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LLB 1st Year Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 1 Notes

 

अध्याय 1 (Chapter 1) विधिशास्त्र की परिभाषा एवं क्षेत्र-विस्तार

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(Definition & Scope of Jurisprudence)

यह निर्विवाद है कि व्यक्ति समाज का अविच्छिन्न अंग होता है तथा उसकी सामूहिक प्रवृत्ति (group instinct) उसे समाज के अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में लाती है और उनसे संव्यवहार करने के लिये प्रेरित करती है। मनुष्य का सामाजिक जीवन इन्हीं संव्यवहारों पर आधारित है। समाज में मानव के आचरणों और व्यवहारों पर उचित नियंत्रण रखना आवश्यक होता है ताकि उनके परस्पर हितों की रक्षा हो सके। इसी उद्देश्य से राज्य द्वारा विधियों का निर्माण किया जाता है जो नागरिकों को उनके कर्तव्यों तथा दायित्वों का बोध । कराती हैं तथा अनुचित आचरणों या व्यवहारों के लिये उन्हें दंडित करने का अधिकार राज्य को देती हैं। सारांश यह कि ‘विधि’ एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से राज्य प्रजाजनों के आचरणों, संव्यवहारों तथा कार्य-कलापों पर उचित नियंत्रण रखते हुए समाज में शांति-व्यवस्था बनाये रखता है।

मानव जीवन में विधि का अत्यधिक महत्व है। मनुष्य के समस्त व्यवहार और क्रिया-कलाप विधि। द्वारा ही नियंत्रित रखे जाते हैं। विधि मनुष्य के स्वच्छन्द जीवन को अनुशासित रखती है। ज्ञान की एक पृथक् शाखा के रूप में विधियों की अध्ययन-प्रणाली को ‘विधिशास्त्र’ की संज्ञा दी गयी है। विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि की परिभाषा, व्याख्या, प्रकृति तथा इसके उद्गम तथा तत्वों व प्रयोजनों आदि से सम्बन्धित विविध पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। विधि-विज्ञान मानव व्यवहारों से सम्बन्धित होने के कारण अन्य विज्ञानों की भांति इसके अध्ययन में भी अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं। सामाजिक विकास के साथ-साथ मानव आचार-विचार तथा संव्यवहारों में भी परिवर्तन होता रहता है। परिणामस्वरूप, विधि में समयानुसार संशोधन करना आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि विधि सम्बन्धी शास्त्र को विधिशास्त्र के रूप में एक निरन्तर प्रगतिशील अध्ययन माना गया है जिसकी व्यापकता और व्यावहारिकता के विषय में विचारकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाये हैं। अल्पियन (Ulpian) के युग में विधिशास्त्र को उचित एवं अनुचित का विज्ञान माना जाता था जबकि सामण्ड ने इसे नागरिक विधि के विज्ञान के रूप में मान्यता दिलाई है। अमेरिका के सुप्रसिद्ध विधिशास्त्री रास्को पाउण्ड (Roscoe Pound) ने इसे समाजशास्त्रीय अभियांत्रिकी (Social Engineering) की संज्ञा दी है।

इसमें संदेह नहीं कि किसी भी देश की विधि पर वहाँ की सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि अनेक विद्वानों ने विधि को समाज का दर्पण कहा है, अर्थात् किसी। स्थान-विशेष की विधि में वहाँ की सामाजिक परिस्थितियों की झलक स्पष्ट रूप से दिखलाई देती है। उदाहरण के लिये, वर्तमान भारतीय दण्ड विधि में कुछ परिस्थितियों में गर्भपात को कानूनी वैधता प्रदान किया जाना यह दर्शाता है कि नैतिकता के प्रति हमारी धारणाओं में परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार हिन्दू विधि। के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद सम्बन्धी कानून में शिथिलता तथा महिलाओं के प्रति इसे विशेष उदार बनाया जाना इस बात का परिचायक है कि वर्तमान भारतीय समाज महिलाओं के अधिकारों के प्रति विशेष जागरूक है और उनके प्रति समानता की नीति अपनाना चाहता है। वर्तमान समय में विवाह किये बिना किसी पुरुष के साथ रह रही स्त्री तथा उससे उत्पन्न होने वाली संतानों के अधिकारों के बारे में कानून बनाये जाने की चर्चा जोरों पर है जबकि कुछ वर्षों पूर्व इसे घोर अनैतिक एवं अवैध आचरण माना जाता था तथा ऐसी स्त्री चरित्रभ्रष्टा कहलाती थी। महिलाओं को विधान मंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने संबंधी प्रस्तावित विधेयक भी इसी बात का द्योतक है। भारत के संविधान में समय-समय पर किये गये संशोधनों से यह स्पष्ट है कि भारत

1. देखें, भारत के संविधान का चौथा, सत्रहवाँ, पच्चीसवाँ, उन्तीसवाँ, उन्तालीसवाँ, बयालीसवां, बासठवा तथा तिहत्तरवा संशोधन.

में समाजवादी अर्थ-व्यवस्था लागू करने पर सर्वोपरि महत्व दिया जा रहा है। इसी प्रकार दहेज निवारण (संशोधन) अधिनियम, 1984; समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976; बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम, 1976; सिविल राइट्स अधिनियम, 1976; अनसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 तथा गरीबों के लिये विधिक सहायता कानुन,2 उपभोक्ता संरक्षण (संशोधित) अधिनियम, 1993 आदि इस बात के द्योतक हैं कि भारत में दलित एवं शोषित वर्ग को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय दिलाने के प्रयास किये जा रहे हैं। वर्तमान में जन-हित वादों (Public Interest Litigation) के माध्यम से सामाजिक न्याय को अधिक सार्थक बनाने के जो प्रयास किये जा रहे हैं उनसे विधिशास्त्र के व्यावहारिक महत्व का अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने विधिशास्त्र को ‘विधानों का विधान’ कहा है।

यह सर्वविदित है कि विधिक परिवर्तन की तुलना में सामाजिक बदलाव अधिक द्रुत गति से होते हैं। क्योंकि सामाजिक परिवर्तनों के पश्चात ही विधि स्वयं को इन परिवर्तनों के अनुकूल ढालती है। वर्तमान समय में शीघ्रता से हुये सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप मानव जीवन में भी बदलाव आया है, अतः विधिशास्त्र का दायरा काफी विस्तृत हो चुका है।

विधिशास्त्र की परिभाषा

‘विधिशास्त्र’ शब्द की उत्पत्ति दो लैटिन शब्दों ‘ज्यूरिस’ (Juris) और ‘पूडेंशिया’ (Prudentia) के योग से हुई है। ‘ज्यूरिस’ शब्द का तात्पर्य ‘विधि’ से है जबकि ‘पूडेंशिया’ शब्द का अर्थ है ‘ज्ञान’। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ के अनुसार विधिशास्त्र (Jurisprudence) को विधि का ज्ञान’ ही कहा जाना चाहिए। परन्तु यथार्थ में यह विधि का ज्ञान मात्र न होकर विधि का क्रमबद्ध ज्ञान है इसीलिये सामण्ड (Salmond) ने विधिशास्त्र को ‘विधि का विज्ञान’ (Science of Law) निरूपित किया है। यहाँ ‘विज्ञान’ से आशय विषय के क्रमबद्ध अध्ययन से है। मोयली (Moyle) के मतानुसार विधिशास्त्र का अन्तिम लक्ष्य साधारणत: वही है। जो किसी अन्य विज्ञान का होता है। यही कारण है कि विधिशास्त्र को विधि-सिद्धान्तों का सूक्ष्म एवं गहन क्रमबद्ध अध्ययन कहा जाता है ।।

इस सन्दर्भ में विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि विधिशास्त्र को विधि-विज्ञान कहा जाये तो ‘विधि’ शब्द का अर्थ क्या है? व्यापक अर्थ में मानव आचरण से सम्बन्धित किसी भी नियम, सिद्धान्त या आदर्श को ‘विधि’ की संज्ञा दी जा सकती है, जैसे कि भौतिकशास्त्र के अन्तर्गत गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त या दर्शनशास्त्र में नैतिकता विषयक नियम। परन्तु विधिक दृष्टि से विधि’ शब्द से आशय ऐसे नियमों से है जो समाज में मानव आचरण (conduct) को नियंत्रित करते हैं। समाज में रहते हुये व्यक्ति को जीवन के विभिन्न पहलुओं से पथ भ्रमण करना पड़ता है। इस उपक्रम में वह अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। अनेक अवसरों पर उसके। साथ समाज के अन्य सदस्यों के हितों में परस्पर टकराव (clash) की स्थिति उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अत: यदि मानव आचरणों पर आवश्यक नियंत्रण न रखा जाये तो उनमें उच्छृखलता या स्वच्छन्द जीवन व्यतीत करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, जो समाज की प्रगति के लिये बाधक सिद्ध हो सकती है। यही कारण है कि राज्य द्वारा विधि के माध्यम से मनुष्यों के जीवन के विविध क्षेत्रों में उचित नियंत्रण रखा जाता है। ताकि वे समाज में रहकर प्रगति कर सकें।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है विधिशास्त्र का सम्बन्ध विधि के मूलभूत सिद्धान्तों से है तथा विभिन्न विधिवेत्ताओं ने विधिशास्त्र की अलग-अलग परिभाषायें दी हैं।

प्रसिद्ध रोमन विधिवेत्ता अल्पियन (UIpian) ने ‘डायजेस्ट’ नामक अपने ग्रन्थ में विधिशास्त्र को उचित एवं अनुचित का विज्ञान (Science of just and unjust) कहा है। यह परिभाषा ‘विधिशास्त्र’ शब्द की उत्पत्ति की अनुकूलता पर प्रकाश डालती है, परन्तु यह इतनी अधिक व्यापक है कि इसे नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र

2. Legal Services Authorities Act, 1987.

3. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेंस 12वाँ संस्करण पृ० 1.

4. Moyle : “Introduction to The Institutes of Justinian”, p. 61.

तथा दर्शनशास्त्र आदि के प्रति भी लागू किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि अल्पियन (Ulpian) द्वारा दी गई विधिशास्त्र की परिभाषा तथा अर्वाचीन भारत के धर्म की संकल्पना में निकटतम साम्य है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार ‘धर्म’ मानव-आचरण के ऐसे नियमों का विधान है, जो मनुष्य को भौतिक या आध्यात्मिक विकास की ओर प्रेरित करता है। परन्तु वर्तमान काल के संदर्भ में विधिशास्त्र’ का अर्थ मानव के ऐसे कार्यों तथा सम्बन्धों तक ही सीमित है जिन्हें प्राचीन हिन्दू विधिशास्त्रियों ने ‘व्यवहार’ की संज्ञा दी है। विधिशास्त्र ऐसे नियमों में निहित सिद्धान्तों की विवेचना करता है जिन्हें न्यायालयों द्वारा अपने निर्णयों में प्रयुक्त किया जाता

प्रसिद्ध दार्शनिक सिसरो (Cicero) ने विधिशास्त्र की परिभाषा देते हुये इसे ज्ञान का दार्शनिक पक्ष’ कहा सामंड (Salmond) के अनुसार प्राथमिक दृष्टि से विधिशास्त्र में समस्त कानूनी सिद्धांतों का समावेश है। यह विधि का ज्ञान है, इसलिये इसे व्यावहारिक विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का विज्ञान भी कहा गया है। सामंड के विचार से विधि न्यायशास्त्रियों द्वारा लागू की जाती है तथा यह धार्मिक कानून या नैतिकता सम्बन्धी नियमों से भिन्न है। विधि को देश-विदेश की सीमा में न्यायालय तथा न्यायाधिकरणों द्वारा लागू किया जाता है। तथा इसका उल्लंघन किया जाने पर शास्ति (Sanction) की व्यवस्था होती है, अत: यह व्यावहारिक ज्ञान की शाखा है।

सामंड ने विधिशास्त्र की व्याख्या दो अर्थों में की है। विस्तृत अर्थ में विधिशास्त्र से उनका अभिप्राय नागरिक विधि के विज्ञान (Science of civil law) से है, जिसके अन्तर्गत समस्त विधिक सिद्धान्तों का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। सिविल विधि से उनका आशय उस विधि विशेष से है जो किसी देश द्वारा अपने निवासियों के प्रति लागू की जाती है और जिसे उस देश के नागरिक, अधिवक्ता और न्यायालय मानने के लिये बाध्य होते हैं। इस प्रकार सामंड के अनुसार विधिशास्त्र ऐसी विधियों का विज्ञान है जिन्हें न्यायालय लागू करते हैं।

सामंड ने सिविल विधि के विज्ञान के रूप में विधिशास्त्र के निम्नलिखित तीन रूप बताये हैं|

1. विधिक प्रतिपादन (Legal exposition)—इसका प्रयोजन किसी काल-विशेष में प्रचलित वास्तविक विधि की विषय-वस्तु का वर्णन करना है।

2. वैधानिक इतिहास (Legal history)—इसका प्रयोजन उस ऐतिहासिक कार्यवाही का वर्णन करना है जिससे विधि-प्रणाली विकसित होते हुए वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुई है।

3. विधायन विज्ञान (Science of legislation)—इसका उद्देश्य विधि का इस प्रकार निरूपण करना है, जैसी कि वह होनी चाहिए। |

सामंड के अनुसार उपर्युक्त दूसरे अर्थ में विधिशास्त्र की विषय-वस्तु अत्यन्त संकीर्ण है। इस अर्थ में। विधिशास्त्र नागरिक विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का विज्ञान है। इससे उनका आशय विधि के उन मूलभूत सिद्धान्तों से है जो विभिन्न देशों की नागरिक विधियों का आधार-स्तम्भ होते हैं। इस प्रकार सामंड का यह स्पष्ट मत है कि विधिशास्त्र में विधि-विशेष का अध्ययन नहीं किया जाता, वरन विधियों के आधारभूत सिद्धान्तों का कार्य-कारण विषयक क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है, जो किसी विषय को ‘शास्त्र’ में परिवर्तित करने के लिये आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि इस दृष्टिकोण से सामंड की परिभाषा अन्य परिभाषाओं की तुलना में अधिक सरल, स्पष्ट तथा व्यावहारिक प्रतीत होती है।

आंग्ल विधि-शास्त्री जॉन ऑस्टिन (John Austin) ने विधिशास्त्र को वास्तविक विधि का दर्शन कहा है। उनके मतानुसार विधिशास्त्र का वास्तविक अर्थ है विधिक संकल्पनाओं का प्रारूपिक विश्लेषण

5. Modern Law is concerned with action but Dharma was concerned with intention.  “Jurisprudence is a philosophical aspect of knowledge of law”-Cicero.

6. Jurisprudence is a science of first principles of law.

7. The philosophy of positive law-Austin.!

करना formal analysis of legal concepts) परन्तु बकलैंड (Buckland) ने ऑस्टिन की इस परिभाषा को अत्यन्त संकीर्ण8 मानते हुए कहा है कि वर्तमान समय में विधिशास्त्र की परिभाषा अधिक विस्तृत होनी चाहिए। इस दृष्टि से ज्यूलियस स्टोन (Julius Stone) द्वारा दी गई परिभाषा अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है। उन्होंने विधिशास्त्र को ‘अधिवक्ताओं की बहुमुखी अभिव्यक्ति’ (Lawyer’s extraversion) निरूपित किया। है। इसका आशय यह है कि वर्तमान ज्ञान के अन्य स्रोतों के आधार पर अधिवक्तागण विधि की अवधारणाओं, आदर्शो तथा पद्धतियों का जो परीक्षण करते हैं, उसे विधिशास्त्र की विषय-वस्तु कहा जा सकता है। जूलियस स्टोन ने विधिशास्त्र की विषय-वस्तु को तीन वर्गों में विभक्त किया है जिन्हें क्रमश: (1) विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र, (Analytical Jurisprudence), (2) क्रियात्मक विधिशास्त्र (Functional Jurisprudence) तथा (3) न्याय के सिद्धान्त कहा गया है।

हालैंड (Holland) ने विधिशास्त्र को वास्तविक विधि का औपचारिक विज्ञान (formal science of positive law) निरूपित किया है। इस विषय के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने विधिशास्त्र को विधि के प्रचलित नियमों, विचारों तथा सुधारों से सम्बन्धित शास्त्र माना है। उनका विचार है कि ‘विधिशास्त्र भौतिक नियमों की बजाय विधि के नियमों द्वारा शासित होने वाले मानवीय व्यवहारों से ही। अधिक सम्बन्ध रखता है।”

उल्लेखनीय है कि हालैंड द्वारा दी गई विधिशास्त्र की परिभाषा में प्रयुक्त ‘वास्तविक विधि’ (Positive law) का आशय सामंड की परिभाषा में प्रयुक्त ‘सिविल विधि’ (civil law) से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। वास्तविक विधि से अभिप्राय सामयिक सम्बन्धों को विनियमित रखने वाले ऐसे कानूनों से है जो राज्य द्वारा निर्मित होते हैं तथा न्यायालयों द्वारा लागू किये जाते हैं। ऐसे नियमों को ही सामण्ड ने व्यावहारिक विधि (civil law) कहा है। हालैंड ने विधिशास्त्र को औपचारिक विज्ञान’ इसलिये कहा है क्योंकि इस शास्त्र में उन नियमों का अध्ययन समाविष्ट नहीं है जो स्वयं पार्थिव सम्बन्धों से उत्पन्न हुए हैं अपितु इसमें उन सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है, जो वैध नियमों द्वारा क्रमब्रद्ध रूप में संचालित किये जाते हैं। इस प्रकार यह विज्ञान भौतिक विज्ञान (material science) से भिन्न है।10 ।

जे० सी० ग्रे (J.C. Gray) के अनुसार विधिशास्त्र विधि का विज्ञान है जिसके अन्तर्गत न्यायालय द्वारा लागू किये जाने वाले क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित नियमों और उनमें सन्निहित सिद्धान्तों का अध्ययन किया। जाता है। | ग्रे ने हालैण्ड द्वारा दी गई विधिशास्त्र की परिभाषा की आलोचना करते हुए उसे संकीर्ण तथा केवल सांकेतिक निरूपित किया है। उनका कथन है कि विधिशास्त्र केवल औपचारिक विज्ञान नहीं है बल्कि यह एक पार्थिव विज्ञान भी है, अत: इसे वैध सम्बन्धों और विधिक नियमों का विज्ञान कहा जा सकता है।12

ग्रे के अनुसार विधिशास्त्र विधि के विवेचन पर बल देता है, अत: इसके स्वाभाविक स्वरूप को हालैंड की परिभाषा तक सीमित रखना उचित नहीं है।

पैटन (Paton) के अनुसार विधिशास्त्र विधि अथवा विधि के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन है13 जबकि एलेन.(Allen) ने विधिशास्त्र को विधि के मूलभूत सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विश्लेषण कहा है।14

डायस और ह्यजेस (Dias & Hughes) ने विधिशास्त्र को ‘‘विधिक प्रशिक्षण एवं शिक्षा” के रूप में स्वीकार किया है। इस दृष्टि से उन्होंने विधिशास्त्र में चार प्रमुख बातों का समावेश किया है जो क्रमश: इस प्रकार हैं

8. बकलैण्ड : सम रिफ्लेक्शन्स ऑन ज्युरिसपूडेंस, पृ० 2.

9. स्टोन जूलियस : दि प्राविस एण्ड फंक्शन ऑफ लॉ, पृ० 25.

10. हालैंड : एलीमेन्ट्स ऑफ ज्यूरिसपूडेंस (13वाँ संस्करण), पृ० 6.।

11. ग्रे जे० सी० : दि नेचर एण्ड सोर्सेज ऑफ दि लॉ, पृ० 133.

12. It is a science of legal relations as well as legal rules.

13. पैटन : ए टेक्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिसप्टुडेन्स (दूसरा संस्करण), पृ० 2.

14. Jurisprudence is “the scientific synthesis of the essential principles of law”.

1. विधि सम्बन्धी संकल्पनाएँ (concepts relating to law);

2. विधि की संकल्पना (concept of law);

3. विधि का सामाजिक प्रयोजन (social function of law); तथा

4. विधि का उद्देश्य (purpose of law)।

विख्यात विधिशास्त्री ली (Lee) का विचार है कि विधिशास्त्र एक ऐसा विधान है जो मौलिक सिद्धान्तों को अभिनिश्चित करने का प्रयास करता है तथा जिसकी अभिव्यक्ति विधि में पाई जाती है।

य, कीटन (Keeton) ने विधिशास्त्र को विधि के सामान्य सिद्धान्तों का ज्ञान मात्र माना है। तानसार यह शास्त्र विधि के सामान्य सिद्धान्तों का व्यापक अर्थ में अध्ययन करते हुए उनके क्रमबद्ध विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।”15

विनोगैडॉफ (Vinogradoff) ने विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाते हुए विधिशास्त्र की परिभाषा दी है। उनके अनुसार विधिशास्त्र की उत्पत्ति विभिन्न राष्ट्रों के इतिहास में उनकी वास्तविक विधि में पाई जाने वाली विषमताओं से हुई है, जिनका उद्देश्य विधिक अधिनियमों एवं न्यायिक निर्णयों में निहित सामान्य सिद्धान्तों को खोज निकालना है।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र (Sociological Jurisprudence) के प्रणेता डीन रास्को पाउण्ड (Dean Roscoe Pound) ने विधिशास्त्र की परिभाषा देते हुए कहा है कि विधिशास्त्र विधि का ज्ञान है।” यहाँ विधि से तात्पर्य न्यायिक अर्थों में है, अर्थात् विधिशास्त्र ऐसे सिद्धान्तों का संकलन है जो न्याय की स्थापना के लिये निर्मित किये गये हैं और जिन्हें न्यायालयों द्वारा मान्य और लागू किया जाता है। रास्को पाउण्ड ने विधिशास्त्र के सामाजिक पहलू पर विशेष जोर दिया है। मानव-जीवन में न्याय की अपनी महत्ता है। न्यायविहीन समाज में मनुष्य को जीवन निर्वाह करना कठिन हो जायेगा, इसलिये विधिशास्त्र को महत्वपूर्ण मानते हुए रास्को पाउण्ड ने इसे न्याय की स्थापना करने वाले सिद्धान्तों का विज्ञान माना है।

उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न विधिवेत्ताओं ने विधिशास्त्र के अलग-अलग पहलुओं को लेकर उनकी व्याख्या की है, तथापि इन परिभाषाओं के विश्लेषण से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। प्रथम यह कि विधिशास्त्र की संकल्पना (concept) के विषय में विधिशास्त्रियों में मतभेद होते हुए भी प्राय: सभी ने हालैंड द्वारा दी गई विधिशास्त्र की इस परिभाषा को स्वीकार किया है कि विधिशास्त्र वास्तविक विधि का औपचारिक विज्ञान है। दूसरे, सभी विधिशास्त्री यह स्वीकार करते हैं कि विधि की मूलभूत संकल्पनाओं के अध्ययन को ही विधिशास्त्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। तात्पर्य यह है कि विधिशास्त्र विधि का केवल अध्ययन या ज्ञान मात्र नहीं है, बल्कि यह विधि का विज्ञान है। किसी भी ज्ञान की शाखा को ‘विज्ञान’ की कोटि में रखने के लिये यह आवश्यक होता है कि उसे क्रमबद्ध और सुनियोजित ढंग से प्रस्तुत किया जाए।

डॉ० एम० जे० सेठना ने विधिशास्त्र को परिभाषित करते हुये कथन किया है कि विधिशास्त्र मूल विधिक सिद्धान्तों एवं विधिक संकल्पनाओं का विश्लेषणात्मक अध्ययन है जिसमें विधि के दार्शनिक, ऐतिहासिक तथा समाजशास्त्रीय मूल आधारों का अध्ययन भी समाविष्ट है। उन्होंने विधि की विभिन्न शाखाओं, जैसे विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक, दार्शनिक, समाजशास्त्री आदि के संयुक्त अध्ययन पर बल देते हुये कहा है कि इन्हें एक-दूसरे से पूर्णत: पृथक एवं असम्बद्ध शाखाएँ मानना उचित नहीं होगा।

विधिशास्त्र की विषय-वस्तु

विधिशास्त्र की विषय-वस्त में विधि (Law) तथा उससे सम्बन्धित विभिन्न संकल्पनाओं का समावेश है। विधिशास्त्र का मूल उद्देश्य विधि की उत्पत्ति, प्रगति, विकास एवं कार्यों (functions) का अध्ययन करना है। दूसरे शब्दों में, इस शास्त्र के अन्तर्गत विधि की प्रकृति और उसके विभिन्न तत्वों की विवेचना की जाती हैं। तथा उसके विभिन्न स्रोतों और उद्देश्यों का अध्ययन किया जाता है।

15. कीटन (Keeton) जी० डब्ल्यू० : दि एलिमेन्ट्री प्रिंसिपल ऑफ ज्यूरिसपूडेंस (द्वितीय संस्करण), पृ० 3-4.

विधिशास्त्र के प्रति विधिशास्त्रियों के विचारों में सदैव ही भिन्नता रही है। परिणामत: इस शास्त्र की विषय-वस्तु इसके प्रति अपनाये गये दृष्टिकोण की विशिष्टता पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिये, विधिशास्त्र के प्रति विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाले विचारकों के अनुसार इस शास्त्र के अन्तर्गत नागरिक विधि तथा अन्य प्रकार की विधियों के परस्पर सम्बन्धों पर विचार किया जाता है और इस विधि के प्रमुख तत्वों जैसे राज्य, संप्रभुता तथा न्याय-प्रशासन आदि का विश्लेषण किया जाता है। इसमें विधि के विभिन्न स्रोतों की विवेचना की जाती है और वैधानिक अधिकार, व्यावहारिक एवं आपराधिक दायित्व, सम्पत्ति, स्वामित्व, आधिपत्य, आभार, संविदा और वैधानिक व्यक्तित्व आदि विधिक संकल्पनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाता है। विधि के ऐतिहासिक पहलू पर महत्व देने वाले विधिवेत्ता विधिशास्त्र में विधि के ऐतिहासिक स्वरूप को प्रधानता देते हैं तथा उन सामान्य सिद्धान्तों की विवेचना करते हैं जो विधि की उत्पत्ति तथा विकास के लिये करणीभूत हुये हैं। विधि के प्रति नैतिक दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिशास्त्री विधिशास्त्र के अन्तर्गत न्याय और विज्ञान के परस्पर सम्बन्धों तथा न्याय की स्थापना के लिये अपनाये जाने वाले मूलभूत सिद्धान्तों के अध्ययन पर विशेष बल देते हैं। वर्तमान में विधिशास्त्र के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को। अधिक महत्व दिया जा रहा है। तदनुसार विधिशास्त्र के अन्तर्गत मानव के उन सभी संव्यवहारों तथा क्रियाकलापों का समावेश है, जिन्हें विधि द्वारा निदेशित किया जाता है। इस दृष्टि से विधिशास्त्र के अन्तर्गत उन । सभी विधियों के मूलभूत सिद्धान्तों का अध्ययन समाविष्ट है जो समाज में न्याय की स्थापना के लिये लागू किये जाते हैं।

विधिशास्त्र के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए ड्युग्यिट (Duguit) ने कथन किया है कि वास्तव में इसे ‘सामाजिक-विज्ञान’ ही कहा जाना उचित होगा। विधिशास्त्र की विषय-वस्तु विधि तथा उससे संबंधित धारणाएँ होने के कारण मनुष्य और समाज से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। चूंकि मनुष्य और समाज एक दूसरे पर निर्भर करते हैं, इसलिये ‘सामाजिक समेकता’ (social solidarity) से ही इन दोनों का हित संभव । हो सकता है। विधि को सामाजिक समेकता स्थापित करने का एक साधन मात्र माना जाना चाहिए जबकि मानव हित इसका उद्देश्य है। ऑगस्ट कॉम्टे (August Comte) की भाँति ड्यूयिट ने भी यह स्वीकार किया है कि व्यक्ति का केवल एक ही अधिकार होता है, वह है उसे सदैव कर्तव्यरत रहने का अधिकार, अत: प्राइवेट अधिकार जैसी कोई वस्तु नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि विधिशास्त्र की विषय-वस्तु विधि अर्थात् कर्तव्य है तथा विधिशास्त्र का अध्ययन समाज के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए क्योंकि इसकी विषय-वस्तु अर्थात् विधि को समाज से पृथक् नहीं किया जा सकता है।

विधिशास्त्र की निश्चित विषय-वस्तु के विषय में विधिवेत्ताओं के विचारों में विभिन्नता होने पर भी सामान्यत: यह स्वीकार किया गया है कि इसके अन्तर्गत विधि के स्रोतों, विधिक अवधारणाओं तथा विधिक सिद्धांत वाद का समावेश है।16 तथापि वर्तमान समय में विभिन्न सामाजिक-विज्ञानों (social sciences) के विकास के परिणामस्वरूप विधिशास्त्र के प्रति उपागम (approach) में आमूल परिवर्तन हुआ है और अब वास्तविक विधिक आचरण के अध्ययन पर विशेष बल दिया जा रहा है।

विधिशास्त्र विधि का नेत्र है (Jurisprudence is an eye of law)-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विधिशास्त्र की मूल विषयवस्तु विधि है जिसके अन्तर्गत विधि सम्बन्धी धारणायें एवं सिद्धान्तों की व्याख्या की गयी है तथा विधि के विभिन्न स्रोतों और उद्देश्यों का अध्ययन किया जाता है। इसीलिये विधिशास्त्र की प्रमाणवादी विचारधारा के समर्थकों ने विधिशास्त्र को विधि के नेत्र की संज्ञा दी है, अर्थात् जिस प्रकार मानव शरीर में नेत्र का महत्व है और नेत्र-ज्योति के आधार पर मानव उचित-अनुचित की अनुभूति करता है, उसी प्रकार विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि के ज्ञान से व्यक्ति को समाज में अपने आचरण के औचित्य या अनौचित्य की जानकारी मिलती है और विधि के अनुसरण की ओर अग्रसर होता है। आशय यह है कि मानव शरीर में जो महत्व नेत्र को प्राप्त है वही महत्व विधिशास्त्र में विधि को है क्योंकि विधिशास्त्र की समस्त विषयवस्तु ही विधि से सम्बन्धित है।

16. The contents of Jurisprudence generally include sources of law, legal concepts and legal Theory.

विधिशास्त्र के विभिन्न प्रकार 

विधिशास्त्रियों ने विधिशास्त्र को अपनी-अपनी धारणा के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है। जॉन ऑस्टिन (John Austin) ने विधिशास्त्र को सामान्य विधिशास्त्र तथा विशिष्ट विधिशास्त्र के रूप में विभाजित करते हुए यह स्पष्ट किया है कि दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न तथा निश्चित हैं।

सामंड के अनुसार विशिष्ट अर्थ में विधिशास्त्र को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है, जिन्हें उन्होंने क्रमशः विधिशास्त्र की विश्लेषणात्मक (analytical), ऐतिहासिक (historical) तथा नैतिक (ethical) शाखा कहा है।

विख्यात आंग्ल-विधिवेत्ता जर्मी बेन्थम (Jeremy Bentham) के अनुसार विधिशास्त्र को दो भागों में, अर्थात व्याख्यात्मक (expository) तथा मूल्यांकात्मक (evaluative) विधिशास्त्र के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। वर्तमान में विधिशास्त्र को सामाजिक अभियांत्रिकी (Soial Engineering) के रूप में स्वीकार किया गया है।

1. सामान्य एवं विशिष्ट विधिशास्त्र (General and Particular Jurisprudence)

ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को दो भागों में विभाजित किया है-(1) सामान्य तथा (2) विशिष्ट। उनके मतानुसार सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि के उन सभी उद्देश्यों, सिद्धान्तों, धारणाओं और विभेदों का वर्णन रहता है जो समस्त विधि-प्रणाली में समान रूप से पाये जाते हैं। विधि की प्रणालियों से ऑस्टिन का आशय ऐसी परिपक्व और सुस्थापित प्रणालियों से है जो अपनी तर्क-शक्ति एवं परिपक्वता के कारण प्रौढ़ वैधानिक व्यवस्था के रूप में विकसित हो चुकी हैं। यही कारण है कि सामान्य विधिशास्त्र को सैद्धांतिक विधिशास्त्र भी कहा गया है। इसके विपरीत, विशिष्ट विधिशास्त्र विधि के किसी भाग की एक वास्तविक पद्धति का विज्ञान है। दूसरे शब्दों में, विशिष्ट विधिशास्त्र एक संकीर्ण विज्ञान है, जिसके अंतर्गत किसी ऐसी वर्तमान या भूतकालीन विधि-प्रणाली का अध्ययन किया जाता है जो किसी राष्ट्र विशेष तक ही सीमित रही है। इसीलिये विशिष्ट विधिशास्त्र को व्यावहारिक विधिशास्त्र या राष्ट्रीय विधिशास्त्र भी कहा गया है। ऑस्टिन ने सामान्य विधिशास्त्र को ‘सुस्पष्ट विधि का दर्शन’ (philosophy of positive law) कहा है। यहाँ ‘दर्शन’ शब्द से उनका अभिप्राय वैज्ञानिक अध्ययन से है। उनके विचार से सामान्य विधिशास्त्र का आशय ऐसी विधियों के तत्वों और उद्दश्यों की विवेचना से है जो सभी विधिक व्यवस्थाओं में समान रूप से पाई जाती है जबकि विशिष्ट विधिशास्त्र किसी देश-विदेश की व्यावहारिक विधि-प्रणाली या उसके किसी अंश का विज्ञान है।

सामान्य तथा विशिष्ट विधिशास्त्र के भेद को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। प्रायः सभी विधि-प्रणालियों में सम्पत्ति की संकल्पना’ (concept of property) मूलभूत रूप में विद्यमान रही है, अत: सम्पत्ति-सम्बन्धी संकल्पना के संदर्भ में ‘सम्पत्ति’ शब्द का निश्चित अर्थ तथा इसके लक्षणों और तत्वों का वर्णन करना सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत समाविष्ट है। इसी प्रकार सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत यह अध्ययन भी किया जाता है कि किन-किन परिस्थितियों में सम्पत्ति का अर्जन या अन्तरण किया जा सकता है। या इसे किस प्रकार पूर्णत: समाप्त किया जा सकता है। सामान्य विधिशास्त्र का कार्य यह है कि उसके द्वारा बिना किसी विशेष विधि-प्रणाली का सहारा लिये सम्पत्ति की संकल्पना से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं का विवेचन किया जाए। परन्तु विशिष्ट विधिशास्त्र के अंतर्गत किसी देश-विशेष की सम्पत्ति-विधि के विषय में विवेचना की जाती है। इस प्रकार विशिष्ट विधिशास्त्र हमें यह बोध कराता है कि अमुक प्रणाली में सम्पत्ति की व्याख्या किस प्रकार की गयी है तथा उसे किस प्रकार अर्जित, अन्तरित अथवा समाप्त किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि अनेक विधिवेत्ताओं ने ऑस्टिन द्वारा किये गये विधिशास्त्र के उपर्युक्त विभाजन की आलोचना की है जिनमें हालैंड तथा सामण्ड प्रमुख हैं। हालैंड के विचार से विधिशास्त्र को सामान्य और विशिष्ट विधिशास्त्र के रूप में विभाजित करना उचित नहीं है। उनका तर्क है कि विशिष्ट विधिशास्त्र’ की कल्पना पूर्णतः भ्रामक है। उनके मतानुसार ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को विशिष्ट’ इसलिये बताया है, क्योंकि इसकी विषय-वस्तु विशिष्ट है न कि इस कारण कि यह एक विशिष्ट विज्ञान’ है। हालैंड का स्पष्ट मत है कि किसी विज्ञान का निर्माण सामान्य प्रतिपादनों (general propositions) से ही होता है। विज्ञान को अधिक सुदृढ़ आधार देने के लिये यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक अपने तथ्यों को अधिक विस्तृत क्षेत्र से एकत्रित करें और उनसे अपने निष्कर्ष निकालें। आशय यह है कि किसी विज्ञान का सीमित क्षेत्र में पर्यवेक्षण करना उचित नहीं है। उसका क्षेत्र जितना विस्तृमें निहित प्रवृत्तियों के अध्ययन पर अपनी विषय-सामग्री को आधारित करेगा। ये मानव-प्रवृत्तियाँ अन्य स्थानों पर भी एक समान होंगी क्योंकि ये मानव-स्वभाव से सम्बन्धित हैं, न कि मानव की परिस्थितियों से। परन्तु निवेदित है कि हालैंड द्वारा दिये गये इस दृष्टान्त की सार्थकता सन्देहास्पद प्रतीत होती है क्योंकि सभी देशों की विधि-व्यवस्था एक जैसी नहीं होती। जैसा कि ब्राइस (Bryce) ने कहा है-”किसी भी देश की विधि-व्यवस्था उस देश की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम होती है। स्थानीय परिस्थितियों का प्रभाव देश-विशेष की बौद्धिक क्षमता पर भी पड़ता है जिसकी अभिव्यक्ति वहाँ की विधि प्रणाली में मिलती है।”

सामण्ड ने भी ऑस्टिन के सामान्य और विशिष्ट विधिशास्त्र के भेद की आलोचना की है। सामण्ड के विचार से सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधिक सिद्धान्तों के सामान्य रूप का नहीं, अपितु विशिष्ट विधि पद्धति के सामान्य अथवा मूल तत्वों का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिये यद्यपि न्यायिक पूर्वोक्तियों (judicial precedents) का प्रयोग आंग्ल-विधि व्यवस्था का एक प्रमुख सिद्धान्त है तथापि इस नियम को त होगा, निष्कर्ष उतने ही सही होंगे। अत: हालैण्ड का मत है कि ‘विधिशास्त्र’ को बिना किसी विशेषण के ही सम्बोधित किया जाना चाहिए तथा उसे विधि के आधारभूत सिद्धान्तों (Basic principles of law) का विज्ञान कहना अधिक उचित होगा। अपने तर्क की पुष्टि में एक उदाहरण देते हुए हालैण्ड कहते हैं कि इंग्लैण्ड का भू-गर्भशास्त्र (Geology) सामान्य भू-गर्भशास्त्र से भिन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि विज्ञान चाहे किसी क्षेत्र-विशेष में किये गये परीक्षण पर ही आधारित क्यों न हो, परन्तु उसकी विषय-वस्तु तथा लक्षण समस्त संसार में एक समान होंगे। ठीक इसी प्रकार इंग्लैण्ड की विधि पर आधारित आंग्ल विधिशास्त्र समस्त विश्व के लिये लागू हो सकता है क्योंकि यह ब्रिटेनवासियों के स्वभाव किसी भी अन्य देश की विधि-व्यवस्था में अपनाया जाना उतना ही उचित होगा जितना कि वह इंग्लैण्ड में है। तात्पर्य यह है कि सामान्य विधिशास्त्र का प्रयोजन विधि-प्रणालियों का सामान्य रूप से अध्ययन करना ही नहीं है अपितु किसी विधि पद्धति के सामान्य एवं आधारभूत तत्वों का अध्ययन करना भी । है। सामण्ड के इस विचार पर टिप्पणी करते हुए डॉ० एलेन ने कहा है कि इस दृष्टिकोण से केवल ‘विशिष्ट विधिशास्त्र’ ही विधिशास्त्र का एकमात्र रूप माना जाना चाहिए।

2. विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक तथा नैतिक विधिशास्त्र 

(Analytical, Historical & Ethical Jurisprudence)

विशिष्ट अर्थ में विधिशास्त्र को तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें सामण्ड ने क्रमशः विश्लेषणात्मक (Analytical), ऐतिहासिक (Historical) एवं नैतिक (Ethical) विधिशास्त्र कहा है। उल्लेखनीय है कि विधि के विविध पहलुओं में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इनका पृथक् विवेचन करने से विधिशास्त्र का विषय ही अपूर्ण रह जायेगा; अतः विधिशास्त्र के अध्ययन के लिये इन तीनों का समावेश आवश्यक है।

विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र से आशय विधियों के प्राथमिक सिद्धान्तों का विश्लेषण करना है। इस विश्लेषण में उनके ऐतिहासिक उद्गम अथवा विकास या नैतिक महत्व आदि का निरूपण नहीं किया जाता है। विधिशास्त्र की इस शाखा के प्रणेता जॉन ऑस्टिन थे जिन्होंने विधि-विज्ञान की विभिन्न समस्याओं के प्रति इस शाखा के विचारों का प्रतिपादन अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्राविन्स ऑफ ज्यूरिसपुडेन्स डिटरमिन्ड’ में किया जो सर्वप्रथम सन् 1832 में प्रकाशित हुई थी। इस शाखा के अन्य समर्थक मार्कबी (Markby), एमॉस (Amos), हालैंड (Holland) तथा सामण्ड (Salmond) हैं।

विधिक पद्धति के प्राथमिक सिद्धान्तों तथा आधारभूत संकल्पनाओं के इतिहास को ‘ऐतिहासिक विधिशास्त्र’ कहा गया है। सर्वप्रथम प्रसिद्ध विधिशास्त्री सैविनी (Savigny) ने विधिशास्त्र के प्रति

ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपना कर ऐतिहासिक विधिशास्त्र का सूत्रपात किया। इंग्लैण्ड के सर हेनरी मेन (Sir Henry Maine) को ऐतिहासिक विधिशास्त्र का संस्थापक माना जाता है। इस शाखा का उद्देश्य विधि के उद्गम, विकास तथा विधि को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों के सामान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित करना है। इसमें उन विधिक धारणाओं तथा सिद्धान्तों के उद्गम तथा विकास का समावेश है जिन्हें विधिशास्त्र की विषय सामग्री में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र तथा ऐतिहासिक विधिशास्त्र में मुख्य भेद यह है कि विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र राज्य के प्रति अपने सम्बन्ध को ही विधि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू समझता है। इसके अन्तर्गत विधि को राज्य के संप्रभुताधारी का समादेश (command) माना गया है। इसीलिये इसे विधि की आदेशात्मक शाखा (Imperative School) भी कहा जाता है। विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र के समर्थक विधि के भूत अथवा भविष्य पर ध्यान नहीं देते, बल्कि वे विधि के केवल वर्तमान रूप का ही विश्लेषण करते हैं।

ऐतिहासिक विधिशास्त्री राज्य के प्रति विधि के सम्बन्ध को विशेष महत्व न देकर उन सामाजिक प्रथाओं को अधिक महत्व देते हैं, जिनसे विधि का निर्माण हुआ है। ऐतिहासिक विधिशास्त्र समाज की प्राचीन विधिक संस्थाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। इस शास्त्र के अनुसार आदर्श विधि एक ऐसा रूढिजन्य नियम है, जिसका विकास ऐतिहासिक आवश्यकता तथा लोकप्रिय प्रणाली से सहज रूप में हुआ है। दूसरे शब्दों में, ऐतिहासिक विधिशास्त्र के अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि वर्तमान विधिक धारणाओं का विकास कब, कैसे और किन विभिन्न अवस्थाओं में हुआ तथा इनके अस्तित्व में आने के क्या कारण थे? साथ ही यह देखना भी आवश्यक होता है कि इनका वर्तमान रूप क्या है? सारांश यह है कि विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र वर्तमान कानूनी विचारों के विश्लेषण को महत्व देता है जबकि ऐतिहासिक विधिशास्त्र इन कानूनी विचारों की उत्पत्ति तथा विकास का पता लगाने की ओर ध्यान केन्द्रित करता है। इस संदर्भ में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि विधिक इतिहास (Legal History) को ही ऐतिहासिक विधिशास्त्र (Historical Jurisprudence) मानना नितान्त भूल होगी। इन दोनों के क्षेत्र भिन्न हैं। विधिक इतिहास उन विभिन्न चरणों को। प्रस्तुत करता है जिनसे होकर कोई विधि-पद्धति विकसित होती हुई वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई हो, परन्तु ऐतिहासिक विधिशास्त्र किसी विशेष विधिक पद्धति के इतिहास का विवेचन मात्र न होकर विधिक पद्धति के प्राथमिक सिद्धान्तों एवं उसकी आधारभूत धारणाओं का इतिहास है।

नैतिक विधिशास्त्र का सम्बन्ध विधि के नैतिक पहलू से है। विधि कैसी है अथवा कैसी थी, इसका विवेचन करना नैतिक विधिशास्त्र का कार्य नहीं है वरन् इसका मुख्य कार्य यह है कि विधि कैसी होनी चाहिए। इस शास्त्र का उद्देश्य वैधानिक न्याय की स्थापना से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन करना है। इसीलिये सामण्ड ने नैतिक विधिशास्त्र को नीतिशास्त्र और विधिशास्त्र का सामान्य आधार माना है। इसके अन्तर्गत न्याय की धारणाओं तथा न्याय और विधि के पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन किया जाता है। नैतिक विधिशास्त्र का मुख्य उद्देश्य यह है कि वह विधि के लक्ष्यों का निर्धारण करे और उन आदर्शवादी तथ्यों की खोज करे जिन्हें समाज स्वीकार करना चाहता है। सामण्ड के अनुसार नैतिक विधिशास्त्र के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का समावेश है

1. विधि और न्याय के परस्पर सम्बन्धों का निर्धारण,

2. विधि के सिद्धान्तों का ज्ञान,

3. न्याय की स्थापना के लिये आवश्यक साधनों की खोज,

4. न्याय और विधि की विषय-वस्तु और उनके क्षेत्रों का निर्धारण; तथा

5. विश्लेषण पद्धति के मूलभूत सिद्धान्तों के नैतिक महत्व का परिणाम। । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यदि विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र विधि के वर्तमान स्वरूप को अधिक महत्व देता है, तो ऐतिहासिक विधिशास्त्र भूतकालीन विधि पर अपेक्षाकृत अधिक बल देता है, जब कि नैतिक विधिशास्त्र भविष्यकालीन आदर्श विधि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। यद्यपि विधिशास्त्र का

उपर्युक्त तीनों शाखाएँ एक दूसरे से भिन्न हैं तथापि विधिशास्त्र के अध्ययन में इनमें से किसी की भी अनदेखी नहीं की जा सकती अन्यथा इस विषय का अध्ययन ही अधूरा रह जायेगा।

3. व्याख्यात्मक तथा मूल्यांकात्मक विधिशास्त्र

(Expository and Censorial evaluative Jurisprudence)

सुप्रसिद्ध आंग्ल-विधिवेत्ता जर्मी बेन्थम के अनुसार विधिशास्त्र को दो भागों में रखा जा सकता है- व्याख्यात्मक तथा मूल्यांकात्मक । व्याख्यात्मक विधिशास्त्र इस बात की व्याख्या करता है कि विधि क्या है? मूल्यांकात्मक विधिशास्त्र का उद्देश्य यह स्पष्ट करता है कि विधि कैसी होनी चाहिए? बेन्थम ने व्याख्यात्मक विधिशास्त्र को दो भागों में विभाजित किया है-(1) प्राधिकारिक (Authoritative) जिसका सृजन विधायी शक्ति से होता है, अर्थात् जिसे विधान-मण्डल से शक्ति प्राप्त होती है; तथा (2)  अप्राधिकारिक (unauthoritative) जो विधिक साहित्य से अपनी विषय-सामग्री प्राप्त करता है। अप्राधिकारिक व्याख्यात्मक विधिशास्त्र को पुन: दो भागों में वर्गीकृत किया गया है-स्थानीय तथा सार्वभौमिक। स्थानीय (local) अप्राधिकारिक विधिशास्त्र में किसी देश-विदेश का विधि-साहित्य समाविष्ट रहता है, जबकि सार्वभौमिक (universal) अप्राधिकारिक विधिशास्त्र में समस्त विश्व की विधि-सामग्री का समावेश रहता है।

बेन्थम के अनुसार व्याख्यात्मक विधिशास्त्र का संबंध ‘विधि जैसी कि वह है’ से है न कि ‘विधि जैसी कि वह होनी चाहिए’ से। दूसरे शब्दों में विधि को नैतिकता या अनैतिकता का कोई सरोकार नहीं होता है, वह तो केवल प्रचलित विधि के विश्लेषण से संबंधित रहती है। बेंथम के इन विचारों का उल्लेख उनकी कृति-‘लिमिट्स ऑफ ज्यूरिसपुडेंस डिफाइन्ड’ में मिलता है, जो उनके द्वारा सन् 1782 में लिखी गयी थी, लेकिन जिसे एवरेट (Everett) ने सन् 1945 में प्रकाशित कराया। इस कृति में बेन्थम ने प्राकृतिक विधि की आलोचना करते हुए संप्रभु के आदेश को ही वास्तविक विधि माना तथा इसका अनुपालन किये जाने पर बल दिया। इस दृष्टि से यह कहना अनुचित न होगा कि विधिशास्त्र की विश्लेषणात्मक विचारधारा के वास्तविक प्रजनक (progenitor) बेन्थम थे कि न जॉन आस्टिन।

हालैण्ड ने विधिशास्त्र के उक्त वर्गीकरण की आलोचना करते हुए कहा है कि विधिशास्त्र को इस प्रकार विशेषणों सहित सम्बोधित करना उचित नहीं है। उनका मत है कि वर्तमान विधि में सुधार हो सके, इस दृष्टि से इसकी आलोचना करना विधिशास्त्र का कार्य क्षेत्र नहीं है, वरन् यह विधायन (Legislation) का विषय है।17।

4. समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र

(Sociological Jurisprudence)

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र की संकल्पना अपेक्षाकृत आधुनिकतम है। इसका उद्भव उन्नीसवीं सदी में हुआ जब मानव यह अनुभव करने लगा कि समाज के विकास के लिये उसे सामाजिक अनुशासन में रहकर

आपसी सहयोग का मार्ग अपनाना नितान्त आवश्यक है। वर्तमान में मनुष्य के वैयक्तिक पक्ष के बजाय सामाजिक पक्ष पर अधिक जोर दिया जाने लगा है। विधि का सामाजिक परिवर्तनों से निकटतम सम्बन्ध होने के कारण वह मानव के इस बदले हुए दृष्टिकोण से अप्रभावित हुए बिना न रह सका। फलतः विधिशास्त्र की एक नई पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ जो समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के नाम से विकसित हुई। इसके अन्तर्गत विधि के सामाजिक पहलू पर अधिक जोर दिया गया है। ।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को ‘हितों का विधिशास्त्र’ (Jurisprudence of Interest) भी कहा गया है। क्योंकि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य यही है कि मनुष्य के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन हो। सके। विधि के प्रति इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले विधिशास्त्रियों का विचार है कि मानव के परस्परविरोधी हितों में समन्वय स्थापित करना विधिशास्त्र का प्रमुख कार्य है। जर्मन विधिशास्त्री रूडोल्फ इहरिंग (Rudolph Ihring 1818-1898) ने इस विचारधारा को अधिक विकसित किया है।18 उनके अनुसार विधि

17. हालैण्ड : दि एलीमेंट्स ऑफ ज्यूरिसपुडेन्स, पृ० 5.

18. रूडोल्फ इहरिंग : दि स्पिरिट ऑफ रोमन लॉ Vol. III पृ० 79.

न तो स्वतंत्र रूप से विकसित हुई है और न वह राज्य की मनमानी देन ही है। वह विवेक (reason) पर भी आधारित नहीं है, बल्कि समीचीनता (expediency) पर आधारित है क्योंकि इसका मूल उद्देश्य समाज के पर-विरोधी हितों में टकराव की स्थिति को समाप्त कर उनमें समन्वय और एकरूपता स्थापित करना है। समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के समर्थक विधिशास्त्रियों के अनुसार न्यायालयों के लिये यह आवश्यक है। विधि के अमूर्त और लेखबद्ध स्वरूप पर विशेष जोर न देकर उसके व्यावहारिक पहलु पर अधिक बल दें अति वे उन सामाजिक आवश्यकताओं और उद्देश्यों की जाँच करें जो सम्बन्धित कानुन पारित होने के लिए कारणीभूत हुए हैं।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को अमेरिका में प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ है। प्रसिद्ध अमेरिकी विधिशास्त्री डीन रास्को पाउंड ने तो विधिशास्त्र को ‘सामाजिक यांत्रिकी’ (social engineering) की संज्ञा दी है। इस विचारधारा के अनुसार विधिशास्त्र के अन्तर्गत मुख्यत: दो बातों का अध्ययन किया जाता है—(1) मानव और उसके व्यवहारों पर विधि का क्या प्रभाव पड़ता है; तथा (2) मानव के संव्यवहार विधि को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?

विधिशास्त्र के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाये जाने के फलस्वरूप अमेरिका में यथार्थवादी विचारधारा (Realist School) का प्रादुर्भाव हुआ जिसके अन्तर्गत विधि के क्रियात्मक पहलू को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि इससे संहिताओं और अधिनियमों के अमूर्त नियमों तथा उनमें सन्निहित सिद्धान्तों का महत्व न्यूनप्राय हो गया।

विधि तथा विधिशास्त्र के प्रति प्रयोजनात्मक (Pragmatic) दृष्टिकोण अपनाते हुए यथार्थवादियों ने विधि को काल्पनिक सिद्धान्तों से उबारकर तथ्यों पर आधारित वास्तविक रूप प्रदान किया और इस प्रकार विधि को सामाजिक समस्याओं को सुलझाने वाला एक क्रियात्मक साधन माना। इस विचारधारा के प्रबल समर्थक जेरोम फ्रैंक (Jerome Frank) का मानना था कि विधि की निश्चितता एक काल्पनिक तथ्य है। क्योंकि विधि सदैव ही परिवर्तनशील होती है और इसीलिये विधि का संहिताकरण या पूर्व-निर्णयों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। फ्रेंक के अनुसार विधि के विकास का सामाजिक प्रगति से सीधा सम्बन्ध रहता है।

लेविलिन (Llewellyn) ने विधिशास्त्र को सामाजिक प्रगति का स्रोत मानते हुए उसके क्रियात्मक पहलू पर बल दिया गया है। उनके अनुसार विधिशास्त्री का यह कर्तव्य है कि वह विधि का अध्ययन और विश्लेषण सम-सामयिक सामाजिक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में करे। विधि को सैद्धान्तिक दायरे से हटकर मानव जीवन के व्यावहारिक पहलू से समस्याओं के निवारण में सहायक होना चाहिए।

5. आंग्ल विधिशास्त्र तथा महाद्वीपीय विधिशास्त्र

(English Jurisprudence and Continental Jurisprudence)

सामंड ने आंग्ल विधिशास्त्र और महाद्वीपीय (अन्य यूरोपीय देशों के) विधिशास्त्र में विभेद करते हुए कहा है कि इन दोनों में अनेक असमानतायें हैं। अंग्रेजी में ‘विधि’ शब्द का अर्थ अन्य कुछ न होते हुए केवल ‘कानून’ (law) ही है, परन्तु अन्य महाद्वीपीय देशों में इस शब्द का अर्थ केवल ‘कानून’ ही नहीं बल्कि ‘औचित्य’ या ‘अधिकार’ अथवा ‘न्याय’ भी है। परिणामत: आंग्ल विधिशास्त्र में विधि’ तथा ‘अधिकार’ में अन्तर है जबकि यूरोप के अन्य देशों में विधि’ तथा ‘अधिकार’ में कोई विभेद नहीं है। इसके अतिरिक्त, आंग्ल विधिशास्त्र के दो मुख्य रूप हैं-विश्लेषणात्मक तथा ऐतिहासिक विधिशास्त्र। परन्तु अन्य यूरोपीय देशों में विधिशास्त्र को केवल नैतिक रूप ही प्राप्त है जो तर्क और विवेक पर आधारित है। इसी प्रकार महाद्वीपीय विधिशास्त्र (Continental Jurisprudence) विधि और न्याय को पृथक नहीं मानता जबकि आंग्ल विधिशास्त्री इन दोनों शब्दों को पृथक् मानते हैं और दोनों के लिये एक ही शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं समझते हैं।

6. तुलनात्मक विधिशास्त्र (Comparative Jurisprudence)

अनेक विधिशास्त्रियों ने विधि के विभिन्न वर्गों के अनुसार विधिशास्त्र का विभाजन किया है। डॉ० एलेन (Allen) ने विधि के दो या अधिक पद्धतियों के तुलनात्मक अध्ययन करने की पद्धति को तुलनात्मक

विधिशास्त्र विधिशास्त्र (Comparative Jurisprudence) कहा है। इसी प्रकार नागरिक विधि के अध्ययन करने वाले शास्त्र को नागरिक विधिशास्त्र, दण्ड-विधि के अध्ययन से सम्बन्धित शास्त्र को आपराधिक विधिशास्त्र या चिकित्सक क्षेत्र से सम्बन्धित विधि के अध्ययन को चिकित्सीय विधिशास्त्र (Medical Jurisprudence) कहा गया है। प्रो० हालैंड ने इस प्रकार के वर्गीकरण को अनावश्यक और व्यर्थ बताते हुए यह विचार व्यक्त किया। है कि इससे विधिशास्त्र का क्षेत्र अनेक भागों में बँटकर सीमित हो जायेगा।

तुलनात्मक विधिशास्त्र को विकसित करने का वास्तविक श्रेय दो सुविख्यात विधिशास्त्री–कान्ट तथा। स्टोरी को दिया जाना चाहिए जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विधायन और विधि में व्यावहारिक सुधार लान में तुलनात्मक अध्ययन की अहम भूमिका रहती है। सामंड ने भी विभिन्न देशों की विधियों के गुणदाषा के आधार पर स्वदेशीय विधि का तुलनात्मक मुल्यांकन किये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। लेकिन वे इसे (तुलनात्मक विधिशास्त्र को) विधिशास्त्र की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में मानने से इन्कार करते हैं। उनके अनुसार यह विधिशास्त्र के अध्ययन का एक तरीका मात्र है। | इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान में विधिशास्त्र का अध्ययन प्रायः उसके विश्लेषणात्मक पक्ष तक ही सीमित रखा गया है। तथापि इसका आशय यह कदापि नहीं है कि उसके नैतिक तथा ऐतिहासिक पक्ष की पूर्ण उपेक्षा की जाये। विधिशास्त्र एक ऐसा समाजशास्त्रीय विज्ञान है जो मानव के उन सभी संव्यवहारों और कार्यकलापों का अध्ययन करता है जिनके वैधानिक परिणाम सम्भावित हों।19 fafegint ant uofa (Nature of Jurisprudence)

विधिशास्त्र की विषय वस्तु कानून के अन्य विषयों से भिन्न है। जिस प्रकार संविदा, अपकृत्य विधि, दण्ड प्रक्रिया विधि, न्यास या आयकर आदि कानूनों का प्रयोग विशिष्ट परिस्थितियों में समस्याओं का हल निकालने के लिये किया जाता है, विधिशास्त्र का प्रयोग इस प्रकार नहीं होता। यही कारण है कि अन्य विधियों से सम्बन्धित कानून की पुस्तक में एकरूपता होती है। लेखकों के विचार कुछ भी क्यों न हों किन्तु अधिनियमित कानून की विषय-वस्तु एक समान ही होगी। परन्तु विधिशास्त्र अधिनियमित विधि न होने के कारण विधिवेत्ताओं को इसकी विषय-वस्तु को अपने वैयक्तिक विचारों के अनुसार प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता होती है।

विधिशास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न कानूनों-सम्बन्धी अवधारणाओं (concepts) की विवेचना की जाती है। जिनमें अधिकार, दायित्व, स्वामित्व, आधिपत्य, वैधानिक व्यक्तित्व, आशय, उपेक्षा (negligence) आदि के सामान्य एवं व्यापक स्वरूप का निरूपण किया जाता है। विधिशास्त्र को विज्ञान की कोटि में रखे जाने का औचित्य अनेक विद्वानों ने विधिशास्त्र को विधि का विज्ञान निरूपित किया है। अत: विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या विधिशास्त्र को विज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है? विधिशास्त्र की विभिन्न परिभाषाओं के अनुसार इसके अंतर्गत विधि से संबंधित पहलुओं का व्यवस्थित, क्रमबद्ध तरीके से अध्ययन किया जाता है। जैसा कि ऑस्टिन और उसके पश्चात्वर्ती विधिशास्त्रियों ने कहा है कि विधिशास्त्र में प्रथाओं तथा सामाजिक व नैतिक मान्यताओं को कोई स्थान नहीं है क्योंकि ये विधि की संकल्पना को धूमिल करती हैं। इसलिये प्रमाणवादी विचारकों (Positivists) ने विधि को संप्रभु का आदेश निरूपित किया ताकि उसमें निश्चितता, तर्कसंगतता एवं व्यावहारिकता बनी रहे जो विज्ञान की किसी भी शाखा के प्रमुख तत्व हैं। विधिशास्त्र के अध्ययन के प्रति अपनाई जाने वाली यह पद्धति उसे विज्ञान के बहुत निकट लाकर खड़ा करती है।

आधनिक विधिशास्त्र के प्रणेता आगस्ट कॉम्टे (1798-1887) ने विधिशास्त्र के अध्ययन में कल्पनाओं तथा रूढिवादी परंपराओं पर आधारित मान्यताओं को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए उसके प्रति विश्लेषणात्मक एवं अन्वेषणात्मक पद्धति अपनाई जाने पर बल दिया जो कि किसी भी विज्ञान के प्रमुख लक्षण होते हैं। तत्पश्चात् बीसवीं सदी की यथार्थवादी विचारधारा के प्रवर्तकों ने विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि के

19. इन देशों में विधि‘ (Law) शब्द के लिये ‘recit. droit, या diritto शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिसके भिन्न भिन्न अर्थ और महत्व हैं।

अध्ययन को सामाजिक परिवेश में किये जाने पर जोर दिया तथा इसी तारतम्य में रास्को पाउंड ने विधि (जो कि विधिशास्त्र की विषय वस्तु है) को सामाजिक यांत्रिकी (Social Engineering) निरूपित किया। इस प्रकार विधिशास्त्र को विज्ञान में श्रेणी में स्थान दिलाने का वास्तविक श्रेय यथार्थवादी विधिशास्त्रियों को दिया जाना चाहिए। इसी विचारधारा को आगे चलकर इहरिंग, इहलिच, मार्स वेबर तथा होम्स आदि ने आगे बढाया तथा विधि को सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम निरूपित किया। विधिशास्त्र के प्रति सकारात्मक रुख अपनाये जाने के कारण इसे विज्ञान की कोटि में रखा जाना ही उचित होगा। विधिशास्त्र का क्षेत्र-विस्तार (Scope of Jurisprudence)

विधिशास्त्र के क्षेत्र-विस्तार के विषय में विधिवेत्ताओं ने भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये हैं। केल्सन (Kelson) ने विधिशास्त्र को नीतिशास्त्र तथा समाजशास्त्र से अलग रखा है। विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र की आंग्ल शाखा के समर्थक विधिवेत्ताओं ने इस विषय का अध्ययन विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र तक ही सीमित रखना उचित समझा। डीन रास्को पाउण्ड (Roscoe Pound) के अनुसार विधिशास्त्र का क्षेत्र निर्णयों के सन्दर्भ में विधि का अध्ययन करना है। ऑस्टिन के विचार से विधिशास्त्र का क्षेत्र केवल निश्चयात्मक विधि (Positive law) के अध्ययन तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। निश्चयात्मक विधि से उनका अभिप्राय उस विधि से है जो राज्य के संप्रभुताधारी शासक द्वारा नागरिकों के प्रति लागू की जाती है। इस प्रकार ऑस्टिन के मतानुसार विधिशास्त्र का उद्देश्य यह कदापि नहीं है कि वह उपयोगिता के आधार पर कानून के गुण-दोषों की विवेचना करें बल्कि इसका सम्बन्ध तो केवल राज्य द्वारा प्रवर्तित विधि के अध्ययन तक ही सीमित रहना। चाहिये।

इसमें संदेह नहीं कि वैधानिक न्याय से विधिशास्त्र का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है परन्तु यहाँ न्याय से तात्पर्य उस न्याय से है जिसे सिसरो (Cicero) ने नियमों के प्रति कृतज्ञता” के नाम से सम्बोधित किया है। सामंड के अनुसार विधिशास्त्र का क्षेत्र नागरिक विधि (civil law) के अध्ययन तक ही सीमित है। नागरिक विधि से उनका आशय विभिन्न देशों की नागरिक विधि के मूलभूत सिद्धान्तों से है। इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने इस शास्त्र के प्रति अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं। किन्तु स्मरणीय है कि विधि का मनुष्यों के सामाजिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण इसकी विभिन्न धारणाओं को पृथक्-पृथक् भागों में विभाजित करना उचित नहीं है। सामाजिक विकास तथा परिवर्तनों के साथ-साथ विधि सम्बन्धी धारणायें बदलती रहती हैं; परिणामतः विधि का क्षेत्र भी विस्तृत हो जाता है। अतः विधिशास्त्र के अन्तर्गत ऐतिहासिक, तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक, दार्शनिक, मानव-विज्ञान सम्बन्धी, चिकित्सकीय आदि ऐसे समस्त शास्त्रों का समावेश है। जिनका उद्देश्य विधि सम्बन्धी धारणाओं तथा सिद्धान्तों का क्रियात्मक अध्ययन करना है। यही कारण है कि विधिशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत तथा व्यापक है।

तुलनात्मक विधिशास्त्र (Comparative Jurisprudence)-जैसा कि उपर्युक्त शीर्षक से ही स्पष्ट है, तुलनात्मक विधिशास्त्र के अन्तर्गत दो या अधिक देशों में प्रचलित विधि-प्रणालियों के अन्तर्गत प्रवर्तमान विधि एवं विधिक संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन का समावेश है। प्रो० गटरिज (Gutteridge) जिन्हें कि तुलनात्मक विधिशास्त्र का मुख्य प्रणेता माना जाता है, के अनुसार यह विधिशास्त्र के अध्ययन को ऐसी पद्धति है जिसके अन्तर्गत विभिन्न विधिक प्रणालियों में प्रचलित विधियों में समानता तथा उनकी विषमताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। इसमें विधिक संकल्पनाओं, धारणाओं, सिद्धान्तों तथा विधिक संस्थाओं आदि का सभी का तुलनात्मक अध्ययन समाविष्ट है। विधिशास्त्र की विश्लेषणात्मक शाखा (analytical school) के प्रमुख समर्थक आस्टिन ने स्वयं अपनी विधिशास्त्रीय विचारधारा रोमन विधि के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित की।

इसी प्रकार सेविनी (Savigny) ने अपने वोल्कजिस्ट के सिद्धान्त (Volkegeist) को यूनान, फ्रांस तथा जर्मनी की विधियों के आधार पर विकसित किया। सर हेनरीमेन द्वारा विधिशास्त्र की ऐतिहासिक विचारधारा का सिद्धान्त मूलतः उनके द्वारा अध्ययन किये गये प्राचीन भारतीय विधि (Ancient Indian Law) पर आधारित था। ।

तुलनात्मक विधि का सर्वश्रेष्ठ गुण यह है कि विभिन्न देशों की विधियों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर किसी भी देश को अपनी देशीय विधि की कमियों या दोषों के निवारण में सहायता मिलती है तथा अन्य देशों की विधियों की अच्छाइयों की स्वेदेशीय विधि में समाविष्ट करके विधि में गुणात्मक सुधार करना सम्भव होता है।

विधिशास्त्र और विधिक सिद्धान्त में भेद । (Distinction between Jurisprudence & Legal Theory)

विधिक सिद्धान्त की विषय-वस्तु विधि के दर्शनशास्त्रीय अध्ययन से संबंधित है इसलिये इसके अन्तर्गत विधि-दर्शन का परीक्षण एवं विश्लेषण किया जाता है। जैसा कि फिट्सजिराल्ड (Fitzgerald) ने कहा है, विधिशास्त्र का क्षेत्र विधिक सिद्धान्त की तुलना में अधिक विस्तृत एवं व्यापक है क्योंकि विधिशास्त्र में विधि की विभिन्न संकल्पनाओं का सैद्धांतिक एवं विवरणात्मक अध्ययन किया जाता है जबकि विधिक सिद्धान्त अपना ध्यान केवल इस बात पर केन्द्रित करता है कि विधि क्या है? ताकि इसकी विभिन्न संकल्पनाओं को भली-भाँति समझने में सहायता हो सके।

अत: स्पष्ट है कि लीगल थ्योरी (Legal Theory) विधिशास्त्र का एक विशिष्ट पहलू मात्र है जो विधि के दर्शनशास्त्रीय मूल्यांकन को ही अपना क्षेत्र मानती है ताकि विधि के महत्व, लक्ष्य एवं उद्देश्यों को समझा। जा सके। यह ऐसी व्यावहारिक विधि के अध्ययन से संबंधित है जो कि विधि को सामाजिक कारकों के अनुकूल बना सके। अत: यह विधि के तकनीकी एवं काल्पनिक धारणाओं को अस्वीकार करती है। | विधिक सिद्धांत अर्थात् ‘लीगल थ्योरी’ (Legal Theory) का प्रयोग सर्वप्रथम डॉ० फ्रीडमैन ने सन् 1945 में किया था जिन्होंने इंग्लिश विधि की इस रूढ़िवादी धारणा को पूर्णत: अस्वीकार किया था कि विधि संप्रभु का आदेश मात्र है जिसका अपालन होने पर शास्ति या दंड ही एकमात्र परिणाम होता है, अत: विधि में सामाजिक या लौकिक मूल्यों को कोई स्थान नहीं है। फ्रीडमैन के इस विचार को बाद में आधुनिक विधिशास्त्रियों का समर्थन प्राप्त हुआ जिनमें हार्ट, फुलर, वोल्फ (Wolff), ड्वारकिन (Dwarkin), रेडब्राच, राबर्ट पॉल आदि के नाम प्रमुख हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि लीगल थ्योरी विधिशास्त्र के समस्त क्षेत्र से संबंधित न होकर केवल विधि के दर्शनशास्त्रीय अध्ययन का ही विश्लेषणात्मक अध्ययन करती है ताकि उसकी नैतिक एवं सामाजिक उपादेयता प्रतिपादित की जा सके।

विधिक सिद्धान्तों को भी कार्य-विधि के सिद्धान्तों (Theories of methodologies) की भाँति उनमें अन्तर्निहित मुख्य तत्वों के अनुसार विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, विधिक सिद्धान्त जो तार्किक विधि के विचारों पर आधारित होते हैं, उन्हें औपचारिकतात्मक विधिक सिद्धान्त (formalist legal theory) की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसी प्रकार ऐसे विधिक सिद्धान्त जो सामाजिक परिणामों को ध्यान में रखते हुये प्रतिपादित किये गये हैं, उपयोगितावादी विधिक सिद्धान्त (Utilitarian theory) कहलाते हैं जबकि जो विधिक सिद्धान्त उन परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करते हैं जिनमें उन्हें प्रतिपादित किया गया है ऐतिहासिक विधिक सिद्धान्त (historicist legal principles) माने जाते हैं। सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि इनमें से प्रत्येक श्रेणी में आने वाले विधिक सिद्धान्त एक विशिष्ट बिन्दु या तत्व को ही विशेष महत्व देते हैं जबकि न्यायमूर्ति होम्स (Justice Holmes) ने इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुये अभिकथन किया है कि विधि को किसी एक विशेष तत्व पर आधारित नहीं रखा जाना चाहिये।

विधिशास्त्र के गुण और महत्व (Merits and improtance of jurisprudence)

कुछ विधिवेत्ताओं ने विधिशास्त्र को ‘विधि का नेत्र’ कहा है, अर्थात् विधि के अध्ययन में विधिशास्त्र का वही महत्व है जो मानव शरीर के लिये आँख का है। जिस प्रकार आँख के बिना मनुष्य का जीवन अन्धकारमय होता है उसी प्रकार विधिशास्त्र के ज्ञान के बिना विधि का अध्ययन अधूरा और अस्पष्ट रहता है। विधिशास्त्र विधि की ऐसी कुंजी है जो उसके भीतर छिपे हुए रहस्यों को खोलकर सामने रख देती है। दूसरे शब्दों में, यह कहना उचित होगा कि विधि के अध्ययन के लिए विधिशास्त्र वही कार्य करता है जो भाषा के अध्ययन के लिये व्याकरण-शास्त्र करता है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि विधिशास्त्र का अध्ययन केवल विधि के विद्यार्थियों के लिये ही लाभप्रद है, अन्य वर्गों के लिये नहीं। वस्तुत: समाज के अन्य वर्ग,

जैसे अधिवक्ता, न्यायाधीश, राजनीतिज्ञ तथा विधायक राज उतना ही आवश्यक है जितना कि व्यावहारिक जीवन में अत्यधिक महत्व है। ना कि विधि के विद्यार्थियों के लिये। अत: इसमें सन्देह नहीं कि वधिशास्त्र का (ध्ययन ” में अत्यधिक महत्व है। कानून का अध्ययन करने वाले व्यक्तियों को विधि की विभिन्न – पल सिद्धान्तों की जानकारी विधिशास्त्र से ही प्राप्त होती है।

इसी प्रकार यह अध्ययन विधायकों को कानून के अन्तर्गत प्रयोग में आने वाले पारिभाषिक शब्दों का यथार्थ ज्ञान कि वे विधि के सही रूप को समझ सकें और तदनुसार पैरवी कर सकें या विधियों का दक्षतापूर्वक सकें। विधिशास्त्र का सम्बन्ध विधि के मूलभूत सिद्धान्तों के ज्ञान से होने के कारण इस शास्त्र का नव्यायाधीशों, राजनीतिज्ञों तथा सामान्य व्यक्तियों के लिये भी आवश्यक है। न्यायाधीशों को अपने या प्रचलित विधि के अनुसार देना होता है; अतः विधिशास्त्र के यथेष्ट ज्ञान के बिना उन्हें यह कार्य करना निन होगा। इसी प्रकार राजनीतिज्ञों को नीति-सम्बन्धी विचारधाराओं से अवगत कराने के लिये विधिशास्त्र का ज्ञान होना चाहिए ताकि वे अपनी नीतियों को विधि के अनुसार ढाल सकें। विधिशास्त्र का मानव विकास के साथ सीधा सम्बन्ध होने के कारण समाज की प्रगति के साथ-साथ विधि के सिद्धान्तों में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि वर्तमान समय में विधिशास्त्र के समाजशास्त्रीय पहलू पर विशेष महत्व दिया जा रहा है।

इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान समय में विधिशास्त्र के अध्ययन का महत्व निरंतर बढ़ता जा रहा है। हमें अपने विचारों को सामाजिक लक्ष्यों के अनुरूप बनाने के लिये विधिशास्त्र के माध्यम से मानक सामाजिक मूल्यों को समझना होगा तथा अपने आचरण को उनके अनुकूल ढालना होगा। यह भी आवश्यक है कि विधि। की व्याख्या समयानुसार सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप की जानी चाहिए। इस अध्ययन के साथ अन्य समाज-विज्ञान सम्बन्धी विषयों का समावेश विधि के ज्ञान की उपादेयता बढ़ाने में सहायक होगा। वर्तमान युग में बेरोजगारी, गरीबी, जनसंख्या, जन-स्वास्थ्य, पर्यावरण आदि की समस्याओं से जूझने हेतु विधि के क्रियात्मक पहलू के अध्ययन पर विशेष बल देना होगा ताकि समाज में उसकी उपयोगिता बढ़ सके। भारत में वर्तमान में पारित दहेज निरोधक विधि; पर्यावरण प्रदूषण निरोधक कानून; उपभोक्ता संरक्षण कानून तथा गरीबों के लिये मुफ्त कानूनी सहायता सम्बन्धी व्यवस्था, महिला एवं बाल संरक्षण हेतु निर्मित विभिन्न कानून आदि क्रियात्मक विधिशास्त्र की अनमोल देन कहे जा सकते हैं। । भारतीय विधिशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा कि इसके प्रमुख उद्देश्य को भारत के संविधान20 में समाविष्ट किया गया है।

देश में विधि-सम्मत शासन व्यवस्था (rule of law) सुनिश्चित करते हुए लोगों को सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना ही वर्तमान प्रगतिशील देशों के विधिशास्त्र का प्रमुख लक्ष्य है। कहना न होगा कि भारत ने इसमें आशातीत सफलता प्राप्त की है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है। कि विगत तीन दशकों में भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी न्यायिक क्रियाशीलता (Judicial activism) का प्रयोग करते हुए विधि को लोकहित का प्रभावी साधन बनाने का भरसक प्रयास किया है। इनमें पर्व मख्य न्यायाधिपति वी० वाय० गजेन्द्रगडकर, पी० एन० भगवती तथा पूर्व न्यायाधीश वी० आर० कष्णा अइयर का योगदान विशेष उल्लेखनीय रहा है। न्यायमूर्ति कृष्णा अइयर के अनुसार विधि का प्रयोजन भारत के लोगों की गरीबी, अज्ञानता तथा विवशता दूर करने हेतु किया जाना चाहिए ताकि संविधान निर्माताओं द्वारा अपेक्षित कल्याणकारी राज्य की कल्पना साकार हो सके 21

20. देखें,, संविधान की उद्देशिका (Preamble) मूलभूत अधिकार तथा राज्य के नीतिनिदेशक सिद्धान्त सम्बन्धी भाग (1! एवं IV आदि.

21. बस्ती सागर मिल्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 262.

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