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Law of Contract 1 Specific Performance Contract Latter Half 

 

Law of Contract 1 Specific Performance Contract Latter Half:- LLB 1st Year 1st Semester Online Free PDF Download Book Law of Contract 1 (16th Edition) Part 2 Specific Relief Act, 1963) Chapter 3 Specific Performance of Contracts Latter Half Notes Study Material (LLB Question Paper With Answer) in Hindi English Available This Post, LLB 1st Year and 2nd Year and 3rd Year Notes in PDF Download This Site Always Available.

 

 

 

LLB Notes

 

का अनतोष प्राप्त नहीं कर सकता है। प्रकथन करना ही यथेष्ठ नहीं है उसे यह भी सिद्ध करना होगा कि पूरे समय संविदा में के अपने भाग का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक था।66 जहाँ विनिर्दिष्टतः पालन के वाद में वादी का यह अभिकथन है कि दावाकृत सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी वह है क्योंकि सम्पत्ति बेनामी रूप से उसके लड़के के नाम थी, बेनामी संव्यवहार (निषेध) अधिनियम [(Benami Transactions (Prohibition) Act, 1988] की धारा 4(2) के अधीन न्यायालय इस अभिकथन की अनुमति नहीं देगा।67

यदि किसी संविदा में संविदा भंग होने पर अनुबद्धित धन देने का उपबन्ध है तो इससे अपने आप में विनिर्दिष्टतः पालन की डिक्री वर्जित नहीं हो जाती है।68 यह नियम उच्चतम न्यायालय ने एम० एल० देवेन्दर सिंह बनाम सैय्यद खाजा69 के वाद में प्रतिपादित किया था।

श्रीमती शकुन्तला देवी बनाम मेसर्स मोहनलाल अमृत राज जैन मार्केट (Smt. Shakuntala Devi v. Mohanlal Amrit Raj Jain Market, Pali)70 के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि विनिर्दिष्टतः पालन के वाद में क्रेता द्वारा शेष धन देने का प्रश्न तब उठता है जब विक्रेता संविदा में के अपने भाग का पालन कर दिया हो। यदि विक्रेता आयकर निकासी प्रमाण-पत्र (Income Tax Clearance Certificate) प्राप्त करने में असफल रहता है तो क्रेता को यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि उसकी वित्तीय स्थिति शेष धन का भुगतान करने की है। क्रेता को केवल यह दर्शित करना है वह लगातार शेष धन का भुगतान करने को उपयुक्त अवसर आने पर तैयार तथा इच्छुक था।1

जुगराज सिंह बनाम लाभसिंह (Jugraj Singh v. Labh Singh)72 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि विनिर्दिष्टतः पालन के वाद में वादी द्वारा यह सिद्ध करना आवश्यक है कि करार की तिथि से लेकर सुनवाई की तिथि तक सभी चरणों पर संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक’ था।73 परन्तु यह प्रकथन विनिर्दिष्टतः केवल क्रेता या उसके कानूनी प्रतिनिधियों को ही उपलब्ध है। यह उसका व्यक्तिगत अधिकार है, तत्पश्चात (Subsequent) क्रेताओं को यह अधिक नहीं है।74

जहाँ साक्ष्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि वादी अपने भाग की संविदा का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक नहीं था वह विनिर्दिष्टतः पालन की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है।75

वादी जहाँ यह अभिकथन करता है कि वह उप-रजिस्ट्रार के कार्यालय में विक्रय लेख निष्पादित करने तथा रजिस्ट्रीकृत करवाने उपस्थित था इससे यह दर्शित होता है कि वह अपने भाग की संविदा का पालन करने के लिये तैयार तथा इच्छुक था परन्तु यह अभिकथन करना आवश्यक नहीं कि उसके पास नगद धन भी तैयार था।76 जहाँ क्रेता यह प्रकथन करता है कि उसने विक्रय विलेख के निष्पादन हेतु रजिस्ट्रीकृत नोटिसें भेजी तथा विक्रय विलेख हेतु फीस लागत आदि का भुगतान तथा विक्रय प्रतिफल का शेष धन भी देने को

66. श्रीमती गोपाल देवी बनाम श्रीमती कान्ता भाटिया, ए० आई० आर० 1994 दिल्ली 349, 358.

67. तत्रैव, पृष्ठ 351.

68. श्रीमती शकुन्तला देवी बनाम मेसर्स मोहन लाल अमृत राज जैन मार्केट पाली, ए० आई० आर० 1994 राज० 259, 263 265.

69. ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 2457.

70. ए० आई० आर० 1994 राजस्थान 259.

71. तत्रैव, 265-266%; उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के गनेश प्रसाद बनाम सरस्वती देवी, ए० आई० आर० 1982 इलाहाबाद 47 वाद का अनुसरण किया।

72. ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 945.

73. तत्रैव, पृष्ठ 946, न्यायालय ने प्रिवी काउंसिल के वाद अर्देशिर एस० भामा बनाम फ्लोरा सासून, ए० आई० आर० 1928 पी० 208 तथा उच्चतम न्यायालय के वाद गोमाथीनवगम पिल्लई बनाम पलानी स्वामी नादर, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 868 में दिये गये निर्णयों का अनुसरण किया।

74. तत्रैव

75. एन० पी० थिरूगनमन् बनाम डॉ० जगन मोहन राव, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 116, 117-18.

76. सुखवीर सिंह बनाम ब्रिज पाल, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 2510-2511

तैयार है। यही बातें उसने न्यायालय के समक्ष कही, उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि क्रेता ने न केवल प्रकथन किया वरन यह सिद्ध कर दिया कि वह संरिमा के अपने भाग का पालन करने के लिये तैयार तथा इच्छुक है।7

तैयारी (Readiness) के अर्थ होते हैं वादी की पालन करने की क्षमता जिसमें उसकी क्रय कीमत अदा करने की वित्तीय स्थिति भी शामिल है। अतः जहाँ संविदा के पक्षकार दो विभिन्न नगरों में निवास करते हैं तथा करार में यह शर्त या निबन्धन है कि भुगतान रेखांकित (Crossed cheque) बैंक ड्राफ्ट जो विक्रेता के पक्ष में हो, द्वारा होना चाहिये, यह शर्त संविदा की आवश्यक शर्त मानी जायेगी तथा इसके सिवाय किसी अन्य ढंग से तैयार, संविदा का उसके भाग का पालन नहीं माना जायेगा, यह विशेषकर तब जबकि वादी ने यह सिद्ध नहीं किया है कि क्रय कीमत का भुगतान करने की स्थिति में है।78

जहाँ कोई अधिनियम यह विहित करता है कि कोई तथ्य का अभिवचन किया जाय तो यह अभिकथन किसी भी रूप में हो सकता है। जब तक कि अधिनियम कोई विशिष्ट रूप विहित नहीं करता है यह किसी भी रूप में हो सकता है। धारा 16(ग) में कोई विशिष्ट रूप विहित नहीं है। इसके अनुसार, वादी को केवल यह अभिवचन करना है कि उसने संविदा के अपने भाग का पालन किया है या पालन करने में सदैव तैयार एवं इच्छुक’ रहा है। इस आवश्यकता का पालन सार में होना चाहिये न कि अक्षरशः एवं रूप में। यह नियम उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायमूर्तियों की खण्ड पीठ ने सैय्यद दस्तगीर बनाम टी० आर० गोपालकृष्णा सेट्टी (Syed Dastgir v. T. R. Gopalkrishna Setty)79 के वाद में किया। इस वाद में वादी ने अभिवचन किया था कि उसने संविदा के अन्तर्गत सभी धन का भुगतान कर दिया था तथा प्रतिवादी ने इसे स्वीकार भी किया सिवाय इसके कि 120 रुपये का भगतान शेष है। इस 120 रुपयों के बारे में विनिर्दिष्ट अभिवचन किया था कि उसने 120 रुपये न्यायालय में निविदत्त किया है। अतः वादी का भिवचन न केवल यह दर्शित करता है कि उसने सविदा में अपने भाग के दायित्व का पालन किया है वरन् संविदा के अन्तर्गत उसके द्वारा पूर्ण धन को निविदत्त करके अपने भाग का पूर्ण पालन किया है। अत: यह धारा 16(ग) की ‘रजामन्द एवं इच्छुक’ की आवश्यकता को पूरा करता है।80

जो वादी यह अभिवचन करने में असमर्थ रहता है कि वह संविदा के अपने भाग का पालन करने के लिये तैयार एवं इच्छुक’ है उसके पक्ष में विनिर्दिष्ट पालन का आदेश नहीं दिया जा सकता है। यह अभिवचन कि वादी संविदा के अपने भाग का पालन करने के लिये तैयार एवं इच्छुक’ नहीं है। विक्रेता/प्रतिवादी तथा तत्पश्चाती क्रेताओं तथा यहाँ तक कि तत्पश्चाती क्रेताओं के विधिक प्रतिनिधियों को भी उपलब्ध है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायमूर्तियों की खण्ड पीठ ने राम अवध (मृतक) अपने विधिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाम अक्षयवर दुबे (Ram Avadh (dead) by L.R. V. Achhaibar Dubey)81 के वाद में दिया।

जहाँ वादी प्रतिवादी को कुछ धन उधार देता है तथा करार करता है कि वह प्रतिवादी आवंटिती के एवज में सरकार को ब्लाक्स की कीमत, ब्याज तथा किराये का बकाया अदा करेगा तथा इसके एवज में प्रतिवादी वादी को एक ब्लाक देगा। इसके अतिरिक्त, यदि प्रतिवादी उधार धन देने में असफल रहता है तो प्रतिवादी वादी को दूसरा ब्लाक देगा। वादी सरकार को देय सभी धन नहीं अदा करता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वादी संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार एवं इच्छुक’ है। अतः प्रतिवादी को सारको काफी धन उस धन से देना पड़ा जो उसने वादी से उधार लिया था। यह धन उसे सरकार को ब्लाकों का आवंटन कराने हेतु देना पड़ा था। अतः प्रतिवादी को यह निर्देश नहीं दिया जा सकता कि वह वादी 82 को दसरा ब्लाक अन्तरित इस आधार पर करे कि वह उधार लिया धन देने में असफल रहा |82

77 पाण्डरंग गनपत तानाव डे बनाम गनपत भैरु कदम, ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 463, 465.

78. विशम्भर नाथ अग्रवाल बनाम किशन चन्द, ए० आई० आर० 1998 इलाहाबाद 195, 205.

79. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 3029.

80. तत्रैव, 3032-3033.

81. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 860, 861.

82 अजायब सिंह बनाम श्रीमती तुलसी देवी, ए० आई० आर० 2000 एस० सी०2493, 2498-2501.

जहाँ सम्पत्ति के करार के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में ऐसा लगा कि वाद वापस ले लिया गया तथा तत्पश्चात् विक्रय के लिये एक नया करार किया गया परन्तु बाद में यह स्पष्ट हुआ कि वाद वापस नहीं लिया गया था वरन् उसे संशोधित किया गया ऐसी परिस्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि वादी करार के अपने भाग का पालन करने के लिये तैयार तथा इच्छुक था 83

संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में जहाँ यह अभिवचन नहीं किया गया है कि यदि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष दिया जाता है तो कठिनाई होगी तथा यह प्रश्न (issue) नहीं बताया गया है कि वादी क्रेता को विनिर्दिष्ट पालन के स्थान पर धन की डिक्री देकर प्रतिकर दिया जा सकता है तथा नीचे के न्यायालयों का समवर्ती निर्णय यह था कि वादी संविदा के अपने भाग के पालन के लिये तैयार एवं इच्छुक, यह नया अभिवचन स्वीकार किया जा सकता। विनिर्दिष्ट पालन से एवज में धन की डिक्री देकर वादी क्रेता को. प्रतिकर दिया जा सकता है।84

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 16(ग) में यह अभिवचन करना तथा सिद्ध करना आज्ञात्मक (mandatory) है कि वादी संविदा के अपने भाग का पालन करने के लिये तैयार है। जहाँ कोई वादी न तो यह अभिवचन करता है तथा न ही इसे सिद्ध करता है करार की तिथि से तीन वर्ष के अन्दर न ही वादी प्रतिवादी से विक्रय के विलेख को निष्पादित करने को कहता है तथा केवल यह अभिकथित करता है कि नोटिस दिये जाने के बावजूद प्रतिवादी ने विक्रय विलेख निष्पादित नहीं किया, इससे धारा 16(ग) की आज्ञापक आवश्यकता पूर्णतया संतुष्ट नहीं होती है।85

जहाँ किसी विक्रय के करार के मामले में क्रेता विधिक नोटिस द्वारा संविदा को विखण्डित करता है तथा अग्रिम धन की वापसी के लिये वाद करता है, परीक्षण न्यायालय उसके पक्ष में डिक्री पारित करता है, परन्तु वाद में वह स्वयं ही डिक्री के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका दायर करता है, इन परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह संविदा के अपने भाग का पालन करने को तैयार एवं इच्छुक है, अतः उसके पक्ष में विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित नहीं किया जा सकता है।86

किसी सम्पत्ति को बेचने या पट्टे या किराये पर देने की ऐसे व्यक्ति द्वारा संविदा जिसका सम्पत्ति पर कोई हक न हो, विनिर्दिष्टतः प्रवर्तनीय नहीं है (Contract to sell or let property by one who has no title, not specifically enforceable)-धारा 17 के अनुसार-

(1) किसी स्थावर सम्पत्ति को बेचने अथवा पट्टे या किराये पर देने की संविदा ऐसे विक्रेता अथवा पट्टेदार के पक्ष में विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित नहीं की जा सकती-

(क) जिसने यह जानते हुये कि सम्पत्ति पर उसका हक नहीं है, उसे बेचने की या पट्टे पर देने की संविदा की है,

(ख) जिसने यद्यपि इस विश्वास के साथ संविदा की थी कि सम्पत्ति पर उसका हक अच्छा है परन्तु जो विक्रय के या पट्टे के पूरा करने के लिये पक्षकारों या न्यायालय द्वारा नियत समय पर क्रेता या पट्टेदार को युक्तियुक्त संदेह-रहित हक नहीं दे सकता।

(2) उपधारा (1) के उपबन्ध, जंगम सम्पत्ति के विक्रय या अवक्रय की संविदाओं पर भी यावत् शक्य लागू होंगे।

धारा 17 निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 25 के समकक्ष है। धारा 17 तथा निरसित धारा 25 में मख्य अन्तर यह है कि क्लाज (ग) को हटा दिया गया है। धारा 25 में निम्नलिखित दृष्टान्त थे

(i) ‘क’ ‘ग’ के प्राधिकार के बिना ‘ख’ को एक ऐसी सम्पत्ति बेचने की संविदा करता है जो ‘क’ जानता है कि ‘ग’ की है। ‘क’ ऐसी संविदा का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन नहीं करा सकता, चाहे ‘ग’ संविदा की पुष्टि ही क्यों न कर दे।

83. बिशन दयाल ऐण्ड सन्स बनाम उड़ीसा राज्य, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 544, 549.

84. ए. मैरिया एन्जिनिलीग (मृतक) बनाम ए० जी० बालकीस बी, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 2385-2386.

85. मंजूनाथ आनन्दप्पा उर्फ शिवप्पा हंसी बनाम तमन्नासा, ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 1391, 1394, 1397.

86. दुखराज डी० जैन बनाम जी० गोपाल कृष्णा, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 3504, 3508.

(ii) ‘क’ अपनी भूमि वसीयत द्वारा न्यासियों को देता है तथा साथ में घोषित करता है कि वह ‘ख’ की लिखित सम्मति प्राप्त करके सम्पत्ति को बेच सकते हैं। ‘ख’ ऐसे विक्रय के प्रति एक सामान्य भावी लिखित सम्मति प्रदान कर देता है। तत्पश्चात् न्यासी ‘ग’ के साथ भूमि बेचने की संविदा करते हैं। ‘ग’ संविदा का पालन करने से इन्कार कर देता है। न्यासी इस संविदा के विनिर्दिष्टतः पालन का प्रवर्तन तब तक नहीं करा सकता जब तक वह ‘ग’ से इस विशिष्ट विक्रय के लिये ऐसी सम्मति नहीं प्राप्त कर लेता जो संदेह रहित हो।

(iii) ‘क’ एक ऐसी भूमि को ‘ज’ को बेचने की संविदा करता है जो उसके कब्जे में है। बाद में जाँच से पता चलता है कि ‘क’ का दावा है कि वह ‘ख’ का उत्तराधिकारी है तथा ‘ख’ देश छोड़कर कई वर्ष पहले चला गया था तथा सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि उसकी मृत्यु हो गई परन्तु इस बात का समुचित साक्ष्य नहीं है। ‘क’ ‘ज’ को विनिर्दिष्टतः पालन के लिये विवश नहीं कर सकता।

फेरफार किए बिना अप्रवर्तन (Non-Enforcement except with variation)-विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 18 में फेरफार किये बिना अप्रवर्तन के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रावधान है___जहाँ कि वादी ऐसी किसी संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन कराना चाहता है, जिसमें फेरफार होना प्रतिवादी अभिकथित करता है, वहाँ वादी, ऐसे अभिकथित फेरफार के बिना पालन सिवाय निम्नलिखित दशाओं में अभिप्राप्त नहीं कर सकता, अर्थात्-

(क) जहाँ कि ऐसी लिखित संविदा का पालन ईप्सित है, कपट, तथ्य की भूल अथवा दुर्व्यपदेशन के कारण, अपने निबन्धनों और प्रभाव में उससे भिन्न हो जिसका पक्षकारों ने करार किया था अथवा पक्षकारों के बीच करार किये गये वे सारे निबन्धन अन्तर्विष्ट न हों जिनके आधार पर प्रतिवादी ने संविदा की थी,

(ख) जहाँ कि पक्षकारों का उद्देश्य ऐसा कोई विधिक परिणाम उत्पन्न करना था जो वह संविदा, जैसी वह विरचित की गई है, पैदा करने के लिये परिकल्पित न हो,

(ग) जहाँ कि संविदा के निष्पादन के बाद पक्षकारों ने उसके निबन्धनों में फेरफार कर दिया हो।

उदाहरणार्थ, ‘क’ ‘ख’ के विरुद्ध एक ऐसी लिखित संविदा का विनिर्दिष्टत: पाल करवाने के लिये एक वाद करता है जिसके अन्तर्गत ‘ख’ को निवास हेतु एक मकान का क्रय करना था। ‘ख’ यह सिद्ध करता है कि संविदा में एक अहाता भी सम्मिलित था परन्तु संविदा ऐसी विरचित की गई कि यह संदेहात्मक है कि संविदा में उक्त अहाता सम्मिलित है या नहीं। यदि ‘क’ ‘ख’ द्वारा अभिकथित फेरफार के साथ लागू करवाने को नहीं कहता है तो न्यायालय संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन करवाना अस्वीकार कर देगा। दूसरे शब्दों में ऐसी संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन उसी दशा में हो सकता है जब ‘क’, ‘ख’ द्वारा अभिकथित फेरफार को, स्वीकार कर ले।87 इसी प्रकार, ‘क’, ‘ख’ एवं ‘ग’ एक लिखित संविदा पर हस्ताक्षर करते हैं जिसके अन्तर्गत वे ‘घ’ को 1000 रुपये देने हेतु, बांड भरते हैं। बाद में, ‘घ’ ‘क’ ‘ख’ एवं ‘ग’ तीनों में से प्रत्येक से 1000 रुपये प्राप्त करने का वाद करता है। ‘क’ ‘ख’ एवं ‘ग’ यह सिद्ध कर देते हैं कि ‘प्रत्येक शब्द भूल से लिख दिया गया था। वास्तव में उनका उद्देश्य ‘घ’ हेतु संयुक्त रूप से 1000 रुपये का बांड भरना था। ‘क’ ‘ख’ और ‘ग’ द्वारा अभिकथित फेरफार के साथ संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन हो सकता है अन्यथा न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन से इन्कार कर देगा।88

धारा 18 को लाग करने के लिये यह आवश्यक है कि संविदा वैध तथा पूर्ण हो। यदि संविदा स्वयं में ही प्रवर्तनीय नहीं है तो वादी को फेरफार सिद्ध करने का अधिकार नहीं होगा।89

87. निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 में दिया गया दृष्टान्त ।

88. तत्रैव, गार्डन बनाम हर्टफोट (1817) मद्रास 106 को भी देखें।

89. देखें : नारायण पटरी बनाम अँखे नारायण, आई० एल० आर० 12 कलकत्ता 12.

फेरफार सिद्ध करने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि फेरफार लिखित संविदा द्वारा हो। उदाहरण के लिये. ‘क’ ‘ख’ को एक मकान किराये पर देने हेतु एक लिखित संविदा करता है जिसके अन्तर्गत वह 100 रुपये महीने पर मकान किराये पर देने का करार करता है तथा करार में यह भी निबन्ध है कि वह काम लायक उसकी मरम्मत करायेगा। लेकिन मकान मरम्मत योग्य नहीं है अत: ‘ख’ की सम्मति से वह मकान गिरा देता है तथा उसके स्थान पर एक नया मकान बनाता है। ‘ख’ एक मौलिक करार द्वारा 120 रुपये प्रति माह किराया देना स्वीकार करता है। तत्पश्चात ‘ख’ लिखित संविदा के पालन हेतु वाद करता है। वह मौखिक फेरफार के बिना ‘ख’ विनिर्दिष्ट पालन नहीं करवा सकता है।90

जहाँ किसी भूमि के विक्रय के करार में भूमि का एक भाग असंक्रमणीय (inalienable) हो जाता है क्योंकि उसे राज्य अभिप्राप्त कर लेता है तथा एक भाग उसमें से अधिकतम सीमा से ज्यादा होने के कारण चला जाता है, क्रेताओं का यह अभिवचन कि वह विक्रय विलेख शेष भूमि के लिये बिना कीमत को निष्पादन करने के लिये तैयार है स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह स्थितियाँ धारा 18 के अन्तर्गत नहीं आती हैं।91

पक्षकारों के तथा उनसे व्युत्पन्न पश्चात्वर्ती हक के अधीन दावा करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध अनुतोष elief against parties and persons claiming under them by subsequent title)-धारा नुसार, इस अध्याय अर्थात् अधिनियम भाग 2 के अध्याय 2 द्वारा उपबन्धित के सिवाय संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन निम्नलिखित के विरुद्ध कराया जा सकता है

(क) उसमें का कोई पक्षकार,

(ख) ऐसे मूल्यार्थ अन्तरिती के सिवाय, जिसने अपना धन सद्भावपूर्वक तथा मूल संविदा की सूचना के बिना दिया हो, ऐसा कोई व्यक्ति, जो व्युत्पन्न ऐसे हक के अधीन दावा कर रहा है जो संविदा के पश्चात् उत्पन्न हुआ हो,

(ग) ऐसा कोई व्यक्ति जो ऐसे हक के अधीन दावा कर रहा है जो हक, यद्यपि संविदा पूर्व का और वादी के ज्ञान में था, तथा प्रतिवादी द्वारा विस्थापित किया जा सकता था,

(घ) जब किसी कम्पनी ने कोई संविदा की है और उसके पश्चात् किसी दूसरी कम्पनी में समामेलित हो गई हो तब ऐसे समामेलन से उद्भूत नई कम्पनी,

(ङ) जबकि किसी कम्पनी ने उसके निगमन के पूर्व कोई संविदा कम्पनी के प्रयोजन के लिये की थी और संविदा ऐसी है जो निगमन के निबन्धनों द्वारा समर्थित हो, तब वह कम्पनी :

परन्तु यह तभी होगा जब कम्पनी ने संविदा को स्वीकार कर लिया हो और संविदा के दूसरे पक्षकार को ऐसा स्वीकार करना संसूचित कर दिया हो।

धारा 19 निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धारा 27 के समकक्ष है। निरसित धारा 27 के दृष्टान्तों का उल्लेख यहाँ वांछनीय होगा। धारा 27 में निम्नलिखित दृष्टान्त थे-

(क) ‘क’ ‘ख’ से संविदा करता है कि एक निश्चित भूमि को वह एक विशिष्ट दिन हस्तांतरित कर देगा। उक्त दिन भूमि हस्तांतरित किये बिना तथा बिना वसीयत किये ‘क’ की मृत्यु हो जाती है। ‘ख’ ‘क’ के उत्तराधिकार या हित में अन्य प्रतिनिधि को संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करने के लिये विवश कर सकता है।

(ख) ‘क’ ‘ख’ के हाथ एक निश्चित भूमि 5000 रुपये में बेचने की संविदा करता है। परन्तु बाद में ‘क’ वही भूमि ‘ग’ को 6000 रुपये में हस्तांतरित कर देता है। ‘ग’ को मूल संविदा की जानकारी है। ‘ख’ ‘ग’ के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन करा सकता है।92

90. निरसित 1877 के अधिनियम का दृष्टान्त।

91. के० नरेन्द्र बनाम रिवेरा अपार्टमेन्टस लि०, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 2309, 2318.

92. यह दृष्टान्त पाटर बनाम सान्डर्स (1846) 77 आर० आर० 1 के तथ्यों पर आधारित है।

(ग) ‘क’ एक भूमि ‘ख’ के हाथ 5000 रुपये में बेचने की संविदा करता है। ‘ख’ भूमि का कब्जा प्राप्त कर लेता है। बाद में ‘क’ उसी भूमि को ‘ग’ को 6000 रुपये में बेच देता है। ‘ग’ भूमि में ‘ख’ के हित के बारे में कोई पूंछताछ नहीं करता है। ‘ख’ द्वारा भूमि पर कब्जा ‘ग’ के लिये उसके हित को प्रभावित करने के लिये समुचित सूचना है तथा वह ‘ग’ के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन करा सकता है।93

(घ) ‘क’ 1000 रुपये के प्रतिफल पर कुछ निश्चित भूमि ‘ख’ को उत्तरदान करने की संविदा करता है। इसके तुरन्त बाद ‘क’ की, बिना वसीयत किए मृत्यु हो जाती है तथा ‘ग’ उसकी सम्पत्ति का प्रशासन करता है। ‘ख’ ‘ग’ के विरुद्ध संविदा का विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन करा सकता है।

(ङ) ‘क’ कुछ निश्चित भूमि ‘ख’ को बेचने की संविदा करता है। संविदा पूर्ण करने के पूर्व ‘क’ पागल हो जाता है तथा ‘ग’ को उसका संरक्षक नियुक्त किया जाता है। ‘ख’ ‘ग’ के विरुद्ध संविदा का विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन करा सकता है।

(च) ‘क’ किसी सम्पत्ति का जीवन पर्यन्त किरायेदार है तथा शेष के लिये ‘ख’ किरायेदार उस व्यवस्थापन के अन्तर्गत होता है जिसके अधीन ‘क’ जीवन भर के लिये किरायेदार होगा। ‘क’ ‘ग’ के हाथ सम्पत्ति को बेचने की संविदा करता है। ‘ग’ को उक्त व्यवस्थापन की जानकारी है। विक्रय पूर्ण होने के पहले ही ‘क’ की मृत्यु हो जाती है। ‘ग’ ‘ख’ के विरुद्ध संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन करा सकता है।

(छ:) ‘क’ तथा ‘ख’ एक भूमि के संयुक्त किरायेदार या काश्तकार हैं तथा इनमें से कोई भी अपना अविभाजित अर्धांश अपने जीवनकाल में अन्यसंक्रमण (alienate) कर सकता है परन्तु उक्त अधिकार के अधीन, यह अधिकार उत्तरजीवी को मिलेगा। ‘क’ अपने अर्धांश भाग ‘ग’ को बेचने की संविदा करता है तथा उसकी मृत्यु हो जाती है। ‘ग’ ‘ख’ के विरुद्ध संविदा का विनिर्दिष्ट पालन प्रवर्तन करा सकता है।

जहाँ दावाकृत भूमि पर वादी का वास्तविक कब्जा कई वर्षों से है धारा 19(ख) के अन्तर्गत यह माना जायगा कि सम्पत्ति के अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 3 के स्पष्टीकरण 2 के अनुसार प्रतिवादी को इसकी आन्वयिक (Constructive) सूचना थी। इसके अतिरिक्त विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 19(ख) में दिये गये अपवाद को सिद्ध करने का भार पश्चात्वर्ती क्रेता के ऊपर है।95

जहाँ स्थावर सम्पत्ति के अन्तरण के करार के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में अन्तरिती यह दावा करता है कि उसे पूर्व करार की कोई सूचना नहीं थी, यह सिद्ध करने का भार उसी पर होगा लेकिन केवल या अस्वीकार करना ही काफी नहीं है। इस भार का उन्मोचन साक्ष्य द्वारा किया जा सकता है।96 यदि साक्ष्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्पश्चातवर्ती अन्तरिती को विक्रय विलेख के निष्पादन के पहले मूल करार की सचना थी तो वह सद्भाव वाला अन्तरिती नहीं माना जायगा तथा वह अपने पक्ष में विक्रय विलेख का विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त नहीं कर सकता है।97 जहाँ क्रेता विक्रेता के कथन पर भरोसा करते हैं तथा किरायेदार के कब्जे के बारे में स्वयं कोई जाँच-पड़ताल नहीं करते हैं यह माना जायगा कि उन्हें पूर्व करार की सूचना थी।98

93. इसके लिये डेनियल्स बनाम डेविड्सन् (1809) 10 आर० आर० 171 का वाद भी देखें।

94. देखें : रि डाइक इस्टेट (1869) एल० आर० 7.

95. मरलीधर बापूजी बाल्वे बनाम यालप्पा लालू चौगुले, ए० आई० आर० 1994 बम्बई 358, 368-370.

96 जोगिन्दर सिंह बनाम निधान सिंह, ए० आई० आर० 1996 पंजाब एवं हरयाणा 120, 128-129..

97. तत्रैव, पृष्ठ 128-129, 132.

98 राम निवास(मतक) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाम श्रीमती बानो तथा अन्य, ए० आई० आर० 2000 एस० सी०2921.09. आर० के० मोहम्मद उबेदुल्लाह बनाम हाजी वहाब (मृतक), ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 1658 को भी देखें।

इन्डियन बैंक बनाम के० उषा (Indian Bank v. K. Usha)99 के वाद में प्रत्यर्थी अन्तरक बैंक के मतक कर्मचारियों के उत्तराधिकारी तथा विधिक प्रतिनिधि थे। अन्तरक बैंक (बैंक ऑफ थन्जाव्यर लि0) का समामेलन (amalgamation) अन्तरिती बैंक के साथ बैंकिंग रेगुलेशन अधिनियम, 1949 की धारा 45 के अन्तर्गत हो गया था। प्रत्यर्थी अनुकम्पा (compassion) के आधार पर नियक्ति की माँग कर रहे थे। उसकी यह माँग अन्तरक बैंक के कर्मचारी संघ का अन्तरक बैंक प्रबन्धकों के मध्य हुये करार पर आधारित थी। अपीलार्थी बैंक समामेलित बैंक (amalgamated Bank) के रूप में उभरा था। अत: उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 19(घ) के अन्तर्गत समामेलित बैंक अन्तरण बैंक तथा उसके कर्मचारी संघ के मध्य हुये करार से उत्पन्न दायित्व को पूरा करने को बाध्य होगा।100

जहाँ प्रतिवादी ने वादी के साथ सम्पत्ति बेचने का एक करार किया तथा बाद में प्रतिवादी ने उसी सम्पत्ति को बेचने का दूसरा करार किया तथा पश्चात्वर्ती क्रेता बिना सूचना के प्रतिफल देवर सद्भाव में खरीदने वाला था, वादी पश्चात्वी क्रेता के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।101

कस्तूरी बनाम ईयामपेरूमल तथा अन्य (Kasturi v. Iyyamperumal and other)102 के वाद में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायमूर्तियों की पीठ ने धारित किया है कि विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में मामला क्रेता एवं विक्रेता के मध्य होता है तथा न्यायालय यह निर्णीत नहीं कर सकता है। तीसरे या अन्य पक्षकार ने स्वामित्व एवं संविदा की सम्पत्ति पर कब्जा किया है क्योंकि विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये यह प्रश्न तत्संगत नहीं होगा। विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में कोई व्यक्ति जो जुड़ना चाहता है उसे दो परीक्षण (tests) सन्तुष्ट करने होंगे-(1) ऐसे पक्षकार जिसके सम्बन्ध में विवाद है, उसके विरुद्ध अनुतोष प्राप्त करने का कोई अधिकार होना चाहिये; (2) ऐसे पक्षकार की अनुपस्थिति में कोई प्रभावकारी डिक्री पारित नहीं की जा सकती है। अतः अन्य पक्षकार या अजनबियों के विरुद्ध जिन्होंने संविदा की सम्पत्ति संविदा होने के पश्चात् विक्रेता से नहीं खरीदी है वह आवश्यक पक्षकार नहीं है क्योंकि क्रेता एवं विक्रेता के मध्य करार से उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।103

विनिर्दिष्ट पालन के सम्बन्ध में न्यायालय का विवेकाधार और शक्तियाँ (Discretion and Powers of Court in respect of Specific Performance) (LLB Study Material Notes)

आधुनिक नियम यह है कि विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है तथा इस विवेक का प्रयोग करते समय न्यायालय वाद की परिस्थितियाँ, पक्षकारों का आचरण तथा उक्त संविदा में उनके हितों को ध्यान में रखता है।104 इसका मुख्य कारण यह है कि विनिर्दिष्ट पालन की विधि का विकास साम्या न्यायालयों द्वारा किया गया था तथा साम्या न्यायालयों में न्याय न्यायालय के विवेकानसार होता था। विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष न्यायालय से अधिकार के रूप में नहीं माँगा जा सकता तथा न ही इस आधार पर न्यायालय को अनुतोष प्रदान करने को विवश किया जा सकता है कि ऐसा करना विधिपूर्ण होगा। चूँकि इस अनुतोष का विकास साम्या न्यायालयों ने किया था, अपने विवेक का प्रयोग करते समय न्यायालय वाद की परिस्थितियों, पक्षकारों के आचरण आदि पर ध्यान रखते हुये तय करते हैं। वाद के पक्ष में अपने विवेक का प्रयोग करें अथवा नहीं। यदि न्यायालय यह देखता है कि वादी का स्वयं का आचरण अच्छा या स्वच्छ नहीं है अथवा उसने स्वयं कोई अनुचित कार्य किया है तो न्यायालय वादी के पक्ष में अपने विवेक का प्रयोग नहीं करेगा। यह विवेक मनमाना (arbitrary) नहीं हो सकता तथा स्थापित नियमों एवं सिद्धान्तों से नियन्त्रित होता है। इंग्लैण्ड के समान भारत में कभी भी पृथक साम्या न्यायालय नहीं थे। अत: ब्रिटिश काल में जब भी साम्या विधि को लागू किया गया तो उसे अधिनियम द्वारा ही लाग किया गया।

99. ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 866.

100. तत्रैव, पृष्ठ 876.

101. जगन नाथ बनाम जगदीश, ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 2028, 2038

102. ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 2813..

103. तत्रैव, पृष्ठ 2819, 2821.

104. आक्सफोर्ड बनाम प्रोवान्ड (1868) एल० आर० 2 पी० सी० 135, 151.

अत: विनिर्दिष्ट पालन के सम्बन्ध में न्यायालय के विवेक तथा शक्तियों को विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धारा 22 द्वारा लागू किया गया। बाद में 1877 के अधिनियम को निरसित करके विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 पारित किया गया तथा इस सम्बन्ध में विधि को धारा 20 में रखा गया। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 के अनुसार

(1) विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री करने की अधिकारिता वैवेविक है और न्यायालय ऐसा अनुतोष प्रदान करने के लिये आबद्ध नहीं है केवल इस कारण कि ऐसा करना विधिपूर्ण है किन्तु न्यायालय का यह विवेकाधार मनमाना नहीं वरन सुस्थ (sound) और युक्तियुक्त, न्यायिक सिद्धान्तों द्वारा मार्गदर्शित तथा अपील न्यायालय द्वारा युक्तियुक्त है।

(2) निम्नलिखित दशाएं ऐसी हैं जिनमें न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री न करने के अपने विवेकाधिकार का उचिततया प्रयोग कर सकेगा-

(क) जहाँ कि संविदा के निबन्धन या संविदा करने के समय पक्षकारों का आचरण या अन्यपरिस्थितियाँ जिनके अधीन संविदा की गई है, ऐसी हैं कि संविदा शून्यकरणीय नहीं है, तथापि वादी को प्रतिवादी के ऊपर अऋजु (unfair) फायदा देती है, अथवा

(ख) जहाँ कि संविदा का पालन प्रतिवादी को ऐसे कष्ट में डाल देगा जिसकी वह पहले से कल्पना नहीं कर सका था और उसका अपालन वादी को वैसे किसी कष्ट में नहीं डालेगा,

(ग) जहाँ कि प्रतिवादी ने संविदा ऐसी परिस्थितियों के अधीन की हो जिनसे यद्यपि संविदा शून्यकरणीय तो नहीं हो जाती किन्तु उसके विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन असाम्यिक हो जाता है।

स्पष्टीकरण 1-प्रतिफल की अपर्याप्तता मात्र का यह तथ्य मात्र कि संविदा प्रतिवादी के लिये दुर्भर या अपनी प्रकृति से ही अदूरदर्शी है, खण्ड (क) के भीतर अऋजु फायदा अथवा (ख) के अर्थ के भीतर कष्ट न समझा जायगा।

स्पष्टीकरण 2- यह प्रश्न कि संविदा का पालन खण्ड (ख) के अर्थों के भीतर प्रतिवादी को कष्ट में डाल देगा या नहीं, संविदा के समय विद्यमान परिस्थितियों के प्रति निर्देशन से अवधारित किया जायगा सिवाय उन दशाओं के जिनमें कि कष्ट संविदा के पश्चात् वाद द्वारा किये गये किसी कार्य के परिणामस्वरूप हुआ हो।

(3) किसी ऐसी दशा में जहाँ वादी ने विनिर्दिष्टतः पालनीय संविदा के परिणामस्वरूप सारवान कार्य किये हैं या हानियाँ उठाई हैं वहाँ विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री करने के विवेकाधिकार का उचित प्रयोग कर सकेगा।

(4) न्यायालय किसी पक्षकार को संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराने से इन्कार केवल इस आधार पर नहीं करेगा कि संविदा दूसरे पक्षकार की प्रेरणा पर प्रवर्तनीय नहीं है।

धारा 20 के अन्तर्गत विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। न्यायालय इस विवेक का प्रयोग न्याय, साम्या तथा सद् अन्त:करण के सिद्धान्तों के अनुसार करता है। न्यायालय को वाद के सभी तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये। न्यायालय को मुकदमेबाजी के पीळे हेत को भी देखना चाहिये। न्यायालय को यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि वह वादी को अनचित लाभ पहुँचाकर अत्याचार का यंत्र न बन जाये।105

मैडम सेटी सत्यनारायण बनाम जी० येलोगी राव (Madam Setty Satyanarayna v. G. Yellogi Ran)106 के वाद में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने अपने निर्णय में विधि को स्पष्ट करते हुये कहा कि न तो यह साभव है तथा न ही वांछनीय है कि यह बताया जा सके कि किन-किन परिस्थितियों में न्यायालय अपने

105 गोबिन्द राम बनाम ज्ञान चन्द, ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 3106, 3107; पराकुलन वीटील जोसेफ का पत्र मैथ्य बनाम नेदमबरा करतील कीसोकि, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 2328 का अनुसरण करते हये।

106. (1965) 2 एस० सी० आर० 221, 230.

विवेक का प्रयोग वादी के विरुद्ध करेगा। परन्तु परिस्थितियाँ ऐसी होनी चाहिये कि वादी का व्यपदेशन या आचरण या उपेक्षा ऐसा हो कि वह वादी को अपनी स्थिति अपने प्रतिकल परिवर्तित करने के लिये प्रत्यक्ष रूप में जिम्मेदार हो या ऐसी स्थिति लाये जबकि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देना असाम्यिक हो।

इस वाद में प्रथम प्रतिवादी के भू-खण्डों के विक्रय के लिये सार्वजनिक नीलामी में वादी ने सबसे अधिक बोली बोली थी। लेकिन प्रथम प्रतिवादी द्वारा संविदा का विखण्डन कर दिया गया अतः वादी ने उसे एक नोटिस दी कि वह अग्रिम धन 24 घण्टों में तथा उसके बाद शेष धन एक सप्ताह में लेकर विक्रय विलेख निष्पादित करे। लेकिन इसके बाद वादी ने अपनी पत्नी की बीमारी तथा नगरपालिका द्वारा उसके एक घर को गिराये जाने के कारण 7 महीनों तक कोई आगे कार्यवाही नहीं की। तत्पश्चात् एक दिन जब वह भू स्थल के पास से गुजर रहा था तो उसने देखा कि भूमि पर नींव खोदील रही थी। उसके कुछ दिनों के भीतर अर्थात् नीलामी से साढ़े सात (711) मास पश्चात् उसने विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद किया। दूसरी ओर प्रथम प्रतिवादी ने प्रतिरक्षा में कहा कि कोई संविदा नहीं थी क्योंकि कोई अन्तिम बोली नहीं थी तथा वादी की बोली स्वीकार नहीं की गई थी। परीक्षण न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा थी परन्तु विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित करने के लिये यह उपयुक्त वाद नहीं था। अपील में उच्च न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुये विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान कर दी। इस आदेश के विरुद्ध प्रथम प्रतिवादी ने प्रस्तुत अपील उच्चतम न्यायालय में की। उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज करते हये अभिनिर्धारित किया कि सिवाय विलम्ब के वाद में ऐसी कोई परिस्थितियाँ नहीं हैं जो न्यायालय को विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देने से इन्कार करने को प्रेरित करें।107

जहाँ तक विलम्ब का सम्बन्ध है जहाँ इंग्लैण्ड में विलम्ब के आधार पर विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देने से इन्कार किया जा सकता है, भारत में विलम्ब के साथ-साथ जब तक वादी का ऐसा आचरण न हो जिसका प्रतिकूल प्रभाव प्रतिवादी पर पड़े, न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देने से इन्कार नहीं कर सकता है। दूसरे शब्दों में, भारत में केवल विलम्ब के आधार पर विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देने से इनकार नहीं किया जा सकता। परन्तु इंग्लैण्ड तथा भारत दोनों ही देशों में, अधिकार का परित्याग या अभित्याग वादी को अनुतोष न देने के लिये एक आवश्यक पूर्व-शर्त नहीं है क्योंकि परित्याग या अभित्याग सिद्ध हो जाता है तो न्यायालय द्वारा विवेक के प्रयोग का प्रश्न ही नहीं उठता।108

एक्जीक्यूटिव कमेटी, वैश्य डिग्री कालेज, शामली बनाम लक्ष्मी नारायण (Executive Committee of Vaish Degree College, Shamli v. Lakshmi Narayan)109 के वाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति फजल अली (Fazal Ali, J.) ने अभिनिर्धारित किया कि व्यक्तिगत सेवा की संविदा का विनिर्दिष्टतः पालन साधारणतया नहीं करवाया जा सकता तथा साधारणतया न्यायालय यह घोषणा नहीं करेगा कि संविदा विद्यमान है तथा सेवा से निकाले जाने के पश्चात् स्वामी या नियोजक की इच्छा के विरुद्ध भी कर्मचारी सेवा में है। परन्तु इस नियम के भली-भाँति स्वीकृत तीन अपवाद हैं। यह अपवाद निम्नलिखित है-

(i) जहाँ किसी लोक सेवक को संविधान के अनुच्छेद 311 के उल्लंघन में सेवा से निष्कासित किया जाता है या प्रयास किया जाता है,

(ii) जहाँ कर्मी या कर्मकार के निकाले जाने पर उसकी पुनः बहाली या पुनः स्थापना औद्योगिक विधि के अन्तर्गत की जाती है, तथा

(iii) जहाँ कोई कानूनी निकाय किसी अधिनियम के आज्ञापक (Mandatory) उपबन्धों के उल्लंघन में कृत्य करती है।110

107. (1965) 2 एस० सी० आर० पृष्ठ 231-232.

108. तत्रैव, पृष्ठ 230.

109. (1976) 2 एस० सी० सी० 58 : ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 888.

110. तत्रैव, पृष्ठ 71.

प्रस्तुत वाद में एक मुख्य प्रश्न यह था कि क्या वाद के तथ्यों पर उपर्युक्त तीसरा अपवाद लागू होगा कि नहीं। इस वाद में अपीलार्थी कार्यकारी समिति एक स्थानीय कालेज की कमेटी थी जो समिति रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1860 (Societies Registration Act, 1860) के अन्तर्गत रजिस्ट्रीकृत थी। यह समिति एक लोक विश्वविद्यालय अर्थात् आगरा विश्वविद्यालय से सम्बन्धित (affiliated) थी तथा उसने विश्वविद्यालय के अधिनियम, अध्यादेशों आदि से शासित होना स्वीकार किया था। उक्त कार्यकारी समिति ने विश्वविद्यालय के कुलपति की अनुमति प्राप्त किये बिना कालेज के प्रधानाचार्य को सेवा से निकाल दिया। कालेज के प्रधानाचार्य तथा समिति के बीच कोई करार नहीं था। प्रधानाचार्य ने उक्त आदेश को चुनौती दी तथा न्यायालय से व्यादेश प्राप्त करने की प्रार्थना की। एक मख्य विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या कार्यकारी समिति एक कानूनी निकाय है तथा क्या उपर्युक्त तीसरे अपवाद का आवाहन करा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई संस्था कानूनी निकाय तभी हो सकती है जबकि वह किसी अधिनियम द्वारा या उसके अन्तर्गत स्थापित की जाय। यह प्राथमिक बात है तथा इसका सिद्ध करना आवश्यक है। कोई संस्था अधिनियम के उपबन्धों से उचित प्रशासन हेतु शासित होने वाली संस्था उस संस्था से भिन्न होती है जो अधिनियम द्वारा या अधिनियम के अधीन स्थापित की जाती है। ऐसी संस्था जो अच्छे प्रशासन हेतु अधिनियम के उपबन्धों से शासित होती है कानूनी निकाय नहीं हो सकती। यह अभिनिर्धारित करते समय उच्चतम न्यायालय ने सुखदेव सिंह बनाम भगतराम सरदार सिंह रघुवंशी (Sukhdev Singh v. Bhagatram Sardar Singh Raghuvanshi)111 में इस सम्बन्ध में प्रतिपादित सिद्धान्त का हवाला दिया तथा उसका अनुसरण किया।

अत: जहाँ तक प्रस्तुत वाद का प्रश्न था उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि केवल इस आधार पर कि वैश्य डिग्री कालेज की कार्यकारी समिति विश्वविद्यालय अधिनियम के कुछ उपबन्धों का अनुसरण करती थी, कानूनी या विधिक निकाय नहीं हो सकती। वास्तव में कार्यकारी या प्रबन्धक समिति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध होने के काफी पहले से था। इसका अपना संविधान था। केवल एक अपवाद यह था कि इसके दो पदेन (ex-officio) सदस्य थे।112

वाद के तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने निर्णय में कहा कि प्रत्यर्थी ने बहुत थोड़े समय कार्य किया तथा 1966 से कोई कार्य नहीं किया। यदि प्रत्यर्थी को पिछले 9 वर्षों के वेतन दिलवाये जायं तो संस्था पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। अत: न्यायालय ने लगभग कुल 21,000 रुपये प्रतिकर के रूप में दिये जाने का आदेश दिया। यह धन अपीलार्थी ने निचले न्यायालय में जमा किया था। उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि यद्यपि प्रधानाचार्य को निकालना अनुचित था परन्तु चूँकि घोषणा तथा व्यादेश का अनुतोष विवेकानुसार होता है, वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों के अनुसार, यह अनुतोष प्रदान करना उचित नहीं होगा। अत: उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त करके उच्चतम न्यायालय ने अपील आंशिक रूप से स्वीकार की।113

प्रकाशचन्द्र बनाम अंगद लाल (Prakash Chandra v. Angad Lal)114 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष वैवेकिक है तथा उसे अनुदत्त करने से तभी इन्कार किया जाना चाहिये जब इसे इन्कार करने के लिये साम्यापूर्ण तथ्य हो तथा परिस्थितियों से यह स्पष्ट हो जाय कि पतिकर यथायोग्य अनतोष होगा। वाद के तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि अपीलार्थी के पक्ष में विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित न की जाय।

यह धारा विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री के मामले में न्यायालयों के न्यायिक विवेकाधिकार को संरक्षित रखे है। न्यायालय को वाद के सभी तथ्यों तथा

111. ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 1331, 1339 : (1975) 1 एस० सी० सी० 421, 435.

12 तत्रैव पष्ठ 65.67-69: कमारी रेगीना बनाम सेंट अलोसियस हाईयर एलीमेन्ट्री स्कूल, ए० आई० आर० 1971 एस. सी० 1920.1924: तथा विद्या राम मिश्रा बनाम मैनेजमेंट कमेटी, श्रीजय नारायण कालेज, (1972) एस० सी०सी० 623. सभाजीत तिवारी बनाम भारतीय संघ, (1975) 1 एस० सी० सी० 4853 तथा इंडियन एयर लाइन्स कार्पोरेशन बनाम सुखदेव राय, (1971)2 एस० सी०सी०192 भी देखें।

113. (1976) 2 एस० सी० सी० 58, 74-75.

114. ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 1241.

परिस्थितियों पर बारीकी से विचार करना चाहिये। न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्रदान करने को इस आधार पर बाध्य नहीं है कि ऐसा करना विधिपूर्ण है। न्यायालय को मुकदमेबाजी के हेतु को भी देखना चाहिये। न्यायालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह अत्याचार का यंत्र या माध्यम बन जाये. जिससे वादी को अऋजु फायदा पहुँचे।115

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 के अन्तर्गत विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। न्यायालय अनुतोष देने को केवल इस कारण बाध्य नहीं है क्योंकि ऐसा करना विधिपूर्ण होगा। अनुतोष प्रदान करना ठोस एवं युक्तियुक्त न्यायिक सिद्धान्तों पर आधारित होता है। यदि संविदा के पालन से प्रतिवादी को ऐसी कठिनाई होगी जिसका पूर्वानुमान उसने नहीं किया था तथा वादी को ऐसी कोई कठिनाई नहीं होगी तो न्यायालय अपने विवेक का प्रयोग करते हुये विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान नहीं करेगा। भारत में तुलनात्मक कठिनाई के सिद्धान्त को कानूनी मान्यता है।116 .

यह भलीभाँति तय विधि है कि जहाँ संविदा का कोई पक्षकार पूर्वानुमानिक अंग (anticipatory breach) का दोषी है, संविदा का दूसरा पक्षकार इस भंग को संविदा का अंत समझ सकता है तथा नुकसान प्राप्त करने के लिये वाद कर सकता है परन्तु ऐसी दशा में वह विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्राप्त नहीं कर सकता है। ऐसे पक्षकार के लिये दूसरा विकल्प यह है कि वह संविदा को पालन के समय तक जीवित रखे तथा विनिर्दिष्ट पालन का दावा करे परन्तु वह विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष तभी प्राप्त कर सकता है जब वह यह सिद्ध करे कि वह संविदा का पालन करने को तैयार तथा इच्छुक था।117_

अतः विनिर्दिष्ट पालन के प्रवर्तन हेतु डिक्री प्राप्त करने के लिये यह सिद्ध करना आवश्यक है कि प्रवर्तनीय संविदा विद्यमान है।118 लेकिन यदि वादी आय निकासी प्रमाण पत्र प्राप्त करने में असफल रहता है तो अनुतोष प्रदान करने से इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता कि बिना उक्त प्रमाणपत्र के संविदा प्रवर्तनीय नहीं है।119 विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष इस आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता कि मुकदमेबाजी के दौरान वादकृत सम्पत्ति की कीमत में वृद्धि हो गई है।120 परन्तु यह विधि है कि स्थावर सम्पत्ति के मामले में विनिर्दिष्ट पालन का अनतोष स्वचलित (automatic) नहीं है। यह अनतोष न्यायालय विवेकानुसार सुस्थ (sound) सिद्धान्तों के आधार पर प्रदान करता है। इस सम्बन्ध में न्यायालय साम्या अधिकारिता का प्रयोग करता है तथा ऐसा करते समय न्यायालय न्याय, साम्या, शुद्ध अन्त:करण तथा दोनों पक्षकारों के साथ ऋजुता के सिद्धान्तों से शासित होता है। अतः जहाँ प्रत्यर्थी ने स्वयं नुकसान के वैकल्पिक अनुतोष की माँग की है, विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्रदान करना अयथार्थपूर्ण तथा अऋजु होगा।121 अतः उपर्युक्त मामलों में न्यायालय साम्या के आधार पर विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्रदान न करके वैकल्पिक अनुतोष प्रदान कर सकता है।122

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 के अनुसार विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार है। अत: जो पक्षकार न्यायालय के साम्या अधिकारिता का फायदा उठाना चाहता है उसके लिये यह आवश्यक है कि वह न्यायालय के समक्ष स्वच्छ हाथों से आये। दूसरे शब्दों में, जो पक्षकार असत्य

115. पराकुन्तन वीटिल जोसेफ का पुत्र मैथ्यू बनाम नेदुमबरा कुरुविला का पुत्र, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 2328, 2332.

116. वी० मुथूस्वामी (मृतक) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाम अंगाम्माल, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 1279; के० नरेन्द्र बनाम रिवेरा अपार्टमेन्टस (पी०) लि०, ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 2309 को भी देखें।

117. जवाहर लाल वाधवा बनाम हरीपद चक्रवर्ती, ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 606, 610.

118. मायावन्ती बनाम कौशल्या देवी, (1990) 3 एस० सी० सी० 1.

119. राजेश अग्रवाल बनाम बलवीर सिंह, ए० आई० आर० 1994 दिल्ली 345, 349-350.

120. एस० वी० आर० मुदालियर बनाम राजाबू बुहारी, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 1607, 1612-1613; एस० वी० शंकरलिंग नादर बनाम पी० आई० एस० रामास्वामी नादर, ए० आई० आर० 1952 मद्रास 389; तथा मीर अब्दुल हकीम खान बनाम अब्दुल मन्नाम खादर, ए० आई० आर० 1972 आंध्र प्रदेश 178.

121. कांशीराम बनाम ओम प्रकाश अग्रवाल, ए० आई० आर० 1996 एस० सी०2150.

122. एस. रंगराजू नायडू बनाम थिरुवरक्कारासू, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 1769.

अभिकथन करता है उसके हाथ स्वच्छ नहीं हैं अतः वह विनिर्दिष्ट पालन के साम्या अनुतोष का अधिकारी नहीं है।123

जहाँ किसी 100 वर्ष पुरानी इमारत के विक्रय का करार है तथा जिसमें 6 किराएदार हैं जिससे इसकी कीमत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा विशेषज्ञों ने इसकी कीमत 60,000 रुपये से लेकर 70,000 रुपये तक आंकी है, पक्षकारों के बीच 65,000 रुपये की कीमत पर विक्रय करार का निष्पादन न तो असाम्यापूर्ण है तथा न ही क्रेता को विक्रेता के ऊपर कोई अऋजु लाभ पहुँचा है, अतः ऐसे मामले में करार के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश न्यायोचित होगा।124

जहाँ वादी जिस संविदा के आधार पर विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्राप्त करने के लिये वाद करता है वह न्यायालय के अनुसार पूर्ण संविदा नहीं है तथा इसके पश्चात् एक पश्चातवर्ती करार के आधार पर वही अनुतोष प्राप्त करना चाहता है परन्तु यह सिद्ध नहीं कर पाता है कि बाद वाला करार नया या स्वतंत्र संविदा है न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्रदान नहीं करेगा।125

जहाँ किसी करार में पालन का समय विनिर्दिष्ट रूप से विहित नहीं है लेकिन पक्षकारों के आशय से पता चलता है कि संविदा का पालन 211, वर्ष से 31/, वर्ष की अवधि के भीतर किया जाना था क्रेता अपने दायित्व का पालन युक्तियुक्त समय में करने में असफल रहते हैं तथा इसी बीच भूमि की कीमत में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है तथा भूमि का एक भाग असंक्रमणीय हो जाता है क्योंकि उसे राज्य अभिगृहीत कर लेता है तथा एक भाग भूमि की अधिकतम सीमा शहरी भूमि अधिकतम सीमा अधिनियम के अन्तर्गत विहित सीमा से अधिक होने के कारण चली जाती है ऐसी दशा में विनिर्दिष्ट पालन के विवेकानुसार अधिकारिता का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये।126

जहाँ भूमि विक्रय के विलेख के विषय में सभी न्यायालयों का निर्णय कि क्रेता द्वारा विक्रेता के साथ किया गया करार प्रामाणिक तथा सही दस्तावेज था तथा क्रेता ने अग्रिम धन का भुगतान किया था परन्तु विक्रेता ने संविदा का उल्लंघन किया तथा विक्रय विलेख निष्पादित करने में असफल रहता है तथा तत्पश्चात् विक्रेता वाद सम्पत्ति के बारे में पारिवारिक समझौता अपने बच्चों के पक्ष में करता है तथा बच्चे स्वामित्व के लिये उद्घोषणात्मक डिक्री के लिये तुरन्त वाद करते हैं, यह वाद दुरभिसन्धि या साँठ-गाँठ वाला होगा, इन परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय निदेश देगा कि विक्रेता क्रेता के पक्ष में विक्रय विलेख निष्पादित करे।127

विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देने से इन्कार किया जा सकता है यदि ऐसा करने से असाम्यापूर्वक होगा। इस अनुतोष को प्रदान करने में वादी की प्रतिष्ठा से कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।128

स्थावर सम्पत्ति में विक्रय के मामले में यह उपधारणा नहीं होती है कि समय संविदा का सार है।129 यदि समय संविदा का सार नहीं भी है तो भी न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि संविदा का पालन यक्ति-युक्त समय में होना चाहिये। ऐसा निष्कर्ष न्यायालय वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों से निकाल सकता है।130

123. लोरडू मारी डेविड बनाम लुईस चित्रय्या अरोगियास्वामी, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 2814, 2815. •

124. श्रीमती मारिया बनाम श्रीपद विष्णु कामत तारकर, ए० आई० आर० 1998 बम्बई 46, 52-53; इस वाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के वाद में प्रकाश चन्द्र अंगद लाल, ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 1241 में प्रतिपादित नियम का अनुसरण किया।

125. गनेश शेत बनाम डा० सी० एस० जी० के० सेट्टी, ए० आई०. आर० 1998 एस० सी० 2216, 2214.

126. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 2309, 2317-2318.

127. टेक चन्द बनाम दीप चन्द, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1392, 1993-1394.

128 महामहिम महारानी शान्तिदेवी पी० गैकवाड बनाम सावजी भाई हरी भाई पटेल, ए० आई० आर० 2001 ए० सी० 1462, 1479-80.

130 चाँद रानी (मतक) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा बनाम श्रीमती कमल रानी (मृतक) विधिक प्रतिनिधियों द्वारा, ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 1742.

130. वीराथी अम्माल बनाम सीनी अम्माल, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 2920, 2922-2923.

जहाँ निर्माण कम्पनी प्लैट के विक्रय के करार के विनिर्दिष्ट पालन से इस आधार पर इन्कार करती है कि नगरपालिका के भूमि के मूल पट्टे को रद्द कर दिया परन्तु तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि पट्टे के नवीनीकरण एवं पनः वैधता की सम्भावना है तथा विक्रेता संविदा के अपने भाग के पालन के लिये तैयार विनिर्दिष्ट पालन के अनतोष को देने से इन्कार नहीं किया जा सकता।131 इसी प्रकार जहाँ फ्लैट के कीमतों में वृद्धि कालान्तर में होती है तथा क्रेता वृद्धि का भुगतान करने को तैयार है, ऐसी वृद्धि के भुगतान को विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री की शर्त के रूप में रखा जा सकता है।132

जहाँ विक्रय करार के विनिर्दिष्ट पालन के मामले में पश्चातवर्ती पार्श्व (marginal) गवाहों के बढ़ाये जाने पर निचले न्यायालयों ने विचार किया तथा उस पर अविश्वास किया तथा वादी के तर्क को स्वीकार करते हये विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित की तथा उक्त परिवर्तन से करार की वैधता के प्रभाव के प्रश्न को नहीं उठाया गया। अपील में उच्च न्यायालय द्वारा डिक्री में हस्तक्षेप तथा निर्णय कि दस्तावेज प्रारम्भ से शून्य हो गये, विधि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 100 की भावना के विरुद्ध होगा।133

मंजू नाथ आनन्दप्या उर्फ शिवप्पा हन्सी बनाम तमन्नासा (Manjunath Anandappa Urf Shivappa Hansi v. Tammanasa)134- के वाद में विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के बाद करार किये जाने के छ: वर्ष बाद दायर यह जानने के पश्चात् किया गया कि प्रतिवादी भूमि के स्वामी ने अपीलार्थी के हाथ भूमि का विक्रय कर दिया था। वादी ने उक्त अवधि के बीच कभी-भी प्रतिवादी से विक्रय विलेख के निष्पादन के लिये नहीं कहा था। यद्यपि समय संविदा का सार नहीं था फिर भी वादी को युक्तियुक्त समय के भीतर विक्रय विलेख के लिये प्रतिवादी से कहना चाहिये था। वादी के आचरण को देखते हुये निचले न्यायालयों ने विवेकानुसार अनुतोष प्रदान नहीं किया परन्तु उच्च न्यायालय ने अपील में हस्तक्षेप करके उक्त निर्णय को उलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय को निचले न्यायालय के विवेकानसार निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये था। अत: उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकार निचले न्यायालयों के निर्णय को बहाल कर दिया।135 उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अब यह भली-भाँति स्थापित नियम है कि अपीलीय न्यायालय को साधारणतया निचले न्यायालय द्वारा विवेक के प्रयोग में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये।136

जहाँ क्रेता (वाद के कमीशन एजेन्ट) तथा किसान के बीच विक्रय का करार हुआ है तथा क्रेता करार को सिद्ध कर देता है परन्तु किसान अपनी प्रतिरक्षा में तर्क करता है कि क्रेता ने उसके हस्ताक्षर एक सादे कागज पर ले लिये थे। किसान के पक्ष में कोई साक्ष्य नहीं थी। फिर भी यह तर्क आसानी से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि अग्रिम धन के रूप में क्रेता ने बहुत कम धन दिया था। ऐसे करार के विनिर्दिष्ट पालन के अनुतोष को अस्वीकार करना उचित होगा।13

जहाँ विक्रेता न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने के पश्चात जीवन पर्यन्त सम्पत्ति बेचने का वादी के साथ करार करता है तथा करार सम्पत्ति लोक बकाया को जबरन प्रपीड़क या जबरी (coercive) बिकने से बचाने के लिये करता तथा न्यायालय से अनुमति प्राप्त करने के लिये वाद करता तथा दो वर्ष तक अनुमति प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने के पश्चात् करार को समाप्त कर देता है तथा अन्य या तीसरे पक्षकार को जीवन पर्यन्त हित बेच देता है यह नहीं कहा जा सकता कि उसने करार का उल्लंघन किया है तथा क्रेता करार के विनिर्दिष्ट पालन का अधिकारी नहीं होगा।138

131. निर्मला आनन्द बनाम एडवेन्ट कार्पोरेशन प्राइवेट लि०, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 2290, 2299-2300.

132. तत्रैव, 2304, 2307.

133. राम खिलोना बनाम सरदार, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 2548, 2553-2554.

134. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 1391.

135. तत्रैव, पृष्ठ 1397, 1398, 1399.

136. देखें; एम० वी० शंकर भट बनाम क्लाडे पिन्टो (मृतक) विधिक प्रतिनिधि द्वारा, 2003 (2) स्केल 124.

137. मनोहर लाल उर्फ मनोहर सिंह बनाम माया, ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 2362-2363.

138. एच० पी० ए० इन्टरनेशनल बनाम भगवान दास फतेहचन्द दासवानी, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 3858, 3873, 3874.

जहाँ किसी मामले में दो वाद-(i) पहला वादी द्वारा कपट के आधार पर करार को रद्द कराने हेत: तथा (ii) दूसरा प्रत्यर्थी द्वारा करार के विनिर्दिष्ट पालन हेतु-दायर किये गये हैं न्यायालय ने प्रत्यर्थी के पक्ष में निर्णय दिया कि करार का विनिर्दिष्ट पालन किया जाय क्योंकि अपीलार्थी परीक्षण न्यायालय के निर्णय से कोई त्रुटि सिद्ध नहीं कर पाया।139

विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष देने से इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि अचल सम्पत्ति की कीमत बढ़ रही है।140

जहाँ भूमि के विक्रय के करार में अग्रिम धन के जब्त किये जाने का उपबन्ध है तथा क्रेता अग्रिम धन जमा कर देता है तथा तत्पश्चात् भूमि अभिप्राप्त होने की नोटिस जारी कर दी जाती है परन्तु बाद में करार अप्रवर्तनीय हो जाता है तो अग्रिम धन का जब्त किया जाना अनुचित एवं असाम्यापूर्ण होगा।141

यदि किसी विनिर्दिष्ट पालन के वाद में किरायेदार किराये के परिसर के विक्रय संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का दावा करता है परन्तु वाद में संलग्न नक्शे में सम्पत्ति की केवल सीमायें दिखाई गयी हैं तथा विक्रय की विषय वस्तु का योजना में वर्णन नहीं किया गया है तथा जो नक्शा प्रस्तुत किया गया है वह उक्त योजना के अनुरूप नहीं है तो उच्च न्यायालय का निर्णय कि विक्रय करार अस्पष्ट होने से विनिर्दिष्ट पालन नहीं हो सकता, उचित है।142

उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया है कि न्यायालय को यह सावधानी बरतना चाहिये कि न्यायालय की प्रक्रिया उत्पीड़न का यन्त्र न बन जाये तथा प्रतिवादी के विरुद्ध वादी को अनुचित लाभ न पहुंचे। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय लक्ष्मण तात्याबा कन्कटे बनाम तारामती हरिश्चन्द्र धात्रक (Laxman Tatyaba Kankate v. Taramati Harish Chandra Dhatrak)143 के वाद में दिया था।

पक्षकारों के आचरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है जहां प्रतिवादी निचले न्यायालयों में अपना दावा सिद्ध करने में असफल हुआ है तथा इसके साथ अपने अभिवचन में उचित अभिवचन भी नहीं करता है, तो विनिर्दिष्ट साक्ष्य की अनुपस्थिति में, न्यायालय प्रतिकूल निष्कर्ष निकालेगा। जहां यह अभिवचन किया गया है कि सम्पत्ति सहकारी समिति को बन्धक के रूप में दी गई थी, का स्वामित्व का अन्तरण नहीं हुआ तथा प्रक्रिया के लम्बित होने पर सम्पत्ति की कीमतों में वृद्धि की गयी है वह तर्क अपील में पहली बार अभिवचन किया जाना है, अपीलार्थी-प्रतिवादी ने अग्रिम धन को प्रयोग कर लिया है, न्यायालय ने धारित किया कि वाद धारा 20 (2) के अन्तर्गत नहीं आता है। इसके अतिरिक्त, भूमि की कीमत, वादी ने अधिक प्रतिकर देना स्वीकार किया है, अत: वाद के साम्या एवं तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने यह धारित किया कि वादी विनिर्दिष्ट पालन का अधिकारी है।144

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 21 (जो निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 19 के समकक्ष है) में यह स्पष्ट किया गया है कि किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में वादी के ऐसे पालन के या तो अतिरिक्त या स्थान पर, उसके भंग के लिये प्रतिकर का भी दावा कर सकता है।145 यदि ऐसे किसी वाद में न्यायालय इस निर्णय पर पहुँचता है कि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष तो नहीं दिया जाना चाहिये किन्त पक्षकारों के मध्य ऐसी संविदा है जो प्रतिवादी द्वारा भंग की गई है और उस भंग के लिये प्रतिकर प्राप्त करने का हकदार है, तो उसे तदनुसार वैसा प्रतिकर प्रदान कर सकता है।146 यदि किसी ऐसे वाद में, न्यायालय यह विनिश्चित करता है कि विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष तो दिया जाना चाहिये किन्तु मामले में

139. अकबर अली बनाम विनोद खन्ना, ए० आई० आर० 2004 ए० सी० 3940.3941

140 देखें : पी० एस० रानाकृष्णा रेड्डी बनाम भाग्यलक्ष्मी, ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 1256, 1260-1261.

141 थीरीवीपी चन्नऐय्या बनाम गुडिपुडी बेन्कट सुब्बाराव, ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 2439, 2440.

142. विमलेश कुमारी कुलश्रेष्ठ बनाम सम्माजीराव, ए० आई० आर० 2009 एस० सी०800000

143. (2010)7 एस० सी० सी० 717 : ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 3025.

144 देखें: लक्ष्मण तात्याबा कन्कटे बनाम तारामती हरिश्चन्द्र धात्रक, (2010)7 एस० सी० सी०

145. धारा 21 (1).

146. धारा 21 (2).

न्याय की तुष्टि के लिये इतना पर्याप्त नहीं है तथा संविदा भंग के लिये वादी को कुछ प्रतिकर भी दिया जाना चाहिये तो वह तदनुसार विनिर्दिष्ट पालन के साथ-साथ ऐसे प्रतिकर भी प्रदान कर सकता है।147 ऐसा प्रतिकर प्रदान करते समय तथा रकम का अवधारण करने में न्यायालय भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 73 में विनिर्दिष्ट सिद्धान्तों द्वारा मार्गदर्शित होगा।148 धारा 21 के अन्तर्गत कोई प्रतिकर तभी प्रदान किया जा सकता है जबकि वादी ने अपने वाद पत्र में ऐसे प्रतिकर का दावा किया हो। परन्तु जहा वाद पत्रम वादी ने प्रतिकर प्राप्त करने का दावा नहीं किया है तो न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में वादी को ऐसे वादपत्र में ऐसे प्रतिकर प्राप्त करने का दावा शामिल करने के लिये संशोधित करने की अनुज्ञा ऐसे निबन्धनों पर देगा जो न्यायसंगत हो।149 धारा 21 के स्पष्टीकरण द्वारा यह भी उपबन्धित किया गया है कि यह परिस्थिति कि संविदा विनिर्दिष्ट पालन के अयोग्य हो गई है, न्यायालय को इस धारा द्वारा प्रदत्त अधिकारिता के प्रयोग से प्रवारित नहीं करती है।

जहाँ धारा 21(5) के अन्तति वाद-पत्र संशोधित किया जाता है तथा वादी विनिर्दिष्ट पालन के अनुतोष का परित्याग किये बिना, उसके एवज में या उसके अतिरिक्त प्रतिकर के अन्तोष की प्रार्थना करता है, न्यायालय ऐसा संशोधन की अनुमति वाद के किसी भी चरण में दे सकता है। परन्तु यदि वादी विनिर्दिष्ट पालन के वाद को संशोधित करके संविदा भंग के लिये प्रतिकर प्राप्त करने के वाद में परिवर्तित करना चाहता है तो भिन्न तथा कम उदार मानक लागू होंगे। यदि ऐसे वाद में संविदा का पालन इस कारण असम्भव हो जाता है कि मुकदमेबाजी के दौरान सम्बन्धित भूमि अभिप्राप्त कर ली गई है तो धारा 21 के स्पष्टीकरण के अन्तर्गत न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन के स्थान पर प्रतिकर प्रदान कर सकता है।150

फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया बनाम मेसर्स बाबूलाल अग्रवाल (Food Corporation of India v. M/s. Babulal Agarwal)151 के वाद में संविदा को तीन वर्ष तक किराये पर लेने की थी। तीन वर्ष के पट्टे के समाप्त होने के पूर्व ही संविदा समाप्त कर दी गई। चूँकि तीन वर्ष का समय बीत चुका था अतः विनिर्दिष्ट पालन सम्भव नहीं था अत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने धारा 21 के अन्तर्गत नुकसानो प्रदान किया।

जहाँ किसी वाद में विनिर्दिष्ट पालन के साथ वैकल्पिक अनुतोष की प्रार्थना भी की जाती है तथा अग्रिम धन की वापसी का भी अभिकथन किया गया है तथा वाद तुरन्त दायर नहीं किया गया है यद्यपि वह मर्यादा अवधि के अन्दर है, विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष प्रदान करना न्यायोचित नहीं होगा तथा तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर वैकल्पिक अनुतोष प्रदान किया जा सकता है।152

जयासेन बनाम सुजीत कुमार सरकार (Jaya Sen v. Sujit Kr. Sarkar)153 में मुख्य प्रश्न यह था कि विनिर्दिष्ट पालन के वाद में जहाँ वादी प्रतिकर प्राप्त करने का भी अभिकथन करता है क्या नुकसान पर ब्याज भी प्रदान करने का आदेश दे सकता है। कलकत्ता उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने अभिनिर्धारित किया कि विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित करने के मामले में न्यायालय विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के सारवान तथा प्रक्रिया सम्बन्धी दोनों ही उपबन्धों से आबद्ध है तथा उस सीमा तक सिविल प्रक्रिया संहिता के उपबन्ध लागू नहीं होंगे। धारा 21 में सारवान तथा प्रक्रिया सम्बन्धी दोनों ही उपबन्ध हैं। धारा 21 अपने आप में एक सम्पूर्ण संहिता है तथा इस सम्बन्ध में किसी अन्य अधिनियम को अभिभूत (override) करती है. धारा 21 में विनिर्दिष्ट रूप से नुकसान प्रदान करना उपबन्धित है तथा जहाँ वादी ने नुकसान प्राप्त करने का दावा किया, न्यायालय को सिवाय इस अनुतोष तक अपने को सीमित रखने के और कोई विकल्प नहीं है।

147. धारा 21 (3).

148. धारा 21 (4).

149. धारा 21 (5).

150. जगदीश सिंह बनाम नथ्यू सिंह, (1992) 1 एस० सी० जे० 36 : (1992) 1 बी० जे० एल० आर० 178 : ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 1604.

151. ए० आई० आर० 1998 मध्य प्रदेश 23, 31.

152. देखें : श्रीमती जमीला खातून बनाम राम निवास गुप्ता, ए० आई० आर० 1998 इलाहाबाद 138, 139-140.

153. ए० आई० आर० 1998 कलकत्ता 288, 291.

दूसरे शब्दों में, न्यायालय नुकसान पर ब्याज प्रदान नहीं कर सकता।154 जहाँ वादी विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद में विकल्प में नुकसानी की माँग करता है, यह नहीं कहा जा सकता कि वह मुख्य अनुतोष अर्थात विनिर्दिष्ट पालन का अधिकारी नहीं है।155

जहाँ बैंक यह करार करता है कि वह क्रेता के लिये यूनिट्स क्रय करके उसे परिदत्त करने का करार करता है तथा क्रेता यूनिट्स का भुगतान कर देता है परन्तु बैंक यूनिट्स परिदत्त करने में असफल रहता है तथा क्रेता यूनिट्स परिदत्त करने अथवा विकल्प में नुकसानी के लिये वाद करता है, विशेष न्यायालय द्वारा बैंक को यूनिट्स परिदत्त करने का आदेश देना अनुचित होगा क्योंकि क्रेता ने यूनिट्स के परिदान के विकल्प में नुकसानी प्रदान किये जाने की प्रार्थना की थी। अत: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि बैंक क्रेता को यूनिट्स का धन वापस करे तथा साथ में युक्तियुक्त प्रतिकर प्रदान करे।156

यहाँ पर यह भी नोट करना आवश्यक है कि धारा 22 के अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में किसी तत्प्रतिकूल बात के अन्तर्विष्ट होते हुये भी, स्थावर सम्पत्ति के अन्तरण की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का वाद वाला कोई व्यक्ति, समुचित मामले में

(क) ऐसे पालन के अलावा सम्पत्ति का कब्जा या विभाजन की माँग कर सकता है; अथवा

(ख) यदि उसका विनिर्दिष्ट पालन का दावा नामंजूर कर दिया गया है तो वह कोई भी अन्य अनुतोष जिसका वह हकदार है और जिसके अन्तर्गत उसके द्वारा दिये गये किसी अग्रिम धन या निक्षेप भी माँग सकता है।157

परन्तु उपर्युक्त खण्ड (क) या खण्ड (ख) के अधीन कोई भी अनुतोष न्यायालय द्वारा अनुदत्त नहीं किया जायगा जब तक कि उसका विनिर्दिष्टतः दावा न किया गया हो। परन्तु जहाँ कि वादपत्र में वादी ने किसी ऐसे अनुतोष का दावा नहीं किया है वहाँ न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में वादी को वादपत्र संशोधित कर ऐसे अनुतोष का दावा सम्मिलित करने की अनुज्ञा ऐसे निबन्धनों पर दे सकता है जो न्यायसंगत हों।158 इसके अतिरिक्त उपधारा (1) के खण्ड (ख) के अधीन अनुतोष अनुदत्त करने की न्यायालय की शक्ति धारा 21 के अधीन प्रतिकर देने की उसकी शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगी।159

अतः धारा 22 के उपबन्ध को ध्यान में रखते हुये जहाँ विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री प्रदान की जाती है, उसमें कब्जे का परिदान भी अन्तर्विष्ट होता है।160

इसके अतिरिक्त धारा 23(1) के अनुसार जिस संविदा का विनिर्दिष्टतः प्रवर्तन अन्यथा उचित हो, यद्यपि उसके भंग की दशा में संदेय रकम के तौर पर कोई राशि उसमें नामित हो और व्यतिक्रम या चक करने वाले पक्षकार उसे देने के लिये रजामन्द या इच्छुक हैं तथापि उसका ऐसा प्रवर्तन किया जा सकेगा, यदि न्यायालय का संविदा के निबन्धों और अन्य विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये समाधान हो जाय कि उक्त राशि केवल संविदा के पालन को सुनिश्चित करने के प्रयोजन से ही नामित किया गया है, न कि व्यतिक्रम करने वाले पक्षकार को यह विकल्प देने के प्रयोजन से कि वह विनिर्दिष्ट पालन के स्थान पर धन का संदाय कर सके। धारा 23(2) में यह स्पष्ट किया गया है कि इस धारा के अधीन विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन कर समय. न्यायालय संविदा में ऐसी नामित राशि के संदाय की डिक्री नहीं करेगा।

उपर्युक्त धारा 23, निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 20 के समकक्ष है।

154 तेजराम बनाम पतिरामभाऊ, ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 2702 : JT 1997 (4) एस० सी० 677 का वाद भी देखें।

155. मोती लाल जैन बनाम श्रीमती रामदासी देवी, ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 7000

156. स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र बनाम पी० एन० बी०, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 241001

157. धारा 22 (1); धारा 22 नयी है। इस प्रकार की कोई धारा 1877 के अधिनियम में नहीं थी।

158. धारा 22 (2).

159. धारा 22 (3).

160. के० एम० राजेन्द्रन बनाम अरूल प्रकासम्, ए० आई० आर० 1998 मद्रास 336, 346.

निरसित धारा 20 में निम्नलिखित दृष्टान्त दिया गया था

‘क’ ऐसी सम्पत्ति का उप-पट्टा ‘ख’ को प्रदान करता है जिसे ‘क’ ‘ग’ के अधीन धारित किये हुये है। तथा वह ‘ग’ उक्त उप-पट्टे की वैधता प्रदान करने के लिये कहेगा। यदि लाइसेंस या वैधता प्राप्त नहीं हो जाती है तो ‘क”ख’ को 10,000 रुपये देगा। ‘क’ ‘ग’ से लाइसेंस प्राप्त करने के लिये कहने से इन्कार करता है तथा ‘ख’ को 10,000 रुपये देने का प्रस्ताव करता है। इसके बावजूद यदि ‘ग’ लाइसेंस देने की सम्मति दे देता है तो ‘ख’ संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करा सकता है।161

परन्तु जैसा कि धारा 24 में उपबन्धित है किसी संविदा के या उसके किसी भाग के विनिर्दिष्ट पालन के वाद के खारिज होने पर, ऐसी संविदा उसके भाग के भंग के लिये प्रतिकर का वाद लाने के वादी के अधिकार का वर्जन हो जायगा परन्तु वर्जन किसी ऐसे अनुतोष के लिये वाद लाने के उसके अधिकार का वर्जन नहीं होगा जिसका वह ऐसे भंग के कारण हकदार है।

161. लाँग बनाम बोरीन (1864) 140 आर० आर० 272 को भी देखें।

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