LLB 1st Year Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 6 Notes
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अध्याय 6 (Chapter 6)
विश्लेषणात्मक विचारधारा की प्रतिक्रियास्वरूप विधि का विशुद्ध सिद्धान्त (Rectification of analytical ideology as a pure principle of law)
विधिशास्त्र की विश्लेषणात्मक विचारधारा के समर्थकों में केल्सन का नाम भी उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने विधि-सिद्धान्त द्वारा विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद (Analytical Positivism) की विवेचना नये ढंग से की तथा इसे मनोवैज्ञानिक तत्वों पर आधारित किया। केलसन तथा उनके समर्थकों को सामूहिक रूप में ‘विधिशास्त्र की वियना शाखा” (Vienna School) के नाम से संबोधित किया जाता है। केल्सन का विधि सिद्धान्त विधिशास्त्र में दो बिन्दुओं से महत्वपूर्ण माना गया है। प्रथम यह कि इसे विश्लेषणात्मक पद्धति के विकास की चरम सीमा माना गया है तथा द्वितीय यह कि इस सिद्धान्त में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तथा बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में विधि के प्रति अपनाई जाने वाली नीति का स्पष्ट दिग्दर्शन होता है। वस्तुत: केल्सन और ऑस्टिन के विधि-सम्बन्धी विचारों में निकट साम्य है। परन्तु केल्सन ने अपनी विचारपद्धति को काण्ट (Kant) के विधि-दर्शन पर आधारित किया जब कि ऑस्टिन की विश्लेषणात्मक पद्धति मूलत: उपयोगितावाद पर आधारित थी।
हेन्स केल्सन (Hans Kelson : 1881-1973)
केल्सन का विधि-सिद्धान्त काण्ट की विचारधारा पर आधारित होते हुए भी अनेक बातों में उनके विचारों से भिन्न है। केल्सन काण्ट के इस विचार से सहमत थे कि निश्चयात्मक विधि स्वयं में पूर्ण नहीं है। परन्तु वे इतना कहकर ही चुप नहीं रहे अपितु विज्ञान (Science) की शक्ति को स्वीकारते हुए उन्होंने कहा कि विश्व की सभी वस्तुओं का ज्ञान विज्ञान द्वारा अर्जित किया जा सकता है। इस दृष्टि से केल्सन का स्थान काण्ट की तुलना में कहीं अधिक ऊँचा है। केल्सन का मत है कि समस्त ज्ञान विज्ञान द्वारा ग्राह्य है जबकि काण्ट के अनुसार अधिकांश निरपेक्ष सत्य मानवीय ज्ञान के परे है। इस प्रकार केल्सन ने ज्ञान (knowledge) और नैतिकता (morality) में अन्तर बताया जब कि काण्ट ऐसा नहीं मानते थे। तथापि इस दृष्टि से केल्सन और स्टेमलर के विचारों में बहुत कुछ साम्य है।
इमेन्युअल कॉण्ट (Immanuel Kant : 1724-1804)
काण्ट ने ‘अनुभव’ (experience) और ‘निर्णय’ (Judgment) तथा अस्तित्व’ (existence) और ‘नीति’ (normative) के बीच अन्तर स्थापित किया था P उनके अनुसार ‘निर्णय’ अनुभव पर आधारित रहते हैं। इसी प्रकार उनका कहना था कि नीति-वचन के बिना कोई भी संकल्पना व्यर्थ होती है। परन्तु केल्सन के विचार से नैतिक आदेशों (normative) को बाह्य भौतिक जगत् से प्राप्त नहीं किया जा सकता, अर्थात् “जो होना चाहिये” को “जो है” से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। केल्सन के इस तर्क को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिये कि ‘अ’ नामक व्यक्ति ने ‘ब’ नामक व्यक्ति की हत्या कर दी। अब ‘ब’ जो कि मत ”है”, से यह कैसे जाना जा सकता है कि उसकी हत्या की जानी चाहिये” थी अथवा नहीं, या
1. केल्सन का विधि-सम्बन्धी विशुद्ध सिद्धान्त (Pure Theory of Law) लॉ क्वार्टरली रिव्यू (1934) में प्रकाशित हुआ था (50 LQR 474).
2 ” अस्तित्व” से काण्ट का आशय वर्तमान, अर्थात् “जो है” से था, जबकि “नीति” से उनका तात्पर्य भविष्य, अर्थात् “जो होना चाहिये” से था।
3. Concept without precept is empty.
“अ को दण्डित किया जाना चाहिये” अथवा नहीं। इसका कारण यह है कि केल्सन के अनुसार चाहिये’ को चाहिये” से प्राप्त किया जा सकता है, न कि ”है” से। उनके विचार में ‘ज्ञान’ और ‘नैतिक इच्छा (volition) में अन्तर है। प्राकृतिक विज्ञान भौतिक पदार्थों के कार्य-कारण के सम्बन्धों का वर्णन करता है। किन्तु नैतिक आदेशों का विज्ञान (Normative Science) उन आचरणों का वर्णन करता है जो ‘‘चाहिये” से। सम्बन्धित हैं।
उल्लेखनीय है कि केल्सन के पूर्व स्टेमलर ने भी विधि का एक ऐसा विशुद्ध सिद्धान्त (Pure Theory) प्रतिपादित किया था जो सार्वभौमिक रूप से मान्य हो और उन सभी तत्वों से मुक्त हो, जो परिवर्तनशील होते हैं। परन्तु केल्सन ने स्टेमलर के विशुद्ध विधि-सिद्धान्त को दोषपूर्ण निरूपित करते हुए कहा है कि इसमें कुछ। ऐसे आदर्शों का समावेश है जो विधिवेत्ताओं का मार्गदर्शन अवश्य करते हैं किन्तु उन्हें विधि के अन्तर्गत अपनाया जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है। केल्सन का निश्चित मत था कि किसी शुद्ध विधि-सिद्धान्त में न्याय-सिद्धान्त का समावेश करना उचित नहीं है। केल्सन के अनुसार विशुद्ध विधिसिद्धान्त को राजनीति, नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र तथा इतिहास आदि से अप्रभावित रखा जाना चाहिये। विधि के ज्ञान को इच्छा, स्पृहा (volition) तथा प्रवृत्ति (instinct) आदि के प्रभावों से मुक्त रखना आवश्यक है। केल्सन के विचार से वि!ि में आदर्शवाद का समावेश नि:सन्देह ही अवैधानिक होगा।
केल्सन के विधि के विशद्ध सिद्धान्त के मलभूत तत्व (Essential Elements of Kelson’s Pure Theory of Law)
केल्सन द्वारा प्रतिपादित विधि का विशुद्ध सिद्धान्त निम्नलिखित मूलभूत तत्वों पर आधारित है–
1. विधि के सिद्धान्त के अन्तर्गत वास्तविक विधि, अर्थात् ‘‘विधि जैसी कि वह है’ का वर्णन होना चाहिये न कि आदर्शात्मक विधि अर्थात् “जैसी कि वह होनी चाहिये” का। इस दृष्टि से केल्सन के विचार ऑस्टिन से मिलते-जुलते हैं। इसीलिए उनकी गणना पाजिटिव विचारधारा के समर्थकों में की गयी है न कि प्रकृतिवादी (naturalists) विचारधारा के पोषकों में।।
2. केल्सन के अनुसार विधि के सिद्धान्त” और ‘‘विधि” में अन्तर है। यद्यपि विश्व की प्राकृतिक वस्तुओं में कोई भी तार्किकता नहीं है परन्तु ऐसा वैज्ञानिक सिद्धान्त जो इन वस्तुओं का वर्णन करता है, तार्किक होता है। ठीक इसी प्रकार यद्यपि विधि के अन्तर्गत विभिन्न परस्पर विरोधी नियमों का वर्णन रहता है फिर भी विधि के सिद्धान्त का कार्य यह होता है कि वह उन सभी विरोधाभासी नियमों में तार्किक दृष्टि से ताल-मेल बैठाये और संयमित रूप से उनका एकीकरण करे। केल्सन ने अपना शुद्ध विधि-सिद्धान्त केवल क्षणिक स्फूर्ति के प्रभाव में आकर नहीं किया, बल्कि उन्होंने विधि के तथ्यों (facts of the law) के वास्तविक स्वरूप के सूक्ष्म अध्ययन के पश्चात् अपना विशुद्ध विधि-सिद्धान्त प्रतिपादित किया। केल्सन ने स्पष्ट किया कि वे विधि के विशुद्ध सिद्धान्त का निरूपण इस प्रकार कर रहे हैं ताकि विधि के माध्यम से समस्त विषय-वस्तुओं को प्रस्तुत किया जा सके।
3 विधि का सिद्धान्त ऐसा होना चाहिये जो सभी समय तथा स्थानों में समान रूप से लागू किया जा सके। दसरे शब्दों में, विधि के सिद्धान्त को समय और स्थान की परिसीमाओं से मुक्त रखा जाना चाहिये। इस दृष्टि से केल्सन को सामान्य विधिशास्त्र का समर्थक माना जा सकता है।
4. विधि का सिद्धान्त विशुद्ध’ (Pure) होना चाहिये; अर्थात् उसे नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास आदि से अप्रभावित रखा जाना चाहिये। केल्सन के विचार से किसी भी सिद्धान्त की शुद्धता के लिए यह परम आवश्यक है कि वह उपर्युक्त प्रभावों से मुक्त रहे। परन्तु इसका आशय यह कदापि नहीं है कि केल्सन ने नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र या इतिहास को व्यर्थ तथा महत्वहीन माना। उनका कहना तो केवल यह था कि विधि के सिद्धान्त को इन विषयों के प्रभाव से मुक्त रखा जाना चा
5. केल्सन ने विधिशास्त्र को एक सिद्धान्तमूलक विज्ञान माना है न कि प्राकृतिक विज्ञा विज्ञानों से सम्बन्धित विधियाँ कारण और परिणामों के तालमेल का कथन मात्र होती है। उदाहरणार्थ, यदि
हाइड्रोजन और आक्सीजन को दो और एक के अनुपात में मिला दिया जाये, तो पानी बन जायेगा। इस नियम का उल्लंघन हो ही नहीं सकता और यदि उल्लंघन होता है, तो यह नियम व्यर्थ हो जायेगा। परन्त विधिशास्त्र में विधियों का सम्बन्ध कार्य-कारण पर आधारित नहीं होता बल्कि सिद्धान्त मूलक (normative) होता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति हत्या करता है, तो उसे फाँसी का दण्ड दिया जाना चाहिये। ऐसी विधियाँ उस स्थिति में भी विधिमान्य रहती हैं जब कि उनका उल्लंघन कर दिया जाता है और जो परिणाम निर्दिष्ट हैं, वे नहीं निकलते।
विधि का विशुद्ध सिद्धन्त (Kelson’s Pure Theory of Law)
केल्सन के विशुद्ध विधि-सिद्धान्त का केन्द्रबिन्दु मानकों की व्युत्पत्ति है। उन्होंने विधिक क्रम (legal order) को मानकों का स्तूप (pyramid of norms) माना है। उनके विधि सिद्धान्त को भली भाँति समझने के लिये सर्वप्रथम विज्ञान और विधि के आधार-स्रोत (proposition) के भेद को समझ लेना परम आवश्यक है। ‘विज्ञान का आधार-स्रोत’ प्राकृतिक विज्ञान (natural science) है जबकि विधि का आधार-स्रोत विधिशास्त्र है। विज्ञान का आधार-स्रोत हमें कार्य और कारण के सम्बन्धों का ज्ञान कराता है। यह उन बातों से सम्बन्धित है जो कार्य और कारण के रूप में घटित हुआ करते हैं। उदाहरण के लिये न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त (Newton’s law of gravitation) यह बतलाता है कि ऊपर फेंकी गयी कोई भी वस्तु नीचे अवश्य गिरती है; अर्थात् विज्ञान का आधार-वाक्य किसी भी कार्य का अनिवार्य रूप से ‘‘घटित होना” सूचित करता है इसे केल्सन ने ‘‘जो है” (stern) कहा है। इसके विपरीत विधि के आधार-स्रोत का सम्बन्ध इस विषय से है कि किस परिस्थिति में क्या होना चाहिए’ अर्थात् किससे क्या घटित होना चाहिये। इस ‘चाहिये” को केल्सन ने sollen कहा है। उदाहरण के लिये यदि, कोई व्यक्ति चोरी करता है, तो उसे दण्ड मिलना चाहिये। केल्सन के सिद्धान्त का निचोड़ यह है कि यह प्राकृतिक विज्ञान ‘‘कारणता” (casuality) से सम्बन्धित है, जबकि विधि, जो एक सामाजिक विज्ञान है मानकत्व (normativity) से सम्बन्धित है। परन्तु केल्सन आगे स्पष्ट करते हैं कि विधि के इस ‘‘चाहिये” और नैतिकता (morality) के ‘‘चाहिये” में अन्तर है। विधि के अन्तर्गत ‘‘चाहिये” के पीछे राज्य की शक्ति कार्य करती है। इस प्रकार केल्सन के अनुसार विधिक मानक (legal norms) और नैतिक मानक (moral norm) में अन्तर है। नैतिक मानक का एक उदाहरण यह है कि सभी को सदैव सच बोलना चाहिए।6।
केल्सन के उपर्युक्त तर्क का आशय यह कदापि नहीं है कि वे ‘‘नैतिक चाहिये” के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। उनका कथन केवल यह है ‘विधिक चाहिये’ और ‘नैतिक चाहिये’ से अलग रखना उचित होगा। यह सम्भव है कि कुछ ऐसे ‘विधिक चाहिये’ (legal ought) हों जिनका उद्गम ‘नैतिक चाहिये’ (moral ought) से ही हो। परन्तु कानून के अध्ययन के लिये हमें स्वयं को केवल ‘‘विधिक चाहिये” तक ही सीमित रखना उचित होगा।’ इसका तात्पर्य यह हुआ कि केल्सन के अनुसार विधि को । न्याय के संदर्भ में परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि कुछ कानून अन्यायपूर्ण होते हुए भी विधि की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। केल्सन के अनुसार ”न्याय” (Justice) एक अतार्किक आदर्श है, अत: इसे तर्क के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है।
केल्सन ने ‘‘विधिक चाहिये” (legal ought) और ‘‘नैतिक चाहिए” के अन्तर को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रथम को बाह्य जगत से प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि यह वस्तनिष्ठ (a;…) तथ्यों पर आधारित है। परन्तु द्वितीय स्वयं के मूल्यांकन पर आधारित होने के कारण उसका स्वरूप
4. Legal order is a pyramid of norms.-Kelson.
5. Kelson : General Theory of Law and State (20th Centuery Legal Philosophy Series), p. 46.
6 देखें, जूलियस स्टोन द्वारा लिखित ”दि प्राविन्स एण्ड फक्शन्स ऑफ लॉ” नामक ग्रन्थ पृ० 84.
7 गर्भपात को छूट देने सम्बन्धी कानून (Medical Termination of Pregnancy Act, 1971); कालेधन पर टैक्स की माफी देने संबंधी कानून (Special Bearer Bonds (Immunities & Exemptions) Act, 1981 etc.); देखिए आर० के गर्ग बनाम यूनियन आफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1981 सु० को 2138.
आत्मनिष्ठ (subjective) होता है। दूसरे शब्दों में ”नैतिक चाहिये” को बाह्य वस्तु से प्राप्त नहीं किया जा यकता अपितु वैयक्तिक भावना और विचारों से प्राप्त किया जाता है। ‘‘विधिक चाहिये” का मुख्य तत्व उसमें सन्निहित शास्ति (Sanction) है जिसका आशय ऐसे दण्डादेश से है, जो किसी कृत्य को करने या न करने की दशा में प्रदान किया जाता है। उदाहरण के लिये, विधि का यह नियम है कि यदि कोई व्यक्ति चोरी करता है, तो उसे दण्ड मिलना चाहिये। यहाँ दण्ड की शास्ति इस नियम को वैधता प्रदान करती है। परन्तु केल्सन के अनुसार ‘‘शास्ति” का अपना कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, वह स्वयं अन्य नियमों पर आधारित है। जैसा कि एक नियम यह कहता है कि दण्डित किये जाने के पहले अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये। फिर दूसरा नियम यह कहता है कि अदालत के समक्ष उसकी सुनवाई की जानी चाहिये। एक अन्य नियम यह कहता है कि अभियुक्त के दण्ड को कुछ विशिष्ट अधिकारियों द्वारा ही कार्यान्वित किया जाना चाहिये, इत्यादि। अत: केल्सन ने ऑस्टिन के इस विचार को स्वीकार नहीं किया कि विधि’ के क्रियान्वयन के पीछे शास्ति की शक्ति होती है। केल्सन के विचार से कानून को वस्तुत: अपने से ऊपर के कानून के नियम से शक्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार केल्सन ने विधि (कानून) को मानकत्व (normativity) पर आधारित करते हुए मानकों के ऊर्ध्वगामी सोपानों का एक ढाँचा-सा तैयार कर दिया है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक मानक (norms) अपने से उच्चतर मानक से शक्ति प्राप्त करता है। मानकों की इस श्रृंखला में सबसे शीर्ष (ऊपर वाले) मानक को केल्सन ने मूल मानक (Grundnorm) की संज्ञा दी है जिसे मूलभूत मानक (Basic norm) भी कहा जा सकता है।
केल्सन के मूल-मानक की संकल्पना (Kelsenite concept of grundnorm)
केल्सन के अनुसार सभी मानक (norms) मूल मानक (Grundnorm) से अपनी वैधता (validity) प्राप्त करते हैं, अर्थात् कोई मानक वैध है या नहीं इसका निर्धारण ‘मूल मानक’ के आधार पर किया जाना चाहिये। परन्तु ‘मूल-मानक’ अपनी स्वयं की वैधता किसी अन्य उच्चतर मानव से प्राप्त नहीं करता। केल्सन ने मूलमानक को प्रारम्भिक परिकल्पना (initial hypothesis) मान लिया है। मूल-मानक स्वयमेव मान्य समझा जाता है; अत: विधि इसकी मान्यता पर विचार नहीं करती क्योंकि यह एक प्रारम्भिक संकल्पना है जिसका तर्क पर आधारित कोई उत्तर नहीं है। केल्सन ने इसे विधि के क्षेत्र से परे का विषय माना है। उनके कथनानुसार विधिक सिद्धान्त (legal theory) का कार्य केवल मूल मानक और अन्य मानकों के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करना है।
केल्सन के अनुसार सभी विधि-व्यवस्थाओं में कोई न कोई मूल-मानक अवश्य रहता है। यह आवश्यक नहीं कि सभी विधि-व्यवस्थाओं में एक ही प्रकार का मूल-मानक हो। भिन्न-भिन्न विधि-व्यवस्थाओं में अलग-अलग प्रकार के मूल मानक (Grundnorms) हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, भारत और इंग्लैण्ड की विधि-व्यवस्था में संसद्, अमेरिका की विधि-व्यवस्था में ‘संविधान’ तथा हिटलरकालीन जर्मनी की विधिव्यवस्था में तानाशाह की इच्छा मूल मानक थी। प्रश्न यह उठता है कि मूल मानक का निर्धारण किस प्रकार किया जाए? इसके प्रत्युत्तर में केल्सन कहते हैं कि ‘सामर्थ्य’ से ही मूल-मानक के चयन का निर्धारण होता है। किसी विशिष्ट मानक की वैधता की परख इस आधार पर की जा सकती है कि अन्ततः वह किस मूलमानक से निकला है। मानकों को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया को केल्सन ने राज्य का विधिक क्रम (legal order) कहा है। | केल्सन ने विधि को सामाजिक संगठन की एक तकनीक मात्र निरूपित किया है। उनके अनुसार यह स्वयमेव अंतिम लक्ष्य न होकर लोगों को सदाचरण के लिए बाध्य रखने का एक प्रभावी साधन मात्र है। जिसका कोई राजनीतिक या नैतिक मूल्य नहीं है। केल्सन की धारणा है कि विधि कोई शाश्वत पवित्र व्यवस्था न होकर संघर्षरत सामाजिक प्रभावों से बचने हेतु समझौता मात्र है। अत: विधि की अवधारणा में नैतिकता को कोई स्थान नहीं है।
8. केल्सन ने इसे ‘मानकों सम्बन्धी सोपान-तन्त्र का ज्ञान’ (Knowledge of Hierarchy of) कहा है.
विधिशास्त्र केल्सन के विधि के विशुद्ध सिद्धान्त का महत्व
केल्सन के विशुद्ध विधि-सिद्धान्त ने विश्लेषणात्मक पद्धति के कारण विधि पर छाये हुए कुहरे को हर दिया तथा एक ऐसे तर्कसंगत विधि-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे किसी भी विधि व्यवस्था के प्रति सरलता से लागू किया जा सकता है। केल्सन के सिद्धान्त का व्यावहारिक महत्व इस प्रकार है
(1) इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य और विधि के बीच कोई द्वैधता नहीं है। विधि की विश्लेषणात्मक शाखा के प्रवर्तकों के अनुसार विधि को संप्रभुताधारी (राज्य) का आदेश (command) माना गया है, अर्थात् विधि संप्रभुताधारी के अधीनस्थ है। उल्लेखनीय है कि विधि को समाजशास्त्रीय शाखा के समर्थकों ने भी ‘राज्य’ और ‘विधि’ के बीच की वैधता (dualism) को स्वीकार किया है, यद्यपि वे विधि को राज्य से श्रेष्ठतर मानते हैं। परन्तु केल्सन ने ‘राज्य’ और ‘विधि’ को एक ही वस्तु के दो भिन्न पहलू माना है। उनके अनुसार राज्य केवल विधिक क्रम की एकता का प्रतीक मात्र है। इसीलिए राज्य और विधि में कोई द्वैध भाव नहीं है। केल्सन ने ऑस्टिन की इस विचारधारा का खण्डन किया कि राज्य विधि को उत्पन्न करता है। उनके मतानुसार विधि स्वयं अपने सृजन को विनियमित करती है। निवेदित है कि राज्य और विधि के द्वैध (dualism) के कारण ही ऑस्टिन के समक्ष यह समस्या उत्पन्न हुई थी कि संवैधानिक विधि को यथार्थ रूप में विधि माना जाए अथवा नहीं; परन्तु फेल्सन के सामने यह समस्या नहीं रही क्योंकि उन्होंने राज्य और विधि में कोई अन्तर नहीं माना। |
(2) केल्सन के विशुद्ध विधि-सिद्धान्त का महत्व इसलिये भी है कि उन्होंने यह आवश्यक नहीं। समझा कि विधि का स्वरूप आदेशात्मक ही हो ।10 इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि केल्सन ने ‘शास्ति’ की। आवश्यकता को अस्वीकार किया। उनके सिद्धान्त में भी शास्ति’ उतनी ही आवश्यक थी जितनी कि ऑस्टिन के आदेशात्मक विधि-सिद्धान्त के लिये । परन्तु उनके लिये विधि किसी व्यक्तिगत संप्रभुताधारी का समादेश न होकर एक काल्पनिक निर्णय मात्र थी।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के क्षेत्र में केल्सन द्वारा प्रतिपादित विधि का विशुद्ध सिद्धान्त विशेष महत्व रखता है। केल्सन ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून को राज्य की विधि से श्रेष्ठतर माना है। विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र के प्रवर्तक ऑस्टिन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को वास्तविक विधि के रूप में मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि यह विधि संप्रभुतासम्पन्न राज्यों को आपसी संव्यवहारों में बाँधती है जबकि राज्य की विधि द्वारा संप्रभुताधारी (Sovereign) स्वयं आबद्ध नहीं रहता है, विधि तो स्वयं उसकी अपनी सृष्टि है। परन्तु केल्सन के मतानुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि के मानक (norms) राज्य पर बन्धनकारी प्रभाव रखते हैं।
(4) विधि के विशुद्ध सिद्धान्त के अन्तर्गत रूढ़िगत विधि को वास्तविक विधि के रूप में मान्यता दी गई। है।11 ऑस्टिन ने अपने विधि-सिद्धान्त में रूढ़ि को विधि का स्थान नहीं दिया क्योंकि रूढ़ि संप्रभुताधारी से उत्पन्न नहीं होती। किन्तु केल्सन ने अपने सिद्धान्त में रूढ़ि को विधि के रूप में मान्यता देना स्वीकार किया
(5) केल्सन के विधि-सिद्धान्त का महत्व इसलिये भी है क्योंकि इससे विधिक व्यक्तित्व के सिद्धान्त (theories of legal personality) से सम्बन्धित समस्याओं के हल में सहायता मिली है। विधिशास्त्र में निगमित व्यक्तित्व सदैव ही एक विवादास्पद विषय रहा है। केल्सन के अनुसार व्यक्तित्व (personality) विधिक-मानकों की संक्रिया की इकाई है तथा अधिकार और कर्तव्य उसके रूप हैं।
(6) केल्सन के विशुद्ध विधि-सिद्धान्त के अनुसार प्राइवेट विधि और लोक विधि में कोई विभाजन नहीं हो सकता है। उल्लेखनीय है कि विश्लेषणात्मक विधिशास्त्रियों ने इन दो विधियों में अन्तर माना था।12
9. There is no dualism between State and law.
10. Kelson observed that law need not be imperative.
11. Customary law is a law.
12. There is no dichotomy between private and public law.-Kelson.
लोक विधि (public law) संप्रभुताधारी (राज्य) के एकतरफा समादेश द्वारा उत्पन्न होती है तथा लोगों को कर्तव्यबद्ध होने के लिये बाध्य करती है जबकि प्राइवेट विधि में बाध्यताएँ परस्पर करार द्वारा उत्पन्न होती हैं। व्यक्तियों के बीच संविदा प्राइवेट विधि का एक अच्छा उदाहरण है। परन्तु इन दोनों प्रकार की विधियों के भेद को समाप्त करते हुए केल्सन प्राइवेट विधि को भी विधिक शक्ति का प्रत्यायोजन मानते हैं जिसकी प्रभावशीलता अन्ततः मूल-मानक (Grundnorm) से उत्पन्न होती है, जैसा कि विधिक मानकों में होता है। |
केल्सन द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध विधि सिद्धान्त को ” थ्योरी ऑफ इन्टरप्रिटेशन” भी कहा गया है क्योंकि इसकी प्रतिक्रियास्वरूप ऑस्टिन द्वारा प्रसारित राज्य की समग्रता (Totality of State) तथा विधि की सर्वशक्तिमत्ता के सिद्धान्त का परिमार्जन करके तर्क पर आधारित विधि की संकल्पना विकसित हुई जो वास्तविकता पर आधारित थी। केल्सन का तर्क था कि ऑस्टिन की आदेशात्मक विधि की संकल्पना पूर्णतः सैद्धान्तिक स्वरूप की थी, जबकि विशुद्ध विधि का सिद्धान्त पूर्णत: प्रयोज्य एवं व्यावहारिक था जो सभी स्थानों पर सभी समय समान रूप से लागू होता था।
ऑस्टिन और केल्सन के विधिक विचारों की तुलनात्मक समीक्षा ।
केल्सन द्वारा प्रतिपादित विधि के विशुद्ध सिद्धान्त और ऑस्टिन के विश्लेषणात्मक सिद्धान्त में अनेक बातों में समानता है। केल्सन ने स्वयं स्वीकार किया था कि जिस समय वे अपने विधि-सिद्धान्त को विकसित कर रहे थे उस समय उन्हें ऑस्टिन के सिद्धान्त की जानकारी नहीं थी। अनेक बातों में समानता होते हुए भी केल्सन और उनके समर्थकों (Vienna School) की दार्शनिक विचारधारा ऑस्टिन के उपयोगितावादी विचारधारा पर आधारित नहीं थी। केल्सन और ऑस्टिन के विचारों में समानता और अन्तर की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत करना उपयुक्त होगा|
(i) दोनों ने ही प्राकृतिक विधि का विरोध किया-केल्सन और ऑस्टिन, दोनों ही प्राकृतिक विधि के आलोचक थे। ऑस्टिन ने प्राकृतिक विधि का विरोध इसलिये किया क्योंकि उसमें विधि के साथ न्याय (justice) को भी समाविष्ट किया गया है, अत: विधिशास्त्र का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो चला था। केल्सन ने प्राकृतिक विधि का विरोध इसलिये किया क्योंकि वे तत्कालीन आस्ट्रियन सिविल कोड13 से असंतुष्ट थे। जिसका निर्माण उस समय हुआ था जब प्राकृतिक विधि अपने उत्कर्ष की चरम सीमा पर थी।
(ii) केल्सन और ऑस्टिन, दोनों ने ही विधि, जैसी कि ‘वह है” तथा जैसी कि “वह होनी चाहिये” में अन्तर माना तथा विधि के संदर्भ में जैसी कि वह है” (is) और होनी चाहिये। (Ought) के क्षेत्रों में अन्तर स्थापित किया-“है” का क्षेत्र प्राकृतिक विज्ञान से सम्बद्ध है जबकि ‘चाहिये” (ought) का क्षेत्र सामाजिक विज्ञान से सम्बन्धित है। ऑस्टिन ने प्राकृतिक विज्ञान को विधिशास्त्र की सीमा से परे बताया क्योंकि इसके नियम राज्य द्वारा समादेशित नहीं किए जाते हैं। केल्सन ने प्राकृतिक विज्ञान को विधिशास्त्र से इसलिये अलग रखा क्योंकि यह कार्य-कारण के नियमों पर आधारित है।
(iii) विधिशास्त्र के क्षेत्र के विषय में दोनों के विचार भिन्न हैं-ऑस्टिन ने अपने विचारों को अधिकांशत: इंग्लैण्ड की तत्कालीन विधि-व्यवस्था पर आधारित किया, अत: उनकी पद्धति में सार्वभौमिकता (universality) के गुण का अभाव है। इसके ठीक विपरीत केल्सन ने विधि के विशुद्ध सिद्धान्त में सार्वभौमिकता को प्रधानता दी क्योंकि उनके सिद्धान्त की शुद्धता (purity) सार्वभौमिकता पर ही आधारित है। उल्लेखनीय है कि केल्सन ने एक ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो समय या स्थान के प्रभाव से मुक्त तथा बाह्य तथ्यों से पूर्णत: अप्रभावित रहे।
(iv) विधि की आदेशात्मकता के विषय में दोनों के विचारों में भिन्नता है-ऑस्टिन ने ‘आदेश’ (command) को मानवीय इच्छा की अभिव्यक्ति मात्र माना है। इस संबंध में केल्सन के विचार भिन्न थे। उनका कथन था कि यह ठीक है कि ‘आदेश” मानवीय इच्छा की अभिव्यक्ति है परन्तु फिर भी वह
13. ऑस्ट्रियन सिविल कोड सन् 1811 से 1911 तक लागू रहा.
‘अभिव्यक्ति’ ही तो है न कि श्रेष्ठतर (superior) की ‘इच्छा’। केल्सन के अनुसार श्रेष्ठतर की इच्छा को ही आदेश माना जा सकता है न कि उसकी अभिव्यक्ति को अपने विचार को केल्सन एक उदाहरण देकर अधिक स्पष्ट करते हैं। सामान्यतः विधि का कोई भी नियम तभी पारित किया समझा जाता है जब उसके पारित करने की प्रक्रिया (procedure) सम्बन्धी सभी आवश्यकताएँ पूरी कर ली जाती हैं, फिर चाहे उसे पारित करने वाले बहुमत में से कुछ या अधिकांश सदस्यों को उस नियम के आन्तरिक विषय का बिल्कुल ही ज्ञान न हो। अतः अपनी ‘इच्छा’ का ज्ञान न रखने वाला उसकी अभिव्यक्ति कैसे कर सकता है? इसके अतिरिक्त किसी नियम के पारित होते समय मतविभाजन की दशा में विपक्ष का अल्पमत उसके पारित होने में अपनी इच्छा की। अभिव्यक्ति नहीं करता है। यही कारण है कि केल्सन संप्रभु की इच्छा की अभिव्यक्ति को ‘आदेश’ के रूप में मानने से इन्कार करते हैं।
(v) ऑस्टिन का सिद्धान्त स्थिरता‘ पर आधारित है जबकि केल्सन का सिद्धान्त ‘क्रियाशीलता‘ पर-ऑस्टिन द्वारा प्रतिपादित विश्लेषणात्मक विधि का सिद्धान्त विधि को नियमों की एक ऐसी व्यवस्था मानता है, जो लागू की जाने के लिये पूरी तरह तैयार है। इसकी व्यवस्था का सृजन किस प्रकार और किन विविध चरणों में हुआ, इस ओर ध्यान देना ऑस्टिन आवश्यक नहीं समझते; अत: उनका विधिसिद्धान्त स्थिर (static) है। परन्तु केल्सन का विधि का विशुद्ध सिद्धान्त यह अपेक्षा करता है कि स्थिर होने के साथ-साथ विधि विविधतापूर्ण (dynamic) भी हो, अर्थात् विधि के सृजन की विभिन्न अवस्थाओं का भी साथ-साथ अध्ययन किया जाये। इसका कारण यह है कि विधि मानकों की ऐसी अन्य अवस्थाओं को भी नियंत्रित करती है जो उनमें (मानकों में) दी गयी व्यवस्था के विपरीत हों।
(vi) विधि के स्रोत के विषय में दोनों के विचार भिन्न हैं--ऑस्टिन ने विधि को राज्य की देन माना है, अर्थात् उनके अनुसार राज्य के अस्तित्व के बिना कानून का अस्तित्व नहीं हो सकता है। परन्तु केल्सन राज्य और विधि की वैधता (dualism) को स्वीकार नहीं करते। उनके विचार में राज्य या संप्रभुताधारी, विधि-व्यवस्था का प्रतीक-मात्र है। इस प्रकार केल्सन के अनुसार राज्य और विधि में कोई भेद नहीं है।
(vii) रूढ़ि की मान्यता के बारे में दोनों के विचार अलग-अलग हैं-ऑस्टिन रूढ़ियों और रीति-रिवाजों को विधि’ अन्तर्गत समाविष्ट नहीं करते। वे प्राइवेट और लोक-विधि में भी अन्तर स्थापित करते हैं। किन्तु केल्सन के अनुसार किसी भी लोकप्रिय रूढ़ि को मानक का रूप प्रदान करके बन्धनकारी स्वरूप दिया जा सकता है।
(viii) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय में दोनों के विचारों में अन्तर है-ऑस्टिन अन्तर्राष्ट्रीय विधि को वास्तविक विधि नहीं मानते, बल्कि इसे वे सकारात्मक नैतिकता (positive morality) कहना उचित समझते हैं। परन्तु केल्सन ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून को ‘विधि’ की संज्ञा देने के साथ-साथ उसे राष्ट्रीय विधि (law of the land) से उच्चतर माना है।
(ix) ऑस्टिन की विश्लेषणात्मक विधि पद्धति में विनिर्दिष्टता (specificity) का अभाव हैंऑस्टिन विधि को सामान्य नियमों तक ही सीमित रखते हैं। उनके अनुसार ऐसे सभी नियम जो किसी व्यक्ति विशेष या घटना विशेष की ओर लक्षित होते हैं, विधि की परिधि के बाहर होंगे तथा विधि’ की श्रेणी में उनका समावेश नहीं किया जा सकता है। अतः इनमें विनिर्दिष्टता को उचित महत्व नहीं दिया गया
केल्सन के विधि सम्बन्धी विशुद्ध सिद्धान्त की आलोचना
केल्सन द्वारा प्रतिपादित विधि के विशुद्ध सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि विधि के अन्तर्गत व्यक्तिगत अधिकार जैसी कोई वस्तु नहीं है क्योंकि वे विधिक कर्तव्य को ही विधि का सार मानते हैं। वे विधिक अधिकार को, उस व्यक्ति का जो कि उसकी पूर्ति की अपेक्षा करता है, केवल कर्तव्य मात्र निरूपित करते हैं। यह बात आपराधिक विधि के संदर्भ में अधिक स्पष्टत: दृष्टिगोचर होती है जहाँ कथित व्यक्ति का
कोई विधिक अधिकार नहीं होता वरन् राज्य स्वयं ही अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही संस्थित तथापि केल्सन के विधि सम्बन्धी विशुद्ध सिद्धान्त की अनेक विधिशास्त्रियों ने निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की है ।
(1) केल्सन द्वारा प्रतिपादित विधि का विशुद्ध सिद्धान्त वस्तुतः विधिशास्त्र की महाद्वीपीय शाखा continental School) और न्याय के सिद्धान्तों के बीच समन्वय स्थापित करने का एक प्रयास है। इसे विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद (Analytical Positivism) की चरम सीमा का प्रतीक भी कहा जा सकता है। इस सिदान्त ने ऑस्टिनवादी विचारकों के समक्ष आने वाली समस्याओं को हल कर दिया। तथापि इस सिद्धान्त की अपनी सीमायें भी हैं। केल्सन के विधि सम्बन्धी विशुद्ध सिद्धान्त में मूल मानक (Grundnorm) एक ऐसी परिकल्पना है जिसे सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि मूल-मानक प्रत्येक देश की प्राचीन परम्पराओं और इतिहास के अनुसार अलग-अलग हो सकता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि सामान्य विधिशास्त्र (jurisprudentia generalis) के सिद्धान्त को त्याग देना होगा। परन्तु ऐसा कदापि उचित नहीं है। इसके अतिरिक्त केल्सन के सिद्धान्त ने राज्य और विधि की वैधता (dualism) को समाप्त करके राज्य की शक्ति को अत्यधिक सीमित कर दिया है, जो उचित नहीं है। अनेक अवसरों पर राज्य को विधिक क्रम (legal order) के दायरे से बाहर भी कार्य करना पड़ता है। उदाहरण के लिये एक राज्य को अन्य राज्यों के साथ मिलकर कार्य करना होता है और ऐसे कार्य का क्षेत्र विधिक क्रम के बाहर भी हो सकता है। इसी प्रकार केल्सन ने अपने विधि-सिद्धान्त द्वारा पब्लिक और प्राइवेट विधि के अन्तर को समाप्त करके राज्य के विधिक दायित्व के निर्धारण की आवश्यकता की ओर ध्यान नहीं दिया। किसी कल्याणकारी राज्य (Welfare State) में राज्य के प्राधिकारियों की अधिकार-शक्ति के निर्धारण के लिये लोक विधि और प्राइवेट विधि में विभेद होना आवश्यक है।
(2) केल्सन के अनुयायी तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विशेषज्ञ प्रो० लाटरपॉच (Lauterpatcht) ने विशुद्ध विधि-सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा कि राष्ट्रीय विधि पर अन्तर्राष्ट्रीय विधि को प्राथमिकता देकर केल्सन ने प्राकृतिक विधि को पिछले द्वार (back door) से प्रवेश देने का रास्ता खोल दिया है। उनके विचार । से अन्तर्राष्ट्रीय विधि की वैधता किसी भी मूल-मानक पर आधारित नहीं है, फिर भी केल्सन ने इसे राष्ट्रीय विधि की बजाय गुरुतर माना है। लाटरपॉच ने केल्सन की इस धारणा को उनके विशुद्ध विधि सिद्धान्त का। महान् दोष माना है। लाटरपॉच की इस आलोचना का प्रो० ज्यूलिस स्टोन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘दि प्रॉविन्स एण्ड फन्कशन ऑफ ला’ में उत्तर देने का प्रयास किया है। प्रो० स्टोन का कहना है कि केल्सन की मुल -मानक की धारणा एक ऐसी परिकल्पना है जिसकी अवधारणा विधि के विशुद्ध विज्ञान द्वारा नहीं की जा सकती। इसे तो विधि के क्षेत्र के बाहर से ही चुनना होगा तथा बिना सबूत के इसे मूल-मानक के अंश के रूप में मानना पड़ेगा। परन्तु निवेदित है कि प्रो० स्टोन का यह तर्क केवल इस ओर संकेत करता है कि विधि के विशुद्ध विज्ञान (Pure science of law) का क्षेत्र सीमित है, परन्तु वह अन्तर्राष्ट्रीय विधि की वैधता को स्थापित नहीं करता है।
(3) लास्की ने केल्सन के विशुद्ध-सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है कि यह व्यर्थ की दिमागी कसरत है जिसका वास्तविक जीवन में कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। कुछ विधिवेत्ताओं ने केल्सन को कल्पना-लोक में विचरने वाला तर्कशास्त्री निरूपित किया है।
(4) फ्रीडमैन (Friedmann) के अनुसार केल्सन का विधि सम्बन्धी विशुद्ध-सिद्धान्त आधुनिक विधिक समस्याओं को हल करने की दृष्टि से अपर्याप्त है। आधुनिक सामाजिक जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में किसी भी विधि का निर्धारण आदर्शों की ओर ध्यान दिये बिना किया जा सकता है। अतः विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद की वैधानिक आत्मनिर्भरता सामाजिक न्याय को स्थान दिये बिना आज की जटिल समस्याओं से नहीं निपट सकती है।14
14. फ्रीडमैन : लीगल थ्योरी (पंचम संस्करण), पृ० 243.
(5) केल्सन के विधि सम्बन्धी विचार अपूर्ण एवं अपर्याप्त प्रतीत होते हैं क्योंकि उनमें विधि के उद्देश्य को नहीं दर्शाया गया है। व्यवहारिक दृष्टि से न्यायालय जब भी किसी विधि के आधार पर अपना निर्णय देते हैं, तो वे प्रचलित सामाजिक रीति रिवाज, परंपराओं और विधि के सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुये विधि की व्याख्या तदनुसार करते हैं और ऐसा करते समय वे स्वयं को केवल विधि की विशुद्ध व्याख्या करने तक ही सीमित नहीं रखते हैं।
(6) केल्सन के विधिक सिद्धान्त को कार्यान्वित करते समय इस बात की अनदेखी की गई है कि सक्षम प्राधिकारी द्वारा विधि का प्रवर्तन करते समय इसके लिये अपनाई गई प्रक्रिया (procedure) की वैधता पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है। विधि के प्रवर्तन हेत अत्यधिक बल प्रयोग किये जाने मात्र से उस विधि को वैधता प्राप्त नहीं हो सकती जब तक इस हेतु उचित प्रक्रिया तथा जनभावनाओं को ध्यान में न रखा गया हो। अतः केल्सन के विधि सम्बन्धी सिद्धान्त का झकाव एकतरफा प्रतीत होता है जिसमें सामाजिक परिवेश तथा मूल्यों को कोई महत्व नहीं दिया गया है।
केल्सन के विशुद्ध विधि के सिद्धान्त में उपर्युक्त दोषों के होते हुये भी विधिक्षेत्र में उनके योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती है। उन्होंने जहाँ एक ओर विधि को परम्परागत प्राकृतिक विधि सिद्धान्त से मुक्त कराया वहीं दूसरी ओर विधि के समादेशात्मक सिद्धान्त (Command Theory) को व्यर्थता का भी उजागर किया। उनका स्पष्ट अभिमत था कि विधि के विज्ञान को दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के तत्वों से विमुक्त रखा जाना चाहिये। उन्होंने जहाँ एक ओर विधि और नैतिकता को एक दूसरे से पृथक् माना वहीं दूसरी ओर विधि और तथ्य (Law and fact) में भी विभेद स्पष्ट किया।
एच० एल० ए० हार्ट की विधि-सम्बन्धी अवधारणा
आधुनिक आंग्ल विधिशास्त्री एच० एल० ए० हार्ट15 ने अपने ‘रूल ऑफ रिकॉगनिशन’ (Rule of Recognition) द्वारा विधि की संकल्पना को नई दिशा दी है। अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘कान्सेप्ट ऑफ लॉ’ में उन्होंने ऑस्टिन की विधि सम्बन्धी धारणाओं को अमान्य करते हुए इस बात पर बल दिया कि निश्चयात्मक विधि को न्याय तथा नैतिकता से पूर्णत: अलग नहीं रखा जा सकता है।
अपने विधि सम्बन्धी विचारों में प्रो० हार्ट (H.L.A. Hart) विधि की मान्यता (recognition) को विशेष महत्व देते हैं। उनके अनुसार कोई विधि वैध है या अवैध, इसका निर्धारण उसकी मान्यता के आधार पर किया जाना चाहिए। उनका विचार है कि अनेक बन्धनकारी नियमों को समाज स्वयं स्वीकार कर लेता है; अतः स्पष्ट है कि हार्ट ने केल्सन के मूल मानक (Crundnorm) को कोई महत्व नहीं दिया है।
‘विधि’ को परिभाषित करते हुए एच० एल० ए० हार्ट कहते हैं कि इसमें बाध्यता, प्रपीड़न (coercion) तथा धमकी (threat) अन्तर्निहित है। उनके अनुसार विधि और नैतिकता में धनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राकृतिक विधि का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि उसका स्वरूप ऐसा होना चाहिये जिससे समाज का कल्याण हो सके। विधि लोगों की भावनाओं, आशाओं तथा आकांक्षाओं के अनुरूप होनी चाहिए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हार्ट के विधि सम्बन्धी विचार अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। फुलर ने हार्ट के विधि और नैतिकता के बीच परस्पर संबंधों के बारे में विचारों की आलोचना की है।
हार्ट की विधि संबंधी अवधारणा में नैतिकता परोक्ष रूप से विद्यमान है तथा वे विधि को प्राथमिक एवं द्वितीयक नियमों का सम्मिश्रण मानते हैं। ये नियम मानकीय स्वरूप के होने के कारण वे मानव आचरणों के मानक स्थापित करते हैं जो लोगों को इनका अनुपालन करने के लिये बाध्य करते हैं क्योंकि इनके अपालन से शास्ति का भय रहता है। वस्तुत: लोग इन विधिक नियमों का पालन करना अपना कर्तव्य और दायित्व समझते हैं। इस प्रकार हार्ट विधि और नैतिकता को एक दूसरे के पूरक तथा सवर्ती मानते हैं। हार्ट के अनुसार नैतिकता का विधि पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि हार्ट विधि को बंदूकधारी (Gunman) की उक्ति देना पसंद नहीं करते क्योंकि विधि पर नैतिकता का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव अवश्य पड़ता है। तथापि
15. प्रो० हार्ट का जन्म 1907 में हुआ तथा वे आक्सफोर्ड में विधिशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं.
हार्ट नैतिकता को प्रथा, शिष्टाचार तथा अन्य सामाजिक नियमों से भिन्न माना है। विधि के सम्बन्ध की दृष्टि से हार्ट ने नैतिकता में चार लक्षणों का होना अपरिहार्य माना है, जो निम्नानुसार हैं|
1. महत्व (Importance)-नैतिकता-मूलक नियमों का सर्वप्रथम गुण यह है कि समाज इन्हें अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है तथा समाज के लोग इनकी अवहेलना नहीं कर सकते । नैतिकता को समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होने का मुख्य कारण यह है कि यह मानव के भावावेश को नियंत्रित रखती है तथा मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को संयमित रखने में सहायक होती है। विशेषतः लैंगिकता के क्षेत्र में मानव के आचरण को नियंत्रित रखने में नैतिकता अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है।
2. नैतिकता विमर्शपूर्वक परिवर्तन से उन्मुक्त है (Immunity from deliberate change)–विधि व्यवस्था का यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि सामयिक परिवर्तन के साथ पुराने विधिक नियमों को आवश्यकतानुसार नये विधिक नियमों द्वारा बदला जा सकता है। परन्तु नैतिकता संबंधी नियमों को इस प्रकार सरलता से बदला जाना संभव नहीं है।
3. नैतिक अपराध का स्वैच्छिक स्वरूप (Voluntary character of moral offence)–नैतिक आचरण सामान्यतः आन्तरिक स्वरूप का होता है जबकि विधिक आचरण बाह्य स्वरूप का होता है। यही कारण है विधिक अपराध में आपराधिक दायित्व अधिरोपित करने के लिए दुराशय (Mens Rea) होना । आवश्यक है।
4. नैतिकता के पीछे नैतिक बल होता है-नैतिक बल व्यक्ति को अनैतिक आचरण से परावृत्त रखता। है। यद्यपि विधि के पीछे शास्ति का भय अवश्य है लेकिन यह उतना अधिक प्रभावकारी नहीं होता जितना कि व्यक्ति को स्वेच्छया अनैतिक आचरण से आत्मग्लानि का भय होता है।
डेवलिन (Devlin) ने हार्ट (H. L. A. Hart) द्वारा प्रतिपादित विधि संबंधी अवधारणा की आलोचना करते हुए कहा है कि विधि समाज के लोगों से अपेक्षा करती है कि वे अपने दैनिक आचरण में कतिपय नैतिक सिद्धान्तों का पालन करें जिनका उल्लंघन अपराध के समान दण्डनीय हो । परन्तु इसके प्रत्युत्तर में हार्ट ने कथन किया कि समाज में व्यक्ति की बौद्धिक स्वतंत्रता और अनाचार से समाज को बचाए रखने हेतु विधि के कर्तव्य में उचित संतुलन बनाये रखना आवश्यक है। नैतिकता समाज का आवश्यक तत्व है और विधि का कार्य यह है कि वह समाज से नैतिकता का ह्रास न होने दे। परन्तु केवल विधि को ही नैतिकता का संरक्षक मानना भूल होगी क्योंकि इसके लिए शिक्षा, जन-जागृति, प्रसार माध्यम आदि अन्य साधनों का प्रयोग भी किया जा सकता है जो संभवतः अधिक प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं।
रोनाल्ड डौरकिन (Dworkin) ने भी हार्ट के सिद्धान्त की आलोचना की है और एक अर्थ में विधि के प्रमाणात्मक सिद्धान्त (Positivist concept of law) को भी दोषपूर्ण माना है। उनके विचार से विधिक प्रणाली में तत्वों (elements) पर विशेष महत्व दिया जाना चाहिए। डौरकिन कहते हैं कि जब कभी अधिवक्ताओं को विधिक अवधारणा (legal concept) सबंधी कोई गंभीर समस्या हल करनी होती है, तो वे उन मापदंडों का सहारा लेते हैं जिनका विधि के नियमों के रूप में क्रियान्वयन नहीं होना है, परन्तु जो नीतियों या सिद्धान्तों के रूप में समाज में मान्य हैं।16। ।
प्रो० लोन एल० फुलर (Prof. Lon L. Fuller) ने हार्ट के विधि और नैतिकता संबंधी विचारों की आलोचना करते हुए लिखा है कि विधि एक सहेतुक प्रणाली (Purposive system) है जो मानव को मानवीय आचरण के नियमों का अनुपालन कराने हेतु प्रयोग में लायी जाती है। अतः नैतिकता के समावेश के बिना विधि की कल्पना करना व्यर्थ है। इसके विपरीत, हार्ट विधि को अक्रियात्मक संकल्पना (nonfunctional concept) मानते हैं, जो उचित नहीं है। फुलर के अनुसार बिना नैतिकता के पुट के विधि प्रभावहीन होगी।
प्रो० हार्ट की यह धारणा कि विधि और नैतिकता में कोई परस्पर संबंध नहीं है या विधि जैसी कि वह है और जैसी कि वह होनी चाहिए में कोई विभेद नहीं है, तृतीय विश्व के अल्प विकसित देशों को ग्राह्य नहीं
16. Dworkin: The Model Rules published in Summer’s Essays in Legal Philosophy (1968) pp. 39
है क्योंकि इसके आधार पर कोई भी विधि औचित्य’ (reasonableness) के मापदंड पर खरी नहीं उतरेगी। इन देशों ने न्यायिक पुनर्विलोकन को विधि के औचित्य के आकलन हेतु उचित माध्यम के रूप में स्वीकार किया है।
टाइलर (Taylor) ने अपने ग्रंथ ”दि कन्सेप्शन ऑफ मॉरेलिटी इन ज्यूरिसपूडेन्स” में लिखा है कि नैतिकता की उत्पत्ति प्राकृतिक विधि से हुई है जबकि विधि पूर्ण दायित्व (Absolute obligation) से उद्भूत हुई है, नैतिकता अमूर्त (abstract) होती है जबकि विधि मूर्त स्वरूप की होती है, यद्यपि दोनों का ही अस्तित्व पृथक्-पृथक् है फिर भी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सामाजिक परिवर्तनों के अनुसार नैतिकता के। प्रति लोगों की धारणायें बदलती रहती हैं जिसके पीछे राज्य का भौतिक बल नहीं होता है, लेकिन विधि के लिये राज्य की शास्ति की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इतना होते हुये भी टाइलर ने नैतिकता और विधि को एक दूसरे का पूरक माना है जो सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ अपना स्वरूप बदलते रहते हैं।17
पैटन ने भी हार्ट के विधि तथा सकारात्मक नैतिकता के परस्पर सम्बन्धों से सहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि विधि के नियमों और सकारात्मक नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा दोनों में समन्वय बनाये रखना नितांत आवश्यक है। उनके अनुसार यदि विधि जन आकांक्षाओं को पीछे छोड़ देती है तो उसका प्रभाव लुप्त हो जायेगा और यदि विधि का मापदण्ड नैतिक दृष्टि से बहुत ऊँचा है, तो उसके प्रवर्तन में कठिनाई होगी। अतः विधि सदैव शुद्ध नैतिकता पर आधारित न होकर प्रचलित समाज की मान्यताओं और आकांक्षाओं के अनुकूल होनी चाहिए।18
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यद्यपि केल्सन द्वारा प्रतिपादित विधि के विशुद्ध सिद्धान्त को अनेक विधिशस्त्रियों ने कल्पना-लोक में निरर्थक उड़ान कहकर महत्वहीन समझा लेकिन वर्तमान विधिक चिंतन में इसका बहुत योगदान है। अपनी अद्वितीय तार्किक योग्यता और विश्लेषण-क्षमता के कारण उन्होंने विधिशास्त्र की अनेक संकल्पनाओं का पुनर्मूल्यांकन किये जाने पर बल दिया जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान विधि को सृजनात्मक रूप देकर अधिक व्यावहारिक बनाना संभव हुआ है।
यद्यपि एच० एल० ए० हार्ट को प्रमाणवादी विचारकों की श्रेणी में रखा गया है फिर भी उनकी विधि संबंधी अवधारणा में नैतिकता का समावेश नहीं है।19 तथापि हार्ट इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक समुदाय में न्यूनतम नैतिकता अवश्य होती है। डायस ने भी नैतिक और सामाजिक कारकों को विधि का अभिन्न अंग माना है ।20 हार्ट ने समाज में विधि की क्रियात्मक भूमिका को अधिक महत्व दिया है इसीलिए । उनके विधि संबंधी प्रतिपादन वर्तमान विधि और न्याय व्यवस्था में अत्यधिक प्रासंगिक हैं।
विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद-भारतीय परिप्रेक्ष्य (Analytical Positivism—Indian Perspective)
ऑस्टिन, कान्ट तथा हार्ट द्वारा प्रतिपादित विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद का सिद्धान्त जो मूलतः तीन । बिन्दुओं–(1) संप्रभुता, (2) विधि विद्यमान स्थिति (Law as it is), तथा (3) शास्ति पर आधारित था, एक शती से अधिक समय तक इंग्लिश विधिशास्त्र में प्रभावी रहा। यदि इस विधि सिद्धान्त की तुलना प्राचीन भारतीय विधि से की जाये, तो दोनों में अनेक विषमतायें दृष्टिगोचर होंगी। जहां इंग्लिश विधि में संप्रभु अर्थात् शासक को विधि का जनक माना जाता रहा, उसे विधि से ऊपर रखा गया जबकि पुरातन भारतीय विधि-दर्शन में प्रजा और शासक, दोनों ही विधि से समान रूप से आबद्ध थे। विधि को धर्म (Dharma) का रूप प्राप्त था जो मूलत: सत्य, अहिंसा और सदाचार (Truth, non-violence and righteous conduct) पर आधारित था। ‘धर्म’ के अन्तर्गत व्यक्तियों एवं शासक के कर्तव्यों पर विशेष महत्व दिया गया और इसके अनुकूल शासन न करने वाला शासक भी दंड का पात्र था। पुरातन भारतीय वेद, उपनिषद तथा स्मृतियों में भी यह उल्लेख
17. T.W.Taylor : The Conception of Morality in Jurisprudence, (1896) p. 40.
18. पैटन : ए टेक्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिसपूडेन्स (चतुर्थ संस्करण) पृ० 53.
19. हार्ट एच० एल० ए० : लॉ, लिबर्टी एण्ड मोरालिटी, पृ० 51.
20. डॉयस : ज्यूरिसपूडेंस (चतुर्थ संस्करण) पृ० 485.
मिलता है कि शासक को धर्मानुसार आचरण करना चाहिये। ‘धर्म’ के अन्तर्गत आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित इन तीनों का समावेश था तथा सदाचार मानव का सर्वोपरि धर्म था ।
प्राचीन हिन्दू विधिशास्त्र में ‘धर्म’ के रूप में विधि को सर्वोपरि मानते हुये कहा गया था कि “विधि राजाओं का भी राजा (king of kings) होता है और इससे अधिक शक्तिवान अन्य कुछ भी नहीं हो सकता है। | विधि के अन्तर्गत एक कमजोर व्यक्ति की आवाज भी किसी बलिष्ठ दुराचारी व्यक्ति को परास्त कर सकती है ।
शासक की भूमिका एवं कर्तव्यों को स्पष्ट करते हुये शास्त्रों एवं पुराणों में उल्लेख है कि शासक का कर्तव्य है कि वह राज्य में विधि का प्रवर्तन सुनिश्चित करे तथा दुराचारी को दंडित करे। उसे कुछ सीमा तक विधि का निर्माण करने की शक्ति प्राप्त थी, लेकिन वह केवल अत्यावश्यक परिस्थिति में ऐसा कर सकता है क्योंकि उसका मूल कार्य अपने कर्तव्यों का अनुपालन करना था, ताकि प्रजा संतुष्ट रहे। शासक के कर्तव्यों को ‘राजधर्म’ की संज्ञा दी गई थी 22
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ऑस्टिन और केल्सन ने विधि को संप्रभु शक्ति के अधीनस्थ माना परन्तु हिन्दू विधि के अन्तर्गत शासक (संप्रभु) को विधि के अधीनस्थ निरूपित किया गया था तथा उसे धर्म (law) के अनुसार कार्य करना होता था।
तथापि मध्य युग में भारत में मुगल शासन स्थापित होने के परिणामस्वरूप पुरातन हिन्दू विधि विलुप्त होती गई तथा शासक द्वारा निर्मित निरंकुश विधि का सूत्रपात हुआ जो ब्रिटिश शासन काल तक जारी रहा।
21. पंडित एम० एस० : आउटलाइन्स ऑफ एन्शियेंट हिन्दू जूरिस्पूडेन्स, (1989) पृ 2-3.
22. प्रिय नाथ सेन : जनरल प्रिंसिपल्स ऑफ हिन्दू जूरिस्थूडेन्स, (1984) पृ० 17.
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