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LLB 1st Law of Contract 1 Cancellation of Instruments Notes

 

LLB 1st Law of Contract 1 Cancellation of Instruments Notes:- Hi Friends LLB 1st Year / 1st Semester Law of Contract 1 (16th Edition) Part 2 (Relief Act, 1963) Chapter 6 Cancellation of Instruments) Notes and Study Material in Hindi and English Language (PDF Download) में पढ़ने जा रहे है जिसके बाद आपको LLB Question Paper and Question Answer Mock Test Paper भी शेयर किये जायेंगे |

अध्याय 6 (Chapter 6, LLB Notes)

लिखतों का रद्दकरण (Cancellation OF INSTRUMENTS)

लिखतों के रद्दकरण के सम्बन्ध में वर्तमान विधि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के भाग 2 के अध्याय 5 में धाराओं 31 से 33 तक में उपबन्धित है।

कब रद्दकरण का आदेश दिया जा सकेगा (When cancellation may be ordered) (LLB Notes and Study Material)

धारा 31 में यह स्पष्ट किया गया कि न्यायालय कब रद्दकरण का आदेश दे सकता है। धारा 31 के अनुसार

(1) कोई व्यक्ति, जिसके विरुद्ध कोई लिखत शून्य या शून्यकरणीय है और जिसको यह आशंका है कि ऐसी लिखत यदि विद्यमान छोड दी गई तो वह उसे गंभीर क्षति पहुँचा सकती है. उस शन्यकरणीय न्यायनिर्णीत कराने के लिये वाद ला सकता है. और न्यायालय स्वविवेक में, उसे ऐसा न्यायनिर्णीत कर सकता है और उसे न्यायालय को परिदत्त और रद्द किये जाने के लिये आदेश दे सकता है।

(2) यदि लिखत भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 6) के अधीन रजिस्ट्रीकृत है तो न्यायालय अपनी डिक्री की एक प्रतिलिपि ऐसे अधिकारी को भेजेगा जिसके कार्यालय में लिखत का इस प्रकार रजिस्ट्रीकरण हुआ है, और ऐसा अधिकारी अपनी पुस्तकों में अन्तर्विष्ट लिखत की प्रति पर उसके रद्दकरण का तथ्य नोट कर लेगा।

धारा 31 निरसित विनिर्दिष्ट अनतोष अधिनियम, 1877 की धारा 39 के समकक्ष है। धारा 39 में निम्नलिखित दृष्टान्त थे

(क) ‘क’ एक जहाज का स्वामी, कपटपूर्ण व्यपदेशन करके कि उसका जहाज समुद्र योग्य है एक बीमा कर्ता या निम्नांकक ‘ख’ को जहाज का बीमा करने को प्रेरित करता है। ‘ख’ पालिसी का रद्दकरण करवा सकता है।

(ख) ‘क’ एक भूमि ‘ख’ को हस्तांतरित करता है। ‘ख’ इसे, वसीयत द्वारा ‘ग’ को देता है तथा ‘ख’ की मृत्यु हो जाती है। तत्पश्चात् ‘ख’ उक्त भूमि का कब्जा प्राप्त कर लेता है तथा एक जाली दस्तावेज प्रस्तुत करता है जिसके अनुसार ‘ख’ को भूमि न्यास में उसके लिये हस्तांतरित की गई थी। ‘ग’ उक्त जाली लिखत का रद्दकरण करा सकता है।

(ग) ‘क’ यह व्यपदेश करके कि उसकी भूमि पर किरायेदार उसकी इच्छा (will) पर है, भूमि ‘ख’ के हाथ बेच देता है। उसे दिनांक 1 जनवरी, 1877 के लिखत द्वारा हस्तांतरित कर देता है, उक्त दिन के तरन्त बाद ‘क’ भूमि के एक भाग को कपटपूर्वक पट्टे द्वारा 1 अक्टूबर 1976 के पट्टेदार ‘ग’ को देता है तथा पटे को भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम के अधीन रजिस्ट्रीकृत करा देता है। ‘ख’ इस पट्टे का रहकरण करा सकता है।

(घ) ‘क’ एक जहाज ‘ख’ को बेचने तथा परिदत्त करने का करार करता है जिसका भगतान ‘क’ दारा ‘ख’ के विरुद्ध लिखे जाने वाले 30,000 रुपये के चार विनिमय पत्र को स्वीकार करके किया जायेगा। बिल लिखे जाने तथा स्वीकार किये जाने हैं परन्तु करार के अनुसार जहाज परिदत्त नहीं किया जाता है। ‘क’ एक बिल के लिये ‘ख’ के विरुद्ध वाद करता है। ‘ख’ सभी बिलों का रद्दकरण करा सकता है।

धारा 31 के लागू होने के लिये यह आवश्यक है कि संविदा लिखित हो तथा जो व्यक्ति लिखत का रद्दकरण कराना चाहता है उसके विरुद्ध संविदा शून्य या शून्यकरणीय हो इसके अतिरिक्त, उसे युक्ति-युक्त आशंका हो कि यदि लिखत को यों ही छोड़ दिया जाय तो उसे लिखत से गंभीर क्षति पहुँच सकती है। ऐसा वाद करके न्यायालय से प्रार्थना कर सकता है कि ऐसे लिखत को पहले शून्य या शून्यकरणीय न्यायनिर्णीत करे तथा आदेश द्वारा न्यायालय को परिदत्त किया जाय तथा न्यायालय उसे रद्द कर दे। धारा 31 के अन्तर्गत अनुतोष न केवल संविदा का पक्षकार प्राप्त कर सकता है वरन् वह व्यक्ति भी प्राप्त कर सकता है जिसके विरुद्ध लिखत शून्य या शून्यकरणीय है। इस प्रकार, एक ऋणदाता अपनी तथा अन्य ऋणदाताआ का आर स वाद करके ऐसे विलेख को रद्द कराने के लिये प्रार्थना कर सकता है जिसे ऋणी ने ऋणदाताओं को कपटवंचन (defraud) करने के लिये निष्पादित किया है। किसी व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध लिखत शून्य या शून्यकरणीय है गंभीर क्षति की आशंका है या नहीं यह विशिष्ट वाद की परिस्स्थितियों पर निर्भर करता है।

जहाँ कोई व्यक्ति प्रतिवादी द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख के रद्दकरण के लिये वाद करता है तथा कब्जे की पुनःस्थापना तथा स्थायी व्यादेश के अनुषंगी (Ancillary) अनुतोष की प्रार्थना करता है तो ऐसा वाद केवल सिविल न्यायालय द्वारा ही निर्णीत किया जा सकता है न कि राजस्व न्यायालय द्वारा। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अन्तर्गत ऐसा वाद स्वलिखत के रद्दकरण का वाद है तथा ऐसा वाद केवल सिविल न्यायालय में ही किया जा सकता है। स्थायी व्यादेश तथा अन्य अनुतोष मुख्य अनुषंगी अनुतोष है तथा यह सिविल न्यायालय द्वारा रद्दकरण के साथ निर्णीत किये जायेंगे।

जहाँ किसी भूमि के विक्रय के विलेख का निष्पादन हस्तान्तरणकर्ता उस समय करता है जब वह शराब के नशे के प्रभाव में है तथा मानसिक बीमारी का तथ्य चिकित्सीय प्रमाणपत्र से सिद्ध होता है तथा बहुमूल्य भूमि को बहुत कम कीमत में बेचा गया है, ऐसा विक्रय ऐसे व्यक्ति द्वारा है जो अस्वस्थ चित्त का है तथा ऐसा विलेख निरस्त किये जाने योग्य है। चित्त की अस्वस्था एक तथ्य का प्रश्न है अत: द्वितीय अपील में उक्त निर्णय में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होगी। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने चाको बनाम महादेवन (Chacko v. Mahadevan),2 के वाद में दिया था।

कौन सी लिखतें भागतः रद्द की जा सकेंगी (What instruments may be partially cancelled) (LLB Notes)

जब धारा 32 में उपबन्ध है कि जहाँ कि कोई लिखत विभिन्न अधिकारों या विभिन्न बाध्यताओं का साक्ष्य है, वहाँ न्यायालय, उचित मामले में, उसे भागतः रद्द कर सकता है और अवशिष्ट को बना रहने दे सकता है।

धारा 21 निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 40 के समकक्ष है। धारा 40 में निम्नलिखित दृष्टान्त था

‘क’ एक हुण्डी (bill) ‘ख’ को लिखता है। ‘ख’ उसे ‘ग’ को पृष्ठांकित करता है जिसके द्वारा ऐसा लगता है कि उसने ‘घ’ को पृष्ठांकित कर दिया है तथा ‘घ’ उसे ‘ङ’ को पृष्ठांकित करता है। ‘ग’ द्वारा पृष्ठांकन जाली है। ‘ग’, ‘घ’ के प्रति जाली पृष्ठांकन का रद्दकरण करवाने का अधिकार तथा शेष बिल हुण्डी अन्य मामलों में वैसे ही छोड़ सकता है।

धारा 32 के लागू होने के लिये यह आवश्यक है लिखत विभिन्न बाध्यताओं का साक्ष्य हो जो एक दूसरे से पृथक किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिये ‘क’ एक बंधक विलेख ‘ख’ के पक्ष में निष्पादित करता है। ‘क’ कपट द्वारा विलेख पुनः प्राप्त कर लेता है तथा 1200 रुपये की प्राप्ति का पृष्ठांकन कर देता है जिससे ऐसा लगे कि ‘ख’ ने उसे हस्ताक्षरित किया है। ‘ख’ उक्त पृष्ठांकन का रद्दकरण करवाने का अधिकारी है तथा शेष विलेख को अन्य मामलों में ऐसा ही छोड़ सकता है।

1. खेमा बनाम श्री भगवान, ए० आई० आर० 1995 राजस्थान 94, 97.

2. ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 2967, 2968-2969.

3. रामचन्दर बनाम गंगा सरन, (1917) 39 इलाहाबाद 103.

फायदा प्रत्यावर्तित करने या प्रतिकर दिलाने की अपेक्षा करने की शक्ति जब लिखत रद्द की जाय या उसका शून्य या शून्यकरणीय होने के आधार पर सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया जाय (Power to require benefit to be restored or compensation to be made when instrument is cancelled or is successfully resisted being void or voidable)-धारा 33 के अनुसार

(1) किसी लिखत का रद्दकरण न्यायनिर्णीत करने पर, न्यायालय उस पक्षकार से, जिसे ऐसा अनुतोष अनुदत्त किया गया है, अपेक्षा कर सकेगा कि दूसरे पक्षकार को ऐसा कोई फायदा जो उसने उस पक्षकार से प्राप्त किया हो यावत्शक्य (अथवा जहाँ तक सम्भव हो) प्रत्यावर्तित या वापस करे और उसे ऐसा प्रतिकर दे, जो न्याय द्वारा अपेक्षित हो।

(2) जहाँ कि प्रतिवादी किसी वाद का सफलतापूर्वक इस आधार पर प्रतिरोध करता है

(क) कि लिखत, जिसे वाद में उसके विरुद्ध प्रवर्तित कराना ईप्सित है, शून्यकरणीय है, वहाँ यदि प्रतिवादी ने दूसरे पक्षकार से लिखत के अधीन कोई फायदा प्राप्त किया हो तो न्यायालय उस पक्षकार को यावत्शक्य प्रत्यावर्तित करने या उसके लिये प्रतिकर देने के लिये उससे अपेक्षा कर सकता है।

(ख) कि वह करार जिस वाद में उसके विरुद्ध प्रवर्तित कराना ईप्सित है, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 11 के अधीन संविदा करने में, उसके सक्षम न होने के कारण शून्य है वहाँ यदि प्रतिवादी ने दूसरे पक्षकार से करार के अधीन कोई फायदा प्राप्त किया है तो न्यायालय ऐसा फायदा उस पक्षकार को यावत्शक्य, उस विस्तार तक प्रत्यावर्तित करने की उससे अपेक्षा कर सकेगा जहाँ तक उसे या उसकी संपदा को तद्द्वारा त धारा 33 निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धारा 41 के समकक्ष है।

धारा 33 निरसित अधिनियम की धारा 41 के उपबन्धों के अतिरिक्त भी उपबन्ध सम्मिलित करती है। निरसित धारा 41 के बारे में संदेह था कि वह अवयस्कों के प्रति लागू होगी अथवा नहीं। अतः धारा 33 (2) (ख) में व्यक्त रूप में अवयस्कों के उन करारों को सम्मिलित किया गया है जिनका वह इस आधार पर प्रतिरोध करते हैं कि सक्षम न होने के कारण उनका करार भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 के अधीन शून्य है। उक्त उपबन्ध को इस कारण शामिल किया गया क्योंकि अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन के सम्बन्ध में प्रत्यास्थापन के साम्या सिद्धान्त के मामले में भारतीय उच्च न्यायालयों में मतभेद था। यहाँ पर इस सम्बन्ध में कुछ पुराने वादों का उल्लेख वांछनीय होगा।

लेजली बनाम शील (Leslie v. Sheill)4 के वाद में लार्ड समनर ने प्रत्यास्थापन के साम्या सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। उनके अनुसार, यदि अवयस्क कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन करके कोई सम्पत्ति प्राप्त करता है तथा सम्पत्ति विनिर्दिष्ट है तो अवयस्क को ऐसी सम्पत्ति को प्रत्यावर्तित करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। परन्तु प्रत्यास्थापन एक सीमा तक ही किया जा सकता है। पुनः भुगतान नहीं कराया जा सकता क्योंकि वह तो केवल संविदा के आधार पर ही कराया जा सकता है परन्तु अवयस्क के मामले में यह संभव नहीं है क्योंकि अवयस्क संविदा करने के लिये सक्षम नहीं है अतः संविदा प्रारम्भ से ही शून्य होती है। लार्ड समनर के शब्दों में “Restitution stopped where repayment began”. लार्ड समनर ने यह भी कहा कि यदि सम्पत्ति विनिर्दिष्ट नहीं है अथवा पहचानी नहीं जा सकती तो अवयस्क को उसे प्रत्यावर्तित करने को नहीं कहा जा सकता। धन, अर्थात् नोट, करेंसी आदि पहचानी नहीं जा सकती अतः अवयस्क को उसे प्रत्यावर्तित करने को नहीं कहा जा सकता।

लेजली बनाम शील में प्रतिपादित नियम का अनुसमर्थन प्रिवी काउन्सिल ने मोहम्मद सैथेडोल अरीफीन बनाम येशओरी गार्क (Mohd. Syedol Ariffin v. Yeseiori Gark)5 ।

परन्तु खानगुल बनाम लाखा सिंह (Khan Gul v. Lakha Singh)6 के वाद में लाहौर उच्च न्यायालय की पूर्ण न्यायपीठ ने लेजली बनाम शील में लार्ड समनर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को पर्ण रूप से

4. (1914) 3 के० वी० 607.

5. ए० आई० आर० 1916 पी० सी० 242.

6. (1928) 9 लाहौर 701.

मानने से इन्कार कर दिया। खान गुल बनाम लाखा सिंह के वाद में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध भमि का कब्जा प्राप्त करने का वाद किया था। उक्त भूमि प्रतिवादी ने वादी के हाथ 17,500 रुपये में बेची थी। भूमि बेचते समय प्रतिवादी ने कपटपूर्ण दुर्व्यपदेशन किया था कि वह वयस्क है। लेकिन जब वादी ने भूमि के कब्जे का वाद किया तो प्रतिवादी ने वाद का प्रतिरोध इस आधार पर किया कि वह अवयस्क है। परीक्षण न्यायालय ने वादी के पक्ष में डिक्री कर दी। प्रतिवादी ने उक्त आदेश के विरुद्ध प्रस्तुत अपील की। पूर्ण न्यायपीठ की ओर से निर्णय देते हुए मुख्य न्यायाधीश शादी लाल ने कहा कि यह अन्यायपूर्ण होगा कि अवयस्क न केवल वह सम्पत्ति रखे जिसका उसने विक्रय किया था परन् वह धन रखे जो उसने कपट द्वारा प्राप्त किया। प्रत्यास्थापन के साम्या सिद्धान्त की अभिव्यक्ति विनिर्दिष्ट अन्तोष अधिनियम, 1877 की धारा 41 में होती है तथा धारा 41 में यह कहीं भी उल्लिखित नहीं है कि धनरूपी प्रतिकर नहीं दिया जा सकता

मुख्य न्यायाधीश शादी लाल ने कहा कि साम्या अधिकारिता न्यायालय द्वारा दोनों पक्षकारों के साथ न्याय करने तथा उनको किसी स्थिति पर पहँचाने जिसमें वे थे, की इच्छा पर आधारित है तथा सम्पत्ति का प्रत्यास्थापन करने एवं धन की वापसी कराने में सिवाय इसके सम्पत्ति को पहचाना जा सकता परन्तु नगद धन को खोजा (trace) नहीं किया जा सकता, कोई वास्तविक अन्तर नहीं है। मुख्य न्यायाधीश शादीलाल के Ploch The equitable jurisdiction is founded upon the desire of the court to justice to both the parties restoring them to the status quo ante, and there is no real difference between restoring the property and refunding the money, except that the property can be identified and cash cannot by traced.”

परन्तु आजोधिया प्रसाद बनाम चन्दनलाल (Ajodhia Prasad v. Chandanlal)7 के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने लेजली बनाम शील में नगद धन के प्रत्यास्थापन के मामले में प्रतिपादित सिद्धान्त का अनुसरण करने से इन्कार कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लेजली बनाम शील में समनर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का अनुसरण किया।

भारत के विधि कमीशन ने संविदा विधि पर अपनी रिपोर्ट में अपना मत खानगुल बनाम लाखा सिंह के वाद में मुख्य न्यायाधीश द्वारा व्यक्त मत के पक्ष में दिया। अंत में इस मतभेद का अंत भारतीय संसद ने अनुतोष अधिनियम, 1963 में धारा 33 (2) (ख) का सम्मिलित करक किया। धारा 33 (2) (ख) में मुख्य न्यायाधीश शादी लाल द्वारा व्यक्त मत को ही अपनाया गया है।

7. ए० आई० आर० 1937 इलाहाबाद 610.

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