LLB 1st Year 1st Semester Law of Contract 1 (16th Edition) Part 2 (Specific Relief Act, 1963) Chapter 2 Recovery of Possession of Property Notes Study Material in Hindi English दोनों ही भाषा में पढ़ने जा रहे है जिसे LLB Question Paper With Answer Sample Model Mock Test Paper में पूछा जाता है | LLB all Semester Notes PDF Download करने के लिए लिंक पर क्लीक करे |
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अध्याय 2 (Chapter 2) (LLB Notes)
सम्पत्ति के कब्जे का प्रत्युद्धरण (RECOVERY OF POSSESSION OF PROPERTY)
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के भाग 2 के अध्याय 1 में सम्पत्ति के कब्जे के प्रत्युद्धरण से सम्बन्धित उपबन्ध हैं। यह उपबन्ध विनिर्दिष्ट स्थावर (immovable) तथा विनिर्दिष्ट जंगम (movable) दोनों ही प्रकार की सम्पत्तियों के सम्बन्ध में है। विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति के कब्जे के प्रत्युद्धरण से सम्बन्धित उपबन्ध धारा 5 तथा धारा 6 में हैं जबकि विनिर्दिष्ट जंगम सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के बारे में उपबन्ध धारा 7 तथा धारा 8 में दिये गये हैं।
विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति का प्रत्युद्धरण (recovery of specific immovable property) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 5 के अनुसार, जो व्यक्ति किसी विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति के
कब्जे का हकदार है, वह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) द्वारा उपबन्धित प्रकार से उसका । प्रत्युद्धरण कर सकता है।
उपर्युक्त धारा 5, 1877 के निरस्त अधिनियम की धारा 8 के अनुरूप (correspond) वर्तमान धारा | पूर्व धारा 8 के लगभग समान है। इसमें केवल इतना अन्तर है कि धारा 8 में ‘विहित’ या ‘निर्धारित’ शब्द के | प्रयोग के स्थान पर धारा 5 में ‘उपबन्धित’ शब्द का प्रयोग किया गया है। सार में यह कोई विशेष अन्तर नहीं
प्रभा मैन्यूफैक्चरिंग इन्डस्ट्रियल कोआपरेटिव सोसाइटी बनाम बनवारी लाल (Prabha | Manufacturing Industrial Co-operative Society v. Banvari Lal)1 के वाद में किरायेदार
(सोसाइटी) से भूमि का कब्जा प्राप्त करने के लिये वाद दायर किया गया था। निचले दो समवर्ती न्यायालयों | का तथ्यों पर निर्णय था कि केवल भूमि का भूखण्डक (plot of land) सोसाइटी को आवंटित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि साधारणतया वह साक्ष्य के विषय में पुन: मूल्यांकन करके हस्तक्षेप नहीं करता है। परन्तु इस मामले में वह ऐसा इसलिये कर रहा है कि यदि निर्णय प्रत्यर्थी (respondent) के पक्ष में जाता है, तो सोसाइटी के अनेक सदस्यों जो उक्त सम्पत्ति पर कब्जा किये हुये हैं उन्हें बाहर निकाल दिया जायगा। अत: उच्चतम न्यायालय ने तथ्यों का मूल्यांकन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहँचा कि तथ्यों पर निचले न्यायालयों का निर्णय उचित था। अत: सम्पत्ति का आवंटन सोसाइटी के नाम | किया गया था जो किरायेदार थी। यह सम्पत्ति भूमि का एक भूखण्डक था अतः प्रत्यर्थी द्वारा कब्जे के लिये | वाद दायर करके कब्जे का प्रत्युद्धरण प्राप्त करने का प्रयास न्यायोचित था।
स्थावर सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के सम्बन्ध में अधिनियम के भाग 2 के अध्याय 1 में दो प्रकार के | उपबन्ध हैं-(i) पहले प्रकार का उपबन्ध कब्जे के हक पर आधारित है तथा इसका वर्णन धारा 5 में किया | गया है, तथा, (ii) दूसरे प्रकार का उपबन्ध कब्जे पर आधारित है तथा इसके सम्बन्ध में विधि धारा 6 में | वर्णित है। इन दोनों की अलग-अलग विवेचना नीचे की जा रही है।
यहां पर यह नोट करना आवश्यक है कि जहां उच्च न्यायालय तथ्यों के आधार पर यह निर्णय देता है कि विवादास्पद सम्पत्ति वादियों के कब्जे में नहीं थी। उच्चतम न्यायालय इस निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने वी० श्रीनिवासराजू एवं अन्य बनाम भारत इलेक्ट्रॉनिक लि. एवं अन्य | (V. Srinivasaraju and others v. Bharat Electronics Limited and others)3 के वाद में दिया था।
1. ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 1101.
2. तत्रैव, पृष्ठ 1110.
3. (2011) 2 एस० सी० सी० (सि०) 130-135-136 : (2009) 17 एस० सी० सी० 135.
इस वाद में अपीलार्थी ने वाद सम्पत्ति के स्वामित्व एवं कब्जे की घोषणा के लिये वाद किया था क्योंकि उसके अनुसार प्रत्यर्थी (respondent) ने अनधिकृत कब्जा कर रखा था तथा परीक्षण न्यायालय ने साक्ष्य पर पर्ण विचार करे बिना प्रत्यर्थी के पक्ष में डिक्री पारित की थी। उच्च न्यायालय ने अपील में सभी मौखिक तथा अन्य साक्ष्य पर पूरी तरह विचार करके निर्णय दिया कि वाद सम्पत्ति अपीलार्थी के कब्जे में नहीं थी तथा प्रत्यर्थी ने अनधिकृत कब्जा नहीं किया था। चूंकि यह निर्णय तथ्यों के आधार पर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया।
स्थावर सम्पत्ति से बेकब्जा किये गये व्यक्ति द्वारा वाद (Suit by person dispossessed of Immovable Property)
(1) धारा 6 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्मति के बिना स्थावर सम्पत्ति से विधि के सम्यक् अनक्रम से अन्यथा, बेकब्जा कर दिया जाय, तो वह अथवा उसके व्त्पन्न अधिकार द्वारा दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति किसी अन्य ऐसे हक के होते हुये भी जो ऐसे वाद में खड़ा किया जा सके, उसको कब्जा वाद द्वारा प्रत्युद्धत कर सकेगा।
(2) इस धारा के अधीन कोई भी वाद (क) बेकब्जा किये जाने की तारीख से छह महीने के बीत जाने के बाद, अथवा (ख) सरकार के विरुद्ध, नहीं लाया जायगा।
(3) इस धारा के अधीन किये गये किसी भी वाद में पारित किसी भी आदेश या डिक्री के विरुद्ध न तो कोई अपील होगी और न ऐसे किसी आदेश या डिक्री का कोई पुनर्विलोकन ही अनुज्ञात होगा।
(4) इस धारा की कोई भी बात किसी भी व्यक्ति को ऐसी सम्पत्ति पर अपना हक स्थापित करने के लिये वाद लाने से और उसके कब्जे का प्रत्युद्धरण करने से वर्जित नहीं करेगी।
धारा 6 दो महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित करती है। पहला सिद्धान्त यह है कि विवादास्पद अधिकार विधि के सम्यक् अनुक्रम में निर्णीत किये जाने चाहिये। दूसरा सिद्धान्त यह है कि यदि व्यक्ति का किसी सम्पत्ति पर कब्जा है तो कब्जे के स्रोत पर ध्यान दिये बिना उसके कब्जे को संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में, इस धारा का उद्देश्य है कि यदि किसी व्यक्ति का सम्पत्ति पर कब्जा है तो उसे केवल कानूनी प्रक्रिया द्वारा ही बेदखल किया जा सकता है। इस प्रकार यह धारा लोगों को कानून अपने हाथ में लेने से निरुत्साहित करती है। यह धारा वर्तमान कब्जे को बहुत महत्व देती है तथा उसे संरक्षण प्रदान करती है चाहे उसके विरुद्ध कोई भी हक खड़ा किया जाये। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के वर्तमान कब्जे के विरुद्ध किसी हक का दावा करता है तो वह कानूनी प्रक्रिया द्वारा दावा सिद्ध करके ही कब्जा प्राप्त कर सकता है। इस धारा के अन्तर्गत कब्जा पुनः प्राप्त करके वही व्यक्ति वाद करने का अधिकारी है जिसका कब्जा वैध हो। उदाहरण के लिये यदि किसी अतिचारी को सम्पत्ति पर उसके वर्तमान कब्जे से बेकब्जा कर दिया गया है तो वह इस धारा के अधीन वाद करके कब्जा पुनः प्राप्त करने का हकदार नहीं है। किसी अतिचारी को कब्जा करने के दौरान बेकब्जा किया जा सकता है। परन्तु यदि अतिचारी का कब्जा स्थापित हो चका है तथा सम्पत्ति पर उसका भली-भाँति वर्तमान कब्जा है तो उसे भी केवल विधि के सम्यक् अनुक्रम में ही बेकब्जा किया जा सकता है।
आवश्यक तत्व
धारा 6 के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-
(क) बेकब्जा किये जाने के समय वादी का कब्जा ‘वैध’ होना आवश्यक है।
(ख) वादी को उसकी सम्पत्ति से बिना उसकी सम्मति के बेकब्जा किया गया हो।
(ग) बेकब्जा विधि के सम्यक् अनुक्रम में न किया गया हो।
(घ) यदि वादी को बेकब्जा करते समय उसका कब्जा वैध था तथा उसे विधि के अनक्रम के बिना बेकब्जा किया गया था तो वह कब्जा पुनः प्राप्त करने के लिये वाद कर सकता है भले ही ऐसे वाद में उसके विरुद्ध कोई अन्य हक क्यों न खड़ा किया जाय।
(ड) कब्जा पनः प्राप्त करने के लिये वाद बेकब्जा किये जाने की तारीख से छह मास के भीतर किया जाना चाहिये।
(च) इस धारा के अन्तर्गत सरकार के विरुद्ध वाद नहीं किया जा सकता है। यद्यपि कब्जा पाप्त कर के लिये वही प्रक्रिया लागू होगी जो सिविल प्रक्रिया संहिता में दी गई है। धारा 6 में संक्षिप्त एवं शीघ्र उपचार
की व्यवस्था की गई है। दोनों धाराओं (5 तथा 6) में उन कतिपय तथा पृथक-पृथक उपचारों का उपबन्ध है परन्तु जहा जब वाद धारा 6 के अन्तर्गत संस्थित किया जाता है तो वाद में हक का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है।
एम० एस० जगदम्बाल बनाम द साऊदर्न इंडियन ऐज्यूकेशन ट्रस्ट (M.S. Jagadamabal v. Southern Indian Education Trust)4 के वाद में धारा 6 के अन्तर्गत कब्जा प्राप्त करने के लिये वाद संस्थित किया गया था। वादी का कहना था कि भमि उसके पति ने खरीदी थी तथा उनके जीवन काल में भूमि उनके कब्जे में थी तथा उनकी मृत्यु के बाद भूमि पर उसका कब्जा था। वादी के अनुसार, प्रत्यी जो पड़ास की भूमि के स्वामी थे, ने अतिचार करके उसे बेकब्जा कर दिया। परीक्षण न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर निर्णय दिया कि बेकब्जा किये जाने के पूर्व भूमि वादी के कब्जे में थी। दूसरी ओर, प्रत्यर्थी का कहना था कि वादी का सम्पत्ति पर कोई हक नहीं था। उन्होंने तर्क किया कि उन्होंने कोई अतिचार नहीं किया। वरन् उन्हें सम्पत्ति प्रतिकूल कब्जा (Adverse possession) द्वारा प्राप्त हुई क्योंकि वाद के पूर्व 12 वर्षों तक वादी का कब्जा नहीं था। परन्तु परीक्षण न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थी ने प्रतिकूल कब्जे द्वारा सम्पत्ति प्राप्त नहीं की थी। इस प्रकार परीक्षण न्यायालय ने निर्णय वादी के पक्ष में दिया। परन्तु उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने वाद की संभावनाओं पर विचार किये बिना तथा उन बातों पर ध्यान दिये बिना जिनको परीक्षण न्यायालय ने महत्व दिया था, निर्णय को उलट दिया।
अत: वादी ने यह अपील उच्चतम न्यायालय में की। उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुये तथा उच्च न्यायालय के निर्णय को उलटते हुये कहा कि खण्डपीठ ने वाद के महत्वपूर्ण तत्वों को नहीं समझा। परीक्षण न्यायालय का निर्णय गवाहों की विश्वसनीयता पर आधारित था। खण्ड पीठ द्वारा परीक्षण न्यायालय के निर्णय के आधार तथा वाद की संभावनाओं पर विचार किये बिना निर्णय दिया जो उचित नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सम्पत्ति को प्रत्यर्थी ने प्रतिकूल कब्जे द्वारा प्राप्त नहीं किया, सम्पत्ति पर वादी का कब्जा था। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सामान्य नियम यह है कि सम्पत्ति के एक भाग का कब्जा पूर्ण पर कब्जा माना जाता, यदि अन्यथा पूर्ण खाली है। ‘As a general rule the possession of part is in law possession of the whole, if the whole is otherwise vacant.’, प्रस्तुत वाद में क्योंकि भूमि पानी में डूबी रहती थी, अतः प्रतिकूल कब्जा नहीं हुआ क्योंकि कब्जा लगातार नहीं रहा।
उपर्युक्त निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि यदि वादी का सम्पत्ति के एक भाग पर कब्जा है तथा शेष भाग खाली पड़ा है अर्थात् उस पर किसी का कब्जा नहीं है तो वादी का कब्जा पूर्ण सम्पत्ति पर माना जायगा।
जहाँ वादी भूमि के हक तथा कब्जे के लिये वाद करता है तथा वादी सम्पत्ति में हक को सिद्ध कर देता है तथा वाद में सम्पत्ति से बेकब्जा किए जाने की तारीख को अभिकथित करता है, वह कब्जे की डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी होगा। ऐसे मामले में उच्च न्यायालय ने निचले न्यायालयों के तथ्यों पर समवर्ती निर्णय की अवहेलना करके ऐसे वादपद (issue) के आधार पर अपील स्वीकार नहीं करनी चाहिये जिसे न तो उठाया गया तथा जिस पर निचले न्यायालयों में बहस हुई।
धारा 6 (3) के अनुसार, धारा 6 के अन्तर्गत किये गये वाद में पारित किसी आदेश या डिक्री के विरुद्ध न तो कोई अपील की जा सकती है तथा न ही ऐसे किसी आदेश या डिक्री का कोई पुनर्विलोकन (review) ही हो सकता है। चूंकि धारा 6 के अन्तर्गत किये गये वाद में हक का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है तथा यह आवश्यक रूप से स्थावर सम्पत्ति के कब्जे से बिना सम्मति के बेकब्जा किये जाने से सम्बन्धित होता है, असफल पक्षकार को हक की घोषणा, तथा कब्जे के लिये वाद करने का अधिकार दिया गया है। परन्तु जहाँ आदेश या डिक्री धारा 6 के उल्लंघन में पारित की गई है, सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अन्तर्गत पुनर्विलोकन वर्जित नहीं है।
परन्तु यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि यह भली भाँति तय है कि कोई भी कानुनी उपबन्ध उच्च न्यायालय की संवैधानिक शक्ति को कम या समाप्त नहीं कर सकता है, यहाँ तक कि वह सर्वोपरि
4. ए० आई० आर० 1988 एस० सी० 103.
5. बसन्त कुमार राय बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, ए० आई० आर० 1988 एस० सी० पृष्ठ 105, 107.
6. श्रीमती गीतारानी पाल बनाम दिव्येन्द्र कुन्टू, ए० आई० आर० 1991 एस० सी० 395, 397.
7. महबूब पाशा बनाम ए० आर० विश्वनाथ चेट्टी, ए० आई० आर० 1994 कर्नाटक 350, 353.
अधिकार पत्र (Paramount charter) जिसके अन्तर्गत उच्च न्यायालय कार्य करता है तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि कानूनी उपबन्ध उसे व्यक्त रूप से समाप्त या अपवर्जित नहीं करता है। इस प्रकार की कोई निषिद्धि या रोध धारा 6 (3) में नहीं है। अत: जहाँ आदेश उच्च न्यायालय के एकल न्यायमूर्ति द्वारा मूल अधिकारों के अन्तर्गत पारित किया जाता है तथा प्रत्यर्थी के अधिकार पत्र (Letters Patent) के क्लाज 15 का आवाहन करता है तो इस आधार पर अपील की जा सकती है।
परन्तु एक बाद के वाद, अशोक नगर वेलफेयर एसोसिएशन बनाम आर० के० शर्मा (Ashok Nagar Welfare Association v. R.K. Sharma9 में यह तर्क किया गया है कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 6(3) के अन्तर्गत अपील की निषिद्धि पूर्ण है तथा लेटर्स पेटेन्ट (Letters Patent) या सम्बन्धित उच्च न्यायालय अधिनियम के उपबन्धों से प्रभावित नहीं होता है। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि इस तर्क में बल है। परन्तु न्यायालय ने इस मामले को बड़ी खण्डपीठ में भेजना आवश्यक नहीं समझा।10
पैरी बनाम क्लीसाल्ड (Parry v. Clissold)11 के वाद में न्यायालय ने अपने निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया था कि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि जिस व्यक्ति की भूमि पर स्वामी के समान कब्जा है तथा यह शांतिपूर्वक स्वामित्व के साधारण अधिकारों का उपभोग करता है, उसका हक अधिकारयुक्त स्वामी के सिवाय सारे विश्व के विरुद्ध अच्छा होता है। यदि अधिकारयुक्त स्वामी आगे आकर विधि की प्रक्रिया द्वारा तथा मर्यादा (limitation) के उपबन्धों के अन्तर्गत निर्धारित अवधि के अन्दर अपने हक का प्राख्यान (assert) नहीं करता है तो उसका अधिकार सदा के लिये समाप्त हो जाता है तथा उस व्यक्ति के पक्ष में पूर्ण हक हो जाता है जिसका सम्पत्ति पर स्वामी के समान कब्जा है।
उपर्युक्त मत का उच्चतम न्यायालय ने नायर सर्विस सोसाइटी बनाम के० सी० अलेक्जेन्डर (Nair Service Society)12 के वाद में अनुमोदन कर दिया। इस वाद में वादी ने भूमि का कब्जा प्राप्त करने के लिये वाद किया था। वादी के अनुसार भूमि पर उसका कब्जा 70 वर्षों से था तथा प्रतिवादियों ने उसे जबरन बेकब्जा कर दिया। प्रतिवादियों ने विरोध में कहा कि उन्होंने जबरन कब्जा नहीं किया। उन्होंने तर्क किया कि बिना हक के सिद्ध किये कब्जे का वाद नहीं किया जा सकता तथा पूर्व अतिचारी बाद वाले अतिचारी को नहीं निकाल सकता तथा कब्जे के आधार पर धारा 6 के अन्तर्गत वाद नहीं कर सकता। उच्च न्यायालय ने अपील में निर्णय दिया कि बाद के पूर्व वादी का कब्जा था तथा हक के सिद्ध किये बिना पूर्व कब्जे के आधार पर वाद पोषणीय था अत: वादी प्रतिवादी को बेदखल (eject) कर सकता है। अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय का अनुमोदन कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि सोसाइटी का कृत्य वादी के कब्जे के ऊपर हिंसक अतिक्रमण था। भारतीय विधि के अनुसार वादी विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के उपबन्धों के अन्तर्गत कब्जे के आधार पर वाद संस्थित कर सकता है जिसमें वह सारहीन हो अथवा 12 वर्षों के अन्तर्गत कब्जे का वाद कर सकता है जिसमें हक का प्रश्न उठाया जा सके।