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LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Proposal Notes

 

LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Proposal Notes:- आज की इस पोस्ट में हम आप सभी अभ्यर्थियो को Law of Contract 1 & Specific Relief Act 16th Edition Chapter 2 Proposal LLB 1st Year Semester Notes Study Material in English Hindi दोनों में बताने जा रहे है जिन्हें आप December 2019 Semester में पढ़कर एग्जाम दे सकते है | LLB Law 1st Year की सभी पोस्ट पोस्ट पढ़ने के लिए निचे दिए गये लिंक पर क्लिक करे |

 

अध्याय 2 (Chapter 2)

प्रस्ताव (PROPOSAL)

परिभाषा –संविदा के निर्माण में पहला कदम प्रस्ताव करना होता है। सामान्यतया, सविदा के लिए कम से कम दो व्यक्ति होने चाहिये-एक व्यक्ति जो प्रस्ताव करे तथा दूसरा व्यक्ति जो उसे स्वीकार करे। ‘प्रस्ताव’ शब्द की परिभाषा भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (क) में दी गई ह जा निम्नलिखित है

‘जब एक व्यक्ति, किसी बात के करने या करने से प्रतिविरत हो की अपनी रजामन्दी ऐसे कार्य या प्रतिविरति के प्रति किसी दूसरे की अनुमति प्राप्त करने की दृष्टि से उसे दूसरे को संज्ञात करता है तब उसके बारे में कहा जाता है कि वह प्रस्ताव करता है।”

प्रस्ताव के आवश्यक तत्व

एक वैध प्रस्ताव के लिए निम्नलिखित आवश्यक तत्व होते हैं

(1) प्रत्येक प्रस्ताव का संसूचित किया जाना आवश्यक है**- प्रस्ताव का संसूचित करना आवश्यक है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि यह सदैव व्यक्त (Express) या शब्दों में हो। यह विवक्षित (implied) भी हो सकता है। यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि कोई निबन्धन जिसे वास्तव में लिखित संविदा में सम्मिलित नहीं किया गया है उसे तब तक विवक्षित नहीं किया जा सकता है जब तक न्यायालय स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता है कि दोनों पक्षकारों का यह आशय था कि निबन्धन वि किया जाना चाहिये। परन्तु एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि किन परिस्थितियों में पक्षकारों के मध्य एक सविदा विवक्षित की जा सकती है। यह बात धारा१से स्पष्ट है कि संविदा विवक्षित की जा सकती है परन्तु विधि का एक मौलिक सिद्धान्त है कि न्यायालय का कर्त्तव्य पक्षकारों के मध्य संविदा कराना नहीं होता है। अतः संविदा विवक्षित तभी हो सकती है जब इसके लिये स्पष्ट रूप से सिद्ध किया जाय । विवक्षित संविदा के लिये वास्तव में मस्तिष्कों का मिलना आवश्यक है। न्यायालय को ऐसी संविदा में विवक्षित निबन्धन नहीं पढ़ना चाहिये; जहाँ संविदा इस सम्बन्ध में चुप है या निबन्धन की प्रकृति का उसमें संकेत नहीं है। परन्तु यदि निबन्धन स्पष्ट हैं तथा पक्षकारों के ध्यान या मनन में हैं या जो पक्षकारों के मध्य संविदा से आवश्यक रूप से उदय होते हैं तो ऐसे निबन्धन विवक्षित किये जायेंगे। इसके अतिरिक्त, धारा 3 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रस्ताव की सूचना प्रतिग्रहण करने वाले या अपखण्डन करने वाले पक्षकार के किसी ऐसे कार्य या कार्यलोप से समझा जाता है, जिसके द्वारा कि वह ऐसे प्रस्ताव को संसूचित करने का आशय रखता है, या जो कि उसे संसूचित करने का प्रस्ताव रखता है। यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि सेवा की संविदा अधिनियम के उपबन्धों से नियन्त्रित नहीं होती है। सेवा की संविदा के पूर्व प्रस्ताव एवं स्वीकृति का होना आवश्यक है इसके बिना स्वामी एवं कर्मचारी के मध्य कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता है। सेवा की संविदा के वैध होने के लिये नियुक्ति के आदेश का संसूचित किया जाना आवश्यक है। कर्मचारी द्वारा प्रस्ताव की स्वीकृति चाहे व्यक्त या विवक्षित रूप से, भी आवश्यक है। धारा 4 के अनुसार-किसी प्रस्ताव की संसूचना तब पूर्ण होती है जबकि वह उस व्यक्ति के, जिसको कि वह दी गई है, ज्ञान में आ जाती है। यहाँ पर विख्यात वाद लालमन शुक्ल बनाम गौरी दत्त (Lalman Shukla v. Gauri Dutt)4 का हवाला देना वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :

* पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 1 (क) के लिए भी देखें।

** पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 4 (ख) तथा पी० सी० एस० (1982) प्रश्न 1 (क); पी० सी० एस० (1991) द्वितीय प्रश्न पत्र,

प्रश्न 6 (क)।
1. धारा 9.

2. महाराष्ट्र राज्य तथा अन्य बनाम सैफुद्दीन मुजफ्फर अली सैफी, ए० आई० आर० 1994 बम्बई 48, पृ० 53.

3. सुल्तान सादिक बनाम संजय राज सुब्बा, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1377, 1384.

4. (1913) 11 ए० एल० जे० 489.

संविदा विधि प्रतिवादी का भतीजा घर से भाग गया। उसने अपने कर्मचारी (लालमन) को उसे खोजने को भेजा। बाद में उसने घोषणा की कि जो कोई उसके भतीजे को खोजेगा उसे 501 रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा। लालमन को इस घोषणा का ज्ञान लडके को खोज लेने के पश्चात हआ। लालमन ने पुरस्कार प्राप्त करन क लिए दावा किया।न्यायालय ने दावे को खारिज करते हए निर्णय दिया कि वैध संविदा कानिमाण नही क्योंकि लालमन को प्रस्ताव की संसूचना नहीं हुई थी।

, दृष्टान्त

(i) “क’ ने एक पत्र द्वारा कुछ माल एक निश्चित कीमत पर बेचने का प्रस्ताव ‘ख’ से किया। ‘ख’ ने भी वैसा ही माल उसी कीमत पर खरीदने के लिए पत्र द्वारा ‘क’ को लिखा। पत्र रास्ते में डाक में क्रास हो गये। क तथा ख के मध्य संविदा नहीं हुई। कोई प्रस्ताव तभी वैध होता है जब उसकी संसूचना उस व्यक्ति को कर दी जाती है जिससे प्रस्ताव किया गया है। यह बात धारा 2 (क) की उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है। इसक अतिरिक्त धारा 4 के अनुसार प्रस्ताव की संसचना तब पूर्ण होती है जब वह व्यक्ति के ज्ञान में आ जाती हो जिससे प्रस्ताव किया गया है। किसी प्रस्ताव की स्वीकृति उसके ज्ञान में आने के बाद ही की जा सकती है।

(ii) ‘अ’ ने ‘ब’ को 5 अप्रैल, 1982 को 40,000 रुपये में अपनी फियेट कार बेचने का प्रस्ताव करते हुए लिखा। उसी दिन ‘ब’ ने उसी मूल्य पर ‘अ’ की फियेट कार को क्रय करने का प्रस्ताव करते हुए लिखा। दोनों पत्र एक दूसरे के द्वारा एक-साथ प्राप्त हुए। बाद में ‘अ’ने कार यह दलील है कि एक समुचित संविदा हुई है। आप वाद को कैसे निर्णीत करेंगे?

_ ‘ब’ की दलील उचित नहीं है। एक समुचित संविदा नहीं हुई। विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार को संविदा कहते हैं। करार के दो मुख्य कदम होते हैं-(अ) प्रस्ताव; (ब) स्वीकृति। प्रस्ताव का संसूचित किया जाना आवश्यक होता है। कोई व्यक्ति किसी प्रस्ताव को स्वीकार तभी कर सकता है जब उसे इसका ज्ञान हो। ‘अ’ ने ‘ब’ को एक प्रस्ताव भेजा तथा ‘ब’ को ‘अ’ने एक प्रस्ताव भेजा। दोनों व्यक्तियों प्रस्ताव एक साथ प्राप्त हुए। यद्यपि दोनों के प्रस्ताव समान हैं, समुचित संविदा निर्मित नहीं हुई क्योंकि समुचित संविदा के लिये यह आवश्यक है कि प्रस्ताव स्वीकार किया जाय। इसके अतिरिक्त, जिस प्रकार प्रस्ताव का संसूचित किया जाना आवश्यक है उसी प्रकार स्वीकृति का भी संसूचित किया जाना आवश्यक है। स्वीकृति पूर्ण तभी होती है जब उसकी संसूचना पूर्ण होती है। धारा 2 (ख) के अनुसार, जबकि वह व्यक्ति, जिसे प्रस्ताव किया जाता है, उसके प्रति अपनी अनुमति प्रदान करता है तब कहा जाता है कि प्रस्ताव हो गया है। केवल पस्ताव करने से समुचित संविदा नहीं होती है।

(2) प्रस्ताव विधिक सम्बन्ध उत्पन्न करने के इरादे से किया जाना चाहिये *-एक वैध प्रस्ताव के लिए यह आवश्यक है कि वह विधिक सम्बन्ध उत्पन्न करने तथा जिससे किया गया है, उसकी सम्मति प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाय। इस विषय में बालफोर बनाम बालफोर (Balfour v. Balfour)5 के वाद का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :

प्रतिवादी सीलोन (श्रीलंका) में नौकरी करता था। अपनी पत्नी के साथ वह छुट्टी बिताने के लिए इंग्लैंड गया। छुट्टी समाप्त होने पर जब लौटने को था, उसकी पत्नी को उसके स्वास्थ्य के कारण डॉक्टर ने डॉलैण्ड में रुकने की सलाह दी। सीलोन लौटने के पहले उसने अपनी पत्नी से वादा किया कि वह उसे पतिमाह 30 पौण्ड गुजारे के लिये भेजेगा। कुछ समय तक उसने प्रतिमाह 30 पौण्ड भेजे, परन्तु बाद में भेजना बन्द कर दिया तथा अन्त में आपसी मतभेदों के कारण उनके सम्बन्ध-विच्छेद हो गये। विच्छेद के सकळ पर्व महीनों का भुगतान बाको था; अतः पत्नी ने उसे पाने के लिए वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने पत्नी के वाद को खारिज कर दिया। वाद को खारिज करते हुए लार्ड एटकिन (Lord Atkin) ने कहा कि पक्षकारों के मध्य कछ करार ऐसे होते हैं जो सविदा के रूप में परिणत नहीं होते हैं। इसका साधारण स्टाहरण है जब दो पक्षकार साथ-साथ घूमन का करार करते है। इस प्रकार के करार संविदा नहीं होते हैं क्योंकि पक्षकारों का इरादा विधिक सम्बन्ध उत्पन्न करने का नहीं होता है। (IT between parties which do not result in contracts within the meaning of the term in our

* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 1 (ग)।

** पी० सी० एस० (1995) प्रश्न 6 (अ); सी० एस० ई० (1994) प्रश्न 6 (अ)।

5. बालफोर बनाम बालफोर (1919) 2 के० बी० 5711

law…………they are not contracts because parties did not intend that they shall be attended by legal consequences.)”6

इस्सो पेट्रोलियम लि० बनाम कमिश्नर्स आफ कस्टम्स एण्ड इक्साइज (Esso Petroleum Ltd. v. Commissioners of Customs and Excise)7 के वाद में एक विक्रय प्रोन्नति योजना के अन्तर्गत, पेटोल स्टेशनों के मालिकों ने इस्सो द्वारा प्रदत्त पोस्टर लगाये जिनमें लिखा था-“विश्वकप सिक्क”, चार गैलन पेट्रोल के विक्रय पर एक सिक्का दिया जायगा।” (“The world cup coins,” “One coin with every your gallons of petrol”) इस प्रकार के लाखों सिक्के बाँटे गये। इस आधार पर कि सिक्कों का उत्पादन सामान्य विक्रय के लिए किया गया. कमिश्नर्स ने उन पर विक्रय-कर लगाया। इस्सो की ओर से तर्क किया गया कि सिक्के भेंट (gift) के रूप में दिये गये थे. वे विक्रय के लिये नहीं थे। निचले न्यायालय ने निर्णय दिया कि संव्यवहार विक्रय था। न्यायालय ने निर्णय में कहा कि पोस्टर संविदा करने के लिए आमन्त्रण था। जब मोटर-मालिक ने पेट्रोल के लिए आर्डर दिया तथा वह पेटोल परिदत्त करके अथवा मौखिक रूप से स्वीकृत हो गया तो वह संविदा में परिणत हो गया। इस्सो पेट्रोलियम लि० ने इस आडर के विरुद्ध अपील की तथा कोर्ट आफ अपील ने अपील स्वीकार कर ली। कोर्ट आफ अपील ने अभिनिर्धारित किया कि सिक्कों का विक्रय नहीं किया गया था वरन् वह भेंट (gift) में दिये गये थे। कमिश्नसे ने इस आदेश के विरुद्ध अपील हाउस आफ लार्ड्स में की परन्तु हाउस आफ लार्ड्स के वाइकाउन्ट डिलहान (Viscount Dillhorne) ने अपने निर्णय में कहा कि मोटर-मालिकों तथा इस्सो कं० का संविदात्मक सम्बन्ध स्थापित करने का कोई आशय नहीं था। उनके शब्दों में

……I see no reason to imply any intention to enter into contractual relations from the statements on the posters that a coin would be given if four gallons of petrol were bought.

Nor do i see any reason to impute to every motorist, who went to a garage where the posters were displayed to buy four gallons of petrol any intention to enter into a legally binding contract for the supply to him of a coin. On the acceptance of his offer to purchase four gallons there was no doubt a legally binding contract for the supply to him of that quantity of petrol, but I see again no reason to conclude that because such an offer was made by him it must be held that, as the posters were displayed, his offer included an offer to take a coin.”

यदि पक्षकार व्यक्त रूप में यह स्पष्ट कर देते हैं कि उनका इरादा अपने को विधिक सम्बन्धों में आबद्ध करना नहीं है, तो उनके मध्य करार संविदा नहीं होगी पक्षकारों के आशय (intention) का पता उनके आचरण तथा वाद की परिस्थितियों से लगता है। इसके अतिरिक्त करार का निर्वचन करते समय न्यायालय को उसके प्ररूप (form) को नहीं वरन् उसके सार को देखना चाहिये। यदि पक्षकारों ने लिखित संविदा की है तो उनके आशय को उनके द्वारा निष्पादित संविदा को ही देखा जाना चाहिये।”9_

(3) प्रस्ताव निश्चित होना चाहिये-वैध प्रस्ताव का निश्चित तथा स्पष्ट होना आवश्यक है। प्रस्ताव अस्पष्ट नहीं होना चाहिये। न्यायालयों का कर्त्तव्य है कि वह संविदा का निर्वचन करे। पक्षकारों के प्रति उनका कर्त्तव्य यह नहीं है कि वह पक्षकारों के मध्य संविदा करायें। (“It is the function of the

of law to interpret a contract………but it is not the duty of courts to make contracts between the parties.”)10 अत: न्यायालय पक्षकारों के मध्य संविदा नहीं करा सकते हैं, वह कवल सविदा का निर्वचन कर सकते हैं।

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 29 में स्पष्ट प्रावधान है कि वह करार जिनके अर्थ या तो अस्पष्ट होते हैं या स्पष्ट होने योग्य नहीं हैं, शून्य होते हैं। उदाहरण के लिये, यदि क, ख से एक सौ टन तेल बेचने का करार कर सकता है, तो यह करार शून्य होगा। क्योंकि यह स्पष्ट नहीं है कि किस प्रकार के तेल को बेचने का इरादा है।11

6. बालफोर बनाम बालफोर (1919) 2 के० बी० 571, पृ० 578-579.

7. (1976)1 आल० ई० आर० 117.

8. रोज एण्ड फ्रंक कं० बनाम मेसर्स क्राम्पटन ब्रादर्स (1923) के बी0 261.

9. गुजरात राज्य बनाम मेसर्स वैराइटी बाडी बिल्डर्स, ए० आई० आर० 1976, ए०सी०2108,2110.

10. डेवीज बनाम डेवीज, 39 सी० एच० डी० 350, 395.

11. धारा 29 का दृष्टान्त (क) देखें।

संविदा की भिन्नता

यदि पक्षकारों के मध्य लिखित संविदा होती है तथा एक पक्षकार भुगतान की माँग संविदा के निबन्धन के आधार पर न करके संविदा के बाद हुये विचार-विमर्श के आधार पर करता है तथा उसके ऐसे विचारविमर्श के समर्थन तथा संविदा में ऐसे निबन्धन की स्वीकृति हेतु कोई दस्तावेज नहीं है तो दूसरे पक्षकार के गवाह द्वारा उक्त विचार-विमर्श को स्वीकार करने तथा भुगतान के लिये ऐसे आधार को प्राधिकारियों द्वारा स्वीकार किये जाने की गवाही के बावजूद ऐसे अभिकथित आधार पर भुगतान के निबन्धन की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि संविदा लिखित थी तथा अभिकथित आधार संविदा का निबन्धन नहीं था।12

सामान्य तथा विशिष्ट प्रस्ताव (General and Specific Offers)—यह आवश्यक नहीं है कि प्रस्ताव किसी निश्चित व्यक्ति को किया जाय, यद्यपि केवल एक निश्चित व्यक्ति द्वारा ही इसे स्वीकार किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति यह घोषणा करता है कि जो कोई उसकी खोई हुई हीरे की अंगूठी को खोज देगा, उसे वह पुरस्कार देगा, अंगूठी को खोजने वाला व्यक्ति पुरस्कार का अधिकारी होगा, यद्यपि प्रस्ताव सामान्य था। परन्तु यदि खोजने वाले को पुरस्कार की घोषणा का ज्ञान नहीं है तो स्थिति भिन्न होगी।13

जब कोई प्रस्ताव सामान्य होता है या पूरे विश्व को किया जाता है, तो उक्त प्रस्ताव की स्वीकृति तथा शर्त की पूर्ति या कार्यान्विति, प्रस्ताव को प्रवर्तनीय संविदा में परिणत करने के लिए यथेष्ट होती है। इस सम्बन्ध में कार्लिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी14 (Carlill v. Carbolic Smoke Ball Co.)* नामक वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :

इस वाद में प्रतिवादी ‘कारबोलिक स्मोक बाल’ के विक्रेता तथा निर्माता थे। उन्होंने यह विज्ञापन दिया कि जो कोई उक्त दवा को लिखित निर्देशों के अनुसार प्रयोग करने के बावजूद इन्फ्लुएन्जा से ग्रसित होगा, वह उसे 100 पौंड का पुरस्कार देंगे। अपने प्रस्ताव के प्रति गम्भीरता प्रकट करने हेतु उन्होंने बैंक में 1,000 पौंड इसी उद्देश्य के लिए जमा कर दिये। वादी एक महिला थी, जिसने लिखित निर्देशों तथा निर्धारित अवधि तक उक्त दवाई का प्रयोग किया; परन्तु फिर भी उसे इन्फ्ल्यु एन्जा हो गया था। उसने पुरस्कार पाने के लिये दावा किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वह पुरस्कार पाने की अधिकारिणी थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्ताव सामान्य हो सकता है अथवा पूरे विश्व को किया जा सकता है, परन्तु यह प्रतिज्ञा में तभी परिणत होता है जब एक निश्चित व्यक्ति उसे स्वीकार कर लेता है तथा उसमें वर्णित शर्तों का पालन करता है।

कार्लिल के वाद में यह भी तर्क किया गया था कि वैध संविदा स्थापित नहीं हुई क्योंकि स्वीकृति की संसूचना कम्पनी को नहीं दी गई थी। न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया तथा निर्णय दिया कि जब पुरस्कार या खोयी हुई सम्पत्ति को पाने के विषय में प्रस्ताव किया जाता है तो प्रस्ताव की स्वीकृति होने की संसूचना देना आवश्यक नहीं है। ऐसी दशा में यह माना जायगा कि कम्पनी ने स्वीकृति होने की संसूचना प्राप्त करने के अधिकार का अभित्याग कर दिया था।

कार्लिल के वाद में यह भी तर्क किया गया था कि 100 पौंड के पुरस्कार का प्रस्ताव एक नैमित्तिक (casual) प्रस्ताव था अथवा केवल एक विज्ञापन था तथा यह सोचा गया था कि कोई भी युक्तियुक्त व्यक्ति इसे गम्भीरता से नहीं लेगा। परन्तु न्यायालय ने इस तर्क को भी अस्वीकार कर दिया तथा अपने निर्णय में कहा कि एलाएन्स बैंक (Alliance Bank) में 1,000 पौंड इस उद्देश्य से जमा करना कि इन्फ्ल्य ग्रसित होने वाले को पुरस्कार दिया जायगा, यह दर्शित करता था कि कम्पनी इस विषय में गम्भीर थी तथा यह केवल एक नैमित्तिक प्रस्ताव नहीं था।

भारत में संविदा अधिनियम की धारा 8 में स्पष्ट प्रावधान है कि प्रस्ताव की शर्तों के पालन या पारस्परिक प्रतिज्ञा के लिए जिस प्रतिफल की पेशकश प्रस्ताव के साथ की गई हो, उसका प्रतिग्रहण (या स्वीकृति) इस प्रस्ताव का प्रतिग्रहण है।

12. तमिलनाडु विद्युत परिषद बनाम एन० राजू रेड्डियर, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 2025, 2028. 13. देखें : लालमन शुक्ल बनाम गौरी दत्त, (1913) 11 ए० एल० जे० 439.

14. (1893) 1 क्यू० बी० 256.

* पी० सी० एस० (1978) प्रश्न 1 (क) के लिए भी देखें।

मेसर्स भगवती प्रसाद पवन कुमार बनाम भारतीय संघ15 (M/s Bhagwati Prasad Pawan Kumar v. Union of India), के वाद में रेलवे ने एक प्रस्ताव अपीलार्थी को इस शर्त के साथ दिया कि यदि प्रस्ताव स्वीकार करने योग्य नहीं है तो चेक को तरन्त लौटा दिया जाय तथा ऐसा न करने पर यह माना जायगा कि अपीलार्थी ने प्रस्ताव को अपने दावे के पर्ण तथा अन्तिम सन्तुष्टि के रूप में स्वीकार किया। इसे यह कहकर भा स्पष्ट किया कि चेक का भुगतान करा लेने पर यह माना जायेगा कि दावे की पर्ण एवं अन्तिम सन्ताष्ट हो गई। प्रस्ताव में स्वीकार करने का ढंग निर्धारित किया गया तथा अपीलार्थी के आचरण से पता चलता ह कि उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अत: वह वाद में दावे की मांग नहीं कर सकता। उच्चतम न्यायालय ने यह भी अपने निर्णय में कहा कि यदि अपीलार्थी ने चेक का नकदीकरण नहीं किया होता तथा रेलवे से शेष का दावा करता तथा चेक को न स्वीकार करने की बात कहता. विवाद ने एक भिन्न रूप लिया होता। उस दशा में, यह नहीं कहा जा सकता था कि अपीलार्थी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। विरोध या न स्वीकार करने का कारण चेक के नकदीकरण के पूर्व देना चाहिए था। यदि बिना किसी विरोध के चेक का नगदीकरण कर लिया जाता है तो यह धारित किया जायेगा कि प्रस्ताव को बिना शर्त के साथ स्वीकार किया गया। बिना शर्त के प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद उसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता।16

 

कार्लिल के वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त का अनुमोदन भारतीय संघ बनाम रमेश्वर लाल भागचन्द (Union of India v. Rameshwar Lal Bhagchand)17 में किया गया है।

दृष्टान्त

स्पेस सिस्टम्स नामक औषधियों की एक कम्पनी ने किसी ऐसे व्यक्ति को जो कि कम्पनी द्वारा निर्मित टिकिया को दिन में चार बार एक सप्ताह तक मुद्रित निर्देशों के अनुसार प्रयोग करता है, यह कहते हुए एक विज्ञापन द्वारा प्रस्थापना की कि ऐसा करने के उपरान्त यदि वह उच्च तल रोग (हाई एल्टीट्यूट सिकनेस) से ग्रस्त हो जाता है तो उसे 1000 पौंड का संदाय किया जायगा। विज्ञापन में यह भी कहा गया कि इस मामले में विश्वसनीयता के प्रदर्शन स्वरूप हिमालयन बैंक में 1,000 पौंड जमा कर दिये गये हैं। ट्रेवर नामक पर्वतारोही ने निर्देशों के अनुसार टिकियाओं का प्रयोग किया किन्तु वह 600 मीटर ऊँची एक चोटी पर चढ़ रहा था तो वह उच्च तल रोग से ग्रस्त हो गया। ट्रेवर ने कम्पनी के विरुद्ध 1,000 पौंड की माँग करते हुए वाद संस्थित किया।*

इस दृष्टान्त के तथ्य उपर्युक्त वर्णित कार्लिल के वाद पर आधारित हैं। ट्रेवर अपने वाद में सफल होगा तथा कम्पनी उसे, 1,000 पौंड देने को दायी होगी क्योंकि उसने प्रस्ताव की शर्तों का पालन किया। संविदा अधिनियम की धारा 8 के अनुसार, प्रस्ताव की शर्तों का पालन स्वीकृति माना जायगा। अत: पक्षकारों के मध्य एक वैध संविदा हुई तथा ट्रेवर 1000 पौंड प्राप्त करने का अधिकारी होगा।

प्रस्ताव तथा प्रस्ताव का आमन्त्रण (Offer and Invitation of Offer)**-प्रस्ताव प्रस्ताव के आमन्त्रण से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए एक निविदा (tender) सूचना केवल प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण होता है। अतः ठेकेदारों द्वारा प्रस्तावित बातों को स्वीकृति नहीं कहा जा सकता।18 इसी प्रकार, दामों का कोटेशन प्रस्ताव न होकर केवल प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण होता है। प्रस्ताव तथा प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण को उदाहरण की सहायता से भलीभाँति समझा जा सकता है। उदाहरण के रूप में यहाँ हार्वे बनाम फेसी (Harvey v. Facie)19 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं

वादी ने प्रतिवादी की भूमि (जिसका नाम बम्पर हाल पेन था) को खरीदने के लिए प्रस्ताव रखा। भमि का निम्नतम मल्य तथा उसके बेचने की इच्छा जानने के लिए उसने प्रतिवादी को एक तार भेजा।

15. ए० आई० आर० 2006 एस० सी० 2331.

16. तत्रैव, पृष्ठ 2335.

17. ए० आई० आर० 1973 गोहाटी 111.

* पी० सी० एस० (1984) प्रश्न 1 (ब)।

** पी० सी० एस० (1981) प्रश्न 10 (क); सी० एस० ई० (1994) प्रश्न 5 (ब)।

18. देखें : एक्जीक्यूटिव इन्जीनियर, सुन्दरगढ़ आर० एण्ड बी० डिविजन बनाम मोहन प्रसाद साहू, ए० आई० आर० 1990 – उड़ीसा 26, 27, 28.

19. (1893) ए० सी० 552.

प्रतिवादी ने तार द्वारा उत्तर दिया कि भूमि का न्यूनतम मूल्य 900 पौंड है। वादी भूमि को इस मूल्य पर क्रय करने के लिए तैयार था: अत: उसने तार द्वारा अपनी स्वीकृति दी। परन्तु प्रतिवादी ने भूमि को बेचने से इन्कार कर दिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध संविदा के उल्लंघन का दावा किया। प्रिवी कौंसिल ने वादी के दावे को खारिज करते हुए कहा कि केवल निम्नतम मूल्य के कथन से, जिस पर विक्रेता बेचेगा, एक विवक्षित (implied) संविदा नहीं उत्पन्न होती है। (“…………the mere statement of the lowest price at which the vendor would sell contains no implied contract to sell at the price to the person making the enquiry.”)* 1 प्रिवी कौंसिल ने अपने मत को स्पष्ट करते हुए कहा कि अपने पहले तार में वादी ने दो प्रश्नों का उत्तर माँगा था–(क) विक्रेता की भूमि बेचने की इच्छा तथा (ख) निम्नतम मूल्य। प्रतिवादी ने भूमि बेचने की इच्छा के विषय में कोई उत्तर नहीं दिया। उसने केवल निम्नतम मूल्य बताया जो कि प्रस्ताव न होकर प्रस्ताव के लिये आमन्त्रण था।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने उक्त सिद्धान्त का अनुमोदन मैकफर्सन बनाम अपौना (Macpherson V.Appauna)20 के वाद में कर दिया। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं

इस वाद में वादी ने प्रतिवादी के बंगले को क्रय करने का प्रस्ताव उसके एजेन्ट द्वारा किया। एजेन्ट ने अपने मालिक को तार भेजा कि उसे बंगले के लिए 6,000 रुपये का प्रस्ताव मिला है। मालिक ने एजेन्ट को उत्तर दिया कि वह बंगले को 10,000 रुपये से कम पर नहीं बेचेगा। वादी ने बँगले को 10,000 रुपये के मूल्य पर क्रय करना स्वीकार कर लिया तथा अपनी स्वीकति एक पत्र द्वारा एजेन्ट को भेज दिया। परन्त मालिक ने बँगले को अधिक मूल्य पर किसी अन्य व्यक्ति को बेंच दिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध दावा किया, परन्तु न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। वास्तव में प्रतिवादी का यह उत्तर कि वह बँगले को 10,000 रुपये से कम पर नहीं बेचेगा, एक प्रस्ताव न होकर, प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण मात्र था। वादी के 6,000 रुपये के प्रस्ताव के उत्तर में 10,000 रु० के मूल्य को प्रस्तावित करना एक प्रति-प्रस्ताव (Counter Offer) था जिसने मूल-प्रस्ताव को समाप्त या नष्ट कर दिया।

एक अन्य वाद21 में न्यायालय को निर्णय देना था कि स्वयं-सेवा (self-service) प्रणाली वाली दुकान में विक्रय कब पूर्ण होता है? वादी का कथन था कि जैसे ही ग्राहक किसी वस्तु को चुन कर उठाता है, विक्रय पूर्ण हो जाता है तथा उसके बाद दुकान का मालिक उसे बेचने से इन्कार नहीं कर सकता है। परन्तु न्यायालय ने निर्णय दिया कि वस्तुओं को मूल्य-सूची के साथ प्रदर्शित करना केवल प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण होगा। (“…………….the mere fact that a customer picks up a bottle of medicine from the shelves in this case does not amount to an acceptance of an offer to sell. It is an offer by the customer to buy and there is no sale effected until the buyer’s offer to buy is accepted by the acceptance of the price.”22)

गिबसन बनाम मैनचेस्टर सिटी काउंसिल (Gibson v. Manchester City Council)23 के वाद में मैनचेस्टर सिटी काउन्सिल ने एक नीति तय की कि वह अपने मकान किरायेदारों को बेंच देगी। एक किरायेदार ने काउन्सिल को विक्रय के निबन्धन बताने को कहा। काउन्सिल ने किरायेदार को एक फार्म भेजा जिसका शीर्षक ‘काउन्सिल द्वारा मकान क्रय करने का प्रार्थना पत्र” था तथा किरायेदार को लिखा कि यदि वह मकान क्रय करना चाहता है तो फार्म भरकर काउन्सिल खजांची को भेजे। फार्म का अन्तिम कथानक था ‘अब मैं काउन्सिल के मकान को क्रय करना चाहता हूँ।’ किरायेदार ने फार्म भर कर भेज दिया परन्त इसके पूर्व कि संविदा तैयार होकर उसका आदान-प्रदान होता, काउन्सिल में परिवर्तन हो गया और नीति परिवर्तित हो गई तथा विक्रय पूर्ण नहीं हुआ। किरायेदार ने विनिदिष्ट पालन (specific performance) के लिये वाद किया। हाउस आफ लार्ड्स ने निर्णय दिया कि संविदा पूर्ण नहीं हुई थी। काउन्सिल ने प्रस्ताव नहीं

  • थी क्योंकि ब द्वारा 80,000 रुपये का निम्नतम मूल्य बताना प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण था।

20. ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 784.

21. फार्मास्युटिकल सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन बनाम बूट्स कैथ केमिस्ट्ट लि०, (1951) 2 क्यू० बी० 795. 22. तत्रैव!

23. (1979) आल० ई० आर० 977.

किया था वरन् काउन्सिल ने किरायेदार को प्रस्ताव के लिये आमन्त्रित किया था। अतः किरायेदार का वाद खारिज किया गया।

इसी प्रकार बैंक द्वारा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (Volutary Retirement Scheme) एक प्रस्ताव नहीं वरन प्रस्ताव के लिये आमंत्रण होता है। वास्तव में प्रस्ताव स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिये इच्छुक बैंक कर्मचारी की ओर से होता है। बैंक प्राधिकारियों का पूर्ण विवेक होता है कि वह प्रस्ताव को स्वीकार करें अथवा अस्वीकार करें। दूसरी ओर बैंक कर्मचारी अपने प्रस्ताव को स्वीकृति होने के पूर्व कभी भी वापस ले सकता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने हाल के एक वाद, बैंक ऑफ इंडिया बनाम ओ० पी० स्वर्णकार आदि (Bank of India v. O. P. Swaranakar)24 में दिया।

यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि सामान्यतया न्यनतम कीमत बताना प्रस्ताव का आमन्त्रण होता है परन्तु यदि न्यूनतम कीमत के साथ एक निश्चित प्रस्ताव भेजा जाय तो स्थिति भिन्न होगी। उदाहरण के लिए, व्योमकेश बनर्जी बनाम नानी गोपाल बानिक (Byomkesh Banerjee v. Nani Gopal Banik)25 के वाद में प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी की भूमि 300 रुपये प्रति कट्ठा (Katha) खरीदने का प्रस्ताव किया। अपीलार्थी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तथा कहा कि उसे 3,250 रु० प्रति कट्ठा तक के प्रस्ताव प्राप्त हुये हैं। अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी को यह भी सूचित किया कि 3300 रु० प्रति कट्ठा की दर से भूमि बेचने को तैयार है तथा यदि प्रत्यर्थी को स्वीकार हो तो इस हेतु, 3,000 रुपये अग्रिम धन भेजे। प्रत्यर्थी ने उत्तर में 3,000 रुपये का एक बैंक ड्राफ्ट पत्र द्वारा भेजा तथा साथ में यह भी लिखा कि वह शेष विक्रय विलेख के निष्पादन के समय दे देगा। यह पत्र रजिस्ट्री द्वारा भेजा गया था परन्तु वह लौट आया तथा डाकिये ने उस पर अनुपस्थिति का नोट लिखा था। तत्पश्चात् रजिस्ट्रीकृत-पत्र पुनः भेजा गया परन्तु अपीलार्थी ने लेने से इन्कार कर दिया तथा वह भी लौट आया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा उसी समय पूर्ण हो गई जब प्रत्यथी ने अपनी स्वीकति डाक द्वारा भेजी। न्यायालय के अनसार अपीलाथी द्वारा 330 रुपये प्रति कट्ठा माँगना तथा 3,000 रुपये अग्रिम धन मांगना एक स्पष्ट प्रस्ताव था।26

“मूल्यांकन’ एवं न्यूनतम कीमत / आरक्षित कीमत में अन्तर है। मैकमानस बनाम फोर्टेस्क्यू,27 के वाद में कोर्ट आफ अपील ने धारित किया है कि नीलाम द्वारा विक्रय न्यूनतम कीमत के अधीन प्रत्येक प्रस्ताव एवं स्वीकृति सशर्त होती है। जनता को इस तथ्य की सूचना दी जाती है कि विक्रय न्यूनतम कीमत के अधीन है। अर्थात् नीलामकर्ता विक्रय बोली बोलने वाले के साथ विक्रय करने को तैयार है यदि बोली का धन न्यूनतम कीमत के बराबर या उससे अधिक है। अत: न्यूनतम कीमत नीलामकर्ता के अधिकार की परिसीमा निश्चित कर देता है। वह न्यूनतम कीमत से कम कीमत स्वीकार नहीं कर सकता है।

अनिल कुमार श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Anil Kumar Srivastava v. State of U.P.),28 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने न्यूनतम कीमत (lowest price) का अर्थ स्पष्ट करने के लिये उपर्युक्त वाद का हवाला दिया।

उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि न्यूनतम कीमत निश्चित करने के पीछे उद्देश्य यह है कि नीलामकर्ता के अधिकार को सीमित किया जाय। प्रस्तुत वाद में परिषद के प्रस्ताव को निश्चित करने का उद्देश्य विकास प्राधिकरण के अधिकारियों का मार्गदर्शन करना था। न्यूनतम कीमत की धारणा सम्पत्ति के मूल्यांकन के समान नहीं है। दोनों शब्द/शब्दावली विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हैं। निविदा के लिये आमंत्रण प्रस्ताव नहीं है। यह प्रस्ताव पास कराने का एक प्रयास है।29

निविदा : क्या खाली निविदा पुस्तिका के लिए पूर्त योग्यतायें अथवा पूर्त शर्ते लगायी जा सकती हैं ?-निविदा को खाली पुस्तिका देने हेतु पूर्त योग्यतायें या पूर्त शर्ते लगायी जा सकती हैं। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स जी० जे० फर्नाण्डेज बनाम कर्नाटक राज्य (M/s G.J. Fernandez v.

24. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 858, 877, 883.

25. ए० आई० आर० 1987 कलकत्ता 92.

26. तत्रैव, पृष्ठ 94-95.

27. 1907 वाल्यूम 2 के०बी० ।

28. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 4299, 4304.

29. तत्रैव, पोलक एवं मुल्ला : इंडियन कांट्रैक्ट एण्ड स्पेशिफिक रिलीफ ऐक्ट्स (2001) 12वाँ संस्करण, पृ० 50.

(State of Karnataka)30 के वाद में दिया। इस वाद में संविदा पावर हाउस की मुख्य स्टेशन इमारत के निर्माण से सम्बन्धित थी। उपयुक्त पंजीकृत कोटि के ठेकेदारों से निविदा आमन्त्रित किये गये थे। निविदा आमन्त्रित करने वाली विज्ञप्ति में न्यूनतम आवश्यक योग्यतायें उल्लिखित थीं। इसके पैरा 1 के अनुसार निविदा प्रेषित करने वालों के लिए तीन आवश्यक योग्यतायें उल्लिखित थीं। इसके अतिरिक्त पैरा 5 के अनुसार खाली पुस्तिका के प्रदाय की प्रार्थना-पत्र के साथ उसे निम्नलिखित सूचना/दस्तावेज देना आवश्यक था:

(अ) आडिट की हुई बैलेंस शीट/चार्टर एकाउन्टेन्ट द्वारा सत्यापित पिछले तीन वर्ष का सर्टीफिकेट; (ब) अन्तिम आयकर निकासी प्रमाण-पत्र (Latest Income-tax clearance certificate); (स) पंजीकरण प्रमाण-पत्र की प्रतिलिपि, (द) उपर्युक्त प्रकृति के कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट तथा साथ में उस संस्था का प्रमाण-पत्र जिसके लिये कार्य किया हो। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पैरा 1 के अतिरिक्त, कुछ और आवश्यकतायें हैं जिनकी पूर्ति के पश्चात् ही खाली निविदा फार्म दिये जा सकते हैं।31 परन्तु इन परिवर्तनों से स्वच्छन्दता या मनमानी (arbitrariness) या भेदभाव नहीं होना चाहिये 2

स्थायी प्रस्ताव-निविदा (Standing Offer-Tender) निविदा के लिये विज्ञप्ति तथा सूचना एक प्रस्ताव नहीं होती है। निविदा की स्वीकृति के पश्चात् कभी-कभी यह स्थायी प्रस्ताव में परिणत हो जाती है। संविदा का निर्माण तभी होता है जबकि इसके अन्तर्गत आर्डर दिया जाता है। इस सम्बन्ध में बंगाल कोल कम्पनी लि. बनाम होमी वाडिया एण्ड कम्पनी (Bengal Coal Co. Ltd. v. Homee Wadia & Co)33 का उल्लेख वांछनीय होगा। इस वाद में प्रतिवादी ने वादी को समय-समय पर उसकी आवश्यकतानुसार बारह महीने तक कोयला प्रदान (Supply) करने का करार किया। उक्त करार के अन्तर्गत वादी ने समय-समय पर आर्डर दिया तथा प्रतिवादी ने कोयला प्रदान किया। परन्तु 12 महीने की समाप्ति के पूर्व ही प्रतिवादी ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया तथा कोयला प्रदान करने से इन्कार कर दिया। अत: वादी ने दावा किया कि प्रतिवादी ने संविदा का उल्लंघन किया है। न्यायालय ने दावे को खारिज करते हुए कहा कि संविदा का निर्माण नहीं हुआ था। न्यायालय ने कहा कि यह केवल एक स्थायी प्रस्ताव था तथा संविदा का निर्माण तभी होता जब आर्डर दिया जाता; अतः प्रतिवादी को अपने प्रस्ताव को वापस लेने का अधिकार था। परन्तु वह उतने कोयले के प्रति, जिसका कि आर्डर दिया जा चुका था, अपने प्रस्ताव को वापस नहीं ले सकता था।

आर० बनाम डीमर्स (R. V. Demers)34 के वाद में प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति ने इस सिद्धान्त का अनुमोदन कर दिया। इस वाद में एक मुद्रक (Printer) ने सरकार से कुछ सार्वजनिक दस्तावेजों के 8 वर्ष तक मुद्रण आदि के लिए एक करार किया। उस वर्ष, प्रदेश के लेफ्टीनेंट गवर्नर ने उक्त करार को रह कर दिया। मद्रक ने वाद प्रस्तुत किया जिसे न्यायालय ने यह कह कर खारिज कर दिया कि वह स्थायी प्रस्ताव था जिसे वापस लिया जा सकता था।

भारतीय संघ बनाम मदाला थाथियाह (Union of India v. Maddala Thathiah)35 के वाद में भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी उक्त सिद्धान्त को स्वीकार किया है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :

इस वाद में भारतीय डोमिनियन की ओर से मद्रास तथा दक्षिणी मराठा रेलवे के जनरल मैनेजर ने 12000 मन जगरी (iaggery) फरवरी तथा मार्च, 1948 में प्रदान किये जाने के लिए निविदा आमन्त्रित की। निविदा के पैरा 2 में यह लिखा था कि संविदा के दौरान किसी भी समय प्रशासन बाकी बचे माल को बिना लिए संविदा के किसी समय रद्द करने का अधिकार आरक्षित करता है। प्रतिवादी द्वारा प्रेषित निविदा को जनवरी 29. 1948 को एक पत्र द्वारा स्वीकार कर लिया गया। तत्पश्चात् दिनांक 16 फरवरी, 1948 द्वारा

30. ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 958.

31 मेसर्स जी० जे० फर्नाण्डेज बनाम कर्नाटक राज्य, ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 958, पृष्ठ 963.

32 तत्रैव पष्ठ 967, रमन दयाराम शेट्टी बनाम इन्टरनेशनल एयरपोर्ट अथार्टी, ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 1628 1635 तथा 1650-51.

33. (1899)22 बम्बई 97.

34. (1900) ए० सी० 1031.

35. (1964) 3 एस० सी० आर० 774.

उप-जनरल मैनेजर ने उक्त स्वीकृति की पुष्टि करते हुए माल के परिदान के प्रोग्राम की शर्ते लिखीं। उक्त प्रोग्राम के अनुसार, माल 3,500 मनों की चार किश्तों में परिदत्त किया जाना था तथा किश्तें 1 मार्च, 22 मार्च, 5 अप्रैल तथा 21 अप्रैल, को परिदत्त की जानी थीं। तत्पश्चात् डिप्टी जनरल मैनेजर ने प्रतिवादी को सूचित किया कि 16 फरवरी, 1948 को जितना माल परिदान किया जाना बचा था, वह रद्द समझा जाये। इस पर प्रतिवादी ने प्रथम न्यायालय में वाद दायर किया, परन्तु न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया। इस आदेश के विरुद्ध प्रतिवादी ने उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि जिस क्लाज (clause) से संविदा को रद्द करने का अधिकार आरक्षित किया गया था, वह शून्य था। इस निर्णय के साथ उच्च न्यायालय ने वाद को प्रथम न्यायालय को वापस (remand) कर दिया। इस आदेश के विरुद्ध भारतीय संघ ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज कर दी तथा उच्च न्यायालय के निर्णय को उचित माना। इस वाद में निश्चित मात्रा में जगरी प्रदाय की जाने की माँग की जा चुकी थी अर्थात् उस मात्रा के सम्बन्ध में प्रस्ताव की स्वीकृति हो चुकी थी, अतः पक्षकारों के मध्य बन्धनकारी संविदा हो चुकी थी। इस प्रकार प्रतिवादी (प्रत्यर्थी) संविदा भंग के परिणामस्वरूप नुकसानी प्राप्त करने के अधिकारी थे। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि स्थायी प्रस्ताव को विधिक अर्थों में स्वीकृत किये जाने के पूर्व कभी भी वापस लिया जा सकता है तथा विधिक अर्थों में स्वीकृति तब पूर्ण होती है जब निश्चित तादाद के माल के लिए आर्डर दिया जाता है। प्रत्येक बार जब आर्डर दिया जाता है तो वह पृथक संविदा होती है।

कई शर्तों सहित प्रस्ताव की संसूचना (Communication of Offer with several terms)यदि किसी प्रस्ताव में कई शर्ते हैं तो यह आवश्यक है कि सम्बन्धित पक्षकारों को उन सभी की संसूचना की जानी चाहिये। इस सम्बन्ध में पार्कर बनाम दक्षिण-पूर्वी रेलवे कम्पनी [Parker v. S. E. Railway (Co.)]36 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :

वादी ने अपना एक थैला क्लॉक रूम (Clock Room) में रखा तथा उसे एक रसीद दी गई जिसके ऊपर लिखा था “उलट कर देखें” तथा उसके पीछे लिखा था कि “कम्पनी 10 पौंड से अधिक की हानि के लिए उत्तरदायी नहीं होगी। इसी प्रकार की एक नोटिस क्लॉक रूप में लटक रही थी। वादी के थैले केखो जाने पर उसने हानि प्राप्त करने के लिये दावा किया। वादी ने यह स्वीकार किया कि वह जानता था कि रसीद के पीछे कुछ लिखा था, परन्तु उसने यह कभी नहीं सोचा था कि उसमें शर्ते वर्णित थीं। न्यायालय ने उसके वाद को यह कह कर खारिज कर दिया कि उसे रसीद के पीछे लिखी शर्तों के विषय में संसूचना थी।

परन्तु यदि उचित संसूचना नहीं होगी तो स्थिति भिन्न होगी। उदाहरण के लिए, हैन्डरसन बनाम स्टीवेन्सन (Henderson v. Stevenson)37 में एक भाप से चलने वाली नौका के टिकट के पीछे यह लिखा था कि “कम्पनी यात्रियों की किसी हानि या उनके सामान की हानि के लिए उत्तरदायी नहीं होगी”, परन्तु उसके मुखपृष्ठ (on the face of the ticket) में इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस वाद में उक्त शर्त की उचित संसूचना यात्रियों को नहीं हुई। अत: कम्पनी को यात्री के सामान की हानि के लिए उत्तरदायी ठहराया गया क्योंकि हानि कम्पनी के कर्मचारी की त्रुटि से हुई थी।

इसी प्रकार यदि लाटरी टिकट के पीछे महीन अक्षरों में लिखी शर्तों की युक्तियुक्त सूचना ग्राहक को नहीं दी गई है तो ग्राहक या क्रेता उनसे बाध्य नहीं होगा। यह निर्णय आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने राजस्थान सरकार के विशेष सचिव (वित्त), जयपर बनाम वेदाकान्तर वेंकटरमन सेशाय्यर तथा अन्य (The Special Secretary to Government of Rajasthan (Finance) and Others v. Vedakantara Venkataramana Seshaiyer and Others)38 के वाद में दिया था।

प्रस्ताव का प्रतिसंहरण (Revocation of Proposal)-धारा 3 के अनुसार प्रस्ताव का प्रतिसंहरण प्रस्ताव करने वाले पक्षकार के किसी ऐसे कार्य या कार्यलोप (Omission) से समझा जाता है, जिसके द्वारा वह ऐसे प्रस्ताव को प्रतिसंहत करने का आशय रखता है, या जो उसे संसूचित करने का प्रभाव रखता है।

36. (1877) 2 सी० पी० डी० 416.

37. (1875) एल० आर० 2 एस० सी० डी० 470.

38. ए० आई० आर० 1984 ए० पी०, 5, 11-12; इस सम्बन्ध में थार्नटन बनाम शूलेन पार्किंग लि. (1971) 2 क्यू० बी० 163 को भी देखें।

प्रतिसंहरण की संसूचना कब पूर्ण होती है ? (Communication of Revocation when complete ?)-संविदा अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, प्रतिसंहरण प्रस्ताव करने वाले के विरुद्ध प्रतिसंहरण (Revocation) या प्रस्ताव का वापस लिया जाना तब पूर्ण होता है जब संसूचना का पारेषण या उसे पहँचने के लिए भेज दिया जाता है (when it is put into a course of transmission) जिससे कि प्रतिसंहरण करने वाले की शक्ति के परे हो जाय। उस व्यक्ति के विरुद्ध, जिसके लिए इसे किया जाता है, प्रतिसंहरण की सूचना तब समाप्त होती है जब उसके ज्ञान में आती है। उदाहरण के लिए, क अपने प्रस्ताव का तार द्वारा प्रतिसंहरण करता है। क के विरुद्ध प्रतिसंहरण की संसूचना उस समय पूर्ण हो जाती है जब वह तार देता है तथा ख के विरुद्ध संसूचना तब पूर्ण होती है जब उसे तार प्राप्त होता है।

प्रतिसंहरण कब तक हो सकता है ? (When can proposal be revoked)—संविदा अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, किसी प्रस्ताव का प्रतिसंहरण, स्वीकृति की संसूचना के पूर्व ही किया जा सकता है। स्वीकृति की संसूचना के पश्चात् प्रस्ताव का प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता है। निम्नलिखित उदाहरण से यह और भी स्पष्ट हो जायगा-

क अपने मकान को बेचने के लिए ख से पत्र द्वारा प्रस्ताव करता है। क अपने प्रस्ताव का प्रतिसंहरण उस समय से पूर्व या उस समय तक कर सकता है जब ख स्वीकृति का पत्र डाक में डालता है। स्वीकृति का पत्र डाक में डालने के पश्चात् प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता है।39

नीलामी के मामले में, बोली बोलने वाला अपनी बोली को उस समय तक वापस ले सकता है जब तक कि बोली उसके नाम छोड़ नहीं दी जाती है 40 मद्रास के वाद जोरावरमल चम्पालाल बनाम जय गोपाल दास घनश्याम दास (Joravarmal Champalal v. Jov Gopaldas Ghanshyamdas)4 इस सिद्धान्त को लागू किया गया था। इस वाद में, सम्पत्ति पर बोली पूर्ण होने के पूर्व, बोली बोलने वाले को यह ज्ञान हुआ कि सम्पत्ति गिरवी रखी हुई थी। अतः उसने अपने प्रस्ताव या बोली (bid) का प्रतिसंहरण कर दिया। सम्पत्ति के मालिक ने उसके विरुद्ध संविदा के उल्लंघन का दावा किया। न्यायालय ने दावे को खारिज करते हुए कहा कि वादी की बोली केवल एक प्रस्ताव थी। अतः जब कि प्रस्ताव नहीं हुआ था, वादी को अपने प्रस्ताव का प्रतिसंहरण करने का अधिकार था।

भारतीय संघ बनाम भीमसेन बलायती राम (Union of India v. Bhimsen Walaiti Ram)42 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने भी इसी सिद्धान्त को लागू किया। यही नियम उच्चतम न्यायालय ने हाल में नूटक्की शेषरत्नम् बनाम सब कलेक्टर, लैण्ड एक्यूजिशन, विजयवाड़ा (Nutakki Sesharatnam v. Sub-Collector, Land Acquisition, Vijayawada)43 के वाद में लागू किया। इस वाद में आंध्र प्रदेश सरकार अपीलार्थी की भूमि अर्जन करना चाहती थी। इस सम्बन्ध में अधिनियम के अन्तर्गत विज्ञप्ति जारी की गई। प्रतिकर तय करने के लिये जाँच की गई। जाँच के दौरान अपीलार्थी ने कहा कि वह भूमि अर्जन के लिये तैयार है बशर्ते उसे पूर्ण प्रतिकर इकट्ठा दे दिया जाय जिससे वह किसी अन्य स्थान पर भूमि क्रय कर सके। इस सम्बन्ध में कोई आदेश जारी नहीं किया गया तथा न ही उक्त प्रस्ताव को स्वीकार किया गया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलार्थी का उक्त कथन केवल एक प्रस्ताव था जिसे भूमि अर्जन अधिकारी द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया गया। बाद में अपीलार्थी ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। जब तक पस्ताव स्वीकत न हो पक्षकारों के मध्य कोई संविदा नहीं होती है अतः अपीलार्थी अपना प्रस्ताव वापस लेने का अधिकारी था। इसमें कोई अनुचित बात नहीं थी तथा न ही अपीलार्थी अपने प्रस्ताव को अनिश्चित काल के लिये खुला रखने को बाध्य था।

उच्चतम न्यायालय के शब्दों में-

“T:ll the offer was accepted there was no contract between the parties and the

as entitled to withdraw his offer. There was nothing inequitable or improper

39. धारा 5 का दृष्टान्त

40. पेयनी बनाम केव, (1789) 3 टी० आर० 148.

41. (1922) मद्रास एल० जे० 132.

42० आई० आर० 1911 ए. सी० 2295%; दुर्गा सा मिल बनाम उड़ीसा राज्य, ए० आई० आर० 1978 उडीसा 41 को भी देखें।

43. ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 131.

in withdrawing the offer, as the appellant was in no way bound to keep the offer open indefinitely.”:44

परन्तु यदि प्रस्ताव की वापसी या प्रतिसंहरण फैक्स (Fax) द्वारा किया जाता है तथा फैक्स गलत (wrong) संख्या पर किया जाता है तो प्रतिसंहरण प्रभावकारी नहीं होगा 5

जब कोई व्यक्ति प्रस्ताव इस वचन के साथ करता है कि वह प्रस्ताव का प्रतिसंहरण नहीं करेगा, ऐसा वचन प्रस्ताव करने वाले को प्रस्ताव का प्रतिसंहरण करने से रोक नहीं सकता क्योंकि साधारणतया ऐसे वचन का कोई प्रतिफल नहीं होता है। परन्तु यदि ऐसे वचन का प्रतिफल होता है तो प्रस्तावकर्ता वचन से बाध्य होगा तथा प्रस्ताव का प्रतिसंहरण नहीं कर सकता है। यह निर्णय आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मेसर्स कृष्णावेनी कान्सट्रक्सन्स बनाम एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, पंचायतराज, दारसी (M/s Krishnaveni Constructions v. The Executive Engineer, Panchayat Raj, Darsi)46 के वाद में दिया।

इस वाद में पेटीशनर-फर्म प्रस्ताव से तब तक बाध्य थी जब तक सरकार उसके प्रस्ताव की स्वीकृति या अस्वीकृति की संसूचना तीन माह के भीतर न दे। परन्तु इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि प्रस्ताव को तीन माह तक खुला रखने के लिये कोई प्रतिफल था। चूंकि प्रस्तावकर्ता ने प्रस्ताव देने के दिन में सायंकाल (6.30 P.M.) प्रस्ताव का प्रतिसंहरण कर दिया। संविदा पूर्ण नहीं हुई।

दृष्टान्त-10 अप्रैल, 1990 को अ ने ब को अपनी कार 60 हजार रुपये में बेचने की प्रस्थापना की और ब को 18 अप्रैल 1990 तक अपने प्रतिसंहरण की सुचना दी थी। 12 को की गई प्रस्थापना का प्रतिसंहरण किये बिना अ ने अपनी कार ग को 70 हजार रुपये में बेंच दी। 14 अप्रैल, 1990 को ब को अन्य स्रोतों से इस तथ्य का पता चल गया। फिर भी 16 अप्रैल, 1990 को उसने प्रस्थापना के स्वीकृति की संसचना अ को दी। क्या इससे अ एवं ब के बीच बाध्यकारी करार हो गया है |

जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है जब तक प्रस्ताव स्वीकार नहीं होता है पक्षकारों के मध्य संविदा नहीं होती है तथा प्रस्ताव करने वाला अपने प्रस्ताव का प्रतिसंहरण कर सकता है। 12 अप्रैल, 1990 तक प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया था। 12 अप्रैल, 1990 को अ ने कार ग के हाथ 70 हजार रुपये में बेंच दी। इस प्रकार उक्त तिथि को प्रस्ताव का प्रतिसंहरण हो गया। धारा 3 के अनुसार प्रस्ताव का प्रतिसंहरण प्रतिसंहरण करने वाले पक्षकार के किसी कुत्य या लोप के द्वारा हो सकता जो वह संसूचित करना चाहता है अथवा जिसका प्रभाव संसूचना करना होता है। 14 अप्रैल, 1990 को जब ब को पता चला कि अ ने अपनी कार ग के साथ 70 हजार रुपये में बेंच दी तो जहाँ तक उसका सम्बन्ध था प्रस्ताव का प्रतिसंहरण हो गया। वह उसके पश्चात् प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता था। अत: 16 अप्रैल, 1990 को ब द्वारा स्वीकृति की संसूचना वैध नहीं थी तथा इससे पक्षकारों के मध्य बाध्यकारी करार नहीं हुआ।

जहां किसी निविदा में यह उपबन्ध है कि यदि प्रस्ताव का प्रतिसंहरण संविदा की वैधता की अवधि में किया जाता है तो अग्रिम धन जब्त कर लिया जायेगा तथा निविदा देने वाला स्वीकृति के पश्चात् निविदा के धन में परिवर्तन (अर्थात् वृद्धि 32 करोड़ रुपये से बढ़कर 41 करोड़ रुपये) कराना चाहता है, तो यह प्रस्ताव का प्रतिसंहरण माना जायेगा।

अग्रिम धन कीमत का ही भाग था यदि निविदा की स्वीकृति होती है यदि संविदा में निश्चित पूल धन में फेरबदल होती है या उसका प्रयास होता है तो यह प्रस्ताव का प्रतिसंहरण माना जायेगा तथा प्रस्तावकर्ता अग्रिम धन को जब्त करने का अधिकारी होगा! यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने विलायतीराम मित्तल (प्राइवेट ) लि० बनाम भारतीय संघ (Villayati Ram Mittal (P.) Ltd. v. Union of India) 47

यहां पर यह उल्लेखनीय है कि प्रस्ताव स्वीकार किये जाने के पूर्व कभी भी वापस लिया जा सकता है या उसका प्रतिसंहरण किया जा सकता है। प्रस्ताव का प्रतिसंहरण किये जाने के पश्चात् उसे स्वीकार नहीं

44. ए० आई० आर० 1992 एस० सी० पृष्ठ 132.

45. AIR 1997 मध्य प्रदेश 68, 70 मेसर्स जे० के० इन्टरप्राइजेज बनाम मध्य प्रदेश राज्य।

46. ए० आई० आर० 1995 आंध्र प्रदेश 362, 364, चिट्टी आन कान्ट्रैक्स, वाल्यूम I 24वाँ संस्करण, पैरा 209, ए० आई० आर० 1963 ए० पी० 1963, 110, रघुनन्दन बनाम हैदराबाद राज्य, ए० आई० आर० 1947 मद्रास 366, सोमसुन्दरन पिल्लई बनाम सरकार, तथा चम्पापाल बनाम घनश्यामदास, ए० आई० आर० 1922 मद्रास 486 भी देखें।

* (1991) पी० सी० एस० (जे०) प्रश्न १ (ख)।

47. (2010) 10 एस० सी० सी० 532.

किया जा सकता हैं। परन्तु, यह सामान्य सिद्धान्त उस दशा में लागू नहीं होगा जहां निबन्धनों की कानूनी या अधिनियमित योजना में अन्यथा उपबन्ध है। ऐसी दशा में निबन्धनों की कानूनी योजना ही अधिक मान्य होगी। उदाहरणतया जहां काननी या अधिनियमित योजना के अनुसार कर्मचारी की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति होने से वह कर्मचारी एक बार अपना विकल्प उपयोग करने पर उसका प्रतिसंहरण नहीं कर सकता है। ऐसी दशा में कानूनी योजना ही सामान्य सिद्धान्त के ऊपर अधिक मान्य होगी। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने न्य इण्डिया एश्योरेन्स कं. लि. बनाम रघुवीर सिंह नारंग (New India Assurance Co. Ltd. v. Raghuvir Singh Narang)48 के वाद में दिया था।

प्रतिसंहरण का ढंग (Mode of Revocation)-किसी प्रस्ताव का प्रतिसंहरण निम्नलिखित ढंगों से किया जा सकता है-

(1) दूसरे पक्षकार को प्रतिसंहरण की सूचना भेज कर,

(2) प्रस्ताव में निर्धारित समय की समाप्ति पर। यदि प्रस्ताव में कोई समय निर्धारित नहीं है तो युक्तियुक्त समय (reasonable time) में ।

(3) स्वीकृतिकर्ता द्वारा प्रस्ताव में वर्णित शर्त की पूर्ति न करने पर।

(4) प्रस्ताव के पालन हो जाने या उसकी मृत्यु हो जाने पर। यदि स्वीकृतिकर्ता को स्वीकृति करने के पहले, प्रस्तावक के पागल हो जाने या उसकी मृत्यु हो जाने का तथ्य ज्ञात हो जाता है, तो स्वीकृति अवैध होगी। परन्तु यदि स्वीकृति करते समय, उसे इस तथ्य का ज्ञान नहीं होता है, तो स्वीकृति वैध होगी तथा वैध संविदा का निर्माण हो जायेगा।

48. (2010)5 एस० सी० सी० 335.

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