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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 28 Part 2 Notes

 

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देव प्रतिमा (Idols)

LLB Notes Study Material

भारतीय विधि के अन्तर्गत देवप्रतिमा (Idol) को विधिक व्यक्ति माना गया है। विद्यापूर्ण तीर्थस्वामी बनाम विद्यानिधि तीर्थस्वामी58 के वाद में स्पष्ट किया गया था कि कल्पित व्यक्तियों में सबसे प्राचीनतम व्यक्ति देव-मूर्ति है। हिन्दू देव-प्रतिमा को मानवीकरण के आधार पर विधिक व्यक्ति माना गया है और यह एक ऐसी विधिक सत्ता है जो मानव की हैसियत प्राप्त कर संपत्ति रखने योग्य है।59 चूँकि देव-प्रतिमा को आदर्श विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है, इसलिए प्रतिमा के लिए स्थापित किये गये धर्मदाय (endowment) के प्रति शाश्वतता के विरुद्ध नियम (Rule Against Perpetuity) लागू नहीं होता है। 60 तथापि देवकीनंदन बनाम मुरलीधर61 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि देव प्रतिमा एक विधिक व्यक्ति अवश्य है लेकिन धर्मदाय में उसका अपना कोई लाभकारी हित नहीं होता तथा वास्तविक हितग्राही पुजारी ही होते हैं।

चित्रदासी न्यास के शासकीय न्यासी बनाम आयकर आयुक्त, पश्चिम बंगाल62 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि चूँकि हिन्दू देवता (प्रतिमा) संपत्ति धारण कर सकता है और उसकी आय भी होती है और वह न्यायालय में वाद ला सकता है या उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता है, इसलिए उसकी आय पर कर लगाया जा सकता है। साधारणत: उस पर कराधान सेवायतों के माध्यम से लगाया जाता है, जो उसकी संपत्ति का प्रबंध एवं देखरेख करते हैं।

उच्चतम न्यायालय ने कृष्णा सिंह बनाम मथुरा63 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू मन्दिर की सम्पत्ति उसकी देव-प्रतिमा में निहित रहती है। न्यायालय ने ‘मठ’ की वैधानिक स्थिति मन्दिर’ से भिन्न निरूपित करते हुये विनिश्चित किया कि हिन्दू मठ अपने आप में स्वतन्त्र विधिक व्यक्ति होता है परन्तु मन्दिर की स्थिति में प्रमुख तत्व देव-प्रतिमा (Idol) होता है और प्रतिमा को ही वैधानिक प्रास्थिति प्राप्त है। इसके विपरीत, मठ का मुख्य व्यक्ति ‘मठाधीश’ या ‘महन्त’ होता है इसलिये नठ की सम्पत्ति महन्त के पद के साथ जुड़ी रहती है और वह विरासत में उसके उत्तराधिकारी को अन्तरित होती है। मठ के मठाधीश को मठ के न्यासी की प्रास्थिति प्राप्त नहीं है, भले ही वह मठ की सम्पदा को आजीवन धारण किये रहे। मठाधिपति या मठाधीश से यह अपेक्षा की जाती है कि वह प्रथा के अनुसार मठ की अधिकांश सम्पत्ति का विनियोग धार्मिक कार्यों या दान-कार्यों के लिये करे। आशय यह है कि मन्दिर के सन्दर्भ में उसमें प्रतिस्थापित मूर्ति (प्रतिमा) को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है जब कि मठ के सन्दर्भ में मठाधीश या महन्त वैधानिक व्यक्ति होगा।

मस्जिद

उल्लेखनीय है कि मुस्लिम मस्जिद की स्थिति हिन्दू देव प्रतिमा से भिन्न है। मस्जिद में किसी देवता का मानवीकरण नहीं होता है और न ही मुस्लिम विधि के अन्तर्गत इसे जीवित व्यक्ति की भाँति स्वीकार किया गया है। शहीद मौला बक्श बनाम हफीजुद्दीन64 के वाद में उच्च न्यायालय ने मस्जिद को एक विधिक व्यक्ति मानते हुए निर्णय दिया कि इसके विरुद्ध वाद संस्थित किया जा सकता है तथा यह स्वयं अपने नाम से वाद ला सकती है। परन्तु मस्जिद शाहगंज बनाम शिरोमणि, गुरुद्वारा प्रबंधक समिति65 के वाद में प्रीवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि मस्जिद को कृत्रिम व्यक्तित्व प्राप्त नहीं है, अत: न तो यह किसी के विरुद्ध वाद ला सकती है और न कोई इसके विरुद्ध वाद ला सकता है।

58. आई० एल० आर० (1914) 27 मद्रास 435.

59. श्रीधर बनाम आयकर अधिकारी, ए० आई० आर० 1966 कलकत्ता 494.

60. विजय नन्द बनाम कालीपद, (1914) 1 कलकत्ता 57.

61. ए० आई० आर० 1955 सु० को० 133.

62. (1974)1 उम०नि०प० 947.

63. ए० आई० आर० 1980 सु० को० 707.

64. ए० आई० आर० 1926 लाहौर 372.

65. (1940) 67 IA 54.

गुरुग्रंथ साहिब

उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति, अमृतसर बनाम सोमनाथ दास66 के वाद में सिक्खों के पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब को विधिक व्यक्ति घोषित किया गया है। यद्यपि न्यायालय ने गुरु ग्रंथ साहिब की तुलना देव प्रतिमा के साथ की जाने की दलील को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि मूर्ति पूजा सिख धर्म से असंगत है, तथापि उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार किया कि जो सम्मान हिदू देव प्रतिमा को देता है वही सम्मान एक सिक्ख गुरु ग्रंथ साहिब को देता है।

इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि गुरुद्वारा और गुरु ग्रंथ साहिब का दो अलगअलग व्यक्तित्व नहीं है। इसी प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब की स्थिति अन्य धर्मों की पवित्र पुस्तकों, उदाहरणार्थ, मुस्लिमों के लिए कुरान, ईसाइयों के लिए बाइबिल या हिन्दुओं के रामायण; भगवद्गीता आदि से भिन्न है क्योंकि इन्हें विधिक व्यक्ति नहीं माना गया है। इसका कारण यह है कि गुरु ग्रंथ साहिब की पूजा गुरु के समान की जाती है और गुरु ग्रंथ साहिब गुरुद्वारे की आत्मा एवं हृदय है।।

इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय प्रतिमादास महन्त बनाम शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति67 को उद्धृत करते हुए स्पष्ट किया कि गुरुद्वारे में पूजा का केन्द्र बिन्दु पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब है, जो सिक्खों के गुरु-तुल्य होने के कारण विधिक व्यक्ति है।

भारत संघ एवं राज्यों का विधिक व्यक्तित्व

भारत संघ (Union) तथा राज्यों को भी विधिक व्यक्ति माना गया है।68 भारत के राष्ट्रपति को भी विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है क्योंकि वह एक एकल निकाय की भाँति है। राष्ट्रपति के पद पर जीवित व्यक्ति जाते और आते रहते हैं लेकिन विधि द्वारा निर्मित इस पद का अस्तित्व निरंतर बना रहता है, अर्थात् कभी समाप्त नहीं होता। परन्तु उल्लेखनीय है कि भारत के प्रधान मंत्री को विधिक व्यक्ति नहीं माना गया है क्योंकि कुछ परिस्थितियों में यह पद बिना किसी व्यक्ति के भी रिक्त रह सकता है।

केन्द्र या राज्य सरकार के मंत्रियों को भी विधिक व्यक्ति नहीं माना गया है क्योंकि वे एकल निकाय नहीं हैं। इसका कारण यह है कि इनकी नियुक्ति क्रमश: राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है, अतः वे संविधान के अनुच्छेद 53 एवं 154 के अन्तर्गत ‘शासकीय अधिकारी’ ही माने गये हैं।69 इसका एक अन्य कारण यह भी है कि अपने कृत्यों के लोप के लिए वे वैयक्तिक रूप से उत्तरदायी नहीं होते हैं और न उनके कार्यालयीन कृत्यों के लिए उनके विरुद्ध न्यायालय में सीधे वाद संस्थित किया जा सकता है। मंत्रीगणों के कार्यों के लिए राज्य दायित्वाधीन होता है। इसी प्रकार अपने कार्यालयीन कार्यों के दौरान की गयी किसी संविदा भंग के लिए उन पर व्यक्तिशः कार्यवाही नहीं की जा सकती है।70

भारतीय रिजर्व बैंक को एक विधिक व्यक्ति माना गया है क्योंकि यह एक निगमित निकाय है जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। लेकिन संघ लोक सेवा आयोग तथा संयुक्त हिन्दू परिवार को विधिक व्यक्ति नहीं माना गया है। इसका कारण यह है कि ये दोनों ही सम्पत्ति धारण नहीं कर सकते और इनके नाम से, इनके द्वारा या इनके विरुद्ध न्यायालय में स्वतन्त्र रूप से वाद संस्थित नहीं किया जा सकता है।

भारतीय विधि के अन्तर्गत भागीदारी फर्म (Partnership Firm) को निगमित निकाय (incorporated body) नहीं माना गया है।71 अत: वह स्वयं के नाम से वाद संस्थित नहीं कर सकती है और न उसके विरुद्ध

66. (2000) 4 ए०सी० सी० 186.

67. (1984) 2 एस० सी० सी० 600.

68. भारत का संविधान अनुच्छेद 300, 32 तथा 226.

69. न्यू मेरिन कोल कंपनी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 15.

70. न्यू मेरिन कोल कंपनी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 15.

71. बाभा गुजदर बनाम आयकर आयुक्त, ए० आई० आर० 1995 सु० को० 74 (77).

(उसके नाम से) वाद ही लाया जा सकता है। यही कारण है कि भागीदारी फर्म के सदस्य स्वयं अपनी फर्म के साथ कोई संविदा नहीं कर सकते क्योंकि कोई व्यक्ति स्वयं के साथ संविदा करने के लिये सक्षम नहीं होता है। परन्तु एक निगमित कम्पनी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है जो कि उसके सदस्यों के अस्तित्व से भिन्न है। अत: निगमित कम्पनी स्वतन्त्र रूप से संविदा करने की क्षमता रखती है,यहाँ तक कि उसके सदस्य स्वयं भी उसके साथ स्वतन्त्र संविदा कर सकते हैं।

क्या कम्पनी या निगम को भारतीय नागरिक माना जाये? (Company or Corporation whether a citizen of India?)

यह प्रश्न कि किसी कम्पनी या निगमित निकाय को भारत का नागरिक माना जाये या नहीं, न्यायालय के समक्ष स्टेट ट्रेडिंग कार्पोरेशन बनाम कामर्शियल टैक्स ऑफीसर72 के वाद में विचारार्थ आया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि कम्पनी या निकाय को भारत का नागरिक नहीं माना जा सकता, अतः वह भारतीय नागरिकों की भांति मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) के हक (claim) की मांग नहीं कर सकते।

स्टेट ट्रेडिंग कम्पनी एक शासकीय कम्पनी थी जो कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पंजीकृत थी। यह एक प्राइवेट कम्पनी थी और भारत के राष्ट्रपति तथा वाणिज्य मन्त्रालय के सचिव इसके अंशधारी थे। कम्पनी को भारत का नागरिक माने जाने से इन्कार करते हये उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि संविधान में ‘नागरिकता’ (Citizenship) को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। संविधान के भाग-II में केवल कुछ परिस्थितियों में नागरिकता के विषय में उल्लेख है लेकिन परन्तु इन प्रावधानों से यह तात्पर्य स्पष्टतः निकलता है कि किसी कम्पनी या निगमित निकाय को नागरिक नहीं माना जा सकता है। भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 में भी यह अभिव्यक्त रूप से कहा गया है ‘व्यक्ति’ की संकल्पना में किसी कम्पनी, संघ, या व्यक्ति-समूह का समावेश नहीं है। अतः केवल वास्तविक या प्राकृतिक व्यक्ति ही नागरिकता धारण कर सकते हैं न कि कोई कृत्रिम व्यक्ति या निगमित निकाय।

उच्चतम न्यायालय ने इस वाद में ‘नागरिकता’ और राष्ट्रीयता में विभेद को स्पष्ट करते हुये अभिकथन किया कि कम्पनी निगमित निकाय की राष्ट्रीयता हो सकती है जो उसके निगमन के स्थान (Place of incorporation) पर निर्भर करती है, लेकिन उसे नागरिकता प्रदान नहीं की जा सकती है इसीलिये कम्पनी या निगम को नागरिक नहीं माना जायेगा।

आर० सी० कपर बनाम भारत संघ73 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब व्यक्ति अंशधारियों के रूप में किसी कम्पनी से जुड़ते हैं, तो उनके मौलिक अधिकार किसी प्रकार से प्रभावित नहीं होते और वे यथावत् बने रहते हैं। इस वाद में पिटीशनरों ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (एफ) तथा 31 (2) के अन्तर्गत उन्हें प्राप्त मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है। न्यायालय ने विनिश्चित किया कि राष्ट्रीयकरण से उनके मौलिक अधिकारों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि उनका अस्तित्व बैंक जो कि निगमित निकाय है, से भिन्न है।

निगमन से लाभ

विभिन्न व्यक्तियों के समूह को एक विधिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना अनेक दृष्टि से लाभप्रद होता है। इसके परिणामस्वरूप सहस्वामित्व के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों का निवारण हो जाता है। निगमित निकाय के विरुद्ध या उसकी ओर से न्णयालयीन कार्यवाही में भी सविधा होती है क्योंकि इसके असंख्य सदस्यों को पक्षकार बनाने की आवश्यकता नहीं रहती।

72. ए० आई० आर० 1963 सु० को० 1811; देखें, बार काउन्सिल ऑफ इण्डिया बनाम केरल उच्च न्यायालय, ए० आई०। आर० 2004 सु० को० 2227.

73. ए० आई० आर० 1970 सु० को० 564 (इसे बैंक राष्ट्रीयकरण का वाद भी कहा जायेगा).

निगमन के लाभ के विषय में सामण्ड ने लिखा है कि सह-स्वामित्व के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिए केवल निगमन ही एकमात्र साधन नहीं है बल्कि इसी उद्देश्य को न्यासिता (trusteeship) द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। न्यासित्व की दशा में सम्पत्ति उसके वास्तविक स्वामियों में निहित न होकर न्यासियों में निहित होती है जो अनिश्चित, असमर्थ अथवा अपरिमित व्यक्तियों की ओर से तथा उनके हेतु धारण करते हैं। अतः सामण्ड ने निगमन को न्यासित्व का विकसित रूप माना है। वे निगमन को कल्पित न्यासित्व (fictitious trusteeship) मानते हैं। तथापि न्यासित्व की तुलना में निगमन का विशेष लाभ यह है कि विधि में एक ही व्यक्ति है और इसमें सर्वमान्य स्वामित्व के बजाए निगमन का वैयक्तिक स्वामित्व होता है। इसके अतिरिक्त, न्यासी व्यक्ति होते हैं अत: इनकी मृत्यु के पश्चात् उनका स्थान दूसरे न्यासीगण ग्रहण करते हैं जब कि निगमन द्वारा एक ऐसे कत्रिम व्यक्ति का निर्माण होता है जिसका व्यक्तित्व स्थायी होता है । एकल व्यक्तित्व तथा स्थायित्व, निगमन के दो ऐसे तत्व हैं जो उसे विधि में न्यासित्व की तुलना में उच्चतर स्थान दिलाते हैं।

निगमन के फायदों का उल्लेख करते हुये पामर ने अधिकथन किया है कि इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि निगमन होते ही कम्पनी का स्वामी स्वयं के नाम से व्यापार करने से विरत हो जाता है और पूरा व्यापार कम्पनी के नाम से ही चलता है। इसके परिणामस्वरूप उसके दायित्वों का वहन उसके द्वारा निगमित कम्पनी करती है और कम्पनी के कार्यकलापों के लिये वह वैयक्तिक रूप से दायित्वाधीन नहीं रहता है। जबकि मुख्य अंशधारी होने के नाते यह कम्पनी द्वारा अर्जित लाभ पाने का हकदार बना रहता है।

कीटन ने निगमन के विभिन्न लाभों की प्रगणना निम्नानुसार की है

(1) निगमित निकाय के किसी सदस्य की मृत्यु या प्रत्याहरण (withdrawal) से निकाय के अस्तित्व पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है और उसका अस्तित्व यथावत बना रहता है।

(2) निगमित निकाय को कृत्रिम व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त होने के कारण विधिक औपचारिकताओं की दृष्टि से उससे संव्यवहार करने में सुविधा होती है क्योंकि वह स्वयं के नाम से वाद संस्थित कर सकता है, या उसके विरुद्ध वाद संस्थित किया जा सकता है। म

(3) निगमित निकाय के सदस्यों का दायित्व असीमित न होकर केवल अदत्त-अंशों (unpaid shares) की राशि तक ही सीमित रहता है। इस कारण इसे पूँजी जुटाने में विशेष कठिनाई नहीं होती है।

(4) निगमित निकाय एक स्वतंत्र वैधानिक व्यक्ति होने के कारण वह अपनी सम्पत्ति के व्ययन के लिए स्वतंत्र होता है।

(5) निगमन का सर्वश्रेष्ठ लाभ यह है कि इससे व्यापार और उद्योग के विकास को बढ़ावा मिलता है क्योंकि छोटे से छोटे निवेशक भी अपनी पूँजी निगमित निकायों में (अंशों को क्रय द्वारा) लगा सकते हैं। इससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में बहुत सहायता मिलती है।

निगमों का सृजन तथा निर्वापन (Creation and Extinction of Corporations)

निगमों का सृजन तथा उनका निर्वापन (extinction) प्राकृतिक रूप से नहीं होता अपितु इसे विधि द्वारा विनिश्चित किया जाता है। निगमित निकायों का अस्तित्व तथा निर्वापन विधि की इच्छा पर निर्भर करता है। निगमों की स्थापना राजलेख (charter), कानून, पुरातन रूढियों अथवा सदस्यों के आपसी करार द्वारा होती है तथा इनका अस्तित्व अनिश्चित काल तक बना रहता है। निगम को कभी विनष्ट नहीं किया जा सकता बाल्क इसका निर्वापन विघटन (dissolution) द्वारा होता है। सामण्ड के अनुसार एकल निगम को दशा म एक लाकपदधारी की मत्य के बाद दसरा व्यक्ति उस पद को संभालने तक की मध्यावधि से निगम का निर्वापन नहीं हो जाता अपितु वह उस अवधि में निलम्बित रहता है।

विधि के लिए ऐसे निकायों के अधिकारों तथा कर्तव्यों का निर्धारण करना बहुत कठिन होता है जिनकी सदस्य संख्या स्थिर न हो। इसका कारण यह है कि निगमित कम्पनी के सदस्यों में से अनेक अपनी सदस्यता छोड़ देते हैं तथा अनेक नये व्यक्ति उसकी सदस्यता ग्रहण करते रहते हैं। ऐसी दशा में उद्देश्य की एकता (unity of purpose) तथा संस्था की स्थिरता (permanence of institution) के लिए निगम के समस्त सदस्यों के सामूहिक रूप को विधि में एक निकाय या विधिक व्यक्तित्व के रूप में मान्यता दी गई है।

उल्लेखनीय है कि विधि के अन्तर्गत प्रत्येक सामूहिक निकाय को विधिक व्यक्ति के रूप में मान्य नहीं किया जाता है। विधिक व्यक्तित्व के सृजन के लिए निकाय में दो तत्वों का होना आवश्यक है। प्रथम यह कि वह निकाय मनुष्यों का ऐसा समूह होना चाहिये जो किसी सामान्य हित के संवर्धन हेतु गठित किया गया हो, तथा दूसरे यह कि इसका अस्तित्व सुसंगठित निकाय (organised body) के रूप में होना चाहिये।

इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ लार्ड्स ने सालोमन बनाम सालोमन74 के अपने ऐतिहासिक निर्णय में अभिनिर्धारित किया कि कम्पनी का निगमन होते ही उसे एक स्वतन्त्र निगमित अस्तित्व प्राप्त हो जाता है और वह एक संस्थागत निकाय का रूप धारण कर लेती है। सालोमन कम्पनी के बारे में न्यायालय का कथन था कि यद्यपि यह एक सदस्य वाली कम्पनी थी लेकिन उसने निगमन सम्बन्धी औपचारिकतायें पूरी कर ली होने के कारण उसका दायित्व भी सदस्य का दायित्व न होकर कम्पनी का स्वयं का दायित्व था।

भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कानिया (Justice Kania) ने भी प्राग टूल्स कार्पोरेशन बनाम इमैनुअल/5 के वाद में सालोमन के वाद को उद्धृत करते हुये अभिकथन किया कि निगमित कम्पनी का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है और उसके सभी शेयर्स (Shares) भले ही वास्तव में एक ही सदस्य द्वारा नियन्त्रित हों, विधि के नजरों में कम्पनी का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व होने के कारण, इस बात पर विचार किया जाना व्यर्थ होगा कि उस कम्पनी के सभी निदेशक एक ही परिवार के सदस्य थे या वास्तव में वह एक सदस्यीय कम्पनी थी।76

मेटलैण्ड (Maitland) ने निगम की प्रकृति के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि निगम एक काल्पनिक व्यक्ति है जो न तो दौड़ने की क्षमता रखता है और न किसी से विवाह करने की या बीमार पड़ने की। वह तो व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिन्होंने किसी एक ही सामान्य (common) उद्देश्य से प्रेरित होकर सामूहिक रूप ग्रहण किया हो। निगम की इच्छा उसके सदस्यों की व्यक्तिगत इच्छा से भिन्न है, इसी प्रकार निगम द्वारा लिये गये निर्णयों को उसके सदस्यों का निर्णय नहीं कहा जा सकता है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि निगम अपने सदस्यों की सामूहिक इच्छा को अभिव्यक्त करता है।

नियमो का दायित्व (Liability of Corporations)

का विधि के अन्तर्गत निगम एक कृत्रिम या काल्पनिक व्यक्ति होने के कारण उसका न तो अपना शरीर होता है और न आत्मा या मस्तिष्क। अतः निगम की ओर से कार्य करने वाले व्यक्ति कोई वास्तविक व्यक्ति ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि निगम की न तो अपनी कोई इच्छा होती है और न कोई हित होता है। निगम का हित वास्तव में उसके अंशधारियों (shareholders) का हित होता है जिसकी अभिव्यक्ति अंशधारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले निदेशकों द्वारा होती है। तथापि विधि की दृष्टि से निगम एक ऐसा काल्पनिक व्यक्ति है जिसके हित, अधिकार, कर्त्तव्य तथा सम्पत्ति आदि होते हैं। परिणामतः निगम के विरुद्ध उसके नाम से वाद संस्थित किया जा सकता है तथा उसे सिविल अथवा आपराधिक, दोनों ही विधियों के अन्तर्गत दायित्वाधीन ठहराया जा सकता है।

74. (1887) ए० सी० 92 (एच० एल०).

75. ए० आई० आर० 1969 सु० को० 1306.

76. देखे, मसस इलेक्ट्रोनिक कार्पोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम सचिव राजस्व, आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० 1999 सु को०1734. .

77. डॉ० मुरे (Dr. Murray); हिस्ट्री ऑफ पॉलिटिकल थॉट फ्रॉम प्लेटो टू दि प्रजेन्ट, पृ० 388.

निगमों का सिविल दायित्व (Civil Liability of Corporations)

निगमों के सिविल दायित्व सम्बन्धी सिद्धान्त का मूल आधार यह है कि प्रत्येक निगम किसी निश्चित उद्देश्य के लिए निर्मित होता है तथा उसके कार्यों तथा अधिकार-शक्तियों का उल्लेख उसके संघज्ञापन (Memorandum of Association) में किया जाता है; अत: यदि निगम के किसी ऐसे कृत्य के कारण जो उसकी शक्ति-सीमा के अन्तर्गत किया गया हो, किसी व्यक्ति को क्षति होती है, तो वह व्यक्ति निगम के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का वाद दायर करके निगम से हानि वसूल कर सकता है78 परन्तु यदि वह कृत्य शक्ति-बाह्य (ultra vires) है, तो उस दशा में अपकारित व्यक्ति के प्रति निगम दायी नहीं होगा।79

सामण्ड का मत है कि निगमों के सिविल दायित्व सम्बन्धी उपर्युक्त सिद्धान्त को सदोष लोपों (wrongful omissions) के लिए लागू नहीं किया जा सकता। सामण्ड के अनुसार जिस प्रकार कोई नियोक्ता (employer) अपने नौकर के अपकृत्य के लिए दायी होता है, उसी प्रकार निगम भी अपने नौकरों द्वारा उनके नियोजन काल में किये गये अपकृत्यों के लिए दायी होगा। इस प्रकार सामण्ड ने निगमों के अपकृत्यों सम्बन्धी दायित्व का समाधान प्रतिनिहित दायित्व (vicarious liability) के सिद्धान्त के माध्यम से किया है। अतः अपकृत्य विधि में निगम का दायित्व ठीक वैसा ही होता है जैसा कि सेवकों द्वारा किये गये कार्यों के लिए स्वामी या नियोक्ता (master or employer) का दायित्व होता है।

निगमों के सिविल दायित्व के संदर्भ में एशबर्थ बनाम नार्थ-ईस्टर्न रेलवे कम्पनी80 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में रेलवे कम्पनी ने एशबर्थ नामक चिकित्सक के विरुद्ध इस आधार पर वाद चलाया कि एक रेल दुर्घटना के समय उसने किसी यात्री को झूठा प्रमाण-पत्र दिया था। वाद का निर्णय चिकित्सक के पक्ष में दिये जाने पर चिकित्सक ने उस रेल कम्पनी के विरुद्ध अपकृत्य विधि में दोषपूर्ण अभियोजन (malicious prosecution) के लिए वाद चलाया तथा रेलवे कम्पनी से हानिपूर्ति की माँग की। द्वेषपूर्ण अभियोजन में वादी को यह सिद्ध करना होता है कि प्रतिवादी ने पहला वाद बिना किसी युक्तियुक्त कारण के चलाया था। इस वाद में निर्णय देते हुए लार्ड ब्रामवेल (Lord Bramwell) ने विनिश्चित किया कि एक कल्पित व्यक्ति होने के कारण निगम का कोई विद्वेष (malice) या हेतुक (motive) नहीं हो सकता। अतः उसका ‘दूषित आशय’ होने का प्रश्न ही नहीं उठता। चूँकि निगम कोई सदोष कार्य नहीं कर सकता, इसलिए अपकृत्य या दण्ड विधि में उसका दायित्व नहीं हो सकता।

उक्त वाद का सैद्धान्तिक रूप से खण्डन करते हुए लार्ड लिंडले (Lord Lindley) ने सिटिजन्स लाइफ इन्श्योरेन्स कम्पनी बनाम ब्राउन81 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि निगम को मानहानि के अपकृत्य के लिए दायित्वाधीन ठहराया जा सकता है। इस वाद में बीमा कम्पनी के अधीक्षक ने पालिसीधारियों को एक परिपत्र (circular) भेजा जिसमें कम्पनी के एक भूतपूर्व कर्मचारी के विरुद्ध अभिकथन किये गये थे। इस पर उक्त कर्मचारी ने कम्पनी के विरुद्ध अपकृत्य विधि के अन्तर्गत मानहानि का वाद संस्थित करते हुए क्षतिपूर्ति की माँग की। विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या निगम द्वारा ‘मानहानि’ की जा सकती है? अर्थात् क्या निगम का कोई ‘आशय’ या मानसिक तत्व हो सकता है जो मानहानि के लिए सिद्ध किया जाना आवश्यक होता है। विद्वान न्यायाधीश ने प्रतिनिहित दायित्व (vicarious liability) के सिद्धान्त का सहारा लेते हुए यह निर्णय दिया कि निगम मानहानि के लिए दायी है क्योंकि नियोक्ता होने के नाते वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा किये ऐसे अपकृत्यों के लिए दायी है जो उन्होंने नियोजन-काल में किये हों।

सामान निगमों का आपराधिक दायित्व (Criminal Liability of Corporations)

सामण्ड के अनुसार प्रतिनिहित दायित्व के सिद्धान्त (principle of vicarious liability) के आधार पर निगमा को अपकृत्यों के लिए दायी तो ठहराया जा सकता है किन्तु यह सिद्धान्त आपराधिक मामलों के प्रति

78. विल्सन एण्ड क्लाइड कोल कम्पनी लि. बनाम इंग्लिश, (1937) 3 All ER 628.

79. पाल्टन बनाम लन्डन साउथ वेस्टर्न रेल कं०, (1867) 2QB 534.

80. (1886) 11 AC 247.

81. (1904) AC 423.

लागू न होने के कारण निगमों पर आपराधिक दायित्व का आरोपण इस सिद्धान्त के आधार पर नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि सामण्ड के अनुसार, “निगम का आपराधिक दायित्व कुछ आपवादिक (exceptional) स्वरूप का ही है।” तथापि इंग्लिश दण्ड विधि तथा कुछ अन्य विधियों में निगमों पर आपराधिक कृत्यों के लिए दायित्व अधिरोपित हो सकता है। इस सम्बन्ध में विधि की मान्यता यह है कि यद्यपि निगम का कोई अपना मस्तिष्क नहीं होता तथा वह मानवीय प्रतिनिधियों के माध्यम से कार्य करता है परन्तु यदि उसके प्रतिनिधि उसकी ओर से तथा उसके नाम पर दूषित मनोवृत्ति (mens rea) से कोई कार्य करते हैं, तो ऐसे कार्य का दायित्व निगम पर थोपा जा सकता है। मेटलैण्ड ने निगमित व्यक्तित्व सम्बन्धी यथार्थता के सिद्धान्त (Realist Theory of Corporate Personality) के आधार पर निगमों के वास्तविक अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कथन किया है कि इसकी अपनी इच्छा होती है जोकि इसके सदस्यों की इच्छा से भिन्न होती है। अत: निगम को द्वेषपूर्ण अभियोजन या अपलेख (libel) के लिए दोषी ठहराया जा सकता है ।82

निगमों के आपराधिक दायित्व के सम्बन्ध में एक व्यावहारिक कठिनाई यह हो सकती है कि इन्हें अपराध कृत्यों के लिए दण्डित किस प्रकार किया जाए? इस सम्बन्ध में दो सम्भावनाओं पर अलग-अलग विचार करना होगा। यदि किसी निगम को अर्थदण्ड या जब्ती (fine or forfeiture) के दण्ड से दण्डित किया जाता है, तो इस दण्ड के प्रवर्तन में कोई कठिनाई नहीं होगी क्योंकि इसमें सदस्यों को दण्डित किये बिना उसे दण्ड का भागी बनाया जा सकता है। परन्तु यदि शारीरिक दण्ड दिया जाता है, तो उस दशा में निगम को उसके सदस्यों से भिन्न मानना असम्भव होगा। इस संदर्भ में विनोग्रेडाफ (Vinogradoff) ने कॉमन लॉ न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ट्रेबी (Treby) द्वारा दिये गये एक निर्णय83 का संदर्भ देते हुए कहा है कि यदि कोई निगम अपनी सामान्य मुद्रा (common seal) के अंतर्गत राजद्रोह (treason) का अपराध करता है, तो क्या उस सामान्य मुद्रा को सूली पर चढ़ा दिया जायेगा क्योंकि राजद्रोह के अपराधी को फाँसी की सजा दी जाती है। तात्पर्य यह है कि ऐसी दशा में न्यायालय को सामान्य विवेक से निर्णय लेना चाहिये। इस संदर्भ में कुछ निर्णीत वाद इस प्रकार हैं

इंग्लैण्ड के डी० पी० पी० बनाम केण्ट सुसेक्स कान्ट्रैक्टर्स लिमिटेड84 में एक परिवहन कम्पनी के मैनेजर ने पेटोल के कपनों को प्राप्त करने के लिए झूठी विवरणी (false returns) भेजी। इस वाद में निर्णय देते हुए डिवीजन कोर्ट ने निर्णय दिया कि कम्पनी ने मैनेजर के माध्यम से अपराध किया था। अतः उसे कपट के लिए दोषी ठहराया गया।

मूरे बनाम ब्रेसलर लि० (Moore v. Bresler Ltd.)85 के मामले में कम्पनी का सचिव (Secretary) ही उस कम्पनी की शाखा-प्रबन्धक तथा विक्रय-प्रबन्धक भी था। उसने कुछ ऐसे कार्य किये जिन्हें करने के लिए वह कम्पनी के निदेशक-मण्डल (Board of Directors) द्वारा अधिकृत नहीं था। न्यायालय ने विधिक व्यक्तित्व के सिद्धान्त के आधार पर सचिव के अपराध-कृत्यों के लिए कम्पनी को दोषी ठहराया।

उपर्युक्त निर्णयों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान न्यायिक प्रवृत्ति (Judicial trend) के अनुसार निगमित निकाय पर ऐसे अपराध-कृत्यों के लिए जो उसके कर्मियों, अधिकारियों या प्रतिनिधियों द्वारा कारित होते हैं, आपराधिक दायित्व अधिरोपित किया जा सकता है। अत: किसी कम्पनी को दुर्भावना, विद्वेषपूर्ण अभियोजन, कपट, षड़यंत्र, अपलेख (Libel) आदि आपराधिक मामलों में दोषसिद्ध करके अर्थदंड या सम्पत्ति की जब्ती के दंड से दंडित किया जा सकता है।

82. एडवर्ड बनाम मिडलैण्ड रेलवे, (1880) OBD 287 तथा नेवाइल एण्ड सन्स जनाम लन्दन एक्सप्रेस, न्यूज पेपर, (1919) AC 368 आदि के वाद.

83. (1681) 8 ST 1039.

84. (1944) KB146.

85. (1944) 2 ALL ER 15.

निगमित व्यक्तित्व सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त  (Theories of Corporate Personality)

निगमित व्यक्तित्व के निश्चित स्वरूप के विषय में विधिवेत्ताओं में सदैव मतभेद रहा है तथापि इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख विधिवेत्ताओं के विचारों को सिद्धान्तों (Theories) के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है यद्यपि इस सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है, लेकिन इनके बारे में यह धारणा है कि इनमें से प्रत्येक कम्पनी के निगमित व्यक्ति का आंशिक बोध कराता है, परन्तु इनमें से कोई भी पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

(1) परिकल्पना का सिद्धान्त (Fiction Theory)

इस सिद्धान्त के समर्थकों में सैविनी (Savigny), ग्रे, हॉलैण्ड, केल्सन तथा सामण्ड आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। परिकल्पना के सिद्धान्त के अनुसार निगमित व्यक्तित्व एक विधिक कल्पना मात्र है जिसका प्रमुख उद्देश्य सामूहिक रूप से एकत्रित हए व्यक्तियों के अस्थिर संगठन में एकता (unity) लाना है। अतः यह कल्पित व्यक्तित्व उन व्यक्तियों के वास्तविक व्यक्ति से भिन्न होता है जो इसका सृजन करते हैं। सैविनी के अनुसार समस्त निगमों का मुख्य लक्षण यह है कि अधिकार का विषय न तो इनके सदस्यों में पृथक्-पृथक् विद्यमान रहता है और न सदस्यों के योग में ही। वस्तुत: वह समूचे निगम में निहित रहता है।86 इसका सुपरिणाम यह है कि सदस्यों के परिवर्तन से निगम के अस्तित्व या उसकी एकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तात्पर्य यह कि निगम के सदस्यों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है किन्तु उसका अस्तित्व ज्यों-का-त्यों बना रहता है।

सामंड ने भी निगमन के काल्पनिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। उनकी धारणा है कि निगमित निकाय अपने सदस्यों से भिन्न होता है तथा सभी सदस्यों द्वारा त्याग दिये जाने पर भी निगम का अस्तित्व यथावत बना रहता है। संसद के अधिनियम के अन्तर्गत निगमित किसी निगम का अस्तित्व केवल संसद के अधिनियम द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। उसके सदस्यों का कोई प्रतिनिधि बचा न रहने पर भी निगम का अस्तित्व पूर्ववत् बना रहेगा क्योंकि वह विधि की काल्पनिक निर्मिति है !870

अमेरिकन विधिशास्त्री ग्रे (Gray) के मतानुसार निगमन का मुख्य उद्देश्य सामान्य आशय रखने वाले व्यक्तियों के हितों का संरक्षण करना है। उद्देश्य की पूर्ति निगम को कल्पित व्यक्तित्व प्रदान करके की जाती है। निगम वास्तविक व्यक्ति न होने के कारण उसकी अपनी कोई वास्तविक इच्छा नहीं हो सकती। इसी प्रकार निगम की इच्छा का उसके सदस्यों की सामूहिक इच्छा से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है। निगम की इच्छा तो केवल एक काल्पनिक इच्छा होती है जो विधि द्वारा उसे सौंपी जाती है।88

उल्लेखनीय है कि परिकल्पना के सिद्धान्त में निगमित निगमों के सिविल तथा आपराधिक दायित्वों के विषय में कोई समाधानकारक उत्तर नहीं मिलता। यदि निगम की इच्छा उसे विधि द्वारा सौंपी गयी मानी जाए तो इसका आशय यह हुआ कि उसकी इच्छा सदैव वैध ही होगी क्योंकि विधि उसे अवैध इच्छा सौंप ही नहीं सकती। अत: निगम केवल अधिकाराधीन (intra vires) कार्य ही करेगा तथा वह शक्ति बाह्य (ultra vires) कार्य कर ही नहीं सकता। इसी प्रकार निगम का ‘दूषित आशय’ कभी हो ही नहीं सकता तथा उसके द्वारा अपराध-कृत्य किये जाने का प्रश्न ही नहीं उठेगा।

2. यथार्थता सिद्धान्त (Realist Theory)

इस सिद्धान्त के प्रमख प्रणेता प्रसिद्ध जर्मन विधिशास्त्री जोहेनेस एल्थूसियस (Johannes Althusius) तथा गियर्के (Gierke) थे। उनके अनुसार निगम का अस्तित्व अपने सदस्यों के सामूहिक स्वरूप से भिन्न होता ह। निगमित व्यक्ति का व्यक्तित्व कल्पना के आधार पर नहीं होता वरन् इसका एक वास्तविक अस्तित्व होता

86. सैविनी : सिस्टम्स ऑफ मॉडर्न रोमन लॉ, (रेटिंगन द्वारा अनुवादित), पृ० 181.

87. सामंड : ज्यूरिसप्रूडेंस (10वाँ संस्करण) पृ० 330.

88. ग्रे : नेचर एण्ड सोर्सेज ऑफ दि लॉ, पृ० 55.

है जिसे राज्य तथा विधि द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। जब अनेक व्यक्ति सामूहिक रूप से मिलकर निगम की स्थापना करते हैं, तो ऐसे मिलाप के परिणामस्वरूप एक नवीन इच्छा का प्रादुर्भाव होता है, जो उस निगम की इच्छा कहलाती है। निगम अपनी इच्छा अपने निदेशकों, कर्मचारियों तथा प्रतिनिधियों के कार्यों के माध्यम से व्यक्त करता है। मेटलैण्ड तथा फेड्रिक पोलक आदि इंग्लिश विधिवेत्ताओं ने इस तर्क को स्वीकार किया है।

फ्रेड्रिक पोलक ने निगमन संबंधी यथार्थता के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा है कि इंग्लिश कॉमन लॉ में निगम के परिकल्पना के सिद्धान्त (Fiction Theory) को कोई स्थान नहीं है। वे अपने विचारों को अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि केवल सामूहिक संगठन मात्र बना लेने से किसी निकाय को सामूहिक शक्ति प्राप्त नहीं हो जाती और न उसका सामूहिक दायित्व ही उत्पन्न होता है जब तक कि वह निगमन संबंधी औपचारिकताएँ पूरी नहीं कर लेता। इंग्लिश विधि के अन्तर्गत अनिगमित निकायों (unincorporated bodies) को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त न होने के कारण वे अधिकार और कर्त्तव्य धारण नहीं कर सकते। अत: वास्तविक रूप से निगमित हुए बिना किसी भी निकाय को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त नहीं होता।

यथार्थवादी सिद्धान्त के समर्थकों का मत है कि सामूहिक व्यक्तित्व एक वास्तविकता है न कि कोरी कपोल कल्पना। इसका आशय यह नहीं कि निगम एक वास्तविक व्यक्ति है। उसकी वास्तविकता तो मनोवैज्ञानिक वास्तविकता है, न कि भौतिक। ग्रे ने इस सिद्धान्त को भ्रामक निरूपित करते हुए कथन किया है कि यथार्थ में सामूहिक इच्छा एक कोरी कल्पना के अलावा और कुछ नहीं है।89 – फासिस्टों ने इस सिद्धान्त का प्रयोग राज्य की सर्वोपरि सत्ता का समर्थन करने के लिए किया। उनके अनुसार राज्य एक सर्वोच्च संस्था है तथा इसके अन्तर्गत कार्यरत विभिन्न निकाय इसके भाग हैं। अत: इन संस्थाओं को राज्य के निर्देशों के अनुसार कार्य करना चाहिये। इस प्रकार राज्य को निगमित निकायों पर दमनात्मक शक्ति प्राप्त है।

3. कोष्ठक सिद्धान्त (Bracket Theory)

इस सिद्धान्त के समर्थकों में जर्मन विधिशास्त्री इहरिंग (Ihering) का नाम उल्लेखनीय है। उनका मत है कि केवल निगम के सदस्य ही वास्तविक व्यक्ति हैं। निगम के रूप में सृजित ‘विधिक व्यक्तित्व’ एक कोष्ठक के समान है जो केवल सदस्यों के एकत्रित स्वरूप को प्रदर्शित करता है। निगम के माध्यम से उसके सदस्यों के सामान्य हितों को कार्यान्वित करने में सुविधा होती है।

कोष्ठक सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार जिस प्रकार किसी शब्द के दूसरे पर्यायवाची शब्द को कोष्टक में रखकर व्यक्त किया जाता है, ठीक उसी प्रकार विधि द्वारा विभिन्न व्यक्तियों के सामूहिक स्वरूप को ‘निगमन’ द्वारा अभिव्यक्त किया गया है और उनके अनेक रूपों को एकरूपता प्रदान की जाती है। अत: निगम का सृजन केवल सुविधा मात्र के लिए किया जाता है। अमरीकी विधिवेत्ता हाहफेल्ड (Hohfeld) ने इस सिद्धान्त की आलोचना की है।

इस सिद्धान्त को प्रतीकवादी सिद्धान्त (symbolic theory) भी कहा गया है। यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि केवल मानव प्राणी ही हितों के धारक हो सकते हैं तथा नि मन के क्लिष्ट विधि-संबंधों को सरलता से समझने के लिए प्रतीकवादी ही एकमात्र तरीका है।

4. रियायत का सिद्धान्त (Concession Theory)

इस सिद्धान्त के अनुसार विधिक व्यक्ति के रूप में निगम का महत्व इसलिए है क्योंकि इसे राज्य या विधि द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। अत: निगम का विधिक व्यक्तित्व राज्य द्वारा उसे दी गई एक प्रकार को रियायत (concession) है जिसे विधि स्वीकार करती है। उल्लेखनीय है कि परिकल्पना के सिद्धान्त का समर्थन करने वाले अधिकांश विधिवेत्ता इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं जिनमें सैविनी. सामण्ड तथा

89. तत्रैव.

डायसी90 आदि का नाम प्रमुख है। परन्तु इस सिद्धान्त के समर्थकों ने वर्तमान प्रगतिशील राष्ट्रों के संविधान दारा नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकारों तथा सुविधाओं की अनदेखी की है जिनके परिणामस्वरूप राज्य की विवेक-शक्ति पर समुचित निर्बन्ध लगे हैं। इस प्रवृत्ति का इस सिद्धान्त में कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मूल धारणा यह है कि निगमित निकायों को विधिक व्यक्तित्व विधि द्वारा रियायत के रूप में प्रदान किया गया है।

निगमन संबंधी रियायत के सिद्धांत के इस विचार की कि व्यक्तित्व राज्य द्वारा प्रदान किया जाता है, यथार्थवादी सिद्धांत के समर्थकों ने अलोचना की है।

5. प्रयोजन-सिद्धान्त (Purpose Theory)

इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रवर्तकों में विख्यात विधिवेत्ता ब्रिन्झ (Brinz), ई० आई० बेकर (E.I.Bekker) तथा एलॉइस और डेमीलियस (Alloys & Demilius) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। कि निगमित व्यक्तित्व सम्बन्धी प्रयोजन-सिद्धान्त (Purpose Theory) से आशय यह है कि निगमों को केवल कुछ प्रयोजनों के लिए ही व्यक्ति मान लिया जाता है। यह सिद्धान्त इस मूलभूत धारणा पर आधारित है कि अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की विषय-वस्तु केवल वास्तविक जीवित मनुष्य (living human being) ही हो सकते हैं। किसी निर्जीव वस्तु में व्यक्तित्व अधिरोपित करना उचित नहीं है। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार निगमों का व्यक्तित्व वास्तविक न होने के कारण उनमें कर्तव्यों तथा अधिकारों को धारण करने की क्षमता नहीं होती। यही कारण है कि वे केवल विषय-रहित अस्तित्व रखते हैं जिन्हें कुछ प्रयोजनों के लिए ‘विधिक व्यक्ति’ मान लिया जाता है।

निगमित व्यक्तित्व संबंधी प्रयोजन-सिद्धान्त (Purpose Theory) के मुख्य प्रवर्तक जर्मनी के विख्यात विधिवेत्ता ब्रिन्झ (Brinz) थे। जर्मनी में धर्मार्थ प्रतिष्ठानों (foundations for charitable purposes) जिन्हें ‘इस्टिफटंग (Instifiung) कहा जाता है, को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है। ये प्रतिष्ठान न्यास के समान होते हैं जो शैक्षणिक संस्थाओं का अनुरक्षण (रख-रखाव) करते हैं। इन धार्मिक प्रतिष्ठानों (फाउंडेशन) को विधिक व्यक्तित्व प्रदान करने का प्रयोजन यह है कि इनकी निधि (Funds) का वैधानिक अन्तरण सुविधापूर्वक किया जा सके। यह ठीक उसी प्रकार है जैसा कि रोमन विधि के अन्तर्गत ‘हेरिडिटास जेकेन्स’ (Heriditas jacens) को विधिक मान्यता प्राप्त है। जर्मन ‘इस्टिफटंग’ के अन्तर्गत धर्मार्थ निधि (Foundation) को वास्तविक व्यक्ति न होने पर भी विधिक व्यक्तित्व प्रदान किया गया है ताकि उसे अपने विधिक संव्यवहारों में कठिनाई न हो। उल्लेखनीय है कि भारत तथा इंग्लैण्ड में न्यास अथवा धर्मार्थ निधियों को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त नहीं है।

आलोचना

फ्रीडमैन के अनुसार निगमन के उपर्युक्त सिद्धान्तों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि इनमें से प्रायः सभी का केवल राजनीतिक महत्व रहा है तथा विधि संबंधी व्यावहारिक समस्याओं को हल करने के लिए इनके प्रयोग को गौण स्थान दिया जा रहा है।91 निगमित व्यक्तित्व संबंधी परिकल्पना का सिद्धान्त (fiction theory) मनुष्य की दार्शनिकता पर आधारित है जो उसकी प्रकृति का स्वाभाविक गुण है। अपने शुद्ध रूप में परिकल्पना का सिद्धान्त राजनीतिक प्रभाव से पूर्णतः मुक्त है। परन्तु परिकल्पना के सिद्धान्त से व्युत्पन्न ‘रियायत का सिद्धान्त’ आवश्यक रूप से एक राजनीतिक सिद्धान्त है जिसका प्रमुख उद्देश्य राज्य की सत्ता को बढ़ावा देते हुए उसे सामूहिक संगठनों पर पूर्ण नियंत्रण रखने की क्षमता प्रदान करना था। फ्रांस के विद्रोह के समय राज्य द्वारा इस सिद्धान्त का प्रयोग चर्च की सम्पत्ति का अधिग्रहण करने तथा संगठनों को पूर्णत: नियंत्रण में रखने के लिए किया गया था। इसी प्रकार ‘यथार्थता-सिद्धान्त’ में भी विधिक पहलू के बजाय राजनीतिक पहलू पर ही अधिक महत्व दिया गया है। यह राज्य के आवयविक सिद्धान्त (Organic Theory) की

90. डायसी : लॉ ऑफ दि कॉस्टिट्यूशन (3वाँ संस्करण), पृ० 87.

91. डायसी : लॉ ऑफ दि कान्स्टीट्यूशन (8वाँ संस्करण) पृ० 85.

व्याख्या पर आधारित है। इसे फासिस्टों का समर्थन प्राप्त था जिन्होंने राज्य को सभी संगठनों में श्रेष्ठतम माना है।92 यद्यपि गियर्के (Gierke) तथा जेलीनेक (Jellinek) आदि विधिवेत्ताओं ने राज्य की प्रभुता शक्ति तथा स्वतन्त्र संगठनों के अधिकारों में राज्य के स्वैच्छिक परिसीमन द्वारा संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न किया परन्तु उनके इन प्रयासों को विशेष सफलता न मिल सकी।

विधिक व्यक्तित्व के परिकल्पना सिद्धान्त तथा यथार्थता-सिद्धान्त में भेद के विषय में ग्रे ने कहा है कि निगमित निकाय काल्पनिक हो या वास्तविक ‘इच्छा’ पर आधारित, इसका कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है क्योंकि इन दोनों ही सिद्धान्तों के अधीन कर्त्तव्य राज्य द्वारा ही अधिरोपित किये गये हैं तथा जिन व्यक्तियों की वास्तविक इच्छा के प्रति ये कर्त्तव्य अधिरोपित किये जाते हैं, वे भी वही व्यक्ति होते हैं। ग्लेनवाइल विलियम ने भी यही विचार व्यक्त करते हुए इन दोनों सिद्धान्तों में कोई भेद नहीं माना है, तथापि वे यह स्वीकार करते हैं कि दोनों सिद्धान्तों के विधिक परिणाम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विधि के अन्तर्गत निगमन का पर्याप्त महत्व है क्योंकि इससे निगमों, कम्पनियों, संस्थाओं तथा व्यक्ति-समूहों को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त होता है जो इनके अधिकारों तथा दायित्वों का निर्धारण करने में सहायक होता है। विधिक व्यक्ति के नाते ये निर्जीव संस्थाएँ सम्पत्ति का प्रयोग तथा व्ययन आदि कर सकती हैं। अनिगमित संस्थाओं को यह सुविधा प्राप्त नहीं है क्योंकि उनका अस्तित्व उनके सदस्यों से भिन्न नहीं होता है। अतः स्पष्ट है कि विधि के अन्तर्गत निगमन का विधिक व्यक्ति के रूप में व्यावहारिक महत्व है।

निगमित निकायों के विधिक व्यक्तित्व के सम्बन्ध में हाहफेल्ड (Hohfeld) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त भी उल्लेखनीय है। उनके विचार से निगमित व्यक्तित्व की निर्मिति प्रक्रियात्मक नियमों द्वारा हुई है। इस प्रकार वे विधिक व्यक्तित्व के विषय में विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए इसे प्राकृतिक व्यक्ति से पूर्णतः भिन्न मानते हैं।

विख्यात विधिवेत्ता केल्सन ने विधिक व्यक्तित्व के प्रति विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा है कि विधिक-प्रयोजनों के लिए प्राकृतिक और विधिक व्यक्तियों के बीच कोई विषमता नहीं है। विधि के अन्तर्गत व्यक्तित्व का अभिप्राय अधिकारों तथा कर्तव्यों को स्थापित करना है। अत: व्यक्तियों के अधिकारों को सुविधापूर्वक अधिरोपित करने हेतु विधिक व्यक्तित्व का प्रक्रियात्मक रूप से प्रयोग किया जाना आवश्यक है।

विधिक व्यक्तित्व सम्बन्धी उपर्युक्त सिद्धान्तों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इनमें से किसी एक का अनुसरण करना युक्तिसंगत नहीं होगा। वस्तुतः ये सिद्धान्त या तो किसी राजनीतिक आदर्श को सुस्थापित करने के लिए प्रतिस्थापित किये गये हैं या फिर विधिक व्यक्तित्व सम्बन्धी दार्शनिक पहलू को दर्शाते हैं।

उल्लेखनीय है कि विधिक व्यक्तित्व संबंधी विभिन्न सिद्धान्तों के विषय में डॉ० सेठना ने कहा है कि निगम का अस्तित्व न तो पूर्णतः काल्पनिक है और न पूर्णतः वास्तविक, अपितु वह अंशत: काल्पनिक और अंशतः वास्तविक होता है। तथापि डॉ० सेठना के इस विचार का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है क्योंकि निगमित निकायों के अधिकारों एवं कर्तव्यों के निर्धारण में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता है।

विधिक व्यक्तित्व के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि भारत में निगमित निकाय को अनिगमित भागीदारी फर्म से भिन्न माना गया है। विधिक दष्टि से भागीदारी फर्म को व्यक्तित्व प्राप्त नहीं है। विधि के अन्तर्गत वह व्यक्तिगत सदस्यों का एक समूह मात्र है। जिस प्रकार किसी निगमित कंपनी के अंशधारियों को निकाय के विधिक व्यक्ति के रूप में संरक्षण प्राप्त होता है, वैसा भागीदारी फर्म के सदस्यों को प्राप्त नहीं है।

92. फ्रीडमैन : लीगल थ्योरी (5वाँ संस्करण), पृ० 557.

कम्पनी की सम्पत्ति उसकी स्वयं की संपत्ति होती है न कि उसके सदस्यों की। इसी प्रकार कंपनी के ऋण तथा के सदस्यों पर अधिरोपित नहीं किये जा सकते हैं। परन्तु भारतीय दण्ड संहिता93 के अन्तर्गत की परिभाषा में कम्पनी, संगठन या व्यक्तियों के समूह का समावेश है, भले ही वह निगमित हो अथवा न हो। 

कंपनी या निगमित निकाय की नागरिकता

यद्यपि कंपनी या निगमित निकाय को विधिक व्यक्ति माना गया है, परन्तु विधि के अन्तर्गत उन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त नहीं है भले ही इसमें कार्यरत सभी वास्तविक, व्यक्ति भारतीय नागरिक क्यों न हों। यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार कि कंपनी के सभी सदस्य विवाहित होने पर भी उस कंपनी को विवाहित नहीं माना जायेगा। आशय यह है कि कंपनी (या निगमित निकाय) के सदस्यों के व्यक्तित्व से कम्पनी का व्यक्तित्व सुभिन्न होता है। सदस्यों के एकत्रित रूप में जिस निगमित निकाय या कंपनी का गठन होता है, वह उन व्यक्तियों के वैयक्तिक अस्तित्व से पूर्णतः भिन्न होता है क्योंकि यह विधि का अमूर्तकरण (abstraction of law) होता है। अत: स्टेट ट्रेडिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया बनाम वाणिज्यिक कर अधिकारी94 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन रजिस्टर्ड कम्पनी को संविधान के अनुच्छेद 19 के प्रयोजनार्थ नागरिक नहीं माना जा सकता 5 और वह नागरिकों की भाँति मूलभूत अधिकार के प्रवर्तन के लिए वाद नहीं ला सकती है।

अनिगमित निकायों का विधिक व्यक्तित्व

उल्लेखनीय है कि निगमित और अनिगमित निकायों का विभेद विधिक व्यक्तित्व पर आधारित है। अनिगमितं निकायों को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त नहीं है क्योंकि उनका अस्तित्व इनके सदस्यों से भिन्न नहीं होता है। साझेदारी फर्म, क्लब, श्रमिक संघ आदि अनिगमित निकाय (unincorporated bodies) के उदाहरण हैं।

साझेदारी फर्म-साझेदारी फर्म को विधिक व्यक्ति नहीं माना गया है। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राजा बुलंद शुगर कम्पनी96 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि साझेदारी फर्म विधिक व्यक्ति होने के कारण कराधान के मामले में फर्म के विरुद्ध कार्यवाही किये बिना विवरणी के आधार पर व्यक्तिगत साझेदारी पर कर लगाया जा सकता है। आयकर आयुक्त मुंबई बनाम एम्पायर इस्टेट मुम्बई97 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी साझेदार की मृत्यु के परिणामस्वरूप, साझेदारी दस्तावेज में अन्यथा प्रावधान न होने की दशा में साझेदारी फर्म स्वयं विघटित हो जाती है। का

क्लब (Club)-किसी प्रायवेट सोसायटी या क्लब को निगमित व्यक्ति नहीं माना गया है। वाइज बनाम परपीच्युअल ट्रस्टीज98 के वाद में कहा गया कि यद्यपि क्लब की आंतरिक स्वायत्तता निगमित निकाय की भाँति ही होती है फिर भी उसके सदस्य प्रत्यक्ष या परोक्ष संविदात्मक प्रतिबद्धता की सीमा तक ही बाध्य होते हैं।

श्रमिक संघ (Trade Unions)_ श्रमिक संघों की वैधानिक स्थिति उनके पंजीकृत होने या न होने पर

– नभर करती है। एक रजिस्टर्ड ट्रेड युनियन को विधिक व्यक्ति माना गया है।99

केमिकल्स

93. भा० द० सं० की धारा 11.

 94. ए० आई० आर०1963 सु०को० 1811.

95. इण्डो चाइना स्टीम नेवीगेशन कम्पनी बनाम जसजीत सिंह, ए० आई० आर० 1963 सु० को० 295; बार बनाम कम्पनी लॉ बोर्ड, (1974)4 एस० सी० सी० 656 आदि के वाद.

96. (1979) 3 एस० सी० सी० 96.

97. (1996) 2 एस० सी० सी० 345.

98. 1903 AC339.

99. टाफवेल रेलवे बनाम अमल्पमैटेंड सोसाइटी आफ रेलवे सरवेन्ट्स, (1901) AC 426.

 

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