LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 15 Notes
LLB 1st Year / 1st Semester Jurisprudence & Legal Theory Chapter No 15 Legal Sanctions Very Most Important Notes and Study Material in Hindi English Gujarati Marathi PDF Download Paper, LLb Bachelor of Law Previous Year Question paper With Answer Available on this Website.
अध्याय 15 (Chapter 15)
विधिक शास्तियाँ (Legal Sanctions)
LLB Notes Study Material
विधि के अनुपालन के लिए शास्ति (Sanctions) का होना परम आवश्यक है। विधिशास्त्र में शास्ति का विशिष्ट अर्थ है-शास्ति एक प्रकार का दण्ड है जो विधि की अवहेलना या अवज्ञा करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, शास्ति एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति को विधि का अनुपालन करने के लिए बाध्य किया जाता है। शास्तियाँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं। जैसे-धार्मिक, विधिक या नैतिक आदि। दैवी प्रकोप का भय शक्तियों को धार्मिक नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है; अत: यह धार्मिक शास्ति है। ज़ो शास्तियाँ राज्य की विधि द्वारा अधिरोपित होती हैं उन्हें विधिक शास्ति कहते हैं। नैतिकता पर आधारित शास्ति नैतिक शास्ति कहलाती है। विधि के अध्ययन की दृष्टि से यहाँ केवल विधिक शास्तियों पर विचार करना ही उपयुक्त होगा।
शास्ति को अंग्रेजी भाषा में सैंक्शन्स’ कहते हैं जो रोमन शब्द ‘सैंक्शियो’ (sanctio) से लिया गया है। रोमन विधि के अन्तर्गत सँक्शियो’ संविधियों का वह भाग था जो दण्ड-निर्धारण से सम्बन्धित था। कालान्तर में ‘सैंक्शियों’ शब्द को दण्ड’ के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।
विधिक शास्ति का अर्थ
राज्य द्वारा कानूनों का निर्माण इस प्रयोजन से किया जाता है कि नागरिक उन कानूनों का अनुपालन करें। राज्य द्वारा निर्मित विधि के पीछे शासन की ऐसी शक्ति निहित रहती है जो विधि की अवज्ञा करने वाले व्यक्ति को दण्डित कर सकती है। अत: ऑस्टिन ने ठीक ही कहा है कि विधिक शास्ति (legal sanctions) से तात्पर्य उन यातनाओं से है जो विधि की अवज्ञा करने पर राज्य द्वारा दी जाती है। ऑस्टिन के अनुसार राज्य की विधि’ प्रभुताधारी का ऐसा समादेश है जिसके पीछे दण्ड की शास्ति का भय निहित होता है और जो व्यक्तियों को विधि का अनुपालन करने के लिए बाध्य करता है।
सामण्ड ने विधिक शास्ति को परिभाषित करते हुए कहा है कि प्रपीड़न का ऐसा साधन जिसके माध्यम से आदेशात्मक विधि को लागू किया जाये, ‘शास्ति’ कहलाती है।” उनके विचार से शास्ति से आशय केवल यह नहीं है कि विधि का उल्लंघन करने वाले को दण्डित किया जाये बल्कि इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा विधि का उल्लंघन किये जाने के परिणामस्वरूप जिस व्यक्ति को क्षति पहुँची हो, उसकी क्षतिपूर्ति भी की जाये। उदाहरणार्थ, चोरी के मामले में उचित शास्ति यह है कि चोरी करने वाले व्यक्ति को दण्डित करने के साथ-साथ जिस वस्तु की चोरी की गई है, वह वस्तु उसके स्वामी को वापस लौटाई जाने के लिए बाध्य किया जाए। सामण्ड शास्ति को केवल राज्य की विधियों तक ही सीमित नहीं रखते वरन वे इसे नैतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि से भी सम्बद्ध करते हैं। उनका कथन है कि समाज के सुस्पष्ट नैतिक नियमों के पीछे सामाजिक अपकीर्ति, उपहास, उपेक्षा आदि की शास्ति परोक्षतः छिपी रहती है। इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय विधि के पीछे युद्ध का भय, धार्मिक नियमों के पीछे दैवी प्रकोप का भय शास्ति के रूप में छिपा रहता है।
1. ‘The instrument of coercion by which instrument of coercion by which any system of imperative law is enforced is called a sanction.–Salmond : p. 24.
मध्ययुग के अनेक विधिशास्त्रियों ने शास्ति में दण्ड के अतिरिक्त पारितोषिक (reward), लाभ (profit), सुख आदि तत्वों का समावेश भी किया है। इसमें हॉब्स (Hobbes), लॉक (Locke) तथा बेन्थम (Bentham) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। परन्तु ऑस्टिन का स्पष्ट मत है कि पुरस्कार, आदि की धारणा को शास्ति में समाविष्ट नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार शास्ति में केवल दण्ड तथा प्रताड़ना का ही समावेश है। ब्लैकस्टोन ने भी ऑस्टिन के इस विचार का समर्थन किया है।
शास्ति और दण्ड में भेद
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विधियों को लागू करने के लिए राज्य जिस भौतिक बल का प्रयोग करता है उसे ‘शास्ति’ कहते हैं। अत: शास्ति मूल (genus) है तथा दण्ड इसका एक प्रकार मात्र (species) है। शास्ति के अन्तर्गत दण्ड, हानिपूर्ति (reparation), प्रत्यास्थापन (restitution) आदि सभी सम्मिलित हैं जो विधि के अनुपालन के लिए शक्ति प्रदान करते हैं। दण्ड तो शास्ति का केवल एक प्रकार मात्र है जो शारीरिक यातना से सम्बन्धित है।
प्राचीन भारतीय विधि की शास्तियाँ
प्राचीन भारतीय विधि के अनुसार मानव के समस्त संव्यवहारों के औचित्य को धर्म के आधार पर आँका जाता था। धर्म की प्रधानता के कारण अधिकांश विधियाँ धर्म के नियमों में सन्निहित थीं; अत: धर्म और विधि में कोई भेद नहीं था। तत्कालीन न्यायशास्त्रियों ने धर्म या विधि के तीन प्रकार बताये थे जिन्हें—(1) ईश्वरीय धर्म, (2) मानव-धर्म और (3) व्यवहार-धर्म कहा गया था।4
ईश्वरीय-धर्म त्याग की भावना से अभिप्रेत था तथा इसके पीछे दैवी प्रकोप या ईश्वरीय अवकृपा की शास्ति सन्निहित थी। मानव-धर्म के अन्तर्गत नैतिक विधि का समावेश था जिसके पीछे सामाजिक बहिष्कार, उपेक्षा या परिहास की शास्ति होती थी। व्यवहार-धर्म अधिकांशतः व्यवहार या दीवानी विधि से। सम्बन्धित था जिसके लिए राज्य के न्यायालयों द्वारा दिया जाने वाला मृत्युदण्ड, कारावास या क्षतिपूर्ति
आदि पर्याप्त शास्ति थे। उल्लेखनीय है कि भारत की प्राचीन विधि में दण्ड के अतिरिक्त पुरस्कार तथा लाभ (reward) को भी अनुशास्ति के रूप में मान्य किया गया था। अतः धर्म के आध्यात्मिक एवं नैतिक शास्ति को भी शास्ति के रूप में उसी प्रकार मान्यता दी गई थी जिस प्रकार कि सामाजिक उपेक्षा, परिहास आदि को।
मनु ने दण्ड या शास्ति को विधि का आवश्यक तत्व माना है। यह अधिकार-शक्ति पूर्णत: राजन् । (शासक) में निहित थी इसीलिए मनु ने शासक को ‘दण्ड चक्रधारी’ कहा है। अपराधी और दोषी व्यक्तियों को दंडित करना शासक का राजधर्म था। अत: उसे यह कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना अनिवार्य था। इसका उल्लेख मनुस्मृति के सातवें अध्याय में मिलता है। मनु के अनुसार दण्ड की शास्ति लोगों को नियंत्रण में रखती है। और उन्हें सरक्षा प्रदान करती है। उन्होंने दण्ड को धर्म का ही एक रूप मानते हुए कहा कि जब लोग सोते हैं, दण्ड जागता रहता है।
विधिक शास्ति के विभिन्न प्रकार
विधिक शास्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-(1) दीवानी तथा (2) आपराधिक। दीवानी तथा आपराधिक शास्तियों के अनेक भेद हैं। हिबर्ट (Prof. Hibbert) ने विधिक शास्तियों के विभिन्न प्रकार बताए हैं जिनका वर्गीकरण निम्नानुसार है-
2 ऑस्टिन : ‘प्रॉविन्स ऑफ लॉ डिटरमिण्ड’ (1954 संस्करण), पृ० 15.
3. जैसे मृत्युदण्ड, सश्रम कारावास, बन्दीवास आदि.
4. मनुस्मृति अध्याय-7 श्लोक 12.
5. दंड: शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षत: । सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मबिदुर्बुधाः॥ श्लोक 1811.
विधिक शास्तियाँ
(Legal Sanctions)
दीवानी (civil)
371427f4ch (criminal)
अतिपति अकृतता वाद-खर्च सम्पत्ति की वापसी विनिर्दिष्ट अनुपालन व्यादेश (damages) (nullity) (costs) (restitution of (specific : (injunction)
(property). restitution)
परिनिर्धारित क्षति (liquidated damages)
अपरिनिर्धारित क्षति (unliquidated damages)
निषेधात्मक (prohibitory)
आदेशात्मक (mandatory)
नाममात्र (nominal)
साधारण (general)
विशिष्ट (special)
प्रतिशोधात्मक (vindictive)
मृत्युदण्ड निष्कासन कारावास शारीरिक दण्ड अर्थदण्ड नागरिक अधिकारों सम्पत्ति की जब्ती (capital (deportation) (Imprisonment) (corporal (fine) से वंचित करना (forfeiture) punish
punishment) (deprivation of mentcivil right)
फ्रेड्रिक पोलक (Federick Pollock) ने भी विधिक शास्तियों के अनेक प्रकार बताये हैं जिनमें । निरनुमोदन (reprobation), चेतावनी (admonition) तथा लोक-कर्त्तव्य में विलम्ब के लिए दण्ड आदि । प्रमुख हैं।6
विधि के तत्व के रूप में शास्ति की अनिवार्यता
विधि के एक आवश्यक तत्व के रूप में शास्ति की अनिवार्यता के बारे में विधिशास्त्रियों में मतभेद है। ऑस्टिन, सामण्ड, पोलक, इहरिंग, हॉब्स आदि विधि में शास्ति का होना आवश्यक मानते हैं। पोलक के कथनानुसार विधि में शास्ति का होना अपरिहार्य है। इहरिंग ने विधि में शास्ति की आवश्यकता के विषय में कहा है कि ‘शास्ति के बिना विधि न जलने वाली आग अथवा न चमकने वाली ज्योति के समान है।’ शास्ति के बिना विधि का प्रवर्तन कठिन है। हॉब्स के अनुसार शास्ति विधि को शक्ति प्रदान करने वाला प्रधान तत्व है।
ऑस्टिन द्वारा प्रतिपादित विधि के आदेशात्मक सिद्धान्त (Imperative theory of law) के अनुसार विधि प्रभुताधारी के ऐसे समादेश होते हैं जिनकी शास्ति के मूल में राज्य की शक्ति छिपा रहता है प्रभुताधारी की आज्ञा या इच्छा-मात्र विधि नहीं मानी जा सकती है जब तक कि उसके पीछे किसी न किसा
6 पोलक फेड्रिक : फर्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिस्पूडेंस, पृ० 25.
प्रकार की यातना, प्रपीड़न, या हानि का भय न हो। विधि का उल्लंघन किये जाने पर दण्ड या हानि के भय की आशंका लोगों को विधि का अनुपालन करने के लिए विवश किये रहती है।
लॉक (Locke), बेन्थम (Bentham) तथा डॉ० पेले (Dr. Paley) ने शास्ति को केवल दण्ड तक ही सीमित न रखते हुए कहा है कि पारितोषिक (reward) भी शास्ति का एक रूप हो सकता है क्योंकि यह कहना सही नहीं है कि केवल दण्ड या यातना के भय से ही मनुष्य विधि का पालन करता है। विधि के अनुपालन के अच्छे परिणामों से आशान्वित होकर भी मनुष्य विधि का पालन करने की ओर प्रवृत्त हो सकता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति का यह निर्णय कि उसे अमुक विधि का पालन करना चाहिये, केवल इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वैसा न करने से उसे दण्डित किया जायेगा, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि वैसा करने से उसे अच्छे परिणामों (पारितोषिक) की सम्भावना रहती है। बेन्थम ने भी ‘दण्ड तथा ‘पारितोषिक’, दोनों को ही शाास्ति के रूप में स्वीकार किया है तथापि वे पारितोषिक को उतना प्रभावकारी नहीं मानते जितना कि दण्ड या प्रपीडन को। उनके विचार में पारितोषिक का प्रभाव क्षणिक होता है जबकि दण्ड या कष्ट का प्रभाव दीर्घकालीन होता है।
जैसा कि कथन किया जा चुका है, ऑस्टिन पारितोषिक को शास्ति के रूप में स्वीकार नहीं करते क्योंकि इससे विधि का आदेशात्मक तत्व समाप्तप्राय हो जाता है। लोगों द्वारा राज्य के आदेशों का पालन इसलिए किया जाता है क्योंकि इसके पीछे बुरे परिणाम या दण्ड का भय सन्निहित रहता है। यदि केवल पारितोषिक की आशा से लोग विधि का पालन करने लगे तो विधि का आदेशात्मक रूप तत्काल समाप्त हो जायेगा।
कुछ विद्वानों का मत है कि शास्ति विधि का आवश्यक तत्व नहीं है। इसमें विनोग्रेडाफ, मिलर, ब्राइस, होम्स तथा ड्युगिट आदि प्रमुख हैं। विनोग्रेडाफ का कहना है कि यह ठीक है कि विधि शास्ति के साथ लागू होती है, परन्तु इसका आशय यह कदापि नहीं है कि शास्ति को विधि का एक आवश्यक तत्व माना जाये। उनके अनुसार विधि की मान्यता सार्वजनिक समर्थन पर निर्भर रहती है। यदि किसी विधि को सार्वजनिक समर्थन प्राप्त न हो, तो उसमें शास्ति होने पर भी वह अधिक प्रभावकारी नहीं हो सकेगी और लोग उसका उल्लंघन करने से नहीं डरेंगे।
मिलर (Miller) के अनुसार लोग विधि का पालन स्वेच्छा से करते हैं क्योंकि विधि का पालन करने से उनके मार्ग की बाधायें कम हो जाती हैं। अत: यह कहना ठीक नहीं है कि केवल शास्ति के कारण ही लोग विधि का अनुपालन करते हैं।
ब्राइस के विचार से लोग विधि का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि वे विधि को सद्भाव और तर्क पर आधारित मानते हुए उसे आदर की दृष्टि से देखते हैं। इस तर्क की पुष्टि में वे अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उदाहरण देते हैं जिसमें किसी प्रकार की शास्ति न होने पर भी सभी राष्ट्र उसका अनुपालन करते हैं। हॉब्स के अनुसार विधिक शास्तियों का स्वरूप मनोवैज्ञानिक होता है भयावह नहीं, अर्थात् शास्तियों के स्वरूप और गम्भीरता का निर्धारण जनता के मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण तथा अपराध के प्रति उनकी घृणा के आधार पर किया। जाता है।
शास्ति और नैतिक आचार में परस्पर सम्बन्ध
ब्राइस और हॉब्स के शास्ति सम्बन्धी विचारों का मूल आधार विधि और नैतिक आधारों के बीच परस्पर सम्बद्धता है। ‘शास्ति’ के रूप में नैतिक आचार बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नैतिक आचार एक ओर विधायिनी पर उचित अंकुश रखते हैं तथा दूसरी ओर मानव आचरण को भी परोक्षतः अंकुशित करते हैं। केवल विधिक शास्ति ही कानूनों के अनुपालन को सुनिश्चिंत नहीं करती, अपितु नैतिक आचार भी उनमें सहायक होते हैं। इस प्रकार नैतिक आचार विधिक शास्ति को पूर्णता प्रदान करने में सहायक होते हैं। इसका एक उदाहरण देते हुए पैटन ने कहा है कि विवाह-सम्बन्ध में जब तक पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम कायम
7. जॉन ऑस्टिन : लेक्चर्स ऑन ज्यूरिस्थूडेंस (ग्रन्थ 1) पाँचवाँ संस्करण पृ० 91.
रहता है, उनके सम्बन्धों को अनुशासित करने के लिए विधि की आवश्यकता नहीं होती; लेकिन जैसे ही प्रेम समाप्त हो जाता है वैसे ही विधि की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है।
विधि में शास्ति की आवश्यकता के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए पैटन (Paton) ने आगे कहा है कि शास्ति के बिना वैधानिक व्यवस्था की कल्पना करना व्यर्थ है। वर्तमान में सभी देशों की विधि के साथ शास्ति जुड़ी हुई है। विभिन्न प्रकार के शारीरिक तथा आर्थिक दण्ड शास्ति के ही द्योतक हैं; यह बात अलग है। कि किसी देश में शास्ति अधिक कठोर होती है और किसी देश में अपेक्षाकृत कम। वर्तमान समय में सुधारात्मक दण्ड प्रणाली को विशेष महत्व दिये जाने के कारण शास्ति को यथासम्भव कम कठोर बनाने की प्रवृत्ति देखी जा रही है परन्तु इसे पूर्णत: समाप्त करना संभव नहीं है।8
एच० एल० ए० हार्ट ने विधि पर नैतिक आचारों के प्रभाव के विषय में लिखा है कि वर्तमान में अनेक राष्टों की विधियाँ वहाँ के नैतिक आदर्शों को प्रदर्शित करती हैं। निश्चयात्मक विधि (Positive law) के समर्थकों ने यह स्वीकार किया है कि विधि-प्रणालियों की स्थिरता बहुत-कुछ वहाँ के नैतिक आचारों पर। निर्भर करती है।
विधिक शास्ति के संदर्भ में वर्तमान जापान की विधि का उल्लेख करना उचित होगा। सन् 1853 तक जापान का संपर्क पश्चिमी जगत से न होने के कारण वहाँ की विधि मूलत: चीन की विधि पर आधारित थी। जापानी विधि के अन्तर्गत कुछ ऐसे नियमों की श्रृंखला शनैः-शनै: विकसित हुई जिसके अनुसार व्यक्ति को अपने आचरण एवं संव्यवहार स्वयं विनियंत्रित करने होते हैं। ये नियम नैतिकता की बजाय औचित्य के अधिक निकट हैं। लोग इन नियमों का अनुपालन शास्ति के भय या नैतिकता के उल्लंघन के भय के कारण नहीं करते वरन् सामाजिक धिक्कार (social reprobation) के भय के कारण करते हैं। यदि कोई जापानी इन नियमों, जिन्हें गिरि (Giri) कहते हैं, की अवज्ञा करता है तो यह उसके लिए अत्यन्त लज्जास्पद माना जाता है। अत: जापानी विधि के अन्तर्गत आत्मसंयम, स्वनियंत्रण तथा सामाजिक धिक्कार की शास्ति ही सबसे । प्रभावी शास्ति है जो लोगों को विधि का अनुसरण करने के लिए बाध्य करती है।
संक्षेप में यह कहना पर्याप्त होगा कि नि:संदेह ही शास्ति विधि के लिए एक आवश्यक तत्व है। शास्ति के अभाव में विधि की प्रभावकारी शक्ति क्षीण हो जायेगी तथा लोग उसकी अवज्ञा करने में नहीं हिचकिचायेंगे। यही कारण है कि उचित शास्ति के अभाव में वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक दुर्बल एवं निष्प्रभावी विधि बन कर रह गई है। तथापि मनुष्य स्वभावतः ही विधि-अनुपालक होने के कारण अधिकांश व्यक्ति विधि का अनुपालन बिना किसी शास्ति के ही करते हैं। अतः शास्ति की आवश्यकता केवल ऐसे कुछ व्यक्तियों के लिए ही होती है जो विधि की परवाह किये बिना स्वच्छन्द दुराचरण करना पसन्द करते हैं। यही कारण है कि वर्तमान में अनेक विधिवेत्ता यह अनुभव करने लगे हैं कि इस युग में शास्तिविहीन समाज की कल्पना करना असम्भव नहीं है।
8. पैटन : ए टेक्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिस्पूडेन्स (तृतीय संस्करण), पृ० 92. 9. हार्ट एच० एल० ए० : दि कॉन्सेप्ट ऑफ लॉ (1970), पृ० 199.
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