LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 27 Notes
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अध्याय 27 (Chapter 27)
सम्पत्ति (Property)
विधिक क्षेत्र में सम्पत्ति की संकल्पना का विशेष महत्व है। इसका कारण यह है कि भौतिक वस्तुओं के उपयोग के बिना मानव-जीवन सम्भव नहीं है और ये भौतिक वस्तुएँ ही सम्पत्ति की विषय-वस्तु हैं। मानव-जीवन के लिए रोटी, कपड़ा, मकान तथा अन्य वस्तुएँ परम आवश्यक होती हैं और सभी सुसभ्य समाजों के व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन वस्तुओं को स्वयं की सम्पत्ति के रूप में रखते हैं तथा इनका उपभोग करते हैं। अत: सामान्य अर्थ में सम्पत्ति से आशय भौतिक वस्तुओं के प्रति मनुष्य के ऐसे अधिकार से है जिस पर उसका स्वामित्व है तथा जिस पर उसे अनन्य नियंत्रण तथा व्ययन का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।
विख्यात विधिशास्त्री सामण्ड ने सारभूत सिविल विधि (substantive civil law) का विभाजन तीन | खण्डों में किया है जो क्रमशः (1) सम्पत्ति विधि (Property Law), (2) बाध्यता विधि (Law of Obligations) तथा (3) प्रास्थिति सम्बन्धी विधि (Law of Status) कहलाते हैं।
सम्पत्ति विधि की विषय-वस्तु सर्वबन्धक सम्पत्तिक अधिकार (proprietary right in ent) है जबकि बाध्यता विधि (law of obligations) की विषय-वस्तु (proprietary rights in personant) है। प्रास्थिति-विधि के अन्तर्गत सुभी वैयक्तिक या साम्पत्तिक अधिकारों का समावेश है, चाहे वे सर्वबन्धक हों अथवा व्यक्तिबन्धक ।’ प्रस्तुत अध्याय में सम्पत्ति विधि के विषय में सविस्तार वर्णन दिया गया है।
सम्पत्ति का अर्थ
सामान्यत: सम्पत्ति से तात्पर्य उस वस्तु’ (res) से है जिस पर स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग प्रायः मूर्त वस्तुओं पर ही किया जाता है। सामण्ड के विचार से सम्पत्ति (property) शब्द का अर्थ सर्वबन्धक साम्पत्तिक अधिकारों (Proprietary rights in rent) से है। सर्वबन्धक अधिकार से आशय ऐसे अधिकारों से है जो किसी व्यक्ति को समस्त ‘मानव वर्ग के विरुद्ध प्राप्त होते हैं।
विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति’ शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया गया है। कभी इसे ‘स्वामित्व’ के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है और कभी हक (title) के रूप में। यही नहीं, कभी-कभी तो वे समस्त वस्तुएँ जो किसी व्यक्ति के पास हैं, उसकी सम्पत्ति मानी जाती हैं। इसमें केवल वे वस्तुएँ ही नहीं हैं जिनका कि वह व्यक्ति स्वामी (Owner) है बल्कि उस व्यक्ति के समस्त दावे (claims) भी उसकी सम्पत्ति में समाविष्ट होते हैं। परन्तु उल्लेखनीय है कि सम्पत्ति का यह अर्थ विधिक दृष्टि से अनुपयुक्त है। सामण्ड के अनुसार विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति’ शब्द का प्रयोग निम्नलिखित सन्दर्भो में किया जा सकता है-
(1) समस्त विधिक अधिकार के रूप में (as All Legal Rights)
इस सन्दर्भ में सम्पत्ति के अन्तर्गत व्यक्ति के समस्त विधिक अधिकार शामिल हैं। यहाँ तक कि मनुष्य का स्वयं का जीवन, उसके हाथ-पैर, स्वतन्त्रता, उसके बाल-बच्चे, नौकर तथा भू-सम्पदा, आदि सभी उसकी
1. The substantive civil law, as opposed to the law of procedure is divisible into three great departments, namely, the law of property, the law of obligations, and the law of status. The first deals with proprietary rights in rem, the second with proprietary rights in personam and the thi with personal or non-proprietary rights, whether in rem or in personam, Salmond-Jurispruden (12th Edn., p. 441.
सम्पत्ति होती है। ब्लैकस्टोन (Blackstone) तथा हॉब्स (Hobbes) आदि आंग्ल-विधिशास्त्रियों ने ‘सम्पत्ति’ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है P लॉक (Loke) के अनुसार व्यक्ति का स्वयं का भौतिक शरीर उसको सम्पत्ति है तथा उसे अपने जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पदा को सुरक्षित रखने का अधिकार है जो उसकी सम्पत्ति होती है। परन्तु वर्तमान में सम्पत्ति’ शब्द का प्रयोग इतने व्यापक अर्थ में नहीं किया जाता है।
(2) साम्पत्तिक अधिकार के रूप में (as Proprietary Rights)
इस अर्थ में सम्पत्ति के अन्तर्गत मनुष्य के वैयक्तिक अधिकारों (personal rights) का समावेश नहीं होता अपितु केवल साम्पत्तिक अधिकार (Proprietary rights) ही उसकी सम्पत्ति कहलाते हैं। अत: व्यक्ति को भूमि, जंगम-वस्तुएँ (chattels), कम्पनी में उसके द्वारा धारित अंश तथा उसे प्रतिदेय ऋण (debts due to him) आदि उसकी सम्पत्ति हैं, किन्तु उसके जीवन अथवा उसकी स्वतन्त्रता या प्रतिष्ठा के अधिकार को उसको सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं माना जायेगा। वर्तमान में ‘सम्पत्ति’ शब्द का प्रयोग प्रायः इसी अर्थ में किया जाता है।
(3) सर्वबन्धक सम्पत्तिक अधिकार के रूप में (as Proprietary Rights in rem)
इस अर्थ में सम्पत्ति’ के अन्तर्गत व्यक्ति के सभी साम्पत्तिक अधिकार (proprietary rights) नहीं आते बल्कि केवल ऐसे साम्पत्तिक अधिकार ही आते हैं जो सर्वबन्धक (in renm) स्वरूप के हैं। दूसरे शब्दों में, इस अर्थ में सम्पत्ति के अन्तर्गत व्यक्ति बन्धक साम्पत्तिक अधिकारों (proprietary rights in personal) का समावेश नहीं किया जाता है। निवेदित है कि व्यक्तिबन्धक साम्पत्तिक अधिकार बाध्यता विधि (law of obligations) की विषय-वस्तु है। अत: किसी व्यक्ति की भूमि में आत्मघृत तथा पट्टाधृत भू-सम्पदा (a freehold or leasehold estate in land), प्रतिलिप्यधिकार (copyrights) तथा पेटेन्ट (patent) उसकी सम्पत्ति होंगे, किन्तु उसका ऋण अथवा उसके द्वारा की गई किसी संविदा से प्राप्त हुए लाभ उसकी सम्पत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट नहीं होंगे।
(4) मूर्त सम्पत्ति (Corporeal Property)
सीमित अर्थ में सम्पत्ति के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं पर स्वामित्व के अधिकार के अलावा किसी अन्य अधिकार का समावेश नहीं किया जा सकता। आंग्ल विधिवेत्ता बेन्थम (Bentham) ने सम्पत्ति के इसी अर्थ को उचित माना है।4
सामण्ड (Salmond) के अनुसार किसी मूर्त सम्पत्ति का स्वामित्व साधारणतः स्थायी तथा दायाई (inheritable) होता है और स्वामित्व का अधिकार रखने वाला व्यक्ति उस सम्पत्ति का उपयोग उपभोग अपनी इच्छानुसार व्ययन (disposition) कर सकता है। इसके अतिरिक्त जब तक उक्त मूर्त सम्पत्ति का अस्तित्व बना रहता है, उसके स्वामी का उस सम्पत्ति पर स्थायी (Permanent) अधिकार होगा।
मूर्त सम्पत्ति दायार्ह (inheritable) होने के कारण उसके स्वामी की मृत्यु के पश्चात् भी यह दाय सम्बन्धी अधिकार निर्बाध बना रहेगा।
तथापि जर्मी बेंथम ने ‘सम्पत्ति’ की संकुचित व्याख्या करते हुये अभिकथन किया है यह मूर्त सम्पत्ति, अर्थात्, भौतिक वस्तुओं के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। दूसरे शब्दों में, सम्पत्ति के अन्तर्गत केवल भौतिक वस्तुओं का ही समावेश है न कि अमूर्त या अभौतिक वस्तुओं का।
2. हॉब्स : लवाइथन (Leviafhari), अध्याय 30, पृ॰ 329.
3. लॉक : सिविल गवर्नमेन्ट (ग्रन्थ 2) अध्याय 5 पृ. 102.
4. बेंथम : प्रिंसिपल्स ऑफ लेजिस्लेशन, पृ० 321.
सम्पत्ति-व्यापक अर्थ में
वर्तमान समय में अधिकांश विधि प्रणालियों के अन्तर्गत सम्पत्ति शब्द की याया की गई है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (च) के अन्तर्गत व्यक्ति को संपत्ति को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया हैं। ताकि राज्य व्यक्ति के सम्पत्ति उपभोग के अधिकार में अनुचित हस्तक्षेप न कर सके। वर्तमान में बैंक सम्पत्ति का महत्व कम होता जा रहा है। यही कारण है कि सन 1978 में हुए वे संविधान संशोधन । सम्पत्ति के अधिकार का मालिक अधिकारों के अध्याय से निकाल कर अच्छी 300* के अन्तर्गत १३ । सामान्य विधिक अधिकार के रूप में रखा गया है। व्यक्ति के पनि सम्बन्धी अधिकारों की रक्षण करना हो। राज्य और विधि का प्रमुख कार्य है। भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में उत्पादन के दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है जिसके परिणामस्वरूप वैयक्तिक सम्पत्ति अधिकार की बजाय सामहिक
इनों के राष्ट्रीयकरण की। सम्पत्ति को विशेष महत्व दिया जा रहा है। आज सम्पत्ति एक सामाजिक उपक्रम के रूप में विकसित हो रही है।6
संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की श्रेणी से निकालकर अनुच्छेद 300क के अधीन एक सामान्य अधिकार घोषित किए जाने का परिणाम यह हुआ है कि अब इस अधिकार के उल्लंघन के विरुद्ध अनु० 32 के अन्तर्गत रिट याचिका दायर नहीं की जा सकेगी। संविधान के 44वें संशोधन के पश्चात् सम्पत्ति के अधिकार की वैधानिक स्थिति को स्पष्ट करते हुए उच्चतम न्यायालय ने जुलूभाई नानू भाई खाचर बनाम गुजरात राज्य के बाद में अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 300-के के अन्तर्गत सम्पत्ति के अधिकार को संविधान के मूलभूत ढांचे का भाग नहीं माना गया है। अतः किसी व्यक्ति को उसके सम्पत्ति के अधिकार से केवल संसद या विधान मंडल द्वारा पारित किसी विधि के अन्तर्गत ही वंचित किया जा सकता है न कि केवल किसी कार्यपालिक आदेश द्वारा। राज्य द्वारा किसी सार्वजनिक प्रयोजन के लिए किसी व्यक्ति की सम्पत्ति की मांग की जा सकती है या उसे अर्जित किया जा सकता है।
वर्तमान न्यायिक प्रवृत्ति (judicial trend) के अनुसार विभिन्न अन्य अधिकारों की भाँति सम्पत्ति के अधिकार को भी अनुच्छेद 21 के अधीन वैयक्तिक स्वाधीनता (wersonal liberty) में शामिल किया गया है। अत: यदि किसी विधि के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति के अधिकार से वंचित किया आता है, तो ऐसा अपवंचन (deprivation) न केवल औचित्यपूर्ण होना चाहिए बल्कि वह न्यायसंगत एवं उचित प्रतिपूर्ति (ju Comensation) सहित भी होना चाहिए।
वर्तमान समय में संपत्ति को व्यापक अर्थ दिये जाने का एक कारण यह भी है कि यह अनेक नवे रूप में विकसित हो चुकी है। आजकल संपत्ति का अधिकांश भाग विलेख (doctarents) लिखत (Instruments) जा (deposit) आदि के रूप में अस्तित्व में है जो किसी स्वास था विश्व अधिकार हो भने है। वर्तमान समय में ‘बौद्धिक सम्पत्ति’ (intellectual projerty) की संकल्पना भी सम्पत्ति का ही एक दर विकसित रूप है।
एक समय था जब व्यक्ति की निजी सम्पत्ति को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता था १३६ स्थकों को संपत्ति का संरण करना ही राज्य का ५२ कार्य था। हस्तक्षेप रहित अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त (169ry | als aire) के अन्तर्गत । व्यक्ति के सर्वत्रक अधिकारों (Proprietary Rifits) के रहो पा है। बल दिया गया था। परन्तु अठारहवीं शदी की औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप संपत्ति संबंधी धारणा में भाग | परिवर्तन हुआ तथा राज्य में व्यक्तियों की निजी संपत्ति में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया ताकि पूँजूवादी लोग
5. बैंकों के इमरण वा समा, ३० अ० आर० 1970 सु. को. 564.
6. नेशनल टेक्सटाल वर्कर्स बनाम पी. आर. रामक्रष्ण, ए. आई. आर. 1983 सु. को. 75
7. ए. आई. आर. 1995 सु. को. 142 (157).
गरीबों का शोषण न कर सकें। आगे चलकर यह अर्थ-व्यवस्था समाजवाद के रूप में विकसित हुई जिसमें उत्पादन और वितरण के स्रोतों पर राज्य का नियंत्रण होने लगा। वर्तमान में बैंकों, निगमों तथा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण इसी दिशा में एक सार्थक कदम है। चीन, रूस आदि जैसे साम्यवादी देशों ने तो निजी संपत्ति को पूर्णत: समाप्त करके उसे राज्य के अधीन कर दिया है। इस प्रकार आज सम्पत्ति का सामाजिक स्वरूप पूर्णत: बदल चुका है।
सम्पत्ति की उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त (Theories regarding origin of Property)
सम्पत्ति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मुख्यत: तीन धारणाएँ हैं जो विधि में सम्पत्ति की उत्पत्ति-विषयक सिद्धान्त के रूप में मान्य हैं। ये सिद्धान्त सम्पत्ति की सृष्टि के बारे में विभिन्न विधिशास्त्रियों के विचारों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी सिद्धान्त पूर्णरूपेण सही प्रतीत नहीं होता है, तथापि प्रत्येक में यथार्थ का कुछ अंश अवश्य है।
(1) सम्पत्ति सम्बन्धी प्राकृतिक सिद्धान्त (Natural Theory)
सम्पत्ति की उत्पत्ति के विषय में इस धारणा के अनुसार जो व्यक्ति किसी सम्पत्ति या वस्तु को सर्वप्रथम अपने नियंत्रण में लेता है, न्यायिक दृष्टि से वही व्यक्ति उस सम्पत्ति का अधिकारी होता है। ह्यगो ग्रोशियस तथा ब्लेकस्टोन आदि विधिवेत्ताओं ने सम्पत्ति की उत्पत्ति सम्बन्धी इस प्राकृतिक सिद्धान्त (Natural Theory) का समर्थन किया है। कॉन्ट (Kant) ने ‘फिलॉसफी ऑफ लॉ’ नामक अपनी कृति में सम्पत्ति की उत्पत्ति विषयक इस सिद्धान्त का अनुमोदन किया है। इस सिद्धान्त के निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि सम्पत्ति का प्रादुर्भाव उस वस्तु के सर्वप्रथम ग्रहण करने से हुआ जिस पर किसी भी व्यक्ति का स्वामित्व नहीं था।8।
सर हेनरी मेन (Sir Henry Maine) तथा बेन्थम आदि विधिवेत्ताओं ने सम्पत्ति के उद्भव सम्बन्धी उपर्युक्त सिद्धान्त की आलोचना की है। हेनरी मेन के विचार से यह तर्क कि कब्जा हक (title) का सृजन करता है, निराधार तथा विवादास्पद है। उनके अनुसार इस सिद्धान्त का कोई तर्कसंगत सबूत उपलब्ध नहीं है। बेन्थम (Bentham) के मतानुसार सम्पत्ति का उद्भव प्रथम ग्रहण द्वारा नहीं हुआ अपितु स्वयं विधि के द्वारा हुआ है। उनके विचार से विधि के बिना सम्पत्ति का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
(2) सम्पत्ति विषयक श्रम-सिद्धान्त (Labour Theory)
सम्पत्ति सम्बन्धी यह सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित है कि व्यक्ति को अपने परिश्रम के बदले में सम्पत्ति प्राप्त करने का हक है। अत: यह श्रम के बदले में प्राप्त होने वाला एक परितोषिक है। जब कोई व्यक्ति सम्पत्ति अर्जित करता है, तो उसे उस सम्पत्ति को रखने का अनन्य हक प्राप्त हो जाता है।
संपत्ति संबंधी श्रम सिद्धान्त के अनुसार कोई वस्तु (res) उसी व्यक्ति की सम्पत्ति होती है जिसके परिश्रम से उसका निर्माण हुआ है। परन्तु अनेक विधिवेत्ताओं ने इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की है कि श्रम (labour) से सम्पत्ति का निर्माण नहीं होता बल्कि यह तो सम्पत्ति जुटाने का एक साधन मात्र है 10 उल्लेखनीय है कि सम्पत्ति सम्बन्धी माक्र्सवादी विचारधारा इसी सिद्धान्त पर आधारित है। परन्त वर्तमान समय में इस सिद्धान्त का विशेष महत्व नहीं है क्योंकि अनेक परिस्थितियों में बिना श्रम के भी व्यक्ति को सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है जैसे वसीयत या दान के द्वारा प्राप्त की गई सम्पत्ति। इसी प्रकार किसी भनि पर कोई खदान होने का पता लगने पर उस भूमि का सांपत्तिक मूल्य बढ़ जाता है, परन्तु यह श्रम का परिणाम नहीं है।
8. विधिक शब्दावली में res nuuttitus को स्वामीहीन सम्पत्ति कहा गया है.
9. सर हेनरी मेन : एन्शिएन्ट लॉ, पृ॰ 269.
10. हेराल्ड लॉस्की : ए ग्रामर ऑफ पोलिटिक्स (5वाँ संस्करण), पृ० 185.
सम्पत्ति सम्बन्धी श्रम-सिद्धान्त को प्राचीन भारत की हिन्दू विधि में भी विधिक मान्यता प्राप्त थी। याज्ञवल्क्य जैसे विख्यात टीकाकारों (Commentators) ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया था कि किसी व्यक्ति को दिया जाने वाला पारिश्रमिक या वेतन उसके श्रम-कार्य के अनुपात में होना | चाहिये। यदि किसी श्रम कार्य के लिये वेतन पूर्व-निर्धारित हो लेकिन बीमारी, अपंगता आदि के कारण वह | कार्य पूरा न किया जा सका हो, तो श्रमिक द्वारा जितना श्रम कार्य किया गया है, उसे उस अनुपात में वेतन दिया जाना चाहिये, अर्थात् उसे कार्य पूरा न कर सकने के कारण पूरे वेतन से वंचित नहीं किया जा सकेगा।11
कात्यायन ने महिलाओं की ‘स्त्रीधन’ सम्पत्ति को मान्यता प्रदान की। इसी प्रकार यदि किसी स्त्री ने अपने श्रम, कौशल या बौद्धिक क्षमता द्वारा कोई धन कमाया हो, तो उस पर उसे अनन्य हक (title) प्राप्त होगा। उसके द्वारा व्यापार, धन्धे या नियोजन (रोजगार) से अर्जित किया गया धन भी उसकी स्वत: ही स्त्रीधन सम्पत्ति होगी जिस पर उसे अनन्य हक (exclusive title) प्राप्त होगा।12
स्पेन्सर ने सम्पत्ति संबंधी श्रम-सिद्धांत को सकारात्मक सिद्धांत (Positive Theory) कहा है। उनके अनुसार यह सिद्धांत व्यक्ति-स्वातंत्र्य की मूलभूत विधि पर आधारित है। स्पेन्सर का मानना है कि सम्पत्ति वैयक्तिक श्रम का परिणाम होने के कारण किसी को भी ऐसी सम्पत्ति धारण करने का नैतिक अधिकार नहीं। है, जो उसने स्वयं के श्रम द्वारा अर्जित न की हो।
( 3 ) राज्य की शक्ति द्वारा सम्पत्ति की उत्पत्ति (State created property)
इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पत्ति की उत्पत्ति राज्य से हुई है। एडवर्ड जेन्क्स ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। परन्तु इस सिद्धान्त की व्यर्थता इस बात से प्रकट होती है कि वस्तुत: राज्य तथा सम्पत्ति, दोनों की ही उत्पत्ति सामाजिक एवं आर्थिक शक्तियों के परिणामस्वरूप हुई है। अत: इन दोनों में से कोई भी एक-दूसरे का निर्माता नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त किसी विकसित राज्य के बिना भी निजी संपत्ति (Private Property) का अस्तित्व हो सकता है।
(4) तत्वमीमांसीय सिद्धान्त (Metaphysical Theory)
इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पत्ति मानव व्यक्तित्व का एक आवश्यक अंश है। हीगल ने सम्पत्ति को मानव स्वतन्त्रता की बाह्य अभिव्यक्ति माना है क्योंकि व्यक्ति के विकास के लिए सम्पत्ति का नियंत्रण आवश्यक है। कान्ट ने भी सम्पत्ति सम्बन्धी तत्वमीमांसीय सिद्धान्त का समर्थन करते हुए इसके अस्तित्व एवं संरक्षा को उचित निरूपित किया है। परन्तु अनेक विधिवेत्ताओं ने सम्पत्ति संबंधी इस सिद्धान्त का इस आधार पर खंडन किया है कि यह वास्तविकता से परे केवल तत्वमीमांसीय धारणाओं पर आधारित है। तथापि इसमें संदेह नहीं कि आत्म-अनुभूति के लिए सम्पत्ति आवश्यक होती है।
(5) मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological theory)
इस सिद्धान्त के अनुसार मानव की अर्जनशीलता की प्रवृत्ति से ही सम्पत्ति की उत्पत्ति हुई है। सम्पत्ति को अर्जित करना तथा उस पर नियंत्रण रखना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। बेन्थम ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया।
रास्को पाउंड के अनुसार सम्पत्ति की उत्पत्ति और इसकी प्रकृति के विषय में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त मुख्यत: इटली से उद्भूत हुआ है। इसके अन्तर्गत मानव की अर्जनशीलता को माना गया है जिसकी सामाजिक संस्था के रूप में व्याख्या की जानी चाहिए।
11. याज्ञवल्क्य II 195-196.
12. कात्यायन 895-902.
अनेक इंगिलश विधिशास्त्रियों ने श्रम सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त की इस आधार पर आलोचना की है। कि यह हेनरी मेन के बौद्धिक कल्पना की देन है जो उनके भारतीय ग्रामीण समुदाय (Indian Village Committee) के अध्ययन पर आधारित है जिसमें प्राचीन भारत के ग्रामीण अंचलों में प्रचलित प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों का उल्लेख है। अत: इस सिद्धान्त को सार्वभौमिक सिद्धान्त (Universal principle) के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। ता है।
(6) ऐतिहासिक सिद्धान्त (Historical Theory)
इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पत्ति का उद्भव तीन क्रमिक चरणों में हुआ है। प्रथम चरण में मानव में वस्तुओं को नियंत्रण में लेने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई । दूसरे चरण में उसने वस्तुओं को कब्जे में रखना प्रारम्भ किया तथा तृतीय चरण में उसमें वस्तुओं पर स्वामित्व रखने की इच्छा जागृत हुई। प्रारम्भ में भूमि पर व्यक्तियों का सामूहिक (collective) स्वामित्व था जो कालांतर में व्यक्तिगत स्वामित्व में विकेन्द्रित हो गया। यह सिद्धान्त सम्पत्ति के क्रमिक विकास को प्रदर्शित करता है। इस सिद्धान्त की व्याख्या हेनरी मेन ने अपनी कृति ‘विलेज कम्यूनिटीज’ (Village Communities) में विस्तार से की है। तथापि अद्यतन शोध कार्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सम्पत्ति संबंधी ऐतिहासिक सिद्धान्त सभी जगह लागू नहीं होता।।3
(7) क्रियात्मक सिद्धान्त (Functional Theory)
संपत्ति संबंधी क्रियात्मक सिद्धान्त सम्पत्ति के क्रियात्मक पहलू (functional aspect) पर जोर देता है। इसके अनुसार मानव द्वारा श्रम और प्रयास से अर्जित की गई सम्पत्ति औचित्यपूर्ण है। इसी प्रकार समाज में सम्पत्ति का वितरण उचित एवं साम्यिक आधार पर किया जाना चाहिये। इससे उत्पादन में वृद्धि होगी, जो सामाजिक कल्याण का संवर्धन करने में सहायक होगी।
यह सिद्धान्त ड्यूगिट के सामाजिक परस्परावलंबन (mutual dependence) पर आधारित है जिसमें श्रम-विभाजन एवं संपत्ति के क्रियात्मक उपयोग पर बल दिया गया है। दूसरे शब्दों में, संपत्ति के क्रियात्मक सिद्धान्त के अन्तर्गत सम्पत्ति को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में महत्व न देकर सामाजिक कार्यों हेतु साधन के रूप में इसका उपयोग किये जाने को महत्व दिया गया है।
इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पत्ति को सामान्य सुरक्षा (General security) का संवर्धन करने वाला सामाजिक हित (Social interest) माना गया है। जैसा कि रास्को पाउण्ड का मत है, समाज में व्यक्ति के अनेक हित, जैसे स्वयं की सुरक्षा, निजता (privacy), प्रतिष्ठा, जीविकोपार्जन आदि केवल सम्पत्ति के माध्यम से ही संरक्षित हो सकते हैं। जूलियस स्टोन ने भी रास्को पाउण्ड की इस धारणा का समर्थन किया है।14
भारतीय परिप्रेक्ष्य में सम्पत्ति के महत्व को प्राचीन भारतीय विधि के अन्तर्गत भी एक सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार किया था जिसका उल्लेख धर्मशास्त्रों में मिलता है। परिवार के मुखिया, जिसे ‘कर्ता’ कहा जाता था, का यह विधिक, नैतिक एवं सामाजिक दायित्व था कि वह परिवारजनों को भौतिक तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करे और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करे।15
याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार सम्पत्ति अर्जन करने के विभिन्न तरीकों में दान, अनुदान, उपहार (Gift), वेतन, बिक्री में प्राप्त धन, ऋण, उधार लेना, ब्याज, युद्ध से जब्त की गयी सम्पत्ति आदि मुख्य थे। परन्तु अनुचित तरीके से सम्पत्ति का अर्जन करना एक गम्भीर पाप कर्म माना जाना था।16 पुराने भारत में सामाजिक सम्पन्नता के लिये सम्पत्ति को एक सशक्त साधन माना जाता है।17
13. सर हेनरी मेन : ऐशियेन्ट लॉ पृ० 270.
14. Julius Stone : Province and Functions of Law p. 565.
15. पुराहित एस० के० : एन्शियेंट इण्डियन लीगल फिलॉसफी (1994) पृष्ठ 212-13.
16. याज्ञवल्क्य स्मृति | पृ० 168.
17. सावधान के अनुच्छेद 39 (क) एवं (ख) में भी इसी दृष्टिकोण की झलक मिलती है.
सम्पत्ति के विभिन्न प्रकार (Various kinds of Property)
सम्पत्ति दो प्रकार की होती है—(1) मूर्त सम्पत्ति (Corporeal Property) तथा (2) अमूर्त सम्पत्ति (Incorporeal Property) ।
भौतिक वस्तुओं पर व्यक्ति के स्वामित्व के अधिकार को ‘मूर्त सम्पत्ति’ (corporeal property) कहते हैं। इसके विपरीत मानव-वर्ग के विरुद्ध प्राप्त होने वाले अन्य साम्पत्तिक सर्वबन्धी अधिकार (proprietary rights in renm) ‘अमूर्त सम्पत्ति’ कहलाते हैं। अमूर्त सम्पत्ति को पुन: दो भागों में विभक्त किया गया है। सम्पत्ति के विभिन्न प्रकारों को नीचे दी गई तालिका में दर्शाया गया है-
सम्पत्ति
(Property) 19
अमूर्त
(Corporeal)
(Incorporeal)
अचल (स्थावर) सम्पत्ति (immovable land)
चल (जंगम) सम्पत्ति (movable chattels)
विल्लंगम (jura in re aliena)
अभौतिक वस्तुओं पर साम्पत्तिक अधिकार (jura in re propria)
पट्टा (lease)
सुविधाभार (servitude)
प्रतिभूतियाँ न्यास (securities) (trust)
पेटेन्ट्स (patents)
कापीराइट (copyright)
ट्रेडमार्क (trade mark)
बन्धक
धारणाधिकार
(mortgage)
(lien)
भौतिक वस्तुओं का स्वमित्व (Ownership of Material Things)
जो व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के पूर्ण उपयोग के अधिकार का स्वामित्व रखता है, उसे उन भौतिक वस्तुओं का स्वामी कहा जाता है। भौतिक वस्तुओं का स्वामी ऐसी वस्तुओं के उन सम्पूर्ण उपयोगों का हकदार होता है। जो विधि द्वारा प्रतिबन्धित या वर्जित नहीं हैं।18
स्वामित्व का अधिकार स्थायी होता है क्योंकि इस अधिकार में वस्तु के सम्पूर्ण उपयोगों का हक निहित रहता है। यह अधिकार उस समय तक बना रहता है जब तक कि उस वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त न हो जाए। आशय यह है कि स्वामित्व में स्थायित्व रहता है और स्थायित्व में उत्तराधिकार का विशिष्ट गण।
18. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 415.
विद्यमान रहता है। फलतः स्वामित्व का अधिकार आवश्यक रूप से एक विरासती अधिकार (inheritable right) है।
मूर्त तथा अमूर्त सम्पत्ति (Corporeal and Incorporeal Property)
मूर्त सम्पत्ति को पार्थिव या भौतिक सम्पत्ति तथा अमूर्त सम्पत्ति को अपार्थिव या अभौतिक सम्पत्ति कहते हैं। मर्त सम्पत्ति वह है जिसकी अनुभूति ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हो सकती है; उदाहरणार्थ-भूमि, मकान, रुपये, पैसे, आभूषण आदि मनुष्य की मूर्त सम्पत्ति हैं। जिस सम्पत्ति की अनुभूति ज्ञानेन्द्रियों द्वारा नहीं की जा सकती। है उसे अमूर्त सम्पत्ति कहते हैं। उदाहरणार्थ, सुखाधिकार (easement), ऋणाधिकार, प्रतिलिप्यधिकार (copyright), पेटेन्ट (patent), ट्रेडमार्क (trade mark) आदि। ।
उल्लेखनीय है कि सम्पत्ति के मूर्त और अमूर्त वर्गों में विभाजन को रोमन विधिशास्त्रियों ने भी स्वीकार किया था। रोमन विधि के अनुसार ऐसी समस्त वस्तुएँ जो दृश्यमान हैं, मूर्त वस्तुएँ (res corporats) मानी। जाती थीं तथा जो वस्तुएँ दृश्यमान नहीं थीं, अमूर्त वस्तुएँ (res incorporals) कहलाती थीं। परन्तु बकलैण्ड (Buckland) का मत है कि रोमन विधि के अन्तर्गत मूर्त वस्तुओं का तात्पर्य केवल स्वामित्व से था तथा अन्य सभी वस्तुएँ जिनका मूल्यांकन मुद्रा में किया जा सकता था, अमूर्त वस्तुएँ कहलाती थीं। जंगम तथा स्थावर सम्पत्ति (Movable and Immovable Property)
मूर्त वस्तुओं को जंगम (movable) और स्थावर (immovable) सम्पत्तियों में वर्गीकृत किया गया है। भूमि ‘स्थावर’ (immovable) सम्पत्ति है जबकि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सकने वाली वस्तुएँ। ‘जंगम सम्पत्ति’ (movable property) कहलाती हैं। सामण्ड के अनुसार स्थावर या अचल सम्पत्ति (immovable property) में निम्नलिखित का समावेश है
(1) किसी भूखण्ड के ऊपरी सतह का निश्चित भाग;
(2) उस भूखण्ड के बाहरी सतह की निचली जमीन जहाँ तक कि भूमि का केन्द्र बिन्दु है;
(3) उस भूखण्ड के बाहरी सतह के ऊपर आकाश-मण्डल का भाग;
(4) वे सभी वस्तुएँ जो बाहरी सतह के ऊपर या निचले भाग में अपने प्राकृतिक रूप में विद्यमान हैं, जैसे-खनिज तथा प्राकृतिक वनस्पति आदि।
(5) भूमि से जुडी हुई या सम्बन्ध रखने वाली सभी चीजें अर्थात् मानवी क्रिया-कलापों द्वारा
भूखण्ड के ऊपरी सतह पर अथवा नीचे रखे गये समस्त पदार्थ जिनका आशय स्वामित्व से
हो; जैसे-मकान, दीवार19, दरवाजे आदि। भूमि में गाड़कर रखे हुए रुपये या धन ठीक उसी
प्रकार जंगम चल सम्पत्ति हैं जिस प्रकार कि किसी व्यक्ति के जेब में रखे रुपये 20
स्थावर वस्तुओं पर व्यक्ति को जो अधिकार प्राप्त होते हैं, वे स्थावर अधिकार कहलाते हैं तथा जो वस्तुएँ स्थावर (immovable) नहीं होतीं वे जंगम सम्पत्ति (movable property) होती हैं; जैसे भवन, पशु, फनीचर आदि। जंगम वस्तुओं पर व्यक्ति के अधिकार जंगम-अधिकार हैं।
स्थावर सम्पत्ति (Immovable Property) को साधारण खण्ड अधिनियम, 1897 की धारा 3 (26) में रिभाषित किया गया है, जिसमें भूमि, भूमि से उद्भूत फायदे तथा भूमि से स्थायी रूप से जुड़ी हुई वस्तएँ। सम्मिलित हैं। इसी प्रकार भारतीय रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1908 की धारा 2 (6) के अनुसार स्थावर सम्पत्ति में सम्मिलित है भूमि, भवन, आनुवंशिक प्राप्तियाँ, मार्ग का अधिकार (right to way), रोशनी, घाट (ferry), मीन-क्षेत्र (fisheries) या कोई अन्य फायदे जो भूमि से उत्पन्न होते हैं या वस्तुएं जो भूमि से स्थायी ” से जुड़ी हुई हैं, परन्तु इसमें खड़े पेड़, पौधे या उगी हुई घास सम्मिलित नहीं हैं।
19. Montty. Barnes, (1901) 1 KB 205.
20. Salmond : Jurisprudence (12th ed.), p. 418.
भौमिक तथा वैयक्तिक सम्पत्ति (Real and Personal Property)
जंगम तथा स्थावर सम्पत्ति के अनुसार सम्पत्ति को भौमिक तथा वैयक्तिक, इन दो भागों में बाँटा गया है। इस वर्गीकरण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। भूमि सम्बन्धी समस्त अधिकार भौमिक सम्पत्ति (real property) के अन्तर्गत आते हैं। जंगम सम्पत्ति को वैयक्तिक सम्पत्ति (personal property) कहा जाता है। भूमि सम्बन्धी अधिकारों को छोड़कर शेष समस्त साम्पत्तिक सर्व-बन्धक तथा व्यक्ति-बन्धक अधिकार वैयक्तिक सम्पत्ति कहलाते हैं 21 भौमिक तथा वैयक्तिक सम्पत्ति के भेद रोमन विधि से लिया गया है।
अभौतिक वस्तुओं पर निज-साम्पत्तिक अधिकार (Rights in re propria in immaterial things)
साम्पत्तिक अधिकार भौतिक तथा अभौतिक (material and immaterial) दोनों वस्तुओं पर होता है। साकार पदार्थ भौतिक वस्तु है। भौतिक वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य समस्त वस्तुएँ अभौतिक (immaterial things) कहलाती हैं। सम्पत्ति-विधि का सम्बन्ध अधिकतर भौतिक वस्तुओं (material things) से है, किन्तु सामण्ड के अनुसार मानवीय कौशल तथा श्रम से व्युत्पन्न विभिन्न अभौतिक पदार्थ भी अधिकारों की विषय-वस्तु के रूप में मान्य हैं। मनुष्य जो कुछ उत्पन्न करता है उसके उपयोग और लाभ का उसे अनन्य अधिकार है। मानव के मस्तिष्क से जो अभौतिक उत्पादन निर्मित होते हैं वे उसके लिये मूल्यवान् होते हैं। अत: विधि के अनुसार ऐसे अभौतिक उत्पादों पर व्यक्ति का साम्पत्तिक अधिकार होता है। सम्पत्ति के अभौतिक रूपों (immaterial forms of property) के निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं
1. पेटेन्ट (Patent)
जो व्यक्ति अपने कौशल तथा श्रम (skill and labour) से कोई आविष्कार करता है वह अकेला ही उस
आविष्कार का उपयोग करने तथा उसका लाभ उठाने का हकदार होता है। यह विशेषाधिकार उस व्यक्ति को राज्य द्वारा दिया जाता है। ऐसे अधिकार को ‘पेटेन्ट’ का अधिकार कहते हैं। भारतीय-विधि के अन्तर्गत ये अधिकार पेटेन्टस् अधिनियम, 1970 तथा डिझाइन्स एक्ट, 2000 द्वारा संरक्षित हैं।
(2) प्रतिलिप्यधिकार या कापीराइट (Copyright)
कॉपीराइट का अधिकार लेखकों, चित्रकारों, उत्कीर्णकों (engravers), रूपकारों (sculptures), फोटोग्राफरों, संगीतकारों, नाटककारों तथा साहित्यकारों को उनकी प्रतिभाशाली कृतियों के सम्बन्ध में प्राप्त रहता है। जब कोई व्यक्ति अपने कौशल तथा श्रम से इन वस्तुओं का निर्माण करता है, तो उसे इनके अनन्य उपयोग तथा लाभ का साम्पत्तिक अधिकार भी प्राप्त होता है। ऐसे अधिकार को कॉपीराइट (copyright) कहते हैं 22
( 3 ) वाणिज्यिक साख (Commercial goodwill)
ट्रेड मार्क तथा व्यापार-नाम (trde-name) सम्पत्ति के अभौतिक रूपों का तीसरा प्रकार है जिसे वाणिज्यिक साख (commercial goodwill) कहा जाता है। जो व्यक्ति अपने कौशल तथा श्रम से किसी कारोबार को स्थापित करके उसके प्रति लोगों में पैदा हुई साख (goodwill) में हित अर्जित करता है उसे इस सद्भाव का अपने लाभ के लिए उपयोग करने का अनन्य अधिकार होता है। अन्य व्यक्तियों द्वारा इस अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति जो किसी नाम से कारोबार चलाता है अथवा माल बेचता है, वह उस नाम पर अनन्य अधिकार रखता है। कोई अन्य व्यक्ति जनता को भुलावे में डालने की दृष्टि से उस नाम का उपयोग नहीं कर सकता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी व्यापार-चिन्ह के अधीन अपना माल बेचता है, तो उसे उस व्यापार-चिन्ह के अनन्य उपभोग का अधिकार प्राप्त होता है ।23
21. “The law of real property is almost equivalent to the law of the land while the law of personal
property is almost identical with the law of movables.”-Salmond : Jurisprudence (12th ed.). p. 420.
22. कॉपीराइट (संशोधन) अधिनियम, 1999.
23. ट्रेड मार्क्स अधिनियम, 1999.
पर-साम्पत्तिक अधिकार (Rights in re-aliena)
सम्पत्ति से सम्बन्धित निज-साम्पत्तिक अधिकारों का विवेचन कर लेने के पश्चात् अब उससे सम्बन्धित पर-साम्पत्तिक अधिकारों या विल्लंगमों (encumbrances) पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा। पर- साम्पत्तिक अधिकार (rights in re-aliena) या विल्लंगम के निम्नलिखित प्रकार होते हैं
1. पट्टा (Lease);
2. सुविधा-भार (Servitude);
3. प्रतिभूतियाँ (Securities);
4. न्यास (Trust)
1. पट्टा (Lease)
इन अधिकारों को आभोगाधिकार (Tenancy) भी कहते हैं। विधिशास्त्र के अन्तर्गत पट्टा का व्यापक अर्थ है। इस अर्थ के अनुसार पट्टे के अन्तर्गत भूमि की अभिधृतियाँ, जंगम वस्तुओं के सभी प्रकार के उपनिधान (bailment) तथा अमूर्त सम्पत्ति के सभी विल्लंगम (encumbrances) समाविष्ट हैं। जब कोई व्यक्ति ऐसी सम्पत्ति पर जिसका स्वामी कोई दूसरा ही व्यक्ति होता है, कब्जे तथा उसके उपयोग का अधिकार रखता है, तो ऐसे अधिकार को पट्टा (lease) कहते हैं। भूमि पट्टे पर दी जाती है। भूमि को पट्टे पर देने वाला व्यक्ति भूमि का स्वामी होता है जिसे पट्टाकर्ता (lessor) कहते हैं और जिस व्यक्ति को उस भूमि का कब्जा अन्तरित किया जाता है, वह पट्टेदार (lessee) कहलाता है। पट्टेदार भूमि पर कब्जा रखता है, उसका उपयोग करता है, किन्तु उसका स्वामी नहीं होता। अत: जिन अधिकारों पर कब्जा किया जा सकता है, उन सभी अधिकारों को पट्टे पर दे सकते हैं। पट्टे की समयावधि अधिकार की अवधि से अधिक नहीं हो सकती। भूमि कुछ वर्षों के लिए अथवा पट्टाकर्ता के जीवन पर्यन्त पट्टे पर दी जा सकती है किन्तु उसे सदैव के लिए पट्टे पर नहीं दिया जा सकता।24 जब कोई व्यक्ति अपना मकान किराये पर देता है, तो इसे पट्टा कहा जा सकता है जिसमें मकान मालिक ने अपने मकान के स्वामित्व को कब्जे से पृथक् कर लिया है, अर्थात् वह मकान का स्वामी बना रहेगा लेकिन उस पर कब्जा किरायेदार का होगा।
पट्टे सम्बन्धी सभी विधिक करार भारतीय सम्पत्ति अधिनियम, 1882 द्वारा प्रशासित होते हैं। पट्टे द्वारा पट्टेधारी या पट्टेदार (Lessee) को पट्टे की निर्धारित अवधि के लिये अचल सम्पत्ति में विधिक हित प्राप्त होता है इसलिये पट्टे की अवधि में उसे कोई व्यक्ति भूमि से बेदखल नहीं कर सकता है और न इस अवधि में पट्टादाता मनमाने ढंग से किराये में वृद्धि ही कर सकता है। पट्टे की अवधि समाप्त हो जाने पर पट्टादाता (Lessor) को अपनी भूमि पर दखल रहित कब्जा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। सम्पत्ति अधिनियम की धारा 111 में कतिपय घटनाओं के घटित होने पर पट्टे का निरसन या समाप्ति हो जाने सम्बन्धी प्रावधान हैं।
पट्टे के आवश्यक तत्व निम्नानुसार हैं
1. पट्टाकर्ता (Lessor) संविदा करने के लिए सक्षम होना चाहिए तथा उसे पट्टे का प्राधिकार एवं
हक होना चाहिए;
2. इसी प्रकार पट्टेदार (Lessee) भी संविदा करने के लिए सक्षम होना चाहिए।
3. पट्टे की विषय-वस्तु स्थावर सम्पत्ति (immovable property) होनी चाहिए;
4. पट्टे द्वारा सम्पत्ति के कब्जे तथा उपयोग और उपभोग का अधिकार अन्तरित होता है;
5. पट्टे की समयावधि अभिव्यक्त, विवक्षित अथवा शाश्वत काल (express, implied or in
perpetuity) के लिए हो सकती है;
6. पट्टे के लिए प्रतिफल किश्त, किराये, या दोनों में हो सकता है;
24. सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, धारा 105.
7. पट्टेधारी द्वारा पट्टे की स्थावर सम्पत्ति का अन्तरण स्वीकार किया जाना आवश्यक है; तथा
8. कतिपय दशाओं में पट्टे का रजिस्ट्रेशन-विलेख द्वारा पंजीयन कराना आवश्यक होता है।
साधारणतः पट्टा अचल सम्पत्ति, अर्थात् भूमि के सम्बन्ध में ही होता है। इससे प्राप्त होने वाले अधिकार को विधिक शब्दावली में आभोगाधिकार (tenancy right) कहा जाता है तथापि विधिशास्त्र के सन्दर्भ में पट्टे को व्यापक अर्थ दिया गया है जिसमें भूमि के अलावा चल सम्पत्ति का उपनिधान (Bailment of movable property), अमूर्त सम्पत्ति से सम्बन्धित सभी विल्लंगम (all encumbrance relating to incoporeal property) आदि का भी समावेश है। कॉपीराइट, पेटेण्ट, मार्गाधिकार (Right of way) का भी पट्टा हो। सकता है।भारत के उच्चतम न्यायालय ने प्रमोद कुमार जायसवाल बनाम बीबी हुसैन बानो25 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि पट्टे में अचल सम्पत्ति का संव्यवहार अन्तर्निहित होने के कारण इसके प्रति न्यायालयों को विशेष सतर्कता से ध्यान देना चाहिये इसमें लोकहित का मुद्दा निहित होता है। इस प्रकरण में किरायेदार के प्रति प्रचलित उदार नीति का दृष्टिकोण न अपनाते हुये मकान मालिक के हितों को संरक्षित किया गया तथा किरायेदार के प्रति कड़ा रुख अपनाते हुये तत्काल किरायेदारी समाप्त कर पट्टे की भूमि उसके स्वामी की लौटाने के निर्देश दिये।
2. सुविधा–भार (Servitude)
सुविधा- भार ऐसा विल्लंगम है जिसमें भूमि का सीमित उपयोग करने का अधिकार दिया जाता है। इस अधिकार में भूमि पर कब्जा नहीं होता। जैसे, भूमि पर मार्ग का अधिकार, साथ लगी हुई भूमि पर निर्मित मकान की खिड़कियों से प्रकाश प्राप्त करने का अधिकार, भूमि पर पशु चराने का अधिकार आदि। पट्टे में भूमि पर स्वामित्व नहीं होता किन्तु उस पर कब्जा होता है और उसका उपयोग करने का अधिकार रहता है। जबकि सुविधा- भार में भूमि पर न तो स्वामित्व होता है और न कब्जा, केवल उसके उचित एवं वैध उपयोग का अधिकार मात्र रहता है।
सुविधा-भार निजी (private) अथवा सार्वजनिक (public) स्वरूप का हो सकता है। निजी सुविधा-भार (private servitude) निश्चित व्यक्ति में निहित रहता है। उदाहरणार्थ, भूमि तथा प्रकाश का अधिकार जो भूमि के स्वामी को उसकी भूमि के साथ लगी हुई भूमि पर प्राप्त होता है, निजी सुविधा भार है।
सार्वजनिक सुविधा- भार (public servitude) वह है जो जन-साधारण अथवा अनिश्चित व्यक्तियों में निहित है; जैसे-नदी में जनता को नौकाएँ चलाने का अधिकार।
इंग्लिश विधि में सुविधा-भार के दो अन्य भेद भी हैं। जब किसी भू-खण्ड के उपयोग के अधिकार के साथ दसरे भूखण्ड के उपयोग का अधिकार विल्लंगम के रूप में संलग्न होता है, तो वह अनुलग्न सुविधाभार (appurtenant servitude) कहलाता है। इस सुविधा-भार में दूसरे भूखण्ड के लाभ के लिए एक भूखण्ड का उपयोग करने का अधिकार होता है; जैसे-‘क’ के घर से ‘ख’ के खेत को पार करके सड़क तक मार्ग का अधिकार। जिस भूमि पर सुविधा-भार का बोझ रहता है वह अनुसेवी (servient) भूमि और जिस भूमि को उसका लाभ मिलता है वह अधिभावी (dominant) भूमि कहलाती है। जब सुविधा-भार किसी अधिभावी भूमि में संलग्न नहीं होता, तो उसे सकल सुविधा- भार (servitude in gross) कहा जाता है। मछली पकड़ने या पशु चराने का निजी अधिकार इस प्रकार के सुविधा-भार का उदाहरण है 26
3. प्रतिभूतियाँ (Securities)
प्रतिभूति एक प्रकार का विल्लंगम (encumbrance) है। इसका प्रयोजन कि व्यक्ति में निहित किसी अन्य अधिकार की संतुष्टि अथवा उपयोग की सुविधा प्रदान करना है। सामान्यतः ‘ऋण’ के °गतान को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रतिभूति ली जाती है। प्रतिभूतियों के दो प्रकार हैं-
25. (2005) 5 एस० सी० सी० 492.
26. सुखाधिकार (Easement) वस्तुत: एक प्रकार का सुविधा-भार ही है.
(i) बन्धक (mortgage) तथा
(ii) धारणाधिकार (lien)
(i) बन्धक-जब ऋणी की स्थावर सम्पत्ति उसके द्वारा लिये गये ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिभूति के रूप में लेनदार को अन्तरित कर दी जाती है, तो उसे बन्धक (mortgage) कहा जाता है। स्थावर सम्पत्ति के अन्तरक को बंधककर्ता और अन्तरिती को बन्धकदार कहते हैं। भारत की सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 58 (b) से (g) में बंधक के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख है।
भारत के सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 58 में ‘बन्धक’ (Mortgage) की परिभाषा दी। गयी है। बन्धक विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में के किसी ऐसे हित का अन्तरण है जो ऋण के रूप में दिये गये। धन से संदाय (payment) को प्रतिभूत करने के प्रयोजन से किया जाता है।
सम्पत्ति के अन्तरक को बन्धककर्ता (mortgager) कहते हैं तथा इस अन्तरण के सम्बन्ध में किया गया। विलेख बन्धक-विलेख (mortgage-deed) कहलाता है।
इस धारा के अन्तर्गत बन्धक के छ: प्रकार बताये गये हैं, जो निम्नानुसार हैं-
(i) सादा बन्धक [ धारा 58 ( बी )]-इसमें बन्धककर्ता बन्धक सम्पत्ति का कब्जा बन्धकदार को किये बिना स्वयं को बन्धक ऋण की अदायगी करने के लिये आबद्ध करता है और यह भी करार करता है। कि यदि वह ऋण की अदायगी करने में असफल रहता है, तो बन्धकदार को बन्धक सम्पत्ति का विक्रय कराकर अपना ऋण धन वसूल करने का अधिकार होगा।
(ii) सशर्त बन्धक [ धारा 58 ( सी )]-इसमें बन्धककर्ता बन्धक सम्पत्ति को दृश्यमान (Ostensibly) तौर पर इस शर्त के साथ बेच देता है कि ऋण की राशि की अदायगी में व्यतिक्रम (default) की दशा में विक्रय का उल्लेख रहता है कि यदि ऋण की अदायगी यथासमय कर दी जाती है, तो विक्रय करार स्वयं प्रभावहीन हो जायेगा।
(iii) भोगबन्धक [ धारा 58 (डी)]- भोगबन्धक (usufructuary nortgage) में बन्धककर्ता और बन्धकदार के बीच यह करार होता है कि बन्धक की अवधि में बन्धक सम्पत्ति से प्राप्त होने वाले भाटकों (rent) और लाभों (profits) को भागतः बन्धक धन की अदायगी में विनियोजित किया जायेगा।
(iv) अंग्रेजी बन्धक [ धारा 58 (ई)]-जहां बन्धककर्ता बन्धक राशि की अदायगी निश्चित तारीख के लिये स्वयं को आबद्ध करते हुये बन्धक सम्पत्ति बन्धकदार को इस शर्त के साथ अन्तरित कर देता है कि बन्धक धन की अदायगी यथासमय हो जाने पर बन्धककर्ता को उसके द्वारा बन्धक रखी गयी सम्पत्ति वापस लौटा दी जायेगी, तो ऐसे बन्धक को अंग्रेजी बन्धक कहते हैं।
(V) हक-विलेखों के निक्षेप द्वारा बन्धक [ धारा 58 (एफ)]- इसमें बन्धककर्ता बन्धकदार को बन्धक सम्पत्ति अन्तरित नहीं करता, अपितु इस सम्पत्ति सम्बन्धी विलेख बन्धकदार को इस शर्त के साथ सौंप देता है कि बन्धक राशि की अदायगी पर वह वे विलेख बन्धककर्ता को वापस लौटा देगा। ऐसे बन्धक को Mortgage by deposit of title-deeds कहा जाता है।
(vi) विलक्षण बन्धक [ धारा 58 ( जी )]–जो बन्धक उपर्युक्त किसी भी श्रेणी में नहीं आते हों, उसे विलक्षण बन्धक (Anomalous Mortgage) कहते हैं। ऐसा बन्धक न्यूनतम दो साक्षियों से अनुप्रमाणित तथा । लिखित एवं रजिस्ट्रीकृत होना चाहिये।
(ii) धारणाधिकार-धारणाधिकार (lien) में चल सम्पत्ति ऋणी में निहित रहती है, परन्तु उसका लेनदार के हित में विल्लंगम कर दिया जाता है। बन्धक में बन्धकदार सम्पत्ति का स्वामी होता है जबाव धारणाधिकारी उस संपत्ति का केवल विल्लंगमदार (encumbrancer) मात्र होता है।
धारणाधिकार के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) कब्जे का धारणाधिकार (Possessory lien)—इसमें ऋण की अदायगी तक लेनदार को ऋणी की संपत्ति पर कब्जा रखने का अधिकार होता है।
(2) अभिकर्ता का धारणाधिकार (Agent’s lien)-किसी अन्यथा संविदा के अभाव में, अभिकर्ता को यह अधिकार होता है कि वह अपनी सेवाओं के लिए कमीशन या पारिश्रमिक की राशि को वसूल करने हेतु मालिक का माल, कागजात या कोई अन्य चल या अचल सम्पत्ति पर धारणाधिकार रख सकेगा। इस संबंध में भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 221 में प्रावधान है।
(3) अदत्त विक्रेता का धारणाधिकार (Unpaid vendor’s Lien)–कोई विक्रेता जिसने अपना माल । बेच दिया हो लेकिन अभी भी माल पर उसका कब्जा बना हुआ हो, तो क्रेता द्वारा माल की कीमत या मूल्य का भुगतान न किया जाने की दशा में, विक्रेता को यह अधिकार होगा कि कीमत या मूल्य की अदायगी तक वह माल अपने कब्जे में रखे रहेगा। सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 55 (4) (ख) में इस संबंध में प्रावधान है।
(4) ऋणी के किसी अधिकार को जब्त (forefeiture) करने का अधिकार।
(5) प्रभार (charges) जिसके अन्तर्गत लेनदार को ऋणी की किसी विनिर्दिष्ट निधि में से अपनी ऋणराशि वसूल करने का अधिकार प्राप्त होता है। प्रभार के दो प्रकार हैं-(1) स्थायी प्रभार (2) प्लवमान या चल प्रभार ।27
बन्धक और धारणाधिकार में अन्तर (Mortgage and Lien distinguished)
सामण्ड के अनुसार बन्धक (mortgage) और धारणाधिकार (lien) में निम्नलिखित भेद हैं
(i) बन्धक एक स्वतन्त्र अधिकार है, इसे दूसरे अधिकार की प्रतिभूति मात्र नहीं माना जाना चाहिये जबकि धारणाधिकार ऋण की प्रतिभूति का अधिकार है। इसमें जंगम वस्तुओं (movables) को ऋण का भुगतान होने तक रखा जा सकता है।
(ii) बन्धक में बन्धकदार (mortgagor) का अधिकार सशर्त और केवल प्रतिभूति के रूप में निहित रहता है। धारणाधिकार (lien) में धारणाधिकारी का अधिकार केवल प्रतिभूति के रूप में नहीं रहता बल्कि आत्यन्तिक रूप में निहित रहता है।
(iii) बन्धकदार में निहित अधिकार स्वतन्त्र है। यह ऋण की अदायगी के बाद भी बना रहता है। और ऐसी दशा में बन्धककर्ता को अपने बन्धक के विमोचन का अधिकार (right of redemption) रहता है, 28 धारणाधिकार ऋण की अदायगी हो जाने पर तुरन्त समाप्त हो जाता है और इसमें विमोचन का अधिकार (right of redemption) नहीं रहता।
(iv) बन्धक में या तो ऋणी के अधिकार लेनदार को अन्तरित किये जाते हैं या लेनदार के पक्ष में विल्लंगम किया जाता है। धारणाधिकार केवल विल्लंगम के रूप में ही उत्पन्न होता है।
(v) बन्धक में ऋणी अपनी सम्पत्ति लेनदार को अन्तरित तो कर देता है परन्तु वह स्वयं उसका लाभग्रहीता अथवा साम्यिक स्वामी बना रहता है। ऋण का भुगतान हो जाने पर बन्धकदार बन्धक रखी सम्पत्ति (mortgage property) को बंधककर्ता के न्यास के रूप में धारण करता है। धारणाधिकार में संपत्ति पर ऋणी (debtor) का साम्यिक स्वामित्व (equitable ownership) बना रहता है तथा लेनदार को इसे केवल सुरक्षित रखने का अधिकार प्राप्त है।
(vi) बन्धक के लिए पक्षकारों के बीच संविदा होना आवश्यक है किन्तु धारणाधिकार में यह
आवश्यक नहीं है।
27. सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 100 में ‘प्रभार’ की परिभाषा दी गई है।
28. सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, धाराएँ 60-61.
4. न्यास (Trust)
न्यास एक ऐसा पर-साम्पत्तिक अधिकार (right in re aliena) है जिसमें सम्पत्ति के स्वामित्व के साथ एक प्रकार की बाध्यता संलग्न रहती है। न्यास में सम्पत्ति का स्वामी किसी अन्य व्यक्ति के लिए अथवा अपने और अन्य व्यक्ति के लाभ के लिए न्यासित्व (trusteeship) स्वीकार करता है। सामण्ड के अनुसार न्यास का सृजन प्रायः अजन्मे शिशुओं, अवयस्कों, पागलों अथवा अन्य सक्षम व्यक्तियों के लाभ के लिए किया जाता है। इसकी रचना उस स्थिति में भी की जाती है जहाँ बहुत से लोगों का सामान्य हित हो अथवा जब व्यक्तियों में एक ही सम्पत्ति के प्रति विवाद हो।
न्यास के महत्व के विषय में पैटन (Paton) ने कहा है कि न्यास अनेक प्रकार से उपयोगसिद्ध हुआ है। इसके द्वारा विवाहिता स्त्रियों तथा अवयस्कों आदि के हितों को संरक्षित रखना सम्भव हुआ है। इसी प्रकार पारिवारिक सम्पत्ति के सुविधाजनक बँटवारे में न्यास बहुत उपयोगी रहा है तथा इससे संयुक्त सम्पत्ति, धार्मिक उद्देश्य के लिए एकत्रित की गई सम्पत्ति, दान आदि के व्ययन (disposal) में सुविधा हुई। है।29
भारत में न्यास संबंधी कानून के रूप में भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 प्रभावी है। उल्लेखनीय है। कि न्यास में न्यस्त सम्पत्ति न्यासी में निहित रहने पर भी वह उसे हितग्राहियों (Beneficiaries) के लाभ के लिए ही रखता है।
बंधक और न्यास में अन्तर (Mortgage and Trust Distinguished)
यद्यपि बंधककर्ता और बंधकदार के परस्पर संबंध न्यासकर्ता और न्यासी के वैश्वासिक संबंधों (fiduciary relations) से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं, परन्तु दोनों में कोई साम्य नहीं है। बंधकदार को बंधककर्ता का न्यासी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह (बंधकदार) बंधक रखी गई सम्पत्ति को बंधककर्ता के लाभ के लिए नहीं रखता और न वह बंधककर्ता का हितग्राही ही होता है। इसके अतिरिक्त, बंधकदार का बंधक रखी गई सम्पत्ति में केवल विधिक हित ही नहीं रहता अपितु लाभकारी हित भी रहता है जिसका प्रवर्तन वह बंधककर्ता के विरुद्ध वाद संस्थित करके करा सकता है।
सम्पत्ति का अर्जन (Acquisition of Property)
सामाण्ड के अनुसार सम्पत्ति अनेक प्रकार से अर्जित की जा सकती है। सम्पत्ति अर्जित करने के निम्नलिखित मुख्य तरीके हैं
1. कब्जे द्वारा अर्जन (By Possession)
पूर्ववर्ती अध्यायों में यह कथन किया जा चुका है कि कब्जा स्वामित्व का प्रथम दृष्ट्या प्रमाण (prima facie evidence) है। दूसरे शब्दों में, किसी भौतिक पदार्थ पर कब्जा होने से उस पर स्वामित्व का हक उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसी वस्तु पर कब्जा कर लेता है जो किसी भी व्यक्ति की सम्पत्ति न हो (res nullius), तो उस पर कब्जा रखने वाले व्यक्ति को उस वस्तु का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, आकाश में उड़ने वाले किसी पक्षी पर उस व्यक्ति का पूर्ण हक (स्वत्व) होगा जिसने सबसे पहले उस पक्षी पर कब्जा किया हो। इसी प्रकार समुद्र की मछलियों पर उस व्यक्ति का हक होगा जिसने सर्वप्रथम उन्हें कब्जे में लिया हो। यदि कब्जे में ली गई वस्तु किसी अन्य की सम्पत्ति है, तो कब्जे का हक उसके वास्तविक स्वामी के सिवाय शेष अन्य सभी व्यक्तियों के विरुद्ध पूर्ण रूप से कब्जाधारी को ही होगा। इसीलिए सामण्ड ने कहा है कि यदि किसी वस्तु का स्वामी एक व्यक्ति होता है तथा दूसरा व्यक्ति उस पर कब्जा रखता है, तो वास्तव में ऐसी वस्तु के दो स्वामी होते हैं। पहले व्यक्ति का स्वामित्व आत्यन्तिक तथा पूर्ण (absolute and
29. पैटन जी० डब्ल्यू० : ए टेक्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिसपूडेन्स, पृ० 432.
perfect) होता है तथा दूसरे का कब्जाधारी स्वामित्व (possessory ownership) होगा, जो अपूर्ण (imperfect) होता है 30 तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति वस्तु का कब्जा रखता है (भले ही वह कब्जा अवैध तरीके से ही प्राप्त क्यों न किया गया हो); उसे कब्जा सम्बन्धी स्वामित्व प्राप्त हो जाता है। यदि किसी कब्जाधारी स्वामी (possessory owner) को कोई व्यक्ति उसके कब्जाकृत वस्तु से दोषपूर्ण ढंग से वंचित कर देता है, तो ऐसा स्वामी उस वस्तु को उस व्यक्ति से वापस ले सकता है बशर्ते कि वह व्यक्ति उस वस्तु का वास्तविक स्वामी न हो।3।।
2. चिरभोगाधिकार द्वारा अर्जन (By Prescription)
एक निश्चित कालावधि बीत जाने के परिणामस्वरूप जिन अधिकारों का सृजन या विनाश होता है, उन्हें ‘चिरभोगाधिकार’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब विहित कालावधि बीत जाने (lapse of time) के कारण किसी व्यक्ति को कोई अधिकार प्राप्त हो जाता है, तो यह कहा जाता है कि उसे चिरभोगाधिकार (Right of Prescription) प्राप्त हो गया है। इसी प्रकार जब विहित (Prescribed) कालावधि बीत चुकने के कारण। किसी व्यक्ति का कोई अधिकार छिन जाता है, तो इससे जिस व्यक्ति के पक्ष में अधिकार उत्पन्न हो जाता है, उसे चिरभोगाधिकार कहते हैं।
चिरभोगाधिकार दो प्रकार के होते हैं-(1) निश्चयात्मक या अर्जनशील (Positive or Acquisitive) तथा (2) नकारात्मक या निर्वापक (Negative or Extinctive)।
यदि विहित कालावधि बीत जाने के परिणामस्वरूप अधिकार उत्पन्न हो जाता है, तो इसे निश्चयात्मक अथवा अर्जनशील चिरभोगाधिकार कहते हैं। उदाहरणार्थ, किसी मार्ग का बीस वर्ष तक निरंतर उपयोग किया जाते रहने के परिणामस्वरूप उस मार्ग पर चिरभोगाधिकार प्राप्त हो जाता है।32 परन्तु यदि कालावधि की समाप्ति से किसी अधिकार का नाश हो जाता है, तो इसे नकारात्मक या निर्वापक चिरभोगाधिकार कहते हैं। उदाहरण के लिए ऋण के लिए निर्धारित अवधि के भीतर दावा दाखिल न करने से लेनदार (creditor) के दावे का अधिकार नष्ट हो जाता है और देनदार (debtor) को ऋण की रकम का चिरभोगाधिकार प्राप्त हो जाता है।
सामण्ड के अनुसार नकारात्मक अथवा निर्वापक चिरभोगाधिकार के दो प्रकार होते हैं-(1) पूर्ण (Perfect) तथा (2) अपूर्ण (Imperfect) पूर्ण नकारात्मक चिरभोगाधिकार में प्रधान अधिकार पूर्णत: नष्ट हो जाता है। उदाहरणार्थ, यदि अपनी भूमि से बेदखल किया गया कोई व्यक्ति उस भूमि को पुन: अपने कब्जे में लेने के लिए बारह वर्ष तक कोई कार्यवाही नहीं करता, तो उस स्थिति में उसका केवल कब्जा प्राप्त करने का अधिकार ही समाप्त नहीं हो जायेगा अपितु भूमि पर उसके स्वामित्व का अधिकार भी पूर्णत: समाप्त हो जायेगा।
अपर्ण चिरभोगाधिकार में केवल कार्यवाही करने का अधिकार समाप्त हो जाता है तथा प्रधान अधिकार का अस्तित्व पूर्ववत् बना रहता है। उदाहरण के लिये, यदि लेनदार ऋणी से ऋण के भुगतान के लिए तीन वर्ष की अवधि के भीतर वाद नहीं लाता, तो वाद चलाने के उसके अधिकार का अन्त हो जायेगा। किन्तु यह ऋण समाप्त नहीं होता और बाद में भी चुकाये जाने योग्य ऋण बना रहता है।
उल्लेखनीय है कि चिरभोगाधिकार संबंधी विधि इस सामान्य सिद्धांत पर आधारित है कि कानून सतर्क (या सजग) व्यक्ति की सहायता करता है न कि निष्क्रिय व्यक्ति की।’33
30. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 434.
31. आरमोरी बनाम डेलामिरी, (1722) 1 स्टेंज 504,
32. भारतीय सुखाधिकार अधिनियम धारा 15.
33.Visitantibus non dormientibus jura subveniunt’ (Law helps the vigilant and not the dormant).
3. करार द्वारा अर्जन (By Agreement)
सम्पत्ति को करार द्वारा भी अर्जित किया जा सकता है। करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है तथा इसमें निम्नलिखित बातें होना आवश्यक है-
(1) दो या दो से अधिक पक्षकार,
(2) पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति,
(3) पक्षकारों को आपस में करार की सूचना, तथा
(4) पक्षकारों के बीच विधिक सम्बन्ध स्थापित किये जाने का एक-सा आशय। | सर्वबन्धक सम्पत्तिक अधिकार के रूप में करार दो प्रकार के हो सकते हैं-(1) समनुदेशन (Assignment) तथा (2) अनुदान (Grants)
समनुदेशन के अन्तर्गत एक स्वामी के वर्तमान अधिकार को दूसरे स्वामी को अन्तरित कर दिया जाता है, जैसे पट्टे का समनुदेशन, किसी वस्तु का क्रय आदि।।
अनुदान द्वारा अनुदाता (Grantor) के वर्तमान अधिकारों पर विल्लंगम के रूप में नये अधिकार सृजित करार औपचारिक (formal) हो सकता है अथवा अनौपचारिक (informal) भी। औपचारिक करार सदैव लिखित होते हैं तथा इनका रजिस्ट्रीकरण तथा अनुप्रमाणन (Registration and Attestation) कराना आवश्यक होता है।
अनौपचारिक करार मौखिक होते हैं। रोमन विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति अन्तरण सम्बन्धी करार की एक अनिवार्य औपचारिकता यह थी कि उस संपत्ति के कब्जे का परिदान (delivery of possession) किया जाना आवश्यक था। सम्पत्ति के कब्जे के परिदान को रोमन विधि में ‘ट्रैडीशियो’ (traditio) की संज्ञा दी गई थी। इंग्लिश विधि में भी सन् 1845 तक भूमि का अन्तरण उसके कब्जे के परिदान (delivery of possession) के बिना सम्भव नहीं था परन्तु उसी वर्ष पारित एक अधिनियम के अनुसार अब वहाँ भूमि का अन्तरण परिदान (delivery) के बिना भी वैध रूप से किया जा सकता है।34 ।
करार सम्बन्धी एक सामान्य नियम यह भी है कि कोई व्यक्ति केवल स्वयं के हक का अन्तरण कर सकता है, इससे अधिक का नहीं।35 इस सिद्धान्त का मूल उद्देश्य व्यक्तियों के हक को विधिक संरक्षण प्रदान करना है। तथापि इस सिद्धान्त के कुछ अपवाद हैं36 जिनका उल्लेख नीचे किया गया है-
(i) यदि न्यासी द्वारा न्यास की सम्पत्ति किसी ऐसे व्यक्ति को बेची जाती है जिसे यह जानकारी न हो कि वह न्यास सम्पत्ति है तथा उसने इस सम्पत्ति का उचित मूल्य चुकाया हो, तो ऐसी दशा में उस सद्भावी क्रेता (bonafide purchaser) को इस सम्पत्ति पर न्यासी के हक से बेहतर हक प्राप्त होगा।37 इसका कारण यह है। न्यासी सम्पत्ति को दूसरे के हित के लिए धारण करता है तथा वह सम्पत्ति का विधिक स्वामी होता है, परन्त। संपत्ति पर उसका हक विल्लंगमित (encumbered) होता है, लेकिन सद्भावी क्रेता (bornafide purchaser) को उस संपत्ति का अविल्लंगमित (unencumbered) हक प्राप्त होगा।
(ii) जब किसी वस्तु पर कब्जा एक व्यक्ति रखता है और उसका स्वामित्व किसी अन्य व्यक्ति में निहित होता है, तो ऐसी दशा में यदि कब्जाधारक वह वस्तु किसी तीसरे व्यक्ति को इस जानकारी के साथ अन्तरित कर देता है कि उस वस्तु पर स्वामित्व का हक भी उसी (कब्जाधारी) का है, तो कब्जाधारक के कथन पर सद्भावनापूर्वक विश्वास रखते हुए उस वस्तु को लेने वाले व्यक्ति को हक अन्तरणकर्ता से बेहतर होगा।
34. Statutes 8 & 9 Vict. c. 100 s. 2 (1845).
35. f4G701 37ofit ufus fe ha nemo plus juris ad alium transferre potest, quam ipse haberet में मिलती है जिसका आशय है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं के हक से बेहतर हक का अन्तरण नहीं कर सकता.
36. भारतीय सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 41.
37. यह भारतीय न्यास अधिनियम की धारा 63 का अपवाद है.
उदाहरणार्थ, यदि किसी व्यक्ति ने एक बैंक नोट को चुराकर उसे कब्जे में ले लिया है, तो उस बैंक नोट पर। उसका कोई विधिक हक नहीं है, किन्तु यदि किसी तीसरे व्यक्ति ने सद्भावना से उचित मूल्य देकर वह बैंक नोट उस व्यक्ति से प्राप्त किया है, तो उस तीसरे व्यक्ति को उस नोट पर कब्जाधारक से अधिक अच्छा हक प्राप्त होगा।
जीवित व्यक्तियों के बीच सम्पत्ति का अर्जन कब्जा, चिरभोग या करार द्वारा सम्भव हो सकता है जबकि विरासत के अन्तर्गत सम्पत्ति वसीयती उत्तराधिकार या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त की जा सकती है। विरासत द्वारा अर्जित सम्पत्ति का विस्तृत विवेचन नीचे किया गया है।
4. रिक्थ या विरासत द्वारा अर्जन (By Inheritance)
साम्पत्तिक अधिकार रिक्थ या विरासत से भी प्राप्त हो सकते हैं। अत: सम्पत्ति अर्जित करने के विभिन्न साधनों में यह भी एक साधन है। व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् भी उसके कुछ अधिकारों का अस्तित्व बना रहता है तथा ये अधिकार मृतक के उत्तराधिकारियों को प्रत्यावर्तित हो जाते हैं। परन्तु कुछ अधिकार व्यक्ति की। मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं। ऐसे अधिकार जो व्यक्ति की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं, गैर-विरासती अधिकार (uninheritable rights) कहलाते हैं तथा वे अधिकार जो व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों को अन्तरित होते हैं, विरासती अधिकार (heritable rights) कहलाते हैं। व्यक्ति के सांपत्तिक अधिकार (proprietary rights) बहुधा विरासती (heritable) होते हैं तथा उसके वैयक्तिक अधिकार प्रायः गैर-विरासती (uninheritable) होते हैं। परन्तु इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। उदाहरणार्थ, मुकदमे में दोनों पक्ष के पक्षकारों की मृत्यु होने के बाद भी न्यायिक कार्यवाही का अधिकार उनके विधिक प्रतिनिधि में निहित रहता है।
किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके अधिकार को प्राप्त करने वाला विधिक प्रतिनिधि उन अधिकारों के लाभ का स्वामी है किन्तु साथ ही उसे मृतक के दायित्वों का भार भी वहन करना पड़ता है। परन्तु यह दायित्व केवल विरासत में प्राप्त हुयी सम्पत्ति की राशि तक ही सीमित रहता है इससे अधिक नहीं 38 अतः मृतक के विधिक प्रतिनिधि की प्रास्थिति दोहरी होती है, अर्थात् वह सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार भी रखता है और मृतक की सम्पत्ति से सम्बन्धित दायित्व का निर्वहन भी उसे करना पड़ता है।
मृतक के विधिक उत्तराधिकारियों को प्राप्त विरासत में सम्पत्ति पाने का अधिकार इस धारणा पर आधारित है कि सम्पत्ति व्यक्ति की सामाजिक सुरक्षा का श्रेष्ठतम साधन है। इसीलिये पुरातन हिन्दू विधि के अन्तर्गत संयुक्त परिवार के कार्य को पारिवारिक सम्पत्ति के स्वत्व-अन्तरण का अधिकार प्राप्त नहीं था क्योंकि यह सम्पत्ति परिवारजनों के भोजन, रहने तथा जीवन-निर्वहन के साधन उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण साधन था यद्यपि ऐसी सन्तानों को विरासती-अधिकार प्राप्त नहीं था। हिन्दू विधि की मिताक्षरा शाखा के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियम उत्तरजीविता के सिद्धान्त (Principle of survivorship) पर आधारित थे। मृतक की सम्पत्ति पर उसकी विधवा पत्नी, विधवा माता, अवयस्क पुत्र, अविवाहित पुत्रियाँ और यहाँ तक कि गर्भस्थ शिशु को भी उत्तराधिकार प्राप्त था और सम्पत्ति में इनके हिस्से को अन्यसंक्रामित (alineate) नहीं किया जा सकता था, जब तक कि ऐसा करना विधिक आवश्यकता, परिवार को संकट से उबारने या परिवार के फायदे अनिवार्य न हो ।39
किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसके स्वामित्व की सम्पत्ति का व्ययन (disposition) तथा उनसे | व्युत्पन्न अधिकार दो प्रकार से हो सकते हैं-(1) वसीयती (inheritable), तथा (2) गैर-वसीयती (uninheritable rights) किसी व्यक्ति का सम्पत्ति पर उत्तराधिकार या तो वसीयती, अर्थात् इच्छापत्र के आधार (testate) पर हो सकता है या गैर-वसीयती, अर्थात् इच्छापत्र विहीन (intestate)। यदि मृतक ने वसीयत में उत्तराधिकारियों
38. सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 14.
39. Mayne : Hindu Law and Usages (1938) p. 822.
के नाम निर्देशित किये हों, तो उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति का व्ययन (disposal) वसीयत में व्यक्त की गई इच्छा के अनुसार किया जायेगा। इसे वसीयती उत्तराधिकार (testamentary succession) कहते हैं। परंतु यदि मृतक ने वसीयत द्वारा उत्तराधिकारियों का नाम निर्देशन नहीं किया है, तो उसकी सम्पत्ति का व्ययन (disposal) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act, 1956) के अनुसार किया जायेगा तथा ऐसा व्ययन गैर-वसीयती उत्तराधिकार (non-testamentary succession) कहा जायेगा। व्यक्ति की वसीयती-शक्ति पर निम्नलिखित निर्बन्धन (restrictions) होते हैं
(1) अवधि की परिसीमा (Limitation of Time)
कोई भी वसीयतकर्ता सम्पत्ति को किसी व्यक्ति में शाश्वत अवधि तक निहित नहीं कर सकता 0 वसीयतकर्ता को अपनी सम्पदा का निपटारा इस प्रकार करना चाहिये ताकि वह उसके जीवन-काल तथा उसके पश्चात् उसके उत्तराधिकारी (वारिस) की वयस्कता प्राप्ति की आयु (अठारह वर्ष) से अधिक काल के लिए निहित न की गई हो।
(2) धनराशि की सीमा (Limitation of Amount)
वसीयतकर्ता को अपनी सम्पत्ति का कुछ भाग उन व्यक्तियों के लिये छोड़ना आवश्यक है जिनकी देखभाल के लिये वह कर्त्तव्याधीन है। मुस्लिम विधि का यह नियम कि कोई भी मस्लिम व्यक्ति अपने कर्ज के भुगतान तथा अन्त्येष्टि के लिए व्यय की राशि को छोड़कर शेष सम्पत्ति के एक-तिहाई भाग से अधिक का अन्तरण उस सम्पत्ति के उत्तराधिकारियों की सहमति के बिना नहीं कर सकता, इसी सिद्धान्त पर आधारित है। ज्ञातव्य है कि हिन्दू विधि के अन्तर्गत व्यक्ति को केवल अपनी स्व-अर्जित (Self-acquired) सम्पत्ति की ही वसीयत कर सकता है तथा उसकी पैतृक सम्पत्ति का व्ययन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों को प्राप्त होगी। (3) प्रयोजन की सीमा (Limitation of Purpose)
कोई भी व्यक्ति अपनी वसीयत में यह उल्लेख कर सकता है कि उसके उत्तराधिकारी उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति का उपयोग किन-किन प्रयोजनों के लिए करेंगे। परन्तु वह अपनी वसीयत में कोई ऐसा निर्देश नहीं दे सकता, जो जन-हित के विरुद्ध हो। उदाहरणार्थ, यदि वसीयतकर्ता अपनी वसीयत में यह निर्देश देता है कि उसके मरणोपरांत उसकी भूमि को बंजर पड़ा रहने दिया जाए या उसके धन को समुद्र में फेंक दिया जाये41 या उसे उसके शव के साथ दफना दिया जाए, तो उसकी वसीयत अवैध मानी जायेगी।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विधि के अन्तर्गत व्यक्ति के सांपत्तिक अधिकारों सम्बन्धी स्वामित्व या हक का निर्धारण सम्पत्ति की संकल्पना के आधार पर किया जाता है। यही नहीं, विधिशास्त्र में स्वामित्व’ (ownership) तथा कब्जे (possession) की धारणाएँ भी सम्पत्ति की संकल्पना से ही उत्पन्न हुई हैं। अधिकार एवं दायित्व भी सम्पत्ति से घनिष्ठतः सम्बद्ध हैं। इन्हीं कारणों से सम्पत्ति-विधि को विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में स्वीकार किया गया है। यदि किसी सम्पत्ति के लिए कोई उत्तराधिकारी या वसीयती न हो, तो वह राज्य द्वारा अधिग्रहीत कर ली जाती है 42
अन्यायपूर्ण समृद्धि (Unjust Enrichment)
यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की सम्पत्ति या उसके साथ की गयी संविदा का अनुचित फायदा उठाते हुये कोई लाभ या धन ले लेता है या प्राप्त करता है, तो उसे उसके द्वारा की गयी अन्यायपूर्ण समृद्धि कहा जायेगा। किसी सम्पत्ति पर प्रतिकूल कब्जा (Adverse Possession) अन्यायपूर्ण समृद्धि का सर्वोत्तम उदाहरण है। अन्यायपूर्ण समृद्धि के नियम का सूत्रपात साम्या विधि (equity law) के उद्भव से हुआ क्योंकि
40. भारतीय सम्पत्ति अधिनियम, धारा 14.
41. Brown V. Burdett, (1882) 21 Ch. D. 667.
42. इसे ‘bona vacantia’ कहा जाता है.
यह साम्या, न्याय तथा अन्तरात्मा की आवाज के विरुद्ध था। पैटन के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति | थोड़े समय के लिये किसी अन्य व्यक्ति को सौंपता है और सम्पत्ति वापस मांगी जाने पर वह दूसरा व्यक्ति उसे देने से इन्कार कर देता है, तो यह उस अन्य द्वारा अन्यायपूर्ण समृद्धि की जाना माना जायेगा ।3
भारत में सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार (Right in Property in India)
भारत के उच्चतम न्यायालय ने बैंक राष्ट्रीयकरण के वाद44 में सम्पत्ति की सविस्तार व्याख्या करते हुये अभिकथन किया कि सम्पत्ति का अधिकार व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ अधिकार है, जो उसे उसकी भूमि, दाय (tenements), माल या वस्तुओं के प्रति प्राप्त है, यह उसे किसी शिष्टता के कारण प्राप्त न होकर इन वस्तुओं के प्रति उसके स्वामित्व, हित तथा हक (स्वत्व) के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। इसमें कॉपीराइट, पेटेण्ट, व्यापार चिन्ह (trade mark) आदि जैसे अधिकारों का समावेश तो है ही, साथ में ऋण आदि जैसे व्यक्तिपरक अधिकार भी शामिल हैं जिनका अन्तरण किया जा सकता है। सम्पत्ति के अधिकार को उत्तराधिकार तथा दायाधिकार द्वारा अर्जित किया जा सकता है।
वर्तमान समय में अधिकांश देश सम्पत्ति का व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं। भारत का संविधान के अन्तर्गत व्यक्ति की सम्पत्ति सम्बन्धी स्वतन्त्रता को अनुच्छेद 19 (1) (एफ) के अधीन संरक्षण प्राप्त है जिसमें यह लेख है कि राज्य द्वारा नागरिकों के साम्पत्तिक अधिकारों में अनुचित हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। मूलतः सम्पत्ति के अधिकार को अनुच्छेद 31 के अन्तर्गत, मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त थी लेकिन यह अनुभव किया गया कि नागरिकों को प्रदत्त यह अधिकार देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में बाधक सिद्ध हो रहा था क्योंकि जहां भी राज्य का किसी सम्पत्ति के अधिग्रहण की पड़ती, इसके विरुद्ध रिट याचिका लगा दी जाती, जो वर्षों न्यायालय में लम्बित रहने के कारण राज्य का लोक कल्याण कार्य रुक जाता था। इसीलिये संविधान के 44वें संशोधन, 1978 द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की सूची से हटाकर अनुच्छेद 300-क के अन्तर्गत एक सामान्य विधिक अधिकार बना दिया गया। इस संशोधन का मूल उद्देश्य यह था कि भारत में वैयक्तिक सम्पत्ति की बजाय सामाजिक या सार्वजनिक सम्पत्ति को अधिक महत्व दिया जाये। वर्तमान भारत में सम्पत्ति की एक सामाजिक संस्था (Social institution) की मान्यता प्राप्त है।45
सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की बजाय एक सामान्य विधिक अधिकार के रूप में परिवर्तित कर दिया जाने का परिणाम यह हुआ कि जब कोई व्यक्ति इस अधिकार के लिये अनुच्छेद 32 के अधीन रिट याचिका दायर करके उपचार प्रदत्त नहीं कर सकेगा तथा इसके लिये उसे सिविल न्यायालय में सिविल वाद दायर करना होगा। इस सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय ने जुलूभाई नानूभाई खाचर बनाम गुजरात राज्य46 के वाद में विनिश्चित किया कि अनुच्छेद 300-व के अधीन वर्णित सम्पत्ति का अधिकार संविधान के मूलभूत ढांचे (basic structure) के अन्तर्गत नहीं आता है, अत: व्यक्ति को लोकव्यापी हित में इससे वंचित किया जा सकता या राज्य इसे लोकहित या सामाजिक हित में अर्जित कर सकता है।
उल्लेखनीय है वर्तमान वैधानिक स्थिति यह है कि सम्पत्ति के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अधीन वैयक्तिक स्वतंत्रता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है तथा संरक्षित किया जाता है, अत: व्यक्ति को केवल उचित कारण होने पर ही इस अधिकार से वंचित किया जा सकता है।
43. जी० डब्ल्यू० पैटन : ए टेक्स्ट बुक ऑफ जूरिस्पूडेन्स (1972) पृ० 485; भारतीय संविधान में सम्पत्ति के अधिकार को भाग IIT में उल्लिखित मौलिक अधिकारों में से हटाकर अनुच्छेद 300-ए के अन्तर्गत एक विधिक अधिकार के रूप में समाविष्ट करना अनुचित समृद्धि को रोकने के उद्देश्य से ही किया गया है. 44. आर० सी० कूपर बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1970 सु० को 564.
45. नेशनल टेक्सटाइल्स वर्कर्स बनाम पी० आर० रामकृष्णन, ए० आई० आर० 1983 सु० को० 75.
46. ए० आई० आर० 1995 सु० को० 142.
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