Indian Penal Code Strict Liability LLB 1st Year Notes
Indian Penal Code Strict Liability LLB 1st Year Notes:- Indian Penal Code (IPC) LLB 1st Year 1st Semester Book Notes Study Material in Hindi English Online PDF Download, LLB 1st Semester Book CCS University and Delhi University Notes Download Online.
IV
कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व
(STRICT LIABILITY)
यह प्रश्न अत्यन्त विवादास्पद रहा है कि क्या कोई अपराध बिना आवश्यक
आपराधिक मन:स्थिति के भी कारित किया जा सकता है अथवा नहीं। इंग्लैण्ड एवं अपने देश के न्यायालयों द्वारा मान्य सामान्य सिद्धान्त यह है कि यदि किसी कानून (स्टेट्यूट) द्वारा कोई अपराध सृजित किया जाता है तो उस कानून को परिभाषित करने वाली भाषा चाहे कितनी ही विस्तृत एवं सम्पूर्ण क्यों न हो यह मान लिया जाता है कि आपराधिक मनः -स्थिति अपराध का एक आवश्यक तत्व है जब तक कि इसके विपरीत आशय स्पष्ट अथवा विवक्षित रूप में परिलक्षित नहीं होता है।
सामान्य रूप में किसी अपराध को गठित करने के लिये दोषी मस्तिष्क का होना आवश्यक है। परन्तु कुछ ऐसे अपराध भी हैं जिनमें अभियुक्त की तरफ से किसी प्रकार के विधिक दोष की आवश्यकता नहीं। पड़ती। ऐसे अपराध जिनमें अभियुक्त के दोष की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् किसी अन्य व्यक्ति के दोष की आवश्यकता पड़ती है, प्रतिनिधायी दायित्व (vicarious liability) के अपराध कहे जाते हैं। ये ऐसे अपराध हैं जिनमें दुराशय या उपेक्षा की आवश्यकता को पूर्णत: या आंशिक रूप में अपवर्जित कर दिया जाता है। कामन लॉ में पूर्ण दायित्व के अपराध जैसी कोई वस्तु प्राप्त नहीं होती। वहाँ कोई अधिनियम भी नहीं मिलता जो स्पष्ट रूप से इसका जिक्र करे। यह प्रश्न उस अधिनियम की विरचना पर उत्पन्न होता है जो दोषकर्ता की मानसिक स्थिति के आंशिक या सीमित सन्दर्भ में आचरण को दण्डित करता है। आपराधिक विधिशास्त्र का यह स्पष्ट सन्दर्भ के बिना या केवल सामान्य नियम है कि यद्यपि अधिनियम इस विषय पर चुप है, दुराशय की आवश्यकता विवक्षित मानी जायेगी।6 । विधानांग नि:सन्देह दुराशय की आवश्यकता को समाप्त कर सकती है, आशय के बजाय घटना को हो। दण्डित कर सकती है। पहले यह सिद्ध था कि ”जो यह दावा करते हैं कि विधानांग ने ऐसा अधिनियमित
- भारतीय दण्ड संहिता धारा 279, 280, 283, 284, 285, 286, 287, 288, 289, 304-क, 336, 337 और 338.
- इन ली नेवी बनाम गोल्ड, (1893) 1 डब्ल्यू० बी० 491 पृ० 497.
- एन्ड्रयूज बनाम डी० पी० पी०, (1937) ए० सी० 1983.
- इन रे निदामती नागभूषनम्, 7 मद्रास एच० सी० आर० 119 में जस्टिस होलवे का मत।।
- स्टेट ऑफ गुजरात बनाम डी० पाण्डे, 1971 क्रि० लॉ ज० 760 पृ० 762.
- विलियम्स जी०, क्रिमिनल लॉ 238. विलियम्स जी०, क्रिमिनल लॉ० 238.
- उपरोक्त सन्दर्भ पृ० 239.
किया है उनका यह दायित्व है कि वे अधिनियम की भाषा द्वारा इसे पूर्ण रूप से सिद्ध करें।”8 यह कहना कि इंग्लैण्ड में कोई व्यक्ति बिना दुराशय के तथा विधि द्वारा निषिद्ध कार्य करने के प्रयास के बिना भी दोषी सिद्ध किया जा सकता है (जब तक कि इस विषय पर अधिनियम स्पष्ट न हो) सम्पूर्ण स्थापित इंग्लिश विधि के विरुद्ध है।
कामन लॉ में मन:स्थिति के सिद्धान्त के तीन मान्यता प्राप्त अपराध हैं, यथा सार्वजनिक उपताप (Public nuisance), आपराधिक अपलेख (Criminal Libel) तथा न्यायालय की मानहानि (Contempt of Court)।
लोक उपताप (Public Nuisance)–एक नियोजक अपने नियोजित व्यक्ति के कृत्य के लिये जो बिना उसकी आज्ञा के किया गया है, सिद्ध दोष हो सकता है। स्टीफेन के अनुसार ‘‘लोक उपताप वैधिक दायित्व के निर्वाह से लोप या विधि द्वारा अनुप्रमाणित एक कार्य है जो कृत्य या लोप में बाधा उत्पन्न करता है या असुविधा उत्पन्न करता है या जनता को उसके अधिकारों जो महारानी की सभी प्रजा के लिये सामान्य है, के प्रयोग में क्षति पहुँचाता है।10 भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 लोक उपताप का अपराध नियत करती है। जिसका वर्णन धारा 269 से 294-क तक है। सामूहिक क्षति का सिद्धान्त खतरा (danger), सन्ताप (annoyance), रोगों का फैलाना, भोज्य पदार्थों, पेय पदार्थों तथा दवाइयों में मिलावट, अश्लील पुस्तकों को बेचना, लाटरी कार्यालय का रखना आदि का अधिनियम में प्रयोग सुनहले धागे के समान है। परन्तु भारतीय विधि अपराध के इन प्रकरणों में पुरानी मान्यताओं द्वारा नियन्त्रित होती है। उदाहरण के लिये, लगभग एक शताब्दी पूर्व हिकलिन के वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त आज भी कार्यवाहियों को नियन्त्रित करता है यद्यपि अश्लील पुस्तकों के विक्रय से सम्बन्धित धारा में परिवर्तन हो चुका है। रंजीत डी उदेशी बनाम महाराष्ट्र राज्य11 के वाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी अपराध को पूर्ण होने के लिये साधारणतया दुराशय की आवश्यकता होती है। मामले की परिस्थितियाँ आपराधिक आशय का निर्धारण करती है। धनात्मक साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह निर्णय सीमागत मामलों में सन्देह उत्पन्न करता है। यहाँ तक कि धारा 292 में किया गया संशोधन हिकलिन के प्रभाव को कम करने में असफल रहा। वास्तव में वैज्ञानिक राय तथा पत्रिका एवं सामान्य उपयोग के लिये साधारण पुस्तकों के बीच भेद स्पष्ट किया गया है जो बहुत ही सूक्ष्म है फिर भी प्रशंसनीय है।12 परन्तु वैधिक छानबीन से कला के कार्यों (works of art) का अपवर्जन एक विवादग्रस्त प्रश्न है।13।
वैयक्तिक अपलेख (Private libel)—वैयक्तिक अपलेख का पूर्ण सिद्धान्त अपलेख अधिनियम, 1843 (Libel Act, 1843) के उपबन्धों द्वारा संकुचित कर दिया गया है जो किसी समाचार-पत्र के मालिक को बचाव प्रदान करता था अन्यथा जो पूर्ण दायित्वाधीन था यदि यह सिद्ध हो जाये कि आरोपित हानिकारक वक्तव्य उसकी तरफ से बिना किसी विद्वेष या उपेक्षा के प्रकाशित हुआ था तथा उसने उस वक्तव्य के लिये खेद व्यक्त कर दिया है।14 भारत में समाचार पत्र का मालिक केवल तब दायित्वाधीन है जब यह सिद्ध हो जाता है कि अपमान जनक प्रकाशन आवश्यक आशय से किया गया था यद्यपि समाचार-पत्र या पत्रिका उसके । द्वारा नियुक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा सम्पादित हुई थी। जब यहाँ समाचार-पत्र चलाने तथा प्रकाशन की नीति मालिक द्वारा ही तय की जाती है। केवल सम्पादक की गलती ही मालिक को दायित्व से बचा सकती है।15 मानहानि पर भारतीय विधि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 तथा 500 में वर्णित है। परन्तु भारतीय विधि के उपबन्धों के अधीन लगाया गया आरोप पूर्ण दायित्व का मामला नहीं बनता।।
- चिशोल्म बनाम डाल्टन, (1889) 22 क्यू० बी० डी० पृ० 741.
- एटार्नी जनरल बनाम ब्रेडलाफ, (1885) 14 क्यू० बी० डी० पृ० 689 (सी० ए०).
- स्टीफेन, डाइजेस्ट आफ क्रिमिनल लॉ, 8वाँ संस्क० पृ० 184.
- ए० आई० आर० 1965 सु० को० 881.
- सुकान्त हल्दर बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1952 कल० 214 (215).
- राममूर्ति बनाम मैसूर राज्य, ए० आई० आर० 1954 मैसूर 164 (165).
- स्टेवार्ट एस० डब्ल्यू०, ए० मार्डर्न, व्यू आफ क्रिमिनल लॉ, पृ० 91.
- भगत सिंह बनाम लक्ष्मण सिंह, ए० आई० आर० 1968 कल० 296.
न्यायालय की मानहानि (Contempt of Court)–न्यायालय की मानहानि के प्रकरण में पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त लगभग नया है। आर० बनाम इवनिंग स्टैन्डर्ड16 के वाद में प्रतिवादी समाचार-पत्र ने एक आपराधिक विचारण में साक्ष्य की एक गलत रिपोर्ट प्राप्त किया तथा जूरी द्वारा उसके अध्ययन के पर्व ही प्रकाशित कर दिया। सम्पादक को गलतियों का ज्ञान नहीं था फिर भी समाचार-पत्र को मानहानि के लिये सजा हो गयी क्योंकि जूरी प्रकाशित गलत तथ्यों से प्रभावित हो सकती थी तथा समाचार-पत्र अधिकारियों को ज्ञात होना चाहिये था कि कार्यवाहियाँ चल रही थीं। इस विषय पर भारतीय विधि न्यायालयों को मानहानि सम्बन्धी अधिनियम, 1952 (Contempt of Court Act, 1952) में वर्णित है।17 इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय मानहानि करने वाले व्यक्ति को सजा दे सकता है। इसी प्रकार वह सजा देने का अधिकारी है यदि मानहानि किसी अधीनस्थ न्यायालय की हुई हो। न्यायालय की मानहानि न्यायालय में होने वाले कुप्रभाव से उत्पन्न होती है। न्यायालय को निन्दा का विषय बनाना न्यायालय के सम्मुख दूसरे पक्ष को गाली देना या मनुष्य मात्र को उसके हित के विरुद्ध क्षति पहुँचाना आदि अनेक प्रकार की अधिनियम में कल्पित मानहानियाँ हैं।18 न्यायाधीश के विरुद्ध व्यक्तिगत आक्षेप करना: (aspersions) या न्यायपालिका के समूचे ताने बाने का अपमान करना पूर्ण दायित्व (strict liability) को जन्म देता है। न्यायाधीशों पर अनुचित हेतु (Improper motive) थोपना उचित एवं सद्भावपूर्ण समीक्षा की सीमा को पार करना है और घोर मानहानि के तुल्य हैं।19 न्यायाधीश की योग्यता पर आक्षेप करना न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम करना है।20
अपहरण (Abduction)–कामन लॉ में प्रचलित दुराशय के आवश्यक तत्वों, जो किसी अपराध के लिये अनिवार्य है, को समाप्त करने में इंग्लैण्ड की संसद सक्षम नहीं मानी जाती थी, यद्यपि अधिनियम में यह स्पष्टतः वर्णित नहीं था। न्यायालय के दृष्टिकोण में पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त में परिवर्तन सन् 1875 में आर० बनाम प्रिंस21 के वाद में हुआ। इस प्रकरण में अभियुक्त एक लड़की का अपहरण करने के सिलसिले में दोषी पाया गया। यद्यपि दुराशय के सन्दर्भ में यह दोषहीन था। एक पूर्व प्रकरण आर० बनाम हिब्बर्ट22 में अभियुक्त एक लड़की से एक गली में मिला, उसे दूसरे स्थान पर ले गया, वहाँ उसे अपमानित किया तथा बाद में लड़की को वहीं छोड़ गया जहाँ उससे मिला था। लड़की अपने पिता के संरक्षण में थी परन्तु यह निश्चित हुआ कि जूरी की इस राय के अभाव में कि अभियुक्त को इस तथ्य का ज्ञान था या जानबूझकर लड़की की संरक्षकता के बारे में जानने से अपने को अलग रखा, उसे मुक्त कर दिया जाना चाहिये। हिब्बर्ट के वाद में अभियुक्त को रिहा कर दिया गया, क्योंकि उसे न तो वास्तविक और न ही विवक्षित ज्ञान था कि वह किसी व्यक्ति के संरक्षण में है। प्रिंस के वाद में अभियुक्त को इसलिये सजा हुई, क्योंकि प्रचलित सिद्धान्त यह था कि जो व्यक्ति किसी लड़की का अपहरण करता है वह जहाँ तक लड़की की उम्र का प्रश्न है, अपने को खतरे में डाल सकता है। भारत में प्रिंस जैसे प्रकरण दण्ड संहिता की धारा 363 के अन्तर्गत विचारणीय हैं। यह बचाव, । कि अभियुक्त को यह ज्ञात नहीं था कि लड़की अधिनियम द्वारा निश्चित उम्र से कम की है या उसकी शारीरिक बनावट ऐसी थी कि वह अधिनियम द्वारा निर्धारित उम्र से अधिक दिखती थी तथा अभियुक्त ने यह विश्वास किया कि वह सहमति देने की आयु प्राप्त कर चुकी है, स्वीकार नहीं किया जा सकता।23
द्विविवाह (Bigamy)-इंग्लैण्ड में द्विविवाह का अपराध व्यक्तियों के विरुद्ध अधिनियम, 1861 (Offences Against Persons Act, 1861)24 की धारा 57 द्वारा नियत किया गया है। इस विषय पर
- (1954) 1 क्यू० बी० 578.
- दि कन्टेम्प्ट आफ कोर्ट एक्ट, 1952 की (धारा 3).
- 1969 केरल लॉ जरनल 453 (डी० बी०).
- ए० आई० आर० 1953 सु० को० 75(76).
- ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1491.
21, (1875) एल० आर० 2 सी० सी० आर० 154.
- (1869) एल० आर० 1 सी० सी० आर० 164.
- 1 कृष्ण महाराना (1929) 9 पटना 647.
- धारा 57 देखिये।
आर० बनाम टाल्सन25 तथा आर० बनाम ह्वीट26 दो प्रमुख वाद हैं जिनका वर्णन हम पहले कर चुके हैं। एक दूसरा वाद आर० बनाम डोलमैन है।27 इस प्रकरण में मिस्टर डोलमैन ने समुचित आधार पर विश्वास किया, सचमुच ही विश्वास किया कि मिसेज डोलमैन ने जिस समय उनके साथ विवाह किया वह ग्रे नामक एक व्यक्ति से विवाहित थी। मिस्टर डोलमैन के वाद में जेन्सन नामक दूसरी लड़की के साथ विवाह कर लिया, क्योंकि उनका विश्वास था कि उन्होंने मिसेज डोलमैन से कभी विवाह नहीं किया था। मिस्टर डोलमैन को जेन्सन के साथ विवाह करने के अभियोग से मुक्त कर दिया गया, यद्यपि अभियोजन द्वारा यह सिद्ध कर दिया गया था कि वह मिसेज डोलमैन के साथ विवाहित थे। इस प्रकरण में यह स्पष्ट है कि जिस समय जेन्सन के साथ मिस्टर डोलमैन ने विवाह किया उनका आशय या इच्छा अपनी पूर्व पत्नी के जीवनकाल में दूसरा विवाह करने का नहीं था। ह्वीट के प्रकरण के विरुद्ध इसमें डोलमैन को यह विश्वास था कि वह कभी वैधिक रूप में विवाहित नहीं था यद्यपि अभियोजन ने यह सिद्ध किया था कि मिसेज डोलमैन उनकी वास्तविक पत्नी थी। यदि उसका विश्वास सत्य था तो उसे धारा 57 के परन्तुक पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं थी। । भारत में द्विविवाह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत एक अपराध है। धारा 494 इंग्लिश विधि के उपबन्धों के अनुरूप हैं। यद्यपि धारा 494 का दूसरा अपवाद निर्दोषता की कल्पना दूसरे दम्पत्ति की। सात साल की लगातार अनुपस्थिति के तथ्य से करता है। परन्तु धारा 494 आंग्ल विधि के दूसरे अपवाद, जो दूसरे विवाह के समय दूसरे दम्पत्ति की मृत्यु के बारे में सद्भावपूर्ण विश्वास से सम्बन्धित है, को स्वीकार नहीं करती। इस लोप के कारण ही भारतीय तथा इंग्लिश निर्णयों में मतभेद है। इंग्लिश निर्णय इस बात का समर्थन करते हैं कि यद्यपि दूसरे विवाह के समय एक दम्पति की मृत्यु हुयी अभी 7 वर्ष पूरे नहीं हुये हैं। परन्तु समुचित आधारों पर सद्भाव में विश्वास है कि दम्पति की मृत्यु हुये 7 वर्ष बीत चुके हैं एक अच्छा बचाव साबित हो सकता है।28 भारत में बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मामले29 में टाल्सन जैसी परिस्थितियों में ही टाल्सन के निर्णय से भिन्न निर्णय दिया था। धारा 494 द्विविवाह को आशय के बिना भी। अपराध मानती है। अत: संहिता के अन्तर्गत निर्दोष होने तथा दुराशय के अभाव का तर्क द्विविवाह के आरोप से मुक्ति नहीं दिला सकता, परन्तु यदि दूसरा व्यक्ति लगातार 7 वर्ष तक गायब है तथा ऐसे व्यक्ति द्वारा जीवित नहीं सुना गया तो पहला दम्पति विवाह करने के लिये स्वतन्त्र है किन्तु यह आवश्यक है कि दूसरा विवाह करने वाला व्यक्ति अपने दूसरे पक्षधर को इस बात की जानकारी शादी करने से पहले दे दे। परन्तु यदि दूसरे विवाह के समय 7 वर्ष की अवधि पूरी नहीं हो चुकी है तो विवाह करने वाला व्यक्ति साधारण अपवाद की सहायता ले सकता है बशर्ते कि उसे सिद्ध करना होगा कि उसने छानबीन किया तथा दूसरे दम्पति की मृत्यु के बारे में विश्वास करने के लिये उसके पास पर्याप्त आधार था।
सांविधिक अपराध (Statutory offences)–आधुनिक समय में पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त लोकोपकारी अपराधों में अधिक दृष्टिगत होता है। लोकोपकारी अपराध क्षुद्र प्रकृति तथा क्षुद्र दण्ड से दण्डनीय अधिनियमित अपराध है। ये अपराध अपमिश्रित (adulterated) दवाइयों तथा भोज्य पदार्थों के विक्रय, या कब्जा से सम्बन्धित अपराध या सड़क यातायात से सम्बन्धित अपराध या सीमा शुल्क (custom) नियमों तथा विदेशी मुद्रा विनियमन से सम्बन्धित है।
यह अवधारणा है कि दुराशय का सिद्धान्त अधिनियमित अपराधों सहित सभी अपराधों पर लागू होता है। परन्तु यह अवधारणा अधिनियम, जो अपराध नियत करता है, में प्रयुक्त शब्दों द्वारा या उस विषय-वस्तु । द्वारा जिससे यह सम्बन्धित है प्रतिस्थापित (displaced) किया जा सकता है। इसलिये दोनों को ध्यान में रखना चाहिये।30 जैसा कि हमें ज्ञात है कण्डी बनाम ली काक31 तथा शेराज बनाम डी० रूटजेन32 इस विषय
- (1889) 23 क्यू० बी० डी०168.
- (1921) 2 के० बी० 119.
- (1949) 1 आल० ई० रि० 813.
- आर० बनाम टाल्सन, (1889) 23 क्यू० बी० डी० 168.
- शम्भू, I बाम्बे 347.
- शेराज बनाम डी० रूट्जेन, (1895) 1 क्यू० बी० 918.
- (1884) 13 क्यू० बी० डी० 207.
- (1895) 1 क्यू० बी० 918.
पर दो परस्पर विरोधी निर्णय हैं। लाई गोडार्ड द्वारा इंगित सामान्य नियम यह है कि कृत्य स्वयं में दोषी नहीं है मानसिक अवस्था इसे दोषी बनाती है” (Artius on facilin islndi sil ru) और जब तक अधिनियम या तो स्पष्टत: या विवक्षित (implication) अर्थ द्वारा दुराशय की उपयोगिता को समाप्त नहीं। करता। न्यायालय को चाहिये कि वह किसी व्यक्ति को दोषी घोषित न कर जब तक उसका आपराधिक आशय ने स्पष्ट हो जाये। उच्च न्यायालय ने इस विचार को अपनी सहमति आर० हरी प्रसाद राव बनाम राज्य के बाद में दे दिया।
अतः हमने देखा कि बहुत अधिक संख्या में नये अधिनियम दण्ड निर्धारित करते समय दुराशय को अपवर्जित कर देते हैं। पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त को स्वीकार किये जाने के सम्बन्ध में निम्नलिखित कुछ सुझाव
(1) ऐसे सारे अपराध लगभग क्षुद्र प्रकृति के हैं और मात्र आर्थिक दण्ड द्वारा दण्डनीय हैं, जिन प्रकरणों में अभियोजन का परिणाम केवल तुच्छ आर्थिक दण्ड है दुराशय के बारे में छानबीन का अपवर्जन (exclusion) अनुपयुक्त न होगा।34
(2) ऐसे प्रकरणों में दुराशय के बारे में पर्याप्त साक्ष्य इकट्ठा करना एक दुष्कर कार्य होगा। ऐसे बचाव को स्वीकार करने का अर्थ होगा कि प्रत्येक अभियुक्त मात्र ज्ञान के अभाव का बयान कर अपने को दायित्व से मुक्ति दिला लेगा।35
(3) लोकोपकारी अपराध, उन कृत्यों, जो आन्तरिक रूप में दोषपूर्ण नहीं हैं किन्तु लोकहित में जिनको दण्डित किया जाना आवश्यक है, को दण्डनीय बनाकर सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। दूसरे शब्दों में ये अपराध विधि द्वारा मात्र निषिद्ध है (mala prohibita) न कि मूल रूप में अपराध (mala in Se) हैं।
(4) न्यायालय के सम्मुख लाये जाने वाले अतिक्रमणों तथा यह तथ्य कि अधिकतर प्रकरणों में प्रतिवादी सम्भवत: दोषी है, यद्यपि उसकी मानसिक अभियोज्यता को साबित करना कठिन है, की संख्या को ध्यान में रखते हुये न्यायालय द्वारा इन प्रश्नों की छानबीन करना मात्र समय बर्बाद करना होगा।6। |
(5) पूर्ण दायित्व के समर्थन में एक तर्क यह भी है कि उन लोगों को जो पहले से ही सावधान एवं कुशल हैं, में अतिरिक्त सावधानी एवं कुशलता को प्रोत्साहित करती है।
प्रथम तर्क के सम्बन्ध में यह स्पष्ट नहीं होता कि क्यों क्षुद्र दण्ड दुराशय के परित्याग को उपयुक्त ठहराये तथा जो भी हो जुर्माना ही दण्ड नहीं है जिसे प्रतिवादी प्राप्त करता है। उसे विचारण (Trial) बदनामी तथा सजा का तिरस्कार (odium of punishment) भी भुगतना पड़ता है जो किसी न किसी मात्रा में जुर्माने में मौजूद रहता है तथा जो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिये अधिक तीव्र दण्ड होता है बजाय इसके कि कोई चीज उसके जेब से छीन ली जाय।37 इसके अतिरिक्त आधुनिक समय में जुर्माना ही एकमात्र दण्ड नहीं है, जुर्माने के साथ-साथ बहुत से मामलों में कैद की भी सजा दी जाती है।
पूर्ण दायित्व (strict liability) के विरोध में यह कहा जाता है कि दुराशय (mens rea) के बारे में छानबीन किये बिना तुच्छ जुर्माने लगाने की प्रथा वास्तविक अपराधियों को जरा भी विचलित नहीं करती 38 सदोष अपराधियों तथा अन्य के बीच विभेद करना अर्थात् पहले प्रकार के लोगों को सख्त दण्ड देना तथा दूसरे लोगों को साधारण दण्ड देना विधि के समुचित अनुपालन में मदद करेगा।9।
पूर्णदायित्व के सिद्धान्त के विरुद्ध दूसरी आपत्ति यह है कि यह समुदाय की नैतिक भावनाओं का दुरुपयोग है। ऐसे व्यक्तियों को जो बिना नैतिक दोष के हैं उन्हें अपराधियों की तरह अलग करने की प्रथा
- ए० आई० आर० 1951 सु० को० 204,
34, हाब्स बनाम विन्चेस्टर कारपोरेशन, (1910) के० बी० 481 (सी० ए०).
- नोट, 42 मिशीगन ला रिव्यू, 1103, पृ० 1106 (1944).
- विलियम्स जी; क्रिमिनल लॉ, पृ० 259.
- उपरोक्त संदर्भ
- उपरोक्त सन्दर्भ पृ० 269.
- हाल, जेरोम; जनरल प्रिंसिपल्स आफ क्रिमिनल लॉ (प्रथम संस्क०) पृ० 301-302.
विधि के प्रति सम्मान को कम करती है तथा उनकी भर्त्सना करती है जो इसका उल्लंघन करते हैं 40 जब सजा पाना सम्माननीय हो जाएगा तो आपराधिक विधि का महत्व समाप्त हो जाएगा 41 आपराधिक विज्ञान में लिखे अपने लेख में हाल स्पष्ट करते हैं कि-”दिन पर दिन यह स्पष्ट होता जा रहा है कि आपराधिक विधियों में पूर्ण दायित्व का कोई स्थान नहीं है। बल्कि यह बर्बरता का लक्षण है कि लोगों को बिना कारण होते हुये भी दण्ड दिया जाए। मैंने किसी ऐसे साक्ष्य को नहीं देखा है जो दाण्डिक विधि में ऐसे दायित्व का समर्थन करें। खासकर कि यह स्टैण्डर्ड को बढ़ाता है तथा लोगों की रक्षा करता है।”
हाल के अनुसार पूर्ण दायित्व के अस्तित्ववान होने के प्रमुख कारण अब मौजूद नहीं हैं। अत: दो विकल्प इस सन्दर्भ में सुझाये गये हैं
(1) लोकोपकारी अपराधों को परम्परागत अपराधों से अलग रखना चाहिये तथा प्रशासकीय संस्थाओं द्वारा इन्हें प्रवर्तित कराना चाहिये 12
(2) अधिनियमित अपराधों43 में उपेक्षा को मन:स्थिति के लिये पर्याप्त माना जाना चाहिये तथा अभियुक्त यह सिद्ध करने के लिये बाध्य हो कि उसने पर्याप्त सावधानी से कार्य किया 44
उपरोक्त सुझावों में से एक यह है कि लोकोपकारी और इसी तरह के अन्य विनियमों को दाण्डिक विधि से हटा देना चाहिये। ‘‘यह शुभारंभ प्रारंभिक शुरुआत के रूप में अधिक प्रभावकारी हो सकती है यदि उन नियमों को जिनमें उपेक्षा की आवश्यकता है, व्यावहारिक अपराध संहिता (Code of Civil Offences) के रूप में अलग कर दिया जाए और जिनका विचारण (trial) प्रशासकीय न्यायाधिकरण या सिविल कोर्ट द्वारा होना चाहिये। यदि उसी समय निरीक्षण, शिक्षा तथा सलाह रेग्यूलेटरी बोर्ड (Regulatory Board) द्वारा प्रदान किया जाए तथा आपराधिक न्यायालयों का कार्य केवल उन उल्लंघनों तक सीमित रखा जाए जिनमें दुराशय मौजूद हो, तो हम इन प्रश्नों को अच्छी तरह सुलझा सकते हैं।”45
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