LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Acceptance Notes
LLB 1st Year Semester Law of Contract 1 Acceptance Notes: LLB Law 1st Year Semester Contact of Law 1 Chapter 3 Acceptance Notes Study Material with Question Answer Sample Model Papers in English Hindi की पोस्ट में आप सभी का स्वागत है | आज आप Contract of Law अध्याय 3 स्वीकृति के बारे में पढ़ने जा रहे है जिसे Law 1st Year में बहुत ही उपयोगी माना जाता है |
स्वीकृति (ACCEPTANCE) (Law LLB Notes)
संविदा के निर्माण में प्रस्ताव के पश्चात् अगला तथा महत्वपूर्ण कदम प्रतिग्रहण या स्वीकृति होती है। प्रसिद्ध विधिशास्त्री ऐन्सन (Anson) ने उचित ही लिखा है कि “स्वीकृति का प्रस्ताव के साथ वही सम्बन्ध है जो कि जलती हुई तीली का बारूद की गाड़ी के साथ” (“Acceptance is to offer what a lighted match is to a train of gunpowder’) जब तक कि कोई प्रस्ताव स्वीकृत नहीं है, इसके द्वारा कोई भी अधिकार या उत्तरदायित्व का उदय नहीं होता। स्वीकृति ही प्रस्ताव को संविदा में परिवर्तित कर देती है। धारा 2 (ख) के अनुसार जब कोई प्रस्ताव स्वीकार हो गया है तो वह प्रतिज्ञा (Promise) में परिणत हो जाता है। धारा 2 (ख) में स्वीकृति की निम्नलिखित परिभाषा दी गयी है
“जबकि वह व्यक्ति, जिसे प्रस्ताव किया जाता है, उसके प्रति अपनी अनुमति प्रदान करता है तब कहा जाता है कि प्रस्ताव स्वीकृत हो गया है।”
किसी स्वीकृति के बन्धनकारी होने के लिए कुछ शर्तों का पूरा होना आवश्यक है। ये शर्ते निम्नलिखित हैं
स्वीकृति का संसूचित किया जाना आवश्यक है (Acceptance must be communicated)उपर्युक्त वर्णित धारा 2 (ख) से यह स्पष्ट है कि स्वीकृति के बन्धनकारी होने के लिए उसकी संसूचना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में विख्यात वाद फेल्ट हाउस बनाम बिन्डले (Felt House v. Bindley)1 का उल्लेख यहाँ वांछनीय होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं :
इस वाद में वादी ने अपने भतीजे को पत्र द्वारा एक प्रस्ताव भेजा कि वह उसका घोड़ा 30 पौंड 15 शि० में खरीदना चाहता है। उसने पत्र में यह भी लिखा कि यदि उसे इस प्रस्ताव का कोई उत्तर नहीं मिलता तो वह समझेगा कि 30 पौंड 15 शि० में घोड़ा उसका हो गया। भतीजे ने इस प्रस्ताव का कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु उसने प्रतिवादी, जो कि एक नीलामकर्ता था, को निर्देश दिया कि वह उक्त घोड़ा न बेचे। यह स्पष्ट है कि वह घोड़ा अपने चाचा के लिये आरक्षित रखना चाहता था। परन्तु प्रतिवादी ने गलती से उस घोड़े को बेंच दिया, अतः वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध दावा दायर कर दिया। न्यायालय ने वाद को खारिज करते हुए यह निर्णय दिया कि चूँकि भतीजे ने अपनी स्वीकृति की संसूचना नहीं भेजी थी, अत: वादी तथा उसके भतीजे के मध्य कोई संविदा का निर्माण नहीं हुआ। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि स्वीकृति की संसूचना या तो प्रस्ताव करने वाले को स्वयं या उसके अधिकृत एजेन्ट को दी जानी चाहिये। किसी अजनबी को स्वीकृति की संसूचना देने से वैध संविदा नहीं होगी। प्रस्ताव करने वाला यह शर्त भी नहीं लगा सकता कि जिसको प्रस्ताव किया जा रहा है, वह यदि उसे स्वीकार नहीं करता है तो उसे इन्कार करे।*
फेल्ट हाउस बनाम बिन्डले2 के वाद में यह निर्णय दिया गया था कि प्रस्ताव करने वाला यह शर्त नहीं लगा सकता कि जिसे प्रस्ताव किया गया है, उसका यह उत्तरदायित्व हो कि वह यदि प्रस्ताव स्वीकार नहीं करता है तो उसे इन्कार करे। उक्त वाद में चाचा ने अपने भतीजे को लिखा था कि यदि उसकी ओर से कोई उत्तर नहीं आता है तो वह समझेगा कि 30 पौंड 15 शि० में घोड़ा उसका हो गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि भतीजे के केवल चुप रहने से इसे स्वीकृति नहीं समझा जा सकता।
1. (1863)7 एल० टी० 835.
* आई० ए० एस० (1976) प्रश्न 1 (ब); पी० सी० एस० (1984) प्रश्न 1 (अ) के लिए भी देखें-यह दोनों प्रश्न फैल्ट हाउस बनाम बिन्डले के वाद पर आधारित हैं, केवल तथ्य में कुछ परिवर्तन कर दिया गया है।
2. देखें नोट 1
इस सिद्धान्त का भारत के उच्चतम न्यायालय ने भगवान दास बनाम गिरधारी लाल एण्ड कम्पनी (Bhagvandas v. Girdharilal & Co)3 के वाद में अनुमोदन कर दिया है। उच्चतम न्यायालय के शब्दों
“The offerer cannot impose upon the offeree the obligation to accept, nor proclaim that silence of the offeree shall be deemed consent. A contract being the result of an offer made by one party and acceptance of the very offer by the other, acceptance of the offer and intimation of acceptance by some external manifestation which the law regards as sufficient is necessary.”
दृष्टान्त
‘अ’ द्वारा बिना मांगे ही एक विधि पुस्तक-विक्रेता ने उसके पास डाक द्वारा एक मूल्यवान विधि की पुस्तक यह लिखकर भेज दी कि यदि वह पुस्तक को लौटाता नहीं है तो यह मान लिया जायगा कि वह इसे स्वीकार कर रहा है। ‘अ’ ने बिना मांगे अपने पास पुस्तक भेजने को बुरा माना किन्तु न तो उसे लौटाने का कष्ट उठाया और न ही उस विषय में पुस्तक-विक्रेता के पास कोई पत्र लिखा। कुछ समय पश्चात् पुस्तक विक्रेता ने जब पुस्तक की कीमत माँगी तब ‘अ’ ने उसे देने से मना कर दिया। ‘अ’ पुस्तक को लौटाने को अवश्य तैयार था किन्तु पुस्तक विक्रेता ने उसे इसलिए नहीं लिया कि इस बीच में पुस्तक का नया संस्करण प्रकाशित हो चुका था। क्या ‘ब’ का पुस्तक विक्रेता के प्रति कोई दायित्व था।* जैसा कि उपर्युक्त वर्णित फेल्ट हाउस बनाम बिन्डले तथा भगवान दास बनाम गिरधारी लाल के वाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रस्तावकर्ता स्वीकर्ता पर दायित्व नहीं लाद सकता है कि वह स्वीकृत न करने की दशा में अस्वीकृति की सूचना दे अन्यथा उसके चुप रहने से यह अर्थ लगाया जायगा कि उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। अतः ‘अ’ पुस्तक को लौटाने अथवा अस्वीकृति की संसूचना भेजने के लिए बाध्य नहीं था। चूँकि ‘अ’ तथा पुस्तक विक्रेता के मध्य कोई संविदा नहीं हुई। ‘अ’ उसके प्रति दायित्वाधीन नहीं था।
स्वीकृति की संसूचना उस व्यक्ति द्वारा की जानी चाहिये जिसे स्वीकार करने का अधिकार है-स्वीकृति की वैध संसूचना के लिए यह आवश्यक है कि संसूचना या तो वह व्यक्ति स्वयं करे जिसे प्रस्ताव किया गया है या उसका अधिकृत एजेन्ट करे। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा स्वीकृति की संसूचना वैध नहीं होगी। उदाहरण के लिए, पावेल बनाम ली (Powel v. Lee)4 के वाद में एक स्कूल के मैनेजर-बोर्ड ने एक प्रस्ताव द्वारा वादी को हेडमास्टर के पद पर चुन लिया। परन्तु अभ्यर्थी को इस निर्णय की संसूचना नहीं दी गयी। एक मैनेजर ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत से अभ्यर्थी को उक्त प्रस्ताव से अवगत करा दिया। बाद में मैनेजरी-बोर्ड ने अपने उक्त निर्णय को बदल दिया तथा वादी को हेडमास्टर के पद पर नियुक्त नहीं किया। वादी ने संविदा के उल्लंघन का दावा किया। न्यायालय ने वादी के वाद को खारिज करते हुए निर्णय दिया कि वैध संविदा का निर्माण नहीं हुआ था। स्वीकृति की संसूचना तभी वैध होती है जब कि वह उसी व्यक्ति द्वारा की जाय जिसे करने का अधिकार है। वैध संसूचना केवल वही व्यक्ति कर सकता है जिसे प्रस्ताव किया गया है या उसका अधिकृत एजेन्ट कर सकता है।
स्वीकृति का निष्कर्ष पक्षकारों के आचरण से भी निकाला जा सकता है-यह आवश्यक नहीं है कि स्वीकृति सदैव व्यक्त हो। इसका निष्कर्ष पक्षकारों के आचरण से भी निकाला जा सकता है। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण वाद ब्रागडन बनाम मेट्रोपोलिटन रेलवे कम्पनी (Brogden v. Metropolitan Railway Co.)5 का है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
इस वाद में प्रतिवादी को वादी द्वारा कुछ समय से कोयला तथा कोक उनके लोकोमोटिव के लिए बिना किसी करार के आधार पर दिया जाता रहा था। अत: उन्होंने निश्चय किया कि इस विषय में एक औपचारिक करार कर लिया जाय। प्रतिवादी ने वादी के पास करार का एक प्रारूप (draft) भेजा जिसमें कछ
3. ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 543, 547.
* पी० सी० एस०(1981) प्रश्न 1 (ग)
4. (1908) 91 एल० टी० 284.
5. (1877) 2 अपील केसेज 777.
स्थान वादी के हस्ताक्षर आदि के लिए छोड़ दिया गया था। वादी ने उन स्थानों को भर दिया, करार के कुछ शब्दों को परिवर्तित किया तथा हस्ताक्षर करके उसे प्रतिवादी के पास भेज दिया। प्रतिवादी के एजेन्ट ने उसे अपनी दराज में रख लिया और स्वीकृति की संसूचना नहीं भेजी। परन्तु वादी प्रतिवादी को उक्त करार की शर्तों के आधार पर कोयला देता रहा। बाद में उनके मध्य इस विषय में कुछ मतभेद तथा झगड़ा उत्पन्न हो गया। वादी का कथन था कि चूंकि प्रतिवादी ने अपनी स्वीकृति की संसूचना नहीं भेजी थी, अतः वह उक्त करार की शर्तों से आबद्ध नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि केवल चुपचाप रहने से स्वीकृति नहीं होती; परन्तु यह भी आवश्यक नहीं है कि स्वीकति सदैव व्यक्त (लिखित या शब्दों से) हो। पक्षकारों के आचरण से भी इसका निष्कर्ष निकाला जा सकता है। प्रस्तुत वाद में चूँकि प्रतिवादी ने कोयले के लिए आर्डर दिया तथा उसे स्वीकार किया तथा वादी ने कोयले को उक्त करार की शर्तों के अनुसार ही दिया। इस पर पक्षकारों के मध्य एक वैध संविदा का निर्माण हो गया, अत: न्यायालय ने वादी को जिम्मेदार ठहराया।
इसी प्रकार क्लार्क बनाम अर्ल आफ डुनरावेन (Clarke v. Dunraven) के वाद में नाव की दौड़ प्रतियोगिता में यह नियम था कि प्रतियोगिता के दौरान हानि के लिए प्रतियोगी उत्तरदायी होंगे। ‘सानतानिया’ (Santania) नामक नाव उक्त नाव-दौड़ में प्रतियोगी थी। जब वह दौड़ के प्रारम्भ के लिए अपनी नाव को सावधानी की स्थिति में चला रहा था, उसकी नाव ने एक अन्य नाव ‘वाल्कयारी’ (Volkirie) को टक्कर दे दी, जिससे वाल्कयारी नामक नाव डूब गयी। दोनों ही प्रतियोगी दौड़ के नियमों से बाध्य थे, यद्यपि उन दोनों में कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘सानतानिया’ हानि की पूर्ति करने को बाध्य था। लार्ड हरशेल (Lord Herschell) के शब्दों में-“The effect of their entering for the race, and undertaking to be bound by these rules to the knowledge of each other, is sufficient, where those rules indicate a liability on the part of the one to the other, to create a contractual obligation to discharge that liability.”?
आर० बनाम फुलहन, हैमरस्मिथ एण्ड केन्सिगटन रेन्ट ट्रिबुनल, एक्स-पार्टी जेरेक (R. V. Fulhan, Hammersmith and Kensington Rent Tribunal, ex-parte Zerek)8 के वाद में एक मकान-मालिक तथा किरायेदार के मध्य मकान को 35 शिलिंग साप्ताहिक किराये पर बिना फर्नीचर के पट्टे पर देने का मौखिक करार हुआ। तत्पश्चात् मकान-मालिक ने किरायेदार से अपना फर्नीचर 12 पौंड वार्षिक की दर से देने को कहा तथा कहा कि वह मकान का कब्जा तब तक नहीं देगा जब तक वह ऐसा न करे तथा एक विलेख का सत्यापन करते हुए निष्पादित करे कि मकान 15 शिलिंग साप्ताहिक पर फर्नीचर सहित दिया गया था। किरायेदार ने उक्त विलेख पर हस्ताक्षर कर दिया तथा मकान का कब्जा प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात् किरायेदार ने किराया-न्यायालय (Rent Tribunal) को एक प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया कि वह लैण्ड लार्ड एण्ड टेनन्ट (रेन्ट कन्ट्रोल) एक्ट, 1949 के अन्तर्गत बिना फर्नीचर के मकान का युक्तियुक्त किराया नियत कर दे। न्यायालय ने किरायेदार के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि प्रारम्भ में मकान को बिना फर्नीचर के किराये पर दिया गया था तथा किरायेदार द्वारा उक्त विलेख पर हस्ताक्षर करने से कोई वैध करार नहीं हुआ तथा इससे पहले वाले मौखिक करार का न तो स्थान ग्रहण किया तथा न इसने उसे संशोधित किया। न्यायालय ने किराया कम करके 15 शिलिंग प्रति सप्ताह कर दिया। इसके बाद मकान-मालिक ने शार्शिओरारी की रिट (writ of certiorari) के लिये प्रार्थना-पत्र दिया, परन्तु न्यायालय ने उसे अस्वीकार कर दिया तथा बाद वाले लिखित करार को वैध न मानते हुए मौखिक करार को ही उचित तथा वैध माना।
उपर्युक्त वाद का अनुमोदन करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इसका हवाला रामजी दयावाला एण्ड सन्स प्रा० लि० बनाम इन्वेस्ट इम्पोर्ट (Ramji Dayawala & Sons (P.) Ltd. v. Invest Import)9 के वाद में दिया। इस सम्बन्ध में विधि को स्पष्ट करते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति देसाई
6. (1879) ए० सी० 59.
7. तत्रैव, पृष्ठ 63.
8. (1951) 1 आल० ई० आर० 482.
9. ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 2085.
(Desai, J.)10 ने कहा कि “यह सत्य है कि सामान्य नियम यह है कि वचनग्रहीता के चुप रहने से प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं होती है। परन्तु ऐसा सम्भव हो सकता है कि कुछ अन्य तथ्यों तथा चुप रहने से स्वीकृति मान ली जाय। उदाहरण के लिए यदि वार्ता के दौरान प्रस्ताव का एक भाग विवादास्पद रहता है तथा वचनग्रहीता वचनदाता को यह संसूचना देता है कि उसने प्रस्ताव को किसी विशिष्ट अर्थों में समझा है, इस ससूचना का कदाचित प्रति-प्रस्ताव (counter-offer) माना जायेगा तथा ऐसी दशा में यह हो सकता है कि मालिक वचनदाता को केवल चुप्पी (mere silence) को उसकी स्वीकति मानी जायेगी।1 जहाँ किसी विलेख के किसी निबन्धन के बारे में कोई भूल होती है तथा प्रारूप के संशोधन की संस्तुति दी जाती है तथा प्रति-प्रस्ताव किया गया है, मौलिक संविदा पर हस्ताक्षर करने वाले को यह इन्कार करने से नहीं रोका जा सकता है कि उसका उद्देश्य विलेख में लिखित निबन्धनों के अनुसार प्रस्ताव करना था।12 अतः यह कहा जा सकता है कि जहाँ संविदा कई भागों में है तो संविदा की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि संविदा करने वाले पक्षकार ने समान चीज या बात के लिए समान अर्थों में सम्मति प्रदान की थी (consensus ad idem) । यदि किसी पक्षकार ने ऐसा आचरण किया है कि वह अपने आचरण से इन्कार नहीं कर सकता है तो यह माना जायेगा कि इस सम्बन्ध में उसने अपनी सम्मति प्रदान की है। इसके अतिरिक्त भी जो पक्षकार मौलिक संविदा में संशोधन या परिवर्तन का दावा करता है वह यह सिद्ध कर सकता है कि उसने मौलिक करार का कोई भाग स्वीकार नहीं किया था यद्यपि उसने उक्त भाग सहित करार पर हस्ताक्षर किये थे।
प्रस्ताव करने वाला स्वीकृति की संसूचना का अभित्याग कर सकता है (Communication of acceptance may be waived by the offeror)-चूँकि स्वीकृति की सूचना प्रस्ताव करने वाले के हित में होती है, अत: यदि वह चाहे तो उसका परित्याग कर दे। कार्लिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बाल कम्पनी (Carlill v. Carbolic.Smoke Ball Co.)13 के वाद में न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि वैध संविदा के लिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति की संसूचना दी जानी चाहिये। परन्तु चूँकि स्वीकृति की संसूचना प्रस्ताव करने वाले के हित में होती है, अतः वह व्यक्ति जो प्रस्ताव करता है यदि चाहे तो उसका अभित्याग कर सकता है। इस सिद्धान्त को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने हिन्दुस्तान कार्पोरेशन इन्श्योरेन्स सोसाइटी बनाम श्याम सुन्दर (Hindustan Corporation Insurance Society v. Shyam Sunder)14 के वाद में अनुमोदित कर दिया। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी इस सिद्धान्त का अनुमोदन भगवानदास गिरधारी लाल एण्ड कं०15 के वाद में कर दिया।
स्वीकृति पूर्ण तथा बिना शर्तों के होनी चाहिये तथा वह प्रस्ताव की शर्तों के समान होनी चाहिये*-वैध स्वीकृति के लिए एक अन्य आवश्यक शर्त यह है कि वह पूर्ण तथा बिना किसी शर्त के होनी चाहिये। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार स्वीकृति एक प्रस्ताव की प्रतिज्ञा में तभी परिणत कर सकती है जब वह पूर्ण तथा बिना शर्त हो। दूसरे शब्दों में स्वीकृति प्रस्ताव के शर्तों के समान होनी चाहिये। उदाहरण के लिए हाइड बनाम रेंच (Hyde v. Wrench)16 में प्रतिवादी ने अपने फार्म का वादी को एक हजार पौंड में बेचने के लिए प्रस्ताव किया; परन्तु वादी ने कहा कि वह केवल 950 पौंड पर ही खरीदने के लिए तैयार है। बाद में उसने फार्म को एक हजार पौंड में खरीदना स्वीकार कर लिया। परन्तु जब प्रतिवादी ने फार्म को बेचने से इन्कार कर दिया, वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध दावा दायर कर दिया। न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया तथा कहा कि वैध संविदा का निर्माण नहीं हुआ था; क्योंकि वादी का
10. रामजी दयावाला एण्ड सन्स प्रा. लि. बनाम इन्वेस्ट इम्पोर्ट, ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 2085, पृष्ठ 2092.
11. देखें: हैल्सबरीज लाज आफ इंग्लैंड, चौथा संस्करण, जिल्द 9, पैरा 2.
12. तत्रैव, पृष्ठ 252.
13. (1893) 1 क्यू० बी० 256, 269.
14. ए० आई० आर० 1952 कलकत्ता 69.
15. ए० आई० आर० 1969 एस० सी० 543, 547.
* सी० एस० ई० (1993) प्रश्न 1 (अ) के लिये भी देखें।
16. (1840) बीव० 334.
यह कहना कि वह केवल 950 पौंड में खरीदेगा, वास्तव में एक प्रति-प्रस्ताव (counter-offer) था जिसने मूल प्रस्ताव को ही नष्ट कर दिया।
अतः प्रस्ताव तथा स्वीकृति एक-दूसरे के समान होने चाहिये। भारतीय संघ बनाम उत्तम सिंह दुग्गल एण्ड कम्पनी प्राइवेट लिo (Union of India v. Uttam Singh Duggal & Co. Pvt. Ltd.) में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि-“जब प्रस्ताव तथा स्वीकृति में किसी भी महत्वपूर्ण शर्त के सम्बन्ध में कोई भिन्नता होती है, तो स्वीकृति को पूर्ण नहीं कहा जा सकता तथा उससे एक वैध सविदा का निर्माण नहीं होगा।” न्यायालय के शब्दों में– “When there is variance between the offer and acceptance even in respect of any material term, acceptance cannot be said to be absolute and the same will not be in the formation of legal contract.” इस सिद्धान्त का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने एक वाद में कर दिया है।18 इसी प्रकार का निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय ने मेसर्स सूरज बेसन एण्ड राइस मिल्स बनाम फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया (M/s Suraj Besan and Rice Mills v. Food Corporation of India)19 के वाद में दिया। परन्तु यदि किसी विक्रय में एक पक्षकार कोई शर्त पूरी नहीं करता है तथा दूसरे पक्षकार को उक्त शर्त का अभित्याग करने का अधिकार है तथा वह इसका अभित्याग कर देता है तो संविदा पूर्ण मानी जायेगी, उदाहरण के लिए, मेसर्स बिसमी अब्दुल्ला एण्ड सन्स, मर्चेन्ट्स एण्ड कमीशन एजेन्ट्स बनाम रीजनल मैनेजर, एफ० सी० आई० ट्रिवेन्द्रम तथा अन्य (M/s Bismi Abdullah & Sons, Merchants & Commission Agents v. Regional Manager, F.C.I., Trivandrum and another20 के वाद में निविदा की शर्त यह थी कि यदि निविदा के साथ प्रतिभू जमा नहीं किया गया तो वह अस्वीकृत की जा सकती है। प्रतिवादी ने निविदा के साथ प्रतिभू जमा नहीं किया। परन्तु वादी ने निविदा को अस्वीकृत नहीं किया। केरल उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने निर्णय दिया कि उक्त प्रावधान से पता चलता है कि एफ० सी० आई० को प्रतिभू जमा की उक्त शर्त का अभित्याग करने का अधिकार था। वादी ने प्रतिवादी द्वारा वर्णित दरें स्वीकार कर लीं। अत: दोनों के मध्य संविदा पूर्ण हो गई 121
परन्तु जहाँ निविदा आमन्त्रित की गई, पक्षकारों के मध्य बातचीत तथा शर्ते तय की गईं तथा बाद में निविदा की स्वीकृति फैक्स द्वारा की गई, संविदा पूर्ण मानी जायगी तथा निविदाकर्ताओं के संयुक्त हस्ताक्षर, बैंक गारंटी पश्चात्वर्ती शर्ते हैं जिन्हें सशर्त स्वीकृति या प्रति-प्रस्ताव (counter offer) नहीं कहा जा सकता है।22
जहाँ कोई निविदाकर्त्ता (tenderer) अपनी निविदा भेजता है तथा उसकी निविदा को फैक्स (Fax) द्वारा इस शर्त के साथ स्वीकार किया जाता है कि भुगतान के बारे में वार्ता द्वारा तय किया जायगा, तत्पश्चात् इस सम्बन्ध में बातचीत होती है जिसमें निविदाकर्ता भी भाग लेता है तथा बाद में भुगतान की पुनरीक्षित अनुसूची प्रेषित करता है, पक्षकारों के मध्य संविदा पूर्ण नहीं मानी जायगी।23
17. ए० आई० आर० 1972 दिल्ली 110, 116.
18. देखें : मध्य प्रदेश राज्य बनाम फर्म गोवर्द्धन दास कैलाश नाथ, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 1164, ए० आई० आर० 1974 मद्रास 39; ए० आई० आर० 1942 पी० सी० 34, छोटेलाल गुप्ता बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर० 1947 इलाहाबाद 329, 334-335.
19. ए० आई० आर० 1988 दिल्ली 224.
20. ए० आई० आर० 1987 केरल 56.
21. तत्रैव, पृष्ठ 59; छोटेलाल गुप्ता (मतक तथा जिनकी ओर से उनके विधिक प्रतिनिधि थे) बनाम भारतीय संघ, ए० आई० आर० 1987 इलाहाबाद 329, 334-335%; हेनरी अर्नेस्ट मीने बनाम इ०सी० आथर वाकर, ए० आई० आर० 1947 इलाहाबाद 332; बद्री प्रसाद बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 706 को भी देखें।
22. डी रेन इन्टरनेशनल लि० बनाम इंजीनियर लि०, ए० आई० आर० 1996 कलकत्ता 424, 434, 438.. 23. देखें : ए० आई० आर० 1997 पंजाब एवं हरयाणा 43.56-57. मेसर्स मेमन इंडिया लि. बनाम पंजाब राज्य विद्युत परिषद।
दृष्टान्त
डिविजनल फारेस्ट आफिसर (प्रतिवादी) ने वादी को 1-2-1955 को पत्र लिखा कि “कृपया सूचित कीजिये कि बड़े पेड़ों के लिए 17.000 रुपये अधिक देकर संविदा करने को तैयार हैं। आपको संविदा केवल इसी शर्त के साथ दिया जा सकता है। इस पत्र-प्राप्ति के सात दिन के अन्दर आप अपनी इच्छा सूचित करें। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो यह समझा जायगा कि आप समझौते में अपनी रुचि नहीं रखते। आपसे पत्र प्राप्त होने पर प्रदेश सरकार को सूचित किया जायगा।” वादी ने 5-2-1955 को उत्तर दिया कि “मैं 17,000 रुपये देने को तैयार हूँ बशर्ते कि न्यायालय के निर्णय के पश्चात् मुझे 17,000 रुपये लौटा दिये जायें या जो भी अनुतोष मिल सके वह मुझे दिया जाय। इन शर्तों पर आधारित मैं आपके उल्लिखित पत्र के अनुसार 17,000 रुपये दे दूँगा।” क्या यह संविदा विधि द्वारा प्रवर्तनीय है?* यह करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है क्योंकि धारा 7 (1) के अनुसार स्वीकृति पूर्ण तथा बिना शर्त के होनी चाहिये। वादी ने प्रस्ताव स्वीकृत करते समय यह शर्त लगा दी कि 17,000 रुपये इस शर्त के साथ देगा कि न्यायालय के निर्णय के बाद उक्त धन लौटा दिया जाय अथवा न्यायालय जो भी अनुतोष दे वह उसे दिया जाय। अतः धारा 7 (1) के अर्थों में यह, स्वीकृति पूर्ण तथा बिना शर्त नहीं है। अत: पक्षकारों के मध्य संविदा पूर्ण नहीं हुई। वास्तव में वादी द्वारा शर्त लगाने से प्रस्ताव, प्रति-प्रस्ताव (Counter offer) बन गया तथा प्रतिवादी द्वारा इसे स्वीकार करने पर संविदा पूर्ण हो सकती है।
यू० पी० राजकीय निर्माण निगम लि. बनाम इन्ड्योर प्राइवेट लि० (U. P. Rajkiya Nirman Nigam v. Indure P. Ltd.)24 के वाद में उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद ने कुछ निर्माण कार्य के लिये निविदायें आमंत्रित कीं। अपीलार्थी निगम ने परिषद से निविदा दस्तावेज क्रय कर लिये। इसी बीच प्रत्यर्थी कम्पनी ने अपीलार्थी से सम्पर्क किया तथा संयुक्त रूप से निविदा भेजने का प्रस्ताव रखा, अतः दोनों के मध्य विचार-विमर्श के पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि इस सम्बन्ध में करार किया जाय। तत्पश्चात् अपीलार्थी ने एक प्रारूप प्रत्यर्थी के पास भेजा। इस प्रारूप करार में एक माध्यस्थम क्लाज (क्लाज 10) तथा एक संयुक्त दायित्व क्लाज (क्लाज 12) था। प्रत्यर्थी ने क्लाज 10 को काट दिया तथा क्लाज 12 को सारवान रूप से परिवर्तित करने के पश्चात् करार पर हस्ताक्षर किया। इसके बाद दोनों के मध्य कोई बातचीत नहीं हुई, अतः अपीलार्थी ने अकेले ही निविदा प्रस्तुत की। प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी के विरुद्ध नुकसानी का वाद किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा के सारवान निबन्धनों के बारे में सम्मति (consensus ad idem) नहीं हुआ अतः संविदा पूर्ण नहीं हुई।25
मुख्य सिद्धान्त यह है कि यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह पक्षकारों के मध्य पत्र व्यवहार को इस निष्कर्ष पर पहुँचने की दृष्टि से देखे कि क्या पक्षकारों के मस्तिष्क का मिलन हुआ है जिससे कि उनके बीच बाध्यकारी संविदा हुई है। न्यायालय पत्र व्यवहार में प्रयोग की गई स्पष्ट भाषा के बाहर जाकर पक्षकारों के मध्य संविदा उत्पन्न नहीं कर सकता है, वह केवल विधि के कुछ लक्ष्यार्थ निकाल सकता है। जब तक कि पत्र व्यवहार से स्पष्ट रूप से यह प्रकट नहीं होता है कि किसी मामले में दोनों के मस्तिष्क मिले हैं यह नहीं कहा जा सकता कि पत्र व्यवहार द्वारा उनके मध्य एक करार हुआ है। न्यायालय को यह देखना होता है कि पक्षकारों ने क्या लिखा तथा किस प्रकार कृत्य किया जिससे इस पत्र व्यवहार में व्यक्त उनके आशय से यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि उनके मध्य एक बाध्यकारी संविदा हो गई। पक्षकारों के आशय का पता उनके द्वारा पात्र व्यवहार में प्रयोग की गई अभिव्यक्ति तथा उनके अर्थ से लगाया जा सकता है। यदि इससे यह दर्शित होता है कि पक्षकारों के मस्तिष्कों का मिलन हुआ था तथा उन्होंने सभी सारवान निबन्धनों को तय किया था. तथा केवल तभी यह कहा जा सकता है कि पत्र व्यवहार द्वारा उनके मध्य बाध्यकारी करार हआ
* पी० सी० एस० (1983) प्रश्न 4 (क)।
24. ए० आई० आर० 1996 ए० सी० 1373.
25. तत्रैव, पृष्ठ 1376.
था। उच्चतम न्यायालय ने विधि की इस स्थिति का स्पष्टीकरण मेसर्स रिकमर्स वरवाल्टन्ग गिम्ब एच० बनाम इंडियन आयल कार्पोरेशन लि. (M/s Rickmers Verwaltung Gimb H. V. Indian Oil Corporation)26 के वाद में किया था।
इस वाद में पक्षकारों ने प्ररूप चार्टर निष्पादित किया था। परन्तु यह प्रवर्तनीय नहीं हो सका क्योंकि क्रेडिट का पत्र तथा पालन की गारन्टी के निबन्धनों के बारे में पक्षकारों ने तय नहीं किया था। न्यायालय को यह निर्णय देना था कि क्या पक्षकारों के मध्य बाध्यकारी करार हआ था तथा क्या माध्यस्थम से सम्बन्धित क्लाज विधि की दष्टि से लाग हआ था। प्रस्तत वाद में, पर्ण पत्र व्यवहार से यह प्रकट होता है कि पक्षकारा के मध्य बाध्यकारी संविदा नहीं हुई थी क्योंकि क्रेडिट के पत्र तथा पालन गारंटी के निबन्धों को पक्षकारों ने तय नहीं किया था। इन बातों की अनुपस्थिति में पक्षकारों के मध्य प्रवर्तनीय संविदा उत्पन्न नहीं हुई थी। पक्षकारों के मध्य के पत्र व्यवहार से केवल सौदेबाजी (bargaining) आदि हुई थी परन्तु कुछ तय नहीं हुआ था। अत: पक्षकारों के मध्य बाध्यकारी संविदा उत्पन्न नहीं हुई थी अत: विधि की दृष्टि में माध्यस्थम क्लाज लागू नहीं हुआ था।27
इस प्रकार, किसी शर्त के साथ या कुछ भिन्नता के साथ किसी प्रस्ताव की स्वीकृति वैध स्वीकृति नहीं है। किसी प्रस्ताव को वचन में परिवर्तित करने के लिये, स्वीकृति पूर्ण एवं बिना शर्त होनी चाहिये।28 किसी प्रस्ताव की स्वीकृति प्रस्ताव की शर्तों के समान एवं अनुरूप होनी चाहिये। वास्तव में किसी प्रस्ताव की शर्त सहित स्वीकृति प्रस्ताव के उत्तर में एक नया प्रस्ताव है एवं यह ऐसी संविदा नहीं है जिसका विनिर्दिष्ट पालन हो सके।29 किसी प्रस्ताव के केवल एक भाग की स्वीकृति विधि की दृष्टि में स्वीकृति नहीं होगी।30
केरल फाइनेन्शियल कार्पोरेशन बनाम विन्सेण्ट पॉल (Kerala Financial Corporation v. Vincent Paul)31 के वाद में अपीलार्थी ने ‘स’ परिसर के विक्रय के लिये निविदा आमन्त्रित की। परिसर की कीमत 8.25 लाख रुपये नियत की। विन्सेण्ट पॉल सबसे अधिक बोली लगाने वाले थे। अपीलार्थी ने विन्सेण्ट पॉल को संसूचित किया कि वह कीमत का 25 प्रतिशत एक सप्ताह के अन्दर जमा कर दे तथा शेष धन एक माह के भीतर जमा करना होगा। विन्सेण्ट पॉल ने एक सप्ताह के अन्दर कोई उत्तर नहीं दिया। तत्पश्चात् विन्सेण्ट पॉल ने 10,000 रुपये अग्रिम धन के रूप में जमा कर दी। इसके पश्चात् विन्सेन्ट पाल ने के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद किया। परीक्षण न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया परन्तु अपील में उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी के पक्ष में डिक्री पारित कर दी। उच्चतम न्यायालय से इस निर्णय को उलटते हुये निर्णय दिया कि अपीलार्थी की विन्सेण्ट पॉल की संसूचना पूर्ण न होकर कुछ शर्तों के अधीन थी। विन्सेन्ट पॉल ने विक्रय की पुष्टि नहीं की क्योंकि उसने अपीलार्थी का कोई उत्तर नहीं दिया। 10,000 रुपये जमा करके विन्सेण्ट पॉल उसका लाभ नहीं उठा सकता क्योंकि संविदा पूर्ण नहीं हुई। अत: विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित करने का कोई औचित्य नहीं था।32
संसूचना का ढंग (Mode of Communication)
(1) जब संसूचना का ढंग निर्धारित नहीं होता है-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार प्रस्ताव को प्रतिज्ञा (Promise) में परिवर्तित करने के लिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति उसी ढंग से की जानी चाहिये जिस ढंग से प्रस्ताव निर्धारित करता है। यदि प्रस्ताव में कोई ढंग निर्धारित नहीं होता है तो यह उसी प्रकार से होना चाहिये जैसा कि आम तौर से होता है। उदाहरण के लिए यदि प्रस्ताव डाक से
26. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 504, 505, 509.
27. तत्रैव, पृष्ठ 509.
28. देखें : विश्व इन्डस्ट्रियल कंपनी प्राइवेट लि. बनाम महानदी कोलफील्ड्स, ए० आई० आर० उड़ीसा 71, 73.
29. देखें : क्लारिनेस इनफोटेक प्राइवेट लि. बनाम बरेन्द्र कपूर, ए० आई० आर० 2009 बम्बई 1, 5.
30. मेसर्स टेकनोकाम बनाम रेलवे बोर्ड, ए० आई० आर० 2009 पटना 15, 16.
31. (2011) 2 ए० सी० सी० (सि०) 181.
32. तत्रैव, पृष्ठ 187-188.
किया जाता है और कोई भी ढंग निर्धारित नहीं किया जाता है तो स्वीकृति भी डाक से की जानी चाहिये।
(2) जब संसूचना का ढंग निर्धारित होता है-जब प्रस्ताव करने वाला स्वीकृति की संसूचना का ढंग निर्धारित करता है तो स्वीकति उसी ढंग से की जानी चाहिये। यदि कोई भी भिन्नता होती है या स्वीकृति किसी अन्य ढंग से की जाती है तो स्वीकृति वैध नहीं होगी। इलियासन बनाम हेन्शा (Eliason v. Henshaw)53 का वाद इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस वाद में वादी ने प्रतिवादी से कुछ आटा खरीदने का प्रस्ताव किया। उसने प्रस्ताव एक वैगन (Wagon) द्वारा भेजा और प्रतिवादी से प्रार्थना की कि वह उसका उत्तर भी वैगन द्वारा भेजे। परन्तु प्रतिवादी ने अपना उत्तर डाक द्वारा यह सोचकर भेजा कि वह वैगन से पहले पहुँचेगा। परन्तु पत्र वैगन के पहुँचने के बाद पहुँचा। वादी ने आटा खरीदने से इन्कार कर दिया। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी को अधिकार था कि वह आटा खरीदने से इन्कार कर दे। क्योंकि उसने स्वीकृति की संसूचना का जो ढंग निर्धारित किया था उसका पालन नहीं किया गया।
भारत में इस सम्बन्ध में नियम कुछ भिन्न है। भारत में यदि स्वीकृति निर्धारित ढंग से नहीं की जाती है तो प्रस्ताव करने वाले का यह कर्त्तव्य होता है कि वह उचित समय के अन्दर उसे मानने से इन्कार कर दे। यदि वह ऐसा उचित समय के अन्दर नहीं करता तो यह माना जायेगा कि उसने उसे स्वीकार कर लिया है। यह प्रावधान भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 7 में वर्णित है।
दृष्टान्त
‘एस०’ ने ‘पी०’ को निम्नलिखित शब्दों में एक प्रस्ताव भेजा :
“मैं अपना मकान 40,000 रुपये में बेचना चाहता हूँ। यदि तुम इसके लिये इच्छुक हो, तो ‘के’ को उसके पते पर लिखो।” बजाय ‘के’ को लिखने के क्रेता ‘पी’ ने अपने एक एजेन्ट को ‘के’ के पते पर भेज दिया तथा 40,000 रुपये में मकान खरीदने की इच्छा प्रकट की। ‘पी’ ने ‘एस’ से मकान देने का कहना था कि स्वीकृति वैध नहीं थी।
यहाँ, पर ‘एस’ का तर्क न्यायोचित नहीं है क्योंकि यदि स्वीकृति निर्धारित ढंग से नहीं हुई थी उसे यह कहना चाहिये था कि स्वीकृति निर्धारित ढंग से ही हो। बजाय यह कहने के जब मकान उससे मांगा गया तो इसने कहा कि स्वीकृति वैध नहीं थी क्योंकि निर्धारित ढंग से नहीं की गयी थी। अत: यह माना जायेगा कि स्वीकृति वैध है तथा संविदा पूर्ण हो गयी।
स्वीकृति कब पूर्ण होती है ? (Acceptance when complete ?)-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 4 के अनुसार प्रस्ताव के विरुद्ध स्वीकृति की संसूचना उस समय पूर्ण होती है जबकि वह उसका पारेषण कर देता है (puts it in the course of transmission) जिससे वह स्वीकृति करने वाले की शक्ति से परे हो जाता है। परन्तु स्वीकृति करने वाले के विरुद्ध संसूचना तब पूर्ण होती है जब वह प्रस्तावक के ज्ञान में आ जाता है। यह बात निम्नलिखित उदाहरण से और भी स्पष्ट हो जाती है :
ख क के प्रस्ताव को पत्र द्वारा स्वीकार करता है। क के विरुद्ध स्वीकृति की संसूचना उस समय पूर्ण हो जाती है जबकि पत्र डाक में डाला जाता है और ख के विरुद्ध संसूचना उस समय पूर्ण होती है जब कि क पत्र को प्राप्त कर लेता है।34 बीमे के प्रस्ताव की स्वीकृति उस समय पूर्ण होती है जब इसकी संसूचना प्रस्तावक को दे दी जाती है। प्रार्थी या प्रस्तावक की मृत्यु के पश्चात् केवल प्रीमियम की प्राप्ति या उसके रोकने से स्वीकृति नहीं मानी जायगी। स्वीकृति की संसूचना पक्षकारों द्वारा तय किये किसी कृत्य या कृत्यों द्वारा किया जाना चाहिये या किसी ऐसे कृत्य द्वारा किया जाना चाहिये जिससे विधि की उपधारणा उत्पन्न होती है कि स्वीकृति हो गयी। यह विचार उच्चतम न्यायालय ने हाल के वाद लाइफ इन्श्योरेंस कारपोरेशन आफ इण्डिया बनाम राजा वासीरेड्डी कोमलवल्ली काम्बा तथा अन्य (Life Insurance
33.. (1819) 4 व्हीटन 225.
* आई० ए० एस० (1976) प्रश्न 1 (ग)।
34. धारा 4 का दृष्टान्त (ख)।
Corporation of India v. Raja Vasireddy Komalavalii Kamba and others)35 के वाद में व्यक्त किये हैं।
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि पूर्ण संविदा (concluded contract) के मामले में विबन्धन (promissory estoppel) का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। यह सिद्धान्त उस दशा में लागू होता है जहाँ संविदा पूर्ण नहीं होती है। यह विचार कलकत्ता उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने सी० बी० इन्टरप्राइजेज बनाम मेसर्स ब्रेथवेट एण्ड कं० लि. तथा अन्य (C. V. Enterprises v. M/s Braithwaite & Co. Ltd. & others)50 के वाद में व्यक्त किये हैं। इस वाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मोतीलाल पदमपति सुगर मिल्स कं० (प्राइवेट) लि० बनाम उत्तर प्रदेश राज्य37 के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित नियम को लागू किया।
डाक द्वारा स्वीकृति (Acceptance by post) डाक द्वारा स्वीकृति के मामले में एक कठिन प्रश्न यह उठता है कि स्वीकृति कब पूर्ण मानी जाय अथवा संविदा का निर्माण कब होता है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में पिछली शताब्दी में बहुत अधिक मुकदमेबाजी हुई। इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम महत्वपूर्ण वाद एडम्स बनाम लिन्डसेल (Adams v. Lindsell) का है।38 इस वाद में प्रतिवादी ने अपने एक पत्र दिनांक सितम्बर 2, 1817 द्वारा वादी को कुछ ऊन बेचने का प्रस्ताव किया। यह पत्र 5 सितंबर, 1817 को वादी को वादी ने उसी दिन अर्थात् 5 सितंबर को स्वीकृति का पत्र डाक में डाल दिया जो कि प्रतिवादी को 9 सितंबर, 1817 को प्राप्त हुआ। परन्तु प्रतिवादी ने 8 सितंबर तक प्रतीक्षा करके 9 सितंबर को ऊन किसी अन्य व्यक्ति को बेच दिया। वादी ने संविदा के उल्लंघन का दावा दायर किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी संविदा के उल्लंघन का उत्तरदायी है।
न्यायालय के अनुसार डाक द्वारा संविदा उस समय पूर्ण होती है जबकि स्वीकृति का पत्र डाक में डाल दिया जाता है। इस नियम का कारण स्पष्ट करते हुए न्यायालय ने यह कहा कि यदि प्रतिवादीगण अपने प्रस्ताव से उस समय तक आबद्ध नहीं थे जब कि उन्हें वादीगण का उत्तर प्राप्त हुआ तब वादीगण भी उस समय तक उससे बाध्य नहीं होने चाहिये जब तक कि उन्हें इस बात की सूचना न मिल जाय कि प्रतिवादीगण को उनके उत्तर की सम्मति प्राप्त हो गई और इस प्रकार से यह सिलसिला निरन्तर चलता ही रहेगा। (“If the defendants were not bound by their offer when accepted by the plaintiffs till the answer was received, then the plaintiffs ought not be bound till after they had received the notification that the defendants had received their answer and assented to it, and so it might go on and infinitum.”).
हाउस ऑफ लार्ड्स ने उपर्युक्त नियम डनलप बनाम विन्सेन्ट हिग्गिन्स (Dunlop v. Vincent Higgins)39 के वाद में अनुमोदित कर दिया। इस सम्बन्ध में एक अन्य महत्वपूर्ण वाद हाउसहोल्ड्स फायर एण्ड ऐक्सीडेंट इन्श्योरेंस कम्पनी बनाम ग्रान्ट (Households Fire and Accident Insurance Co. V. Grant)40 है। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
इस वाद में प्रतिवादी ने वादी की कम्पनी में कुछ शेयर्स खरीदने के लिए एक प्रार्थना-पत्र दिया। वादी ने स्वीकृति का पत्र भेज दिया जो प्रतिवादी को कभी नहीं मिला। परन्तु फिर भी न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा का निर्माण हो चुका था जबकि स्वीकृति का पत्र डाक में डाल दिया गया; अत: प्रतिवादी उस स्वीकृति से आबद्ध था।
35. ए० आई० आर० 1984 एस० सी० 1014, 1018.
36. ए० आई० आर० 1984 कलकत्ता 06.
37. ए० आई० आर० 1979 एस० सी०621.
38. (1818) 106 ई० आर० 250.
39. (1848)1 एच० एल० सी० 381.
40. (1879) एल० आर० 4 एक्स० डी० 29 (सी० ए०)।
इस नियम को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा मेसर्स जे० के० इन्टरप्राइजेज बनाम मध्य प्रदेश राज्य (M/s J. K. Enterprises v. State of M.P.)41 के वाद में लागू किया गया।
यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि जब संसूचना प्रस्तावक के पास नहीं पहुँचती है तो स्वीकृतकर्ता द्वारा यह सिद्ध करना आवश्यक है कि पत्र या तार जो प्रस्तावकर्ता के पास भेजा गया उसका पता सही था अन्यथा डाक द्वारा भेजने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उसने पत्र या तार प्रस्तावकर्ता के पास भेजे जाने के लिए पारेषण कर दिया था (Put in the course of transmission) । केवल यह कथन कि पत्र भेजा गया था यथेष्ट नहीं है। पत्र का दिनांक, भेजे जाने का ढंग तथा पता दर्शित किया जाना आवश्यक है। विधि की उपर्युक्त स्थिति मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कल्लूराम केसरवानी बनाम मध्य प्रदेश राज्य तथा अन्य (Kalluram Kesharvani v. State of Madhya Pradesh and others)42 के वाद में स्पष्ट की। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं
मध्य प्रदेश राज्य ने गजट अधिसूचना द्वारा रेवा के जंगल के खण्ड में तेंदू (Tendu) की पत्तियों को एकत्रित करने के लिए निविदा 5,000 अग्रिम धन के साथ आमन्त्रित किये। पेटिशनर ने 19-1-1979 को .5000 रुपये अग्रिम धन के साथ निविदा प्रेषित की। प्रत्यर्थी का कहना था कि उन्होंने प्रस्ताव की स्वीकृति की संसूचना पत्र द्वारा भेज दी थी। दूसरी ओर पेटिशनर का कहना था कि उसे स्वीकृति की संसूचना प्राप्त नहीं हुई। न्यायालय ने यह पाया कि प्रत्यर्थी द्वारा अभिकथित पत्र में न तो दिनांक अंकित था न ही मेमो संख्या अंकित थी तथा न ही वन संरक्षक के ही हस्ताक्षर थे। परन्तु उक्त पत्र की प्रतिलिपि रेवा वन के डिविजनल अधिकारी को भेजी गई थी। अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थी यह सिद्ध नहीं कर पाये कि उन्होंने निविदा की स्वीकृति की संसूचना प्रस्तावकर्ता अर्थात् पेटिशनर को भेजी थी अत: स्वीकृति की संसूचना की अनुपस्थिति में पक्षकारों के मध्य वैध संविदा निर्मित नहीं हुई।43
बड़ौदा आयल केक्स ट्रेडर्स बनाम पुरुषोत्तमदास नारायणदास बगूलिया (Baroda Oil Cakes Traders v. Purshottamdas Naraindas Bagulia)44 के वाद में न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर (Gajendra Gadakar, J.) ने उक्त सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि स्वीकृति किसी कारण से प्रस्ताव करने वाले व्यक्ति के पास नहीं भा पहुचता है तो भासविदा पूर्ण होगा और उससे पक्षकारो के उत्तरदायित्व उत्पन्न होंगे।
भगवानदास बनाम बनवारीलाल45 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उचित ही मत प्रकट किया है कि उपर्युक्त नियम वाणिज्यिक सुविधा पर आधारित है, यद्यपि यह संविदा के निर्माण की नींव, अर्थात् पक्षकारों के मस्तिष्कों के मिलन (meeting of minds) के सिद्धान्त के विपरीत है। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि इस अपवाद को ब्रिटेन तथा अन्य देशों में, जहाँ कि संविदा विधि इंग्लैंड की सामान्य विधि (Common Law) पर आधारित है, माना जाता है। भारत में भी इस नियम को स्वीकार किया जा
अत: सामान्य नियम यह है कि स्वीकृति तब तक पूर्ण नहीं होती है जब तक कि प्रस्ताव करने वाले के पास पहँच नहीं जाती। परन्तु डाक द्वारा स्वीकृति इस सामान्य नियम का अपवाद है। स्वीकृति के परिदान का स्थान सारवान नहीं होता है तथा इससे वाद का कारण (cause of action) नहीं बनता है 46
दृष्टान्त
(1) ‘ख’ ‘क’ के प्रस्ताव की स्वीकृति पत्र द्वारा डाक से भेजता है। स्वीकृति से सम्बन्धित ‘क’ तथा ‘ख’ की स्थिति का उल्लेख कीजिये।
41. ए० आई० आर० 1997 एम० पी० 68, 70.
42. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 204, 206-207.
43. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 204, पृ० 207.
44. ए० आई० आर० 1954 बम्बई 491.
45. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 543, 548.
46 मेसर्स प्राग्रेसिव कान्सट्रक्सन्स लि० बनाम भारत हाइड्रो पावर कार्पोरेशन लि०, ए० आई० आर० 1996 दिल्ली 92, 95
* आई० ए० एस० (1978) प्रश्न 1 (ग)।
धारा 4 के अनुसार, प्रस्तावकर्ता (अर्थात् ‘क’) के विरुद्ध स्वीकृति उसी समय पूर्ण हो जाती है जैसे उसके पास भेजे जाने के लिये पत्र डाक में डाला जाता है जिससे कि पत्र स्वीकृतिकर्ता के अधिकार के परे चला जाता है। परन्त स्वीकतिकर्ता (अर्थात ‘ख’) के विरुद्ध, स्वीकृति की संसूचना उस समय पूर्ण होती है जब वह प्रस्तावकर्ता (अर्थात् ‘क’) के ज्ञान में आता है। यह बात धारा 4 के दृष्टान्त (ख) से भी स्पष्ट हो जाती है। धारा 4 के उक्त दृष्टान्त का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
(2) एक प्रस्ताव जब तक सूचित न किया जाय प्रतिग्रहीत नहीं हो सकता, परन्तु एक प्रतिग्रहण प्रस्तावक को संसूचना के बिना पूरा हो जाता है। इस कथन की विवेचना कीजिये।
धारा 2 (क) में दी गई प्रस्ताव की परिभाषा से यह स्पष्ट है कि वैध प्रस्ताव वहीं होता है जिसकी संसूचना प्रतिग्रहणकर्ता को कर दी जाती है। जब तक कोई प्रस्ताव संसूचित न कर दिया जाय उसके प्रतिग्रहीत होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस सम्बन्ध में एक प्रमुख वाद लालमन शुक्ल बनाम गौरी दत्त (1918) है। इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। प्रतिग्रहण के लिए भी सामान्य सिद्धान्त यही है कि इसकी संसूचना प्रस्तावकर्ता को की जानी चाहिये। परन्तु डाक द्वारा प्रतिग्रहण इस सामान्य नियम का एक अपवाद है। प्रतिग्रहण उस समय पूर्ण माना जाता है जब उसकी संसूचना पूर्ण हो जाती है। डाक संसूचना उसी समय पूर्ण हो जाती है जब जैसे ही स्वीकृति का पत्र डाक द्वारा भेजा जाता है जिससे वह पत्र प्रतिग्रहणकर्ता के अधिकार के परे हो जाता है। इस प्रकार प्रतिग्रहण इसकी संसूचना पूर्ण होने के पूर्व ही पूर्ण हो जाती है। धारा 4 के अनुसार, प्रतिग्रहण की संसूचना उसी समय पूर्ण हो जाती है जब प्रस्तावकर्ता के पास भेजे जाने के लिए पत्र पेटी में डाला जाता है। इस सम्बन्ध में प्रमुख वाद एडन्स बनाम लिन्डसेल (1818); हाउसहोल्ड्स फायर एक्सीडेंट इन्श्योरेन्स बनाम ग्रान्ट (1879) तथा भगवानदास बनाम गिरधारीलाल (1966) हैं। इन वादों की विवेचना ऊपर की जा चुकी है।
(3) 1 मार्च, 1979 को, ‘ब’ बम्बई निवासी, ने दिल्ली निवासी ‘अ’ से तार द्वारा एक प्रस्ताव, प्राप्त किया। तार में लिखा था…”पुरानी दिल्ली स्थित मेरे मकान को एक लाख रुपये में बेचने का इच्छुक। प्रतिग्रहण सूचित करें।” ‘ब’ ने तार द्वारा संसूचना 6 बजे शाम को भेजी-‘एक लाख में मकान खरीदने की स्वीकृति’। ‘ब’ ने वाद में अगले दिन 2 मार्च को अपना निर्णय बदल दिया तथा 8 बजे प्रात: को टेलेक्स से सूचना भेज़ी “जब तक कीमत कम करके 60,000 रुपये न कर दी जाय, इच्छुक नहीं।” ‘अ’ को तार 10 बजे प्रातः मिला। ‘अ’ कहता है कि संविदा पूर्ण हो गयी तथा ‘ब’ एक लाख रुपये में मकान खरीदने के लिए बाध्य है।**
1 मार्च, 1979 को ‘अ’ अपने मकान को एक लाख रुपये में बेचने का प्रस्ताव तार द्वारा भेजता है। डाक द्वारा (पत्र अथवा तार) प्रतिग्रहण की संसूचना प्रतिग्रहणकर्ता के लिए उस समय पूर्ण होती है जब वह प्रस्तावकर्ता के ज्ञान में आ जाती है। ‘ब’ ने प्रस्ताव की स्वीकृति या प्रतिग्रहण 8 बजे प्रात: टेलेक्स द्वारा सूचना भेजी कि वह प्रस्ताव तब तक स्वीकृत नहीं करेगा जब तक कीमत को कम करके 60,000 रुपये न कर दिया जाय। टेलेक्स द्वारा यह संसूचना तुरन्त अथवा 6 बजे शाम को भेजी। अगले दिन अर्थात् 2 मार्च, को ‘ब’ ने अपना निर्णय बदल दिया तथा टेलेक्स द्वारा सूचना 8 बजे प्रात: ही पहुँच गई जबकि तार 10 बजे प्रात: पहुँचा। यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा स्वीकृति की संसूचना उस समय पूर्ण हो जाती है जैसे ही वह तुरन्त प्रस्तावकर्ता के ज्ञान में आ जाती है। चूँकि टेलेक्स द्वारा सूचना तार के पूर्व पहुँच गयी, स्वीकृति का प्रत्याहरण या वापसी हो गयी। इस प्रकार पक्षकारों के मध्य संविदा पूर्ण नहीं हुई। संविदा अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, प्रतिग्रहण का प्रत्याहरण प्रतिग्रहण की संसूचना के पूर्ण होने के पूर्व कभी भी किया जा सकता है। धारा 4 के अनुसार, प्रतिग्रहण की संसूचना उस समय पूर्ण होती है जब वह प्रस्तावकर्ता के ज्ञान में आ जाती है। चूँकि इस मामले में प्रत्याहरण की संसूचना पूर्ण होने के पूर्व प्रस्तावकर्ता के पास पहुँच गयी, प्रतिग्रहण का प्रत्याहरण हो गया। यह धारा 5 के निम्नलिखित दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाती है
* पी० सी० एस० (1979) प्रश्न 3 (ब)।
** सी० एस० ई० (1979) प्रश्न 1.
‘अ’ डाक द्वारा पत्र डाल कर ‘ब’ को अपना मकान बेचने का प्रस्ताव करता है। ‘ब’ प्रस्ताव का प्रतिग्रहण पत्र द्वारा डाक से भेजता है। ‘ब’ अपने प्रतिग्रहण प्रत्याहरण ‘अ’ के पास स्वीकृति की संसूचना पहुंचने के पूर्व या उसी समय कर सकता है। ‘अ’ अपने प्रस्ताव प्रत्याहरण का पत्र डाक में डालने के पूर्व कर सकता है परन्तु उसके बाद नहीं।
टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा स्वीकृति (Acceptance by Telephone or Telex)-जब पक्षकार एक-दूसरे के सम्मुख उपस्थित होते हैं अथवा एक-दूसरे से दूर होते हैं परन्तु फिर भी टेलीफोन आदि द्वारा प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है तो संविदा तब तक पूर्ण नहीं होती है जब तक कि प्रस्ताव करने वाले को स्वीकृति का ज्ञान नहीं हो जाता। इन्टोर्स लि. बनाम मिल्स फार ईस्ट कारपोरेशन (Entores Ltd. v. Mills for East Corporation)47 के वाद में न्यायालय ने यह नियम प्रतिपादित किया था कि टेलीफोन या टेलेक्स आदि द्वारा जब संविदा की जाती है तो संविदा उस समय पूर्ण होती है जब प्रस्ताव करने वाले को स्वीकृति का ज्ञान हो जाता है। सामान्य नियम यह है कि स्वीकृति की संसूचना प्रस्ताव करने वाले को दी जानी आवश्यक है। इस वाद में वादी ने लन्दन में टेलेक्स द्वारा प्रतिवादी को हालैण्ड में कुछ वस्तुओं को खरीदने के लिए एक खा तथा प्रस्ताव की स्वीकृति वादी को इंग्लैंड में स्थित टेलेक्स मशीन द्वारा प्राप्त हुई। संविदा के उल्लंघन होने पर वादी ने दावा दायर कर दिया। प्रतिवादी का कथन था कि संविदा हालैण्ड में हुई। परन्तु न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि इस तरह के मामले में नियम डाक के नियम से भिन्न होता है। इस तरह के मामले में संविदा तभी पूर्ण होती है जबकि स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। अत: इस वाद में स्वीकृति लन्दन में हुई थी; अत: संविदा भी वहीं पूर्ण मानी जायेगी।
उपर्युक्त नियम को भारत के उच्चतम न्यायालय ने भगवानदास बनाम गिरधारी लाल एण्ड कं048 के वाद में अनुमोदित कर दिया। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
इस वाद में प्रतिवादी का कथन था कि वादी ने टेलीफोन से कुछ कॉटन केक्स (Cotton Cakes) के बीज बेचने का प्रस्ताव किया और प्रतिवादी ने उस प्रस्ताव को खामगाँव (Khamgaon) में स्वीकार किया। संविदा के अन्तर्गत वस्तुएँ खामगाँव में दी जानी थीं तथा उनका मूल्य भी वहीं दिया जाना था। अतः प्रतिवादी का कहना था कि खामगाँव शहर के न्यायालय को ही ऐसे मामले का क्षेत्राधिकार था। दूसरी
ओर वादी का कहना था कि अहमदाबाद के न्यायालय को क्षेत्राधिकार था; क्योंकि प्रतिवादी ने जो प्रस्ताव किया था उसकी स्वीकृति अहमदाबाद में ही प्राप्त की गयी; अत: न्यायालय को यह निर्णय देना था कि संविदा कब और कहाँ पूर्ण हुई। निचले न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि टेलीफोन द्वारा संविदा वहीं पूर्ण होती है जहाँ स्वीकृति की सूचना प्राप्त होती है। अत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि अहमदाबाद के सिविल न्यायालय को ही इस वाद को निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार था। प्रतिवादी ने इस आदेश के विरुद्ध गुजरात ‘उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण की प्रार्थना की। गुजरात उच्च न्यायालय ने भी प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। प्रस्तुत अपील गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध थी। उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से इस अपील को खारिज कर दिया तथा निर्णय दिया कि टेलीफोन द्वारा संविदा में डाक द्वारा या तार द्वारा स्वीकृति वाले नियम लाग नहीं होते। इससे सामान्य नियम लागू होता है कि स्वीकृति की संसूचना की जानी आवश्यक है। न्यायमर्ति हिदायतउल्ला (Hidayatullah, J.) उपर्युक्त मत से सहमत नहीं थे और उन्होंने अपने विपरीत मत में कहा कि टेलीफोन तथा टेलेक्स में भी डाक या तार वाला नियम लागू किया जाना चाहिये।
चूँकि बहमत से यह निर्णीत किया गया था कि टेलीफोन तथा टेलेक्स में सामान्य नियम ही लागू होगा। अतः भारत में भी नियम यह है कि जब संविदा टेलीफोन द्वारा होती है तो स्वीकृति की संसूचना की जानी आवश्यक है और संविदा का निर्माण तभी होता है जबकि स्वीकृति की संसूचना प्रस्ताव करने वाले को पात हो जाती है।
दृष्टान्त
‘क’ टेलीफोन पर अपना मकान 50,000 रुपये में बेचने के लिए ‘ख’ को प्रस्ताव करता है। ‘ख’ प्रस्ताव को स्वीकार करता है परन्तु ‘क’ ‘ख’ की स्वीकृति को सुन नहीं सका क्योंकि ‘क’ का टेलीफोन.
47. (1955) 2 क्यू० बी० 327.
48. ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 543.
उपकरण निष्क्रिय हो गया था। ‘ख’ दावा करता है कि ‘क’ तथा उसके मध्य संविदा सृजित हो चुकी है। ‘क’ दावा करता है कि उसने स्वीकृति को नहीं सुना है तथा इसलिये कोई संविदा निर्मित नहीं हुई है। ‘ख’ संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद दायर करता है। क्या वह सफल होगा?”
टेलीफोन द्वारा स्वीकृति की संसूचना तब पूर्ण होती है जब संसूचना प्रस्ताव करने वाले को प्राप्त हो जाती या उसके ज्ञान में आ जाती है। इस नियम का अनुमोदन उच्चतम न्यायालय ने भगवानदास बनाम गिरधारीलाल (1966) के वाद में किया था। टेलीफोन उपकरण निष्क्रिय हो जाने से वह स्वीकृति नहीं सुन सका। दूसरे शब्दों में स्वीकृति की संसूचना पूर्ण नहीं हुई। यहाँ ‘क’ का यह कहना सही है कि कोई संविदा निर्मित नहीं हुई। अत: ‘ख’ अपने वाद में सफल नहीं होगा।
प्रस्ताव एवं स्वीकृति ई-मेल द्वारा (Offer and acceptance by E-mail)-जहां प्रस्ताव तथा उसके निबन्धन एवं शर्ते ई-मेल द्वारा संसूचित किये जाते हैं, प्रस्ताव की बिना शर्त स्वीकृति भी ई-मेल द्वारा संसूचित किये जाते हैं तो धारायें 4 एवं 7 की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है तथा एक बन्धकारी संविदा हो जाती है। एक लिखित औपचारिक करार की अनुपस्थिति उक्त संविदा पर विपरीत प्रभाव नहीं डाल सकती तथा न ही उसके कार्यान्वयन पर प्रभाव डालेगी। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने ट्राईमेक्स इण्टरनेशनल एफ० जेड० ई० बनाम वेदान्त अल्मुनियम लि0 (Trimax International F.Z.E. V. Vedant Aluminium Ltd.)49 के वाद में दिया।
स्वीकृति का समय (Time for Acceptance)**-किसी प्रस्ताव की स्वीकृति तभी तक की जा सकती है जब तक कि प्रस्ताव रहता है। कोई प्रस्ताव निम्नलिखित दशाओं में समाप्त हो सकता है
(1) प्रस्ताव में किसी वर्णित शर्त का पूरा होना या स्वीकृति प्रस्ताव में वर्णित ढंग से न होना-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 6 के अनुसार जब स्वीकृति करने वाला प्रस्ताव में वर्णित किसी शर्त को पूर्ण नहीं करता है तो प्रस्ताव समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार यदि स्वीकृति प्रस्ताव में वर्णित ढंग से नहीं की जाती है तो भी प्रस्ताव समाप्त हो जाता है। परन्तु यदि प्रस्ताव करने वाला कोई भी ढंग वर्णित नहीं करता है तो स्वीकृति करने वाले को यह स्वतन्त्रता रहती है कि किसी ढंग से स्वीकृति की संसूचना करे जो कि आम तौर से की जाती है तथा जो युक्तियुक्त हो। उदाहरण के लिये, यदि प्रस्ताव करने वाला यह कहता है कि उत्तर डाक से आना चाहिए तो यह आवश्यक नहीं है कि उत्तर केवल पत्र द्वारा ही भेजा जाय। उत्तर तार द्वारा भी भेजा जा सकता है।50
(2) प्रस्ताव में वर्णित अवधि या निर्धारित अवधि के अन्दर स्वीकृति का न होना-यदि प्रस्ताव में कोई अवधि स्वीकृति के लिये निर्धारित की गई है तो स्वीकृति उसी अवधि के अन्दर होनी चाहिए। धारा 6 के अनुसार यदि उस अवधि के अन्दर प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं होती तो प्रस्ताव समाप्त हो जाता है। यदि कोई भी समय निर्धारित नहीं है तो स्वीकृति युक्तियुक्त (reasonable) समय के अन्दर होनी चाहिये।
(3) अस्वीकृति या प्रति-प्रस्ताव द्वारा (By rejection or counter offer)–यदि किसी प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया है या उसके उत्तर में एक प्रति-प्रस्ताव किया जाता है तो भी प्रस्ताव समाप्त हो जाता है। उदाहरण के लिये, हाइड बनाम रेंच (Hyde v. Wrench)51 के वाद में (जिसके तथ्यों का वर्णन किया जा चुका है) निर्णय दिया गया था कि वादी का प्रति-प्रस्ताव प्रतिवादी के मूल प्रस्ताव को भी नष्ट कर देता है।
कलकत्ता की फर्म A देहली की एक फर्म B को एक वस्तु एक विशेष मूल्य पर बेचने का प्रस्ताव करती है। B ने एक पत्र प्रस्ताव की प्रतिबन्धित स्वीकृति के साथ डाक से भेजा। परन्तु उस वस्तु की बाजार
* पी० सी० एस० (1990) प्रश्न 6 (ब)।
49. (2010) 3 एस०सी० सी०1.
** सी० एस० ई० (1992) प्रश्न 1(अ)।
50. टिनू बनाम हाफमैन एण्ड कं० (1873) 29 एल०टी०27.
51. (1840) 3 बीच 334.
में भाव-स्थिति अस्थिर थी, B ने एक टेलेक्स सन्देश बाद में उस दिन भेजा A से कहते हुये कि A उस पत्र को शून्य माने और यह बताते हुये कि B (उस वस्तु को) एक वर्णित कम दाम पर खरीदेगा। कुछ घण्टों पश्चात् B ने फिर एक टेलेक्स सन्देश प्रस्ताव की समापक स्वीकृति से भेजा। B संविदा के पालन की माँग करता है और A का कहना है कि (उनके मध्य) कोई संविदा नहीं है। निर्णय दीजिये।
उपर्युक्त मामले में यदि पहला टेलेक्स पत्र से पहले पहुँचा तो स्वीकृति का प्रतिसंहरण हो गया तथा B का यह कथन कि वह कम दाम पर खरीदेगा A का प्रस्ताव समाप्त हो गया। B का यह कथन कि वह कम दाम पर खरीदेगा प्रस्ताव के लिये आमंत्रण या प्रतिप्रस्ताव हो सकता है। अत: उसके द्वारा दूसरे टेलेक्स द्वारा स्वीकृति वैध नहीं है क्योंकि विधि में इसे प्रस्ताव माना जायगा। A का यह कहना उचित है कि उनके मध्य कोई संविदा नहीं हुई। इस सम्बन्ध में हाइड बनाम रेंच का वाद उल्लेखनीय है । इस वाद के तथ्य आदि का उल्लेख “स्वीकृति पूर्ण तथा बिना शर्तों के होनी चाहिये….” शीर्षक के अन्तर्गत किया जा चुका है।
(4) प्रस्तावक की मृत्यु या पागलपन के कारण (By death or Insanity of offerer)प्रस्तावक की मृत्यु अथवा पागलपन से प्रस्ताव समाप्त हो जाता है। इस विषय में यह नोट करना आवश्यक है कि प्रस्ताव तब समाप्त होता है जबकि मृत्यु अथवा पागलपन के तथ्य का ज्ञान स्वीकार करने वाले को स्वीकृति देने के पहले हो जाता है ।52
(5) प्रतिसंहरण (By revocation)-यदि प्रस्ताव करने वाला अपने प्रस्ताव का प्रतिसंहरण कर देता है या वापस ले लेता है तो भी प्रस्ताव समाप्त हो जाता है 53
प्रतिसंहरण का समय (Time for revocation)-प्रस्ताव का उस समय तक प्रतिसंहरण हो सकता है जब तक कि स्वीकृति डाक में नहीं भेजी गयी है उसके बाद नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए हैन्थन बनाम फ्रेजर (Henthorn v. Fraser)54 में प्रतिवादी ने कुछ सम्पत्ति एक निश्चित मूल्य पर बेचने का प्रस्ताव किया तथा स्वीकृति के लिए 14 दिन की अवधि निश्चित की। अगले ही दिन एक बजे उसने अपने प्रस्ताव को वापस लेने के लिए एक पत्र डाक में डाला जो वादी को 5.30 बजे मिला। परन्तु वादी उसके पूर्व 3.30 बजे ही स्वीकृति का पत्र भेज चुका था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि स्वीकृति वैध थी तथा संविदा का निर्माण हो चुका था, अतः प्रतिवादी अपने प्रस्ताव को वापस नहीं ले सकता।
अतः प्रस्ताव केवल उसी समय वापस लिया जा सकता है जब तक कि उसे स्वीकार नहीं किया गया है। स्वीकृति होते ही प्रस्ताव संविदा में परिवर्तित हो जाता है जिससे पक्षकारों के उत्तरदायित्व तथा अधिकारों का उदय होता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 6 में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि प्रस्ताव को केवल उसी समय तक वापस लिया जा सकता है जब तक कि स्वीकृति पूर्ण नहीं होती। उदाहरण के लिए साधलाल मोतीलाल बनाम मद्रास राज्य तथा अन्य (Sadhu Lal Moti Lal v. State of M.P. and others)55 के वाद में वादी ने निविदा (Tender) को प्रस्तुत किया, जिसे सरकार ने एक पत्र द्वारा संसूचित करके स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् वादी ने एक तार द्वारा अपने निविदा को वापस करना चाहा। परन्तु तार पहुँचने के पर्व ही सरकार पत्र द्वारा उसे स्वीकृत कर चुकी थी। अत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविदा पूर्ण थी और अब वादी को अपने प्रस्ताव को पास करने का अधिकार नहीं था।56
प्रतिसंहरण की संसूचना केवल प्रस्ताव करने वाले या उसके अधिकृत एजेन्ट द्वारा होनी चाहिए-इंग्लैंड में डिकिन्सन बनाम डाड्स (Dickinson v. Dodds)57 के वाद में न्यायालय ने यह
* सी० एस० ई० (1989) प्रश्न 6 (ब) (i).
52. संविदा अधिनियम की धारा 6.
53. तत्रैव।
54. (1892) 2 सी० एच० 27.
55. ए० आई० आर० 1972 इलाहाबाद 137.
56. तत्रैव, पृ० 139.
57. (1876) 2 सी० एच० डी० 463.
निर्णय दिया कि यदि प्रतिसंहरण की सूचना किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भी हो जाय तो भी वह मान्य होगी। परन्तु जैसा कि पोलक एण्ड मुल्ला (Pollock and Mulla)58 ने लिखा है कि डिकिन्सन बनाम डाड्स में प्रतिपादित नियम उचित नहीं है तथा इसकी आलोचना इंग्लैंड में भी की जाती है तथा भारत में यह नियम मान्य नहीं है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 6 (1) से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिसंहरण की सूचना दूसरे पक्षकार को प्रस्ताव करने वाले द्वारा ही होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में प्रतिसंहरण की सूचना प्रतिग्रहीता (acceptor) द्वारा ही दी जानी चाहिए और अन्य व्यक्ति द्वारा सूचना निरर्थक होगी।