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LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Notes

 

LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 14 Notes: LLB 1st Year / 1st Semester Bachelor of Law Jurisprudence and Legal Theory Chapter No 14 Nature of Law and Its Kinds Online Notes Study Material in Hindi English PDF Download,

 

अध्याय 14 (Chapter 14)

विधि की प्रकृति और उसके विभिन्न प्रकार (Nature of Law And Its Kinds)

मानव-समाज में व्यक्तियों के संव्यवहारों के औचित्य या अनौचित्य को निर्धारित करने के लिए राज्य द्वारा नियम बनाये जाते हैं, जिन्हें ‘विधि’ कहा जाता है। यही कारण है कि विधि को सामाजिक नियंत्रण का एक प्रमुख साधन माना गया है। हेनरी सिडविक के अनुसार-विधि’ शब्द का प्रयोग किसी ऐसे सामान्य नियम के लिए किया जा सकता है जो किन्हीं कार्यों को करने अथवा न करने का आदेश देता हो और जिसकी अवज्ञा करने पर दोषी व्यक्ति को दण्ड भोगना पड़े।

विधिवेत्ताओं ने विधि’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया है। सामान्य अर्थ में किसी भी नियम को ‘विधि’ कहा जा सकता है। उत्पत्ति की दृष्टि से विधि’ का अंग्रेजी पर्याय ‘लॉ’ ट्यूटोनिक धातु ‘लैग’ से निकला है, जिसका अर्थ है कोई ऐसी वस्तु जो एकसार हो अर्थात् बँधी हुई हो। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश शब्दकोष में ‘विधि’ (law) को राज्य द्वारा लागू किया गया आचरण-सम्बन्धी नियम कहा गया है। विधिशास्त्रियों ने अपनी विचारधाराओं के अनुसार विधि की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं।

विभिन्न समुदायों ने विधि (law) के लिए अलग-अलग पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। रोमन विधि के अंतर्गत इसे ‘जस’ (jus) , फ्रांस में ‘ड्रॉइट’ (droit ) जापान की विधि में गिरि’ (giri) तथा इस्लामिक व्यवस्था में हुकुम’ (Hukum) कहा गया है। प्राचीन हिन्दू विधि में विधि को ‘धर्म’ (dharma) के नाम से संबोधित किया जाता था जिसमें धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और विधिक कर्तव्यों का समावेश था। व्यापक अर्थ में ‘धर्म’ में वे सभी नियम और व्यवस्थाएँ सम्मिलित थीं जिनके आधार पर जगत में मानवीय आचरण नियंत्रित होते हैं। धर्म की व्याख्या सर्वप्रथम ऋग्वेद में की गयी थी। बाद में उपनिषदों तथा जैमिनि के दर्शनशास्त्र ने इसके क्षेत्र को अधिक व्यापक बना दिया।

मनुरचित स्मृति में ‘धर्म’ (dharma) के पाँच प्रकार बताये गये हैं-(1) वर्ण धर्म, (2) आश्रम धर्म, (3) वर्णाश्रम धर्म, (4) प्रायश्चित (atonement) तथा (5) गुणधर्म अर्थात् शासक का प्रजा का रक्षण करने संबंधी कर्तव्य। भारत में अंग्रेजी शासन के साथ ‘धर्म’ का अर्थ संकुचित होता गया और वह धार्मिक कृत्यों तक ही सिमिट कर रह गया।

विधि और न्याय के बीच सम्बन्ध (Relation between Law and Justice)

विधि की प्रकृति तथा उसके विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किये जाने के पूर्व विधि के प्रमुख उद्देश्य को समझ लेना अत्यावश्यक है। सभी विधिशास्त्रियों ने विधि को न्याय का एक साधन माना है, अर्थात् विधि एक माध्यम है जिसके द्वारा न्याय प्राप्त किया जाता है। विधि के बिना न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि यह एक ऐसा माध्यम है जिसके आधार पर न्याय और अन्याय अथवा सही और गलत में विभेद करना सम्भव होता है। यदि विधि न हो, तो न्याय एक कोरी कल्पना बनकर रह जायेगा। समाज में मानव आचरण के औचित्य या अनौचित्य का निर्धारण विधि द्वारा ही किया जाता है, अतः विधि और न्याय का एक दूसरे से इतना निकटस्थ सम्बन्ध है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अनेक विधिज्ञों ने विधि को न्याय का । पर्यायवाची माना है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, विधि तो न्याय का एक साधन मात्र है जिसका अन्तिम लक्ष्य न्याय सुनिश्चित करना है।

जन साधारण द्वारा विधि का अनुपालन क्यों किया जाता है?

विधि के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि आखिर लोग विधि का अनुपालन क्यों करते हैं। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि विधि के नियम समाज में लोगों के आचरण के मापदंड निर्धारित करते हैं इसलिये विधि का अनुपालन करना वे अपना नैतिक कर्त्तव्य समझते हैं।

 प्लेटो तथा अरस्तू (Plato and Aristotle) जैसे महान यूनानी विचारकों (Greek Philosophers) ने

183 लिखित विधि को सर्वोच्च इसलिये माना क्योंकि उनके अनुसार इसके पीछे दैविक आधार था जिसे प्रकृति ने नव को प्रदान किया था। अत: इसकी अवहेलना करना ईश्वर की अवहेलना करने के समान था। तथापि सर थॉमस एक्वीनास (Sr. Thomas Acquinas) जैसे पश्चातुवर्ती दार्शनिकों ने विधि के प्रति अधिक तर्कसंगत (Rational) दृष्टिकोण अपनाते हुये अभिकथन किया कि लोग विधि का अनुपालन तभी करते हैं यदि वे उसे तर्क (reason) के आधार पर उचित मानते हैं। बाद में ऑस्टिन, बेंथम आदि ने विधि को राज्य के संप्रभुताधारी का समादेश मानते हुये उसका अनुपालन अनिवार्य बताया। लेकिन 20वीं सदी के समाजशास्त्रीय विधिज्ञों ने विधि के आदेशात्मक सिद्धान्त को नकारते हुये अवधारित किया कि वर्तमान प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्थाओं में प्रजाजन विधि का अनुपालन इसलिये करते हैं क्योंकि वे इसे अपने कल्याण का माध्यम मानते हैं न कि इसलिये कि वह राज्य का समादेश है।

विधि की परिभाषा

‘विधि’ को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि इसमें अनेक कठिनाइयाँ हैं। प्रथमत:, विभिन्न समाजों में विधि’ को अलग-अलग अर्थ में लिया गया है तथा इसके लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया। गया है। अतः विधि की ग्राह्य परिभाषा में उन सभी तत्वों का विद्यमान होना अपेक्षित है जो उपर्युक्त विभिन्न भावों को दर्शाते हों। द्वितीयतः विधिशास्त्रियों ने विधि की परिभाषा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से की है। कुछ ने इसे इसके क्रियान्वयन के आधार पर परिभाषित किया है जबकि अन्य इसकी प्रकृति के अनुसार परिभाषित किया जाना ही उचित मानते हैं। कुछ विद्वान् इसे उद्देश्य की दृष्टि से परिभाषित करते हैं। तथा कुछ इसके परिणामों के आधार पर। अतः विधि की एक सर्वमान्य सम्पूर्ण परिभाषा देना लगभग असम्भव-सा है।  

विधि की निश्चित परिभाषा में एक अन्य कठिनाई यह है कि यह सामाजिक विज्ञान से संबंधित होने के कारण सदैव परिवर्तनशील होती है और सामाजिक बदलाव के साथ-साथ स्वयं को परिमार्जित करती रहती है। विभिन्न देशों की जीवन-पद्धति, मान्यताएँ एवं धारणाएँ भिन्न-भिन्न होने के कारण विधि की सर्वमान्य परिभाषा देना व्यावहारिक दृष्टि से भी उचित नहीं होगा। इसके अतिरिक्त विधि का संबंध मानव व्यवहारों को नियंत्रित रखने से है तथा मानव जीवन क्लिष्ट एवं जटिलतापूर्ण होने के कारण विधि भी एक जटिल संकल्पना है, जिसकी निश्चित परिभाषा दी जाना कठिन होता है।

विधि की परिभाषा के संबंध में उक्त कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए एच० एल० ए० हार्ट ने कहा है। कि विधि को छोड़कर मानव जीवन से संबंधित शायद ही कोई ऐसा प्रश्न होगा जिसका निश्चित उत्तर दिया जाना संभव न हो। अपनी विविधता के कारण विधि क्या है?’ यह सदैव ही एक जटिल प्रश्न बना हुआ।2

तथापि विधि के अर्थ को समझने की दृष्टि से प्रमुख विधिशास्त्रियों द्वारा दी गयी विधि की परिभाषाएँ। नीचे दी गयी हैं-

हूकर (Hooker) के अनुसार ‘ऐसे नियम अथवा उपनियम जिनके द्वारा मनुष्यों के कार्य संचालित होते हैं, विधि कहलाते हैं।’

मांटेस्कयू (Montesquieu)

माटस्क्यू ने विधि की व्याख्या करते हुए कहा है कि व्यापक अर्थ में विधियाँ’ प्राकृतिक वस्तुओं के स्मारक सम्बन्धों का निर्देश करती हैं। ईश्वर की स्वयं की विधियाँ हैं, भौतिक संसार की तथा मनुष्य की

1. H. L. A. Hart : Concept of Law (1961) p. 56.

2. एच० एल० ए० हार्ट : दि कन्सेप्ट ऑफ लॉ (ऑक्सफोर्ड 1961) पृ० 1.

विधियाँ होती हैं।’ इस परिभाषा के अनुसार विधियाँ तीन प्रकार की होती हैं(1) दैवी विधि, (2) भौतिक विधि तथा (3) मानव विधि।

दैवी विधियाँ ईश्वर की इच्छा से सम्बन्धित होती हैं। भौतिक विधि प्रकृति के क्रम की अभिव्यक्ति होती है जिसमें गति, प्रकाश तथा गुरुत्वाकर्षण आदि से सम्बन्धित विधियाँ सम्मिलित हैं।

मान्टेस्क्यू ने मानव विधि के दो प्रकार बताये हैं।

उनके अनुसार मानवीय विधियाँ या तो नैतिक नियम होते हैं या वैधानिक नियम । नैतिक नियम व्यवहार सम्बन्धी नीतिशास्त्र पर आधारित होते हैं तथा इन्हें प्रभुतासम्पन्न द्वारा लागू किया जाता है। वैधानिक विधियों को नागरिक नियम’ कहा जा सकता है क्योंकि ये किसी देश के नागरिकों के प्रति लागू होने वाली विधियाँ होती हैं, जिन्हें किसी सुनिश्चित प्राधिकारी (Authoritv) द्वारा लागू किया जाता है। ऑस्टिन ने प्रथम प्रकार की मानवीय विधियों (अर्थात् नैतिक नियमों) को निश्चयात्मक नैतिक आचार के नियम (rules of positive morality) कहा है जबकि द्वितीय प्रकार की मानवीय विधि (अर्थात् वैधानिक विधि) को निश्चयात्मक विधि (positive law) की संज्ञा दी है।

ब्लैकस्टोन (Blackstone)

ब्लैकस्टोन ने विधि की परिभाषा देते हुए कहा है कि कार्यों के सम्पूर्ण नियमों को ‘विधि’ (rule of action) कहा जाता है। व्यापक अर्थ में ‘विधि’ के अन्तर्गत गति सम्बन्धी विधि (Law of motion), गुरुत्वाकर्षण-विधि (gravitation law), प्रकाश-विज्ञान की विधि, यन्त्र-ज्ञान संबंधी विधि, रसायन-विधि, भौतिक विधि, सदाचार की विधि, प्रतिष्ठा संबंधी विधि, प्राकृतिक विधि, राष्ट्रीय विधि आदि अनेक प्रकार की विधियों का समावेश किया जा सकता है।”

 हालैण्ड (Holland)

हालैण्ड के अनुसार, विधि से आशय मानवीय कृत्यों के उन सामान्य नियमों से है, जिनकी अभिव्यक्ति मनुष्य के बाह्य आचरणों द्वारा होती है और जो किसी सुनिश्चित प्राधिकारी द्वारा लागू किये जाते हैं। यह प्राधिकारी कोई ऐसा व्यक्ति होता है जिसे उन मानवीय प्राधिकारियों में से चुना जाता है जो राजनीतिक समाज में सर्वशक्तिमान होते हैं।”3

सामण्ड (Salmond)

सामण्ड के अनुसार सामान्य अर्थ में विधि के अन्तर्गत सभी कार्यों सम्बन्धी नियमों का समावेश है। उनका कथन है कि विशिष्ट अर्थ में विधि से तात्पर्य नागरिक विधि से है जो किसी देश के नागरिकों के प्रति लागू होती है। सामण्ड इसे राज्य की विधि या प्रदेश की विधि, वकीलों की विधि और न्यायालयीन विधि कहते हैं। उनके अनुसार वास्तव में विधिशास्त्रीय विधि वही है जो न्याय की स्थापना के लिए न्यायालयों द्वारा लागू की जाती है। ऑस्टिन ने इसी विधि को निश्चयात्मक विधि (positive law) कहा है क्योंकि यह राज्य के प्रभुताधारी द्वारा लागू की जाती है। कुछ विधिशास्त्री इसे ‘स्थानीय विधि’ (municipal law) भी कहते हैं। परन्तु सामण्ड का विचार है कि नागरिक विधि को ‘निश्चयात्मक विधि’ या स्थानीय विधि कहना भ्रामक है। नागरिक विधि (civil law) को न तो निश्चयात्मक विधि ही कहा जा सकता है और न स्थानीय विधि।

ऑस्टिन (Austin)

विधि की विश्लेषणात्मक शाखा के मुख्य प्रवर्तक ऑस्टिन ने विधि को ‘‘प्रभुताधारी या राजनीतिक दृष्टि उच्चतर व्यक्तियों द्वारा शासित व्यक्तियों पर अधिरोपित किये गये नियमों का समूह” निरूपित किया है। ये

3. हालैण्ड : दी एलीमेन्ट ऑफ ज्यूरिस्थूडेंस, पृ० 18-19.

4. सामण्ड : ज्यूरिस्थूडेंस (बारहवाँ संस्करण), पृ० 19.

नियम व्यक्तियों से एक निश्चित आचरण की अपेक्षा करते हैं, जिनके लिए शासित वर्ग कर्तव्यबद्ध है तथा इनके पीछे दण्ड की शास्ति होती है। इसे ऑस्टिन ने ‘पॉजिटिव लॉ’ कहा है। परन्तु अनेक विद्वानों ने ऑस्टिन द्वारा दी गई विधि की इस परिभाषा की आलोचना की है क्योंकि सभी विधियाँ समादेश (command) नहीं होतीं। इसके अतिरिक्त अनेक विधियाँ समर्थकारी (enabling) स्वरूप की होती हैं न कि प्रतिबंधात्मक, अत: | उन्हें ‘कर्तव्य’ कहा जाना उचित नहीं है। सभी विधियों के पीछे शास्ति का भय उनके अनुपालन का कारण नहीं होता वरन् इसके अन्य कारक भी होते हैं। ऑस्टिन ने अपनी विधि की परिभाषा में विधि के सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलू की अनदेखी की है, इसीलिए वे अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा प्रथागत विधियों को वास्तविक विधि नहीं मानते हैं।

केल्सन (Kelson)

यद्यपि केल्सन (Kelson) ने भी विधि को समादेश के रूप में परिभाषित किया है, लेकिन ‘समादेश’ से उनका आशय कर्तव्य अधिरोपित करने से है। इस प्रकार उनके द्वारा दी गयी विधि की परिभाषा ऑस्टिन द्वारा दी गई परिभाषा से भिन्न है, क्योंकि इसमें प्रभुताधारी की शक्ति का उल्लेख नहीं है। केल्सन ने विधि के ‘अमनोवैज्ञानिक समादेश’ (depsychologized command) कहा है। केल्सन के अनुसार विधि समाज को संगठित रखने की तकनीक है जो स्वयं में साक्ष्य न होकर लोगों को नीतिशास्त्र के नियमों का अनुगमन करने के लिए बाध्य करती है।

रास्को पाउण्ड (Roscoe Pound)

डीन रास्को पाउण्ड ने ‘विधि’ शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया है

(1) प्रथम अर्थ में विधि एक ऐसी वैधानिक व्यवस्था (legal order) है जिसके द्वारा किसी सुसंगठित | राजनीतिक समाज में मानव आचरणों को सामाजिक नियंत्रण में रखा जाता है।  

(2) दूसरे अर्थ में विधि प्राधिकारिक मार्गदर्शन (authoritative guide) का कार्य करती है।

(3) तीसरे अर्थ में विधि के अन्तर्गत देश की सभी न्यायिक तथा प्रशासनिक क्रियाएँ समाविष्ट हैं।

सारांश यह कि रास्को पाउण्ड देश की सामान्य विधि-प्रणाली को ही ‘विधि’ के रूप में स्वीकार करते | हैं पाउण्ड के अनुसार विधि’ और ‘नैतिकता’ का उद्गम-स्रोत एक ही होता है किन्तु उनके विकास की क्रिया में भिन्नता होती है। नैतिकता का सम्बन्ध मनुष्य की अन्तरात्मा से होता है जबकि विधि का प्रयोजन मनुष्य के बाह्य आचरणों को नियंत्रित करना है। नैतिकता का परित्याग सरलता से किया जा सकता है परन्तु विधि की अवहेलना करना उतना सरल नहीं होता। नैतिकता केवल ‘कर्तव्य’ पर बल देती है जबकि विधि कर्तव्य एवं अधिकार, दोनों को ही महत्व देती है। रास्को पाउण्ड के मतानुसार विधि और नैतिकता में अनेक भिन्नताएँ होते हुए भी इन्हें एक दूसरे से पूर्णत: पृथक् नहीं रखा जा सकता है।

जी० डब्ल्यू० पैटन (G. W. Paton)  

प्रोफेसर पैटन ने रास्को पाउंड द्वारा दी गई विधि की उपरोक्त परिभाषा का समर्थन करते हुए कहा है कि विधि नियमों का ऐसा समह या संकुल है जो समाज में बंधनकारी शक्ति के रूप में कार्य करती है, जिसके कारण लोग इन नियमों का अनुपालन करने की ओर प्रवृत्त होते हैं 6

जे० सी० ग्रे (J. C. Gray)

जे० सी० ग्रे के अनुसार विधि उन परिस्थितियों का विवेचन करती है जिनमें न्यायालय के माध्यम से समाज के व्यक्तियों को अपना आचरण नियंत्रित रखने के लिए बाध्य किया जाता है अतः विधि ऐसे नियमों संकलन है जिनके द्वारा न्यायालय द्वारा व्यक्तियों के अधिकार और कर्तव्यों का निर्धारण किया जाता है। सर ग्रे के अनुसार संविधियाँ (statutes) स्वयं विधि का भाग न होकर विधि का स्रोत मात्र होती हैं।

5. पाउण्ड : जस्टिस एकार्डिंग टु लॉ (1952), पृ० 49.

6. पैटन : ए टेक्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिसपूडेन्स पृ० 68.

ड्यूग्विट (Duguit)

ड्यूग्विट ने विधि को परिभाषित करते हुए कहा है कि यह एक अनन्य सामाजिक तथ्य है तथा इसे किसी भी अर्थ में अधिकारों का बोध कराने वाले नियमों का समूह नहीं माना जा सकता है। विधि का मूल आधार सामुदायिक जीवन का अस्तित्व होने के कारण विधि का अस्तित्व तभी सम्भव है, जब व्यक्ति सामूहिक रूप से साथ-साथ रहते हैं। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण तथ्य व्यक्तियों की एक-दूसरे पर परस्पर निर्भरता है, जिसे ड्यूग्विट ने ‘सामाजिक समेकता’ (social solidarity) कहा है। ड्यूग्विट का यह भी मानना है कि विधि की वैधता का आधार उसकी सामाजिक ग्राह्यता है न कि प्रभुताधारी की आज्ञा या समादेश, क्योंकि प्रभुताधारी विधि से श्रेष्ठतर न होकर वह स्वयं विधि से बाध्य होता है। अतः विधि सामाजिक वास्तविकताओं पर ही आधारित होनी चाहिए।

एच० एल० ए० हार्ट (H. L. A. Hart)

हार्ट ने विधि की निश्चित परिभाषा की समस्या के विषय में लिखा है कि विधि क्या है? इस प्रश्न को छोड़कर मानव समाज में शायद ही ऐसा कोई अन्य प्रश्न बार-बार पूछा जाता रहा होगा और उसका अलगअलग उत्तर दिया जाता रहा होगा। उन्होंने विधि को औचित्य की पुकार (dictate of reason) मानते हुए। कहा है कि विधि के नियम व्यक्ति के लिए कर्तव्य पालन का आह्वान करते हैं तथा निषेध द्वारा अपकृत्यों से परावृत्त रखते हैं। परन्तु विधि किसी सदाचरणी व्यक्ति पर व्यर्थ के आदेश नहीं थोपती और न व्यर्थ के प्रतिबंध ही लगाती है।  

विधी का स्वरूप (Nature of Law)

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि विधि’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जा सकता है। वस्तुतः विधि की कोई सर्वसम्मत परिभाषा प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। कीटन (Keeton) ने कहा है कि विधि की। एक सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत करने के लिए विधिशास्त्र के विस्तार को सीमित करना आवश्यक है। फिट्सजेराल्ड (Fitzgerald) का निश्चित मत है कि विधि को परिभाषा की सीमा में बाँधना उचित नहीं होगा।’

पद ‘विधि’ का प्रयोग प्राय: दो विभिन्न अर्थों में किया जाता है। जर्मी बेन्थम (Jeremy Bentham) ने ‘विधि’ (the law) तथा एक विधि’ (a law) में विभेद स्पष्ट करते हुये लिखा है कि शब्द विधि’ किसी देश की विधि-व्यवस्था (legal system) में सन्निहित समग्र विधियों के लिये प्रयुक्त होता है जबकि एक विधि से आशय किसी कानुन-विशेष का बोध होता है। जैसे “भारतीय विधि से अभिप्रेत भारतीय विधि व्यवस्था में प्रचलित सभी कानून जबकि ‘एक विधि’ किसी कानून विशेष की द्योतक होती है, जैसे–उपभोक्ता संरक्षण विधि, दहेज सम्बन्धी कानून, दण्ड विधि, संविदा विधि आदि।

विधि के कार्य (Function of Law)

विधि को एक मानकीय विज्ञान (normative science) कहा गया है, अर्थात्, यह मानवीय आचरण के मापदण्ड और मानक विहित (prescribes standards and norms) करती है। विधि का मानकीय स्वरूप (normative nature) ही उसे अन्य सामाजिक विज्ञानों से पृथक् करता है। सामाजिक मूल्यों के स्थायीकरण में विधि का स्थायित्व तथा उसकी निश्चितता का अत्यधिक महत्व है-न्यायाधीशों द्वारा विधि का निर्माण नहीं किया जाता, अपितु वे विधि की व्याख्या मात्र करते हैं, परन्तु फिर भी वे अपने निर्णयों के माध्यम से विधि को समयानुकूल बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं।

उन्नीसवीं सदी में समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के विकास के साथ विधि की भूमिका अधिक क्रियात्मक होने लगी तथा विधि को कल्याणकारी राज्य का एक सशक्त माध्यम माना जाने लगा है, जो जस्टिस होम्स (Justice Holmes) के निम्नलिखित कथन से स्पष्ट होता है। उनके अनुसार-

7. हार्ट एच० एल० ए० : दि कान्सेप्ट ऑफ लॉ (ऑक्सफोर्ड 1961) पृ० 1.

‘विधि का अस्तित्व तार्किक मात्र न होकर अनुभवात्मक है।8 विधि के निर्माण में समय की आवश्यकतायें, प्रचलित नैतिक एवं राजनीतिक अवधारणायें, लोकनीति, न्यायाधीशों की वैयक्तिक धारणायें तथा पूर्वाग्रह (prejudice) आदि की झलक स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है।” । सारांश यह कि विधि का कार्य सामाजिक यन्त्रीकरण (social engineering) की भाँति है तथा उससे सामाजिक, आर्थिक और विधिक न्याय सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है। विधि एक परिवर्तनशील । परिकल्पना है जो समय की आवश्यकताओं के साथ स्वयं को ढालती है और जिसका एकमात्र लक्ष्य लोक कल्याण होता है।

सामाजिक परिवर्तन के माध्यम के रूप में विधि की भूमिका

वर्तमान समय की धारणा यह है कि विधि सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है जो समाज में व्यक्तियों के हितों का संरक्षण करती है तथा लोगों के हितों के आपसी टकराव का निवारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जन सामान्य के हितों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को विधि द्वारा दण्डित किया जाता है। विधि के उचित प्रयोग के लिये यह अत्यावश्यक है कि न्यायालयों के न्यायाधीशों में विधायकों की बुद्धिमत्ता, इतिहासकारों की दूरदर्शिता तथा सत्य को परखने की क्षमता हो और वे समयानुकूल न्यायिक निर्णय दे सकें। विधि द्वारा लोगों के जीवन एवं सम्पत्ति और अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिये। तथा भारत जैसे असमानता प्रधान देश में उपेक्षितों की स्वतन्त्रता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि लाकर एक सुव्यवस्थित समाज स्थापित हो सके।

यदि विधि को जनसाधारण की मूलभूत आवश्यकताओं का पूरक माना जाये तो उसमें समाज के मूल्यों तथा आदर्शों का समावेश होना अनिवार्य है, इसलिये यह कहा गया है कि विधि गतिमान (dynamic) संकल्पना है जो समय के परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। इस विचार के समर्थन में भारत के पूर्वन्यायाधिपति न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती द्वारा नेशनल टेक्सटाइल वर्ल्स यूनियन बनाम पी० रामकृष्णा के बाद में दिये गये निर्णय का अंश प्रस्तुत करना समीचीन होगा।

उनके अनुसार

‘विधि मूकदर्शक बनकर खड़ी नहीं रह सकती । सामाजिक विचारों तथा मूल्यों में परिवर्तन के साथ उसे स्वयं को बदलना ही होगा। यदि किसी वृक्ष की छाल जो वृक्ष का संरक्षण करती है, वृक्ष की वृद्धि के साथ बढ़ने में असमर्थ रहती है, तो या तो वह उस वृक्ष की वृद्धि को रोक देगी, और यदि वह वृक्ष जीवित है। तो वह उस छाल को निकाल फेंकेगा और स्वयं वृद्धि करते हुये नई छाल तैयार करेगा। इसी प्रकार यदि विधि समयानुसार बदलती हुयी समाज की आवश्यकताओं का समाधान करने में विफल रहती है, तो इससे समाज के विकास की गति रुक जायेगी, और यदि समाज में ओजस्विता (vigorousity) है, तो वह ऐसे अक्षय विधि को उखाड़ फेंकेगा। अतः विधि को सदैव स्वयं को बदलती हुयी सामाजिक परिस्थितियों के साथ ढालते । रहना चाहिये, और यदि वह पीछे रह जाती है, तो लोग उसे अस्वीकार कर देंगे।”

उल्लेखनीय है कि विगत 55 वर्षों में भारत का संविधान में हुये एक सौ से अधिक परिवर्तन उपर्युक्त कथन की पुष्टि करते हैं।

विधिशास्त्रियों ने विधि के प्रति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाते हुये इस विषय में अपने विचार व्यक्त किये हैं जिनमें दार्शनिक, ऐतिहासिक, विश्लेषणात्मक, समाजशास्त्रीय तथा माक्र्सवादी विचारों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है।

1. दार्शनिक विचारधारा

प्राचीन धर्म-दार्शनिकों (theologians) ने विधि को ईश्वर प्रदत्त माना है। डेमास्थनीज Demosthenese) के अनुसार प्रत्येक विधि ईश्वर की देन और महर्षियों के विनिश्चय हैं।”10 प्रसिद्ध

8. The life of law has not been logic; it has been experience”–Justice Holmes.

9. ए० आई० आर० 1983 (1) एस० सी० सी० 228.

10. Every law is a gift of God and decision of Sages.

दार्शनिक सिसरो (Cicero) ने कहा है कि विधि सबसे महत्वपूर्ण औचित्यदर्शी तर्क है जो मनुष्य को उचित की ओर प्रेरित करती है तथा उसे अनुचित से परावृत्त रखती है। विधि के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाने वाले आदर्शवादी लेखकों में प्लेटो, अरस्तू, रूसो आदि प्रमुख हैं। इनके मतानुसार विधि समाज में प्रचलित न्याय और अन्याय की धारणा की प्रतीक है। इन विद्वानों की रुचि अमूर्त विधि (abstract law) में अधिक रही है न कि निश्चयात्मक विधि (positive law) में। इसी प्रकार के विचारों ने आगे चलकर प्राकृतिक विधि की अवधारणा को जन्म दिया। इन दार्शनिकों ने विधि को तर्क पर आधारित करते हुए कहा कि तर्कशक्ति ही उचित-अनुचित का बोध कराती है। अल्पियन (Ulpian) के अनुसार उचित और अनुचित का ज्ञान विधि ही कराती है। जस्टिनियन (Justinian) ने विधि को सभी क्रिया-कलापों तथा उचित और अनुचित का निर्धारक माना है।

2. ऐतिहासिक विचारधारा 

विधि सम्बन्धी ऐतिहासिक विचारधारा के प्रवर्तकों में सैविनी, विनोग्रेडाफ, हेनरी मेन, मेटलैण्ड तथा पोलक आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों के अनुसार विधि राज्य द्वारा नहीं बनायी जाती अपितु समाज में क्रियाशील शक्तियों का परिणाम है। उनके विचार से विधि का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। वस्तुत: राज्य का कार्य विधि-निर्माण करना नहीं अपितु उसे मान्यता देना और लागू करना है। इसीलिए वुडरो विल्सन ने विधि को प्रचलित विचारों और आदतों का ऐसा संकलन बताया है जिसे औपचारिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है और जो सरकार द्वारा सामान्य नियमों के रूप में लागू किये जाते हैं। इस विचारधारा को मानने वाले विधिशास्त्री प्रथा पर आधारित विधि को विशेष महत्व देते हैं। उनकी धारणा है कि इस प्रकार की विधियाँ स्वयंसिद्ध हैं।

सैविनी ने विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाते हुए ऑस्टिन के आदेशात्मक सिद्धान्त का खण्डन किया है। उनका तर्क है विधि राज्य के पूर्व से ही प्रथाओं के रूप में अस्तित्व में थी। आदिकालीन विधि प्रथाओं पर आधारित थी न कि राज्य के आदेशों पर। रूढिगत नियमों को विधि इसलिए नहीं माना जाता क्योंकि वे राज्य के आदेश हैं अपितु इसलिए कि उन्हें विधि के रूप में राज्य द्वारा मान्यता दी जाती है। अतः। सैविनी के विचार से विधि का वास्तविक-स्रोत जन-चेतना (volkgeist or the genius of the people) है।

विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाने वाले विधिशास्त्रियों का प्रमुख योगदान यह है कि इन्होंने इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया कि जनता की इच्छा ही विधि को वैधता दिलाती है न कि राज्य की शास्ति का भय; तथापि अनेक विद्वानों ने सैविनी के इन विचारों की आलोचना की है। प्रोफेसर ग्रे (Gray) ने सैविनी के विधि सम्बन्धी तर्क से असहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि प्रथा को राज्य द्वारा निर्मित विधि से गुरुतर मानना कदापि उचित नहीं है। उनके अनुसार सैविनी का यह कथन कि राज्य द्वारा लागू की गई सभी विधियाँ किसी न किसी प्रथा के रूप में पूर्व से ही विद्यमान रहती हैं, सही नहीं है। ऐसी अनेक विधियाँ हैं जिनके पीछे रूढ़ि या प्रथा का कोई आधार नहीं है। उदाहरणार्थ, भारत में शाश्वतता के विरुद्ध नियम (Rule against Perpetuities) विधि के रूप में लागू होने के पूर्व कभी अस्तित्व में नहीं थी।12 ऐसी अनेक संहिताएँ हैं, जो जनता की इच्छा के विरुद्ध विधि के रूप में लागू की गयी थीं। उदाहरण के लिए जर्मनी में । रोमन विधि को वहाँ की जनता की इच्छा के विरुद्ध लागू किया गया था।

3. विश्लेषणात्मक विचारधारा

इस शाखा के विधिशास्त्री वर्तमान विधियों का विश्लेषण करते हुए उनके स्रोतों और लागू करने के ढंग के आधार पर इनका वर्गीकरण करते हैं। हॉब्स, बेन्थम, ऑस्टिन, सामण्ड, जेथ्रो ब्राउन आदि इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक थे। हॉब्स और ऑस्टिन के अनुसार-‘विधि राज्य का आदेश है।” उसके अनुसार

11. Law is a reason without passion.–Aristotle.

12. के० कृष्णमेनन : आउटलाइन्स ऑफ ज्यूरिस्थूडेन्स (तृतीय सं० 1967), पृ० 41.

विधायिनी विधि का प्रमुख स्रोत है और राज्य की प्रभुताशक्ति इसके पीछे वास्तविक शास्ति (sanction) है। जेथ्रो ब्राउन ने कहा है कि सामान्यत: प्रत्येक विधि को प्रभुताधारी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों द्वारा स्वाधीन राजनीतिक समाज के सदस्यों के प्रति लागू किया जाता है।13 

बेन्थम के अनुसार विधि उन व्यक्तिगत कानूनों से मिलकर बनती है जो किसी राजनीतिक रूप से संगठित समाज में सर्वोच्च शक्ति के रूप में समाविष्ट है। ‘विधि’ को उपयोगितावाद’ (Utilitarianism) पर आधारित करते हुए बेन्थम ने कथन किया कि विधि के औचित्य का वास्तविक मापदण्ड उसकी उपयोगिता (utility) है, अर्थात् उससे मनुष्यों के सुख में वृद्धि होती है या कमी । उनका विचार है कि विधियों के औचित्य का मूल्यांकन इसी मापदण्ड के आधार पर किया जाना चाहिए।14

ऑस्टिन ने ‘लेक्चर्स ऑन ज्यूरिस्पूडेंस’ नामक अपने ग्रन्थ में विधि की प्रकृति के विषय में लिखा है कि ‘निश्चयात्मक विधि’ (positive law) उन समादेशों (commands) से मिल कर बनती है जो स्वतन्त्र राजनीतिक समाज के सदस्यों के लिए आचरण के सामान्य नियमों के रूप में प्रभुताधारी द्वारा लागू किये गये। हैं।15 अतः स्पष्ट है कि ऑस्टिन ने ‘विधि’ में निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक माना है

1. राज्य के लिए सर्वोच्च सत्ताधारी (supreme authority) होना आवश्यक है।

2. विधि का निर्माण साधारण समादेश के रूप में होता है।

3. विधि के पीछे प्रभुताधारी की शास्ति (sanction) होती है जो लोगों को विधि का अनुपालन करने के लिए बाध्य करती है।

सर हेनरी मेन ने आस्टिन के इन विचारों की आलोचना की है। उनका कहना है कि ऑस्टिन ने विधि के आज्ञात्मक पहलू को अनावश्यक महत्व दिया है। मेन (Maine) के अनुसार यह कहना गलत है कि सभी विधियाँ प्रभुताधारी का समादेश होती हैं। उनका कथन है कि ऑस्टिन ने अपनी परिभाषा में विधि और न्याय के परस्पर सम्बन्धों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा। हेनरी मेन ने ऑस्टिन की इस धारणा का भी विरोध किया कि विधि के पीछे शास्ति (sanction) ही बन्धनकारी शक्ति है। उनके अनुसार यह कहना। उचित नहीं है कि विधि केवल पीड़ात्मक शास्तियों पर ही आधारित है। अनेक विधियाँ ऐसी होती हैं। जिनका अनुपालन न किये जाने पर भी कोई दण्ड नहीं दिया जाता। उदाहरण के लिए विधि द्वारा प्रत्येक वयस्क नागरिक को मताधिकार16 प्राप्त है, परन्तु यदि कोई व्यक्ति अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करता, तो उसे दण्डित नहीं किया जाता है।”

विधिशास्त्र की ऑस्टिन-विरोधी शाखा (Non-Austinian School) के नेता सामण्ड ने विधि के प्रति अधिक व्यापक और तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाते हुए कथन किया है कि राज्य द्वारा निर्मित विधि मनुष्य के बाह्य आचरणों को विनियमित करती है। इन विधियों को राज्य के न्यायालयों या न्यायिक अधिकरणों में लागू किया जाता है और इनके उल्लंघन के लिए मृत्युदण्ड से लेकर छोटे-मोटे जुर्माने तक विभिन्न प्रकार की शास्तियों की व्यवस्था रहती है। शास्तियों की निश्चितता (certainty of sanctions) और इन्हें लागू करने के लिए निश्चित प्राधिकारी का होना वैधानिक विधि को नीतिशास्त्रीय विधि से अलग करता है। सामण्ड ने राज्य द्वारा इस प्रकार निर्मित विधि को ‘सिविल-विधि’ (civil law) कहा है।

सामण्ड ने ऑस्टिन के विधि सम्बन्धी विचारों की आलोचना करते हुए कहा है कि यह तर्क उचित नहीं 6 कि केवल प्रभुताधारी ही विधि का एकमात्र स्रोत है। सामण्ड के अनुसार विधि के अन्तर्गत विधायिनी द्वारा

13. जेथ्रो ब्राउन : दि ऑस्टिनियन थ्योरी ऑफ लॉ (1906), पृ० 219.

14. बेन्थम : इन्ट्रोडक्शन टु दि प्रिंसिपल ऑफ मोरल्स एण्ड लेजिस्लेशन पृ० 107.

15. ऑस्टिन : दि प्रॉविन्स ऑफ ज्यूरिस्पूडेंस प्री-डिटरमिन्ड (1954), पृ० 24.

16. भारत में सन् 1989 के इकसठवें संविधान संशोधन द्वारा मताधिकार को न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है.

निर्मित कानूनों के अतिरिक्त प्रथागत रूढ़ियों और न्यायिक पूर्व निर्णयों का समावेश भी है।17 रूढिगत विधि। लोकप्रिय प्रथाओं पर आधारित होती है और निर्णय-विधि न्यायिक कार्यवाही के परिणामस्वरूप निर्मित होती है; अत: ऑस्टिन द्वारा रूढ़िगत विधि और निर्णय-विधि को विधि’ की परिभाषा में समाविष्ट न किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। सामण्ड के अनुसार विधि से सम्बद्ध सिद्धान्त का मूल तत्व ‘लेक्स’ (lex) अर्थात् विधि न होकर ‘जस’ (jus) अर्थात् निर्विशेष विधि है। विधिशास्त्री को विधि की परिभाषा निर्विशेष (jus) अर्थों में ही करनी चाहिये ताकि उसमें विधायिनी द्वारा निर्मित तथा रूढियों और पूर्व-निर्णयों के आधार पर निर्मित विधियों का समावेश भी हो सके। ऑस्टिन ने विधि को लेक्स (विधि-विशेष) मानकर उसके प्रति अत्यन्त संकुचित दृष्टिकोण अपनाया है क्योंकि उसमें केवल विधायन द्वारा निर्मित विधि को ही विधि माना जा सकता है, रूढ़ियों तथा पूर्व-निर्णयों को नहीं । सामण्ड के अनुसार ऑस्टिन की प्ररिभाषा का एक अन्य दोष यह भी है कि उन्होंने आज्ञात्मक तत्व को अनावश्यक महत्व दिया है। सामण्ड का कथन है कि अनेक विधियाँ अनुज्ञात्मक प्रकृति (permissive nature) की होती हैं ।18 इसी प्रकार न्यायिक प्रक्रिया सम्बन्धी अनेक कानून आज्ञात्मक नहीं होते। सामण्ड के अनुसार ऑस्टिन ने विधि के नीति सम्बन्धी तत्व की ओर ध्यान नहीं दिया है। विधि सारत: किसी न्यायिक सिद्धान्त की घोषणा करती है इसलिए उसे न्याय से पृथक् नहीं रखा जाना चाहिए। वस्तुत: विधि न्याय का एक साधन मात्र है।19 इस दृष्टिकोण से आस्टिन की परिभाषा अधूरी है। 

प्रसिद्ध विश्लेषणवादी विधिवेत्ता जॉन इर्सकाइन (Join Erskine) ने विधि को परिभाषित करते हुए कहा है कि विधि प्रभुताधारी का ऐसा आदेश है जिनमें जनता के लिए सामान्य जीवन के नियम दिये रहते हैं और जिन्हें मानने के लिए जनता बाध्य रहती है। ग्रीन (Green) के अनुसार, विधि राज्य द्वारा लागू किये गये अधिकारों और कर्तव्यों की व्याख्या का ही एक स्वरूप है।’

4. समाजशास्त्रीय विचारधारा

विधि के प्रति समाजशास्त्रीय विचारधारा अपेक्षाकृत आधुनिकतम है। इसके समर्थकों में स्पेन्सर, ड्यूगिट, रास्को पाउण्ड, ग्रे, होम्स आदि के नाम प्रमुख हैं। इस विधिवेत्ताओं के अनुसार विधि सामाजिक शक्तियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है अतः इसका मूल्यांकन अमूर्त सिद्धान्तों के आधार पर न करके परिणामों के आधार पर किया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि इस शाखा के समर्थकों का दृष्टिकोण परिणाममूलक है। इसके अनुसार विधि का वास्तविक स्रोत मनुष्य की भावनाएँ और उसकी न्यायिक विचार-शक्ति है। लोग विधि का पालन इसलिए नहीं करते क्योंकि इसके पीछे दण्ड या शास्ति का भय है वरन् इसलिए करते हैं क्योंकि ऐसा करना वे उचित समझते हैं। ड्यूगिट ने विधि को सामाजिक अभिस्वीकृति का परिणाम माना है। उनका कहना है कि विधि समाज से पृथक् नहीं रह सकता क्योंकि यह समाज का एक अविच्छिन्न अंग है। विधि समाज के अनुशासन को अभिव्यक्त करती है। सरकार का कोई भी आदेश तब तक मान्य नहीं हो सकता जब तक कि वह न्याय की कसौटी पर खरा न उतरे।

आर० वोन इहरिंग (R. Von Ihring) ने विधि को सामाजिक हितों का संरक्षक निरूपित किया है। इहरिंग को विधि की समाजशास्त्रीय विचारधारा का प्रवर्तक माना जाता है। अतः उन्होंने विधि को समाज में मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला साधन माना है। विधि का प्रमुख कार्य यह है कि यह व्यक्तियों के परस्पर हितों के टकराव के कारण उत्पन्न होने वाले अन्तर्विरोध को कम करे ताकि सामाजिक हित का संवर्धन हो सके। किसी भी विधि-व्यवस्था की सफलता इस आधार पर आंकी जानी चाहिए कि वह वैयक्तिक तथा सामाजिक हितों में परस्पर समन्वय स्थापित कर सकी है अथवा नहीं। इहरिंग के अनुसार विधि के मुख्यतः तीन प्रयोजन होते हैं-(1) वह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने में सहायक होती है; (2) विधि सामाजिक हितों के संवर्धन का प्रभावी साधन है; तथा (3) इसके अपालन में शास्ति का भय लोगों को विधि का

17. सामण्ड : ज्यूरिस्पूडेन्स (10वाँ संस्करण) पृ० 22.  

18. सगोत्र विवाह इसका एक उदाहरण है.

19. Law is an instrument of justice.

अनुपालन करने के लिए बाध्य करता है तथा इस प्रकार विधि का बंधनकारी प्रभाव उसकी शास्ति में अन्तर्निहित रहता है।

इहर्लिच (Ehrlich) ने भी इहरिंग के उपर्युक्त विचारों का समर्थन किया है। उनके अनुसार विधि’ ऐसे औपचारिक नियमों का समूह है जो मानव के सामाजिक जीवन को अनुशासित करती है। उनका मत था कि विधि के विकास का केन्द्र बिन्दु न तो विधायन है और न न्याय-विज्ञान और न न्यायिक निर्णय, वरन् वह समाज में ही अन्तर्विष्ट होता है। इसीलिए उन्होंने विधि को लोगों का जीवंत कानून’ (living law of the people) निरूपित किया है। 

डीन रास्को पाउण्ड के अनुसार विधि उन सिद्धान्तों का संकलन है, जो जनता या न्यायालयों द्वारा बनाये और लागू किये जाते हैं तथा जिनका उद्देश्य न्याय की स्थापना करना है। उनके अनुसार विधि तीन प्रकार के हितों का संरक्षण करती है-(1) वैयक्तिक हित, (2) लोकहित तथा (3) सामाजिक हित।

यहाँ अमेरिकी यथार्थवादी शाखा के मुख्य प्रवर्तक प्रोफेसर ग्रे (Prof. Gray) की विधि सम्बन्धी धारणाओं पर विचार करना भी उचित होगा। ग्रे के अनुसार किसी राज्य अथवा मनुष्यों के संगठित समुदाय की विधि के अन्तर्गत वे नियम समाविष्ट होते हैं, जिन्हें न्यायालय विधिक अधिकारों और कर्तव्यों के निर्धारण हेतु लागू करते हैं।”20 स्पष्ट है कि ग्रे विधि-निर्माण में न्यायाधीशों की भूमिका को महत्व देते हैं।

डॉ० ज्यूलियस स्टोन (Dr. Julius Stone) ने भी पाउंड के विचारों का समर्थन करते हुए विधि को मानव हितों का संरक्षक निरूपित किया है। उन्होंने हितों को दो मुख्य वर्गों में वर्गीकृत किया है-(1) सामाजिक हित एवं (2) व्यक्ति के निजी (प्राइवेट) हित । सामाजिक हितों में राष्ट्रीय सुरक्षा, समाज की आर्थिक प्रगति, धार्मिक एवं बौद्धिक मूल्यों का संरक्षण, पर्यावरण, जनसंख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य एवं संस्कृति की संरक्षा आदि का समावेश है। प्राइवेट हितों में व्यक्ति के वैयक्तिक हितों, जैसे पारिवारिक जीवन, राजनीतिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति एवं वाक् स्वातंत्र्य, संपत्ति के अधिकार, विवाह, धनोपार्जन आदि शामिल है।

परन्तु रास्को पाउंड तथा ज्यूलियस स्टोन दोनों ने ही इस बात को भुला दिया कि सामाजिक हित एवं वैज्ञानिक हित, दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं तथा सामाजिक हित में वैयक्तिक हित स्वयमेव समाविष्ट है। इसी प्रकार व्यक्तिगत हितों की सुरक्षा तभी संभव है जब समाज सुचारु रूप से कार्य कर रहा हो। अत: इन दोनों प्रकार के हितों को अलग-अलग वर्गों में विभक्त करना न्यायोचित नहीं है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के नैतिक उत्थान को सदैव ही सर्वोपरि महत्व दिया जाता रहा है ताकि एक आदर्श समाज की स्थापना हो सके।

विधि के प्रति न्यायालयीन दृष्टिकोण रखने वाले न्यायशास्त्रियों में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश डगलस होम्स का स्थान प्रमुख है। उन्होंने विधि के विषय में कहा है कि “विधि ऐसी परिस्थितियों का वर्णन है जिनमें सार्वजनिक शक्ति न्यायालयों के माध्यम से लोगों पर लागू की जाती है।”21 यह परिभाषा इस ओर संकेत करती है कि विधि के निर्माण में न्यायालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परन्तु । पटन (Paton) ने इस विचार का खण्डन करते हुए कहा है कि ‘‘वस्तुतः यह परिभाषा ऑस्टिन की परिभाषा दूसरा रूप है क्योंकि यह उस संस्था को ही परिभाषित करती है जिससे विधि की उत्पत्ति हुई है।”

जस्टिस होम्स ने विधि को न्यायिक प्रक्रिया की उत्पत्ति मानते हुए कहा है कि विधि यह उद्घोषित करता है कि न्यायालय क्या करेंगे। न्यायाधीश जेरोम फ्रेंक ने भी विधि को न्यायिक निर्णय का ही एक रूप माना है।

20. ग्रे जे० सी० : नेचर एण्ड सोर्सेज ऑफ लॉ, पृ० 90.

21. Law is the statement of the circumstances in which public force will be brought to bear upon through courts.- Justice Holmes.

6. मार्क्सवादी दृष्टिकोण

मार्क्सवादी विधिक विचारधारा (Marxist Theory of Law) के मुख्य प्रवर्तक कार्ल मार्क्स और एजिल्स (Carl Marx and Engels) थे जिन्होंने साम्यवादी विधि सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसे सोनिया लीगल थ्योरी (Soviet Legal Theory) भी कहा गया है। इस विधिक सिद्धान्त का सूत्रपात सन् 1917 की रूस की क्रांति (Russian Revolution of 1917) के परिणामस्वरूप हुआ। कार्ल मार्क्स ने अपने ‘कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो’ में कहा कि राज्य का विकास समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी संघर्ष का इतिहास मात्र है। समाज की प्रारंभिक अवस्था में दास प्रथा (slavery) इसका ज्वलंत उदाहरण है जब संभ्रात वर्ग के लोग दासों (गुलामों) का शोषण करते थे। यही व्यवस्था कालांतर में सामंतवादी व्यवस्था (feudalism) में परिणित हुई जिसके भू-स्वामी सामंत अपने मातहत भूमिहीन कृषकों का आर्थिक शोषण करते थे। बाद में व्यापारिक, वाणिज्यिक एवं औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ इस व्यवस्था ने पूँजीवाद का रूप धारण कर लिया जिसके अंतर्गत उद्योगपति और मजदूर वर्ग में निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रही।

कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित मार्क्सवादी विचारधारा मुख्यत: तत्कालीन वैज्ञानिक प्रगति के कारण समाज में हो रही प्रगति तथा धार्मिक विचारधारा द्वारा इससे निपटने में असफलता के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आयी। माक्र्सवादियों ने समाज के निर्धन व्यक्तियों की स्थिति में सुधार हेतु माक्र्सवाद को अपनाया जो श्रमिकों की दुर्दशा के लिये ऑस्टिन के प्रमाणवाद (Positivism) को दोषी मानते थे। उनका एकमात्र उद्देश्य गरीब श्रमवर्ग को धन सम्पन्न पूंजीवादियों के शोषण से बचाना था।

उल्लेखनीय है कि कार्ल मार्क्स ने विधि को परिभाषित करने की आवश्यकता अनुभव न करते हुए अपना ध्यान केवल इस ओर केंद्रित किया कि विधि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ । हंट (Hunt) ने मार्क्सवादी विचारधारा में विधि संबंधी निम्नलिखित लक्षणों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-

1. विधि राजनीति का ही एक अभिन्न अंग है तथा इसे राजनीति से पृथक् नहीं किया जा सकता

| है। मार्क्सवादियों ने अपनी सत्ताशक्ति बढ़ाने के लिये विधि को साधन के रूप में अपनाया।

2. विधि और राज्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है और विधि राज्य से अपेक्षाकृत स्वायत्तता सम्पन्न है। | जैसे-जैसे वर्ग-रहित समाज उभरता जायेगा, राज्य की शक्ति क्षीण होती चली जायेगी और

अन्ततोगत्वा राज्य मुरझा जायेगा।

3. विधि में तात्कालिक आर्थिक संबंध एवं स्थिति प्रतिबिंबित होती है।

4. विधि में उत्पीडनात्मक तत्व आवश्यक रूप से विद्यमान रहता है तथा उत्पीडन के माध्यमों

पर राज्य का एकाधिकार होने के कारण विधि और राज्य एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

5. विधि की विषय-वस्तु एवं प्रक्रिया में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज के संभ्रांत एवं शक्ति।

सम्पन्न वर्ग के हितों पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिसके परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण होता है।

6. विधि का स्वरूप आदर्शात्मक (ideological) होने के कारण इसके माध्यम से सम्पन्न वर्ग के मूल्यों एवं अधिमान्यताओं को वैधता प्राप्त होती है। कार्ल मार्क्स का मानना था कि सम्पन्न वर्ग अपनी वर्चस्वता बनाये रखने के लिये विधि को साधन के रूप में अपनाते हैं जिससे श्रमिकों का शोषण होता है। कार्ल मार्क्स के विधिक सिद्धान्त के अनुसार कालांतर में राज्य और विधि का ह्रास अवश्यंभावी है। लेकिन वे इनकी पूर्ण समाप्ति की संभावना से इंकार करते हैं। 22

लेनिन भी मार्क्सवादी विचारधारा के प्रमख समर्थक थे। उनके अनुसार विधि को राज्य से पृथक् नही रखा जा सकता है। उनका मत था कि राज्य द्वारा लागू की गई विधियाँ उस वर्ग के हित और आकांक्षाओं के

22. डायस आर० एम० डब्ल्यू० : ज्यूरिसपूडेन्स (5वां संस्करण, 1994) पृ० 395.

अनुकुल होती हैं जिनके हाथ में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता विद्यमान है 23 इसका तात्पर्य यह हुआ कि मार्क्सवादी विचारक राज्य को शक्ति पर आधारित मानते हैं तथा नैतिकता अथवा न्याय को विधि का आधार मानने से इन्कार करते हैं। परन्तु रूस में गत पाँच दशकों में हुए विधि सम्बन्धी परिवर्तनों को देखते – प्रतीत होता है कि माक्र्सवादियों की विधि सम्बन्धी धारणाएँ अब पूर्णतः बदलती जा रही हैं तथा ने समाजवाद, विधि-सम्मत शासन, नागरिक स्वतन्त्रता, वयस्क मताधिकार आदि को महत्व देने लगे हैं।

माक्र्सवादियों ने विधि का निर्वचन आर्थिक परिप्रेक्ष्य तथा तत्समय रूस में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में किया जो द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) के समय तक जारी रहे। उनका दृढ़ विश्वास था कि समाज के विकास के लिये आर्थिक और भौतिक सम्पन्नता आवश्यक होती है। उनका मानना था कि आदिम समाज (Primitive Society) में सभी लोगों के लिये वस्तुओं का वितरण एक समान (बिना किसी भेदभाव के) किया जाता था, लेकिन सामाजिक प्रगति के साथ लोगों में लालच और धन-लोलुपता बढ़ती गयी जिसके कारण समाज में एक नया वर्ग, अर्थात्, धनाढ्य या सम्पन्न वर्ग निर्मित हो गया जो अपनी पूंजी के बल पर श्रमिक वर्ग का शोषण करने लगा। पूंजीवादियों की स्वार्थपरायणता के कारण ही समाज अमीर और गरीब, ऐसे दो वर्गों में बंट गया 24 कालान्तर में जब राज्य अस्तित्व में आया तो धनाढ्य वर्ग में उस पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया और वे धनहीनों का शोषण करने की ओर प्रवृत्त हुये तथा उन्हें विधि को अपनी सत्ताशक्ति में वृद्धि करने का साधन के रूप में प्रयोग किया। अतः धनहीनों को विवश होकर क्रान्ति (Revolution) का मार्ग अपनाते हुये आर्थिक स्रोतों पर कब्जा करना आवश्यक हुआ और इसके फलस्वरूप जो राज्य स्थापित हुआ उसे ‘ श्रमजीवी वर्ग की तानाशाही’ (Proletarian Dictatorship) कहा गया।25

उपर्युक्त सभी विचारधाराओं में सत्य का कुछ अंश अवश्य है। इन विभिन्न विचारधाराओं के अध्ययन के आधार पर जेन्क्स (Jenks) ने यह निष्कर्ष निकाला है कि विधि में निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है। विधि को परिभाषित करते हुए जेन्क्स कहते हैं कि

(i) विधि, मनुष्य के संव्यवहारों के बारे में राज्य के माध्यम से व्यक्त की गई जनसाधारण की ऐसी इच्छा है, (ii) जिसे राज्य उचित समझता है, तथा (iii) जिसके अनुसार आचरण न किये जाने पर दण्ड की शास्ति है: और (iv) जो राज्य द्वारा स्थापित न्यायालयों द्वारा न्यायाधिकरणों के माध्यम से लागू की जाती है।’

उल्लेखनीय है कि जेन्क्स ने विधि सम्बन्धी उपर्युक्त सामान्यीकरण में विधि की एकरूपता (uniformity) की ओर ध्यान नहीं दिया है। इस दृष्टि से सामण्ड के विधि सम्बन्धी विचार अधिक तर्कसंगत प्रतीत होते हैं। विधि की परिभाषा देते हुए सामण्ड कहते हैं कि विधि ऐसे सिद्धान्तों का समूह है जिन्हें राज्य द्वारा न्याय-प्रशासन के लिए मान्य और लागू किया जाता है ।26 उनके अनुसार न्याय (justice) का अन्तिम लक्ष्य साध्य करने के लिए विधि एक साधन मात्र है। परन्तु सामण्ड की इस परिभाषा में विधि के प्रवर्तन के पहलू पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। नि:संदेह ही उनकी परिभाषा का यह एक गंभीर दोष है। वस्तुतः जैसा कि रास्को पाउण्ड ने कहा है, विधि की एक सर्वसम्मत परिभाषा देना कठिन कार्य है।27 .

प्राचीन भारतीय विधि-दर्शन

मनुस्मृति के अनुसार विधि की उत्पत्ति दैविक स्वरूप की है। शास्त्र-रचयिताओं ने धर्म या कर्तव्य को सर्वोपरि मानते हुए मानव जीवन में इसके अनुपालन पर विशेष बल दिया। उन्होंने विधि को धर्म का ही एक

23. एण्ड्रेई याशिनस्कॉय (Andrei Vyshinsky) : दि लॉ ऑफ सोवियत स्टेट (1854 संस्करण), पृ० 37.

24. एन्जेल्स (Engels) : The Origin of Family, Private Property & The State.

25. श्रमजीवी तानाशाही के अन्तर्गत वर्गहीन समाज की कल्पना साकार की गयी थी, सभी वर्ग आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे। तथा आर्थिक असमानता पूर्णत: समाप्त कर दी गई.

26. The law is the body of principles recognised and applied by the State in the administration of justice.-Salmond.

27. Roscoe Pound : Legal Essays in Tribute to Orwinkip Murray.

अंग माना है। सभी शास्त्रों में यह उल्लेख है कि मानवता की सेवा करते हुए मनुष्य को दु:ख और कठिनाईयों से छुटकारा दिलाना ही सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है। इस संबंध में भगवत् गीता का एक श्लोक उद्धृत करते हुए डॉ नगेन्द्र सिंह ने लिखा है कि पुरातन भारतीय विधि दर्शन के अनुसार मानव को न तो वैभव की चाह थी और न स्वर्ग की और न व्यक्तिगत मोक्ष की, क्योंकि मानव कल्याण ही मनुष्य मात्र का सर्वोपरि धर्म था।28

 प्राचीन भारतीय विधिक धारणा के अनुसार विधि का मूल आधार न्याय है जो सभी विधियों के प्रति समान रूप से लागू होता है। वेदों में भी इस बात को जोर देकर कहा गया है कि समाज में अपने धर्म (कर्तव्य) को निभाते हुए आदर्श आचरण से ही मानव आत्मसंतुष्टि प्राप्त कर सकता है, जो उसके जीवन का प्रमुख लक्ष्य है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय विधि-चिंतन में नैतिकता और न्याय को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया था। विधि की संकल्पना में नैतिकता तथा त्याग की भावना परोक्ष रूप से विद्यमान थी।

इस्लॉमिक दर्शन में भी विधि को सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने का प्रभावी साधन माना गया है। मुस्लिम विधि इस्लाम धर्म का ही एक रूप है, जो शरियत के नियमों पर आधारित है। इसमें विधि, नैतिकता और धर्म को एक-दूसरे का पूरक माना गया है।

विधि और नैतिकता (Law and Morality).

प्रारम्भिक समाज में विधि और नैतिकता में भेद स्पष्ट नहीं था। उदाहरण के लिए प्राचीन भारत में धर्म के अन्तर्गत नैतिकता और विधि दोनों का ही पर्याप्त अंशों में समावेश था 29 इसी प्रकार प्राचीन समुदायों में प्रथा और परम्पराओं के द्वारा मानव-आचरण नियंत्रित होते थे। परन्तु राज्य की उत्पत्ति के पश्चात् विधि और नैतिकता में भेद निरन्तर बढ़ता गया और वर्तमान में ये दोनों एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न माने जाते हैं। विधि और नैतिकता के अन्तर को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है—

(i) विषय-वस्तु और विस्तार सम्बन्धी अन्तर

विधि का सम्बन्ध मानव के बाह्य व्यवहारों में से ही है, आतंरिक विचारों से नहीं । उदाहरणार्थ, विधि का यह सामान्य नियम है कि मनुष्य को उसके अपराधों या अपकृत्यों के लिए दण्डित किया जाता है न कि उसके आन्तरिक विचारों के लिए। इसका कारण यह है कि मानव के आन्तरिक विचारों को जानना सम्भव नहीं है। परन्तु दूसरी ओर नैतिकता का मनुष्य की अन्तरात्मा से सम्बन्ध है; अतः कानून नैतिकता पर निर्धारित नहीं है। नैतिकता का सम्बन्ध व्यक्तियों की उचित और अनुचित की भावना से है। दूसरे, विधि वस्तुनिष्ठ (objective) तथा निश्चयात्मक होती है। विल्सन के अनुसार विधि प्रचलित विचारों और आदतों का ऐसा संकलन है जिसे विशिष्ट और औपचारिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है और जो सरकार द्वारा लागू की जाती है। इसके विपरीत, नैतिकता आत्मनिष्ठ होती है इसलिए बहुत कुछ अनिश्चित होती है। तीसरे, विधि समयोचित होती है। ऐसे अनेक कृत्य हैं जो अनैतिक न होते हुए भी अपराध घोषित किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए बिना लाइसेन्स के स्कूटर या कार चलाना कानूनन अपराध है यद्यपि इसमें अनैतिकता जैसी कोई बात नहीं है। गिलक्राइस्ट के अनुसार विधि के अन्तर्गत कुछ अपराध ऐसे हैं जो ‘पाप’ या अनैतिकता की श्रेणी में नहीं आते। इन्हें अपराध इसलिए माना जाता है क्योंकि ये विधि द्वारा निषिद्ध हैं, इसलिए नहीं कि वे अनैतिक हैं। दूसरी ओर विधिक अधिकार में नैतिकता या औचित्य का होना आवश्यक नहीं। उदाहरणार्थ, किसी भी ऋणदाता को अवधि-बाधित ऋण की वसूली करने का विधिक अधिकार नहीं है, किन्तु नैतिकता यह कहती है कि उधार लिया गया कर्ज ऋणदाता को वापस चुकाया जाना चाहिये। और यदि ऐसा ऋण चुकाया जाता है, तो वह संव्यवहार अविधिमान्य नहीं होगा।

(ii) शास्ति सम्बन्धी अन्तर

विधि का अनुपालन दण्ड के भय से किया जाता है, अर्थात् विधि के पीछे बाह्य शास्ति होती है परन्तु नैतिकता के पीछे ऐसी कोई शास्ति नहीं होती। अत: किसी संविदा को भंग करने वाले व्यक्ति को राज्य द्वारा

28. डॉ० नगेन्द्र सिंह : ज्यूरिस्टिक कान्सेप्ट ऑफ एन्शिएन्ट इंडियन पोलिटी (ICPS, 1980) पृ० 177.

29. Rajeshwari Prasad : The Meeting of Extremes in Indian Philosophy (1971), p. 34.

दण्डित किया जा सकता है परन्तु यदि कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो केवल इसके लिए राज्य उसे दण्डित नहीं कर सकता है। 

नीति और विधि में भेद स्पष्ट करते हुए प्रो० पैटन कहते हैं कि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध उन सिद्धान्तों से है जो मनुष्य को अपने कार्य उचित और अनुचित के आधार पर करने के लिए प्रेरित करते हैं जब कि विधि मनुष्य के सामाजिक सम्बन्धों और उनसे उत्पन्न होने वाले सामाजिक परिणामों से निकट सम्बन्ध रखती है। दूसरे शब्दों में, नैतिकता मानवीय क्रिया-कलापों के उद्देश्य को महत्व देती है। किन्तु विधि केवल मानवीय क्रिया-कलापों के नियंत्रण पर ही अधिक जोर देती है। नैतिक नियमों में बन्धनकारी शक्ति नहीं होती किन्तु विधि के नियमों में बन्धनकारी शक्ति होती है और वे अनिवार्य रूप से लागू किये जा सकते है।

उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारतीय विधि दर्शन में यह बात स्पष्ट कर दी गयी थी कि नैतिकता और त्याग के सिवा विधि का अस्तित्व संभव नहीं है क्योंकि मानव-आचरण में इन दोनों तत्वों को सर्वोच्च स्थान ‘प्राप्त है। उल्लेखनीय है कि एस० पी० गुप्ता तथा अन्य बनाम भारत संघ30 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने भी न्यायिक-निर्णयों द्वारा पुरातन भारत के इन आदर्शात्मक उद्देश्यों को साध्य करने की आवश्यकता प्रतिपादित की है तथा इन्हें वर्तमान समय में भी प्रासंगिक निरूपित किया है। इस निर्णय में भर्तृहरि (Bhartrihari) के ‘नीतिशतक’ में उल्लिखित आदर्शों को उद्धृत करते हुए न्यायालय ने अवलोकन किया-‘नीतिशास्त्र और सदाचार में निपुण व्यक्ति का आदर या अनादर, धन प्राप्ति या धन-लोप, तत्काल मृत्यु या युगोपरांत मृत्यु, इन सब बातों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और किसी भी दशा में वह अपने सदाचरण के मार्ग से विचलित नहीं होता है।” उपर्युक्त विनिश्चय से यह स्पष्ट है कि भारतीय विधि में नैतिकता और सदाचार को आज भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह बात अलग है कि वर्तमान भौतिकवादी व्यवस्था में इन मूल्यों को कड़ाई से लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं।

नैतिकता और विधि के अन्तर के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि समाज के विकास के प्रारम्भिक चरण में इन दोनों में कोई विभेद नहीं था क्योंकि दोनों का उद्गम स्रोत पारलौकिक शक्ति (Supernatural Power) से था तथा दोनों के पीछे किसी अज्ञात दैवी शक्ति की शास्ति का भय था। तथापि जब राज्य अस्तित्व में आया तो मानव जीवन के उन व्यवहारों को जो समाज की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण थे, विधि के रूप में नियमबद्ध कर लिया गया तथा उनका अनुपालन सुनिश्चित करने हेतु दण्ड की व्यवस्था की गयी। यहीं से । विधि तथा नैतिकता में विभेद प्रारम्भ हुआ। राज्य द्वारा निर्मित नियमों को ‘विधि’ कहा गया है जो व्यक्ति की भलाई के उद्देश्य से बनाए गए थे। इसीलिए यह कहा गया है कि विधि तथा नैतिकता का उद्गम स्रोत एक ही है, लेकिन उनके विकास में भिन्नता है। यही कारण है कि अधिकांश विधियों में नैतिकता या नीति आचार का थोड़ा बहुत अंश अवश्य रहता है तथा जो कृत्य विधि-विरुद्ध होते हैं वे अधिकतर अनैतिक भी माने जाते हैं। उदाहरणार्थ, हत्या, चोरी, लूटपाट, बलात्संग, अपहरण आदि सभी विधि के विरुद्ध अपराध अनैतिक भी हैं।  

विधि और नैतिकता के परस्पर संबंध को अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से क्वीन बनाम डडले एण्ड स्टीफेन्स31 के इंग्लिश वाद का उल्लेख करना समीचीन होगा। इस मामले में तीन सामुद्रिक (नाविक) पार्कर (Parker) नामक एक बालक के साथ समुद्र मार्ग से जा रहे थे और वे समुद्री तूफान में फंस गये। अतः उन्हें स्वयं को खुली नाव में यात्रा जारी रखना आवश्यक हो गया। उस नाव में उनके पास खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं था इसलिए उन्होंने स्वयं को भूख से मरने से बचाने के लिए पार्कर की हत्या करके उसके मांस का भोजन के रूप में प्रयोग किया। उन्हें संकट में देखकर एक अन्य समुद्री जहाज ने अपने जहाज पर ले लिया। बाद में उक्त नाविकों के विरुद्ध बालक की हत्या का मुकदमा चलाया गया। मुख्य न्यायाधिपति कोलरिज

30. ए० आई० आर० 1982 सु० को० 149 (इसे न्यायाधीशों के स्थानांतरण का मामला भी कहा जाता है). 31, 14 QBD 273 (इसे Explorer’s case भी कहा गया है).

 (Coleridge C.J.) ने निर्णय दिया कि इसमें संदेह नहीं कि अपने जीवन की रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, परन्तु किसी अन्य व्यक्ति के जीवन की रक्षा के लिए स्वयं का जीवन समर्पित करना और भी बड़ा कर्तव्य है।’युद्ध’ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है जहाँ सैनिकों का कर्तव्य देश के लिए मरना होता है न कि स्वयं के जीवन की परवाह करना। अत: किसी भी व्यक्ति को अपना स्वयं का जीवन बचाने के लिए किसी अन्य के जीवन को समाप्त करने की अनुमति किसी भी दशा में नहीं दी जा सकती।

विधि की प्रमुख विशेषताएँ (Main characteristics of Law)

विधि की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विधि के प्रमुख लक्षण निम्नानुसार हैं-

(1) विधि देश के प्रभुताधारी द्वारा लागू किया गया समादेश है, अर्थात् वह राज्य द्वारा निर्मित कानून है। जिसके पीछे राज्य की शास्ति निहित रहती है और जो व्यक्तियों को विधि का अनुपालन करने के लिए बाध्य करती है। सारांश यह है कि विधि को राज्य की शास्ति द्वारा लागू किया जाता है।

(2) विधि और न्याय में घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तुत: विधि न्याय-प्रशासन का एक अनिवार्य साधन है।

(3) विधि में एकरूपता और स्थिरता होती है, अर्थात् वह बिना किसी भेदभाव के सभी के प्रति समान रूप से लागू की जाती है। विधि का प्रवर्तन राज्य द्वारा स्थापित न्यायालयों द्वारा किया जाता है।

(4) कभी-कभी रूढ़िगत प्रथाएँ या परम्पराएँ भी विधि का रूप ग्रहण कर लेती हैं। किन्तु ऐसा तभी सम्भव है जब इन रूढ़ियों को न्यायाधीशों द्वारा विधि के रूप में मान्य किया गया हो तथा अपने निर्णयों में समाविष्ट कर लिया गया हो।

विधि के गुण-दोष

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि न्याय-प्रशासन के साधन के रूप में विधि की भूमिका सदैव ही महत्वपूर्ण रही है। इसके अनेक लाभ हैं परन्तु विधि के निश्चित एवं दृढ़ सिद्धान्तों के कारण इसके कुछ दोष भी हैं। अतः विधि के गुण-दोषों का विवेचन करना उचित होगा।

विधि के गुण  

1. एकरूपता और निश्चितता (uniformity and certainty)—विधि द्वारा न्याय-प्रशासन को एकरूपता और निश्चितता प्राप्त होती है। विधि के नियम निश्चित, दृढ़, स्थायी और सुप्रसारित होते हैं। विधि के उपबन्धों के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति को यह जानना संभव होता है कि अमुक तथ्यों के होने पर न्यायालय का निर्णय क्या होगा। 

2. निष्पक्ष न्याय (impartiality)-न्यायालयों में लागू की जाने वाली विधि सुनिश्चित होने के कारण न्यायाधीशों के निर्णय पक्षपातपूर्ण अथवा स्वेच्छाचारी होने की सम्भावनाएँ नहीं रहती हैं तथा वे मनमाने निर्णय नहीं दे सकते हैं। विधि की निश्चितता उन्हें विधि के अनुसार निर्णय देने के लिए बाध्य किये रहती है।

3. वैयक्तिक निर्णय की भूलों से रक्षा (Safeguards against error of Judgment)—विधि के उपबन्ध दृढ एवं निश्चित होने के कारण इनमें व्यक्तिगत स्वविवेक को स्थान नहीं रहता। अत: न्यायिक निर्णयों में वैयक्तिक विवेक के कारण उत्पन्न होने वाली विसंगतियाँ प्रवेश नहीं कर पातीं। इसीलिए अरस्तू (Aristotle) ने कहा है कि अच्छी विधियाँ इस बात का निषेध करती हैं कि कोई न्यायाधीश विधि से अधिक – विवेकी होने की चेष्टा न करे।

विधि के दोष

  1. रूढ़िवादिता (conservatism)–विधि के नियम दृढ़ एवं निश्चित होने के कारण परिस्थितिजन सुधारों के अनुरूप नहीं हो पाते। अनेक मामले ऐसे होते हैं जिनमें विधि के मान्य सिद्धान्त पूरी तरह लागून होते । प्रगतिशील समाज में विधि का समयोचित होना आवश्यक है। अनेक विधियाँ जो आज ठाक है।

परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण गलत साबित होती हैं। उदाहरणार्थ, मृत्युदण्ड संबंधी कानून, राजनीतिक दलों के सदस्यों द्वारा अवसरवादिता के कारण दल बदलने संबंधी कानून आदि इसके अच्छे उदाहरण हैं।

2. औपचारिकता (formalism)-विधि की औपचारिकताओं और तकनीकीपन को अनावश्यक महत्व दिये जाने के कारण उसके वास्तविक प्रवर्तन में अनेक कठिनाइयाँ होती हैं व इसमें बहुत अधिक समय नष्ट होता है।

3. जटिलता (complexity)–अनेक विधियाँ जटिल एवं दुर्बोध होती हैं। ये इतनी सूक्ष्म, विस्तृत एवं क्लिष्ट होती हैं कि विधि-विशेषज्ञों के अतिरिक्त अन्य सामान्य व्यक्ति इन्हें आसानी से नहीं समझ सकता है। उदाहरणार्थ आयकर कानून, परक्राम्य लिखत विधि, सम्पत्ति विधि आदि के प्रावधान।

4. अनम्यता (rigidity)–विधि का निर्माण सामान्यीकरण तथा कल्पना पर आधारित होता है। अतः अनेक विशिष्ट तथा अपवादात्मक परिस्थितियों में यह लागू नहीं हो पाती। अत: ऐसे मामलों में विधि की अनम्यता के कारण पक्षकारों के प्रति अन्याय होने की सम्भावना बनी रहती है।

विधि एवं तथ्य (Law and Fact)

न्यायालयों के सामने विचारण तथा विनिश्चय के लिए जो प्रश्न उठते हैं वे या तो विधि के प्रश्न होते हैं। या तथ्य के प्रश्न। ये दोनों ही अभिव्यक्तियाँ भ्रामक होने के कारण इन पर सावधानी से विचार किया जाना। आवश्यक है।

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