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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 26 Notes

 

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 26 Notes:- LLB Law Jurisprudence and Legal Theory Section 4 Chapter 26 Titles Most Important Notes in Hindi English for Students, LLB Previous Year Sample Model Papers With Answer Available on this Site.

 

अध्याय 26 (Chapter 26)

हक (Titles)

LLB Study Material Notes

विधिशास्त्र के अन्तर्गत ‘स्वत्व’ या ‘हक’ की संकल्पना अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी व्यक्ति को अधिकार है अथवा नहीं, यह प्राय: उस वस्तु पर उसके हक पर निभर करता है। हर का पर्याय ‘टाइटिल’ (title) है जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘टिटुलस’ (Titaulius) से हुई है। सामान्य अर्थ में से आशय किसी सम्पत्ति पर कब्जा सहित अथवा कब्जा रहित अधिकार से है। विधि में ‘हक शब्द : अधिक व्यापक अर्थ में किया गया है। ‘हक’ (title) में उन समस्त तथ्यों (facts) का समावेश है । अधिकारों तथा कर्तव्यों को उत्पन्न करते हैं। अत: ऐसे तथ्य या घटनाएँ जिनके कारण किसी अधिकार स्वामित्व उत्पन्न हो जाता है, ‘हक’ कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में ‘हक’ एक स्रोत हैं तथा ‘अधिकार’ उसको उत्पत्ति है।

सामण्ड ने हक (title) को परिभाषित करते हुए कहा है कि प्रत्येक अधिकार की उत्पत्ति हक से होती है। ‘हक’ या स्वत्व ऐसे निश्चित तथ्य या तथ्यों के समूह को कहते हैं जिसके परिणामस्वरूप विधिक अधिकार उत्पन्न होता है। यदि विधि के अन्तर्गत किसी वस्तु के सम्बन्ध में एक व्यक्ति को अधिकार है परन्तु दूसरे को नहीं, तो इसका कारण यह है कि कतिपय तथ्य पहले व्यक्ति के प्रति विद्यमान हैं और दूसरे के प्रति नहीं हैं। अत: तथ्य ही अधिकार का हक दिलाते हैं। इस प्रकार सामण्ड ने ‘हक’ को विधिक अधिकार को एक आवश्यक तत्व माना है।

हालैण्ड ने भी हक को इसी अर्थ में परिभाषित किया है। उनके अनुसार ‘हक’ (title) वह तथ्य है। जिससे अधिकार की उत्पत्ति होती है । तथापि वे ‘हक’ को विधिक अधिकार के रूप में स्वीकार नहीं। करते हैं।

लार्ड ब्लेकबर्न (Lord Blackburn) ने ‘हक’ के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘हक’ एक विनिहितकारी तथ्य (investive fact) को प्रदर्शित करता है और अधिकार इस तथ्य पर आधारित शक्ति (power) है। अत: किसी व्यक्ति में विनिहित तथ्य (हक) के कारण ही कोई विधिक अधिकार निहित हो सकता है।

जर्मी बेंथम (Jeremy Benthan) ने ‘हक’ की उपर्युक्त परिभाषाओं की आलोचना करते हुए कहा है कि हक उन तथ्यों को तो प्रकट करता है जिनसे अधिकार उत्पन्न होता है, किन्तु वह उन तथ्यों को प्रकट नहीं करता जो अधिकार की समाप्ति के लिए कारणीभूत होते हैं।

ऑस्टिन (Austin) ने बेंथम के विचारों का समर्थन करते हुए कहा है कि ‘हक’ (title) किसी ऐसे तय को कहते हैं जिसके माध्यम से विधि के अन्तर्गत अधिकार (right) उत्पन्न होता है या अधिकार को समाप्त होती है; अथवा कर्तव्य आरोपित होता है या कर्तव्य से उन्मुक्ति मिलती है।

न्यायमूर्ति होम्स (Justice Holmes) के अनुसार ऐसा तथ्य जो किसी अधिकार या कर्तव्य की उत्पाद करता है, ‘हक’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में, कतिपय विनिहितकारी तथ्य मिलकर जब किसी अधिकार या स्वामित्व का सृजन करते हैं, तो इसे हक कहा जाता है।

1. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स ( 12वाँ संस्करण), पृ० 331,

तथ्य (Facts)

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हक (title) एक स्रोत है तथा अधिकार उस स्रोत की उपज । यह सर्वविदित है कि कुछ अधिकार मानव को जन्म से ही प्राप्त होते हैं, जैसे स्वतन्त्रता या प्रतिष्ठा या जीवन का अधिकार। परन्तु अन्य अधिकारों की प्राप्ति उसे विधि द्वारा विनिर्दिष्ट कुछ तथ्यों के विद्यमान होने पर ही होती है। दूसरे शब्दों में, अनेक अधिकार ऐसे होते हैं जिनकी प्राप्ति अथवा समाप्ति कुछ विनिर्दिष्ट तथ्यों के विद्यमान होने या न होने पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, कर्ज (debt) या संविदा (contract) आदि के परिणामस्वरूप उत्पन्न अधिकारों की उत्पत्ति या समाप्ति कुछ निर्दिष्ट तथ्यों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर निर्भर करती है।

हक से सम्बन्धित तथ्य दो प्रकार के होते हैं-(1) भौतिक (physical) और (2) मनोवैज्ञानिक (psychological) । भौतिक तथ्यों से आशय ऐसी वस्तुओं से है जिनकी अनुभूति ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हो सकती है, जैसे मकान बेचना, पुस्तक खरीदना आदि। मनोवैज्ञानिक तथ्य का आशय मानसिक चेतना से है, जैसे किसी व्यक्ति का कर्ज अदा न करने का इरादा या चोरी करने का इरादा आदि मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं।

उल्लेखनीय है कि विधि के अन्तर्गत केवल वे तथ्य या तथ्यों का योग हक नहीं कहलाते जो किसी व्यक्ति को अधिकारों की प्राप्ति कराते हैं, अपितु इसमें उन तथ्यों का समावेश भी है जो किसी व्यक्ति के अधिकारों की समाप्ति करते हैं। इसका कारण यह है कि प्राय: एक व्यक्ति के अधिकार की समाप्ति से दूसरे व्यक्ति के किसी अधिकार का सृजन होता है। तात्पर्य यह है कि हक के अन्तर्गत तथ्यों की सृजनात्मक एवं विनाशात्मक, दोनों ही प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं। इसी आधार पर कीटन ने तथ्यों का वर्गीकरण निम्नानुसार किया है, जो ‘हक’ का वर्गीकरण भी है। सामण्ड ने भी कीटन द्वारा किये गये इस वर्गीकरण का समर्थन किया है।

हक में समाविष्ट तथ्यों का वर्गीकरण (Classification of Facts comprising Titles)

तथ्यों से अधिकार का सृजन होता है और अधिकार का विनाश भी होता है। अत: (1) निर्माण, (2) अन्तरण और (3) विनाश, ये अधिकार के तीन प्रमुख चरण होते हैं। इन्हीं तीन दशाओं के आधार पर तथ्यों (facts) तथा ‘हक’ को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया गया है-

निहितकारी तथ्य या हक (Vestitive Facts or Titles)

विनिहितकारी तथ्य/हक Investitive Facts (or Titles)

निर्निहितकारी तथ्य/हक Divestitive Facts (or Titles)

मूल हक (Original Titles)

व्युत्पन्नकारी हक (Derivative Titles)

संक्रमणकारी तथ्य (Alienative Facts)

विलोपकारी तथ्य (Extinctive Facts)

इनसे अधिकारों का

सृजन होता है। (Creation of Rights)

ये अधिकारों का अन्तरण करते हैं। (Transfer of Rights)

इनसे अधिकारों का विनाश होता है। (Extinction of Rights)

2. कीटन (Keeton) : ज्यूरिसपूडेंस (1949), पृ० 195.

ऐसे तथ्य जिनमें किसी अधिकार की प्राप्ति अथवा किसी अधिकार की समाप्ति होती है, निहितकारी तथ्य

(Vestitive facts) कहलाते हैं। बेन्थम के अनुसार ऐसे समरत तथ्य जो अधिकारों का पजन करते हैं। तथा उनका अन्तरण अथवा हरण करते हैं; ‘निहितकारी तथ्य’ कहलाते हैं। ये तय तीन प्रकार के हो सकते हैं-विनिहितकारी तथ्य (Investitive Facts)

जो तथ्य अधिकार प्रदान करते हैं वे ‘विनिहितकारी तथ्य’ कहलाते हैं। सामण्ड ने इन तथ्यों को ही हक (title) कहा है। ऐसे तथ्य यदि अधिकार का सृजन या पुन: प्रारम्भ करते हैं, तो मुल हक (original title) कहलाते हैं। परन्तु यदि वे किसी पूर्व से ही विद्यमान अधिकार या किसी अन्य व्यक्ति में अन्तरण करते हैं, तो व्युत्पन्न हक (derivative title) कहलाते हैं।

अन्तरणकारी तथ्य उन्हें कहते हैं जिनके माध्यम से हक एक व्यक्ति के पास से किसी अन्य व्यक्ति के पास अन्तरित हो जाता है।  

ऐसे तथ्य जिनसे अधिकार का विनाश होता है या जो किसी अधिकार को समाप्त कर देते हैं,  निर्निहितकारी तथ्य (divestitive facts) कहलाते हैं। ये तथ्य दो प्रकार के हो सकते हैं-(i) संक्रमणीय (alienative) (ii) विलोपकारी (extinctive) ।

संक्रमणीय तथ्य (Alienative facts) ऐसे तथ्य हैं जो एक व्यक्ति को किसी अधिकार से वंचित करके यह अधिकार दूसरे व्यक्ति को अन्तरित करते हैं। निर्वापणकारी तथ्यों (extinctive facts) से आशय ऐसे तथ्यों से है जो किसी अधिकार का विलोप करके उसके अस्तित्व को समाप्त कर देते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई लेनदार अपने ऋण को किसी अन्य व्यक्ति को बेच देता है, तो यह तथ्य संक्रमणीय होगा क्योंकि ऋण की अदायगी का अधिकार लेनदार के पास से उस दूसरे व्यक्ति को अन्तरित हो जाता है। परन्तु यदि कुणी व्यक्ति ऋण की राशि की अदायगी करके लेनदार से इसकी रसीद प्राप्त कर लेता है, तो यह विलोपकारी तथ्य (extinctive fact) होगा क्योंकि इसके परिणामस्वरूप लेनदार का भुगतान प्राप्त करने सम्बन्धी हक समाप्त हो । जाता है।

सामण्ड (Salmond) ने व्युत्पन्न हक derivative title) और संक्रमणीय तथ्य (alienative facts) को एक ही वर्ग के तथ्य निरूपित करते हुए कहा है कि दोनों में ही अधिकारों का अन्तरण होता है तथा अन्तरितो (transferec) की दृष्टि से ऐसा अन्तरण व्युत्पन्न हक का सृजन करता है, जबकि अन्तरक (transferor) की दृष्टि से वह संक्रमणीय तथ्य (alienative fact) होता है। उदाहरणार्थ, यदि एक व्यक्ति अपना मकान दूसरे को बेचता है, तो मकान का विक्रय संक्रमणीय तथ्य (alienative facts) तथा दूसरे व्यक्ति द्वारा मकान का क्रय किया जाना व्युत्पन्न हक (derivative title) है क्योंकि मकान पर उस व्यक्ति को अधिकार प्राप्त हो जाता है। अत: स्पष्ट है कि व्युत्पन्न हक तथा संक्रमणीय तथ्य, दोनों एक ही घटना के दो पहलू हैं। तथ्यों (facts) के उपर्युक्त वर्गीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल हक (original title) से। अधिकारों की उत्पत्ति होती है व्युत्पन्न हक (derivative title) तथा संक्रमणीय तथ्यों (alienative facts) से अधिकारों का अन्तरण होता है, जबकि विलोपकारी तथ्यों (extinctive facts) से अधिकार विनष्ट हो जाते

विधि द्वारा निर्दिष्ट किन्हीं तथ्यों के योग को हक (title) कहते हैं जो अधिकारों का सृजन करते हैं। यह उल्लेख किया जा चुका है कि केवल मौलिक तथ्य तथा गुत्पन्न तथ्य ही क्रमशः निर्माण और अन्तरण की किया द्वारा अधिकारों को प्राप्त कराते हैं। स्पष्ट है कि हक दो प्रकार के होते हैं. हक (Dri (1) title) तथा (2) व्युत्पन्न हक (derivative titles)।

मूल हक (original titles) से नये अधिकारों का सृजन होता है जबकि यूपन्न हक {{feriviative १०) पर्व से विद्यमान किसी अधिकार का उसके धारक से किसी अन्य को रक्षा कराते हैं उदाहरणार्थ, नदी या तालाब से मछली पकड़ना व्यक्ति को मछली पर पूल हक दिला है क्योंकि इसके पूर्व उस पर

3. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स ( 12वाँ संस्करण) पृ० 3:33.

किसी का स्वामित्व नहीं होता है। परन्तु यदि मछली को बाजार से खरीदा गया है, तो इस प्रकार प्राप्त किया। गया हक व्युत्पन्न हक कहलाएगा क्योंकि यह बेचने वाले के अधिकार का क्रेता को अन्तरण मात्र है। अत: इससे किसी प्रकार के नये अधिकार का सृजन नहीं हुआ है।

बेंथम द्वारा किया गया तथ्यों या हक का वर्गीकरण (Bentham’s Classification of facts or titles) बेंथम ने स्वत्व (Title) को हक कहने के बजाय व्ययनकारी तथ्य (dispositive facts) कहना अधिक उचित माना है। उनके अनुसार व्ययनकारी तथ्य तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें विनिहितकारी तथ्य (Investative facts), निर्निहितकारी तथ्य (divestative facts) तथा अनुदितकारी तथ्य (translative facts) कहा गया है।

विनिहितकारी तथ्य (investative facts) दो प्रकार के होते हैं, परितुलनकारी (collative) या अधिरोपणीय (impositive) तथ्य। परितुलनकारी तथ्य अधिकार प्रदान करते हैं (confer rights) जबकि अधिरोपणीय तथ्य कर्तव्य अधिरोपित करते हैं (impose duties)।

बेंथम ने निर्निहितकारी तथ्यों के भी दो प्रकार बताये हैं जिन्हें उन्होंने विनाशकारी तथ्य (destructive facts) तथा दोषमुक्तिकारी तथ्य (exonerative facts) कहा है। विनाशकारी तथ्य अधिकार का विलोप (extinguish) करते हैं जबकि दोषमुक्तिकारी तथ्य व्यक्ति को उसके कर्तव्य से मुक्ति दिलाते हैं।

बेंथम द्वारा किया गया तथ्यों का वर्गीकरण निम्नानुसार है :

व्ययनकारी तथ्य (Dispositive Facts)

विनिहितकारी तथ्य (Investative Facts)

निर्निहितकारी तथ्य (Divestative Facts)

अनुदितकारी तथ्य (Translative Facts)

परितुलनकारी तथ्य अधिरोपणीय तथ्य विनाशकारी तथ्य दोषमुक्तिकारी तथ्य (Collative Facts) (Impositive Facts) (Destructive Facts) (Exonerative Facts)

अतः स्पष्ट है कि विनिहितकारी तथ्य अधिकारों का सृजन करते हैं, उनका अन्तरण करते हैं या उन्हें लुप्त करते हैं।

कार्य (acts)

विधिक दृष्टि से तथ्य का अर्थ है घटनाओं के क्रम में सुनिर्धारित परिवर्तन । परिवर्तन व्यक्ति के किसी कार्य (act) द्वारा लाया जाता है । व्यक्ति का कार्य उसकी इच्छा से हो सकता है अथवा उसकी इच्छा के बिना भी। स्वैच्छिक (voluntary) तथा अस्वैच्छिक (involuntary) कार्य (act) को विधिक मान्यता प्राप्त होने के लिए यह आवश्यक है कि वह विधि द्वारा निर्धारित तथा मान्य हो। यही कारण है कि इन कार्यों को विधि के अन्तर्गत कार्य (acts of law) भी कहते हैं।

मूल हक (original title) में किसी नवीन अधिकार का सृजन होता है अत: वह सदैव ही विधि का कार्य act of law) होता है। व्युत्पन्न हक (derivative title) में विधि का कृत्य स्वैच्छिक (voluntary act) भी होता है और अस्वैच्छिक (involuntary) भी। सामण्ड ने स्वैच्छिक कार्य को पक्षकार का कार्य (act of the party) या विधि के अन्तर्गत कार्य4 कहा है जब कि अस्वैच्छिक कृत्य (involuntary act) को विधि का कार्य (act of law) कहा है।

यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का निपटारा वसीयत द्वारा करता है, तो उस दशा में उसके द्वारा किया यो सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों का अन्तरण ‘स्वैच्छिक’ (voluntary) कहा जायेगा किन्तु यदि वह बिना

4. फ्रेडरिक पोलक : ज्यूरिसपूडेन्स (छठा संस्करण), पृ० 144.

वसीयत किये ही (intestate) मर जाता है, तो उसके सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों का अन्तरण विधि द्वारा होता है, जो अस्वैच्छिक है। इस दूसरी स्थिति में व्यक्ति की इच्छा के बिना ही अधिकारों का सृजन, अन्तरण या निर्वापन होता है।

(1) स्वैच्छिक कार्य या पक्षकार का कार्य

यदि कोई व्यक्ति या पक्षकार किसी अधिकार के सृजन, अन्तरण या निर्वापन (creation, alienation or extinction of right) के सम्बन्ध में स्वेच्छा से कोई ऐसा कार्य करता है जो विधि की दृष्टि से प्रभावी होगी, तो ऐसे कार्य को विधि के अन्तर्गत कृत्य (act in law) कहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति किसी अन्य को बेच देता है, तो यहाँ अधिकारों का अन्तरण उसका स्वैच्छिक कृत्य है तथा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति के क्रेता को सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त हो जाता है।

विधि के अन्तर्गत कार्य दो प्रकार के हो सकते हैं-(1) एकपक्षीय कार्य (unilateral acts) तथा (2) द्वि-पक्षीय कार्य (bilateral acts)।

कार्य (acts)

विधि के अन्तर्गत कार्य (acts in the law)

विधि के कार्य (acts of the law)

स्वैच्छिक (voluntary)

अस्वैच्छिक (involuntary)

एकपक्षीय कार्य द्विपक्षीय कार्य । (unilateral acts) (bilateral acts)

जब कोई कार्य केवल एक ही व्यक्ति की इच्छा के अनुसार किया जाता है, तो उसे एकपक्षीय कार्य कहते हैं। उदाहरण के लिए, वसीयत करना या शून्यकरणीय संविदाएँ (voidable contracts) आदि एकपक्षीय कृत्य हैं।

द्विपक्षीय कार्य वे होते हैं जिनमें दो या दो से अधिक पक्षों का समावेश रहता है, जैसे बन्धक (mortgage), गिरवी (pledge), करार (agreement), संविदा, पट्टा (lease) आदि।

(2) अस्वैच्छिक कार्य

अस्वैच्छिक या विधि के कार्य (act of law) में अधिकारों का सृजन, अन्तरण या निर्वापन स्वयं विधि के प्रवर्तन द्वारा पक्षकार की सम्मति के बिना होता है। उदाहरण के लिए, किसी निर्णीत-ऋणी (judgment debtor) की सम्पत्ति का निष्पादन।

करार (Agreements)

किसी भी सभ्य समाज में लोगों के अधिकारों तथा कर्तव्यों का उद्भव अधिकांशत: व्यक्तियों का पारस्परिक सहमति से होता है। अत: निहितकारी तथ्यों (vestitive facts’ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य पक्षकारों के द्विपक्षीय कार्य ही होते हैं। समस्त द्विपक्षीय कार्यों में करार (agreements, सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिससे अधिकारों का सृजन, अन्तरण तथा निर्वापन होता है।5

5. सामण्ड: ज्यूरिसपूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 336.

विनिर्दिष्ट विधिक अर्थ में (in specific legal sense) करार और संविदा समानार्थी हैं। तथापि ‘करार’

421 एक व्यापक शब्द है जिसका कि संविदा एक विशिष्ट रूप है। इसीलिए कहा गया है कि सभी संविदाएं करार होती हैं परन्तु सभी करार संविदा नहीं होते 6 आन्सन (Anson) के अनुसार संविदा करार का वह रूप है जो सीधे ही दायित्व उत्पन्न करता है। कोई करार संविदा माने जाने के लिए उसमें पाँच तत्वों का विद्यमान होना परम आवश्यक है। ये तत्व हैं (1) पक्षकारों का सक्षम होना, (2) प्रतिफल का होना, (3) पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति, (4) वैध स्वरूप, तथा (5) विधि के अन्तर्गत प्रवर्तनीय हो।

सामंड के अनुसार विधि में करार को विशेष महत्व प्राप्त होने के निम्नलिखित कारण हैं :-

(1) व्यक्तियों के अधिकांश अधिकार और कर्तव्य उन करारों से उत्पन्न होते हैं, जो वे आपस में एक दूसरे की सहमति से करते हैं।

(2) करार अधिकार का साक्ष्य (evidence) एवं प्रमाण है। किसी करार के पक्षकारों के प्रति विधि की यह धारणा रहती है कि वे उस करार में निहित अपने-अपने हितों को भलीभाँति समझते हैं तथा उनसे पूर्णत: सन्तुष्ट हैं। कुछ सीमाओं तक करार से आबद्ध पक्ष अपने लिए नियम स्वयं बना लेते हैं|

 (3) करार से अधिकारों की उत्पत्ति होती है। करार पक्षकारों द्वारा स्वेच्छा से किये जाने के कारण यह न्यायिक मान्यता रहती है कि वे पक्षों को स्वाभाविक आकांक्षाओं की पूर्ति का अच्छा साधन मानते हैं। करार का अर्थ ।

करार एक ऐसा द्विपक्षीय कार्य है जो दो या दो से अधिक पक्षकारों द्वारा आपसी सहमति से किया जाता। है। सैविनी (Savigny) ने करार को परिभाषित करते हुए कहा है कि करार दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा उनके विधिक सम्बन्धों को प्रभावित करने के लिये सामान्य आशय की अभिव्यक्ति है। करार में पक्षकारों की इच्छाएँ एक-समान होती हैं तथा उनका उद्देश्य उनके बीच बाध्यता उत्पन्न करना है।

करारों के प्रकार (Kinds of Agreements)

करार से अधिकारों का सृजन, अन्तरण अथवा निर्वापन होता है। इसी आधार पर इन्हें निम्नलिखित, चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

(i) संविदाएँ (Contracts)

ऐसे करार जो विधि द्वारा पक्षकारों के बीच व्यक्तिलक्षी बाध्यता अथवा अधिकार का सृजन करते हैं, ‘संविदा’ कहलाते हैं। भारत में संविदाओं के लिए संविदा अधिनियम, 1872 लागू है।

(ii) अनुदान (Grants)

संविदात्मक अधिकारों के अलावा अन्य अधिकारों का सृजन करने वाले करारों को अनुदान (grant) कहते हैं, जैसे पट्टा (lease), एकस्व (patent), अनुज्ञप्ति (licence), सुखाधिकार (easements), प्रभार (charges) आदि।

(iii) समनुदेशन (Assignments)

ऐसे करार जो अधिकारों का अन्तरण करते हैं, समनुदेशन (assignment) कहलाते हैं। किसी सम्पत्ति को बेचने के लिए किया गया करार इसी श्रेणी में आता है, क्योंकि बेची गई सम्पत्ति से सम्बन्धित अधिकारों का अन्तरण विक्रेता से क्रेता को कर दिया जाता है।

(iv) अभ्यर्पण (Release)

ऐसे करार जो अधिकारों का निर्वापन (extinction) करते हैं अथवा अस्तित्व समाप्त कर देते हैं, अभ्यर्पण (release) कहलाते हैं।

6. contracts are agreements but all agreements are not contract’.

करारों के उपर्युक्त वर्गीकरण से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि कोई करार यदि किसी एक वर्ग के अन्तर्गत आता है, तो वह दूसरे वर्ग में नहीं आ सकता। अनेक करार मिले-जुले स्वरूप के होते हैं जिन्हें एक ही समय दो या दो से अधिक वर्गों में सम्मिलित किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, किसी जंगम वस्तु । (chattel) के विक्रय को संविदा कहते हैं तथा समनुदेशन भी, क्योंकि ऐसे करार द्वारा जंगम वस्तु के स्वामित्व का अन्तरण होता है और साथ ही मूल्य का भुगतान करने की बाध्यता भी उत्पन्न होती है।

उल्लेखनीय है कि संविदा तथा अनुदान से अधिकारों का सृजन होता है, समनुदेशन से अधिकारों का अन्तरण होता है, जबकि अभ्यर्पण से अधिकारों की समाप्ति होती है।

विधिमान्य तथा अविधिमान्य करार (Valid and Invalid Agreements)

वैधानिकता की दृष्टि से करार (i) विधिमान्य (valid), (ii) अविधिमान्य (invalid) हो सकते हैं। अविधिमान्य करार शून्य (void) या शून्यकरणीय हो सकता है।

1. वैध या विधिमान्य करार (Valid Agreements)—जिस करार को पक्षकारों के आशय के अनुसार पूर्णरूपेण प्रवर्तित किया जा सकता है, उसे वैध या विधिमान्य करार कहते हैं। प्रत्येक विधिमान्य करार (valid agreement) के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है

(i) दो या दो से अधिक पक्षकार हों,

(ii) पक्षकारों का आशय स्पष्ट हो तथा वह उभय पक्षों को मान्य हो,

(iii) पक्षकारों ने अपना सामान्य आशय एक दूसरे को सूचित किया हो,

(iv) पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्धों को निर्देशित करने का हो तथा

(v) करार के परिणामों का प्रभाव पक्षकारों पर होने वाला हो।

एक दूसरे के लिए प्रतिफल (consideration) देने वाले वचन को वैध करार कहा जाता है।

2. अविधिमान्य करार-जो करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते उन्हें अविधिमान्य (invalid) करार कहा जाता है। ये शून्य (void) या शून्यकरणीय (voidable) हो सकते हैं।

ऐसे अनेक करार होते हैं जो प्रारम्भ से ही कोई विधिक प्रभाव नहीं रखते। ऐसे करारों को अविधिमान्य करार (invalid agreements) कहा जाता है। अविधिमान्य करार दो प्रकार के हो सकते हैं

(1) शून्य करार (void agreements) तथा

(2) शून्यकरणीय करार (voidable agreements)

शून्य करार- भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अन्तर्गत विधि द्वारा अप्रवर्तनीय करार को शून्य करार (void agreements) कहा जाता है। इसके अन्तर्गत पक्षकारों के बीच किसी प्रकार के कर्तव्य, अधिकार या बाध्यता का सृजन नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, शुन्य करार का कोई विधिक अस्तित्व नहीं। होता। ऐसे करार जो नैतिकता या लोक नीति के विरुद्ध हैं, या अव्यावहारिक होते हैं, विधि में शून्य (void) होते हैं। इसी प्रकार विदेशी शत्रु के साथ किया गया करार, दाँव या बाजी के रूप में किया गया करार, अवयस्क के साथ किया गया करार, प्रतिमूल्य-रहित करार या ऐसा करार जिसमें तथ्य के विषय में। उभयपक्षीय भूल हुई है, शून्य करार के उदाहरण हैं। ऐसे करार जिनमें निश्चितता का अभाव है या जो व्यापार या विवाह पर रोक लगाते हैं, शून्य करार माने जाते हैं। विधि-विरुद्ध कार्य करने सम्बन्धी करार या असम्भव। घटना पर आधारित करार भी विधि में प्रभावहीन या शून्य होते हैं। सभी शून्य करार अकृतनीय (Nullity) होते हैं।

7. भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 धारा 2 (ग).

8. किसी विवाहिता स्त्री को विवाह-विच्छेद प्राप्त करने के लिए दिये ऋण की वसूली नहीं की जा सकती क्योंकि इस करार का उद्देश्य अनैतिक है.

9. मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष, आई० एल० आर० 30 कलकत्ता 539 (प्री० कौं०).

शून्यकरणीय करार-ये शून्यकरणीय करार पूर्णतः अविधिमान्य या शून्य (Void) नहीं होते बल्कि 423 इनका प्रवर्तन सशर्त होता है। शून्यकरणीय करार की विधिक क्षमता किसी एक पक्षकार की इच्छा पर निर्भर करती है। दूसरे शब्दों में, यह ऐसा करार होता है जिसे किसी एक पक्ष के विकल्प पर शून्य अथवा विधिमान्य बनाया जा सकता है। शून्यकरणीय करार तब तक विधिमान्य तथा बन्धनकारी बना रहता है, जब तक कि कोई पक्षकार उसे चुनौती नहीं देता।

किन आधारों पर करार अवधिमान्य होता है (Grounds of invalidity)

शून्य तथा शून्यकरणीय करारों (Void and Voidable Agreements) की अविधिमान्यता के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

(i) अक्षमता (incapacity);

(ii) अप्रारूपिकता (informality);

(iii) अवैधता (illegality);

(iv) भूल या त्रुटि (error); (1) प्रपीड़न (coercion);

(vi) प्रतिफल का अभाव (want of consideration)

(1) अक्षमता (Incapacity)-विधि के अन्तर्गत कुछ विशिष्ट श्रेणियों के व्यक्ति सम्पत्ति सम्बन्धी अपने अधिकारों और दायित्वों को निर्धारित करने के लिए सक्षम नहीं माने जाते हैं। अवयस्क, पागल अथवा सिद्धदोष (convicts) व्यक्ति संविदा करने की क्षमता नहीं रखते, अत: उनके द्वारा किये गये करार विधि के अन्तर्गत अमान्य होते हैं।

(2) अप्रारूपिकता (Informality)-अनेक करार तथा लेन-देन सम्बन्धी व्यवहारों में विधि के अन्तर्गत कुछ औपचारिकताएँ पूरी की जाना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, एक सौ रुपये से अधिक मूल्य की अचल सम्पत्ति के अन्तरण के लिए सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 54 के अनुसार लिखित रूप में होना चाहिये अन्यथा यह वैध नहीं माना जायेगा। अनेक प्रकार के करारों की वैधता के लिये उनका विधि के अनुसार रजिस्ट्रीकृत होना या साक्षियों की उपस्थिति में अभिस्वीकृति किया जाना आवश्यक होता है अन्यथा वे विधिमान्य नहीं होंगे। इसी प्रकार कुछ करारों की विधिमान्यता के लिए विधि द्वारा एक या अधिक प्रकार की औपचारिकता आवश्यक समझी जाती है जिसके अभाव में वे करार मान्य नहीं किये जा सकते।

विधि द्वारा कुछ करारों के लिए कतिपय औपचारिकताएँ विहित किये जाने के दो मुख्य उद्देश्य हैं-

(1) उनको निश्चितता, स्थायित्व तथा प्रचार के समुचित प्रमाण उपलब्ध कराना, तथा

(2) ऐसे करार करने के पूर्व पक्षकारों को परिणामों के बारे में गंभीरता से सोचने के लिए विवश करना ।

(3) अवैधता (Illegality)

विधि के अन्तर्गत व्यक्तियों को स्वेच्छानुसार करार करने की स्वतन्त्रता दी गई है परन्तु इस पर पक्षकारों तथा जनहित की दृष्टि से अनेक निर्बन्ध लगाये गये हैं। व्यक्ति यदि कोई ऐसा करार करते हैं जो देश की विधि द्वारा निर्बन्धित है, तो उस दशा में वह करार अवैध (unlawful) तथा अविधिमान्य होगा। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध लैटिन पत्र प्राइवेटोरम कन्वेन्शियो ज्यूरिस पब्लिको नान डेरोगेट” (privatori Cortitio juris public non derogat) का उल्लेख किया जाना आवश्यक है जिसका अर्थ है कि व्यक्ति आपस में एसा कई करार नहीं कर सकते जो लोकहित के विपरीत हो।” अत: यदि कोई करार लोकहित के विपरित हो, तो वह अवैध माना जायेगा तथा विधि के अन्तर्गत शून्य प्रभावी (void) होगा। उदाहरण के लिये, यदि दो व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को मारने के लिये आपस में करार करते हैं, तो ऐसा करार जनहित के प्रतिकूल होने के कारण निस्संदेह ही अवैध होगा तथा विधि के अन्तर्गत यह षड़यन्त्र का अपकृत्य या अपराध होगा।

(4) भूल या त्रुटि (Error or Mistake)

किसी करार से सम्बन्धित तथ्य-विषयक कोई मर्मभूत भूल (essential eror) उस करार को शून्य प्रभावी (void) बना देती है।10 करार से सम्बन्धित मर्मभूत भूल (essential error) वह होती है जो करार के पक्षकारों की वास्तविक सम्मति को प्रभावित करती है। अत: यदि एक पक्षकार दूसरे से किसी वस्तु के विषय में करार करता है तथा दूसरा उस वस्तु को भूलवश कुछ और ही समझकर अपनी सम्मति दे देता है, तो उस दशा में करार में मर्मभूत भूल के कारण वह करार अवैध माना जायेगा। इसका कारण यह है कि जहाँ पक्षकारों का तात्पर्य एक ही वस्तु से न हो, वहाँ यह नहीं कहा जा सकेगा कि उस करार में उनकी वास्तविक सहमति विद्यामान थी। उदाहरण के लिए यदि ‘क’ कोई जमीन ‘ख’ को बेचने के लिए सहमति देता है तथा ‘क’ जिस जमीन को बेचने के बारे में सोचता है, ‘ख’ भूलवश उसे कोई अन्य जमीन समझकर खरीदने के लिये तैयार हो जाता है, तो ऐसी दशा में ‘क’ और ‘ख’ के बीच जो करार हुआ है वह जमीन के विषय में मर्मभूत भूल के कारण अविधिमान्य (invalid) होगा। परन्तु यदि ऐसी भूल ‘क’ की चालबाजी या असावधानी के कारण होती है, तो उस दशा में वह करार शून्य न होकर शून्यकरणीय होगा, अर्थात् ‘ख’ को यह विकल्प होगा कि यदि चाहे तो वह करार को अविधिमान्य मानते हुए उसके अनुपालन से इन्कार कर दे।

करार-सम्बन्धी कोई मर्मभूत भूल (essential error) करार को अवैध बना देती है किन्तु यदि भूल मर्मभूत नहीं है, अर्थात् अमर्मभूत (unessential) है, तो उस स्थिति में करार की वैधता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा और उसे वैध माना जाएगा। उदाहरणार्थ, यदि एक व्यक्ति किसी दूसरे का मकान यह समझकर खरीदने के लिये सहमत हो जाता है कि वह मकान अच्छी हालत में है, किन्तु वस्तुत: उस मकान की कुछ दीवारों में दरारें पड़ी हुई हों, तो खरीदने वाले व्यक्ति की भूल अमर्मभूत होगी तथा केवल इस भूल के आधार पर करार को अविधिमान्य घोषित नहीं करा सकेगा। अमर्मभूत भूल के कारण करार इसलिए प्रभावित नहीं होता क्योंकि विधि प्रत्येक क्रेता से यह उम्मीद करती है कि वह कोई वस्तु क्रय करते समय स्वयं सतर्कता बरते तथा उस वस्तु के गुण-दोषों को भलीभाँति परख ले।11 परन्तु यदि विक्रेता, जानबूझकर वस्तु के विषय में असत्य कथन करे तथा क्रेता द्वारा पूछे जाने पर भी उसे सही जानकारी न दे, तो उस स्थिति में क्रेता उस करार को अमान्य घोषित करा सकता है।

वर्तमान समय में करार पर भूल या त्रुटि के प्रभाव का निर्धारण करते समय न्यायालय प्रायः वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त का अनुसरण करते हैं। वे प्रायः पक्षकारों की मानसिक इच्छा पर विशेष ध्यान देना आवश्यक नहीं समझते बल्कि उनके बाह्य कृत्य के आधार पर यह विनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि क्या सामान्य व्यक्ति उस परिस्थिति में करार करने वाले पक्षकार के कृत्य का वही आशय निकालेगा जो कि उसने निकाला? यदि हाँ, तो पक्षकार करार से बाध्य होगा अन्यथा नहीं।12

(5) प्रपीड़न (coercion)

करार की वैधता के लिये एक आवश्यक शर्त यह है कि उसमें पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति होनी चाहिये। यदि ऐसी सम्मति दबाव, प्रपीड़न अथवा अनुचित प्रभाव से प्राप्त की जाती है, तो वह करार को शन्यकरणीय (voidable) बना देगी। भारतीय संविदा अधिनियम में13 यह स्पष्टत: उपबन्धित है कि यदि किसी एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार की सम्मति प्रपीड़न (coercion), कपट (fraud) अथवा दुर्व्यपदेशन

10. भा० दे० सं० धारा 20.

11. इसे ‘क्रेता सावधान’ (Caveut emptor) का सिद्धान्त कहा जाता है.

12. Smith४. Highes, (1871) 6QB 597 (607).

13. धारा 19, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872.

(misrepresentation) द्वारा प्राप्त की जाती है, तो उस स्थिति में वह करार उस दूसरे पक्षकार के विकल्प पर शून्यकरणीय (voidable) होगा।

(6) प्रतिफल का अभाव (Want of Consideration)

करार या संविदा की एक आवश्यक शर्त यह है कि इसमें प्रतिफल का होना अनिवार्य है। प्रतिफल के बिना किया गया करार शून्य होगा।14 दूसरे शब्दों में, प्रतिफल ऐसा मूल्य (value) है जो एक पक्षकार स्वयं को दूसरे पक्षकार के प्रति आबद्ध करने के बदले में उससे (दूसरे पक्षकार से) प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। करार की वैधता के लिये प्रतिफल का होना आवश्यक है तथापि यह आवश्यक नहीं है कि प्रतिफल का मूल्य उचित हो। अतः यदि कोई व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र सहमति से दो सौ रुपये मूल्य की घड़ी केवल पाँच रुपये में बेचने की संविदा करता है, तो यह संविदा उचित प्रतिफल के अभाव में अवैध नहीं मानी जाएगी। आशय यह है कि संविदाओं की वैधता के संदर्भ में प्रतिफल का होना परम आवश्यक है। तथापि भारतीय । संविदा अधिनियम में इस सम्बन्ध में कुछ अपवादों का उल्लेख है। यदि संविदा (1) आपसी सगे सम्बन्धियों के बीच नैसर्गिक प्रेम तथा स्नेह से प्रेरित हो तथा वह लिखित एवं रजिस्ट्रीकृत हो; अथवा (2) यदि वह किसी पूर्व प्रतिफल पर आधारित हो; या (3) वह अवधि-सीमा द्वारा बाधित किसी ऋण की अदायगी के सम्बन्ध में हो, तो बिना प्रतिफल के होते हुए भी वह संविदा वैध (valid) मानी जायेगी।

सारांश में यह कहा जा सकता है कि प्रतिफल एक ऐसा कारण, उद्देश्य या प्रलोभन है जो किसी व्यक्ति को करार से आबद्ध होने के लिए उत्प्रेरित करता है।

ज्ञातव्य है कि एक समय था जब विधि के अन्तर्गत करार के स्वातंत्र्य को दायित्व संबंधी विधि का एक मूलभूत तत्व माना जाता था, परन्तु वर्तमान में सामाजिक परिवर्तन के साथ राज्य द्वारा इस पर अनेक निर्बधन लगाए गए हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति को अपने कारोबार के प्रबंधन में करार संबंधी पूरी स्वतंत्रता दी गई थी परन्तु आज की समाजवादी अर्थव्यवस्था में राज्य द्वारा लोकहित में व्यक्ति को करार संबंधी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर उसे विनयमित किया जा सकता है। भूमि अधिकतम सीमा अधिनियम, भाड़ा नियंत्रण कानून, खाद्य नियंत्रण अधिनियम, ठेका श्रम (विनियमन और उत्सादन) अधिनियम आदि यह दर्शाते हैं कि राज्य द्वारा सामाजिक हित के संरक्षणार्थ व्यक्ति की करार संबंधी स्वतंत्रता पर प्रभावी नियंत्रण रखा जाना आवश्यक है।

14.धारा 25.

 

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