LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 10 Notes
LLB 1st Semester Jurisprudence and Legal Theory Chapter 10 Notes:- LLB (Bachelor of Law) Jurisprudence & Legal Theory Chapter 10 The Realist Theory of Law PDF Notes Study Material in Hindi In this post of English and all the languages, you are going to read The Realist Theory which we have received from Jurisprudence and Legal Theory Online Free Books. Have taken the LLB 1st Year / 1st Semester Notes to read us.
अध्याय 10 (Chapter 10)
विधि का यथार्थवादी सिद्धान्त (The Realist Theory of Law)
LLB Notes Study Material
अमेरिका में समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र की प्रगति के साथ-साथ एक वामपंथी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ जिसे यथार्थवाद (Realism) के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः यथार्थवादी शाखा को एक स्वतन्त्र विचार पद्धति के रूप में स्वीकार करना उचित नहीं है, क्योंकि इसे विधि की समाजशास्त्रीय पद्धति के विरुद्ध एक तार्किक आन्दोलन के रूप में अपनाया गया था। अमेरिका के सुविख्यात न्यायाधीश जेरोम फ्रेंक (Jerome Frank) ने यह स्वीकार किया कि विधि-क्षेत्र में यथार्थवादी शाखा (Realist School) के नाम की कोई स्वतन्त्र विधि-पद्धति अस्तित्व में नहीं है। विधिशास्त्रीय यथार्थवाद वस्तुतः विधि की समाजशास्त्रीय विचारधारा के प्रति एक तार्किक आन्दोलन है जो अमेरिका में शुरू हुआ और बाद में स्केन्डेनेविया के कुछ विधिशास्त्रियों ने इसमें सक्रिय योगदान दिया। फ्रीडमैन के अनुसार अमेरिका में यथार्थवादी विधिक विचारधारा के संस्थापकों में जेरोम फ्रेंक, न्यायमूर्ति होम्स, ग्रे तथा कार्डोझो के नाम प्रमुख हैं जिन्होंने विधि को अधिनियमित विधि के दायरे तक ही सीमित न रखते हुये न्यायाधीशों द्वारा दिये जाने वाले निर्णयों को महत्व दिये जाने पर बल दिया है।
अमेरिका में यथार्थवादी आन्दोलन (Realist Movement in America)
अमेरिका में यथार्थवादी विधिशास्त्रियों ने विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद (Analytical Positivism) और समाजशास्त्रीय (Sociological School) के आधारभूत सिद्धान्तों को मिलाकर विधि के प्रति एक नई विचारधारा अपनाने का प्रयास किया जिसे अमेरिकी यथार्थवाद’ के नाम से विकसित किया गया। इस यथार्थवादी पद्धति में विश्लेषणात्मक प्रमाणवादी पद्धति की इस धारणा को अपनाया गया कि विधि के यथार्थ रूप (law as it is) पर ही विचार किया जाना चाहिये, न कि उसके अपेक्षित स्वरूप (as it ought to be) पर। यथार्थवादियों ने समाजशास्त्रीय विधि-पद्धति की इस मान्यता को अपने विचारों में समाविष्ट किया कि | विधि पर विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव आवश्यक रूप से पड़ता है तथा विधि को समाज से पृथक् नहीं रखा जा सकता है। तथापि यथार्थवादी केवल ‘विधि’ को ही अपने अध्ययन का विषय मानते हैं, ‘समाज’ को नहीं। वे न्यायाधीशों के महत्व पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए उन्हें विधि ढालने वाला स्रोत मानते हैं। विश्लेषणात्मक विधिशास्त्रियों ने न्यायाधीशों की स्वच्छन्दता को कभी स्वीकार नहीं किया। इसीलिये ज्यूलियस स्टोन ने कहा है कि यथार्थवादी आन्दोलन समाजशास्त्रीय पद्धति के प्रति भुलावा मात्र है। इसे समाजशास्त्रीय पद्धति का केवल प्रतिबिम्ब या आमुख (preclude) मानना ही उचित होगा।3
अमेरिकन यथार्थवादियों ने विधि के अध्ययन में अपना ध्यान न्यायाधीशों के महत्व पर केन्द्रित किया।
उनके मतानसार कानुन वह है जो न्यायाधीशों द्वारा अपने निर्णयों में व्यक्त किया जाए न कि वह जो कानुनी Tओं या संहिताओं में अधिनियमित हो। यथार्थवादियों द्वारा अपना ध्यान न्यायाधीशों पर केन्द्रित किये जाने के अनेक कारण हैं। इनमें निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं-
1. जेरोम फ्रेंक : लॉ एण्ड दि मॉडर्न माइन्ड (1949) पृ० 68.
2. डायस एण्ड ह्यज : ज्यूरिसपूडेन्स (1970) 3rd ed. पृ० 467.
3. Realist movement is a gloss on the sociological approach. It is better to treat it as an essential preclude. J. Stone.
4. इन कारणों की व्याख्या प्रो० गुडहार्ट ने “Some American Interpretation of Law” नामक निबन्ध में की है, जो ‘मॉडर्न थ्योरीज ऑफ लॉ’ में प्रकाशित हुई.
(i) अमेरिका के संविधान के अन्तर्गत विधान मण्डल की विधायिनी शक्ति पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। अत: संविधान का निर्वचन (interpretation) न्यायाधीशों द्वारा किया जाता है तथा उन्हें ऐसे विधानों को निरस्त करने की छूट होती है जो संविधान के प्रतिकूल हों।
(ii) अमेरिकन न्यायाधीश जनता का उतना विश्वास अर्जित नहीं कर पाये हैं जितना कि ब्रिटेन के न्यायालयों के न्यायाधीश। संभवतः इसका कारण यह है कि अमेरिका के अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्वाचन पद्धति (election) द्वारा होती है इसलिए वे राजनीतिक प्रभाव से मुक्त नहीं रह पाते । यही कारण है कि उनके निर्णयों में अभिव्यक्त की गयी विधि के प्रति यथार्थवादी अधिक सतर्क रहते हैं तथा उनके प्रति सजगता बरतते हैं।
(iii) यथार्थवादियों द्वारा ‘न्यायाधीश’ को विधि के अध्ययन का केन्द्रबिन्दु माने जाने का एक कारण यह भी है कि अमेरिकन विधि प्रणाली इंग्लैण्ड की विधि-प्रणाली से अपेक्षाकृत नवीनतम है, अत: वहाँ की विधि में अभी परिपक्वता नहीं आ पायी है।
(iv) अमेरिका के विभिन्न राज्यों (States) में कॉमन लॉ पद्धति प्रभावशील होने के कारण न्यायाधीशों पर विधि निर्माण करने का दायित्व आ पड़ना स्वाभाविक है।
अमेरिकन यथार्थवादियों ने अपनी विचारधारा को युक्तिवाद और अनुभव पर आधारित करते हुए विधि की व्यावहारिकता पर बल दिया है। उनके अनुसार न्यायालयीन निर्णय अनेक बाह्य तथ्यों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं। न्यायाधीशों की वैयक्तिक मान्यताएँ, धारणाएँ, राजनीतिक विचार तथा सामाजिक वातावरण आदि उनके निर्णयों को पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं। अत: यथार्थवादियों का कथन है कि जो ‘निर्णय’ न्यायाधीश देता है उसमें और जो निर्णय उसे कानूनी ग्रन्थों या संहिताओं के आधार पर देना चाहिये । उसमें काफी अन्तर होता है। वैसे तो विधिशास्त्र के समाजशास्त्रीय विचारकों ने भी इस ओर संकेत किया है, परन्तु यथार्थवादियों ने इसे अपनी विचारधारा का प्रमुख विषय माना है। निवेदित है कि इसी कारणवश यथार्थवादी विचारधारा को विधिशास्त्र की एक पृथक् शाखा के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है बल्कि इसे समाजशास्त्रीय पद्धति का ही स्वरूप मात्र माना है। यथार्थवादी विचारधारा को तथ्यवादी सुस्पष्टता (pragmatic positivism) भी कहा गया है। ‘तथ्यवादिता’ से तात्पर्य यह है कि इसके अन्तर्गत न्यायशास्त्री निश्चित सिद्धान्तों, संकल्पनाओं तथा आगमनात्मक पद्धति (deductive method) से हटकर किसी विधिक नियम के औचित्य को बाह्य तथ्यों और बाह्य कृत्यों के आधार पर ढूंढते हैं। सारांश यह है कि संस्थाओं (institutions) का अनुमान उनके अन्तिम नतीजों और परिणामों से लगाया जाना चाहिये। इस प्रकार | यथार्थवादी पद्धति वास्तविकता पर आधारित एक तात्विक पद्धति है जिसमें न्यायविदों की आन्तरिक मन स्थिति, स्वभाव और भावनाओं आदि पर विचार किया जाता है। यथार्थवादियों का कहना है कि कानून की वास्तविकता का ज्ञान केवल उन्हीं तथ्यों से प्राप्त हो सकता है, जो वास्तव में विद्यमान हैं। अतःचाहिये। (ought) की बजाय ‘वर्तमान’ तथ्यों को ही महत्व दिया जाना चाहिए।।
अमेरिकन यथार्थवाद के प्रमुख प्रवर्तक (Main Exponents of American Realist School)
अमेरिका की आधुनिक यथार्थवादी शाखा के प्रमुख प्रवर्तकों में जॉन चिपमैन ग्रे (John Chipman Grav), जस्टिस ओलिवर वेन्डैल होम्स (Justice Oliver Wandel Holmes), प्रो० लेविलिन (Prof. Liewellyn), तथा जस्टिस जैराम फ्रैंक (Justice Jerome Frank) आदि के नाम प्रमुख हैं। ग्रे तथा होम्स को अमेरिकन यथार्थवाद का जनक माना जाता है।
जॉन चेपमैन ग्रे (John Chapman Gray : 1839-1913)
विधिशास्त्र में जॉन ग्रे का महत्व विश्लेषणात्मक शाखा के समर्थक के रूप में है। विधि के प्रति विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने विधि-विज्ञान (science of law) में आदर्शों को कोई स्थान नहीं दिया; तथापि ग्रे विश्लेषणात्मक पद्धति से काफी दूर हट जाते हैं क्योंकि उन्होंने अधिनियमित विधायन (legislation) को विधि का केन्द्र-बिन्दु नहीं माना। अधिनियमित विधान को उन्होंने विधि के विभिन्न स्रोतों में से केवल एक स्रोत-मात्र माना है। उनके अनुसार विधि का वास्तविक केन्द्रबिन्दु न्यायालयों के न्यायाधीश हैं क्योंकि उनके व्यक्तित्व की छाप निर्णयों पर पड़ना अवश्यम्भावी है विधिशास्त्र में ग्रे का मख्य योगदान यह है कि उन्होंने अधिनियमित विधि (enacted law) की बजाय न्यायिक निर्णयों को अधिक महत्व दिये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की।
जस्टिस होम्स (Justice Oliver Wendell Holmes : 1841-1935)
अमेरिकन यथार्थवादी आन्दोलन का शुभारम्भ अमेरिका के सुविख्यात न्यायाधीश ओलीवर वेन्डेल होम्स के एक निबन्ध से माना जाता है जिसे सन् 1897 में प्रकाशित किया गया था। इस लेख में उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि यथार्थवादी विधिक विचारधारा का केन्द्रबिन्दु न्यायाधीश’ हैं। उनके विचार से अधिनियमित कानून तो नैतिक सिद्धान्तों या मान्य आचरणों अथवा ऐसे ही अन्य किसी सिद्धान्त के आधार पर निर्मित होते हैं, परन्तु अदालत के कटघरे में खड़ा अभियुक्त इन सिद्धान्तों की तनिक भी परवाह नहीं करता। वह तो यह जानने का इच्छुक रहता है कि न्यायालय उसके मामले में वास्तविक रूप से क्या निर्णय देने जा रहा है। होम्स के अनुसार यह भविष्यवाणी कि वास्तव में न्यायालय का निर्णय क्या होगा” विधि है, तथा अन्य सभी तर्क व्यर्थ होते हैं।7
यथार्थवादी विचारधारा की मूल धारणा यह है कि विधि से सम्बन्धित समस्याओं का हल विधि के अधिनियमित नियमों में नहीं मिल सकता, बल्कि उन नियमों के क्रियान्वयन में मिलता है। इस सिद्धान्त की। पुष्टि के लिये यथार्थवादी ज्ञान की उन शाखाओं का सहारा लेते हैं जो समाज में मानवीय आचरण से सम्बद्ध हैं। इन विचारकों ने विधिशास्त्र के ज्ञान के लिए विशेषतः अर्थशास्त्र, अपराधशास्त्र, समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान आदि का उपयोग किये जाने की महत्ता प्रतिपादित की।
जस्टिस होम्स विधि की परिवर्तनशीलता का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि राष्ट्र की बदलती हुई परिस्थितियों के साथ-साथ वहाँ की विधि में परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है ताकि वह परिस्थितियों के अनुकूल बनाई जा सके। विधि की व्यावहारिकता को महत्व देते हुए न्यायमूर्ति जेम्स कहते हैं कि विधि गणित की पुस्तक में लिखित पूर्वमान्यताओं के समान अटल नहीं होती; अतः इसमें तर्क की बजाय आचरण तथा अनुभव को ही अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति होम्स की आत्मकथा लेखक प्रोफेसर एलबर्ट डब्ल्यू० एल्सच्यूलर (Abert. W. Alschuler) ने कहा है कि होम्स ने ईश्वर प्रदत्त सही और गलत के भेद को कभी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वे व्यक्तिआचरण की सापेक्षता (Relativity of human conduct) में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार विधि को परिस्थितियों के अनुसार ढालने में ही मानव हितों का संवर्धन संभव है जिसमें विभिन्न सामाजिक कारकों को समाविष्ट किया जाना आवश्यक होता है। विधि एक साक्षेप अपरिवर्तनशील प्रकल्पना न होकर समयानुसार बदलते रहने वाली संकल्पना है ताकि वह समाजोपयोगी बनी रहे।
जस्टिस होम्स ने विधि की व्याख्या न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित एक दुराचारी व्यक्ति के दृष्टिकोण से करते हुये अभिकथन किया कि एक अपराधी या दुराचारी को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि उसके प्रति लागू होने वाली विधि किन सिद्धान्तों पर आधारित है, बल्कि उसका ध्यान केवल इस ओर केन्द्रित रहता है कि न्यायाधीश उसके प्रकरण में किस विधि का अनुसरण करते हुये निर्णय देता है तथा विचारण के फलस्वरूप निर्णय उसके पक्ष में होगा या उसके विरुद्ध और इनका उस पर क्या परिणाम होगा? न्यायाधीश का यह कर्तव्य होता है कि वह विधि जैसी कि वह है, के अनुसार निर्णय दे । न कि उसकी सृजनात्मक व्याख्या (Creative interpretation) करते हुये सम्बन्धित विधि के मलभत सिद्धान्तों की अनदेखी करे। न्यायाधीश पूर्व निर्णयों (Precedents) को विचार में ले सकते हैं, परन्तु
5. फ्रीडमैन एल० एम० : लीगल थ्योरी (5वाँ संस्करण) पृ० 293.
6. “Realist cosmos is centred on the Judge” –Justice Holmes.
7. पैटन जी० डब्ल्यू : ज्यूरिसपूडेन्स (1972 संस्करण) पृ० 81.
उनमें संदिग्धता हो तो वे स्वविवेक का प्रयोग करते हुये विचाराधीन व्यक्ति के प्रति न्याय करने के लिये स्वतन्त्र है।
कार्ल लेविलिन (Karl Llewellyn: 1893-1962)
अमेरिका के यथार्थवादी विधिवेत्ताओं में लेविलिन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। डीन रास्को पाउन्ड की समाजशास्त्रीय विचारधारा की प्रतिक्रियास्वरूप लेविलिन ने यथार्थवादी विधिशास्त्र का जोरदार समर्थन किया। प्रो० लेविलिन के अनुसार यथार्थवादी विधिशास्त्रियों का ध्येय यह है कि विधि-सम्बन्धी विचारों
और कार्यों में गति उत्पन्न की जाये। उन्होंने विधिवेत्ताओं का ध्यान अमेरिका के यथार्थवादी आंदोलन की विशेषताओं की ओर आकृष्ट कराते हुए निम्नलिखित विचार व्यक्त किये
(1) यथार्थवाद (Realism) विधिशास्त्र की कोई पृथक शाखा नहीं है वरन् यह विधिशास्त्र की एक नई पद्धति मात्र है।
(2) यथार्थवादी विधिवेत्ता विधि को प्रगतिशील मानते हैं न कि गतिहीन। उनके अनुसार विधिक जीवन सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है। उनके अनुसार बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ प्रचलित विधि का भी परीक्षण एवं मुल्यांकन किया जाना चाहिये ताकि यह पता लग सके कि उसकी उपयोगिता बनी हुई है अथवा उसमें किसी संशोधन की आवश्यकता है।
(3) विधि वास्तव में क्या है और वास्तव में किस प्रकार कार्य कर रही है, यह जानने के लिए यथार्थवादी ‘चाहिए’ (ought) को निकाल कर अलग कर देते हैं, अर्थात् नैतिक प्रयोजनों को यथार्थवादी विचारक विधि’ से अलग रखते हैं।
(4) यथार्थवादी विधिवेत्ता विधि और न्यायिक-निर्णयों के सामाजिक प्रभाव की ओर अधिक ध्यान देते हैं।
(5) आधुनिक यथार्थवादियों के अनुसार सामाजिक परिवर्तन कानूनी परिवर्तनों की तुलना में कहीं
अधिक द्रुतगामी होते हैं। अत: यह परीक्षण करने की आवश्यकता होती है कि कानून किस सीमा तक तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल है।
(6) यथार्थवाद का समर्थन करने वाले विधिशास्त्री विधि के नियमों और विधि सम्बन्धी
परिकल्पनाओं की प्रभावोत्पादकता के प्रति संदेह व्यक्त करते हैं। यही उनकी विचारधारा की मुख्य विशेषता है।
(7) निर्णीत वादों (case law) का अध्ययन करते समय वे निर्णय (judgment) को विनिश्चय
(decision) का वर्णन-मात्र न मानकर उसे वास्तविक न्यायिक मत का तार्किक विवेचन
मानते हैं। अतः न्यायिक नियों द्वारा निर्मित विधि अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है।
(8) यथार्थवादियों की मान्यता है कि विधि वही है जो न्यायालय अपने निर्णयों में अभिव्यक्त
करते हैं। अत: विधि के ज्ञान के लिए न्यायाधीशों के व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
(9) यथार्थवादियों के अनुसार विधि सम्बन्धी समस्याओं के विरुद्ध उपर्युक्त बातों के आधार पर
योजनाबद्ध प्रहार होना चाहिये ताकि वास्तविक विधि के विषय में वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जा सके।
8. विलिन कोलंबिया विश्वविद्यालय (US) में प्रोफेसर थे।
9. लेविलिन : Some Realism About Realism—Respondi to Pound, 44 Harv, Law Review 1222 (1930)
आधुनिक यथार्थवाद के समर्थक विधिशास्त्री अधिनियमित कानून और संहिताओं में उल्लिखित नियमों को वास्तविक विधि के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। उनके अनुसार लोगों की यह आम धारणा है कि विधि के अधिनियमित नियम सभी के प्रति लागू किये जाने योग्य बनाये जाते हैं तथा न्यायिक निर्णय भी इन्हीं के आधार पर दिये जाते है।
लेविलिन (Llewellyn) यह स्वीकार करते हैं कि निर्णयविधि (case law) में पूर्वानुमान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है जिसके आधार पर न्यायाधीश मामले के वस्तुपरक निर्णय पर पहुँचता है। इससे निर्णयों में एकरूपता (consistency) दिखलाई पड़ती है जो लोगों में न्याय के प्रति आस्था उत्पन्न करती है।
सारांश यह है कि लेविलिन के मतानुसार यथार्थवादी पद्धति विधि के प्रयोजनों के लिए न्यायाधीशों के महत्व पर ध्यान केन्द्रित करती है तथा उन्हें वास्तविक विधि ढालने वाला मानती है। ज्ञातव्य है कि भारत की विधी प्रणाली में भी इस प्रवृत्ति का दिग्दर्शन होता है।
जेरोम फ्रैंक (Jerome Frank : 1889-1957) 1197 1976 1919)
अमेरिका के विख्यात न्यायाधीश जेरोम फ्रेंक भी विधि के यथार्थवादी सिद्धान्त के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने विभिन्न यथार्थवादियों के विचारों को निश्चित श्रेणियों में विभक्त किया। फ्रेंक के अनुसार यथार्थवादियों की प्रथम श्रेणी में उन विधिशास्त्रियों का समावेश है जिनकी धारणा यह है कि विधिक नियम (legal rules) विधि में किसी प्रकार की एकरूपता (uniformity) नहीं लाते । फ्रेंक ने प्रोफेसर लेविलिन की गणना इस श्रेणी के यथार्थवादियों में की है। इस श्रेणी के यथार्थवादी मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, विज्ञान आदि के नियमों की एकरूपता को विधि के प्रति भी लागू किये जाने पर जोर देते हैं।
यथार्थवादियों की दूसरी श्रेणी में उन विधिज्ञों का समावेश किया जा सकता है जो विधिक नियमों की एकरूपता (uniformity of legal rules) पर विचार करना व्यर्थ समझते हैं। उनके विचार से विधिक नियमों में एकरूपता का अभाव इतना प्रत्यक्ष तथा स्पष्ट है कि उस पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता।10 ये । यथार्थवादी अपना ध्यान विशेष रूप से तथ्यों (facts) की स्थापना पर ही केन्द्रित करते हैं। इनके मतानुसार विचारण न्यायालय में झूठे और दल-बदलू साक्षियों के कारण तथ्यों की सही ढंग से स्थापना नहीं हो पाती है। इसके अतिरिक्त किसी मामले के तथ्यों को लेकर न्यायाधीश और जूरी अपनी वैयक्तिक धारणाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त करते हैं। उनके निष्कर्षों की यह भिन्नता वैयक्तिक स्वभाव तथा अन्य पूर्वाग्रहों (prejudices) के कारण होती है। फ्रेंक स्वयं को इस विचारधारा का पोषक मानते हैं।
जेरोम फ्रेंक के अनुसार जनता विधि के नियमों की निश्चितता तथा एकरूपता के प्रति इतनी सजग इसलिये रहती है क्योंकि इनसे समाज को मार्गदर्शन प्राप्त होता है। जिस प्रकार बच्चा अपने पिता की शक्ति और विवेक-बुद्धि में विश्वास रखते हुए सुरक्षितता का अनुभव करता है, ठीक उसी प्रकार वयस्क व्यक्ति मानवीय संस्थाओं (human institutions) के प्रति विश्वास रखते हुए कार्य करता है और विधि को विश्वास के साथ देखना चाहता है। स्वाभाविकत: यह विश्वास तभी सम्भव है जब विधि के नियम संदिग्ध एवं स्पष्ट हों। फ्रेंक का मत है कि विधि के नियम केवल शब्दों के सूत्र (formula) हैं तथा उनके वास्तविक अर्थ को जीवन । के तथ्यों के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। जस्टिस होम्स की एक उक्ति उद्धृत करते हुए फ्रेंक ने कहा-“हमें वस्तुओं (तथ्यों) पर विचार करना चाहिए, शब्दों पर नहीं, हमें शब्दों का भावानुवाद उन तथ्यों में करना चाहिये जिनके लिए वे शब्द प्रयुक्त किये गये हैं, तभी हम सही निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।” { जेरोम फ्रेंक की यथार्थवादी विचार–पद्धति की मौलिकता यह है कि उन्होंने वास्तविक विधि (actual | law) और सम्भावित विधि (probable law) में अन्तर स्पष्ट किया। उनके अनुसार वास्तविक विधि वह है। कि जो समान परिस्थिति में भूतकाल में किसी न्यायिक निर्णय में दी गयी हो। सम्भावित विधि’ का परिभाषित करते हुए वे कहते हैं कि यह ऐसी विधि है जो समान परिस्थिति में भविष्य काल में।
10. Frank calls these two categories as ‘rule skeptics’ and ‘fact skeptics’.
किसी न्यायिक निर्णय में दी जा सकती हो। फ्रेंक के अनुसार सम्भावित विधि’ वास्तव में विधि नहीं होती है।11
फ्रेंक ने विधि के संबंध में स्पष्ट किया कि यद्यपि विधि में अनिश्चितता अन्तर्निहित होगी ही फिर भी इसे अमूर्त नियमों (abstract rules) का संग्रह मात्र कहना उचित नहीं है। अत: विधि को भलीभाँति समझने के लिए उसका केवल तकनीकी विश्लेषण पर्याप्त नहीं होता है। उदाहरणार्थ, न्यायालय के समक्ष किसी विचारणाधीन प्रकरण में तथ्यों को साक्षियों द्वारा दी गई साक्ष्य के आधार पर साबित किया जाना है लेकिन यह आवश्यक नहीं कि साक्षियों के बयान सत्य ही हों, वे असत्य भी हो सकते हैं। अत: यह न्यायाधीश का कार्य होगा कि वह अपने अनुभव और साक्ष्यों के आधार पर यह निर्धारण करे कि प्रकरण में तथ्यों की। वास्तविकता क्या रही होगी।
फ्रेंक के अनुसार न्यायाधीश का व्यक्तित्व उसके निर्णय को आत्मनिष्ठ बना देता है, जिसके परिणामस्वरूप – 1 ( 1 1 – अनेक मामलों में न्यायनिर्णय अविवेकशील होते हैं क्योंकि वे संयोग, अनुमान आदि पर आधारित होते हैं। | अत: ऐसे मामलों में निर्णय क्या होगा यह पूर्वानुमान लगाना प्राय: असंभव होता है।
थुर्मन वेस्ली अर्नोल्ड (Thurman Wesley Arnold)
अर्नोल्ड का जन्म सन् 1891 में हुआ था। उन्होंने वाशिंगटन डी० सी० में वकालत की। तदोपरान्त उन्होंने वर्जीनिया विश्वविद्यालय के विधि-संकायाध्यक्ष (Dean Faculty of Law) के पद पर कार्य किया तथा वे येल विश्वविद्यालय में विधि के प्राध्यापक भी रहे।12 उन्होंने अमेरिकन न्याय विभाग में दीर्घकाल तक सेवाएं दी और बाद में वे अमेरिकन कोर्ट ऑफ अपील के सहायी न्यायाधीश (Associate Judge) भी रहे।
अर्नोल्ड के अनुसार विधि, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि ऐसी सामाजिक संस्थाएँ हैं जो समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों, मान्यताओं तथा आदतों पर आधारित होती हैं। इन सभी के समन्वय से विधि-सम्मत शासन (rule of law) सुस्थापित करना सरल होता है।
जॉन राल्स (John Rawls)
अमेरिकन यथार्थवाद को व्यावहारिक रूप देने में जॉन राल्स का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने सभी को समान अधिकार दिलाने तथा सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं को इस प्रकार समायोजित करने पर बल दिया ताकि समाज का अधिकतम कल्याण हो सके। राल्स के अनुसार एक सुव्यवस्थित समाज का मूल लक्षण यह है कि उसके व्यक्ति न्याय और औचित्य के प्रति आश्वस्त हों। वे न्याय और औचित्य को केवल कोरी प्रकल्पनायें नहीं मानते, अपितु यह राजनीतिक विचारधारा के प्रमुख तत्व हैं जो सभी सामाजिक संस्थाओं के प्रति समान रूप से लाग होते हैं।
जॉन राल्स ने अपनी यथार्थवादी विचारधारा में न्याय के तीन मुख्य प्रकारों का उल्लेख किया है ।
(1) स्थानीय न्याय (Local Justice),
(2) घरेलू न्याय (Domestic Justice), तथा
(3) वैश्विक न्याय (Global Justice)। राज्य में विधिसम्मत शासन (Rule of law) सुनिश्चित किये जाने हेतु इन तीनों प्रकार के न्याय पर औचित्यपूर्ण निर्बधन लगाये जा सकते हैं।
राल्स के समता एवं न्याय के सिद्धान्त (Theories of Equality & Justice) को अमेरिका के अल्पसंख्यक समुदायों के हितों के संरक्षण के लिये उन्हें प्राथमिकता दिये जाने को न्यायोचित ठहराया गया।
11. जेरोम फ्रेंक : लॉ एण्ड दि माडर्न माइन्ड (1949) पृ० 46. 5 15 16 17LS।
12. अर्नोल्ड द्वारा लिखित विधि ग्रंथों में The Symbols of Government (1935); Cases on Trials, Judgments & Appeals (1936); The Folklore of Capitalism (1937); Democracy & Free Enterprise (1992) 37 प्रमुख हैं।
राल्स के अनुसार समाज में व्याप्त सामाजिक तथा आर्थिक असमानताओं को इस प्रकार सुनियोजित किया जाना चाहिये ताकि वे प्रत्येक के लिये हितकारी हों तथा एक दूसरे के दावों तथा अधिकारों को सम्मान की दृष्टि से देखें न कि ईष्र्या और दुर्भावना की दृष्टि से।।
राल्स के यथार्थवादी सिद्धान्त का निचोड़ यह था कि समाज के उपेक्षित वर्ग के लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं का निवारण इस तरीके से हो सके कि संपन्न और गरीबों में टकराव की स्थिति न हो बल्कि वे एक दूसरे के अधिकारों से संतुष्ट हों। निवेदित है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (3) एवं 16 (4) के अन्तर्गत दलितों एवं उपेक्षितों के प्रति आरक्षण नीति का औचित्य राल्स की विचारधारा के औचित्य का समर्थन करती है।
सारांश में यह कहा जा सकता है कि जॉन रॉल्स ने सामाजिक न्याय तथा व्यक्तिगत न्याय में विभेद करते हुये अभिकथन किया कि ये एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न हैं। सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिये संभव है। कि व्यक्तिगत न्याय की अनदेखी करना आवश्यक हो जाये। उदाहरणार्थ, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के प्रति आरक्षण की नीति से उन्हें सामाजिक न्यायमित्ला है लेकिन उच्च जातियों के लोग इसे स्वयं के प्रति अन्यायपूर्ण मानते हैं। किन्तु राज्य का कर्तव्य कि वह वैयक्तिक न्याय की तुलना में सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दें।
राल्स का समान संबंधी सिद्धान्त इस वास्तविकता पर आधारित है कि विभिन्न वर्गों के लोग समान आर्थिक तथा सामाजिक परिवेश में जन्म नहीं लेते, अत: उनकी प्रास्थिति में विषमता होना स्वाभाविक है, जिसे स .नता एवं न्याय के सिद्धान्त द्वारा दूर किया जाना चाहिये।
न्यायमूर्ति कारडोजो (Justice Cardozo)
आधुनिक यथार्थवाद के समर्थकों में अमरीकी न्यायाधीश कारडोजो का योगदान विशेष उल्लेखनीय रहा है। विधि के बारे में अपना मत स्पष्ट करते हुए कारडोजो कहते हैं कि कानून वह नहीं है जो न्यायाधीश बनाते हैं, बल्कि वह है जिसे न्यायाधीश बनायेगा।13 इस प्रकार कारडोजो पूर्वोक्तियों के महत्व को अस्वीकार करते हैं। वे विधि को सामाजिक कल्याण का साधन मानते हैं। कारडोजो के अनुसार विधि का स्वरूप कल्याणकारी होना चाहिए ताकि वह सामाजिक वास्तविकता के अनुरूप बन सके। कारडोजो विधि को आचरण के उन नियमों का संकलन मानते हैं, जो कि न्यायिक निर्णयों की युक्तियुक्त निश्चितता के लिए प्रतिपादित किये गये
अमेरिकन-यथार्थवाद की आलोचना
अमेरिका की आधुनिक यथार्थवादी विचारधारा ने समाजशास्त्रीय विचार पद्धति को एक नई दिशा अवश्य दी परन्त फिर भी अपने वामपंथी विचारों के कारण यह पद्धति विधि-क्षेत्र में सदैव आलोचना का विषय बनी। रही। आधुनिक अमेरिकन यथार्थवाद की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है
(1) अमरीकी यथार्थवादियों द्वारा अधिनियमित विधि और संहिताओं को कानून की परिधि से बाहर रखा गया है, जिससे इनकी उपेक्षा हुई है, जो उचित नही है। न्यायिक-निर्णयों को विधि के रूप में स्वीकार करते हुए उन्हें अधिनियमित कानूनों से श्रेष्ठ मानना सरासर भूल है। वस्तुतः विधि-क्षेत्र में अधिनियमित विधि का उतना ही महत्व है जितना कि न्यायिक निर्णयों का। विधि-व्यवसायियों, न्यायाधीशों तथा विधिशास्त्रियों के लिए दोनों का ही समान महत्व है। अतः अमरीकी यथार्थवादियों द्वारा केवल ‘न्यायालय को ही महत्व दिया जाना विधायिनी के प्रति अन्याय है।
(2) न्यायाधीशों को अपने निर्णयों में अधिनियमित विधियों को समाविष्ट करना आवश्यक होता है। अन्यथा ये निर्णय ‘‘वास्तविक विधि” न रहकर “सम्भावित विधि” का रूप ग्रहण कर लेंगे जिसे यथार्थवादी विधि के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं।
13. कारडोजो जे० बी० : ग्रोथ ऑफ लॉ (1931) पृ० 52.
(3) अमेरिकन यथार्थवादियों का यह तर्क कि अधिनियमित विधि में निश्चितता और एकरूपता का सदैव अभाव रहता है, वास्तविकता के परे है। बल्कि इसके उल्टे न्यायाधीशों के निर्णयों में स्वविवेक की अधिक गुंजाइश होने के कारण वे न्यायाधीश के वैयक्तिक विचारों से प्रभावित होते हैं, अत: इनमें एकरूपता या निश्चितता का अभाव होना स्वाभाविक है।
उल्लेखनीय है कि वर्तमान यथार्थवादियों ने अधिनियमित नियम तथा परिकल्पनाओं का विरोध करने की प्रवृत्ति छोड़ दी है तथा उन्होंने अब संहिताबद्ध विधि की ओर ध्यान देना आरम्भ कर दिया है। स्केन्डिनेवियन यथार्थवाद (Scandinavian Realism)
स्केन्डिनेविया के विधिवेत्ताओं ने भी यथार्थवाद पद्धति को गति देने का प्रयास किया परन्तु इनकी विचार-पद्धति और अमेरिकन यथार्थवादी पद्धति में कोई निकट साम्य नहीं है। अमरीका के यथार्थवादी स्वयं को न्यायालय की चहारदीवारी तक सीमित रख कर विधि को क्रियान्वित होते देखना चाहते हैं। वे । परिकल्पना (concepts) का विरोध करते हुए विधि को व्यावहारिक अर्थ में समझना चाहते हैं। इसीलिए अमरीकी यथार्थवाद को प्रयोजनात्मक (pragmatic) तथा व्यवहारवादी (behaviourist) पद्धति माना गया है। परन्तु स्केन्डिनेवियन यथार्थवादी अमरीकी यथार्थवाद का विरोध करते हैं तथा विधि की औपचारिक दार्शनिकता का विकास करने में रुचि रखते हैं। उनका लक्ष्य यह देखना है कि विधि क्या है और सामाजिक तथ्य के रूप में वह किस प्रकार काम करती है? स्केन्डिनेवियन यथार्थवाद के मुख्य लक्षण निम्नलिखित है –
(1) यह पद्धति न्याय और विधि में कोई सम्बन्ध नहीं मानती। इसी प्रकार यह पद्धति कर्त्तव्य’, ‘अधिकार’, ‘संप्रभुता’ और ‘आदेश’, आदि के महत्व को भी स्वीकार नहीं करती है।14
(2) इस पद्धति के समर्थक एल्फ रॉस (AIf Ross) तथा ओलाइवक्रोना (Olivecrona) के अनुसार मानव-समाज के अस्तित्व और कल्याण के लिए विधि’ (law) आवश्यक है। विधि को एक सामाजिक तथ्य के रूप में स्वीकार करते हुए इन विचारकों का कहना है कि ‘विधि’ एक मशीनरी’ की भाँति है जिसकी मान्यता राज्य या उसके आदेशों में नहीं अपितु सुसंगठित सामुदायिक शक्ति के प्रयोगों के भय में निहित है।
(3) स्कैन्डिनेवियन यथार्थवाद के प्रणेता विलियम कुंडस्टेड (Lundstedt) के अनुसार विधि उन सुसंगठित सामाजिक दशाओं में चेतना उत्पन्न करती है जो समाज के व्यक्तियों को शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते हैं। अत: विधि की बन्धनकारी शक्ति सह-अस्तित्व, सहयोग और प्रगति की आन्तरिक भावनाओं और सामाजिक जिज्ञासाओं में निहित रहती है। कुंडस्टेड के अनुसार समाज के संरक्षण के लिये विधि नितान्त आवश्यक है। विधि के उद्देश्य कल्याणकारी होने चाहिये। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक कल्याण को अधिक महत्व दिया। परन्तु कुंडस्टेड के विचारों की आलोचना करते हुए प्रो० पैटर्न ने कहा है कि दुर्भाग्यवश लुंडस्टेड ने यह स्पष्ट नहीं किया कि सामाजिक कल्याण के प्रयोग को व्यावहारिका रूप किस प्रकार दिया जाए तथा उसकी विषय-वस्तु क्या हो । लुंडस्टेड के अनुसार सामाजिक कल्याण वह है। जिसे प्राप्त करने के लिए मानव सदैव प्रयत्नशील रहता है।
लुन्डस्टेड (W. Lundstedt : 1882-1965)
लुन्डस्टेड ने विधि संबंधी सभी आंग्ल-सिद्धान्तों को नकारते हुए कहा है कि इनका केवल सैद्धांतिक महत्व है। उनके मतानुसार विधि न्याय की अवधारणा पर आधारित न होकर सामाजिक समर्थन तथा समाज की आवश्यकताओं पर आधारित है। सभी विधिक गतिविधियों के पीछे वास्तविक उद्देश्य यह रहता है कि लोक कल्याण का संवर्धन हो। अतः न्यायाधीशों को विधि की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए ताकि लोगों के अधिकार और कर्तव्यों का निर्धारण द्वारा लोक कल्याण के साक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। उनके अनुसार। लोगों में सुरक्षितता की भावना सामाजिक कल्याण का प्रमुख अंग होने के कारण न्यायाधीशों से अपेक्षित है।
14. पैटन : ए टेक्स्ट बुक ऑफ ज्यूरिसपूडेंस (तृतीय संस्करण), पृ० 36-37.
कि वे इस ओर विशेष ध्यान दें तथा समाज को विघटन से बचाने के लिए अपराध, अपकृत्य या संविदा भंग जैसे मामलों में आवश्यकतानुसार कठोर दायित्व का सिद्धांत (Principle of strict liability) लागू करने से भी न हिचकिचाएँ।
विलियम कुंडस्टेड ने अपनी कृति ‘लीगल थिंकिंग रिवाइज्ड’15 में परस्पर सह अस्तित्व सिद्धान्त को ही विधि का मूल आधार बताया है। विधि का उद्देश्य लोगों की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति, जीवन तथा संपत्ति की सुरक्षा, व्यक्ति स्वातंत्र्य तथा आध्यात्मिक हितों का संरक्षण करना है। यही उनके सामाजिक कल्याण की प्रमुख विषय-वस्तु है।
एक्सल हेन्गरस्टोर्म (Axel Hangerstorm : 1868-1939)
एक्सेल हेन्गरस्टोर्म को स्केण्डिनेवियन यथार्थवादी विचारधारा का पोषक माना जाना है। वे स्वीडन की उपसाला (Upsala) विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे तथा उन पर कुंडस्टेड तथा एल्फ रॉस के दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अधिकार-कर्तव्यों के परस्पर संबंधों को अस्वीकार करते हुए विधिक दायित्व के वस्तुनिष्ठ अस्तित्व को निराधार बताया। इसी प्रकार उन्होंने सही और गलत की संकल्पना को व्यर्थ निरूपित करते हुए कथन किया कि ये तथ्यों के प्रति व्यक्तियों की अनुमोदन तथा अननुमोदन की भावनाओं को प्रदर्शित मात्र करती है। हेन्गरस्टोर्म विधि की उपादेयता को वैयक्तिक मूल्यांकन का विषय मानते हुए इसका वैज्ञानिक आधार पर परीक्षण किया जाना व्यर्थ मानते हैं। उन्होंने विधिक संकल्पनाओं को उनकी वास्तविक उपयोगिता के आधार पर विश्लेषण किये जाने पर बल दिया।
विल्हेम लुण्डस्टेड (Vilhelm Lundstedt) (1882-1955),
लुण्डस्टेड ने विधि सम्बन्धी सभी इंगलिश सिद्धान्तों को खारिज करते हुये अभिकथन किया कि इनका कोई प्रयोगात्मक महत्व नहीं है। उनके अनुसार विधि का आधार स्रोत न्याय की संकल्पना न होकर सामाजिक दबाव तथा सामाजिक आवश्यकताओं पर आधारित है। किसी समाज, स्थान या समय में प्रचलित विधि वहां के सामाजिक कल्याण के अनुरूप होना नितान्त आवश्यक होता है जिसमें प्रजाजनों की सुरक्षा सर्वोपरि लक्ष्य होना चाहिये। उन्होंने परम्परागत मान्य ‘अधिकार’ तथा ‘कर्तव्य की संकल्पनाओं को अस्वीकार करते हुये अभिकथन किया कि विधि नियमों का ऐसा संकलन है जो समाज-विशेषज्ञ को सुसंगठित बल (organised force) प्रदान करना है। अत: न्यायाधीशों को न्याय-निर्णय करते समय पक्षकारों के अधिकारों या कर्तव्यों को महत्व देने की बजाय सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखना चाहिये। यही कारण है कि उन्होंने न्याय (justice) की बजाय सामाजिक कल्याण की महत्ता पर बल दिया, जो लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा कार्यों की स्वतन्त्रता आदि के संरक्षण में निहित है।16
कार्ल ओलाइवक्रोना (Karl Olivecrona : 1897-1980)
ओलाइवक्रोना ने अपने गुरु हेंगरस्टोर्म (Hengerstorm) के विचारों का समर्थन करते हुए कहा है कि ‘विधि की बन्धनकारी शक्ति का कोई भी सिद्धान्त, चाहे वह प्राकृतिक विधि का सिद्धान्त हो या नागरिक विधि का सिद्धान्त, पारलौकिक ज्ञान (transcendentalism) का एक प्रकार मात्र है।” इस प्रकार उन्होंने प्राकृतिक विधि-दर्शन तथा न्याय की निरपेक्ष संकल्पना को विधि में स्थान भी नहीं दिया। विधि में सुसंगठित बल निहित होने के कारण ही समाज इसका अनुपालन करने के लिए बाध्य होता है। ओलाइबक्रोना के विचार से विद्रोह (revolution) भी विधि के विकास का एक चरण माना जाना चाहिए।
ओलाइवक्रोना के अनुसार विधि का अध्ययन एक सामाजिक तथ्य है क्योंकि विधि सामाजिक तथ्यों के एक संवर्ग (a set of social facts) के सिवा और कुछ नहीं है। उन्होंने इस धारणा को गलत बताया कि
15. William Lundstedt’s book ‘Legal Thinking Revised’ was published in english shortly after his death in 1956
16. Lundstedt : Legal Thinking Revised n 144
विधि राज्य को समादेश है जिसका अनुपालन किया जाना अनिवार्य है। इनके अनुसार विधि को बन्धनकारी शक्ति एक कपोल कल्पना मात्र है, जो यथार्थ से परे है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति विधि का उल्लंघन करके पकड़े जाने से बच निकलने में सफल हो जाता है, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि विधि उस पर बंधनकारी नहीं है। वस्तुतः विधि की बाध्यता की भावना व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान रहती है। क्योंकि उस पर इसका मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है।
ओलाइवक्रोना के विचार से विधि स्वतंत्र आज्ञापकों का एक ऐसा संवर्ग (set of independent imperatives) है जो न्यायालयों या संसद द्वारा विहित होता है और अपेक्षा की जाती है कि सभी व्यक्ति उसका अनुपालन करें। राज्य की संगठित शक्ति द्वारा विधि के अनुपालन को सुनिश्चित किया जाता है।
विधि के क्षेत्र में स्केन्डिनेवियन यथार्थवादी पद्धति का प्रमुख योगदान यह है कि इसने विधि के प्रति रूढ़िवादी विचारों को समाप्त कर दिया जो कि ‘राज्य’, ‘आदेश’, या ऐसी ही किसी अन्य संकल्पना पर आधारित थे। इस प्रकार इस पद्धति ने पूर्व प्रचलित विधि-सम्बन्धी भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास किया तथा विधि-दर्शन सम्बन्धी जटिल समस्याओं को सामाजिक तथ्य के रूप में समझने की कोशिश की। आगे चलकर इसी यथार्थवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप कल्याणकारी राज्यों का प्रादुर्भाव हुआ।
एल्फ रॉस (Alf Ross : 1899-1979)
डेनमार्क के विख्यात यथार्थवादी विधिवेत्ता एल्फ रॉस ने भी स्केन्डिनेविया की विधि संबंधी यथार्थवादी विचारधारा का समर्थन किया। उनके अनुसार विधिक धारणाओं की व्याख्या सामाजिक वास्तविकताओं को। ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए। उन्होंने लंडस्टेड के सामाजिक कल्याण के सिद्धान्त को अस्वीकार करते . हुए न्यायालयों को अधिक महत्व दिये जाने पर बल दिया। उन्होंने विधिक मानकों (legal norms) के दो। प्रकार बताये जिन्हें आचरण संबंधी मानक तथा प्रक्रिया संबंधी मानक कहा गया। विधि के मानक न्यायालयीन कार्यवाही को नियंत्रित करते हैं।
रॉस के अनुसार किसी भी विधि की वैधता उसके विषय में न्यायालय द्वारा दिये जाने वाले निर्णयों की सम्भाव्यता पर निर्भर करती है। यह सम्भाव्यता (Predictability) समाज में सुस्थापित मूल्यों एवं मानकों (norms) पर आधारित होती है क्योंकि न्यायालय इनका अनुसरण किये जाने पर इसलिये बल देते हैं कि समाज इन्हें बाध्यकारी मानता है। कोई भी सामाजिक मान्यता या मानक विधि के रूप में स्वीकार इसलिये होती है क्योंकि समाज उसे आबद्धकारी मानता है और न्यायाधीश भी इस सामाजिक वास्तविकता को ध्यान में रखते हुये निर्णय देते हैं।
अन्य विचारकला
स्केण्डिनेवियन यथार्थवाद को आगे बढ़ाने में पिट्राझिटस्काय (Pitrazhitsky) का योगदान भी महत्वपूर्ण है जिन्होंने विधि के यथार्थवादी आंदोलन को एक नई दिशा दी।
यथार्थवादी विचारधारा के विषय में येन्तामा (Yentama) का कथन है कि इसमें मानवी पहल विशेष ध्यान नहीं दिया गया है तथा यथार्थवादियों ने अपना ध्यान न्यायालयों पर ही अधिक केन्द्रित किया। है, जो उचित नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि विधिक-क्षेत्र में न्यायाधीशों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है परन्त फिर भी उस पर अन्य कारकों के प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
बॉडनहेमर (Bodenheimer) ने स्केन्डिनेवियन यथार्थवाद तथा अमरीकी यथार्थवादी विचारधारा में विभेद स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रथम विधिशास्त्रीय समस्याओं के प्रति दूसरों की तुलना में अधिक।
कल्पिक (speculative) है। इसके अलावा स्केन्डिनेवियन विचारधारा मनोविज्ञान तथा न्यायिक व्यवहार की विलक्षणता को विशेष महत्व नहीं देती। तथापि ये दोनों ही विचारधाराएँ विधि तथा जीवन के प्रति माना। अनुभवाश्रित (empiricist) दृष्टिकोण अपनाये जाने में विश्वास नहीं रखती हैं।
फ्रीडमैन (Friedmann) के अनुसार यथार्थवादी विचारकों का विधि क्षेत्र में विशेष योगदान यह है कि उन्हाने तर्कवाद के आधार पर विधि के प्रशासन तथा विधायी परिवर्तनों के लिए उपलब्ध सामग्री को आधुनिकतम रूप देने का भरसक प्रयास किया है। जूलियस स्टोन के विचार से यथार्थवादी आन्दोलन समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का एक भाष्य (Gloss) है।’7 उन्होंने इस बात की आवश्यकता अनुभव की है कि यथार्थवादी दृष्टिकोण को अधिक संतुलित एवं व्यावहारिक रूप दिया जाना चाहिए।
भारतीय विधि में यथार्थवाद (Realism in Indian Law)
वर्तमान भारतीय परिदृश्य में आधुनिक यथार्थवादी विचारधारा का अत्यधिक महत्व है। भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय न्यायालयों तथा न्यायाधीशों को भारतीय समाज की वास्तविक समस्याओं एवं आवश्यकताओं से कोई सरोकार नहीं था। परंतु भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात्, बदले हुए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवेश में विधि चिंतन के क्षेत्र में भी प्रभावी परिवर्तन हुए और न्यायालयों एवं विधिनिर्माताओं ने भारतीयों की वास्तविक समस्याओं तथा उनकी स्थिति में सुधार करने की दिशा में पहल करना प्रारंभ कर दिया। संविधान निर्माताओं ने भी कल्याणकारी राज्य की कल्पना साकार करने के उद्देश्य से संविधान में सामाजिक एवं आर्थिक सुधार हेतु अनेक प्रावधान रखे तथा आमुख (Preamble) में इनका निचोड़ लिपिबद्ध किया। अत: स्वतंत्रता के पश्चात् विधि एवं न्यायालयों का ध्यान सामाजिक न्याय की ओर आकर्षित हुआ तथा इनके प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए भारत में एक नये प्रगतिवादी विधिशास्त्र का सूत्रपात हुआ। इसके परिणामस्वरूप राज्यों ने भी वास्तविक सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों पर आधारित नीतियों को लागू किया ताकि सामाजिक न्याय की कल्पना साकार हो सके। भारतीय विधि के परिप्रेक्ष्य में यथार्थवाद का प्रतिबिंब निम्नलिखित बिंदुओं से स्पष्ट होता है
(1) न्यायालयों, न्यायाधीशों, विधायकों एवं अधिवक्ताओं ने अनुभव किया कि वर्तमान स्वतंत्र भारत में विधि का प्रमाणवादी सिद्धान्त (analytical approach) समयानुकूल नहीं है क्योंकि विधि केवल. राज्य का आदेश मात्र न होकर जन सामान्य की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक सशक्त साधन है।
(2) समाज के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों को दृष्टिगत रखते हुए सामाजिक न्याय में संवृद्धि करने वाले विधायन एवं कानून निर्मित करने की नितांत आवश्यकता है।18 |
(3) भारतीय न्यायविदों को चाहिए कि वे पाश्चात्य विधि का अंधानुकरण न करते हुए भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल विधियों की संरचना करें तथा न्यायालयों को भी अपने निर्णय देते हुए सामाजिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखना चाहिए।
(4) उपर्युक्त मूलभूत यथार्थवादी सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए विगत पचास वर्षों में भारत में अनेक सामाजिक एवं आर्थिक विधायन पारित किये गये जो संविधान द्वारा दर्शाई गई कल्याणकारी राज्य एवं समाज की समाजवादी संरचना को मूर्त रूप देने में सफल रहे हैं। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने भी समय-समय पर अत्यन्त महत्वपूर्ण लोकोपयोगी फैसले दिये हैं जिनसे जन साधारण को पर्याप्त लाभ हुआ है। इनके कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं
सामाजिक एवं आर्थिक हितोन्मूलक विधायनों में राज्यों द्वारा जमींदारी उन्मूलन विधान तथा भूमिसीमा कानूनों के पारित किये जाने के परिणामस्वरूप भूमिहीन किसानों एवं गरीबों को पर्याप्त राहत मिली है। इसी प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947; उद्योग (विकास एवं नियंत्रण), अधिनियम, 1951; अस्पृश्यता निवारण अधिनियम, 1955; हिन्दू विवाह, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, दत्तकग्रहण, अधिनियम, 1955-56; जीवन बीमा निगम अधिनियम, 1959; मरणोत्तर शुल्क अधिनियम, 1953; संपदा कर अधिनियम, 1957; दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961; बोनस अधिनियम 196S; बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1971; समान
17. According to Julius Stone Realist-Movement is a gloss on the sociological approach jurisprudence.
18. शासकीय सेवाओं तथा शैक्षणिक संस्थाओं में अनुसूचित जाति तथा जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के आरक्षण दिये जाने
संबंधी कानून, पंचायतों तथा विधान मंडलों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम, बाल श्रमिक की सुरक्षा संबंधी विधि, महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा निवारण कानून 2005, वृद्धों के लिए संरक्षण अधिनियम 2007 आदि इसके कुछ उदाहरण हैं।
पारिश्रमिक अधिनियम, 1976; आवश्यक वस्तु पोषण अधिनियम, 1980; अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1986; उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986; पर्यावरण प्रदूषण निवारण अधिनियम, 1986; सतीप्रथा निषेध अधिनियम, 1987; विधिक सेवा अथारिटीज अधिनियम, 1987; आतंकवादी विध्वंसक गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 1987; अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम, 1989; राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1993; मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993; टेक्नालॉजी विकास मंडल अधिनियम, 1995; ग्राम पंचायत (विकास) अधिनियम, 1996; कंपनी विधि (संशोधन)
अधिनियम, 2000; किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
भारतीय विधि-दर्शन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने भी अनेक अभूतपूर्व फैसले दिये हैं जिनसे लोक-कल्याण राज्य की परिकल्पना यथार्थ रूप में साकार हुई है।19
सारांश में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय विधिशास्त्र में आमूल परिवर्तन हुए हैं तथा विधि की रूढ़िगत मान्यताओं से हटकर जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित सामाजिक एवं यथार्थवादी दृष्टिकोण का सूत्रपात हुआ है जो निश्चित ही एक प्रगतिगामी विधि दर्शन का प्रतीक है। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के० रामास्वामी ने कृष्णा स्वामी बनाम भारत संघ20 के वाद में अभिकथन किया कि न्यायाधीशों द्वारा संविधान के उपबंधों का निर्वचन (interpretation) करते समय यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए ताकि विधि के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों तथा सम-सामयिक सामाजिक समस्याओं का निदान हो सके और न्याय के प्रति लोगों की आस्था में अभिवृद्धि हो । परन्तु इसके लिए न्यायाधीशों को जनता के प्रति अधिक जवाबदेह (accountable) बनाये जाने। की आवश्यकता है ताकि न्यायपालिका के प्रति जन-साधारण का विश्वास बना रहे।
19. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1643; केशवानंद भारती बनाम के
आई० आर० 1973 सु० को० 1461; मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1980 सू० को 1789. बंध मक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ, (1984) 3 एस० सी० सी० 161; बेगलूर वाटर सप्लाई कं० बनाम ए० राजप्पा ए० आई० आर० 1978 सु० को०,548; नूर सबा खातून बनाम मोहम्मद कासिम, ए० आई० आर० 1997 स० को 3280: इनघाटी का मामला, ए० आई० आर० 1985 सु० को 1285; विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० 1997 स० को० 3011; मेनका गांधी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को 597: श्रीमती नीलावती बेहरा बनाम उडीसा राज्य, ए० आई० आर० 1993 सु० को 280; रुदलशाह बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1984 स० को० 1986; मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो, ए० आई० आर० 1985 सु० को 945: हुसैन आर खातन बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 360; उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1993 सु० को० 2178; इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1993 सु० को० 447; एयर। इंडिया बनाम नरगेश मिर्जा ए० आई० आर० 1981 सु० को 1829; सहेली बनाम पुलिस कमिश्नर दिल्ली, ए०। आई० आर० 1990 स० को 513; एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ, (1987) 4 सु० को 4163; डॉ० के० बस। बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, ए० आई० आर० 1997 मु० को० 610; नर्मदा बचाओ आन्दोलन बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 2000 सु० को 3751.
20. ए० आई० आर० 1993 सु० को० 1407.
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