० 121.
एक अन्य वाद, श्री खाजा मोयुनुद्दीन खान (मृतक) बनाम एस० पी० रंगा राव (Shri Khaja Moinuddin Khan (died) v. S. P. Ranga Rao)86 में वादी ने प्रतिवादी की मुकदमेबाजी में इस प्रतिफल के एवज में सहायता देना स्वीकार किया कि उसे पूर्ण प्रतिकर का 40 प्रतिशत उसके द्वारा सहायता में दिये धन के अतिरिक्त प्रतिवादी देगा अथवा वाद की भूमि सम्पत्ति के विक्रय धन में से उसे 40 प्रतिशत मिलेगा। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह करार अन्त:करण के विरुद्ध है तथा प्रवृत्ति में बलात्ग्रहण है। उच्च न्यायालय ने निर्णय देते हुये कहा कि संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत यह करार प्रारम्भ से ही शून्य (void ab initio) है।87
(ख) किसी अभियोजन को दबाने का करार (Agreement to stifle prosecution)-.यदि किसी करार द्वारा किसी अभियोजन को दबाने की चेष्टा की जाती है तो यह सार्वजनिक नीति के विरुद्ध तथा शून्य होगा। यह बात जनता के हित में होगी कि अपराधी को सजा मिले। इंग्लैण्ड में किसी सार्वजनिक अपराध के दबाने के समझौते को सार्वजनिक नीति के विरुद्ध समझा जाता है। परन्तु व्यक्तिगत अधिकारों से सम्बन्धित मुकदमे को दबाने के लिये करार किया जा सकता है। भारत में स्थिति कुछ भिन्न है। भारत में लोक अपराध तथा व्यक्तिगत अपराध में अन्तर नहीं है वरन् यहाँ की आपराधिक विधि में कुछ ऐसे अपराध हैं जिन पर पक्षकार समझौता द्वारा कार्यवाही न करने का करार कर सकते हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे मामले हैं जिनके सम्बन्ध में पक्षकारों को समझौता करके दबाने का अधिकार नहीं है।
इस सम्बन्ध में वी० नरसिंह राज बनाम गरुमी राजू (V. Narsincha Raiuv. Gurmurthi Raju)88 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में एक आपराधिक मुकदमा न्यायालय में चल रहा था जो अशमनीय (non-compoundable) था, अर्थात् जिस पर पक्षकार समझौता नहीं कर सकते। प्रथम प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धाराओं 420, 465, 468, 477 तथा साथ में धाराओं 107 एवं 120-B के अन्तर्गत मैजिस्ट्रेट के न्यायालय में आपराधिक वाद किया था। बाद में प्रत्यर्थी ने अभियुक्त व्यक्तियों से एक समझौता करके इसे विवाचन के लिये सौंपने तथा न्यायालय से वापस कर लेने के विषय में करार किया। उक्त करार के अनुसरण में प्रथम प्रत्यर्थी द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत न करके वाद खारिज करवा लिया गया। विवाचन कार्यवाही, जिसके लिये प्रतिफल आपराधिक वाद वापस करना था, में निर्णय प्रथम प्रत्यर्थी के पक्ष में था। प्रथम प्रत्यर्थी ने न्यायालय में प्रार्थनापत्र देकर उक्त निर्णय को न्यायालय का नियम बनवाना चाहा। अपीलार्थी ने न्यायालय में उपस्थित होकर पंचाट अथवा विवाचन न्यायालय के निर्णय को इस आधार पर चुनौती दी कि विवाचन करार का प्रतिफल अवैध था क्योंकि यह अशमनीय अभियोजन को न चलाना अथवा न्यायालय से हटाना था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि विवाचन अथवा माध्यस्थम् करार संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत शून्य था क्योंकि इसका प्रतिफल लोक नीति के विरुद्ध था। अतः यह धारित किया गया कि पंचाट शून्य था। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अभियोजन को दबाने के सिद्धान्त के परिणाम तब लागू होते हैं तथा तब होते हैं जहाँ कोई व्यक्ति आपराधिक विधि का तंत्र (machinery) को चालू इस आधार पर कराता है कि प्रतिवादी ने कोई अशमनीय (non-compoundable) अपराध किया है तथा उत्पीड़क बाध्यकारी प्रक्रिया द्वारा वह प्रतिवादी को करार करने को विवश करता है। ऐसा करार अवैध माना जायेगा क्योंकि इसका प्रतिफल लोक नीति के विरुद्ध है।
इसके विपरीत, आर शिवराम बनाम टी० ए० जॉन तथा अन्य (R. Sivaram v.T. A. John and Others)89 में एक कर्मचारी अपने मालिक के गोदाम से सामान चुराया करता था तथा एक तीसरे व्यक्ति के हाथ बेचा करता था। जब मालिक ने कानूनी कार्यवाही करनी चाही तो उक्त तीसरे व्यक्ति ने अपनी स्वेच्छा से मालिक के पक्ष में एक प्रोनोट लिख दिया। जब मालिक ने उक्त व्यक्ति (यानी प्रतिवादी) को प्रोनोट के धन के लिए नोटिस दी, तो प्रतिवादी ने यह तर्क किया कि कम्पनी आपराधिक अभियोजन (criminal
86. ए० आई० आर० 2000 आंध्र प्रदेश 344.
87. ए० आई० आर० 2000 आंध्र प्रदेश पृष्ठ 347.
88. ए० आई० आर० 1963, ए० सी० 107.
89. ए० आई० आर० 1975, केरल 101.
prosecution) करने जा रही थी तथा उक्त प्रोनोट धमकी, उत्पीड़न (coercion) तथा असम्यक् असर (undue influence) द्वारा निष्पादित कराया गया था। परन्तु चूँकि यह सिद्ध नहीं हो सका; अतः मुन्सिफ ने वादी के पक्ष में अपना निर्णय दिया। परन्तु अपील में डिस्ट्रिक्ट जज ने निर्णय दिया कि प्रोनोट दीवानी तथा आपराधिक दायित्व से बचने के लिये निष्पादित किया गया था? चूँकि प्रोनोट को अभियोजन को दबाने (to stifle prosecution) हेतु निष्पादित किया गया था, यह लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत अवैध था; अत: उन्होंने वाद खारिज कर दिया। द्वितीय अपील में उच्च न्यायालय ने उक्त निर्णय को उलट दिया। उनके मत में यह कहना अनुचित होगा कि प्रोनोट का प्रतिफल अभियोजन को दबाना था। प्रोनोट लिखने का उद्देश्य कार्यवाही से बचना हो सकता है। परन्तु यह उसका प्रतिफल नहीं था।
अभियोजन को दबाने के सिद्धान्त (Doctrine of Stifling prosecution) पर उच्चतम न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन बनाम भारतीय संघ (Union Carbide Corporation v. Union of India)90 के वाद में विस्तार से विचार किया। यह वाद उच्चतम न्यायालय द्वारा भोपाल गैस रिसन विनाश में प्रतिकर के मामले में समझौता आदेश दिनांक 15 फरवरी, 1989 के पुनरीक्षण से सम्बन्धित है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उक्त आदेश द्वारा उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकर के रूप मे 470 मिलियन अमेरिकी डालर दिये जाने के आदेश के साथ-साथ यह भी आदेश दिया था कि भोपाल गैस रिसन विनाश से सम्बन्धित सभी आपराधिक एवं दीवानी कार्यवाहियाँ समाप्त हो गयीं। पुनरीक्षण याचिकाओं में अन्य प्रश्नों के अतिरिक्त एक विचाराधीन प्रश्न यह था कि क्या आपराधिक कार्यवाहियाँ (Criminal proceedings) को समाप्त करना 470 मिलियन अमेरिकी डालर के भुगतान के प्रतिफल एवं सौदेबाजी का एक भाग था अथवा यह समझौता करने का केवल एक हेतु (motive) था? दूसरा विचाराधीन प्रश्न यह था कि क्या समझौते का ज्ञापन तथा इस न्यायालय का आदेश सही अर्थों में अपराधों का शमन (Compounding) था। इसके विपरीत, यदि जो किया गया वह भारतीय संघ द्वारा न्यायालय को अनुच्छेद 142 के अन्तर्गत शक्तियों के उपभोग या प्रयोग को आमंत्रित करके अभियोजन की वापसी की अनुमति देना था तथा क्या कार्यवाहियों को रद्द करना वापसी को स्वीकार करने की, केवल एक प्रक्रिया थी? अत: क्या समझौते को शून्य घोषित किया जा सकता है? उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मुख्य समझौते में उक्त दोष नहीं था। प्रतिफल की अवैधता के अभिकथित दोष के कारण समझौते शून्य नहीं हैं। न्यायमूर्ति वेन्कटचालियाह (Venkatchaliah, J.) के शब्दों में :
“We think that main settlement does not suffer from this vice. The pain of nullity does not attack to it flowing from any alleged unlawfulness of consideration.”91
तत्पश्चात् न्यायमूर्ति वेन्कटचालियाह ने विन्डहिल लोकल बोर्ड ऑफ हेल्थ बनाम विन्ट (Windhill Local Board of Health v. Vint.)92 केर बनाम लीमैन (Keir v. Leeman)93 वी० नरसिम्हा राजू बनाम वी० गुरुमूर्थी राजू (V. Narasimha Raju v. Guramurthy Raju)94 आदि का हवाला दिया तथा कहा यदि मान भी लिया जाय कि भारतीय संघ ने अशमनीय अपराधों को शमन करने का करार किया, क्या यह अभियोजन को दबाने के सिद्धान्त के अनुसार अभियोजन को दबाना माना जायगा? अभियोजन को अवरुद्ध करने (Stifling of Prosecution) के सिद्धान्त का सार यह है कि कोई प्राइवेट को यह अनमति नहीं होनी चाहिये कि वह आपराधिक न्याय के प्रशासन को न्यायाधीशों के हाथ से कर अपने हाथ में ले ले। इन अर्थों में प्रस्तुत वाद में, प्राइवेट व्यक्ति कानून के प्रशासन को अपने हाथ में नहीं ले रहा है। भारतीय संघ ने कार्यवाहियों को रद्द या अभिखंडित करने के लिये सम्मति दी थी। जो किया गया वह अपराधों का शमन नहीं था। आपराधिक वादों को समाप्त करना प्रत्याहरण या वापसी थी जो
90. ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 248.
91. यनियन कार्बाइड कार्पोरेशन बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर०, 1992 एस० सी० 248, पृष्ठ 285-286.
92. (1890) 45 चा० डि0 351, 366.
93. (1844) 6 क्वीन्स बेन्च 308, 316, 322.
94. २० आई० आर० 1963 एस० सी० 107.
विधि द्वारा वर्जित नहीं है वरन विधि उसकी अनुमति देती है। न्यायालय के शब्दों में :
“The essence of the doctrine of stifling of prosecution is that no private person should be allowed to take the administration of criminal Justice out of the hands of the judges and place it in his own hands………… In this sense, a private party is not taking administration of law in its own hands in this case. It is the union of India, as the Dominus Litis, that consented to the quashing of the proceedings………what was purported to be done was not a compounding of the offences…………the arrangement which purported to terminate the criminal cases was one of a purported withdrawal not forbidden by any law but one which was clearly enabled.95
इसके अतिरिक, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि करार करने के लिये हेतु (motive) तथा करार के लिये प्रतिफल (Consideration) का अन्तर स्पष्ट होना चाहिये। जहाँ आपराधिक कार्यवाहियों को समाप्त करना करार करने का हेतु है-न कि प्रतिफल-अभियोजन को दबाने या अवरुद्ध करने का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। जहाँ पूर्वविद्यमान सिविल दायित्व भी है, यह आवश्यक नहीं है कि आपराधिक कार्यवाहियों को समाप्त करना आवश्यक रूप से उस दायित्व को संतुष्ट करना करार का प्रतिफल हो। न्यायमूर्ति वेन्कटचलियाह के शब्दों में :
“More importantly, the distinction between the ‘motive’ for entering into agreement and the ‘consideration for the agreement must be kept clearly distinguished. Where dropping of the criminal proceedings is a motive for entering into the agreement–and not its consideration-the doctrine of stifling of prosecution is not attracted. Where is also a pre-existing civil liability, the dropping of criminal proceedings need not necessarily be a consideration for the agreement to satisfy that liability. 96”
इस प्रकार विस्तार से विचार करके न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस मामले में अभियोजन को अवरुद्ध करने का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। अतः समझौता भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 या 24 के विरुद्ध नहीं है तथा 470 मिलियन अमेरिकी डालर के भुगतान के प्रतिफल का कोई भाग अवैध नहीं था। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि जहाँ दिनांक 15 फरवरी, 1989 के आदेश द्वारा आपराधिक कार्यवाहियाँ समाप्त करने का प्रश्न था, उच्चतम न्यायालय ने आदेश के इस भाग को अपास्त या खारिज (Set aside) कर दिया है। इसके अतिरिक्त जिन परिस्थितियों में समझौता हुआ, जितना कम प्रतिकर स्वीकार किया गया, भारतीय संघ ने जो भूमिका अदा की तथा जिस शीघ्रता से उच्चतम न्यायालय ने समझौते को स्वीकार कर लिया, जनता के मन में सन्देह उत्पन्न करना है। तत्पश्चात् इसकी जो आलोचना हुई तथा भारतीय संघ ने भी 15 फरवरी, 1989 के आदेश का पुनरीक्षण स्वीकार कर लिया, पूर्ण मामले को और भी गम्भीर बना देता है। उच्चतम न्यायालय का यह तर्क कि आपराधिक कार्यवाहियों को समाप्त करना हेतु था न कि प्रतिफल का भाग न्यायोचित 97 तथा तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। जब तक कि न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण न होती यह कैसे कहा जा सकता था कि कोई पूर्व-विद्यमान सिविल दायित्व था। समय तथा परिस्थितियों के अनुसार विधि में भी परिवर्तन होना चाहिये। वर्तमान समय में यह बात तर्कसंगत नहीं प्रतीत होती है कि अभियोजन को दबाने का सिद्धान्त तब लागू होगा जब कोई प्राइवेट व्यक्ति न्यायाधीश के हाथों से कोई आपराधिक मामले को हटा कर अपने हाथों में ले। जब सरकार या विधिक व्यक्ति किसी वाद में एक पक्षकार होता है तो उसके प्रति भी वही सिद्धान्त लागू होना चाहिये जो एक प्राइवेट व्यक्ति के प्रति लागू होता है। भोपाल गैस रिसन विनाश के मामले में पहले तो भारतीय संघ ने अधिनियम पारित करके मुकदमा चलाने तथा प्रतिकर प्राप्त करने के प्राइवेट व्यक्तियों के सभी अधिकार स्वयं ले लिये। तत्पश्चात् न केवल बहुत कम प्रतिकर प्राप्त करने का समझौता किया वरन् इस सम्बन्ध में सभी आपराधिक एवं सिविल कार्यवाहियों को समाप्त करने हेतु सम्मति दी। इन परिस्थितियों में यह कहना कि आपराधिक कार्यवाहियों को समाप्त करना करार करने का प्रतिफल न होकर केवल हेतु था न्यायोचित नहीं है। उच्चतम न्यायालय का भी आचरण भोपाल गैस के मामलों में आपत्तिजनक प्रतीत होता है। भोपाल गैस रिसन विनाश (दावों का प्रसंस्करण) अधिनियम, 1985 की वैधता
95. यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर०, 1992 एस० सी० 248, पृष्ठ 287.
96. यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर०, 1992 एस० सी० 248, पृष्ठ 288.
97. तत्रैव।
को चुनौती की याचिका पर निर्णय देने के पूर्व समझौता आदेश देना उचित नहीं था। समझौता आदेश देने के पश्चात् उक्त अधिनियम को वैध घोषित करना एक औपचारिकता मात्र प्रतीत होती है। इसी प्रकार प्रस्तुत वाद म उच्चतम न्यायालय ने अपने पर्व आदेश को उचित ठहराने का पूर्ण प्रयास किया है। वास्तव में वर्तमान समय तथा परिस्थितियों के अनुरूप अभियोजन को दबाने या अवरुद्ध करने के सिद्धान्त को पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता है।
(ग) न्यायालय के प्रशासन में हस्तक्षेप-कोई भी करार, जिसका उद्देश्य न्यायालय के प्रशासन में बाधा पहुँचाना होता है, शून्य होता है। उदाहरण के लिये क के विरुद्ध राज्य ने फौजदारी का मुकदमा दायर किया है और ख उसमें गवाह है। यदि क और ख आपस में कोई करार करते हैं कि ख न्यायालय में सही तथ्यों का वर्णन नहीं करेगा और इसके प्रतिफल में क उसे हजार रुपये देगा, तो यह करार अवैध तथा शून्य है। इसके अतिरिक्त ख के विरुद्ध न्यायालय में असत्य तथ्यों का उल्लेख करने के लिये अभियोजन (Prosecution) भी हो सकता है।
अब यह भलीभाँति स्थापित विधि है कि यदि किसी करार का प्रतिफल किसी आपराधिक वाद की वापसी हो तो ऐसा करार लोकनीति के विरुद्ध तथा शून्य होगा। इस सम्बन्ध में हाल के वाद सुमित्रा बनाम सुलेखा (Sumitra v. Sulekha)98 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद में करार की उपधारा (Clause 9) में यह निबन्धन था कि “उसके पति कृष्ण कुमार अग्रवाल उर्फ कनोरिया ने केस्तोदास कुन्डू के विरुद्ध ताजीराते हिन्द की धारा 420/406 के अन्तर्गत ए० सी० एम०, कलकत्ता के यहाँ दायर किया गया। वाद का समझौता उपर्युक्त वर्णित निबन्धनों तथा शर्तों पर माना जायगा।” यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि धारा 406 एक ऐसी धारा है जिसमें पक्षकार समझौता करके वाद वापस नहीं ले सकते हैं। चूँकि धारा 406 के अंतर्गत वाद को पक्षकारों के समझौते द्वारा वापस नहीं लिया जा सकता, न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त करार लोकनीति के विरुद्ध तथा शून्य है।99
(3) सार्वजनिक शिष्टता का उल्लंघन (Violation of Public Decency)-इस प्रकार के करार बहुधा दो कोटि के होते हैं-(1) विवाह कराने के लिये पुरस्कार-सम्बन्धी करार (Marriage Brokage Agreement) तथा (2) विवाह-सम्बन्धी करार।
विवाह कराने के लिये प्रतिफल-सम्बन्धी करार सार्वजनिक शिष्टता के विरुद्ध है तथा यह अवैध तथा शून्य है। उदाहरण के लिये कोई पिता अवयस्क लड़की का विवाह करने के लिये कुछ धन प्राप्त करने का करार करता है तो वह शून्य होगा। इसी प्रकार यह करार कि यदि कोई व्यक्ति अपनी अवयस्क लड़की का विवाह किसी व्यक्ति विशेष से नहीं करता है तो उसे जुर्माना अदा करना होगा यह शून्य होगा।100 इसी प्रकार किसी लड़की को बेचने का करार भी शून्य होगा।
अवैधता का परिणाम- यदि किसी करार का उद्देश्य या प्रतिफल अवैध है तो उसके निम्नलिखित परिणाम होंगे
(1) ऐसी संविदा शून्य होगी तथा न्यायालय किसी भी पक्षकार के कहने पर इसे लागू नहीं करेगा।
(2) ऐसी अवैध संविदा के अन्तर्गत परिदान की हुई वस्तु को पुन: प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
परन्तु इस नियम के निम्नलिखित दो अपवाद हैं
(क) यदि पक्षकारों में से एक पक्षकार निर्दोष है तो वह अपने द्वारा दिये हुए धन या परिदत्त की हुई वस्तुओं को पुनः प्राप्त कर सकता है।
(ख) यदि धन दिये जाने के अतिरिक्त अवैध उद्देश्य के किसी और अंश का पालन नहीं हुआ है तो धन प्राप्त किया जा सकता है।101 सांपाश्विक संव्यवहार (Collateral Transaction)- यदि एक व्यक्ति द्वारा करार अपने-आप अवैध नहीं है परन्तु यदि वह जानता है कि दूसरा पक्षकार उसका अवैध उद्देश्य के लिये प्रयोग करने की
98. ए० आई० आर० 1976 कलकत्ता 196.
99. सुमित्रा बनाम सुलेखा, ए० आई० आर० 1976 कलकत्ता 196, पृष्ठ 205.
100.देवराय बनाम माथूरमन (1914) 37 मद्रास 393; 18 आई० सी० 515.
101. देखें : सीता राम बनाम राधा बाई, ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 534.
इच्छा रखता है तो ऐसा करार शून्य होगा। परन्तु यदि उसे अवैध उद्देश्य के विषय में कोई ज्ञान नहीं है तो इसके परिणाम भिन्न होंगे। यह बहुत कुछ अवैधता के ज्ञान पर आधारित होता है।
उदाहरण के लिये बैंक ऑफ राजस्थान लि. बनाम पाला राम गुप्ता (The Bank of Rajasthan Ltd. v. Sh. Pala Ram Gupta) 102 के वाद में प्रतिवादी ने वादी बैंक से इमारत के निर्माण करने हेतु ऋण लिया दोनों पक्षकारों के मध्य एक पंजीकृत विलेख निष्पादित किया गया जिसमें बैंक ने करार किया कि वह इमारत की प्रथम फर्श (flour) आदि बैंक की शाखा चलाने हेतु किराये पर लेगा। इमारत जिस भूमि पर बननी थी वह विवादाग्रस्त थी तथा दिल्ली विकास अधिनियम के अन्तर्गत केवल लोगों के निवास के प्रयोजन के लिये थी। परन्तु प्रारम्भ से ही बैंक को इस बात का ज्ञान नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार धारा 23 के अन्तर्गत शून्य होगा। अत: चूँकि बैंक को इस अवैधता का ज्ञान नहीं था, प्रतिवादी को ब्याज सहित ऋण का धन वापस करना होगा।103
यहाँ पर प्रमुख वाद घेरूलाल पारख बनाम महादेव दास मैया (Gherulal Parakh v. Mahadeo Das Maiya)104 उल्लेखनीय है। यह वाद गेहूँ के क्रय तथा विक्रय के सट्टे से सम्बन्धित साझेदारी की संविदा से था जिससे कि भविष्य में गेहूँ के मूल्य के गिरने या बढ़ने के बारे में सट्टेबाजी की जा सके। न्यायालय ने निर्णय दिया कि साझेदारी का उद्देश्य धारा 23 के अन्तर्गत अवैध नहीं था। यद्यपि जिस व्यापार के लिए साझेदारी निर्मित की गई थी वह बाजी लगाने (wagering) वाली संविदा थी। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि यद्यपि बाजी लगाने वाली संविदा शून्य तथा अप्रवर्तनीय होती है, यह विधि द्वारा वर्जित नहीं है तथा संविदा अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत सांपाश्विक करार का उद्देश्य अवैध नहीं है, यद्यपि इसका उद्देश्य एक बाजी लगाने वाले संव्यवहार को पूरा करने का है। अतः उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि धारा 23 के अन्तर्गत साझेदारी अवैध नहीं है। उच्चतम न्यायालय के मौलिक शब्दों में : “………though a wager is void and unenforceable, it is not forbidden by law and therefore the object of a collateral agreement is not unlawful under Section 23 of the Indian Contract Act; and (6) partnership being an agreement within the meaning of Section 23 of the Indian Contract Act; it is not unlawful, though its object is to carry on wagering transaction. We, therefore, hold that in the present case : the partnership is not unlawful within the meaning of S. 23 (a) of the Contract Act.”105
हाल के वाद, फर्म प्रतापचन्द्र बनाम फर्म कोत्रिके (Firm, Pratapchand v. Firm Kotrike)106 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति बेग (Beg, J.) ने इस सम्बन्ध में विधि को स्पष्ट करते हुए कि यदि कोई करार किसी अन्य करार का केवल सांपाश्विक है या किसी अन्य करार के उद्देश्य को पूरा करने में सहायक होता है और ऐसा अन्य करार वर्जित नहीं है पर शून्य है, तो धारा 23 के अन्तर्गत ऐसा करार सांपाश्विक करार अप्रवर्तनीय है। परन्तु यदि यह एक ऐसे करार का भाग हो जो विधि द्वारा वर्जित है, तो ऐसा करार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होगा। यह स्थापित नियम है कि किसी करार का उद्देश्य केवल इस बात से विधि द्वारा वर्जित नहीं माना जायेगा कि उक्त करार शून्य करार है। एक शून्य करार तथा अन्य तथ्यों के समावेश होने पर, एक ऐसे संव्यवहार का भाग हो सकता है जिसके द्वारा विधिक अधिकार उत्पन्न होते हैं। परन्तु ऐसा उस दशा में नहीं हो सकता है जब उद्देश्य विधि द्वारा वर्जित होता है।
इस सम्बन्ध में धारा 24 का उल्लेख करना भी वांछनीय होगा। धारा 24 के अनुसार यदि एक या अधिक उद्देश्यों के लिए एकल प्रतिफल का कोई भाग किसी एक उद्देश्य के लिए कई प्रतिफलों में से कोई
102. ए० आई० आर० 2001 दिल्ली 58..
103. तत्रैव, 64; दिल्ली उच्च न्यायालय ने कूजू कोलीरीज लि. बनाम झारखण्ड माईन्स कं० लि०, ए० आई० आर० 1974 एस० सी० 1892 को लागू किया।
104. (1959) सप्लीमेन्टरी 2 एस० सी० आर० 406; ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 78.
105. तत्रैव, पृष्ठ 431.
106. ए० आई० आर० 1975, एस० सी० 1223, 1228.
एक या किसी एक का कोई भाग विधि-विरुद्ध है तो करार शून्य होगा। उदाहरण के लिए, क नील (Indigo) के वैध अभिनिर्माण और अन्य पदार्थों के अवैध पण्य का ख के निमित्त अधीक्षण करने की प्रतिज्ञा करता है । ख क को 10 हजार रु० प्रति वर्ष वेतन देने की प्रतिज्ञा करता है। क की प्रतिज्ञा का उद्देश्य और ख की प्रतिज्ञा के लिए प्रतिफल भाग रूप में विधि-विरुद्ध होने के कारण शून्य है।107
वास्तव में धारा 24 धारा 23 में वर्णित उपबन्धों का स्पष्ट परिणाम है। अंग्रेजी विधि में स्थिति यह है कि यदि किसी संविदा के कई भाग हैं और अवैध भाग को वैध भाग से अलग नहीं किया जा सकता है तो संविदा शून्य होगी। परन्तु यदि अवैध भाग वैध भाग से पृथक किया जा सकता है तो अवैध भाग शून्य होगा और वैध भाग वैध होगा।108 इस सिद्धान्त को पृथक्करण का सिद्धान्त (Doctrine of Severability) कहते हैं। इस सिद्धान्त का पालन भारत में भी किया जाता है। उदाहरण के लिये, उपर्युक्त दृष्टान्त में यदि स्पष्ट कर दिया जाय कि क को 5 हजार रुपये वेतन नील के निर्माण के अधीक्षण के लिए तथा 5 हजार रुपये अन्य अवैध कार्य के लिये मिलेंगे तब नील-निर्माण सम्बन्धी भाग वैध होता तथा शेष भाग अवैध होता।
पृथक्करण का सिद्धान्त* — यदि अवैध प्रतिफल पूर्ण प्रतिफल का एक अधीनस्थ या एक छोटा हिस्सा है और अवैधता में कोई आपराधिक कार्य निहित नहीं है तो अवैध भाग के प्रतिफल को शेष प्रतिफल से अलग किया जा सकता है तथा विधिक प्रतिज्ञाएँ प्रवर्तनीय की जा सकती हैं। ऐसी दशा में पृथक्करण का सिद्धान्त लागू होता है।109 अत: किसी संविदा में वैध तथा अवैध निबन्धन दोनों ही हो सकते हैं। ऐसी दशा में न्यायालय को यह देखना होता है कि क्या वैध निबन्धन अवैध निबन्धनों से अलग किये जा सकते हैं? यदि वैध निबन्धन अलग किये जा सकते हैं तो वह प्रवर्तनीय हो सकते हैं तथा अवैध भाग को शून्य घोषित किया जा सकता है। परन्तु जहाँ वैध तथा अवैध भागों का प्रतिफल एक ही है, तो पूरी संविदा शून्य होगी। उदाहरण के लिये हापकिन्स बनाम प्रेसकाट (Hopkins v. Prescott)110 में वादी तथा प्रतिवादी के मध्य निम्नलिखित दो चीजों के लिए करार था-
(क) स्टेशनरी, स्टैम्प्स के वितरक (Distributor) तथा कर एकत्र करने के व्यापार का विक्रय; तथा
(ख) दो लोकपदों के लिये नियुक्तियाँ जुटाना।
उक्त प्रतिज्ञाओं के बदले में, प्रतिवादी ने 300 पौण्ड देने का करार किया। स्पष्टतया, द्वितीय प्रतिज्ञा अवैध थी। परन्तु दोनों प्रतिज्ञाओं के लिये प्रतिफल एक ही (यानी 300 पौण्ड) था; अतः न्यायालय ने निर्णय दिया कि पूरी संविदा शून्य थी।
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि पृथक्करण के सिद्धान्त को लागू करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि इससे इस बात का संकेत नहीं मिलता है कि किन परिस्थितियों में वैध भाग को अवैध भाग से अलग किया जा सकता है। वर्तमान समय में न्यायालय इस प्रश्न पर कि क्या प्रतिफल का पृथक्करण सम्भव है, जोर देने के बजाय निहित अवैधता की प्रकृति पर अधिक ध्यान देते हैं। ऐन्सन (Anson)111 के अनसार-पथक्करण तभी हो सकता है जब कि वह लोकनीति के अनुरूप हो। न्यायालय इस बात का सदा ध्यान रखते हैं कि वह पक्षकार पर कोई भिन्न संविदा न ला दें। पृथक्करण की अनुमति देने के पूर्व इस बात से सन्तष्ट होना आवश्यक है कि अवैध भाग को पृथक् करने के बाद करार मुख्यत: वही रहे।112
अब्दुल जब्बार बनाम अब्दुल मुठालिफ् (Abdul Jabbar v. Abdul Muthaliff)113 के वाद में
107. धारा 24 का दृष्टान्त।
108. देखें : पिकरिंग बनाम इलफ्राकाम्ब (1886) एल० आर० 3 सी० पी० 225, 250 में न्यायमूर्ति विल्स का निर्णय। ।
* आई० ए० एस० (1978) प्रश्न 2 (क) के लिए भी देखें।
109 मेसर्स आनन्द प्रकाश ओम प्रकाश बनाम मेसर्स ओसवाल ट्रेडिंग एजेन्सी, ए० आई० आर० 1976 टिल्ली
110. (1847) 4 सी० बी० 578.
111. ऐन्सन्स ला ऑफ कान्ट्रैक्ट, 23वाँ संस्करण, पृष्ठ 367.
112. देखें : पुट्समैन बनाम टेलर (1927) 1 के० बी० 637, 639.
113. ए० आई० आर० 1982 मद्रास 12.
वादी मलेशिया में निवास करता था तथा कुछ गैर सरकारी माध्यम से विदेशी विनिमय नियमों के विरुद्ध भारत में प्रतिवादियों को धन भेजता था। प्रतिवादियों ने उक्त धन से वादी के लिए भूमि क्रय करके एक चावल की मिल लगाई। जब वादी लौट कर भारत आया तो उसने मिल अपने कब्जे में कर ली तथा उसका लाइसेंस अपने नाम हस्तान्तरित करा लिया। तत्पश्चात् प्रतिवादी वादी के बिना ज्ञान के मिल के परिसर में प्रवेश करके हिसाब की किताबें आदि ले गया। वादी ने प्रस्तुत वाद द्वारा न्यायालय से यह घोषणा करने की प्रार्थना की कि वह चावल-मिल का पूर्ण स्वामी है तथा प्रतिवादी को व्यादेश (injunction) द्वारा उसके कब्जे तथा उपभोग में हस्तक्षेप करने से रोका जाय। निचले न्यायालय ने वादी के पक्ष में अपना निर्णय दिया तथा अपील न्यायालय (District Judge) ने उक्त निर्णय की पुष्टि कर दी। प्रतिवादी (इस वाद में अपीलार्थी) ने प्रस्तुत अपील की। उच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी। उच्च न्यायालय के सम्मुख मुख्य विचाराधीन प्रश्न यह था कि क्या करार धारा 23 के अन्तर्गत अवैध था? न्यायालय ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए निर्णय दिया कि मिल का निर्माण अपने-आप में एक अवैध उद्देश्य का निष्पादन नहीं था। कोई भी व्यक्ति चावल की मिल लगा सकता है तथा जिस व्यक्ति ने धन लगाया है वह सम्पत्ति पर दावा कर सकता है।114 प्रस्तुत वाद में वादी ने अपने दावे का आधार अवैधता को नहीं बनाया है; अत: इस वाद में सूत्र पारी डेलिक्टो पोसिअर एस्ट कन्डीशिओ डेफेन्डेन्टीस (Pari delicto potior est conditio defendentis) अर्थात् न्यायालय ऐसे पक्षकार की सहायता नहीं करेगा जिसका वाद अनैतिकता या अवैधता पर आधारित हो, लागू नहीं होगा। वादी केवल अपनी सम्पत्ति प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है; अतः निम्न दोनों न्यायालयों ने सही निर्णय दिया है।115
यहाँ पर धारा 57 तथा 58 का उल्लेख करना भी वांछनीय होगा। धारा 57 के अनुसार, जब कि व्यक्ति प्रथमतः कुछ बातें करने की, जो कि वैध हैं और द्वितीयतः, उल्लिखित परिस्थितियों के अधीन कुछ अन्य बातें करने की, जो कि अवैध हैं, पारस्परिक रूप से प्रतिज्ञा करते हैं तो प्रतिज्ञाओं का प्रथम संवर्ग संविदा है, किन्तु द्वितीय संवर्ग शून्य करार है। उदाहरण के लिये, क और ख कगर करते हैं कि ख को क एक गृह 10 हजार रुपये में बेचेगा। किन्तु यदि वह उसे जुआघर के रूप में प्रयोग में लाये तो वह क को उसके लिए एक हजार रुपये देगा। पारस्परिक प्रतिज्ञाओं का अर्थ गृह को बेचने का और उसके लिये 10 हजार रुपये देने का प्रथम प्रतिज्ञा संवर्ग संविदा है। द्वितीय संवर्ग विधि विरुद्ध उद्देश्य के लिये है, अर्थात् इस उद्देश्य के लिये है कि ख उस गृह को जुआघर के रूप में प्रयोग में लाये, यह शून्य करार है।
इस प्रकार ऐसी वैकल्पिक (Alternative) प्रतिज्ञा होने की अवस्था में, जिसका एक भाग वैध है और दूसरा अवैध है, केवल वैध भाग को ही लागू कराया जा सकता है।116 उदाहरण के लिये, क और ख करार करते हैं कि क ख को एक हजार रुपये देगा जिसके लिए ख क को तत्पश्चात् या तो चावल या तस्करी किया हुआ अफीम प्रदत्त करे। चावल प्रदत्त करने की संविदा वैध है और अफीम प्रदत्त करने की संविदा शून्य करार है।117 उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि कुछ परिस्थितियों में पृथक्करण के सिद्धान्त को लागू किया जा सकता है। यदि किसी करार में विधि विरुद्ध या वैध भागों को पृथक् किया जा सकता है तो वैध भाग प्रवर्तनीय होता है तथा अवैध भाग को लागू नहीं किया जा सकता। यदि वह अलग नहीं किया जा सकता तो धारा 24 के अनुसार करार शून्य है।
114. ए० आई० आर० 1982 मद्रास 12.
115. अब्दुल जब्बार बनाम अब्दुल मुठालिफ, ए० आई० आर० 1982 मद्रास 12, पृष्ठ 18.
116. धारा 58.
117. धारा 58 का दृष्टान्त।
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