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LLB 1st Year Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 4 Notes

 

LLB 1st Year Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 4 Notes:- Jurisprudence & Legal Theory LLB Bachelor of Laws Law 1st Semester / 1st Year Chapter 4 Natural Law Theory Important Notes Study Material PDF Download in Hindi English and Other Language Available on This Post,

 

अध्याय 4 (Chapter 4)

प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त (Natural Law Theory)

समाज में व्यक्ति को न्याय दिलाने की दिशा में विधि की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण है कि सदियों से विधिवेत्तागण विधि की सार्थकता के बारे में अपनी-अपनी धारणाएँ व्यक्त करते चले आ रहे हैं। इस सम्बन्ध में एक धारणा की अभिव्यक्ति हमें प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त में मिलती है। फ्रीडमैन के अनुसार प्राकृतिक विधि का इतिहास वस्तुत: मानव द्वारा शुद्ध न्याय की खोज तथा इसमें उसकी असफलता की कहानी मात्र है। राष्ट्रों के सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों के साथ प्राकृतिक विधि सम्बन्धी धारणा में भी परिवर्तन होते रहे हैं। तथापि विचारकों ने सदैव ही यह स्वीकार किया है कि प्राकृतिक विधि के नियम वास्तविक सूत्रबद्ध विधि से कहीं अधिक उत्कृष्ट तथा ग्राह्य होते हैं।

प्राकृतिक विधि का महत्व

विधि के क्षेत्र में प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त का पर्याप्त महत्व रहा है। रोम की सिविल विधि (Roman civil law) को सर्वदेशीय (cosmopolitan) व्यवस्था के रूप में परिवर्तित करने के लिये प्राकृतिक विधि का ही सहारा लिया गया था। इसी प्रकार मध्य युग (medieval period) में जर्मनी में चर्च और राज्य के बीच आपसी संघर्ष के समय इन दोनों ही पक्षों ने प्राकृतिक विधि का उपयेाग एक शास्त्र के रूप में किया तथा स्वयं को दूसरे पक्ष की तुलना में श्रेष्ठतर सिद्ध करने का प्रयास किया। अन्तर्राष्ट्रीय विधि की वैधता तो पूर्णत: प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त पर ही आधारित है। व्यक्ति स्वातन्त्र्य के लिये राज्य की असीमित अधिकार-शक्ति के विरुद्ध आवाज उठाने वाले विचारकों ने प्राकृतिक विधि को ही अपनी विचारधारा को आधार बनाया। अमेरिका के न्यायाधीशों ने अमेरिकी संविधान के निर्वचन (interpretation) में प्राकृतिक विधि के नियमों का सहारा लेते हुए विधान-मण्डल द्वारा मनुष्य की आर्थिक स्वतंत्रता पर लगाये गये प्रतिबन्धों का विरोध किया।

विभिन्न राष्ट्रों के विकास में भी प्राकृतिक विधि-सिद्धांत का पर्याप्त योगदान रहा है। इस विधि के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए विधिवेत्ताओं ने महत्वपूर्ण राजनीतिक, समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतिपादित किये जो समयानुकूल परिवर्तन लाने के लिये आवश्यक थे। जब कभी समाज में अशांति या अराजकता फैलने लगी तो लोगों का विश्वास प्रचलित विधि-व्यवस्था से उठने लगा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में मनुष्य को आवश्यक सामाजिक संरक्षण दिलाने के प्रयत्नस्वरूप विद्वानों ने प्राकृतिक विधि के आदर्शतम नियमों को तत्कालीन प्रचलित विधि में समाविष्ट किये जाने पर बल दिया तथा प्रचलित विधि में तदनुसार परिवर्तन किये। | विधिशास्त्रियों ने प्राकृतिक विधि को अपनी विचारधाराओं के अनुसार अनेक भागों में विभक्त किया है। तदनुसार प्राकृतिक विधि को प्राधिकारिक तथा व्यक्तिवादी (Authoritarian and Individualistic), प्रगतिशील तथा रूढ़िवादी (progressive and conservative), धार्मिक तथा विवेकशील (Religious and Rationalistic), निरपेक्ष तथा सापेक्ष (absolute and relative) आदि वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। परन्तु न्यायिक दृष्टि से प्राकृतिक विधि से तात्पर्य ऐसे आदर्श नियमों से है, जो राज्य की वास्तविक सूत्रबद्ध विधि की तुलना में कहीं अधिक उत्कृष्ट और व्यावहारिक हों तथा जिनका वास्तविक विधि द्वारा अनुकरण किया जाना अपेक्षित है। जेरोम हॉल के अनुसार विधि के विकास में सामाजिक भूल्यों (social values) की। परिहार्य भूमिका रहती है जो विधि को नैतिकता से पूर्णत: पृथक किये जाने से रोके रहती है।

1. फ्रीडमैन : लीगल थ्योरी (पांचवाँ संस्करण), पृ० 95.

2. जेरोम हॉल : फाउंडेशन्स ऑफ ज्यूरिसपूडेंस अध्याय 2 पृ० 22.

इसमें संदेह नहीं कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के समर्थकों ने अपनी धारणाओं की पुष्टि के लिए। प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त से प्रेरणा ली। परन्तु प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त में सामान्यत: दो महत्वपूर्ण विचारों का समावेश प्रमुखता से दिखलाई देता है। प्रथम, यह एक ऐसी सर्वव्यापी व्यवस्था है जो सभी मनुष्यों के प्रति समान रूप से लागू होती है। दूसरे, इसके अनुसार मनुष्यों के अधिकार अन्तरणीय नहीं हैं। इस दृष्टि से विधिक मान्यताओं के क्रम में प्राकृतिक विधि सिद्धान्त की भूमिका महत्वपूर्ण है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के उद्गम का मूल स्रोत होने के कारण प्राकृतिक विधि सदैव ही विकासोन्मुख रही है।

प्राकृतिक विधि का अर्थ

विधिक-क्षेत्र में यह धारणा प्रारम्भ से ही चली आ रही है कि मानव द्वारा निर्मित विधि स्वयं में पूर्ण नहीं हो सकती; अत: प्राकृतिक विधि के आधार पर विद्वानों ने कुछ ऐसे आदर्श नियम बनाने का प्रयास किया जो वास्तविक जीवन में लागू किये जा सकें। प्राकृतिक नियम की धारणा का उदय प्राचीन यूनान से हुआ। सोफोक्लीज के अनुसार कुछ ऐसे अलिखित कानून भी हैं जो सभी प्राणियों के प्रति समान रूप से लागू होते हैं। अरस्तू के पश्चात् यूनान में स्टोइक विचारधारा (Stoic philosophy) ने जोर पकड़ा। इस विचारधारा के समर्थकों के अनुसार कुछ ऐसे नियम होते हैं जो प्रकृति, जीव और मनुष्य, सभी के प्रति समान रूप से लागू होते हैं। उन्होंने इन सर्वव्यापी और सर्वकालिक नियमों को प्राकृतिक विधि” की संज्ञा दी । उनका विश्वास था कि समस्त विश्व ऐसे ही व्यापक बुनियादी नियमों से बंधा हुआ है। स्टोइक्स के अनुसार ये नियम तर्क या विवेक पर आधारित हैं और इन्हें ‘‘दैवी नियम” भी कहा जा सकता है क्योंकि ये ईश्वर के ऐसे आदेश हैं जो मानव पर लागू हैं। मानव अपनी बुद्धि के आधार पर ऐसे नियमों का सृजन कर सकता है। कालांतर में। मध्यकालीन तथा आधुनिक विचारकों ने प्राकृतिक विधि के विषय में अपनी अलग-अलग व्याख्यायें दीं।।

प्राकृतिक विधि के सम्बन्ध में एक विचारधारा यह भी रही है कि जिस प्रकार शासक किसी निश्चित समुदाय पर शासन करता है तथा अपनी व्यावहारिक विवेक-बुद्धि (practical reason) से कुछ आदेशों को निर्मित करता है, उसी प्रकार ईश्वर समस्त ब्रह्माण्ड पर शासन करता है तथा ईश्वरीय बुद्धि से उत्पन्न कुछ प्राकृतिक नियम होते हैं, जो सभी प्राणियों के प्रति समान रूप से लागू होते हैं। शासक द्वारा निर्मित आदेशों को वास्तविक या सूत्रबद्ध विधि कहा जाता है जबकि ईश्वरीय नियमों को दैवी या प्राकृतिक विधि की संज्ञा दी गयी है। जीवों की सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर प्राकृतिक विधि की कल्पना साकार हुई। इसे विद्वानों ने व्यावहारिक जीवन में लागू किये जाने पर बल दिया, अर्थात् उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मानव-निर्मित समस्त विधियों को प्राकृतिक नियमों के अनुकूल होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि विधिवेत्ताओं ने प्राकृतिक नियमों को विधि के आदर्श मानते हुए यह व्यक्त किया कि मानव द्वारा निर्मित ऐसे सभी सूत्रबद्ध कानन्। (अर्थात वास्तविक विधि या राजकीय विधि) जो प्राकृतिक विधि के विरुद्ध हैं, अनुचित होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि प्राकृतिक विधि (natural law) ही सामान्य विधि (ordinary law) को मान्यता या अमान्यता प्रदान करती है।

प्राकृतिक विधि की परिभाषा

प्राकृतिक विधि की परिभाषा के विषय में विधिशास्त्री एक-मत नहीं हैं तथा उन्होंने अपनी-अपनी । धारणाओं के अनुसार इसे परिभाषित किया है। तथापि इस बात से प्रायः सभी विधिशास्त्री सहमत हैं कि परिवर्तनों के साथ स्वयं को अनुकूलित (adapt) करना प्राकृतिक विधि का सर्वश्रेष्ठ गण है क्योंकि अन्तर्गत मुल धारणा यह अन्तर्निहित है कि समाज सदैव परिवर्तनशील है और ऐसा ही बना देगा।

विधिवेत्ताओं का मानना है कि प्राकृतिक विधि जैसा कि नाम से ही स्पष ३ अन्तर्निहित होने के कारण इसके लिये राज्य या विधायन जैसे किसी बाह्य सर्जनकर्ता की आवश्यकता नही होता होती है अपित यह स्वयमेव विकसित होती रहती हैं। डायस के अनुसार मानव स्वभाव में निहित मूल्य । यया विधायन जसे किसी बाह्य सृजनकर्ता की आवश्यकता नहीं (values) ही प्राकृतिक विधि को वैधता प्रदान करते हैं ।

3. डायस आर० एम० डब्ल्यू० : ज्यूरिसपूडेन्स (5वां संस्करण) पृ० 65

कोहेन के मतानुसार प्राकृतिक विधि कोई अधिनियमित या संकलित विधि न होकर कार्यों या घटनाओं को मानव दृष्टि से देखने और परखने की पद्धति मात्र है जिसमें नैतिकता, न्याय, औचित्य (Reason) सदाचरण, समता, स्वतन्त्रता आदि के तत्व विद्यमान रहते हैं।

विधिशास्त्रीय दृष्टिकोण से प्राकृतिक विधि से आशय ऐसे नियमों तथा सिद्धान्तों से है जिनका उद्भव किसी ऐसे बाह्य दैवी स्रोत से हुआ है जो राजनीतिक या सांसारिक संस्थाओं से परे है। कुछ विधिवेत्ता इसे दैवी प्रदत्त नियम मानते हुये इन्हें न्याय-प्रशासन में उचित महत्व दिये जाने पर बल देते हैं। यहां तक कि वर्तमान यथार्थवादी विधिक विचारधारा के समर्थकों ने विधि की समाजशास्त्रीय शाखा को विकसित करने में प्राकृतिक विधि के नियमों का सहारा लिया है ताकि समाज में मानवों के बीच टकरावों को टाला जा सके।

प्राकृतिक विधि की उपयोगिता

प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त की उपयोगिता के विषय में विधिशास्त्रियों के विचारों में मतभेद भले ही रहे। हों लेकिन इसमें संदेह नहीं कि विधि-क्षेत्र में इस सिद्धान्त का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, क्योंकि इस सिद्धान्त ने विधि सुधारकों का ध्यान ‘यथार्थ’ से हटाकर ‘आदर्श’ की ओर आकर्षित किया। प्राकृतिक नियम मानव की प्रकृति, नैतिकता, न्याय बुद्धि अथवा विवेक इनमें से किसी पर भी आधारित किये जा सकते हैं। दीर्घकाल तक विधिशास्त्रियों की यह धारणा रही कि ये नियम निश्चित तथा अटल होते हैं और इनमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। किन्तु इटैलियन विधिवेत्ता डेल-वेक्हियो (Del Vecchio) ने यह विचार व्यक्त किया कि प्राकृतिक नियम भी सामाजिक अवस्थाओं के परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होते हैं; अर्थात् समय की गति के अनुसार उनके स्वरूप और विषय-वस्तु में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार वेकिहो ने प्राकृतिक विधि सम्बन्धी विकासवादी व्याख्या प्रस्तुत की। प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त की चर्चा करते हुए सेवाइन ने कहा है कि प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त वास्तविक कानून के आदर्शात्मक तत्वों को स्थान दिलाने का प्रयत्न करता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विकास और उन्नति में पर्याप्त रूप से सहायक होता है।

कालान्तर में प्राकृतिक विधि का क्षेत्र अधिक व्यापक होने लगा। प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त सम्बन्धी यह प्राचीन धारणा कि यह सिद्धान्त एक ऐसा आदर्श है जिसकी प्रस्थापना ‘प्रकृति’ (या ईश्वर) से हुई है तथा जिसका सम्बन्ध बाह्य जगत के प्राणियों की सामान्य मूल प्रवृत्तियों से है, समय के साथ धूमिल पड़ने लगी तथा अब इस सिद्धान्त को नैतिकता से सम्बद्ध कर दिया गया है, अर्थात् अब प्राकृतिक विधि का सम्बन्ध मनुष्य में पायी जाने वाली मूल प्रवृत्तियों से स्थापित किया गया है। उदाहरण के लिए, मनुष्य स्वभावत: एक सामाजिक प्राणी होने के नाते उसमें कुछ विशिष्ट प्रवृत्तियाँ नैसर्गिक रूप से ही पायी जाती हैं-जैसे आत्मरक्षा की प्रवृत्ति, दया या न्याय की प्रवृत्ति आदि। इन प्रवृत्तियों के आधार पर जो प्राकृतिक नियम निर्मित होंगे वे मनुष्य की बुद्धि की उपज न होकर उसकी अन्तरात्मा की आवाज होंगे। इन नियमों का तार्किक विश्लेषण नहीं किया जा सकता क्योंकि वे प्रकृति द्वारा मानव-हृदय में अंकुरित रहेंगे।

उल्लेखनीय है कि विधि-विचारकों की दृष्टि में प्राकृतिक विधि के आधार-स्रोत भिन्न-भिन्न होने के कारण उन्होंने इसे अनेक नाम दिये हैं। प्राकृतिक विधि को ईश्वर प्रदत्त नने वाले विधिशास्त्रियों ने इसे “दैवी-विधि” (Divine Law) की संज्ञा दी है जबकि इसके सार्वलौकिक स्वरूप के कारण कुछ विद्वानों ने इसे ‘सार्वलौकिक विधि’ (universal law) भी कहा है। अनेक विधिशास्त्रियों ने इसे नैतिक विधि (Moral Law) के नाम से भी संबोधित किया है तथा अन्य इसे ‘प्राकृतिक विधि’ (Law of Nature) कहना उचित । समझते हैं क्योंकि यह मानव की नैसर्गिक तर्क-शक्ति की उपज है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में विधिवेत्ताओं की धारणा यह रही है कि प्राकृतिक विधि का सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क से न होकर उसकी अन्तरात्मा से है। परन्तु पुनर्जागरण काल (Renaissance) के प्रभाव से प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त भी अछूता न रह सका। इस युग के विचारकों ने प्राकृतिक विधि का

4. कोहेन : रीडिंग्स इन ज्यूरिसपूडेन्स एण्ड लीगल फिलॉसफी, (1951) पृ० 661.

व्याख्या करते हुए यह विचार प्रस्तुत किया कि प्राकृतिक विधि का आशय उन नियमों से है जो मनुष्य के तार्किक स्वभाव के अनुकूल हों तथा जिनका मनुष्य अपनी तर्कबुद्धि द्वारा विश्लेषण कर सके।

प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त के प्रति विधिशास्त्रियों की धारणा में निरन्तर परिवर्तन होते रहने का प्रमुख कारण यह है कि समय के साथ मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती गयी और वह अपनी तर्कबुद्धि से प्राकृतिक नियमों को व्यावहारिक रूप देता रहा है। आरम्भ में मनुष्य प्राकृतिक विधि को बाह्य जगत् के समस्त जीवधारियों में खोजता था, बाद में उसने इन नियमों को अपनी आन्तरिक प्रवृत्तियों से सम्बन्धित माना जिसका कालान्तर में तार्किक विश्लेषण के आधार पर मूल्यांकन किया जाने लगा। सम्भवतः प्राकृतिक विधि के सम्बन्ध में प्रारम्भिक विचारधारा इस तथ्य पर आधारित थी कि अन्य प्राणियों की भाँति मानव भी प्रकृति का एक अंग है; अतः उसे प्राकृतिक नियमों के अनुसार चलना चाहिये जैसा कि अन्य प्राणी करते हैं। परन्तु । कालान्तर में यह अनुभव किया गया कि मानव में विचार-शक्ति (बुद्धि) होने के कारण उसकी प्रकृति के दो स्वरूप हैं। प्रथमत: अन्य प्राणियों की भाँति वह भी प्राणी है, अत: इस रूप में उसे उन सभी प्राकृतिक नियमों। का पालन करना चाहिए जो अन्य प्राणी करते हैं। दूसरे, मानव के पास मस्तिष्क होने के कारण उसमें तर्क बुद्धि तथा विचार करने की क्षमता होती है। इस रूप में वह अन्य प्राणियों से भिन्न है। कुछ समय तक बुद्धि का अर्थ मानव की प्रवृत्तियों से सम्बद्ध नैतिक आदर्शों से लगाया गया परन्तु बाद में इसे मानव की तार्किक बुद्धि कहा गया। मनुष्य की इस दोहरी भूमिका का समर्थन कान्ट, केल्सन, स्टेमलर, जॉन स्टुअर्ट मिल तथा वेक्हियो आदि विधिशास्त्रियों ने भी किया है।

उल्लेखनीय है कि इंग्लैण्ड में विधि-सम्मत शासन’ (Rule of law) तथा अमरीकी संविधान की ‘उचित प्रक्रिया’ (due process) की संकल्पनायें (concepts) प्राकृतिक विधि के नियमों पर ही आधारित हैं। भारतीय विधि में भी संविधान में वर्णित ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by law) की संकल्पना को वास्तविक रूप से उचित प्रक्रिया” (due process of law) के रूप में निर्वचित (Interpret) करने का आधार प्राकृतिक विधि के नियम ही हैं। प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त का विकास

सुविधा की दृष्टि से प्राकृतिक विधि के विकास का अध्ययन निम्नलिखित काल-खण्डों में किया जा सकता है

(1) यूनानी काल (Greek Period)

प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त का दर्शन सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिकों की विचारधारा में मिलता है। हेराक्लिटस (Heraclitus) ने प्रकृति के तीन प्रमुख लक्षण बताये जो क्रमश: निम्नानुसार हैं

(1) अन्तिम लक्ष्य (destiny), |

(2) अवस्था (order); तथा |

(3) तर्क या युक्ति (reason)

हेराक्लिटस (Heraclitus, 530-470 ई० पू०) के मतानुसार प्रकृति वस्तुओं का बिखरा हुआ ढेर मात्र नहीं है अपितु प्रकृति की वस्तुओं में पारस्परिक सम्बन्ध है तथा उसमें व्यवस्था भी है। जिस प्रकार प्रकृति में। एक निश्चित व्यवस्था है उसी प्रकार मनुष्यों को भी प्राकृतिक नियमों का अनुपालन करके मानव समाज में व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए। यूनानी दार्शनिकों का मत था कि मानव द्वारा स्वनिर्मित विधि का अनुगमन किये जाने के परिणामस्वरूप मानव समाज में उच्छृखलता तथा कुव्यवस्था उत्पन्न हो गयी है, जो केवल प्राकृतिक विधियों का अनुसरण करने से ही समाप्त की जा सकती है। प्राकृतिक विधि के अनुसार समाज के “क्ति समान हैं; अतः उनमें भेद-भाव नहीं होना चाहिये। इस तर्क के आधार पर समाज के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के विशेष अधिकारों की समाप्ति तथा दास-प्रथा के उन्मूलन को प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ।

5. मेनका गांधी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 597

(2) स्टोइक काल (Stoic Period)

स्टोइक (Stoic) विचारधारा के अनुगामियों में सुकरात का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने न्याय के दो प्रकार बताये जिन्हें प्राकृतिक न्याय (natural justice) तथा विधिक न्याय (legal justice) की संज्ञा दी गई। सुकरात (Socrates) के अनुसार प्राकृतिक न्याय सभी स्थानों में एक समान होता है; परन्तु विधिक न्याय मूल रूप में हमेशा एक ही प्रकार का होते हुए भी समय और स्थान के साथ-साथ उसका स्वरूप बदलता रहता है। राज्य द्वारा निर्मित विधि का उद्देश्य विधिक न्याय स्थापित करना है। कानूनों के औचित्य अथवा अनौचित्य का निर्धारण उसकी बुद्धि एवं अन्तर्दृष्टि ही करती है। कानूनों के औचित्य का निर्धारण भी मानव की अन्तर्दृष्टि ही करती है। अत: केवल ऐसे कानून ही उचित होंगे जो प्रकृति के अनुकूल हों तथा जिनका मानव तर्क-शक्ति या बुद्धि समर्थन करे। सारांश यह है कि प्राकृतिक विधि एक ऐसी वास्तविक विधि है, जो सार्वभौमिक तथा अपरिवर्तनशील है तथा जो सभी मनुष्यों के प्रति सभी स्थानों में और सभी समय समान रूप से लागू की जा सकती है।

प्लेटो (Plato : 427-347 BC)

सुकरात द्वारा प्रतिपादित प्राकृतिक विधि की संकल्पना को आगे बढ़ाते हुये उनके शिष्य प्लेटो ने इसे आदर्श राज्य (Ideal State) के रूप में विकसित किया जिसे उन्होंने Republic नाम से सम्बोधित किया। उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि राज्य का शासक केवल कोई प्रबुद्ध, कुशल एवं सुयोग्य व्यक्ति ही होना चाहिये न कि वंशानुगतता के आधार पर उसे सत्तारूढ़ किया जाये। शासक को अपनी भावनाओं तथा इच्छाओं को अंकुशित रखते हुये बुद्धिमत्ता से शासन करना चाहिये ताकि रिपब्लिक की जनता सुख-शांति से रह सके। प्लेटो का मानना था कि शासक सहित राज्य का प्रत्येक नागरिक अपने कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखे तथा दूसरों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करे, तो लोक शांति बनी रहेगी और लोग स्वयं ही विधि के अनुपालन में रुचि लेंगे। इस प्रकार प्लेटो ‘न्यूनतम शासन’ (minimum governance) की नीति के प्रबल समर्थक थे।

अरस्तू (Aristotle : 384-322 BC)

स्टोइक काल में प्राकृतिक विधि के अर्थ की अधिक विस्तृत व्याख्या की गयी है। अब यह बाह्य वस्तुओं के दर्शन, परीक्षण तथा अनुभव द्वारा अर्जित किया जाने वाला सार्वभौम और अन्तिम नियमों का ज्ञान-मात्र (knowledge of universal and ultimate laws) न रह कर मनुष्य की आन्तरिक चिंतन शक्ति से संबद्ध कर दी गयी। प्राकृतिक विधि सम्बन्धी इस नयी व्याख्या के सूत्रधार अरस्तू? थे जिन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि मनुष्य एक चेतनशील प्राणी होने के कारण उसमें दो स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। प्रथम, यह कि वह प्रकृति का अंग होने के कारण अन्य प्राणियों की भाँति प्राकृतिक नियमों का अनुसरण करता है तथा द्वितीय यह कि उसमें विवेक-शक्ति होने के कारण वह प्राकृतिक नियमों को औचित्य के आधार पर परख सकता है। अरस्तू द्वारा प्रतिपादित मनुष्य के दोहरे स्वभाव के इस सिद्धान्त ने ही प्राकृतिक विधि-सम्बन्धी स्टोइक विचारधारा को नई दिशा दिलवाई जिसमें प्राकृतिक विधि को नैतिक आदेश के समतुल्य माना गया। उसके विचार में नैतिक आदेश मानव की अन्तरात्मा की आवाज है जिसका उद्गम मनुष्य की आत्मा से होता है न कि उसके मस्तिष्क से। ।

अरस्तू ने प्राकृतिक विधि की संकल्पना (concept) को तार्किक (Logical) आधार पर आगे विकसित किया। उनके विचार से मानव दो अर्थों में प्रकृति का ही एक हिस्सा है। प्रथम यह कि उसकी निर्मिति ईश्वर (God) से हुई है और दूसरे यह कि ईश्वर ने उसे बुद्धि प्रदान की है जिसका प्रयोग करते हुये वह तर्क (reason) के आधार पर उचित-अनुचित का निर्णय लेने में समर्थ है। अरस्तु के अनुसार प्राकृतिक विधि में तर्क (reason), न्याय और नैतिकता के तत्व विद्यमान हैं। वे राज्य निर्मित विधि और प्राकृतिक विधि के

6. Socrates (470-399 B.C.).

7. Aristotle (385-322 B.C.).

विभेद का समर्थन करते हैं, परन्तु उनके अनुसार जैसे ही राज्य विधि अस्तित्व में आकर उसका प्रवर्तन होने लगता है, इन दोनों विधियों का अन्तर समाप्त हो जाता है।

डीन रास्को पाउंड ने प्राकृतिक विधि संबंधी यूनानी विचारधारा (Greek Philosophy) का सारसंक्षेप निम्नानुसार प्रस्तुत किया है

(1) इस विचारधारा के समर्थक विधि विशेषज्ञ या विधि में पारंगत व्यक्ति न होकर, दार्शनिक, वक्ता (orator) या विचारक व्यक्ति थे;

(2) इन विचारकों पर राज्य द्वारा निर्मित विधि तथा जनजातियों में प्रचलित रीति-रिवाजों का प्रबल प्रभाव था;

(3) वे समाज में प्रचलित तत्कालीन प्रथाओं तथा परंपराओं को राज्य की विधि के रूप में परिवर्तन के पक्षधर थे तथा दोनों के विभेद को उन्होंने स्वीकार नहीं किया; ।

(4) उनकी धारणा थी कि विधि की निर्मिति मानव की कुशाग्र बुद्धि एवं तर्कसंगतता की प्रतीक है, इसलिये समाज द्वारा उसका समर्थन किया जाना चाहिये।

(3) रोमन काल (Roman Period)

रोमन काल में प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त को एक नया रूप दिया गया। वस्तुत: यूनानी विचारकों की प्राकृतिक विधि सम्बन्धी धारणाओं का रोम में प्रसार होने के बहुत पहले ही रोमवासियों ने अपनी व्यावहारिक बुद्धि के आधार पर प्रकृति के नियमों को व्यावहारिक जीवन में लागू करना प्रारम्भ कर दिया था। रोमन विधिशास्त्रियों तथा न्याय-पंडितों के समक्ष सबसे जटिल समस्या यह थी कि विशाल रोम साम्राज्य में निवास करने वाली विभिन्न जातियों, भाषाओं, रीति-रिवाजों तथा कानूनों को मानने वाले लोगों को कौन-सी। निश्चित विधि द्वारा प्रशासित किया जाए। इन सभी लोगों के प्रति रोमन विधि लागू करना उन्हें अनुचित तथा अन्याय पूर्ण प्रतीत हुआ तथा ऐसा करना व्यावहारिक भी नहीं था। इस समस्या के निवारण के लिये उन्होंने अपने देश की विधि में ऐसे विदेशी कानूनों तथा रीति-रिवाजों को समाविष्ट करना प्रारम्भ कर दिया जो विदेशियों और रोमवासियों के प्रति समान रूप से लागू किये जा सकते थे और जो मानव की स्वाभाविक तर्कबुद्धि के अनुकूल थे। रोम के न्यायाधीशों ने उनके समक्ष न्याय-निर्णय हेतु आने वाले मामलों के माध्यम से इन कानूनों को अपनी विधि-व्यवस्था में सामान्य सिद्धान्तों के रूप में स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु रोमन न्यायशास्त्रियों ने बाह्य निरीक्षण के आधार पर जिन विधिक सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया वे प्राकृतिक विधि (Jius neturale) के सिद्धान्तों से कुछ मामलों में भिन्न थे। उदाहरणार्थ, प्राकृतिक विधि के अनसार दासता की प्रथा अनुचित थी क्योंकि सभी मनुष्य समान थे, लेकिन रोमन विधिशास्त्रियों ने दास प्रथा का समर्थन किया तथा स्वदेशियों को, अर्थात् रोमवासियों को विदेशियों से श्रेष्ठतम माना। इसी भिन्नता के कारण रोमन-विधिशास्त्रियों ने ऐसी विधियों को प्राकृतिक विधि (Jus naturale) न कह कर सार्वजनिक विधि (Jus gentiuna) की संज्ञा दी। ये नियम सार्वभौमिक थे तथा सभी स्थानों या समय में लागू किये जा सकते थे। सारांश यह कि प्राकृतिक विधि की कल्पना के सहारे रोम की न्याय व्यवस्था में दो प्रकार की विधियाँ अपनायी गयीं जिन्हें नागरिक विधि (Jus civitas) तथा सार्वजनिक विधि (Jius gentiuma) कहा गया। नागरिक विधि केवल रोमवासियों के प्रति ही लागू की जा सकती थी जबकि सार्वजनिक विधि (Jus gentitutna) रोमवासियों तथा रोम में निवास करने वाले अन्य विदेशियों के प्रति समान रूप से लाग होती थी।

सिसरो (Marcus Tullius Cicero) रोम के सुप्रसिद्ध अधिवक्ता एवं विधिक दार्शनिक थे जिन्होंने प्राकृतिक विधि को ‘उचित का सही ज्ञान’ निरूपित किया अर्थात् जो आचरण सही एवं उचित है वही प्राकृतिक विधि के अनुकूल होगा। उनके अनुसार सामाजिक परिवर्तनों के साथ नागरिक विधि (jus icivitas)

8. Lloyed Dennis : An Introduction to Jurisprudence (1955) p. 311.

9. जोलोविझ (Joloweiz) : हिस्टोरिकल इन्ट्रोडक्शन टु रोमन लॉ (1939) पृ० 103.

के समयानुकल ढालना आवश्यक होता है क्योंकि परिवर्तन एक प्राकृतिक नियम है। उनका मत था कि प्राकृतिक विधि के सिद्धान्तों तथा राज्य निर्मित विधि में विरोधाभास होने की दशा में राज्य विधि की अनदेखी की जानी चाहिये क्योंकि प्राकृतिक विधि राज्य विधि की तुलना में अधिक उच्चतर (Superior) है। सिसरो ने प्राकृतिक विधि को विश्व-स्तर पर लागू किये जाने का समर्थन किया क्योंकि वह औचित्य (reason) पर आधारित होने के कारण अधिक न्यायसंगत होती है।10।

भारत की प्राचीन हिन्दू-विधि प्रणाली-प्राकृतिक विधि के विकास के संदर्भ में भारत की प्राचीन विधियों की स्थिति का उल्लेख कर देना उचित होगा। भारत की प्राचीन हिन्दू विधि प्रणाली प्रारम्भ से ही युक्तियुक्त एवं तर्कसंगत धार्मिक सिद्धान्तों पर आधारित थी। इस विधि का मूल आधार श्रुति एवं स्मृति रहे हैं। श्रुति से आशय ऐसे धर्म-नियमों से है, जो प्राचीन ऋषि-मुनियों से सुने गये थे तथा जिनका उल्लेख वेदों में किया गया है। इसी प्रकार स्मृति के आधार पर भी अनेक विधि-नियम अस्तित्व में आये। स्मृतियों में मनुस्मृति का विशेष महत्व है। पुरातन हिन्दू विधि ईश्वर-प्रदत्त मानी गयी थी तथा शासक तो उस विधि को कार्यान्वित करने का एक साधन या माध्यम मात्र है। धर्मशास्त्रों, स्मृतियों तथा अन्य टीकाकारों के ग्रंथों में उल्लिखित नियमों का अनुपालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था। इन नियमों में परस्पर विरोधाभास होने की दशा में युक्तियुक्त नियमों को प्रधानता दी जाना अनिवार्य माना गया था।

(4) अन्धयुग (Dark Age)

प्राचीन सभ्यता के लोप के पश्चात् अन्धयुग में भी एम्ब्रोस (Ambros), सेन्ट आगस्टीन (St. Augustine) तथा ग्रेगोरी (Gregory) आदि ईसाई पादरियों ने सामाजिक व्यवस्था में प्राकृतिक विधि के आदर्श को यथावत् बनाये रखा। परन्तु इन विचारकों ने प्रकृति के अलावा ‘ईश्वर’ को प्राकृतिक विधि का मूल । स्रोत माना। इस युग के धर्म-प्रवर्तकों ने गिरिजाघर के महत्व पर जोर देते हुए यह विचार व्यक्त किया कि मनुष्य की भलाई धर्म की उच्च शिक्षा एवं सिद्धान्त को मानने में ही है न कि राज्य या सरकार के आदेशों के पालन करने में। चर्च को सर्वश्रेष्ठ निरूपित करते हुए इन विचारकों ने राज्य, सरकार, दासता, सम्पत्ति आदि को मनुष्य की बुरी इच्छाओं का प्रतीक माना। परन्तु अन्ध युग की यह धारणा अधिक समय तक न टिक सकी। (5) मध्य युग (Medieval Period)

यूरोपियन इतिहास में बारहवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शती के प्रारम्भ का समय मध्य-युग का काल खण्ड माना जाता है। इस युग के प्रवर्तकों ने चर्च की श्रेष्ठता को समाप्त करने का प्रयत्न करते हुए व्यक्त किया। कि यद्यपि राज्य, दासता, सम्पत्ति आदि बुरी भावनाओं और इच्छाओं के प्रतीक हैं तथा इनका उदय प्रकृति से नहीं हुआ परन्तु फिर भी इनकी आवश्यकता इसलिए है क्योंकि मनुष्य की बुरी भावनाओं को रोकने या सीमित रखने के माध्यम हैं। चर्च के अधिष्ठाताओं के अनुसार ये एक ही समय पाप के फल तथा पाप की । ईश्वरीय औषधि, दोनों ही हैं।12।

प्राकृतिक विधि-सम्बन्धी मध्यकालीन विचारधारा में निम्नलिखित बातों का उल्लेख मिलता है

(1) यह धारणा कि समाज और राज्य मनुष्य की बुरी भावनाओं के प्रतीक हैं, भ्रामक है। वास्तविकता यह है कि न्याय और अच्छाई आदि नैतिक गुणों के विकास के लिए समाज एवं राज्य परम आवश्यक हैं। सिसरो (Cicero), सिनेका (Seneca) तथा सेन्ट थॉमस एक्वीनास आदि विचारों ने इस मत का समर्थन किया है।

(2) उपर्युक्त धारणा से ही सम्बन्धित एक अन्य विचार यह है कि कानून समाज का सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है, जो शासक और शासितों के प्रति समान रूप से बन्धनकारी है। सम्भवत: प्राचीन काल की प्राकृतिक विधि

10. सिसरो ने अपनी पुस्तक De Legibus में प्राकृतिक विधि का सविस्तार वर्णन किया है.

11. विद्वभिः सेवित: सभि नित्यमद्वेषरागिभि:। हृदयेनाभ्यसंज्ञातो या धर्मस्तन्निबोधत: ॥ मनुसंहिता अध्याय 2 श्लोक 1.

12. कारलाइल (Carlyle) : मिडाइवियल पालिटिकल थ्योरी इन दि वेस्ट (1950) पृ० 10.

सम्बन्धी विचारधारा तथा बाद के युग की ईसाई-शिधा की मिश्रित प्रतिक्रिया के बाद के युग की ईसाई-शिक्षा की मिश्रित प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही मध्ययग में भी कानून को सबसे अधिक महत्व दिया गया था।

(3) मध्यकालीन दार्शनिकों, विधिज्ञों तथा राजनीतिज्ञों के समक्ष सबसे जटिल समस्या यह थी कि सर्वोपरि कानून का निर्वचन (interpretation) किस प्रकार किया जाये। पाँचवीं शताब्दी के अंतिम वर्ष में पॉप ग्लेशियस pretation) किस प्रकार किया जाये। पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में D. Gelasius) ने चर्च और राज्य के बीच सत्ता का संतुलन बनाये रखने के लिये दो को सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इसके अनुसार मनुष्य के क्रिया-कलाप के दो क्षेत्र हैं-एक लौकिक तथा दसरा पारलौकिक। ये दोनों क्षेत्र एक दूसरे से भिन्न हैं तथा दोनों में परस्पर हस्तक्षेप या टकराव का प्रश्न ही नहीं उठता। राज्य का शासक लौकिक क्षेत्र में सर्वोच्च है तथा पोप (चर्च का धर्म-गुरु) मनुष्य के पारलौकिक क्षेत्र का प्रमुख व्यक्ति होने के कारण इस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ है; अत: दोनों अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम होने के कारण इनमें आपसी द्वन्द्व की स्थिति का प्रश्न ही नहीं था। परन्तु यह संतुलित विचारधारा अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी और पोप तथा सम्राट के बीच शक्ति के लिए विरोध निरन्तर बढ़ता ही गया। इसी विवाद के कारण पोप और सम्राट के बीच शक्ति-परीक्षण के लिये अनेक युद्ध हुये।।3।।

(4) मध्यकालीन विचारकों के सामने प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त के सम्बन्ध में एक अन्य प्रश्न यह था कि विकसित समाज में वैधानिक शक्ति (legal authority) का स्रोत क्या हो? इस काल के अधिकांश विचारकों का मत था कि सरकार और कानून जनता की देन हैं।

यद्यपि इस विचारधारा को कालान्तर में विधिवेत्ताओं का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु सत्रहवीं शती के बाद यह विचारधारा पुन: पनपने लगी। मध्यकाल के महान् दार्शनिक थॉमस एक्वीनास (Thothis Acquinas) के विचार में शासक जनता द्वारा चुना जाता था; अत: जनता को यह पूर्ण अधिकार था कि वह ऐसे अत्याचारी शासक को हटा दे जो जनता का विश्वास सम्पादित न कर सकता हो। एक्वीनास के मतानुसार जनता को सरकार और राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने का अधिकार था। सम्भवत: उनका यह विचार अरस्तू की मिश्रित राज्य (mixed State) की कल्पना पर आधारित था। ओ० रोहिली (0. Rahilly) के अनुसार चौदहवीं शंती से सत्रहवीं शती के अधिकांश मध्ययुगीन दार्शनिकों ने जनता की श्रेष्ठता के सिद्धान्त का समर्थन किया जिसका आशय यह था कि शासक को शासितों की इच्छानुसार शासन करना चाहिए। |

(5) प्राकृतिक विधि के संदर्भ में प्राचीन विचारकों की यह धारणा कि सम्पत्ति बुरी वस्तु है, मध्ययुग के दार्शनिकों ने अमान्य कर दी। यही नहीं, सेन्ट थॉमस एक्वीनास ने मानव के निजी अधिकारों तथा सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों का प्रबल समर्थन किया और उसे न्यायोचित कहा। सम्भवत: इसका कारण यह था कि वे अरस्तू तथा पश्चात्वर्ती रोमन दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।

विख्यात विधिशास्त्री गिर्के (Gierke) के अनुसार मध्ययुगीन क्रिश्चियन धार्मिक विचारधारा निम्नलिखित दो मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित थी : |

(1) एकमेव क्रिश्चियन धर्म, गिरिजाघर (Church) तथा साम्राज्य (Empire) की एकता ईश्वर से प्राप्त

(2) विधि, चाहे वह दैवी हो अथवा मानव निर्मित, की श्रेष्ठता विश्व एकता का प्रतीक है।

गि का मानना था कि राज्यों की उत्पत्ति तथा मानव निर्मित विधि के आगमन के पर्व मानव के सभी संव्यवहार एवं आचरण प्राकृतिक विधि द्वारा ही प्रशासित होते रहे हैं। सेन्ट थॉमस एक्वीनास ( 1226-1274) पाकतिक विधि के संदर्भ में सेन्ट थॉमस एक्वीनास (St. Thomas Acquinas) का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने प्राकृतिक विधि को देवी विधि (Divine Law) से पृथक् करने का प्रयास किया।

11. इनमें दो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में पोप ग्रेगोरी और सम्राट हेनरी चतर्थ के बीच चर्च त राज्य की श्रेष्ठता को लेकर विवाद खड़ा हुआ। इसी प्रकार 1296 ई० में पोप बोनीफेस अष्टम तथा फ्रान्स में सम्राट फिलिप फेयर के बीच शक्ति-परीक्षण के लिए संघर्ष हुआ.!

सेन्ट एक्वीनास का विचार था कि समस्त मानव समुदाय दैवी शक्ति द्वारा प्रशासित होता है। यह निर्विवाद है। कि दैवी विधि (Divine Law) सर्वश्रेष्ठ है; परन्तु सम्पूर्ण दैवी विधि का ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर है। मानव दैवी विधि के केवल कुछ भाग को ही जान सकता है जिसे हम प्राकृतिक विधि कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में प्राकृतिक विधि दैवी विधि का ही एक भाग है जिसे मनुष्य अपनी स्वाभाविक बुद्धि द्वारा स्वयं जान सकता है। मानव में बुद्धि या तर्क-शक्ति होने के कारण वह दैवी विधि के इस भाग को अर्थात् प्राकृतिक विधि को, अपने दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों में प्रयुक्त कर सकता है और इसके आधार पर उचित-अनुचित का निर्णय ले सकता है। मनुष्य द्वारा निर्मित सभी विधियाँ प्राकृतिक नियमों पर ही आधारित हैं। सारांश यह है कि मानव द्वारा निर्मित विधि प्राकृतिक विधि का ही एक अंग है। इस दृष्टिकोण से एक्वीनास ने विधि के निम्नलिखित चार प्रकार बताये हैं

1. दैवी विधि (Law of God),

2. प्राकृतिक विधि (Law of Nature),

3. मानवीय विधि (Human Laws), या 4. धार्मिक ग्रन्थों में लिखित विधियाँ (Law Divine)

थॉमस एक्वीनास का विचार था कि मानव द्वारा बनाये गये कानून प्राकृतिक विधि तथा दैवी विधि के अनुकूल होने चाहिए। दैवी विधि क्या है, इसका निर्णायक चर्च का पोप था न कि राज्य का शासक। इस प्रकार एक्वीनास ने दोहरी सार्वभौमिक सत्ता का समर्थन किया जो कालान्तर में गंभीर विवाद का कारण बन गया।

सेंट थॉमस एक्वीनास के अनुसार मनुष्य द्वारा निर्मित विधि (man made laws) समय और स्थान के अनुसार परिवर्तनशील होती है। यह विधि मूलत: उपयोगिता पर आधारित रहती है। केवल वही मानवकृत विधिमान्य हो सकती है, जो प्राकृतिक और धार्मिक विधि की सीमाओं के अन्तर्गत बनाई गई हो। उनका कहना था कि राज्य द्वारा बनाये गये कानून अनुचित नहीं होने चाहिये । इस प्रकार पारलौकिक क्षेत्र में चर्च की। प्रतिष्ठा को प्रधानता देते हुए लौकिक क्षेत्र में उन्होंने शासक की सार्वभौमिक सत्ता को स्वीकार किया।14

थॉमस एक्वीनास ने सम्पत्ति के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए मनुष्य के साम्पत्तिकअधिकारों का समर्थन किया। उनका विचार था कि सम्पत्ति का अर्जन उचित है क्योंकि मनुष्य स्वयं के लिये प्राप्त वस्तुओं के प्रति अधिक जागरूक रहता है जबकि संयुक्त सम्पत्ति की सुरक्षा के प्रति उतना सजग नहीं रहता। मनुष्यों के बीच सम्पत्ति का विभाजन वस्तुओं की उपादेयता में वृद्धि करता है। सम्पत्ति-प्राप्ति से मनुष्य को संतोष (Satisfaction) मिलता है जो शान्ति-व्यवस्था स्थापित करने में सहायक होता है।

थॉमस एक्वीनास के अनुसार मनुष्य में सम्पत्ति के कारण अमीर-गरीब का भेदभाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है। परन्तु उनका कहना था कि किसी भी व्यक्ति को सम्पत्ति से पूर्णत: वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। सम्पत्ति का उपयोग केवल प्राप्तकर्ता के लिये ही नहीं, वरन् सभी के हित में किया जाना चाहिए।

थामस एक्वीनास ने अरस्तू द्वारा प्रतिपादित ”न्याय” की संकल्पना का समर्थन करते हुये अभिकथन किया कि न्याय का अनुसरण एक आदत के समान है जो मानव कृत्य एवं अनुभव के आधार पर विकसित होती रहती है। उन्होंने वितरणात्मक न्याय (distributive justice) को विशेष महत्व दिया। उनके अनुसार न्याय एक ऐसा सद्गुण (virtue) है जिसका मानव द्वारा आपस में एक दूसरे के प्रति संव्यवहार में अनुपालन किया जाना अपेक्षित है।’न्याय’ के अन्तर्गत एक दूसरे के वैध अधिकारों के प्रति आदर दर्शाया जाना गर्भित रूप से समाविष्ट है। ‘न्याय’ का राजनीतिक उद्देश्य प्रजाजनों को एक दूसरे से जोड़े रखना है ताकि वे आपसी सौहार्द से शांतिपूर्वक रह सकें। एक्वीनास ने इस बात पर जोर दिया कि वास्तविक न्याय तभी साकार रूप ले। सकता है जब मानव में अपने लाभ को अन्यों के साथ मिलजुलकर बाँटने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो। उल्लेखनीय है। कि न्याय संबंधी यह यूनानी अवधारणा वर्तमान समय में भी उतनी ही सुसंगत है जैसे कि वह तत्कालीन युग में थी।

14. फ्रीडमैन एल० एम० : लीगल थ्योरी (पाँचवाँ संस्करण), पृ० 108.

अतः स्पष्ट है कि प्राकृतिक विधि के प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए मध्य युग के महान् दार्शनिक सेन्ट थॉमस एक्वीनास ने चर्च एवं सम्राट, लौकिक एवं पारलौकिक तथा धनवान एवं धनहीन के बीच जो समन्वय स्थापित किया वह वास्तव में सराहनीय है।

(6) पुनर्जागरण काल (Renaissance Movement)

– सत्रहवीं शताब्दी के आगमन के साथ सामाजिक, आध्यात्मिक तथा राजनीतिक विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए जिसके परिणामस्वरूप मध्य यूरोप में पुनर्जागरण तथा सुधारों की एक लहर दौड़ गई। राज्य की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई। मनुष्य के ज्ञान में अपूर्व वृद्धि हुई, यहाँ तक कि वह अपनी बुद्धि को एक विशाल शक्ति समझने लगा। उसकी तर्क-शक्ति ने उसमें ज्ञान-पिपासा जागृत कर दी तथा अब वह स्वयं को प्रकृति या ईश्वर का अंश मात्र मानकर संतुष्ट रहने तक के लिये तैयार नहीं था। मनुष्य की ज्ञान-वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि उसने स्वयं को धार्मिक बन्धनों से मुक्त कर लिया, अर्थात् चर्च का प्रभुत्व पूर्णतः समाप्त हो गया तथा राज्य को सर्वोच्च शक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त हुई । व्यावसायिक प्रगति के कारण मनुष्य में स्वयं की सम्पत्ति के प्रति सुरक्षा की भावना प्रबल हुई। एक ओर राज्य सर्वशक्तिशाली था, दूसरी ओर मनुष्य स्वयं को तथा निजी सम्पत्ति की सुरक्षा के प्रति सचेष्ट था। इस नवीन सामाजिक जागृति के प्रभाव से प्राकृतिक विधि-सम्बन्धी धारणा अछूती न रह सकी। अब ईश्वरीय विधि की पारलौकिक शक्ति के स्थान पर मनुष्य की तार्किक बुद्धि को प्राकृतिक विधि का आधार माना गया। प्राकृतिक विधि-सम्बन्धी इस नवीन व्याख्या का श्रेय प्रसिद्ध डच विधिशास्त्री ह्यगो ग्रोशियस (Hugo Grotius) को है जिन्हें वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय विधि का प्रणेता माना जाता। है। उल्लेखनीय है कि इस नवीन विचारधारा में अरस्तू द्वारा प्रतिपादित मनुष्य के द्वैध स्वभाव के सिद्धान्त को पुन: स्वीकार किया गया।15

ह्यगो ग्रोशियस के अनुसार मनुष्य स्वभाव से शान्तिप्रिय होता है। उसकी यह इच्छा उसके तार्किक स्वभाव के अनुकूल है। उसके विचार से यदि मानव निर्मित विधि प्राकृतिक विधि के अनुसार नहीं है तो वह अग्राह्य होगी।

ह्यगो ग्रोशियस की भाँति पुफेन्डोर्फ (Pufendorf) ने भी प्राकृतिक विधि को मानव स्वभाव के दो रूपों पर आधारित करते हुए कहा है कि अपनी स्वयं की तथा निजी सम्पत्ति की रक्षा करना मानव स्वभाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, परन्तु इस हेतु उसे समाज की शान्ति में बाधा पहुँचाने का अधिकार नहीं है।

प्राकृतिक विधि की मध्यकालीन विचारधारा के आधार पर वेटेल (Vattel) ने कहा है कि वस्तत. आरम्भिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्रों के प्रति प्राकृतिक विधि लागू करने के अलावा और कछ नहीं है अन. यह एक आवश्यक विधि होने के कारण सभी राष्ट्रों को इसे मानना चाहिए।

प्राकृतिक विधि पर सामाजिक संविदा के सिद्धान्त का प्रभाव (Impact of Social Contract Theory on Natural Law)

naissance) में व्यक्तिवाद को निरन्तर प्रोत्साहन मिलता रहा जिसके स्पष्ट संकेत सन् 1789 की फ्रांस की क्रांति तथा अमेरिका की स्वतंत्रता-घोषणा में मिलते हैं। एक ओर पनजाति समाज में नव चेतना की लहर आई थी तो दूसरी ओर राज्य की शक्ति भी निरन्तर बढ़ती जा चर्च के बन्धनों से पूर्णतः मुक्त हो चुका था तथा अब यह विरोध चर्च और राज्य से हर बीच आ गया था। राज्य और प्रजा के बीच बढ़ते हुए विरोध को सामाजिक संविदा के 6 Contract Theory) द्वारा समाप्त करने का प्रयास किया गया।

। बढ़ते हुए विरोध को सामाजिक संविदा के सिद्धान्त (Social Contract Theory) द्वारा समाप्त करने का प्रयास किया गया |

15. अरस्तु (ariistonic) ने प्राकृतिक विधि की व्याख्या करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि मानव दो रूपों में प्रकृति है। एक तो वह अन्य प्राणियों की भाँति प्राणी होने के नाते प्रकृति के नियमों द्वारा बाध्य है तथा दूसरे उसमें होने के कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न है और अपनी तर्क-शक्ति के कारण भले-बुरे का निर्णय स्वयं कर सकता है.

वैसे तो सामाजिक संविदा के सिद्धान्त का उल्लेख प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ (Republic) में भी मिलता है। आदिकाल में जब सभ्यता का विकास नहीं हुआ था उस समय न कोई कानून था और न कोई राज्य या अन्य व्यवस्था ही थी। अतः तत्समय मानव अपनी प्राकृतिक अवस्था में था। परन्तु स्वच्छन्द जीवन से ऊबकर व्यक्तियों ने आपस में शान्तिपूर्वक रहने और एक दूसरे का आदर करने का समझौता किया जिसे ‘पेक्टम यूनियनिस’ (Pactum Unionis) कहा गया है। इसी समझौते के साथ-साथ लोगों ने एक और समझौता किया जिसके अन्तर्गत उन्होंने स्वयं द्वारा चुनी हुई सरकार के आदेशों का पालन करने का करार किया। इस दूसरे समझौते को ‘पेक्टम सब्जेक्शनिस’ (Puctum subjectionis) कहा गया। आरम्भ में सामाजिक संविदा को केवल एक ऐतिहासिक तथ्य मात्र माना गया था परन्तु इसके विकास के दूसरे चरण में इसे वैधानिक तर्क (legal reason) का आधार माना गया। ह्यगो ग्रोशियस ने सामाजिक संविदा को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में। स्वीकार किया जबकि कॉन्ट ने इसे तर्क का आधार-मात्र माना है।

सामाजिक संविदा के सिद्धान्त (Social Contract Theory) के बारे में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये हैं, तथापि प्राय: सभी विचारकों ने यह स्वीकार किया है कि राजनैतिक शक्ति केवल जनता में ही । निहित होती है। राज्य की जन्मदात्री जनता है तथा जनता के बिना राज्य का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं हो सकता है।

सामाजिक संविदा के सिद्धान्त ने प्राकृतिक विधि सम्बन्धी विचारों को तो प्रभावित किया ही परन्तु इसका सर्वाधिक प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र में पड़ा। इस सिद्धान्त के कारण एक ओर व्यक्तिवादी विचारधारा को समर्थन प्राप्त हुआ, तो दूसरी ओर राज्य की सम्प्रभुता को भी उचित मान्यता प्राप्त हुई।

सामाजिक संविदा के सिद्धान्त के समर्थकों में निम्नलिखित विचारकों के नाम विशेष उल्लेखनीय

ह्यगो ग्रोशियस ( 1583-1645)

ह्यगो ग्रोशियस (Hugo Grotius) को राष्ट्रों की विधि का प्रणेता माना जाता है। ग्रोशियस ने सामाजिक संविदा के सिद्धान्त को एक ऐतिहासिक तथ्य मानते हुए उसका निरूपण दो उद्देश्यों से किया। प्रथम यह कि प्रजा प्रत्येक स्थिति में सरकार के आदेशों को माने तथा द्वितीय यह कि राष्ट्रों के बीच परस्पर सम्बन्ध वैधानिक नियमों पर आधारित हों। सामाजिक संविदा का आधार लेते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया कि विभिन्न राज्यों की स्थापना सामाजिक संविदा के आधार पर ही हुई है। जनता अपनी इच्छानुसार सरकार बनाती है परन्तु यदि जनता द्वारा चुनी गई सरकार प्रजा की इच्छाओं का आदर नहीं करती तो क्या जनता ऐसी सरकार को अपदस्थ कर सकती है? इस विषय में ग्रोशियस के विचार स्पष्ट नहीं थे। उनके अनुसार एक बार जनता द्वारा सरकार चन ली जाने के बाद उसे शासक के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार नहीं था चाहे वह शासक कितना ही बरा क्यों न हो। सम्भवत: शासक पर प्रतिबन्धों के विषय में ग्रोशियस की उदासीनता का कारण यह था. क्योंकि वे अन्तर्राष्ट्रीय विश्व में स्थिरता तथा व्यवस्था बनाये रखने पर अधिक महत्व देते थे। परन्त योशियस का यह स्पष्ट मत था कि शासक के लिए प्राकृतिक विधि का अनुसरण करना अनिवार्य है। चूँकि वचन पालन’ प्राकृतिक विधि का एक महत्वपूर्ण नियम है, अत: सरकार जनता को दिये गये वचन का पालन करने के लिए कटिबद्ध है।16।

ग्रोशियस का यह भी मानना था कि शासक की राजनीतिक सत्ता प्रजा द्वारा उसके साथ की गई सामाजिक संविदा पर आधारित है। अत: शासक का यह परम कर्तव्य है कि वह प्रजा की देखभाल तथा सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करे क्योंकि प्रजा ने ही उसे सत्ता सौंपी है। शासन-तन्त्र में शासक से प्राकृतिक नियमों का अनुपालन किया जाना अपेक्षित है। ग्रोशियस के अनुसार विश्व शांति के लिए राष्ट्रों का स्थायित्व तथा सुव्यवस्थित होना नितांत आवश्यक था।17।

16. फ्रीडमैन : लीगल थ्योरी (पाँचवाँ संस्करण), पृ० 119.

17. लॉयड डेनिस : इन्ट्रोडक्शन टु ज्यूरिसपूडेंस (1985) पृ० 115.

थॉमस हॉब्स (1588-1679)

थॉमस हाब्स (Thomas Hobbes) ने सामाजिक संविदा के सिद्धान्त (Social Contract Theory) को अपनी राजनीतिक विचारधारा का आधार बनाया। उन्होंने ब्रिटेन के गृहयुद्धों में स्वयं भाग लिया था। ब्रिटेन के सम्राट चार्ल्स-प्रथम के शासनकाल में संसद और सम्राट के बीच जो गृहयुद्ध हुआ था उसमें हॉब्स ने सम्राट का पक्ष लिया था; अत: उनके द्वारा शासक के निरपेक्ष अधिकारों का समर्थन किया जाना स्वाभाविक ही था। हॉब्स प्राकृतिक विधि के समर्थक अवश्य थे परन्तु इस सम्बन्ध में उनके विचार अन्य विचारकों से भिन्न थे। उन्होंने प्राकृतिक विधि को न तो आदर्श अवस्था माना और न इसे मनुष्य द्वारा निर्मित वास्तविक विधि की तुलना में श्रेष्ठतर ही समझा। उनके अनुसार प्राकृतिक विधि एक आत्मगत मौलिक अधिकार है, जो मानव स्वभाव के अनुकूल है। यद्यपि उन्होंने प्राकृतिक विधि के आदर्शात्मक सिद्धान्तों को अनुकरणीय माना, परन्तु इस विधि के पीछे किसी प्रकार की वैधानिक शास्ति (sanction) न होने के कारण इसे विशेष महत्व नहीं दिया।

हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक विधि केवल नैतिक सिद्धान्त मात्र नहीं थे अपितु वे मनुष्य-आचरण के ऐसे नियम थे जो मनुष्य-स्वभाव तथा अनुभव पर आधारित थे। |

हॉब्स ने आत्म-रक्षा के अधिकार को प्राकृतिक विधि का मूल सिद्धान्त माना है। प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य केवल स्वयं के हित के प्रति ही सचेत था तथा उसे दूसरे के हितों की परवाह नहीं थी। इस स्थिति में मनुष्य में परस्पर संघर्ष होना स्वाभाविक था; परिणामत: प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को असुरक्षित समझता था। मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि उसे आत्म-सुरक्षा की ओर प्रेरित करती थी तथा वह असुरक्षा की स्थिति से बचना चाहता था। अत: निरन्तर संघर्ष की स्थिति से ऊब कर मनुष्यों ने अपनी आत्मरक्षा की दृष्टि से स्वयं में से किसी व्यक्ति को शासक के रूप में चुना तथा एक संविदा द्वारा अपने समस्त प्राकृतिक अधिकार उसे सौंप दिये। यह निर्णय बिना किसी शर्त के था जिसके अन्तर्गत लोगों ने यह करार किया कि प्रत्येक स्थिति में वे शासक की आज्ञा का पालन करेंगे। शासक ने भी संविदा के अन्तर्गत कुछ कर्तव्यों का पालन करने का वचन दिया परन्तु यह संविदा बिना किसी शास्ति के थी। इस प्रकार हॉब्स के अनुसार जनता ने स्वेच्छा से बिना किसी शर्त के अपने समस्त अधिकार शासक को समर्पित कर दिये जिससे शासक को असीमित अधिकार शक्ति प्राप्त हुई और जनता किसी भी स्थिति में शासक का विरोध नहीं कर सकती थी। ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हॉब्स ने प्राकृतिक विधि की बजाय नागरिक विधि (Civil law) को ही गुरुतर माना क्योंकि प्राकृतिक विधि अनुकरणीय होते हुए भी उचित शास्ति (sanction) के अभाव में उतनी प्रभावकारी नहीं हो सकती है जितनी कि नागरिक विधि, जिसके पीछे शासक की शास्ति विद्यमान है।18 हॉब्स के विचार में राज्य से पृथक् समाज का कोई अस्तित्व नहीं है तथा शासक की शक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार हॉब्स ने चर्च को भी राज्य के अधीन माना। हॉब्स प्रत्येक प्रकार की शासन-व्यवस्था का समर्थन करते हैं तथापि वे निरपेक्ष राजतन्त्र को ही श्रेष्ठतम मानते हैं।

थॉमस हॉब्स ने विधि को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया

(1) शाश्वत विधि (lex aeterma),

(2) दैवी विधि (lex divina),

(3) प्राकृतिक विधि (lex naturalis) तथा

(4) मानवीय विधि (lex humana) ।

पवत विधि से उनका आशय ऐसी दैविक तर्कशक्ति से था जो केवल ईश्वर के ही वश में है। उनका मानना था कि यह संसार परमात्मा द्वारा रचित है और सभी प्राणी उसकी इच्छाना

18. हॉब्स ने अपने ग्रन्थ लेवियाथन भाग-2, अध्याय 17 में कहा है

“Governments without the sword are but words, and of no strength to secure a man at all.” –Leviathan.

दैवी विधि से हॉब्स का तात्पर्य धर्मग्रन्थों में उल्लिखित विधि से था।

प्राकृतिक विधि उन नियमों का संकलन है, जो मानव को सदाचरण की ओर प्रेरित करते हैं तथा उसे बुराइयों से बचाए रखते हैं।

मानवीय विधि को हॉब्स ने राज्य द्वारा निर्मित विधि निरूपित किया जिसके पीछे राज्य की शास्ति छिपी रहती है और जिसके कारण लोग इस विधि का अनुपालन करने के लिए बाध्य रहते हैं।

हॉब्स ने शासक की संप्रभु-शक्ति को स्वीकार करते हुए गिरिजाघर (चर्च) को उसके अधीनस्थ माना।

जॉन लॉक (1632-1704)

जॉन लॉक (John Locke) की सामाजिक संविदा के सिद्धान्त सम्बन्धी व्याख्या हॉब्स से भिन्न थी। प्राकृतिक विधि को राज्य द्वारा निर्मित विधि से अधिक श्रेष्ठ मानते हुए उन्होंने हॉब्स से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया। हॉब्स के सामाजिक संविदा-सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य ने अपने समस्त प्राकृतिक अधिकार स्वयं द्वारा चुने गये शासक को समर्पित कर दिये थे। परन्तु लॉक ऐसा नहीं मानते। उनके मतानुसार सरकार का अस्तित्व जनता के बहुमत पर आधारित है। जॉन लॉक ने शासक को मनुष्यों के अधिकारों का न्यासी के रूप में माना। उनका मत था कि शासक या राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक कि वह मानवीय अधिकारों की रक्षा करता है। हॉब्स की सामाजिक संविदा की आलोचना करते हुए लॉक ने कहा-”मनुष्य के आजीविका, स्वाधीनता तथा सम्पत्ति के अधिकारों को उससे पृथक् नहीं किया जा सकता। अत: ये अधिकार किसी भी संविदा द्वारा राज्य को अन्तरित नहीं किये जा सकते हैं।”

जॉन लॉक के अनुसार सामाजिक संविदा के पूर्व की प्राकृतिक अवस्था (state of nature) में मानव का जीवन सुखमय था। चारों ओर शान्ति, सद्भावना, पारस्परिक सहयोग तथा आपसी सुरक्षा का वातावरण व्याप्त था। इस अवस्था में मनुष्य को वे सभी अधिकार प्राप्त थे जो प्रकृति द्वारा उन्हें दिये गये हैं, परन्तु उसमें संगठन (organization) की कमी थी। अत: लोगों ने संविदा द्वारा स्वयं को संगठित समाज के रूप में परिवर्तित कर लिया। लॉक ने अपने सामाजिक संविदा के सिद्धान्त में दोहरे संविदा की कल्पना की है। प्रथम, मनुष्यों द्वारा आपस में मिल-जुल कर एक संगठित समाज बनाया गया, जिसमें सभी लोग सम्मिलित हुए, कोई व्यक्ति इससे बाहर नहीं रहा। दूसरे, मनुष्यों के इस संगठित समुदाय ने अपनी प्राकृतिक व्यवस्था को त्यागकर राज्य को जन्म दिया।

जॉन लॉक के अनुसार संविदा करते समय व्यक्ति अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने की शक्ति एक नवनिर्मित राज्यसत्ता को सौंप देते हैं। वे इस शक्ति को किसी व्यक्ति-विशेष या समूह को नहीं सौंपते, अपितु पूरे समाज को सौंपते हैं। उनके प्राकृतिक अधिकार यथावत् सुरक्षित बने रहते हैं। वस्तुत: इन अधिकारों को सुरक्षित रखने की दृष्टि से ही वे अपनी संविदा करते हैं और राज्य को जन्म देते हैं। अत: व्यक्ति के अधिकारों में किसी प्रकार की कमी नहीं होती और न वे स्वयं नयी सत्ता के अधीन ही रहते हैं। सारांश यह कि बहुमत द्वारा निर्मित राज्य मानवीय अधिकारों का एक न्यासी (trustee) मात्र होता है। लॉक ने अपने सामने सामाजिक संविदा के सिद्धान्त में जन-प्रतिनिधित्व पर आधारित संसदीय शासन-प्रणाली का समर्थन किया है।

कुछ आलोचकों ने लॉक के विचारों से असहमति व्यक्त की है। उनके अनुसार यदि मानव की प्राकृतिक अवस्था सुखमय थी, तो उन्हें राज्य स्थापित करने की क्या आवश्यकता थी और यदि वह वास्तव में दु:खमय थी तो फिर लॉक ने हमें भ्रम में क्यों डाला? लॉक के विचारों से ऐसा आभास मिलता है मानो राज्य की स्थापना मानव-समाज के विकास में एक विपरीत कदम हो । यदि प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक नियम, प्राकृतिक आधार, नैतिकता, कानून आदि सभी कुछ विद्यमान थे, तो मनुष्य ने राज्य की संरचना करके क्या प्रगति की? स्पष्ट है कि लॉक ने प्राकृतिक अवस्था का जो चित्रण किया है उसमें एक कमी यह थी कि वे स्पष्ट रूप से यह नहीं कह सके कि प्राकृतिक अवस्था में नीति और कानून होने पर भी व्यक्ति निष्पक्ष क्यों नहीं थे। यही नहीं, यद्यपि लॉक प्राकृतिक अवस्था को ऐतिहासिक तथ्य नहीं मानते फिर भी उनकी व्याख्या से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सामाजिक संविदा वास्तव में हुई हो।

जॉन लॉक के प्राकृतिक नियम सम्बन्धी विचारों को मानने में एक अन्य कठिनाई यह है कि कोई भी व्यक्ति प्राकृतिक नियम के नाम पर राजकीय नियमों को मानने से इन्कार कर सकता है। इस दृष्टि से उनके विचार सामाजिक व्यवस्था के मार्ग में बाधक बन जाते हैं। लॉक सम्पत्ति के अधिकार को शाश्वत और अदेय मानते हैं। इस अधिकार की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि प्राकृतिक साधनों की उपज पर मानव का अधिकार केवल उसी सीमा तक है जहाँ तक बिना नष्ट किये वे उसका दुरुपयोग करते हैं। किन्तु राज्य में सम्पत्ति के अधिकार की चर्चा करते समय वे इस बात को ध्यान में नहीं रखते। लॉक यह भी भूल जाते हैं कि उत्तराधिकार की कल्पना प्राकृतिक नहीं है और इसका अस्तित्व समाज में ही है। जैसा कि रूसो ने कहा है, सामाजिक संविदा का प्रतिपादन करने वाले विद्वान आदिकालीन व्यक्ति की बातें तो करते हैं किन्तु जब वे उसका वर्णन करने लगते हैं तो जो चित्र हमारे समक्ष उपस्थित होता है वह एक नागरिक का होता है।

अठारहवीं शताब्दी के कालखंड में प्राकृतिक विधि के विचारकों ने प्राकृतिक विधि के सार्वभौमिक स्वरूप को नकारते हुए इस धारणा को निराधार ठहराया। इनमें विको (Vico) तथा मान्टेस्क्यू (Montesquieu) के नाम प्रमुख थे। विको ने मानवीयतावाद को विशेष महत्व दिया जबकि मान्टेस्क्यू ने प्राकृतिक विधि पर अन्य कारकों के प्रभाव की ओर ध्यान केन्द्रित किया जिनमें जलवायु, धर्म, राज्य की विधि, नैतिकता, प्रथा आदि का मानव जीवन पर प्रभाव पर विशेष बल दिया गया था।

लगभग इसी समय डेविड ह्यम, एडम स्मिथ, फर्गसन, मिलर आदि विधिज्ञों ने समाज के सूक्ष्म वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर राज्य की उत्पत्ति संबंधी सामाजिक संविदा के सिद्धान्त को अस्वीकार किया। उन्होंने धर्म को विधि से पृथक् करते हुए विधि को निरपेक्ष नैतिकता पर आधारित किया न कि धार्मिक नैतिकता पर।

जीन रूसो ( 1712-1788 )

जीन रूसो (Jean Rousseau) का जन्म जिनेवा में हुआ था। उनका पालन-पोषण ठीक से नहीं हो सका अतः उनका जीवन अव्यवस्थित किन्तु काफी रंगीन रहा। पहले वे फ्रांस के बुद्धिजीवियों के निकट सम्पर्क में आये किन्तु थोड़े ही दिनों में वे बुद्धिवाद को संदेह की दृष्टि से देखने लगे और उन्होंने भावनाओं की नैतिक अंत:प्रज्ञा (intuition) को महत्व देना प्रारंभ कर दिया। उनके अनुसार बुद्धि श्रद्धा की विरोधी है, विज्ञान अवस्था को नष्ट कर देता है और तर्क-बुद्धि नैतिक अन्त:प्रज्ञा का विरोध करता है। किन्तु बिना नैतिक श्रद्धा, विश्वास और अन्त:प्रज्ञा के न तो व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण हो सकता है और न समाज का कल्याण।।

रूसो के विचारों में कोई तार्किक तारतम्य नहीं है। कभी वे निरंकुश शासन का समर्थन करते हैं, तो कभी प्रजातांत्रिक शासन-पद्धति का। कभी वे महान् राष्ट्रवादी दिखाई पड़ते हैं, तो कभी अन्तर्राष्ट्रीय शासन प्रणाली के प्रबल समर्थक। कहीं वे तर्क को प्रधानता देते हैं, तो कहीं भावना को।।

जीन रूसो ने मानव की प्राकृतिक अवस्था (state of nature) को आदर्शतम न मानते हुए उसे अपेक्षाकृत संतोषजनक अवश्य माना है। प्राकृतिक अवस्था को उन्होंने तीन चरणों में बाँटा है। प्रथम चरण में मनाया निश्चित और एकाकी जीवन व्यतीत करता था तथा उसकी आवश्यकताएँ केवल आत्म-सरक्षा और भरत मिटाने तक ही सीमित थीं। वह भले-बुरे के विचारों से सर्वथा अपरिचित था। उसकी ताकिक लट विकास न होने के कारण वह भविष्य की चिन्ता नहीं करता था। प्राकृतिक अवस्था के दूसरे चरण में जनसंख्या बढ़ने के कारण मानव-जीवन में परिवर्तन आने लगे । शनै: शनै: परिवार का उदय हुआ और मनुष्य में अपने जागत हई। वह भविष्य के प्रति चिन्ता करने लगा और उनकी तर्क-बुद्धि विकसित होने तिक अवस्था के तीसरे चरण में मानव अपनी बुद्धि का उपयोग अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओ की पूर्ति के लिये करने लगा तथा धीरे-धीरे वह अपनी प्राकृतिक अवस्था को छोडकर एक नई स्थिति में आने लगा | उसमें निजी सम्पत्ति की भावना जागृति हुई जिसके कारण ईष्र्या, संघर्ष और असमानताएँ। बढ़ने लगी | इसके  साथ ही ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छोटे-बड़े का भेदभाव भी बढ़ने लगा। इस प्रकार जन्म से स्वतंत्र मानव भौतिक बन्धनों की श्रृंखलाओं में जकड़ने लगा।

सय ने यह स्वीकार किया कि इन बन्धनों से छुटकारा पाकर पुन: प्राकृतिक अवस्था को लौटना मानव के लिए सम्भव नहीं था, फिर भी वह इन श्रृंखलाओं को, जिनमें वह जकड़ा हुआ था, आभूषणों का रूप अवश्य

दे सकता था। इसी विचार से उन्होंने एक ऐसे राज्य की स्थापना का समर्थन किया जिसमें सभी लोग मिलजुलकर रहें तथा सामूहिक शक्ति द्वारा उनकी जान-माल की रक्षा हो सके। लोकतन्त्र के समर्थक होने के कारण रूसो ने व्यक्तिगत निरंकुश शासन का विरोध करने के लिए सामाजिक संविदा के सिद्धान्त का सहारा लिया। उनके विचार में राज्यशक्ति जनता की सामान्य इच्छा (General Will) पर आधारित होनी चाहिए। उनका विचार था कि राज्य में प्रभुसत्ता सामूहिक रूप से जनता में निहित होती है।

रूसो के अनुसार प्रत्येक नागरिक में दो प्रकार की इच्छायें होती हैं। एक विशिष्ट इच्छा’ (particular will) तथा दूसरी ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) । मनुष्य की विशिष्ट इच्छा’ उसके व्यक्तित्व अथवा किसी संकुचित स्वार्थ की भावना से प्रेरित होती है जबकि सामान्य इच्छा’ में लोकहित की भावना निहित रहती है। रूसो ने ‘सामान्य इच्छा’ के पाँच प्रधान लक्षण बताये हैं-यह नैतिक, अविभाज्य, क्षणिक और। तर्कसंगत होती है तथा उसमें आत्म-चेतना की अनुभूति होती है। । रूसो के विचार क्रान्तिकारी सिद्ध हुए तथा उनके जन-प्रभुता के सिद्धान्त ने फ्रांस में क्रांति को स्फूर्ति प्रदान की। उनके स्वतन्त्रता तथा समानता के सिद्धान्त ने अमेरिका में मानव-अधिकारों के बारे में जागृति उत्पन्न कर दी जो अमेरिका की स्वतंत्रता के लिये कारणीभूत हुई। रूसो के सामान्य इच्छा’ के सिद्धान्त को हीगल (Hegal) ने अपने विचारों का केन्द्र बिन्दु बनाया।

डेविड ह्यम (1711-76)

डेविड ह्यम (David Hume) ने तर्क पर आधारित प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त को पूर्णत: नकार दिया। उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि मानव की तर्कबुद्धि उसकी भावनाओं तथा लालसाओं की गुलाम है। अत: इसे मानव-कृत्यों का कारण नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार ह्यम ने एक नई जर्मन विचारधारा का सूत्रपात किया। परन्तु उनका विधि सिद्धान्त पश्चात्वर्ती उपयोगितावादी तथा प्रत्यक्षतावादी (Positive) विचारधारा के सामने अधिक न टिक सका।

इसी समय मॉन्टेस्क्यू (Montesquieu : (1689-1755) ने अपना शक्ति-पार्थक्य का सिद्धान्त (Theory of Separation of Powers) प्रतिपादित किया तथा तुलनात्मक समाजशस्त्रीय विधिशास्त्र के अध्ययन पर जोर दिया। उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कि मोटे तौर से विधि प्राकृतिक विधि के सिद्धान्तों पर ही आधारित रहती है इस ओर भी ध्यान दिलाया कि विधि पर पर्यावरण तथा वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है। अत: जलवायु, भूमि, रूढ़ियाँ, व्यापार आदि स्थानीय विधि को प्रभावित किये बिना नहीं रहते।।

इमेन्युअल कान्ट (Immanuel Kant : 1724-1804)

प्राकृतिक विधि तथा हॉब्स, लॉक एवं रूसो द्वारा प्रतिपादित सामाजिक संविदा के सिद्धान्त (Social Contract Theory) का समर्थन करते हुये कान्ट ने अभिकथन किया कि प्राकृतिक विधि का विकास ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित न होकर मानव की तर्क शक्ति (reason) पर आधारित है। उन्होंने मानव के प्राकृतिक अधिकारों तथा राज्य से अर्जित अधिकारों में विभेद करते हुये कहा कि मानव की स्वतन्त्रता के लिए केवल प्राकृतिक अधिकार ही आवश्यक हैं न कि अर्जित अधिकार। उन्होंने शक्ति पृथक्करण (Separation of powers) के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुये अभिकथन किया कि राज्य का कार्य विधि का संरक्षण करना है। कॉन्ट ने अपने विचारों के अनुसमर्थन में ‘‘थ्योरी ऑफ केटॉगरीकल इम्परेटिव (Theory of Categorical Imperative) का प्रतिपादन किया, जो रूसो के सामान्य इच्छा” (General Will) के सिद्धान्त से बहुत कुछ। मिलती-जुलती है। इस सिद्धान्त के मुख्य लक्षण निम्नानुसार हैं

(1) मनुष्य को अपना आचरण अपनी अन्तरात्मा की आवाज के अनुसार विनियमित करना चाहिये,

(2) कॉन्ट के अनुसार मनुष्य की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि वह चाहे जैसा मनमाने आचरण करे, अपितु उसे अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति तार्किक आधार पर करनी चाहिये;

 (3) मनुष्य का वही आचरण उचित होगा जो अन्य लोगों की स्वायत्त इच्छा (autonomy of the will)

के अनुकूल हो। राज्य का एकमात्र कार्य यह होना चाहिये, कि लोग राज्य द्वारा निर्मित विधि का | अनुपालन करें।

विधि और नैतिकता में विभेद स्पष्ट करते हुये कॉन्ट ने कहा कि विधि में अनुपालन की आबद्धता (Obligation to obey) विद्यमान होती है। अतः उन्होंने राज्य द्वारा निर्मित विधि के महत्व को स्वीकार करते हुये उसे मानवीय तर्क बुद्धि का परिणाम माना।

(7) प्राकृतिक विधि की अवनति का कालखण्ड (उन्नीसवीं शताब्दी)

रूसो के क्रान्तिकारी विचारों का परिणाम यह हुआ कि ग्रोशियस के काल से चली आ रही प्राकृतिक विधि सम्बन्धी धारणाओं को तिलांजलि दे दी गयी, तथापि काण्ट और फिच्टे (Fichte) ने अपने विधिक विचारों में प्राकृतिक विधि-सिद्धान्त तथा सामाजिक संविदा-सिद्धान्त को महत्वपूर्ण स्थान दिया और इस बात पर जोर दिया कि राज्य अपनी विधि द्वारा कुछ मूलभूत मानव-अधिकारों को मान्यता दे। उन्नीसवीं शताब्दी में प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त का लोप होने लगा। इसके तीन प्रमुख कारण थे

(1) राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत इस शताब्दी की व्यक्तिवादी विचारधारा समूहवाद (Collectivism) की ओर झुकने लगी।

(2) विज्ञान की प्रगति के कारण निगमनात्मक पद्धति (deductive method) के स्थान पर तत्व निरीक्षण और प्रयोग सिद्धि की पद्धति (empirical method) अपनायी गयी। |

(3) यूरोपियन समाज की बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण मानव-समस्याओं के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाये जाने पर अधिक बल दिया जाने लगा।

रूसो के अलावा मान्टेस्क्यू (Montesquieu) तथा ह्यम (Hume) के बौद्धिक विचारों के कारण भी राजनीति तथा विधिक क्षेत्र से प्राकृतिक विधि का लोप होने लगा।

उन्नीसवीं सदी के विधिवेत्ताओं ने प्राकृतिक विधि के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति अपनायी। ऐतिहासिक स्वच्छन्दता (historical romanticism), उपयोगितावाद (utilitarianism), वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद (scientific positivism) तथा आर्थिक भौतिकवाद (economic materialism) आदि के मिश्रित प्रभाव के कारण प्राकृतिक विधि का कड़ा विरोध होने लगा। यद्यपि यूरोपीय महाद्वीप में प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त का महत्व काफी कम हो चुका था फिर भी अहरेन्स (Ahrens) तथा क्राउस (Krause) आदि विद्वानों ने प्राकृतिक विधि को अपने विचारों में स्थान दिया। स्काटलैण्ड के प्रसिद्ध विधिशास्त्री लोरीमर (Lorimer) ने तो प्राकृतिक विधि सम्बन्धी पुरानी धारणाओं का पुनर्विवेचन ही कर डाला तथा प्राकृतिक अधिकारों की समीक्षा करते हुए व्यक्त किया कि वास्तविक विधि के उद्देश्यों का निर्धारण प्राकृतिक विधि के आधार पर ही किया जाना चाहिए।

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