LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 11 Notes
LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 11 Notes:- LLB 1st Semester or Law 1st Year Jurisprudence & Legal Theory Online Free Books Chapter No 11 Continental, Anglo American and Ancient Indian Legal Philosophy Most Important Notes Study Material in Hindi PDF File Format Download.
अध्याय 11 (Chapter 11)
महाद्वीपीय, ऐंग्लो-अमेरिकन तथा प्राचीन भारतीय विधि-दर्शन (Continental, Anglo-American & Ancient Indian Legal Philosophy)
पाश्चात्य देशों की विधि-प्रणालियों के अध्ययन से पता चलता है कि उनका उद्गम स्रोत या तो ऐंग्लोअमेरिकन विधि रही है या महाद्वीपीय विधि। एंग्लो-अमेरिकन विधि से आशय उस विधि से है, जो इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रचलित है जबकि अन्य यूरोपीय देशों में प्रचलित विधि ‘महाद्वीपीय विधि’ कहलाती है।
वैसे तो इंग्लैण्ड और अमेरिका की विधियों में अनेक विषमताएँ हैं। इसी तरह यूरोपियन महाद्वीप के प्रमुख देशों की विधियों में अनेक भिन्नताएँ हैं परन्तु फिर भी एक ओर इंग्लैण्ड और अमेरिका की विधि को संयुक्त रूप से ‘ऐंग्लो-अमेरिकन विधि’ के नाम से तथा दूसरी ओर यूरोपियन महाद्वीपों के विभिन्न देशों की विधियों को ‘‘महाद्वीपीय विधि” के नाम से सम्बोधित करते हुए इन दोनों विधि-प्रणालियों की तुलना की जा सकती है। ऐतिहासिक दृष्टि से इंग्लैण्ड की विधि भौगोलिक परिस्थितियों तथा सामाजिक परिवर्तनों के कारण। एक स्वतन्त्र विधि-पद्धति के रूप में विकसित हुई है। अमेरिका पर अनेक वर्षों तक ब्रिटेन का प्रभुत्व बना। रहने के कारण वहाँ की विधि-पद्धति भी इंग्लिश कॉमन लॉ पर आधारित है। अमेरिका की स्वतंत्रता के पश्चात् अमेरिकन विधि धीरे-धीरे स्वतन्त्र रूप ग्रहण करने लगी। परन्तु फिर भी दोनों पद्धतियाँ इंग्लिश कॉमन लॉ तथा पूर्व निर्णयों (Precedents) पर आधारित होने के कारण इनमें सारभूत एकता आज भी बनी हुई है। इस तर्क की पुष्टि इस बात से हो जाती है कि ये दोनों ही देश एक दूसरे के निर्णीत वादों को अनुनयी निर्णयों के रूप में स्वीकार करते हैं। दूसरी ओर यूरोपियन महाद्वीप के प्रायः सभी देशों की विधियों का संहिताकरण फ्रान्स के नेपोलियन-कोड पर आधारित है। इन देशों की विधियों पर रोमन विधि का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। अतः इनकी विधि-सम्बन्धी धारणाओं तथा व्याख्याओं का मूल स्रोत एक ही होने के कारण इन सभी का अध्ययन महाद्वीपीय विधि के अन्तर्गत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न महाद्वीपीय देशों ने एक दूसरे की विधि से प्रेरणा लेते हुए अपनी विधि को यथासम्भव प्रगतिशील बनाने का प्रयास किया; अत: इन देशों की विधि में समानता और एकरूपता होना स्वाभाविक है।
ऐंग्लो अमेरिकी विधि पद्धति तथा महाद्वीपीय विधि-प्रणाली के तुलनात्मक अध्ययन के पूर्व इंग्लैण्ड और अमेरिका की विधि-प्रणालियों की विषमताओं का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। इन दोनों में निम्नलिखित सैद्धान्तिक भिन्नताएँ हैं –
(1) अमेरिका के संविधान को उस देश की सर्वोच्च विधि के रूप में मान्यता प्राप्त होने के कारण यह अन्य सभी सामान्य संविधियों से श्रेष्ठतम है। यह एक लिखित विधि है। इसके विपरीत इंगलैंड में सर्वोच्च नधि जैसी कोई विधि अस्तित्व में नहीं है क्योंकि ब्रिटेन का संविधान अलिखित है तथापि ब्रिटिश-संसद् को विधि-निर्माण सम्बन्धी असीमित अधिकार-शक्ति प्राप्त है।
(2) अनेक मामलों को निपटाने के लिए अमेरिका के न्यायाधीशों को अमेरिकन-संविधान की व्याख्या करना आवश्यक हो जाता है। अतः उनके समक्ष यह समस्या प्रायः बनी रहती है कि महत्वपूर्ण मानवअधिकारों और राज्य की नीतियों में किस प्रकार समन्वय स्थापित किया जाए। इंग्लिश-न्यायाधीशों के समक्ष यह प्रश्न यदाकदा ही उपस्थित होता है। गुडहार्ट ने इन दोनों भिन्नताओं का विश्लेषण अधिक स्पष्ट रूप से
1. Precedents having persuasive authority.
किया है।2 परन्तु यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि इंग्लिश विधि-सम्बन्धी उनकी धारणाओं को वहाँ की तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में ही समझना होगा। 1 । हो हि ।
(3) अमेरिकन विधि-साहित्य की प्रगति इतनी द्रुतगति से हुई है कि वहाँ की विधि को क्रमबद्ध पद्धति के रूप में बदलना नितांत आवश्यक हो गया। विभिन्न अमेरिकन राज्यों ने कुछ संविधियों को संहिताबद्ध किया जबकि अनेक विधियों का पुनर्कथन’3 (Restatements) द्वारा अनौपचारिक संहिताकरण। कर दिया गया।
इंग्लैण्ड और अमेरिका की विधि-पद्धतियों में उपर्युक्त सारभूत अन्तर होते हुए भी इनमें इतना अधिक साम्य है कि उन्हें संयुक्त रूप से ‘एंग्लो अमेरिकन विधिशास्त्र’ के नाम से सम्बोधित करना ही उचित होगा।
ऐंग्लो-अमेरिकन विधि तथा महाद्वीपीय विधि में प्रमुख अन्तर
एंग्लो-अमेरिकन विधि तथा महाद्वीपीय विधि का विकास अलग-अलग पद्धति से हुआ है। इसके अनेक कारण हैं जिनमें तकनीकी और सामाजिक कारण प्रमुख हैं। तकनीकी कारण विधि के स्वरूप (ढाँचे) से सम्बन्ध रखते हैं जबकि सामाजिक कारण समाज में विधि के प्रवर्तन और क्रियान्वयन से सम्बद्ध हैं। . विधिवेत्ताओं ने एंग्लो-अमेरिकन तथा महाद्वीपीय पद्धति की भिन्नता को स्पष्ट करने के लिये तकनीकी कारणों : पर ही विशेष जोर दिया है। इन दोनों पद्धतियों की विधि सम्बन्धी भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं
(1) महाद्वीपीय विधि पर रोमन विधि का गहरा प्रभाव रहा है जबकि ऐंग्लो-अमेरिकन विधि इस प्रभाव से मुक्त रही है। ऐंग्लो-अमेरिकन विधि क्रमिक ऐतिहासिक विकास का परिणाम है: अत: इसमें सामन्तवादी तत्व (feudalistic elements) प्रचुरता से विद्यमान हैं। उल्लेखनीय है कि इस दृष्टि से स्कॉटलैण्ड की विधि को इंग्लिश विधि की बजाय महाद्वीपीय विधि के साथ सम्बद्ध किया जाना उचित होगा क्योंकि अनेक बातों में इसमें तथा महाद्वीपीय विधि-पद्धति में निकटतम साम्य है।
(2) अब तक प्राय: सभी महाद्वीपीय देशों की विधियों का संहिताकरण हो चुका है परन्तु इंग्लिश विधि अभी भी कॉमन लॉ पर आधारित है जो पूर्णत: संहिताबद्ध नहीं है।
-(3) एंग्लो-अमेरिकन विधि-प्रणाली और महाद्वीपीय विधि-प्रणालियों में विधियों के निर्वाचन (interpretation of laws) के विषय में भी भिन्नता है। महाद्वीपीय विधि-पद्धति में न्यायिक पूर्व-निर्णय को विधिक स्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है जब कि एंग्लो-अमेरिकन विधि में पूर्व-निर्णय को विधि का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है।
(4) महाद्वीपीय विधि प्रणाली में विधि के प्रति निगमनात्मक पद्धति (deductive method) अपनायी गई है जबकि एंग्लो-अमेरिकन विधि आगमनात्मक पद्धति (inductive method) पर आधारित है। निगमनात्मक पद्धति में सामान्य से विशिष्ट की ओर अनुगमन किया जाता है जबकि आगमनात्मक पद्धति विशिष्ट से सामान्य की ओर अनुगमन करती है। दूसरे शब्दों में, महाद्वीपीय पद्धति में विधि के सामान्य नियमों को विशिष्ट मामलों में लागू किया जाता है जबकि एंग्लो-अमेरिकन पद्धति में वैयक्तिक मामलों पर विचार करके उनके आधार पर सामान्य विधि सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं।
(5) महाद्वीपीय पद्धति में विधि को केवल निर्णीत करने तक ही सीमित नहीं रखा गया है, बल्कि इसके अन्य प्रयोजन भी हैं; जैसे-न्यायालय स्थापित करना या कार्यों का औचित्य निर्धारित करना आदि। अतः यह पद्धति अपना ध्यान केवल ‘‘न्यायालयों” पर ही केन्द्रित नहीं करती। इसके विपरीत एंग्लो-अमेरिकन विधि-प्रणाली में न्यायालयों को सर्वाधिक महत्व दिया गया है।
2. गुडहार्ट: एसेज इन ज्यूरिस्पूडेंस एण्ड कॉमन लॉ (1931) पृ० 50.
3. इस दिशा में अमेरिकन लॉ इन्स्टीट्यूट का योगदान सराहनीय है जिसने वाणिज्यिक विधि, आपराधिक विधि तथा अपकृत्य विधि आदि के पुनर्कथन (Restatements) प्रकाशित किये हैं.
(6) एंग्लो-अमेरिकन पद्धति में एक साथ दो प्रकार की विधियाँ कॉमन लॉ और साम्या विधि प्रचलित हैं। परन्तु महाद्वीपीय पद्धति में विधि की इस वैधता (dualism) को स्वीकार नहीं किया गया है। इस प्रणाली में साम्या (equity) को निर्वचन का एक सिद्धान्त मात्र माना गया है जिसके आधार पर विधि सम्बन्धी समस्याओं का निर्धारण किया जाता है।
(7) महाद्वीपीय पद्धति में प्राइवेट लॉ और प्रशासी विधि की सारभूत और प्रक्रियात्मक भिन्नता को पहले से ही स्वीकार कर लिया गया है जबकि ऐंग्लो-अमेरिकन विधि में अब तक इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। गया और यह पद्धति विधि के समक्ष सभी की समानता” (equality of all before the law) के सिद्धान्त को महत्व देती रही है। परन्तु वर्तमान में नागरिकों के प्रति राज्य के बढ़ते हुए दायित्व के साथ अब प्रशासी विधि को भी महत्व दिया जाने लगा है।
(8) इन दोनों पद्धतियों में विधि के अर्थ तथा विधिशास्त्र की विषय-वस्तु के बारे में भी भिन्नता है। महाद्वीपीय देशों में विधि” (Law) शब्द का प्रयोग भिन्न अर्थों में किया जाता है। अतः यह पद्धति ‘‘विधि”, ‘न्याय”, ‘औचित्य” आदि में कोई अन्तर नहीं मानती तथा इन सभी के लिये ”लॉ” (Law) शब्द का प्रयोग करने में नहीं हिचकिचाती है। परन्तु अंग्रेजी विधि-दर्शन में लॉ’ शब्द का अर्थ ‘विधि’ के अलावा अन्य कुछ नहीं है-अर्थात् इंग्लिश पद्धति में विधि’, ‘न्याय’ तथा ‘औचित्य’ में स्पष्ट भेद माना गया है। अत: महाद्वीपीय पद्धति में विधि और अधिकार में अन्तर स्पष्ट नहीं हो पाता है जो आंग्लविधि-पद्धति में स्पष्टत: दिखलाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त, महाद्वीपीय विधिशास्त्र का झुकाव नीतिशास्त्र की ओर अधिक होने के कारण इनमें अध्यात्मवादी विचारों का समावेश है जबकि एंग्लो-अमेरिकन पद्धति की प्रवृत्ति विधि के ऐतिहासिक तथा विश्लेषणात्मक रूप को ग्रहण करने की ओर अधिक है।
(9) ऐंग्लो-अमेरिकन विधि-प्रणाली तथा महाद्वीपीय पद्धति की उपर्युक्त भिन्नताओं पर विचार करने से यह पता चलता है कि या तो इन्हें अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा कर व्यक्त किया गया है या फिर वर्तमान में इनका उतना महत्व नहीं रहा है, जो पहले था। इसके अतिरिक्त स्कॉटिश विधि (Scottish law) का संतुलित अध्ययन इन दोनों विधि सिद्धान्तों के अन्तर को कम करने में पर्याप्त रूप से सहायक सिद्ध हुआ है। इसका कारण यह है कि स्कॉटलैण्ड का इंग्लैण्ड की राजनीति से सदियों पुराना सम्बन्ध होने के कारण तथा दोनों देशों का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय एक ही होने के कारण स्कॉटिश-विधि पर आंग्ल-विधि का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। परन्तु साथ ही इस विधि में अनेक तत्व ऐसे हैं जो महाद्वीपीय पद्धति से इसकी निकटता प्रकट करते हैं। उदाहरण के लिए, स्कॉटिश विधि पर रोमन विधि का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार स्कॉटिश विधिवेत्ताओं का झुकाव इंग्लिश विधि की बजाय महाद्वीपीय पद्धति की ओर अधिक रहा है। महाद्वीपीय पद्धति की भांति स्कॉटलैण्ड की विधि भी साम्या को स्वतंत्र विधि के रूप में स्वीकार नहीं करती है। इसके अतिरिक्त स्कॉटिश विधि का शिक्षण अधिकांशतः महाद्वीपीय विधियों पर आधारित होने के कारण वहाँ की। विधि इस पद्धति से प्रभावित हुए बिना न रह सकी।
महाद्वीपीय विधि और ऐंग्लो-अमेरिकन विधि की प्रमुख विषमताओं की विवेचना करने के पश्चात् इन पद्धतियों की विभिन्न धारणाओं तथा मान्यताओं का उल्लेख करना उचित होगा। सुविधा की दृष्टि से इसका विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है-
- निगमित व्यक्तित्व (Corporate Personality)
महाद्वीपीय देशों की विधि के अन्तर्गत तार्किक परिकल्पनाओं को विशेष महत्व दिये जाने के कारण फ्रांस तथा जर्मनी आदि देशों ने निगमित व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेक सिद्धान्त (different theories of juristic nersonalitv) प्रतिपादित किये हैं। इन सिद्धान्तों में निकायों को कृत्रिम अस्तित्व प्रदान करके विधिक
4. The terms “rechts” “droit” and “divitto” “Jus” also connote “Law” in a general sense.
5. इंग्लैण्ड का हॉउस ऑफ लास (House of Lords) दोनों ही देशों का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है जिसमें
स्कॉटलैण्ड के न्यायाधीशों को निश्चित प्रतिनिधित्व दिया जाता है.
प्रयोजनों के लिये वास्तविक व्यक्ति के समान माना गया है। परन्तु ऐंग्लो-अमेरिकन विधिशास्त्री विधिक व्यक्तित्व को अधिक महत्व नहीं देते हैं। वे विधिक व्यक्तित्व को काल्पनिक सिद्धान्त (Fiction Theory) तक ही सीमित रखते हैं। तथापि सामाजिक और आर्थिक प्रगति के कारण दोनों पद्धतियों के बीच का यह विभेद दिनों दिन कम होता जा रहा है। इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में कम्पनी विधि की प्रगति के कारण निगमित व्यक्तित्व का महत्व बढ़ रहा है। अत: वर्तमान युग की नई सामाजिक समस्याएँ इन दोनों पद्धतियों की पुरानी तकनीकी भिन्नताओं को शीघ्रता से समाप्त करती जा रही हैं।
प्रशासी विधि (Administrative Law)
इंग्लैण्ड के विख्यात विधिवेत्ता डायसी (Dicey) ने इंग्लिश विधि की तुलना महाद्वीपीय विधि से करते हुए कहा है कि महाद्वीपीय विधि-पद्धति के अन्तर्गत प्रशासी विधि तथा प्राइवेट विधि में भेद माना है तथा प्रत्येक के लिये पृथक् न्यायालयों की स्थापना की गयी है। परन्तु इंग्लैण्ड और अमेरिका की विधि-प्रणाली में प्राइवेट तथा प्रशासी विधि के अन्तर को अधिक महत्व नहीं दिया गया है तथा प्रशासी विधि सम्बन्धी मामले भी सामान्य न्यायालयों द्वारा ही निपटाये जाते हैं। दोनों पद्धतियों में प्रशासी-विधि सम्बन्धी यह भेद इसलिये है क्योंकि इंग्लिश विधि-व्यवस्था में विधि” के समक्ष सभी की ‘‘समानता” (equality of all before the law) के सिद्धान्त को मान्यता दी गई है। अतः प्रशासी प्राधिकारियों के विरुद्ध संरक्षण देने के लिये प्रशासी विधि जैसे किसी विशिष्ट कानून की आवश्यकता अनुभव नहीं की गई। परन्तु निवेदित है कि डायसी का यह कथन तत्कालीन इंग्लिश और अमेरिकन विधि के संदर्भ में ही उचित माना जा सकता है। वर्तमान में ब्रिटेन और अमेरिका में प्रशासी विधि स्वतन्त्र रूप से पूर्णतः प्रतिस्थापित हो चुकी है। महाद्वीपीय देशों में प्रशासी विधि को पहले से ही महत्व प्राप्त है। तथा स्वतन्त्र प्रशासन एवं प्रशासी विधि सम्बन्धी कार्यों को नियंत्रित रखने के लिये अनेक संविधियाँ, विनियम, आदेश आदि लागू किये गये हैं और समय-समय पर समितियों, बोर्ड, आयोग या न्यायाधिकरणों आदि का गठन किया जाता रहा है।
वर्तमान में अमेरिका और इंग्लैण्ड8 में भी प्रशासी विधि से सम्बन्धित मामलों को निपटाने के लिये विभिन्न प्रकार के प्रशासी-न्यायाधिकरणों की स्थापना की गयी है, यद्यपि इनमें से अधिकांश में कार्यकारी प्राधिकारी (Executive Authorities) ही न्यायाधीश का कार्य करते हैं। संविधान के संरक्षक के नाते अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट की नियंत्रण-शक्ति तथा नागरिकों के मूल अधिकारों के कारण प्रशासकीय कार्यों द्वारा मानव की वैयक्तिक स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं लगाये जा सकते हैं। परन्तु इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा अन्य उपनिवेशीय देशों में प्रशासकीय कार्यों को न्यायालय की बजाय संसद (Parliament) की विशिष्ट समितियों द्वारा नियंत्रित रखा जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि एक ओर नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को अनुचित प्रशासकीय हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए तथा दूसरी ओर वर्तमान सामाजिक विकास को ध्यान में रखते हुए प्रशासन को अपने कार्य सुचारु रूप से सम्पादित करने के लिए आवश्यक अधिकार-शक्ति प्रदान की जाए। ऐंग्लो-अमेरिकन देशों में राज्य के अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण कॉमन लॉ तथा लोक विधि (Public Law) के मिश्रित प्रयोग द्वारा किया जाता है जबकि महाद्वीपीय देशों में इसके लिए स्वतन्त्र कानून तथा श्रृंखलाबद्ध प्रशासी न्यायालय कार्यरत हैं। प्रशासी न्यायालयों के निर्णयों का प्रकाशन अलग से किया जाता है। परन्तु इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रशासी मामलों से सम्बन्धित निर्णयों को अन्य सामान्य निर्णयों के साथ ही प्रकाशित किया जाता है।
उपर्युक्त दोनों विधि व्यवस्थाओं में प्रशासी विधि सम्बन्धी यह भिन्नता राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विषमताओं के कारण है। उल्लेखनीय है कि एकतन्त्रात्मक व्यवस्था (totalitarian) में जन-जीवन पर राज्य 6. फ्रीडमैन एल० एम० : लीगल थ्योरी (पाँचवाँ संस्करण), पृ० 523.
7. फ्रांस में प्रशासी विधि “Droit Administratif” के नाम से प्रचलित है.
8. इंग्लैण्ड में प्रशासी विधि को आगे विकसित करने में फ्रैंक समिति (1957) की सिफारिशों का महत्वपूर्ण योगदान रहा
9. ओम्बुड्समैन (Ombudsman) इसका सर्वोत्तम उदाहरण है.
का कडा नियंत्रण रहता है। अतः ऐसी व्यवस्था में प्रशासी विधि को विशेष महत्व दिया जाता है क्योंकि इसके माध्यम से प्रशासनिक अधिकारियों को उनके प्रशासकीय कार्यों के सम्बन्ध में उचित संरक्षण मिलता है। परन्त समाजवादी व्यवस्था में प्रशासन की अधिकार-शक्ति तथा नागरिकों की व्यक्ति स्वतन्त्रता में उचित संतुलन बनाये रखने के लिए प्रशासी विधि और प्राइवेट विधि के कार्यों एवं क्षेत्राधिकार को एक दूसरे से पृथक रखना आवश्यक होता है । तथापि वर्तमान में इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रशासी विधि का पर्याप्त विकास हुआ है। तथा इन देशों की विधि-व्यवस्था में इस विधि को वही स्थान प्राप्त है जो यूरोपीय देशों में इसे दिया गया है।
3. सम्पत्ति विधि (Property Law)
महाद्वीपीय देशों की विधियाँ रोमन विधि से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण चल और अचल सम्पत्ति के भेद को स्वीकार करती हैं जबकि ऐंग्लो-अमेरिकन विधि स्थावर सम्पत्ति (Real Property) और निजी सम्पत्ति के अन्तर को मान्य करती हैं। तथापि स्थावर सम्पत्ति अधिनियम, 1925 पारित होने के परिणामस्वरूप इंग्लिश विधि में सम्पत्ति सम्बन्धी यह भेद समाप्त हो चुका है। इसके अतिरिक्त, इंग्लैण्ड में साम्या विधि के प्रभाव के कारण न्यास-सम्पत्ति का स्वामित्व न्यासधारी और हितग्राही में विभाजित रहता है, परन्तु महाद्वीपीय पद्धति में स्वामित्व के इस विभाजन को स्वीकार नहीं किया गया है। तथापि कॉमन विधि से प्रभावित होकर कुछ महाद्वीपीय देशों ने न्यास की संकल्पना को मान्य किया है, परन्तु इसे वसीयत और दोन के मामलों तक ही सीमित रखा है।
इंग्लैण्ड और अमेरिका की हस्तान्तरण लेखन विधि (Law of Conveyancing) और महाद्वीपीय देशों की हस्तान्तरण लेखन-विधि में भी अनेक तकनीकी विषमताएँ हैं। इन भिन्नताओं में कुछ व्यावसायिक परम्पराओं पर आधारित हैं तथा अन्य सामन्तवादी व्यवस्था के अवशेषों के रूप में विद्यमान हैं। यदि महाद्वीपीय पद्धति की भाँति भूमि, स्वत्वों तथा अन्तरणों के रजिस्ट्रीकरण की पद्धति दोनों ही देशों की व्यवस्थाओं में सामान्य रूप से अपनायी जाए, तो हस्तान्तरण लेखन सम्बन्धी यह तकनीकी भिन्नता समाप्त हो सकती है। निवेदित है कि स्कॉटलैण्ड की संसद् ने पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी से ही अधिकारों, स्वत्वों तथा विलेखों के रजिस्ट्रीकरण की पद्धति अपना रखी है।
ऐंग्लो-अमेरिकन विधि तथा महाद्वीपीय प्रणाली के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियम भी एक दूसरे से भिन्न हैं। इस भिन्नता का कारण यह है कि महाद्वीपीय विधि में न्यास को अधिमान्यता नहीं दी गई है। महाद्वीपीय देशों में उत्तराधिकार-विधि के अन्तर्गत सम्पदा के प्रशासक को सम्पत्ति का न्यागमन (Devolution of | Property to an Administrator of Estate) पूर्णतः वर्जित है क्योंकि यह पद्धति न्यास की संकल्पना को स्वीकार नहीं करती है।10.
4. वैयत्तिक विधि (Personal Law).
प्रत्येक देश की वैयक्तिक विधि वहाँ की ऐतिहासिक परम्पराओं तथा सामाजिक संस्थाओं पर निर्भर रहती है। वर्तमान पाश्चात्य समाज में पारिवारिक जीवन सम्बन्धी अनेक धारणाएँ ऐसी हैं जिन्हें प्राय: सभी यूरोपीय देशों ने समान रूप से अपनाया है। उदाहरण के लिए, एक पत्नीत्व, संरक्षकता (guardianship), तथा भरणपोषण (maintenance) के अधिकार को प्राय: सभी देशों ने अपनी वैयक्तिक विधि में स्थान दिया है।
ऐंग्लो-अमेरिकन विधि तथा महाद्वीपीय पद्धति में वैयक्तिक विधि सम्बन्धी जो भिन्नताएँ हैं वे मुख्यत: धार्मिक विषमताओं तथा अधिवास (domicile) और राष्ट्रीयता के विवाद के कारण हैं। रोमन कैथोलिक देशों ने तलाक (divorce) के प्रति जो रुख अपनाया है वह ऐंग्लो-अमेरिकन देशों से पूर्णतः भिन्न है। इसी प्रकार । दोनों पद्धतियों में पारिवारिक सम्बन्धों का निराकरण भिन्न-भिन्न आधार पर होता है। महाद्वीपीय देशों के एकात्मक स्वरूप (unitary character) के कारण वहाँ पारिवारिक सम्बन्धों का निर्धारण राष्ट्रीयता के आधार पर होता है। परन्तु ब्रिटेन तथा अमेरिका में जहाँ विभिन्न राज्य भिन्न-भिन्न विधि व्यवस्थाओं को अपनाते हुए
10. क्यूबेक के सन् 1888 के सिविल कोड तथा पनामा की विधि में न्यास को मान्यता दी गयी है.
एक ही राजनीतिक शक्ति के अधीन रहते हैं, अधिवास (domicile) को ही पारिवारिक सम्बन्धों के निर्धारण का आधार माना गया है।
5. अपकृत्य विधि (Law of Torts)
अपकृत्य विधि के सम्बन्ध में महाद्वीपीय और एंग्लो-अमेरिकन प्रणाली की मान्यताओं में बहुत अन्तर है। महाद्वीपीय देशों की लगभग सभी आधुनिक संहिताओं में अपकृत्य विधि सम्बन्धी दायित्व के सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है जिन्हें न्यायिक निर्वचन द्वारा विकसित किया गया है। परन्तु इंग्लिश अपकृत्य विधि का विकास प्राचीन रिट-पद्धति (writ system) से प्रारम्भ हुआ जबकि सामान्य सिद्धान्तों के अभाव में केवल कुछ विशिष्ट प्रत्यक्ष कृत्यों (direct actions) के लिए ही दायित्व उत्पन्न हो सकता है।11 कालांतर में न्यायिक परिकल्पना (judicial fictions) के माध्यम से अपकृत्य विधि के क्षेत्र को विकसित करते हुए इसे । अन्य समान प्रकरणों में भी लागू किया जाने लगा। यहाँ तक कि अनेक नये कृत्यों (new actions) को अपकृत्य विधि में समाविष्ट करते हुए उनमें दायित्व का निर्माण इस विधि के आधार पर किया जाने लगा।12
आधुनिक युग की औद्योगिक तथा तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप अपकृत्य विधि में ‘‘उपेक्षा (Negligence) को अपकृत्य को एक कारण मात्र न मानकर एक स्वतंत्र अपकृत्य (tort) के रूप में मान्य किया गया है। पोलक, विनफील्ड तथा स्टाइली ब्रास आदि विधिवेत्ताओं ने अपकृत्य विधि से उत्पन्न होने वाले दायित्व के विषय में सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करने का प्रयास किया ताकि इस विधि को समयानुकूल बनाया जा सके। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में इंग्लैण्ड के बजाय अमेरिका में अधिक प्रगति हुई है। अपकृत्य विधि के अन्तर्गत निर्माताओं का उपभोक्ताओं के प्रति दायित्व13, कठोर दायित्व14 अधिभोगी के दायित्व (occupier’s liability) आदि के विषय में अमेरिकन रिस्टेटमेंट ऑफ टार्ट’ ने अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है।
वर्तमान में महाद्वीपीय तथा ऐंग्लो-अमेरिकन, दोनों ही पद्धतियों के अन्तर्गत विधि सम्बन्धी दायित्व में सामाजिक सुरक्षितता (Social Security) को विशेष महत्व दिया गया है ताकि इन विधियों से उत्पन्न होने वाले दायित्व का भार व्यक्ति-विशेष पर न पड़कर समाज के अधिकाधिक व्यक्तियों पर पड़े। अतः वर्तमान में व्यक्तिगत दोष की बजाय ‘सामाजिक दायित्व’ (social liability) को अधिक महत्व दिया जा रहा है।15
6. न्यायाधीश की भूमिका (The Role of the Judge)
महाद्वीपीय और एंग्लो-अमेरिकन विधि पद्धतियों में विधि सम्बन्धी भिन्नता के अतिरिक्त न्यायाधीशों के कार्यों तथा न्याय-निर्णय में उनकी भूमिका के विषय में बहुत भिन्नता है। महाद्वीपीय न्याय-व्यवस्था में न्यायाधीश नौकरशाही (Bureaucracy) के प्रभाव से मुक्त नहीं रह पाते। उनका स्थान सिविल सर्विस श्रेणी के पदाधिकारियों के समान होता है। इस न्याय-व्यवस्था में अधिकांश न्यायाधिकारी अपनी सेवाएँ निचले न्यायालय के न्यायाधीश की हैसियत से प्रारम्भ करते हुए अनुभव तथा वरीयता के आधार पर उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश पद पर पदोन्नत होते हैं। तात्पर्य यह है कि महाद्वीपीय न्याय-प्रणाली में विशिष्ट योग्यता रखने वाले वकीलों, अधिवक्ताओं या अन्य विधि व्यवसायियों को सीधे न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करने की परिपाटी प्रचलित नहीं है जैसा कि ऐंग्लो-अमेरिकन देशों की न्याय-व्यवस्था में प्रायः होता है। न्यायाधीशों पर नौकरशाही के प्रभाव का प्रत्यक्ष परिणाम यह होता है कि किसी मामले के सम्बन्ध में उनके विचारों की भिन्नता न्याय-कक्ष तक ही सीमित है तथा बहुमत का जो निर्णय होता है वह ‘न्यायालय के
11. उदाहरण के लिए, पास्ले बनाम फ्रीमैन, (1789) STR 15.
12. उदाहरणार्थ, मानसिक आघात का अपकृत्य, घेराव का अपकृत्य आदि अपेक्षाकृत नये हैं,
13. डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन, (1932) AC 562.
14. राइलैंड्स बनाम फ्लेचर, (1868) 3 HL 330.
15. विभिन्न श्रमिक विधियाँ तथा बीमा अधिनियम इसके अच्छे उदाहरण हैं.
निर्णय” के रूप में सुना दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, महाद्वीपीय पद्धति विसम्मत निर्णय (dissentina judgment) को कोई महत्व नहीं देती और न इसे प्रकाशित ही किया जाता है। परिणामस्वरूप कभी-कभी तो विसम्मत न्यायाधीश (dissenting judge) को ही न्यायालय का बहुमतीय निर्णय लिखना पड़ता है, चाहे भले ही वह उस निर्णय से स्वयं सहमत न हो। इस पद्धति में निर्णयाधार (ratio decidendi) को भी महत्व नहीं दिया जाता है। परन्तु ऐंग्लो अमेरिकन विधि-व्यवस्था में न्यायाधीशों के विचारों की भिन्नता उनके निर्णयों। में स्पष्टतः प्रतिबिम्बित होती है16 तथा बहुमतीय निर्णय के साथ विसम्मत निर्णय (dissenting judgment) को भी प्रकाशित किया जाता है।17 कभी-कभी तो ये विसम्मत निर्णय इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि विधिक विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान होता है। निवेदित है कि इस सम्बन्ध में वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों ने ऐंग्लो-अमेरिकन पद्धति का अनुसरण करना ही उचित समझा है।18
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महाद्वीपीय विधि तथा एंग्लो-अमेरिकन विधि की विशेषताओं तथा इनकी ऐतिहासिक एवं तकनीकी भिन्नताओं को सामाजिक पृष्ठभूमि में ही समझना उचित होगा। इन पद्धतियों के अनेक भेद परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिये, सामंतवादी व्यवस्था तथा पारिवारिक या धार्मिक प्रभावों के कारण इंग्लैण्ड की भूमि संबंधी-विधि (land laws) यूरोपीय देशों की विधियों से पूर्णतः भिन्न थी। परन्तु वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य तथा सामाजिक प्रगति के परिणामस्वरूप यह भेद समाप्तप्राय हो चुका है। इसी प्रकार दोनों पद्धतियों की आपराधिक विधि, साक्ष्य विधि तथा प्रक्रियात्मक विधि सम्बन्धी विषमताएँ भी धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं।
वर्तमान सदी में सामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक तथा विधिक क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ-साथ विश्व के विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के निकट आते जा रहे हैं तथा उनका परस्पर संपर्क निरंतर बढ़ता जा रहा है। इस दृष्टि से वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय विधि का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। विश्व के राष्ट्रों में परस्पर निर्भरता (interdependency) की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ रही है और उन्हें अपनी आन्तरिक विधि और अन्तर्राष्ट्रीय विधि में समन्वय स्थापित करना आवश्यक होता जा रहा है। इसके अतिरिक्त राज्यों के बढ़ते हुए दायित्व के कारण उनके प्रशासकीय कार्यों का क्षेत्र विस्तृत हो गया है। अतः प्राइवेट विधि की तुलना में पब्लिक विधि को अधिक महत्व प्राप्त हो गया है। यही प्रवृत्ति अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी दिखलाई पड़ती है जहाँ देशों की राष्ट्रीय विधि के बजाय अन्तर्राष्ट्रीय कानून को अधिक महत्व प्राप्त हुआ है।
फ्रीडमैन के अनुसार वर्तमान में कुछ विधिक सिद्धान्तों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूप में लगभग विश्व के सभी देशों के प्रति लागू किया जा सकता है चाहे वे देश महाद्वीपीय-पद्धति अपना रहे हों या ऐंग्लो-अमेरिकन पद्धति । फ्रीडमैन ने निम्नलिखित सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्राय: सभी देशों की विधियों में किसी न किसी रूप में इन्हें अपना लिया गया है –
- संविदा सम्बन्धी निष्फलता का सिद्धान्त19 (Doctrine of frustration relating to | contracts);
- इंग्लिश विधि का विबन्धन का सिद्धान्त20 (Doctrine of estoppel);
16. उदाहरण के लिए लिवरसिज बनाम एन्डरसन, (1992) ए०सी० 206 में लार्ड ऑटकिन का विसम्मत निर्णय.
17. | भारतीय विधि प्रणाली में भी विसम्मत निर्णयों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। देखिए कुंजू कुंजू बनाम आंध्र प्रदेश ए० आई० आर०, 1978 सु० को० 916 में न्यायमूर्ति ए० पी० सेन का मृत्युदण्ड के औचित्य संबंधी विसम्मत निर्णय; मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ, (ए० आई० आर० 1980 सु० को० 1789) में न्यायमूर्ति भगवती ने अपने विसम्मत निर्णय संविधान के अनु० 31 (ग) को असंवैधानिक मानने से असहमति व्यक्त की। यह निर्णय 5 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 4 : 1 के बहुमत से दिया गया था.
18. फ्रीडमैन : लीगल थ्योरी (5वाँ संस्करण), पृ० 533.
19. फ्रांस के इस सिद्धान्त को Counseil de Etat कहा गया है। इटली, यूनान और स्विटजरलैण्ड में इसे संविदाओं का पुनरीक्षण (Doctrine of revision of contracts) कहा गया है.
20. विबंधन के सिद्धान्त को फ्रांस की विधि में factum proprium कहते हैं.
(iii) प्राकृतिक नियमों पर आधारित अन्यायपूर्ण धनार्जन का सिद्धान्त-1 (Principle of unjust enrichment);
(iv) अधिकारों के दुरुपयोग का सिद्धान्त22 (Principle of abuse of rights) आदि।
अन्त में यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि वर्तमान समय में महाद्वीपीय तथा ऐंग्लो-अमेरिकन विधि-पद्धतियों की भिन्नता का केवल सैद्धान्तिक महत्व रह गया है। वर्तमान प्रयास यह है कि विभिन्न देशों की विधियों के अध्ययन के लिये सामान्य भूमिका तैयार हो सके ताकि इन सभी विधियों को समझने में सुविधा हो। बीसवीं शती के अंतिम दशकों में मानव-अधिकारों के बढ़ते हुए महत्व तथा इन्हें प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण को प्रायः सभी राष्ट्रों ने मान्यता दी है; अत: सभी देश अपनी न्यायिक व्यवस्था के माध्यम से इन अधिकारों को समुचित संरक्षण दिलाने के लिए प्रयत्नरत हैं। इस दिशा में राष्ट्र संघ की साधारण सभा द्वारा सन् 1948 में स्वीकार की गई मानव अधिकारों सम्बन्धी घोषणा का उल्लेख करना उचित होगा जिसे प्राय: सभी राष्ट्रों ने मानव-अधिकार संहिता के रूप में स्वीकार किया है।23 यूरोपीय देशों ने इस हेतु सन् 1954 में यूरोपीय मानवाधिकार कमीशन (Commission of Human Rights, 1954) का गठन किया जिसका मुख्य उद्देश्य यह था कि न्यायपालिकाएँ मानव-अधिकारों को संरक्षण देने की ओर विशेष ध्यान दें। मानव-अधिकारों के प्रति इस नव-चेतना के कारण अब इन दोनों विधि-प्रणालियों के बीच का अन्तर प्रायः समाप्त होता जा रहा है जो नि:सन्देह ही वर्तमान युग की महान उपलब्धि कही जा सकती है। आशा है कि निकट भविष्य में मानव-आचरणों से सम्बन्धित मूलभूत विधियों पर अन्तर्राष्ट्रीय संहिताओं के निर्माण के साथ यह अन्तर पूर्णत: समाप्त हो जायेगा।
वर्तमान में राष्ट्र संघ (United Nations) यह प्रयास कर रहा है कि मानव संव्यवहारों से सम्बन्धित मूलभूत विधियों को सभी राष्ट्रों द्वारा समान रूप से लागू किये जाने के प्रयोजन से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाये जायँ। उदाहरण के लिए सभी अपराधियों के लिए एक-समान दण्ड-प्रणाली, श्रमिकों के लिए समान श्रम-विधियाँ आदि तैयार किये जाने का सुझाव राष्ट्रसंघ के विचाराधीन है। निस्संदेह ही यह एक सराहनीय प्रयास है जिसके द्वारा विधियों के एकीकरण को समर्थन मिलेगा और विश्व के सभी देशों में एक-सी विधि प्रणाली लागू करना संभव हो सकेगा। परन्तु इसके लिए सभी देशों का क्रियात्मक सहयोग नितांत आवश्यक है।
21. David & Gutteridge : Unjust Enrichment” 5 Cramb. L.J. 240 (1935).
22. ब्रेडफोर्ड बनाम पिकल्स, (1895) AC 589 तथा मोगल स्टीमशिप कं० बनाम मेकग्रेगर, (1892) AC 25. 23. लॉयड टेनिस : दि आइडिया ऑफ लॉ (1974 संस्क०), पृ० 168.
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