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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Part 2 Notes

 

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विधि का प्रश्न (Question of Law)

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LLB Notes Study Material

विधि के प्रश्न के तीन अर्थ होते हैं और इन तीनों अर्थों में परस्पर सम्बन्ध है-

(1) प्रथम इसका तात्पर्य उस प्रश्न से होता है जिसका विधि के नियम के अनुसार हल करने के लिए। न्यायालय बाध्य है। अत: यह प्रश्न कि हत्या के लिए युक्तियुक्त और उचित दण्ड क्या है, विधि का प्रश्न है; क्योंकि इस सम्बन्ध में विधि के उपबन्ध पूर्व-निर्धारित होने के कारण न्यायाधीश की वैयक्तिक राय के लिए। कोई गुंजाइश नहीं रहती है। विधि का यह नियम कि सात वर्ष से कम आयु के बालक की आपराधिक मन:स्थिति हो ही नहीं सकती32 (doli-incapex) विधि के प्रश्न का दूसरा उदाहरण है। अत: ऐसे प्रकरण में जहाँ अभियुक्त की आयु सात वर्ष से कम है, न्यायालय को अपने स्वविवेक या तर्क का उपयोग करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं है और अभियुक्त को निर्दोष घोषित करना ही होगा।

(2) दूसरे अर्थ में विधि के प्रश्न से आशय यह है कि विषय-विशेष के बारे में विधि के क्या उपबन्ध हैं। ऐसा प्रश्न तब उठता है जब किसी मामले के सम्बन्ध में विधि के नियम स्पष्ट न हों और उनके स्पष्टीकरण की आवश्यकता हो। इस अर्थ में विधि विषयक प्रश्न विधि के अस्तित्व से नहीं निकलते अपितु विधि की अनिश्चितता और संदिग्धता के कारण उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई कानुनी उपबन्ध संदिग्ध होने के कारण उसके निश्चित अर्थ के बारे में जो प्रश्न न्यायालय में उठाया जाता है, वह विधि का प्रश्न होता है। ऐसे उपबन्ध का न्यायालय जो अर्थ विनिश्चित करते हैं वह अधिकृत अर्थ होता है और अन्य समान वादों। के लिए वह न्यायिक-पूर्व निर्णय (judicial precedent) बन जाता है। महेन्द्र नाथ पाठक बनाम आसाम राज्य और अन्य33, वाले मामले में यह प्रश्न सामने आया कि क्या रेत को आसाम फारेस्ट रेग्यूलेशन की धारा 3 (4) में परिभाषित ‘वन उपज’ के अन्तर्गत वन-उपज कहा जा सकता है? यह प्रश्न विधि का प्रश्न है।

(3) इंग्लिश न्याय प्रणाली का विशेष लक्षण यह है कि न्यायिक कृत्यों का विभाजन न्यायाधीश और जूरी (Jury) के बीच किया गया है। सामान्य नियम यह है कि जो प्रश्न न्यायाधीश द्वारा विनिश्चित किये जाते हैं, वे विधि के प्रश्न होते हैं। किसी आपराधिक मामले में यह प्रश्न कि क्या जूरी के समक्ष प्रस्तुत किये जाने

32. धारा 82, भारतीय दण्ड संहिता.

33. ए० आई० आर० 1970 असम 32.

के लिए कोई साक्ष्य है, विधि का प्रश्न है। सारांश यह कि विधि-सम्बन्धी प्रश्न न्यायाधीशों द्वारा निर्णीत किये जाते हैं जबकि तथ्य-सम्बन्धी प्रश्नों पर जूरी की राय ली जाती थी।

इस तीसरे सामान्य सिद्धान्त की विवेचना करते हुए सामण्ड ने कहा है कि यद्यपि विधि के प्रश्न न्यायाधीशों द्वारा ही निर्णीत किये जाने चाहिये तथा किसी भी स्थिति में इन पर जूरी विचार नहीं कर सकती है। परन्तु ऐसे अनेक तथ्य सम्बन्धी प्रश्न हैं जिनका निर्धारण जूरी की बजाय न्यायाधीश द्वारा ही किया जाता है। उदाहरणार्थ, दस्तावेजों का निर्वचन (Interpretation of documents) पूर्णतया तथ्य का प्रश्न होते हुए भी न्यायाधीश की अधिकारिता के अन्तर्गत है। इसी प्रकार द्वेषपूर्ण अभियोजन (malicious prosecution) के वाद में यह अभिनिर्धारित करना कि अभियोजन का कारण उचित है अथवा नहीं, तथ्य सम्बन्धी प्रश्न है, परन्तु फिर भी वह न्यायाधीश द्वारा ही विनिश्चित किया जाता है।

तथ्य का प्रश्न (Question of Fact)

सामान्यतया ‘तथ्य के प्रश्न’ के अन्तर्गत वे सभी प्रश्न आते हैं जो विधि के प्रश्न नहीं हैं। तथ्य सम्बन्धी प्रश्न का प्रयोग तीन अर्थों में किया जाता है

(1) कोई भी प्रश्न जिसका पूर्व-निर्धारण विधि के नियम द्वारा नहीं किया जाता, तथ्य का प्रश्न होता है। उदाहरण के लिए यह प्रश्न कि क्या शल्य-चिकित्सक (Surgeon) रोगी का आपरेशन करते समय उपेक्षा (negligence) के लिए दोषी है, तथ्य का प्रश्न है क्योंकि इसका निर्धारण करने के लिए विधि का कोई नियम नहीं है।

(2) विधि क्या है? से सम्बन्धित प्रश्न के अतिरिक्त कोई भी प्रश्न तथ्य सम्बन्धी प्रश्न होता है। तथ्यों। का विनिश्चय न्यायालय में प्रस्तुत साक्ष्य के मूल्यांकन के आधार पर किया जाता है। उदाहरणार्थ, विचारणाधीन अभियुक्त को किसी अपराध के लिए दोषी सिद्ध करना तथ्य का प्रश्न है, परन्तु उसे क्या दण्ड दिया जाये यह विधि का प्रश्न होगा।  

(3) जिन प्रश्नों का उत्तर जूरी द्वारा दिया जाता है वे तथ्य के प्रश्न होते हैं। किसी दस्तावेज को विशिष्ट मामले में लागू करने का प्रश्न तथ्य-विषयक प्रश्न है क्योंकि इसका विनिश्चय जूरी द्वारा किया जाता है। विधि और तथ्य के मिश्रित प्रश्न (Mixed Question of Law and Fact)

न्यायालय के समक्ष कभी-कभी ऐसे प्रश्न आते हैं जो आंशिक रूप के विधि के तथा आंशिक रूप से तथ्य सम्बन्धी प्रश्न होते हैं। कुछ दशाओं में प्रश्न मिश्रित भी हो सकता है। उदाहरण के लिए भागीदारी (Partnership) से सम्बन्धित प्रश्न विधि तथा तथ्य का मिश्रित प्रश्न हो सकता है। यह प्रश्न कि भागीदारों के बीच में क्या करार हुआ है, तथ्य का प्रश्न है जबकि भागीदारों के बीच हुआ करार भागीदारों के विधिक सम्बन्ध की रचना के लिए पर्याप्त है अथवा नहीं, यह विधि का प्रश्न है। इसके अतिरिक्त अनेक मामले ऐसे होते हैं जिनके बारे में निश्चित विधिक नियमों के होते हुए भी न्यायिक विवेक की गुंजाइश रहती है। ऐसे मामलों में न्यायालय द्वारा जो प्रश्न निर्धारित किये जाते हैं, वे विधि तथा तथ्य दोनों के प्रश्न होते हैं। उदाहरण के लिए किसी अपराध में उचित दण्ड देने का प्रश्न इसी प्रकार का मिश्रित प्रश्न है। दण्ड की अधिकतम सीमा दण्ड विधि में निर्धारित रहती है और उस सीमा के अन्दर दण्ड आरोपित करने का प्रश्न न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है, अतः यह विधि और तथ्य, दोनों का मिश्रित प्रश्न माना जाएगा।

सामण्ड ने विधि के प्रश्न, तथ्य के प्रश्न तथा न्यायिक विवेक के प्रश्न को एक ही उदाहरण द्वारा समझाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार चोरी के अभियोग में न्यायालय के सामने पेश किये गये अभियुक्त के मामले में यह प्रश्न कि क्या उसके द्वारा किया गया अभिकथित कृत्य दण्डनीय अपराध है, विधि का प्रश्न है।। इस प्रश्न का निर्धारण विधिक नियमों द्वारा किया जाता है। दूसरा प्रश्न कि क्या उसके विरुद्ध अभिकथित । अपराध उसने वास्तव में किया है, तथ्य का प्रश्न है जिसका विनिश्चय साक्ष्य के आधार पर किया जाता है। तीसरा प्रश्न कि उस अपराध के लिए उसे कौन-सा उचित और न्यायसंगत दण्ड दिया जाए, न्यायिक विवेक का प्रश्न है जिसे न्यायालय अपने नैतिक विवेक के अनुसार विनिश्चित कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने रमेश बी० देसाई बनाम बिपिन बड़ीलाल मेहता34 के बाद में विनिश्चत किया कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 के अन्तर्गत परिसीमा का अभिवाक् (Plea of Limitation under Section 3 of the Limitation Act, 1963) विधि एवं तथ्य का मिश्रित प्रश्न (mixed question of law and fact) है क्योंकि इसे सीमावधि, जो एक तथ्य का प्रश्न है, पर विचार किये बिना निर्णीत नहीं किया जा सकता है।

ज्ञातव्य है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 14, नियम 2 के अन्तर्गत न्यायालय को यह अधिकारिता प्राप्त नहीं है कि वह विधि एवं तथ्य के मिश्रित प्रश्न को प्रारंभिक विवाद्यक (Preliminary Issue) के रूप में सुनवाई हेतु स्वीकार करे।

तथ्य सम्बन्धी प्रश्नों का विधि के प्रश्नों में रूपान्तरण (Transformation of question of fact into question of law) 

ऐसे अनेक मामले होते हैं जिनमें अन्तर्निहित तथ्य सम्बन्धी प्रश्न न्यायिक निर्णय के कारण विधि के प्रश्न में रूपान्तरित हो जाता है। इस प्रकार के निर्णय भविष्य में न्यायाधीश के लिए विधि के रूप में बन्धनकारी हो जाते हैं, अर्थात् वे तत्सम वादों में उस निर्णय में अभिनिर्धारित विधि का अनुसरण करते हैं। उदाहरण के लिए, सन् 1974 में भारत के राष्ट्रपति के चुनाव के सम्बन्ध में यह विवादास्पद प्रश्न उपस्थित हुआ था कि क्या देश के एक या एक से अधिक राज्यों के विधान-मण्डल भंग होने की दशा में राष्ट्रपति का चुनाव यथावत् कराया जा सकता है या उसे उस समय तक स्थगित रखा जाना चाहिए जब तक कि देश के सभी राज्यों के विधान-मण्डल कार्य न कर रहे हों। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित विधि नहीं थी। अत: यह तथ्य का प्रश्न था कि राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अन्तर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय के परामर्श के लिए भेजा था। उच्चतम न्यायालय ने स्वीकारात्मक परामर्श देते हुए कहा कि देश के एक या एक से अधिक राज्यों के विधान-मण्डल भंग होने पर भी राष्ट्रपति का चुनाव कराया जा सकता है; अतः अब यह तथ्य सम्बन्धी प्रश्न विधि का प्रश्न बन गया है क्योंकि यदि इस प्रकार का मामला भविष्य में पुन: कभी आयेगा तो उस समय उच्चतम न्यायालय का अभिमत विधि के रूप में मान्य होगा।

विधि की अनभिज्ञता क्षम्य नहीं होती, तथ्यों की अनभिज्ञता क्षम्य हो सकती है (Ignorantia juris non excusat, ignoratia facit excusat)

उपरोक्त लेटिन सूत्र के अनुसार विधिशास्त्र का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि विधि की अनभिज्ञता क्षम्य नहीं होती, लेकिन तथ्यों संबंधी अनभिज्ञता क्षम्य हो सकती है। इसका अर्थ है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा विधि के उल्लंघन का कोई कार्य किया गया हो तो वह अपने बचाव में यह तर्क प्रस्तुत नहीं करता कि उसे यह ज्ञात नहीं था उसका कृत्य विधि-विरुद्ध है, अर्थात् उसका कृत्य विधि का उल्लंघन माना जायेगा और वह दंडित होने से बच नहीं सकेगा। तात्पर्य यह है कि जैसे ही कोई कानून पारित हो जाता है, विधि में यह मान लिया जाता है कि लोगों को उसकी जानकारी है और ऐसे कानून के बारे में अनभिज्ञता किसी व्यक्ति को दायित्व से उन्मक्ति नहीं दिला सकती 36 परन्तु किसी कार्य से संबंधित तथ्यों के बारे में अनभिज्ञता कतिपय मामलों में व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से उन्मुक्ति दिला सकती है। परन्तु यदि उसके द्वारा कारित अपराध-कृत्य अभिव्यक्त रूप में (expressly) वर्जित या निषिद्ध है, तो वह वास्तविक तथ्यों के बारे में अनभिज्ञता के आधार पर आपराधिक दायित्व से नहीं बच सकेगा। उदाहरणार्थ, आर बनाम प्रिंस37 के वाद में

34. ए० आई० आर० 2006 सु० को० 3672.

35. यह प्रश्न अगस्त, 1974 में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 55 व 71 के अन्तर्गत उठाया गया था क्योंकि गुजरात की राज्य विधान सभा भग की जा चुकी थी तथा वहाँ राष्ट्रपति शासन लाग 

36. बालेश्वर नाथ बनाम आयकर आयुक्त दिल्ली, ए० आई० आर० 1959 सु० को० 149.  

37. (1875) 2 सी०सी० आर० 154.

अभियुक्त द्वारा एक ऐसी लड़की का अपहरण किया गया था जो अवयस्क आयु की थी, लेकिन उसके शारीरिक गठन और आकृति को देखते हुए अभियुक्त ने युक्तियुक्त आधार पर उसे वयस्कता-प्राप्त आयु का समझते हुए उसका अपहरण कर लिया। न्यायालय ने निर्णीत किया कि अभियुक्त की तथ्य सम्बन्धी यह अनभिज्ञता उसे आपराधिक दायित्व के उन्मुक्ति नहीं दिला सकती क्योंकि विधि के अन्तर्गत उसका कृत्य (अपहरण का कृत्य) निषिद्ध और दंडनीय था।

उपधारणा (Presumption)

विधि और तथ्य के बीच के भेद को विधिक उपधारणा38 और विधिक परिकल्पना के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

जहाँ किसी एक तथ्य के अस्तित्व को दूसरे तथ्य का पर्याप्त सबूत माना गया हो वहाँ विधिक उपधारणा होती है।39 विधिक उपधारणाओं (legal presumptions) के दो प्रकार होते हैं-(i) निश्चायक (conclusive) तथा (ii) खण्डनीय (rebuttable)।

यदि न्यायालय किसी मामले में एक तथ्य के अस्तित्व से दूसरे तथ्य के अस्तित्व का अनुमान करने के लिए आबद्ध है, तो उसे निश्चायक उपधारणा कहते हैं। ऐसे अनुमान को गलत साबित किया जा सकता है, किन्तु विधि ऐसे मामलों में प्रतिकूल साक्ष्य का निषेध करती है। उदाहरणार्थ, यह उपधारणा है कि सात वर्ष से कम आयु के शिशु में अपराध करने की क्षमता नहीं होती।40 इसी प्रकार कोई विवाहित स्त्री अपने सुहाग के दौरान जिस शिशु को जन्म देती है उस बालक का जन्म ही उसके धर्मजत्व (legitimacy) का निश्चायक सबूत माना जाता है 41

खण्डनीय उपधारणा (rebuttable presumption) तब होती है जब किसी मामले में न्यायालय के पास किसी अनुमान का समर्थन करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण वह उस अनुमान पर पहुँचता है। यदि साक्ष्य के आधार पर प्रतिकूल अनुमान स्थापित होता हो, तो न्यायालय द्वारा उपधारित अनुमान खण्डित समझा जायेगा। उदाहरणार्थ, यदि किसी व्यक्ति के बारे में सात वर्ष तक कोई सूचना न मिली हो, तो न्यायालय उसे तब तक मृत उपधारित करेगा जब तक कि उसका जीवित होना साबित न कर दिया जाए।42

खंडनीय उपधारणा के दृष्टांत के रूप में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-क एवं धारा 114-क का उल्लेख करना समीचीन होगा।

साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-क में यह उपबन्धित है कि यदि कोई विवाहित महिला अपने विवाह की तिथि से सात वर्ष की अवधि में आत्महत्या कर लेती है, तो यह उपधारणा की जाएगी कि उसके पति या ससुराल के रिश्तेदारों द्वारा उसे आत्महत्या करने के लिए दुष्प्रेरित किया गया होगा जब तक कि वे इस उपधारणा का पुख्ता सबूत के आधार पर खण्डन नहीं कर देते हैं।

इसी प्रकार साक्ष्य अधिनियम की धारा 114-क के अनुसार, किसी महिला के साथ बलात्कार के मामले में जहाँ अभियुक्त के विरुद्ध यह साबित किया गया हो कि उसने उस महिला के साथ संभोग किया था, तो न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि इसके लिए महिला की सम्मति नहीं थी और बलात्कार महिला की सम्मति के बिना किया गया था। तथापि अभियुक्त इस उपधारणा के विरुद्ध समुचित सबूत पेश करके इसका खण्डन कर सकेगा।

38. ‘विधिक उपधारणा’ को ‘presumptions juris’ कहते हैं ।

39, Halsbury’s Laws of England. Vol. 13, Section 687.

40. भा० दे० स० की धारा 82.

41. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112.

42. इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध टाल्सन का मुकदमा (1889) 23 QBD 168.

विधिक परिकल्पना (Legal Fictions)

परिकल्पना के आधार पर विधि ऐसी स्थिति की विद्यमानता (existence) में विश्वास करती है जो वास्तविकता के प्रतिकूल होती है। उदाहरणार्थ, दत्तकग्रहण (Adoption) के मामले में गोद लिया गया बालक दत्तक ग्रहण करने वाले पिता का वास्तविक पुत्र नहीं होता, परंतु विधिक परिकल्पना द्वारा उसे दत्तकगृहीता का ही पुत्र माना जाता है। इसी प्रकार हिन्दू विधि में मूर्ति (idol) को परिकल्पना के आधार पर विधिक व्यक्तित्व प्रदान किया गया है ताकि उसके सांपत्तिक अधिकारों आदि का निर्धारण जीवित व्यक्तियों की भाँति ही किया जा सके।  

विधि को मूर्त रूप देने में विधिक परिकल्पनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे फिक्शियो ज्यूरिस (fictio juris) भी कहा गया है जिसका अर्थ है कि जो बात वास्तविक रूप से अस्तित्व में नहीं है उसे विधि के अन्तर्गत अस्तित्व में माना जाना। दूसरे शब्दों में, अस्तित्व विहीन किसी तथ्य को विधि के अन्तर्गत अस्तित्व में उपधारित किया जाता है ताकि विधि के प्रयोजन को पूरा किया जा सके।43  

सर हेनरी मेन के अनुसार पुरातन समय में विधि के विकास में परिकल्पनाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, लेकिन कालांतर में विधि में संशोधन की प्रक्रिया का सूत्रपात होने पर परिकल्पनाओं का महत्व क्षीण होता गया। परन्तु फ्रेड्रिक पोलक ने हेनरी मेन की इस धारणा से असहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि परिकल्पनाओं का महत्व आज भी पूर्व जैसा ही बना हुआ है क्योंकि किसी अस्तित्व-विहीन तथ्य को अस्तित्व में माना जाना इसलिए आवश्यक समझा जाता है ताकि न्याय के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके। दृष्टांत रूप में एक निगमित निकाय को परिकल्पना के आधार पर वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त है ताकि विधि के उसके अन्तर्गत दायित्वों एवं कर्तव्यों का निर्धारण किया जा सके

परिकल्पना और उपधारणा में अन्तर (Difference between Fiction and Presumption)

परिकल्पना और उपधारणा में मुख्य अंतर यह है कि जो निश्चित रूप से अस्तित्व में न होते हुए भी उसे अस्तित्व में माना जाता है, उसे ‘परिकल्पना’ कहते हैं जबकि उपधारणा वह होती है जिसके सत्य होने के बारे में निश्चितता नहीं होती है, अर्थात् वह सत्य हो भी सकती है या नहीं भी हो सकती। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो निश्चित रूप से असत्य है या वास्तव में नहीं है लेकिन विधि उसे अन्यथा मानती है, उसे परिकल्पना’ (fiction) कहते हैं तथा जो तथ्य या स्थिति हो भी सकती है या नहीं भी, उसे ‘उपधारणा’ कहा जाता है।

विधि के विभिन्न प्रकार (Kinds of Law)

विधि की अवधारणा (concept) को भली-भाँति समझने के लिए उसके विभिन्न प्रकारों को समझना परम आवश्यक है । साधारण अर्थ में विधियाँ दो प्रकार की होती हैं-(1) सामान्य विधि, और (2) विशिष्ट विधि। सामान्य विधि देश की सामान्य विधि होती है। विशिष्ट विधि में उन नियमों के कतिपय अन्य संकलन सम्मिलित हैं जो अपनी प्रकृति, स्रोत अथवा प्रयोग की दृष्टि से विशेष और अपवादात्मक होते हैं तथा इन्हें सामान्य विधि के क्षेत्र के बाहर माना जाता है। सामान्य विधि समस्त समुदाय के प्रति लागू होती है जबकि विशिष्ट विधि का अस्तित्व स्वतन्त्र होता है और उसका प्रयोग भी सीमित होता है। उदाहरण के लिए भारतीय दण्ड संहिता, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, भारतीय कम्पनी विधि, संविदा विधि, आदि इस देश की व्यापक या सामान्य विधियाँ हैं क्योंकि वे समस्त देश में लागू हैं जब कि मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता, उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम, दिल्ली भाडा नियंत्रण अधिनियम, 1958 आदि विशिष्ट विधियाँ हैं, क्योंकि वे स्थानविशेष के लिए ही लागू होती हैं। प्रस्तुत अध्याय में विधि के सामान्य तथा विशिष्ट प्रकारों का वर्णन किया गया है।

43.आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाम नरसिंहराव, ए० आई० आर० 1997 सु० को० 412.

 सामण्ड के अनुसार विधि के प्रकार

सामण्ड ने विधि के निम्नलिखित प्रकार बताये हैं-

  1. आदेशात्मक विधि (Imperative Law)  

सामण्डे के अनुसार आदेशात्मक विधि से तात्पर्य मानवीय क्रिया-कलापों के उन नियमों से है जो

व्यक्तियों पर किसी ऐसे प्राधिकारी द्वारा लागू किये जाते हैं जिनकी आज्ञा-पालन के लिए वे बाध्य हैं। अतः आदेशात्मक विधि एक ऐसा समादेश या नियम है जो किसी उच्चतर शक्ति द्वारा प्रवर्तित किया जाता है 44 यदि किसी विधि का पालन करना या न करना मनुष्य की इच्छा पर निर्भर हो, तो उसे आदेशात्मक विधि नहीं कहा जा सकता। आदेशात्मक विधि का मल तत्व यह है कि वह प्रभूताधारी द्वारा प्रवर्तित होती है और सभी । व्यक्ति इससे आबद्ध रहते हैं।

प्रत्येक राज्य की सरकार अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सदस्यों को नियंत्रण में रखने के लिए आदेशात्मक विधियाँ बनाती है। इन उद्देश्यों में शान्ति-व्यवस्था बनाये रखना तथा सुव्यवस्थित सरकार की स्थापना करना। प्रमुख हैं। उल्लेखनीय है कि परिवार, शैक्षणिक सेवाएँ, धार्मिक संस्थान आदि के प्रबन्धकों द्वारा जारी किया। गया आदेश भी आदेशात्मक विधि का ही दूसरा रूप है। इसी प्रकार राज्यों के समूह परस्पर कार्य संचालन के लिए आदेशात्मक विधियाँ विकसित करते हैं। ये विधियाँ अन्तर्राष्ट्रीय विधि कहलाती हैं और इनके पीछे ।। अन्तर्राष्ट्रीय भत्र्सना तथा युद्ध के भय की शास्ति होती है।

अनेक विधिशास्त्रियों ने ‘सिविल’ विधि को आदेशात्मक विधि का ही एक विशिष्ट रूप माना है। ऑस्टिन इस मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि सिविल विधि राज्य द्वारा अपने नागरिकों को जारी किया गया समादेश है। हॉब्स तथा बेन्थम भी इसी विचारधारा के समर्थक हैं। राज्य की वह शक्ति जिसके माध्यम से। राज्य अपने आदेशों को लागू करता है, ‘शास्ति’ (sanction) कहलाती है। विधि की अवहेलना या अवज्ञा, करने वालों को दण्डित किया जाता है, यही विधि की शास्ति है। संक्षेप में आदेशात्मक विधि राज्य की इच्छा और उसकी शक्ति पर विशेष बल देती है।

  • भौतिक या वैज्ञानिक विधि (Physical or Scientific Law) 

सामण्ड के अनुसार भौतिक विधियाँ या विज्ञान सम्बन्धी विधियाँ प्रकृति की एकरूपता को अभिव्यक्त  करती हैं। इन विधियों के नियम प्रकृति की एकरूपता प्रकट करने वाले सिद्धान्त होते हैं। उदाहरणार्थ, गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त, चुम्बकत्व का सिद्धान्त, नक्षत्रों की गति सम्बन्धी विधियाँ, वायु के दबाव का सिद्धान्त आदि भौतिक एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों को वैज्ञानिक विधि के अन्तर्गत समाविष्ट किया जा सकता है।

  • प्राकृतिक अथवा नैतिक विधि (Natural or Moral Law).  

प्राकृतिक या नैतिक विधि से आशय उचित और अनुचित के सिद्धान्त से है। यूनानी तात्विक दार्शनिकों (Stoics) ने प्राकृतिक विधि को सामान्य मानव-जाति के मार्गदर्शन के लिए सार्वलौकिक तर्क अथवा ईश्वर द्वारा निर्धारित आचरण का नियम कहा है। यदि मानवीय कार्यों के औचित्य को न्याय की संज्ञा दी जाये तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों को प्राकृतिक विधि अथवा नैतिक या ‘सदाचार विधि’ कहा जा सकता है। न्याय (औचित्य) दो प्रकार के होते हैं-प्राकृतिक न्याय और निश्चयात्मक न्याय 45 प्राकृतिक न्याय (natural Justice) से तात्पर्य उस न्याय से है जो आदर्श और व्यवहार में एक ही प्रकार का होता है। यह प्राकृतिक विधि को व्यक्त करता है। निश्चयात्मक न्याय से आशय उस न्याय से है जो अनुभव और विचारों के आधार पर मानव द्वारा निश्चित किया जा सकता है अतः वह प्रायः अपूर्ण और अशुद्ध रूप में अभिव्यक्त होता है। सिविल अथवा अन्य मानवकृत विधियाँ निश्चयात्मक न्याय (positive justice) को अभिव्यक्त करती हैं।

44. सामंड: ज्यूरिस्यूडेंस (12वाँ संस्करण) पृ॰ 23.

45. सामण्ड : ज्यूरिस्थूडेंस (12वाँ संस्करण) पृ० 26.

प्राकृतिक विधि को उसके गुणों के अनुसार भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं। कुछ विचारकों ने इसे दैवी विधि (Divine Law) कहा है। इस रूप में यह मानव पर लागू किये गये ईश्वरीय समादेश हैं। प्राकृतिक विधि मानव की तर्कशील प्रवृत्ति पर आधारित होने के कारण इसे तार्किक विधि (Law of Reason) भी । कहते हैं। प्राकृतिक विधि को अनेक विद्वान अलिखित विधि (Jus non scriptum) भी कहते हैं क्योंकि ये । विधियाँ शिलालेखों या ताम्रपत्रों पर नहीं लिखी गयी हैं बल्कि प्रकृति द्वारा मानव के हृदय-पटल पर अंकुरित हैं। प्राकृतिक विधि सर्वत्र एक समान तथा सभी व्यक्तियों के प्रति समान रूप से बन्धनकारी होने के कारण उसे । सार्वलौकिक विधि (universal law) भी कहते हैं। 

प्राकृतिक विधि के विषय में अनेक दार्शनिकों ने विचार प्रकट किये हैं। अरस्तू (Aristotle) के अनुसार ‘विधि या तो सार्वलौकिक होती है या विशिष्ट ।’ विशिष्ट विधि वह है जो राष्ट्र स्वयं के लिए स्थापित करता है। सार्वलौकिक विधि वह है जो केवल प्रकृति के अनुरूप होती है। जस्टीनियन के अनुसार ऐसी स्थायी विधि, जो राष्ट्रों में दैवी अंनुकम्पा द्वारा स्थापित होती है और जिसका सभी राष्ट्र समान रूप से पालन करते हैं, ‘प्राकृतिक विधि’ (Jus naturale) कहलाती है। परन्तु ऐसी विधि जो राज्य स्वयं के लिए बनाता है या तो विधान द्वारा या जनता की सम्मति से परिवर्तनीय होती है तथा इसे ‘विशेष विधि’ (Jus civile) कहते हैं।

4. अभिसामयिक विधि (Conventional Law)

सामण्ड के अनुसार अभिसामयिक विधि के अन्तर्गत ऐसे नियमों का समावेश है जो व्यक्तियों द्वारा स्वेच्छा से एक-दूसरे के आचरणों को विनियमित करने के लिए बनाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, किसी क्लब के नियम या समाज-विशेष के नियम ऐसी विधि के अन्तर्गत आते हैं। जब सामाजिक नियमों का प्रवर्तन राज्य द्वारा किया जाता है, तो वे सिविल विधि का रूप धारण कर लेते हैं जिससे विभिन्न राज्य अपने पारस्परिक आचरण । तथा सम्बन्धों को विनियमित कराने के लिए सहमति व्यक्त करते हैं।

  • रूढ़िजन्य विधि (Customary Law

राज्यों की उत्पत्ति के पूर्व आदिकालीन समाज में प्रचलित अनेक प्रथागत रूढ़ियों को विधि का रूप प्राप्त हो गया है। इन पुरातन रीति-रिवाजों तथा प्रथागत रूढ़ियों का पालन विधि की भांति किया जाता है। सामण्ड के अनुसार ऐसी प्रथागत रूढ़ि जिनका लोगों द्वारा स्वेच्छा से वास्तविक रूप से पालन किया जाता है, रूढिजन्य विधि कहलाती है। उदाहरणार्थ, दक्षिण के कृष्णनायक-सम्प्रदाय के लोगों में ‘पलिभागम’ रूढि प्रचलित है। जिसके अन्तर्गत पिता की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति प्रति व्यक्ति के हिसाब से विभाजित न होकर मृतक की पत्नियों के बीच बराबर-बराबर बाँट दी जाती है 46

  • प्रायोगिक विधि (Practical Law)  

सामण्ड के अनुसार इस विधि के अन्तर्गत वे नियम आते हैं, जिन्हें किसी व्यावहारिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाया गया हो। दूसरे शब्दों में, जो नियम व्यक्ति को उद्देश्य की प्राप्ति में मार्गदर्शन करते हैं, उन्हें प्रायोगिक या तकनीकी विधि कहते हैं। ये विधियाँ लोगों को इस बात से अवगत कराती हैं कि अमुक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। व्यवसाय, स्वास्थ्य तथा शिल्प-कला आदि सम्बन्धी नियम इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

7. अंतर्राष्ट्रीय विधि (International Law).

अठारहवीं शताब्दी में प्रचलित ‘राष्ट्रों की विधि’ (Law of Nations) को सन् 1780 में बेन्थम ने नया नाम देकर ‘इण्टरनेशनल लॉ’ में बदल दिया। अन्तर्राष्ट्रीय विधि ऐसे नियमों का संकलन है जो राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध को विनियमित करते हैं। ओपेनहाइम (Oppenheim) के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि उन प्रथागत तथा प्रतिज्ञात्मक नियमों का समूह है जिसे सभ्य राष्ट्र अपने पारस्परिक व्यवहारों के संचालन के लिए।

46. कालिअम्मा बनाम जनार्दन पिल्ले और अन्य स० को 1973 उच्चतम न्यायालय निर्णयपत्रिका 330.

वैधानिक रूप से मानने के लिए बाध्य होते हैं 47 प्रो० रसल (Russel) के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि उन नियमों का संकलन है जिनके सम्बन्ध में राष्ट्र एक दूसरे के प्रति अपने संव्यवहारों को नियंत्रित करने के लि | सहमत होते हैं।’ बर्कनहेड के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि में ऐसे नियमों का समावेश है जो स्वतन्त्र

राज्यों के निकायों द्वारा अपने पारस्परिक सम्बन्धों को नियोजित करने के लिए बन्धनकारी रूप में स्वीकार किये जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि की व्याख्या करते हुए सामण्ड ने लिखा है कि इस विधि में वे नियम | सम्मिलित हैं, जो प्रभुताधारी राज्यों को एक-दूसरे के प्रति उनके सम्बन्धों तथा आचरणों के संदर्भ में नियंत्रित करते हैं। यदि किसी नये राज्य को अन्य राज्यों से मान्यता प्राप्त हो जाती है, तो वह राज्य भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन हो जाता है।

हेरोल्ड लॉस्की (Harold Laski) के कथनानुसार विभिन्न राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों को | अपनी स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करते, अपितु उनके समक्ष इसके सिवाय कोई अन्य विकल्प न होने के कारण | उन्हें इन नियमों को स्वीकारना ही पड़ता है। इसके अलावा, राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अस्तित्व को कभी नहीं नकारते । तथापि वे इस विधि का निर्वचन इस प्रकार करते हैं ताकि अपने आचरण का औचित्य स्थापित कर सकें।

स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय न्याय न्यायालय (Permanent Court of Indernational Justice-PCIJ) ने एस० एस० लोटस48 के वाद में अन्तर्राष्ट्रीय विधि को परिभाषित करते हुए विनिश्चित किया कि इसके सिद्धांत सभी स्वतंत्र राष्ट्रों के प्रति समान रूप से लागू होते हैं।  

सर फेड्रिक पोलक (Sir Fedrick Pollock) ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता से भिन्न मानते हुए कहा है कि यदि अन्तर्राष्ट्रीय विधि नैतिकता के सिद्धान्त मात्र होते, तो विभिन्न राष्ट्र अपनी विदेश-नीति को केवल नैतिक मापदण्डों पर ही आधारित करते है। परन्तु यथार्थ में ऐसा न होकर वे इन्हें औचित्य, आपसी संधियों एवं विशेषज्ञ की राय पर आधारित करते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रायः सभी विधिशास्त्री यह स्वीकार करते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि नियमों का ऐसा समूह है जिनका विभिन्न राष्ट्रों द्वारा अपने पारस्परिक सम्बन्ध विनियमित करने के लिए। पालन किया जाता है। फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्वरूप के विषय में विधिवेत्ताओं में मतभेद है। कुछ। विधिवेत्ता इसे प्राकृतिक विधि की शाखा मानते हैं क्योंकि राज्यों के आपसी सम्बन्धों के प्रति प्राकृतिक नियम लाग होते हैं। अन्य विधिशास्त्री इस विधि को रूढिजन्य विधि का ही एक प्रकार मानते हैं क्योंकि वे राज्यों द्वारा परस्पर सम्बन्धों को विनियमित करने हेतु पालन किये जाने वाले रूढ़िजन्य नियम हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि में भर्त्सना अथवा युद्ध के भय की शास्ति रहती है जो राज्यों को इस विधि का अनपालन करने के लिए आबद्ध करती है। इसके अतिरिक्त, कुछ विचारकों की राय है कि इस विधि की उत्पत्ति अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों पर आधारित होने के कारण इसे परम्परागत विधि माना जाना चाहिये। इन विभिन्न दृष्टिकोणों को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि को उक्त विधियों के अधीन एक निश्चित वर्ग में नहीं रखा जा सकता है, यद्यपि इनमें से प्रत्येक का कुछ अंश उसमें विद्यमान है। ‘

अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का धूमिल बिन्दु है (International Law is the Vanishing Point of Jurisprudence)  

अनेक विधिवेत्ता अन्तर्राष्ट्रीय विधि को वास्तविक विधि के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। ऑस्टिन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को सुस्पष्ट नैतिकता (positive morality) कहा है क्योंकि यह स्वेच्छा पर आधारित है। तथा प्रत्येक राज्य स्वयं प्रभुताधारी होने के कारण उसे किसी भी विधि को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। लार्ड सैलिसबरी (Lord Salisbury) ने कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि को ‘विधि’

47. ओपेनहाइम : इण्टरनेशनल लॉ (8वाँ संस्करण, ग्रन्थ 1), पृ०

4. 48. (1927) PCIJ Series A No. 10.

कहना भ्रामक है क्योंकि यह विधि किसी भी न्यायालय में लागू नहीं की जा सकती है। हालैण्ड (Holland) का भी यही मत है कि वास्तविक अर्थ में अन्तर्राष्ट्रीय विधि को ‘विधि’ नहीं माना जा सकता है। उनके विचार से अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का धूमिल बिन्दु है।49 इस कथन की पुष्टि में वे कहते हैं कि कानून प्रभुताधारी का समादेश (command of the sovereign) होता है। इस दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीय विधि राज्य के प्रभुताधारी द्वारा समादेशित नहीं है और केवल औपचारिकता के नाते इसे ‘विधि’ कहा जाता है। हॉलैण्ड अन्तर्राष्ट्रीय नियमों को राष्ट्र की नीति संहिता (moral code) के सिवा अन्य कुछ नहीं मानते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय विधि के आलोचकों के तर्क में कितनी भी सच्चाई क्यों न हो, इस विधि के वर्तमान स्वरूप एवं महत्व को देखते हुए इसे ‘विधि’ के रूप में माना जाना ही उचित होगा। वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत कार्यरत महासभा (General Assembly), सुरक्षा परिषद् (Security Council) तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice) की कार्य-पद्धति को देखते हुए यह कहना कठिन है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के पीछे कोई वास्तविक शास्ति नहीं है। कोई भी राष्ट्र अकारण ही इस विधि की अवहेलना नहीं कर सकता; अतः इस विधि को अन्य विधियों की भाँति ‘विधि’ कहना ही अधिक उपयुक्त एवं तर्कसंगत होगा।

8. नागरिक विधि (Civil Law)

किसी देश में प्रचलित विधि उस देश में की सिविल विधि या नागरिक विधि कहलाती है।

हॉलैण्ड तथा ऑस्टिन ने इसे देश की निश्चयात्मक विधि (positive law) कहा है। अनेक विधिशास्त्री इस विधि को स्थानीय विधि (Municpal Law) भी कहते हैं। विभिन्न विचारकों ने नागरिक विधि का कुछ भी अर्थ क्यों न लगाया हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इन सभी का आशय उस विधि से है, जो राज्य के न्यायालयों में प्रयुक्त होती है।

सामण्ड ने हालैण्ड और ऑस्टिन के इस विचार का खण्डन किया है कि नागरिक विधि वास्तव में निश्चयात्मक विधि ही है। इसी प्रकार सिविल विधि को स्थानीय विधि कहना भी उचित नहीं है क्योंकि स्थानीय विधि केवल राज्य के किसी विशेष भाग में ही लागू होती है जबकि नागरिक विधि समस्त राज्यों में लागू होती है। निश्चितता, एकरूपता, निरन्तरता तथा लोक-शास्ति, ये नागरिक विधि के प्रमुख लक्षण हैं। इस विधि में समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं तथा सामाजिक हितों का संरक्षण करना इस विधि का प्रमुख ध्येय है।

हालैण्ड के अनुसार विधि का वर्गीकरण (Classification of Law According to Holland)

हॉलैण्ड के अनुसार विधि के क्षेत्र को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम वह जो व्यक्तियों में एक दूसरे के परस्पर अधिकारों को क्रमिक रूप दे सके। इसे हॉलैण्ड ने व्यक्तिगत विधि (private law) कहां है। दूसरा वह जो राज्य और नागरिकों के अधिकारों को स्थिर रख सके। इसे उन्होंने लोक विधि (Public Law) कहा है। विधि के तीसरे क्षेत्र को अन्तर्राष्ट्रीय विधि कहते हैं जो राज्य के परस्पर सम्बन्धों को विनियमित करती है। वैसे हॉलैण्ड अन्तर्राष्ट्रीय विधि को ‘विधि’ की संज्ञा देना उचित नहीं समझते परन्तु बँकि यह उक्ति दोनों विधियों (व्यक्तिगत विधि तथा लोक विधि) की सहवर्तिनी है इसलिए केवल उदारतावश वे इसे ‘विधि’ के रूप में स्वीकार करते हैं। हालैण्ड का यह विभाजन अधिकारों के प्राथमिक विभाजन पर आधारित है।

हॉलैण्ड ने विधि के कार्यों (functions of law) की दृष्टि से विधि को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया है-

 (1) सारभूत तथा प्रक्रियात्मक विधि (Substantive and Procedural Law)

49. ‘International law is the vanishing point of Jurisprudence’-Holland : (Elements of Jurisprudence (9th ed.) p. 369.

(2) प्राइवेट (वैयक्तिक) विधि, लोक-विधि तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि (Private and Public Law)  

(3) साधारण तथा विशिष्ट विधि (General & Special Law)  

(4) लोकलक्षी (in rem) और व्यक्तिलक्षी (in personan) विधि

(5) पूर्ववर्ती विधि (Antecedent Law) और उपचारात्मक विधि (Remedial Law)

1. सारभूत तथा प्रक्रियात्मक विधि-डॉ० हालैंड के अनुसार सारभूत विधि विभिन्न अधिकारों को | परिभाषित करती है जबकि प्रक्रियात्मक विधि उपचारों के निर्धारण हेतु अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का वर्णन करती है। वादकरण (litigation) प्रक्रियात्मक विधि द्वारा ही शासित होता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सारभूत विधि का संबंध न्याय-प्रशासन के लक्ष्य प्राप्ति से है जबकि प्रक्रियात्मक विधि इस लक्ष्य को साध्य करने हेतु साधन के रूप में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया से संबंधित है। उदाहरणार्थ, दण्ड विधि, संविदा विधि, सम्पत्ति विधि, परक्राम्य लिखत विधि आदि सारभूत विधि के अन्तर्गत समाविष्ट हैं। जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता, दीवानी प्रक्रिया संहिता आदि प्रक्रियात्मक विधि के प्रतीक हैं ।50

2. प्राइवेट तथा पब्लिक विधि-प्राइवेट विधि व्यक्ति और व्यक्ति के बीच परस्पर सम्बन्धों को समायोजित (adjust) करता है जबकि पब्लिक विधि व्यक्तियों और राज्य के सम्बन्धों को समायोजित करने • हेतु प्रयुक्त की जाती है। प्राइवेट विधि में पक्षकारगण या तो प्राकृतिक मानव हो सकते हैं या कृत्रिम .. व्यक्तित्वधारी निकाय, तथा इसमें राज्य अपने न्यायालय या न्यायाधिकरणों के माध्यम से निर्णायक (Arbiter) की भूमिका निभाता है। सम्पत्ति, संविदा, निकायों, अपकृत्यों, न्यास आदि से सम्बन्धित विधि प्राइवेट विधि की श्रेणी में आती है।  

इसके विपरीत पब्लिक विधि नागरिकों एवं राज्यों के बीच सम्बन्धों को समायोजित करती है। उदाहरणार्थ, संविधान विधि, प्रशासी विधि, आदि। साधारणत: पब्लिक विधि राज्य और उसके नागरिकों के | परस्पर अधिकारों एवं कर्तव्यों से सम्बन्धित होती है।

प्राइवेट और पब्लिक विधि को संयुक्त रूप से देशीय विधि अर्थात् ‘म्युनिसिपल विधि’ कहा जाता है। पब्लिक विधि के अन्तर्गत राज्य हित रखने वाला पक्षकार (Interested party) तथा प्रवर्तनकारी पक्ष (enforcing party), दोनों होता है, लेकिन प्राइवेट विधि के अन्तर्गत राज्य की भूमिका एकमात्र प्रवर्तनकारी पक्ष के रूप में होती है। 

उदाहरणार्थ, सांविधानिक विधि (Constitutional Law) पब्लिक विधि का ही एक प्रकार है। हिबर्ट ने संविधानिक विधि को ऐसे नियमों का संकलन बताया है जो सम्प्रभु (राज्य) तथा उसकी प्रजा के आपसी सम्बन्धों को प्रशासित करती है।51

डायसी के अनुसार संविधानिक विधि में ऐसे नियमों का समावेश है जो प्रत्यक्ष या परोक्षत: राज्य की शक्ति वितरण या प्रयोग को प्रभावित करता है।

प्रशासी विधि पब्लिक विधि का ही एक रूप है। सर आइवर जेनिंग्स (Sir Ivor Jennings) ने प्रशासी. विधि को परिभाषित करते हुये कहा है कि यह प्रशासन से सम्बन्धित विधि है जिसमें प्रशासनिक प्राधिकारियों के गठन, शक्तियों तथा कर्तव्यों का निर्धारण किया जाता है।

3. साधारण तथा विशेष विधि-किसी देश की देशीय विधि उसकी साधारण विधि होती है जो कि देश के सभी रहिवासियों, कार्यों, घटनाओं के प्रति लागू होती है। उदाहरणार्थ, भारत की दण्ड विधि, संविदा विधि इस देश की साधारण विधि है। परन्तु ऐसी विधियां जो साधारणतया विधि की कोटि में नहीं आतीं, विशिष्ट विधि कहलाती हैं, जैसे प्रथागत विधि (Customary law) इन दोनों विधियों में विभेद स्पष्ट करते। हये सामण्ड ने कहा है कि ऐसी विधि जो न्यायिक रूप से अवेक्षणीय होती है (Facts judicially noticeable) अर्थात् जिसकी विद्यमानता को न्यायालय को साबित करना आवश्यक नहीं होता क्योंकि यह मान लिया जाता है कि न्यायालय को उस विधि के अस्तित्व के बारे में ज्ञात है, साधारण विधि कहलाती है, जबकि ऐसी जिसकी ओर न्यायालय का ध्यान विशेष रूप से दिलाया जाता है, विशिष्ट विधि कहलाती है।

50. अधिक विस्तृत विवेचन हेतु अगला अध्याय देखें।

51. हिबर्ट (Hibbert) : Jurisprudence p. 199.

उदाहरण के लिये बम्बई मद्य निषेध अधिनियम, महाराष्ट्र पलेट-स्वामित्व अधिनियम, कलकत्ता पोर्टटस्ट अधिनियम आदि विशिष्ट कानून हैं।

विशिष्ट विधि के अनेक प्रकार हो सकते हैं, जैसे—(1) कोई स्थानीय विधि, (2) विदेशी विधि, (3) पारम्परिक विधि, (4) स्वचालित विधि (autonomic law), (5) मार्शल लॉ, (6) अन्तर्राष्ट्रीय विधि, (7) वाणिज्यिक विधि आदि।  

विश्वविद्यालयों द्वारा स्वयं के प्रशासन हेतु निर्मित संविधियां (statutes) या किसी सहकारी संस्था के उप-नियम आदि स्वचलित विधि (autonomic law) के उदाहरण हैं।  

स्वचालित विधि और पारम्परिक विधि में विभेद करते हुये सामण्ड ने कहा है कि स्वचालित विधि विधायी प्रक्रिया का परिणाम होता है जबकि पारम्परिक विधि द्वारा केवल वे ही लोग प्रशासित होते हैं। जिन्होंने इसकी प्राधिकारिता (authority) को स्वीकार किया है।

4. लोकलक्षी तथा व्यक्तिलक्षी विधि.-लोकलक्षी विधि (La in rent) तथा व्यक्तिलक्षी विधि (Law in personal) में विभेद करते हुए हालैंड ने लिखा है कि लोकलक्षी विधि उन सार्वजनिक अधिकारों के प्रवर्तन से संबंधित है जो व्यक्ति को जनसाधारण के विरुद्ध प्राप्त हैं जबकि व्यक्तिलक्षी विधि का संबंध ऐसे वैयक्तिक अधिकारों के प्रवर्तन से है जो व्यक्ति को किसी व्यक्ति-विशेष यो निश्चित । व्यक्तियों के विरुद्ध प्राप्त है। उदाहरणार्थ, विरासत (inheritance), उत्तराधिकार, स्वामित्व आदि लोकलक्षी विधि की विषय-वस्तु है जबकि संविदा, भागादारी, न्यास आदि व्यक्तिलक्षी विधि के अन्तर्गत आते हैं।

5. पूर्ववर्ती तथा उपचारात्मक विधि-हालैंड के अनुसार पूर्ववर्ती विधि (Antecedent Law) का संबंध ऐसे विनिर्दिष्ट निष्पादन (specific enforcement) से है जो उपचारात्मक विधि की सहायता के बिना संभव हो। इसके विपरीत, उपचारात्मक विधि में व्यक्ति के किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन या हनन होने की दशा में उसे उपलब्ध उपचारों का उल्लेख रहता है। जैसे अपकृत्य विधि, कामगार प्रतिकर विधि आदि।

ऑस्टिन के अनुसार विधि का वर्गीकरण (Classification of Law according to Austin)

ऑस्टिन ने विधि को चार वर्गों में विभाजित किया है ।

(1) दैवी विधि (Divine Law);

(2) मानवीय विधि (Human Law);

(3) निश्चयात्मक नैतिकता जिसे प्रतीकात्मक रूप में विधि कहा जाता है (Law figuratively so called);

(4) ऐसी विधियाँ जिन्हें आलंकारिक ढंग से विधि की संज्ञा दे दी गई है।

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Part 2 Notes

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Part 2 Notes

LLB Study Material

ऑस्टिन दैवी विधि और मानवीय विधि को समुचित विधि के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके । ये ऐसे नियम होते हैं जो निश्चित वरिष्ठ द्वारा उन लोगों के प्रति लागू किये जाते हैं जिन पर उसका प्रभत्त

होता है। दैवी विधि को इस अर्थ में विधि कहना उचित होगा क्योंकि यह ईश्वर द्वारा व्यक्तियों के प्रति लाग। किये गये प्रकृति के समादेश हैं। इनमें दैवी प्रकोप की शास्ति निहित रहती है। ऑस्टिन उपर्युक्त तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग की विधियों को आलंकारिक रूप से विधि मानते हैं क्योंकि इनका निर्धारण समुदाय के अनिश्चित बहुमत द्वारा होता है तथा इनमें बाधा उत्पन्न करने या इनका उल्लंघन करने से कोई दोष या अपराध नहीं माना जाता, अर्थात् इसमें शास्ति का अभाव है।

विशिष्ट विधि के विभित्र् रूप (Chief forms of Special Law)

सामान्य विधि (General Law) के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन कर लेने के पश्चात् विशिष्ट विधि (Special Law) के विविध रूपों का उल्लेख करना उचित होगा। ये विधियाँ सामान्य विधि के किसी विशिष्ट रूप को व्यक्त करती हैं इसलिए इन्हें विशिष्ट विधि’ कहा गया है। विशिष्ट विधि के निम्नलिखित भेद हैं-

(1) स्थानीय विधि (Local Law),

(2) विधियों का अन्तर्विरोध (Conflict of Laws),

(3) अभिसामयिक विधि (Conventional Law),

(4) स्वशासी विधि (Autonomic Law),

(5) सैनिक विधि (Martial Law),

(6) प्राइज-न्यायालयों में प्रयुक्त विधि (Prize Law)

स्थानी विधि (Local Law)

सामान्य विधि राज्य के समस्त भू-भाग के लिए समान रूप से लागू होती है जबकि स्थानीय विधि वह विधि है जो राज्य के किसी विशिष्ट भाग में प्रभावी हो । स्थानीय विधियों के दो प्रकार होते हैं-

(1) रूढिजन्य स्थानीय विधि (Local customary law),

(2) अधिनियमित स्थानीय विधि (Local enacted law)।

रूढिजन्य स्थानीय विधि उन पुरातन रूढ़ियों से निकलती है जो राज्य के विशिष्ट भाग में प्रचलित हों जब कि अधिनियमित स्थानीय विधि स्थान-विशेष के विधायी प्राधिकारियों द्वारा अथवा अन्य स्वशासी निकायों द्वारा निर्मित की जाती है। नगरपालिकाओं या पंचायतों द्वारा ऐसी विधियाँ बनाई जाती हैं और इनका विस्तार-क्षेत्र स्थानीय होता है। ऐसी समस्त रूढिजन्य स्थानीय विधियों तथा अधिनियमित स्थानीय विधियों को न्यायालयीन मान्यता प्राप्त रहती है और वे प्रवर्तनीय होती हैं। परन्तु ये देश की सामान्य विधि नहीं होती हैं। वाणिज्यिक विधि (Mercantile law) अधिकांशत: वाणिज्यिक प्रथाओं एवं परम्पराओं पर आधारित होती है, अत: इसे स्थानीय विधि का एक प्रकार माना जा सकता है। उदाहरणार्थ, भारत में वाणिज्यिक लेनदेन में हुंडियों का प्रचलन वाणिज्यिक रूढ़ि पर ही आधारित है।

2. विधियों का अन्तर्विरोध (Conflict of Law)

इसे ‘प्राइवेट इण्टरनेशनल लॉ’ भी कहते हैं। विधियों के अन्तर्विरोध के सिद्धान्त के अन्तर्गत वे नियम सम्मिलित हैं, जो किसी राज्य के न्यायालयों में उस राज्य की विधि के स्थान पर विदेशी विधि की स्थापना को निर्धारित और नियमित करते हैं। अनेक मामलों में विवादियों के अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण करने के लिए विदेशी विधि के सिद्धान्तों पर विचार करना आवश्यक होता है। ऐसे मामलों में न्यायालय को। राज्य की विधि की बजाय विदेशी विधि का आश्रय लेना पड़ता है। उदाहरणार्थ, यदि दो व्यक्ति फ्रांस में कोई संविदा (contract) करते हैं और इनमें से एक व्यक्ति इंग्लैण्ड के न्यायालय में इस संविदा के विरुद्ध वाद।

प्रस्तुत करता है, तो इंग्लिश न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह उस संविदा की वैधता निर्धारित करने के 209 लिए इंग्लिश विधि की बजाय फ्रांस की विधि का अनुसरण करे 52

ऐसे मामले जिनमें राज्य की विधि के स्थान पर विदेशी विधि के माध्यम से वाद का निर्धारण करना आवश्यक हो, प्राइवेट इन्टरनेशनल विधि के अनुसार निर्धारित किये जाते हैं। वस्तुत: यह राज्य की सिविल नधि का ही एक अंश होता है। इस प्रकार विधि के माध्यम से दिये गये निर्णय के विरुद्ध जो अपील की। जाती है उसे ‘तथ्य का प्रश्न’ (question of fact) माना जाता है, न कि विधि का प्रश्न। 

ए० वी० डायसी (Diecy) ने प्राइवेट इण्टरनेशनल लॉ को विधियों का अन्तर्विरोध (Confict of laws) इसलिए कहा है क्योंकि इसका सम्बन्ध ऐसे विवादों से होता है जिनमें विभिन्न राज्यों की नागरिक विधियाँ एक-दूसरे के संघर्ष में आती हैं। इसे ‘प्राइवेट’ (वैयक्तिक) इण्टरनेशनल विधि इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें राज्य को पक्षकार के रूप में न्यायालय के समक्ष नहीं आना पड़ता जैसा कि पब्लिक इण्टरनेशनल लॉ के अन्तर्गत राज्य के आपसी मामलों में होता है। यहाँ तो राज्य की उपस्थिति केवल उन अधिकारों और कर्तव्यों के निर्वाचक के रूप में होती है जो नागरिकों को एक दूसरे के प्रति प्राप्त है।53

3. अभिसामयिक विधि (Conventional Law)  

अभिसामयिक विधि विशिष्ट प्रकार की विधि का एक रूप है। यह देश की सामान्य विधि से भिन्न होती है। इस विधि का प्रारम्भ व्यक्तियों के बीच किये गये आपसी करार (agreements) से होता है। संविदात्मक करारों से विधि तथा अधिकार दोनों की ही उत्पत्ति होती है। पक्षकारों के बीच अधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों को विनिश्चित करने के लिए करार में जो सामान्य नियम स्थापित किये जाते हैं, वे विधि के नियम माने जाते हैं। ऐसे नियम सामान्य विधि में या तो संशोधन करते हैं या उसमें वृद्धि करते हैं। इन नियमों को ही अभिसामयिक विधि कहते हैं। यह विधि पक्षकारों के लिए बन्धनकारी होती है। उदाहरणार्थ, कम्पनी के अन्तर्नियम (Articles of the Company) कम्पनी के सदस्यों पर उसी प्रकार बन्धनकारी होते हैं जिस प्रकार कि कम्पनी अधिनियम के उपबन्ध होते हैं। इसी प्रकार भागीदारी के अनुच्छेद सदस्यों पर भागीदारी अधिनियम के उपबन्धों के समान ही बन्धनकारी होते हैं।

4. स्वशासी विधि (Autonomic Law)

स्वशासी विधि के अन्तर्गत ऐसी विधियाँ आती हैं जो स्वायत्त निकायों द्वारा उनकी विधायिनी शक्ति के अधीन निर्मित की जाती हैं। उदाहरण के लिए, कोई विश्वविद्यालय जो राज्य की विधि द्वारा स्थापित है, अपने सदस्यों और कार्यों को प्रशासित करने के लिए उक्त विधि द्वारा उसे प्रदत्त शक्तियों के अधीन संविधियाँ (statutes) बनाता है। ऐसी संविधियां (statutes) स्वशासी विधि की कोटि में आती हैं। ब्रिटिश भारत में रेलवे कम्पनी द्वारा बनाये गये परिनियम स्वशासी विधि के ही रूप थे। स्वशासी विधि का निर्माण उच्चतम विधान-मण्डल द्वारा नहीं किया जाता बल्कि ऐसे प्राइवेट व्यक्तियों या व्यक्तियों के निकायों द्वारा किया जाता हैं, जिन्हें राज्य का विधान-मण्डल इस प्रकार की अधीनस्थ उपविधियाँ (bye-laws) बनाने के लिए अधिकृत करता है।

5. मार्शल लॉ (Martial Law)

यह विधि सैनिक न्याय-प्रशासन में फौजी न्यायालयों द्वारा लागू की जाती है। इस विधि के तीन प्रकार होते हैं-

(1) सेना के अनुशासन तथा प्रशासन के लिए विधि जिसे ‘मिलिट्री लॉ’ भी कहते हैं;

(2) ऐसी विधि जिसके द्वारा सेना युद्धकाल में देश के बाहर सैनिक अधिकार के अधीन विदेशी

क्षेत्र का शासन चलाती है; तथा

52. सामण्ड : ज्यूरिस्पूडेन्स (12वाँ संस्करण), पृ० 88.

53. हालैण्ड : दि एलिमेन्ट्स ऑफ ज्यूरिस्पूडेंस, पृ० 336.

(3) वह विधि जिसके द्वारा सेना युद्धकाल में सिविल विधि के निलम्बन की स्थिति में स्वयं से

का प्रशासन करती है जो सैनिक सुविधा और लोक-सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक होता है। (१० उल्लेखनीय है कि मिलिट्री विधि शान्तिकाल तथा युद्धकाल, दोनों में ही सेना के प्रशासन हेतु प्रयत्नशील रहती है जबकि अन्य सैनिक विधियाँ केवल युद्धकाल में ही लागू होती हैं। इसी प्रकार मिलिट्री विधि केवल सेना पर ही लागू होती है जबकि अन्य फौजी विधियाँ सिविलियन जनता पर भी लागू होती हैं। तीसरे, मिलिट्री विधि कानूनी है, क्योंकि वह सेना अधिनियम में निहित है जबकि अन्य सैनिक-विधियों का निर्माण शासक के परमाधिकार (Prerogative of the Ruler) से होता है। जहाँ शासक नहीं है वहाँ वह परमाधिकार किस प्राधिकारी में निहित हो, इसका उल्लेख उस देश के संविधान में होता है।

6. प्राइज न्यायालयों में प्रयुक्त विधि (Prize Law)

अंतर्राष्ट्रीय विधि के उल्लंघन के मामले साधारणतया राज्य के सामान्य न्यायालयों में नहीं लाये जाते । परन्तु इस विधि का एक ऐसा विशिष्ट भाग भी है जिसके संबंध में न्यायालय यह मानते हैं कि वह सिविल विधि के सदृश है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के इस विशिष्ट भाग को प्राइज लॉ भी कहते हैं। प्राइज लॉ अन्तर्राष्ट्रीय विधि का वह भाग है जो युद्धकाल के समय समुद्र में जहाजों तथा जहाजों पर लदे माल को छीन लेने संबंधी मामलों को विनियमित करता है।54 इसीलिए प्राइज न्यायालयों को ‘युद्ध-अपहार न्यायालय’ भी कहा गया है। तथा इसमें प्रयुक्त विधि ‘युद्ध-अपहार विधि’ (Prize Law) कहलाती है।

ऐसे राज्य जो युद्ध काल में जहाजों तथा उनमें लदे माल को छीनने के अधिकार का प्रयोग करते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन अपने अधिक्षेत्र में प्राइज-न्यायालय (Prize Court) स्थापित करते हैं। ये न्यायालय जहाजों और उनमें लदे माल को छीने जाने की वैधता की जाँच करते हैं और छीनने वालों तथा छीनी गई सम्पत्ति में हित रखने वाले समस्त व्यक्तियों के प्रति न्याय-दान करती है। यदि जहाज तथा माल को छीना जाना वैध होता है, तो ये न्यायालय ऐसी सम्पत्ति को युद्ध-विधिसम्मत पारितोषिक के रूप में जब्त किये। जाने का आदेश देते हैं। परन्तु यदि जब्ती विधि विरुद्ध हो, तो वे विधि के अनुसार प्रतितोष (redress) अथवा प्रत्यास्थापन (restitution) का आदेश देते हैं। उल्लेखनीय है कि प्राइज- न्यायालय अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण नहीं है। प्राइज न्यायालय की स्थापना केवल उस राज्य द्वारा की जाती है जो युद्ध काल में जहाज तथा उस पर लदा माल छीनता है। ऐसा न्यायालय राज्य द्वारा स्थापित होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के उस भाग का प्रयोग करता है जो प्राइज लॉ से संबंधित है।

सामण्ड प्राइज विधि (Prize Law) को अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा सिविल विधि दोनों का ही अंश मानते हैं। यह विधि राष्ट्रों के सम्बन्धों को विनियमित करती है इसलिए इसे अन्तर्राष्ट्रीय विधि कहा जा सकता है। इसी प्रकार यह राज्य के सिविल न्यायालयों में न्याय-प्रशासन का संचालन करती है, इसलिए इसे सिविल विधि कहना भी उचित होगा। तथापि प्रमुख वाद दि झमोरा (The Zamora) में न्यायमूर्ति लार्ड पार्कर ने अभिकथन किया कि प्राइज न्यायालय में जो विधि लागू की जाती है वह स्थानीय या म्युनिसिपल विधि न होकर राष्ट्रों की विधि, अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय विधि होती है।

7. तुलनात्मक विधि (Comparative Law)

यद्यपि कुछ विधिशास्त्रियों ने तुलनात्मक विधि को एक स्वतन्त्र विधि के रूप में मान्यता दी है, लेकिन अधिकांश इसे विधि की कोई अलग शाखा न मानते हुये केवल विधि के अध्ययन का एक तरीका मात्र मानते हैं जिसके अन्तर्गत विभिन्न देशों में प्रचलित विधियों का अध्ययन स्वतः के देश (स्वदेश) की विधि के गुणदोषों का आंकलन करके उसे समायोजित बनाने का प्रयास किया जाता है। अतः वस्तुतः तुलनात्मक विधि। विधियों के विश्लेषणात्मक अध्ययन की रीति है ताकि स्वयं के देश की विधि में सुधार किये जा सकें। उदाहरणार्थ, भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान की रचना के लिये। भारत संविधानिक सभा

54. पी० वर्गिस : इण्टरनेशनल लॉ एण्ड आरगेनाइजेशन (1951), पृ० 410-11.

55. (1916) 2 AC 77 (प्रिवी कौंसिल).

Constituent Assembly) का गठन किया गया, के लिये नये संविधान की रचना के दौरान संविधानिक रामर्शदाता डॉ० बी० एन० राऊ (Dr. B.N. Rau) ने विभिन्न देशों की सांविधानिक प्रणालियों की अच्छाइयां लाने के लिये अमेरिका, कनाडा, आयरलैण्ड, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया आदि का दारा कर वहां के संविधानों का गहन अध्ययन किया तथा प्रत्येक की विशिष्टताओं को भारतीय संविधान में अपनाये जाने की अनुशंसा की ताकि भारत में एक कल्याणकारी राज्य व्यवस्था लागू की जा सके। इसी के परिणामस्वरूप संविधान के भागIII में वर्णित मौलिक अधिकार अमरीकी बिल ऑफ राइट्स (Bill of Rights), भाग-IV के नीति-निदेशक सिद्धान्त आयरलैण्ड के संविधान के अनुच्छेद 10 से, संघीय शासन पद्धति कनाडा से, विधायी शक्तियों का विभाजन आस्ट्रेलिया से तथा संसदीय प्रणाली ब्रिटेन की शासन प्रणाली से लिये गये और इन्हें भारतीय संविधान में समाविष्ट किया गया।

भारत के वर्तमान हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई या पारसी वैयक्तिक विधि के तुलनात्मक अध्ययन से यह पता चलता है कि ये विधियां प्राचीन एवं मध्ययुगीन भारत में प्रचलित विधियों पर आधारित हैं तथा सामाजिक परिवर्तनों के साथ इनमें बदलाव होते गये।

तुलनात्मक विधि को विधि के अध्ययन की ऐसी रीति (या तरीका) माना जा सकता है जिसके आधार पर अन्य देशों की विधियों की अच्छाइयों से प्रेरणा लेते हुये स्वयं के देश की विधि को संशोधित या परिमार्जित किया जा सके। प्रो० गटरिज (Guttridge) इसके प्रबल समर्थक थे।

प्रो० विगमोर (Wigmore) ने तुलनात्मक विधि के तीन प्रकार बताये हैं जो निम्नानुसार हैं-

(1) तुलनात्मक नोमोस्कोपी (Comparative Nomoscopy)-इसमें किसी विषय-विशेष की विधि का जैसे पारिवारिक विधि (Family law), उत्तराधिकार विधि, दत्तक विधि, सम्पत्ति विधि आदि के विदेशी विधियों की तुलना स्वदेश में लागू इन विधियों से की जाती है ताकि उनके गुण-दोषों को जाना जा सके।

(2) तुलनात्मक नोमोथेटिक्स (Comparative Nomothetics)—इसमें यह अध्ययन किया जाता है कि उपरोक्त विधि में विदेशों की विधि की अच्छाइयों का किस प्रकार समावेश किया जाये।

( 3 ) तुलनात्मक नोमोजेनेटिक्स (Comparative Nomogenentics)-इसमें अन्य देशों की विधियों का स्वदेश की विधियों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाता है जैसे इंगलिश कॉमन लॉ या साम्या विधि का भारतीय विधि पर प्रभाव।

इंग्लैण्ड में प्रचलित विधियों का वर्गीकरण

जैसा कि कथन किया जा चुका है कि इंग्लैण्ड में समस्त विधि (Corpus Juris) को सामान्य विधि (General law of land) तथा विशिष्ट विधि में विभक्त किया गया है। विशिष्ट विधि के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। इंग्लैण्ड की सामान्य विधि को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-(1) संविधिक विधि (Statute Law), (2) साम्या विधि (Equity Law) तथा (3) कॉमन लॉ (Common Law) । इनका वर्णन निम्नानुसार है

1. संविधिक विधि (Statute Law)

संविधिक विधि उन कानूनों को कहते हैं जो राज्य के विधान-मण्डल द्वारा बनाये जाते हैं-ब्रिटेन की पालियामेन्ट या भारत की संसद् द्वारा निर्मित कानून। परन्तु कभी-कभी विशेष परिस्थितियों में कार्यकारिणी (Executive) को कानुन या उप-नियम बनाने की आवश्यकता पड़ती है। कार्यपालिका द्वारा इस प्रकार जारी गई आज्ञाओं तथा उपनियमों को ‘अध्यादेश’ (ordinance) कहते हैं। दूसरे शब्दों में, अध्यादेश उन आज्ञाओं

जिन्हें कार्यपालिका विशेष परिस्थितियों में अस्थायी रूप से बनाती है। इसके अन्तर्गत वे आज्ञाएँ विधिवत विधिवत प्राप्त है। भी आते हैं, जिन्हें बनाने और लागू करने का अधिकार मन्त्रियों अथवा अधिकारियों को

2. साम्या विधि (Equity Law)

सुविख्यात विधिवेत्ता स्टोरी (Story) ने साम्या विधि को परिभाषित करते हुए कहा है कि यह विधि न्याय का वह अंश है जो चांसरी न्यायालय (Court of Chancery) द्वारा प्रशासित होता था। साम्या (Equity) ऐसे नियमों का संकलन है जो इंग्लैण्ड के कॉमन लॉ के दोषों को दूर करने की दृष्टि से तथा उसकी कमियों को पूरा करने के उद्देश्य से चांसरी न्यायालय द्वारा लागू किये गये थे। न्यास, विनिर्दिष्ट अनुपालन (Specific performance), सम्पदाओं का प्रशासन (Administration of Assets), निषेधादेश (Injunction) आदि साम्या विधि की अधिकारिता के ही विषय हैं। इंग्लैण्ड में सन् 1873 का ज्यूडीकेचर एक्ट56 पारित होने के पश्चात् साम्या तथा कॉमन लॉ, दोनों का ही प्रशासन हाईकोर्ट ऑफ ज्यूडीकेचर द्वारा किया जाने लगा जब कि इसके पूर्व साम्या विधि चांसरी न्यायालय द्वारा प्रशासित थी।

उल्लेखनीय है कि भारत में ‘साम्या विधि’ नाम की कोई स्वतन्त्र विधि अस्तित्व में नहीं है तथापि युक्तियुक्तता तथा औचित्य पर आधारित साम्या के न्यायपूर्ण सिद्धान्तों को इस देश की विभिन्न विधियों में समाविष्ट किया गया है। उदाहरणार्थ, भारतीय न्यास अधिनियम, 1882; भारतीय विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963; सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882; संविदा अधिनियम, 1872 आदि मुख्य रूप से साम्यिक सिद्धान्तों पर ही आधारित हैं।

3. कॉमन लॉ (Common Law) 

इंग्लैण्ड की प्रमुख विधि कॉमन लॉ ही है। सांविधिक विधि (statute law), साम्या विधि तथा विशिष्ट विधियों (special law) को छोड़कर शेष सभी विधियाँ कॉमन लॉ के अन्तर्गत आती हैं। यह विधि इंग्लैण्ड में किंग्स-बेंच (Kings Bench), कोर्ट ऑफ कॉमन प्लीज (Court of Common Pleas), एक्सचेकर (Exchequer) आदि के न्यायिक निर्णयों से निर्मित है। यह विधि इंग्लिश समाज में आदिकाल से चली आ रही है तथा प्रथाओं और रूढ़ियों पर आधारित है। दीर्घकाल तक कॉमन लॉ के अधिकांश नियम अलिखित रहे परन्तु विधि के संहिताकरण के साथ इन्हें कानूनों के रूप में लिपिबद्ध कर लिया गया।

लोक विधि

उपर्युक्त तीन प्रकार की विधियों के अलावा संवैधानिक विधि (Constitutional Law), प्रशासनिक विधि (Administrative Law) तथा आपराधिक विधि (Criminal Law) का पृथक से उल्लेख किया जाना भी आवश्यक होगा, जिन्हें संयुक्त रूप से लोक विधि (Public Law) कहा गया है।

(क) संवैधानिक विधि (Constitutional Law)

सामण्ड के अनुसार संवैधानिक विधि उन वैधानिक नियमों का समूह है जो राज्य की संरचना को निर्धारित करते हैं। डायसी (Dicey) के अनुसार संवैधानिक विधि में वे नियम सम्मिलित हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राज्य की प्रभुता-शक्ति के विभाजन या प्रयोग को प्रभावित करते हैं।57 इस विधि के अन्तर्गत वे सभी कानन आते हैं, जिनका सम्बन्ध सरकार के गठन; अधिकार, राज्य के उद्देश्य, नागरिकों के अधिकार एवं कर्तव्यों आदि से है। संसद् के गठन, उसकी कार्यप्रणाली, राज्य के विधान-मडलों का गठन और उनके कार्यों का संचालन, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय का गठन तथा उनकी अधिकारिता आदि से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ संवैधानिक विधि के अन्तर्गत दी रहती हैं जिनका उल्लेख संविधान में किया जाता है। और जो प्राय: लिखित होता है। संवैधानिक विधि में संशोधन करने के लिए विशेष प्रक्रिया का अनुसरण करना । आवश्यक होता है 58।

56. यह अधिनियम सन् 1875 से लागू हुआ.

57. डायसी : लॉ ऑफ दि कांस्टीट्यूशन (1750), पृ० 23.

58. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन संबंधी प्रक्रिया का वर्णन है.

सामण्ड का कथन है कि संवैधानिक विधि में राज्य के संगठन सम्बन्धी आवश्यक और मूलभूत विधिक सिद्धान्तों का समावेश रहता है। संविधान के बिना राज्य नहीं हो सकता और राज्य के बिना विधि नहीं हो – सकती। अत: यह स्पष्ट है कि विधि के पहले राज्य और संविधान का होना नितांत आवश्यक है। इस दृष्टि से संवैधानिक विधि को ‘विधि’ कहना उचित नहीं है59 क्योंकि इसका अस्तित्व विधि से पहले का है। इसका आशय यह है कि संविधान का अस्तित्व विधि से न होकर कुछ परम्पराओं तथा तथ्यों पर आधारित होता है, जो बाद में विधि का रूप ग्रहण कर लेते हैं। सारांश यह है कि संवैधानिक विधि की उत्पत्ति विधि से परे। होती है। प्रोफेसर हालैण्ड ने भी संवैधानिक विधि को विधि की श्रेणी में नहीं रखा है।60

(ख) प्रशासी विधि (Administrative Law or Droit Administratif)

सर आइवर जेनिंग्स (Jennings) के अनुसार प्रशासी विधि प्रशासन से सम्बन्धित होती है। यह प्रशासी निकायों के गठन, अधिकारों तथा कर्तव्यों को निर्धारित करती है। फ्रांस की प्रशासी विधि61 के सन्दर्भ में डायसी ने कहा है कि यह फ्रांस की विधि का वह भाग है जो निम्नलिखित बातों के निर्धारण से सम्बद्ध है

(1) राज्य के प्राधिकारियों की स्थिति और उनके दायित्वों का निर्धारण;

(2) प्रशासनिक कार्यों के दौरान प्रशासनिक प्राधिकारियों और गैर-सरकारी व्यक्तियों के बीच

पारस्परिक सम्बन्धों तथा उनके अधिकारों एवं दायित्वों का निर्धारण;

(3) वह प्रक्रिया जिसके द्वारा प्रशासनिक प्राधिकारियों के कर्तव्यों और दायित्वों का प्रवर्तन किया जाता है।

उल्लेखनीय है कि राज्यों के नागरिकों के प्रति बढ़ते हुए दायित्व को देखते हुए प्रशासी विधि का महत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि व्यक्तियों की स्वतंत्रता तथा प्राधिकारियों की प्रशासनिक अधिकार-शक्ति के बीच उचित सन्तुलन बना रहे ताकि व्यक्तियों के अधिकारों में राज्य के अधिकारियों का अनुचित हस्तक्षेप न हो और साथ ही साथ प्रशासनिक अधिकारियों को अपने कार्य सम्पादित करने के लिए समुचित अधिकार-शक्ति प्राप्त हो।

संवैधानिक विधि और प्रशासी विधि में भेद

संवैधानिक विधि और प्रशासी विधि में भेद करते हुए डॉ० हालैण्ड ने कहा है कि संवैधानिक विधि राज्य की संरचना से संबंधित है जब कि प्रशासी विधि राज्य के प्राधिकारियों के कार्यों से सम्बन्धित है। इसके अतिरिक्त संवैधानिक विधि राज्य के विभिन्न अंगों-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के गठन तथा उनकी अधिकार-शक्ति की विवेचना करती है जबकि प्रशासी विधि इन विभिन्न अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा इन अंगों और नागरिकों के बीच परस्पर सम्बन्धों को निर्धारित करती है।

(ग) आपराधिक विधि (Criminal Law)

आपराधिक विधि या दण्ड विधि में विभिन्न अपराधों की परिभाषा दी रहती है तथा साथ ही उनके लिए। दण्ड के प्रावधानों का भी उल्लेख रहता है। दंड विधि का उद्देश्य आवश्यक रूप से राज्य में शांति-व्यवस्था बनाये रखना है। सभी सभ्य समाजों में अपराध को समाज के प्रति अपकार माना जाता है न कि केवल व्यक्ति विशेष के प्रति । यही कारण है कि अभियुक्त के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही व्यथित व्यक्ति द्वारा संस्थित की जाने की बजाय राज्य की ओर से संस्थित की जाती है। चूंकि आपराधिक विधि जन-सामान्य को प्रभावित करती है, इसीलिए इसे लोक विधि (Public Law) की श्रेणी में रखा गया है। यह एक सारभूत विधि (substantive law) है।

59. सामण्ड ने संवैधानिक विधि को विधि के वर्गीकरण में समाविष्ट नहीं किया है.

60. हॉलैण्ड : ज्यूरिस्पूडेन्स (10वाँ संस्करण), पृ० 138.

61. फ्रांस की प्रशासी विधि को ‘Droit Administratif’ कहते हैं.

 लोक विधि (Public law) के अतिरिक्त ऐसी विधियाँ जो नागरिकों के परस्पर संबंधों तथा व्यवहारों को प्रशासित करती हैं, प्राइवेट विधि कहलाती हैं। ऐसी विधियों से संबंधित मामलों के निर्धारण में राज्य की भूमिका एक मध्यस्थ के समान होती है। इस प्रकार की विधि में वैयक्तिक विधि (Personal Law), सम्पत्ति fafe (Law of Property), Fifaci fafe (Law of Contract), 37497 fare (Law of Torts) 311f का समावेश है। इसके अतिरिक्त प्रक्रियात्मक विधि तथा साक्ष्य विधि भी प्राइवेट विधि की ही शाखाएँ हैं। सामान्यत: विभिन्न प्रकार की विधियों को निम्नलिखित वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

विधि के प्रकार (Kinds of Laws)

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Part 2 Notes

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Part 2 Notes

उपर्युक्त विभिन्न प्रकार की विधियों का उद्देश्य लगभग एक ही है-मानव-हितों की संरक्षा करना 162 डीन रास्को पाउण्ड के अनुसार ये हित तीन प्रकार के हो सकते हैं-(1) लोक हित; (2) सामाजिक हित तथा (3) निजी हित 63 तथापि रास्को पाउण्ड स्पष्ट करते हैं कि कभी-कभी एक ही हित दूसरे हितों को अपने में समाविष्ट कर लेता है; जैसे—युद्धकालीन स्थिति में देश की रक्षा करना, सामाजिक, वैयक्तिक तथा लोकहित, इन सभी हितों को संरक्षण देता है। यही कारण है कि जूलियस स्टोन ने रास्को पाउण्ड के हितसम्बन्धी वर्गीकरण को अस्वीकार किया है।64 उनके अनुसार वस्तुतः ये सभी हित सामाजिक हित65 में। ही समाविष्ट हैं और विधि का प्रमुख कार्य इन हितों का संरक्षण करना है।

62. डेविस : एडमिनिस्ट्रेटिव लॉ (1951) पृ० 3.

63. रास्को पाउण्ड : इन्टरप्रिटेशन ऑफ माडर्न लीगल फिलासफीज, पृ० 558.

64. जूलियस स्टोन : प्रॉविन्स एण्ड फन्क्शन्स ऑफ लॉ, पृ० 491.

65. पर्यावरण संरक्षण विधि, उपभोक्ता संरक्षण विधि, किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 निशुल्क विधिक सहायता विधि, सिविल अधिकार संरक्षण विधि, प्रदूषण निवारण विधि, महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा (निवारण) अधिनियम, 2005, पेटेण्ट्स एण्ड सीनियर सिटीजन्स एक्ट, 2007 आदि सामाजिक हितों की संरक्षक विधियाँ हैं जो मानव कल्याण के लिए निर्मित की गयी हैं.

विधि की क्रियाशीलता तथा उद्देश्यों के संदर्भ में यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि विधि स्वयं में लक्ष्य न होकर लक्ष्य का एक साधन-मात्र है। विधि को अन्तिम लक्ष्य समाज में न्याय स्थापित करना है। इसीलिए सामण्ड ने विधि को ऐसे सिंद्धान्तों का संकलन निरूपित किया है जो न्याय प्रशासन हेतु राज्य द्वारा मान्य तथा प्रवर्तित किये जाते हैं। वर्तमान लोक-कल्याणकारी राज्य के संदर्भ में विधि का प्रमुख कार्य मानव हितों का संरक्षण तथा संवर्धन करना है। सामाजिक न्याय, सामाजिक सुरक्षा तथा व्यक्तियों के आपसी हितों के टकराव की स्थिति को टालते हुए समाज का हितवर्धन करना ही वर्तमान विधि का मुख्य उद्देश्य है।

विधि-सामाजिक परितर्वन के साधन के रूप में (Law as an instrument of social change)

यह सर्वविदित है कि विधि का मुख्य कार्य मानव के सामाजिक हितों को नियन्त्रित करना तथा उनके हितों के टकरावों का निवारण करना है ताकि सामाजिक सुरक्षा बनी रहे। इसी प्रकार समाज को आपराधिक तत्वों से बचाये रखना तथा अपराधियों को दण्डित करना भी विधि का प्रमुख कार्य है। विधि के इस सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुये न्यायाधीशों के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वे विधि का निर्वचन या व्याख्या करते समय अपने निर्णयों के दूरगामी परिणामों पर विचार करें ताकि लोगों के अधिकारों को अधिक व्यापक ढंग से लागू किया जा सके तथा सामाजिक विषमताओं को यथासम्भव दूर किया जा सके 66

भारत के पूर्व न्यायाधिपति पी० एन० भगवती ने कथन किया है कि विधि अपनी सामाजिक सेवा की भूमिका प्रभावी ढंग से तभी निभा सकता है, जब उसके प्रवर्तक तथा न्यायाधीशगण मान्य सामाजिक मूल्यों तथा आकांक्षाओं से भलीभांति परिचित हों। अत: उन्हें सामाजिक परिवर्तनों के अनुसार स्वयं को तथा विधि को ढालना चाहिये।67 इस सन्दर्भ में उन्होंने नेशनल टेक्सटाइल्स वर्क्स यूनियन बनाम पी० रामकृष्णन68 के वाद में अभिकथन किया कि-

‘‘विधि स्थिर नहीं बन सकती, उसे समाज के बदलते हुये मूल्यों एवं मान्यताओं के साथ-साथ स्वयं को परिवर्तित करना होगा। यदि किसी वृक्ष की छाल वृक्ष के बढ़ने के साथ-साथ स्वयं को बढ़ाने में विफल रहती है, तो या तो वह वृक्ष को जाम कर देगी और यदि वह वृक्ष बढ़ने वाला वृक्ष है, तो उस छाल को निकाल फेंकेगा और नई छाल स्वयं पर आच्छादित कर लेगा। ठीक इसी प्रकार यदि विधि स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं ढालती है, तो समाज ऐसी विधि को उखाड़ फेंकेगा और स्वयं प्रगति की ओर अग्रसर होगा। अतः विधि को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप स्वयं को सतत बदलते रहना चाहिये।”

विधि को सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जाना चाहिये ताकि लोगों की आकांक्षाओं पर खरी उतरे। राज्य को भी इस प्रकार की विधियों का निर्माण करना चाहिये जो मनमानी या अतर्कसंगत न होकर अधिकाधिक लोकोपयोगी हों। विधि का प्रवर्तन जनहितार्थ किया जाना चाहिये। 

भारतीय समाज एवं विधि के परिप्रेक्ष्य में इन परिवर्तनों को सम्पत्ति के अधिकार के सन्दर्भ में दृष्टान्त के रूप में उल्लेख किया जा सकता है। सम्पत्ति के अधिकार में संविधानिक संशोधनों द्वारा परिवर्तित किये जाने को उचित ठहराते हुये भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति वी० वाई० चन्द्रचूड़ ने केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य69 के वाद में अभिकथन किया कि सांविधानिक पूर्वनिर्णयों को असंख्य लोगों की आज्ञाओं तथा आकांक्षाओं का हनन करने वाले हथियार के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है…….यदि ये आशायें तथा अपेक्षा पूरी करने में विफल रहती हैं, तो राष्ट्र का पतन निश्चित है।

सामाजिक हित को ध्यान में रखते हुये भारतीय विधि में समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं। तथा नई विधियों का निर्माण भी किया गया है। संविधान में विगत 60 वर्षों में अब तक संशोधनों से यह

66. कर्नाटक राज्य बनाम अप्पा बालु, (1995) सप्ली० 4 एस० सी० सी० 469.

67. सेण्ट्रल इनलैण्ड वॉटर ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन लि० बनाम ब्रजनाथ गांगुली, ए० आई० आर० 1986 सु० को० 1571.

68. (1983) 1 एस० सी० सी० 228.

69. ए० आई० आर० 1973 सु० को० 1461.

स्पष्टत: सिद्ध हो जाता है कि भारतीय संसद तथा राज्य के विधान मण्डल आदि विधियों को समाज की आवश्यकतानुसार ढंकने के प्रयास में सतत् जुटे हुये हैं। इस प्रक्रिया में न्यायिक निर्णयों द्वारा न्यायालयों की। भूमिका भी अत्यन्त सक्रिय रही है, लोकहित वाद (Public Interest Litigation) जिसका सर्वोत्तम प्रमाण है। गरीबी-निर्मूलन, पिछड़ी जनजातियों को सामाजिक न्याय दिलाने, महिलाओं एवं बच्चों को शोषण से मुक्ति दिलाने, पर्यावरण संरक्षण, सती या दहेज जैसी कुप्रथाओं के निवारण हेतु विधि का कारगर रूप से उपयोग किया गया है। ये सभी प्रयास वास्तव में सराहनीय हैं।

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