LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 30 Notes
LLLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 30 Notes: Bachelor of Law (LLB) 1st Year 1st Semester Free Online Books Jurisprudence & Legal Theory Section 4 Chapter 30 Legal Obligations Most Important Study Material Notes in Hindi English all PDF Format Download Available This Post.
अध्याय 30 (Chapter 30)
विधिक बाध्यताएं (Legal Obligations)
विधिक संकल्पना के रूप में बाध्यता से आशय बन्धनकारी प्रभाव से है। सामान्य अर्थ में ‘बाध्यता’ (obligation) को कर्त्तव्य का पर्यायवाची माना जाता है। किन्तु वैधानिक दृष्टि से इसका अर्थ कर्त्तव्य से भिन्न है। विधि के अन्तर्गत ‘बाध्यता’ से निम्नलिखित आशय अभिप्रेत है-
(1) वैयक्तिक अधिकार के अनुरूप कर्त्तव्य का होना।
(2) बाध्यता विधिक आवश्यकता का ऐसा बन्धन है, जो दो या दो से अधिक व्यक्तियों को आबद्ध करता है। एक का अधिकार दूसरे का दायित्व होता है। उदाहरणार्थ, ऋण की अदायगी अथवा संविदा का पालन अथवा अपकृत्य के लिए क्षतिपूर्ति करना आदि कर्त्तव्य बाध्यता के अन्तर्गत आते हैं। सामंड ने बाध्यता को vinculum juris कहा है जिसका अर्थ है विधिक आवश्यकता का बन्धन।
(3) बाध्यतायें साम्पत्तिक अधिकारों (preprietory rights in personam) से सम्बद्ध होती हैं।
बाध्यता संबंधी विधिवेत्ताओं के विचार
डॉ० हालैण्ड के अनुसार बाध्यता एक ऐसा बन्धन है “जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के हित के लिए कार्य करने के लिए बाध्य रहता है। कुछ मामलों में दोनों पक्ष एक साथ आबद्ध होने के लिए सहमत होते हैं तथा कुछ मामलों में वे बिना अपनी सहमति के भी आबद्ध होते हैं, परन्तु प्रत्येक मामले में विधि ही इस प्रकार का गठबन्धन करती है और वही इसे समाप्त भी कर सकती है।”2 |
पैटन (G.W. Paton) के अनुसार बाध्यता विधि का वह भाग है, जो व्यक्तिबंधी अधिकारों (Rights in personam) का सृजन करता है।
सैविनी के विचार से बाध्यता दूसरे व्यक्ति पर एक प्रकार का नियंत्रण है, जो उसके व्यक्तित्व के सभी कार्यों के प्रति न होकर केवल ऐसे कार्य के प्रति होता है जिसे यह माना जाये उस व्यक्ति की स्वेच्छा से घटाकर हमारी इच्छा के अधीन कर दिया गया है।
कॉन्ट (Kant) के अनुसार किसी व्यक्ति की इच्छा पर किसी अन्य व्यक्ति के आधिपत्य को बाध्यता कहते हैं।
विख्यात विधिवेत्ता आन्सन (Anson) का विचार है कि बाध्यता निश्चित व्यक्तियों द्वारा निश्चित व्यक्तियों के प्रति निश्चित कार्यों के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला नियंत्रण है; या इसे ऐसी सहिष्णुता भी कहा जा सकता है जिसका मूल्यांकन मुद्राओं में किया गया हो।
सामण्ड ने ‘बाध्यता’ को परिभाषित करते हुए कहा है कि यह साम्पत्तिक स्वरूप के वैयक्तिक अधिकारों से उत्पन्न होने वाला कर्त्तव्य है। उनके अनुसार बाध्यता विधिक आवश्यकता का ऐसा बन्धन है जो दो या अधिक व्यक्ति को आपस में आबद्ध करता है। यह केवल कर्त्तव्य का ही द्योतक नहीं है, अपितु सुधारात्मक
1. An obligation is the vinculum juris, or bond of legal necessity, which binds together two or more determinate individuals.–Salmond : Jurisprudence, (12th ed.) p. 446.
2. हालैण्ड : दि एलिमेन्ट्स ऑफ ज्यूरिसप्रूडेन्स पृ० 245.
3. It may be called a forbearance which is valued in terms if money-Anson.
अधिकार का भी प्रतीक है क्योंकि आबद्ध व्यक्ति के लिए यह कर्तव्य का प्रतीक है जबकि जिस व्यक्ति का प्रति बाध्यता उद्भावित होती है, उसके लिए वह अधिकार का द्योतक है।
लेम्बर्ट (Lambert) के शब्दों में विधिक बाध्यताओं का संबंध मानव संबंधों के चल-तत्वों (mobile lements) से है, अर्थात् इसे दैनिक जीवन से संबंधित विधि कहा जा सकता है।
बाध्यता तथा दायित्व में अन्तर
मन विधिशास्त्रियों ने सम्पत्ति और बाध्यता में भेद स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्पत्ति सर्वबन्धक अधिकार होती है जबकि बाध्यता व्यक्तिबन्धी। इसी प्रकार बाध्यता तथा दायित्व एक दूसरे से भिन्न हैं। बाध्यता ऐसा कर्त्तव्य है जिसे व्यक्ति को करना चाहिये जबकि दायित्व ऐसा कर्त्तव्य है जिसे व्यक्ति को करना ही होगा। जब कोई व्यक्ति अपने बाध्यतायुक्त कर्त्तव्य से विमुख होता है, तो उस पर दायित्व अधिरोपित हो जाता है।
वाद-वस्तु (chose in action)
विधिशास्त्र में बाध्यताओं के लिए एक अन्य तकनीकी शब्द प्रयुक्त किया गया है जिसे ‘चोज इन एक्शन’ (chose in action) कहते हैं। इसका अर्थ है-मूल्य के रूप में वस्तु के प्रति वैयक्तिक अधिकार । कम्पनी के अंश, ऋण, किसी अपकृत्य के लिए क्षतिपूर्ति का दावा आदि इसके उदाहरण हैं। इसमें असाम्पत्तिक अधिकारों का समावेश नहीं है।
भोग-वस्तु (Chose in possession)
‘चोज इन एक्शन’ का ठीक उल्टा ‘चोज इन पजेशन’ (chose in possession) होता है, जिसका अर्थ है-किसी व्यक्ति में वस्तु का वास्तविक कब्जा निहित होना। किसी व्यक्ति के पर्स में रखे रुपये-पैसे या किसी ऋणदाता को ऋणी व्यक्ति से प्राप्य ऋण की राशि, ‘चोज इन पजेशन’ के उदाहरण हैं। सामण्ड का विचार है कि वस्तुओं (choses) सम्बन्धी इस भेद का उद्भव प्राचीन विधियों में कब्जे के अत्यधिक महत्व के कारण हुआ है। परन्तु वर्तमान में यह महत्व लगभग समाप्तप्राय हो जाने के कारण इस भेद का आशय केवल यह है कि इससे व्यक्तिबन्धक अधिकार और सर्वबन्धक अधिकार में अन्तर स्पष्ट होता है। सभी व्यक्तिबन्धक साम्पत्तिक अधिकार (Proprietary Rights in personam) ‘चोज इन एक्शन’ कहलाते हैं। है डायस (Dias) के अनुसार सम्पत्ति सम्बन्धी वैयक्तिक अधिकार जिनका प्रवर्तन अनुयोज्य दावे द्वारा किया जा सकता है ‘चोज इन एक्शन’ कहलाते हैं तथा इन्हें भौतिक कब्जे द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसके विपरीत ‘चोज इन पजेशन’ से आशय उन वस्तुओं से है जो भौतिक कब्जे में रखे जाने योग्य होती है। इनमें सभी मूर्त वस्तुओं का समावेश है।
समेकित बाध्यता (Solidary Obligation)
बाध्यताओं के विषय में धारणा यह है कि जो व्यक्ति बाध्यता (obligation) से लाभान्वित होता है उसे लनदार (creditor) कहते हैं तथा जो व्यक्ति उससे आबद्ध रहता है उसे देनदार (debtor) कहते हैं। लेनदार का दृष्टि से बाध्यता एक व्यक्तिगत साम्पत्तिक अधिकार है।
सामान्यतः बाध्यता में एक लेनदार तथा एक देनदार होता है। परन्तु कभी-कभी दो या अधिक लेनदार । बाध्यता के हकदार होते हैं अथवा दो या अधिक देनदार एक ही दायित्व के अधीन होते हैं। साझेदारी
artnership Firm) इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। फर्म के साझेदारों द्वारा देय ऋण को चुकाने के लिए साकसी को भी बाध्य किया जा सकता है और यदि उनमें से कोई एक भी उस ऋण का भुगतान कर सभा साझेदार उस ऋण से उन्मोचित हो जाते हैं। इस प्रकार की बाध्यता को समेकित बाध्यता
4. It may be said to be the law of everyday life-Lambert.
5. डायस आर० एम० डब्ल्यू० : ज्यूरिसप्रूडेन्स 5वां संस्क० 1994 पृ० 221.
(solidary obligation) कहते हैं क्योंकि इसमें प्रत्येक साझेदार अपने आनुपातिक हिस्से के बजाय परे ऋण के लिए आबद्ध रहता है। इस प्रकार समेकित बाध्यता में दो या अधिक लेनदार उसी देनदार के प्रति उसी वस्तु के लिए ऋणबद्ध होते हैं।
इंग्लिश विधि के अन्तर्गत समेकित बाध्यता तीन प्रकार की हो सकती है-(1) पृथक् (Several), (2) संयुक्त (Joint), (3) पृथक् एवं संयुक्त (Several and Joint)
1. पृथक् बाध्यताएँ (Several Obligations)
इस प्रकार की समेकित बाध्यता में जितने देनदार होते हैं वे सभी व्यक्तिगत रूप से समस्त ऋण के लिए लेनदार के प्रति बाध्य रहते हैं। अत: इस बाध्यता में वाद-हेतुकों (causes of action) तथा बाध्यताओं की संख्या उतनी ही होती है जितनी कि देनदारों की। इसमें बाध्यताओं की विषय-वस्तु एक ही होती है किन्तु प्रत्येक देनदार लेनदार के प्रति एक पृथक् एवं स्वतंत्र विधिक सम्बन्ध (Vinculum juris) द्वारा बाध्य रहता है। यदि एक भी देनदार ऋण का भुगतान कर देता है, तो अन्य सभी देनदार ऋण से उन्मोचित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एक ही ऋणी के दो या अधिक जमानतदार होने पर उनमें से प्रत्येक पूरे ऋण के लिए आबद्ध रहता है।
2. संयुक्त बाध्यताएँ (Joint Obligations)
संयुक्त बाध्यता में यद्यपि बाध्यता एक ही होती है तथा वाद-कारण (cause of action) भी एक ही होता है, किन्तु एक ही ऋण के अनेक देनदार होते हैं। ऋण की भुगतान-सम्बन्धी संविदा पर केवल प्रमुख देनदार ही हस्ताक्षर करता है तथा उसके साथ एक जमानतदार के हस्ताक्षर भी होते हैं। इस प्रकार की बाध्यता में यदि एक भी देनदार उन्मोचित हो जाता है, तो अन्य सभी देनदार ऋण से उन्मोचित माने जायेंगे। साझेदारी फर्म के साझेदारों का ऋण-सम्बन्धी दायित्व संयुक्त बाध्यताओं के अन्तर्गत आता है।
3. संयुक्त एवं पृथक् बाध्यताएँ (Joint and Several Obligations)
अनेक समेकित बाध्यताएँ एक साथ संयुक्त एवं पृथक होती हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस प्रकार की बाध्यताएँ कुछ प्रयोजनों के लिए संयुक्त और कुछ अन्य प्रयोजनों के लिए पृथक् होती हैं। संयुक्त रूप से अपकृत्य (torts) करने वाले व्यक्तियों की बाध्यताएँ (obligations) एक साथ संयुक्त एवं पृथक् होती हैं। अण्डरहिल (Underhill) के अनुसार न्यासभंग (Breach of Trust) के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाला दायित्व भी संयुक्त एवं पृथक् समेकित बाध्यता का उदाहरण है।
बाध्यताओं के विभिन्न प्रकार (Different Kinds of Obligations)
सामण्ड के अनुसार स्रोतों (sources) की दृष्टि से बाध्यताओं को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
(1) संविदात्मक (या संविदा से उत्पन्न बाध्यताएँ) (Contractual Cr Obligations ex contractual);
(2) अपकृत्यात्मक (या अपकृत्य से उत्पन्न बाध्यताएँ) (Delictal or Obligations ex delicto);
(3) संविदाकल्प (या अर्ध संविदात्मक बाध्यताएँ) (Quasi-contractual or Obligations quasi ex-delicto);
6. Each of the partner is bound in solidum instead of pro-parte that is to say, for the hole and not to c a proportionate part.
7. अण्डरहिल : ट्रस्ट्स (11वाँ संस्करण), अनुच्छेद 89.
(4) अनामित बाध्यताएँ (Innominate Obligations)
1. संविदात्मक बाध्यताएँ (Contractual Obligations)
ऐसी बाध्यताएँ जो संविदा या करार से उत्पन्न होती हैं, संविदात्मक बाध्यताएँ कहलाती हैं। इस प्रकार की बाध्यता दो या अधिक पक्षकारों के व्यक्तिबन्धक अधिकारों का सृजन करती है।
प्राचीन रोमन विधि में संविदा प्रायः मौखिक रूप से ही हुआ करती थी तथा इसका प्रभाव वही होता था जो वर्तमान में लिखित संविदा का होता है। प्रारम्भिक युग में बाध्यता पूर्णतः वैयक्तिक होने के कारण अन्तरणीय नहीं थी किन्तु वर्तमान व्यापारिक जटिलताओं के कारण अधिकांश व्यक्तिबन्धक बाध्यताओं को अन्तरणीय माना गया है। जैसे-बैंक चैक, परक्राम्य लिखत (Negotiable Instrument) आदि।
2. अपकृत्यात्मक बाध्यताएँ (Delictal Obligations)
अपकृत्यों से उत्पन्न होने वाली बाध्यताओं को अपकृत्यात्मक बाध्यताएँ कहते हैं। इस प्रकार की बाध्यता का आशय अपकृत्य के लिए क्षतिपूर्ति के दायित्व से है। किसी व्यक्ति के विधिक अधिकार का हनन करना या अपने किसी विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन करना, विधि के अन्तर्गत ‘अपकृत्य’ या ‘सिविल अपकार’ (civil wrong) कहलाता है।
अपकृत्यात्मक बाध्यता तथा संविदात्मक बाध्यता में मुख्य भेद यह है कि अपकृत्य के लिए क्षतिपूर्ति का दायित्व अपकृत्यात्मक बाध्यता उत्पन्न करता है जबकि दो या अधिक पक्षकारों के बीच किसी संविदा या करार को भंग किये जाने पर संविदात्मक बाध्यता उत्पन्न होती है।
डॉ. विनफील्ड (Dr. Winfield) के अनुसार अपकृत्य में बाध्यता उस समय उत्पन्न होती है जब किसी व्यक्ति ने विधि द्वारा निर्धारित किसी ऐसे कर्त्तव्य की अवहेलना की है जो जनसाधारण के प्रति हो तथा जिसके उपचारस्वरूप प्रतिफल के रूप में क्षतिपूर्ति की न्यायिक कार्यवाही की जा सकती हो, और जो न तो संविदाभंग हो या न्यास-भंग और न किसी साम्यिक दायित्व का उल्लंघन हो। 4 डॉ० विनफील्ड द्वारा दी गई अपकृत्य की उपर्युक्त परिभाषा में चार तत्व विद्यमान हैं जो चार प्रकार के ऐसे अपकारों (wrongs) का उल्लेख करते हैं जिन्हें अपकृत्य (torts) की परिधि से बाहर रखा जाना चाहिये। ये चार अपकार निम्नलिखित हैं-
(i) अपराध, अपकृत्य से भिन्न होते हैं, तथापि कुछ अपकार (wrongs) अपकृत्य एवं अपराध दोनों हो सकते हैं; जैसे-अपमान-लेख (libel), विद्वेषपूर्ण अभियोजन (malicious prosecution), धोखा (deceit), न्यूसेन्स, षड्यन्त्र आदि।
(ii) कोई सिविल-अपकार (civil wrong) तब तक अपकृत्य (tort) नहीं कहलाता जब तक कि उसके सम्बन्ध में प्रतिफल की माँग के रूप में क्षतिपूर्ति का दावा न चलाया जा सकता हो।
iii) यदि कोई अपकार संविदा के पूर्णतः भंग होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है, तो वह अपकत्य नहीं कहा जा सकता। हाँ, यह अवश्य है कि कभी-कभी एक ही अपकार अपकृत्य तथा संविदा-भंग, दोनों ही हो सकता है। उदाहरणार्थ, यदि व्यक्ति उधार लिये गये आभषणों को उनके स्वामी को वापस नहीं लौटाता, तो अपकृत्य विधि में वह संपरिवर्तन (conversion) के अपकृत्य के लिए दायी होगा तथा संविदा-विधि के अन्तर्गत वह संविदा भंग के लिए दोषी होगा। सन्यास-भंग अथवा साम्यिक दायित्व से उत्पन्न बाध्यताएँ भी अपकृत्य के अन्तर्गत नहीं आती हैं क्योंकि न्यास एवं साम्यिक दायित्व का उद्भव चांसरी-न्यायालय (Court of Chancery) से हुआ है, जबकि अपकृत्य का उद्भव तथा विकास कॉमन लॉ से हुआ है।
3. संविदा-कल्प या अर्द्ध-संविदात्मक बाध्यताएँ (Quasi-Contractual Obligations)
कुछ बाध्यताएँ ऐसी होती हैं जो वास्तविक रूप से किसी संविदा या करार पर आधारित न होने के कारण संविदात्मक नहीं होती किन्तु विधि इन्हें संविदात्मक बाध्यता के रूप में मानती है। ऐसी बाध्यताओं को
इंग्लिश-विधि में अर्द्ध-संविदात्मक बाध्यताएँ (quasi-contractual obligations) कहा जाता है। संविदाकल्प (quasi-contract) को वास्तविक संविदा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें पक्षकारों के बीच पारस्परिक करार (mutual agreement) बिल्कुल ही नहीं रहता है जो संविदा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। तथापि न्याय की दृष्टि से कुछ विशिष्ट अन्तरणों की विधि पारस्परिक करार के अभाव में भी संविदात्मक बाध्यता की परिकल्पना कर लेती है। इसे एक उदाहरण द्वारा अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। विधि के अन्तर्गत निर्णीत ऋणी (judgement debtor) तथा निर्णीत-ऋणदाता (judgment creditor) का सम्बन्ध संविदात्मक माना गया है। ऐसे निर्णय के परिणामस्वरूप एक ऋण की संरचना होती है तथा ऋणी और ऋणदाता के बीच काल्पनिक संविदात्मक सम्बन्ध स्थापित होते है। लार्ड एशर के शब्ों में ऐसे निर्णय में प्रतिवादी का दायित्व इस विवक्षित संविदा (implied contract) पर आधारित होता है कि वह निर्णय में उल्लिखित रकम की अदायगी करे।8 इस प्रकार भूल से या धोखे से लिया गया धन संवि-कल्प बाध्यता (quasi-contractual obligation) उत्पन्न करता है क्योंकि वास्तविक ऋण न होते हुए भी विधि की दृष्टि में इसे ऋण माना जाता है।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति रेल या बस में यात्रा करने हेतु उसमें प्रवेश करग है, तो यह मान लिया जायेगा कि वह रेल या बस का किराया चुकाने के लिए सहमत है। अत: किराया चुकाने का उस व्यक्ति का दायित्व संविदात्मक स्वरूप का होने के कारण यह संविदा-कल्प बाध्यता का उदाहरण है।
संविदा कल्प बाध्यताओं (quasi-contractual obligation) के अतर्गत वे बाध्यताएँ भी आती हैं जो संविदात्मक न होकर अपकृत्य जनित (tor:ious) होती हैं किन्तु अपकारित व्यक्ति यदि चाहे, तो उन्हें संविदात्मक मारकर न्यायिक कार्यवाही चला सकता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन (fraudulent misrepresentation) द्वारा किसी व्यक्ति से धन ऐंठ लेता है, तो अपकारित व्यक्ति यदि चाहे तो उस व्यक्ति के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का दावा कर सकता है अथवा संविदा-कल्प के आधार पर उस धन की वापसी के लिए वाद ला सकता है।
मेन्सफील्ड (Mansfield) जिन्हें, संविदाकल्प का वास्तविक जनक माना जाता है, ने स्पष्ट किया कि संविदा कल्प का मूल उद्देश्य यह है कि किसी व्यक्ति को अन्य व्यक्ति का अनुचित फायदा उठाते हुये या शोषण करते हुये स्वयं की अन्यायपूर्ण समृद्धि (unjust enrichment) करने से रोका जाये। अतः प्रतिवादी जिसे भूल, उद्दापन (extortion), अनुचित प्रभाव या कपट के फलस्वरूप धन प्राप्त हुआ है, साम्या तथा प्राकृतिक विधि के नियमों के अनुसार ऐसा धन उसके हकदार व्यक्ति को वापस लौटा दे क्योंकि इस प्रकार गलत तरीके अपनाते हुये स्वयं की अनुचित समृद्धि करने की विधि अनुमति नहीं देती है।
इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ लाईस ने उपर्युक्त सिद्धान्त को फिब्रोसा स्पोल्का अकेजना बनाम फेयरबॉर्न लॉसन कोम्बे के वाद में अपनाते हुये अभिकथन किया कि यह सिद्धान्त साम्या तथा प्राकृतिक न्याय के अनुकूल है। इस वाद में वादी द्वारा एक बड़ी मशीनरी खरीदने के लिये अग्रिम राशि के रूप में एक बड़ी धनराशि का संदाय किया गया था, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने के कारण संविदा विफल हो गयी। न्यायालय ने उक्त अग्रिम राशि वादी को वापस लौटाई जाने का आदेश देते हुये अभिकथन किया कि प्रतिवादी उस धन को अवैध रूप से अपने पास रखकर अन्यायपूर्ण समृद्धि (unjust enrichment) नहीं कर सकता है। अतः उसे वह रकम वादी को लौटानी होगी क्योंकि संविदा विफल हो गयी थी। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यह उपचार अपराध या अपकृत्य के लिये उपलब्ध उपचार से भिन्न होने के कारण इसे संविदाकल्प कहा गया है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 68 से 72 में उपचार के रूप में संविदा-कल्प का उल्लेख कतिपय उपचार जो संविदा द्वारा उत्पन्न उपचार से मिलते-जुलते हैं” शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है।
8. नोट बनाम ईस्टन, (1883) 13 QBD 303.
9 Fibrosa Spolka Akeyjna v. Fairborn Lawson Combe, (1943) AC 32 (63).
साधारणतः निम्नलिखित को संविदा कल्प के दृष्टान्त के रूप में माना जा सकता है
(1) जो व्यक्ति स्वयं संविदा करने के लिये सक्षम नहीं होते, अर्थात् अवयस्क, विकृत मस्तिष्क व्यक्ति
आदि, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु खर्च की गयी धनराशि का दावा;
(2) किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति के ऋण का संदाय, यदि वह व्यक्ति उसके संदाय में हित रखता हो;
(3) किसी निष्प्रतिफल कत्य (non-gratuitous act) के उपभोग का फायदा उठा रहे व्यक्ति का दायित्व;
(4) उस व्यक्ति का दायित्व जिसे भूलवश किसी धनराशि या वस्तु का संदाय (payment) किया गया जमा हो;
संविदा कल्प का दृष्टान्त.-जहां ‘ब’ एक ऐसी भूमि का पट्टेदार हो जिसे उसने ‘अ’ नामक जमींदार से पट्टे पर लिया है और ‘अ’ के ऊपर राज्य ने उस भमि को बेचने का विज्ञापन दिया हो, ऐसे विक्रय से ‘ब’ की पट्टेदारी समाप्त होना निश्चित है अत: ब इस विक्रय को रुकवाने के लिये जमींदार की ओर से स्वयं ही बकाया राजस्व राशि का भुगतान कर दे, तो ऐसी दशा में ‘अ’ (जमींदार) को इस बात के लिये विधित: बाध्य किया जा सकेगा कि वह ‘ब’ द्वारा राज्य को भुगतान की गयी धनराशि का ‘ब’ को संदाय करे।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम बी० के० मण्डल एण्ड सन्स10 के वाद में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गजेन्द्रगडकर ने अभिनिर्धारित किया कि संविदा कल्य का नियम व्यक्तियों तथा निगमों, दोनों के प्रति समान रूप से लागू होता है। इस वाद में राज्य सरकार के प्राधिकारियों ने वादी से सरकारी दफ्तर के लिये गोदाम सुरक्षा-कक्ष, किचन तथा कच्चा पहुंच मार्ग के निर्माण का ठेका दिया। निर्माण कार्य पूरा होने पर राज्य के सिविल आपूर्ति विभाग ने कार्य को स्वीकार किया परन्तु उसके लिये भुगतान करने से इस आधार पर इन्कार कर दिया कि उक्त संविदा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 299 के उपबन्धों के अनुसार नहीं होने के कारण वह वैध नहीं थी। ठेकेदार द्वारा न्यायालय में वाद प्रस्तुत किया जाने पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि राज्य सरकार ने निर्माण कार्य पूरा होने पर उसका अनुमोदन नहीं किया होता, तो उसे इसे अस्वीकार कर देने का हक था, परन्तु चूंकि उसने इसे स्वीकार कर लिया था, इसलिये अब वह उस पर किये गये खर्च का भुगतान करने के लिये बाध्य थी।
4. अनामित बाध्यताएँ (Innominate Obligation)
ऐसी बाध्यताएँ जो संविदात्मक अथवा संविदा-कल्प की श्रेणी में नहीं आतीं, अनामित बाध्यताएँ कहलाती हैं। न्यासधारी तथा हितकारियों के बीच उत्पन्न होने वाली बाध्यताएँ इस कोटि में आती हैं।11 विधि के अन्तर्गत न्यासधारी से यह अपेक्षा की जाती है कि हिताधिकारियों के प्रति अपने दायित्व को निष्ठापर्वक निभाते हुये उनके हितों का संरक्षण करे।
उपर्यत विवेचन से स्पष्ट है कि बाध्यता की संकल्पना दायित्व से भिन्न होते हुए भी एक दूसरे से सम्बन्ध रखती हैं। बाध्यता ही अंततोगत्वा व्यक्ति पर दायित्व उत्पन्न करने के लिये कारणीभूत होती है। यही कारण कि विधिक-क्षेत्र में बाध्यता का उतना ही महत्व है, जितना कि दायित्व की संकल्पना का है। इसीलिए विधि के अन्तर्गत इन दोनों ही संकल्पनाओं को महत्वपूर्ण माना गया है।
10. ए० आई० आर० 1962 सु० को० 779.
11. सामंड : ज्युरिस्प्रुडेंस (12वाँ संस्करण) प्र० 460.
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