LLB 1st Year Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 4 Part 2 Notes
LLB 1st Year Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 4 Part 2 Notes:- LLB Law 1st Semester / 1st Year Online Books Jurisprudence and Legal Theory Chapter 4 Notes Study Material in Hindi English PDF Download Available on This Post.
बीसवीं सदी में प्राकृतिक विधि-सिद्धान्तों का पुनरुद्धार (Twentieth Century Revival of Natural Law Theories)
LLB Notes Study Material
बीसवीं शताब्दी को प्राकृतिक विधि-सिद्धान्तों के पुनरुद्धार (revival) का काल कहा जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के राष्ट्रवाद तथा विज्ञान वाद के कारण पाश्चात्य जगत में विधिदर्शन की प्रगति में गतिरोध उत्पन्न हो गया। लोगों में यह भ्रम फैल गया कि विज्ञान की सहायता से आर्थिक प्रगति करने में ही उनका वास्तविक सरत है कैविनी (Savigny) और हीगल (Hegal) की विचारधाराओं के परिणामस्वरूप लोगों में राज्य के प्रति अटल विश्वास उत्पन्न हो गया जिसे राष्ट्रीय संप्रभुता के सिद्धान्त ने अधिक सुदृढ़ कर दिया। विधि के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाये जाने के कारण औपचारिकताओं से युक्त अनम्य विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र का उदय हुआ।
बीसवीं सदी के प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्धों ने पाश्चात्य देशों की आँखें खोल दीं। वस्तवाद तथा आर्थिक प्रगति के साथ-साथ लोगों में आपसी ईष्र्या, द्वेष एवं वैमनस्य की भावना दिनों-दिन बढ़ती गई । केवल आर्थिक प्रगति उन्हें शान्ति न दे सकी, फलतः उनका भ्रम दूर होने लगा। चारों ओर अशान्ति और अराजकता का वातावरण व्याप्त हो गया। जब भौतिकवाद से मानव ऊब गया, तो वह पुन: आदर्शवादी दर्शन की ओर आकर्षित हुआ। यही कारण थी कि बीसवीं शताब्दी में प्राकृतिक विधि-सिद्धान्तों का पुनरुद्धार हुआ। मार्क्सवादी तथा हुक्मशाही शासन व्यवस्था की निरंकुशता भी इसके लिए कारणीभूत हुई| प्राकृतिक विधि का पुनरुद्धार तीन प्रकार की विचारधाराओं के प्रसार के कारण हुआ। प्रथम, मध्यकालीन धर्मप्रधान प्राकृतिक विधि का आधुनिकीकरण करके प्राकृतिक विधि सिद्धान्तों को परिमार्जित रूप में स्वीकार किया गया। द्वितीय, यह कि विधिक दार्शनिकों ने विधि को सार्वभौमिक अपरिवर्तनशील शक्ति के रूप में। स्वीकार करना अमान्य कर दिया तथा तृतीय, निरपेक्ष न्याय के आदर्श को अस्वीकार किया गया। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक विधि को अब समय और स्थानानुसार परिवर्तनशील माना जाने लगा तथा वह बाह्य एवं सापेक्ष मानी गयी। प्राकृतिक विधि की इस नई और परिवर्तित संकल्पना को ‘परिवर्तनीय तत्वयुक्त प्राकृतिक विधि (natural law with variable contents) कहा गया है। अब प्राकृतिक विधि का कार्य वास्तविक विधि को निरपेक्ष न्याय के अधिक निकट पहुँचाना ही रह गया। आधुनिक विधिशास्त्रियों का मत है कि कोई भी ‘आदर्श’ (ideal) निरपेक्ष (absolute) नहीं होता है तथा वह समय एवं स्थान के अनुसार परिवर्तनशील है।19. उन्होंने प्राकृतिक विधि को ऐसे विकासशील आदर्श के रूप में मान्य किया कि जो वास्तविक विधि की प्रगति में मार्ग-निर्देशक का कार्य कर सके।
प्राकृतिक विधि के पुनरुद्धार के सन्दर्भ में आधुनिक विधिवेत्ताओं के प्राकृतिक विधि विषयक विचारों का उल्लेख करना उपयुक्त होगा। इन विचारकों में डेल वेक्हियो (Del Vecchio), गेनी (Geny), ली फर (Lee Fur), फुलर (Fuller), स्टेमलर (Stammler) तथा कोहलर (Kohler) आदि प्रमुख हैं।
डेल वेहियो (Del Vecchio) के अनुसार प्राकृतिक विधि कानून के विकास से सम्बन्धित एक ऐसा सिद्धान्त है जो मानव जाति को अधिक स्वायत्तता की ओर विकासोन्मुख करता है।
फ्रेंकॉइस गेनी (Francois Geny : (1861-1944) | गेनी ने प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त का समर्थन वास्तविक विधि-सिद्धान्त के प्रति विरोध प्रकट करने के लिये किया। उनके विचार से प्राकृतिक विधि में अनेक तार्किक सिद्धान्त समाविष्ट हैं तथा इसमें स्थिरता है। जबकि वास्तविक विधि (positive law) गतिशील (dynamic) है और इसमें ऐसे विचारों का समावेश है जो किसी समाज-विशेष में किसी विशिष्ट समय में विद्यमान रहे होंगे।
गेनी एक समाजशास्त्री-अधिवक्ता होने के कारण उन्होंने प्राकृतिक विधि को एक ऐसा सामाजिक कारक निरूपित किया जो न्यायाधीशों और विधायकों को प्रभावित करता है और उन्हें नियंत्रण में रहने के लिए बाध्य करता है। गेनी के अनुसार विधि-निर्माण या न्याय निर्णय सुनाते समय निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखा जाना आवश्यक होता है ताकि इस प्रकार निर्मित होने वाले कानून सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें–
(1) समाज में विद्यमान भौतिक एवं पारिस्थितिक परिवेश;
(2) समाज की रीतियाँ या परम्पराएं तथा इनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि;
(3) ऐसे मूलभूत सिद्धांत जो मानवीय जीवन एवं स्वतंत्रता को संवर्धित करने में सहायक हों;
(4) समाज के आदर्श एवं अभिलाषाएँ ।
इस प्रकार गेनी ने कतिपय विधि संबंधी सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने का प्रयास किया। जिन्हें प्राकृतिक विधि सिद्धान्त के रूप में लागू किया जा सके।
19. स्टेमलर आर : दि थ्योरी ऑफ जस्टिस (1925) पृ० 32.
एक अन्य विधिशास्त्री ली फर (Lee Fur) ने प्राकृतिक विधि को नितांत आवश्य, माना है क्योंकि यह न्याय की धारणा के बहुत निकट है। प्राकृतिक विधि मानव-स्वभाव पर आधारित है तथा इसमें मनुष्य को यह अनुभूति होती है कि वह किसी वरिष्ठ शक्ति की उपज है जिसे ‘ईश्वर’ कहा गया है।
लॉन ल्यूयिस फुलर20 (Lon Luvois Fuller : 1902-1978)
फुलर (Fuller) ने प्राकृतिक विधि को ‘विचार करने की एक विशिष्ट पद्धति’ निरूपित किया है। उन्होंने प्रो० हार्ट के साथ हुए विधि की नैतिकता पर वाद-विवाद में प्राकृतिक विधि संबंधी रूढ़िवादी विचारधारा से हटकर इस बात पर जोर दिया कि नैतिक मूल्य सामाजिक व्यवस्था के अनुसार परिवर्तनशील हैं, अत: वे अनम्य नहीं हैं।21
फुलर ने नैतिकता की अवधारणा तथा विधि से उसके संबंधों के बारे में विस्तृत विश्लेषण करने के पश्चात् नैतिक कर्तव्य के दो प्रकार बताए–(1) सकारात्मक कर्तव्य; तथा (2) नकारात्मक कर्तव्य जो प्रविरत (forebearance) रहने से संबंधित होते हैं।
फुलर के अनुसार विधि एक प्रयोजन-मूलक पद्धति है जो नियमों द्वारा मानव-आचरण को नियंत्रित करती है। उन्होंने प्रत्येक विधि-प्रणाली में निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक माना :
(1) विधि के नियम निश्चित (definite) होने चाहिए।
(2) इन नियमों का पर्याप्त प्रचार-प्रसार होना आवश्यक है;
(3) पूर्ववर्ती विधायन का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए;
(4) नियम बोधगम्य एवं सरल हों; ।
(5) विधि के नियम किसी प्रवर्तमान विधि से प्रतिकूल या असंगत न हों;
(6) विधि के नियम व्यावहारिक होने चाहिये, तथा वे ऐसे न हों कि जिसके कारण व्यक्ति को कुछ ऐसा करना पड़े जो उसकी शक्ति या क्षमता के परे हो;
(7) इनमें बार-बार परिवर्तन को टाला जाना चाहिए;
(8) विधि के नियमों तथा उनके वास्तविक प्रवर्तन एवं प्रशासन में उचित तारतम्य होना चाहिए।
फुलर ने जोर देकर कहा कि समाज में विधि-सम्मत शासन (Rule of Law) स्थापित करने के लिए विधि के नियमों में उपरोक्त बातों का होना नितांत आवश्यक है। वे इन्हें विधि की अन्तरिक नैतिकता’ मानते है जेरोम हॉल (Jarome Hall : 1901-1987)
जेरोम हॉल ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि विधि में नैतिक, सामाजिक, भौतिक एवं औपचारिक तत्वों का समावेश होना आवश्यक है। इस दृष्टि से उन्हें प्राकृतिक विधि का एक प्रबल समर्थक माना गया है। उन्होंने विश्लेषणात्मक विधि और प्राकृतिक विधि में ताल-मेल बैठाने का भरसक प्रयास किया तथा विधि के नियमों, नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक आचरण के सम्मिश्रण से एक नई विधिशास्त्रीय प्रणाली विकसित की जिसे ‘एकीकृत विधिशास्त्र’ (Integrative jurisprudence) कहा गया है। उन्होंने प्रथाओं को विधि के रूप में मान्यता दिये जाने को उचित ठहराया क्योंकि यह मानव के पूर्व अनुभवों पर आधारित होती है। हॉल के विचार से विधि में छ: तत्वों का होना आवश्यक है, जो-(1) नैतिक मान्यता, (2) क्रियात्मकता (functional), (3) नियमितता (regularity), (4) प्रभावशीलता (effectiveness), (5) लोकहित (public interest), तथा (6) श्रेष्ठता (supremacy) हैं।
20, लॉन फुलर हारवर्ड लॉ स्कूल (US) में सन् 1947 से 1978 तक विधिशास्त्र के प्रोफेसर थे। उनके दो ग्रंथ, The
Law in Quest of Itself (1940) तथा The Morality of Law (1964) प्रकाशित हुये हैं।
21. फुलर एल० एल० : एनाटॉमी ऑफ लॉ (1968) पृ० 163.
हॉल ने राज्य द्वारा निर्मित विधि को नैतिकता से पृथक् मानते हुये कहा कि नैतिकता के बिना कोई भी विधि प्रभावकारी नहीं होगी।22
रूडोल्फ स्टेमलर (Rudolf Stammler : 1856-1938)
स्टेमलर (Stammler) के अनुसार प्राकृतिक विधि निश्चित रूप से मानव की संकल्पशक्ति (volition) है। इस विधि का सम्बन्ध बाह्य भौतिक जगत् के क्रिया-कलापों से नहीं है अपितु इसका कार्य साध्य और साधनों को एक दूसरे से सम्बन्धित करना है। स्टेमलर ने अपने विधिक सिद्धान्तों की व्याख्या अत्यन्त बोधगम्य शब्दों में की है। उनके विचार से संसार की समस्त वस्तुओं को दो रूपों में अभिव्यक्त किया जा सकता है-(1) कार्य और कारण के रूप में, और (2) साध्य एवं साधन के रूप में।
स्टेमलर ने कानून को अपवाद रहित सार्वभौमिक बन्धनकारी इच्छा23 निरूपित करते हुए इसके विभिन्न तत्वों को निम्नानुसार वर्णित किया है
(1) कानून बिना किसी अपवाद के बन्धनकारी प्रभाव रखते हैं तथा सभी व्यक्ति इनमें समान रूप से बाध्य होते हैं।
(2) कानून सार्वभौमिक होते हैं। यहाँ सार्वभौमिक (universal) से तात्पर्य राजनीतिक सार्वभौमिकता से नहीं है अपितु मनुष्य की निरंकुश इच्छा की अनुपस्थिति से है।
(3) कानून द्वारा जो सम्बन्ध शासित होते हैं, वे निश्चित और स्थिर होने चाहिये।
स्टेमलर के मतानुसार विधि की संकल्पना (concept of law) के दो प्रमुख प्रयोजन हैं-दार्शनिक और व्यावहारिक। विधि की संकल्पना के दार्शनिक ध्येय को स्पष्ट करते हुए स्टेमलर ने कहा है कि विधि सामाजिक तथ्यों को एक सूत्र में बाँध देती है। उनके अनुसार विधि की संकल्पना यह है कि वह कानून को धर्म, नीतिशास्त्र तथा इतिहास से अलग करती है।
स्टेमलर का मत था कि ऐसे विधिक सिद्धान्त प्रतिपादित करना प्रायः असंभव है जिन्हें सार्वभौमिक या शाश्वत विधिमान्यता प्राप्त हो। उनके अनुसार प्राकृतिक-विधि के सिद्धान्त स्थायी नहीं होते अपितु विधि का स्वरूप स्थायी होता है। अतः समाज, जिसका स्वरूप चिर-स्थायी होता है, यह मानकर चलता है कि उसमें विधि का अस्तित्व होना अपरिहार्य है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है वह दूसरों के अधिकार एवं स्वत्वों (हक़) का आदर करे और इस प्रकार सामाजिक जीवन में अपना सकारात्मक योगदान दें। स्टेमलर ने प्राकृतिक विधि के परिवर्तनीय अन्तर्वस्तु (Variable contents) को ही ‘विधि’ निरूपित किया है।24
कोहलर (Kohler) (1839-1919) ने प्राकृतिक विधि सम्बन्धी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है। कि कोई भी विधि शाश्वत नहीं होती है। विधि का निर्वचन केवल भौतिकवादी दृष्टिकोण से नहीं किया जाना चाहिए और समाज के नैतिक और सांस्कृतिक विकास में प्राकृतिक विधि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह सामाजिक प्रगति का एक सुदृढ़ साधन है।
जॉन रॉल्स (John Rawls : 1921-2002)
प्राकृतिक विधि के पुन:जागरण या पुनरुद्धार में जॉन रॉल्स की भूमिका महत्वपूर्ण है। उन्होंने न्याय के दो आधारभूत सिद्धान्त प्रतिपादित किये
(1) अधिकारों की समता (equality of right) जिसमें मौलिक स्वतन्त्रता, अवसर की उपलब्धता तथा
जीवन-निर्वाह हेतु न्यूनतम साधनों का समावेश है; तथा ।
22. Hall Jarome : Foundations of Jurisprudence, pp. 137-138.
23. Exceptionless universal binding volition.
24. Stammler : Theory of Justice (Translated by Husik) p. 55.
(2) सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं या विषमताओं को इस प्रकार विन्यस्त (arrange) किया जाना
चाहिये ताकि वे समग्र समाज के लिये अधिकतम उपयोगी हों। रॉल्स के अनुसार सुव्यवस्थित समाज का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह होता है कि उसमें लोकमत के अनुसार न्याय और औचित्य (Justice and fairness) सुनिश्चित हो सके। रॉल्स ने न्याय के तीन प्रकारों का उल्लेख किया है
(1) स्थानीय न्याय |
(2) घरेलू या पारिवारिक न्याय, तथा विश्व न्याय (Global Justice) जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लागू हो।
रॉल्स का मत था कि राज्य का यह परम कर्तव्य है कि वह साधनहीन व्यक्तियों के लिये सामाजिक तथा आर्थिक न्याय सुनिश्चित करे, भले ही इससे कुछ सम्पन्न लोगों के प्रति अन्याय हुआ हो। पिछड़ी जाति तथा जनजातियों के लिये नौकरियों तथा चुनाव आदि में आरक्षण व्यवस्था इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।25
रॉल्स ने आवश्यकता के अनुसार सविनय अवज्ञा आन्दोलन (Civil disobedience movement) को न्यायपूर्ण ठहराया, यदि राष्ट्रीय सुरक्षा या स्वतन्त्रता के लिये यह जरूरी हो जाये, लेकिन इसमें हिंसा को कोई स्थान नहीं होना चाहिये।
क्लरेंस मॉरिस (Clarence Morris : 1833-1974)
मॉरिस के अनुसार केवल उचित अच्छे कानून ही न्याय सुनिश्चित करा सकते हैं। अत: कोई भी विधि औचित्य के अभाव में अधिक टिक नहीं सकता और उसका क्षीण हो जाना निश्चित है। मॉरिस ने ‘विधि’ को व्यापक अर्थ में लेते हुये उसे केवल अधिनियमित विधि तक ही सीमित नहीं रखा, अपितु उसमें न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों, प्रथाओं, परम्पराओं एवं रीतियों आदि का भी समावेश किया है। उनके अनुसार कोई भी विधि तब तक प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो सकती जब तक कि उसे जनसमर्थन प्राप्त न हो। आशय यह कि विधि का नैतिक, सामाजिक एवं तकनीकी दृष्टि से औचित्यपूर्ण होना आवश्यक है अन्यथा वह विफल हो जायेगी।
जे० एम० फिनिस (J.M. Finnis)
फिनिस के अनुसार प्राकृतिक विधि व्यावहारिक औचित्य के सिद्धान्तों का एक ऐसा संकलन है जो मानव-जीवन तथा मानव समुदाय को व्यवस्थित रखने में सहायक होती है। प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धान्त पूर्व-नैतिक स्वरूप के होते हैं।26 जिनमें सात बातों का समावेश है। ये हैं-जीवन, ज्ञान, खेल, सौन्दर्य-बोध (aesthetic experience), समाजशीलता (Sociability) या मैत्री, व्यावहारिक औचित्य तथा धर्म 27 ।
फिनिस के अनुसार उपर्युक्त मूलभूत अच्छाइयों का गुण धर्म सर्वविदित है अत: इन्हें सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि शासक का यह प्राधिकार है कि वह सर्वसाधारण की भलाई हेत कार्य करे। यदि वह इन बातों के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसकी प्राधिकारिता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। आशय यह है कि शासक के लिए यह आवश्यक है कि विधि के निर्माण में वह उपर्युक्त तत्वों
के समद्धि की ओर विशेष ध्यान दे ताकि विधि प्रभावकारी एवं जनहित-वर्धक बन सके। फिनिस ने विधिक-दर्शन में वितरणात्मक न्याय को विशेष महत्व दिया, जो मूलतः आवश्यकता, क्रियान्वयन तथा क्षमता पर आधारित होना चाहिए। उनके अनुसार मानव अधिकारों को सुनिश्चित एवं सुरक्षित रखना जनहित का अभिन्न भाग है।
उपर्यत विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्राकृतिक विधि के विषय में विधिवेत्ताओं की धारणाएँ समय के साथ परिवर्तित होती रही हैं। कभी इसका प्रयोग धर्मतन्त्र के समर्थन के लिये किया गया तो कभी निरंकश
25. देखें, भारत का संविधान के अनुच्छेद 15 (3) एवं 16 (4) के प्रावधान,
26. Finnis J. M. : Natural Law & Natural Rights (London, Oxford University Press, 1980) p. 280.
27. Finnis enumerates seven virtues which are basically good : normal life, knowledge, play, aesthetic
experience, sociability or friendship, practical reasonableness and religion.
शासन को समर्थन देने के लिए। यूरोप की अनेक राजनीतिक क्रान्तियाँ भी प्राकृतिक विधि के आधार पर हुई। व्यक्तिवाद और प्रत्यक्षवाद (positivism) की संकल्पनाओं को भी प्राकृतिक विधि के आधर पर ही विकसित किया गया। आज इन सिद्धान्तों की झलक प्राय: सभी न्याय-प्रणालियों में देखने को मिलती है।
इंग्लिश और अमेरिकन न्याय प्रणाली में प्राकृतिक विधि का स्थान
इंग्लिश और अमेरिकी प्रगतिवादी विचारधारा ने इन देशों की विधि-व्यवस्था में से प्राकृतिक विधि को पूर्णतः समाप्त कर दिया है। इन देशों में विधिक समस्याओं के प्रति स्वच्छन्दतावादी दृष्टिकोण (Romanticism) अपनाये जाने के कारण प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त का विशेष महत्व नहीं रहा।
इंग्लैण्ड में प्राकृतिक विधि की स्थिति
उन्नीसवीं शती में उपयोगितावाद (utilitarianism) और प्रत्यक्षवाद (positivism) के प्रभाव के कारण इंग्लैण्ड में विधि सम्बन्धी सैद्धान्तिक वाद-विवाद के बजाय न्यायपालिका द्वारा विधि-निर्माण पर अधिक बल दिया जाने लगा, क्योंकि यह पद्धति अधिक व्यावहारिक प्रतीत हुई । तथापि इंग्लैण्ड की विधि के विकास में प्राकृतिक विधि का प्रयोग दो समस्याओं के निवारण के लिये किया जाता रहा है। प्रथम यह कि विधिक दृष्टि से न्यायालय और संसद में श्रेष्ठ कौन है तथा दूसरा यह कि न्याय की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान माने जायें अथवा नहीं? यद्यपि इंग्लैण्ड के मुख्य न्यायाधीश कोक (Coke) ने संसदीय अधिनियमों के बजाय कॉमन विधि को अधिक महत्वपूर्ण माना,28 परन्तु विधि के वास्तविक प्रवर्तन में न्यायमूर्ति कोक के नियम का कोई आधार दिखलाई नहीं देता है। संसदीय श्रेष्ठता स्थापित हो जाने के बाद प्राकृतिक विधि का महत्व समाप्त प्राय हो गया ।
उल्लेखनीय है कि इंग्लिश विधि-प्रणाली में अनेक विधिक कार्यों की वैधता का निर्धारण आज भी प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त के आधार पर किया जाता है। तथापि इस सिद्धांत को संसदीय अधिनियमों की वैधता के निर्धारण में कभी भी लागू नहीं किया गया। प्राकृतिक विधि के आधार पर जिन मामलों में निर्णय दिया जा सकता है, वे हैं-(i) प्रशासनिक कृत्यों से सम्बन्धित मामले,29 (ii) विदेशी निर्णयों की मान्यता सम्बन्धी मामले, 30 तथा (iii) रीति रिवाजों की विधिक मान्यता से सम्बन्धित प्रकरण 31
इंग्लैण्ड में साम्या विधि के अन्तर्गत न्याय, साम्या तथा शुद्ध अन्त:करण के सिद्धान्त का विकास भी प्राकृतिक विधि पर आधारित है।32 इंग्लिश विधि-पद्धति में ‘युक्तियुक्त’33 (reasonable) या ‘उचित’ (fair)
आदि के आधार पर दिये जाने वाले निर्णयों में प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है। डॉ० विन्फील्ड के विचार से इंग्लिश विधि में संविदा-सादृश्य दायित्व (quasi-contractual obligations) की उत्पत्ति प्राकृतिक विधि सिद्धान्त पर ही आधारित है।34
अमरीकी विधिशास्त्र में प्राकृतिक विधि का स्थान
अमरीकी विधि पर प्राकृतिक विधि के सिद्धान्तों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। संभवत: इसका कारण यह है कि इस देश की विधि व्यवस्था में मानव के सामाजिक परिवेश को अधिक महत्व दिया गया है। अमेरिकी
28. बोन्हम का मुकदमा, (1910) 8 Co. CP. 114.
29. वर्तमान विधिक प्रणाली के दो महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त पर आधारित हैं : प्रथम यह कि ‘कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में न्याय-निर्णयन नहीं दे सकता’ तथा दूसरा यह कि दूसरे पक्ष को भी सुनो’ (Nemo judex in causa sua meaning “no man shall be a judge in his own cause” and audiatur et alterd pars meaning “No man shall be condemned unbeard”, that is the other side should also be heard.
30. चेशायर (Cheshire) : प्राइवेट इण्टरनेशनल लॉ (पाँचवाँ संस्करण, 1957), पृ० 154.
31. प्रोड्यूस बोकर्स बनाम ऑलम्पिया आइल एण्ड कोक कं०, (1916) 2 KB 296.
32. मेटलैण्ड (Maitland) : ‘इक्विटी’, पृ० 9.
33. Haynes v. Horwood, (1935) KB 145.
34. विनफील्ड : प्राविजन्स ऑफ लॉ ऑफ टार्ट (1931), पृ० 133.
स्वतन्त्रता की घोषणा पर रूसो के इस विचार का बहुत प्रभाव पड़ा कि मानव के व्यक्तिगत तथा स्वतन्त्र और सुखमय जीवन व्यतीत करने सम्बन्धी अधिकार अन्तरणीय नहीं हैं। इस सिद्धान्त को बाद में मार्शल, केन्ट तथा स्टोरी35 आदि न्यायाधीशों ने प्रख्यापित किया।
अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक अमेरिका में लोकतन्त्र शासन-पद्धति स्वतन्त्र रूप से कार्य करती रही तथा इस अवधि में विधायन पर न्यायिक नियंत्रण नाम मात्र को ही था। अमरीकी गृह युद्ध के बाद। नई आर्थिक और औद्योगिक परिस्थितियाँ उत्पन्न होने के कारण विधायन पर भी न्यायिक नियंत्रण की आवश्यकता अनुभव हुई जिसे अमेरिका के संघीय संविधान के पाँचवें और चौदहवें संशोधन द्वारा कार्यान्वित किया गया।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में लगभग सभी उद्योगशील राज्यों ने परिवहन के विकास में सक्रिय भाग लेना शुरू किया। उन्होंने बहुमत के अनुमोदन से अनेक निजी उद्योगों को आर्थिक मदद देने की नीति अपनाई। इन। उद्योगों की असफलता की स्थिति में जनता का बहुमूल्य धन नष्ट होना स्वाभाविक था। अत: यह अनुभव किया गया कि राज्यों की विधायिनी शक्ति पर उचित नियंत्रण रखा जाना आवश्यक है। अमेरिकी संविधान में। अहस्तान्तरणीय अधिकारों (inalienable rights) सम्बन्धी उपबन्ध यथोचित विधि-प्रक्रिया (Due Process) तथा प्रजा की सम्पत्ति को देश के कल्याण के लिये उपयोग में लाने के राज्य के अधिकार (Eminent Domain) आदि के उपबन्ध विधायन तथा प्रशासन पर उचित न्यायिक नियंत्रण बनाये रखने के उद्देश्य से ही रखे गये हैं। अमेरिकी संविधान में दिये गये बिल ऑफ राइट्स (Bill of Rights) प्राकृतिक अधिकारों का ही दूसरा रूप है।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका के विभिन्न राज्यों के न्यायालयों के आपसी टकराव उस समय अपनी चरम सीमा पर पहुँच गये जब वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति रूजवेल्ट (Roosevelt) के न्यू डील (New deal) नामक विधायन के मुख्य अंशों की भर्त्सना की। परिणामत: सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संख्या में राज्य सरकारों के समर्थक न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई ताकि सरकार की योजना को न्यायालयीन समर्थन प्राप्त हो सके।
फ्रेंकलिन रूजवेल्ट के द्वितीय राष्ट्रपति-काल में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के रुख में उल्लेखनीय बदलाव आया और वे नये सामाजिक विधायनों के प्रति आदर भाव दर्शाते हुए उनका समर्थन करने लगे। इस बदलाव में न्यायमूर्ति होम्स (Holmes), ब्रेन्डीज (Brandies) तथा कारडोजो (Cardozo) का विशेष योगदान रहा। उदाहरणार्थ, ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजूकेशन36 के बाद में अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने नीग्रो अश्वेतों के लिए पृथक् पब्लिक स्कूल खोले जाने संबंधी विधेयक को जातिभेद के आधार पर असंवैधानिक ठहराते हए। इसे चौदहवें संविधान संशोधन का सरासर उल्लंघन माना। इसी प्रकार स्केल्स बनाम यूनाइटेड स्टेट37 के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने साम्यवादी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को स्मिथ एक्ट के उल्लंघन का दोषी ठहराते । दंडित किया क्योंकि उनके विरुद्ध जानबूझकर अमरीकी सरकार का तख्ता पलट देने के षड़यंत्र का आरोप था
प्राचीन भारतीय हिन्दू विधिशास्त्र में प्राकृतिक विधि का महत्व
भारत के महान् धर्म ग्रंथ महाभारत में यह उल्लेख मिलता है कि राज्य को एक रैली । प्राप्त था तथा प्रजा पर शासन करने का अधिकार शासक को भागत: दैवी शक्ति से तथा भागत. संविदात्मक सहमति से प्राप्त था जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों को अराजकता की स्थिति से संरक्षण देना था। उल्लेखनीय है कि भारतीय प्राचीन विधि में भी न्याय, साम्या तथा शुद्ध अन्त:करण को महत्वपर्ण स्थान प्राप्त चमख स्रोत के रूप में मान्यता दी गई थी 38 याज्ञवल्क्य की कृति में विधि के चार
35. फेरेट बनाम टाइलर, 9 Cranch 434 (1815).
36. (1954) 347 US 483.
37. (1961) 367 US 203.
38. डॉ० नगेन्द्र सिह Justice Concept of Ancient Indian Society (ICPS, 1980) p. 91.
प्रमुख स्रोतों का उल्लेख किया है-श्रुति, स्मृति, समाज द्वारा अनुमोदित प्रथा या रिवाज, तथा अन्तरात्मा की पुकार। ये सभी धर्म या विधि के आधार स्तंभ माने गये थे। मनु ने हिन्दू विधि में न्याय, साम्या और शुद्ध अन्त:करण की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि धर्मानुसार विधिक आचरण वही है जिसे वेद, स्मृति, प्रचलित रीति-रिवाज या अन्तरात्मा का समर्थन प्राप्त हो, तथा ये चारों ही धर्म या विधि के प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में स्वीकार किये गये हैं 39
उल्लेखनीय है कि पुरातन काल में भारतीय विधि को विकसित करने में सदाचार का विशेष महत्व रहा है तथा तत्कालीन विधि के निर्वचन में भी इसकी अहम भूमिका रही है। इसका कारण यह था कि मानव की न्याय की अनुभूति को विधिक मान्यता प्रदान की गयी थी जो उचित एवं न्यायसंगत था 40
प्राचीन भारतीय विधि प्रणाली का एक अन्य प्रमुख लक्षण यह था कि उसमें तर्क या विवेक (reason) को सर्वाधिक प्रधानता दी गयी थी। विक्रमादित्य ने याज्ञवल्क्य द्वारा रचित मीमांसा के संदर्भ में कहा है कि यदि स्मृति के पाठ में इस कारण विरोधाभास हो कि एक बात तर्क के आधार पर कही गई है और दूसरी जगह उसी बात को तर्क का समर्थन प्राप्त न हो, तो ऐसी दशा में तर्क पर आधारित बात ही विधिक रूप से ग्राह्य होगी। पराशर ने भी इस मत का समर्थन किया है। विख्यात टीकाकार नारद ने भी धर्मशास्त्र के संदर्भ में यही बात दोहराई है कि तर्कसंगत और तर्कविहीन के बीच टकराव की दशा में तर्कसंगत व्याख्या को ही स्वीकार किया जाना चाहिए।
पुरातन काल में राज्य तथा धर्म एवं विधि, इन सभी का अंतिम लक्ष्य मोक्ष (salvation) प्राप्ति था। मानव से कर्म और धर्म के अनुपालन की अपेक्षा की जाती थी ताकि वह मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त कर सके। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में मानव से यह अपेक्षा की है वह काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईष्र्या आदि के विकारों पर काबू पाकर मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर रहे। इस प्रकार पुरातन भारतीय विधि में प्राकृतिक विधि को पर्याप्त महत्व प्राप्त था।
प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त की उपलब्धियाँ
प्राकृतिक विधि सिद्धान्त की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी निरपेक्ष आदर्श (absolute ideal) की खोज में विचारकों ने अपने समय की धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार इस सिद्धान्त का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूप में किया। प्राकृतिक विधि के विषय में विद्वानों के विचारों में भिन्नता होते हुए भी प्रायः सभी ने यह स्वीकार किया कि यह विधि वास्तविक कानूनों (Positive law) से बेहतर किसी आदर्श विधि की ओर इंगित करती है। अनेक बार इसका प्रयोग राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये साधन के रूप में भी किया गया। शासक की प्रभुसत्ता के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये राजनीतिक विचारकों ने प्राकृतिक विधि को एक सबल साधन माना। वे जब कभी किसी शासक से असंतुष्ट होते. उसके आदेशों की निरपेक्षता को प्राकृतिक विधि सिद्धांत के आधार पर चुनौती देते । धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त, न्याय-क्षेत्र में भी प्राकृतिक विधि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसका संक्षिप्त विवेचन नीचे किया। गया है
(1) प्राकतिक विधि के आधार पर रोमन विधि-दार्शनिकों ने अपनी नागरिक विधि (Jus Civitis) को सर्वसामान्य विधि (Jus gentium) के रूप में परिवर्तित किया जो रोमवासियों तथा विदेशियों के लिये समान रूप से लागू की जा सकती थी।
(2) मध्य यग में चर्च के समर्थक धर्म-प्रचारकों ने पोप को राज्य के शासक से अधिक शक्ति-सम्पन्न सिद्ध करने के लिए प्राकृतिक नियमों का सहारा लिया।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विकास में प्राकृतिक विधि का सबसे अधिक योगदान रहा है। ह्यगो, ग्रोशियस और जेन्टली (Gentili) इसके प्रमुख समर्थक थे। अन्तर्राष्ट्रीय कानून की वैधता का आधार प्राकृतिक
39. वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षात्धर्मस्य लक्षणम् ।।
40. पी० के० सेन : जनरल प्रिंसिपल्स ऑफ एन्शियेंट इंडियन सोसाइटी (1984) पृ० 14.
विधि ही है। राष्ट्रों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों को प्राकृतिक विधि पर आधारित अन्तर्राष्ट्रीय कानून के माध्यम से ही निपटाया जाता है, जो सभी राष्ट्रों के प्रति समान रूप से बन्धनकारी हैं।
(4) वैयक्तिक स्वतन्त्रता (individual freedom) की भावना प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त से ही विकसित हुई। इस संकल्पना के अनुसार मनुष्य के कुछ अधिकार ऐसे होते हैं जो शासक द्वारा समाप्त नहीं किये जा सकते हैं। इस तर्क के आधार पर राजनैतिक क्षेत्र में एक-तन्त्रात्मक शासन पद्धति के विरुद्ध लोकमत तैयार हुआ और वैयक्तिक स्वाधीनता पर आधारित लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली को प्रोत्साहन मिला।
(5) अमेरिकी न्यायालयों ने संविधान के उपबन्धों का निर्वचन प्राकृतिक विधि सिद्धान्तों के आधार पर किया। परिणामत: राज्य की विधायिनी द्वारा निर्मित ऐसे अनेक कानून अवैध घोषित हुए जो मनुष्य की वैयक्तिक या आर्थिक स्वाधीनता में हस्तक्षेप करते थे।
प्राकृतिक विधि को वर्तमान विधि-व्यवस्था में भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। विभिन्न कानूनों से सम्बन्धित अनेक उपबन्ध प्राकृतिक विधि पर आधारित हैं। उदाहरणार्थ, प्रशासी विधि के प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त (Principles of natural justice), पक्षपात के विरुद्ध सिद्धान्त (doctrine against bias), वचनबद्धत विबंधन (Promissory estoppel) आदि प्राकृतिक विधि सिद्धान्त पर ही आधारित हैं। इसी प्रकार अपकृत्यों से सम्बन्धित कानून में तर्कसंगतता का सिद्धान्त (reasonableness), आपराधिक विधि का यह सिद्धान्त कि जब तक अभियुक्त के विरुद्ध अपराध सिद्ध न हो जाये, उसे निर्दोष माना जाये, न्यासविधि या विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के विभिन्न उपबन्ध, साक्ष्य अधिनियम या व्यवहार प्रक्रिया संहिता के साम्यिक सिद्धान्त तथा वाणिज्यिक विधि (mercantile law) के उपबन्ध आदि सभी प्राकृतिक विधि पर आधारित हैं। यही नहीं, अनेक सम-प्रकरणों (similar cases) में न्यायाधीश जब पूर्व-निर्णयों का प्रयोग करना चाहते हैं तो इस सम्बन्ध में उन्हें अपनी न्याय बुद्धि और विवेक से निर्णय लेना होता है। उनका यह विवेकाधिकार प्राकृतिक विधि सिद्धान्त पर ही आधारित होता है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राकृतिक विधि का सिद्धांत विधिशास्त्र का एक ऐसा अभिन्न अंग बन चुका है जिसका प्रयोग विधि की विभिन्न शाखाओं में उचित न्याय हेतु किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि अनेक बार इस विधि सिद्धान्त को राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु साधन के रूप में प्रयोग में लाया गया परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं है कि यह सिद्धान्त सदैव राजनीतिक अभिलाषाओं की कठपुतली मात्र बना। रहा है। प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त के विकास के विभिन्न चरणों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है। कि विभिन्न कालखण्डों में दार्शनिकों और विचारकों ने इस सिद्धान्त का आश्रय लेते हुए जन-साधारण की इच्छाओं तथा उनके हितों को संरक्षण दिलाने का प्रयत्न किया तथा राज्य या धर्म के आवश्यक हस्तक्षेप के उन्हें मुक्ति दिलाई। वस्तुत: प्राकृतिक विधि ऐसे आदर्श नियमों का संग्रह है जिनका समावेश वास्तलि विधि (positive law) में किया जाना उचित होगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राकतिक लि. वास्तविक विधि की वैधता या अवैधता निश्चित करने का मापदण्ड है। यह विधि वास्तविक विधि निर्माण में केवल मार्गदर्शन का कार्य करती है, अर्थात् विधि निर्माताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि कानून बनाते समय वे प्राक्रति विधि के आदर्शों को ध्यान में रखें। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि किसी देश की विधि व्यवस्था में प्राकृतिक विधि के नियमों का जितना अधिक समावेश होगा, उस देश की न्याय व्यवस्था एवं सामाजिक स्थिति उतनी ही अधिक सुदृढ़ और सुव्यवस्थित होगी। वर्तमान अमेरिका की सामाजिक तथा न्यायिक स्थिति सुदृढ़ होने का प्रमुख कारण यही है कि वहाँ के संविधान में प्राकतिक विधि
विहान्तों को समाविष्ट किया गया है तथा संविधान के उपबन्धों का निर्वचन (interpretation) भी प्राकतिक विधि के सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है । यथार्थ में विधि का विश्लेषण किसी एक
7 से न किया जाकर उसकी व्यावहारिकता, प्रभावोत्पादकता तथा उपादेयता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए ताकि वह सामाजिक न्याय तथा नैतिकता सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि-वास्तव में विधि है अथवा नहीं?
ऑस्टिन तथा कतिपय अन्य विधिवेत्ताओं ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को सही अर्थ में विधि मानने से इस अधार पर इन्कार कर दिया क्योंकि इसकी विषयवस्तु राज्य है जिनमें शक्ति या सामर्थ्य की दृष्टि से इतनी अधिक विषमता है कि वह समाज के व्यक्तियों की भिन्नता को भी मात करती है। इसके अतिरिक्त, अन्तर्राष्ट्रीय विधि में बाध्यकारी शक्ति का अभाव होने के कारण यह एक नैतिक नियमों का संकलन मात्र है। इस विधि के स्रोतों में भी समरूपता का अभाव होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रथाओं, सन्धियों, न्यायिकनिर्णयों, पूर्व-निर्णयों, लेखकों की कृतियों आदि में ढूंढना पड़ता है। अन्तर्राष्ट्रीय अधिकरणों (Tribunals) द्वारा दिये गये निर्णयों में पूर्वानुमान (Predictability) न्यायालयों के निर्णयों की तुलना में अत्यंत न्यून होने के कारण इसमें निश्चितता का अभाव है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि को वास्तव में विधि माने जाने से इन्कार का एक प्रमुख कारण यह भी है कि बन्धनकारी प्रभाव के अभाव में इसकी आज्ञाकारिता (obedience) सन्देहास्पद रहती है और राष्ट्रों द्वारा इसकी अवज्ञा (disobedience) की जाने पर भी कोई निश्चित शास्ति (Sanction) निर्धारित नहीं है। यह विधि केवल राज्यों की आपसी सहमति पर आधारित होने के कारण राज्य इसे कभी भी वापस ले सकते हैं। जो राज्य इस विधि का अनुसरण करते हैं वे केवल नैतिकता के आधार पर ऐसा करते हैं न कि किसी बन्धनकारी शास्ति के कारण। यही कारण है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि ‘नैतिकता के नियम मात्र’ की संज्ञा दी गयी है। राज्य, अन्तर्राष्ट्रीय विधि का अनुपालन करने के लिये बाध्य हों, इसके लिये कोई तन्त्र विकसित नहीं किया गया है, अत: यह राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है कि वे चाहे तो इसका अनुपालन करें या न करें। यदि राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि का अनुपालन करने के लिये अग्रसर होते हैं, तो केवल इस भय के कारण कि उन्हें विरोधी राज्य से युद्ध, नाकेबन्दी, प्रत्याघात (reprisal), प्रतिकार (retaliation) आदि का सामना न करना पड़े। अन्तर्राष्ट्रीय विधि की सबसे बड़ी कमजोरी यह कि विवादित राज्यों के ऊपर कोई सम्प्रभु शक्ति न होने के कारण, वे इस विधि का उल्लंघन करने से परावृत्त नहीं रहते हैं।
हॉलैण्ड ने भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के बारे में ऑस्टिन के उपर्युक्त विचारों से सहमति दर्शाते हुये कहा है। कि यद्यपि आदत (Habit) के रूप में राज्यों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों का अनुपालन किया जाता है। लेकिन वे केवल स्वेच्छया ऐसा करते हैं न कि किसी प्रभावी शास्ति के कारण। अतः, इसे एक सौजन्यता (Curtsy) मात्र कहा जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि को अन्य विधियों से पृथक् मानते हुये हॉलैण्ड कहते हैं। कि इस विधि के पीछे कोई प्राधिकारिक शक्ति नहीं है, जो राज्यों को इसका अनुसरण करने के लिये बाध्य कर सके। इसीलिये हॉलैण्ड ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को विधिशास्त्र का एक क्षीण होता हुआ बिन्दु कहा है।
प्राकृतिक विधि के समर्थक विधिवेत्ताओं ने, जिनमें ह्यूगो ग्रोटस का नाम प्रमुख है, अन्तर्राष्ट्रीय विधि को एक परिपूर्ण विधि मानते हुये कहा है कि यह आपसी विश्वास और सहयोग पर आधारित विधि होने के कारण, राज्यों द्वारा इसका प्रायः उल्लंघन नहीं किया जाता, भले ही इसके पीछे कोई शास्ति नहीं है। प्रकृतिवादी विचारकों का मानना है बाध्यकारी प्रभाव एकमात्र ऐसा तत्व नहीं है जिसके आधार पर राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन करने से डरे, आपसी विश्वास और सद्भाव का प्रभाव इससे कहीं अधिक प्रभावी होता है जो राष्ट्रों को एक सूत्र में पिरोये रखता है।
जैसा कि ब्राइलें (Brierly) ने कथन किया है कि पुलिस बल या शास्ति एकमात्र ऐसा साधन नहीं है जो राज्यों के अन्तर्राष्ट्रीय विधि का अनुपालन करने से परावृत्त रखता है, अपितु सभी सदस्य राष्ट्र अपने स्वयं के हित या सुरक्षा के लिये अन्तर्राष्ट्रीय विधि की अधीनता स्वीकार करते हैं।
बाडले के उक्त विचारों का समर्थन करते हुये जैराम हॉल (Jarome Hall) कहते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक उपयुक्त विधि (Proper law) है जैसी कि अन्य विधियां हैं। इसका उद्भव प्राकृतिक नियमों, पथाओं पर्व निर्णयों आदि से होने के कारण सदस्य राष्ट्र स्वत: आदतन इसका अनुसरण करते हैं न कि किसी बल के भय के कारण। वे भलीभांति समझते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि की अवहेलना करने पर अन्तर्राष्ट्रीय मटाया में उनकी छवि धूमिल पड़ जायेगी जिसका उनके अस्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। राष्ट्रों के मध्य
विवादों को निपटाने के लिये अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग (Hague) में स्थित है जो सुनिश्चित अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार न्याय-निर्णय करता है, अत: यह कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि नैतिक मूल्यों का एक संकलनमात्र है, उचित नहीं है।
ओपेनहेम (Openheim) ने भी ब्राइलें और हॉल के विचारों से सहमति दर्शाते हुये अन्तर्राष्ट्रीय विधि को एक सक्षम विधि माना है क्योंकि इसमें वे सभी तत्व जैसे (1) समुदाय का होना, (2) नियमों का होना, तथा (3) राज्यों के आचरण से सम्बद्ध होना, विद्यमान है, जो किसी विधि में होना आवश्यक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय संधियों या करार के विषय कोई विवाद उत्पन्न होने पर उसके निवारण हेतु अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय कार्यरत हैं। राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद अन्तर्राष्ट्रीय विधि की अवज्ञा करने वाले राष्ट्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये सक्षम है।41 अत: इन सभी प्रावधानों को ध्यान में रखते हुये अन्तर्राष्ट्रीय विधि को एक उपयुक्त विधि मानना ही उचित होगा।
वर्तमान भारतीय विधि प्रणाली में प्राकृतिक विधि की स्थिति
वर्तमान भारतीय विधि-प्रणाली में भी प्राकृतिक विधि के सिद्धान्तों को अधिकाधिक स्थान दिया गया है। जो निश्चित ही एक प्रगतिवादी कदम है। आज भारत के अनेक कानून जैसे बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम, 1976; सिविल अधिकार 1955; न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, समान वेतन अधिनियम आदि प्राकृतिक विधि के नियम पर ही आधारित हैं। प्रशासी विधि के नैसर्गिक न्याय के नियम (rules of natural justice) पूर्णत: प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त पर ही आधारित हैं। भारत के उच्चतम न्यायालय ने मिटू बनाम पंजाब राज्य42 के वाद में भारतीय दंड संहिता की धारा 303 को इस आधार पर अनुचित, दमनकारी तथा अवैध ठहराया क्योंकि इसमें हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सजा भोग रहे कैदी द्वारा पुनः हत्या का अपराध किये जाने पर उसे मृत्यु दण्ड दिया जाना अनिवार्य था। न्यायालय ने इस उपबंध को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 का उल्लंघन मानते हुए इसे अवैध घोषित कर दिया। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में सन् 1993 में किये गये संशोधन भी उपभोक्ताओं को नैसर्गिक न्याय दिलाने के उद्देश्य से किये गये हैं। गरीबों के लिये विधिक सहायता+3 भी प्राकृतिक विधि का ही एक रूप है जिसका प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 39-क में संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा किया गया है। समाज के सभी वर्गों को समान रूप से सुलभ न्याय दिलाने के उद्देश्य से लोक अदालतें कार्यरत हैं, जिनकी कार्य-प्रणाली जटिल न्यायिक प्रक्रिया तथा विधिक औपचारिकताओं से हटकर आपसी समझौते तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों पर ही आधारित है। इसी प्रकार वर्तमान में वैकल्पिक विवाद निपटान (Alternate Dispute Resolution) को विशेष महत्व दिया जा रहा है ताकि न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या की वृद्धि को रोका जा सके तथा विवादी अपने विवाद आपसी समझौते, मध्यस्थता या माध्यस्थम् द्वारा निपटा सकें।
पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ44 के बाद में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी की दर से कम मजदूरी दी जाना संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन माना गया। इसी प्रकार मेनका गाँधी बनाम भारत संघ45 के प्रकरण में संविधान के अनुच्छेद 21 के संदर्भ में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure established by law) के अन्तर्गत सम्यक् अनुक्रम (due process) शामिल होना भी निर्धारित किया गया। उच्चतम न्यायालय ने अनेक वादों में यह विनिश्चित किया कि अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन और स्वाधीनता के अधिकार के अन्तर्गत कारावासियों के शीघ्र विचारण46 (speedy trial) का
41. आतंकवाद के दमन हेतु सन् 2005 में न्यूयार्क में सम्पन्न हुआ अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन; ईराक, ईरान, इस्लामाबाद में
घटित हिंसाओं के प्रति सुरक्षा परिषद की चिन्ता (2008-2010) आदि.
42. ए० आई० आर० 1983 सु० को० 473.
43. Legal Services Authorities Act, 1987.
44. ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1473.
45. ए० आई० आर० 1978 सु० को 597. “O:
46. हुसैनआरा खातून बनाम गह सचिव, बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 1360.
अधिकार, उन्हें उचित विधिक सहायता47 उपलब्ध किये जाने का अधिकार तथा प्राथमिक शिक्षा अधिकार48 भी परोक्ष रूप से शामिल है। इसी प्रकार ओल्गा टेलिस49 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार में जीविकोपार्जन का अधिकार भी। सम्मिलित है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(4), 20 (1), 23, 24 तथा 311 के उपबंध प्राकृतिक विधि के मूलभूत सिद्धान्तों पर ही आधारित हैं। इसी प्रकार संविधान के भाग III में उल्लिखित मौलिक अधिकार तथा भाग IV50 में वर्णित नीति निदेशक सिद्धान्तों से संबंधित उपबंधों में भी प्राकृतिक विधि के सिद्धांतों की झलक स्पष्टतः दिखाई देती है। |
उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत ए० के० क्राइपक1; तुलसीराम पटेल2; चरण लाल साहू53 आदि के बाद भी प्राकृतिक विधि के इन सिद्धान्तों पर निर्णीत किये गये हैं कि किसी भी व्यक्ति को दण्डित किये जाने के पूर्व सुनवाई का पूर्ण अवसर दिया जाना चाहिये54 तथा कोई भी स्वयं के प्रकरण में न्यायाधीश नहीं की भूमिका नहीं निभा सकता है।5।
उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 तथा महिला आयोग अधिनियम, 1993 के प्रावधान भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों पर ही आधारित हैं।
47. एच० एस० हासकोट बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 154.
48. अनु० 21-क; देखें उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1993 सु० को० वीकली 863. 49. ए० आई० आर० 1986 सु० को० 180.
50. अनु० 39 (ख) एवं (ग).
51. ए० के० क्राइपक बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1970 सु० को० 150.
52. भारत संघ बनाम तुलसीराम पटेल, (1985) 3 एस० सी० सी० 398.
53. चरण लाल साहू बनाम भारत संघ, (1990) 1 एस० सी० सी० 663.
54. Audi alteram partem देखें संविधान के अनुच्छेद 32 तथा 311.
55. no one can be a Judge in his own cause.
|
|||
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |