LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 12 Notes
LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 12 Notes:- Bachelor of Law (LLB) Law 1st Semester / 1st Year New Notes Study Material Question Papers With Answer Solved Sample Mock Test Available on this Post, LLB Jurisprudence and Legal Theory Chapter 12 State Online Study Material in Hindi English PDF Download.
अध्याय 12 (Chapter 12)
राज्य (State)
LLB Notes Study Material
विधि का राज्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तुत: राज्य के बिना विधि का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। सामान्य अर्थ में राज्य से आशय ऐसे राजनीतिक संगठन से है जो अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा तथा सामाजिक उन्नति के लिए अस्तित्व में आता है। विधिक दृष्टि से ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम मेक्यावेली (Machiavelli) ने किया था। प्राचीन यूनान में ‘राज्य’ नाम की कोई संस्था अस्तित्व में नहीं थी। यूनानी विचारक राज्य के स्थान पर ‘पोलिटी’ शब्द का प्रयोग करते थे जिसका आशय था ‘नगर-राज्य’ । यूनान के इन छोटे समुदायों में परस्पर साहचर्य और अधिकारों के उपयोग पर बल दिया जाता था न कि सर्वोपरिता और आज्ञापालन पर 2 प्राचीन रोम में ऐसे जन-समुदायों के लिए सिविटास’ (civitas) शब्द का प्रयोग किया जाता था। मध्य युग में भी ‘राज्य’ के बारे में विद्वानों के विचार स्पष्ट नहीं थे। सम्भवत: उस समय इस शब्द की परिकल्पना को साम्राज्य और रजवाड़ों तक ही सीमित रखा गया था। मध्यकाल के अन्तिम चरण में राज्य की संकल्पना कुछ-कुछ साकार होने लगी। उस समय सम्प्रभुता शासकों में निहित होने के कारण ‘राज्य’ सर्वोपरि सत्ता का प्रतीक माना जाता था।
राज्य की प्रकृति
‘राज्य के विषय में विद्वानों के विचार भिन्न-भिन्न रहे हैं। कुछ विद्वान इसे एक शक्तिपुंज के रूप में देखते हैं जब कि अन्य इसे एक जन-कल्याणकारी व्यवस्था मानते हैं। अनेक लेखकों ने राज्य के प्रति कानूनी दृष्टिकोण अपनाते हुए इसे कानूनी आधार पर संगठित एक जन-कल्याणकारी समाज माना है। राज्य की प्रकृति के विषय में प्राचीन यूनान में सोफिस्टों का मत था कि राज्य रूढ़िगत (conventional) है जब कि सुकरात (Socrates) तथा प्लेटो आदि ने इस तर्क का खण्डन किया। इन विचारकों के अनुसार राज्य का स्वरूप स्वाभाविक है और नागरिकों के नैतिक विकास के लिए राज्य परम आवश्यक है। रूसो, काण्ट, हीगल तथा ब्रेडले आदि आदर्शवादी विधिशास्त्रियों ने भी मानव के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए राज्य को अपरिहार्य माना है। ह्यगो ग्रोशस का मत था कि राज्य मानव-कल्याण के लिए निर्मित एक सामान्य जनसमुदाय है। इन्हीं विचारकों के प्रभाव के परिणामस्वरूप वर्तमान में लोक कल्याणकारी राज्य (welfare-state) की कल्पना साकार हुई है।
अनेक विद्वानों ने राज्य को शक्ति का प्रतीक ‘एक आवश्यक बुराई’ (necessary evil) मानते हुए उसे ‘व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतन्त्रता को सीमित करने वाली संस्था’ निरूपित किया है। हरबर्ट स्पेन्सर इस विचार के प्रमुख समर्थक थे। उनके अनुसार राज्य एक संयुक्त बीमा कम्पनी’ (Joint Stock Company) के समान है जिसकी सदस्यता ऐच्छिक और वैकल्पिक होनी चाहिये। मेक्यावेली, ओपेनहाइम तथा कार्लमाक्र्स आदि भी राज्य को एक ऐसा शक्ति-पुंज मानते हैं जिसमें एक वर्ग-विशेष अन्य लोगों का शोषण करता है। कार्ल मार्क्स ने राज्य को शासक वर्ग की एक प्रबन्धक-समिति’ की संज्ञा दी है।
1. सन् 1469-1527.
2. हरमन फाइनर : दि थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस ऑफ माडर्न गवर्नमेंट (1932) पृ० 8.
3. सन् 1586-1645.
4. सन् 1820-1903. | 5. सन् 1818-1883.
रॉबर्ट फिलिमोर (Robert Philimore) ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के संदर्भ में राज्यों को एक ऐसा राजनीतिक संगठन निरूपित किया है जो ‘‘एक नियत भू-भाग पर स्थायी रूप में रहने वाले व्यक्तियों को सामान्य कानूनों, आदतों और प्रथाओं से आबद्ध करता है और एक संगठित सरकार के माध्यम से अपनी सीमा में स्थित सभी व्यक्तियों और वस्तुओं पर स्वतंत्र प्रभुसत्ता और नियंत्रण रखता है; और जो युद्ध और शांति की क्षमता रखते हुए विश्व के अन्य समुदायों से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करता है।”6
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राज्य’ का प्रमुख कार्य लोगों के हितों की रक्षा करना है जिसे वह शांति स्थापना एवं न्याय-प्रशासन द्वारा सम्पादित करता है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्य द्वारा कुछ नियम लागू किये जाते हैं जिन्हें ‘विधि’ या ‘कानुन’ कहा जाता है। अतः ‘विधि’ के स्वरूप को समझने के लिए ‘राज्य’ के स्वरूप को जानना आवश्यक है।
राज्य की परिभाषा (Definition of State)
शब्द ‘स्टेट’ की उत्पत्ति ‘स्टेट्स’ (status) से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है “प्रास्थिति’, अर्थात् किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के निकाय की प्रास्थिति । राज्य के विषय में विद्वानों के विचार भिन्न-भिन्न हैं। अनेक विधिवेत्ताओं ने राज्य की परिभाषा अपने ढंग से की है। राज्य’ को एक ऐसी संस्था माना गया है जिसका कोई स्वरूप नहीं है। विधि के अन्तर्गत उसे कृत्रिम व्यक्तित्व (artificial personality) प्रदान किया गया है। प्रमुख विधिशास्त्रियों ने राज्य की परिभाषा इस प्रकार की है-
बोसांके (Bosanquet) के अनुसार राज्य समस्त जीवन की एक क्रियात्मक धारणा है।
भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) ने राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि एक निश्चित भू-भाग पर कानूनी रूप से संगठित किसी जन-समुदाय को ‘राज्य’ कहते हैं।’8 परन्तु निवेदित है कि विल्सन की यह परिभाषा अपूर्ण है। मानव-इतिहास में ऐसे अनेक सुसंगठित राजनीतिक जन-समुदाय अस्तित्व में थे, जिनकी निश्चित भू-सीमाएँ (territory) होने पर भी वे राज्य नहीं माने जाते थे। ‘राज्य’ की कोटि में आने के लिए यह आवश्यक है कि निश्चित भू-भाग पर रहने वाला संगठित जन समुदाय स्वतंत्र हो तथा उसे संप्रभुता (sovereignty) प्राप्त हो। उदाहरणार्थ, 15 अगस्त, 1947 के पूर्व भारत स्वतंत्र नहीं था इसलिए उसे ‘राज्य’ नहीं कहा जा सकता था।
सर जॉन सामण्ड के अनुसार राज्य या राजनीतिक समाज मनुष्यों का ऐसा संगठन है जो निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। इस परिभाषा में निश्चित उद्देश्य’ से सामण्ड का आशय बाहरी आक्रमण से राज्य की रक्षा करने तथा जन-समुदाय में आन्तरिक शांति-व्यवप्था बनाये रखने से है। परन्तु सामण्ड की यह परिभाषा भी अपूर्ण प्रतीत होती है, क्योंकि इसमें ‘भू-भाग’ सम्बन्धी तत्व की पूर्ण अवहेलना की गई है।
विख्यात विधिशास्त्री ऑस्टिन (Austin) ने राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि राज्य’ संप्रभु (Sovereign) का पर्यायवाची है। यह किसी ऐसे एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के समूह का प्रतीक है, जो राजनीति की दृष्टि से स्वतन्त्र समाज में सर्वश्रेष्ठ शक्ति रखता है।10
हालैण्ड (Holland) ने राज्य की और भी अधिक व्यापक परिभाषा दी है। उनके अनुसार-‘राज्य अनेक व्यक्तियों के ऐसे संगठन को कहते हैं जिनके आधिपत्य में सामान्यत: एक निश्चित भू-खण्ड हो और जिनमें बहसंख्यकों या एक विशिष्ट वर्ग के लोगों की इच्छा का प्राबल्य बहुमत के कारण उन लोगों पर हो जो
6. राबर्ट फिलिमोर : इण्टरनेशनल लॉ, (द्वितीय संस्क०) पृ० 18.
7. “The ‘State’ is working conception of life as a whole.
8. ‘State’ is a people organised for law within a defined territory.
9. “A State or political society is an association of human beings established for the attainment of certain ends by certain means.” –Salmond.
10. ऑस्टिन : ज्यूरिस्पूडेन्स (चौथा संस्करण), पृ० 249.
उनके विरोधी हों।”11 यह परिभाषा अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है क्योंकि इसमें राज्य के चारों आवश्यक तत्वों (जनसंख्या, भू-प्रदेश, सरकार तथा सम्प्रभुता) का समावेश है।
लियोन ड्यूगिट (Leon Duiguit) ने राज्य की जो परिभाषा दी है, वह आस्टिन तथा सामण्ड द्वारा दी गयी परिभाषा से भिन्न है। उनके अनुसार राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा निकाय (body of men) है, जो एक निश्चित भूखण्ड पर निवास करता है, जिसका सर्वोच्च बलशाली व्यक्ति अपनी इच्छाओं को स्वयं से कमजोर लोगों पर अधिरोपित (Impose) करता है, जिसे सम्प्रभु कहा जाता है। तथापि अधिकांश विधिशास्त्रियों ने ड्यूगिट द्वारा दी गयी परिभाषा को स्वीकार नहीं किया है क्योंकि यह कहना कि सम्प्रभु अपनी शक्ति या बल का प्रयोग करते हुये अपने अधीनस्थों पर अपनी इच्छायें थोपता है, सरासर गलत होगा।
जर्मी बेन्थम ने राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि जब प्रजा किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की आज्ञा का पालन करती है जिन्हें हम प्रशासक कहते हैं, तो ऐसी प्रजा और प्रशासक के सम्मिलित स्वरूप को राजनीतिक समाज या राज्य’ कहा जाता है।12
अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने चिसहोम बनाम जॉर्जिया13 के वाद में ‘राज्य’ की व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया कि राज्य स्वतंत्र व्यक्तियों का ऐसा निकाय है जो इस सामान्य उद्देश्य से संगठित हुए हैं। कि वे उन वस्तुओं का, जो उनकी स्वयं अपनी हैं, शान्तिपूर्वक लाभ उठा सकें और दूसरों के प्रति न्याय कर सकें। इससे स्पष्ट है कि व्यक्तियों द्वारा राज्य का निर्माण अपने सामान्य हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। ताकि वे अपनी वस्तुओं का उपयोग शांतिपूर्ण ढंग से कर सकें।
गार्नर (Garner) ने राज्य की परिभाषा अधिक सुस्पष्ट एवं सरल शब्दों में की है। उनके अनुसार “न्यूनाधिक बहुसंख्यक मनुष्यों के एक ऐसे समुदाय को राज्य कहा जा सकता है जो स्थायी रूप से एक निश्चित भू-खण्ड पर निवास करता हो, जो बाह्य नियंत्रण से सर्वथा स्वतंत्र हो और जिसकी एक ऐसी सुसंगठित सरकार हो जिसके आदेशों का, उसके निवासियों का एक बहुत बड़ा भाग, सहज रूप से पालन करता हो।14 इस परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि किसी निश्चित भू-खण्ड पर रहने वाला संगठित जनसमूह यदि पूर्ण स्वाधीनता का उपयोग नहीं करता, तो वह ‘राज्य’ नहीं कहलाया जा सकता है। इस परिभाषा में सम्प्रभुता प्राप्त राजनीतिक संगठन के अस्तित्व पर बल दिया गया है। यदि संगठित जन समुदाय के पास संप्रभुता है और वह उसका एक निश्चित भू-खण्ड पर प्रयोग कर पाता है तथा सामान्यत: जनता उनका अनुशासन मानती है और उसकी आज्ञा का पालन करती है, तो हम ऐसे संगठित जन-समुदाय को ‘राज्य’ कह सकते हैं।
ह्यगो ग्रोशियस (Hugo Grotius) के अनुसार राज्य’ स्वतंत्र व्यक्तियों का ऐसा समेकन है जो लोक कल्याण के उद्देश्य से विधि का उपभोग करने के लिए एकीकृत होते हैं।
मेक आइवर (Mac Iver) के अनुसार राज्य एक ऐसा संगठन है जो सरकार द्वारा घोषित विधि की शास्ति का प्रयोग करते हुए एक निर्धारित भू-क्षेत्र के समुदाय में सार्वभौमिक सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने का कार्य करता है।
गुडहार्ट ने राज्य को उसके उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हुए कहा है कि ”समाज, जिसे हम राज्य कहते हैं, का उद्देश्य एक विनिश्चित भू-क्षेत्र में शांति और विधि-व्यवस्था बनाये रखना है।” अतः। राज्य का न्युनतम और आवश्यक उद्देश्य जीवन को संभव बनाये रखना है।
11. हालैण्ड टी० एफ० : एलीमेन्ट्स ऑफ ज्यूरिस्थूडेन्स (9वाँ संस्करण) पृ० 46.
12. बेन्थम : ए फ्रेगमेन्ट ऑन गवर्नमेन्ट, पृ० 49.
13. “A State is a body of person, united together for the common benefit to enjoy peaceably
their own, and to do justice to others.”–Chisholms v. Geogria, (2 Dallas 456).
14. गार्नर : पॉलिटिकल साइन्स एण्ड गवर्नमेण्ट, पृ० 49.
ओपनहेम (Oppenheim) के अनुसार राज्य तब अस्तित्व में आया माना जाता है जब व्यक्तियों – समुदाय किसी देश में उसकी संप्रभु शक्ति के अधीन स्थापित हो जाता है।
आर० जी० गेट्टेल (R.G. Gettell) के अनुसार राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा समुदाय है जिसका निश्चित भू-भाग पर आधिपत्य होता है और जो विधिक रूप से बाह्य नियंत्रण से स्वतंत्र होता है, जिसकी एक संगठित सरकार होती है और जो स्वयं द्वारा निर्मित कानून द्वारा अपने क्षेत्राधीन समस्त व्यक्तियों तथा समूहों पर प्रशासन करता है।’
राज्य की परिभाषा के सन्दर्भ में यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि वर्तमान परिवेश में राज्य की परिभाषा उपर्युक्त परिभाषाओं से पूर्णतः भिन्न है क्योंकि आधुनिक समय में राज्य का अस्तित्व प्रयोजनों के कल्याण तथा हित के लिये होता है अतः उन्हें अनेक लोक कल्याणकारी कार्यों में व्यस्त रहना आवश्यक होता है। इसके सिवाय राज्य की वाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा एवं शान्ति व्यवस्था बनाये रखने का दायित्व तो उन पर होता ही है।
राज्य की उत्पत्ति (Origin of State)
विद्वानों के लिए राज्य की उत्पत्ति सदैव ही जिज्ञासा का विषय रही है। यह कहना कठिन है कि राज्य की उत्पत्ति निश्चित रूप से कब हुई। जाति-विज्ञान (एथनोलॉजी) और मानव विज्ञान (Anthropology) जैसे आधुनिक विज्ञान भी इस विषय पर प्रकाश डालने में असमर्थ रहे हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में विचारकों ने कल्पना के आधार पर राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं, जिनका विवेचन निम्नानुसार है।
1. दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त (Theory of Divine Origin)
राज्य की दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त बहुत पुराना है। राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी किसी निश्चित और ठोस ऐतिहासिक सामग्री के अभाव में विद्वानों ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि राज्य ईश्वर की देन है। अनेक धार्मिक ग्रन्थों ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया। इसका उल्लेख हमें मनुस्मृति तथा शान्तिपर्व में भी मिलता है।15 ईसाई धर्म के अनुयायियों ने भी राज्य को ईश्वरीय देन माना तथा राज्य को ईश्वर का अवतार मानते हुए उसके दैवी-अधिकार को स्वीकार किया। इसी प्रकार मिस्र देश तथा चीन ने भी शासक की दैवी-शक्ति को स्वीकार किया। इन सभी की मान्यता थी कि राज्य या शासक की आज्ञा का उल्लंघन करना ईश्वर के प्रति । पापकर्म के समान था। इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना था कि यदि शासक दुष्ट भी हो तो, यह समझना चाहिए कि ईश्वर ने उसे प्रजा को अपने पाप-कर्मों का प्रायश्चित करने के लिए भेजा है। अतः दुष्ट और पतित शासक के विरुद्ध विद्रोह करना भी ईश्वर के प्रति विद्रोह के समान था। परन्तु सत्रहवीं शती में राजनैतिक चेतना तथा बुद्धिवाद के विकास के साथ धार्मिक अन्धश्रद्धा पर से लोगों का विश्वास उठने लगा। अतः राजनीति को धर्म से पृथक् किया गया और राज्य के लौकिक स्वरूप को प्राथमिकता दी जाने लगी। मध्य यूरोप में चर्च की शक्ति के ह्रास के साथ राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी दैवी सिद्धान्त के प्रति अविश्वास उत्पन्न होने लगा।
2. बल का सिद्धान्त (The Force Theory)
इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य शक्ति के बल पर विकसित हुए हैं। शक्तिशाली समूहों ने निर्बल समडों को बल के आधार पर अपने अधीन कर लिया। इस प्रकार कुलों (clans) के पारस्परिक संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटे जन-समुदाय अस्तित्व में आये, और शनैः-शनै: ये कबीलों (tribes) में परिवर्तित मनुस्म्रती में कहा गया है कि संसार की रक्षा और कल्याण के लिए ईश्वर ने राजा को उत्पन्न किया और राज्य की। नींव डाली। शान्तिपर्व में यह उल्लेख है कि जब अराजकता असह्य हुई तो मानवों ने ईश्वर से प्रार्थना की और उनकी विनती से प्रसन्न होकर ईश्वर ने मनु को उन पर शासन करने हेतु नियुक्त किया-अल्तेकर : प्राचीन भारतीय शासन पद्धति (1959), पृ० 23.
हो गये। इन कबीलों के क्रमिक विकास, संघर्ष और सम्मिश्रण से बड़े जन समुदाय बने और इस प्रकार राज्य की उत्पत्ति हुई । सारांश यह है कि राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी बल के सिद्धान्त का मूल आधार जाति संघर्ष’ है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् ओपेनहाइम, अंग्रेज समाजशास्त्री जेंक्स (Jenks) तथा अमरीकी विद्वान् स्मोल और वार्ड इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हैं। हरबर्ट स्पेंसर तथा मार्क्स ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया
अनेक विद्वानों ने बल के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि बल-प्रयोग द्वारा लोगों को आज्ञापालन के लिए विवश तो किया जा सकता है, किन्तु इससे राज्य के प्रति श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा उत्पन्न नहीं की जा सकती है। उल्लेखनीय है कि ‘बल’ पर आधारित राज्य को अधिक बलशाली द्वारा बदला जा सकता है। अत: केवल बल के आधार पर राज्य को सुदृढ़ नहीं बनाया जा सकता। वस्तुत: जनसाधारण की राज्य के प्रति श्रद्धा और निष्ठा तभी हो सकती है जब राज्य लोक-हित को ध्यान में रखते हुए प्रजा की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयत्न करे। तथापि इस सिद्धान्त का महत्व केवल इतना है कि राज्य के लिए ‘शक्ति’ या ‘बल’ का तत्व होना परम आवश्यक है।
3. सामाजिक संविदा सिद्धान्त (Social Contract Theory)
राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्तों में सामाजिक संविदा के सिद्धान्त को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। यह सिद्धान्त पूर्णत: कल्पना पर आधारित है। हॉब्स, लॉक तथा रूसो इस सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक माने जाते हैं। यद्यपि इन तीनों के विचारों में भिन्नता है परन्तु तीनों इस बात से सहमत हैं कि एक समय ऐसा था जब मनुष्य राज्य के बिना रहता था। समाज की इस अवस्था को उन्होंने ‘प्राकृतिक अवस्था’ (state of nature) कहा है। इस अवस्था के सम्बन्ध में हॉब्स, लॉक और रूसो के विचार भिन्न-भिन्न थे परन्तु सभी ने यह स्वीकार किया कि किन्हीं कठिनाइयों के कारण मानव ने इस अवस्था का परित्याग करना चाहा और संविदा द्वारा उसमें परिवर्तन किया। इस प्रकार संविदा के स्वरूप, शर्तों और परिणामों के बारे में भी इन विद्वानों में मतभेद थे परन्तु सभी यह मानते थे कि इसी संविदा के आधार पर ‘राज्य’ का जन्म हुआ।
हॉब्स (Hobbes : 1588-1679) के समय इंग्लैण्ड के चार्ल्स प्रथम के राज्य शासन में राजा और संसद के बीच गृहयुद्ध (Civil war) छिड़ा हुआ था जिसमें हॉब्स ने राजा की निरंकुश सत्ता का समर्थन किया था। उसने सामाजिक संविदा के सिद्धान्त को अपने समर्थन का आधार मानते हुए कथन किया कि प्राकृतिक अवस्था (state of nature) में मानव जीवन अत्यन्त कष्टप्रद, दुखी एवं असंतुष्ट होने के कारण लोगों ने आपस में मिलकर एक संविदा द्वारा स्वयं को सबसे बलिष्ट व्यक्ति के अधीन समर्पित कर दिया है जो उनकी सुरक्षा करने में सक्षम था। यहीं से राज्य की उत्पत्ति हुई। हॉब्स ने चर्च को राज्य के अधीन माना है।
जॉन लॉक (Locke : 1632-1704) ने भी राज्य की उत्पत्ति दोहरे सामाजिक संविदा पर आधारित की। उनके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मानव जीवन अपेक्षाकृत सरल एवं अच्छा था। तथापि लोगों ने अपने अधिकार एवं हितों को ध्यान में रखते हुए एक संविदा द्वारा स्वयं को एक सुसंगठित समुदाय के रूप में परिवर्तित किया। लॉक ने इसे Puctum unionis कहा । तत्पश्चात् इस संगठित समुदाय ने सामूहिक रूप से एक अन्य संविदा द्वारा स्वयं को ‘राज्य’ के अधीन सौंपा जो उनके हितों का संरक्षण करे। लॉक ने इस दूसरी संविदा को Puctum subjectionis कहा। जब तक राज्य प्रजा के हितों के अनुकूल कार्य करता था, उसे शासन करने का अधिकार था, अन्यथा प्रजा उसे सत्ता से अलग कर सकती थी। यहीं से राज्य की उत्पत्ति हुई।
रूसो (Rousseau : 1712-1788) ने प्राकृतिक अवस्था को और अधिक सुखमय बताया। उन्होंने अपनी सामाजिक संविदा जनता की सामान्य इच्छा (General will) पर आधारित करते हुए कहा कि राज्य की वास्तविक शक्ति जनता की सामान्य इच्छा में ही निहित है।
सामाजिक संविदा के सिद्धान्त की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। उनका कहना है कि यह सिद्धान्त। कारो कपोल-कल्पना पर आधारित है तथा इसका कोई वास्तविक ऐतिहासिक आधार नहीं है। विख्यात पाचशास्त्री ऑस्टिन ने सामाजिक संविदा की आलोचना करते हुए कहा है कि कोई भी संविदा तभी सम्भव है।
जब उसके लिए निश्चित विधि पहले से विद्यमान हो। गार्नर के अनुसार इस प्रकार की संधि तार्किक या दार्शनिक आधार नहीं है।
4. आनुवंशिक सिद्धान्त (Hereditary Theory)
अनेक विद्वानों ने राज्य को मानव समुदाय के लिए स्वाभाविक और आवश्यक बताया है। ऐसे विचारकों में प्लेटो और अरस्तू की गणना भी की जा सकती है। प्लेटो के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का कारण यह है कि मनुष्य स्वयं में पूर्ण नहीं है। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग करना पड़ता है और इस प्रकार धीरे-धीरे राज्य का विकास होता है। अरस्तू ने राज्य के विकास की विवेचना करते हुए कहा है कि यह मनुष्य के सामाजिक संगठनों का एक स्वाभाविक चरम-बिन्दु है। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सर्वप्रथम परिवार का जन्म होता है किन्तु जब परिवार पर्याप्त सिद्ध नहीं होते। तो धीरे-धीरे मानव द्वारा वृहत्तर समाजों की रचना की जाती है जिनमें पहले ‘ग्राम’ और तत्पश्चात् ‘ग्राम समूह’ बनते हैं। आगे चलकर इन्हीं ‘ग्राम-समूहों के विलयन से राज्य की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार राज्य मानव-संगठन की स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम है। राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी इस विचारधारा को ‘आनुवंशिकता का सिद्धान्त’ कहा गया है जिसके अनुसार राज्य की उत्पत्ति क्रमिक विकास के परिणामस्वरूप हुई है। इस सिद्धान्त के दो रूप हैं-पितृसत्तात्मक (partiarchal) सिद्धान्त, और मातृसत्तात्मक (matriarchal) सिद्धान्त। इन दोनों में केवल इस बात का मतभेद है कि प्राथमिक परिवार का आधार पितृसत्तात्मक था या मातृसत्तात्मक।
(i) पितृसत्तात्मक सिद्धान्त (Patriarchal Theory)-पितृसत्तात्मक सिद्धान्त के समर्थकों में सर हेनरी मेन का नाम अग्रगण्य है। प्राचीन समाजों का गूढ़ अध्ययन करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राज्य का निर्माण परिवार के विकास से हुआ।16 उनके मतानुसार आदिकालीन परिवार पितृसत्तात्मक हुआ करते थे; अर्थात् इनमें वंशगणना पुरुषों के नाम से होती थी और परिवार के सबसे वयोवृद्ध पुरुष को असीमित अधिकार प्राप्त थे। मेक आइवर के अनुसार परिवार में नियंत्रण के वे सभी तत्व पाये जाते हैं जो शासन के लिए सारभूत हैं। जिन आवश्यकताओं ने परिवार को जन्म दिया उन्हीं ने अनुशासन और नियंत्रण को भी जन्म दिया।
परिवार के मुखिया का शासन निरंकुश होता था और कहीं-कहीं तो इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि वह परिवार के सदस्यों को मृत्युदण्ड तक दे सकता था। धीरे-धीरे परिवार स्वाभाविक गति से दूसरे समुदायों को जीतकर अपने में आत्मसात् (assimilate) करके बढ़ने लगे लेकिन परिवार के मुखिया की सत्ता सर्वोपरि होती थी तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् उसे सबसे वृद्ध पुरुष वंशज को सौंप दिया जाता था। धीरे-धीरे एक परिवार से अनेक परिवार बन गये और ये सब मिलकर एक कुनबे (clan) के रूप में परिवर्तित हो गये । कुनबे का प्रधान भी प्राय: सबसे वयोवृद्ध पुरुष ही होता था। इसी प्रकार कई कुनबों (tribe) को मिलाकर एक कबीला बन गया और कहीं-कहीं पर इन कबीलों के संघ बने। इन कबीलों के संघ ने कुछ स्थानों पर धीरेधीरे राज्य का रूप धारण कर लिया। इस प्रकार पितृसत्तात्मक सिद्धान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव समाज प्राथमिक अवस्था में व्यक्तियों का समूह न होकर परिवारों का समूह हुआ करता था, अर्थात् समाज की इकाई ‘परिवार’ थी।
(ii) मातृसत्तात्मक सिद्धान्त (Matriarchal Theory)—इस सिद्धान्त के समर्थकों में मैक्लेनन, मोर्गन और जेंक्स आदि के नाम प्रमुख हैं। इन विद्वानों का मत हैं कि प्राथमिक परिवार का रूप पितृसत्तात्मक न होकर मातृसत्तात्मक था। उनके अनुसार जब तक पति-पत्नी युक्त परिवारों का जन्म नहीं हुआ पितृसत्तात्मक परिवार नहीं बने। इस विचारकों के मतानुसार प्रारम्भिक समाजों में मानव यौन सम्बन्ध स्वच्छन्द थे। ऐसी दशा में केवल माँ के सम्बन्ध को ही निश्चित रूप से स्थापित किया जा सकता था, इसीलिए वंश-गणना माँ के नाम से चलती थी। पिता के बारे में अनिश्चितता होने के कारण परिवार में माता को ही प्रधानता दी गयी थी।
16. हेनरी मेन : एन्शिएन्ट लॉ पृ० 106.
अत: इन परिवारों का मुखिया पुरुष न होकर वयोवृद्ध स्त्री ही हुआ करती थी। यही कारण है कि परिवारों को मातृसत्तात्मक कहा गया है। इस परिवारों में रहने वाले पुरुष दूसरे कबीलों के होते थे जो स्त्रियों के पास आकर रहने लगते थे। जैक्स ने आस्ट्रेलिया के आदिम निवासियों के जीवन का अध्ययन करने के पश्चात् । हेनरी मेन (Henry Maine) की इस धारणा का खण्डन किया कि समाज के विकास का प्रारम्भ पितृसत्तात्मक परिवार से होता है जिनके विस्तार से आगे चलकर कबीले और राज्य बनते हैं। जेंक्स के अनुसार प्राथमिक जन-समह परिवार न होकर ‘टोटम’ अथवा कबीला होता था। बाद में ये कबीले विभाजित होकर कुनबों में रहने लगे और इन कुनबों के अतर्गत विवाहों का सूत्रपात हुआ। पितृसत्तात्मक परिवार इसके पश्चात् ही अस्तित्व में आये। इस प्रकार जेंक्स के विचार से सर्वप्रथम सम्मिलित विवाहों का युग आया जिसमें वंशगणना माँ के नाम से होती थी और सत्ता भी माँ के नाम से ही चलती थी।17
5. उद्विकासी सिद्धान्त (Evolutionary Theory)
उदविकासी सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति न तो किसी दैवी शक्ति के कारण हुई और न यह मनुष्य द्वारा विमर्शपूर्वक (जानबूझकर) बनाई गई कृति ही है। राज्य की उत्पत्ति तो उसके प्राकृतिक उविकास के क्रम के आधार पर हुई है। इसीलिए इसे ऐतिहासिक सिद्धान्त (Historical Theory) भी कहा गया है। राज्य के उविकास सम्बन्धी इस सिद्धान्त का निचोड़ यह है कि जैसे-जैसे समाज विकासोन्मुख होता गया, लोगों के हितों में वृद्धि हुई। परिणामत: लोगों के विभिन्न वर्गों को अलग-अलग अधिकार मिल गये। आगे चलकर इन्हीं से राजनीतिक संगठन बने जिन्हें ‘राज्य’ कहा गया। इस प्रकार राज्य का विकास क्रमिक और स्वाभाविक गति से हुआ है तथा इसका प्रारम्भ विगत इतिहास की परतों में छिपा पड़ा है। ऐतिहासिक दृष्टि से राज्य की उत्पत्ति में संघर्ष एवं युद्धों का काफी योगदान रहा है क्योंकि ये एकता और सामान्य भावना को जन्म देते हैं।18
राज्य के आवश्यक तत्व (Essential Elements of State)
राज्य की उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि राज्य के लिए कुछ तत्वों (elements) का होना आवश्यक है। यदि इन तत्वों में से एक भी तत्व की कमी हो, तो ऐसे जन-समुदाय को ‘राज्य’ नहीं कहा जा सकता। राज्य में निम्नलिखित चार तत्वों का होना अनिवार्य है
(1) जनसंख्या (Population) ;
(2) भू-भाग (Teritory);
(3) सरकार (Government); तथा
(4) प्रभुता शक्ति (Sovereignty).
1. जनसंख्या (Population)–मनुष्यों के बिना मानव-समुदाय का अस्तित्व असंभव है। अत: जनसंख्या के बिना राज्य का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। फलतः राज्य के लिए मनुष्यों का संगठित समुदाय होना परम आवश्यक है। अब प्रश्न यह उठता है कि राज्य के लिए न्यूनतम कितने व्यक्तियों का होना आवश्यक है? इस सन्दर्भ में रोबिन्सन रूसो की प्रसिद्ध कहानी का उल्लेख करना सुसंगत होगा। इस कहानी में रूसो एक एकांत द्वीप में केवल फ्राइडे नामक अपने एक सहयोगी के साथ रहता था। वह उस समस्त भूप्रदेश का जिसे वह देख पाता था, सर्वेसर्वा था। प्रश्न यह है कि क्या इन दोनों व्यक्तियों के इस द्वीप को ‘राज्य कहा जा सकता था? वास्तव में इसे राज्य नहीं कहा जा सकता था क्योंकि राज्य के लिए यह आवश्यक है कि उसकी जनसंख्या पर्याप्त हो, अर्थात् वह कम से कम इतनी हो कि उसे शासक और शासित वर्ग में विभक्त किया जा सके।
17. Mac Iver R. M. : The Modern State p. 597-98.
18. Soltav Riger H. : Introduction to Politics (1952) p. 53.
राज्य कहलाने के लिए व्यक्तियों की संख्या निश्चित रूप से कितनी हो, इस विषय में विचारकों में मतभेद है। प्लेटो के अनुसार किसी राज्य के लिए 5000 नागरिकों की संख्या पर्याप्त थी जिसमें स्त्रियाँ, बूढे, बच्चे तथा दास सम्मिलित नहीं किये गये थे। अरस्तू के विचार से राज्य के लिए निश्चित संख्या निर्धारित करना आवश्यक था किन्तु वह न तो बहुत कम हो और न बहुत अधिक हो। छोटे-छोटे गणराज्यों का समर्थक होने के कारण रूसो ने आदर्श राज्य के लिए लगभग 10,000 नागरिक होना पर्याप्त माना था। तथापि वर्तमान समय में मानव सभ्यता के विकास तथा मानव समुदाय में हो रही निरंतर वृद्धि के कारण राज्य के तत्व के रूप में जनसंख्या का विशेष महत्व नहीं रह गया है।
2. भू-भाग (Territory)–राज्य के लिए एक निश्चित भू-भाग होना नितांत आवश्यक है। यह भू-भाग ऐसा होना चाहिये जहाँ कुछ लोग स्थायी रूप से रहते हों। यही कारण है कि जब तक यहूदी लोग समस्त विश्व में बिखरे रहे और किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं जा बसे, वे कोई राज्य नहीं बना सके; किन्तु अब वे इजराइल में स्थायी रूप से बस गये हैं, जो वर्तमान में एक शक्तिशाली राज्य है।
राज्य के भू-भाग के क्षेत्रफल के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं बनाये जा सकते; अत: राज्य छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। राज्य के क्षेत्रफल में भूमि, उसकी नदियाँ, झीलें, समुद्र के किनारे से केवल बारह नॉटीकल मील (nautical miles) दूर तक का भाग सम्मिलित है। इसी प्रकार राज्य की सत्ता समुद्रों पर चलने वाले उन जलपोतों पर भी लागू होती है जो उस राज्य का ध्वज फहराते हैं। विदेशों में स्थापित दूतावास भी राज्य की भूमि के अंश माने जाते हैं। राज्य की प्रादेशिक सीमाओं में भू-भाग का वायुमण्डल तथा भूगर्भक्षेत्र भी सम्मिलित रहता है। परन्तु विख्यात विधिशास्त्री सामण्ड भू-भाग को राज्य का आवश्यक तत्व मानते हैं। उनका विचार है कि एक भ्रमणशील जाति को भी ‘राज्य’ कहा जा सकता है यदि उसने स्वयं को सरकार के लिए कुछ आवश्यक कार्यों को पूरा करने के लिए संगठित किया है।9
3. सरकार (Government)-राज्य के अस्तित्व के लिए सरकार का होना नितांत आवश्यक है। सरकार एक ऐसी संस्था है जिसके माध्यम से राज्य अपने कार्यों को सम्पादित करता है। प्रजा को नियंत्रण में रखने के लिए राज्य द्वारा कानूनों का निर्माण किया जाता है तथा उन्हें लागू किया जाता है। सरकार का मुख्य कार्य यह होता है कि वह राज्य को बाह्य एवं आन्तरिक आक्रमणों से सुरक्षित रखे तथा समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखे।
राज्य के लिए सरकार की अनिवार्यता स्वीकार करते हुए गेट्टेल (R.G. Gettell) ने लिखा है कि, “सरकार राज्य और व्यक्तियों के बीच एक कड़ी का काम करती है। यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं और सामान्य हितों से सम्बन्धित विषयों को संचालित किया जाता है। सरकार का गठन राज्य में लागू होने वाले संविधान के अनुसार होता है। संविधान राज्य में संप्रभुता के विभाजन पर प्रकाश डालता है। संविधान के अनुसार ही राज्य के भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, जैसे कि संघात्मक संविधान के अंतर्गत सरकार संघीय (Federal) होती है जबकि एकात्मक संविधान के अंतर्गत सरकार अध्यक्षीय (Presidential) होती है।
4. प्रभुता-शक्ति (Sovereignty)—प्रभुता-शक्ति राज्य का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण तत्व है। प्रभुताशक्ति ही राज्य के राजनीतिक अस्तित्व को निर्धारित करती है। प्रभुता-शक्ति से तात्पर्य राज्य की स्वाधीनता से है। दूसरे शब्दों में, राज्य में आन्तरिक दृष्टि से कोई समान्तर सत्ता नहीं होनी चाहिये और वह बाह्य या विदेशी नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त होना चाहिये।
प्रभुता शक्ति को राज्य की सर्वोच्च निरंकुश प्राधिकार शक्ति (Supreme unfettered authority) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। ऑस्टिन ने प्रभुता शक्ति के दो अनिवार्य लक्षण बनाए हैं-(1) इसकी अखंडनीयता, तथा (2) असीमितता । परन्तु वर्तमान संघीय शासन प्रणाली वाले राज्यों के संदर्भ में यह कहना
19. सामण्ड : ज्यूरिस्पूडेन्स (12वाँ संस्करण) पृ० 132.
सही नहीं है कि प्रभुता शक्ति अखंडनीय एवं असीमित होती है क्योंकि संघीय प्रणाली (Federal System) में प्रभुता शक्ति केन्द्र तथा घटक राज्यों में बंटी रहने के साथ-साथ इनमें सीमित भी रहती है। इसीलिए जेथ्रो ब्राउन ने कहा है कि वास्तव में राज्य स्वयमेव प्रभुसत्ताधारी होता है लेकिन यह प्रभुता शक्ति उसके तीन अंगों (organs) में बँटी रहती है जिन्हें कार्यपालिक प्रभुता, न्यायपालिक प्रभुता तथा विधायनी प्रभुता कहा जा सकता है। संसद राज्य की विधायनी प्रभुता का प्रतिनिधित्व करती है।
राज्य एवं अन्य समानार्थी धारणाएँ
राज्य की परिभाषा तथा इसके आवश्यक तत्वों की विवेचना कर लेने के पश्चात् उसमें तथा कुछ अन्य समानार्थी संस्थाओं में भेद समझ लेना उपयुक्त होगा। राज्य को वैधानिक व्यक्तित्व की मान्यता प्राप्त होने के कारण इसे समाज, सरकार तथा राष्ट्र से भिन्न माना जाना चाहिये। ये भिन्नताएं निम्नानुसार हैं
राज्य और समाज
राज्य की तुलना में समाज अधिक वृहद होता है। मैक आइवर के अनुसार समाज सामाजिक सम्बन्धों के बदलते हुये रूपों का अध्ययन है। समाज के अन्तर्गत समस्त मानवीय समुदाय समाविष्ट हैं-चाहे वे सुव्यवस्थित हों अथवा न हों। किन्तु राज्य के अन्तर्गत केवल राजनीतिक रूप से सुव्यवस्थित समुदाय ही आते हैं, अन्य प्रकार के समुदाय नहीं। समय की दृष्टि से समाज राज्य से पूर्ववर्ती होता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मानव-इतिहास में राज्य की स्थापना समाज के बहुत बाद में हुई।
कार्यों (functions) की दृष्टि से भी समाज और राज्य एक-दूसरे से भिन्न हैं। मनुष्य अपनी रक्षा, लालनपालन, शिक्षा, सुख तथा अन्य साधनों आदि के लिए समाज पर निर्भर रहता है। वह अपने विचारों, इच्छाओं, आकांक्षाओं और यहाँ तक कि अपने शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भी समाज पर निर्भर रहता है। मानव जीवन के लिए समाज परम आवश्यक है। मनुष्य के मानवोचित गुणों का विकास समाज में ही सम्भव है ।20 परन्तु राज्य का उद्देश्य समाज में शांति-व्यवस्था बनाये रखते हुए जनता के हितों का संरक्षण तथा संवर्धन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य अपने कानूनों द्वारा लोगों को आज्ञा-पालन के लिए बाध्य करता है।
निर्माण की दृष्टि से भी समाज और राज्य में अन्तर है। राज्य समस्त संगठित जीवन, समूचे मानवीय सम्बन्धों को समाविष्ट नहीं कर सकता। मैक आइवर ने ठीक ही कहा है कि राज्य का अस्तित्व समाज के अन्तर्गत है, किन्तु वह समाज का प्रतिरूप नहीं है-राज्य उस सामाजिक जीवन का, जिस पर उनका नियंत्रण है, समर्थन करता है अथवा पोषण करता है, उस पर बन्धन लगता है अथवा उसे स्वतंत्रता देता है; उसे पूर्ण बनाता है या उसका विध्वंस करता है, किन्तु वह समाज का उपकरण मात्र है।21
राज्य बल-प्रयोग और शक्ति पर आधारित है तथा अपनी सत्ता को कानूनों की सहायता से कायम रखता है। परन्तु समाज सामान्यत: नैतिक प्रभाव का प्रयोग करता है तथा सामाजिक रूढ़ियों, परम्पराओं और सद्भावनाओं के आधार पर अपना अस्तित्व बनाये रखता है।
राज्य और सरकार
वर्तमान में राज्य और सरकार के भेद को प्रायः भुला दिया गया है। जैसा कि कथन किया जा चुका है कि ‘सरकार’ (Government) राज्य को एक आवश्यक तत्व है। यह एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से राज्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयत्न करता है। ‘सरकार’ के माध्यम से राज्य की इच्छा निर्मित होती है, अभिव्यक्त होती है और पूर्ण होती है।
हेरॉल्ड लास्की तथा कोल आदि विद्वानों के अनुसार राज्य’ और ‘सरकार’ के अन्तर का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। प्रोफेसर कोल (Cole) का कथन है कि राज्य जन-समुदाय के शासन की
20. Mac Iver & Page: The Modern State, (1932) p. 5.
21. Ibid.
राजनीतिक मशीनरी के अलावा और कुछ नहीं है।22 परन्तु निवेदित है कि राज्य और सरकार को एक ही समझना भ्रान्ति उत्पन्न कर सकता है। राज्य और सरकार के भेद को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। यदि यह समझ लिया जाए कि सरकारें अस्थिर होती हैं, वे आती-जाती या बदलती रहती हैं किन्तु राज्य अपेक्षाकृत स्थायी होता है, तो अनेक उलझनों से बचा जा सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रभुसत्ता सरकार का लक्षण नहीं बल्कि राज्य का लक्षण है। यह भी स्पष्ट है कि सरकार को संविधान और विधि की सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करना चाहिये और अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर नहीं जाना चाहिये। लोकतन्त्रीय समाज में, जहाँ अन्तिम प्रभुसत्ता-शक्ति जनता में निहित होती है, सरकार के निर्णयों और कार्यों में अन्तिमता नहीं हो सकती है। सरकार को अपनी नीति लोकमत की इच्छा के अनुरूप बनानी होगी। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि राज्य और सरकार के आधार पर सरकार के अधिकार-क्षेत्र की मर्यादा के विषय में स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। सरकार राज्य के अभिकर्ता (agent) के रूप में कार्य करती है। यदि राज्य के अभिकर्ता की हैसियत से वह अपने उत्तरदायित्व को निभाने में असमर्थ दिखाई दे; तो निर्धारित प्रक्रिया द्वारा उसे बदला जा सकता है।
राज्य और राष्ट्र (State and Nation)
एक ही सरकार के अन्तर्गत रहने वाले व्यक्तियों के समाज को राज्य कहा जाता है। यह आवश्यक नहीं कि ये व्यक्ति एक ही जाति या एक ही धर्म के अनुयायी हों। इनके धर्म, विश्वास तथा जाति आदि भिन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ्रीकन, आइरिश, इटैलियन, ट्यूटोनिक आदि विभिन्न जातियों के लोग रहते हुए भी उसे ‘राज्य’ कहा जाता है। परन्तु राष्ट्र (Nation) में जातिगत तत्व निहित होना आवश्यक है। ओपेनहाइम के अनुसार राष्ट्रीय चेतना राष्ट्र को जन्म देती है। राष्ट्र के विकास के लिए जाति तथा भाषा की एकता के अतिरिक्त धार्मिक एवं भौगोलिक एकता होना भी परम आवश्यक है। कोई जनसमुदाय उस समय तक राष्ट्र नहीं बन सकता जब तक कि वह सामान्य रूढ़ियों से आबद्ध न हो। सामान्य भाषा, भौगोलिक निरन्तरता और सामान्य आर्थिक कड़ियों के होने से मानव-समूह मिल-जुल कर रहता है, उसके अनुभव समान होते हैं और लोगों में सामान्य दृष्टिकोण और सामान्य अभिलाषाओं का सृजन होता है। तथा वे साहचर्य से रहते हैं; फलत: उनमें समान भावनाएँ जागृत होती हैं। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्र के व्यक्तियों में उपर्युक्त सभी सामान्य विशेषताएँ विद्यमान हों। सिजविक (Sidgwick) का कथन है कि राष्ट के लिए केवल इतना ही पर्याप्त है कि व्यक्तियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध की एक सामान्य भावना हो और वे सभी अपने को एक सूत्र में बंधे हुए समझते हों।23
राज्य और राष्ट्र में एक अन्तर यह भी है कि राज्य एक कृत्रिम बन्धन है जो राजनीतिक चेतना से अपने नागरिकों को आपस में संगठित रखता है। परन्तु राष्ट्र एक प्राकृतिक बन्धन है जो वंश, भाषा, रूढ़ि के आधार पर अपने सदस्यों को आपस में एक सूत्र में बाँधे रखता है।
राज्य की सदस्यता (Membership of the State)
जैसा कि कथन किया जा चुका है, बिना व्यक्तियों के राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता है। राज्य के मत कार्य उसकी प्रजा के कल्याणार्थ होते हैं। गणतन्त्रात्मक राज्य में रहने वाले सदस्यों को ‘नागरिक’
Ans) कहा जाता है जब कि राजतन्त्रात्मक राज्य में उन्हें प्रजा (subject) के नाम से सम्बोधित किया ना है। इन दोनों प्रकार के सदस्यों के अतिरिक्त राज्य में कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो उस राज्य में स्थायी से नहीं रहते वरन विदेशों से आते हैं। प्रजा तथा नागरिकों के लिए यह आवश्यक होता है कि वे राज्य के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करते रहें परन्तु विदेशियों के लिए ऐसा करना आवश्यक नहीं होता। विदेशी व्यक्ति (aliens) यदि चाहें तो राज्य के नियमानुसार उस राज्य की नागरिकता ? इण कर सकते हैं। राज्य की नागरिकता निम्नलिखित तरीकों से प्राप्त की जा सकती है
22. जी० डी० एच० कोल (Cole) : सेल्फ गवर्नमेण्ट इन इन्डस्ट्री, (1919) पृ० 119.
23. सिजविक : दि एलीमेंट्स ऑफ पॉलिटिक्स, पृ० 224.
1. जन्मतः (Nativity)—सामान्यत: जो व्यक्ति जहाँ पैदा होता है वह वहीं का नागरिक मान लिया जाता है परन्तु कुछ देशों में नागरिकता माता-पिता की नागरिकता के अनुसार निर्धारित की जाती है। जर्मनी और फ्रांस में बच्चों को उनके माता-पिता की नागरिकता ही प्रदान की जाती है परन्तु अर्जेन्टाइना में नागरिकता को जन्म-स्थान के अनुसार निर्धारित किया जाता है। ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में इन दोनों सिद्धान्तों को मिश्रित रूप से मान्य किया गया है। विभिन्न देशों में प्रचलित परस्पर विरोधी सिद्धान्तों के परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जब कोई बच्चा एक साथ दो देशों का नागरिक हो जाता है। उदाहरणार्थ, यदि फ्रांसीसी माता-पिता से अमेरिका में कोई बालक पैदा होता है, तो अमेरिका के कानून के अनुसार वह बच्चा जन्मानुसार अमेरिका का नागरिक होगा, साथ-ही फ्रांस की विधि के अनुसार वह फ्रांसीसी माता-पिता की। सन्तान होने के नाते फ्रांस का नागरिक भी होगा। अत: उसे एक साथ दो देशों की दोहरी नागरिकता (double nationality) प्राप्त होगी। इसके ठीक विपरीत, ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है जब किसी बालक को किसी भी देश की नागरिकता न मिले तथा वह बिना नागरिकता के रह जाए। उदाहरणार्थ, यदि जर्मनी में किसी ब्रिटिश महिला से कोई अवैध सन्तान उत्पन्न होती है, तो जर्मन विधि के अनुसार वह अवैध सन्तान अपनी माता के देश की नागरिक होगी तथा जर्मनी की नागरिक नहीं हो सकती; साथ ही वह ब्रिटेन में पैदा न होने के कारण वहाँ (ब्रिटेन) की भी नागरिक नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में नागरिकता प्राप्त करने के लिए। उसे किसी अन्य विधि को अपनाना होगा।
2. देशीयकरण (Naturalization)-देशीयकरण के अनुसार कोई ऐसा विदेशी जो किसी दूसरे देश की नागरिकता अपनाना चाहता है, उस देश में नागरिकता के लिए निर्धारित शर्तों को पूरा करने के पश्चात् ही उस देश का नागरिक बन सकता है। इस विधि के अन्तर्गत लोगों को एक निश्चित न्यूनतम अवधि तक उस दूसरे देश में अधिवास करना आवश्यक होता है, जिसकी कि वह नागरिकता ग्रहण करना चाहता है। अनेक भारतीय अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों में जाकर बस गये हैं तथा उन्होंने इस पद्धति द्वारा वहाँ की नागरिकता ग्रहण कर ली है।
3. पुनर्नागरीकरण (Reintegration)-इस विधि के अनुसार कोई भी ऐसा व्यक्ति जो दूसरे देश की नागरिकता अपना चुका है, अपने मूल देश की नागरिकता पुन: अपना सकता है।
4. राज्य की समाप्ति या पराधीनता (Subjection and Cession of Territory)–यदि कोई राज्य पराजित हो जाता है और दूसरा राज्य उसे अपने में विलय कर लेता है, तो इस प्रकार समाप्त होने वाले राज्य के नागरिक दूसरे राज्य के नागरिक हो जाते हैं। परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि विजयी राज्य पराजित राज्य के स्वतन्त्र अस्तित्व को समाप्त कर देने का इच्छुक हो।।
5. सन्धि द्वारा एक राज्य का दूसरे के साथ विलीनीकरण (Annexation of one State with the other by treaty)–जब एक राज्य किसी सन्धि द्वारा दूसरे राज्य के साथ अपना विलीनीकरण कर लेता है, तो पहले राज्य के नागरिक अपने-आप दूसरे राज्य के नागरिक हो जाते हैं। भारत में जम्मू-कश्मीर को भारतीय गणतन्त्र में मिलाकर वहाँ के निवासियों को इसी प्रकार भारतीय नागरिकता प्राप्त हुई है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राज्य की नागरिकता अनेक प्रकार से प्राप्त की जा सकती है; परन्तु कुछ दशाओं में राज्य की नागरिकता को समाप्त भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति दूसरे राज्य की नागरिकता स्वीकार कर लेता है या बहुत दिनों तक राज्य से लापता रहता है, या अपने राज्य द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता है, तो उस राज्य से उसकी नागरिकता समाप्त मानी जाएगी।
राज्य के कार्य (Functions of State)
राज्य का निर्माण कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। प्राचीन काल से ही लोक कल्याण का एक साधन माना गया है। उन्नीसवीं सदी की व्यक्तिवादी तथा उपयोगितावादी
थशास्त्रियों ने राज्य को एक आवश्यक बुराई निरूपित करते हुए कहा कि समाज में बुराइया”. की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। समाज में बुराइयाँ हैं इसलिए उनकी रोकथाम के साधन के रूप
में राज्य की आवश्यकता होती है। विशेषतः हरबर्ट स्पेन्सर तथा स्टुअर्ट मिल इस विचार के प्रमुख समर्थक थे।
साधन के रूप में राज्य के विभिन्न कार्यों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है
(1) प्राथमिक कार्य (Primary Functions); और
(2) गौण कार्य (Secondary Functions
1. राज्य के प्राथमिक कार्य (Primary Functions)-राज्य के प्राथमिक कार्यों से आशय ऐसे कार्यों से है जो राज्य के अस्तित्व के लिए नितान्त आवश्यक हैं। सामण्ड के अनुसार राज्य का प्राथमिक कार्य अपने सीमा की बाह्य आक्रमण से प्रतिरक्षा करना तथा न्याय की स्थापना करना है। बाह्य आक्रमणों से राज्य की प्रतिरक्षा करने के लिए अन्य देशों से आवश्यकतानुसार ‘युद्ध’ या आक्रमण करना आवश्यक हो सकता है। राज्य में न्याय स्थापित करने से सामण्ड का आशय राज्य में शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने से है। अतः स्पष्ट है। कि राज्य के इन दो कार्यों में से प्रथम बाह्य स्वरूप का है जब कि दूसरा आन्तरिक स्वरूप का है। युद्ध राज्य के अन्तर्राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए आवश्यक है जबकि न्याय-प्रशासन राज्य के आन्तरिक अस्तित्व के लिए उतना ही आवश्यक है। इस दृष्टि से हॉब्स (Hobbes) ने ठीक ही कहा है कि राज्य के हाथ में दो तलवारें होती। हैं-एक युद्ध की और दूसरी न्याय की। हरबर्ट स्पेन्सर ने भी राज्य के ये ही दो प्रमुख कार्य बताये हैं। उनका कथन है कि राज्य के वास्तविक कार्य हैं-बाहरी शत्रुओं से अपनी रक्षा करना तथा आन्तरिक अराजकता को दबाये रखना।’24 राज्य के प्राथमिक कार्यों को संघटक कार्य (constituent functions) भी कहा जाता है।
2. राज्य के गौण कार्य (Secondary Functions)-राज्य के गौण कार्यों का प्रमुख उद्देश्य समाज के सामान्य हितों को संवर्धित करना है। सामण्ड ने राज्य के गौण कार्यों को वैकल्पिक कार्य (optional functions) कहा है, क्योंकि मूल कार्यों की भाँति इन कार्यों का सम्पादन राज्य का अस्तित्व कायम रखने के लिए आवश्यक नहीं है। राज्य के गौण कार्यों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-प्रथम वे कार्य जो राज्य के प्राथमिक कार्यों के सम्पादन में सहायता करते हैं। इस श्रेणी में विधायन (legislation) तथा कराधान (taxation) समाविष्ट है। विधि-निर्माण का उद्देश्य राज्य में न्याय की स्थापना करना है और कर-संचालन का उद्देश्य राज्य के कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए वित्तीय साधनों को जुटाना है। गौण कार्यों के द्वितीय प्रकार के अन्तर्गत वे कार्य आते हैं जिन्हें समाज अपनी सुविधा के लिए सम्पादित करता है। ये कार्य समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। इस श्रेणी में शिक्षा, खाद्य, सफाई, जन-स्वास्थ्य, उद्योग, केषि, गरीबों की सहायता तथा अन्य विविध लोक-कल्याणकारी कार्यों का समावेश किया जा सकता है। राज्य के गौण कार्यों को लोकहित के कार्य भी कहा गया है।
राज्य के गौण कार्यों के विषय में विख्यात विधिशास्त्री सामंड ने लिखा है कि वर्तमान कल्याणकारी राज्यों के परिप्रेक्ष्य में उन्नीसवीं सदी की पुलिस राज्य (Police State) का महत्व क्षीण हो गया है। राज्यों के कल्याणकारी कार्यों के दायरे में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। भारत में इसका अनुमान संविधान के भाग 4 में अति नीति निदेशक सिद्धान्तों के निरन्तर बढ़ते हुये महत्व से सहज ही लगाया जा सकता है। इस भाग में उल्लिखित राज्य के कार्य एवं दायित्व उसके गौण कार्यों के अन्तर्गत समाविष्ट हैं ।25
उपर्युक्त प्राथमिक एवं गौण कार्यों के अतिरिक्त राज्य अनेक अन्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय कार्य भी करता है। राज्य दूसरे राज्यों के साथ अपने नागरिकों का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करता है और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सहयोग प्रदान करके समानता, सह-अस्तित्व और देश-बन्धुत्व को बढ़ावा देता है।
24. “The true functions of a State are to protect against external enemies and to supress internal anarchy.”-Spencer.
25. भारत का संविधान, भाग-IV : नीति निर्देशक सिद्धान्त.
राज्यों का वर्गीकरण (Classification of States)
राज्यो का वर्गीकरण विभित्र् आधारों पर अलग-अलग प्रकार से किया गया है। सुविधा की दृष्टि से राज्यों के वर्गीकरण का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है।
अरस्तू (Aristotle) के अनुसार राज्यों का वर्गीकरण
विख्यात दार्शनिक अरस्तू ने राज्यों के अनेक प्रकार बताये हैं। उनका विश्वास था कि अनेक कारणों से राज्यों में परिवर्तन होते रहते हैं और इन परिवर्तनों का एक चक्र-सा चलता रहता है जिसके कारण राज्य का स्वरूप बदलता रहता है। अरस्तू ने राज्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है
- राजतन्त्र (Monarchy)–राजतन्त्र एक ऐसी शासन-प्रणाली होती है जिसमें राजसत्ता सदैव एक ही व्यक्ति के हाथ में रहती है। यह सत्ता वंशानुगत (hereditary) भी हो सकती है और निर्वाचन पद्धति द्वारा भी। इसी प्रकार राजतन्त्र असीमित भी हो सकता है और सीमित भी। निरंकुश राजतंत्र (Absolute Monarchy) में शासक के पास पूर्ण राजनीतिक अधिकार होते हैं किन्तु सीमित राजतन्त्र में राजा केवल नाममात्र का राज्यप्रमुख होता है 26 वर्तमान राज्य-व्यवस्थाओं में राजतन्त्र का प्रायः लोप होता जा रहा है।
समय के साथ जब शासक के राजनीतिक गुण समाप्त हो जाते हैं तब वहाँ तानाशाही (tyranny) स्थापित हो जाती है। इस व्यवस्था में शासक एक ही व्यक्ति होता है परन्तु प्रजा उसकी आज्ञा का पालन उसके उत्कृष्ट गुणों के कारण नहीं करती, बल्कि उसकी शक्ति के भय के कारण करती है।
(ii) कुलीनतन्त्र (Aristocracy)- इसमें राजसत्ता कुछ सीमित व्यक्तियों के हाथों में होती है जो प्रभावशाली और प्रतिष्ठित होते हैं। जनता इन व्यक्तियों की आज्ञाओं का पालन करती है क्योंकि वे राजनीतिक गुणों से सम्पन्न व्यक्ति होते हैं। ऐसा शासन योग्यता और चरित्र को महत्व देता है और अनुभव और ज्ञान का समर्थन करता है।
उपर्युक्त कुछ व्यक्तियों के शासन में जब राजनैतिक गुणों का ह्रास होने लगता है, तो वह विकृत रूप ग्रहण कर लेता है जिसे अल्पतंत्र शासन (Oligarchy) कहते हैं।
(iii) लोकतंत्र (Democracy)—इसका आशय ‘जनता के शासन’ से है। ब्राइस के अनुसार यह ऐसा शासन है जिसमें शासनाधिकार जन-समुदाय के प्रतिनिधियों में निहित होता है। इसी कारण इसे ‘बहुमत का शासन’ भी कहते हैं। अब्राहम लिंकन ने इसे ‘जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन’ बताया है। यदि किसी लोकतन्त्रीय राज्य का प्रधान निर्वाचित हो, तो उसे गणतन्त्र कहते हैं किन्तु वह वंशानुगत भी हो सकता है।
जब लोकतन्त्र में अराजकता और गड़बड़ी फैल जाती है, तो उसके विकृत रूप को भीड़तन्त्र (Mobocracy) कहते हैं। दुर्भाग्य से वर्तमान भारत का लोकतन्त्र भी शनैः शनैः भीड़तंत्र की ओर बढ़ता जा रहा है।
जब राज्य के क्रमिक परिवर्तन का यह चक्र पूरा हो जाता है तो पुन: राजतन्त्र स्थापित हो जाता है और यह क्रम निरन्तर इसी तरह चलता रहता है। इस प्रकार अरस्तू ने राज्य के तीन प्रकार अर्थात् राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र तथा लोकतन्त्र बताये हैं, जिनके विकृत स्वरूप क्रमशः तानाशाही, अल्पतंत्र तथा भीड़तंत्र कहलाते हैं।
राज्यों का आधुनिक वर्गीकरण
आधुनिक राज्य-प्रणालियों को देखते हुए अरस्तू का वर्गीकरण अव्यावहारिक प्रतीत होता है। वर्तमान प्रतिनिधित्व-प्रणाली ने राज्य के संगठन एवं कार्यों में इतने परिवर्तन ला दिये हैं कि राज्य का किसी एक
26. ब्रिटेन का राजतन्त्र सीमित राजतन्त्र है.
आधार पर वर्गीकरण करना व्यर्थ होगा। अतः आधुनिक राज्यों का वर्गीकरण उनकी रचना, प्रभुता-शक्ति तथा स्वरूप के अनुसार किया जाता है। इस दृष्टिकोण से राज्यों के विभिन्न प्रकार निम्नानुसार हो सकते हैं
1. स्वाधीन और पराधीन राज्य
स्वाधीन राज्य किसी भी बाहरी सत्ता के अधीन नहीं होता है। इसे आन्तरिक और बाह्य, दोनों रूपों में प्रभुसत्ता प्राप्त होती है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ऐसे स्वाधीन राज्य को प्रभुताधारी राज्य (Sovereign State) कहते हैं।
पराधीन राज्य (Dependent State) की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती है। वह अपने स्वामी-राज्य का अग माना जाता है और उसकी नीतियों का पालन करता है। ऐसे राज्य को अन्य देशों से सम्बन्ध स्थापित करने सम्बन्धी कुछ सीमित अधिकार प्राप्त हैं जो स्वामी-राज्य तथा अन्य राज्यों के साथ हुई सन्धियों (treaties) पर आधारित रहते हैं। ऑस्टिन तथा सामण्ड के अनुसार पराधीन राज्य पर किसी अन्य राज्य का आधिपत्य मात्र होने से वह ‘राज्य’ कहलाये जाने से वंचित नहीं हो जाता है। किसी राज्य की शक्ति दूसरे राज्य द्वारा अनियन्त्रित हो जाने पर भी वह राज्य ‘राज्य’ ही बना रहेगा; यदि उसने अपनी व्यवस्थापिका अलग से गठित की हो तथा न्यापालिका और कार्यपालिका द्वारा वह अपने प्रशासनिक कार्यों का स्वतंत्र रूप से संचालन करने में समर्थ हो। अत: किसी राज्य की प्रभुता-शक्ति (Sovereignty) पर दूसरे राज्य का नियंत्रण होने मात्र से किसी राज्य को ‘राज्य’ की प्रास्थिति (status) से वंचित नहीं किया जा सकता है। ओपनहाइम (Openheim) के अनुसार यदि किसी पराधीन राज्य को अपने विदेशी सम्बन्धों को नियंत्रित करने का अधिकार प्राप्त है, तो वह अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ‘राज्य’ कहलायेगा।
2. एकात्मक और संघीय राज्य (Unitary and Federal States)
एकात्मक राज्य (Unitary States) ऐसे राज्य को कहते हैं जिसमें समस्त व्यवस्थापिकीय शक्ति केन्द्रीय सरकार में अबाध रूप से निहित हो। एकात्मक राज्य में समस्त प्रभुता-शक्ति केन्द्रीय सत्ता में निहित रहती है। इस व्यवस्था में अन्य स्थानीय या प्रादेशिक सरकारें नहीं होतीं और यदि होती भी हैं, तो वे पूर्णतः केन्द्रीय सरकार के अधीन होती हैं। स्थानीय सरकार को विधि-निर्माण का अधिकार केन्द्रीय विधानपालिका से ही प्राप्त होता है तथा वह जब चाहे उसके अधिकार को समाप्त कर सकती है। ग्रेट ब्रिटेन एकात्मक राज्य का उदाहरण है जहाँ समस्त विधायिनी शक्ति ब्रिटेन की संसद में केन्द्रित है। । संघीय राज्य (Federal State) का निर्माण दो प्रकार से होता है। कभी-कभी कुछ स्वतन्त्र राज्य मिलकर एकीकरण (integration) द्वारा एक संघीय राज्य (Federation) स्थापित करते हैं परन्तु अनेक बार एकात्मक राज्य के विकेन्द्रीकरण या विघटन (disintegration) द्वारा भी संघीय राज्य की उत्पत्ति होती है।
संघीय राज्यों में वैध शासन होता है; अतः केन्द्र और घटक राज्यों के बीच अधिकार-शक्ति का विभाजन अपरिहार्य है। इस शक्ति-विभाजन का समावेश संविधान में किया जाता है ताकि केन्द्र और घटक राज्य अपनी-अपनी विनिर्दिष्ट सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करें और अपनी अधिकार शक्ति का उल्लंघन न करें। यही कारण है कि संघीय राज्य में ‘संविधान’ को सर्वोपरि माना गया है। डायसी (Dicey) ने संघीय राज्य को चरिभाषित करते हुए लिखा है कि ”संघात्मक राज्य एक ऐसा राजनैतिक संगठन है जो राष्ट्रीय एकता एवं शक्ति और घटक राज्यों के अधिकारों में समन्वय स्थापित करने के लिए बनाया जाता है। वर्तमान संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विटजरलैण्ड, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि संघीय राज्य के उदाहरण हैं। संघात्मक राज्य के निम्नलिखित अनिवार्य तत्व हैं-
(i) संघीय समझौता-विभिन्न सम्पन्न राज्य सामूहिक रूप से एक संघ-राज्य की स्थापना करते हैं। यह संघ-राज्य उन सभी घटक राज्यों में सर्वोपरि होता है।
(ii) प्रभुता-शक्ति का विभाजन-संघीय राज्य में संघ (केन्द्र) तथा घटक-राज्यों के बीच अधिकारों का स्पष्ट विभाजन किया जाता है। दोनों की पृथक्-पृथक् व्यवस्थापिका, न्यायपालिका एवं
कार्यकारिणी होती है और इन समस्त अधिकारों का उस संघ के संविधान में विस्तृत वर्णन रहता है। संघीय राज्य में यह आवश्यक नहीं है कि सभी संघ राज्य समान ही हों।
(iii) संविधान की अनम्यता (Rigidity of the Constitution) संघीय प्रणाली में संघ और घटक राज्यों में शक्ति विभाजन तथा अधिकारों और कर्तव्यों का संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया जाता है। अत: इसमें परिवर्तन के लिए संविधान में दी गयी संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार संविधान में संशोधन करना आवश्यक होता है, जो एक जटिल प्रक्रिया है 27 परन्तु आपातकालीन स्थिति या संकटकाल में सम्पूर्ण संविधान को पूर्णतया स्थगित कर दिया जाता है 28 और बाद में आवश्यकतानुसार संविधान लागू किया जाता है। फ्रांस में जनरल डिगॉल ने कुछ दशकों पूर्व ही फ्रांस के पुराने संविधान को पूर्णतः स्थगित करके नया संविधान लागू किया था।
(iv) व्यवस्थापिकीय कार्यों की वैधानिकता के विषय में न्यायपालिका की निर्णय देने की अधिकार-शक्ति-संघीय राज्यों में विधि निर्माण सम्बन्धी कार्यों में व्यवस्थापिका को सर्वोपरि अधिकार प्राप्त है। परन्तु फिर भी विधायिनी ऐसा कोई कानून पारित नहीं कर सकती, जो संविधान के विरुद्ध हो । यदि व्यवस्थापिका द्वारा संविधान के उपबन्धों के विपरीत कोई कानून पारित किया जाता है, तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है। यही कारण है कि संघीय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक माना गया है।
संघीय राज्य-व्यवस्था में न्यायपालिका ही समय-समय पर संविधान की व्याख्या करती है तथा उसमें हुए संशोधनों की वैधता पर विचार करती है। संघ और घटक राज्यों के विवाद भी संघीय न्यायालय द्वारा ही निपटाये जाते हैं।29
3. परिसंघ (Confederation)
जब अनेक प्रभुता-सम्पन्न राज्य पारस्परिक सहयोग या सुरक्षा या किसी अन्य सामूहिक समस्या के हल के लिए किसी सन्धि (treaty) के अन्तर्गत एक हो जाते हैं, तो ऐसे राज्यों के समूह को परिसंघ (Confederation) कहते हैं। स्पष्ट है कि परिसंघ एक राज्य न होकर स्वतन्त्र और सम्पूर्ण सम्पन्न राज्यों का एक समूह है जो किन्हीं सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संगठित हुए हों 30 ये राज्य किसी भी समय परिसंघ (Confederation) से पृथक होने के लिए स्वतंत्र हैं। गार्नर के अनुसार एक परिसंघ में अनेक प्रभुतासम्पन्न सरकारें होती हैं। परिसंघ के प्रत्येक राज्य का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है तथा वह अन्य राज्यों के साथ अन्तर्राष्ट्रीय संबंध स्थापित करने के लिए पूर्णतः स्वतन्त्र होता है। वस्तुतः इस प्रकार के संगठन से राज्यों के स्वतंत्र अस्तित्व पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता; अतः परिसंघ को ‘राज्य’ न कहकर अनेक प्रभुताधारी राज्यों का संगठन-मात्र कहना ही उचित होगा।
संघात्मक राज्य और परिसंघ में अन्तर (Difference between Federation and Confederation)
‘संघात्मक राज्य’ और ‘परिसंघ’ एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न हैं। संधात्मक राज्य में केन्द्र और घटक राज्यों के बीच शक्ति-विभाजन कर दिया जाता है। केन्द्र और घटक-राज्य संविधान में निर्दिष्ट अपनी-अपनी अधिकार-सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करते हैं। परन्तु परिसंघ स्थापित होने पर प्रभुता-शक्ति राज्य के हाथों में ही रहती है तथा इसका विभाजन नहीं किया जाता। इसी प्रकार कोई राज्य अपनी इच्छानुसार किसी भी समय परिसंघ (Confederation) से अलग हो सकता है; परन्तु संघीय व्यवस्था में घटक राज्य संघ से अपनी इच्छानुसार पृथक् नहीं हो सकता है।
27. भारत का संविधान, अनुच्छेद 368.
28. अनुच्छेद 352 से 359.
29. अनुच्छेद 131.
30. नीदरलैण्ड (1580 से 1795 तक); अमेरिका (1778 से 1787 तक) तथा जर्मनी (1875 से 1886 तक) परिसंघ के रूप में अस्तित्व में थे.
संघीय राज्य में घटक राज्यों के नागरिक भी संघ की प्रजा माने जाते हैं और संघ द्वारा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं। परन्तु परिसंघ के विभिन्न राज्यों के नागरिकों के साथ परिसंघ का सीधा सम्पर्क नहीं होता है। परिसंघ सदस्य-राज्यों के नागरिकों पर कराधान नहीं कर सकता है।
विश्व-संघ की परिकल्पना (Concept of World Federation)
वर्तमान में विश्व-शांति एवं विश्व-बंधुत्व के संवर्धन हेतु विश्व-एकता (World unity) की आवश्यकता अनुभव की जा रही ताकि सदस्य देश मानवीय विकास से संबंधित विभिन्न गतिविधियों में परस्पर सहयोग एवं सहकार्य कर सकें। आज के परिमाणु युग में सुरक्षा की दृष्टि से भी शांति पूर्ण सह-अस्तित्व के लिए विभिन्न राष्ट्रों का एकजुट होकर एक-दूसरे की सहायता करना अपरिहार्य हो गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनेक विद्वानों ने विश्व-संघ (World Federation) की स्थापना का सुझाव दिया है जिसमें सभी राष्ट्र बिना किसी भेदभाव के, समान शक्ति-सम्पन्न स्वायत्त इकाइयों (Autonomous units with equal powers) के रूप में शामिल होंगे। विद्वानों का मत है कि इससे सभी विकसित विकासशील एवं अविकसित देश एक मंच पर होने के कारण उनमें परस्पर सहयोग की भावना बढ़ेगी और साथ ही विकसित देशों का विकासशील एवं अविकसित देशों पर वर्चस्व (प्रभुत्व) समाप्त करने की दिशा में यह एक कारगर प्रयास होगा। परन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या विकसित देश इस प्रस्ताव को स्वीकार कर अपना प्रभुत्व त्यागने के लिए सहमत होंगे? अतः। सैद्धांतिक दृष्टि से विश्व संघ की स्थापना का सुझाव भले ही सराहनीय हो लेकिन प्रायोगिक दृष्टि से इसके कार्यान्वित होने की संभावना कम ही दिखलाई देती है।
4. साम्राज्यात्मक राज्य (Imperial State)
संघात्मक राज्य की भाँति साम्राज्यात्मक राज्य भी अनेक राज्यों को मिलाकर बनते हैं। परन्तु दोनों में अन्तर यह है कि साम्राज्यात्मक राज्य में संघटक राज्य (constituents) निश्चित रूप से केन्द्रीय साम्राज्य के अधीन होते हैं जबकि संघात्मक राज्य में घटक-राज्य सामान्य विचारों, भावनाओं तथा आकांक्षाओं तथा भौगोलिक समानताओं के कारण स्वेच्छा से मिलकर सामूहिक रूप से संघराज्य स्थापित करते हैं। साम्राज्यात्मक राज्य में केन्द्र घटक-राज्यों की प्रभुसत्ता पूर्ण रूप से स्वयं ग्रहण कर लेता है। परन्तु इसके ठीक विपरीत संघात्मक राज्य में केन्द्र और घटक-राज्यों के बीच प्रभुसत्ता का विभाजन संविधान में उल्लिखित रहता है। ब्रिटेन ने अपने उपनिवेशों के साथ मिलकर ‘साम्राज्यात्मक राज्य स्थापित किया था, जिसका अब विघटन हो चुका है।
यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि स्वतन्त्रता के पूर्व भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश था; परन्तु सन् 1947 में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद वह एक स्वतन्त्र राज्य बन गया और संविधान के अन्तर्गत अब यह एक संघात्मक राज्य है। निवेदित है कि भारत में राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति के दौरान राज्य की सभी शक्तियाँ केन्द्र सरकार में निहित हो जाती हैं और उस समय वह अस्थायी रूप से एकात्मक राज्य की भाँति कार्य करता है। इसलिए अधिकांश संविधान-विशेषज्ञों ने भारत को पूर्णतः संघात्मक राज्य मानने के बजाय अर्ध-संघात्मक (Quasi-Federal) राज्य माना है। दूसरे शब्दों में, यह कहना अनुचित न होगा कि सामान्य परिस्थितियों में भारत एक संघात्मक राज्य है लेकिन राष्ट्रीय आपातकाल में वह अस्थायी रूप से एकात्मक राज्य की भूमिका का निर्वहन करता है। अतः उसे अर्ध-संघात्मक राज्य कहना ही न्यायोचित होगा। ‘
राज्य‘ और ‘विधि‘ में परस्पर सम्बन्ध (Inter-relationship between State and Law)
जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, विधि का निर्माण राज्य द्वारा ही किया जाता है। दूसरे शब्दों में, राज्य अपनी नीतियों की अभिव्यक्ति विधि के माध्यम से करता है। विधि का उल्लंघन किया जाने पर राज्य दारा दोषी व्यक्ति को दंडित किया जाता है, अर्थात् राज्य की अनुशास्ति लोगों को विधि का अनुपालन करने के लिए बाध्य करती है। राज्य और विधि के सम्बन्ध में तीन विभिन्न धारणायें प्रचलित हैं
(1) राज्य, विधि का निर्माता होने के कारण विधि से श्रेष्ठतर है।
(2) विधि का अस्तित्व राज्य से पूर्ववर्ती होने के कारण विधि राज्य पर बंधनकारी होती है।
(3) विधि और राज्य वस्तुत: एक ही हैं; अत: इनमें श्रेष्ठता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है।
मध्यकालीन युग में निरंकुश शासनवादी व्यवस्था में राज्य को सर्वोपरि माना गया था तथा विधि को प्रभुताधारी का समादेश मात्र कहा गया था। ऑस्टिन इस विचार के प्रमुख समर्थक थे। लेकिन इहरिंग, जेलिनिक, ड्यूग्विट तथा जेनिंग्स आदि विधिशास्त्रियों ने राज्य की तुलना में विधि को अधिक महत्वपूर्ण माना क्योंकि राज्य विधि द्वारा आबद्ध है। डायसी ने ‘विधि के शासन’ (Rule of Law) का सिद्धान्त इसी मूलभूत मान्यता पर आधारित किया, परन्तु केल्सन ने ‘विधि’ और ‘राज्य’ को एक ही निरूपित किया है। तथापि वर्तमान में अनेक विधिवेत्ता ‘विधि’ और ‘राज्य’ में समन्वय स्थापित करने की दृष्टि से विश्व संघ’ की स्थापना का जोरदार समर्थन कर रहे हैं जिसमें राज्य एक स्वशासी इकाई मात्र होगा।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राज्य एवं विधि में घनिष्ठ संबंध है। इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है इसका उत्तर संदर्भित राज्य के राजनीतिक दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अतः स्पष्ट है कि ब्रिटेन में राज्य को विधि से श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि विधि को प्रभुताधारी का आदेश माना गया है और संप्रभु विधि के परे होने के कारण वहाँ राज्य ही सर्वोपरि है। परन्तु निवेदित है कि इस संबंध में भारतीय दृष्टिकोण प्राचीन समय से ही भिन्न रहा है। यह बात अलग है कि ब्रिटिश शासन-काल में भारत में इंग्लिश विधि को ही प्रधानता प्राप्त होने के कारण भारत में ब्रिटिश काल खंड में राज्य की सत्ता को ही विधि से श्रेष्ठ माना जाता रहा प्राचीन भारत की विधि-व्यवस्था में उपनिषदों का अत्यधिक महत्व रहा है जिनमें यह उल्लेख मिलता। है कि विधि राजाओं का राजा है। (Law is king of kings) तथा विधि से कोई भी, यहाँ तक कि राजा भी ऊपर नहीं है। मनु संहिता में भी विधि की अधिमान्यता को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि विधि शासक से गुरुतर है अतः शासक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह धर्म (अर्थात् विधि) के सिद्धान्तों का अनुपालन करते हुए प्रजाजनों पर शासन करे।
राज्य और विधि के परस्पर सम्बन्धों के विषय में अमरीकी विधिज्ञ जॉन राल्स (John Rawls) ने अभिकथन किया है कि राजनीतिक सत्ता सदैव ही उत्पीड़क (coercive) रही है जिसे राज्य का समर्थन प्राप्त होता रहा है। तथापि, सामाजिक शांति एवं सुव्यवस्था के लिये विधि में स्थिरता होना आवश्यक है और साथ ही वह उचित तथा न्यायपूर्ण भी होनी चाहिये। चूंकि राज्य सत्ता कभी समाप्त नहीं होती है, इसलिये नागरिकों को उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का स्वैच्छिक अधिकार प्राप्त नहीं है, और हर हालत में उसे राज्य की श्रेष्ठता को स्वीकार करना अनिवार्य होता है। तथापि राज्य के सुचारु रूप से संचालन के लिये विधि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। राज्य की विधियाँ ऐसी होनी चाहिये जो समाज में व्याप्त विषमताओं तथा असमानताओं को यथासंभव समाप्त कर सकें ताकि संपन्न और धनहीन लागों के अन्तर की खाई को पाटा जा सके। अतः स्पष्टतः राज्य और विधि, दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं और उनमें श्रेष्ठता का प्रश्न ही नहीं उठता। वर्तमान परिवेश में जॉन राल्स के राज्य और विधि के सम्बन्ध में ये विचार अधिक सुसंगत एवं व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। विशेषतः भारतीय परिप्रेक्ष्य में ये अधिक व्यावहारिक हैं।
भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात् भारत का संविधान लागू हो जाने के परिणामस्वरूप वर्तमान भारत में भी राज्य की तुलना में विधि की श्रेष्ठता को स्वीकार किया गया है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने अनेक निर्णयों में यह बार-बार कहा है कि विधि सम्मत शासन (Rule of Law) सुस्थापित करने के लिए सांविधानिक विधि की श्रेष्ठता को स्वीकार किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में आई० एम० सिंह बनाम बोरो बाबु सिंह31 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भारत में कोई भी विधि के ऊपर नहीं, और शासन भी व्यक्तियों का न होकर विधि-सम्मत होना अनिवार्य है और विधि-सम्मत शासन किसी को भी विधि से गुरुतर होने की अनुज्ञा नहीं देता है।
भारत में राज्य की तुलना में विधि की श्रेष्ठता इस बात से भी सिद्ध होती है कि संविधान के अनुच्छेद 12 में वर्णित राज्य की व्यापक परिभाषा में विधि को प्रधानता दी गई है। जिसमें संसद, भारत सरकार, राज्य की सरकारें, राज्य विधान मण्डल, स्थानीय निकाय, और यहां तक कि न्यायपालिका32 का भी समावेश है। परन्तु इन सबसे भारत का संविधान (जो कि एक विधि है) को श्रेष्ठतम माना गया है।
31. ए० आई० आर० 1994 सु० को 505 (512).
32. ए० आर० अन्तुले बनाम आर० एस० नाक, ए० आई० आर० 1988“सु० को 153.,
|
|||
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |