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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 21 Notes

 

LLB 1st Semester 1st Year Most Important Books Jurisprudence and Legal Theory Section 3 Chapter 21 Interpretation of Statutes Study Material and Notes Question Answer Sample Papers in Hindi English PDF Download Free Online Website.

अध्याय 21 (Chapter 21)

संविधियों का निर्वचन (Interpretation of Statutes)

LLB Notes Study Material

विधान (Legislation) और निर्वचन (Interpretation) में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी अधिनियमित विधि में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से क्या अर्थ है यह सुनिश्चित करना न्यायालयों का मुख्य कार्य है। मैक्सवेल (Maxwell) के अनुसार ऐसी पद्धति जिसके अनुसार न्यायालय किसी संविधि में प्रयुक्त भाषा या शब्दों का अर्थान्वयन करते हैं, निर्वचन (Interpretation) कहलाती है।

अधिनियमित विधि की एक विशिष्टता यह है कि इसमें प्राधिकृत सूत्र (authoritative formulae) समाविष्ट रहते हैं। जिन शब्दों द्वारा विधि अभिव्यक्त की गई होती है उन्हें विधि का एक भाग माना जाता है। इन शब्दों में उतना ही विधिक प्राधिकार (legal authority) सन्निहित रहता है जितना कि उस अधिनियम के भावार्थ में। अत: अधिनियमित विधि का अर्थ समझने के लिए उनका न्यायिक निर्वचन (Judicial interpretation) अथवा अर्थान्वयन (construction) करना आवश्यक है। सामण्ड के अनुसार निर्वचन या अर्थान्वयन से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा न्यायालय विधान-मण्डल के आशय का, उस प्राधिकृत रूप में जिसमें कि वह व्यक्त किया गया है, विनिश्चित अर्थ निकालने का प्रयत्न करता है। ग्रे (Gray) के अनुसार निर्वचन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई न्यायाधीश लिपिबद्ध विधि में प्रयुक्त शब्दों का वह अर्थ लगाता है जो अनुमानतः विधान-मण्डल ने लगाया होगा अथवा जिस अर्थ को वह विधान-मण्डल पर आरोपित करना चाहता है। इस प्रकार ग्रे विधि के निर्वचन को एक विज्ञान मानते हैं।

सामण्ड ने निर्वचन (Interpretation) को परिभाषित करते हुये लिखा है कि यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा न्यायालय विवादित विधि के प्राधिकृत अर्थ को जानने का प्रयास करते हैं। इसमें इस बात को प्रधानता दी जाती है कि विवादाधीन विधि को अधिनियमित करने का विधान मण्डल का मूल उद्देश्य क्या रहा होगा। सामान्यतः न्यायालय विधि में प्रयुक्त शब्दों के अनुसार ही उसका शाब्दिक निर्वचन करते हैं जिसे विधिक भाषा में व्याकरणीय निर्वचन (Grammatical Interpretation) कहा जाता है। परन्तु विधि में प्रयुक्त शब्दों के विषय में कोई संदिग्धता होने पर न्यायालय उसके पीछे विधायन के आशय के आधार पर उस विधि का निर्वचन करते हैं जिसे न्यायिक मतानुसार निर्वचन (Sententia legis) कहा जाता है।

मेक्सवेल (Maxwell) के अनुसार निर्वचन का मुख्य उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि अधिनियमित विधि में प्रयुक्त भाषा एवं शब्दों से ऐसा क्या प्रत्यक्ष या परोक्ष अर्थ निकलता है जो निर्वचक (Interpreter) उसके समक्ष प्रस्तुत प्रकरण या तथ्यों के प्रति लागू कर सके। न्यायालय वाद से सम्बद्ध विधि का सही या वास्तविक अर्थ निकालने के लिये प्रायः निर्वचन का ही अनुसरण करते हैं।

निर्वचन तथा अर्थान्वयन में अन्तर (Interpretation and Construction Distinguished)

कले (Cooley) ने ‘निर्वचन’ और ‘अर्थान्वयन’ में भेद स्पष्ट करते हुए कहा है कि निर्वचन (Interpretation) के अन्तर्गत अधिनियमों में प्रयुक्त शब्दों के किसी भी रूप के वास्तविक अर्थ का पता लगाया जाता है जब कि अर्थान्वयन (Construction) में किसी कानून के मूल पाठ (text of the law) की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति से परे विषयों के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाला जाता है। निर्वचन द्वारा विधि में प्रयुक्त भाषा व शब्दों की संदिग्धता तथा अस्पष्टता को बोधगम्य बनाने का प्रयास किया जाता है ताकि उनका निश्चित अर्थ

1. इसे सामण्ड ने litra scripta कहा है।

निकाला जा सके। परन्त अर्थान्वयन में किसी अधिनियम या संविधि में प्रयुक्त शब्दों से परे हटकर बाहा सहायता (external aid) के आधार पर विधि की व्याख्या की जाती है। निवेदित है कि अधिकांश विधिशास्त्रियों ने निर्वचन तथा अर्थान्वयन के इस भेद को स्वीकार नहीं किया है और वे इन दोनों शब्दों को एक-दूसरे के पर्यायवाची मानते हैं।

निर्वचन के प्रकार (Kinds of Interpretation)

सामण्ड के अनुसार निर्वचन के दो प्रकार हैं-(1) व्याकरणिक (Grammatical) तथा (2) तार्किक (Logical)। परन्तु सामण्ड की ‘ज्यूरिसप्रूडेन्स’ नामक कृति के बारहवें संस्करण के सम्पादक पी० जे० फिट्जगिराल्ड (P.J. Fitzgerald) ने निर्वचन को शाब्दिक (literal) तथा क्रियात्मक (functional) इन दो वर्गों में विभाजित किया है। उल्लेखनीय है कि भावार्थ की दृष्टि से ‘व्याकरणिक’ और ‘शाब्दिक’ निर्वचन पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार ‘तार्किक’ और ‘क्रियात्मक’ निर्वचनों में कोई अन्तर नहीं है।

1. व्याकरणिक या शाब्दिक निर्वचन (Grammatical or Literal Interpretation)

निर्वचन (interpretation) का प्रथम एवं सर्वोपरि नियम यह है कि किसी भी कानून की शाब्दिक व्याख्या की जाए अर्थात् विधि के केवल शाब्दिक अर्थान्वयन से उसका अर्थ निकाला जाए तथा विधि में प्रयुक्त शब्दों का सहज और स्वाभाविक अर्थ लगाया जाए। इस प्रकार व्याकरणिक या शाब्दिक निर्वचन के अनुसार विधान-मंडल के आशय को निश्चित करने के लिए उसके द्वारा निर्मित कानून के प्रत्येक शब्द को व्याकरणानुसार अर्थ दिया जाना चाहिए। शाब्दिक निर्वचन (Literal Interpretation) से अभिप्राय यह है कि कानून के रूप में लिपिबद्ध किये गये विधि के शब्द (litra legis) ही विधान-मंडल के आशय को ठीकठीक प्रकट कर सकते हैं। अतः न्यायाधीशों को यह छूट नहीं है कि वे विचाराधीन कानून में प्रयुक्त शब्दों के सहज या स्वाभाविक अर्थ से हटकर उसकी किसी अन्य प्रकार से व्याख्या करें। उन्हें अधिनियमित विधि का वही अर्थ लेना होगा, जो उसमें प्रयुक्त शब्दों से अभिप्रेत है।

सामान्यतः संविधियों (statute law) के अर्थान्वयन के लिए न्यायालयों द्वारा शाब्दिक निर्वचन (literal interpretation) की पद्धति ही अपनाई जानी चाहिये। जब तक कि किसी विधि में प्रयुक्त शब्द स्पष्ट, असंदिग्ध तथा दुविधारहित हैं, उसका अर्थान्वयन ‘शाब्दिक’ निर्वचन द्वारा ही किया जाना चाहिये। न्यायालयों से यह अपेक्षित नहीं है कि वे संविधियों का निर्वचन करते समय विधान-मंडल के वास्तविक आशय से हटकर कोई अन्य सम्भावित अर्थ ढूँढने की कोशिश करें। उन्हें विचाराधीन विधि के शब्दों को उसी रूप में देखना चाहिये जिसमें कि वे वास्तविक रूप में हैं। किसी कानून की कमियों (casus omissus) की पूर्ति करना या उन्हें सुधारना न्यायालयों का कार्य नहीं है। किसी कानून के पीछे विधान-मंडल का वास्तविक आशय क्या है, यह उन्हीं शब्दों से निश्चित किया जाना चाहिये जिनका कि उस कानून में प्रयोग किया गया है।

ब्रजगोपाल डेंगा बनाम मध्य प्रदेश राज्य6 में यह विनिश्चित किया गया कि यदि अधिनियम में प्रयुक्त शब्द सरल और असंदिग्ध हैं और उनका दूसरा अर्थान्वयन संभव नहीं है, तो न्यायालय को उसके परिणामों पर विचार किये बिना उसी भाषा को प्रभावी बनाना चाहिए।

एस० पी० गुप्ता बनाम भारत संघ7 के वाद में संविधान के अनु० 222 के उपबंधों के अर्थान्वयन के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि चूंकि न्यायालय को विधान बनाने की शक्ति नहीं है,

2. सामण्ड : ज्यूरिसप्रूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 192.

3. जमुना प्रसाद बनाम राज्य, 1959 ए० एल० जे० 620, (See also; Sussex Peerage Case, 8 ER 1034.

4. क्राफोर्ड बनाम स्पूनर (1846) 6 मूरे पी० सी० 1; ग्रे बनाम पियरसन (10 ई० आर० 1216).

5. प्रेमनाथ बनाम प्रेमनाथ, ए० आई० आर० 1963 पंजाब 62.

6. 1978 उम० नि० प० 425.

7. ए० आई० आर० 1982 सु० को० 142.

अतः वह किसी विधान का पुनर्लेखन या उसे संवारने या गढ़ने का कार्य नहीं कर सकता है। अनु० 222 में यह उपबन्धित है कि “राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात् किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च-न्यायालय को स्थानांतरण कर सकेगा। इस वाद में प्रश्न यह उठा कि क्या न्यायिक स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए स्थानांतरण करते समय प्रभावित न्यायाधीश की सहमति ली जाए? उच्चतम न्यायालय ने अनु० 222 के उपबन्धों का शाब्दिक अर्थान्वयन करते हुए ऐसी सहमति को आवश्यक मानने से इंकार कर दिया क्योंकि इसका उक्त अनुच्छेद में कोई उल्लेख नहीं है।

केरल राज्य बनाम मथाई वर्गीस8 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने शाब्दिक निर्वचन के सिद्धांत को अपनाते हुए अभिनिर्धारित किया कि विदेशी विनिमय विनियम अधिनियम (Foreign Exchange Regulation Act) की धारा 489-A एवं 489-E में प्रयुक्त पद ‘करेंसी नोट’ तथा ‘बैंक नोट’ के पहले ‘भारतीय’ शब्द नहीं जुड़ा होने के कारण इस अधिनियम को पारित करने वाली संसद का यह आशय स्पष्ट था कि वह इस प्रावधान को केवल भारतीय करेंसी या बैंक नोटों तक सीमित नहीं रखना चाहती है, अपितु । विश्व के अन्य देशों के करेन्सी और बैंक नोटों के प्रति भी इसे लागू करना चाहती है। इस प्रावधान का वास्तविक उद्देश्य यह है कि बाजार की विश्वसनीयता बनी रहे तथा लोग विदेशी करेंसी नोटों या बैंक नोटों को बेकार कागज के टुकड़े मात्र न समझें।

शाब्दिक निर्वचन के दोष-यद्यपि न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे किसी विधि या अधिनियम का निर्वचन उसमें प्रयुक्त शब्दों के अर्थ के अनुसार ही करें परन्तु विधि के निर्वचन के इस सामान्य नियम के कुछ दोष अवश्य हैं। प्रथम यह कि शब्दों के अर्थ को ठीक तरह से समझने के लिए उनके प्रयुक्त होने के संदर्भ को समझना आवश्यक होता है, जिसे शाब्दिक निर्वचन में उचित नहीं माना गया है। दूसरे, कभी-कभी विधि में प्रयुक्त शब्दों से विचारों की आशयित अभिव्यक्ति नहीं हो पाती जिसके फलस्वरूप घोर अन्याय होने की संभावना बनी रहती है और कभी-कभी इसका ठीक विपरीत परिणाम भी हो सकता है जो वांछित नहीं है। संक्षेप में शाब्दिक निर्वचन के प्रमुख दोष हैं इसकी (1) संदिग्धता, (2) असंगतता, (3) अपूर्णता तथा (4) युक्तियुक्तता की कमी।

2. तार्किक निर्वचन (Logical Interpretation)

कभी-कभी किसी कानून के पीछे विधान-मंडल का वास्तविक आशय क्या है, यह जानने के लिए उस कानून में प्रयुक्त भाषा का शाब्दिक अर्थान्वयन करना पर्याप्त नहीं होता है। ऐसी स्थिति प्रायः उस समय उत्पन्न होती है जब किसी कानून में प्रयुक्त भाषा में कोई अपूर्णता, अस्पष्टता या संदिग्धता रह गई हो या उसके एक से अधिक अर्थ निकलते हों या उसमें अन्य किसी प्रकार का तार्किक दोष रह गया हो। इन सभी दशाओं में न्यायाधीशों द्वारा शाब्दिक अर्थान्वयन के बजाय तार्किक निर्वचन (logical  nterpretation) का सहारा लिया जाता है ताकि वे विचाराधीन कानून में प्रयुक्त शब्दों से हटकर अन्य सन्तोषजनक प्रमाणों के आधार पर विधान-मंडल के वास्तविक आशय का पता लगा सकें। निर्वचन की इस पद्धति में न्यायाधीश को विधायन के आशय (sententia legis) को ध्यान में रखते हुए तर्क के आधार पर उसका अर्थान्वयन करना होता है। तार्किक निर्वचन में विधि-विशेष की अन्य विधियों से तुलना की जाती है और इसके साथ ही उन स्थितियों पर भी विचार किया जाता है जिनमें वह विधि पारित की गई थी। न्यायालयों को किसी विधि का तार्किक निर्वचन करने की आवश्यकता उस समय पड़ती है जब उस विधि में प्रयुक्त भाषा का शाब्दिक अर्थान्वयन अवांछित अथवा असंगत परिणाम उत्पन्न करने लगता है। तार्किक निर्वचन द्वारा न्यायालय विधि का शाब्दिक व्याख्या से हटकर यह निर्धारित करने का प्रयत्न करते हैं कि उस विधि के पीछे विधान-मंडल का वास्तविक प्रयोजन या उद्देश्य क्या रहा होगा।

सामण्ड के अनसार इंग्लैंड में संविधियों की व्याख्या के लिए साधारणतः तार्किक निर्वचन की पद्धति अपनाई जाती है। न्यायालयों का यह कर्त्तव्य होता है कि विधि-विशेष के सम्बन्ध में संसद या विधान-

8. ए० आई० आर० 1987 सु० को० 33.

9. सामण्ड ने इसे ‘स्वतंत्र निर्वचन’ भी कहा है।

मंडल. यथास्थिति के वास्तविक आशय का पता लगाने का प्रयत्न करें और तदनुसार उस विधि का मिलन करें। उनके विचार से विधि का मर्म उसके ‘अर्थ’ में है न कि उसके शब्दों में 10 किसी विधि (काननी भाषा तथा उसमें प्रयुक्त शब्द विधान-मंडल के आशय की बाह्य अभिव्यक्ति होते हैं। अतः सामान न्यायालय से यह आशा की जाती है कि वे विधि में प्रयुक्त शब्दों को विधान-मंडल के वास्तविक आशय के अनन्य एवं निश्चायक प्रमाण (exclusive and conclusive evidence) के रूप में मान्यता दें।11 न्यायालय को यह मानकर चलना चाहिये कि विधान-मंडल ने वही कहा है जो उसका अभिप्राय रहा होगा। निर्वचन का यह प्रथम सिद्धान्त है कि विधि का शाब्दिक अर्थ लगाया जाना चाहिये।12 केवल इस आधार पर कि किसी कानून में प्रयुक्त शब्दों द्वारा विधान-मंडल का वास्तविक आशय ठीक तरह से व्यक्त नहीं हुआ है, न्यायाधीशों को उस कानून में तोड़-मरोड़ या संशोधन करने की छूट नहीं है।

विधि के तार्किक निर्वचन को ऐतिहासिक तथा समाजशास्त्रीय निर्वचन भी कहा गया है, जिसके अन्तर्गत संविधि का निश्चित अर्थ जानने के लिए न्यायाधीश संविधि में प्रयुक्त शब्दों से परे हटकर उस विधेयक, विधान-मंडल में हुई बहस या चर्चा, विधान निर्मात्री समिति कार्यवाही आदि अन्य साधनों का सहारा ले सकते हैं । हीडन के मामले में ऐतिहासिक निर्वचन के नियम को अपनाया गया था। समाजशास्त्रीय निर्वचन के सिद्धान्त में विधि का निर्वचन करते समय तत्सम्बंधी सामाजिक आवश्यकताओं और उद्देश्यों को विचार में लिया जा सकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह निर्वचन पद्धति अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है।

लार्ड मेक्नाटन ने वाडेर एण्ड सन्स लि० बनाम लंदन सोसायटी ऑफ कम्पोझीटर्स13 के इंग्लिश वाद में अभिनिर्धारित किया कि केवल दो परिस्थितियों में न्यायालय किसी संविधि के शाब्दिक निर्वचन से हटकर तार्किक निर्वचन का प्रयोग कर सकता है :-(1) यदि इस संविधि में प्रयुक्त शब्दों के सामान्य अर्थ में कोई संदिग्धता या बेतुकापन दिखलाई दे; या (2) उस संविधि के कुछ वाक्य-खण्ड (clauses) संविधि के शेष भाग के प्रतिकूल या विपरीत दिखाई दें।

उल्लेखनीय है कि विधियों के निर्वचन के उपर्युक्त प्रकार अर्थात् शाब्दिक तथा तात्विक निर्वचन एकदूसरे के विरोधी नहीं हैं और न ये एक-दूसरे का परस्पर अपवर्जन ही करते हैं। इनके प्रतिपादन का मुख्य उद्देश्य विधियों को ठीक तरह से प्रवर्तित करना है, ताकि उनके अच्छे परिणाम निकल सकें।

निर्वचन संबंधी प्रमुख सूत्र तथा उपधारणाएँ

विधियों के निर्वचन के उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त ऐसे अनेक सूत्र तथा उपधारणाएँ हैं जो निर्वचन में सहायक होते हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण सूत्रों एवं नियमों का उल्लेख करना उचित होगा। ‘

साहचर्येण ज्ञायतेका नियम (Noscitur a socis)

किसी विधि (कानून) का व्याकरणिक निर्वचन करते समय उसमें प्रयुक्त शब्दों के साधारण अर्थ को निर्धारित करने के लिए न्यायालय उन शब्द-कोशों या तकनीकी ग्रन्थों की सहायता लेते हैं जिनमें उन शब्दों का प्रयोग किया गया है। न्यायाधीशों से यह अपेक्षित है कि वे विचाराधीन विधि में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ साथ के अन्य शब्दों के सन्दर्भ में निकालें। इस सिद्धान्त को ‘साहचर्येण ज्ञायते’ (noscitur a socis) नामक सूत्र द्वारा व्यक्त किया गया है जिससे आशय यह है कि किसी शब्द का निश्चित अर्थ उसके साथ प्रयुक्त किये गये अन्य शब्दों के आधार पर निकाला जाना चाहिये 14 किसी भी सन्देहास्पद शब्द का अर्थ उसके साथ के

10. सामण्ड : ज्यूरिसप्रूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 132.

11. “In all ordinary cases the Courts must be content to accept the litra legis as th: exclusive and

conclusive evidence of sententia legis.–Salmond.

12. Nascitur a socis means “the meaning of a word is to be judged by the company it keeps.” 13. Vadrer & Sons Ltd. v. London Society of Compositors (1913) AC 107 (118).

14. एटलांटिक स्मोक शॉप्स लि० बनाम कोनलौन, 1943 ए० सी० 550 (पी० सी०)

अन्य शब्दों के अर्थ के सहारे निकाला जाना चाहिये। सन्दर्भानुसार कभी-कभी किसी शब्द का ऐसा अर्थ भी हो सकता है जो शब्द-कोश में नहीं मिलता है। उदाहरणार्थ, अनेक संविधियों में शून्य (void) शब्द का अर्थ प्रसंगानुसार शून्यकरणीय (voidable) भी हो सकता है।

असम राज्य बनाम रंगा मोहम्मद15 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 233 में प्रयुक्त पदावली ‘नियुक्ति, पद-स्थापना एवं पदोन्नति के संदर्भ में ‘पद-स्थापना’ शब्द का प्रयोग नियुक्ति या प्रोन्नति के अर्थ में माना लेकिन इसमें स्थानांतरण को सम्मिलित करने से इन्कार कर दिया।

कभी-कभी समय के साथ किसी शब्द के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। ऐसी दशा में उस शब्द का वही अर्थ लगाया जाना चाहिये जो उस समय था जब कि वह विधि अधिनियमित की गई थी।16 

अनेक प्रकरणों में न्यायाधीश द्वारा शब्द के वर्तमान अर्थ को भी अर्थान्वयन में सम्मिलित कर लिया जाता है। परन्तु वह अर्थ शब्द के उस अर्थ से मिलता-जुलता होना चाहिये जिसे व्यक्त करने का प्रयास विधानमंडल ने किया था। उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड की पार्लियामेन्ट द्वारा पारित सन् 1863 तथा 1869 के टेलीग्राफ एक्ट्स में प्रयुक्त ‘टेलीग्राफ’ शब्द में ‘टेलीफोन’ शब्द को भी समाविष्ट किया गया, अर्थात् इन अधिनियमों के प्रयोजनों के लिए ‘टेलीग्राफ’ और ‘टेलीफोन’, दोनों ही शब्दों का अर्थ एक ही माना गया।17

प्रदीप अगरबत्ती लुधियाना बनाम पंजाब राज्य18 के वाद में प्रश्न यह था कि क्या पंजाब सामान्य विक्रय कर अधिनियम, 1948 की अनुसूची ‘क’ की प्रविष्टि 16 में प्रयुक्त शब्द ‘प्रसाधन माल’ (cosmetic goods) में धूप, अगरबत्ती का भी समावेश माना जाएगा? उच्चतम न्यायालय ने ‘साहचर्येण ज्ञायते’ के सिद्धांत को लागू करते हुए विनिश्चित किया कि ‘प्रसाधन माल’ के अन्तर्गत टूथपेस्ट, टूथ पाउडर, परफ्यूम, सुगंधित तेल, साबुन इत्यादि शामिल हैं लेकिन इसमें अगरबत्ती या धूप आदि का समावेश नहीं माना जाएगा।

एक का उल्ले ख अन्य का वर्जन (Expressio unius est exclusio alterius)

व्याकरणिक निर्वचन (grammatical interpretation) का एक अन्य नियम यह है कि कानून में किसी विशिष्ट व्यक्ति या वस्तु का स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाने पर वह अन्य व्यक्तियों या वस्तुओं का वर्जन करता है। इसे लैटिन सूत्र (Expressio unius est exclusio alterius) द्वारा व्यक्त किया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘एक का उल्लेख अन्य का वर्जन।’ इस नियम को स्पष्ट करते हुए मैक्सवेल (Maxwell) उदाहरण देते हैं। यदि किसी कानून में ‘भूमि’ और ‘भवन’ दोनों का उल्लेख हो तथा बाद में उसके किसी उप-वाक्य (clause) में ‘भवनों’ का उल्लेख किये बिना केवल ‘भूमि’ के सम्बन्ध में ही व्याख्या दी गई हो, तो ऐसी स्थिति में निर्वचन के नियम के अनुसार उस खंड के अर्थान्वयन में ‘भवनों’ को समाविष्ट नहीं किया जायेगा चाहे भले ही सामान्य अर्थ में ‘भूमि’ शब्द में भवनों का समावेश किया जाता रहा हो।19 परन्तु उल्लेखनीय है कि निर्वचन का यह नियम अनिवार्य नहीं है। अपितु केवल न्यायालयों को मार्गदर्शन की दृष्टि से प्रस्थापित किया गया है।20

बेनेट कोलमेन बनाम भारत संघ21 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि संविधान के अनुच्छेद 15, 16 एवं 19 में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इनके अन्तर्गत दिये गए अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही प्राप्त हैं और गैर-नागरिकों को इनसे अलग रखा गया है। अतः भारतीय नागरिक अपने

15. ए० आई० आर० 1967 सु० को० 903.

16. एटलांटिक स्मोक शॉप्स लि० बनाम कोनलौन, 1943 ए० सी० 550 (पी० सी०).

17. एटार्नी जनरल बनाम एडीसन टेलीफोन कं०, (1881) 6 QBD 224.

18. ए० आई० आर० 1998 सु० को० 171.

19. मैक्सवेल (Maxwell) : इन्टरप्रिटेशन ऑफ स्टेट्यूट्स (11वाँ संस्करण), पृ० 338.

20. Observations made by Lope, L.J. in Colquhoun v. Brooks (1888)

21 QBD 52.21. ए० आई० आर० 1973 सु० को० 106.

विधिक व्यक्तियों जैसे कम्पनी, आदि द्वारा इनकी माँग कर सकते हैं क्योंकि आखिर यह अनुतोष वास्तविक नागरिकों को ही प्राप्त होता है न कि उनके द्वारा गठित कृत्रिम विधिक व्यक्ति को।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि साधारणत: न्यायालयों को कानून के शब्दों का ही अनुसरण करना चाहिये। परन्तु यदि किसी कानून के शब्दों में तार्किक त्रुटि हो; अर्थात् वे अकेले ही निश्चित, तर्कसंगत या पूर्ण विचार प्रकट न करते हों, तो उस दशा में विधान-मंडल के निश्चित आशय को अन्य लक्षणों से जानने का प्रयत्न किया जाना चाहिये। किसी संविधि में निम्नलिखित तीन प्रकार की तार्किक त्रुटियाँ हो सकती हैं-

(1)संदिग्धता (Ambiguity)

यदि किसी विधि में प्रयुक्त शब्दों से एक के बजाय अनेक अर्थ निकलते हों, तो यह कहा जाता है कि उस कानून में संदिग्धता (ambiguity) का दोष है। उस दशा में न्यायालय का यह कर्त्तव्य होगा कि वह अन्य सूत्रों के माध्यम से उस कानून के शब्दों के पीछे छिपे विधान-मंडल के वास्तविक आशय का पता लगाये। उदाहरणार्थ, इंग्लैण्ड के सड़क यातायात अधिनियम, 1930 की धारा 11 (1) में मोटर गाड़ी को इस तरह चलाना कि आम जनता के लिए खतरा उत्पन्न कर दे, एक अपराध माना गया था। परन्तु ब्रिटेन की पार्लियामेन्ट द्वारा ‘ड्राइविंग’ (driving) शब्द को परिभाषित नहीं किया गया था। परिणामस्वरूप एक वाद में यह प्रश्न उठा कि यदि कोई व्यक्ति बिगड़ी हुई मोटर गाड़ी को दुरुस्त कराने के लिए उसे स्टियर करते हुए ले जा रहा है, तो क्या उसका यह कृत्य ‘ड्राइविंग’ (driving) माना जायेगा? इस वाद में न्यायालय के लिए यह पता लगाना आवश्यक हो गया कि अधिनियम में प्रयुक्त ‘ड्राइविंग’ शब्द के पीछे पार्लियामेंट का वास्तविक आशय क्या था। अतः तार्किक निर्वचन (logical interpretation) के आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि उस व्यक्ति का वह कृत्य ‘ड्राइविंग’ के अन्तर्गत नहीं माना जायेगा।22  

कभी-कभी कानून की भाषा में ‘या’ (or), ‘और’ (and) तथा ‘सब’ (all) आदि शब्दों के प्रयोग से भी संदिग्धता उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कानून द्वारा न्यायालयों को अर्थ-दण्ड या कारावास का दण्ड देने के लिए अधिकृत किया गया है, तो प्रश्न यह उठता है कि यहाँ ‘या’ (or) का निश्चित आशय क्या है? क्या इसका अर्थ यह है कि न्यायालय उक्त दो प्रकार के दण्डों में से केवल एक प्रकार का दण्ड ही दे सकते हैं तथा दोनों दण्ड एक साथ नहीं दिये जा सकते।23

(2) असंगति (Inconsistency)

जब किसी विधि के शब्दों से कोई अर्थ ही न निकलता हो या उसके विभिन्न भागों का परस्पर विरोधी अर्थ निकलने के कारण उस विधि का महत्व ही समाप्त हो जाता हो, तो ऐसी त्रुटि असंगति की त्रटि कहलाती है। ऐसी त्रुटि को दूर करने के लिए न्यायालय तार्किक निर्वचन (logical interpretation) का प्रयोग करते हैं जिसके अन्तर्गत वे यह तर्क लगाने का प्रयत्न करते हैं कि यदि वह त्रुटि विधान-मण्डल के ध्यान में आती, तो उसने उस विधि से क्या आशय निकाला होता।

(3) अपूर्णता (Incompleteness)

कभी-कभी विधान में न तो कोई संदिग्धता रहती है और न असंगति, बल्कि उसमें कुछ कमियाँ रह जाती हैं। इस अपूर्णता सम्बन्धी दोष के कारण उस विधि का आशय स्पष्ट नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए यदि दो वैकल्पिक प्रसंग हों और कानून उनमें से केवल एक के लिए ही व्यवस्था करता हो और दूसरे के विषय में मौन हो, ऐसी दशा में न्यायालय तार्किक विवेचन के द्वारा ऐसी रिक्तियों (incompleteness) की पूर्ति कर सकते हैं।

22. वेलेस बनाम मेजर, (1946) KB 473.

23. इस प्रकार की संदिग्धता ‘synthetic ambiguity’ कहलाती है। आर० बनाम केसमेन्ट, (1917) 1 KB 98 इसका उत्तम उदाहरण है।

विधियों के संदिग्ध, असंगत तथा अपूर्ण होने की दशा में उनकी उचित व्याख्या करने में मार्गदर्शन के रूप में निर्वचन के कतिपय सिद्धान्त निर्धारित किये गये हैं। विधियों का निर्वचन निस्संदेह ही एक जटिल तकनीकी प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप असंख्य न्यायिक विनिश्चयों का विकास हुआ है।” निर्वचन सम्बन्धी कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन नीचे किया गया है।

1. संविधि को एक साथ पढ़कर उसका समग्र रूप से निर्वचन किया जाना चाहिए (Ex visceribus actus)-निर्वचन के महत्वपूर्ण नियमों में से एक नियम यह है कि कानून के किसी उपबंध का निर्वचन करते समय इस कानून के सभी भागों को साथ लेकर उसकी व्याख्या की जानी चाहिए। (Statute must be read as a whole) लैटिन भाषा में नियम का शाब्दिक अर्थ यह है कि सम्पूर्ण कानून को समग्र रूप से पढ़कर उसका निर्वचन किया जाना चाहिए। आशय यह है कि किसी कानून का निर्वचन करते समय उसे समग्र रूप से पढ़कर उसका अर्थ एवं उद्देश्य उसमें प्रयुक्त भाषा से ही ढूंढा जाना चाहिए।

ओम प्रकाश बनाम दिग्विजेन्द्र पाल24 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उत्तर प्रदेश नगर भवन (भाड़ा, किराया तथा निष्कासन) अधिनियम, 1972 की धारा 2 (2) में कोई अस्पष्टता नहीं है और किसी अस्पष्टता के अभाव में इसका निर्वचन करने के लिए किसी वाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं है। इस धारा को समग्र रूप से पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि किसी भवन के बनकर तैयार होने के दिन से दस वर्षों तक इस अधिनियम के प्रावधान उस भवन के प्रति लागू होंगे। इस धारा में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि भवन का निर्माण इस अधिनियम के प्रभावी होने के पश्चात् किया गया हो। अतः अपने मन से इस आशय का अर्थान्वयन करना अनुचित है।

एस० गोपाल रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य25 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 केवल दहेज लिए जाने का ही निषेध नहीं करता अपितु इसके अधीन विवाह के पूर्व दहेज की मांग करना भी निषिद्ध है। न्यायालय के अनुसार इस अधिनियम के उपबंधों को एक साथ सम्पूर्ण एवं समग्र रूप से पढ़ने से विधायिका का यह आशय स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी चरण में दहेज लेना या देना अपराध है। इसलिए इस अधिनियम के प्रति उद्देश्यात्मक रुख अपनाया जाना उचित होगा।

2. निर्वचन सम्बन्धी स्वर्णिम नियम (Golden Rule of Interpretation)

सामान्य नियम यह है कि न्यायालयों द्वारा अधिनियमित विधियों की व्याख्या व्याकरणिक निर्वचन (literal interpretation) द्वारा की जानी चाहिये। परन्तु निम्नलिखित दो दशाओं में न्यायालय व्याकरणिक निर्वचन के नियम का अनुसरण नहीं करते-

(1) यदि कानूनी लेख में कोई अर्थाश्रित त्रुटि हो; अथवा

(2) यदि कानून के मूलपाठ (text) से ऐसा अयुक्तियुक्त परिणाम निकलता हो जिससे यह प्रकट हो कि विधान-मण्डल का वह अभिप्राय कदापि नहीं हो सकता था; या मूल पाठ में कोई लिपिकीय भूल हो, जैसे किसी धारा की संख्या गलत दर्शाई जाना या किसी लेखांश में नकार (negative) का लोप होना। 

कानून की ऐसी असंगति से बचने के लिए न्यायालय उसमें व्यक्त न किये गये व्यावृत्ति-खण्डों (saving clause) की ओर संकेत करते हैं। इसे ‘निर्वचन का स्वर्णिम नियम’ (Golden Rule of Interpretation) कहा जाता है। इस नियम के अनुसार कानून में प्रयुक्त शब्दों का अक्षरशः भावार्थ लिया जाना चाहिये जब तक कि उनमें असंगति न हो और यदि असंगति प्रतीत हो, तो शाब्दिक नियम को संशोधित किया जा सकता है।26

24. ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1230.

25. ए० आई० आर० 1996 सु० को० 2184.

26. The “Golden Rule” of construction impi He Bolden Rule” of construction implies that the ordinary meaning of the words must adhered to unless this leads to absurdity in which case the literal sense may be modified.

इस नियम का प्रतिपादन सर्वप्रथम न्यायाधीश पार्क बी० (Park B.) ने बेकिस बनाम स्मिथ27 के वाट में किया था। उनके अनुसार निर्वचन का स्वर्णिम नियम यह है कि कानून में प्रयुक्त शब्दों के सामान्य अर्थ को जानने के लिए व्याकरणिक अर्थान्वयन का अनुसरण किया जाना चाहिये जब तक कि वह अर्थ स्वयं उस कानून से ध्वनित होने वाले विधान-मण्डल के आशय के विरुद्ध न हो, अथवा किसी स्पष्ट असंगति या विरोध को प्रकट न करता हो। यदि कानून में प्रयुक्त शब्द विधान-मण्डल के आशय के प्रतिकूल अर्थ प्रकट करते हों, या असंगति उत्पन्न करते हों, तो ऐसे दोष को दूर करने के लिए कानून की भाषा परिवर्तित या संशोधित की जा सकती है, किन्तु उसे आवश्यकता से अधिक तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता।28 इस नियम के उदाहरणस्वरूप इन रि सिग्जवर्थ का वाद29 उल्लेखनीय है। इस वाद में बिना वसीयत किये (intestate) मरने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति को उसके दायादों में बाँटने की व्यवस्था से सम्बन्धित अधिनियम के विषय में यह अभिनिर्धारित किया गया कि मृतक की हत्या करने वाला व्यक्ति इसका लाभ नहीं उठा सकता क्योंकि विधि का यह सामान्य नियम है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही गलत कृत्य (wrong) से स्वयं को लाभान्वित नहीं कर सकता है।

लार्ड वेन्सडेल (Lord Wensdale) ने निर्वचन के स्वर्णिम नियम को ग्रे बनाम पियरसन30 के मामले में लागू किया था। उनके अनुसार ‘स्वर्णिम नियम’ से तात्पर्य यह है कि साधारणतः कानून में प्रयुक्त शब्दों के व्याकरणिक अर्थ को स्वीकार किया जाना चाहिए, किन्तु यदि इससे उस कानून के शेष उपबन्ध में कोई अत्युक्ति, विरोधाभास अथवा असंगति उत्पन्न होती है, तो ऐसी अत्युक्ति या असंगति को दूर करने के लिए उस अर्थ को संशोधित किया जा सकता है। परन्तु इस बहाने उस कानून में प्रयुक्त भाषा के परे अनावश्यक अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये।

ली बनाम नैप31 के इंग्लिश वाद में सड़क परिवहन अधिनियम, 1960 की धारा 77(1) में प्रयुक्त शब्द ‘स्टॉफ’ अर्थात ‘रुकेगा’ के निर्वचन का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था। इस धारा में उपबंधित था कि दुर्घटना घटित होने पर चालक दुर्घटनास्थल पर रुकेगा। इस मामले में दुर्घटना कारित होने के पश्चात् चालक क्षणभर के लिए वहां रुका और पुनः आगे चल दिया। इस प्रकरण में स्वर्णिम नियम लागू करते हुए न्यायालय ने विनिश्चित किया कि चालक ने उक्त धारा की शर्तों का पालन नहीं किया था क्योंकि वह दुर्घटना के पश्चात् युक्तियुक्त समय तक वहां नहीं रुका था, जिससे संबंधित अधिकारी उस दुर्घटना के बारे में उससे आवश्यक पूछताछ कर सकें। अत: वह इस अधिनियम के उल्लंघन के लिए दोषी था।

ना अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने यूनाइटेड स्टेट्स बनाम अमेरिकन ट्रकिंग एसोसिएशन32 के वाद में क्रियात्मक निर्वचन (Functional Interpretation) की आवश्यकता को स्वीकार करते हुये अभिकथन किया कि जहाँ किसी विधि के सामान्य अर्थ से कोई भ्रांति उत्पन्न होती हो तो या वह व्यर्थ प्रतीत होता हो, तो ऐसी दशा में उस विधि में प्रयुक्त किये गये शब्दों से परे हटकर उस विधि के वास्तविक उद्देश्य पर विचार किया जाना चाहिये। यदि उस विधि में प्रयुक्त शब्दों से कोई भ्रम की स्थिति उत्पन्न न भी होती हो, परन्तु वह अनुचित या अप्रासंगिक प्रतीत होता हो, तब भी क्रियात्मक निर्वचन का सहारा लिया जाना चाहिये। आशय यह कि विधि के निर्वचन उस विधि में प्रयुक्त शब्दों या भाषा की बजाय उसके उद्देश्य को महत्व दिया जाना चाहिये।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपर आयुक्त आयकर बनाम सूरत आर्ट सिल्क क्लॉथ मैन्यफैक्चरर्स एसोसिएशन33 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि यदि विधि में प्रयुक्त भाषा संदिग्ध या

27. Beckes v. Smith, (1836) 2 M & W 191.

28. Beckes v. Smith, (1836) 2 M & W 195.

29. In Re Sigsworth, (1935) Ch. 89.

30. Grey v. Pearson. (1857) 6 HL 61.

31. (1967) 2 QB 442.

32. 310 यू० एस० 534.

33. (1980) 2 एस० सी० सी० 31.

अस्पष्ट हो या उसके दो या अधिक अर्थ निकलते हों, तो उस विधि के उस अंश का अर्थान्वयन किया जाना चाहिये, जो उसके आशय को प्रभावी करने में समर्थ हो न कि उसे जिससे कोई आशय न निकलता हो।

3.रिष्टि का नियम (Mischief Rule)

विधि का अर्थान्वयन करते समय उसके पीछे गर्भित वास्तविक आशय को जानने के लिए न्यायाधीशों द्वारा रिष्टि के नियम (Mischief Rule) का प्रयोग किया जाता है। इस नियम की उत्पत्ति सन् 1584 में हीडन के मामले34 से हुई है। इस नियम के अनुसार सामान्यतः सभी विधियों के सही निर्वचन के लिए (फिर चाहे वह दण्ड सम्बन्धी हो, या लाभप्रद हो, अथवा प्रचलित सामान्य विधि को निर्बन्धित करने वाला हो, या विस्तृत करने वाला), निम्नलिखित बातों पर विचार किया जाना आवश्यक है-

(1) किसी कानून के निर्माण के पहले उस सम्बन्ध में प्रचलित सामान्य विधि क्या थी? (What was the common law before the making of the Act?) FF

(2) वह कौन सी-कमी (रिष्टि) या त्रुटि थी जिसके सम्बन्ध में सामान्य विधि में व्यवस्था नहीं थी? (What was the mischief or defect which the common law did not provide for?) कर

(3) सामान्य विधि के उस दोष को दूर करने के लिए संसद ने क्या उपचार उपबंधित किये थे? (What was the remedy provided by the Parliament to cure that mischief or defect?); तथा

(4) उपचार के वास्तविक कारण (The true reason of the remedy)।

उपर्युक्त चारों बातों पर विचार करते हुए न्यायाधीशों को कानून का ऐसा अर्थान्वयन करना चाहिये जिससे रिष्टि (mischief) को दूर करके उपचार को दृढ़ किया जा सके तथा कानून के वास्तविक आशय को क्रियान्वित किया जा सके।

रिष्टि सम्बन्धी नियम (Mischief Rule) के विषय में पैटन (Paton) का मत है कि यह एक ऐसा नियम है जिसके अन्तर्गत इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि कानून-विशेष में अन्तर्विष्ट सामान्य नीति क्या है तथा इसके द्वारा कौन-सी बुराई दूर करने का प्रयास किया गया था। सारांश यह है कि रिष्टि के नियम के अनुसरण में किसी कानून के निर्मित होने के कारणों, उनके द्वारा समाप्त की जाने वाली बुराइयों तथा पूरे किये जाने वाले उद्देश्यों पर ध्यान दिया जाता है। रिष्टि के नियम के संदर्भ में निम्नलिखित वादों का उल्लेख सुसंगत होगा।

बंगाल इम्यूनिटी कंपनी बनाम बिहार राज्य35 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अर्थान्वयन में रिष्टि के नियम (इसे दोष-परिहार का नियम भी कहा जा सकता है) का आज भी वही महत्व है जो लार्ड कोक के समय हीडन के मामले में इसे लागू करते समय था। इस नियम के द्वारा किसी संविधि का प्रयोजन, महत्व एवं उन दोषों या कमियों का पता लगाकर यह ज्ञात किया जा सकता है कि इसे क्यों हटाया गया।

परमेश्वरी बनाम संतोषी36 के वाद में हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी मामले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 24 का अर्थान्वयन करते समय रिष्टि के नियम को लागू करते हए इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि उक्त अधिनियम पारित होने के पूर्व इस संबंध में विधि की क्या स्थिति थी और उसके कौन से दोषों या कमियों को दूर करने के लिए संसद ने उक्त धारा 24 के उपबंध बनाये हैं।

रणजीत बनाम महाराष्ट्र राज्य37 के वाद में अभियुक्त को धारा 292 (भा० द० सं०) के अन्तर्गत ‘लेडी चैटरलीज लवर’ नामक अश्लील पुस्तक बेचने का दोषी पाया गया। उसने अपील में यह तर्क प्रस्तुत

34. Heyodn’s Case (1584) 76 ER 637.

35. (1955) 2 SCR 603.

36. उच्च न्या०नि०प० 1979 (पंजाब-हरियाणा).

37. ए० आई० आर० 1965 सु० को० 881.

किया कि अभियोजन को उसके विरुद्ध यह सिद्ध करना आवश्यक था कि पुस्तक में अश्लील साहित्य होने की जानकारी अपीलार्थी को थी। अपने बचाव में उसकी दलील यह भी थी कि पुस्तकों की दुकान पर अनेक पुस्तकें होती हैं, अतः दुकानदार के लिए यह जानना कठिन होता है कि अमुक पुस्तक में अश्लील साहित्य है अथवा नहीं। तथापि न्यायालय ने रिष्टि के नियम को अपनाते हुए उसकी इस दलील को खारिज कर दिया क्योंकि धारा 292 के अनुसार अश्लील साहित्य बेचना या रखना दोनों ही दण्डनीय अपराध है।

बंगलौर वाटर सप्लाई बनाम ए० राजप्पा38 के वाद में न्यायमूर्ति बेग ने अभिकथन किया कि दोषपरिहार या रिष्टि के नियम (Mischief Rule) के संदर्भ में इस सिद्धान्त को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि किसी विधि का निर्वचन उसके सभी उपबंधों, उद्देश्यों, प्रस्तावना तथा उपबंधों की पृष्ठभूमि पर विचार किया जाए। उनके मतानुसार भारत के द्रुतगति से बदलते हुए सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश में ‘उद्योग’ (Industry) के अर्थान्वयन में व्यापक परिवर्तन आवश्यक हो सकता है। अतः इस वाद में उद्योग की परिभाषा का अर्थान्वयन अत्यंत व्यापक अर्थ में किया गया ताकि इसमें कार्यरत विभिन्न वर्गों को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के प्रावधानों का लाभ मिल सके।

उमेद सिंह बनाम राज सिंह39 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधि का अर्थान्वयन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि रिष्टि का परिहार हो और शब्दों का स्वाभाविक अर्थ रखता हो।

4. सजाति का नियम (Rule of Ejusdem Generis)

निर्वचन के इस नियम के अनुसार कानून में प्रयुक्त शब्दों का आशय उनके उचित सन्दर्भ में लिया जाना चाहिये। अत: यदि किसी कानून में पहले विशिष्ट वस्तुओं की प्रगणना (enumeration) की गई हो तथा इनके अन्त में सामान्य निष्कर्षात्मक शब्द या शब्दों का प्रयोग किया गया हो, तो उस सामान्य शब्द या शब्दों का अर्थ उन विशिष्ट वस्तुओं के अर्थ में ही ग्रहण किया जायेगा। उदाहरण के लिए, बम्बई म्युनिसिपल अधिनियम की धारा 412 (क) के अन्तर्गत किसी व्यक्ति द्वारा दूध, मक्खन या दूध से बनी कोई अन्य वस्तु बेची जाने के पहले उसे इस हेतु लाइसेन्स प्राप्त कर लेना आवश्यक था। इस अधिनियम की व्याख्या करते हुए बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि सजाति नियम के अनुसार ‘दूध से बने पदार्थ’ के अन्तर्गत दही या क्रीम की गणना तो की जा सकती है किन्तु घी की नहीं क्योंकि घी नश्वर प्रकृति (perishable nature) का नहीं होता जबकि दूध से बनी अन्य वस्तुएँ शीघ्र खराब होने वाली होती हैं।40

परन्तु उल्लेखनीय है कि सजाति-नियम (Rule of Ejusdem Generis) को सावधानीपूर्वक लागू किया जाना चाहिये तथा इसका अनावश्यक विस्तार नहीं किया जाना चाहिये 41

‘इज्युसडेम जेनरिस’ के नियम का एक रोचक दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए सामण्ड कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से कहता है कि वह बाजार जाकर मक्खन, दूध, अण्डे या अन्य कोई वस्तु, जिसकी उसे आवश्यकता है, ले आये, तो यह नहीं माना जायेगा कि ‘अन्य कोई वस्तु’ से पति का आशय पत्नी को हैट या फर्नीचर लाने की अनुमति देना था। जिस सन्दर्भ में उस व्यक्ति ने ‘अन्य कोई वस्तु’ शब्दों का प्रयोग किया था, वे खाद्य-पदार्थ से सम्बन्धित होने के कारण इसमें हैट या फर्नीचर का समावेश किया जाना अनुचित होगा।42

पामर बनाम स्नो के वाद में सन्डे आब्जर्वेन्स ऐक्ट, 1877 में यह उपबंधित था कि “कोई भी व्यापारी, शिल्पी, कर्मकार, श्रमिक या अन्य व्यक्ति चाहे जो हो, रविवार को कोई कार्य नहीं करेगा।” इस

38. ए० आई० आर० 1978 सु० को० 548..

39. (1975)1 उम०नि० प० 512.

40. रतनसी हीरजी बनाम सम्राट, ए० आई० आर० 1929, बम्बई 274.

41. प्रमथ नाथ बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, ए० आई० आर० 1963 कलकत्ता 554.

42. (1900) 1 क्यू० बी० 725.

अधिनियम में “कोई भी व्यक्ति” का अर्थान्वयन उन्हीं श्रेणियों तक सीमित रखा गया है जो उसमें वर्णित हैं। अत: इसमें किसानों या नाइयों का समावेश नहीं माना जाएगा।

भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत दीमाकुची चाय बागान के कर्मकार बनाम दीमाकुची चाय बागान के प्रबन्धक43 के वाद में अपीलार्थी का तर्क था कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की। धारा 2 (ट) में प्रयुक्त भाषा में शब्द किसी व्यक्ति’ के अन्तर्गत सजाति के नियम के अनुसार ‘डाक्टर’ का भी। समावेश है। लेकिन न्यायालय ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि इसके अधीन केवल नियोजक एवं कर्मकारों का ही समावेश है, अन्य किसी का नहीं। धारा 2 (ट) में ‘औद्योगिक विवाद’ को परिभाषित किया गया है-“औद्योगिक विवाद से नियोजकों और नियोजकों के बीच का या नियोजकों और कर्मकारों के बीच का, या कर्मकारों और कर्मकारों के बीच का कोई ऐसा विवाद या मतभेद अभिप्रेत है जो किसी व्यक्ति (any person) के नियोजन या अनियोजन या नियोजन के निर्बंधनों या श्रम की पूर्ति से संशक्त है।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस परिभाषा में प्रयुक्त शब्दावली एवं भावार्थ से यह स्पष्ट है यह केवल नियोक्ता एवं कर्मकारों के प्रति ही लागू होगा तथा इसमें सजाति-नियम लागू करके डॉक्टर को समाविष्टकरना सम्भव नहीं है।

5. साधारण कथन विशेष कथन का अल्पीकरण नहीं करते

(Generalia Specialibus non derogant)

लैटिन सूत्र ‘जनरेलिया स्पेशियालिबस नॉन डेरोगेन्ट’ को निर्वचन के नियम के रूप में स्वीकार किया गया है। इस नियम का अर्थ यह है कि साधारण कथन विशेष कथन का अल्पीकरण नहीं करते। जब कभी विधान-मण्डल कानून बनाते समय किसी विशिष्ट प्रकरण की ओर ध्यान केन्द्रित करता है और उसकी संदिग्धता (ambiguity) दूर करने के लिए उस कानून में उपबन्ध बनाता है, तो यह उपधारित किया जाता है कि पश्चातवर्ती कानून में जिन सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख है उन्हें विधान-मण्डल ने पूर्ववर्ती कानून के प्रभाव को समाप्त करने के लिए नहीं बनाया है, जब तक कि इस आशय का स्पष्ट उल्लेख उस दूसरे अधिनियम में न किया गया हो।4 उदाहरण के लिए, इंग्लैंड के विवाहिता महिला सम्पत्ति अधिनियम, 1882 (Married Women’s Property Act, 1882) के अन्तर्गत एक सामान्य प्रावधान यह था कि किसी भी विवाहिता महिला को अपनी अचल एवं वैयक्तिक सम्पत्ति अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्रतापूर्वक व्ययन (dispose of) करने का अधिकार होगा, मानो कि वह उसकी स्वअर्जित सम्पत्ति है। परन्तु उक्त प्रावधान ‘चर्च के लिए दान’ अधिनियम, 1803 (Gifts for Churches Act, 1803)45 के इस विशेष प्रावधान को अधिभूत नहीं करता (does not over-side) कि चर्च के निर्माण हेतु किये गए दान के लिए विवाहिता स्त्री को अपने पति की सहमति प्राप्त करना आवश्यक है।

6. उदार या हितप्रद अर्थान्वयन का सिद्धान्त (Doctrine of Liberal or Beneficial Interpretation)

निर्वचन के समस्त नियमों का एकमात्र उद्देश्य यह है कि संविधियों की व्याख्या करते समय वे न्यायाधीशों को निश्चित अर्थ तक पहुँचने में सहायक हों ताकि विवादियों को उचित न्याय प्राप्त हो सके। यदि उदार अर्थान्वयन (Liberal construction) द्वारा कानून का हितप्रद निर्वचन करते हुए मामले को निर्णीत किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि उस विनिश्चय (decision) में निर्वचन के तकनीकी नियम लागू किये ही जायें।46

43. ए० आई० आर० 1958, सु० को० 353.

44. मुन्नापली बनाम विश्वनाथ मल्लापुराज, ए० आई० आर० 1930, मद्रास 963; मगुनदाप्पा बनाम जावाली, ए० आई० – आर० 1965, मैसूर 237.

45. यह अधिनियम, निरसित (Repeal) हो चुका है.

46. आसनसोल बस एसोसिएशन बनाम सहायक श्रम आयुक्त, ए० आई० आर० 1967, कलकत्ता 371.

कानून का उदार निर्वचन करते हुए उच्चतम न्यायालय ने स्प्रिंग मीडोज हॉस्पिटल बनाम एच० अहलूवालिया47 के वाद में विनिश्चित किया कि यदि माता-पिता ने अपने शिशु के चिकित्सकीय उपचार के लिए किसी अस्पताल की सेवाएं भाड़े पर ली हों तो इलाज के दौरान सेवा में कमी होने की दशा में वे तथा शिशु, दोनों ही पृथक्-पृथक् अस्पताल के विरुद्ध क्षतिपूर्ति के लिए दावा कर सकते हैं।

इसी प्रकार इंडियन मेडीकल एसोसिएशन बनाम व्ही० पी० संथा48 के मामले में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2(O) में प्रयुक्त शब्द ‘सेवा’ (service) का उदार अर्थान्वयन करते हुए न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी चिकित्सक द्वारा रोगी को दी गई सेवाएं उक्त धारा के प्रावधानों के अधीन ‘सेवा’ मानी जाएगी। अत: इससे व्यथित रोगी चिकित्सक के विरुद्ध उपभोक्ता फोरम में वाद दायर कर सकता है।

7.निर्वचन में उपधारणाओं सम्बन्धी नियम (Rules of Presumption)

संविधियों के निर्वचन में वैधानिक उपधारणाओं (Legal presumptions) का विशेष महत्व रहता है। उपधारणाएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं, तथापि कुछ प्रमुख उपधारणाओं का उल्लेख नीचे किया गया

(i) सामान्य विधि में परिवर्तन के विरुद्ध उपधारणा का

इंग्लिश विधि में यह उपधारणा पूर्णतः स्थापित हो चुकी है कि संसद् का कोई भी कानून इंग्लैंड की सामान्य विधि (Common Law) में परिवर्तन नहीं ला सकता जबकि इस तक आशय का उल्लेख उस कानून में अभिव्यक्त रूप से न किया गया हो। एक वाद में किसी कानून द्वारा न्यायालय को एक कम्पनी की सम्पत्ति दूसरी कम्पनी को अन्तरित करने के लिए अधिकृत किया गया था। यह निर्णय दिया गया कि ‘सम्पत्ति’ शब्द के अन्तर्गत प्रत्येक तरह के साम्पत्तिक अधिकार तथा हर प्रकार की शक्ति समाविष्ट है। इस प्रश्न पर कि क्या इस कानून के अन्तर्गत कम्पनी के कर्मचारियों को भी दूसरी कम्पनी को अन्तरित किया जा सकता है, हाउस ऑफ लार्ड्स ने निर्णय दिया कि इस आशय के स्पष्ट उल्लेख के अभाव में ऐसा नहीं किया जा सकता क्योंकि कॉमन लॉ का यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि कर्मचारियों को अन्य वस्तुओं (chattels) की भाँति अन्तरित नहीं किया जा सकता है।49

(ii) दाण्डिक संविधियों सम्बन्धी उपधारणा

दाण्डिक संविधियों का निर्वचन करते समय उनका अर्थान्वयन ज्यों-का-त्यों किया जाना चाहिये।50 वर्तमान में इस नियम का अर्थ यह निकाला जाता है कि दाण्डिक संविधि में कोई संदेहास्पद शब्द या पद (doubtful word or phrase) हो, तो उसका अर्थान्वयन अभियुक्त के हक में किया जाना चाहिये 51 परन्तु इसका आशय यह कदापि नहीं है कि शब्दों को जान-बूझ कर तोड़-मरोड़ कर उनसे उदार अर्थ निकाला जाए।52

दाण्डिक संविधि के निर्वचन की दूसरी महत्वपूर्ण उपधारणा यह है कि आपराधिक मन:स्थिति (mens rea) सदैव सुसंगत (relevant) होती है। परन्तु उचित प्रमाणों के आधार पर इस उपधारणा का खंडन किया जा सकता है 53

47. ए० आई० आर० 1998 सु० को० 1801.

48. ए० आई० आर० 1996 सु० को० 550.

49. Noke v. Doncaster Amalgamated Colliers Ltd. 1940 AC 1040. 0 er o CA

50. Penal statutes must be strictly construed, See Syed Rahim v. Emperor, AIR 1915 Nag. 2. | 51. सज्जन सिंह बनाम पंजाब राज्य, (1964), 4 SCC 630.

 52. लंदन नार्थ-ईस्टर्न रेल कं० बनाम बेरीमेन (1964), 1 ऑल इंग्लैण्ड रिपोर्ट 255. गाह

53. महाराष्ट्र राज्य बनाम जॉर्ज (1965), 1 SCC 123.

दांडिक संविधि सम्बन्धी तीसरी उपधारणा अपराध की निरन्तरता (Presumption against creation of a continuing offence) के सम्बन्ध में है। यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक अपराध के लिए न्यायिक कार्यवाही चल रही हो, तो उसके विरुद्ध उसी अपराध के लिए पुनः कार्यवाही नहीं चलाई जा सकती क्योंकि ऐसा करना इस उपधारणा के प्रतिकूल होगा।54

दांडिक विधि का यह सामान्य नियम है कि अभियुक्त द्वारा अपराध कारित किये जाने की निश्चितता के प्रति तनिक भी संदेह होने पर उसे संदेह का लाभ (Benefit of doubt) देकर उन्मोचित कर दिया जाना चाहिए। तथापि उसके अपराध के प्रति लागू होने वाले दांडिक प्रावधानों का कठोरता से निर्वचन किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, पंजाब राज्य बनाम रामसिंह5 के वाद में एक पुलिस कॉस्टेबल अपने कर्तव्य काल के दौरान शराब के नशे में धुत अपना सेवा-रिवाल्वर लेकर बाजार में घूम रहा था। जब उसे स्वास्थ्य परीक्षण हेतु चिकित्सा अधिकारी के समक्ष ले जाया गया, तो उसने चिकित्सा अधिकारी को भद्दी गालियां दी। अतः उसे सेवा से पदच्युत कर दिया गया। अपील में न्यायालय ने विनिश्चित किया कि इन सब बातों से अभियुक्त का शराब पीकर अशिष्टता करने का आदी होने का पता चलता है इसलिए उसका आचरण गंभीरतम कदाचार होने के कारण उसकी पदच्युति न्यायोचित थी।

ए० एस० सुलोचना बनाम सी० धर्मालिंगा56 के वाद में तमिलनाडु भवन (पट्टा और किराया नियंत्रण) अधिनियम, 1960 की धारा 10 (2) (ii) के निर्वचन का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था। उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि उक्त धारा एक दांडिक उपबंध है जो किसी किरायेदार द्वारा किराये पर लिए गये भवन को पुन: किराये पर उठाए जाने को वर्जित करती हुई उसके विरुद्ध बेदखली के दंड का प्रावधान करती है। अतः इसका कठोरता से अर्थान्वयन किया जाना आवश्यक है।

(iii) विधान के भूतलक्षी प्रभाव के विरुद्ध उपधारणा

(Presumption Against Retrospective Legislation)

निर्वचन सम्बन्धी यह उपधारणा सम्भवतः सिविल विधि के बजाय दांडिक संविधियों के प्रति अधिक प्रभाव रखती है। अमेरिका के संविधान के पाँचवें तथा चौदहवें संशोधन के परिणामस्वरूप विधान-मंडल द्वारा भूतलक्षी प्रभावयुक्त संविधियाँ पारित नहीं की जा सकतीं।57 परन्तु भारत में इस नियम को नहीं अपनाया गया है।58

किसी संविधि को भूतलक्षी प्रभावयुक्त तब कहा जा सकता है यदि वह ऐसे अधिकारों या उपचारों से सम्बद्ध हो, जो पहले ही उद्भावित हो चुके हैं। परन्तु निवेदित है कि संविधियों के भूतलक्षी प्रभाव सम्बन्धी नियम को कठोरता (rigidly) से नहीं अपनाया जाना चाहिये बल्कि उसे परिस्थिति के अनुसार नमनशील बनाया जा सकता है। तथापि यदि किसी कानून में यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि उसका प्रभाव भूतलक्षी (retrospective) होगा, तो सामान्य उपधारणा यही होगी कि वह भविष्यलक्षी प्रभाव रखेगा।

(iv) कराधान सम्बन्धी उपधारणायें (Presumption Relating to Taxing Statutes)

करों (taxes) से संबंधित किसी भी व्यवस्था को बिना सांविधिक प्राधिकार के लागू नहीं किया जा सकता।60 इसका आशय यह है कि उचित कानून पारित किये बिना किसी भी प्रकार का कर (tax) नहीं

54. मकबूल हसन बनाम बम्बई राज्य, ए० आई० आर० 1953 सु० को० 325.

55. ए० आई० आर० 1992 सु० को० 2188.

56. ए० आई० आर० 1987 सु० को० 242.

57. कूले (Cooley) : Constitutional Limitation (8th Edn.) P. 190.

58. प्यारे दुशाद बनाम सम्राट् 1944, पी० सी० 1.

59. भंवरलाल बनाम नवल किशोर, ए० आई० आर० 1954 म०प्र० 25.

60. बनारसी देवी बनाम आयकर अधिकारी, ए० आई० आर० 1964, सु० को० 1742.swer

लगाया जा सकता है।61 कराधान सम्बन्धी कानून का अर्थान्वयन उदार निर्वचन (liberal interpretation) द्वारा यथासम्भव करदाता के पक्ष में किया जाना चाहिये ताकि उसे इसका लाभ मिल सके। इस सम्बन्ध में एक उपधारणा यह भी है कि करों की चोरी (tax evasion) के मामलों में कानून का निर्वचन उदार व्याख्या द्वारा नहीं किया जाना चाहिये।62

(v) समान-विषय से सम्बन्धित कानूनों के प्रति उपधारणा

(Presumption relating to statutes in pari materia)

सामान्यत: किसी विधि का अर्थान्वयन किसी अन्य विधि के सहारे किया जाना कभी भी हितप्रद नहीं होता है। परन्तु यदि किसी कानून में संदिग्धता हो, तो उसके पीछे विधान-मंडल का वास्तविक अभिप्राय क्या रहा होगा, यह जानने के लिए उसी विषय से सम्बद्ध अन्य विधि पर विचार किया जा सकता है। अतः कानूनों के समान-विषयक (pari materia) होने सम्बन्धी उपधारणा (presumption) यह है कि जब कभी विधान-मंडल किसी विषय पर कानून बनाता है, तो वह उस विषय से सम्बन्धित पूर्ववर्ती कानून को ध्यान में अवश्य रखता है ।63 कानून को सम-विषयक तभी माना जाता है यदि वे एक ही प्रकार के व्यक्तियों या वस्तुओं के सम्बन्ध में होते हैं या एक ही वर्ग के व्यक्तियों या वस्तुओं के प्रति लागू होते हैं, या उनका लक्ष्य समान होता है।64 उदाहरणार्थ, अवधि सीमा-अधिनियम 1963 तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 को एक-दूसरे के सन्दर्भ में पढ़ा जाता है क्योंकि वे दोनों ही प्रक्रिया विधि से सम्बन्धित हैं; अतः इन्हें समविषय पर आधारित (pari materia) माना गया है।65

इसी प्रकार विधियों के निर्वचन में अन्य देशों की विधियाँ, समय, अधिकारिता, न्यायिक शक्ति के प्रयोग तथा अधिकारों आदि सम्बन्धी उपधारणाएँ भी हैं जो विधि की व्याख्या करते समय न्यायाधीशों का यथेष्ट मार्गदर्शन करती हैं।

रामचन्द्र बनाम भारत संघ66 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केन्द्रीय सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) अधिनियम, 1965 का नियम 27 (2) तथा रेलवे कर्मचारी (अनुशासन

और अपील) अधिनियम, 1968 का नियम 22 (2) सम-विषय होने के कारण 1968 के अधिनियम की धारा 22 (2) की अवमानना की जाने पर अपीलीय आदेश को निरस्त किया जाना अपरिहार्य होगा।

8. निर्वचन सम्बन्धी अन्य नियम

यद्यपि सामान्य नियम यह है कि विधियाँ संदिग्ध नहीं होनी चाहिये, किन्तु विधान-मंडल द्वारा निर्मित विधियाँ सदैव ही इस दोष से मुक्त नहीं रह पातीं। अत: उनके निर्वचन के लिए न्यायालयों को अर्थान्वयन सम्बन्धी अन्य तरीके अपनाने पड़ते हैं ताकि विधायिनी के वास्तविक आशय का पता लगाया जा सके। विधि के निर्वचन में न्यायालय द्वारा अपनाये जाने वाले विभिन्न तरीके निम्नलिखित हैं-

 (i) इतिहासात्मक निर्वचन . किसी विधि को पारित करने के पीछे विधान-मंडल का क्या आशय रहा होगा, यह जानने के लिए कभी-कभी न्यायालयों को उस विधि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। इसके अनसरण में न्यायालय विधेयक (Bill) के स्थापन से लेकर उसके पारित होने तक की सभी स्थितियों पर विचार करते हैं।

61. फर्नान्डीज बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1957, सु० को० 657.

62. नवाबगाझी बनाम असिस्टेंट कंट्रोलर इस्टेट ड्यूटी ए० आई० आर० 1965, सु० को० 215.

63. रुक्मिणी बाई बनाम कमिश्नर, वेल्थ टैक्स, ए० आई० आर० 1964, अवध 274.

64. सदरलैंड : स्टेट्यूटरी कन्सट्रक्सन, पृ० 5202.

65. विद्यानन्द शुक्ला बनाम खूबचन्द बघेल (1964), 6 SCC 129.

66. ए० आई० आर० 1986 सु० को० 1173.

का उद्देशिका, सामान्य शीर्षक तथा पार्श्व-टिप्पणी

(Preamble, General Heading and Marginal Notes) PEE R

किसी कानून को अधिनियमित करने में विधान-मंडल का मूल उद्देश्य क्या था, यह जानने के लिए उस कानून की उद्देशिका (Preamble) पर ध्यान देना आवश्यक होता है। किसी कानून में प्रयुक्त शब्दों का भावार्थ जानने के लिए उद्देशिका का सहारा लेना अत्यन्त उपयोगी होता है। उद्देशिका एक ऐसी कुंजी है जो कानूनविशेष के निर्माताओं के विचारों को खोलकर सामने रख देती है ताकि यह जाना जा सके कि उस कानून को पारित करने में विधायकों ने किस कमी या दोष को सुधारने का प्रयास किया होगा।67 परन्तु यदि कानून की भाषा स्पष्ट तथा असंदिग्ध (unambiguous) है, तो उसकी उद्देशिका (Preamble) का सहारा लेते हुए विधान के क्षेत्र को अनावश्यक रूप से विस्तृत नहीं किया जा सकता।68

कानूनों के सामान्य शीर्षक (General Headings) के विषय में निर्वचन का नियम यह है कि विधि की भाषा तथा अर्थ स्पष्ट होने पर न्यायाधीशों से यह अपेक्षित नहीं है कि वे सामान्य शीर्षक के अनुसार उपबन्धों या धाराओं की व्याख्या करें।69 परन्तु कानून की किसी अस्पष्ट, संदिग्ध या अपूर्ण धारा का अर्थान्वयन करने में सामान्य शीर्षकों से सहायता ली जा सकती है। वैसे, सामान्य शीर्षकों को अधिनियम का ही एक भाग माना गया है तथा वे धाराओं के लिए उद्देशिका का काम करते हैं।70

किसी अधिनियम में दी गयी पार्श्व-टिप्पणी (Marginal Notes) के विषय में न्यायालयों की यह स्पष्ट धारणा है कि निर्वचन में इनका सहारा नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि इन्हें विधि का अंग नहीं माना जाता है।71 परन्तु फिर भी धाराओं के विस्तार को समझने के लिए कभी-कभी इसका उपयोग किया जा सकता है।72 उदाहरणार्थ, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 का पार्श्व-टिप्पण “संविदा करने के लिए कौन सक्षम है” या भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 312 का पार्श्व-टिप्पण ‘गर्भपात कारित करना’ आदि।

निर्वचन सम्बन्धी कुछ समस्याएँ

उल्लेखनीय है कि देश, काल, विधि-प्रणाली, राजनीतिक व्यवस्था तथा सामाजिक, नैतिक या राष्ट्रीय धारणाएँ निर्वचन के सिद्धान्त को बहुत प्रभावित करती हैं। वर्तमान में न्यायालयों की सृजनात्मक भूमिका को ध्यान में रखते हुए संविधियों के निर्वचन को रूढ़िवादिता से हटकर नया स्वरूप दिया जा रहा है। अद्यतन लोकहित वाद (Public Interest Litigation) इसका सर्वोत्तम प्रमाण है। ओल्गा टेलिस बनाम महाराष्ट्र राज्या3 के वाद में संविधान के अनु० 21 में प्रावधानित जीवन के अधिकार के अन्तर्गत आजीविका कमाने का अधिकार भी सम्मिलित होना अभिनिर्धारित किया गया था। इसी प्रकार हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्या4 के वाद में वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार में विचारणाधीन, बन्दियों का द्रुतगति से विचारण किये जाने का अधिकार सम्मिलित होना विनिश्चित किया गया है। न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial review) के माध्यम से न्यायालय कानून का निर्वचन वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में करने की ओर अधिक प्रवृत्त है। इसके परिणामस्वरूप विधान-मण्डल के समक्ष विधि-निर्माण सम्बन्धी नई समस्या उत्पन्न हो जाती है। इस सन्दर्भ

67. मुदालियार बनाम वेंकटचलम, ए० आई० आर० 1956, सु० को० 246.

68. वेंकटस्वामी नायडू बनाम नरसराम नारायण दास, ए० आई० आर० 1966 सु० को० 36.

69. गुजरात राज्य बनाम मोहम्मद कासेम, ए० आई० 1967 गुजरात 169.

70. आर० बनाम लोकल गवर्नमेन्ट बोर्ड, (1882) 10 OBD 309; भिन्कू बनाम चरन सिंह, ए० आई० आर०. 1956 सु० को०960.

71. विल्किस बनाम गॉडविन (1923) 2 के० बी० 86: निक्सन बनाम एटॉर्नी जनरल, (1930) 1 चां० 567; शबाम फातमा बनाम वाइस चांसलर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, ए० आई० आर० 1966 इलाहाबाद 45. 72.इफतियाकहीन बनाम मसम्मात आशा बाई ए० आई० आर० 1950 भोपाल 69..

73. ए० आई० आर० 1986 सु० को० 180.

74. (1980) 1 scc 98 (Hussainara IV).

में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 31 (1)75 में प्रयुक्त ‘प्रतिकर’ (compensation) शब्द की व्याख्या और निर्वचन का उल्लेख करना उचित होगा जो यह साबित करता है कि न्यायपालिका सामाजिक आवश्यकता तथा बदलते हुए समय के साथ-साथ विधि के निर्वचन में समयानुकूल परिवर्तन करती चली आ रही है।76

प्राचीन भारतीय विधि में निर्वचन के नियम

उल्लेखनीय है कि भारत में विधियों के निर्वचन के सिद्धान्त को प्राचीन काल से ही पर्याप्त महत्व दिया जाता रहा है। यहाँ तक कि प्रिवी कौंसिल ने रामचन्द्र बनाम विनायक77 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू विधि के निर्वचन सम्बन्धी नियम दीर्घकाल से प्रचलित होने के कारण उनमें अन्य विधियों की निर्वचन-पद्धति लागू नहीं की जा सकती है। प्राचीन हिन्दू विधि के निर्वचन के लिए स्मतियों में उल्लिखित व्याख्या सम्बन्धी नियम, जैमिनी-कृत मीमांसा के निर्वचन सम्बन्धी नियम तथा भाष्यों78 में दिये गये नियम प्रमुख आधार स्रोत माने गये हैं।

भारत की प्राचीन विधि के निर्वचन संबंधी नियमों के तीन प्रमुख स्रोत हैं-(1) निर्वचन के अनेक नियमों का उल्लेख विधि के मूलपाठ में ही किया गया है। (2) मीमांसा में दिये गये निर्वचन नियमों, जिनका उल्लेख जैमिनी की पूर्व-मीमांसा में मिलता है; तथा (3) टीकाओं तथा भाष्यों में उपबंधित निर्वचन के नियम। यद्यपि अर्वाचीन विधि के निर्वचन-नियमों का आज के बदले हुए परिदृश्य में कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है, फिर भी बौद्धिक महत्व की दृष्टि से कतिपय नियमों का उल्लेख किया जाना उचित होगा। इनमें से कुछ नियम इस प्रकार हैं-

1. प्राचीन भारतीय हिन्दू विधि का निर्वचन संबंधी एक नियम यह था कि श्रुति, स्मृति तथा पुराण के पाठों में परस्पर विरोधाभास होने की दशा में श्रुति को प्राधिकृत माना जाएगा और स्मृति तथा पुराण के बीच अन्तर्विरोध की दशा में स्मृति के पाठ को ग्राह्य किया जाएगा। (वेदव्यास).

2. प्राचीन भारतीय विधि के निर्वचन का एक अन्य नियम यह था कि मनुस्मृति में वेदों का सार सन्निविष्ट होने के कारण यह सर्वोपरि है और ऐसी कोई भी स्मृति जो मनुस्मृति के विपरीत हो, ग्राह्य नहीं होगी। (बृहस्पति)

3. निर्वचन का एक नियम यह भी था कि अर्थशास्त्र की तुलना में धर्मशास्त्र के पाठ को अधिमान्यता दी जाएगी और दोनों में विरोधाभास होने की दशा में धर्मशास्त्र के पाठ को प्राधिकृत माना जाएगा।

4. नारद के अनुसार धर्मशास्त्र की तुलना में रूढ़ि या परम्पराएँ अधिक प्रभावशाली होती हैं, अतः वे अधिभावी होंगी।

75. यह अनुच्छेद 44वें संविधान संशोधन (1978) द्वारा निरसित कर दिया गया है..

76. देखें, क्रमशः पश्चिम बंगाल राज्य बनाम श्रीमती बेला बेनर्जी (ए० आई० आर० 1954 सु० को० 170); वेज्रावेलू स्पेशल डिप्टी कलेक्टर (ए० आई० आर० 1956 सु० को० 1017); भारत संघ बनाम मेरठ कार्पोरेशन ऑफ इण्डिया (ए० आई० आर० 1966 सु० को० 637); आर० सी० कूपर बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1970 सु० को० 564); केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (ए० आई० आर० 1973 सु० को० 1461); वामनराव बनाम भारतसंघ (ए० आई० आर० 1980 सु० को० 271); मिनर्वा मिल्स लि० बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1980 सु० को० 1789) आदि.

77.41 IA 290.

78 हिन्द विधि के अन्तर्गत ‘दायभाग’ सम्बन्धी ‘फैक्टम वैलेट का सिद्धान्त’ (Quod fieri non debuit factum valet) इसी निर्वचन-नियम पर आधारित है। इसका आशय है कि जो कार्य केवल नैतिक आचार के विपरीत है लेकिन वे वस्तुतः निष्पन्न हो गए हैं, तो वे कानून की दृष्टि से विधिमान्य होंगे.

5. बृहस्पति के अनुसार यदि किसी निर्णय में निर्णय के कारणों का उल्लेख न हो, तो इसे धर्म की विफलता माना जाएगा।

6. याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि यदि धर्म-ग्रन्थों में दिया कोई विधि का नियम लोकमत के विरुद्ध हो, तो उसे व्यवहार में नहीं लाया जाना चाहिए।

प्राचीन भारतीय विधि के निर्वचन में मीमांसा में सन्निविष्ट निर्वचन नियमों का विशेष महत्व है। इस पर अनेक भाष्यकारों ने टीकाएँ लिखी हैं, जो विधि के लिए अमूल्य कोष हैं। मीमांसा के टीकाकारों में शबर स्वामी, कुमारिल भट्ट तथा माधवाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। कुमारिल भट्ट के अनुसार शास्त्रों ने विषय, शंकाएँ, आपत्तियाँ, उत्तर तथा उपसंहार, इन पाँच को मीमांसा के पाठों का मुख्य भाग माना है। इसकी संयुक्त व्याख्या से निर्वचन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। मीमांसा के नियमों या सिद्धान्तों (Mimansa Principles) को निम्नलिखित पाँच भागों में विभाजित किया गया है- 1. 1. प्रारम्भिक नियम या निर्वचन के स्वयंसिद्ध नियम (axioms of interpretation); –

2. सामान्य नियम या निर्वचन के सूत्र (maxims of interpretation);

3. विधि के पाठ को लागू करने संबंधी सामान्य नियम;

4. पाठ एवं रूढ़ि या परम्परा के प्रति विशेषत: लागू किये जाने वाले निर्वचन नियम; तथा राष्ट्र

5. न्यायिक सूत्र (judicial maxims)।

यद्यपि न्याय-निर्णय में आज इन निर्वचन-सिद्धान्तों का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं रह गया है, तथापि ये इस बात की ओर इंगित अवश्य करते हैं कि प्राचीन भारतीय विधि-निर्माता विधि के उचित एवं न्याय संगत निर्वचन-पद्धति से पूर्णतया अवगत थे।

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि न्यायिक निर्णयों में विधि का निर्वचन अत्यधिक महत्वपूर्ण है तथा निर्वचन सम्बन्धी विस्तृत नियमों79 के होते हुए भी न्यायाधीशों द्वारा इन्हें सतर्कता तथा सावधानीपूर्वक लागू किया जाना चाहिये।

विधि के निर्वचन सम्बन्धी अनेक नियम ऐसे हैं जिनका आज भी अन्वेषण किया जाना शेष है। नई समस्याओं के साथ नये प्रकार के वाद न्यायालयों के समक्ष आते रहते हैं जिनके लिए उपयुक्त निर्वचन नियमों की खोज करने की आवश्यकता आ पड़ी है। यही कारण है कि निर्वचन सम्बन्धी सिद्धान्तों को समेकित करना कठिन कार्य है।80

विधि के अर्थान्वयन सम्बन्धी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए लार्ड ड्यू पारेक (Lord Du Pareq) ने कथन किया है कि न्यायाधीशों ने इस बात को अस्वीकार किया है कि वे अर्थान्वयन के सिद्धान्तों का अनुसरण करने के लिए बाध्य हैं। उनका मत है कि न्यायाधीशों का यह तर्क उचित है क्योंकि निर्वचन सिद्धान्तों का एकमात्र उद्देश्य विधान-मण्डल के आशय को जानने में न्यायाधीश का मार्गदर्शन करना है।81

विधियों की निर्वचन सम्बन्धी समस्या को हल करने के लिए फ्रीडमैन82 (Friedmann) ने इस ओर संकेत किया है कि अर्थान्वयन करते समय न्यायाधीशों द्वारा प्रायः भिन्न-भिन्न पद्धति अपनाई जाती है। कोई

79. स्थानाभाव के कारण निर्वचन सम्बन्धी सभी नियमों को उद्धृत करना यहाँ सम्भव नहीं है। अतः प्रस्तुत अध्याय में निर्वचन सम्बन्धी केवल कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। इस विषय पर विस्तृत सामग्री के लिए मैक्सवेल द्वारा लिखित ‘इन्टरप्रिटेशन ऑफ स्टेट्यूट्स’ (11वाँ संस्करण) तथा इस विषय पर जी० पी० सिंह द्वारा लिखित पुस्तक का अध्ययन उपयुक्त होगा.

80. डायस एण्ड ह्यज : ज्यूरिसप्रूडेन्स (1957) संस्करण, पृ० 145-46.

81. कटर बनाम वॉन्डसवर्थ स्टेडियम लि० (1949) AC 398.

82. फ्रीडमैन : लॉ एण्ड सोशल चेन्ज, अध्याय 11.

न्यायाधीश शाब्दिक निर्वचन की पद्धति अपनाता है, तो कोई तार्किक निर्वचन की तथा अन्य कुछ और ही पद्धति अपनाते हैं। अत: यह उचित होगा कि विधान (Legislation) को विभिन्न शीर्षकों में विभक्त का दिया जाये तथा प्रत्येक वर्ग के लिए विशिष्ट निर्वचन सिद्धान्त निर्धारित किया जाये। इससे न्यायाधीशों द्वारा मनमाने ढंग से अर्थान्वयन किये जाने पर रोक लगाई जा सकेगी। परन्तु निवेदित है कि यह सझाव व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि निर्वचन सम्बन्धी वास्तविक समस्या ‘न्यायाधीशों की विधायिनी के प्रति दृष्टिकोण’ की है। न्यायाधीशों द्वारा कौन-सी पद्धति अपनाई जाये, यह बहुत-कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वे विधायिनी से किस सीमा तक सहानुभूति रखते हैं।

भारत की वर्तमान बदलती हुई राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हए न्यायपालिका पर भारत के संविधान के विभिन्न उपबन्धों का नये सिरे से अर्थान्वयन करने का दायित्व आ पडा है।83 शासन-प्रणाली के ढाँचे को यथावत् बनाये रखते हुए संवैधानिक उपबन्धों के निर्वचन में न्यायालय सामंजस्यपूर्ण अर्थान्वयन की पद्धति अपना रहे हैं जिससे शासन के विभिन्न अंगों में उचित सन्तुलन बना रहे और वे एक-दूसरे की अधिकारिता में हस्तक्षेप न कर सकें। इस दृष्टि से भारत के न्यायालयों में कार्यरत न्यायाधीशों की भूमिका निस्संदेह ही प्रशंसनीय रही है।84 प्रचलित विधि को अधिक प्रासंगिक और लोकोपयोगी बनाने की दृष्टि से निर्वचन के सिद्धान्त का महत्व दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। आज ये नियम केवल संकलन-मात्र न रहकर न्यायालयों द्वारा प्रगतिशील समाज की समस्याओं को हल करने के लिए एक सक्षम साधन के रूप में प्रयुक्त किये जा रहे हैं।85 इस सम्बन्ध में हाल ही के कुछ वर्षों में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत लोकहित से सम्बन्धित वादों की जन साधारण को सामाजिक न्याय दिलाने में भूमिका सराहनीय है।86

भारत के उच्चतम न्यायालय ने इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ87 के वाद में संविधान के भाग III एवं भाग IV के उपबंधों का इस प्रकार निर्वचन किये जाने पर जोर दिया है कि वे वर्तमान समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक हो सकें। न्यायालय ने अभिकथन किया कि, “संविधान आवश्यक रूप से एक राजनीतिक दस्तावेज होने के कारण इसका निर्वचन समाज की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। यदि इसके निर्वचन में समाज की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक वास्तविकताओं की अनदेखी करते हुए किया जाता है, तो यह एक ऐसा असंवेदनशील ठंडा मृतपत्र होगा जिसका वास्तविकताओं से कोई सरोकार न हो।

इसी प्रकार न्यायमूर्ति के० रामास्वामी ने कन्ज्यूमर एजूकेशन रिसर्च सेंटर बनाम भारत संघ88 के वाद में कहा है कि संविधान का आमुख (Preamble) तथा अनुच्छेद 38 के उपबंधों में एक अर्थ पूर्ण एवं जीने लायक जीवन गुजारने हेतु सामाजिक न्याय की व्यवस्था दी गई है। अत: इस बात की नितांत आवश्यकता है कि संविधान का निर्वचन उसमें अन्तर्निहित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय तथा अवसरों की समानता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।

83. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो, ए० आई० आर० 1985 सु० को० 231; बिजोय इमेन्युअल बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1984 सु० को० 51 जिसे राष्ट्रगान का मामला भी कहा गया है; ओंकार सिंह बनाम राजस्थान नारा राज्य (1988) सु० को० 875 जिसे देवराला सती-प्रकरण भी कहते हैं; तथा एस० आर० बोम्बई बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1994 सु० को० 1918, मेनका गाँधी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 597; उन्नीकृष्णन बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1993 सु० को० 2178 आदि।

84. अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का प्रकरण (डॉ० इस्माइल फारूकी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1995 सु० को० 605).

85. फारवर्ड कन्सट्रक्शन कम्पनी तथा अन्य बनाम प्रभात मंडल, अंधेरी ए० आई० आर० 1986 सु० को० 391.

86. एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ, (श्री राम फूड एण्ड फर्टिलाइजर का वाद) ए० आई० आर० 1987 सु० को० 965; हासकाट बनाम महाराष्ट्र राज्य ए० आई० आर० 1966 सु० को० 4243; एशियाड का वाद ए० आई० आर० । 1982 सु० को० 1473; सेबेस्टिन का वाद ए० आई० आर० 1983 सु० को० 1083; बंधुआ मुक्ति मोचा का वाद। (1991)4 एस० सी० सी० 177 आदि.

87. ए० आई० आर० 1993 सु० को० 447.

88. ए० आई० आर० 1995 सु० को० 992.

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