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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 28 Notes

 

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अध्याय 28 (Chapter 28)

विधिक व्यक्ति (Juristic Persons)

LLB Notes Study Material

विधि का प्रमुख उद्देश्य समाज में व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्धों को विनियमित करना है। विधि द्वारा व्यक्तियों के कार्यों (acts) तथा कार्य-लोपों (omissions) का निर्धारण ‘औचित्य’ के आधार पर किया जाता है। मनुष्य के ऐसे कार्य जिनका अन्य व्यक्तियों के हितों (interests) पर प्रतिकूल परिणाम नहीं पड़ता, विधि के अन्तर्गत उचित या विधिमान्य’ कार्य माने जाते हैं जबकि ऐसे कार्य जो अन्यों के हितों में बाधक होते हैं, विधि में अनुचित या ‘अवैध’ कार्य कहलाते हैं। समाज में मानव हितों के संरक्षण के लिए विधि द्वारा व्यक्ति पर कुछ कर्त्तव्य अधिरोपित किये गये हैं। कर्त्तव्यों के परिणामस्वरूप विधि के अन्तर्गत मानव अधिकारों को मान्यता प्राप्त है। सारांश यह है कि व्यक्ति के कार्यों की वैधता का निर्धारण, कर्त्तव्यों तथा अधिकारों के आधार पर ही किया जाता है। अनौचित्यपूर्ण ‘अवैध’ कार्य करने वाले व्यक्ति पर विधि द्वारा ‘दायित्व’ अधिरोपित किया जाता है जिसका प्रवर्तन विधिक शास्तियों (legal sanctions) द्वारा कराया जाता है। तात्पर्य यह है कि विधि का मुख्य कार्य मानव आचरण (human conduct) को नियंत्रित करने से सम्बन्धित होने के कारण विधिक व्यक्ति (legal persons) को विधि का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है।

विधिक व्यक्ति की संकल्पना की उत्पत्ति (Origin of the concept of juristic person) –

अंग्रेजी भाषा में ‘व्यक्ति’ के लिए ‘पर्सन’ (person) तथा ‘व्यक्तित्व’ के लिए ‘पर्मोनेलिटी’ (personality) शब्द प्रयुक्त होते हैं। पर्सन शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘पर्सेना’ (persona) से हुई है, जो यूनानी भाषा के ‘प्रोसोपोन’ शब्द का पर्यायवाची है। ‘प्रोसोपोन’ से यूनानियों का आशय उन मुखौटों से था जिनका प्रयोग नाटकों के पात्रों द्वारा देवता, नायक, खलनायक आदि की भूमिका खेलने के लिए किया जाता था। कालान्तर में इस शब्द का प्रयोग नाटक के पात्रों के द्वारा खेली जाने वाली भूमिका के अर्थ में किया जाने लगा जिसे बाद में विधिक कार्यवाहियों में पक्षकारों की भूमिका के लिए भी प्रयुक्त किया गया। लगभग छठी शताब्दी तक ‘पर्योना’ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया जाता रहा, परन्तु इसी समय बोथियस ने ‘पर्योना’ को ‘विचारशील प्राणी के व्यक्तित्व’ के रूप में परिभाषित किया जिसके परिणामस्वरूप इसके पहले अर्थ का प्रचलन समाप्त हो गया।

अनेक विधिवेत्ताओं ने ‘व्यक्ति’ (person) शब्द को केवल मानवों (human beings) के प्रति ही लागू किया है क्योंकि उनके अनुसार विधि का मूल उद्देश्य मानव-आचरणों को विनियमित करना तथा उनके हितों का संरक्षण करना है। अतः केवल मनुष्य ही ‘विधिक व्यक्ति’ (juristic person) हो सकते हैं। परन्तु उल्लेखनीय है कि विधि के अन्तर्गत ‘व्यक्ति’ शब्द के अर्थ को केवल मानवों तक ही सीमित रखना उचित नहीं है; क्योंकि देवता, मूर्ति2, निगमित निकाय आदि ऐसी अनेक निर्जीव संस्थायें हैं, जो वास्तविक मनुष्य न होते हुए भी विधिक दृष्टि से, ‘व्यक्ति’ माने जाते हैं, अर्थात् जिन्हें विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है। इसके ठीक विपरीत, कुछ ऐसे वास्तविक व्यक्ति भी हो सकते हैं जिन्हें विधि के अन्तर्गत विधिक व्यक्तित्व प्राप्त नहीं है जसे-दास-प्रथा के प्रचलन के समय दासों (slaves) को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त नहीं था क्योंकि उनका जास्तत्व निजी वस्तुओं के समान था तथा ऐसी मान्यता थी कि उनमें अधिकार तथा दायित्व धारण करने की क्षमता नहीं होती।

1. विधिक दृष्टि से ‘कार्य’ में ‘लोप’ का समावेश भी है (legally speaking ‘acts’ also include omissions). प्रमथनाथ मलिक बनाम प्रद्युम्न कुमार मलिक, (1925) इण्डियन अपील्स 245.

2.  प्रमथनाथ मलिक बनाम प्रधुम्न कुमार मलिक, (1825) इंडियन अपील्स 245,

3. Soloman V. Soloman. (1897) A C 22.

इसी प्रकार हिन्दू विधि के अन्तर्गत वानप्रस्थी संन्यासी के सभी सांपत्तिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं तथा उसकी सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को अन्तरित हो जाती है मानो कि उसका पूर्ण अस्तित्व ही समाप्त हो गया हो।

इसमें सन्देह नहीं है कि समाज की इकाई के नाते मानव का अस्तित्व समाज और विधि, दोनों से पूर्ववर्ती है और चूंकि विधियों की निर्मिति मानवों द्वारा और उनके स्वयं के लिये की जाती है, मानवों के परस्पर विधिक सम्बन्धों को विधि द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है।

अत: एक जीवित व्यक्ति होने के नाते मानवों को विभिन्न अधिकार, स्वत्व, उन्मुक्तियां आदि प्रदान की गयी हैं और साथ ही उन पर कतिपय दायित्व तथा कर्तव्य अधिरोपित किये गये हैं।

तथापि सामाजिक प्रगति एवं विकास के साथ यह अनुभव किया गया है कि अधिकार और कर्तव्यों को केवल जीवित व्यक्तियों (मानवों) तक ही सीमित रखने से अनेक जटिलतायें उत्पन्न होने की सम्भावनायें रहती हैं जिनका निवारण कतिपय निर्जीव निकायों या संस्थाओं को कृत्रिम व्यक्तित्व प्रदान करके किया जा सकता है। इसी को ध्यान में रखते हुये विधिशास्त्र में कृत्रिम व्यक्तित्व या विधिक व्यक्तित्व की संकल्पना का समावेश किया गया।

विधिक व्यक्तित्व विधि की परिकल्पना मात्र है | (Legal Personality is a fiction of Law)

कतिपय निर्जीव निकायों तथा बेजान वस्तुओं (inanimate objects) को कृत्रिम व्यक्तित्व प्रदान किया जाना विधि की एक परिकल्पना मात्र (fiction of law) है जिसका कि इन्हें विधिक व्यक्ति मानते हुये इनके अधिकार और दायित्वों के निर्धारण हेतु प्रयोग किया जाता है। विधिक परिकल्पना (legal fiction) से आशय है कि कुछ ऐसा वास्तव में सत्य नहीं है, लेकिन विधि उसे सत्य उपधारित (presume) करते हुये सत्य के रूप में स्वीकार करती है। उदाहरणार्थ एक कम्पनी, निगमित निकाय या देवमूर्ति वास्तव में प्राकृतिक व्यक्ति नहीं होते हुये भी विधि के प्रयोजनों के लिये इन्हें कृत्रिम व्यक्ति या विधिक व्यक्ति माना गया है ताकि उनके अधिकारों, कर्तव्यों, दायित्वों, उन्मुक्तियों आदि का निर्धारण किया जा सके।

व्यक्तिशब्द की विधिक परिभाषा (Legal definition of the term ‘person’)

विधिवेत्ताओं ने विधि के अन्तर्गत ‘विधिक व्यक्ति’ की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की है। इनमें कुछ विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषा विशेष उल्लेखनीय है

सामण्ड के अनुसार विधिक दृष्टि से ‘व्यक्ति’ से तात्पर्य “किसी ऐसे प्राणी से है जिसे विधि के अन्तर्गत अधिकार या कर्त्तव्य धारण करने योग्य समझा जाता है।” अत: जो प्राणी अधिकार और कर्त्तव्य धारण करने की क्षमता रखते हैं, उन्हें विधि के अन्तर्गत ‘व्यक्ति’ (person) कहा जायेगा भले ही वे वास्तव में मनुष्य न हों। सारांश यह है कि अधिकार और कर्त्तव्य से युक्त अस्तित्व को विधिक व्यक्तित्व (legal personality) माना जाता है, चाहे वह वास्तविक मनुष्य हो या न हो।

ग्रे (Gray) के अनुसार ‘व्यक्ति’ एक ऐसा अस्तित्व (entity) है जिस पर कर्त्तव्य और अधिकार अधिरोपित किये जा सकते हैं। ग्रे ने सामण्ड के इस विचार से सहमति व्यक्त की है कि विधि के अन्तर्गत मानव-शरीर धारण करने वाले प्रत्येक मनुष्य को व्यक्तित्व (personality) प्राप्त नहीं होता है, किन्तु जहाँ एक

ओर सामण्ड अधिकार या कर्त्तव्यों में से केवल एक के अस्तित्व को ही विधिक व्यक्तित्व के लिए पर्याप्त मानते हैं. ग्रे इन दोनों के अस्तित्व को आवश्यक समझते हैं। उल्लेखनीय है कि ग्रे द्वारा दी गई ‘व्यक्ति’ की परिभाषा सामण्ड की परिभाषा से कहीं अधिक व्यापक और तर्कसंगत प्रतीत होती है।

ऑस्टिन (Austin) ने ‘व्यक्ति’ की परिभाषा देते हुए कहा है कि अवस्था अथवा प्रास्थिति से निहित मनुष्य (human being invested with condition or status) ही विधिक दृष्टि से व्यक्ति कहलाता है।

4. A person is any being whom the law regards as capable of rights or duties, any being that is so is a person whether human being or not and no being that is not so capable is a person even though he be a man.”-Salmond, Jurisprudence (12th ed.). 200

इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जो मनुष्य अधिकार नहीं रखते, वे व्यक्ति नहीं अपितु ‘वस्तु’ कहे जाते हैं। ऑस्टिन के अनुसार व्यक्ति ऐसे मनुष्य होते हैं जो अधिकारों से युक्त हों तथा कर्त्तव्यों का विषय हों। मन के मतानुसार विधिक व्यक्तित्व (1) मनुष्य तथा (2) मनुष्य की प्रास्थिति (status) की ओर संकेत करता है।

जी० डब्ल्यू० पैटन के विचार से विधिक व्यक्तित्व एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा कुछ ऐसी इकाइयों की रचना होती है जिनमें अधिकार निहित किये जा सकें। उन्होंने विधिक व्यक्ति को एक कृत्रिम व्यक्ति निरूपित किया है जो उन सभी अधिकारों एवं कर्तव्यों को धारण करता है जिन्हें विधि सामान्य व्यक्ति के लिए मान्यता प्रदान करता है।

तात्पर्य यह है कि ‘विधिक व्यक्ति’ मानव ही हो यह आवश्यक नहीं है। वह कोई वस्तु, सम्पत्ति-पुंज (mass of property) अथवा मानव-समूह भी हो सकती है जिसे विधि के अन्तर्गत व्यक्तित्व उपारोपित (attributed) किया गया है। दूसरे शब्दों में, ‘विधिक व्यक्ति’ के अन्तर्गत उन वस्तुओं, सम्पत्ति-पुंज या संस्थाओं का समावेश है जिन्हें विधि के अन्तर्गत विधिक प्रास्थिति प्रदान की गई है और जिनके विधि की दष्टि से प्राकृतिक व्यक्ति की भाँति अधिकार और कर्त्तव्य निहित होते हैं।

व्यक्ति के प्रकार

विधि के अन्तर्गत ‘व्यक्ति’ दो प्रकार के होते हैं-(1) प्राकृतिक व्यक्ति (Natural Persons) तथा कृत्रिम व्यक्ति (Artificial Persons)

विधिशास्त्र में प्राकृतिक व्यक्तियों (जीवित मानव प्राणी) के अलावा अन्य अस्तित्वों (entities) को भी ‘व्यक्ति’ के रूप में स्वीकार किया गया है। ऐसे अस्तित्व जो जीवित प्राणी न होते हुए विधिक प्रयोजनों के लिए ‘व्यक्ति’ माने जाते हैं, ‘कृत्रिम व्यक्ति’ कहलाते हैं।

1. प्राकृतिक व्यक्ति (Natural persons or Human beings)

विधिक प्रयोजनों के लिए मुख्यतः प्राकृतिक व्यक्तियों पर भी विचार किया जाता है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति में कुछ अधिकार निहित होते हैं अत: उसे कर्त्तव्याधीन रखा जा सकता है; विधि की दृष्टि से उसे व्यक्ति माना जाना स्वाभाविक ही है। परन्तु इस संदर्भ में अजन्मे बालक (unborn child) तथा मृत व्यक्ति की विधिक स्थिति पर पृथक् से विचार किया जाना आवश्यक है।

अजन्मे बालक की विधिक स्थिति-अजन्मे शिशुओं को विधि के अन्तर्गत ‘व्यक्ति’ माना जाए अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में न्यायविद् एकमत नहीं हैं। एक केनेडियन वाद में अजन्मे बालक को जन्म के पश्चात् उसकी शारीरिक विकृति (physical deformity) के लिए इस आधार पर क्षतिपूर्ति दिलाई गई थी कि उसकी विकृति का कारण प्रतिवादी की असावधानी (negligence) थी, जो प्रतिवादी ने उस बालक की माता के प्रति उस समय की थी जब वह बालक माता के गर्भ में था। परन्तु वाकर बनाम ग्रट नार्थ रेल कं० ऑफ आयरलैण्ड के आइरिश वाद में अजन्मे बालक को हई क्षति के लिए दावा इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि क्षति का मूल कारण गर्भस्थिति में हुई विकृति ही था या कोई अन्य। तात्पर्य यह है कि पहले वाद में अजन्मे बालक को पाचक अन्तर्गत ‘व्यक्ति’ के रूप में स्वीकार किया गया था जबकि आइरिश वाद में उसे विधिक व्यक्तित्व माना गया। तथापि अधिकांश देशों की विधियों के अन्तर्गत अजन्मे शिशु को ‘व्यक्ति के रूप में मान्य किया गया है।

कण्डाइज ट्रांसपोर्ट लि० बनाम ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन के वाद में गर्भस्थ शिशु (जिसका हा हुआ है) को सिविल दावे के सन्दर्भ में विधिक व्यक्ति माना गया है और जन्म के पश्चात् वह

5. मॉन्ट्रियल ट्रामवेज कम्पनी बनाम लिवाइन, (1933) 4 DLR 337.

6. (1890) 28 एल० आर० (आयरलैण्ड), 699.

7. (1962) 2 क्यू० बी० 173.

गर्भस्थ अवस्था में उसे या उसकी माता को कारित क्षति के लिये सिविल वाद संस्थित करके क्षतिपूर्ति का दावा कर सकेगा। गर्भस्थ शिशु का जन्म होने के पश्चात् वह उसे कारित शारीरिक क्षति के लिये घातक दुर्घटना अधिनियम, 1976 (Fatal Accidents Act, 1976) के अधीन प्रतिकर (Compensation) के लिये दावा दाखिल कर सकता है।

सम्पत्ति विधि के अन्तर्गत अजन्मे गर्भस्थ बालक को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है तथा वह सम्पत्ति का स्वामी हो सकता है। परन्तु सम्पत्ति पर उसका समाश्रित स्वामित्व (contingent ownership) होगा क्योंकि सम्भव है कि वह जीवित पैदा ही न हो, अर्थात् गर्भ में उसकी मृत्यु हो जाये या वह मृत पैदा हो। आपराधिक विधि के अनुसार किसी ऐसे गर्भस्थ बालक की जिसका जीवित जन्म लेना प्रायः सुनिश्चित है, गर्भ में मृत्यु कारित करना एक दण्डनीय अपराध है।10 इसी प्रकार जीवित पैदा हो रहे शिशु के प्रति ऐसा कुछ करना जिससे वह जीवित पैदा न हो, हत्या का अपराध होगा।।1

विधि में अजन्मे बालक को व्यक्ति के रूप में स्वीकार किये जाने का एक प्रबल प्रमाण यह है कि पुरातन काल में जब फाँसी की सजा प्रचलित थी, तो गर्भवती अपराधिनी को उस समय तक फाँसी पर नहीं लटकाया जाता था जब तक कि उसकी प्रसूति न हो जाए। परन्तु इंग्लैण्ड में ‘मृत्यु-दण्ड’ (प्रत्याशी माताएँ) अधिनियम, 1931 (Sentence of Death (Expectant Mothers) Act, 1931) पारित होने के परिणामस्वरूप ऐसी माताओं को मृत्यु-दण्ड के स्थान पर आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाने लगा।

हिन्दू विधि में भी सम्पत्ति बंटवारे (partition) के समय अजन्मे बालक के हिस्से को अछूता छोड़ दिया जाता है ताकि जन्म लेने पर वह उस हिस्से को प्राप्त कर सके। अजन्मे बालक के हिस्से को ध्यान में न रखकर किया गया बँटवारा विधि के अन्तर्गत अवैध होगा।

पैटन के अनुसार, “अजन्मा बालक विधिक अस्तित्व नहीं रखता क्योंकि वह अधिकारों से रहित है।”12 उनके विचार से शिशु जीवित पैदा होने पर ही व्यक्तित्व प्राप्त करता है। उसे पैदा हुआ तभी माना जायेगा जब वह माता के शरीर से पूर्णतया निकल कर अलग हो चुका हो। परन्तु निवेदित है कि अनेक विधिक उपबन्धों के आधार पर यह पूर्णतः स्थापित हो चुका है कि केवल अजन्मा बालक ही नहीं, अपितु गर्भ में आये हुए शिशुओं को भी विधि के अन्तर्गत ‘व्यक्ति’ माना जाता है।13

वास्तविक मनुष्यों के विधिक व्यक्तित्व के संदर्भ में कुछ विशिष्ट प्रकार के व्यक्तियों की स्थिति पर विचार किया जाना भी उचित होगा। एक समय था जब देश से निष्कासित व्यक्तियों को विधि के अन्तर्गत व्यक्ति नहीं माना जाता था। अत: उन्हें मार डालना हत्या का अपराध नहीं माना जाता था। वैवाहिक सूत्र में बँधे पति-पत्नी भी कानून की दृष्टि में एक ही व्यक्ति माने जाते थे। इसका शाब्दिक अर्थ यह हुआ कि यदि पति द्वारा पत्नी की या पत्नी द्वारा पति की हत्या की गई हो, तो यह हत्या का अपराध न होकर आत्महत्या (suicide) का कृत्य माना जाना चाहिये था।

मृत मनुष्यों की विधिक स्थिति

डायस एण्ड ह्यूज के अनुसार मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् विधि को मृतक में कोई रुचि नहीं रहती 14 अत: मत मनुष्यों को विधिक दृष्टि से व्यक्ति नहीं माना जाता है क्योंकि उनके न तो अधिकार हो सकते हैं

8. विधिक प्रयोजनों के लिए अजन्मे बालक को कल्पित व्यक्ति (fictitious person) माना गया है, तथापि अजन्मे बालक के अधिकार जीवित व्यक्ति के रूप में उसके जन्म लेने की शर्त पर निर्भर करते हैं।

9. en ventre sa mere.

10. भारतीय दण्ड संहिता की धारा 312, 313 तथा 316.

11. आर बनाम शेफर्ड, (1919) 2 KB 125.

12. पैटन जी० डब्ल्यू० : ए टेक्स्ट बुक आफ ज्यूरिसप्रूडेन्स, पृ० 252.

13. भारत के सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 14 जो शाश्वतता के विरुद्ध नियम (Rule against perpetuity) से सम्बद्ध है.

14. डायस एण्ड ह्यसेज : ज्यूरिसप्रूडेन्स (1957) पृ० 285.

और न ही दायित्व। मनुष्य की मृत्यु के साथ उसका सम्पूर्ण विधिक अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है, तथापि कुछ प्रयोजनों के लिए मृत व्यक्ति का विधिक अस्तित्व बना रहता है।

उत्तराधिकार सम्बन्धी विधि के अन्तर्गत मृतक की सम्पत्ति का व्ययन (disposition of property) उसके द्वारा वसीयत में दी गई व्यवस्था के अनुसार ही किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि न्यायालय मृतक की इच्छाओं के अनुसार ही उसकी संपत्ति का व्ययन (disposal) करता है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि विधि द्वारा मृतक के इस अधिकार को मान्य किया जाना उसे विधिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार करने का परिचायक है। मृतक के संपत्ति-व्ययन के अधिकार को मान्यता देना वस्तुत: उसके उत्तराधिकारियों के अधिकार को मान्यता देना है क्योंकि सम्पत्ति का प्रयोग उसके उत्तराधिकारी ही करेंगे न कि मृत व्यक्ति स्वयं।

मानव के मृत शरीर (शव) को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं हैं तथापि विधि यह अपेक्षा करता है कि मृत व्यक्ति के शव का अन्तिम संस्कार ससम्मान शालीनता से किया जाय।15 भारतीय दण्ड संहिता की धारा 297 के अनुसार किसी व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुँचाने या किसी व्यक्ति के धर्म को अपमानित करने के आशय से की गई शव की अवहेलना दण्डनीय अपराध है। परन्तु निवेदित है कि मृत शरीर की अवहेलना को अपराध माना जाना मृतक के किन्हीं अधिकारों या कर्त्तव्यों का द्योतक नहीं है अपितु समाज के हितों को संरक्षित किये जाने का प्रतीक है।

कुछ सीमा तक कानून मृत व्यक्ति की ख्याति को संरक्षण देता है। दण्ड विधि के अन्तर्गत मृत व्यक्ति के विषय में अपमान-लेख प्रकाशित करना दण्डनीय अपराध है।16 इसी प्रकार मृत व्यक्ति पर किसी प्रकार का लांछन लगाना ‘मानहानि’ के लिए अभियोज्य होगा यदि इसके कारण मृत व्यक्ति के जीवित सगे-सम्बन्धी या परिचितों की प्रतिष्ठा पर आघात पहुँचता हो अथवा उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचती हो।17 का

फोस्टर बनाम डाड18 के वाद में विनिश्चित किया गया कि कब्र में दफनाये गये मृत मानव शव को अशिष्टता एवं अभद्रतापूर्वक खोद कर बाहर निकालना तथा उसे अपमानित करना, आपराधिक कृत्य है। इसी प्रकार मानव अंग प्रतिरोपण अधिनियम, 1955 (Transplantation of Human Organs Act, 1955) के अन्तर्गत मृत शरीर से किसी अंग को हटाना निषिद्ध है जब तक कि मृतक ने स्वयं इसकी पूर्व-सहमति न दी हो या अंगदान न किया हो या उसकी ओर से प्राधिकृत व्यक्ति की अनुमति न ले ली गई हो। पंडित परमानन्द कात्रा बनाम भारत संघl9 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि गरिमामय शिष्टतापूर्ण व्यवहार का अधिकार केवल जीवित व्यक्ति को ही प्राप्त नहीं है, अपितु मृत शरीर को भी प्राप्त है। अत: फांसी की सजा निष्पादित कर दी जाने के पश्चात् चिकित्सक द्वारा मृत घोषित कर दिये जाने के बाद शव को अधिक समय तक उपेक्षित नहीं छोड़ा जाना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय ने आश्रय अधिकार अभियान बनाम भारत संघ20 के वाद में विनिश्चित किया कि यदि किसी गृहहीन और अनाश्रित व्यक्ति का मृत शरीर सड़क पर पड़ा पाया जाए, तो उसे भी उसके धार्मिक परंपरा के अनुसार शालीनता से दफनाये जाने का अधिकार प्राप्त है।

पशुओं की विधिक स्थिति

इसमें संदेह नहीं कि पशु जीवित मनुष्यों की श्रेणी में नहीं आते, परन्तु प्राचीन काल में इन्हें कुछ प्रयोजनों के लिए व्यक्तियों के समतुल्य माना जाता था। इस कथन की पुष्टि में प्राचीन यहदी विधि का एक

15. R. v. Stewart, (1840) 12 Ad. & El.773.

16. धारा 499, भा० दं० सं०.

17. R. V. Ensor, (1887) 3 TLR 366.

18. (1867) LR 3 QB 77.

19. (1995) 3 एस० सी० सी० 248.

20. ए० आई० आर० 2002 सु० को० 554.

उदाहरण उद्धृत किया जा सकता है। इस विधि के अनुसार यदि कोई बैल अपने सींगों से किसी पुरुष या स्त्री को मार डालता था, तो उस बैल की पत्थर मारकर हत्या कर दी जाती थी तथा उसका मांस खाना निषिद्ध माना जाता था 21 इसी प्रकार जर्मनी में एक बार एक मुर्गे के विरुद्ध यह अभियोग चलाया गया कि वह बुरी तरह से बाँग देता है। उसे विधि के अनुसार न्यायालय में लाकर प्रतिवादी के कटघरे में खड़ा किया गया और उसके वकील ने उसे निर्दोष सिद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया। परन्तु वह इस पंखधारी मुवक्किल को बचाने में सफल न हो सका। परिणामस्वरूप मुर्गे को मृत्युदण्ड दिया गया। प्राचीन यूनानी विधि में भी वृक्षों या जानवरों को मनुष्यों के प्रति अपराध करने के लिए दण्डित किये जाने के उदाहरण मिलते हैं।

डॉ० सदरलैण्ड ने अपने प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनॉलाजी’ नामक ग्रंथ में मध्यकालीन विधियों में पशुओं के विरुद्ध न्यायिक कार्यवाही किये जाने की रोचक घटना का वर्णन किया। सन् 1519 ई० में कुछ चूहों ने एक किसान के उद्यान को भारी नुकसान पहुँचाया। अतः इन चूहों के विरुद्ध वाद संस्थित किया गया तथा एक वकील ने इनकी ओर से पैरवी की। चूहों की प्रतिरक्षा में वकील ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि यद्यपि इनके कारण किसान को भारी नुकसान हुआ है परन्तु उन्होंने उस भूमि में असंख्य छिद्र करके उसे अधिक उर्वर बना दिया है। न्यायालय ने बचाव-पक्ष के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए इन चूहों को देश से निष्कासन का दण्ड दिया, लेकिन साथ ही यह निर्देश भी दिया कि निष्कासन के समय इन चूहों की शारीरिक सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाए तथा यह सुनिश्चित किया जाए कि इन्हें कुत्ते, बाज आदि न खाने पायें। यहाँ तक कि न्यायालय ने गर्भिणी चुहियों के प्रति उदारता दर्शाते हुए इन्हें एक माह तक उसी स्थान में रहने की अनुमति भी दे दी।22

आधुनिक विधि व्यवस्थाओं में पशुओं को न तो प्राकृतिक व्यक्तित्व प्राप्त है और न काल्पनिक व्यक्तित्व। अत: वे अधिकारों या कर्त्तव्यों को धारण करने की क्षमता नहीं रखते। पशओं में विचार शक्ति न होने के कारण उनके कृत्य न तो विधिपूर्ण हो सकते हैं और न विधि-विरुद्ध । जानवरों के कारण हुए नुकसान के लिए उनके स्वामी को जिम्मेदार ठहराया जाता है। स्वामी पर यह दायित्व प्रतिनिहित दायित्व (vicarious liability) के आधार पर नहीं होता बल्कि इस कारण होता है कि स्वामी ने अपने जानवरों को नियंत्रण में रखने में असावधानी बरती। जिस प्रकार जानवर कर्तव्यों से मुक्त हैं उसी प्रकार वे अधिकारों से युक्त भी नहीं हो सकते। विधि मनुष्यों पर यह कर्त्तव्य आरोपित करती है कि वे पशुओं के प्रति क्रूरता का व्यवहार न करें। परन्तु इसका आशय यह नहीं कि मनुष्यों के इस कर्त्तव्य का सहवर्ती अधिकार पशुओं में निहित है। ग्रे (Gray) का मत है कि यदि पशुओं के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार न करने के कर्त्तव्य को पशओं में निहित अधिकार के समान माना जाए, तो लोक स्मारकों को क्षति न पहुँचाने के कर्त्तव्य को स्मारकों में निहित एक अधिकार के रूप में मान्य करना होगा, जो निस्संदेह ही हास्यास्पद होगा। सारांश यह कि विधिक दृष्टि से पशुओं के प्रति मनुष्यों के कर्त्तव्य वस्तुतः स्वयं समाज के प्रति कर्त्तव्य हैं। अत: पशुओं के अधिकार और कर्तव्यों को विधि का विषय नहीं माना जा सकता है।

इस सन्दर्भ में पुलिस द्वारा अपराधियों का पता लगाने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले प्रशिक्षित श्वानों की स्थिति कुछ संदिग्धता उत्पन्न कर सकती है। उल्लेखनीय है कि इन पुलिस श्वानों (police-dogs) को बाकायदा पुलिस का कर्मचारी माना जाता है तथा इन्हें नियमित मासिक वेतन तथा खाने-पीने की सुविधाएँ आदि उपलब्ध कराई जाती हैं। परन्तु निवेदित है कि मात्र इन श्वानों की साक्ष्य के आधार पर किसी व्यक्ति को अपराधी मानकर दण्डित नहीं किया जाता जब तक कि अन्य संपोषक साक्ष्यों के आधार पर उसके विरुद्ध अपराध सिद्ध नहीं हो जाता। इसका कारण यह है कि इन प्रशिक्षित कुत्तों का कूट-परीक्षण (crossexamination) संभव नहीं है, अतः विधि उन्हें व्यक्ति की साक्ष्य से भिन्न मानती है।23 इसलिए इन्हें विधिक व्यक्ति नहीं माना जा सकता है।

21. सदर लैण्ड : प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनालॉजी, पृ० 44.

22. तत्रैव

23. डॉ० परांजपे एन० व्ही० : अपराधशास्त्र एवं दण्ड प्रशासन (14वां संस्करण 2009) पृ० 339.

इस संदर्भ में केरल उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा दिनांक 6 जून 2000 को निर्णीत पशुओं के अधिकारों से संबंधित वाद का उल्लेख करना समीचीन होगा। भारत सरकार ने अक्टूबर, 1998 की एक अधिसूचना द्वारा सर्कसों में बाघ, शेर, भालू, चीते, बंदर आदि के प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन पर रोक लगा दी। इस अधिसूचना से व्यथित होकर जम्बो सर्कस के दो सौ से अधिक कर्मचारियों ने केरल उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी। न्यायालय के न्यायमूर्ति के० नारायन कुरूप एवं के० वी० संकरनारायणन द्वय की खंडपीठ ने सर्कस कर्मियों की याचिका को खारिज करते हुए अभिकथन किया

“यदि मानव मूलभूत अधिकारों के हकदार हैं, तो पशु क्यों न हों? हमारे सुविचार से विधिक अधिकार मानव के लिए अनन्य रूप से रक्षित नहीं होने चाहिए तथा मानवों और मानवेतर प्राणियों के बीच की सघन दीवार को ध्वस्त करके विधिक अधिकारों का विस्तार मानवेतर प्राणियों के प्रति भी करना होगा। वर्तमान में विधि वन्य प्राणियों तथा समाप्ति के संकट में पड़ी अन्य प्रजातियों को संरक्षण देती है, लेकिन पशु अद्यापि अधिकारों से वंचित हैं। यह अराजकता है जिसे आवश्यक रूप से बदलना होगा।”

न्यायमूर्ति के० नारायन कुरूप ने अभिमत प्रकट किया कि “अपने मित्रवत पशुओं के प्रति दयालुता प्रदर्शित करना हमारा मूल कर्त्तव्य मात्र नहीं है अपितु उनके अधिकारों को मान्यता एवं संरक्षण भी प्रदान करना चाहिए।”24

प्रास्थिति और सामर्थ्य में अन्तर (Distinction between Status and Capacity)

विधिक व्यक्ति की संकल्पना के संदर्भ में व्यक्ति की प्रास्थिति तथा उसके सामर्थ्य में भेद जानना आवश्यक है। प्रास्थिति से आशय व्यक्ति की हैसियत’ से है जो व्यक्ति की साम्पत्तिक स्थिति को अपवर्जित कर उसकी विधिक वैयक्तिक दशा प्रदर्शित करती है। डॉ० ऐलन के अनुसार ‘हैसियत’ को किसी समूह की सदस्यता के तथ्य या दशा के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, प्रास्थिति एक दशा है जो किसी वर्ग या समूह की सदस्यता के कारण उत्पन्न होती है जबकि सामर्थ्य किसी व्यक्ति के उन अधिकारों और शक्तियों को प्रदर्शित करता है, जो उसे किसी विशिष्ट पद पर होने के कारण प्राप्त हैं।

दोहरा व्यक्तित्व (Double Personality)

सामण्ड ने मनुष्य के दोहरे व्यक्तित्व को दोहरे सामर्थ्य से भिन्न मानते हुए कहा है कि मनुष्य विभिन्न सामर्थ्यो (different capacities) में कार्य करता है किन्तु इससे उसका व्यक्तित्व एक ही रहता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी शासकीय हैसियत से कार्य करता है तथा दूसरा कार्य अपनी निजी हैसियत से करता है, तो इसका आशय यह होगा कि वह दोहरे सामर्थ्य में कार्य कर रहा है किन्तु उसे दोहरा व्यक्तित्व (double personality) प्राप्त नहीं होगा, अर्थात् विधि की दृष्टि में वह एक ही व्यक्ति माना जायेगा। उदाहरण के लिए, किसी कम्पनी का निदेशक (Director) किसी न्यास का न्यासी (trustee) भी हो सकता है, अत: वह दो भिन्न सामर्थ्य रखता है किन्तु उसका व्यक्तित्व एक ही रहेगा। इंग्लिश विधि में दोहरे व्यक्तित्व को मान्यता नहीं दी गई है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा दो सामों में कार्य किया जाना उसे स्वयं से ‘विधिक अन्तरण’ (legal transactions) करने का अधिकार नहीं दिलाता है, अर्थात् वह स्वयं को ही सम्पत्ति का अन्तरण नहीं कर सकता या स्वयं अपने से संविदा नहीं कर सकता।25 इसी प्रकार वह स्वयं के विरुद्ध वाद संस्थित नहीं कर सकता क्योंकि वह किसी वाद में एक ही समय वादी और प्रतिवादी नहीं हो सकता है।6। सामण्ड के अनुसार व्यक्ति को विधि में दोहरा व्यक्तित्व प्राप्त न होने के कारण व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं27 किन्तु इन अपवादों की संख्या नगण्य होने के कारण इस नियम को यथावत् बनाये रखा गया है।28

24. आनन्द पार्थसारथी : ‘एनीमल्स एण्ड राइटस’ फ्रंटलाइन ग्रंथ 17. संख्या 16. प० 57 दिनांक 5 अगस्त, 2000

25. Napier v..William, (1911) 1 Ch. 391.2

26. Neale v. Turton, (1827) 4 Bing 149 (151).

27. उदाहरण के लिए यदि लेनदार (creditor) स्वयं ही अपने ऋणी व्यक्ति का निष्पादक (executor) नियुक्त हा, ता वह अपने ऋण के लिए स्वयं के विरुद्ध वाद संस्थित नहीं कर सकता है.

28. सामण्ड : ज्यूरिसप्रूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 306.

कृत्रिम या कल्पित व्यक्ति (Artificial or Fictitious Persons)

कृत्रिम व्यक्ति उन निर्जीव अस्तित्वों (non-living entities) को कहते हैं जो जीवित प्राणी न होते हुए भी विधिक व्यक्ति माने गये हैं। प्राचीन रोमन विधि में सुखाचार (easement) के अधिकार से सम्बन्धित अधिभावी दाय (dominant heritage) तथा अधिसेवी दाय (servient heritage) की भूमियों को विधिक व्यक्ति माना गया था यद्यपि भूमि निर्जीव वस्तु होती है।

सामण्ड के अनुसार विधिक व्यक्ति से अभिप्राय मानव के अलावा अन्य किसी ऐसी इकाई से है जिसे विधि के अन्तर्गत व्यक्तित्व प्राप्त है। विधिक व्यक्तियों का सृजन करने में विधि किसी वास्तविक वस्तु का काल्पनिक मानवीकरण करती है। अतः विधिक व्यक्ति एक ऐसा कृत्रिम या काल्पनिक व्यक्ति होता है जो कानून की दृष्टि से व्यक्ति है, परन्तु तथ्यतः वह वास्तविक मनुष्य नहीं है। विधिक व्यक्ति को काल्पनिक, कृत्रिम अथवा विधिक व्यक्ति (juridicial person) भी कहा जाता है।

उपर्युक्त विवचेन से यह स्पष्ट है कि विधिक व्यक्ति में विधि द्वारा किसी वस्तु का मानवीकरण होता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक मानवीकरण को विधिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया ही जाए। उदाहरण के लिए फर्म के भागीदारों को संयुक्त रूप से फर्म के नाम से संबोधित किया जाता है, इसी प्रकार न्यायाधीशों को न्यायालय या पीठ कहकर सम्बोधित करने की परिपाटी है किन्तु इन्हें विधिक व्यक्तित्व तब तक नहीं मिलता जब तक कि विधि उन्हें प्रतिनिधित्व करने वाले अस्तित्व के रूप में स्वीकार नहीं कर लेती।

विधिक व्यक्ति के प्रकार (Kinds of Legal Persons)

हिबर्ट के अनुसार विधिक व्यक्ति तीन प्रकार के हो सकते हैं–

(i) कुछ निर्जीव वस्तुओं को जिन्हें अधिकार प्राप्त है अथवा जो कर्तव्यों के अधीन हैं, विधि के अन्तर्गत विधिक व्यक्ति माना गया है। अत: किसी निर्जीव वास्तविक वस्तु को मानवीकरण द्वारा विधिक व्यक्तित्व प्राप्त होता है। ऐसे विधिक ‘व्यक्ति’ का अस्तित्व वास्तविक होता है किन्तु उसका व्यक्तित्व काल्पनिक होता है। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, प्राचीन रोमन विधि के अन्तर्गत सुखाचार से सम्बन्धित अधिभावी (dominant) तथा अधिसेवी (servient) दायों (heritages) को इस प्रकार का विधिक व्यक्तित्व प्राप्त था। इन दायों को रोमन विधि में क्रमशः ‘प्रेडियम डोमिनन्स’ (Preadium dominans) तथा ‘प्रेडियम सर्वियन्स’ (Preadium  servians) कहा जाता था जो विधि की दृष्टि से व्यक्ति’ माने जाते थे। कल्पना (fiction) के आधार पर विधि की मान्यता यह थी कि पहले दाय में सुखाचार का अधिकार निहित था तथा दूसरा दाय. अर्थात् अधिसेवी दाय में इस अधिकार के प्रति कर्त्तव्यबद्धता थी, यद्यपि दोनों ही दाय निर्जीव भूमि मात्र थे। परन्तु उल्लेखनीय है कि इंग्लिश विधि ने दायों को विधिक व्यक्ति मानना स्वीकार नहीं किया है।

(ii) किसी निर्जीव वस्तु में अधिकार तथा कर्त्तव्य एकत्रित रूप से विद्यमान होने के कारण उसे विधिक व्यक्ति माना जा सकता है। रोमन विधि के अन्तर्गत ‘हेरिडिटास जेसेन्स’ (heriditas jacens) इसका अनोखा उदाहरण है। इसके अनुसार मृत व्यक्ति का विधिक व्यक्तित्व मृत्यु के पश्चात् भी उस समय तक बना रहता था जब तक कि उसके उत्तराधिकारियों ने उसकी सम्पत्ति ग्रहण न कर ली हो रोमन विधि की मान्यता यह थी कि जब तक मृतक की सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को अन्तरित नहीं हो जाती तब तक उस मृत व्यक्ति के अधिकारों और कर्त्तव्य का लोप नहीं होता, अत: उस समय तक उसे कल्पना के आधार पर जीवित व्यक्ति की भाँति ही माना जाना चाहिये। परन्तु इंग्लिश तथा भारतीय विधि के अन्तर्गत इस सिद्धान्त को मान्य नहीं किया गया है तथा किसी व्यक्ति की मृत्यु होते ही उसकी सम्पत्ति तत्काल उसके वारिसों और उत्तराधिकारियों को अन्तरित हुई मानी जाती है।

(iii) फिट्जजिराल्ड का कथन है कि विधिक व्यक्ति विधि की काल्पनिक संकल्पना होने के कारण इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं।29 परन्तु इंग्लिश विधि में केवल कुछ ही प्रकार के विधिक व्यक्तियों को

29. सामण्ड : ज्यूरिसप्रूडेन्स (12वाँ संस्करण) पृ० 306.

मान्यता दी गई है जिसमें (1) निगम (Corporations), (2) संस्थाएँ (Institutions); तथा (3) सम्पदा या निधि (Estate or Funds) विशेष उल्लेखनीय हैं।

निगमों की विधिक प्रस्थिति (Legal Status of Corporations)

विधि के अन्तर्गत निगम (corporation) की रचना अधिनियमों के अधीन होती है। सामण्ड के विचार से ‘निगम’ व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो विधिक कल्पना द्वारा विधिक व्यक्ति के रूप में मान्य किया गया है। निगमों की रचना मनुष्यों के वर्गों या श्रेणियों (group or series) के मानवीकरण से होती है। इस विधिक व्यक्ति की काय (corpus) वे व्यक्ति होते हैं जो इसके सदस्य कहलाते हैं।

निगमों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय, अस्पताल, मन्दिर, बैंक, रेलवे आदि संस्थाओं को भी विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है। इन संस्थाओं में से प्रत्येक संस्था को विधि के अन्तर्गत एक व्यक्ति के रूप में मान्य किया गया है तथा विधिक व्यक्तित्व प्रदान किया गया है। भारत के संघ राज्य को भी विधिक व्यक्ति के रूप में मान्य किया गया है।30

उल्लेखनीय है कि उपयोग के लिए सुरक्षित रखी गई संपदा, जायदाद या निधि (Fund) को भी विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है। इस प्रकार के विधिक व्यक्ति का काय (corpus) विशेष प्रयोजनों के लिए समर्पित सम्पदा अथवा निधि होता है। उदाहरणार्थ, न्यास-सम्पदा (trust estate) या किसी दिवालिया व्यक्ति की सम्पत्ति या खैराती निधि आदि इस प्रकार के विधिक व्यक्ति की श्रेणी में आते हैं। परन्तु निवेदित है कि इंग्लिश विधि के अनुसार इन सम्पदाओं या निधियों को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त होने के लिए इनका निगमन किया जाना आवश्यक होता है। आंग्ल-विधि सम्पदाओं या निधियों के मानवीकरण में विश्वास नहीं करती बल्कि उन व्यक्तियों के निकाय का मानवीकरण करती है, जो इस सम्पदा या निधि को प्रशासित करते हैं। भारतीय विधि में भी इसी व्यवस्था को अपनाया गया है।

निगमित निकाय (Incorporated Bodies)

जैसा कि कथन किया जा चका है. ‘निगम’ व्यक्तियों के उस समह या सिलसिले को कहते हैं जो विधि के अन्तर्गत केवल एक ही ‘विधिक व्यक्ति’ माना जाता है। विधिक व्यक्ति (juristic person) के रूप में ‘निगम’ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधिक व्यक्ति माना गया है। निगम का विधिक व्यक्तित्व कल्पना पर आधारित होने के कारण उसे कल्पित या कृत्रिम व्यक्ति भी कहा जाता है।

विधि के अन्तर्गत निगमों को दो वर्गों में रखा जा सकता है-(1) समाहृत निगम (Corporation Aggregate) तथा (2) एकल निगम (Corporation Sole)।

1. समाहृत निगम (Corporation Aggregate)

व्यापार और वाणिज्य में हई प्रगति के परिणामस्वरूप यह आवश्यक हो गया है कि विधिक सम्बन्धों को ऐसे समूहों में रखा जाये ताकि समाहृत निगम के रूप में उनके अधिकारों, दायित्वों या कर्तव्यों का सामूहिक रूप से निर्धारण कर सके। इस प्रकार के समाहृत निगम की निर्मिति (1) इंग्लैण्ड में रॉयल चार्टर द्वारा या भारत में संसद द्वारा (2) विद्वेष संविधि द्वारा, या (3) कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत मान्यता प्रदान करके की जा सकती है।

समाहृत निगम सह-विद्यमान व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठित होता है 31 लिमिटेड-कम्पनियाँ समाहृत-निगम का सर्वोत्तम उदाहरण हैं, निगमित होने के कारण लिमिटेड ‘कम्पनी’ सीमित दायित्व (limited liability) सहित व्यापार कर सकती है, अर्थात् ऐसी कम्पनी के प्रत्येक अंशधारी का दायित्व उसके द्वारा धारण किये अंशों (shares) की अदत्त पूँजी-राशि तक ही सीमित रहता है। समाहृत निगम का प्रमुख लक्षण यह है कि कुछ प्रयोजनों के लिए यह अपने सदस्यों से पृथक् अस्तित्व रखता

30. भारत के संविधान का अनुच्छेद 300.

31. A corporation aggregate is an incorporated group of co-existing persons.

है।32 उदाहरणार्थ, निगमित कम्पनी की आस्तियों (assets) तथा सम्पत्ति पर उसका स्वयं का अधिकार होता | है। अंशधारियों का अधिकार केवल लाभांश (dividends) पर होता है33 न कि कम्पनी की आस्तियों या सम्पत्ति पर। यही कारण है कि कम्पनी दिवालिया हो जाने पर भी उसके अंशधारी वैभव सम्पन्न बने रह सकते हैं। इसके ठीक विपरीत, अंशधारी के दिवालिया हो जाने पर भी कम्पनी की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनी रह सकती है। इसी प्रकार कम्पनी के समस्त अंशधारियों की मृत्यु हो जाने पर भी उस कम्पनी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। इसका एक उदाहरण देते हुए गोवर ने लिखा है कि एक कम्पनी की साधारण सभा (General Meeting) में बम विस्फोट के कारण उसके सभी सदस्य मारे गये परन्तु इससे कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा उसका विधिक अस्तित्व यथावत् बना रहा।34

इसमें सन्देह नहीं कि समाहृत निगम (corporation aggregate) के रूप में कम्पनी को विधिक अस्तित्व प्राप्त होता है, परन्तु इस कृत्रिम व्यक्ति का वास्तविक कारोबार किन्हीं सजीव व्यक्तियों (living persons) द्वारा कुछ व्यक्तियों के लाभ के लिए ही किया जाता है। अत: विधि के अन्तर्गत निगमित कम्पनी को स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त होते हुए भी वास्तव में वह व्यक्तियों का संघ है जो उसकी कम्पनी का विनियोग सम्पत्ति अर्जित करने के लिए करते हैं।

निगमन के आवरण को हटाना (Lifting the Corporate Veil)

कभी-कभी विधिक-व्यक्तित्व की ओट में कम्पनी या निगमित निकाय में कार्यरत वास्तविक व्यक्ति स्वार्थपूर्ति हेतु अवैधानिक या प्रतिबंधित गतिविधियों में लिप्त रहने की संभावना को नहीं टाला जा सका। इसीलिए संदेहास्पद स्थिति होने पर विधि यह अनुमति देती है कि ऐसी कम्पनी या निकाय के विधिक व्यक्तित्व के आवरण या परदे को हटाकर उसकी वास्तविक कार्यवाहियों का परीक्षण किया जाए तथा उनकी वैधानिकता देखी जाए।

प्रोफेसर गोवर (Gower) ने कतिपय परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार निगमित निकाय के आवरण को हटाकर उसकी वास्तविक स्थिति जानने को उचित ठहराते हुये अभिकथन किया है कि कभी-कभी कम्पनी के निगमन के मुखौटे को हटाकर उसके वास्तविक कार्यस्थल की सही जानकारी प्राप्त करने हेतु उसके रजिस्ट्रेशन के स्थान का पता लगाना आवश्यक हो जाता है। ऐसा यह जानने के लिये भी किया जा सकता है कि कम्पनी के वास्तविक प्रबन्ध का केन्द्र स्थान तथा नियन्त्रण-तन्त्र किस जगह स्थित है।35

निगमन के आवरण को हटाने के सिद्धान्त के सन्दर्भ में सालोमन बनाम सालोमन36 का वाद विशेष उल्लेखनीय है। इस वाद के तथ्य इस प्रकार थे

सालोमन नाम का व्यक्ति बूट और जूते बनाने का कारोबार करता था जिसके लिये उसने ‘सालोमन एण्ड कम्पनी लिमिटेड’ नाम की एक कम्पनी स्थापित की जिसमें कुल सात सदस्य अंशधारी थे। इन सात में वह स्वयं, उसकी पत्नी, चार पुत्र और एक पुत्री शामिल थे। कम्पनी ने सालोमन की वैयक्तिक आस्तियों (personal assets) को 38,782 पौण्ड पूंजी जुटाई जिसमें सालोमन ने प्रत्येक शेयर एक पौण्ड के मल्य के हिसाब से 20,000 शेयर धारित किये तथा 10,000 पौण्ड के ऋणपत्र (debentures) जारी किये जो कि कम्पनी पर प्रभार थे। सालोमन की पत्नी, चार पुत्रों एवं एक पुत्री, प्रत्येक ने एक पौण्ड मूल्य का एक-एक शेयर धारण किया। तत्पश्चात बाजार में मन्दी (depression) के कारण उक्त कम्पनी का विघटन हो गया। कम्पनी के असुरक्षित ऋणदाताओं (unsecured creditors) ने दावा किया कि सालोमन स्वयं को सुरक्षित

32. सालोमन बनाम सालोमन एण्ड कं०, (1887) ए० सी० 22 तथा पिपुल्स प्लेजर पार्क कं० बनाम रोहलेडर, (1908) 61 साउथ ईस्टर्न रिप० 794 का अमेरिकन वाद.

33. कालोनियल बैंक बनाम ह्विली, (1885) 30 Ch. D 261.

34. गोवर (Gower) माडर्न कम्पनी लॉ, पृ० 72.

35. गोवर : प्रिन्सिपल्स ऑफ मॉडर्न कम्पनी लॉ (चौथा संस्करण पृ० 136).

36. (1887) ए० सी० 22 (एच० एल०)

ऋणदाता मानकर उसके द्वारा धारित ऋणपत्रों पर प्राथमिकता प्राप्त नहीं कर सकता है क्योंकि वास्तव में यह एक एकल-व्यक्ति कम्पनी (one-man company) थी जिसका प्रबन्ध निदेशक सालोमन स्वयं था।

परिसमापन के समय कम्पनी की कुल पूंजी 6,000 पौण्ड थी। विचारण न्यायालय तथा अपीलीय न्यायालय ने विनिश्चित किया कि उक्त कम्पनी एक दिखावा मात्र होने के कारण उसके ऋणदाता प्राथमिकता के आधार पर ऋणराशि प्राप्त करने के अधिकारी थे न कि सॉलोमन, जो स्वयं को सुरक्षित ऋणदाता दर्शा रहा था। परन्तु उपर्युक्त दोनों निचली अदालतों के निर्णय उलटते हुये हाउस ऑफ लार्ड्स (House of Lords) ने विनिश्चित किया कि विधि की दृष्टि से उक्त कम्पनी एक विधिक व्यक्ति थी, जो सॉलोमन से भिन्न थी, अत: प्राथमिकता के आधार पर एक सुरक्षित ऋणदाता के नाते सालोमन कम्पनी की आस्तियों से ऋणराशि प्रदत्त करने का अधिकार रखता था।

इस वाद में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया गया कि किसी कम्पनी के निगमन के सम्बन्ध में विचार करते समय उसके विधिक व्यक्तित्व से उद्भावित कर्त्तव्यों व दायित्वों पर ही विचार किया जाना चाहिये न कि उसके पीछे कार्यरत वास्तविक व्यक्तियों की कार्यवाहियों पर। दूसरे शब्दों में, कम्पनी के पीछे कार्यरत वास्तविक लोगों की कार्यवाहियों पर विचार करने के लिए कम्पनी के निगमित अस्तित्व की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। परन्तु अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि निगमित कम्पनी सम्बन्धी प्रत्येक वाद में इस सिद्धान्त को लागू करना युक्तियुक्त नहीं होगा। कुछ परिस्थितियों में निगमित कम्पनी के पीछे कार्यरत वास्तविक व्यक्तियों की कार्यवाहियों पर विचार करना नितांत आवश्यक हो जाता है। विधिक भाषा में इसे ‘निगमन के पर्दे को हटाना’ (lifting the corporate veil) कहते हैं। इसका आशय यह है कि कम्पनी का विधिक अस्तित्व उसके सदस्यों से भिन्न होते हुए भी कभी-कभी सदस्यों के कार्यों के वास्तविक उद्देश्य को जानने के लिए निगमित कम्पनी और उसके सदस्यों के बीच का पर्दा उठाना आवश्यक होता है ताकि वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाए।

निगमित संस्था के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए निगमन के पर्दे को हटाने की आवश्यकता निम्नलिखित परिस्थितियों में होती है

(i) कम्पनी की वास्तविक प्रकृति का निर्धारण करने के लिए (to determine the real character of the company)—इस संबंध में डेमलर कम्पनी लि. बनाम कान्टीनेन्टल टायर एण्ड रबर कम्पनी37 का वाद उल्लेखनीय है। एक ब्रिटिश कम्पनी ने जर्मनी स्थित किसी जर्मन कम्पनी द्वारा बनाये गये रबर टायरों की बिक्री के व्यापार के लिए स्वयं को इंग्लैण्ड में निगमित कराया। इस कम्पनी के अधिकांश अंश जर्मन कम्पनी ने ही खरीदे थे तथा केवल एक अंश को छोड़कर शेष सभी अंशधारी तथा निदेशक जर्मनी में रहने वाले जर्मन व्यक्ति थे। इस प्रकार इस ब्रिटिश कम्पनी का वास्तविक नियंत्रण जर्मन लोगों के हाथों में था। प्रथम युद्ध (1914-19) के समय इस ब्रिटिश कम्पनी द्वारा अपने ऋण वसूली से संबंधित वाद में यह आवश्यकता अनुभव की गई कि इस कम्पनी की वास्तविक प्रकृति का पता लगाया जाए क्योंकि जिन व्यक्तियों को ऋण चुकाना था, उनकी ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि वादी ब्रिटिश कंपनी पूर्णत: जर्मन व्यक्तियों द्वारा संचालित तथा नियंत्रण में होने के कारण वास्तव में एक शत्रु-कम्पनी थी, अत: उसे ऋण वसूली से रोका जा सकता था। लार्ड हाल्सबरी (Lord Halsbury) ने निर्णय देते हुए अभिकथन किया कि इस वाद में कम्पनी की वास्तविक प्रकृति को देखने हेतु उसके विधिक-व्यक्तित्व के आवरण हटाना आवश्यक एवं उचित था और उक्त कम्पनी वास्तव में शत्रु-कम्पनी होने के कारण उसका वाद खारिज कर दिया गया।

(ii) कम्पनी के निगमित अस्तित्व की ओट में कार्य करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध अनुचित कर-मुक्ति का लाभ लेने की आशंका होने पर इस संदर्भ में बचा एफ गजदर बनाम आयकर आयुक्त बंबई38 का वाद उल्लेखनीय है। इस वाद में चाय के किसी कंपनी के अंशधारी की हैसियत स वादा

37. Daimler Co’s case (1916) 2 AC 307.

38. ए० आई० आर० 1955 सु० को० 74. (77)

को कुछ लाभांश (dividends) प्राप्त थे। आयकर अधिनियम के अधीन कृषि आय को आयकर से मुक्त रखा गया है। अत: चाय कम्पनी की कुल आय का 60 प्रतिशत कृषि आय के रूप में आयकर से मुक्त थी तथा शेष 40 प्रतिशत पर चाय के उत्पादन एवं विक्रय के लिए आयकर देय था। वादी ने अपना निजी आयकर चुकाते समय चाय कंपनी से प्राप्त लाभांश की आय पर 60 प्रतिशत छूट इस आधार पर मागी कि वह आय कम्पनी की आय का ही प्रतीक थी। अतः कृषि आय कम होने के कारण उसे कंपनी से 60 प्रतिशत छूट मिलनी चाहिए। न्यायालय ने वादी का तर्क अस्वीकार करते हुए विनिश्चित किया कि यद्यपि चाय कम्पनी की आय अंशतः कृषि-आय मानी गई है, लेकिन वही आय उसके अंशधारियों में वितरित हो जाने के बाद कृषि आय के रूप में आयकर से मुक्त नहीं रखी जा सकती है।

उच्चतम न्यायालय ने आयकर आयुक्त बनाम मीनाक्षी मिल्स लि०39 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि ऐसे मामले में जहाँ यह सम्भावना प्रतीत हो कि कम्पनी ने स्वयं का निगमन टैक्स की चोरी की नीयत से कराया है, तो न्यायालय उस कम्पनी के निगमित अस्तित्व को नजरअन्दाज करके निगमन का आवरण हटाकर उसके वास्तविक स्थिति की जाँच कर सकता है।

इसी प्रकार इन रिसर दिनशा मानेकजी पेटिट40 करदाता एक धनाढ्य व्यक्ति था जो अनेक कम्पनियों के शेयर धारित किये हुये था जिससे उसे बड़ी मात्रा में लाभांश (dividend) और ब्याज की राशि प्राप्त होती थी। उसने चार प्राइवेट कम्पनियां स्थापित की और प्रत्येक से करार किया कि वह उन कम्पनियों के एजेण्ट की हैसियत से उनकी पूंजी का एक बड़ा भाग धारण करेगा। इससे उसे जो आय प्राप्त होती थी उसे वह कम्पनियों के खाते में जमा कराता था और प्रत्येक कम्पनी उसे उक्त राशि छद्म ऋण (pretended loan) के रूप में दे देती थी इस प्रकार उसने अपने सभी लाभांशों एवं ब्याज के रूप में प्राप्त आय को चार भागों में विभक्त कर दिया ताकि आयकर का अपवंचन (evade the tax) कर सके। न्यायालय ने कम्पनियों के निगमित अस्तित्व को खारिज करते हुये मानेकजी को दोषी ठहराया क्योंकि चारों कम्पनियों का निर्माण केवल कर अपवंचन के लिये किया गया था।

(ii) कम्पनी के निगमन के पीछे किसी कपटपूर्ण उद्देश्य की आशंका होने पर-इस संबंध में गिलफर्ड मोटर कं० बनाम हार्नी41 का वाद महत्वपूर्ण है। इसमें वादी कम्पनी ने हार्नी की प्रबन्ध निदेशक के पद पर नियुक्ति इस शर्त पर की कि वह अपने कार्यकाल के दौरान तथा उसके पश्चात् किसी समय भी कम्पनी के ग्राहकों को प्रलोभन देकर नहीं फोड़ेगा। एक करार के अधीन हार्नी की नियुक्ति समाप्त कर दी। कुछ समय बाद हार्नी ने स्वयं का कारोबार चालू किया तथा वादी कंपनी के ग्राहकों को अपनी ओर प्रलोभन देकर मिला लिया। कम्पनी द्वारा हार्नी के विरुद्ध वाद लाया जाने पर न्यायालय ने हार्नी के कृत्य को कपटपूर्ण निरूपित करते हुए अभिकथन किया कि वास्तव में उसके द्वारा स्थापित कंपनी वादी कम्पनी के ग्राहकों को अपनी ओर आकृष्ट करने का एक माध्यम मात्र था जो कपट से प्रेरित था।

जीवन बीमा निगम बनाम एस्कार्ट्स लि042 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि सामान्यत: कम्पनी के निगमन का आवरण उसी स्थिति में हटाया जाना चाहिये यदि इसके लिये सम्बन्धित संविधि में प्रावधान हो या कम्पनी के किसी सम्भावित कपटपूर्ण व्यवहार अथवा अनुचित आचरण को रोकना आवश्यक हो। निगम का आवरण इस स्थिति का वास्तविक पता लगाने के लिये भी हटाया जा सकेगा कि कहीं कम्पनी अपने दायित्वों से बचने के लिये स्वयं को अनेक सहायक कम्पनियों के रूप में तो नहीं दर्शा रही है जबकि वास्तव में वह एक ही प्रतिष्ठान हो।

सिंगर इण्डिया बनाम चन्दर मोहन चड्ढा43 के वाद में कम्पनी के समामेलन की योजना (Scheme of Amalgamation) में एक अमेरिकन कम्पनी को भारतीय कम्पनी में समामेलित किये जाने की मंजरी दी गयी

39. ए० आई० आर० 1987 सु० को०; देखें Mc Dowell & Co. Ltd. v. Commercial Tax Officer, (1985) 3 SCC 230.

40. ए० आई० आर० 1927 बम्बई 371.

41. (1933)1 सी० एच० डी० 935.

42. ए० आई० आर० 1986 सु० को० 1370 (न्यायाधीश चिन्नप्पा रेडी का निर्णय).

43. ए० आई० आर० 2004 सु० को० 4368.

थी। यह पता लगाने के लिये कि कहीं इस समामेलन की ओट में कम्पनी कोई कपट या अनुचित संव्यवहार तो नहीं कर रही है, कम्पनी अधिनियम की धारा 34 के अन्तर्गत उसके निगमन के आशय को हटाया जाना न्यायोचित ठहराया गया।

पी० एन० बी० फायनेंस लि० बनाम शीतल प्रसाद जैन44 के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ भी न्यायालय को यह आशंका हो कि कम्पनी के निगमित निकाय की ओर से किसी कपटपूर्ण संव्यवहार को कार्यान्वित किया जा रहा है, तो न्यायालय न्याय के हित में निगमन के आवरण को हटाते हुए वास्तविकता का पता लगाने के लिए कर्तव्यबद्ध होगा। FSime

शुभ्रा मुखर्जी एवं अन्य बनाम मेसर्स भारत कोकिंग कोल लि045 (BCCL) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि पक्षकारों के मध्य हए किसी संव्यवहार का वास्तविक स्वरूप और उद्देश्य जानने के लिए भी कम्पनी के निगमन के आवरण को हटाया जा सकता है। इस वाद में कम्पनी के निदेशक सगे भाई थे तथा अपीलार्थी उनकी पत्नियाँ थीं। न्यायालय ने पाया कि पक्षकारों के बीच जो संव्यवहार (transactions) हुआ था वह पूर्णतः बनावटी, कपटपूर्ण तथा बिना किसी प्रतिफल के था जिसका मूल उद्देश्य सरकार द्वारा कम्पनी का राष्ट्रीयकरण किया जाने के कारण उत्पन्न होने वाले अलाभकारी परिणामों से बचना था। अत: न्यायालय ने अपील निरस्त करते हुए अभिकथन किया कि पक्षकारों द्वारा किया गया संव्यवहार सद्भावनापूर्ण एवं प्रामाणिक नहीं था।

इसी प्रकार इनलैण्ड वाटर ट्रान्सपोर्ट कार्पोरेशन लि. बनाम ब्रजनाथ गांगुली46 के वाद में यह पता लगाने के लिये कि अपीलार्थी कम्पनी संविधान के अनुच्छेद 12 के प्रयोजन के लिये राज्य की एक इकाई है या केवल एक एजेन्सी मात्र है, उच्चतम न्यायालय ने कम्पनी के निगमन के आवरण को हटाया जाना न्यायोचित ठहराया।

(iv) लोक नीति या लोक कल्याण की अपेक्षा में निगमन का आवरण हटाने की आवश्यकता पड़ सकती है-लोकनीति को ध्यान में रखते हुए कतिपय परिस्थितियों में यह पता लगाना आवश्यक हो सकता है कि निगमित निकाय के पीछे वास्तविक स्थिति क्या है। उदाहरणार्थ, डिक्स बनाम ग्रांड जंक्शन केनाल कं047 के वाद में मुकदमे के पक्षकार कम्पनी में लार्ड चांसलर का एक अंश के धारक के रूप में हित था। अत: न्यायाधीशों ने हाउस ऑफ लार्ड्स को परामर्श दिया कि लॉर्ड चांसलर के हित ने उन्हें मामले की सुनवाई के लिए बैठने से अयोग्य बना दिया है क्योंकि यह लोकनीति के विरुद्ध होगा।

इसी प्रकार लोक कल्याणकारी राज्य की अपेक्षा के क्रियान्वयन का निर्धारण करने हेतु भी निगमन का आवरण हटाने की आवश्यकता पड़ सकती है। उदाहरणार्थ, इंडियन आयल कार्पोरेशन लिमिटेड बनाम चीफ इन्सपेक्टर ऑफ फेक्ट्रीज48 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि एक सरकारी कंपनी सरकार का स्वयं का एक लघु रूप है जिसने निधारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु निगमन की प्रास्थिति प्राप्त की है। अत: निगमित मुखौटे के माध्यम से सरकार के कारोबार का संचालन होता है इसलिए उसका कार्य लोक कल्याण के हित में है अथवा नहीं, इसका निर्धारण करने हेतु कभी-कभी उसके निगमन के आवरण को हटाने की आवश्यकता पड़ सकती है।

(v) कम्पनी में घटित किसी अर्ध-आपराधिक मामले की यथार्थ स्थिति से अवगत होने के लिए-कभी-कभी कम्पनी के निगमन की ओट में उसके कर्मचारी या अधिकारी ऐसी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं, जो वास्तव में आपराधिक स्वरूप की होती हैं अतः ऐसे प्रकरणों में वास्तविक स्थिति का पता

44. (1983) 53 कम्पनी केसेज 66.

45. ए० आई० आर० 2000 सु० को0 1203.

46. (1986) 3 एस० सी० सी० 156.

47. (1882)3 एल० एल० सी० 759.

48. (1998) 5 एस० सी० सी० 738.

लगाने के लिए न्यायालय कम्पनी के निगमन के आवरण को हटा कर तथ्यों की जाँच कर सकता है। उदाहरणार्थ, दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम स्किपर कन्सट्रक्शन कं० (प्रा०) लि049 के वाद में न्यायालय ने पाया कि कम्पनी के अधिकारियों ने अपने दुष्कृत्यों से कम्पनी की सम्पत्ति स्वयं के तथा अपने सगे-संबंधियों के नाम अवैध रूप से अन्तरित करा ली थी, अत: उनके सम्पत्ति की जब्ती और कुर्की न्यायोचित थी।

(vi) जहां यह पाया जाये कि कम्पनी का निर्माण केवल इस उद्देश्य से किया गया है कि कामगारों को बोनस आदि न देना पड़े या कम देना पड़े-कामगार, एसोसिएट रबर इण्डस्ट्रीज लि. भावनगर बनाम ऐसोशियेट रबर इण्डस्ट्रीज50 के वाद में मूल कम्पनी ने एक नई कम्पनी बनायी जिसकी अपनी स्वयं की कोई आस्तियां (assets) नहीं थी और उस नई कम्पनी में लगायी गयी सारी पूंजी वास्तव में मूल कम्पनी की ही थी। इस कम्पनी का न तो कोई अपना स्वयं का कारोबार था और न कोई लाभ सिवाय इसके कि वह स्वयं को हस्तान्तरित शेयरों पर लाभांश कमाती थी। उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि मूल कम्पनी द्वारा उक्त नई कम्पनी का निर्माण केवल इस आशय से किया गया था ताकि मूल कम्पनी का सकल लाभ कम दर्शाया जा सके और उसे अपने कर्मचारियों को लाभांश वितरित न करना पड़े या बहुत कम राशि वितरित करना पड़े। अत: न्यायालय ने आदेशित किया कि उक्त नई कम्पनी का लाभ भी मूल कम्पनी के लाभ में जोड़ा जाये और कुल लाभ में से कर्मचारियों को बोनस की राशि वितरित की जाये। न्यायालय ने विनिश्चित किया कि इस प्रकार के प्रकरणों में न्यायालय को केवल नई कम्पनी के अस्तित्व मात्र से सन्तुष्ट न होकर उसके पीछे छिपे वास्तविक आशय पर विशेष ध्यान देना चाहिये।

पीपुल्स प्लेझर पार्क कम्पनी बनाम रोहलेडर51 के अमेरिकी वाद में न्यायालय ने कम्पनी के निगमन के आवरण को हटाने की अनुमति देने से इस आधार पर इन्कार कर दिया क्योंकि कम्पनी के कार्यकलापों से जनहित को कोई खतरा नहीं था। इस वाद में कम्पनी ने एक अंग्रेज व्यक्ति को भूमि अन्तरित करते हुये यह शर्त रखी कि वह उस भूमि को किसी नीग्रो (काले व्यक्ति) को नहीं बेचेगा। उस अंग्रेज व्यक्ति ने इस शर्त की अनदेखी करते हुये वह जमीन एक ऐसी कम्पनी को बेच दी जिसके सभी सदस्य नीग्रो थे। अतः अपीलार्थी कम्पनी ने उक्त बिक्री को निरस्त करने तथा कम्पनी के आवरण को हटाकर उसी वस्तुस्थिति का पता लगाने हेत न्यायालय में आवेदन किया। अपील को खारिज करते हुये न्यायालय ने विनिश्चित किया कि कम्पनी के सदस्य चाहे वे व्यक्तिगत हों अथवा एकत्रित हों, निगम नहीं माने जा सकते हैं क्योंकि निगम का अस्तित्व उसके सदस्यों से पूर्णतः पृथक् तथा भिन्न रहता है। अतः कम्पनी द्वारा बेची गयी भूमि और उसके अन्तरण को वैध माना गया।

ज्योति लि० बनाम कंवलजीत कौर भसीन52 के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने विनिश्चित किया कि यदि किसी निगमित कम्पनी द्वारा जानबूझकर न्यायालय के आदेश की अवहेलना की जाती है तो यह जनहित में होगा कि उसके निगमन के आवरण को हटाकर यह पता लगाया जाये कि न्यायालय के आदेश की अवहेलना के लिए कौन से वास्तविक व्यक्ति जिम्मेदार हैं, ताकि उन्हें न्यायालयीन अवमानना (contempt of Court) के लिए दण्डित किया जा सके।

(vii) उपर्युक्त आधारों के अतिरिक्त भी यदि न्यायालय अपने स्वविवेक से किसी कम्पनी के निगमन को हटाना न्यायोचित समझता है तो वह ऐसा कर सकता है। इस सन्दर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने न्य हॉरीझन्स कम्पनी बनाम भारत संघ3 के वाद में अभिकथन किया कि कम्पनी के निगमन को हटाने सम्बन्धी वाद सालोमन बनाम सालोमन54 में प्रतिपादित नियम आज भी प्रासंगिक है यद्यपि ऐसे मामले अपवादात्मक होते हैं, फिर भी इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है।

49. ए० आई० आर० 1996 सु० को 2005.

50. ए० आई० आर० 1986 सु० को०1.

51. People’s Pleasure Park Co. v. Roheleder, (1908) 109 Va 439 (US).

52. (1987) 62 कम्पनी केसेज 626.

53. (1994) Vol.13 Isssue 7 CLA 429 (439).

54. (1887) ए० सी० 22 (एच० एल०).

सारांश यह है कि निगमित कम्पनी के लाभ केवल ऐसे व्यक्तियों के लिए हैं जो अपना कारोबार सच्चाई से एवं निष्ठापूर्वक करते हैं तथा कम्पनी के निगमित अस्तित्व का प्रयोग दायित्व से बचने के लिए या कपटपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं कर रहे हैं।

समाहृत निगम को विधिक व्यक्ति के रूप में मान्यता देने के दो मुख्य उद्देश्य हो सकते हैं। प्रथम यह कि सह स्वामित्व सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर किया जा सके तथा दूसरे यह कि व्यापार जगत में सीमित दायित्व की सुविधा उपलब्ध हो सके ताकि उद्योगों को प्रोत्साहन मिले।

(2) एकल निगम (Corporation Sole)

एकल निगम क्रमवर्ती ‘व्यक्तियों’ की निगमित श्रृंखला है।55 एकल निगम में एक समय एक ही व्यक्ति होता है। दूसरे शब्दों में, एकल निगम एक के बाद एक आने वाले व्यक्तियों की ऐसी निगमित श्रृंखला है जिसमें एक समय केवल एक ही व्यक्ति होता है। उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड का सम्राट (Crown), पोस्ट मास्टर । जनरल, किसी विभाग का मन्त्री आदि ऐसे एकल निगम हैं जिन्हें विधि द्वारा व्यक्तित्व प्रदान किया गया है। सामान्यतः ये व्यक्ति किसी ऐसे लोक-पद (public office) के धारक होते हैं जो निगम के रूप में विधि द्वारा मान्य है। इस संदर्भ में इंग्लैण्ड की प्रसिद्ध उक्ति “सम्राट की मृत्यु हो गई, सम्राट चिरायु हो”56 का उल्लेख करना उचित होगा। यह उक्ति ‘सम्राट’ की एकल निगम के रूप में विधिक स्थिति को स्पष्ट करती है। इस उक्ति का प्रथम भाग सम्राट के प्राकृतिक व्यक्तित्व की ओर इंगित करता है जबकि दूसरा भाग उसके विधिक व्यक्तित्व की ओर। इसका आशय यह है कि एकल निगम होने के कारण सम्राट की मृत्यु के पश्चात् भी उसका विधिक अस्तित्व बना रहता है।57

विधि की दृष्टि से एकल निगम का उद्देश्य वही है जो कि समाहत निगम का है। एकल निगम में लोकपदधारी श्रृंखलाबद्ध रूप में एक के बाद एक पद को धारण करते हैं, अर्थात् एक की मृत्यु के बाद वह पद तथा उससे सम्बद्ध सम्पत्ति, दायित्व आदि समाप्त नहीं होते, बल्कि वे उस पद को ग्रहण करने वाले अगले व्यक्ति में निहित हो जाते हैं। इस प्रकार एकल निगम में लोकपदधारी की मृत्यु से निगम का प्राकृतिक शरीर तो समाप्त हो जाता है; किन्तु उसका विधिक व्यक्तित्व अमर रहता है जिसका प्रतिनिधित्व उसका उत्तराधिकारी करता है। परिणामतः लोगों के हितों पर लोकपदधारी की मत्यु का प्रतिकूल परिणाम नहीं जान पड़ता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एकल निगम का मूल उद्देश्य यह है कि लोकपद की निरन्तरता बनी रहे ताकि लोक पदधारी अपने उत्तराधिकारी के फायदे के लिये सम्पत्ति का अर्जन कर सके या वह सम्पत्ति की क्षति कारित होने की स्थिति में इसके लिये वाद संस्थित न कर सके।

भारत में निगमित व्यक्तित्व की स्थिति

भारत में निगमित व्यक्तित्व को मान्यता दिये जाने की पुष्टि हिन्दू विधि के अन्तर्गत सहदायिकी व्यवस्था में कर्ता की प्रास्थिति से हो जाती है। सहदायिकी व्यवस्था (coparcenary system) में यद्यपि संयुक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य को कुछ अधिकार व दायित्व होते हैं परन्तु परिवार का कर्ता ही प्रमुख व्यक्ति होता है जो अपने परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्धक होता है और अन्य सदस्य उसके अधीनस्थ रहते हैं। उसे परिवार की सम्पत्ति के व्ययन तथा अन्तरण का पूर्ण अधिकार होता है तथा उस परिवार की ओर से या उसके विरुद्ध सभी वाद कर्ता के नाम पर ही चलाये जा सकते हैं।

संयुक्त हिन्दू परिवार के कर्ता के अतिरिक्त हिन्दू देवमूर्ति तथा निधि को भी विधिक व्यक्तित्व प्राप्त है। यही कारण है कि देवमूर्ति (idols) के लिए बनाये गये धर्मदायों (endowments) के प्रति शाश्वतता का नियम (rule against perpetuity) लागू नहीं होता है।

55. A corporation sole is an incorporated series of successive persons.

56. “The King is dead, long live the King.”

57. ब्लेकस्टोन : कमेंन्ट्रीज I पू० 249.

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