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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 31 Notes

 

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 31 Notes: Today’s LLB Bachelor of Laws 1st Semester Year Wise Jurisprudence & Legal Theory Section 4 Chapter 31 The Law of Procedure Notes Study Material in Hindi English. LLB is not only in India but also in other countries, after doing LLB, a person becomes a lawyer, after which he starts advocating. Today in LLB you will also get LLB Question Paper Sample Model Practice Sets along with Study Material.

 

अध्याय 31 (Chapter 31)

प्रक्रिया-विधि (The Law of Procedure)

LLB Notes Study Material

न्याय-प्रशासन में विधि की महत्वपूर्ण भूमिका है। न्याय संपादन की दृष्टि से विधि के दो प्रमुख कार्य हैं। प्रथम, विधि उन अधिकारों को विनिश्चित करती है जिनके उल्लंघन के लिए विधिक उपचार दिलाया जा सकता है। दूसरे, वह विधिक अधिकारों के प्रवर्तन की कार्यवाही या प्रक्रिया (Procedure) को विनिर्दिष्ट करती है। अधिकारों का सृजन व निर्धारण करने वाली विधि को सारभूत विधि (Substantive Law) कहते हैं जबकि अधिकारों के उपचार हेतु अपनायी जाने वाली कार्यवाही को प्रक्रियात्मक विधि (Procedural Law) कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, सारभूत विधि अधिकारों को विनिश्चित करती है जबकि प्रक्रियात्मक विधि उपचारों का निर्धारण करती है। प्रक्रियात्मक विधि को कार्य-विधि भी कहा गया है। सामण्ड के अनुसार विधि की वह शाखा जो मुकदमेबाजी की प्रक्रिया को अनुशासित करती है, प्रक्रियात्मक विधि कहलाती है।

प्रक्रियात्मक विधि के अन्तर्गत दीवानी तथा फौजदारी दोनों ही प्रकार के मामलों की कार्यवाही सम्बन्धी प्रक्रिया सम्मिलित है। इसमें विभिन्न प्रकार के न्यायालयों के गठन, उनकी अधिकारिता तथा साक्ष्य आदि सम्बन्धी प्रक्रिया का समावेश है। प्रक्रिया विधि में वे समस्त कार्यवाहियां शामिल रहती हैं जो किसी पक्षकार द्वारा अपने अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय की सहायता पाने हेतु अपनाई जानी चाहिये। प्रक्रिया विषयक विधि का सम्बन्ध उस कार्यवाही से है जिसके द्वारा अधिकार के प्रवर्तन के लिए उपचार उपलब्ध कराया जा सके।

सारभूत विधि तथा प्रक्रियात्मक विधि में अन्तर

सामण्ड के अनुसार सारभूत विधि तथा प्रक्रियात्मक विधि में निम्नलिखित भेद हैं

(1) सारभूत विधि मुकदमे से सम्बन्धित पक्षकारों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा संव्यवहारों का निर्धारण करती है जबकि प्रक्रियात्मक विधि के अन्तर्गत मुकदमे से सम्बन्धित न्यायालयों तथा पक्षकारों के आपसी आचरणों को विनियमित किया जाता है।

(2) सारभूत विधि उन उद्देश्यों का वर्णन करती है जिन्हें प्राप्त करने के लिए न्याय-प्रशासन की स्थापना हई है। प्रक्रियात्मक विधि का सम्बन्ध उन साधनों से है जो न्याय-प्रशासन के उद्देश्य को पूरा करते हैं। उदाहरणार्थ, न्याय-प्रशासन का एक उद्देश्य है कि किसी व्यक्ति से छीनी गई सम्पत्ति उसे वापस दिलाई जाए। ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए किस न्यायालय में किस प्रकार का वाद प्रस्तुत किया जाए यह प्रक्रियात्मक विधि से सम्बन्धित विषय है।

(3) सारभूत विधि में विवादियों के अधिकारों तथा प्रतिकारों का वर्णन दिया रहता है जबकि प्रक्रियात्मक विधि अधिकतर न्यायालयीन प्रक्रिया तथा कार्य-प्रणाली का वर्णन करती है।

उपर्यक्त भेदों के होते हए भी यह कहना पूर्णतः सही नहीं है कि सारभत विधि केवल अधिकारों को विनिश्चित करती है और प्रक्रिया विधि उपचारों का निर्धारण करती है क्योंकि अपील का आधकार अथवा

1. The law of Procedure may be defined as the branch of the law which governs the process of litigation. Salmond : Jurisprudence (12th ed. p. 461).

दूसरे पक्ष से पूछताछ करने का अधिकार सारभूत विधि से सम्बन्धित होने पर भी प्रक्रियात्मक विधि की विषय-वस्तु है। इसी प्रकार उपचारों का निर्धारण करने वाले अनेक नियम प्रक्रियात्मक विधि की विषयवस्तु होने पर भी सारभूत विधि का भाग है; जैसे-भारतीय दण्ड विधि में अपराधों के वर्णन के साथ-साथ इनके लिए दण्ड का उल्लेख भी किया गया है।

भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता (The Code of Criminal Procedure) तथा साक्ष्य विधि (Law of Evidence), अधिकांशतः प्रक्रियात्मक विधि के रूप में हैं जबकि भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code), भारतीय संविदा विधि (Indian Contract Act), सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम (Transfer of Property Act) आदि सारभूत विधि के उदाहरण हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code) का प्रथम भाग अधिकतर सारभूत विधि से सम्बद्ध है क्योंकि इसमें सारभूत सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। किन्तु द्वितीय भाग में संकलित किये गये आदेशों (Orders) का सम्बन्ध उन सामान्य सिद्धान्तों से है जो प्रक्रियात्मक स्वरूप के होने के कारण प्रक्रिया-विधि के भाग हैं।

सामण्ड ने प्रक्रिया विधि के तीन ऐसे उदाहरणों का उल्लेख किया है जो व्यावहारिक प्रवर्तन में सारभूत विधि के समान हैं

(1) साक्ष्य का प्रक्रियात्मक नियम यह है कि संविदा केवल लिखित रूप में ही साबित की जा सकती है। यह नियम संविदा की उस सारभूत विधि के समरूप है जिसमें यह कहा गया है कि अलिखित संविदा शून्य-प्रभावी होगी।

(2) साक्ष्य विधि की सभी उपधारणाएँ प्रक्रियात्मक स्वरूप की होती हैं किन्तु इनका क्रियान्वयन सारभूत विधि के समान ही होता है। उदाहरणार्थ, साक्ष्य (evidence) सम्बन्धी यह नियम कि सात वर्ष से कम आयु के बालक आपराधिक आशय के लिए असमर्थ (doli incapex) होते हैं, प्रक्रियात्मक विधि का अंग होने पर भी सारभूत विधि के उस भाग के अनुरूप हैं जिनमें यह कहा गया है कि सात वर्ष से कम आयु का बालक किसी अपराध के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता है।

(3) अनुयोजनों (Actions) का परिसीमन (limitation) प्रक्रियात्मक विधि का अंग होते हुए भी वह चिरभोगाधिकार (Right of Prescription) के समरूप है, जो सारभूत विधि की विषय-वस्तु है।

न्यायिक प्रक्रिया के मुख्य चरण (Various Stages of Judicial Procedure)

न्यायिक प्रक्रिया के आवश्यक तत्वों का उल्लेख करते हुए सामण्ड ने कहा है कि प्रत्येक न्यायिक कार्यवाही में निम्नलिखित तत्वों का होना अनिवार्य है :

1. समन (Summons)

समन का उद्देश्य मुकदमे में हित रखने वाले पक्षकारों को न्यायालय में उपस्थित होने के लिए आदेश देना है ताकि वे न्यायालय के समक्ष अपना वाद प्रस्तुत कर सकें तथा न्यायालय उसकी सुनवाई करके अपना निर्णय दे सके।

2. अभिवचन (Pleadings)

ये विवादियों द्वारा न्यायालय के समक्ष उठाये गये तथ्य-सम्बन्धी अथवा विधि सम्बन्धी विवादास्पद पान होते हैं जिनके आधार पर न्यायालय मुकदमे को विनिश्चत करता है। दीवानी कार्यवाही में वादी द्वारा वाद-पत्र (Plaint) प्रस्तुत किया जाता है। तत्पश्चात् प्रतिवादी अपना जवाब-दावा (Written Statement) प्रस्तत करता है और इसके बाद प्रत्युत्तर (replication) कार्यवाही शुरू होती है। इस प्रकार वादपत्र, जवाबदावा तथा प्रत्युत्तर, ये दीवानी कार्यवाही के तीन प्रमुख अंग हैं। परन्तु आपराधिक कार्यवाही इससे भिन्न है। इसमें कार्यवाही परिवाद (Complaint) अथवा पुलिस रिपोर्ट से प्रारम्भ होती है।

2. भा० द० सं०, धारा 82.

3. सामण्ड: ज्यूरिसप्रूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 464.

3. सबूत (Proof)

मुकदमे में हित रखने वाले पक्षकार न्यायालय के समक्ष विचाराधीन प्रश्नों के विषय में साक्ष्य तथा सामग्री प्रस्तुत करते हैं जिनके आधार पर न्यायालय अन्तिम निर्णय पर पहुँचता है। मामलों से सम्बन्धित साक्ष्य या सामग्री न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जाने की प्रक्रिया को ‘सबूत पेश करना’ कहते हैं।

4. निर्णय (Judgment)

मामले के सबूत पर विचार कर लेने के बाद न्यायालय जिस अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँचता है, उसे निर्णय (Judgment) कहते है। इसमें न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विनिश्चय के कारणों का उल्लेख अपने निर्णय में करे ताकि निर्णय की न्यायोचितता के विषय में किसी प्रकार के संदेह को कोई स्थान न रहे।

5. निष्पादन (Execution)

न्यायालय द्वारा किसी मुकदमे में दिये गये निर्णय को क्रियान्वित किये जाने की प्रक्रिया को ‘निष्पादन’ कहते हैं। इसके द्वारा प्रतिवादी को न्यायालय द्वारा निर्देशित आदेश या डिक्री का अनुपालन करने के लिए बाध्य किया जाता है। यदि प्रतिवादी डिक्री या आदेश की अवहेलना करता है, तो उसकी संपत्ति को कुर्क या विक्रय किया जा सकता है या उसे कारावासित किया जा सकता है या उसकी संपत्ति के लिए रिसीवर (Receiver) नियुक्त किया जा सकता है।

साक्ष्य की परिभाषा

न्यायिक प्रक्रिया के उपर्युक्त तत्वों में से सबूत या साक्ष्य के विषय में विस्तृत विवेचन करना आवश्यक है क्योंकि न्याय-निर्णय में इसका सर्वाधिक महत्व होता है। साक्ष्य (Evidence) को परिभाषित करते हुए सामण्ड ने कहा है कि कोई भी ऐसा तथ्य (fact) जिसमें प्रमाणकारी बल हो, साक्ष्य कहलाता है।

बेंथम के अनुसार, “ऐसा तथ्य जिस पर विचार किया जाने पर किसी दूसरे तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व का पता लगे ‘साक्ष्य’ कहलाता है।” जब एक तथ्य किसी दूसरे तथ्य का साक्ष्य होता है, तो प्रथम को साक्ष्यकारी तथा दूसरे को प्रधान तथ्य (Principal fact) कहते हैं।

फिप्सन (Phipson) के अनुसार न्यायिक-कार्यवाही में साक्ष्य से आशय उन तथ्यों, प्रमाणों तथा प्रलेखों से है जिन्हें विचाराधीन तथ्यों को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए विधितः प्राप्त किया जा सकता है |

टायलर (Taylor) के शब्दों में, वे समस्त विधिक साधन, जो किसी ऐसे तथ्य को सिद्ध या असिद्ध करते हैं, जिसकी सत्यता न्यायिक अन्वेषण की विषय-वस्तु हो, साक्ष्य कहलाते हैं। निवेदित है कि यह परिभाषा अत्यधिक व्यापक है तथा साक्ष्य के अन्तर्गत परिकल्पनाओं तथा न्यायिक नोटिस आदि को भी सम्मिलित करती है, जो वस्तुतः साक्ष्य नहीं माने जाने चाहिये।

भारत की साक्ष्य विधि के अनुसार साक्ष्य के अन्तर्गत वे सभी कथन आते हैं जिन्हें न्यायालय स्वीकार करता है या साक्ष्य के रूप में मान्य करता है और जो अन्वेषण से सम्बन्धित होते हैं। इनमें न्यायालय के समक्ष निरीक्षण या परीक्षण हेतु प्रस्तुत किये गये सभी दस्तावेज भी शामिल हैं।

साक्षी द्वारा न्यायालय के समक्ष किये गये कथन मौखिक साक्ष्य (oral evidence) होते हैं। न्यायालय में परीक्षण के लिए जो दस्तावेज पेश किये जाते हैं, वे दस्तावेजी साक्ष्य (documentary evidence) कहलाते हैं। दस्तावेजी साक्ष्य के अतिरिक्त मामले में प्रमाण के रूप में जो भौतिक वस्तुएँ प्रस्तुत की जाती हैं, उन्हें वास्तविक साक्ष्य (real evidence) कहते हैं। उदाहरणार्थ, हत्या के मामले में साक्षी द्वारा किया गया हत्या

4. “Any such fact which possesses force is called evidence”.-Salmond.

5. साक्ष्य अधिनियम, धारा 3.

सम्बन्धी आँखों देखा वर्णन मौलिक साक्ष्य है, हत्या की योजना के सम्बन्ध में अभियुक्तों द्वारा किया गया आपसी पत्र-व्यवहार दस्तावेजी साक्ष्य है तथा छुरा या पिस्तौल, जिससे हत्या की गई है, वास्तविक साक्ष्य (real evidence) है।

किसी अभियुक्त द्वारा न्यायाधीश के समक्ष अभिलिखित की गयी संस्वीकृति (confession) हस्ताक्षरित होते ही दस्तावेजी साक्ष्य का रूप धारण कर लेगी परन्तु यदि यह मौखिक हो, तो इसे मौखिक साक्ष्य माना जायेगा।

उल्लेखनीय है कि सिविल तथा आपराधिक वादों के लिये सबूत के मापदण्ड भिन्न-भिन्न हैं। सिविल वादा में सिद्धि के भार को दृष्टिगत रखते हये सम्भाव्यता के बाहल्य मात्र के आधार पर निर्णय दिया जा सकता है, लेकिन आपराधिक कार्यवाहियों में अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिये निश्चायक सबूत आवश्यक होता है। इसी प्रकार सिविल वाद में सबूत का भार वादी या प्रतिवादी, दोनों में से किसी पर भी हो सकता है, लेकिन, आपराधिक प्रकरणों में सबूत का भार अभियोजन पक्ष पर होता है, और वह भी सन्देह के परे होना चाहिये।

उल्लेखनीय है कि पद ‘सबूत’ (proof) तथा ‘साक्ष्य’ समानार्थी नहीं है। वास्तव में ‘सबूत’ साक्ष्य का परिणाम है जबकि साक्ष्य सबूत का माध्यम मात्र है। साक्ष्य को ‘सबूत’ की नींव कहा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि ईंट, सीमेंट आदि सामग्री से भवन का निर्माण होता है।

साक्ष्य के विभिन्न प्रकार (Kinds of Evidence)

साक्ष्य के अनेक प्रकार हैं जिनका सविस्तार वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है

1. प्राथमिक तथा द्वितीयक साक्ष्य (Primary and Secondary Evidence)

प्राथमिक साक्ष्य सर्वोत्तम साक्ष्य माना जाता है क्योंकि यह प्रश्नगत तथ्य को सर्वाधिक निश्चितता प्रदान करता है। प्राथमिक साक्ष्य मूल तथ्य के सबूत के प्रत्यक्ष साधन होने के कारण जब एक ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है, अन्य सबूतों को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय साक्ष्य विधि के अनुसार जिस साक्षी ने न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये तथ्यों, मूल दस्तावेजों या मूल बातों का स्वयं की ज्ञानेन्द्रियों द्वारा देखा, सुना या अनुभव किया हो, उसके द्वारा दी गई साक्ष्य को प्राथमिक साक्ष्य (primary evidence) कहते हैं। उदाहरणार्थ, अपराधी को अपराध कृत्य करते हुए देखने वाले किसी साक्षी द्वारा दिया गया बयान प्राथमिक साक्ष्य होगा। इसी प्रकार किसी दस्तावेज की अन्तर्वस्तु को साबित करने के लिए जब उस मल दस्तावेज को ही न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है, तो वह दस्तावेज प्राथमिक साक्ष्य माना जायेगा।

द्वितीयक साक्ष्य (secondary evidence) प्राथमिक साक्ष्य से निम्नतर कोटि का होता है। न्यायालय द्वारा मामले से सम्बन्धित पक्षों को द्वितीयक साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति तब तक नहीं दी जाती जब तक कि वह इस बात से सन्तुष्ट न हो जाए कि उस मामले में प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। मूल दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपियाँ या रासायनिक क्रिया से तैयार की गई मूल प्रति की प्रतियाँ, प्रलेखों का अंश-प्रत्यंश आदि द्वितीयक साक्ष्य के उदाहरण हैं।

2.सारभूत तथा असारभूत साक्ष्य (Substantive and Non-substantive Evidence)

सारभत साक्ष्य ऐसा साक्ष्य है जिसके आधार पर न्यायालय किसी वाद में फैसला दे सकता है। असारभत साक्ष्य वह साक्ष्य है जो सारभूत साक्ष्य की सम्पुष्टि (corroborate) करता है, ताकि उसकी विश्वसनीयता बढ़े या सारभूत विधि का खण्डन करना है जिससे उससे साख गिर जाये।

6. हांटा सिंह बनाम मध्य भारत राज्य (अब मध्य प्रदेश), ए० आई० आर० 1953 सु० को० 458.

7. फूलचंद गर्ग बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1990 म० प्र० 135 (137).

3. सकारात्मक तथा नकारात्मक साक्ष्य (Positive and Negative Evidence) हा

सकारात्मक साक्ष्य किसी तथ्य के अस्तित्व का सबूत होता है जबकि नकारात्मक साक्ष्य द्वारा किसी तथ्य के अनअस्तित्व को साबित किया जाता है। परन्तु प्रायः यह कहा जाता है कि नकारात्मक साक्ष्य अच्छा साक्ष्य नहीं होता है।

4. वैयक्तिक तथा वास्तविक साक्ष्य (Personal and Real Evidence)

किसी साक्षी द्वारा दिया गया बयान वैयक्तिक साक्ष्य होता है। यदि साक्षी ने किसी कृत्य को अपनी आँखों से घटित होते हुए देखा है तो इसे उस मामले का प्रत्यक्ष साक्ष्य कहा जायेगा। ऐसे साक्ष्य को परिसाक्ष्य (testimony) भी कहते है। वैयक्तिक साक्ष्य लिखित अथवा मौखिक हो सकता है। यह साक्ष्य न्यायिक अथवा न्यायातिरेक या दोनों ही प्रकार का हो सकता है।

वास्तविक साक्ष्य से आशय ऐसे साक्ष्य से है जिसका स्रोत कोई वस्तु हो। यह साक्ष्य भौतिक पदार्थ के रूप में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरण के लिए लाठी, बल्लम, बन्दूक, छुरा आदि जिससे अपराध किया गया हो, वास्तविक साक्ष्य के रूप में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

वैयक्तिक साक्ष्य ऐसा साक्ष्य है जो मानव (व्यक्ति) द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरणार्थ, “अ’ के विरुद्ध ‘ब’ की हत्या कारित करने का आरोप हो, तो साक्षियों द्वारा न्यायालय के समक्ष यह बयान दिया जाना कि उन्होंने ‘स’ को ‘ब’ की हत्या कारित करते हये देखा था, वैयक्तिक साक्ष्य होगा। परन्तु इस प्रकरण में ‘ब’ (मृतक) के शरीर पर पायी जाने वाली गम्भीर चोटें जो उसकी मृत्यु के लिये कारणीभूत हुयी, वास्तविक साक्ष्य कहलायेगा।

5. प्रत्यक्ष तथा पारिस्थितिक साक्ष्य (Direct and Circumstantial Evidence)

किसी साक्षी द्वारा मामले से सम्बन्धित प्रमुख तथ्यों के विषय में दिया गया बयान प्रत्यक्ष साक्ष्य होता है। इसे निश्चयात्मक साक्ष्य (positive evidence) भी कहते हैं। मामले से सम्बन्धित आँखों से घटित होते हए देखने वाले व्यक्ति का साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य कहलायेगा। अभियुक्त द्वारा मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में की गई संस्वीकृति (confession) को प्रत्यक्ष साक्ष्य माना गया है।

पारिस्थितिक साक्ष्य में साक्ष्य का सम्बन्ध मामले के मुख्य तथ्यों से प्रत्यक्षतः न होकर अन्य ऐसे तथ्यों से होता है जिससे प्रश्नगत तथ्यों का अनुमान लगाया जा सके। गबन करने के बाद अभियुक्तों का फरार हो जाना अथवा हत्या के अभियोग में अभियुक्त के पास वह छुरा बरामद किया जाना जिसके द्वारा हत्या की गई है, पारिस्थितिक साक्ष्य के उदाहरण हैं। पारिस्थितिक साक्ष्य को अप्रत्यक्ष या परोक्ष साक्ष्य (indirect evidence) भी कहा जाता है।

प्रत्यक्ष साक्ष्यों को निश्चायक साक्ष्य (Positive evidence) भी कहते हैं तथा पारिस्थितिक साक्ष्य को प्रकल्पित साक्ष्य (Presumptive evidence) भी कहा जाता है।

ज्ञातव्य है कि पारिस्थितिक साक्ष्य को अनुश्रुत साक्ष्य (hearsay evidence) या द्वितीयक साक्ष्य (secondary evidence) नहीं समझा जाना चाहिये क्योंकि पारिस्थितिक साक्ष्य सदैव प्रत्यक्ष और प्राथमिक (direct and primary) होता है, अर्थात् ऐसे तथ्य जिनके आधार पर विवाद्यक तथ्यों (facts in issue) के अस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है, सदैव प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा ही साबित किये जाने चाहिये।

पारिस्थितिक साक्ष्य में सभी परिस्थितियों का सबूत स्वतन्त्र एवं प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा प्रस्तुत किया जाना चाहिये, जिनसे अपराध से सम्बन्धित तथ्यों की एक ऐसी कड़ी (chain) निर्मित होती हो, जो अभियुक्त की। दोषिता (guilt) की ओर इंगित करती हो।

8. रहीम खान बनाम खुर्शीद, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 290 पैरा 4.

आशीष बाथम बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चय किया कि केवल पारिस्थितिक साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त की दोषसिद्धि की जा सकती है, बशर्ते कि अपराध के घटित होने से सम्बन्धित कड़ियां पूरी हों तथा निश्चित रूप से इस ओर संकेत करती हों कि अभियुक्त ही अपराध के लिये दोषी है तथा किसी भी आधार पर उसका निर्दोष होना सम्भावित नहीं है।

6. न्यायिक तथा न्यायातिरेक साक्ष्य (Judicial and Extra-Judicial Evidence)

ऐसा साक्ष्य जिसे देख-सुन कर न्यायालय स्वयं उसकी सत्यता परख सकते हैं, ‘न्यायिक साक्ष्य’ कहलाता है; जैसे-साक्षियों द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान या उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये दस्तावेज

आदि। सारांश यह कि साक्ष्य सम्बन्धी ऐसे समस्त तथ्य जो न्यायालय को व्यक्तिगत जानकारी तथा सम्प्रेक्षण के लिए उसके समक्ष लाये जाते हैं, ‘न्यायिक साक्ष्य’ (judicial evidence) कहलाते है।

न्यायातिरेक साक्ष्य (extra-judicial evidence) में वे तथ्य सम्मिलित हैं, जो सामान्यतः न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किये जाते अपितु जो मूल तथ्य तथा न्यायिक साक्ष्यों के बीच श्रृंखला का कार्य करते हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति अपने अपराध की संस्वीकृति न्यायालय के समक्ष करता है, तो यह ‘न्यायिक साक्ष्य’ (judicial evidence) होगा, किन्तु यदि वह ऐसी संस्वीकृति अपने किसी मित्र या घनिष्ठ सगेसम्बन्धी के समक्ष करता है जिसकी जानकारी उस मित्र या सगे सम्बन्धी न्यायालय को दी जाती है, तो यह ‘न्यायातिरेक साक्ष्य’ (extra-judicial evidence) होगा।

7. मौलिक तथा अनुश्रुत साक्ष्य (Original and Hearsay Evidence)

जब साक्षी मामले के विषय में स्वयं की आँखों से देखा हुआ या कानों से सुना हुआ हाल न्यायालय के समक्ष बयान करते हैं, तो ऐसे साक्ष्य को मौलिक साक्ष्य कहते हैं। मौलिक साक्ष्य की प्रमाणकारी शक्ति प्रबल होती है। हि यदि साक्षी ने तथ्य को स्वयं नहीं देखा या सुना परन्तु वह न्यायालय के समक्ष यह कहता है कि उसने उसे किसी ऐसे तीसरे व्यक्ति से सुना है जिसे साक्षी के रूप में नहीं बुलाया गया है, तो ऐसे साक्ष्य को अनुश्रुत साक्ष्य (hearsay evidence) कहते हैं। विधि की सामान्य धारणा यह है कि कुछ अपवादों को छोडकर अनुश्रुत साक्ष्य को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये। अनुश्रुत साक्ष्य को व्युत्पन्न साक्ष्य (derivative evidence) या सम्प्रेषित साक्ष्य (transmitted evidence) भी कहा जाता है। इस साक्ष्य में साक्षी का बयान निजी जानकारी पर आधारित नहीं रहता अपितु दूसरों ने जो कुछ उससे कहा है, उस पर आधारित रहता है।

साक्ष्य विधि का महत्व

महत्त्व की दष्टि से साक्ष्य विधि के दो भाग हैं। इनमें से प्रथम भाग साक्ष्य की प्रमाणकारी शक्ति (Probative force) के निर्धारण से सम्बद्ध है जबकि दूसरा भाग साक्ष्य प्रस्तुतीकरण के नियमों तथा शर्तों पर पकाश डालता है। प्रथम, साक्ष्य पेश किये जाने पर उसके प्रभाव से संबंधित है तथा द्वितीय, साक्ष्य को पेश करने के तरीकों से। प्रथम, सभी प्रकार के न्यायिक तथा न्यायातिरेक साक्ष्य से सम्बन्धित है, जबकि द्वितीय केवल न्यायिक साक्ष्य से सम्बन्ध रखता है। तथापि दोनों ही भाग एक दूसरे से घनिष्ठत: संबंधित हैं।

1. साक्ष्य का प्रमाणकारी बल (Probative force of Evidence)

न्यायिक कार्यवाहियों में साक्ष्य की ग्राह्यता के विषय में न्यायाधीशों को मनमानी करने की छूट नहीं रहती है। वे अपनी इच्छानुसार साक्ष्य को मान्य अथवा अमान्य करने की अधिकारिता नहीं रखते क्योंकि साक्ष्य के प्रमाणकारी महत्व को साक्ष्य विधि के नियमों द्वारा निर्धारित कर दिया गया है। किसी मामले में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का महत्व उसके परिणाम पर निर्भर करता है जिसका वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है।

9. ए० आई० आर० 2002 सु० को० 2164.

(i) निश्चायक सबूत (Conclusive Proof)10

इस प्रकार का सबूत साक्ष्यों के आधार पर निकाला गया ऐसा परिणाम है जिसे विधि अकाट्य समझती है। जहाँ साक्ष्य-विधि द्वारा एक तथ्य किसी अन्य तथ्य का निश्चायक सबूत (conclusive proof) घोषित किया जाता है, वहाँ उस तथ्य के साबित हो जाने पर उस अन्य तथ्य को स्वयं साबित मान लिया जायेगा तथा न्यायालय उस तथ्य को असाबित करने के लिए साक्ष्य देने की अनुज्ञा नहीं देगा। उदाहरणार्थ, भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत यह उपबन्धित है कि सात वर्ष से कम आयु के बालक अपराध करने की क्षमता नहीं रखते11 क्योंकि इनमें आपराधिक मन:स्थिति (mens rea) हो ही नहीं सकती। अत: कोई व्यक्ति सात वर्ष से कम आयु के किसी बालक को अपराध करने योग्य साबित करने के लिए चाहे जितना साक्ष्य प्रस्तुत क्यों न, करे, परन्तु उस बालक को अपराधी नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार वैवाहिक संबंधों के जारी रहते किसी शिशु का जन्म होना उस शिशु के धर्मजत्व (legitimacy) का निश्चायक सबूत होता है।12

(ii) उपधारणात्मक सबूत (Presumptive proof)

इसे खण्डनीय (rebut table) अथवा शर्तयुक्त (conditional) सबूत भी कहते हैं। इस नियम के अनुसार न्यायालय किसी तथ्य को उस समय तक साबित मानता है जब तक कि उसे असाबित नहीं कर दिया जाता। उदाहरणार्थ, जब न्यायालय के समक्ष किसी व्यक्ति के विषय में यह प्रश्न उठता है कि वह व्यक्ति जीवित है या मर चुका है, तो यह साबित कर दिया जाने पर कि उस व्यक्ति के बारे में सात वर्षों से कुछ नहीं सुना गया है, न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि वह व्यक्ति मर चुका है। यह एक प्रकल्पित सबूत है जिसका साक्ष्य के आधार पर खण्डन किया जा सकता है, अर्थात् यदि कोई व्यक्ति सात वर्ष तक लापता रहे व्यक्ति के जीवित रहने के सबूत में साक्ष्य प्रस्तुत करता है, तो न्यायालय उस व्यक्ति को इसके लिए अनुमति देगा।

(iii) अनन्य साक्ष्य (Exclusive Evidence)

साक्ष्य विधि का एक नियम यह है कि कुछ साक्ष्य अनन्य होते हैं तथा उनके अतिरिक्त कोई भी अन्य साक्ष्य पर्याप्त नहीं माना जाता है; जैसे-दस्तावेज के रूप में लेखबद्ध की गई संविदा को साबित करने के लिए उस दस्तावेज को ही पेश किया जाना आवश्यक होता है। यही उस दस्तावेज का अनन्य साक्ष्य होगा।

(iv) अपर्याप्त साक्ष्य (Insufficient Evidence)

जब किसी तथ्य को न्यायालय द्वारा साबित माने जाने के लिए किसी साक्ष्य का अपेक्षित होना विधि द्वारा निर्धारित कर दिया जाता है, तो इससे कम साक्ष्य अपर्याप्त साक्ष्य माना जाता है। उदाहरणार्थ, इच्छापत्र (Probate) के अनुप्रमाणन (Attestation) के लिए दो गवाहों के हस्ताक्षर होना आवश्यक होता है यदि किसी इच्छापत्र पर केवल एक ही गवाह के हस्ताक्षर हों, तो उसे अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर अमान्य कर दिया जायेगा।

(v) तथ्य, जो साक्ष्य नहीं होते (Facts, which are not Evidence)

कछ ऐसे तथ्य होते हैं जो साक्ष्य नहीं माने जाते क्योंकि उनमें प्रमाणकारी शक्ति नहीं होती। ऐसे साक्ष्य को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने में कोई लाभ नहीं होता । उदाहरणार्थ, अभियोजन की कार्यवाही में अभियुक्त के विरुद्ध यह तथ्य कि उसका आचरण बुरा है, असंगत होता है जब तक कि इस बात का साक्ष्य न दिया गया हो कि वह सदाचारी है।13 इसी प्रकार अनुश्रुत (सुनी-सुनाई) साक्ष्य का सामान्यतः कोई महत्व नहीं होता है।

10. भारतीय साक्ष्य अधिनियम,धारा 4.

11. भारतीय दण्ड संहिता, धारा 82.

12. साक्ष्य अधिनियम, धारा 112.

13. साक्ष्य अधिनियम धारा 54.

2. साक्ष्य का प्रस्तुतीकरण (Production of Evidence)

साक्ष्य के प्रस्तुतीकरण के अन्तर्गत शपथ पर साक्षियों का परीक्षण तथा कूट परीक्षण आदि से सम्बन्धित प्रक्रिया का समावेश है। न्यायालय के समक्ष अनेक अन्य प्रकार के साक्ष्य भी प्रस्तुत किये जाते हैं, परन्तु न्यायिक कार्यवाही की जटिलता, अपव्यय तथा विलम्ब के दोषों से दूर रखने की दृष्टि से सभी साक्ष्यों को स्वीकार करने के लिए न्यायालय बाध्य नहीं है। इसके अतिरिक्त, साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत कतिपय साक्षियों14 को लोकनीति के आधार पर कुछ तथ्यों के विषय में साक्ष्य देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। इसका वर्णन नीचे दिया गया है

(i) न्यायाधीश तथा मजिस्ट्रेट

किसी भी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को स्वयं के आचरण के विषय में साक्ष्य देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार न्यायालय के विशेष आदेश के बिना किसी न्यायाधीश या दण्डाधिकारी को कोई ऐसी बात बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जिसकी जानकारी उसे अपने पदीय हैसियत (official capacity) से हुई थी। परन्तु उसकी उपस्थिति में घटित अन्य घटनाओं के बारे में उसके साक्ष्य का परीक्षण किया जा सकता है।15

(ii) वैवाहिक स्थिति के दौरान किया गया पत्राचार (Communications during marriage)

किसी भी विवाहित स्त्री या पुरुष को उस पत्र-व्यवहार को प्रकट करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता, जो उसने अपनी वैवाहिक स्थिति के दौरान उस व्यक्ति से किया था जिसके साथ उसका विवाह हुआ था। तथापि इस सामान्य नियम का एक अपवाद है। यदि पति और पत्नी के बीच कोई सिविल वाद चल रहा हो तो उनके वैवाहिक जीवन के दौरान हुये पत्राचार को एक-दूसरे के विरुद्ध साबित किया जा सकता है। इसी प्रकार यदि इन दोनों के बीच एक दूसरे के विरुद्ध कोई आपराधिक कार्यवाही चल रही हो, तो वे अपने वैवाहिक जीवन के दौरान हुये पत्राचार को प्रकट करते हुये एक-दूसरे के विरुद्ध साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं।16

(iii) राज्य के कार्य (Affairs of the State)

किसी भी व्यक्ति को राज्य के कार्यों से सम्बन्धित अप्रकाशित अभिलेखों से साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। ऐसे साक्ष्य वह केवल विभागाध्यक्ष की अनुमति प्राप्त कर लेने के बाद ही दे सकता है |

राज्य के कार्यों के लिये विशेषाधिकार का दावा करने के लिये निम्नलिखित शर्तों का विद्यमान होना आवश्यक होता है

(i) कथित दस्तावेज अप्रकाशित कार्यालयीन अभिलेख होना चाहिये।

(ii) वह राज्य के कार्यकलापों (affairs of the state) से सम्बन्धित होना चाहिये, तथा

(iii) वह विभागाध्यक्ष की अनुज्ञा से साक्ष्य के रूप में ग्राह्य हो सकता है।17

(iv) पदीय संसूचना (Official Communication)

किसी भी लोक-पदाधिकारी को कोई ऐसी संसूचना प्रकट करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जो उसे पदीय सदभावना के आधार पर प्राप्त हुई है। यह निर्णय लेने का विवेकाधिकार लोक-अधिकारी को प्राप्त है कि कोई संसूचना प्रकट करने से लोकहित पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा या नहीं।

14. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारायें, 121 से 126.

15. धारा 121, साक्ष्य अधिनियम, 1872.

16. नरेन्द्र नाथ मुखर्जी बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1951 कल० 140.

 17. राजनारायण बनाम इन्दिरा गांधी, ए० आई० आर० 1974 इला० 324.

देवाशीष साहू बनाम नवीनचन्द्र18 के प्रकरण में एक दीवानी मामले में वादी ने न्यायालय से निवेदन किया कि वह प्रतिवादी से उसका आयकर रिटर्न दस्तावेज की तौर पर प्रस्तुत करने के लिये आदेश दे। परन्तु न्यायालय ने आयकर रिटर्न को विशेषाधिकार प्राप्त दस्तावेज मानते हुये इसे मंगवाने से इन्कार कर दिया। परन्तु अपील में न्यायालय के इस निर्णय को उलटते हुये कहा गया कि यह निर्णय करना कि रिटर्न प्रस्तुत किया जाये या नहीं, आयकर आयुक्त के विवेक पर निर्भर करता है न कि न्यायालय के। (v) अपराधों के विषय में सूचना (Information as to crime)

कोई भी मजिस्ट्रेट, पुलिस-अधिकारी या राजस्व अधिकारी यह बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि उसे किसी अपराध के घटित होने की सूचना कहाँ से मिली।

(vi) वृत्तिक संसूचनायें (Professional communiications)

किसी भी बैरिस्टर, अटर्नी तथा वकील को अपने मुवक्किल (client) की सहमति के बिना किसी ऐसी संसूचना अथवा दस्तावेज की अन्तर्वस्तु प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जो उसे मुवक्किल से प्राप्त हुई हो।

इसके अतिरिक्त किसी भी ऐसे व्यक्ति को ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जिनका आशय उसे अपराध में फँसाने (incriminate) का हो।19 इसीलिए ऐसी संस्वीकृति जो धमकी, प्रलोभन आदि से प्राप्त की गई हो, असंगत एवं अग्राह्य होती है। परन्तु बेन्थम के अनुसार अपराधों की छानबीन के संदर्भ में यह बात तर्कसंगत नहीं है। उनका निश्चित मत है कि शक्ति के प्रयोग के बिना अपराधियों की दोषसिद्धि सम्भव नहीं है। प्रस्तुत नियम शक्ति-प्रयोग का वर्जन करता है। अत: यदि इसे अपराधियों के प्रति पक्षपात करने वाला सिद्धान्त कहा जाये, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

 

शपथ पर साक्ष्य (Evidence on Oath)

साक्षी से साक्ष्य ली जाने के पूर्व उसे सच बोलने की शपथ दिलाई जाती है। परन्तु निवेदित है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह प्रक्रिया एक औपचारिकता मात्र बन कर रह गई है जिसका कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता। संभवत: साक्षी को झूठी साक्ष्य देने से परावृत्त रखने के लिए एकमात्र प्रभावी उपाय उसे मिथ्या साक्ष्य20 के लिए कठोरतम दंड देना है।

उपधारणायें (Presumptions)

ऐसा तथ्य जो विधि के अन्तर्गत सत्य उपधारित किया जाता है, ‘उपधारणा’ कहलाता है। उदाहरणार्थ, अभियुक्त के प्रति उपधारणा रहती है कि वह निर्दोष है जब तक कि उसका दोष साबित नहीं हो जाता है।

उपधारणाओं का प्रयोग इसलिये किया जाता है कि पक्षकार को उस तथ्य की सत्यता को साबित करने की आवश्यकता न रहे जिसे उपधारित किया जा रहा है। किसी पक्षकार के प्रति की गयी उपधारणा को उसका विरोधी पक्षकार सबूत के आधार पर खण्डित कर सकता है।

उपधारणायें दो प्रकार की होती हैं-(1) विधिक, तथा (2) प्राकृतिक।

विधिक उपधारणा को कृत्रिम उपधारणा (artificial presuption) भी कहा जाता है और यह बिना कोई तर्क प्रस्तुत किये सर्वमान्य होती है।21 इसमें ऐसे तथ्यों का समावेश रहता है जिनका प्रमाणक-बल (Probative force) इतना अधिक होता है कि उनका खण्डन नहीं किया जा सकता है जब न्यायालय यह घोषित करता है कि एक तथ्य का अस्तित्व दूसरे तथ्य का निश्चायक सबूत होगा, तो उस दशा में उस सबूत

18. ए० आई० आर० 2002 उड़ीसा 211.

19. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, धारा 132 परन्तुक.

20. भारतीय दण्ड संहिता, धारा 191.

21. धारा 4, साक्ष्य अधिनियम, 1872.

को असाबित करने की अनुमति नहीं होगी। अत: निश्चायक उपधारणायें (conclusive presumptions) ऐसी उपधारणायें होती हैं, जिनका किसी अन्य साक्ष्य द्वारा खण्डन नहीं किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, दण्ड संहिता की धारा 82 में यह उपधारित है कि सात वर्ष से कम आयु के बालक में अपराध-बोध (दुराशय) हो ही नहीं सकता। यह एक निश्चायक उपधारणा होने के कारण इसका खण्डन नहीं किया जा सकेगा। इसी प्रकार साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 में यह उपबन्ध कि यदि किसी व्यक्ति का जन्म उसकी माता और किसी पुरुष के बीच विवाह के कायम रहते हये, या उसका विघटन होने के पश्चात् माता के अविवाहित रहते हुये 280 दिन के भीतर हुआ है, तो यह इस बात का निश्चायक सबूत होगा कि वह पुरुष उस व्यक्ति का धर्मज पुत्र है, जब तक कि यह साबित न किया जाए कि विवाह के पक्षकारों की परस्पर पहुँच ऐसे किसी समय नहीं थी, जब उसका गर्भधान हो सकता था। इसके विपरीत खण्डनीय उपधारणा (Rebuttable presumption) केवल तभी तक प्रभावी रहती है जब तक कि उसका खण्डन नहीं कर दिया जाता है।

उल्लेखनीय है कि समय बीतने के साथ गवाहों की स्मृति धूमिल पड़ जाती है जिसके कारण उनके बयानों की सत्यता प्रभावित हुए बिना नहीं रहती है। कोई घटना घटित होने के बाद जितनी अधिक अवधि बीतती जायेगी, गवाहों की सत्यता तथा साक्ष्य में भूल, गलत-बयानी आदि की संभावनाएँ भी उतनी ही अधिक बढ़ेंगी। इसीलिए साक्ष्य विधि के अन्तर्गत गवाहों को अपनी स्मति ताजा करने22 के लिए पर्याप्त अवसर दिया जाता है तथा इसी आधार पर तीस वर्ष पुराने दस्तावेजों23 की साक्ष्य की ग्राह्यता के विषय में विशेष प्रावधान रखे गये हैं।

सारांश यह है कि न्यायालयीन कार्यवाही के दौरान वाद-निर्णय हेतु अपनायी जाने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रक्रियात्मक विधि द्वारा संचालित होती है, जो न्याय-दान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है।

संदेह का लाभ (Benefit of Doubt)

उल्लेखनीय है कि अभियुक्त को किसी अपराध के लिए सिद्धदोष करने के पूर्व न्यायालय उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह सुनिश्चित कर लेता है कि अभियुक्त निर्दोषिता की संभावना पूर्णतः नियम बाह्य (ruled out) है ।24 यदि अभियुक्त के अपराधी होने के विषय में तनिक भी संदेह हो, तो उसे ‘संदेह का लाभ’ (Benefit of doubt) देकर उन्मोचित कर दिया जाता है। यही कारण है कि प्रतिपक्ष के अधिवक्ता जब अपने मुवक्किल की निर्दोषिता साबित करने में असमर्थ रहते हैं, तो प्रायः सबूत की पर्याप्तता के बारे में न्यायाधीश/मजिस्ट्रेट के मन में संदेह उत्पन्न करने का भरसक प्रयास करते हैं ताकि अभियुक्त को संदेह का लाभ दिलाकर दोषमुक्त कराया जा सके। इस हेतु उनके द्वारा जो दलीलें पेश की जाती हैं उनमें अपराध से व्यथित व्यक्ति की अभियुक्त से दुश्मनी,25 अभियुक्त का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज न होना,26 चिकित्सीय रिपोर्ट या पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बारे में संदिग्धता,27 हत्या के पश्चात् मृत-शव की विलंब से बरामदगी28 आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। निवेदित है कि इस प्रवृति पर रोक लगाने हेतु साक्ष्य अधिनियम, जो कि एक सदी से भी अधिक पुराना है,29 को परिमार्जित रूप में संशोधित किया जाना परम आवश्यक है। संदेह के लाभ की आड़ में अनेक जघन्य अपराधी भी दंडित होने से बच निकलने में सफल हो जाते हैं, जो सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है।

22. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, धारा 159, 161.

23. साक्ष्य अधिनियम, धारा 90.

24. विठ्ठल दास बनाम रूपचंद एवं अन्य, ए० आई० आर० 1967 उड़ीसा 188.

25. बल्देव सिंह बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० सु० को० 264.

26. ज्वार सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए, आई० आर० 1981 सु० को० 373.

27. महाराष्ट्र राज्य बनाम अन्नप्पा बंडू कवारगे, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 1410.

28. तत्रैव।

29. साक्ष्य अधिनियम सन् 1872 में पारित हुआ था।

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