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LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Chapter 7 Fraud Notes

 

 

LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Chapter 7 Fraud Notes:- Hello Friends आज आपको इस पोस्ट में हम Law of Contract 7 Consent Chapter का आगे का हिस्सा Fraud के बारे में पढ़ाने जा रहे है Chapter 7 इस पोस्ट के बाद Complete हो जायेगा | LLB Question Papers पढ़ने के लिए हमे कमेंट करके बताये | अभ्यर्थियो को बता दे की अभी हम LLB Law Notes and Study Material in English Hindi (PDF Download) में दे रहे है जिसका Exam 2019 December में LLB 1st Semester / Year का होगा |

 

 

कपट (Fraud)

डेरी बनाम पीक (Derry v. Peek)69 में लार्ड हरशेल (Lord Hershell) ने कपट को परिभाषित करते हुए कहा कि इसके अर्थ एक मिथ्या कथन करने के होते हैं जो “जानबूझ कर कहा जाय, या इसके सत्य में विश्वास के बिना या घोर असावधानी से किया जाय कि यह सत्य है अथवा मिथ्या” (“made knowingly or without belief in its truth, or recklessly careless, whether it be true or false”) 70 अतः कपट ऐसे मिथ्या कथन को कहते हैं जिसे उसकी सत्यता में बिना विश्वास के किया जाता है।

कपट तथा उपेक्षा में अन्तर (Distinction between Fraud and Negligence)-कपट तथा उपेक्षा में मुख्य अन्तर यह है कि कपट में बेईमानी का तत्व आवश्यक रूप से होता है; जबकि उपेक्षा में यह आवश्यक नहीं है।71

डेरी बनाम पीक (Derry v. Peek)72* कपट के ऊपर यह एक प्रमुख वाद है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :

इस वाद में सदन के एक अधिनियम द्वारा एक कम्पनी को प्लाईमाउथ (Plymouth) में भाप (Steam) द्वारा ट्रामें चलाने के लिये अधिकृत किया गया । परन्तु यह अधिकार व्यापार के बोर्ड द्वारा अनुमोदन के अधीन था। कम्पनी ने बोर्ड को प्रार्थनापत्र दे रखा था और वह ईमानदारी से विश्वास करती थी कि उसे बोर्ड का अनुमोदन मिल जायेगा। अत: कम्पनी ने विज्ञापन द्वारा यह व्यपदेशन किया कि वह घोड़ों के स्थान पर भाप से ट्राम चलाने के लिये अधिकृत है। बाद में बोर्ड ने भाप के प्रयोग की अनुमति नहीं दी। वादी ने उक्त व्यपदेशन के आधार पर कुछ हिस्से (Shares) लिये थे। उसने कम्पनी के डाइरेक्टरों के विरुद्ध वाद किया कि वे कपट के दोषी हैं। हाउस आफ लार्ड्स ने निर्णय दिया कि डाइरेक्टर कपट के दोषी नहीं थे क्योंकि वे ईमानदारी से विश्वास करते थे कि उन्हें बोर्ड से अनुमति प्राप्त हो जायेगी। लार्ड हरशेल (Lord Herschell) के शब्दों में :

“I cannot hold…………that he knowingly made a false statement or one which he did not believe to be true, or was careless whether what he stated was true or false. In short I think they honestly believed what they asserted was true.”

भारतीय विधि-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 17 में कपट की निम्नलिखित परिभाषा दी गई

“कपट से अभिप्रेत और उसके अन्तर्गत निम्न कार्यों में से कोई ऐसा कार्य है जो संविदा के एक पक्षकार द्वारा, या उसकी मौनानुकूलता से या उसके एजेन्ट द्वारा, उसमें के दूसरे पक्षकार को या उसके एजेन्ट को धोखा देने के या उसे संविदा करने के लिये उत्प्रेरित करने के आशय से किया गया है-

(1) उस बात का जो कि सत्य नहीं है, ऐसे व्यक्ति द्वारा जो कि उसके सत्य होने का विश्वास नहीं करता है, तथ्य के रूप में सुझाव,

(2) किसी तथ्य का उस तथ्य पर विश्वास या ज्ञान रखने वाले किसी व्यक्ति के द्वारा सक्रिय छिपावट; (3) पालन करने के किसी आशय के बिना की गई प्रतिज्ञा,

(4) धोखा देने के उपकल्पित अन्य कोई कार्य,

69. (1889) 14 ए० सी० 337.

70. तत्रैव, पृ० 374; लि लीबेरे बनाम गोल्ड (1893) 1 क्यू बी० 491, 498.

71. देखें : चेशायर ऐण्ड फीफुट, ला आफ कान्ट्रैक्ट, छठा संस्करण, पृ० 241-42.

72. (1889) 14 ए० सी० 337.

* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 3 (ग) के लिये भी देखें।

(5) कोई ऐसा कार्य या कार्यलोप जिसका कि कपटपूर्ण होना विधि विशेष रूप से घोषित करती

दृष्टान्त-(क) क नीलाम द्वारा ख को एक घोड़ा बेचता है जिसके बारे में क जानता है कि वह अस्वस्थ है। ख घोड़े की अस्वस्थता के बारे में ख से कुछ नहीं कहता है। यह क की ओर से कपट नहीं है।

(ख) क, क की पुत्री है और वयस्क हुई ही है। यहाँ पक्षकारों के बीच के सम्बन्ध के अधीन क का कर्तव्य है कि यदि घोड़ा अस्वस्थ है तो ख को यह बात बताये।

(ग) ख, क से कहती है कि यदि तुम इस बात का प्रत्याख्यान (deny) नहीं करते तो मैं मान लूँगी कि घोड़ा स्वस्थ है। क कुछ नहीं कहता है। यहाँ क की चुप्पी बोलने के समतुल्य है।

(घ) क और ख जो व्यापारी हैं, संविदा करते हैं। क को कीमतों में परिवर्तन की जिससे कि संविदा करने में ख की रजामन्दी प्रभावित होगी, निजी इत्तिला है। क ख को इत्तिला देने के लिये बाध्य है।

यह भली-भाँति स्थापित नियम है कि जिस व्यक्ति के साथ कपट किया गया है, यदि वह ऐसी स्थिति में है कि थोड़े से परिश्रम द्वारा वह सत्य की खोज कर सकता है, तो वह कपट नहीं माना जायगा। (“It is well settled that where a person on whom fraud is committed is in a position to discover the truth by due diligence, fraud is not proved. It was neither a case of Suggestio falsi or Suppressio Veri”) यह बात उच्चतम न्यायालय ने एक वाद श्रीकृष्ण बनाम कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (Shri Krishna v. Kurukshetra University, Kurukshetra)73 के निर्णय में कही।

इस वाद में विश्वविद्यालय ने अपीलार्थी के परीक्षा प्रार्थनापक्ष को स्वीकार कर दिया था। इसके पूर्व विश्वविद्यालय ने अपीलार्थी को एल-एल० बी० (द्वितीय वर्ष) की परीक्षा देने की अनुमति प्रदान कर दी थी। अपीलाथी किसी नौकरी में था तथा उससे कहा गया था कि वह अपने सेवायोजक से अनुमति प्राप्त करके विश्वविद्यालय को प्रेषित करे। अपीलार्थी ने उक्त अनुमति प्रेषित नहीं की थी, परन्तु यह वायदा किया था कि यदि उसे अपने सेवायोजकद्वारा अनुमति प्राप्त नहीं हो सकी तो वह उस निर्णय से बाध्य होगा जो विश्वविद्यालय इस सम्बन्ध में ले। कदाचित् उक्त वचन के आधार पर, अपीलार्थी को परीक्षा में बैठने की अनुमति प्रदान की गई थी। यह अनुमति 19 मई, 1973 को प्रदान की गई थी । 20 जून, 1973 को उसने कहा कि जिस दशा में उसने उक्त वचन किया था, अब आवश्यक नहीं है क्योंकि उस समय वह नौकरी में था तथा उसने प्रार्थना की कि उसका परीक्षाफल घोषित किया जाय। 26 जून, 1973 को विश्वविद्यालय ने अपीलार्थी को सूचित किया कि एल-एल० बी० (प्रथमवर्ष) में उसकी उपस्थिति का प्रतिशत कम होने के कारण उसकी प्रथम वर्ष की परीक्षा रद्द की जाती है।

उच्चतम न्यायालय ने अपीलार्थी की अपील को स्वीकार करते हुये कहा कि यदि विभागाध्यक्ष अथवा विश्वविद्यालय प्राधिकारी किसी ने भी अपीलार्थी के फार्म की सावधानीपूर्वक जाँच नहीं की, तो अपीलार्थी द्वारा कपट करने का प्रश्न नहीं उठता। यह भलीभाँति स्थापित नियम है कि यदि जिस व्यक्ति पर कपट किया जाता है, वह मामूली परिश्रम से सत्य की खोज करने की स्थिति में है तो वह कपट सिद्ध नहीं माना जायेगा। अपीलार्थी ने विश्वविद्यालय अधिकारियों को कभी नहीं लिखा कि उसकी कक्षा में उपस्थिति निर्धारित संख्या विश्वावद्यालय प्राधिकारियों के पास उक्त दोष का पता लगाने का यथेष्ट समय था। इन परिस्थितियों में विश्वविद्यालय द्वारा एक बार अनुमति प्रदान किये जाने पर, विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार उक्त अनुमति वापस नहीं ली जा सकती थी। एक बार अपीलार्थी को मई, 1973 की परीक्षा में बैठने की अनुमति प्रदान की जाने के पश्चात् प्रतिवादी को उक्त अनुमति रद्द करने का अधिकार नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए विश्वविद्यालय के 26 जून, 1973 के आदेश को रद्द कर दिया। न्यायालय ने प्रतिवादी को यह भी आदेश दिया कि वह अपीलार्थी की एल-एल० बी० (द्वितीय वर्ष) की परीक्षा, जिसमें अपीलार्थी 19 मई, 1973 में बैठा था, के परीक्षाफल को घोषित कर दिया जाय। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि अपीलार्थी एल-एल० बी० (प्रथमवर्ष) के जिन विषयों में अनुत्तीर्ण हुआ है, उन विषयों में जब

73. ए० आई० आर 1976 एस० सी० 376, 381.

विश्वविद्यालय परीक्षा करे, तो अपीलार्थी को उक्त परीक्षा में बैठने का अवसर प्रदान किया जाय।

कपट तभी होता है जब कहने वाला यह जानता हो कि वह जो कह रहा है, वह मिथ्या है। यह बात कमल कान्त पालीवाल बनाम श्रीमती प्रकाश देवी पालीवाल तथा अन्य (Kamal Kant Paliwal v. Smt. Prakash Devi Paliwal and Others)74 के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्पष्ट की। इस वाद में वादी एक शिक्षित व्यक्ति था। उसने एक न्यास-विलेख (Trust deed) निष्पादित किया तथा उस पर साक्ष्य में उसके पिता तथा एक एडवोकेट ने हस्ताक्षर किये। जयपुर के उप-रजिस्ट्रार के सम्मुख प्रस्तुत किये जाने पर वादी ने पुनः हस्ताक्षर किये। तत्पश्चात् वादी ने तर्क किया कि विलेख उससे कपट द्वारा निष्पादित कराया गया था तथा उसे यह नहीं पता था कि विलेख में क्या लिखा था। न्यायालय ने उक्त तर्क अस्वीकार कर दिया तथा कहा कि विलेख की विषय-वस्तु (Contents) को जानने के हेतु उसके पास सारे साधन थे। अत: यह कहना गलत होगा कि विलेख कपट द्वारा निष्पादित कराया गया था।75

आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाम टी० सूर्या चन्द्रा राव76 (State of Andhra Pradesh v. T. Surya Chandra Rao) के वाद में जो भूमि अभ्यर्पण (surrender) के लिये प्रस्तावित की गई उसे पहले से ही राज्य ने अभिप्राप्त कर रखा था। उच्च न्यायालय ने यद्यपि यह स्वीकार किया कि सिद्धान्त के रूप में न्यायाधिकरण को यथेष्ट अधिकार प्राप्त हैं किन्तु रिकार्ड में प्रकट होने वाली त्रुटि के आधार पर वाद को पुनः खोला जा सकता है, परन्तु फिर भी यह धारित किया कि एक बार जाँच की गई है, वाद को पुनः नहीं खोला जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि उच्च न्यायालय स्पष्टत: त्रुटिपूर्ण था क्योंकि जाँच होने से न्यायाधिकरण का अधिकार समाप्त नहीं होता है तथा वह त्रुटि को सही कर सकता है। तब प्रत्यर्थी ने कपट किया है।

अत: उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि उच्च न्यायालय का आदेश त्रुटिपूर्ण था तथा उसे अपास्त कर दिया।77

यह धारित किया गया है कि ‘कपट’ एवं मिलीभगत (collusion) किसी भी सभ्य विधिशास्त्र की प्रणाली को अधिक से अधिक गम्भीर कार्यवाही को दूषित (vitiate) कर देती है।78

कपट वह आचरण है जो अक्षरों या शब्दों से किया जाता है जिससे अन्य व्यक्ति या प्राधिकारी को एक निश्चित स्थिति पहले वाले व्यक्ति के आचरण के उत्तर में शब्दों या अक्षरों द्वारा लेना होता है। यद्यपि उपेक्षा कपट नहीं है लेकिन यह कपट का साक्ष्य हो सकता है। यह उच्चतम न्यायालय ने रामप्रीती यादव बनाम यू० पी० बोर्ड आफ हाई स्कूल एण्ड इण्टरमीडिएट एजूकेशन, (Ram Preeti Yadav.v. U. P. Board of High School and Intermediate Education)79 इसके अतिरिक्त सारवान दस्तावेजों को दबाना (supervision) भी कपट होगा 80

कपट के तथ्य (Elements of fraud)-कपट सिद्ध करने के लिये यह संदर्शित करना आवश्यक है कि मिथ्या व्यपदेशन

(1) जानबूझ कर किया गया था, या

(2) बिना उसकी सत्यता में विश्वास किये, किया गया था, या

(3) घोर असावधानी से किया गया था कि यह सत्य है अथवा मिथ्या। 81

74. ए० आई० आर० 1976 राजस्थान 79, 81.

75. तत्रैव।

76. ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 3110.

77. तत्रैव, पृ० 3111,3114.

78. भाऊराव डागदू परालकर बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 33303321

79 ए आई० आर० 2003 एस० सी० 4268 जिसका हवाला ए० आई० आर० 2005, 3330, 3336 में दिया गया है।

80. देखें गौरीशंकर बनाम जोशी अम्बाशंकर फैमिली ट्रस्ट, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 2002; एस. पी० चेल्गलनराया नायर बनाम जगन्नाथ, ए० आई० आर० 1994 एस० सी० 853.

81. (1889) 14 ए० सी० 337.

इस बात से अन्तर नहीं पड़ता कि धोखा देने वाले का उद्देश्य अच्छा था अथवा बुरा। इस सम्बन्ध में आर० डी० ठक्कर बनाम बाम्बे हाउसिंग बोर्ड (R.D. Thakkar v. The Bombay Housing Board)82 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में एक निगमित निकाय के जिम्मेदार अफसरों ने मिथ्या तथ्यों का व्यपदेशन करके कपट किया, उनका उद्देश्य बुरा नहीं था। गुजरात उच्च न्यायालय ने धारित किया कि उनके द्वारा कपट के लिये निगमित निकाय दायित्वाधीन होगा। इस बात से अन्तर नहीं पड़ता है कि कपट करने वाले का उद्देश्य अच्छा था अथवा बुरा। वह उसके परिणामों से नहीं बच सकता है। न्यायालय के शब्दों में–“Even if the motive of the person indulging in deceit is laudable, he cannot escape from the consequences of his action”83

कोरी चुप्पी का प्रभाव (Effect of mere non-disclosure or silence)-धारा 17 की व्याख्या के अनुसार, उन तथ्यों के बारे में कोरी चुप्पी, जिनसे कि सम्भाव्यता है कि संविदा करने के लिये किसी व्यक्ति की रजामन्दी प्रभावित हो सकती है, जब तक कि मामले की परिस्थितियाँ ऐसी न हों कि उनको ध्यान में रखते हुए बोलना चुप्पी रखने वाले का कर्त्तव्य था, या जब तक कि उसकी चुप्पी स्वतः ही बोलने के समतुल्य न हो, कपट नहीं है। उदाहरण के लिये क, ख से कहता है कि यदि तुम प्रत्याख्यान नहीं करते हो, मैं मान लूँगा कि मकान के ऊपर किसी प्रकार का बन्धक ऋण आदि नहीं है। मकान वास्तव में बन्धक के अन्तर्गत है, परन्तु ख कुछ नहीं कहता है। यहाँ ख की चुप्पी कपट है।

कपट का परिणाम-जब कि किसी करार के लिये सम्मति कपट से कराई गई है, तब वह करार ऐसी संविदा है जो पक्षकार के विकल्प पर, जिसकी सम्मति ऐसे कराई गई थी शून्यकरणीय है। संविदा में वह पक्षकार, जिसकी सम्मति कपट से प्राप्त कराई गई थी, यदि वह ठीक समझता है तो आग्रह कर सकता है कि संविदा का पालन किया जाय, और वह उस स्थिति में रखा जाय जिसमें कि वह होता यदि किया गया व्यपदेशन सत्य होता।84 उच्चतम न्यायालय ने विधि को स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह भलीभाँति स्थापित नियम है कि कपट से कलुषित संविदा या कोई अन्य संव्यवहार शून्य न होकर शून्यकरणीय उस पक्षकार के विकल्प पर होता है जिसके विरुद्ध कपट होता है, जब तक कि ऐसी संविदा का परिहार (avoid) नहीं किया जाता है। संव्यवहार या संविदा वैध रहती है तथा तीसरे पक्षकार जिन्हें कपट की सूचना नहीं है अधिकार तथा हित प्राप्त कर सकते हैं । (“It is well established that a contract or other transaction induced or tainted by fraud is not void, but only voidable at the option of the party defrauded. Until it is avoided, the transaction is valid, so that third parties without notice of the fraud may in the meantime acquire rights and interests in the matter which they may enforce against the party defrauded.”)85

परन्तु यदि वह कपट जिससे कि संविदा के किसी पक्षकार की जिससे कि ऐसा कपट किया गया था जिससे ऐसा मिथ्या व्यपदेशन किया गया था, सम्मति उद्भूत नहीं हुई है, संविदा को शून्यकरणीय नहीं कर देता 86

दृष्टान्त- (1) क, ख को धोखा देने के आशय से मिथ्यारूपेण व्यपदेशन करता है कि क के कारखाने में वार्षिक पाँच सौ मन नील बनायी जाती है और एतद्द्वारा ख को वह कारखाना खरीदने के लिये उत्प्रेरित करता है। संविदा ख के विकल्प पर शून्यकरणीय है। 87

(2) क कपटपूर्वक ख को इत्तिला देता है कि क की सम्पत्ति अभिभारों से मुक्त (Free from Encumbrances) है। ख तब क की सम्पदा को खरीद लेता है। वह सम्पदा एक बन्धक के अधीन है। ख

82. ए० आई०आर० 1973 गुजरात 34.

83. तत्रैव, पृष्ठ 52.

84. धारा 19.

85. निनगवा बनाम बाईरप्पा हीरेकुआरबार, ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 956.

86 धारा 19 की व्याख्या।

87. धारा 19 का दृष्टान्त (क)।

या तो संविदा का परिवर्तन कर सकेगा या यह आग्रह कर सकेगा कि वह क्रियान्वित की जाये और बन्धक ऋण का मोचन किया जाय/88

(ख) ख, क की सम्पदा में एक खनिज-पदार्थ की पट्टी खोद कर क से उसके अस्तित्व को छिपाने के साधनों को प्रयुक्त करता है और छिपा लेता है। क के अज्ञान से ख उस भू-सम्पदा को न्यून मूल्य पर खरीदने में समर्थ होता है। संविदा क के विकल्प पर शून्यकरणीय है।89

(4) कख की मृत्यु पर एक सम्पदा का उत्तराधिकारी होने का हकदार है। ख की मृत्यु हो जाती है। ग ख की मृत्यु का समाचार पाने पर, उस समाचार को क तक नहीं पहुँचने देता है और इस तरह क को सम्पदा में अपने हित को बेचने के लिये उत्प्रेरित करता है। यह विक्रय क के विकल्प पर शून्यकरणीय है।90

धारा 19 में एक अपवाद दिया हुआ है जिसके अनुसार, यदि ऐसी सम्पत्ति मिथ्या व्यपदेशन या चुप्पी द्वारा, जो कि धारा 17 के अर्थ के अन्दर कपटपूर्ण है, कराई गई थी तो ऐसा होने पर भी संविदा, यदि पक्षकार के पास जिसकी सम्मति इस प्रकार कराई गई थी, सत्य को मामूली उद्यम से पता चलाने के साधन थे, शून्यकरणीय नहीं हैं। 91 उदाहरण के लिए, क मिथ्या व्यपदेशन द्वारा ख को गलती में डाल कर यह विश्वास कराता है कि क के कारखाने में सालाना पाँच सौ मन नील बनायी जाती है। ख कारखाने के लेखाओं की पड़ताल करता है जिससे संदर्शित है कि केवल चार सौ मन नील बनाई गई। इसके पश्चात् ख कारखाने को खरीद लेता है। संविदा क के मिथ्या व्यपदेशन के कारण शून्यकरणीय नहीं है।

साक्ष्य या सिद्ध करने का स्तर-यह भलीभाँति स्थापित विधि है कि सिविल मामलों में भी जहाँ कपट या मिथ्या व्यपदेशन का आरोप लगाया जाता है साक्ष्य या सिद्ध करने का स्तर बहुत ऊँचा होता है तथा यह आपराधिक परीक्षण के समान होता है।93

मिथ्या व्यपदेशन (Misrepresentation)

परिभाषा-किसी संविदा के सारवान तथ्यों के मिथ्या प्रकटीकरण को मिथ्या व्यपदेशन कहते हैं। व्यपदेशन तभी असत्य हो सकता है कि वह सार तथा तथ्य दोनों में ही मिथ्या हो।94 भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 18 के अनुसार-

“मिथ्या व्यपदेशन से अभिप्रेत और उसके अन्तर्गत है–

(1) जो बात सत्य नहीं है, उसको ऐसी रीति में किया गया परिस्फुट प्रतिपादन है, जैसा कि उस व्यक्ति की, जो कि करता है, जानकारी से, यद्यपि उस बात के सत्य होने का विश्वास करता है, अधिदिष्ट नहीं है।

(2) कोई ऐसी कर्त्तव्य-भग्नता की है, जिससे कि धोखा देने के आशय के बिना वह भग्नता व्यक्ति जो उसे करता है, या उसके अधिकार से दावा करने वाले किसी व्यक्ति को कोई प्रलाभ किसी दूसरे को ऐसे विमुख कर के, जैसे कि दूसरे पर प्रतिकूल प्रभाव या दूसरे के अधिकार से दावा करने वाले किसी व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, उठा लेता है।

(3) करार के किसी पक्षकार से उस बात के बारे में, चाहे कितनी ही निर्दोषिता से क्यों न हो, कोई भूल कराना है जो कि उस करार का विषय है।”

मिथ्या व्यपदेशन के आवश्यक तत्व-धारा 18 के अनुसार मिथ्या व्यपदेशन के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-

88. धारा 19 का दृष्टान्त (ग) ।

89. धारा 19 का दृष्टान्त (घ)।

90. धारा 19 का दृष्टान्त (ङ)।

91. धारा 19 का अपवाद।

92. धारा 19 का दृष्टान्त (ख)।

93. सार्वथ्राम्मा बनाम एच० गुरप्पा रेड्डी, ए० आई० आर० 1996 कर्नाटक 99, 104.

94 देखें: आर० सी० ठक्कर बनाम द बाम्ब हाउसिंग बोर्ड, ए०आई०आर० 1973 गुजरात 34,44.

(1) ऐसी बातें कहना जो सत्य नहीं है, परन्तु कहने वाला उन्हें सत्य समझता है।

(2) कोई ऐसी कर्त्तव्य-भग्नता जो करने वाले को कुछ लाभ दे तथा दूसरे पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।

(3) करार के किसी पक्षकार से करार के विषय में भूल कराना।

कपट तथा मिथ्या व्यपदेशन में अन्तर-कपट तथा मिथ्या व्यपदेशन में मुख्य अन्तर यह है कि कपट में किसी बात का सुझाव करने वाला उसकी सत्यता में विश्वास नहीं करता है, जब कि मिथ्या व्यपदेशन में वह उसकी सत्यता में विश्वास करता है तथा दोनों में ही तथ्यों का मिथ्या कथन भुला देता है।95

मिथ्या व्यपदेशन का परिणाम (Effect of Misrepresentation)–जब कि किसी करार के लिए सम्मति मिथ्या व्यपदेशन पे कराई गई हो, तब वह करार ऐसी संविदा है जो पक्षकार के विकल्प पर, जिसकी सम्मति ऐसी कराई गई थी, शून्यकरणीय है, संविदा में वह पक्षकार जिसकी सम्मति इस प्रकार कराई गई है, यदि वह ठीक समझता है, आग्रह कर सकता है कि संविदा का पालन किया जाये और वह उस स्थिति में रखा जाये जिसमें वह होता यदि किया गया व्यपदेशन सत्य होता।96

यहाँ पर, हिन्दुस्तान जनरल इन्श्योरेन्स सोसाइटी बनाम एस० सुब्रामनियम (Hindustan General Ins irance Society v. S. Subramaniam)97 के वाद का उल्लेख वांछनीय होगा। यह वाद प्रतिवादी द्वारा अपने ट्रक का बीमा कराने से सम्बन्धित था। ट्रक की माल लादने की क्षमता 5.392 टन थी, परन्तु प्रतिवादी ने प्रस्ताव के फार्म पर क्षमता केवल 5 टन लिखा। बीमा की किश्तों की दर की सूची के अनुसार, 5 टन से अधिक क्षमता के लिये प्रत्येक अतिरिक्त टन के लिये 120 रुपये का भुगतान आवश्यक था। यदि प्रस्ताव में 5 टन से अधिक की क्षमता लिखी जाती तो बीमा-कम्पनी अभिक किश्त माँगती। लारी के एक दुर्घटना से ग्रसित होने के परिणामस्वरूप प्रतिवादी ने मुआवजे की माँग की। प्रथम न्यायालय तथा उससे ऊँचे न्यायालय की अपील में यह धारित किया गया कि क्षमता के सम्बन्ध में सारहीन मिथ्या व्यपदेशन होने के फलस्वरूप, बीमा कम्पनी के विकल्प पर संविदा शून्यकरणीय हो सकती थी। द्वितीय अपील में, न्यायालय ने इस निर्णय को उलट दिया तथा निर्णय दिया कि बीमा कम्पनी मुआवजा देने को बाध्य थी।

इस निर्णय के विरुद्ध मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की गई तथा न्यायालय ने उक्त निर्णय को उलट कर प्रथम न्यायालय और उससे ऊँचे न्यायालय के निर्णय का अनुमोदन कर दिया। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि चूँकि उक्त संविदा मिथ्या व्यपदेशन के कारण हुई थी, अत: बीमा कम्पनी के विकल्प पर शून्यकरणीय थी।98

परन्तु वह मिथ्या व्यपदेशन, जिससे कि संविदा में के किसी पक्षकार की जिससे कि ऐसा कपट किया गया था, या जिससे मिथ्या व्यपदेशन किया गया था, सम्मति उद्भूत नहीं हुई है, संविदा को शून्यकरणीय नहीं कर देता 199

श्रीमती कमलावन्ती बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम (Smt. Kamlawanti v. L.I.C. of India)100 के वाद में अपीलार्थी (मृतक नन्दलाल जगजीवन संघवी की विधवा पत्नी) ने भारतीय जीवन बीमा निगम के विरुद्ध अपने मृतक पति के जीवन बीमा पालिसी के आधार पर निगम के विरुद्ध 13,000 रुपये प्राप्त करने का वाद किया। अपीलार्थी का नाम पालिसी में नामांकित था। मृतक के जीवन बीमे का प्रस्ताव 30 मार्च, 1964 को किया गया था तथा उसे जीवन बीमा निगम द्वारा स्वीकार किया गया था। नीचे के

95. देखें : पोलक ऐण्ड मुल्ला , नोट 3, पृष्ठ 159.

96. धारा 19.

97. ए० आई० आर० 1975 मद्रास 162.

* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न द (iv) के लिये भी देखें।

98. ए० आई० आर० 1975 मद्रास 163.

99. धारा 19 की व्याख्या।

100. ए०आई०आर० 1981 इलाहाबाद 366.

दोनों न्यायालयों ने वादी (अपीलार्थी) का वाद खारिज इस आधार पर कर दिया कि मृतक कारबंकल (Carbuncle) तथा बहुमूत्र (diabetes) के रोगों से ग्रसित था तथा मृतक ने अपने व्यक्तिगत बयान में यह तथ्य छिपाये थे; अतः मिथ्या व्यपदेशन होने से बीमे का करार शून्य हो गया; अतः अपीलार्थी ने प्रस्तुत अपील की। बीमा करवाने के समय मृतक की आयु 60 वर्ष की थी तथा 29 अक्टूबर 1965 को दिल की धड़कन बन्द होने से उसकी मृत्यु हो गई। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि व्यक्तिगत बयान में जो प्रश्न थे उनमें कारबंकल तथा बहुमूत्र का उल्लेख नहीं था। इन प्रश्नों का उत्तर मृतक ने नकारात्मक दिया था। इन प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी था कि क्या कभी उसके मूत्र में पस, खून, चीनी या अल्बूमीन आयी थी? उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि इस वाद की सबसे अजीब बात यह थी, यद्यपि कारबंकल तथा बहमत्र सामान्य रोग हैं, प्रश्नोत्तरी में इसका उल्लेख नहीं था। चूँकि इनका विशिष्ट रूप से उल्लेख नहीं था, मृतक का कर्त्तव्य नहीं था कि वह स्वयं इनका उल्लेख करता। जहाँ तक इस प्रश्न का सम्बन्ध है कि क्या मूत्र में चीनी जाती थी, यदि किसी के आती भी हो तो यह हो सकता है कि उसे ज्ञान न हो; अतः ऐसे में सम्भावना नहीं कि सम्बन्धित व्यक्ति का उत्तर नकारात्मक होगा। अत: उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तुत वाद के तथ्यों के आधार पर यह कहना सम्भव नहीं है कि किसी प्रकार का वास्तविक या काल्पनिक मिथ्या व्यपदेशन हुआ। जीवन बीमा निगम ने जब 56 वर्ष के व्यक्ति का बीमा किया तो यह माना जाएगा कि ऐसी आयु के साथ सामान्यतया जो जोखिम होते हैं वह भी स्वीकार करे। अत: यह कहना सम्भव नहीं है कि भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपनी सम्मति ऐसे किसी मिथ्या व्यपदेशन के आधार पर दी थी जिससे संविदा निगम के विकल्प पर शून्यकरणीय हो सकती थी।101 अन्त में न्यायालय ने धारित किया कि निगम अपीलार्थी को पालिसी की रकम ब्याज सहित देने को बाध्य है तथा दो महीनों के अन्दर दे। 102

भूल (Mistake)*

भूल की विधि में प्रायिक बोलचाल की अपेक्षा, बड़े ही निर्बन्धित (restricted) अर्थ होते हैं।103 वे सिद्धान्त तथा परिस्थितियाँ जिनमें न्यायालय हस्तक्षेप करेंगे, तय नहीं हो पाये हैं तथा निर्णीत वादों के एक से अधिक निर्वचन किये जा सकते हैं।104

भूलों का वर्गीकरण-भूल को निम्नलिखित तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है

(1) सामान्य भूल (Common Mistake)—इसमें दोनों पक्षकारों की समान भूल होती है। प्रत्येक पक्षकार दूसरे के आशय को जानता तथा स्वीकार करता है, परन्तु किसी मौलिक तथ्य के विषय में भूल होती है। उदाहरण के लिये, पक्षकारों को यह ज्ञान नहीं है कि संविदा की विषय-वस्तु पहले ही नष्ट हो चुकी है।105

(2) पारस्परिक भूल (Mutual Mistake)**- इसमें पक्षकार एक-दूसरे को गलत समझते हैं तथा उद्देश्य के विषय में भी भूल होती है। उदाहरण के लिए क अपनी 8 घोड़े की शक्ति (Horse Fower) की मोटर को बेचने का प्रस्ताव करता है, परन्तु ख समझता है कि प्रस्ताव दूसरी 10 घोड़े की शक्ति वाली मोटर के सम्बन्ध में है।106

101. ए० आई० आर० 1981 इलाहाबाद 371.

102. तत्रैव, पृ० 373.

* सी० एस० ई० (1990) प्रश्न 6 (अ) के लिए भी देखें।

103. चेशायर एण्ड फीफुट, ला आफ कान्ट्रैक्ट, पृ० 187.

104. ऐन्शन, ला आफ कान्ट्रैक्ट, 23वाँ संस्करण, पृ० 258.

105. नोट 7, पृ० 188.

** पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 2 (क) (i) के लिए भी देखें।

106. नोट 90.

(3) एकाकी भूल (Unilateral Mistake)*-इसमें केवल एक पक्षकार भूल करता है। दूसरा पक्षकार उसकी भूल को जानता है।107

भारतीय विधि-भारतीय संविदा अधिनियम की धाराएं 13, 20, 21, तथा 22 भूल से सम्बन्धित हैं। ये धाराएँ केवल मार्गदर्शक हैं। यही स्थिति इंग्लैण्ड में निर्णीत वादों से स्पष्ट होती है।

भारतीय विधि के अनुसार भूल का वर्गीकरण-विवेचना की सुविधा के लिये भूल को निम्नलिखित दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :

(1) सम्मति का अभाव (धारा 13);

(2) अज्ञानता से भूल तथा किसी मामले की मिथ्या धारणा से भूल (धाराएँ 20, 21, तथा 22)

(1) सम्मति का अभाव (Absence of Consent)–इस प्रकार की भूल निम्नलिखित तीन प्रकार की हो सकती है

(क) व्यक्ति की पहचान से सम्बन्धित;

(ख) विषय-वस्तु की पहचान से सम्बन्धित; तथा

(ग) संव्यवहार की प्रकृति से सम्बन्धित भूल।

(क) व्यक्ति की पहचान से सम्बन्धित भूल (Mistake as to the identity of the nerson)धारा 13 के अनुसार, जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-सी ही बात पर एक से ही भाव में करार करते हैं, तब उनके बारे में कहा जाता है कि वे सम्मत हुए हैं, अर्थात् जब तक दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर, एक से ही भाव पर करार नहीं करते हैं, संविदा नहीं होती है। उदाहरण के लिए, यदि प्रस्तावग्रहीता को प्रस्तावकर्ता व्यक्ति की पहचान के विषय में कोई भूल है और वह संविदा करता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पक्षकार सम्मत हुए हैं। इस सम्बन्ध में विधि निर्णीत वादों के अध्ययन की सहायता समझी जा सकती है।

इस सम्बन्ध में पहला प्रमुख वाद बोल्टन बनाम जोन्स (Boulton v. Jones)108 है। इस वाद में ब्रोकल हर्स्ट (Brokle Hurst) नामक एक व्यक्ति ने अपना कारबार वादी को सौंप दिया। प्रतिवादी का ब्रोकल हर्ट के साथ कारोबारी लेन-देन था। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि जब वादी कारोबार का. मालिक है, उसने कुछ वस्तुएँ प्रदान करने के लिए वादी को आर्डर दिया। वादी ने वस्तुएँ प्रदाय कीं। जब वादी के पास बिल पहुँचा, तब उसे ज्ञात हुआ कि कारोबार के स्वामित्व में परिवर्तन हो चुका है। प्रतिवादी ने वस्तुओं के मूल्य को देने से इस आधार पर इन्कार कर दिया कि उसने कुछ अग्रिम धन ब्रोकल हर्ट को दे रखा था जिसे मुजरा (set off) किया जाय। अतः वादी ने वस्तुओं के प्रदाय के धन को प्राप्त करने के लिए वाद किया। न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि प्रतिवादी दायित्वाधीन नहीं था। क्योंकि जब उसने वस्तुएँ प्रदाय करने के लिए कहा था तो उसके मस्तिष्क में वादी के स्थान पर ब्रोकल हर्ट था; अतः व्यक्ति की पहचान के सम्बन्ध में भूल होने के कारण सम्मति का अभाव था।

इस सम्बन्ध में अगला प्रमुख वाद कण्डी बनाम लिन्डसे (Cunday v. Lindsay)109 का है। इस वाद म ब्लेनकार्न (Blenkaron) नामक एक व्यक्ति ने वादी से कुछ वस्तुएँ प्रदाय करने को कहा। उसने कुछ इस प्रकार हस्ताक्षर किये थे कि वादी ने समझा कि वह निर्यात फर्म ब्लन्कीरान एण्ड कं० (Blenkiron and Co.) से सम्बन्धित है। वादी ने वस्तएँ प्रदाय की जिन्हें ब्लेनकार्न ने प्रतिवादी के नाम बेच दी थी। जब वादी का पता चला तो उसने वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी तथा ब्लेनकार्न के मध्य संविदा नहीं हई थी; अत: वह वस्तुओं को बेचने या अन्तरण करने का आधकारी नहीं था। वादी ब्लन्कीरान एण्ड कम्पनी से संविदा करना चाहते थे, न कि ब्लेनकार्न से; अतः

* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 2 (क) (ii) के लिए भी देखें।

107. नोट 93.

108. (1857) 27 एल० जे०117 : 157 ई० आर 232.

व्यक्ति की पहचान की भूल के कारण संविदा पूर्ण नहीं हुई।110 इस सम्बन्ध में अन्य प्रमुख वाद फिलिप्स बनाम ब्रुक्स लि० (Philips v. Brooks Ltd.)111 है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं:

अप्रैल 15, 1971 को नार्थ ((North) नामक एक व्यक्ति वादी की दूकान पर आया। उसने कुछ जेवरात तथा एक अंगूठी को, जिनका मूल्य 3,000 पौण्ड था, पसन्द किया। वह भुगतान एक चेक द्वारा करने लगा तथा उसने कहा कि वह सर जार्ज बलो (Sir George Bullough) है तथा उसने केन्ट जेम्स स्क्वायर का पता दिया। वादी ने उसे जेवरात ले जाने दिया। बाद में उक्त चेक अनादत हो गई। इस समय तक नार्थ ने अँगूठी 350 पौण्ड में प्रतिवादी के पास गिरवी रख दी थी। वादी ने अँगूठी प्राप्त करने के लिये प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस मामले में व्यक्ति की पहचान के सम्बन्ध में कोई भूल नहीं थी। क्योंकि वादी का आशय उसी व्यक्ति से संविदा करने का था जो उसके समक्ष उपस्थित था तथा उसे देख कर एवं उसकी बात सुन कर पहचाना जा सकता था। अत: न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में निर्णय दिया।

परन्तु इस निर्णय का पालन पश्चात्वर्ती वाद इनग्राम बनाम लिटिल (Ingram v. Little)112 में नहीं किया गया है। इस वाद में महिलाएँ जो बहिनें थीं, ने अपनी मोटर के विक्रय के लिये विज्ञापन दिया। एक व्यक्ति जिसने कपटपूर्वक अपना नाम हचिन्सन (Hutchinson) बताया तथा उसने मोटर को खरीदने के लिये बातचीत की तथा मोटर का मूल्य 717 पौण्ड तय हुआ। वह भुगतान चेक द्वारा करना चाहता था, परन्तु महिलाओं ने चेक लेने से इन्कार कर दिया। इस पर उसने कहा कि उसका नाम हचिन्सन है तथा उसने अपना पता भी बताया। एक बहिन ने पास के डाकखाने में जाकर पते की पुष्टि कर ली तथा चेक स्वीकार कर ली। बाद में उस व्यक्ति ने मोटर प्रतिवादी के हाथ बेच दी। प्रतिवादी ने सद्भाव में तथा प्रतिफल देकर मोटर खरीदी थी। चेक का अनादर होने पर, वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध मोटर प्राप्त करने के लिए वाद प्रस्तुत किया। इस वाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी मोटर प्राप्त करने की अधिकारिणी थी। शायर तथा फीफट (Cheshire and Fifoot)113 ने उचित लिखा है कि इस निर्णय तथा फिलिप्स बनाम ब्रुक्स में दिये गये निर्णय का समाधान (reconcile) करना बड़ा कठिन है। अतः निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि इस सम्बन्ध में बड़ी ही अनिश्चितता है तथा बहुत कुछ वाद के तथ्यों पर निर्भर करता है।

(ख) विषय-वस्तु की पहचान सम्बन्धी भूल (Mistake as to the Identity of the subjectmatter)—इस प्रकार की भूल में पक्षकार संविदा किसी ऐसे आधार की प्रकल्पना पर करते हैं जो बाद में मिथ्या सिद्ध होते हैं।114 इस सम्बन्ध में बेल बनाम लीवर्स ब्रदर्स लि० (Bell v. Lever Brothers Ltd.)115 एक प्रमुख वाद है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-

इस वाद में प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी को अपने अधीनस्थ एक नाइजर कम्पनी का डाइरेक्टर पाँच वर्ष के लिए 8,000 पौण्ड प्रतिवर्ष वेतन पर नियुक्त किया था। बाद में उक्त नाइजर कम्पनी एक निगम में मिला दी गई तथा अपीलार्थी की सेवाओं की आवश्यकता नहीं रह गई। अतः एक संविदा द्वारा प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी को नियत समय से पूर्व हटाने के लिये 30,000 पौण्ड मुआवजा देने का वचन दिया तथा बाद में उक्त रकम भी दे दी। रकम देने के बाद उन्हें यह पता चला कि सेवा-काल में अपीलार्थी कई बार कर्तव्य के उल्लंघन करने का दोषी था। अत: उसे बिना मुआवजा दिये ही निकाला जा सकता था। अत: विषय वस्तु की पहचान की भल के आधार पर, प्रत्यर्थी ने वादी के विरुद्ध उक्त धन प्राप्त करने के लिये वाद किया था। अपील में हाउस ऑफ लाई ने बहुमत से निर्णय दिया कि संविदा वैध थी तथा दोनों पक्षकार उससे बाध्य थे। प्रत्यर्थी मआवजा देकर अपीलार्थी को निकालना चाहता था और उसके उद्देश्य की पूर्ति संविदा द्वारा हो गई।116

110. देखें; (1878) 3 ए० सी० 459, पृष्ठ 465-66.

111. (1919) 2 के० बी० 243.

112. (1961)1 क्यू० बी० 31.

113. चेशायर ऐण्ड फीफुट, नोट 99, पृष्ठ 212.

114. ऐन्सन, नोट 93, पृष्ठ 260.

115. (1932) ए० सी०161.

116. तत्रैव, पृ० 223-24.

लार्ड ऐटकिन (Lord Atkin) के शब्दों में :

“…. It would be wrong to decide that an agreement to terminate a definite specified

oid if turns out that the agreement had already been broken and could have been terminated otherwise the contract of release i.e. the identical contract in both the cases, and the party paying for the release gets exactly what bargains for. It seems immaterial that he could have the same result in another way, or that if he had known the true facts he would not have entered into bargain.”

इस निर्णय का परिणाम यह है कि पारस्परिक भूल (Mutual Mistake) के सिद्धान्त संकीर्ण परिसीमाओं के भीतर रहे तथा न्यायालय केवल छोर (extreme) के वाद में इस्तक्षेप करेगा। 117

(ग) संव्यवहार की प्रकृतिसम्बन्धी भूल (Mistake as to the Nature of Transaction)-यदि संव्यवहार की प्रकृति सम्बन्धी भूल होती है तो संविदा शून्य होती है। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति किसी दान के विलेख (deed of gift) पर इस गलत धारणा से हस्ताक्षर कर दे कि वह वकालतनामे पर हस्ताक्षर कर रहा है तो संव्यवहार की प्रकृति के सम्बन्ध में भूल के आधार पर विलेख अवैध हो जायेगा। 118

(2) अज्ञानता या किसी मामले की मिथ्या धारणा से भूल [Mistake by Ignorance of Misconception of some matters (Sections 20, 21 and 22)]—इस कोटि में भूल को लाने के लिये निम्नलिखित आवश्यक तत्व होने चाहिये

(क) तथ्य करार के लिये आवश्यक होना चाहिये* (Fact must be essential to be Agreement)-धारा 20 के अनुसार-

“जहाँ कि किसी करार के दोनों पक्षकार करार के लिये सारभूत किसी तथ्य की बात के बारे में भूल के अधीन हैं, वहाँ करार शून्य है।”

दृष्टान्त-(क) वस्तुओं के यथोल्लिखित नौपण्य (Cargo) को, जिसके बारे में यह अनुमान है कि वह इंग्लैण्ड से बम्बई के पथ पर आ रहा है, क ख को बेचने का करार करता है। पता चलता है कि सौदे के दिन से पूर्व, इस नौपण्य को प्रवहण करने वाला पोत संत्यक्त कर दिया गया था (Cast away) और वस्तुएँ नष्ट हो गयी थीं। कोई पक्षकार इन तथ्यों से परिचित नहीं था। करार शून्य है।

(ख) क ख से एक घोड़ा-विलेख खरीदने का करार करता है। यह पता चलता है कि वह घोड़ा सौदे के समय मर चुका था, यद्यपि किसी पक्ष को इस तथ्य की जानकारी नहीं थी। करार शून्य है।

(ग) क, ख के जीवनपर्यन्त के लिये एक सम्पदा का हकदार है। वह उसे, ग को बेचने का करार करता है। करार के समय ख मर चुका था, लेकिन यह तथ्य दोनों पक्षों को अज्ञात था। करार शून्य है।

नरसिंह दास कोठारी बनाम छुटू लाल मिसर (Nursing Das Kothari v. Chuttoo Lal Misser) 119 में करार एक सम्पदा के विक्रय के लिये था। सम्पदा को अभिप्राप्त करने के लिये कलकत्ता विकास न्यास अधिनियम के उपबन्धों के अधीन सूचित कर दिया गया था। इस तथ्य का ज्ञान दोनों ओर के पक्षकारों को नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार धारा 20 के अधीन शून्य था। 120

परन्तु यदि सूचना संविदा के बाद हुई होती तो निर्णय भिन्न होता। 121

धारा 20 के अन्तर्गत भूल के आधार पर करार तभी शून्य हो सकता है जब दोनों पक्षकारों की भूल हो। उदाहरण के लिये, आई०टी०सी० लि. बनाम जार्ज जोसेफ फर्नान्डीज (I.T.C.Ltd. V. George

117. ऐन्सन, नोट 93, पृ० 262..

118. शरत चन्द बनाम कनाईलाल,ए० आई० आर० 1929 कलकत्ता 786.

* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 3 (क), सी० एस० ई० (1990) प्रश्न 6 (अ); सी० एस० ई० (1995) प्रश्न 7 (अ) के लिये भी देखें।

119. (1923) 50 कलकत्ता 741 आई०सी० 996.

120. देखें : के० एल० वर्क्स बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1950 लाहौर 106.

121. देखें : जोधा मल बनाम एसोसियेटेड होटेल, ए० आई० आर० 1950 लाहौर 106.

Joseph Fernandes)122 में अपीलार्थी एवं प्रत्यर्थी के मध्य गहरे समुद्र में मछली पकड़ने हेतु जहाज की संविदा थी। जहाज का परिदान अपीलार्थी को जाँच तथा मरम्मत आदि के लिये कर दिया गया। अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी को किराये एवं मरम्मत के लिये धन का भुगतान कर दिया। बाद में पता चला कि रेफ्रीजेरेसन प्रणाली में कुछ दोष था जिसके कारण वह गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के योग्य नहीं था तथा यह दोष केवल जाँचने से नहीं खोजा जा सकता था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जहाज के मरम्मत आदि तथा अन्य निबन्धन से यह लगता है कि भूल पारस्परिक या दोनों पक्षकारों की नहीं थी। अतः इस आधार पर करार शून्य नहीं हुआ।123

यहाँ यह भी नोट करना आवश्यक है कि जो वस्तु करार की विषय-वस्तु है, उसके मूल्य के बारे में गलत राय तथ्य के बारे में भूल नहीं समझी जायगी।124

जहाँ कोई करार को चुनौती केवल तथ्य की भूल के आधार पर नहीं दी गई वरन् यह कई आधारों में से है, तो तथ्य की भूल के विषय में विशेष अभिवचन आवश्यक नहीं है। दूसरे शब्दों में विशेष अभिवचन की अनुपस्थिति में भी तथ्य की भूल का आधार लिया जा सकता है। यह भली-भाँति स्थापित विधि का नियम है कि जहाँ पक्षकारों को तथ्यों के बारे में मौलिक भूल है, करार संविदा अधिनियम की धारा 20 के अन्तर्गत शून्य होगा।125

जहाँ भूमि के विक्रय के बारे में विक्रेता कनाल्स (kanals) के माप के अनुसार बेचने का आशय करता है परन्तु क्रेता का आशय बीघा (‘Bigha’) के माप के अनुसार खरीदना है, यह करार के विषय में सारभूत मूल है तथा करार शून्य होगा।126

परन्तु इस तथ्य कि संविदा के निष्पादन के समय ठेकेदार के लिये आवश्यक था कि वह पास वाली खान से दूर की खान की ओर बढ़े, धारा 20 के उपबन्ध आकर्षित नहीं होंगे।127

जहां कोई दोषपूर्ण ईकाई (defaulting unit) का नीलाम किया जाता है परन्तु नीलामकर्ता उस दोष को प्रकट नहीं करता है तथा मांगे जाने पर भी ईकाई की या इमारत की स्थल का नक्शा प्र ऐसी परिस्थिति में करार शन्य होगा तथा जमा किया गया अग्रिम धन जब्त नहीं किया जा सकता के लिये नीलाम किये जाने वाली ईकाई में पहुंचने के लिये उपयुक्त रास्ता नहीं है तथा नीलामकर्ता इसे प्रकट नहीं करता है, करार शून्य होगा तथा अग्रिम धन जमा करने की अनुमति नहीं होगी।128

यहां पर यह उल्लेखनीय है कि यदि कोई व्यक्ति या पक्षकार यह तर्क करता है कि उसने दस्तावेज पर भूल से हस्ताक्षर कर दिया था, सामान्यतया यह मान्य नहीं होगा क्योंकि जब कोई पक्षकार विशेषकर व्यापारी, दस्तावेज पर हस्ताक्षर करता है परिकल्पना यह होती है कि उसने अच्छी तरह दस्तावेज को पढ़ा है तथा समझा है। ऐसी परिकल्पना व्यापारी के मामले में और भी अधिक मजबूत होता है। जहां किसी मामले में शक्ति या कपट का अभिकथन नहीं है तो यह स्वीकार करना बड़ा कठिन है कि दस्तावेज पर भूल से हस्ताक्षर किये थे।129

(ख) भूल तथ्य की होनी चाहिये न कि विधि की* (Mistake must be of fact but not of law-Section 21)–धारा 21 के अनुसार,

122. ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 839.

123. तत्रैव, पृष्ठ 854.

124. धारा 20 का दृष्टान्त।

125. देखें : ए० आई० आर० 1997 पटना 179, सेठ शेनिक भाई कस्तूर भाई बनाम सेठ चन्दूलाल कस्तुर चन्द।

126. ए० आई० आर० 1998; एस० सी० 1400, 1404, तरसेक सिंह बनाम सुखमिन्दर सिंह।

127. कर्नाटक राज्य बनाम मेसर्स स्टेलर कान्सट्रक्सन कं०, ए० आई० आर० 2003 कर्नाटक 11-14

128 हरियाणा फाइनेन्शियल कार्पोरेशन बनाम राजेश कुमार, (2010) 1 एस० सी० सी० 655.

129 सिम इण्डस्ट्रीज लि. बनाम अगरवाल स्टील, (2010) 1 एस० सी० सी० 83..

* सी० एस०ई० (1990) प्रश्न 6 (अ) के लिये भी देखें।

कोई संविदा इस कारण के लिये शून्यकरणीय नहीं है कि वह भारत में प्रवृत्त किसी विधि के बारे में किसी भूल के कारण की गई थी, किन्तु भारत में प्रवृत्त किसी विधि के बारे में किसी भूल का वैसा प्रभाव है जैसा किसी तथ्य की भूल का है।

दष्टान्त-क और ख इस गलत विश्वास पर कि ऋण विशेष भारतीय मर्यादा विधि द्वारा वर्जित है, संविदा करते हैं। संविदा शून्यकरणीय नहीं है।

श्रीमती रामपती देवी तथा अन्य बनाम बोर्ड ऑफ रेवेन्यू, यू० पी० इलाहाबाद130 में इलाहाबाद उच न्यायालय ने धारित किया कि यदि विधि के अधीन सीरदारी हित का अन्तरण नहीं हो सकता है, तो दससे अन्तरण की अनुमति इस आधार पर नहीं दी जा सकती कि किसी ने ऐसे अधिकार अभिप्राप्त करने के लिये भूल से मूल्य की देनगी कर दी थी।

(ग) दोनों पक्षकारों की भूल होनी चाहिये (Both the parties must have been under a mistake-Section 22)–धारा 22 के अनुसार

कोई संविदा केवल इस कारण के लिये शून्यकरणीय नहीं है कि वह उसके पक्षकारों में एक के तथ्य की किसी बात के बारे में किसी भूल के अधीन होने से की गई थी।

ए० ए० सिंह बनाम भारतीय संघ (A.A. Singh v. Union of India)131 में वादी ने सरकार द्वारा एक वर्ष के लिए मछली पकड़ने के अधिकार नीलामी में सबसे अधिक बोली (bid) बोली थी। उसने ऐसा इस गलत धारणा के अधीन किया था कि अधिकार तीन वर्ष के लिये है। इस आधार पर उसने करार को शून्यकरणीय घोषित करवाने का प्रयास किया परन्तु न्यायालय ने निर्णय दिया कि भूल एकाकी टेड (Unilateral) है अथवा केवल एक पक्षकार की है; अत: इस आधार पर करार शून्यकरणीय नहीं हो सकती।132

भूल की परिशुद्धि (Rectification of Mistake)-जब कभी किसी संविदा को लिखित रूप में कर लिया गया है या किसी विलेख के पक्षकारों के आशय इसके निष्पादन के समय प्रकट नहीं होते हैं तो न्यायालय पक्षकारों के सही आशय के अनुसार विलेख या संविदा की परिशुद्धि कर सकते हैं।133 इस सम्बन्ध में प्रमुख अंग्रेजी वाद क्रेडाक ब्रदर्स बनाम हन्ट (Craddock Brothers v. Hunt)134 उल्लेखनीय है। इस वाद में क्रेता तथा विक्रेता के मध्य एक सम्पदा के विक्रय के सम्बन्ध में एक मौखिक करार था। जब उस करार को लिखा गया तो भूल से कुछ ऐसी भूमि का उल्लेख आ गया जिसे पक्षकार शामिल नहीं करना चाहते थे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त विलेख को पक्षकारों के आशय के अनुसार परिशुद्ध किया जाय।

परन्तु न्यायालय केवल निम्नलिखित दशाओं में परिशुद्धि का आदेश देंगे :

(1) विलेख के निष्पादन (execution) के पूर्व पक्षकारों का पूर्ण मतैक्य होना चाहिये।

(2) इसके पक्षकारों को स्पष्ट साक्ष्य देना होगा कि विलेख उनके आशय को प्रकट नहीं करता है।

(3) निष्पादन के समय तक पक्षकारों का आशय अपरिवर्तित रहना चाहिये तथा दोनों संव्यवहारों में शाब्दिक भिन्नता होनी चाहिए।135

भूल की परिशुद्धि से सम्बन्धित भारतीय प्रमुख वाद हाजी अब्दुल रहमान बनाम बाम्बे, पी० एस० एन० कम्पनी (Haji Abdul Rahman v. The Bombay P.S.N.Co.)136 है। इस वाद में वादी ने

130. ए० आई० आर० 1973 इलाहाबाद 288, 290.

* आई० ए० एस० (1977) प्रश्न 3 (क) के लिये भी देखें।

131. ए०आई० आर० 1970 मनीपुर 16.

132. अंग्रेजी विधि के लिये देखें : स्मिथ बनाम ह्यजेस (1871) एल० आर० 6 क्यू० बी० 597 .

133. ऐन्सन, नोट 93, पृ० 295

134. (1923) 2 सी० एच० 136.

135. ऐन्सन, नोट 93, 295.

136. आई०एल० आर० (1892)16 बम्बई 561.

प्रतिवादी का एक जहाज 10 अगस्त, 1892 के लिए इस गलत धारणा पर यात्रियों को बम्बई ले जाने के लिए भाड़े पर लिया कि उक्त दिन हज के बाद पन्द्रहवाँ दिन होगा परन्तु वास्तव में यह दिन 19 जुलाई, 1892 होता था। जब उसे यह पता चला तो उसने परिशुद्धि के लिये प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया। न्यायालय ने वादी की प्रार्थना को इस आधार पर ठुकरा दिया कि भूल केवल एक पक्षकार की थी। न्यायाधीश फरान (Farran, J.) ने कहा कि ऐसे मामले में न्यायालय विलेख की परिशुद्धि की आज्ञा नहीं देते हैं। यद्यपि उचित वाद में वह इसे रद्द कर सकते हैं। चूँकि इस वाद में वादी तथा प्रतिवादी दोनों सहमत थे कि संविदा रद्द कर दी जाय; न्यायालय ने संविदा के रद्द किये जाने के लिए आदेश दिया।

सिद्ध करने का भार (Burden of Proof)–जहां कोई संविदा मिथ्या व्यपदेशन, कपट या उत्पीड़न के कारण दूषित या प्रभावहीन हो जाता है, वह पक्षकार जो संविदा से उक्त आधारों पर इन्कार करता है, सिद्ध करने का भार उस पक्षकार पर होता है जो संविदा से इन्कार करता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने अल्वा एल्यूमिनियम लि० बैंगकाक बनाम गैब्रियल इण्डिया लि० (Alva Aluminium Ltd. Bangkok v. gabrial India Ltd.)137 के वाद में दिया था। इस वाद में तर्क यह था कि पक्षकारों के वाताचार वार्ता आदि का केवल संकेत मिलता है तथा जिस व्यक्ति ने दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किये थे वह उन पर हस्ताक्षर करने के लिये प्राधिकृत नहीं था तथा अनुचित रूप से उसे ऐसा करने को प्रेरित किया गया था। अत: उनके मध्य कोई वैध करार नहीं था। न्यायालय तथ्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पक्षकारों के मध्य वार्ताचार का आदान-प्रदान तथा पक्षकारों द्वारा निष्पादित किये गये दस्तावेजों से पता चलता है कि पक्षकारों ने संविदा पूर्ण की थी तथा संविदा पर हस्ताक्षर किये थे। जो पक्षकार संविदा को मिथ्या व्यपदेशन, कपट या उत्पीड़न के आधार पर अभिखण्डित करवाना चाहता है उस पर यह सिद्ध करने का भारी भार होता है कि वह सिद्ध करे कि संविदा मिथ्या व्यपदेशन, कपट या उत्पीडन द्वारा प्रेरित करके करवाया गया था। वर्तमान वाद में पक्षकार उक्त भार उतार नहीं पाया। अत: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पक्षकारों के मध्य वैध संविदा हुई थी जिसमें पक्षकारों के मध्य माध्यस्थम् (arbitration) का उपबन्ध भी था।138 उच्चतम न्यायालय के शब्दों में :

“A heavy duty lies upon the party who seeks to avoid a contract on the ground of misrepresentation fraud or coercion to prove any such allegation. Nothing of the sort has been done in the instant case by the respondent…………. In the totality of the above circumstances, I have no doubt that a legally valid contract had indeed come into existence between the parties which contained an arbitration clause for adjudication of disputes that may arise between them.”

137. (2011)1 एस० सी० सी० (सि०)71 : (2011) 1 एस० सी० सी० 167.

138. तत्रैव, पृष्ठ 80-81.

 

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