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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 17 Notes

 

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 17 Notes:- LLB 1st Year / 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Free Online Books Study Material Notes in Hindi English PDF Download, Jurisprudence & Legal Theory Section 3 Sources of Law Chapter 17 Most Important Question Paper With Answer Sheet Topic Wise.

 

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 17 Notes

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अध्याय 17 (Chapter 17)

विधि के स्रोत (Sources of Law)

सामान्य अर्थ में ‘स्रोत’ (Source) शब्द से तात्पर्य उद्गम (origin) या ‘प्रारम्भ’ से है। विधि के सन्दर्भ में ‘स्रोत’ शब्द की निश्चित व्याख्या करना कठिन है। यदि किसी न्यायाधीश को उसके द्वारा दिये गये निर्णय के स्रोत के विषय में पूछा जाये तो वह किसी संविधि, कानुन या पूर्व-निर्णय अथवा अन्य किसी विधिक व्यवस्था का हवाला देगा जिसके आधार पर उसने अपना निर्णय दिया है। विचाराधीन मामले में अन्तनिहित प्रश्न के अनुसार न्यायाधीश की व्यक्तिगत विवेक शक्ति, बुद्धि या धारणाएँ भी ‘स्रोत’ का आधार हो सकती हैं। अपने निर्णय के स्रोत के रूप में वह रोमन विधि की जस्टीनियन द्वारा रचित ‘डाइजेस्ट’ या ब्रिटेन के हाउस ऑफ लार्ड्स के किसी निर्णय या अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के किसी पूर्व-निर्णय का उद्धरण या किसी भारतीय विधिशास्त्री की कृति आदि का हवाला भी दे सकता है। यही नहीं, न्यायाधीश के निर्णय की आधारभूत विधि-सामग्री स्वयं ही किसी राजनीतिक धारणा या शासकीय नीति पर आधारित हो सकती है जो उस विधि का स्रोत कही जा सकती है। तात्पर्य यह है कि ‘स्रोत’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जा सकता है। और इसका निश्चित अर्थ निकालना सरल नहीं है।2 डेल वेक्हियो (Del Vecchio) के अनुसार विधि के स्रोत का मूल आधार मानव-स्वभाव में ही अन्तर्निहित है।

विधि के स्त्रोत का अर्थ (Meaning of Sources of Law)

भारतीय परिप्रेक्ष्य में विधि के स्रोत से आशय मानव कर्तव्य है जिसे सभी विधियों का मूल तत्व माना जाता है और जिसे प्रायः सभी हिन्दू धर्मग्रन्थों ने प्रधानता दी है। इसके विपरीत, आधुनिक विधिशास्त्र के अनुसार सभी विधियों का स्रोत राज्य का प्रभु सत्ताधारी है जिससे सभी विधियों का उद्भव होता है। हिन्दू विधि के स्रोत के रूप में श्रुति, स्मृति तथा आदिकाल से प्रचलित चली आ रही प्रथाओं को मान्यता दी गयी है। जो दैवी-इच्छा (Divine will) तथा ‘औचित्य’ (reason) पर आधारित है। वास्तव में देखा जाये तो श्रुति (Sruti) में विधियों का प्रत्यक्षतः उल्लेख नहीं मिलता है क्योंकि इसके अन्तर्गत समाविष्ट चार वेदों, छ: वेदांगों तथा उपनिषदों में अधिकांशतः धार्मिक संस्कारों, रीति-रिवाजों तथा औपचारिकताओं का ही विवरण मिलता है जो मानव को ज्ञान, सद्बुद्धि और मोक्ष का मार्ग दर्शाते हैं। परन्तु स्मृतियों में मानव आचरण से सम्बन्धित विधियों तथा नियम का प्रत्यक्ष उल्लेख मिलता है जिनका अनुपालन न किये जाने पर व्यक्ति को राजदण्ड दिये जाने की व्यवस्था थी। अतः स्मृतियों को प्राचीन हिन्दू विधि के स्रोत के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। उल्लेखनीय है कि मनु और याज्ञवल्क्य द्वारा लिखित संहिताओं में धार्मिक-कर्मों और रीतियों, पश्चाताप, मोक्ष प्राप्ति के मार्ग आदि का विवेचन है जबकि नारद-संहिता में केवल वास्तविक विधि (Positive Law) का ही विस्तृत वर्णन किया गया है।

विधि के संदर्भ में ‘स्रोत’ के अर्थ को न्यायालयों के निर्णय के लिये आवश्यक सामग्री जुटाने तक ही सीमित रखना उचित होगा। न्यायालयों का प्रमुख कार्य विधि की व्याख्या करना और उसे उचित रूप से लाग करना है। अतः विधि के स्रोत के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि न्यायाधीशगण अपने निर्णय के लिए सामग्री कहाँ से जुटाते हैं? इस प्रश्न के उत्तर के लिए विधि के विभिन्न स्रोतों की विवेचना करना आवश्यक होगा।

1. मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 1789.

2. डायस एण्ड यूज : ज्यूरिसपूडेन्स (1957), पृ० 27.

3. Del Vecchio : Le Problem does, Sources, p. 21.

विधि के स्रोत के विषय में सामण्ड के विचार

सामण्ड ने विधि के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया है-(1) औपचारिक स्रोत (Formal Sources); (2) भौतिक स्रोत (Material Sources)। भौतिक स्रोतों को पुनः दो भागों में वर्गीकृत किया गया। है-(i) ऐतिहासिक स्रोत; तथा (ii) वैधानिक स्रोत। वैधानिक स्रोत चार प्रकार के होते हैं। अत: सामण्ड के अनुसार विधि के स्रोतों को निम्नलिखित वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है

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विधि के औपचारिक स्रोत (Formal Sources of Law)

सामण्ड के अनुसार विधि के कुछ ऐसे स्रोत हैं जिनसे विधि अपनी शक्ति या वैधता प्राप्त करती है। इन स्रोतों को औपचारिक स्रोत कहा जाता है। इनका तात्पर्य राज्य की इच्छा और शक्ति से है, जो राज्य के न्यायालयों द्वारा निर्णयों के माध्यम से अभिव्यक्त की जाती है।  

सामण्ड का कथन है कि किसी नियम को विधि का रूप प्राप्त होने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है। कि वह नियम न्यायालय द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो। परन्तु अनेक विधिवेत्ताओं ने सामंड के इस विचार का खण्डन करते हुए कहा है कि यदि किसी नियम को संसद द्वारा विधि के रूप में पारित कर दिया जाता है, तो यह आवश्यक नहीं है कि न्यायालय द्वारा उसे विधि के रूप में स्वीकार कर ही लिया जाए। सम्भवतः सामण्ड ने भ्रमवश विधि की शास्ति (sanction of law) को ही विधि का स्रोत मान लिया है जो कदापि उचित नहीं है।5

भौतिक स्रोत (Material Sources of Law)

विधि का भौतिक या तात्विक स्रोत वह है जिससे विधि-विषयक सामग्री प्राप्त होती है। सामण्ड ने विधि के भौतिक स्रोतों को दो भागों में विभक्त किया है—ऐतिहासिक स्रोत तथा वैधानिक स्रोत।।

(i) ऐतिहासिक स्रोत (Historical Sources of Law)–विधि के ऐतिहासिक स्रोत विधि के विकास को प्रभावित करते हैं तथा विधि-निर्माण के लिए सामग्री जुटाते हैं। ऐतिहासिक स्रोतों का

4. इन्हें तात्विक स्रोत भी कहा गया है.

5. यही कारण है कि सामण्ड की ‘ज्यूरिसपूडेन्स’ नामक कृति के ग्यारहवें संस्करण के सम्पादक ग्लेनवाइल विलिएम्स | ने विधि के औपचारिक स्रोत को अपनी रचना से निकाल दिया है.

सम्बन्ध विधिक इतिहास (Legal History) से है न कि विधिक सिद्धान्तों (legal theory) से। अत: इन स्रोतों के पीछे विधिक मान्यता नहीं होती है। ये स्रोत परोक्षत: विधि के स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। ये विधि के प्राधिकारिक (authoritative) स्रोत नहीं होते अपितु अनुनयी (persuasive) स्रोत होते हैं। उदाहरणार्थ, विधि-लेखकों की रचनाएँ, विदेशी लॉ रिपोर्ट्स, विधि-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख, टिप्पणियाँ आदि।

(ii) वैधानिक स्रोत (Legal Sources of Law)-ये विधि के ऐसे स्रोत हैं जिन्हें विधि द्वारा मान्यता दी गयी है। ये स्रोत प्राधिकारिक (authoritative) होते हैं; अर्थात् इन्हें न्यायालय द्वारा मान्यता दी जाती है। सामण्ड के अनुसार ये स्रोत ‘‘ऐसे द्वार हैं जिनके माध्यम से नये सिद्धान्त विधि में प्रवेश करके ‘कानून’ का रूप धारण कर लेते हैं।” आशय यह है कि विधिक स्रोतों के माध्यम से विधि में नये सिद्धान्तों का समावेश होता है।

वैधानिक स्रोत निम्नलिखित चार प्रकार के होते हैं-

(क) विधायन (Legislation) या अधिनियमित विधि (Enacted Law) । अधिनियमित विधि राज्य की विधायनी शक्ति द्वारा निर्मित की जाती है, जिसे कानून के रूप में राज्य के सभी न्यायालयों द्वारा मान्य किया जाता है। उदाहरण के लिए, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, भारतीय संविदा अधिनियम, आयकर अधिनियम, कंपनी अधिनियम आदि।

(ख) पूर्व-निर्णय या नजीरें (Precedents or Case-law) । न्यायालयों द्वारा दिये गये पूर्व निर्णयों को भविष्य में उसी प्रकार के तत्सम वादों में पूर्वोदाहरण के रूप में लागू किया जाता है। पूर्व-निर्णय को न्यायालय द्वारा विधि के रूप में स्वीकार किया गया है। सभी अधीनस्थ न्यायालय अपने वरिष्ठ न्यायालय द्वारा दिये गये विनिश्चयों के अनुसार निर्णय देने के लिए बाध्य होते हैं। परन्तु किसी एक राज्य का उच्च न्यायालय अन्य राज्य के उच्च न्यायालय के पूर्व-निर्णय का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं है। उच्चतम न्यायालय युक्तियुक्त आधार पर अपने स्वयं के पूर्व-निर्णय को पलटने के लिए स्वतन्त्र है।6

(ग) रूढ़िगत या प्रथागत विधि (Customary Law)

इस प्रकार की विधियाँ उन प्रथाओं से उत्पन्न होती हैं जो विधि द्वारा व्यावहारिक नियमों के रूप में स्वीकार की गई हैं। उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र की कुछ आदिम जातियों में यह प्रथा प्रचलित है कि केवल फूल-माला डालकर विवाह (garland marriage) की रस्म पूरी कर ली जाती है। अत: इस प्रथा को विधि के रूप में वैधता प्राप्त है तथा ऐसे विवाह को वैध विवाह माना जाता है।

(घ) अभिसामयिक विधि (Conventional Law) 

इस प्रकार की विधियाँ लोगों द्वारा आपसी समझौते के आधार पर निर्मित की जाती हैं और यह विधि केवल उन व्यक्तियों के प्रति बन्धनकारी होती है जो इस विधि के निर्माण के लिए सहमति व्यक्त करते हैं। उदाहरणार्थ, राष्ट्रों की विधि के अनुसार राज्य अपने पारस्परिक सम्बन्ध संचालित कर लेते हैं; अत: अन्तर्राष्ट्रीय विधि का आधार-स्रोत अभिसामयिक विधि ही है।

सामण्ड के अनुसार केवल उपर्युक्त वैधानिक स्रोतों से उत्पन्न चार प्रकार की विधियाँ ही विधि का प्रमुख स्रोत होती हैं। इनके अलावा विधियों के कुछ अन्य स्रोत भी हैं परन्तु उन्हें न्यायालयों की मान्यता प्राप्त नहीं

6. देखें, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1643; केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 1461; तथा मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1980 सु० को० 1789 आदि के निर्णय.

होती। वे केवल मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। प्रमुख विधिवेत्ताओं के अभिमत, विदेशी न्यायालयों के निर्णय आदि बन्धनकारी शक्ति न रखते हुए भी विधि के स्रोत के रूप में विधि की विषय-वस्तु को आकार देने में सहायता करते हैं।

जी० डब्ल्यू० पेटन (Paton) ने सामंड द्वारा दिये गये विधि के स्रोतों के वर्गीकरण से सहमति दर्शाई है। लेकिन डॉ० ग्लेनवाइल विलियम्स (Dr. Glanville Williams) ने विधि के वैधानिक (legal) और ऐतिहासिक (historical) स्रोत में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि विधायन और पूर्व-निर्णय विधि के वैधानिक स्रोत हैं जबकि न्यायालय द्वारा किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए अपनाए गए नियमों को विधि के वास्तविक उद्भव का ऐतिहासिक स्रोत माना जाना चाहिए।  

डॉ० सी० के० ऐलन (Dr. Allen) ने सामंड द्वारा किये गये विधि के स्रोतों के वर्गीकरण की आलोचना । इस आधार पर की है कि इसमें ऐतिहासिक स्रोतों को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया है।

ऐलन के अनुसार विधि का स्रोत ऐसे अभिकरण हैं जिनके द्वारा मानव-आचरण के नियम विधि (कानून) का रूप ग्रहण करते हैं जिसमें एकरूपता, निश्चितता, वस्तुनिष्ठता और साथ ही बाध्यता के गुण विद्यमान होते हैं।

ड्यूगिट (Duguit) ने विधि के स्रोतों के विषय में लिखा है कि विधि किसी एक निश्चित स्रोत से निर्मित नहीं होती है, उसका वास्तविक स्रोत तो लोक-मत ही होता है। इहर्लिच (Ehrlich) ने भी ड्यूगिट के विचारों का समर्थन करते हुए कहा है कि विधि के उद्गम एवं विकास का वास्तविक केन्द्र बिन्दु न तो विधायन है और न पूर्व-निर्णय, अपितु वह समाज से उत्पन्न होती है।

विधि के स्रोत के विषय में ऑस्टिन के विचार

जॉन ऑस्टिन (John Austin) के अनुसार विधि के स्रोत’ से तीन अर्थ निकलते हैं। प्रथम, विधि के वास्तविक निर्माता (direct or immediate author) को विधि का स्रोत माना जा सकता है क्योंकि वह प्रत्यक्षतः विधियों का सृजन करता है; द्वितीय, ऐतिहासिक प्रलेखों (historical documents) को भी ऑस्टिन ने विधि के स्रोत के रूप में मान्य किया है। तृतीय, ऐसे कारण’ (causes) जो विधि के निर्माण के लिए कारणीभूत होते हैं; जैसे-धर्म, प्रथाएँ, विधायन, न्यायिक निर्णय, नैतिक आचार इत्यादि। ऑस्टिन द्वारा किया गया विधि के स्रोतों का वर्गीकरण इस प्रकार है-

ऑस्टिन के अनुसार

विधि के स्रोत

(Sources of Law)

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1. प्रत्यक्ष या वास्तविक निर्माता

ऑस्टिन का मत है कि विधि को प्रत्यक्ष या वास्तविक निर्माता वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह होता है। जिसके द्वारा नियमों को उनके मौलिक रूप में बनाया जाता है और जो इन नियमों को विधि का बन्धनकारी प्रभाव प्रदान करता है। ऑस्टिन के अनुसार विधि प्रत्यक्षत: निम्नलिखित स्रोतों से निर्मित होती है-

7. सामण्ड : ज्यूरिसपूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 134.

(1) विधान-मण्डल या न्यायपालिका के रूप में कार्य कर रही शक्ति से: 

(2) उस राजनीतिक अधीनस्थ शक्ति से जो व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के रूप में कार्य कर

रही है;

(3) उन व्यक्तियों से जिनके व्यवहार ‘रूढ़ि’ बन जाते हैं।

(4) समझौतों (करार) द्वारा एक दूसरे के प्रति कार्य करने की प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्तियों से।

ऑस्टिन का कथन है कि सभी विधियाँ प्रभुताधारी की शक्ति की देन होती हैं। उपर्युक्त चार प्रकार के व्यक्ति विधि के निर्माण का अधिकार प्रभुताधारी से ही प्राप्त करते हैं। अत: ये व्यक्ति विधि-निर्माण के प्रत्यक्ष स्रोत होते हैं। ऑस्टिन इन अधीनस्थ व्यक्तियों को आलंकारिक रूप में विधि का स्रोत मानते हैं। वे इनकी तुलना जल संचित करने वाले जलाशयों से करते हैं जो अपना पानी तो किसी प्रमुख जल-स्रोत से प्राप्त करते हैं; किन्तु उसे निकालते हैं अपने संचित जल-कोष से।8

उपर्युक्त अर्थ में सर्वोच्च व्यवस्थापिका उन विधियों का स्रोत है जिन्हें वह प्रत्यक्षत: प्रकाशित करती है। अधीनस्थ व्यवस्थापिका या अन्य निगमित संस्थाएँ उन विधियों की स्रोत हैं जिन्हें वह प्रभुताधारी की शक्ति की सहमति से बनाती है और प्रकाशित करती है। न्यायालय भी विधि का एक स्रोत हैं क्योंकि वे न्यायिक निर्णयों द्वारा विधि का सृजन करते हैं जो पश्चात्वर्ती न्यायाधीशों पर बन्धनकारी होते हैं। 2. ऐतिहासिक प्रलेख (Historical Documents)  

ये ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य होते हैं जिनसे विधि के अस्तित्व की पुष्टि हो सकती है। उदाहरण के लिए जस्टीनियन को डाइजेस्ट या ब्रेक्टन (Bracton) या कोक (Coke) की रचनायें आदि इसी श्रेणी में आती हैं। सामण्ड ने इन्हें ‘विधि के साहित्यिक स्रोत’ (Literary Sources of Law) के रूप में मान्य किया है क्योंकि इस साहित्य के माध्यम से विधि के सम्बन्ध में समुचित जानकारी प्राप्त होती है।

3. कारण (Causes)

विधि के स्रोत के इस वर्ग के अन्तर्गत उन कारणों की विवेचना की गई है जिनके आधार पर विधियाँ स्थिर रहती हैं। इनमें विधायन, न्याय-निर्णय, रूढ़ियाँ, धर्म तथा साम्या आदि का समावेश है।

डॉ० ऐलन (Dr. Allen) ने ऑस्टिन द्वारा ‘विधि-स्रोत’ शब्द को उपर्युक्त अर्थों में प्रयुक्त किये जाने पर आपत्ति प्रकट की है। उनके अनुसार ऑस्टिन ने जिस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है उसके अनुसार रूढ़िगत विधि को विधि का स्रोत नहीं माना जा सकता है क्योंकि वह प्रभुताधारी की शक्ति की देन नहीं है। ऐसी विधि केवल व्यावहारिक नियमों से उत्पन्न हुई है तथा कालातीत से प्रचलित रहने के कारण राज्य उस पर औपचारिक शास्ति (formal sanction) लगा देता है।

विधि के स्रोत के विषय में हालैण्ड के विचार

टी० ई० हालैण्ड के अनुसार विधि के स्रोत के बारे में संदिग्धता का कारण यह है कि इसमें विधि की उत्पत्ति से सम्बन्धित सभी विषयों का समावेश है। ‘स्रोत’ शब्द पर अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है। हालैण्ड के अनुसार विधि के स्रोत’ का अर्थ विधि के निम्नलिखित क्षेत्रों तक ही सीमित रखा जाना उचित होगा-

(1) ऐसी सामग्री जिससे विधि के विषय में जानकारी उपलब्ध हो सकती है या विधि सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार की सामग्री को विधि को साहित्यिक स्रोत कहा जा सकता है तथा इसमें विधि सम्बन्धी ग्रन्थ, टीकायें तथा लॉ रिपोर्ट्स आदि का समावेश किया जा सकता है। यह विधि का ऐसा

8. आस्टिन : ज्यूरिसपुडेन्स (तृतीय संस्करण), पृ० 2.

9. ऐलन, सी० के० : लॉ इन दि मेकिंग (5वाँ संस्करण), पृ० 2.

स्रोत है जिसके आधार पर विधि-व्यवसायी या अन्य इच्छुक व्यक्ति विधि के उपबन्धों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

(2) विधि को बन्धनकारी प्रभाव दिलाने वाली शक्ति को विधि के औपचारिक स्रोत के रूप में स्वीकार किया गया है। यह वह शक्ति है जो किसी नियम को कानून का रूप प्रदान करती है। विधि को राज्य की शक्ति द्वारा वैधता प्राप्त होती है, इसलिए राज्य को विधि का औपचारिक स्रोत माना गया है।

(3) विधि के स्रोत के रूप में उन कारणों का समावेश भी है जिनके परिणामस्वरूप विधि के नियम अस्तित्व में आते हैं और जो आगे चलकर ‘कानून’ का रूप धारण कर लेते हैं। रूढि, प्रथायें तथा धर्म आदि ऐसे विधि के स्रोत हैं।

(4) विधि के स्रोत के रूप में उन संस्थाओं या राज्य के अंगों का समावेश है जिनके द्वारा या तो राज्य पूर्व-प्रचलित अप्राधिकृत नियमों को मान्यता प्रदान करता है या स्वयं नई विधियों का निर्माण करता है। जैसेन्यायिक निर्णय, साम्या तथा विधायन आदि।

विधि के स्रोत के विषय में कीटन के विचार

कीटन (Keeton) विधि के औपचारिक स्रोतों को विधि के स्रोत के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनका कथन है कि आधुनिक मानव-समुदायों में विधि का औपचारिक स्रोत ‘राज्य’ (State) है। परन्तु राज्य विधि को केवल लागू करता है; अत: इसे विधि का वास्तविक स्रोत नहीं माना जा सकता है । इसी प्रकार वे सामण्ड द्वारा कथित ‘विधि के साहित्यिक स्रोत’ की भी आलोचना करते हैं क्योंकि इससे न तो विधि जन्म लेती है और न ही प्रारम्भ होती है। यह तो विधि का ज्ञान प्राप्त करने का साधन-मात्र है; अत: इसे विधि के स्रोत’ के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। सामण्ड के विधि-स्रोतों के वर्गीकरण की आलोचना करते हुए कीटन ने विधि के स्रोतों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया है।10

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LLBf Question Paper

विधि के बन्धनकारी स्रोत से कीटन का आशय उन स्रोतों से है जो न्यायाधीशों के विवेक पर पूर्ण रोक लगा देते हैं और जिसके परिणामस्वरूप न्यायाधीश मनमाने निर्णय नहीं दे सकते और उन्हें विधि के आधार पर ही निर्णय देना अनिवार्य होता है। इसके विपरीत, विधि के अनुनयी स्रोत नैतिक आचार या परिस्थितियों

10. कीटन, जी० डब्ल्यू० : दि एलीमेन्ट्री प्रिसिंपल्स ऑफ ज्यूरिसपूडेन्स (द्वितीय संस्करण), पृ० 75.

 की विशिष्टता पर आधारित होते हैं। ऐसे विधि-स्रोत को न्यायालय द्वारा उसी दशा में मान्यता दी जाती है। जब इस सम्बन्ध में कोई विपरीत बन्धनकारी व्यवस्था न हो। अत: इस प्रकार के विधि-स्रोतों के विषय में न्यायाधीशों द्वारा अपने स्वविवेक का प्रयोग किया जा सकता है।

विधि के अन्य स्रोत

विधि के उपर्युक्त स्रोतों के अलावा अन्य विधिशास्त्रियों ने भी अपनी-अपनी धारणा के अनुसार विधि के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख किया है। विधिशास्त्र की ऐतिहासिक शाखा के समर्थकों ने विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ियों तथा प्रथाओं को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है क्योंकि उनके अनुसार विभिन्न विधियों की उत्पत्ति प्रथाओं से हुई है।

विधि के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि की उत्पत्ति राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक तत्वों के परिणामस्वरूप हुई। अतः वे इन विभिन्न तत्वों को ही विधि के प्रमुख स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त दार्शनिक विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि का प्रमुख स्रोत मानव की तर्क-बुद्धि है। परन्तु वर्तमान विधि के सन्दर्भ में इन धारणाओं को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे संकीर्ण दृष्टिकोण पर आधारित हैं।  

विधि के स्रोत सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों में सामण्ड के विचार सबसे अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। उल्लेखनीय है कि सामण्ड की ‘ज्यूरिसपूडेन्स’ के ग्यारहवें संस्करण के सम्पादक ग्लेनवाइल विलियम्स (Glanville Williams) ने सामण्ड द्वारा दिये गये विधि-स्रोत के वर्गीकरण में से ‘औपचारिक स्रोत’ (formal source) को हटा दिया है क्योंकि उनके विचार से ‘औपचारिक’ (formal) शब्द अपने-आप में कोई विशेष अर्थ नहीं रखता इसलिए यह निरर्थक प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त सामण्ड ने ‘औपचारिक स्रोत’ का प्रयोग राज्य की प्रभुताशक्ति के संदर्भ में किया है। परन्तु प्रश्न यह है कि यदि राज्य की शक्ति को ही विधि के स्रोत के रूप में मान्य कर लिया जाए, तो यह शक्ति व्यवस्थापिका या कार्यपालिका की बजाय न्यायालय के माध्यम से ही क्यों अभिव्यक्त होनी चाहिये? इन्हीं कठिनाइयों के कारण ग्लेनवाइल विलियम्स ने औपचारिक स्रोत को विधि के स्रोत के रूप में अस्वीकार करते हुए इसे सामण्ड के वर्गीकरण से हटा दिया है।11

अन्तिम विधिक मानक (Ultimate Legal Norms)  

केल्सन का कथन है कि विधि के प्रत्येक नियम का ऐतिहासिक स्रोत अवश्य होता है। वह क्या है, इसके विषय में जानकारी भले ही न हो। प्रत्येक विधिक पद्धति मूल सिद्धान्तों (ultimate norms) पर आधारित होती है। ये मूल सिद्धान्त स्व-निर्मित होते हैं और इन सिद्धान्तों के पूर्व कोई ऐसी विधि अस्तित्व में अवश्य रहती है जो इन्हें प्रतिस्थापित करके प्राधिकार दिलाती है। इस तर्क की पुष्टि में केल्सन एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह नियम कि कोई भी व्यक्ति फुटपाथ पर साइकिल नहीं चलायेगा, नगरपालिका की उपविधियों पर आधारित है। परन्तु यह नियम कि नगरपालिका की उपविधियाँ विधि की शक्ति रखती हैं, संसद् के अधिनियम से उत्पन्न होता है। प्रश्न उठता है कि यह नियम कि संसद् का अधिनियम विधि की शक्ति रखता है, कहाँ से आता है? निस्संदेह ही इसका कोई स्रोत नहीं है तथा मूल रूप में यह नियम मौलिक तथा अन्तिम है।12 इसके उद्गम की जानकारी संविधान के निर्माताओं को होती है और विधिशास्त्री इसे स्वयं निर्मित विधि के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार यह नियम कि न्यायिक पुर्व-निर्णय विधि की शक्ति रखते हैं, एक ऐसा स्व-निर्मित नियम है जो किसी कानून में अभिव्यक्त नहीं है। कानून के इस नियम को पूर्वोक्तियों से मान्यता मिली है किन्तु पूर्वोक्तियों से इसकी सृष्टि नहीं हुई है क्योंकि एक पूर्वोक्ति दूसरे पूर्व

11. ग्लेनवाइल विलिएम्स द्वारा सम्पादित सामण्ड का ज्यूरिसपूडेन्स (ग्यारहवां संस्करण, तृतीय मुद्रण, 1968)

12. केल्सन ने विधि के ऐसे नियम को, जो विधिक-स्रोत की स्थापना करते हैं; ‘ग्रन्ड नार्म’ (Grund norm) या मूल प्रकल्पना (initial hypothesis) कहा है। देखें जोन्स जे० डब्ल्यू : हिस्टॉरिकल इन्ट्रोडक्शन टु दि थ्योरी ऑफ लॉ (1940), अध्याय 9.

 की विशिष्टता पर आधारित होते हैं। ऐसे विधि-स्रोत को न्यायालय द्वारा उसी दशा में मान्यता दी जाती है। जब इस सम्बन्ध में कोई विपरीत बन्धनकारी व्यवस्था न हो। अत: इस प्रकार के विधि-स्रोतों के विषय में न्यायाधीशों द्वारा अपने स्वविवेक का प्रयोग किया जा सकता है। विधि के अन्य स्रोत

विधि के उपर्युक्त स्रोतों के अलावा अन्य विधिशास्त्रियों ने भी अपनी-अपनी धारणा के अनुसार विधि के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख किया है। विधिशास्त्र की ऐतिहासिक शाखा के समर्थकों ने विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ियों तथा प्रथाओं को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है क्योंकि उनके अनुसार विभिन्न विधियों की उत्पत्ति प्रथाओं से हुई है।

विधि के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि की उत्पत्ति राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक तत्वों के परिणामस्वरूप हुई। अतः वे इन विभिन्न तत्वों को ही विधि के प्रमुख स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त दार्शनिक विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि का प्रमुख स्रोत मानव की तर्क-बुद्धि है। परन्तु वर्तमान विधि के सन्दर्भ में इन धारणाओं को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे संकीर्ण दृष्टिकोण पर आधारित हैं। | विधि के स्रोत सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों में सामण्ड के विचार सबसे अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। उल्लेखनीय है कि सामण्ड की ‘ज्यूरिसपूडेन्स’ के ग्यारहवें संस्करण के सम्पादक ग्लेनवाइल विलियम्स (Glanville Williams) ने सामण्ड द्वारा दिये गये विधि-स्रोत के वर्गीकरण में से ‘औपचारिक स्रोत’ (formal source) को हटा दिया है क्योंकि उनके विचार से ‘औपचारिक’ (formal) शब्द अपने-आप में कोई विशेष अर्थ नहीं रखता इसलिए यह निरर्थक प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त सामण्ड ने ‘औपचारिक स्रोत’ का प्रयोग राज्य की प्रभुताशक्ति के संदर्भ में किया है। परन्तु प्रश्न यह है कि यदि राज्य की शक्ति को ही विधि के स्रोत के रूप में मान्य कर लिया जाए, तो यह शक्ति व्यवस्थापिका या कार्यपालिका की बजाय न्यायालय के माध्यम से ही क्यों अभिव्यक्त होनी चाहिये? इन्हीं कठिनाइयों के कारण ग्लेनवाइल विलियम्स ने औपचारिक स्रोत को विधि के स्रोत के रूप में अस्वीकार करते हुए इसे सामण्ड के वर्गीकरण से हटा दिया अन्तिम विधिक मानक (Ultimate Legal Norms) । केल्सन का कथन है कि विधि के प्रत्येक नियम का ऐतिहासिक स्रोत अवश्य होता है। वह क्या है, इसके विषय में जानकारी भले ही न हो। प्रत्येक विधिक पद्धति मूल सिद्धान्तों (ultimate norms) पर आधारित होती है। ये मूल सिद्धान्त स्व-निर्मित होते हैं और इन सिद्धान्तों के पूर्व कोई ऐसी विधि अस्तित्व में अवश्य रहती है जो इन्हें प्रतिस्थापित करके प्राधिकार दिलाती है। इस तर्क की पुष्टि में केल्सन एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह नियम कि कोई भी व्यक्ति फुटपाथ पर साइकिल नहीं चलायेगा, नगरपालिका की उपविधियों पर आधारित है। परन्तु यह नियम कि नगरपालिका की उपविधियाँ विधि की शक्ति रखती हैं, संसद् के अधिनियम से उत्पन्न होता है। प्रश्न उठता है कि यह नियम कि संसद् का अधिनियम विधि की शक्ति रखता है, कहाँ से आता है? निस्संदेह ही इसका कोई स्रोत नहीं है तथा मूल रूप में यह नियम मौलिक तथा अन्तिम है।12 इसके उद्गम की जानकारी संविधान के निर्माताओं को होती है और विधिशास्त्री इसे स्वयं निर्मित विधि के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार यह नियम कि न्यायिक पुर्व-निर्णय विधि की शक्ति रखते हैं, एक ऐसा स्व-निर्मित नियम है जो किसी कानून में अभिव्यक्त नहीं है। कानून के इस नियम को पूर्वोक्तियों से मान्यता मिली है किन्तु पूर्वोक्तियों से इसकी सृष्टि नहीं हुई है क्योंकि एक पूर्वोक्ति दूसरे पूर्व

11. ग्लेनवाइल विलिएम्स द्वारा सम्पादित सामण्ड का ज्यूरिसपूडेन्स (ग्यारहवां संस्करण, तृतीय मुद्रण, 1968) 12. केल्सन ने विधि के ऐसे नियम को, जो विधिक-स्रोत की स्थापना करते हैं; ‘ग्रन्ड नार्म’ (Grund norm) या मूल

प्रकल्पना (initial hypothesis) कहा है। देखें जोन्स जे० डब्ल्यू : हिस्टॉरिकल इन्ट्रोडक्शन टु दि थ्योरी ऑफ लॉ (1940), अध्याय 9.

 की विशिष्टता पर आधारित होते हैं। ऐसे विधि-स्रोत को न्यायालय द्वारा उसी दशा में मान्यता दी जाती है। जब इस सम्बन्ध में कोई विपरीत बन्धनकारी व्यवस्था न हो। अत: इस प्रकार के विधि-स्रोतों के विषय में न्यायाधीशों द्वारा अपने स्वविवेक का प्रयोग किया जा सकता है। विधि के अन्य स्रोत

विधि के उपर्युक्त स्रोतों के अलावा अन्य विधिशास्त्रियों ने भी अपनी-अपनी धारणा के अनुसार विधि के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख किया है। विधिशास्त्र की ऐतिहासिक शाखा के समर्थकों ने विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ियों तथा प्रथाओं को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है क्योंकि उनके अनुसार विभिन्न विधियों की उत्पत्ति प्रथाओं से हुई है।

विधि के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि की उत्पत्ति राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक तत्वों के परिणामस्वरूप हुई। अतः वे इन विभिन्न तत्वों को ही विधि के प्रमुख स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त दार्शनिक विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि का प्रमुख स्रोत मानव की तर्क-बुद्धि है। परन्तु वर्तमान विधि के सन्दर्भ में इन धारणाओं को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे संकीर्ण दृष्टिकोण पर आधारित हैं। | विधि के स्रोत सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों में सामण्ड के विचार सबसे अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। उल्लेखनीय है कि सामण्ड की ‘ज्यूरिसपूडेन्स’ के ग्यारहवें संस्करण के सम्पादक ग्लेनवाइल विलियम्स (Glanville Williams) ने सामण्ड द्वारा दिये गये विधि-स्रोत के वर्गीकरण में से ‘औपचारिक स्रोत’ (formal source) को हटा दिया है क्योंकि उनके विचार से ‘औपचारिक’ (formal) शब्द अपने-आप में कोई विशेष अर्थ नहीं रखता इसलिए यह निरर्थक प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त सामण्ड ने ‘औपचारिक स्रोत’ का प्रयोग राज्य की प्रभुताशक्ति के संदर्भ में किया है। परन्तु प्रश्न यह है कि यदि राज्य की शक्ति को ही विधि के स्रोत के रूप में मान्य कर लिया जाए, तो यह शक्ति व्यवस्थापिका या कार्यपालिका की बजाय न्यायालय के माध्यम से ही क्यों अभिव्यक्त होनी चाहिये? इन्हीं कठिनाइयों के कारण ग्लेनवाइल विलियम्स ने औपचारिक स्रोत को विधि के स्रोत के रूप में अस्वीकार करते हुए इसे सामण्ड के वर्गीकरण से हटा दिया अन्तिम विधिक मानक (Ultimate Legal Norms) । केल्सन का कथन है कि विधि के प्रत्येक नियम का ऐतिहासिक स्रोत अवश्य होता है। वह क्या है, इसके विषय में जानकारी भले ही न हो। प्रत्येक विधिक पद्धति मूल सिद्धान्तों (ultimate norms) पर आधारित होती है। ये मूल सिद्धान्त स्व-निर्मित होते हैं और इन सिद्धान्तों के पूर्व कोई ऐसी विधि अस्तित्व में अवश्य रहती है जो इन्हें प्रतिस्थापित करके प्राधिकार दिलाती है। इस तर्क की पुष्टि में केल्सन एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह नियम कि कोई भी व्यक्ति फुटपाथ पर साइकिल नहीं चलायेगा, नगरपालिका की उपविधियों पर आधारित है। परन्तु यह नियम कि नगरपालिका की उपविधियाँ विधि की शक्ति रखती हैं, संसद् के अधिनियम से उत्पन्न होता है। प्रश्न उठता है कि यह नियम कि संसद् का अधिनियम विधि की शक्ति रखता है, कहाँ से आता है? निस्संदेह ही इसका कोई स्रोत नहीं है तथा मूल रूप में यह नियम मौलिक तथा अन्तिम है।12 इसके उद्गम की जानकारी संविधान के निर्माताओं को होती है और विधिशास्त्री इसे स्वयं निर्मित विधि के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार यह नियम कि न्यायिक पुर्व-निर्णय विधि की शक्ति रखते हैं, एक ऐसा स्व-निर्मित नियम है जो किसी कानून में अभिव्यक्त नहीं है। कानून के इस नियम को पूर्वोक्तियों से मान्यता मिली है किन्तु पूर्वोक्तियों से इसकी सृष्टि नहीं हुई है क्योंकि एक पूर्वोक्ति दूसरे पूर्व

11. ग्लेनवाइल विलिएम्स द्वारा सम्पादित सामण्ड का ज्यूरिसपूडेन्स (ग्यारहवां संस्करण, तृतीय मुद्रण, 1968) 12. केल्सन ने विधि के ऐसे नियम को, जो विधिक-स्रोत की स्थापना करते हैं; ‘ग्रन्ड नार्म’ (Grund norm) या मूल

प्रकल्पना (initial hypothesis) कहा है। देखें जोन्स जे० डब्ल्यू : हिस्टॉरिकल इन्ट्रोडक्शन टु दि थ्योरी ऑफ लॉ (1940), अध्याय 9.

निर्णय को प्राधिकार प्रदान नहीं कर सकती है।13 यही कारण है कि केल्सन ने मानकों (norms) को विधि के उद्गम-स्रोत के रूप में स्वीकार किया है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से प्रत्येक कानून का उद्गम मूल-मानक (Grund norm) में माना है।

विधि के प्रमुख स्रोतों के रूप में रूढ़ियों, पूर्व-निर्णयों तथा विधायन आदि की विस्तृत विवेचना आगामी अध्यायों में पृथक्-पृथक् की गयी है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में अधिकांश विधि-प्रणालियों की विधियों का प्रमुख स्रोत विधायन ही है। अमेरिका की न्याय-व्यवस्था में न्यायालयों द्वारा विनिश्चित न्यायिक पूर्व-निर्णयों को भी विधि के स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। परन्तु भारतीय न्याय-व्यवस्था में पूर्व-निर्णयों को विधि-स्रोत के रूप में प्रत्यक्षतः स्वीकार नहीं किया गया है यद्यपि परोक्षतः विधि निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

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