Select Page

LLB 1st Year Semester Law of Leading Cases Notes

 

LLB 1st Year Semester Law of Leading Cases Notes:- Bachelor of Law (LLB) Law of Contract 1 (16th Edition) Specific Relief Act Central Law Agency Leading Cases 1 Most Important Study Material Notes Sample Model Papers in Hindi English PDF Download.

l

परिशिष्ट 1

प्रमुख वाद (LEADING CASES)

कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी (Carlill v. Carbolic Smoke Ball Co.)

(1863) 1.Q.B. 256]

भूमिका-यह वाद प्रस्ताव तथा स्वीकृति से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-इस वाद में प्रतिवादी कारबोलिक स्मोक बाल नामक एक दवा के निर्माता तथा विक्रेता थे। उन्होंने विज्ञापन दिया कि जो कोई भी उनकी दवा का निर्धारित निर्देशों के अनुसार एक निश्चित अवधि तक प्रयोग करेगा, उसे इंफ्लुएन्जा नहीं होगा और यदि हुआ तो प्रतिवादी कम्पनी उसे 100 पौंड का इनाम देगी। अपनी गम्भीरता दिखाने के लिये प्रतिवादी ने उस उद्देश्य के लिए बैंक में 1000 पौंड जमा भी कर दिया। वादी एक महिला थी जिसने निर्धारित निर्देशों के अनुसार तथा उसमें निर्देशित अवधि तक कारबोलिक स्मोक बाल का प्रयोग किया, परन्तु फिर भी उसे इंफ्लुएन्जा हो गया।

वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध 1000 पौंड का इनाम पाने के लिये वाद किया। प्रतिवादी का कहना था कि उसने अपना विक्रय बढ़ाने के लिये यह विज्ञापन यों ही दिया था। वादी के साथ उसका कोई औपचारिक सम्बन्ध नहीं था और न ही वादी ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार करने की संसूचना उसे दी थी।

निर्णय-न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि वह 100 पौंड का इनाम पाने की अधिकारिणी है।

प्रतिपादित नियम-(1) न्यायालय ने अपने निर्णय में यह नियम प्रतिपादित किया कि विज्ञापन के मामले में सामान्य प्रस्ताव दिया जा सकता है, अर्थात् एक ऐसा प्रस्ताव दिया जा सकता है जो समस्त विश्व के लिये हो।

(2) ऐसा प्रस्ताव प्रतिज्ञा में तभी परिणत होता है जब कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उसे स्वीकार लेता है।

(3) चूँकि प्रस्ताव की स्वीकृति की संसूचना प्रस्ताव क के हित के लिये होती है, अत: यदि वह चाहता है तो वह उसका अभित्याग कर सकता है। प्रस्तुत वाद में चूँकि प्रतिवादी कम्पनी ने दवा के प्रयोग के विषय में लिखित निर्देश आदि दिया था यह माना जायेगा कि उसने स्वीकृति की संसूचना के प्राप्त करने के अपने अधिकार का अभित्याग कर दिया था। न्यायाधीश बोयन के शब्दों में–

“As an ordinary rule of law, an acceptance of an offer made ought to be notified to the person who makes the offer, in order that the two minds may come together. Unless this is done, the two minds may be apart, and there is not that consenus which is necessary………to make a contract. But there is this clear gloss to be made upon that doctrine, that as notification of acceptance is required for the benefit of the person who makes the offer, the person who makes the offer may dispense with notice to himself if he thinks it desirable to do so and I suppose there can be no doubt that where a person in an offer made by him to another person, expressly or impliedly indicates a particular method of acceptance is sufficient to make the bargain binding………”

किसी भी प्रस्ताव की स्वीकृति तभी संविदा में परिणत होती है जब कि पक्षकार परस्पर विधिक

त्पन्न करना चाहते हैं और मापदण्ड यह है कि क्या प्रस्तावक का आशय संविदा करने का था ? पस्तत वाद के तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तावक विधिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने वादी के पक्ष में अपना निर्णय देते हुए कहा कि वह 100 पौंड का इनाम पाने की अधिकारिणी है। यहाँ पर यह नोट करना वांछनीय होगा कि भारतीय

संविदा अधिनियम की धारा ८ में यह स्पष्ट प्रावधान है की शर्तो का पालन या परस्पर प्रतिज्ञा को जिस प्रतिफल की पेशकश प्रस्ताव के साथ की गयी हो, उसका प्रतिग्रहण वास्तव में प्रस्ताव का प्रतिग्रहण है |

2

लेजली बनाम शील

(Leslie v. Sheill)

[(1914) 2K. B. 607]

भूमिका-यह वाद प्रत्यास्थापन के साम्या के सिद्धान्त (Doctrine of equitable restitution) स सम्बन्धित है। यह वाद इस बात से सम्बन्धित है कि यदि कोई अवयस्क (minor) कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन (Fraudulent Misrepresentaion) द्वारा अपने को वयस्क बताकर कुछ लाभ प्राप्त करता है तो क्या उस लाभ को वापस लौटाने को बाध्य किया जा सकता है ?

तथ्य तथा विवाद-इस वाद में प्रतिवादी अवयस्क था तथा उसने कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन द्वारा अपने को वयस्क बताकर वादी से दो बार दो-दो सौ पौंड की धनराशियाँ प्राप्त की। प्रस्तुत वाद में वादी ने उक्त धनराशि को ब्याज सहित (475 पौंड) प्राप्त करने के लिये किया था। प्रतिवादी ने इस वाद का इस तर्क पर विरोध किया कि वह संविदा के समय अवयस्क था, अतः वह उक्त धनराशि को वापस करने का उत्तरदायी नहीं है।

निर्णय-न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया। इस प्रकार प्रतिवादी के पक्ष में अपना निर्णय दिया।

प्रतिपादित नियम-(1) अवयस्क सामान्यत: अपकृत्य (Tort) के लिये जिम्मेदार होते हैं। परन्तु यदि वह अपकृत्य संविदा से सम्बन्धित है तो अवयस्क को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, अर्थात् यदि अवयस्क संविदा-भंग का दोषी है तो इसे अपकृत्य में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। लार्ड समनर (Lord Sunner) के मौलिक शब्दों में ……..

“Although an infant may be liable in tort, generally, he is not answerable for a tort directly connected with a contract which as an infant he would be entitled to avoid. One cannot make an infant liable for breach of a contract by changing the form of action to one ex-delicto……”

(2) यदि कोई अवयस्क कपट द्वारा अपने को वयस्क बता कर किसी से कोई लाभ प्राप्त करता है तो प्रत्यास्थापन के साम्या-सिद्धान्त के अनुसार उसे बाध्य किया जा सकता है कि वह उस लाभ को उस व्यक्ति को लौटाये जिससे कि उसने प्राप्त किया है। परन्तु वयस्क को तभी बाध्य किया जा सकता है जब कि सम्पत्ति जो कि उसने प्राप्त की है, पहचानी (traceable) जा सके। धन सामान्यतः पहचाना नहीं जा सकता है; अत: अवयस्क को उसे लौटाने को बाध्य नहीं किया जा सकता।

– TTT (Lord Sumner) a Alitace yol T-“The whole current of decision down to 1913, apart from dicta which are inconclusive went to show that, when an infant obtained an advantage by falsely stating himself to be of full age, equity required him to restore his ill-gotten gains or to release the party deceived from obligations or acts in law inducted by the fraud, but scrupulously stopped short of enforcing against him directly an obligation, entered into while he was an infant, even by means of fraud……….. restitution stopped where repayment began.”

नोट–यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि यह नियम अब भारत में मान्य नहीं है। भारत में खानगल बनाम लाखन सिंह (1928)9 Lah 701 के वाद में प्रतिपादित नियम, जिसे Specific Relief Act. 1963 में भी अपना लिया गया है, ही मान्य है। इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक विवेचना के लिए लिया करने की क्षमता’ का अध्याय देखें।

(3) यदि जिस व्यक्ति से अवयस्क ने कपट द्वारा धन प्राप्त किया है, उसका उसके साथ न्यस्त प्रकति का सम्बन्ध है तो उपर्युक्त नियम लागू नहीं होगा।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने वादी के वाद को खारिज कर दिया तथा कहा कि अवयस्क की कमजोरियों का संरक्षण करना आवश्यक है, चाहे एक-आध अवयस्क इससे नाजायज

फायदा ही क्यों न उठायें। 1916 में प्रिवी कौंसिल ने इस सिद्धान्त का अनुमोदन कर दिया। परन्तु भारत में यह सिद्धान्त मान्य नहीं है। भारत में विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act, 1963) की धारा 33 (2) (b) में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान कर दिया गया है कि यदि कोई प्रतिवादी इस आधार पर किसी दावे का विरोध करता है कि यह संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार शून्य है तो न्यायालय को अधिकार है कि वह आदेश द्वारा प्रतिवादी को बाध्य करे कि उसने जो उक्त संविदा के अन्तर्गत लाभ प्राप्त किये हैं, उन्हें वादी को लौटाये।

3

अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल (Ajudhia Prasad v. Chandan Lal)

[A.I.R. 1937 All. 610 (F.B.)]

भूमिका-यह वाद अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन, संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 आदि से सम्बन्धित है।

प्रतिपादित नियम-इस वाद को प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी के विरुद्ध किया था। अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के पक्ष में बन्धक-विलेख (Mortgage Deed) निष्पादित किया था। अपीलार्थी ने वाद का विरोध इस तर्क पर किया कि विलेख निष्पादित किये जाने के समय वह अवयस्क था। अपीलार्थी ने अवयस्कता के तथ्य को कपटपूर्ण मिथ्या-व्यपदेशन द्वारा छिपाया था। वह उस समय 18 वर्ष से अधिक था, परन्तु 21 वर्ष से कम था और उसके लिए एक अभिभावक नियुक्त था। अपीलार्थी ने इस विलेख द्वारा अपने विवाह आदि के लिए धन प्राप्त किया था। निम्न न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अपीलार्थी अवयस्क है, क्योंकि वह 21 वर्ष से नीचे है और उसके अभिभावक नियक्त हैं। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि वह पथ्याव्यपदेशन का दोषी था। लाहौर उच्च न्यायालय के वाद खानगुल बनाम लाखन सिंह [Khangul v. Lakhan Singh, (1928) Lah 701] में मुख्य न्यायाधीश शादीलाल (Shadilal, C.J.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को मानते हुए न्यायालय ने अवयस्क के विरुद्ध निर्णय दिया था। इस आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अपील की गई।

निर्णय-इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण बेंच ने निर्णय दिया कि बन्धक-विलेख को लागू नहीं किया जा सकता है, अर्थात् उन्होंने अवयस्क के पक्ष में अपना निर्णय दिया।

प्रतिपादित सिद्धान्त-(1) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अंग्रेजी वाद लेजली बनाम शील (Leslie v. Sheill) को उचित मानते हुए अपना निर्णय दिया। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जब कोई अवयस्क कपटपूर्ण मिथ्या-व्यपदेशन द्वारा किसी संविदा में कोई लाभ प्राप्त करता है तो प्रत्यास्थापन के साम्या सिद्धान्त के अनुसार उसे वह लाभ लौटाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। परन्तु अवयस्क को तभी ऐसा लाभ वापस करने को बाध्य किया जा सकता है जबकि जो सम्पत्ति उसने प्राप्त की है, वह पहचानी जा सके। मुख्य न्यायाधीश सुलेमान (Suleman C.J.) के मौलिक शब्दों में

“Where a contract of transfer of property is void, and such property can be traced, the property belongs to the promisor and can be followed. There is every equity in his favour for restoring the property to him. But where the property is not traceable and the only way to grant compensation would be by granting the money-decree against the minor, decreeing the claim would almost tantamount to enforcing the minor’s pecuniary liability under the contract which is void. The distinction is too obvious to be ignored.”

(2) इस मामले में संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 को लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये धारायें इस बात की परिकल्पना पर आधारित है कि संविदा के पक्षकार संविदा करने के लिए सा क्योंकि अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है; अत: उसके सम्बन्ध में ये धारायें लाग नहीं

आलोचना तथा निष्कर्ष-इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण बेंच ने लेजली बनाम शील में प्रतिपादित सिद्धान्त को उचित घोषित किया तथा खानगुल बनाम लाखन सिंह में प्रतिपादित सिद्धान्त को

मानने से इन्कार कर दिया। परन्तु इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इस वाद में दिये गये निर्णय अब मान्य नहीं व्योंकि विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 33 (2) (b) में खानगुल बनाम लाखन सिंह में मुख्य न्यायाधीश शादीलाल द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को उचित माना गया है।

4

मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष (Mohori Bibee v. Dharmodas Ghosh)

[(1903) I.L.R. 30 Cal. 539 (P.C.)]

भूमिका-यह वाद अवयस्क की संविदाओं की प्रकृति, उसके द्वारा कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन, उसके प्रति विबन्ध (Estoppel) के सिद्धान्त के लागू होने, संविदा अधिनियम की धारायें 64, 65 आदि से सम्बन्धित हैं।

तथ्य तथा विवाद–प्रत्यर्थी जो कि एक अवयस्क था, उसने कलकत्ता के एक ऋणदाता ब्रह्मोदत्त से यह कह कर ऋण प्राप्त किया कि वह वयस्क है तथा ऋण प्राप्त करने के लिए उसके पक्ष में एक बन्धकविलेख (Mortgage Deed) लिख दिया था। जिस समय बन्धक के ऊपर अग्रिम धन देने के बारे में विचार किया जा रहा था, उसी समय ब्रह्मोदत्त के एजेन्ट केदारनाथ को यह सूचना मिली थी कि प्रत्यर्थी अवयस्क है; अत: वह विलेख को निष्पादित नहीं कर सकता। परन्त फिर भी उसने धर्मोदास घोष से बन्धक विलेख निष्पादित करा लिया। तत्पश्चात् अवयस्क ने अपनी माता अभिभावक द्वारा ब्रह्मोदत्त के विरुद्ध एक वाद किया जिसमें न्यायालय से प्रार्थना की कि बन्धक-विलेख को रद्द किया जाय, क्योंकि जिस समय यह बन्धक विलेख निष्पादित किया गया था, वह एक अवयस्क था। न्यायमूर्ति जेकिन्स (Jenkins, J.) जो परीक्षणन्यायालय के न्यायाधीश थे, ने प्रत्यर्थी की उक्त प्रार्थना को स्वीकार करते हुए बन्धक-विलेख को रद्द कर दिया। इस आदेश के विरुद्ध अपील को भी उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया; अतः अपीलार्थी ने प्रिवी कौंसिल में अपील की। इस अपील को करने के समय ब्रह्मोदत्त की मृत्यु हो चुकी थी। अत: उसकी उत्तराधिकारिणी मोहरी बीबी ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया था। मोहरी बीबी की ओर से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये

(1) बन्धक विलेख को रद्द करते समय न्यायालय को अवयस्क को बाध्य करना चाहिये था कि उसने उस विलेख के अन्तर्गत जो धन (10,500 रु०) प्राप्त किये हैं, वह उसे लौटाये। इस तर्क के पक्ष में उन्होंने विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 (Specific Relief Act, 1877) का हवाला दिया जिसके अन्तर्गत न्यायालय को ऐसा आदेश पारित करने की शक्ति है।

(2) संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 के अन्तर्गत प्रत्यर्थी को रद्द किये गये विलेख के अधीन प्राप्त किये गये धन को वापस लौटाने को बाध्य किया जा सकता है।

(3) विबन्ध (Estoppel) के सिद्धान्त के अनुसार अवयस्क को जिसने कि अपने को अवयस्क कहा था, अब यह अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह यह तर्क करे कि संविदा करते समय वह अवयस्क था।

(4) अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्यकरणीय (voidable) होती है।

निर्णय-न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया।

प्रतिपादित नियम-(1) अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्यकरणीय न होकर पूर्ण तथा प्रारम्भ से ही शून्य (void ab initio) होती है।

2) अवयस्क के प्रति संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 लागू नहीं होती है, क्योंकि इन धाराओं के लिए यह आवश्यक है कि संविदा के पक्षकार संविदा करने के लिए सक्षम हान चााह

(3) इस मामले में विबन्ध का सिद्धान्त लाग नहीं हो सकता क्योंकि दोनों पक्षकारों को यह सूचना थी कि संविदा एक अवयस्क के साथ की जा रही है।

(4) विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 के अन्तर्गत अवयस्क को शून्य संविदा के अधीन प्राप्त किये लाभा को वापस लौटाने के लिये बाध्य किया जा सकता है। परन्त इस वाद में न्यायालय ऐसा उचित नहा ता, क्योकि जब धर्मोदास घोष को बन्धक ऋण दिया गया था तो अपीलार्थी को इस बात का पता था कि वह अवयस्क है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर प्रिवी काउन्सिल ने अपीलार्थी की अपील को खारिज कर दिया।

5

खानगुल बनाम लाखन सिंह

(Khangul v. Lakhan Singh)

[(1928) 9 Lah. 701]

भूमिका-यह वाद अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-इस वाद में वादी ने उस भूमि के कब्जे के लिए वाद किया था जो कि प्रतिवादी ने उसे 17,500 रुपये में बेंची थी। प्रतिवादी ने भूमि बेचते समय कपट करके अपने को वयस्क बताया था जबकि वास्तव में वह एक अवयस्क था। प्रतिवादी ने उक्त वाद का विरोध इस आधार पर किया कि संविदा के समय वह अवयस्क था। चूँकि अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्य होती है; अतः उक्त संविदा को रद्द किया जाना चाहिये। वादी की तरफ से यह तर्क दिया गया कि चूँकि संविदा करते समय प्रतिवादी ने अपने को वयस्क बताया था; अत: वह यह तर्क नहीं कर सकता कि उस समय वह अवयस्क था। इसके अतिरिक्त उसने यह भी तर्क किया कि विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 41 के अन्तर्गत प्रतिवादी को बाध्य किया जाय कि उसने जो धन उक्त संविदा के द्वारा प्राप्त किया है, उसे वह वापस लौटाये। परीक्षण-न्यायालय ने प्रतिवादी के विरुद्ध निर्णय दिया था तथा अपने निर्णय में कहा था कि चूँकि प्रतिवादी ने संविदा करते समय अपने को वयस्क बताया था, अब उसे अनुमति नहीं दी जा सकती थी कि वह यह तर्क करे कि वह उस समय अवयस्क था। उक्त आदेश के विरुद्ध अपील की गयी।

निर्णय-लाहौर उच्च न्यायालय की पूर्ण बेंच ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादी संविदा के अन्तर्गत प्राप्त किये हुए लाभ को लौटाने के लिए बाध्य है।

प्रतिपादित नियम-(1) अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्यकरणीय न होकर पूर्ण रूप से शून्य होती है।

(2) प्रत्यास्थापन का साम्या सिद्धान्त (Equitable Doctrine of restitution) इस बात पर आधारित है कि न्यायालय न्याय करे तथा दोनों पक्षकारों को उस स्थिति में लाने की चेष्टा करे जिस स्थिति में वे होते, यदि संविदा न की गयी होती अतः सम्पत्ति लौटाने और धन लौटाने में कोई अन्तर नहीं है। न्यायाधीश शादीलाल (Sir Shadi Lal, C.J.) के मौलिक शब्दों में-

“The equitable jurisdiction is founded upon the desire of the court to do justice to both the parties by restoring them to a status quo ante and there is no real difference between restoring the property and refunding the money, except that the property can be identified, but cash can not be traced.

न्यायाधीश शादी लाल ने यह भी कहा कि विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 41 में यह कहीं भी नहीं कहा गया कि सम्पत्ति लौटाई जा सकती है, परन्तु धन नहीं लौटाया जा सकता: तथा भारत में न्यायाधीशों में अनेक मामलों में अवयस्क को धन लौटाने को बाध्य किया है। उनके मौलिक शब्दों में

The doctrine of restitution finds expression in Section 41 of the Specific Relief Ant

… The statute nowhere says that the pecuniary compensation should not e allowed when the award thereof would be tantamount to a payment of the money borrowed on the strength of a void transaction…………It would be sheeri infant should retain, not only the property he has agreed to sell or mortgage, but also the money which he has obtained by perpetrating fraud…”

(3)जहाँ तक भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 112 में वर्णित विबन्ध के सिद्धान्त का प्रश्न है, न्यायाधीश शादीलाल ने कहा कि यह अवयस्क प र होगा। निर्णय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि जब कभी विधि के किसी विशेष प्रावधान कामकिसी सामान्य प्रावधान से होता है तो विशेष प्रावधान ही अधिक मान्य होता है। विबन्ध सामान्य विधि है जो सभी

लोगो पर लागू होता है, लेकिन संविदा विधि की धारा 11 एक विशेष विधि है जिसके अन्तर्गत यह कहा या कि अवयस्क द्वारा का गई संविदा शून्य होगी। अत: यह प्रावधान सामान्य प्रावधान से अधिक मान्य होगा। उनके मौलिक शब्दों में-

“The Law of Estoppel is a general law applicable to all persons, while the Law of Contract relating to capacity to enter into a contract is directed towards a special object, and it is a well-established principle that where a general intention is expressed by the Legislature and also a particular intention which is incompatible with the general one, the particular prevails over the general one………………the balance of judicial authority in India, is decidedly in favour of the rule that, where an infant has induced a person to contract with him by means of false representation that he was of full age, he is not estopped from pleading his infancy in avoidance of the Contract; and though Section 115 of the Indian Evidence Act in general in terms………it must be read subject to the provisions of Indian Contract Act, declaring a transaction entered into by a minor to be

void.”

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब कभी कोई अवयस्क कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन द्वारा कोई लाभ या धन प्राप्त करता है तो उसे उस लाभ या धन को लौटाने को बाध्य किया जा सकता है।

6

भगवानदास बनाम मेसर्स गिरधारीलाल एण्ड कम्पनी

(Bhagwandas v. M/s. Girdhari Lal & Co.)

(A.I.R. 1966, S.C. 543)

भूमिका-यह वाद प्रस्ताव के टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा स्वीकृति से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-इस वाद में प्रतिवादी का कथन था कि वादी ने टेलीफोन द्वारा बिनौले की खली (Cotton Cake Seed) के क्रय के लिये प्रस्ताव किया था तथा उस प्रस्ताव को खामगाँव में स्वीकार किया गया था। संविदा के अन्तर्गत वस्तुयें खामगाँव में परिदत्त की जानी थी तथा उनका मूल्य भी खामगाँव में चुकाया जाना था। अतः प्रतिवादी का कथन था कि खामगाव के नगर-न्यायालय (City Court) को ही इस को निर्णीत करने की अधिकारिता थी। दूसरी ओर वादी का कथन था कि अहमदाबाद के नगरन्यायालय को इस बात की अधिकारिता थी, क्योंकि प्रतिवादी ने बिनौले की खली बेचने का प्रस्ताव किया था जिसे कि उसने अहमदाबाद में स्वीकार किया था। अत: न्यायालय के सम्मुख यह प्रश्न था कि यदि स्वीकृति टेलीफोन से की जाती है तो संविदा कब पूर्ण होती है? परीक्षण-न्यायालय ने निर्णय दिया था कि जब टेलीफोन से स्वीकृति होती है तो संविदा उस स्थान पर पूर्ण होती है जहाँ पर कि प्रतिज्ञाग्रहीता को स्वीकृति सूचित की जाती है। अतः न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संविदा अहमदाबाद में पूर्ण हुई। अत: अहमदाबाद के नगर-न्यायालय को ही अधिकारिता थी। इस आदेश के विरुद्ध प्रतिवादी ने उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण के लिए एक प्रार्थना-पत्र दिया जिसे कि गुजरात उच्च न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया। उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध प्रतिवादी ने प्रस्तुत अपील विशेष अनुमति से उच्चतम न्यायालय में दायर की।

निर्णय-उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से अपील को खारिज कर दिया तथा धारित (held) किया कि जब संविदा टेलीफोन के द्वारा होती है तो डाक या तार के सम्बन्ध में स्वीकृति का नियम लागू नहीं होता।

प्रतिपादित सिद्धान्त-उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से यह नियम प्रतिपादित किया कि जब संविदा टलाफान द्वारा होती है तो संविदा उस समय तथा उस स्थान पर पूर्ण होती है जिस स्थान पर प्रतिज्ञाग्रहीता का स्वीकृति की सूचना दी जाती है। बहमत से निर्णय देते हये न्यायाधीश शाह (Shah. J.) ने कहा कि टेलीफोन द्वारा बातचीत में एक अर्थों में पक्षकार एक-दूसरे की उपस्थिति में होते हैं, और एक पक्षकार दूसरे पक्षकार का आवाज को सुन सकता है। अत: इसमें डाक या तार द्वारा स्वीकति का नियम लाग नहीं हो सकता। उनक मौलिक शब्दों में-

“In the case of telephonic conversation, in a sense the parties are in the presence of each other, each party is able to hear the voice of the other. There is instantaneous communication of the speech intimating of an acceptance, rejection or counter-offer. Intervention of electrical impulse which results instantaneous communication of messages from a distance does not alter the nature of conversation so as to make it analogus to that of an offer and acceptance through post or by telegraph…… If regard be had to the essential nature of conversation by telephone, it would be reasonable to hold that the parties being in a sense in the presence of each other, and negotiations so concluded by instantaneous communication of acceptance is a necessary part of the formation of the contract, and the exception to the rule imposed on ground of commercial expediency is inapplicable.”

विपरीत निर्णय (Dissenting Judgment)-न्यायाधीश हिदायतउल्लाह (Hidayatullah, J.) उपर्युक्त सिद्धान्त से सहमत नहीं थे; अत: उन्होंने अपना विपरीत निर्णय दिया। उनके मतानुसार संविदा अधिनियम की धारा 4 टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा संविदा के विषय में वही नियम प्रतिपादित करती है जो डाक या तार के लिये है। उनके मौलिक शब्दों में- “The language of Section 4 of the Indian Contract Act covers the case of communication over the telephone. Our Act does not provide separately for Post, Telegraph, Telephone and Wireless.” 378: PRITETET हिदायतउल्लाह के अनुसार संविदा खामगाँव में पूर्ण हुई, क्योंकि वहाँ पर स्वीकृतिकर्ता ने स्वीकृति के शब्द बोले थे। अत: खामगाँव के नगर-न्यायालय को इस वाद में क्षेत्राधिकार था।

निष्कर्ष-अपील को खारिज करते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह नियम प्रतिपादित किया कि टेलीफोन या टेलेक्स से स्वीकृति के विषय में डाक या तार द्वारा स्वीकृति का नियम लागू नहीं होता। स्वीकृति का सामान्य नियम यह है कि इसकी संसूचना प्रतिज्ञाग्रहीता को की जानी चाहिए। डाक या तार द्वारा स्वीकृति इस नियम का अपवाद है। टेलीफोन द्वारा स्वीकृति में यह अपवाद लागू नहीं होता है।

7

शेडवेल बनाम शेडवेल

(Shedwell v. Shedwell)

[(1960) 9 C.N. (N.S.) 150 : 142 E.R. 62]

भूमिका-यह वाद प्रतिफल के सिद्धान्त से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद- इस वाद में वादी ने एक लड़की से विवाह करने का करार किया। प्रतिवादी (जो कि वादी का चाचा था) को जब यह पता चला तो उसने इस होने वाले विवाह के प्रतिफल में यह प्रतिज्ञा की कि वह वादी को 150 पौंड प्रतिवर्ष अपने जीवन-काल में तब तक देता रहेगा जब तक कि उसकी आय 600 गिनी (Guineas) नहीं हो जाती। अत: वादी ने उक्त लड़की (Ellen Nicholl) से विवाह कर लिया। वादी ने प्रस्तुत वाद प्रतिवादी के विरुद्ध उसके द्वारा की गई प्रतिज्ञा के अनुपालन कराने के लिए किया था। प्रतिवादी ने वाद का विरोध करते हुए कहा कि उसके द्वारा की गई प्रतिज्ञा का कोई प्रतिफल नहीं था, अतः इसका अनुपालन नहीं कराया जा सकता।

निर्णयन्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त प्रतिज्ञा के लिए यथेष्ट प्रतिफल था। अत: न्यायालय ने निर्णय वादी के पक्ष में दिया।

प्रतिपादित नियम-सामान्य नियम यह है कि यदि कोई पक्षकार किसी संविदा के अन्तर्गत कोई कार्य करने के लिए पहले से ही बाध्य है और उसी कार्य को करने के लिए वह कोई नई संविदा करता है तो इस नई संविदा को प्रतिफलविहीन माना जाता है। परन्तु यदि इस नई संविदा द्वारा वह कोई ऐसा कार्य करता है जिसको करने के लिए वह पहले से बाध्य नहीं था तो ऐसी संविदा को वैध माना जाता है। प्रस्तत वाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी की प्रतिज्ञा प्रतिफलविहीन नहीं थी, क्योंकि विवाह का प्रमुख रूप से तो इनके पक्षकारों से ही सम्बन्ध होता है, परन्तु नजदीकी रिश्तेदारों के लिए भी यह एक हित का विषय होता

है अतः यह कहा जा सकता है कि इससे उनको लाभ पहुँचता है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि बोटीने प्रतिवादी के कहने पर अपने जीवन में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। अत: वह इस बात का अधिकारी है कि वह प्रतिवादी द्वारा किये गये वचन का अनुपालन करवा सके। मुख्य न्यायाधीश अर्ले (Erle, J.) के मौलिक शब्दों में

“The marriage affects the parties thereto, but in the second degree it may be an biect of interest with a near relative, and in that sense a benefit to him, this benefit is also derived from the plaintiff at the uncle’s request if the promise of the annuity was intended as an inducement to marriage and the averment that the plaintiff relying on the promise, married is an averment that the promise was an inducement to the marriage. This is a consideration averred in the declaration, and it appears to me to be expressed in the letter construed with the surrounding circumstances.”

निष्कर्ष-प्रतिवादी द्वारा की गई प्रतिज्ञा के लिए यथेष्ट प्रतिफल था; अतः वह अपनी प्रतिज्ञा का अनुपालन करने के लिए बाध्य था।

8

बेल बनाम लीवर्स ब्रदर्स लिमिटेड

(Bell v. Levers Brothers Ltd.)

[(1932) A.C. 161]

भूमिका-यह वाद संविदा विधि के अन्तर्गत भूल (Mistake) से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-प्रतिवादी कम्पनी ने वादी को अपनी एक अधीनस्थ कम्पनी नाइजर कम्पनी (Niger Co.) में 5 साल के लिए 8,000 पौंड प्रतिवर्ष की आय पर डाइरेक्टर नियुक्त किया। तत्पश्चात् नाइजर कम्पनी एक अन्य निगम में मिला ली गई; अत: वादी की सेवाओं की आवश्यकता नहीं रह गई। अतः प्रतिवादी कम्पनी ने वादी की सेवाओं को समाप्त करने के लिए एक मुआवजा की संविदा की थी जिसके अन्तर्गत उसको नियत समय से पहले हटाने के लिए 30,000 पौंड देने का निश्चय किया। बाद में यह धनराशि (30,000 पौंड) दे दी गई। यह धनराशि दे देने के पश्चात् कम्पनी को इस बात का पता चला कि वह बेल को बिना इस धनराशि के दिये हुए सेवा से मुक्त कर सकते थे, क्योंकि अपने सेवाकाल में बेल कई बार अपने कर्त्तव्य भंग का दोषी था। बेल ने अपनी सेवा में अपने नाम कछ सटे के संव्य थे जिसके लिए उसे बिना किसी मुआवजा दिये सेवामुक्त किया जा सकता था। अतः प्रतिवादी का यह तर्क था कि जब उसने बेल के साथ यह मुआवजा की संविदा की थी तब प्रतिवादी इन भूलों के प्रभाव में था कि उसे बिना मुआवजा दिये नहीं हटाया जा सकता; अत: संविदा शून्य घोषित की जानी चाहिये। कोर्ट आफ अपील ने प्रतिवादी के इस तर्क को मानते हुए यह निर्णय दिया था कि प्रारम्भ से ही संविदा शून्य थी, क्योंकि यदि प्रतिवादी को यह पता होता तो वह ऐसी संविदा कभी नहीं करता। इस आदेश के विरुद्ध बेल ने हाउस आफ लार्ड्स में अपील प्रस्तुत की।

निर्णय-साधारण बहमत से हाउस आफ लाई ने कोर्ट आफ अपील के निर्णय को उलट दिया तथा बेल के पक्ष में निर्णय दिया। लार्ड एटकिन (Lord Atkin) ने अपने निर्णय में कहा कि संविदा वैध थी तथा दोनों पक्षकारों पर बाध्य थी। उन्होंने अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुए कहा कि किसी विशेष संविदा को समाप्त करने के लिए कोई करार इस आधार पर अवैध न होगा कि करार के बाद यह पता चला कि किसी दूसरे प्रकार से भी पहली संविदा को समाप्त किया जा सकता है। मुक्ति पाने वाले पक्षकार को वास्तव में वही प्राप्त होता है जो वह चाहता है, अर्थात कम्पनी बेल की सेवाओं को समाप्त करना चाहती थी और उसने इस नई संविदा द्वारा इस उद्देश्य को प्राप्त कर लिया। इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि प्रतिवादी कम्पनी यही परिणाम किन्हीं दूसरे ढंगों से प्राप्त कर सकती थी। लार्ड एटकिन के मौलिक शब्दों में-

It would be wrong to decide that an agreement to terminate a definite specified contract is void if it turns out that the agreement had already been broken and could have

been terminated otherwise. The contract of release, i.e., the identical contract in both the case and the party paying for the release gets exactly what it bargains for. It seems immaterial that he could have the same result in another ways or that if he had known the true facts he would not have entered into the bargain.”

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर हाउस आफ लार्ड्स ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि वादी के साथ मुआवजा की संविदा वैध थी तथा दोनों पक्षकार उससे बाध्य थे।

9

नारडेनफेल्ट बनाम मैक्जिम नारडेनफैल्ट गन्स एण्ड एम्यूनिशन कं० लि.

(Nordenfelt v. Maxim Nordenfelt Guns and Ammunition Co. Ltd.)

(1894 A.C.535)

भूमिका-यह वाद व्यापार के अवरोधार्थ (restraint) करार से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-अपीलार्थी बन्दूक तथा कारतूसों का आविष्कारक तथा निर्माता था। उसने अपना कारबार प्रत्यर्थी के हाथ बेंच दिया तथा यह करार किया कि वह 25 साल तक इस कारबार को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से नहीं करेगा। उसने यह भी करार किया कि वह कोई ऐसा कारबार नहीं करेगा जिससे कि अपीलार्थी के साथ प्रतियोगिता हो। न्यायालय को निर्णय देना था कि व्यापार से सम्बन्धित करार का वह अवरोध वैध है अथवा नहीं।

निर्णय-हाउस ऑफ लाई ने निर्णय दिया कि करार का वह विबन्धन जिसके अन्तर्गत अपीलार्थी को किसी ऐसे कारबार के करने से अवरोधित किया गया है जिसकी प्रतियोगिता प्रत्यर्थी के साथ न हो, शून्य है तथा शेष करार वैध है।

प्रतिपादित सिद्धान्त-हाउस ऑफ लार्डस ने अपने निर्णय में कहा कि किसी व्यापार के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति को स्वतन्त्रता के साथ हस्तक्षेप सामान्य रूप से लोकनीति के विरुद्ध तथा शून्य होता है। यह एक सामान्य नियम है, परन्तु किसी विशिष्ट वाद की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए कुछ अपवाद हो सकते हैं। लार्ड मैकनाटन (Lord Mac Naughten) के शब्दों में

“All interference with individual liberty of action in trading and all restraints of trade themselves, if there is no more, are contrary to public policy, and therefore, void. That is a general rule. But there are exceptions; restraints of trade and interference with individual liberty of action may be justified by the special circumstances of a particular .case.”

लार्ड मैकनाटन ने यह स्पष्ट करते हए कि कब कोई अवरोध वैध होगा, अपने निर्णय में कहा कि कोई भी अवरोध तब युक्तियुक्त माना जायेगा जब कि वह पक्षकारों के तथा सार्वजनिक हित में हो तथा वह ऐसा हो कि पक्षकारों के हित की रक्षा करता हो तथा जनता के लिए अहितकर न हो। लार्ड मैकनाटन के शब्दों में :

“…………the restraint will be justified if it was reasonable that is in reference to the interest of the parties concerned and reasonable in reference to the interest of the public so framed and guarded as to afford adequate protection to the party in whose favour it is imposed while at the same time it is not in any way injurious to the public.”

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर हाउस आफ लाई ने निर्णय दिया कि प्रस्तुत वाद में करार का वह विबन्धन जिसके द्वारा अपीलार्थी को ऐसे व्यापार को करने से रोका गया था जिसकी प्रतियोगिता प्रत्यर्थी के व्यापार से हो, शून्य है तथा शेष करार वैध है।

 

10

होचेस्टर बनाम डि ला टुअर

(Hochester v. De La Tour)

[(1853) 2 E. & B.678]

भूमिका-यह वाद इस बात से सम्बन्धित है कि यदि संविदा के पालन के समय के पूर्व ही संविदा भंग होती है तो क्या क्षतिग्रस्त पक्षकार संविदा-पालन के समय के पूर्व वाद कर सकते हैं ?

तय तथा विवाद-अप्रैल, 1852 में प्रतिवादी ने वादी को अपने साथ दौरे पर जाने के लिए एक नारी नियक्त किया था। वादी की सेवा 1 जून, 1852 से प्रारम्भ होने वाली थी। परन्तु 11 मई को ही बाटी ने उसे सचित किया कि उसकी सेवाओं की अब आवश्यकता नहीं है तथा प्रतिवादी ने किसी भी कार के मआवजा देने से भी इन्कार कर दिया। वादी ने 22 मई को वाद प्रस्तुत किया। प्रतिवादी ने वाद का विरोध करते हुए कहा कि वादी की सेवाएँ 1 जून से प्रारम्भ होने वाली थीं और उसी दिन संविदा भंग होती श्री. अत: उससे पूर्व उसे वाद करने का अधिकार नहीं था।

निर्णय-न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि संविदा के भंग पर संविदा के पालन के पूर्व ही वह वाद करने का अधिकारी था।

न्यायालय ने अपने निर्णय में यह नियम प्रतिपादित किया कि ऐसा कोई सार्वभौमिक नियम नहीं है कि यदि कोई कार्य भविष्य में किया जाना है और संविदा का एक पक्षकार संविदा भंग कर देता है तो दूसरा पक्षकार संविदा-पालन के समय के पूर्व वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है, अर्थात् भंग होने पर संविदा-पालन के समय के पूर्व ही वाद प्रस्तुत किया जा सकता है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि वह संविदा के भंग होने पर संविदा के पालन के पूर्व वाद प्रस्तुत करने तथा अपने पक्ष में निर्णय कराने का अधिकारी था।

11

सत्यव्रत घोष बनाम मँगनी राम बाँगुर एण्ड कम्पनी

(Satyabrata Ghosh v. Mugnee Ram Bangur & Co.)

(A.I.R.) 1954 S.C. 44 : (1954) S.C.R. 310]

भूमिका-यह वाद पालन की असम्भवता (impossibility of performance) के आधार पर संविदा के उन्मोचन (discharge) से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-इस वाद में प्रत्यर्थी कम्पनी कलकत्ता में एक बहुत बड़े भू-भाग की स्वामिनी थी। उसने उक्त भूमि का विकास करने की एक योजना बनाई तथा यह निश्चय किया कि घरेलू उद्देश्य के लिए एक कालोनी बनाई जाय तथा इस स्कीम का नाम ‘झील कालोनी योजना संख्या एक’ (Lake Colony Scheme No. 1) रखा गया। कम्पनी ने भ मि को अनेक भागों में विभाजित करके अनेक विक्रेताओं से उन प्लाटों का विक्रय करने के लिये उनसे कुछ अग्रिम धन (earnest money) लेकर करार किया। कम्पनी ने यह उत्तरदायित्व लिया कि वह नालियाँ और सड़कों आदि को स्वयं बनवायेगी जिससे वे प्लाट मकान आदि बनाने के लिए उपयुक्त होंगे। इन क्रेताओं में से श्री विजयकृष्ण राय भी एक क्रेता थे जिन्होंने एक सौ रुपया अग्रिम धन दिया था। अपीलार्थी श्री विजयकृष्ण राय का समनुदेशिती (assignee) था। तत्पश्चात् ऐसा घटित हुआ कि उक्त भूमि को जिलाधीश ने भारतीय सुरक्षा अधिनियम के अन्तर्गत सैनिक-उद्देश्य के लिए आधग्रहण कर लिया। इन परिस्थितियों में कम्पनी ने निश्चय किया कि उक्त करारों को रद्द कर दे। अत उसने अपीलार्थी को यह विकल्प दिया कि या तो वह अपना अग्रिम धन लेकर करार को रद्द कर दे अथवा बकाया धन की देनगी करके करार को पूरा करे। अपीलार्थी ने इन दोनों में से कोई भी विकल्प स्वीकार करने से इन्कार कर दिया तथा कहा कि कम्पनी अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए बाध्य है: अत: अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया। वाद का विरोध करते हुए अनेक आधारों के अतिरिक्त कम्पनी ने यह भी आधार लिया कि उसके द्वारा की गई संविदा का उन्मोचन उसके पालन की असम्भवता के कारण हो गया है।

निर्णय-तथ्यों तथा परिस्थितियों को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा का पालन असम्भव नहीं है। न्यायालय ने अपने निर्णय के निम्नलिखित कारण बताये

(1) नवम्बर 1941 में जब जिलाधीश ने अधिग्रहण के आदेश द्वारा भमि को अधिग्रहीत किया तो स समय कम्पनी ने निर्माण कार्य प्रारम्भ नहीं किया था; अत: कार्य में रुकावट का प्रश्न ही नहीं उठता था।

(2) सड़कों तथा नालियों आदि के निर्माण के लिए कोई समय की सीमा निर्धारित नहीं की गई थी।

(3) निर्माण कार्य में इसलिए भी विलम्ब हुआ था, क्योंकि निर्माण सामग्री का अभाव (Scarcity) था तथा सरकार द्वारा अनेक नियन्त्रण लगाये गये थे। __प्रतिपादित नियम-न्यायालय ने संविदा अधिनियम की धारा 56 में प्रयुक्त ‘असम्भव (impossible) शब्द को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह शब्द अपने शाब्दिक अर्थों में प्रयोग नहीं किया गया है। यदि किसी कार्य का पालन पक्षकारों के उद्देश्य को देखते हुए असम्भव हो गया है तथा यदि परिस्थितियाँ इस तरह से परिवर्तित हो जाती हैं या वाद की घटनायें ऐसी घटित होती हैं जिनसे कि वह आधार या नींव जिस पर पक्षकारों ने संविदा की थी, छिन्न-भिन्न हो जाता है, तो यह कहना अनुचित न होगा कि प्रतिज्ञाकर्ता द्वारा की गयी प्रतिज्ञा का पालन असम्भव हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के शब्दों में

“The word ‘impossible’ has not been used in the sense of physical or literal impossibility. The purpose of an act may be impracticable and useless from the point of view of object and purpose which the parties had in view; and if an untoward event or change of circumstances totally upsets the foundation upon which the parties rested their bargain, it can well be said that the promisor finds it impossible to do the act which he promised to do.”

असम्भवता के सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए न्यायमूर्ति बी० के० मुखर्जी (B. K. Mukherjee) ने कहा कि यद्यपि इंग्लैंड में नैराश्य के सिद्धान्त के विधिक आधार को स्पष्ट करते हुए अनेक मत प्रतिपादित किये गये हैं, परन्तु यह सिद्धान्त संविदा के पालन की असम्भवता की विचारधारा पर आधारित है। परिवर्तित परिस्थितियों के कारण यदि संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो संविदा के पक्षकारों को उसके पालन से अभिक्षम्य किया जाता है, क्योंकि उन्होंने कोई असम्भव कार्य करने की प्रतिज्ञा नहीं की थी। न्यायमूर्ति मुखर्जी के मौलिक शब्दों में-

“Although various theories have been propounded by the judges and jurists in England regarding the judicial basis of the doctrine of frustration, yet the essential idea upon which the doctrine is based is that of the impossibility of performance of contract, in fact impossibility of performance and frustration are eventually used as interchangeable expressions. The changed circumstances, it is said, make the performance of the contract impossible and parties are absolved from the further performance of it as they did not promise to perform an impossibility.”

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर तथा वाद के उद्देश्य तथा परिस्थितियों को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तुत मामले में संविदा का पालन असम्भव नहीं हुआ।

12

हैडले बनाम बैक्सेन्डेल

(Hadley v. Baxendale)

[(1854) 9 Exch. 341]

भमिका-यह वाद संविदा भंग होने पर नुकसान (damages) दिये जाने के सिद्धान्तों से सम्बन्धित है। यह वाद ‘नुकसान की दूरस्थता’ (Remoteness of damages) से भी सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-वादी के मिल के धूरे का एक भाग टूट जाने से मिल बन्द हो गयी थी। अतः वादी इसको एक निर्माता के पास ग्रीनविच (Greeenwich) भिजवाना चाहता था जिससे उस भाग को देखकर वैसा ही एक नया पुर्जा बनाया जा सके। वादी ने उक्त भाग को प्रतिवादी को (जो एक सामान्य | वाहक था) ग्रीनविच ले जाकर निर्माता को देने के लिए दिया। वादी ने प्रतिवादी को केवल यह कहा कि वह मिल के स्वामी हैं तथा जो वस्तु वह ले जा रहे हैं, वह मिल का टूटा हुआ धुरा है। प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण ग्रीनविच के निर्माताओं को उक्त टूटा हुआ पुर्जा कई दिनों के विलम्ब के पश्चात् मिला। अतः वादी को उन लाभों की हानि हई जो वह इस दौरान अर्जित करता यदि वैसा ही एक नया धुरा बन कर आ गया होता। अत: उन्होंने प्रतिवादी के विरुद्ध उक्त नुकसान को प्राप्त करने के लिए वाद किया।

प्रतिवादी ने इस वाद का इस आधार पर विरोध किया कि नुकसान दूरस्थ था; अत: वह उसकी भरपाई करने के लिए बाध्य नहीं है।

निर्णय-न्यायालय ने इस आधार पर कि जूरी (Jury) को गलत निर्देश दिये गये थे, वाद के पुनरीक्षण के लिए आदेश दिया।

प्रतिपादित नियम-(1) कोर्ट आफ एक्सचेकर (Exchequer) ने यह नियम प्रतिपादित किया कि जब दो पक्षकार संविदा करते हैं और उनमें से एक उसे भंग कर देता है तो इस भंग के परिणामस्वरूप वह नकसान दिया जाना चाहिये जो संविदा करते समय सोचा जा सकता था कि प्राकृतिक रूप से ऐसे भंग हो सकते हैं, अथवा संविदा करते समय पक्षकार ने सोचा था कि भंग से इतना नुकसान होगा। न्यायाधीश एल्डरसन (Alderson J.) के शब्दों में

“When two parties have made a contract which one of them has broken, the damages with the other party ought to receive in respect of such breach of contract should be such as may fairly and reasonably be considered either arising naturally, i..e., according to the usual course of things, from such breach of contract itself, or such as may reasonably be supposed to have been in contemplation of both parties, at the time they made the contract, as the probable result of the breach of it.”

उपर्युक्त सिद्धान्त को वाद में लागू करते हुए न्यायाधीश एल्डर्सन ने कहा कि मान लो कि प्रस्तुत वाद में वादी के पास कोई और धुरा होता या जिस समय वह धुरा भेजा जा रहा था, उस समय मिल में कोई और खराबी रही होती तो जब तक प्रतिवादी को इन परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान नहीं होता तब तक उसे ऐसे नुकसान के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। संक्षेप में प्रतिवादी को केवल उन्हीं नुकसानों को देने के लिए बाध्य किया जा सकता है जो संविदा करते समय पक्षकारों के ज्ञान में थे, या उन्हें संविदा-भंग के परिणामस्वरूप उसने सोचा था।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर न्यायालय ने वाद के पुनरीक्षण का आदेश दिया। इस निर्णय में प्रतिपादित सिद्धान्त को संविदा अधिनियम की धारा 73 में अंगीकार किया गया है।

13

जमाल ए० के० ए० एस० बनाम मुल्ला दाऊद सन्स एण्ड कम्पनी

(Jamal A. K. A. S. v. Moolla Dawood Sons & Co.)

[(1916) I.A.C. 175 : 43, I.A.Cal. 493]

भूमिका-यह वाद संविदा-भंग होने पर नुकसान के परिमाण को कम करने के कर्त्तव्य से सम्बन्धित

है।

तथ्य तथा विवाद-वादी ने प्रतिवादी को कुछ शेयरों के विक्रय करने की संविदा की थी; वह शेयर प्रतिवादी को दिसम्बर 30, 1911 को दिये जाने थे। इस दिन तक शेयरों की कीमत बहुत कम हो गई थी। वादी ने उक्त दिन शेयर देने की पेशकश की तथा उसके लिए मूल्य माँगा। प्रतिवादी न तो शेयर ही लिए और न उसके लिए मूल्य ही दिया। वादी उन शेयरों को कुछ समय तक रखे रहा और जब बाजार में शेयरों के मूल्य फिर बढ़ने लगे तो उसने उन शेयरों को बेच दिया। यदि वादी 30 दिसम्बर, 1911 को बेचता तो शेयरों से उसे 1,09,218 रुपये की हानि होती। परन्तु चूँकि उसने शेयरों को कुछ समय रखने के बाद तब बेंचा जब बाजार में शेयरों की कीमत बढ़ रही थी तो उसे केवल 79,862 रुपये की हानि हुई। वादी ने 1,09,218 रुपये नुकसान प्राप्त करने के लिए वाद किया था जब कि प्रतिवादी का तर्क था चूँकि वास्तविक हानि केवल 79,872 रुपये की हुई है; अत: वह केवल इस धन को देने के लिए बाध्य है।

प्रिवी कौंसिल ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया।

(1) प्रतिपादित सिद्धान्त-प्रिवी काउन्सिल ने यह नियम प्रतिपादित किया कि जब किसी वाद में का वादा कुछ नुकसानी के लिए वाद करता है तो उसका यह कर्त्तव्य हो जाता है कि संविदा भंग होने के

उपरान्त जो हानि हुई है, उसे कम करने के लिए वह जो कुछ युक्तियुक्त कदम उठा सके उन्हें उठाये, तथा यदि उसकी उपेक्षा से कुछ हानि होती है तो उसे वह प्राप्त नहीं कर सकता है। परन्तु यह हानि या नुकसान संविदा-भंग की तिथि से ही देखा जायेगा। अतः संविदा भंग होने की तिथि पर नुकसान कम करने के लिए – यदि वादी कुछ कर सकता था तो उसका लाभ प्रतिवादी को मिलेगा।

लार्ड रेनबरी (Lord Wrenbury) के मौलिक शब्दों में

“It is undoubted law that a plaintiff who sues for damages, owes the duty of taking all reasonable steps to mitigate the loss consequent upon the breach and cannot claim as damages any sum which is due to his neglect. But the loss to be ascertained is the loss at the date of the breach. If at the date the plaintiff could do something or did something which mitigated the damages the defendant is entitled to the benefit of it.

(2) लार्ड रेनबरी (Lord Wrenbury) ने यह स्पष्ट किया यदि संविदा-भंग होने के बाद विक्रेता शेयरों को रोके रहता है तो शेयरों को रोकने से जो उसे हानि या लाभ होता है, उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। दूसरे शब्दों में, यदि नुकसान होता है तो वह उसे देना पड़ेगा और यदि शेयरों को संविदा भंग की तिथि के पश्चात् रोके रहता है और उसे लाभ होता है तो वह लाभ भी स्वयं लेगा। प्रतिवादी केवल उस हानि को देने के लिए बाध्य होगा जो संविदा-भंग होने की तिथि पर हुई है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी वादी को 1,09,218 रुपये नुकसान के रूप में देने के लिए बाध्य है।

14

फरीदुन्निसा बनाम मुख्तार अहमद तथा अन्य

(Faridunnissa v. Mukhtar Ahmad & Others)

[521 I.A. 342]

भूमिका-यह वाद एक पर्दानशीन महिला द्वारा निष्पादित वक्फनामे (Wakfnama) की वैधता से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-अपीलार्थी (एक पर्दानशीन महिला) ने कुछ सम्पदा के लिए एक वक्फनामा निष्पादित किया जिसमें प्रत्यर्थी को मुतवल्ली (Mutwalli) नियुक्त किया गया। अपीलार्थी एक पर्दानशीन, अनपढ़ महिला थी तथा उसके कोई बच्चा नहीं था। उसने वक्फ के रद्द किये जाने के लिए वाद प्रस्तुत किया। उसका कथन था कि उसने अपने पति के असम्यक् असर (undue influence) के कारण वक्फ का निष्पादन किया था तथा उसे वक्फ की प्रकृति, अन्तर्वस्तु (contents) आदि के विषय में कोई ज्ञान नहीं था। उसने यह समझते हुए उसे निष्पादित किया था कि यह उसकी जायदाद के प्रबन्ध के सिलसिले में कोई कार्य है।

निर्णय-न्यायालय ने अपीलार्थी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि वह वक्फ के विलेख से बाध्य नहीं है।

प्रतिपादित नियम-पर्दानशीन महिलाओं के विषय में यह उपधारणा (presumption) है कि जो व्यक्ति उनसे संव्यवहार करता है, वह सिद्ध करे कि ऐसी महिला ने संव्यवहार को स्पष्ट रूप से समझ लिया था। सम्पर्ण साक्ष्य का अवलोकन करने के पश्चात् न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहँचा कि वक्फ का निष्पादन पति के असम्यक असर के अधीन सही हुआ था, परन्तु जब विलेख निष्पादित हुआ था, कछ मामले अपीलार्थी को नहीं बताये गये थे। यह सिद्ध करने का भार प्रत्यर्थी पर था कि विलेख से सम्बन्धित सभी मामले अपीलार्थी को बता दिये गये थे। प्रत्यर्थी यह सिद्ध करने में असमर्थ रहे।

निष्कर्ष – न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अपीलार्थी वक्फ के विलेख से बाध्य नहीं है।

15

रघुनाथ प्रसाद बनाम सरजू प्रसाद

(Raghunath Prasad v. Sarju Prasad)

[A. I. R. 1924, P. C. 50]

भूमिका-यह वाद संविदा अधिनियम की धारा 16 से सम्बन्धित है। इस वाद में यह प्रश्न सारणीय है, कि जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि एक पक्षकार दूसरे की इच्छा को अधिशासित करने की सति में था, क्या संव्यवहार के अन्त:करण के विरुद्ध (unconscionableness) के होने के बारे में विचार किया जा सकता है?

तथ्य तथा विवाद-एक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के विषय में पिता तथा पुत्र के बीच झगड़ा आ। पिता ने पुत्र के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाहियाँ प्रारम्भ करने पर पुत्र (प्रतिवादी) ने अपनी सुरक्षा के लिए कछ सम्पदा वादी के पास बन्धक (mortgage) कर दी। प्रतिवादी ने वादी से 9,999 रुपये (27 मई, 1910 को) 2 रु० महीने प्रतिशत ब्याज की दर से उधार लिया था। वार्षिक ब्याज का भुगतान न होने पर चक्रविधि ब्याज (compound interest) का प्रावधान था। वादी ने मूल तथा ब्याज प्राप्त करने के लिए वाद किया था। प्रतिवादी ने वाद का विरोध करते हुए तर्क किया कि ब्याज की दर को देखते हुए संव्यवहार अन्त:-करण के विरुद्ध था। अतः इससे संविदा अधिनियम की धारा 16 के अनुसार, असम्यक् असर (undue influence) की उपधारणा उत्पन्न होती है।

निर्णय-न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह मामला धारा 16 के अन्तर्गत नहीं आता है तथा असम्यक् असर की उपधारणा (presumption) उत्पन्न नहीं होती है।

प्रतिपादित सिद्धान्त-न्यायालय ने कहा कि धारा 16 के अनुसार सबसे प्रथम विचारणीय बात पक्षकारों का सम्बन्ध है। यह बात बाद में देखी जाती है कि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध था अथवा नहीं। पहले यह देखा जाता है कि क्या एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था ? न्यायालय के शब्दों में

“The unconscionableness of the bargain is not the first thing to be considered. The first thing to be considered is the relation of the parties. Were they such as to put one in a position to dominate the will of the other ?”

प्रतिवादी यह सिद्ध करने में असमर्थ रहा कि ऋणदाता उसकी इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था। न्यायालय ने कहा कि यदि संव्यवहार अन्त:करण के विरुद्ध भी हो, तो संविदा अधिनियम के अन्तर्गत काई उपचार तब तक उपलब्ध नहीं होगा जब तक कि यह सिद्ध न किया जाय कि एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में था।

निष्कर्ष-धारा 16 के अधीन उपचार उपलब्ध नहीं होगा। न्यायालय ने 2 प्रतिशत की दर से 25 सितम्बर, 1917 तक के लिए चक्रवृद्धि ब्याज तथा उसके उपरान्त 6 प्रतिशत साधारण ब्याज के लिए वादी को दिये जाने का आदेश दिया।

16

यूनाइटेड मोटर फाइनेन्स कम्पनी बनाम एडीशन एण्ड कम्पनी लि.

(United Motor Finance Co. v. Addison & Co. Ltd.)

। [A. I. R. 1937 P. C. 21]

भूमिका-यह वाद कपट (fraud) से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-अपीलार्थी, प्रत्यर्थी के ग्राहकों को मोटर उधार क्रय (hire-purchase) कर त्ताय सहायता देते थे। प्रत्यर्थी (मोटरों के स्वामी) तथा ग्राहक के मध्य मूल्य का एक-तिहाई भाग उस जमा कर देता था तथा शेष किस्तों में देता था। अपीलार्थी प्रत्यर्थी को पूरा मूल्य देकर क्रता जब तक ग्राहक पूर्ण किश्तें जमा नहीं करता था, वह क्रेता बना रहता था। तत्पश्चात् अपीलार्थी ने

कारबार बन्द कर दिया तथा प्रार्थी के विरुद्ध एक वाद उन नुकसानों को प्राप्त करने के लिए किया जो उसे प्रत्यथी के कपट द्वारा हए थे। उनका कहना कि प्रत्यर्थी उसे जो दस्तावेज अग्रसरित करता था, उसमें लिखा है कि करार (अपीलार्थी तथा प्रत्यर्थी के मध्य) की शों का पालन किया गया है जब था। वह ग्राहकों के दस्तावेज तब भेजता था तबकि मोटर का काफी उपयोग हो चुका था। यदि अपीलार्थी को यह विदित होता तो वह ग्राहकों से कारबार न करता तथा ग्राहकों द्वारा किश्तें न अदा करने आदि से जो नुकसान उसे हुए, वे न होते।

निर्णय-प्रत्यर्थी अपीलार्थी के नुकसान की भरपाई करने को बाध्य थे।

प्रतिपादित सिद्धान्त-प्रत्यर्थी ने व्यपदेशन (representation) अपीलार्थी को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किये थे, परन्तु फिर भी वे जानते थे कि वे असत्य थे। अत: यदि अपीलार्थी ने उन व्यपदेशों पर विश्वास किया है तो प्रत्यर्थी कपट के लिए दायित्वाधीन होंगे। न्यायालय के शब्दों में

…………the intention to deceive is not necessarily an intention to injure or to cheat and, if the respondents made to the appellants a statement as to price and deposit which they knew to be untrue, and did so with a view to the appellants entering into a contract, there was a basis for an action of deceit, provided always that the appellants relied upon the statements.”

निष्कर्ष-न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलार्थी द्वारा हुए नुकसान को देने के लिए प्रत्यर्थी बाध्य

17

श्री शिव प्रसाद सिंह बनाम महाराजा श्रीश चन्द्र नन्दी

(Sri Shiva Prasad Singh v. Maharaja Shrish Chandra Nandi)

[A. I. R. 1949 P.C. 297]

भूमिका-यह अपवाद संविदा अधिनियम की धारा 72 से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा अपवाद-अपीलार्थी के पर्वाधिकारी ने प्रत्यर्थी के पर्वाधिकारी को झरिया में एक भाग पर खान से कोयला खरीदने के लिए पट्टा (lease) दिया था। पट्टे में यह उपबन्ध था कि प्रत्यर्थी खान में से जितना कोयला निकालेगा, उस पर प्रति टन 8 आने रायल्टी के रूप में देगा। परन्तु यदि कोयला बंगालनागपुर रेलवे (जो बनने वाली थी और जिसके द्वारा किराया दो आने प्रति टन कम पड़ता था) द्वारा भेजा गया तो प्रत्यथी 5 आने प्रति टन रायल्टी के रूप में देगा, बंगाल-नागपुर रलवे के चलने पर प्रत्यथी 5 आन रायल्टी देने लगा। तत्पश्चात् बंगाल-नागपुर रेलवे ने किराया बढ़ा दिया। अत: रायल्टी के भुगतान के विषय में विवाद उत्पन्न हुआ। इस बीच प्रत्यर्थी कुछ अधिक भुगतान कर चुका था। परीक्षण-न्यायालय ने निर्णय दिया कि पट्टेदार (Lessee) अधिक भुगतान को मुजरा (set-off) करने का अधिकारी नहीं था। परन्तु यह भी निर्णय दिया कि पट्टाकर्ता अब केवल 3 आने प्रति टन रायल्टी पाने का अधिकारी है। उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश का अनुमोदन कर दिया। तत्पश्चात् प्रस्तुत अपील तथा प्रति-अपील (cross-appeal) की गयी।

निर्णय-प्रिवी काउन्सिल ने अपील खारिज कर दी, परन्तु इस प्रति-अपील (cross-appeal) को स्वीकार कर लिया कि पट्टेदार पट्टाकर्ता को किये गये अधिक भुगतान का मुजरा (set-off) करने का अधिकारी है।

प्रतिपादित सिद्धान्त-(1) यदि कोई व्यक्ति भूल से अधिक भुगतान करता है, चाहे यह भूल विधि की ही हो. तो धारा 72 के अन्तर्गत वह व्यक्ति जिसने अधिक भुगतान प्राप्त किया है लौटाने को साका

(2) धारा 72 के लागू होने के लिए आवश्यक नहीं है कि पक्षकारों के मध्य कोई विद्यमान संविदा नहीं हो। आवश्यक यह है कि धनराशि का भुगतान भूल के कारण हुआ हो।

निष्कर्ष-न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तुत वाद में धारा 72 लागू होगी। अत: प्रति-अपील को स्वीकार कर लिया गया।

18

भोलानाथ शंकर दास बनाम लक्ष्मी नारायण

(Bhola Nath Shanker Das v. Lakshmi Narain)

[A. I. R. 1931 All. 83]

भूमिका-यह वाद संविदा अधिनियम की धाराओं 23 तथा 27 से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-अपीलार्थी एक कमीशन एजेन्ट्स फर्म के सदस्य थे तथा प्रत्यर्थी ऐसे अनाजसमुच्चय (Combination) के सदस्य थे जो अनाज का कारबार करता था। इस समुच्चय के निर्माताओं ने करार किया था कि वह निर्धारित मूल्य से नीचे अपनी वस्तुयें नहीं बेचेंगे तथा लाभ को एक सामान्य फंड में जमा करेंगे तथा लाभ को निश्चित अनुपात में विभाजित करेंगे।

अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के विरुद्ध अपने वाद में तर्क किया कि समुच्चय या संघ का उद्देश्य विधि विरुद्ध था, क्योंकि इसका उद्देश्य एकाधिकार (Monopoly) स्थापित करना था अपीलार्थी ने यह भी कहा कि प्रत्यर्थी ने बीज-निर्माताओं को अपने बीज प्रत्यर्थी को बेचने से रोक दिया।

निर्णय-समुच्चय या संघ विधि-विरुद्ध नहीं था, अतः वाद खारिज कर दिया गया।

प्रतिपादित सिद्धान्त-(1) निर्माताओं के मध्य कोई करार कि वे अपनी वस्तुयें निर्धारित मूल्य से नीचे नहीं बेचेंगे, लाभ को एक सामान्य फंड में जमा करेंगे तथा लाभ को एक निश्चित अनुपात में बाँटेंगे, न ही संविदा अधिनियम की धारा 23 के अधीन लोकनीति के विरुद्ध है और न ही धारा 27 के विरुद्ध है।

(2) किसी विशिष्ट स्थान के व्यापारियों का समुच्चय (combination) विधि-विरुद्ध या धारा 27 के विरुद्ध नहीं है, चाहे उससे अप्रत्यक्ष रूप से उनके प्रतिद्वन्दियों को हानि पहुँचती हो। निष्कर्ष-न्यायालय ने अपीलार्थी की अपील खारिज कर दी।

19

घेरूमल पारेख बनाम महादेव दास

(Gherumal Parekh v. Mahadeo Das)

[A. I. R. 19598.C.781]

भूमिका-यह वाद बाजी लगाने की संविदाओं (Wagering contracts) से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद-अपीलार्थी तथा प्रत्यर्थी दो संयुक्त परिवारों के प्रबन्धक थे। उन्होंने कुछ फर्मों से बाजी लगाने की संविदायें करने के लिए आपस में साझेदारी की। साझेदारों ने यह करार किया कि संविदायें प्रत्यर्थी के नाम से की जायेंगी तथा होने वाले लाभ या हानि को आधा-आधा बांट लिया जायगा। प्रत्यर्थी ने कुछ संविदायें की जिनसे उसे हानि हुई तथा पूर्ण हानि उसे भरनी पड़ी। आधी हानि को प्राप्त करने के लिए उसने अपीलार्थी के विरुद्ध वाद किया। अपीलार्थी ने अपनी रक्षा में कहा कि साझेदारी की फर्म रजिस्ट्रीकृत नहीं थी तथा बाजी लगाने की संविदा अधिनियम की धारा 23 के अधीन विधि-विरुद्ध थी।

निर्णय-न्यायालय ने प्रत्यर्थी के पक्ष में निर्णय दिया।

प्रतिपादित सिद्धान्त-(1) कोई भी संविदा बाजी लगाने की संविदा (Wagering contract) तभी कही जा सकती है जब तक यह सिद्ध किया जाय कि संविदा के पालन की माँग नहीं होती थी वरन् केवल मूल्य का अन्तर देय था। इस मामले में पक्षकारों का आशय केवल मूल्य के अन्तर को लेना नहीं था।

(2) यद्यपि बाजी लगाने का करार शून्य होता है तथा प्रवर्तनीय नहीं होता, परन्तु यह विधि द्वारा वर्जित नहीं होता है। अत: इसके साम्पाश्विक करार (collateral agreement) का उद्देश्य सावदा की धारा 23 के अधीन विधि-विरुद्ध नहीं होता है।

(3) बाजी लगाने (wager) को लोक-नीति के विरुद्ध भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सदियों से इसे जनता तथा राज्य ने सहन किया है।

(4) लोकनीति के कुछ निश्चित शीर्षक हैं। यद्यपि नये शीर्षक बनाना पूर्णतया निषिद्ध नहीं है तथा सिद्धान्त में अपवाद की परिस्थितियों से नया शीर्षक बनाया जा सकता है, समाज में स्थायित्व बनाये रहने के हित में, नये शीर्षक खोजने का प्रयास करना वांछनीय नहीं है। उच्चतम न्यायालय के शब्दों में : “…………though the new heads are not closed and though theoretically it may be permissible to evolve a new head under exceptional circumstances of a changing world, it is advisable in interest of stability of society not to make any attempt to discover new heads in these days.”

निष्कर्ष-न्यायालय ने निर्णय दिया कि आधी हानि की भरपाई करने को प्रतिवादी बाध्य है।

 

Follow me at social plate Form