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Law of Contract 1 Rectification of Instruments Notes

 

अध्याय 4 (Chapter 4, LLB Notes)

लिखतों की परिशुद्धि (RECTIFICATION OF INSTRUMENTS)

Law of Contract 1 Rectification of Instruments Notes:- LLB 1st Year 1st Semester 2019 2020 Law of Contract 1 Part 2 (Specific Relief Act, 1963) Chapter 4 Rectification of Instruments LLB Notes Study Material With Question Paper Answer Mock Test Paper Available in Hindi English Language (PDF Download)

लिखतो की परिशुद्धि के सम्बन्ध में उपबन्ध विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 26 में दिये गये हैं। धारा 26 के अनुसार

(1) जबकि पक्षकारों के कपट या पारस्परिक भूल के कारण कोई लिखित संविदा या अन्य लिखत

(जो किसी कम्पनी के संगम-अनुच्छेद न हों, जिस पर कम्पनी अधिनियम 1956 (1956 का 1) लागू होता हो उनके आशय को अभिव्यक्त नहीं करती, तब-

(क) दोनों में से कोई पक्षकार या उसका हित प्रतिनिधि लिखत को परिशोधित करने का वाद संस्थित कर सकता है; अथवा

(ख) वादी किसी ऐसे वाद में, जिसमें लिखत के अधीन कोई अधिकार उद्भूत, कोई अधिकार विवाद्य हो, अपने अभिवचन में दावा कर सकता है कि लिखत परिशोधित किया जाय; अथवा

(ग) ऐसे किसी वाद में जैसा खण्ड (ख) में निर्दिष्ट है, प्रतिवादी किसी अन्य प्रतिरक्षा के साथ-साथ जो उसको उपलब्ध हो, लिखत की परिशुद्धि की माँग कर सकता है।

(2) यदि किसी वाद में जिसमें संविदा या अन्य लिखत का, उपधारा (1) के अधीन परिशोधित कराना ईप्सित हो, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कपट या भूल के कारण, वह लिखत, पक्षकारों का आशय अभिव्यक्त नहीं करती, तो जहाँ तक पर व्यक्तियों द्वारा सद्भावपूर्ण और मूल्यार्थ अर्जित अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसा किया जा सके न्यायालय स्वविवेक में लिखत को ऐसे परिशोधित करने का निदेश कर सकता है जिससे वह आशय अभिव्यक्त हो जाय।

(3) लिखित संविदा पहले परिशोधित की जा सकेगी और तब, यदि परिशुद्धि का दावा करने वाले पक्षकार के अपने अभिवचन में ऐसी प्रार्थना की हो और न्यायालय उचित समझे तो वह विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित की जा सकेगी।

(4) किसी लिखत की परिशद्धि के लिये इस धारा के अधीन किसी भी पक्षकार को अन्तोष अनुदत्त न किया जायगा जब तक कि उसका विनिर्दिष्टतः दावा न किया गया हो;

परन्तु जहाँ कि किसी पक्षकार ने अपने अभिवचन में किसी ऐसे अनुतोष का दावा न किया हो, वहाँ न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में ऐसे दावे को अन्तर्ग्रस्त करने के लिये अभिवचन को संशोधित करने की अनुज्ञा ऐसे निबन्धनों पर देगा, जो न्यायसंगत हों।

धारा 26 निरसित विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 की धाराओं 31 तथा 34 के समकक्ष है तथा उसके अतिरिक्त भी इसमें कुछ उपबन्ध भी विधि स्पष्ट करने हेतु हैं, निरसित धारा 31 के निम्नलिखित दृष्टान्त थे

(1) ‘क’ अपना मकान तथा उसके साथ लगे तीन गोदामों में से एक गोदाम बेचने के आशय से ऐसे

हस्तान्तरण को निष्पादित करता है जिसे ‘ख’ ने तैयार किया था। ‘ख’ ने कपट द्वारा हस्तांतरण में तीनों गोदाम सम्मिलित कर लिये। उक्त दो गोदामों, जिसे ‘ख’ ने कपट से शामिल कर लिया था, में से एक गोदाम ‘ख’ ‘ग’ को देता है तथा दूसरा ‘घ’ को किराये पर

देता है, न तो ‘ग’ तथा ‘घ’ को उक्त कपट का ज्ञान है। ‘ख’ तथा ‘ग’ के विरुद्ध हस्तान्तरण को परिशोधित किया जा सकता है परन्त यह इस प्रकार परिशोधित नहीं किया जा सकता कि उसका प्रतिकूल प्रभाव ‘घ’ के पट्टे पर पड़े।

(2) एक विवाह व्यवस्थापन द्वारा ‘क’ जो ‘ख’ की भावी पत्नी का पिता, ‘ग’ (भावी पति) स एक प्रसंविदा करता है कि वह ‘ग’ उसके निष्पादकों, प्रशासकों तथा समनुदेशितिया का अपने जीवन काल में 5000 रुपये प्रतिवर्ष देगा। ‘ग’ दीवालिया ही मर जाता है तथा सरकारी समनुदेशिती ‘क’ वार्षिक राशि का दावा करता है। न्यायालय यह पाकर कि यह स्पष्टतः सिद्ध कर दिया गया है कि पक्षकारों का सदा आशय था कि वार्षिक राशि ‘ख’ के तथा उसक बच्चों के लिये दी जानी थी, व्यवस्थापन की परिशद्धि कर सकता है तथा डिक्री कर सकता है कि समनुदेशिती को वार्षिक राशि का कोई भाग प्राप्त करने का अधिकार नहीं है।

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 26 की उपधारा (3) निरसित 1877 के अधिनियम की धारा 34 के समकक्ष थी। धारा 34 में निम्नलिखित दृष्टान्त था_

‘क’ अपने अटार्नी ‘ख’ से लिखित संविदा करता है कि वह लागत के एवज में एक निश्चित धन देगा। संविदा में मुवक्किल के नाम तथा अधिकारों के बारे में भूल हो जाती है। अत: यदि दस्तावेज का कड़ाई से अर्थान्वयन किया जाय तो ‘ख’ इसके अन्तर्गत सभी अधिकारों से अपवर्जित हो जायगा। यदि न्यायालय उचित समझे तो ‘ख’ इसे परिशोधित कराने का अधिकारी होगा तथा इस प्रकार उक्त निश्चित धन पाने का आदेश पा सकेगा जैसा कि दस्तावेज को निष्पादित करते समय पक्षकारों का यही आशय था।

धारा 26(1) के अन्तर्गत यदि भूल के कारण लिखित दस्तावेज में पक्षकारों का आशय अभिव्यक्त नहीं होता तो संविदा के पक्षकारों में से कोई भी लिखत के परिशोधन के लिये वाद कर सकता है तथा न्यायालय विवेकानुसार ऐसे दस्तावेज की परिशुद्धि किये जाने का आदेश दे सकता है। परन्तु यह आवश्यक है कि भूल al) हो। यदि भूल एकाकी (Unilateral) होती है तो उक्त उपबन्ध के अन्तर्गत अनुतोष प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अनुतोष तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि दोनों पक्षकारों का आशय एक ही था। उदाहरण के लिये वालिंगटन बनाम टाऊनसेन्ड (Wallington v. Townsend)2 के वाद में ‘क’ (दो साथ-साथ लगे बंगलों का स्वामी) ‘ख’ को उनमें से एक बंगले के हस्तान्तरण करने की संविदा करता है तथा पश्चिम का बंगला अपने पास रखता है। हस्तान्तरण के साथ अनबद्ध नक्शे में दोनों बंगलों के बीच एक सीधी रेखा दिखाई गई थी परन्तु वास्तव में रेखा के पूर्व में पश्चिमी बंगले का स्नानगृह तथा घरेल कार्यालय

आते थे। ‘क’ ने परिशोधन के लिये वाद किया परन्तु वह असफल रहा क्योंकि यद्यपि ‘क’ का आशय उक्त विवादास्पद सम्पत्ति को बेचने का नहीं था, ‘ख’ का आशय इसे खरीदने का था। अत: भूल पारस्परिक न होकर एकाकी थी।

इसी प्रकार हाजी अब्दुल रहमान बनाम पी० एस० एन० कंपनी (Haji Abdul Rahrnan v. P.S.N. Company)3 के वाद में प्रतिवादी अन्य यात्रियों सहित हज पर जाना चाहता था अतः उसने एक जहाज को बम्बई से जेद्दा यात्रियों को 10 अगस्त, 1892 को ले जाने हेतु करार किया। उसने यह करार इस त्रटिपूर्ण धारणा के कारण किया कि उसके अनुसार उक्त दिन हज का पन्द्रहवाँ दिन होगा। परन्तु वास्तव में हज के पश्चात पन्द्रहवाँ दिन 19 जुलाई, 1892 को पड़ता था। जैसे ही वादी को उक्त भूल का पता चला उसने लिखत की परिशुद्धि के लिये प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया। वाद के तथ्यों से यह स्पष्ट हुआ कि भल अर्थात एकाकी भल थी : प्रतिवादी की ओर से कोई भूल नहीं हयी थी। उसने जहाज भाडे पर 18 अगस्त 1892 के लिये माँगा तथा उसने उक्त दिन के लिये जहाज देना मंजर किया। अत: न्यायालय ने परिशुद्धि की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने निर्णय में कहा कि एकाकी भूल

1. यह दृष्टान्त स्टेडमैन बनाम कोलेट, (1854) 99 आर० आर० 310 के वाद के तथ्यों पर आधारित है।

2. (1939) 2 आल ई० आर० 255.

3. आई० एल० आर० (1892) 16 बम्बई 561.

के मामले में लिखत को परिशुद्धि का अनुतोष प्राप्त नहीं किया जा सकता परन्तु उचित वाद में न्यायालय लिखत को रद्द कर सकता है। इस वाद में दोनों पक्षकार लिखत को रद्द करवाने के प्रति सहमत हो गये। अत: न्यायालय ने लिखत को रद्द करने के आदेश पारित किये।

लिखत की परिशुद्धि तथ्य की भूल के साथ-साथ, विधि की भूल के आधार पर भी हो सकती है। उदाहरण के लिये, जींस बनाम हाऊले (Jervis v. Howle)4 के वाद में संविदा कोयले पर रायल्टी दिये जाने की थी। विलेख में लिखा गया कि प्रति टन कोयले पर कर मुक्त 3 पेंस रायल्टी होगी। पक्षकारों का आशय था कि प्रति टन पर शुद्ध 3 पेंस रायल्टी प्राप्त होनी चाहिये। परन्तु अधिनियम के अन्तर्गत यह करार शून्य था। इसे वैध करने के लिये न्यायालय ने इसको परिशोधित किये जाने का आदेश दिया तथा उक्त शब्दों के स्थान पर यह अन्य प्रतिस्थापित किये जाने का आदेश दिया कि समय-समय पर आयकर को घटा कर शुद्ध रायल्टी प्रतिटन तीन पेंस होगी।

कमिश्नर आफ इनकम टैक्स, कानपुर बनाम कमला टाऊन ट्रस्ट (Commissioner of Income Tax, Kanpur v. Kamala Town Trust)5 के वाद में एक मुख्य प्रश्न यह था कि क्या न्यास (Trust) विलेख की परिशुद्धि हो सकती है क्योंकि न्यास शब्द कड़े अर्थों में संविदा नहीं होती है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 26 में लिखित संविदा या “अन्य लिखत” शब्दों का प्रयोग किया गया है। न्यास लिखत अन्य लिखत (Other instrument in writing) के अन्तर्गत आ जायेगा। अत: न्यायालय को न्यास विलेख की परिशुद्धि कराने की भी अधिकारिता है।

इस वाद में न्यास स्थापित करने वाली कंपनी (मेसर्स जे० के० स्पिनिंग ऐण्ड वीविंग मिल्स लि०, कानपुर) ने अभिकथित किया कि उसका वास्तविक आशय एक सार्वजनिक धर्मार्थ न्यास (Public Charitable Trust) स्थापित करना था जो कि मूल न्यास विलेख से स्पष्ट नहीं हुआ तथा परिशुद्धि की आवश्यकता इस कारण हुई क्योंकि इस पारस्परिक भूल के कारण विद्यमान लिखत के प्रति दोनों पक्षकारों को न्यास स्थापित करने तथा न्यासी जो सम्पत्ति का विधिक स्वामी था, का मस्तिष्क नहीं मिला था अथवा वैध करार नहीं हुआ था। अत: दोनों ही पक्षकार (न्यास स्थापित करने वाला तथा न्यासी) लिखत का शुद्धिकरण चाहते हैं जिससे दोनों के वास्तविक आशय को प्रकट किया जा सके। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह नहीं कहा जा सकता कि न्यास विलेख के दो पक्षकार नहीं हैं। न्यास स्थापित करने वाला न्यास का एक पक्षकार है जो अपनी सम्पत्ति को दूसरों के हित के लिये देता जो हिताधिकारी (Beneficiaries) हो जाते हैं तथा सम्पत्ति की विधिक सम्पत्ति न्यासियों को अन्तरित की गयी है। अत: न्यास में न केवल एक वरन कम से कम दो पक्षकार हैं अर्थात् न्यास स्थापित करने वाला तथा न्यासी। इसके अतिरिक्त तीसरे या अन्य पक्षकार हिताधिकारी होंगे यद्यपि वह प्रत्यक्ष पक्षकार नहीं है। इस प्रकार न्यास एक त्रिपक्षीय संव्यवहार होता है।

लिखतों की परिशुद्धि का दावा तभी किया जा सकता है जबकि कपट या पारस्परिक भूल के कारण पक्षकारों का आशय लिखत में प्रकट नहीं होता है। जहां किसी वाद में निचले न्यायालय एवं उच्च न्यायालय दोनों का ही समान निर्णय यह है कि विक्रय-विलेख में उल्लिखित सम्पत्ति के विषय में कोई अस्पष्टता नहीं थी अत: विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित की गयी। अत: उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री सही पारित की गयी तथा ऐसे मामले में लिखत की परिशुद्धि का आदेश नहीं दिया जा सकता है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने सुभद्रा बनाम ठन्कम (Shubhadra v. Thankan)8 के वाद में दिया था।

धारा 26 (4) के अनुसार किसी लिखत की परिशुद्धि के लिये इस धारा के अधीन किसी भी पक्षकार को अनुतोष अनुदत्त न किया जायेगा जब तक कि उसका विनिर्दिष्टत: दावा किया गया हो।

4. (1937) सी० एच० 67.

5. ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 620.

6. तत्रैव, पृष्ठ 627.

7. तत्रैव पृष्ठ 630-633.

8. (2010) 11 एस० सी० सी० 514 : ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 3031.

परन्तु जहां किसी पक्षकार ने अपने अभिवचन में किसी ऐसे अनुतोष का दावा न किया हो, वहां व्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में ऐसे अन्तर्ग्रस्त करने के लिये अभिवचन को संशोधित करने की अनजा ऐसे निबन्धनों पर देगा, जो न्यायसंगत हो। उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि इस परन्तुक (proviso) का प्रयोजन दावों को बढ़ाना नहीं वरन् उसी वाद में सभी वाद-विषय एक ही वाद में निर्णीत हो जाये।

9. (2010) 11 एस०सी०सी०514: ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 3031.

 

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