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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 19 Notes

 

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अध्याय 19 (Chapter 19)

विधान (Legislation)

LLB Notes Study Material

विधि के स्रोत के रूप में विधान’ को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। इसके दो प्रमुख कारण हैं-प्रथम यह कि वर्तमान राज्य-व्यवस्था में विधान-मण्डलों द्वारा निर्मित विधि को ही कानून के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसे राज्य की संप्रभु-शक्ति का बल प्राप्त है। दूसरे, विधान-मण्डल के सदस्य जन-प्रतिनिधि होने के कारण इनके द्वारा पारित विधि को लोकमत का समर्थन प्राप्त रहता है। डायस एण्ड ह्यज ने अपने ‘ज्यूरिसपूडेन्स’ नामक ग्रन्थ में विधान’ (Legislation) शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि किसी प्राधिकारिक शक्ति द्वारा विधि को विमर्शपूर्वक (सोच-समझकर) एक निर्धारित ढाँचे में ढालने की प्रक्रिया को ‘विधान’ कहते हैं, बशर्ते कि उस प्राधिकारिक शक्ति को न्यायालय ने विधि-निर्माण के लिए सक्षम शक्ति के रूप में मान्य किया हो। इसमें संदेह नहीं कि विधान आवश्यक रूप से आधुनिक युग की देन है जिसके द्वारा सुसभ्य समुदाय में न्याय-व्यवस्था स्थापित करना सुगम हो गया है।

विधान का अर्थ

विधान’ को अंग्रेजी भाषा में लेजिस्लेशन (legislation) कहते हैं जो स्वयं लेजिस’ (legis) और लेशियो (Latio) नामक दो लैटिन शब्दों के योग से बना है। लैटिन भाषा में ‘लेजिस’ शब्द का अर्थ है ‘विधि’ तथा ‘लेशियो’ का अर्थ है ‘प्रस्थापना’; अत: विधान का शाब्दिक अर्थ है विधि की प्रस्थापना या निर्माण करना।

इंग्लैण्ड में विधान (legislation) शब्द को दो भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। विधि-निर्माण की प्रक्रिया तथा कार्यवाही के फलस्वरूप तैयार हुई विधि; दोनों को ही विधान (Legislation) कहा जाता है। बेन्थम (Bentham), मिल (Mill) तथा अन्य विधिशास्त्रियों के अनुसार किसी भी प्रकार के विधि-निर्माण को विधान कहते हैं। इसके अन्तर्गत उन समस्त विधियों का समावेश है जिनके द्वारा कानून का निर्माण होता है। राज्य के विधान-मंडल द्वारा प्रख्यापित (Promulgated) विधि को विधायन कहा जाता है।

ऑस्टिन (Austin) के विचार से ऐसे सभी वैधानिक कृत्य (legislative actions) जिनके परिणामस्वरूप विधि का निर्माण होता है या उसमें संशोधन या परिवर्तन होता है अथवा कोई नया उपबन्ध जोड़ा जाता है, विधान के अन्तर्गत आते हैं। इसका आशय यह है कि वैधानिक कृत्य के अभाव में कानून का निर्माण नहीं हो सकता। अतः स्पष्ट है कि ऑस्टिन के अनुसार न्यायाधीशों द्वारा प्रतिपादित नये सिद्धान्तों के आधार पर निर्मित विधि उनके वैधानिक (legislative) अधिकार की द्योतक हैं, न कि न्यायिक अधिकार की।2

सामंड के अनुसार विधान विधि का वह भाव है जो एक शक्ति-प्रदत्त प्राधिकारी के विधिक नियमों की घोषणा में सन्निहित है। यह सिद्धान्तों का ऐसा वर्णन है जो उन्हें विधि का बल प्रदान करता है।

सामण्ड (Salmond) ने ‘विधान’ शब्द को निम्नलिखित तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है

प्रथम, संकीर्ण तथा नपे-तुले अर्थ में विधान’ विधि का वह स्रोत है जो सक्षम अधिकारी द्वारा विधिक नियमों की घोषणा से उत्पन्न होता है।

1. डायस एण्ड ह्यज : ज्यूरिसपूडेंस (1970) पृ० 94.

2. ऑस्टिन : ज्यूरिसपूडेन्स (ग्रन्थ 3), पृ० 55.

द्वितीय, व्यापक अर्थ में ‘विधान’ शब्द के अन्तर्गत विधि-निर्माण की समस्त पद्धतियाँ सम्मिलित हैं। विधि को निर्मित करने या परिवद्धित अथवा संशोधित करने के लिए जो भी कार्य किये जाते हैं वे सभी विधायी प्राधिकारी (legislative authority) के कार्य माने जाते हैं। इस अर्थ में विधान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-(1) प्रत्यक्ष विधान (Direct legislation) और (2) अप्रत्यक्ष विधान (Indirect legislation) ।

विधान मण्डल (Legislature) द्वारा घोषित विधि को प्रत्यक्ष विधान (Direct Legislation) कहते हैं। जब कि अप्रत्यक्ष विधान के अन्तर्गत वे समस्त प्रक्रियाएँ आती हैं जिनसे विधि का निर्माण हुआ है।

तृतीय अर्थ में ‘विधान’ के अन्तर्गत विधान-मण्डल की इच्छा की प्रत्येक अभिव्यक्ति सम्मिलित है, चाहे उस इच्छा के द्वारा विधि के नियमों का निर्माण हुआ हो या न हुआ हो। इस अर्थ में संसद् (Parliament) के प्रत्येक अधिनियम को ‘विधान’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस दृष्टिकोण से विधान-मण्डल का कार्य नियम बनाने तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि उसके समस्त कार्य ‘विधान’ शब्द में सम्मिलित माने जाते हैं। 

ग्रे (Gray) ने विधान की परिभाषा देते हुए कहा है कि राज्य के व्यवस्थापिकीय अंग की औपचारिक घोषणाओं को विधान कहते हैं। ग्रे द्वारा दी गई विधान की यह परिभाषा सामण्ड (Salmond) की परिभाषा की तुलना में कहीं अधिक स्पष्ट एवं उचित प्रतीत होती है क्योंकि औपचारिक घोषणाएँ’, तथा व्यवस्थापकीय अंग’ (legislative organ) विधान को विधि के अन्य स्रोतों से भिन्न प्रमाणित करते है।

विधान का महत्व

विधि-निर्माण में विधान’ (Legislation) को सबसे प्रबल, प्रमुख एवं आधिकारिक स्रोत माना गया है। क्योंकि इसे प्राचीन विधियों को निरसित करने तथा वर्तमान विधियों में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है। विधान की महत्ता प्रतिपादित करते हुए रास्को पाउंड (Roscoe Pound) ने कहा है कि विधि के चार प्रमुख प्रयोजन हैं-(1) न्याय-व्यवस्था स्थापित करना, (2) समाज में स्थिरता लाना, (3) समाज के प्रत्येक व्यक्ति की अधिकतम स्वाधीनता सुनिश्चित करना, तथा (4) मानव की अधिकतम संतुष्टि । स्वाभाविकत: ही उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विधि के निश्चित नियमों की आवश्यकता हुई जिससे न्याय प्रशासन सुगमतापूर्वक संचालित हो सके। प्राचीन काल में जब ‘विधान’ जैसी कोई विधि-निर्मात्री शक्ति अस्तित्व में नहीं थी, उस समय प्रथाएँ तथा प्राकृतिक विधि या दैवी-विधि के नियमों के आधार पर न्याय व्यवस्था संचालित होती थी। परन्तु समाज के विकास एवं प्रगति के साथ-साथ यह अनुभव होने लगा कि प्रथाएँ तथा प्राकृतिक या दैवी नियम समाज में न्याय-व्यवस्था कायम रखने के लिए अपर्याप्त हैं क्योंकि इन्हें विधि का रूप ग्रहण करने में पर्याप्त समय लगता है। जब तक कोई प्रथा विधि का नियम बन पाये तब तक सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार नई प्रथाएँ जन्म लेती हैं। अतः इस कमी को दूर करने के लिए विधान (Legislation) की आवश्यकता प्रतीत होती है। विधान एक ऐसा साधन है जो प्रथाओं तथा सामाजिक आवश्यकताओं या लोकमत के बीच के रिक्त स्थान की पूर्ति करता है।

बर्क (Burk) के अनुसार समाज में सुधार के लिए विधान ही एक प्रभावी साधन है। प्रजातंत्र में जनता केवल अधिकारों से संतुष्ट नहीं हो जाती, अपितु वह अधिक सम्पन्नता एवं अच्छे रहन-सहन की आकांक्षा रखती है। यह विधान का ही कार्य है कि वह जनता के लिए शांतिपूर्ण तथा सम्पन्न जीवन सुनिश्चित करे तथा इसमें आने वाली बाधाओं को ढूंढ़ते हुए उसकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करे।

भारत में विधान की बहुलता पर टिप्पणी करते हुए टोक्यूविले (Toqueville) ने कहा है कि प्रजातन्त्र में विधान की अधिकता स्वाभाविक है क्योंकि इस राज्य व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लोगों का कल्याण सुनिश्चित करना है।

3. ‘Legislation is formal utterances of the legislative organ of the society. –Gray.

अधिनियमित तथा अनअधिनियमित विधि

अनेक विधिशास्त्रियों ने विधि को दो वर्गों में विभाजित किया है-(1) अधिनियमित विधि (Enacted Law), तथा (2) अनअधिनियमित विधि (Unenacted Law) ।

विधान-मण्डल द्वारा निर्मित विधि को अधिनियमित विधि कहते हैं तथा अन्य सभी विधियाँ ‘अनअधिनियमित विधि’ कहलाती हैं। इंग्लैण्ड में अधिनियमित विधि को सांविधिक कानून (statute law) कहा जाता है जबकि अनअधिनियमित विधि को ‘कॉमन लॉ’ की संज्ञा दी गई है। ब्लैकस्टोन (Blackstone) तथा हालैण्ड ने इन्हें क्रमशः लिखित विधि (written law) और अलिखित विधि (unwritten law) कहना अधिक उचित समझा। संभवतः उन्होंने यह भेद रोमन विधि से अपनाया जिसमें रूढिजन्य विधि को ‘आधारगत विधि’ (Jus non scripturn) कहा गया था तथा अन्य अधिनियमित विधियों को ‘लेखबद्ध विधि’ (jus scriptum) कहा गया था। अलिखित विधि को राज्य के प्रभुताधारी से विधिक शक्ति प्राप्त होती है तथा यह लौकिक प्रवृत्ति, व्यावसायिक विचार-विमर्श तथा न्याय-नैपुण्य आदि पर आधारित रहती है।

विधान के प्रकार (Kinds of Legislation)

सामण्ड के अनुसार विधान के दो प्रकार हैं

(1) सर्वोच्च विधान (Supreme Legislation);

(2) अधीनस्थ विधान (Subordinate Legislation)।

1. सर्वोच्च विधान (Supreme Legislation)

सर्वोच्च विधान वह है जिसका उद्भव राज्य की प्रभुता-शक्ति से होता है और जिसे कोई अन्य विधायी प्राधिकारी (legislative authority), निरसित (abrogate), नकारित या नियन्त्रित नहीं कर सकता है। इंग्लिश विधि में साम्राज्यिक संसद् (Imperial Parliament) द्वारा निर्मित विधियाँ सर्वोच्च विधान का सर्वोत्तम उदाहरण हैं। इंग्लैण्ड में संसद् (Parliament) सर्वशक्तिमान है तथा उसकी शक्ति पर किसी प्रकार की विधिक रोक नहीं है। ब्रिटेन की संसद् द्वारा पारित अधिनियमों को विसंगति या अन्य किसी आधार पर अवैध नहीं ठहराया जा सकता है। इस दृष्टि से भारत की संसद् द्वारा पारित अधिनियमों को सर्वोच्च विधान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि भारत की संसद् पूर्णतः प्रभुतासम्पन्न होते हुए भी उसके द्वारा अधिनियमित विधियों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।4

2. अधीनस्थ विधान (Subordinate Legislation)

ऐसे विधान जो संसद् की सर्वोच्च शक्ति के अलावा किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा निर्मित होते हैं, अधीनस्थ विधान (Subordinate legislation) कहलाते हैं। इस प्रकार के विधानों का अस्तित्व तथा उनकी वैधता किसी अन्य वरिष्ठ प्राधिकारी पर निर्भर रहती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अधीनस्थ विधान पर किसी उच्चतर विधायी प्राधिकारी (superior legislative authority) का नियंत्रण रहता है। उदाहरण के लिए संसद् द्वारा अपनी विधायी शक्ति का प्रत्यायोजन कार्यपालिका के प्राधिकारियों को किये जाने पर उनके द्वारा निर्मित कानूनों को अधीनस्थ विधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस प्रकार निर्मित कानूनों पर प्रभुतासम्पन्न-शक्ति (विधान-मण्डल या संसद्) का नियंत्रण रहता है।

4. 25 जून, 1975 से मार्च, 1977 तक की अवधि में भारत में लागू की गई आपातकालीन स्थिति की अवधि में संसद् ने संविधान का बयालीसवाँ (संशोधन) अधिनियम, 1976 पारित किया था जिसके अन्तर्गत मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिये गये तथा न्यायालय की न्यायिक पुनरीक्षण की अधिकारिता समाप्त कर दी गई थी। परिणामस्वरूप इस संशोधन अधिनियम के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में रिट याचिका दायर की गई थी। उच्चतम न्यायालय ने इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 2293 के बाद में 39वें संविधान खण्ड (4) अविधिमान्य घोषित कर दिया क्योंकि इससे अनु० 14 में निहित विधि-शासन’ संबंधी मूलभूत ढ़ाचे पर कुठाराघात हुआ था.

अधीनस्थ विधायन की वैधता

अधीनस्थ विधान के लिए निम्नलिखित शर्तों की पूर्ति की जाना आवश्यक होता है

(1) जिस मूल अधिनियम (Parent Act) के अन्तर्गत अधीनस्थ विधान के निर्माण की शक्ति प्रदान

की गई है, वह अधिनियम वैध होना चाहिए। |

(2) मूल अधिनियम का प्रत्यायोजन-खंड (delegation clause) वैध होना चाहिए।

(3) अधीनस्थ विधान के अन्तर्गत निर्मित सांविधिक प्रलेख सार प्रक्रिया एवं प्रारूप की दृष्टि से प्रत्यायोजन खंड के अनुकूल होना चाहिए।  

(4) अधीनस्थ विधान के अधीन निर्मित सांविधिक प्रलेख के परिणामस्वरूप किसी भी मौलिक अधिकार6 का उल्लंघन नहीं होना चाहिए और न वह संविधान के किसी अन्य प्रावधानों का उल्लंघन करता हो

(5) अधीनस्थ विधान के अन्तर्गत निर्मित संविधि के कारण किसी न्यायालय की अधिकारिता पर | प्रतिकूल प्रभाव न पड़ता हो या वह भूतलक्षी प्रभाव न रखती हो और कोई कर या शास्ति अधिरोपित न करती हो।

अधीनस्थ विधान के भेद (Kinds of Subordinate Legislation)

वर्तमान में विधान सम्बन्धी सामान्य प्रवृत्ति यह है कि विधान-मण्डल द्वारा अधिनियमों के माध्यम से व्यापक नीतियों का निर्धारण कर दिया जाता है तथा विस्तृत प्रशासकीय नियम बनाने की शक्ति प्रशासनिक अधिकारियों को प्रत्यायोजित कर दी जाती है। इस प्रत्यायोजित विधायिनी शक्ति के अधीन जो नियम, विनियम या उपविधियाँ बनती हैं, उन्हें अधीनस्थ विधान कहते हैं। सामण्ड के मतानुसार अधीनस्थ विधान के प्रमुख रूप (forms) निम्नानुसार हैं-

(i) उपनिवेशिक विधान (Colonial Legislation)

ब्रिटेन के उपनिवेशों (British Colonies) को स्वशासन की शक्ति प्राप्त थी। अतः ये उपनिवेश अपनी स्वशासन शक्ति का प्रयोग करते हुए अधीनस्थ विधान का निर्माण करते थे जो ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के नियंत्रण के अधीन होते थे। उपनिवेशों द्वारा अधिनियमित विधियों का इंग्लैण्ड की संसद् निरसन (repeal) कर सकती थी। तात्पर्य यह है कि ब्रिटेन की संसद् ने अपने उपनिवेशों को सीमित विधि-निर्माण की शक्ति प्रदान की थी जिस पर उसका स्थायी नियंत्रण रहता था। उल्लेखनीय है कि उपनिवेशिक विधान के सम्बन्ध में यह सामान्य नियम लागू नहीं होता था कि प्रत्यायोजित शक्ति का पुनः प्रत्यायोजन नहीं किया जा सकता है।” इसका कारण यह था कि उपनिवेशिक विधान-मंडलों को प्रभुतासम्पन्न विधायिनी (अर्थात् ब्रिटिश संसद्) का प्रतिनिधि नहीं माना जाता था।8 तात्पर्य यह है कि उपनिवेशिक विधान-मण्डलों द्वारा अपनी विधायी शक्ति अन्य अधीनस्थ प्राधिकारियों को प्रत्यायोजित (delegate) की जा सकती थी। उपनिवेशों की समाप्ति के कारण अब इस प्रकार के विधान का विशेष महत्व नहीं है।

(ii) कार्यपालिकीय विधान (Executive Legislation)

राज्य के आवश्यक अंग के रूप में कार्यपालिका की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। कार्यपालिका का मख्य कार्य राज्य के प्रशासी विभागों का संचालन करना है। प्रशासकीय कार्यों के उचित संचालन के लिए।

5. विक्रय कर अधिकारी बनाम अब्राहम, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1823.।

6. नरेन्द्र कुमार बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1960 सु० को० 436 ; एयर इण्डिया बनाम नरगेश मिरजा, ए० आई०

आर० 1981 सु० को० 1829 (1853).

7. मनुभाई बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1961 सु० को 21.

8. पॉवेल बनाम अपोलो केन्डिल कम्पनी, (1885) 10 ए० सी० 282.

संसद् द्वारा कार्यपालिका के प्राधिकारियों को विधायी शक्ति प्रत्यायोजित की जाती है। संसद की यह प्रत्यायोजित विधायी-शक्ति कार्यपालिका द्वारा बनाई गई विधियों को वैधानिक शक्ति प्रदान करती है। परन्तु कार्यपालिका द्वारा इस प्रकार निर्मित विधि को संसद् किसी भी समय निरसित या विखंडित कर सकती है। उदाहरण के लिए, आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1971 के अंतर्गत कार्यपालिका के अधिकारियों को प्राधिकृत किया गया है कि वे उक्त अधिनियम के उपबन्धों के अधीन आवश्यक वस्तुओं पर उचित नियंत्रण रखने हेतु नियम बना सकते हैं। कार्यपालिका द्वारा बनाये गये नियमों को उस मूल अधिनियम द्वारा विधि का बल प्राप्त होता है जिसने इसे (अर्थात् कार्यपालिका को) नियम बनाने की शक्ति प्रदान की है।

कार्यपालिकीय विधान नियम बनाने, विनियम (Regulations) बनाने तथा उप-विधि (by-laws) बनाने से सम्बन्धित हो सकता है। भारत में निम्नलिखित को कार्यपालिकीय विधान माना गया है|

(1) मूल्य निर्धारण

(2) मार्केट के लिए स्थान की घोषणा;10

(3) कराधान;11

(4) संविधि के अधीन निगमित निकाय12 की घोषणा आदि।

(iii) न्यायिक विधान (Judicial Legislation)

कुछ दशाओं में न्यायपालिका को भी विधायी शक्ति प्रत्यायोजित की जा सकती है। इस शक्ति के अधीन वरिष्ठ न्यायालयों द्वारा अपनी न्यायालयीन प्रक्रिया विनियमित करने के लिए नियम बनाये जाते हैं। उदाहरण के लिए, सिविल प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code) के अधीन उच्च न्यायालयों (High Court) को यह अधिकारिता प्राप्त है कि वे अपनी स्वयं की तथा अपने अधीनस्थ सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए नियम बना सकते हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 227 के अधीन उच्च न्यायालयों को न्यायालय की प्रक्रिया एवं कार्य-विधि के संबंध में नियम बनाने की शक्ति प्रदान की गई है। अनुच्छेद 145 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को निम्नलिखित विषयों से संबंधित नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है-

(1) उच्चतम न्यायालय द्वारा वकालत करने वाले व्यक्तियों के बारे में नियम;

(2) अपील की प्रक्रिया एवं अवधि-सीमा निर्धारण हेतु नियम;

(3) मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु कार्यवाहियों के लिए नियम;

(4) उच्च न्यायालयों से मामलों के अंतरण संबंधी नियम;

(5) उच्च न्यायालयों से प्रमाण-पत्र पर आने वाले आपराधिक मामलों में दंड के विरुद्ध अपीलों के बारे में नियम;

(6) अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शर्तों संबंधी नियम;

(7) कार्यवाहियों में होने वाले खर्च एवं शुल्क संबंधी नियम;

(8) जमानत स्वीकार किये जाने के बारे में नियम;

(9) कार्यवाहियों पर रोक लगाने संबंधी नियम;

(10) लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्य के कदाचार निर्धारित करने हेतु नियम, आदि।

9. भारत संघ बनाम साइनामाइड इंडिया लि०, ए० आई० आर० 1987 सु० को० 1802.

10. रमेश चन्द्र बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1987 सु० को० 1127.

11. थारूमल बनाम पूनमचन्द, ए० आई० आर० 1978 सु० को 306. ।

12. सुन्दरजस भाथीजा बनाम जिलाधीश पुणे, ए० आई० आर० 1990 सु० को० 261.

उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 145 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्मित न्यायिक विधान पर दो निर्बन्धन हैं-

(1) ये नियम संसद द्वारा निर्मित विधि के अधीन होंगे; तथा

(2) इनके लिए राष्ट्रपति का अनुमोदन आवश्यक होगा।  

प्रेम चन्द्र गर्ग बनाम आबकारी आयुक्त, उत्तर प्रदेश13 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अनु० 145 के अन्तर्गत निर्मित एक नियम को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि यह अनुच्छेद 32 में दिये गये संवैधानिक उपचारों के अधिकार से असंगत था और इसमें याचिका के खर्चे के लिए प्रतिभूति जमा करने की अपेक्षा की गयी थी।

(iv) नगरपालिका विधान (Municipal Legislation)

नगरपालिका के प्राधिकरणों को अपने नियंत्रण के अधीन स्थानीय क्षेत्रों के लिए विशेष विधियाँ बनाने की अधीनस्थ शक्ति राज्य की नगरपालिका विधियों द्वारा दी जाती है। ऐसी शक्ति के अन्तर्गत नगरपालिकाप्राधिकरण उपविधियाँ (bye-laws) बनाते हैं जो अधीनस्थ विधान का ही रूप होती हैं।

(v) स्वायत्त निकायों द्वारा विधान (Legislation by Autonomous Bodies)

इसमें सन्देह नहीं कि अधिकांश अधिनियमित विधियाँ राज्य की प्रभुतासम्पन्न विधायिनी द्वारा ही लागू की जाती हैं परन्तु अनेक दशाओं में विधि द्वारा अशासकीय स्वायत्त निकायों या व्यक्तियों को भी कानून बनाने की शक्ति प्रदान की जाती है। इस शक्ति के अधीन प्राइवेट व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह सम्बन्धित विषयों पर निश्चित सीमा तक अधीनस्थ विधानों का निर्माण कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, विश्वविद्यालय अपने सदस्यों को आबद्ध करने वाले कानून बना सकते हैं। इसी प्रकार बिजली या रोडवेज कम्पनी अपने उपक्रमों को विनियमित करने के लिए उपविधियाँ बना सकती है। पंजीयन कम्पनियों को भी अपने कारबार को नियोजित करने के लिए आवश्यक उपनियम बनाने की अधिकार-शक्ति रहती है।

इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि स्वायत्त विधि (autonomous law) तथा परम्परागत विधि (Customary Law) में निकट साम्य होते हुए भी ये एक दूसरे से भिन्न हैं। स्वायत्त शासन सम्बन्धी विधान एक ऐसा कार्य है जो राज्य द्वारा प्राइवेट निकायों या व्यक्तियों को सौंपा जाता है। इसके अधीन विधि की रचना विधान के वास्तविक रूप में होती है। परन्तु परम्परागत विधि आपसी समझौतों पर आधारित रहती है तथा यह केवल उन व्यक्तियों के प्रति बन्धनकारी होती है, जो इससे बाध्य होने के लिए सहमत हुए हैं। स्वायत्त विधि और परम्परागत विधि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए सामण्ड (Salmond) कहते हैं कि जब कोई कम्पनी प्रथम बार अस्तित्व में आती है, तो वह अपने निगमन हेतु अन्तर्नियम (Articles of Association) बनाती है तथा यह मान लिया जाता है कि जिन व्यक्तियों ने इस निगमित संस्था के अंश खरीदे हैं, उन्होंने उस संस्था के अन्तर्नियमों को स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार वे समझौते द्वारा अन्तर्नियमों से बाध्य होते हैं। संस्था के इन अन्तर्नियमों को परम्परागत विधि का ही रूप माना जाता है। परन्तु यदि कालान्तर में किसी विधि के अन्तर्गत साझेदार सदस्यों को यह अधिकार दे दिया जाता है कि बहुमत द्वारा वे अपनी संस्था के अन्तर्नियमों में । संशोधन या परिवर्तन कर सकते हैं, तो बहुमत द्वारा उक्त प्रकार का परिवर्तन अल्पसंख्यक साझेदारों पर भी बन्धनकारी होगा, चाहे भले ही उन्होंने इसके लिए सहमति व्यक्त न की हो। तात्पर्य यह है कि बहुमत द्वारा इस प्रकार के अधिकार का उपयोग स्वायत्त अधिकार का प्रयोग कहा जाता है।14

प्रत्यायोजित विधान (Delegated Legislation)

ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से प्रत्यायोजित विधान का प्रारम्भ ब्रिटेन के सन् 1832 के सुधार अधिनियम (Reforms Act, 1832) से माना जाता है। सरकारी विभागों को अपना कार्य कुशलतापूर्वक करने

13. (1963) सप्ली० (1) एस० सी० सी० 885.

14. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 161-62.

के लिए सर्वोच्च विधायी द्वारा शक्ति प्रत्यायोजित की गई। उन्नीसवीं शताब्दी में मेटलैंड (Maitland) ने। स्थानीय परिषदों, मण्डलों तथा अधिकारियों को संविधि द्वारा प्रदत्त प्रत्यायोजित विधायी शक्ति का उल्लेख किया था तथापि उस समय तक इस प्रकार के प्रत्यायोजित विधान को विधिवेत्ताओं ने अधिक महत्व नहीं। दिया था। 

विधिक शब्दावली में पद ‘प्रत्यायोजित विधान’ का प्रयोग प्रायः दो अर्थों में किया जाता है। एक अर्थ में यह कार्यपालिका की ऐसी विधान शक्ति होती है जो उसे विधायनी द्वारा सौंपी जाती है। दूसरे अर्थ में यह विधायनी द्वारा प्रदत्त शक्ति का परिणाम है, अर्थात् जब विधानमण्डल अपनी विधायनी शक्ति स्वयं के सिवाय किसी अन्य निकाय या संस्था को सौंपता है, तो ऐसे निकाय या संस्था द्वारा निर्मित विधि प्रत्यायोजित विधान कहलाती है और यह नियम, विनियम, उपनियम, आदेश, निदेश, परिपत्र या अधिसूचना आदि किसी भी रूप में हो सकती है।

वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ से ही सामाजिक चेतना तथा नव-जागृति के कारण अनेक प्रशासकीय समस्याएँ। उत्पन्न हुईं, जिनसे निपटने के लिए कार्यपालिका को विधायिनी शक्ति प्रत्यायोजित की जाने की आवश्यकता अनुभव की गई। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद युद्धोत्तर काल में निर्माण कार्यों के कुशलतापूर्वक संचालन हेतु विधि-निर्माण शक्ति का प्रत्यायोजन अनिवार्य हो गया। अतः सन् 1929 में ब्रिटेन की लेबर पार्टी की सरकार ने प्रत्यायोजित विधान पर विचार करने हेतु एक सत्रह सदस्यीय समिति15 नियुक्त की जिसने सन् 1932 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए संसदीय निरंकुशता के विरुद्ध कुछ सुरक्षाओं का प्रस्ताव रखा। सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के साथ प्रत्यायोजित विधान में पर्याप्त वृद्धि हुई जो कालान्तर में प्रशासी विधि का महत्वपूर्ण भाग बन बैठी।  

प्रत्यायोजित विधान के बारे में विधिशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये हैं। प्रो० रोब्सन, लॉस्की, जेनिंग्स आदि ने इसका समर्थन किया है जब कि ह्यबर्ट, कीटन तथा ऐलन इसके कट्टर विरोधी रहे हैं। वर्तमान सामाजिक, आर्थिक तथा औद्योगिक प्रगति के कारण संसद् के लिए यह आवश्यक हो गया है कि प्रशासनिक कुशलता के लिए वह अपनी विधायी शक्ति कार्यपालिका के प्राधिकारियों को प्रत्यायोजित करे।16 इस प्रत्यायोजित अधिकार-शक्ति के अन्तर्गत प्रशासकीय अधिकारियों द्वारा विभागीय नियमों तथा आदेशों की संरचना की जाती है। व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका को विधायी शक्ति प्रत्यायोजित किये जाने के लिए निम्नलिखित कारण हैं

1. समय का अभाव।

संसद् अथवा विधान-मण्डलों के पास इतना समय नहीं रहता कि वे स्वयं द्वारा पारित अधिनियमों के सभी पहलुओं पर सविस्तार उपबन्ध बना सकें । अतः वे अधिनियमों द्वारा किसी विषय से सम्बन्धित मूल नीतियाँ निर्धारित करके विस्तृत नियम बनाने की शक्ति शासन अथवा प्रशासकीय अधिकारियों को प्रत्यायोजित कर देते हैं।

2. तकनीकी ज्ञान की कमी

अनेक मामले इतने तकनीकी होते हैं कि उनके विषय में विधि का निर्माण केवल विशेषज्ञों द्वारा ही किया जा सकता है तथा संसद् अथवा विधान-मण्डलों में तकनीकी ब्यौरे देने की क्षमता नहीं होती है। अतः ऐसे मामलों में व्यवस्थापिका अपने अधिनियम द्वारा केवल मुख्य नीति निर्धारित करके उस सम्बन्ध में विस्तृत | नियम बनाने का कार्य प्रशासकीय विभागों के विशेषज्ञों को सौंप देती है।  

संसद या विधानमण्डल के सदस्यगण मंझे हुये राजनीतिज्ञ हो सकते हैं परन्तु ऐसे विषयों में जो अत्यधिक तकनीकी हों या विशेष कौशलयुक्त हों, उन्हें पर्याप्त ज्ञान और जानकारी के अभाव में कानून बनाने में

15. Committee on Minister’s Powers.

16. के० आर० रावत बनाम सौराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 124.

व्यावहारिक कठिनाइयां आती हैं जैसे अणुशक्ति, बिजली, गैस, आदि। इसलिये इन मामलों को संसद या विधायनी विषय से सम्बन्धित विशेषज्ञों को विधि बनाने हेतु निर्देशित कर देती है।

3. आपात्कालीन स्थिति

अनेक परिस्थितियों में कार्यपालिका को तत्काल नियम बनाने की आवश्यकता पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में व्यवस्थापिका द्वारा विधि-निर्माण की प्रक्रिया अपनायी जाने पर विलम्ब होने की सम्भावना रहती है। अतः। आपातकाल में शीघ्र कार्यवाही की दृष्टि से व्यवस्थापिका द्वारा अपनी विधायी शक्ति कार्यपालिका को प्रत्यायोजित कर दी जाती है।

4. विधि की प्रायोगिकता (Experimentation) के परीक्षण हेतु

.. . – अनेक विषयों से सम्बद्ध विधियों को अन्तिम रूप से लागू करने के बजाय प्रारम्भ में प्रयोग के रूप में लागू किया जाता है तथा प्रयोग-काल में उन विधियों के परिणामों तथा प्रभाव को दृष्टिगत रखते हुए उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जाते हैं। यदि ये विधियाँ सफल सिद्ध होती हैं, तो इन्हें प्रभावी रहने दिया जाता है अन्यथा इनका निरसन कर दिया जाता है। व्यवस्थापिका द्वारा ऐसी विधियों का प्रत्यायोजन कार्यपालिका को किया जाना अत्यन्त उपयोगी होता है क्योंकि संसद् या विधान मण्डलों की विधायी प्रक्रिया अत्यन्त जटिल तथा दीर्घकालिक होती है। इसके अतिरिक्त कार्यपालिका द्वारा विधि में परिवर्तन अपेक्षाकृत सरलता तथा द्रुतगति से किया जा सकता है।

5. कुछ विशिष्ट मामले जैसे राशनिंग, योजनायें, आयात अथवा निर्यात कर, मुद्रा विनियमन आदि, ऐसे होते हैं जिनके बारे में यह उचित समझा जाता है कि जब तक उनसे सम्बन्धित विधि अधिनियमित नहीं हो जाती, उन्हें उजागर करना जनहित में नहीं होगा।

अत: ऐसे मामले को विधायनी द्वारा सम्बन्धित प्राधिकारियों के पास विधि-निर्माण हेतु सौंप दिया जाता है ताकि उसकी गोपनीयता बनी रहे।

6. लोक-प्रशासन में वर्तमान समय की बढ़ती हुयी चुनौतियों तथा राज्य के सामाजिक एवं आर्थिक कार्यों में हो रही निरन्तर वृद्धि को ध्यान में रखते हुये विधायन का प्रत्यायोजन अत्यावश्यक समझा गया है ताकि सम्बन्धित प्राधिकारी तत्सम्बन्धी प्रभावी कानूनों का निर्माण कर सके। जनसाधारण के लिये सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से भी प्रत्यायोजित विधान एक सशक्त माध्यम सिद्ध हुआ है।

वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रत्यायोजित विधान का महत्व निरन्तर बढ़ रहा है। आधुनिक व्यवस्थापिका की सामान्य प्रवृत्ति यह है कि वह नीतियों एवं सिद्धान्तों को निर्धारित करके तत्सम्बन्धी प्रक्रिया के ब्यौरे तय करने तथा उन्हें कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने की अधिकार-शक्ति अधीनस्थ प्राधिकारियों को प्रत्यायोजित कर देती है। इन सब बातों के होते हुए भी अनेक विधिशास्त्रियों ने प्रत्यायोजित विधान की सफलता के प्रति सन्देह प्रकट किया है। लार्ड हिबर्ट (Lord Hebert) ने इसे नयी निरंकुशता’ (new despotism) निरूपित करते हुए कहा है कि इससे शासन के प्राधिकारियों के स्वेच्छाचारी बनने की सम्भावना बनी रहती है जो डायसी (Diecy) के विधिसम्मत शासन (Rule of Law) के नियम के विपरीत है।17 परन्तु सर हर्टली (Sir Hertly) ने इस आलोचना को निराधार निरूपित करते हुए कहा है कि वर्तमान में प्रत्यायोजित विधान के बिना व्यवस्थापिका अपने बढ़ते हुए उत्तरदायित्व का बोझ वहन नहीं कर सकती है।

भारत में प्रत्यायोजित विधान

भारत के संविधान के भाग IV में उल्लिखित कल्याणकारी राज्य की कल्पना साकार करने तथा राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए प्रत्यायोजित विधान परम आवश्यक माना गया है। संविधान में

17. ‘विधिसम्मत शासन’ (Rule of law) की व्याख्या करते हुए डायसी ने कहा है कि शासन तथा शासित दोनों ही विधि द्वारा समान रूप से आबद्ध होने चाहिये। अत: विधि-निर्माण का दायित्व ऐसे प्राधिकारियों पर नहीं सौंपा जाना चाहिये। जिन पर विधि के प्रशासन का दायित्व भी सौंपा गया है.

विधान-मण्डलों के कार्य-क्षेत्र को भली-भाँति स्पष्ट कर दिया गया है और इन उपबन्धों के उल्लंघन में किया गया कोई भी कार्य न्यायपालिका द्वारा शून्य प्रभावी तथा शक्ति-बाह्य माना जायेगा।

भारत में विधायी-शक्ति के प्रत्यायोजन के अन्तर्गत किसी अधिनियम को प्रवर्तित करने की शक्ति अधिनियम से छूट देने अथवा उसके क्षेत्र-विस्तार की शक्ति, आदेश, नियम, विनियम या उपविधियों का निर्माण करने की शक्ति, कर अधिरोपित करने की शक्ति आदि समाविष्ट हैं।18 कभी-कभी विधायी शक्ति का उप-प्रत्यायोजन (sub-delegation) करना भी आवश्यक हो जाता है जिसके अन्तर्गत प्रत्यायोजन का अधिकार रखने वाला अभिकरण (agency) नियम बनाने की शक्ति किसी अन्य अभिकरण को उप-प्रत्यायोजित कर सकता है।

भारत में प्रत्यायोजित विधान पर न्यायपालिका का प्रभावकारी नियंत्रण है। इन रि दिल्ली लॉज केस19 में उच्चतम न्यायालय ने इस सम्बन्ध में आधारभूत सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। भारत में विधान-मण्डल अपने मूलभूत कार्यों को कार्यपालिका को प्रत्यायोजित नहीं कर सकता है।

प्रत्यायोजित विधान के दुष्परिणामों से बचने के लिए वर्तमान में उस पर कुछ नियंत्रण लगाना आवश्यक हो गया है। ये नियंत्रण निम्नलिखित हो सकते हैं

(i) संसदीय नियंत्रण (Parliamentary Control)

संसद् या विधान मण्डल को यह अधिकार है कि वह किसी ऐसे विधेयक (Bill) को संशोधित, निरसित या अस्वीकृत कर सकती है जो किसी मन्त्री पर सौंपे गये अधिकारों से सम्बन्धित है; परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि समयाभाव के कारण संसद् को प्रत्यायोजित विधान पर विचार करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। इसीलिए ऐसे उपबन्ध, जो प्रत्यायोजित विधान से सम्बद्ध होते हैं, बिना सोच-विचार किये ही कार्यपालिका को अन्तरित मान लिये जाते हैं।

(ii) संसदीय निरीक्षण (Parliamentary Supervision)

प्रत्यायोजित विधान पर संसद के नियंत्रण का दूसरा रूप यह है कि इस प्रकार निर्मित विधि को स्वीकृति हेतु संसद् के पटल पर रखा जाता है तथा संसद् उक्त विधि को संशोधित, निरसित या अस्वीकृत कर सकती है 20 ऐसा प्रत्यायोजित विधान जो शक्तिबाह्य है, उसे केवल सम्बन्धित विधान मण्डल के पटल पर रख देने मात्र से विधिमान्य नहीं बनाया जा सकता है।21  

प्रत्यायोजित विधान पर संसदीय नियन्त्रण रखे जाने का मूल उद्देश्य यह है कि विधि का निर्माण करने वाले अधीनस्थ प्राधिकारियों पर नजर रखी जा सके और यदि वे प्रत्यायोजित विधान शक्ति का दुरुपयोग या अतिलंघन करते हैं, तो उनके विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही की जा सके। यह कार्यवाही संसदीय कार्यवाही के रूप में हो सकती है या सम्बन्धित प्राधिकारियों को विवादित विधि संसद के पटल पर प्रस्तुत करने हेतु निर्देशित किया जा सकता है या इस हेतु संसद एक जांच समिति (Scrutiny Committee) नियुक्त कर सकती है 22

(iii) न्यायिक नियंत्रण

न्यायालयों को लोक-प्राधिकारियों (Public Authorities) के कार्यों पर नियंत्रण रखने की अधिकारशक्ति प्राप्त है। यह नियंत्रण न्यायालय के आदेश (writs) के द्वारा स्थापित किया जाता है। इसी प्रकार व्यादेश

18. डब्ल्यू सी० मिल्स बनाम बेंगलोर कारपोरेशन, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1263.

19. ए० आई० आर० 1951 सु० को० 352.

20. जालान ट्रेडिंग कम्पनी बनाम मिल मजदूर संघ, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 691.

21. श्री विजय लक्ष्मी राइस मिल्स बनाम आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० 1976 सु० को० 1471.

22. संविधान के अन्तर्गत अधीनस्थ विधायन पर लोक सभा समिति का गठन सन 1953 में किया गया था जबकि राज्य सभा में अधीनस्थ विधायन समिति सन् 1964 से अस्तित्व में आई।

(injunction) तथा घोषणा (declaration) द्वारा भी न्यायालय लोक-प्राधिकारियों के कार्य-कलापों पर नियंत्रण बनाये रखते हैं। यह निश्चित करने के लिए कि प्राधिकारी द्वारा प्रत्यायोजित विधायी शक्ति का अतिलंघन किया गया है या नहीं, न्यायालयों द्वारा शक्ति बाह्य सिद्धान्त (doctrine of ultra vires) का प्रयोग किया जाता है। लोक प्राधिकारी को प्रदत्त शक्ति के बाहर निर्मित समस्त विधियाँ न्यायालय द्वारा अवैध घोषित की जा सकती हैं। 

प्रत्यायोजित विधान पर न्यायिक नियंत्रण के संदर्भ में एक विचारणीय प्रश्न यह है कि भारत में शक्ति पार्थक्य का सिद्धान्त (Doctrine of Separation of Powers) यथार्थ रूप से लागू नहीं है फिर किस आधार पर प्रत्यायोजित विधान को निषेधित किया जा सकता है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मुखर्जी ने रामजवाया बनाम पंजाब राज्य23 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि भारत के संविधान में शक्ति पार्थक्य के सिद्धान्त को मान्य नहीं किया गया है तथापि सरकार के विभिन्न अंगों, अर्थात् कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के कार्यों में स्पष्ट भेद है। अतः संविधान यह अपेक्षा नहीं करता कि सरकार का एक अंग दूसरे अंग के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करे। हाँ, विधान मण्डल द्वारा प्रत्यायोजित किये जाने की दशा में कार्यपालिका विभागीय या प्रत्यायोजित विधान की शक्ति का प्रयोग कर सकती है। तथापि तात्विक कार्यों (essential function) को प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता है।

प्रत्यायोजित विधान पर न्यायिक नियंत्रण के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत कतिपय वादों का उल्लेख करना उचित होगा।

चिंतामणि राव बनाम मध्य प्रदेश राज्य24 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा पारित सेन्ट्रल प्रॉव्हिन्सेस रेग्यूलेशन ऑफ मेन्यूफेक्चर ऑफ बीड़ी ऐक्ट, 1948 को इस आधार पर अविधिमान्य कर दिया क्योंकि इसके द्वारा बीड़ी बनाने वाले कामगारों पर कृषि के मौसम में बीड़ी का कारबार करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था, जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (g) के उल्लंघन में होने के कारण असंवैधानिक था।

एयर इंडिया बनाम नरगेश मिर्जा25 के वाद में भी न्यायालय ने प्रत्यायोजित विधान को इस आधार पर अपास्त कर दिया क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 14 के उपबंधों के विपरीत था। इस प्रत्यायोजित विधान द्वारा एयर इंडिया में काम करने वाली एयरहोस्टेज पर यह पाबंदी लगाई गयी थी कि यदि वे सेवा के प्रथम चार वर्ष की अवधि में विवाह करती हैं या उनके द्वारा प्रथम बार गर्भधारण करने पर उनकी सेवाएं समाप्त कर दी जाएंगी। न्यायालय ने विनिश्चित किया कि उपरोक्त शर्तों में से प्रथम शर्त उचित थी लेकिन गर्भधारण वाली शर्त सरासर अनुचित और मनमानी थी क्योंकि इससे एयर होस्टेज को गर्भ न धारण करने के लिए बाध्य किया जा रहा था, जो मातृत्व के लिए अपमानजनक था। 

इसी प्रकार महाराष्ट्र राज्य बनाम चंद्रभान ताले26 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सिविल

सर्विसेज नियम के नियम 151 (1) को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित करके अपास्त कर दिया क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में था। इस नियम में यह उपबंधित था कि दोषसिद्ध शासकीय कर्मचारी को उसकी अपील न्यायालय में लंबित रहने की अवधि में केवल एक रुपया प्रतिमास निर्वाह-भत्ते के रूप में दिया जाएगा। न्यायालय के अनुसार यह उपबंध अव्यावहारिक तथा उपहासात्मक (mockery) था।

(iv) अन्य नियंत्रण

प्रत्यायोजित विधान के दोषों के निवारण हेतु उपर्युक्त नियंत्रणों के अतिरिक्त कुछ अन्य उपाय भी। अपनाये जा सकते हैं जिनमें प्रसारण एवं प्रकाशन27 द्वारा लोकमत तैयार करना, विशिष्ट मामलों में विशेषज्ञों

23. ए० आई० आर० 1955 सु० को० 549.

24. ए० आई० आर० 1951 सु० को० 118.

25. ए० आई० आर० 1981 सु० को० 1829.

26. (1983) 2 एस० सी० सी० 389.

27. स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम एम० एच० जार्ज, ए० आई० आर० (1965) सु० को० 722.

की राय लेना तथा प्रत्यायोजित विधान का दायित्व विश्वसनीय निकायों पर सौंपना आदि विशेष उल्लेखनीय अनेक विधिवेत्ताओं ने प्रत्यायोजित विधान की कटु आलोचना करते हुए कहा कि इससे राज्य में निरंकुशता बढ़ने की संभावना बनी रहती है। लिवरसिज बनाम एण्डरसन28 के ऐतिहासिक निर्णय में लार्ड एटकिन ने प्रत्यायोजित विधान को अंकुशित किये जाने की राय प्रकट की थी। ह्यबर्ट ने अपने ‘न्यू डेस्पॉटिज्म’ नामक ग्रन्थ में भी प्रत्यायोजित विधान के प्रति अपनी सहमति व्यक्त की है।

उप-प्रत्यायोजित विधान (Sub-delegated Legislation)

किसी निकाय या व्यक्ति को प्रत्यायोजित शक्ति दी जाना प्रायः असाधारण बात होती है। फिर भी ऐसे प्रत्यायोजन को उप-प्रत्यायोजित विधान कहा जाता है। उप-प्रत्यायोजित विधान इस सामान्य सिद्धान्त के विरुद्ध है कि कोई प्रत्यायोजित व्यक्ति स्वयं दूसरे को प्रत्यायोजन नहीं कर सकेगा। (delegattus non potest delegare) अतः इसे मान्यता नहीं दी गई है। अत: सर्वसाधारण नियम यह है कि जहाँ संसद ने किसी निकाय या व्यक्ति को किसी विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिए विधान शक्ति प्रत्यायोजित की है, तो यह शक्ति केवल उसी निकाय या व्यक्ति, यथास्थिति, द्वारा ही प्रयुक्त की जानी चाहिए29 और वह इसे किसी अन्य निकाय या व्यक्ति को पुनः प्रत्यायोजित नहीं कर सकेगा। यदि प्रत्यायोजित विधान शक्ति धारण करने वाला निकाय या व्यक्ति अपनी इस शक्ति का उप-प्रत्यायोजन करता है, तो यह उसकी प्राधिकार का सीमोल्लंघन होने के कारण अविधिमान्य होगी।30,

उप-प्रत्यायोजित विधान की प्रक्रिया को भलीभांति समझने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (Essential Commodities Act, 1955) एक सटीक उदाहरण है। जिसकी धारा 3 के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को इस सम्बन्ध में उप-विधायन की शक्ति प्रदत्त की गयी है। इस अधिनियम की धारा 5 में यह भी उपबन्धित है कि केन्द्रीय सरकार इस विषय पर विधान बनाने की शक्ति अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों या राज्यों को प्रत्यायोजित कर सकती है। इसे प्रत्यायोजित विधान का दूसरा चरण, अर्थात्, उपविधान कहा जा सकता है। यदि राज्य सरकार इस प्रत्यायोजित विधान को अपने राज्य अधिकारियों को सौंपती है तो यह उपविधान (sub-delegation) का तीसरा चरण कहलायेगा।

वास्तव में देखा जाये तो, उप-विधान इस सर्वमान्य नियम के विरुद्ध है कि प्रत्यायोजित शक्ति का और आगे प्रत्यायोजन नहीं हो सकता’ (delegates non potest delegare) । परन्तु निवेदित है यह नियम केवल संविधि के निर्वचन का एक विधिक नियम मात्र है। यह सत्य है सामान्यतः विधायी शक्ति के उप-प्रत्यायोजन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, परन्तु यदि यह शक्ति किसी विधि के अन्तर्गत अभिव्यक्त रूप से प्रदान की। गयी है, तो उपविधान विधिमान्य होगा।31

कभी-कभी मूल अधिनियम ऐसे प्राधिकारियों या अधिकारियों को, जो एक विशिष्ट पदनाम (Rank) से नीचे के न हों, उपविधान की शक्ति प्रदान करता है, तो उस दशा में केवल वे ही प्राधिकारी या अधिकारी उपविधान शक्ति का प्रयोग कर सकेंगे तथा वे इसे अपने अधीनस्थ को अन्तरित नहीं कर सकेंगे। अतः जहाँ अधिनियम के अन्तर्गत मेलों आदि में साफ-सफाई के नियम बनाने की शक्ति मुख्य-आयुक्त को प्रत्यायोजित की गयी हो, तो उसके द्वारा इसे जिला मजिस्ट्रेट को आगे प्रत्यायोजित किया जाना अवैध माना गया क्योंकि शक्ति मुख्य आयुक्त को प्रत्यायोजित की गयी थी न कि उससे निचले किसी अधिकारी को।32

28. (1942) ए० सी० 206.

29. सम्राट बनाम बनवारी लाल शर्मा, (1945) सु० को० :4 (24) प्रीवी कौंसिल.

30. बेनेट कोलमन बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 106.

31. भगवती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1959 इला० 332.

32. गणपति सिंहजी बनाम अजमेर राज्य, ए० आई० आर० 1955 सु० को० 188.

सशर्त विधान (Conditional Legislation)

कुछ ऐसे कानून होते हैं जिनका निर्माण तो राज्य की विधायिनी द्वारा ही किया जाता है किन्तु उन्हें लाग किये जाने के स्थान तथा समय के निर्धारण का अधिकार कार्यपालिका प्राधिकारियों पर छोड़ दिया जाता है। ऐसे विधान को ‘सशर्त विधान’ कहते हैं, जिसका प्रवर्तन एक निश्चित समय तथा परिस्थितियों तक सीमित रहता है तथा इनकी आवश्यकता समाप्त हो जाने पर इन्हें वापस ले लिया जाता है।

अतः स्पष्ट है प्रत्यायोजित विधान की तरह सशर्त विधान में विधि-निर्माण की शक्ति का हस्तांतरण नहीं होता है, अर्थात् विधि का निर्माण तो विधान-मंडल द्वारा ही किया जाता है, केवल उसका प्रवर्तन कब किया जाएगा और वह कहाँ या कितनी अवधि या किस भू-क्षेत्र में लागू की जाएगी यह तय करने की अधिकार-शक्ति विधान-मंडल द्वारा कार्यपालिका को सौंप दी जाती है। इस प्रकार सशर्त विधान में कार्यपालिका को विधान-मंडल द्वारा पारित की गई किसी विधि के बारे में निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं:-

(1) किसी विद्यमान विधि को किसी सीमित क्षेत्र या भू-भाग के लिए लागू करना;

(2) यह निर्धारित करना कि वह विधि उस क्षेत्र या भू-भाग में कितनी समयावधि तक लागू रहेगी;

(3) यह तय करना कि उक्त विधि को लागू करने हेतु क्या सीमाएं होंगी; तथा ।

(4) यदि सरकार (कार्यपालिका) के विचार से कोई ऐसी पूर्वाभासित स्थिति उत्पन्न हो गई है, तो | विशेष विधि को लागू करना।

पटना उच्च न्यायालय ने रघुनाथ पाण्डे बनाम बिहार राज्य33 के बाद में सशर्त विधान संबंधी उपर्युक्त शर्तों की व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया कि इसमें विधि का निर्माण तो पूर्णत: विधायनी द्वारा ही किया जाता है, केवल उसे कब और कहाँ लागू किया जाए, इसके निर्धारण की शक्ति कार्यपालिका को प्रत्यायोजित कर दी जाती है।

विधान का अन्य विधि-स्रोतों से सम्बन्ध (Relation of Legislation to other Sources of Law)

विधान द्वारा निर्मित विधियों का महत्व निरंतर बढ़ता जा रहा है। यहाँ तक कि वर्तमान समाज में विधि के विभिन्न स्रोतों में केवल विधान को ही प्रधानता दी जाने की प्रवृत्ति देखी जा रही है तथा प्रथाओं और न्यायिक पूर्व-निर्णयों का विधि के स्रोत के रूप में महत्व निरन्तर कम होता जा रहा है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विधान के प्रति यह धारणा उचित ही है। उल्लेखनीय है कि प्रारम्भिक विधियों को न्याय के सिद्धान्तों (Jus) के रूप में मान्यता प्राप्त थी न कि राज्य की इच्छा’ (lex) के रूप में। राज्य के विकास के प्रारम्भिक चरण में राज्य का कार्य विधि का प्रवर्तन करना था न कि उसका निर्माण करना। राज्य द्वारा जिन नियमों का प्रवर्तन किया जाता था वे समाज में स्मरणातीत समय से प्रचलित रूढ़ियों या धार्मिक भावनाओं पर आधारित होते थे। अतः जब तक विधि को धर्म से पृथक् स्थान प्राप्त नहीं हुआ तब तक विधि व्यवस्था में मानव द्वारा निर्मित विधान को विशेष स्थान प्राप्त नहीं हो सका क्योंकि उस समय रूढ़ियों तथा परम्परागत नियमों को ही सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। परन्तु सभ्यता के विकास तथा विचारों में प्रगति के साथ रूढि तथा धर्म से विधि का सम्बन्ध निरन्तर कम होता गया तथा वर्तमान में विधि-प्रणालियों के विकास के परिणामस्वरूप विधान की गणना विधि के सर्वोत्तम स्रोत के रूप में की जाने लगी।

वर्तमान में विधि के विभिन्न स्रोतों34 में विधान को सबसे अधिक प्रभावशाली स्रोत माना गया है। अतः विधि-स्रोत के रूप में विधान के गुण-दोषों का तुलनात्मक विवेचन करना उचित होगा।

33. ए० आई० आर० 1982 पटना 1.

34. विधान, पूर्व-निर्णय, रूढ़ि तथा परम्पराएँ, ये विधि के चार मुख्य स्रोत हैं। विधान से अधिनियमित विधि, पूर्व-निर्णयों से निर्णय विधि, रूढ़ि से रूढिजन्य विधि तथा करार से परम्परागत विधि का सृजन हुआ है.

 विधान और न्यायिक पूर्व-निर्णयों की तुलना (Legislation and Precedents Compared)

विधान द्वारा निर्मित विधि तथा न्यायिक पूर्व-निर्णयों से उत्पन्न विधि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए। ऑस्टिन कहते हैं कि विधान द्वारा निर्मित विधि राज्य की प्रभुता-शक्ति की प्रतीक होती है तथा वह प्रत्यक्ष में निर्मित होती है, जबकि न्यायिक पूर्व-निर्णय से उत्पन्न विधि न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों के निर्णयाधार अथवा इतरोक्ति (obiter dicta) का परिणाम होती है; अतः निर्णय विधि अप्रत्यक्ष रूप में निर्मित होती है।  

विधि के स्रोत के रूप में पूर्व-निर्णय की तुलना में विधान को श्रेष्ठतर निरूपित करते हुए फ्रीडमन (Freedmann) ने लिखा है, “इस तथ्य को नकारना कठिन होगा कि वर्तमान परिस्थितियों में पूर्व-निर्णय द्वारा पनपी विधि धीमी है, महँगी है, कठिन है और अक्सर प्रतिक्रियात्मक है। अत: इस युग के लिए जहाँ परिवर्तन अत्यन्त द्रुतगति से हो रहे हैं, यह विधि अपेक्षाकृत कम उपयोगी है। इसलिए लोगों का विचार है। कि विधि-निर्माण एवं सुधार का कार्य केवल विधान पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए।”

ऑस्टिन का मत है कि न्यायिक विधि की रचना विधि के निर्माण के प्रयोजन से नहीं की जाती बल्कि इसका मूल उद्देश्य किसी विशिष्ट विवाद को विनिश्चत करना होता है। यही कारण है कि निर्णय देते समय न्यायाधीशों के समक्ष महत्वपूर्ण प्रश्न यह होता है कि उचित न्याय के लिए कौन सा कानून लागू किया जाए न कि कौन सी विधि का निर्माण किया जाए। न्यायिक पुर्व-निर्णय से निर्मित विधि साररूप में कहीं अस्तित्व नहीं रखती बल्कि इसे जानने के लिए हमें प्रकरण के उन मुलभूत कारणों तथा विशिष्ट परिस्थितियों पर विचार करना होगा जिनमें कि वह निर्णय दिया गया था।35

विधान के लाभ एवं नुकसान (Advantage and Disadvantages of Legislation)

न्यायिक पूर्व-निर्णयों की तुलना में विधायी विधान निम्नलिखित कारणों से बेहतर हैं

1. विधान केवल विधि का निर्माण ही नहीं करता अपितु अनुपयोगी विधियों को समाप्त भी कर सकता है। अत: विधान में विधियों को निराकृत (abrogate) करने की क्षमता होती है। न्यायिक पूर्वोक्ति में प्रचलित विधि को रद्द करने की शक्ति नहीं होती, चाहे वह विधि कितनी ही अनुचित क्यों न हो। यह ठीक है कि कभी-कभी न्यायिक पूर्व-निर्णयों के फलस्वरूप विधान से भी अधिक उपयोगी विधियों का निर्माण हो जाता है परन्तु फिर भी उसमें विधान की भाँति प्रचलित विधि को निरसित करने की क्षमता नहीं होती है। विधान में विधियों का निर्माण करने तथा उन्हें निराकृत कर सकने की जो शक्ति है वह अन्य किसी विधि के स्रोत में नहीं पायी जाती है।

2. विधान का निर्माण विधान-मण्डल द्वारा किया जाता है जबकि न्यायिक पूर्व-निर्णय न्यायाधीशों के निर्णय के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आते हैं। अत: विधान से वैधानिक नियमों की रचना होती है तथा न्यायिक पूर्व-निर्णयों से न्यायाधीश द्वारा निर्मित निर्णय-विधि (Judge-made law) की रचना होती है। | 3. विधान द्वारा निर्मित विधि का सर्वश्रेष्ठ गुण यह है कि इसे लागू किये जाने के पहले घोषित कर दिया जाता है ताकि जनता इसके विषय में पूर्व जानकारी प्राप्त कर सके तथा न्यायालय इस विधि को प्रवर्तित कर सके। परन्तु न्यायिक पूर्वोक्ति36 की रचना होते ही उसे प्रवर्तित कर दिया जाता है, अर्थात् वह एक ही समय में निर्मित तथा घोषित किये जाने के कारण जन-साधारण को इसके बारे में यथोचित जानकारी नहीं रहती है।  

4. विधायी शक्ति के अधीन निर्मित विधि का एक अन्य लाभ यह है कि इसका निर्माण ऐसी सम्भाव्य समस्याओं के समाधान के लिए किया जा सकता है जो भविष्य में घटित हो सकती हैं। दूसरे शब्दों में, विधान द्वारा ऐसे मामलों के लिए भी कानुन बनाये जा सकते हैं जो वास्तव में घटित न हुए हों, परन्तु पूर्व-निर्णयों में यह सम्भव नहीं है। पूर्व निर्णयों द्वारा न्यायालय भविष्य में घटित होने वाले सम्भावित मामलों के लिए विधि

35. ऑस्टिन : लेक्चर्स ऑन ज्यूरिसपूडेन्स (ग्रन्थ 2), पृ० 621-23.

36. इसे निर्णय-विधि (Case Law) भी कहते हैं.

हीं बना सकता है। सारांश यह है कि न्यायिक पूर्व-निर्णय विवाद की घटनाओं तथा तथ्यों पर निर्भर हैं जबकि विधान द्वारा किसी भी विधि की कमी को किसी भी समय दूर किया जा सकता है। न्यायिक पर्वनिर्णय से उत्पन्न निर्णय विधि में वह परिपक्वता, निश्चितता या क्रमबद्धता नहीं रहती जो कि विधान द्वारा निर्मित विधि में पायी जाती है।

5. प्रारूपीकरण की दृष्टि से विधान द्वारा निर्मित विधि सूक्ष्म एवं निश्चित होती है और उसे सरलतापूर्वक समझा जा सकता है तथा उसकी व्याख्या भी सुगमता से की जा सकती है। परन्तु इसके विपरीत पूर्व-निर्णय में निहित सिद्धान्तों की खोज के लिए असंख्य न्याय-पत्रिकाओं का अध्ययन करना आवश्यक होता है। यही कारण है कि सामण्ड (Salmond) ने निर्णय-विधि की तुलना खदान (mine) में मिलने वाले स्वर्ण-कणों से की है जिन्हें पाने के लिए टनों बेकार पदार्थों को हटाना आवश्यक होता है जबकि विधान द्वारा निर्मित विधि को उन्होंने राज्य द्वारा ढाले गये असली सिक्के के समान माना है जिसे तुरन्त उपयोग में लाया जा सकता है।37

6. विधान द्वारा निर्मित विधि-शक्ति के पृथक्करण के सिद्धान्त के अनुकूल होती है क्योंकि विधानमण्डलों का कार्य विधि का निर्माण करना है जबकि विधि की व्याख्या करने का कार्य न्यायालयों द्वारा किया । जाता है। इस शक्ति-विभाजन से न्याय प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ती है। परन्तु न्यायिक पूर्व-निर्णयों से। उत्पन्न विधि का निर्माण तथा प्रवर्तन न्यायाधीशों द्वारा ही किया जाता है। अतः इसमें किसी प्रकार का कार्यविभाजन नहीं होता इसलिए यह शक्ति के पृथक्करण के सिद्धान्त के विपरीत है।38

7. विधान द्वारा निर्मित विधियाँ उचित विचार-विमर्श तथा विशेषज्ञों की राय जान लेने के पश्चात् बनायी जाती हैं। परन्तु न्यायिक निर्णयों से उत्पन्न विधि में इन प्रभावोत्पादक तरीकों का अनुसरण नहीं हो पाता है। अत: निर्णय-विधि की तुलना में अधिनियमित विधि अधिक परिपक्व तथा प्रभावकारी होती है।  8. विधान द्वारा निर्मित कानून निश्चित होते हैं क्योंकि उनके नियम स्पष्ट रूप से प्रख्यापित किये जाते हैं। न्यायालयों को इन विधियों का पालन करना अनिवार्य होता है। परन्तु निर्णय-विधि वाद-विशेष के तथ्यों से उत्पन्न होने के कारण उसमें परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है।

9. विधान द्वारा निर्मित विधियों के विषय में जन-साधारण को जानकारी प्राप्त करना कठिन नहीं होता। जबकि न्यायिक निर्णयों पर आधारित निर्णय विधि के विषय में यथेष्ट जानकारी प्राप्त करना दुर्लभ होता है। यहाँ तक कि अनेक निर्णीत वादों की जानकारी अधिवक्ताओं तक को नहीं होती है क्योंकि अनेक निर्णीत-वाद अप्रतिवेदित (unreported) रह जाते हैं; अर्थात् उनका प्रकाशन नहीं किया गया होता है।

10. विधान द्वारा विधि के निर्माण में आगमनात्मक पद्धति (deductive method) अपनायी जाती है। जबकि निर्णय विधि का सृजन निगमनात्मक पद्धति (inductive method) से होता है।

11. विधान-मण्डल द्वारा विभिन्न मामलों के लिए व्यवस्था दी रहती है। निर्णय विधि में एक समय ही मामले के सम्बन्ध में कार्यवाही होती है तथा इसका विकास व्यक्तियों के निजी मुकदमेबाजी का कारण होता है।

12. विधान द्वारा निर्मित विधि नैसर्गिक न्याय के इस सिद्धान्त के अनुरूप है कि प्रवर्तित किये जाने के पहले सम्बन्धित विधि की समुचित जानकारी न्यायालयों तथा जन-साधारण दो करा दी जानी चाहिये। पूर्व निर्णय द्वारा निर्मित निर्णय-विधि का प्रवर्तन भूतलक्षी प्रभाव रखता है, अर्थात् वह उन तथ्यों पर लागू होती हैं। जो स्वयं विधि के दिनांक से पहले के होते हैं।

न्यायिक पूर्व-निर्णयों की तुलना में विधान द्वारा निर्मित विधि की उपादेयता अधिक होने पर भी विधि के स्रोत के रूप में निर्णय विधि का अपना विशिष्ट महत्व है। अनेक बातों में न्यायालयों द्वारा निर्मित निर्णय । विधि विधान की तुलना में श्रेष्ठतर होती है-

37. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 157.

38. न्याय-प्रशासन की कार्यकुशलता की दृष्टि से यह आवश्यक है कि विधान-मण्डल का एकमात्र कार्य विधि की रचना करना हो तथा न्यायाधीशों का एकमात्र कार्य विधि की व्याख्या करते हुए उसे लागू करना हो।

(1) निर्णय-विधि विधान द्वारा निर्मित विधि की बजाय अधिक व्यावहारिक होती है क्योंकि इसका या उन वास्तविक तथ्यों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने के पश्चात् किया जारा है जिससे वह उत्पन्न हुई है।

(2) निर्णय-विधि को नमनशील निरूपित करते हुए सामण्ड (Salmond) कहते हैं कि अनेक अपूर्णताएँ ने इरा भी इसे नयी परिस्थितियों के अनुकूल ढाला जा सकता है। इसके विपरीत, विधान द्वारा अधिनियमित विधि प्राधिकारिक सूत्रों में बँधी रहने के कारण कतिपय स्थितियों में उसे लागू नहीं किया जा सकता।

(3) डायसी के अनुसार अधिनियमित विधि राजनयिकों की इच्छा से उत्पन्न होती है जो लोकमत पर आधारित होती है। स्तर की दृष्टि से राजनीतिज्ञों की नैतिकता सम्बन्धी धारणाएँ न्यायाधीशों की नैतिकता विषयक मान्यताओं से अपेक्षाकृत निम्न-स्तरीय होती हैं। यही कारण है कि न्यायपालिका अनेक अधिनियमित विधियों को दोषपूर्ण या मूलभूत सिद्धान्तों के प्रतिकूल घोषित करते हुए अविधिमान्य ठहरा देती है।

(4) विधान द्वारा निर्मित विधि प्रायः स्पष्ट होते हुए भी उतनी व्यावहारिक नहीं होती जितनी कि निर्णय-विधि अस्पष्ट होते हुए भी व्यावहारिक होती है। । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विधि के स्रोत के रूप में पूर्व निर्णय की तुलना में विधान अधिक प्रलाभप्रद (advantageous) है। यह केवल विधि का स्रोत मात्र न होकर प्रचलित विधि में संशोधन करने या उसका निरसन करने के लिये भी प्रभावी होता है जबकि पूर्व निर्णय में किसी प्रवर्तमान विधि को निराकृत (abrogate) करने का सामर्थ्य नहीं होता है। इसका आशय है कि विधान में संघटनात्मक (Constitutive) तथा निराकृति (abrogative) दोनों तत्व विद्यमान हैं जबकि पूर्व निर्णय में केवल संघटनात्मक तत्व होता है। और उसमें निराकृति की शक्ति नहीं है।

 

विधान और रूढिजन्य विधि की तुलना (Legislation and Customary Law Compared)

रूढ़िजन्य विधि की तुलना में अधिनियमित विधि (enacted law) की उपादेयता प्रतिपादित करते हुए कीटन (Keeton) ने कहा है कि प्रारम्भिक काल में विधान को रूढ़िजन्य विधि का पूरक माना जाता था, परन्तु वर्तमान समय में रूढिजन्य विधि अधिनियमित विधि की पूरक बनकर रह गई है। वर्तमान में विधान को ही विधि का प्रमुख स्रोत माना जाता है तथा रूढ़िजन्य विधि को केवल उस स्थिति में लागू किया जाता है जहाँ विधान का प्रवेश न हुआ हो। कीटन के अनुसार विधान द्वारा अधिनियमित विधि निश्चित, सुलभ तथा लिपिबद्ध होने के कारण उसे सरलता से समझा तथा सिद्ध किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह विधानमण्डल द्वारा निर्मित होने के कारण जन-साधारण की सामान्य इच्छा की प्रतीक भी होती है।39 इसके विपरीत, रूढिजन्य विधि का निर्माण किसी रूढ़ि के दीर्घकाल तक प्रचलन के बाद ही हो सकता है तथा अलिखित होने के कारण इसे सिद्ध करना भी प्राय: कठिन होता है। रूढिजन्य विधि को सरलता से परिवर्तित अथवा अन्तरित नहीं किया जा सकता। तात्पर्य यह है कि अधिनियमित विधि में जो परिपक्वता और निश्चितता होती है वह रूढिजन्य विधि में नहीं मिलती है। निम्नलिखित बातों में भी विधायी विधि रूढिजन्य विधि से गुरुतर है

(1) अधिनियमित विधि मनुष्य और राज्य के बीच सम्बन्ध व्यक्त करती है जबकि रूढिजन्य विधि व्यक्तियों के बीच परस्पर सम्बन्धों को दर्शाती है।

(2) अधिनियमित विधि पूर्व विचार-विमर्श के बाद बनाई जाने के कारण इनमें पूर्णता, निश्चितता तथा बोधगम्यता होती है। रूढिजन्य विधि प्राय: उन प्रथाओं पर आधारित होती है जो अल्पविकसित समाज में प्रचलित थी; अत: उसमें पर्णता, निश्चितता तथा बोधगम्यता का अभाव रहता है।

(3) अधिनियमित विधि का निर्माण निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है जबकि रूढिजन्य। वाध की उत्पत्ति रूढियों के समाज में प्रचलन तथा सामाजिक दबाव के कारण होती है।

39. जी० डब्ल्यू पैटन : दि एलीमेंट्री प्रिंसपिल ऑफ ज्यूरिसपूडेन्स, पृ० 82

(4) विधान द्वारा निर्मित विधि स्वभावत: न्यायपरक (de jure) होती है जबकि रूढिजन्य विधि तथ्य परक (de facto) स्वरूप की होती है।

(5) विधायन विधि निर्माण का आधुनिकतम प्रकार है जबकि रूढिजन्य विधि विधियों की उत्पत्ति का प्राचीनतम रूप है। बेन्थम (Bentham) के अनुसार विधान (legislation) का कार्य अन्धकार में प्रज्वलित उस दीप की भाँति है जो भटके हुओं को राह दिखाता है।

विधि के स्रोत के रूप में विधान का महत्व

विधि के स्रोत के रूप में विधान के महत्व के विषय में विधिशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किये हैं। विधि की ऐतिहासिक शाखा (Historical School) के समर्थकों का विचार है कि विधि के स्रोत के रूप में विधान का कोई विशेष महत्व नहीं है। कार्टर के अनुसार विधान में क्रियात्मक शक्ति का अभाव है; अतः वैधानिक प्रक्रिया द्वारा विधि का निर्माण असंभव है। यही नहीं, इस प्रकार की प्रक्रिया द्वारा विधि में कोई परिवर्तन या विनष्टीकरण नहीं किया जा सकता ।40  

विधि की विश्लेषणात्मक शाखा के प्रवर्तकों ने विधान (legislation) को ही विधि-निर्माण का सर्वश्रेष्ठ स्रोत माना है। वे केवल अधिनियमित विधि को ही वास्तविक विधि मानते हैं। उनका निश्चित मत है कि न्यायपालिका द्वारा पूर्व-निर्णयों (precedents) के आधार पर निर्णय-विधि का निर्माण विधान-मण्डल के वैधानिक अधिकारों में अनुचित हस्तक्षेप है। इस सम्बन्ध में ब्लैकस्टोन (Blackstone) के विचार उल्लेखनीय हैं। ब्रिटेन की पार्लियामेन्ट द्वारा निर्मित विधि की श्रेष्ठता का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि ‘संसद् (Parliament) द्वारा अधिनियमित कानून राज्य की सर्वश्रेष्ठ विधि है। ये कानून ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन सभी व्यक्तियों तथा उपनिवेशों के निवासियों पर बन्धनकारी प्रभाव रखते हैं। यहाँ तक कि किसी अधिनियम में उल्लेख हो, तो वह स्वयं सम्राट को भी आबद्ध कर सकता है। संसद् के प्राधिकार के बिना इन कानूनों को किसी अन्य द्वारा संशोधित, परिवर्तित या निरसित नहीं किया जा सकता है। परन्तु डॉ० ऐलन (Allen) विधान द्वारा निर्मित विधि को अधिक महत्व नहीं देते हैं। उनके अनुसार अधिनियमित विधि पर न्यायालयों की व्याख्या का नियंत्रण सदैव बना रहता है ।41

विधान (legislation) के विषय में ऐतिहासिक एवं विश्लेषणात्मक शाखा के विचारों में भिन्नता होने के कारण उनमें अनुसीमन (moderation) की आवश्यकता है। ऐतिहासिक शाखा के विचारकों द्वारा अधिनियमित विधि को महत्वहीन माना जाना उचित नहीं है परन्तु साथ ही विश्लेषणात्मक विधिशास्त्रियों द्वारा उसे श्रेष्ठतम विधि निरूपित किया जाना भी उतना ही त्रुटिपूर्ण है। वर्तमान विधि-प्रणालियों में रूढिगत विधियों तथा पूर्व-निर्णयों का उतना ही महत्व है जितना कि विधान द्वारा अधिनियमित-विधि को। ऐतिहासिक शाखा की यह धारणा कि विधान द्वारा निर्मित विधि में किसी प्रकार की क्रियात्मक शक्ति नहीं होती, वास्तविकता पर आधारित नहीं है। वर्तमान में विधान-मण्डलों द्वारा ऐसे अनेक विधानों का निर्माण किया जा रहा है जिससे उनकी सृजनात्मक शक्ति स्पष्टत: प्रकट होती है। संसद् द्वारा अधिनियमित विभिन्न श्रमिक विधियाँ तथा बीमा-सम्बंन्धी संविधियाँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

विधियों का संहिताकरण (Codification of Laws)

अधिनियमित विधियों के समेकन (consolidation) को ‘संहिता’ कहते हैं। किसी विशिष्ट विषय से सम्बन्धित समस्त कानूनों को एकत्रित कर उन्हें संकलित रूप में प्रकाशित करने की प्रक्रिया को ‘संहिताकरण’ कहा जाता है। अधिनियमित विधि के निरन्तर बढ़ते हुए महत्व के साथ विधियों के संहिताकरण की आवश्यकता अनुभव होने लगी। परिणामस्वरूप वर्तमान में प्रायः सभी विकसित राष्ट्रों ने अपनी विधियों का संहिताकरण कर लिया है।

40. जेम्स कार्टर : लॉ इट्स ओरिजिन, ग्रोथ एण्ड फन्क्शन, पृ० 130.  

41. रोलन : लॉ इन दि मेकिंग (पाँचवाँ संस्करण), पृ० 434.

विधिशास्त्रियों ने ‘संहिताकरण’ (codification) को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। सामान्य भाषा में संहिताकरण का अर्थ है-विधियों को समेकित कर उन्हें लिपिबद्ध करना ताकि उनमें विरोधाभास या पुनरावृत्ति का दोष न रहे। सामण्ड के अनुसार समस्त विधि-संग्रह (corpus juris) को अधिनियमित विधि के रूप में बदलने की प्रक्रिया को ‘संहिताकरण’ कहते हैं है42  

प्राचीन काल में रोम के समस्त विधि-संग्रह को अधिनियमित विधि के रूप में परिवर्तित करने के प्रयत्न किये गये थे। रोम के सम्राट जस्टिनियन ने अपने समय के सभी प्रचलित कानूनों को संहिताबद्ध कराया था। परन्तु यूरोपीय देशों में विधि के संहिताकरण का प्रारम्भ अठारहवीं शताब्दी के मध्य के लगभग माना जाता है। इंग्लैण्ड में विधियों के संहिताकरण का प्रारम्भ करने का श्रेय जर्मी बेन्थम (Jeremy Bentham) को है। तत्कालीन इंग्लैण्ड में बेन्थम की विधि-संहिताकरण की नीति का घोर विरोध हुआ; यहाँ तक कि विवश होकर उन्हें अपना संहिताकरण-विषयक ग्रन्थ अंग्रेजी की बजाय फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित करना पड़ा। परन्तु बाद में इस कृति के अंग्रेजी अनुवाद ने ब्रिटेनवासियों को इतना अधिक प्रभावित किया कि वे इंग्लिश विधि का संहिताकरण किये जाने की आवश्यकता अनुभव करने लगे। बेन्थम का निश्चित मत था कि एक ऐसी आदर्श विधि-संहिता तैयार की जानी चाहिये जो प्रत्येक सम्भाव्य मामले का निराकरण करने में सहायक हो तथा जिससे निर्णय विधि की आवश्यकता ही समाप्त हो जाए।

विधियों के संहिताकरण का महत्व इस कारण है कि इससे विधि में सरलता (simplicity), निश्चितता (certainty) तथा एकरूपता (uniformity) आ जाती है तथा व्यक्तिगत निर्णयों के दोष समाप्त हो जाते हैं। परन्तु इसका आशय यह कदापि नहीं है कि संहिताकरण के परिणामस्वरूप न्यायिक निर्णयों द्वारा निर्मित निर्णय-विधि पूर्णतः समाप्त हो गयी है। विधि के संहिताकरण का मूल प्रयोजन जन-साधारण को प्रचलित कानूनों के सम्बन्ध में जानकारी देना है ताकि वे उचित तथा अनुचित में भेद समझ सकें। अधिनियमित विधि को संहिताबद्ध कर दिये जाने पर भी निर्णय-विधि का महत्व अनुपूरक विधि के रूप में यथावत् बना रहेगा। समयानुसार यह विधि भी संहिता के पश्चात्वर्ती संस्करणों में भाष्य एवं टीका के रूप में स्वयं संहिताबद्ध होती जायेगी।

अमोस (Amos) ने विधियों के संहिताकरण को अधिक उपयोगी बनाने हेतु यह सुझाव दिया है कि विधान मण्डलों द्वारा संहिताबद्ध अधिनियमों की वार्षिक रिपोर्ट्स की श्रृंखला तैयार की जाये जिनमें इन कानूनों के प्रवर्तन का विस्तृत विवरण दिया जाये। इन रिपोर्ट्स के आधार पर प्रत्येक दस वर्ष के बाद विधि में संशोधन करने में सुविधा होगी43 तथा इस प्रकार तैयार किये गये कानून अधिक प्रभावी तथा समयोपयुक्त सिद्ध होंगे।

सामण्ड तथा ऑस्टिन आदि विधिशास्त्रियों ने संहिताकरण को विधि के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक तथा उपयोगी माना है परन्तु सैविनी, पैटन तथा पोलक आदि विधिवेत्ताओं ने इसके अनेक दोषों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।

सैविनी (Savigny) का मत है कि विधि का संहिताकरण विधि के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर देता है जिससे विधि में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक आधार पर वे कहते हैं कि जिस समय संहिताकरण का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था उस समय भी इसकी कमी कभी नहीं खटकी।

संहिता के महत्व को अस्वीकार करते हुए पैटन (Paton) ने कहा है कि विधि को कितना ही सरल, तार्किक (logical) तथा बुद्धिप्रखर क्यों न बनाया जाए, समय के साथ नयी समस्याएँ तथा उलझनें सदैव ही उत्पन्न होती रहेंगी, जिनके लिए विधि में समयानुकूल संशोधन करना अपरिहार्य होगा।

42. Codification is “the reduction of the whole corpus juris so far as practicable, in the form of

enacted Law.”-Salmond.

43. Amos : An English Code, p. 77.

फेड्रिक पोलक (Pollock) के अनुसार संहिताकरण विधि के क्रमबद्ध विकास को अवरुद्ध करता है।

लार्ड मेन्सफील्ड (Lord Mansfield) ने संहिताकरण की आलोचना इस आधार पर की है कि संहिताबद्ध विधि विकासशील समाज की आवश्यकताओं के उतनी अनुकूल नहीं होती है जितनी कि निर्णय विधि। संहिताकरण के उपर्युक्त गुण-दोषों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विधियों के विकास में संहिताकरण का महत्वपूर्ण योगदान है। विधि के संहिताकरण में अनेक कठिनाइयाँ होने पर भी उसे दुर्लभ नहीं माना जा सकता है। वर्तमान में किसी भी विधि-व्यवस्था की सफलता के लिए संहिताबद्ध विधियों का होना नितान्त आवश्यक है।

संहिताओं के प्रकार

सामान्यत: संहिताबद्ध विधियों के तीन प्रकार होते हैं जो निम्नलिखित हैं|

1. सृजनात्मक संहिता (Creative Code)- इनमें ऐसी विधि का समावेश होता है जो किसी अन्य। विधि की सहायता के बिना प्रथम बार निर्मित की जाती है। यह विधान द्वारा निर्मित संहिता होती है। भारतीय दंड सहिता इस प्रकार की संहिता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

2. समेकित संहिता (Consolidating Code)—यह किसी विधि से सम्बन्धित ऐसी संहिता है जिसमें तत्संबंधी विषय की सभी संविधियों, रूढ़िजन्य तथा पूर्व-निर्णय पर आधारित विधियों को समेकित किया जाता है। इस प्रकार विधि को सुव्यवस्थित रूप प्रदान कर इसे सरल बनाने का प्रयास किया जाता है। रोम के सम्राट जस्टीनियन द्वारा निर्मित रोमन विधि संहिता इसका अच्छा उदाहरण है। भारत का सम्पत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भी समेकित संहिता का ही एक रूप है।

3. सृजनात्मक एवं समेकित संहिता (Creative & Consolidating Code)-ऐसी संहिता जो विधि का निर्माण भी करती है और उनका समेकन भी करती है। हिन्दू विधि इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। संहिताकरण के गुण-दोष

संहिताबद्ध विधि के गुणों में इनकी (1) निश्चितता (certainty), (2) सरलता (simplicity), (3) तर्कपूर्ण विन्यास (logical arrangement), (4) स्थिरता (stability), (5) एकरूपता (unity) आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इससे देश की प्रगति एवं विकास का मार्ग प्रशस्त होता है क्योंकि लोगों को एक निश्चित विधि संहिता के अनुसार आचरण करना अपरिहार्य हो जाता है तथा उन्हें मनमाने ढंग से व्यवहार करने की छूट नहीं रहती है। 

उपर्युक्त गुणों के होते हुए भी संहिताकरण के कुछ दोष भी हैं, जिनमें (1) विधि की अनम्यता (rigidity of law) , (2) अपूर्णता (incompleteness), (3) जटिलता (complexity) आदि प्रमुख हैं। संहिताबद्ध विधि का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें कोई त्रुटि या कमी रह जाने पर उसका विधायनी संशोधन के बिना तत्काल निवारण नहीं किया जा सकता है। विधि का संशोधन एक जटिल एवं विलंबकारी प्रक्रिया होने के कारण संहिताबद्ध विधि का दोष या कमी लम्बे समय तक बनी रहती है जिससे लोगों को अत्यधिक असविधा होती है। इसीलिए सैविनी ने वर्तमान में शीघ्रता से बदलते हुए समाज में संहिताकरण को निरर्थक बताया है।

भारत में विधियों का संहिताकरण (Codification of Law’s in India)

भारत में विधियों के संहिताकरण की पद्धति आदिकाल से ही अपनाई जाती रही है। हिन्दू विधि का संहिताकरण करके मनु संहिता की रचना की गई थी। इसी प्रकार बृहस्पति, याज्ञवल्क्य, नारद, पराशर आदि

की धर्म-संहिताओं को भी प्राचीन हिन्दू विधि की उत्कृष्टतम मानक कृतियाँ माना गया है। मुगल शासनकाल में भी भारत में विधियों का संहिताकरण होता रहा है 44 वर्तमान में समस्त हिन्दू विधि को संहिताबद्ध45 कर दिया गया है, तथा मुस्लिम विधि के संहिताकरण के प्रयास किये जा रहे हैं। ब्रिटिश शासन में अधिकांश भारतीय विधियों का संहिताकरण किया जा चुका है। 

भारत की वर्तमान विधियों के संहिताकरण का कार्य सन् 1833 से प्रारंभ हुआ जब लार्ड मेकॉले की अध्यक्षता में प्रथम विधि आयोग का गठन हुआ था। इस आयोग ने दण्ड विधि संहिता, सिविल प्रक्रिया संहिता, परिसीमा अधिनियम आदि के प्रारूप (drafts) तैयार किये तथा 31 अक्टूबर, 1840 को अपनी बहुचर्चित लेक्स-लाकाई रिपोर्ट (lex loci report) तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को सौंपी जिसमें यह सुझाव दिया। गया था कि इंग्लैंड में प्रचलित सारभूत विधि (substantive law) को ही भारत की विधि के रूप में वोषित किया जाए। तत्पश्चात् सन् 1853 के चार्टट के अन्तर्गत भारत की विधियों के लिए द्वितीय विधि आयोग की नियुक्ति की गई जिसका मुख्य कार्य प्रथम विधि आयोग द्वारा अधूरी छोड़ी गई विधि-संहिताकरण की प्रक्रिया को पूर्ण करना था। इसके परिणामस्वरूप भारत में दण्ड संहिता, 1861 तथा दण्ड संहिता आदि को संहिताबद्ध रूप में अधिनियमित किया गया। तत्पश्चात् सन् 1861 और 1879 में पुनः विधि आयोग का गठन किया गया जिन्होंने अनेक विधियों के प्रारूप (drafts) तैयार किये तथा साक्ष्य विधि, सम्पत्ति-विधि, संविदा विधि, न्यास विधि आदि अनेक अन्य विधियों का संहिताकरण किया गया।

भारतीय स्वतन्त्रता के पश्चात् विभिन्न देशी रियासतों (Princely states) का भारत संघ में विलय (integration) किया गया जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश के लिये एक समान संहिताबद्ध विधियां लागू की जाना आवश्यक हुआ। अतः अगस्त 5, 1955 को एक स्थायी विधि आयोग (Permanent Law Commission) की नियुक्ति की गई जिसे विद्यमान विधियों का पुनरीक्षण कर उन्हें संशोधित, परिमार्जित या समेकित करने का कार्य सौंपा गया। इसके अतिरिक्त विधि आयोग को यह कार्य भी सौंपा गया कि वह भारत में प्रचलित न्याय-प्रणाली में सुधार के सुझाव दे ताकि उसे अधिक प्रभावी, दक्ष एवं कार्यकुशल बनाया जा सके। आयोग ने अब तक लगभग 198 प्रतिवेदन (Reports) प्रस्तुत किये हैं जो भारतीय विधि के विकास एवं न्याय प्रणाली में सुधार के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। वर्तमान में मई अठारहवां विधि आयोग कार्यरत है जिसका कार्यकाल सन् 2010 में पूरा होगा।46  

उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संविधान में कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को स्वीकार करते हुए राज्य से यह आकांक्षा की है कि वह अपनी विधायिनी शक्ति के प्रयोग द्वारा समाज के दलित एवं शोषित वर्ग का उद्धार करे तथा समानता, समन्याय तथा सहबन्धुत्व के आधार पर सभी के प्रति न्याय स्थापित करे। राज्य को ऐसे सभी कार्यों को करने तथा कानून बनाने की अधिकारशक्ति प्राप्त है जो संविधान में उल्लिखित उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो। यही कारण है कि वर्तमान में संसद् तथा राज्यों के विधान-मण्डलों द्वारा निर्मित विधान को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है क्योंकि यह लोकमत और जन-आकांक्षाओं पर आधारित रहता है। जल47 तथा वायु-मण्डल48 के दूषण को नियंत्रित रखने तथा गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता49 उपलब्ध कराने, उपभोक्ताओं को शोषण से संरक्षण

44. औरंगजेब के शासनकाल में बंगाल के रघुनन्दन शास्त्री द्वारा रचित फतवा-ए-आलमगीरी तत्कालीन हिन्दू विधि का संहिताबद्ध स्वरूप है।

45. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955; हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956; हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956; हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 आदि।

46. परांजपे, एन० वी० : भारत का वैधानिक एवं संवैधानिक इतिहास (आठवां संस्करण 2006) पृ० 273-77.

47. जल (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1974. ।

48. वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1981 : प्रदूषण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 तथा भारत का संविधान का अनुच्छेद 48-क.

49;  अनु० 39. A, देखिये : हुसैन आरा खातून तथा अन्य बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1980 सु° का वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि गरजमंद अभियक्त को राज्य द्वारा मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध न कराये जाने की दशा में इसे अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना जायेगा.

दिलाने50 अस्पृश्यता निवारण! लोक अदालतों द्वारा त्वरित सुलभ न्याय उपलब्ध कराने52, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को शोषण तथा अत्याचार से संरक्षण दिलाने3 आदि के लिए भी अधिनियमित कानुन बनाये गये हैं जो विधान के बढ़ते हुए महत्व के परिचायक हैं। भारतीय विधायीतन्त्र में प्रत्यायोजित विधान अब तक पूर्णत: स्थापित हो चुका है।

सारांश में यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़े देश के लिए, जो अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, विधियों का संहिताकरण अत्यावश्यक है। देश की एकता और अखंडता के लिए भी संहिताकरण परम आवश्यक है। इसी उद्देश्य से संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत एक-समान सिविल कोड का प्रावधान रखा था। यद्यपि इस दिशा में समय-समय पर प्रयास किये जाते रहे हैं परन्तु कतिपय कट्टरवादी तत्व तथा राजनीतिक स्वार्थ इसमें बाधक सिद्ध हो रहे हैं। आशा है कि निकट भविष्य में समस्त देश के लिए एक समान सिविल संहिता लागू करके भारत की एकता और अखंडता को सुनिश्चित किया जायेगा।.

50. उपभोक्ता संरक्षण (संशोधित) अधिनियम, 1993.

51. सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955.

52. लीगल सर्विसेज अथारिटीज ऐक्ट, 1987.

53. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989.

 

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