Indian Penal Code Principle of Legality LLB 1st Year Notes
Indian Penal Code Principle of Legality LLB 1st Year Notes:- Today in today’s post of Indian Penal Code, you are Principle of Legality LLB 1st Year? 1st Semester Notes Study Material Question with Answer Model Sample Paper in PDF Download in Hindi.
VI
वैधानिकता का सिद्धान्त
(PRINCIPLE OF LEGALITY)
किसी
अभियुक्त व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा जीवन दोनों ही को खतरा रहता है। अत: यह आवश्यक है। कि उसकी सुरक्षा के लिये कुछ उपाय किये जायें। ये उपाय हमारे सहित लगभग विश्व के सभी शिष्ट विधि प्रणालियों में सामान्य हैं। उनमें से एक सिद्धान्त है “कोई कार्य तब तक अपराध की श्रेणी में नहीं आता जब तक वह किसी विधि के अन्तर्गत अपराध के रूप में उद्घोषित नहीं कर दिया जाता, बिना विधि के किसी aft an afusa Fet for en GI Hobal” (Nullum crimen sine lege nulla poena sine lege) 54 नियम को वैधानिकता का सिद्धान्त” के नाम से जाना जाता है। इसे फ्रांसीसी क्रान्ति के समय से ही स्वयं स्पष्ट न्याय सिद्धान्त के रूप में जाना जाता रहा है। डायरी ने लिखा है कि अंग्रेज लोग विधि और केवल विधि द्वारा शासित होते हैं और कोई अंग्रेज केवल विधि के उल्लंघन के लिये दण्डित हो सकता है किन्तु किसी अन्य
चीज के लिये नहीं। इसका कारण यह है कि नागरिकों में पहले से ही यह सुनिश्चित कर लेने की क्षमता •होनी चाहिये कि उनकी स्थिति आपराधिक विधि में क्या है, अन्यथा उस विधि के उल्लंघन के लिये उसे दण्डित करना प्रयोजनहीन क्रूरता है। दण्ड निर्धारण किसी विधि के उल्लंघन के लिये होना चाहिये, क्योंकि यह अपने सभी रूपों में किसी प्रलाभ या अधिकार के हनन के तुल्य है और जो विधि के उल्लंघन पर निर्भर
- विलियम्स जी, क्रिमिनल लॉ पृ० 289.
- गार्डनर बनाम अकेरायड, (1952) 2 क्यू० बी० 743 पृ० 751.।
- रेनोल्ड बनाम डी० एच० आस्टीन एण्ड संस लिमिटेड, (1951) 2 के० बी० 135.
- बैटी : वाइकेरियस लायबिलिटी, 218.
- एडवर्ड्स : मेन्सरिया, पृ० 243. |
है | इसका जब यह गुण समाप्त हो जाता है तो यह हिंसा के स्वच्छन्द कार्य में परिवर्तित हो जाता है जिससे केवल अनुपयुक्त सामाजिक प्रभाव उत्पन्न होता है।60
| बिना विधि के दण्ड न दिया जाय (Nulla Poena sine lege) नामक उक्ति निम्नलिखित नियमों का निर्धारण करती है
(1) दाण्डिक विधि भूतलक्षीय नहीं होनी चाहिये (Non-retroactivity of penal laws);
(2) दाण्डिक विधि की कठोर व्याख्या की जानी चाहिये (Penal statutes should be construed strictly);
(3) विधि विधानों की निश्चितता (Certainty in legislation), और
(4) विधि की अधिमान्यता (Accessibility of the law)।।
- दाण्डिक विधि भूतलक्षीय नहीं होनी चाहिये-सामान्य नियम यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी संविधि के अनुसरण में जो किसी आपराधिक आचरण के लिये दण्ड का निर्धारण करती है, दण्डित किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि दाण्डिक विधि भूतलक्षीय प्रभाव से युक्त नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, दाण्डिक विधियों का भूतलक्षीय प्रभाव नहीं होना चाहिये। यह सर्वथा अनुचित होगा कि कोई कार्य उस समय, जिस समय किया गया, वैध था बाद में आपराधिक घोषित कर दिया जाए, कोई कार्य जिस समय किया गया, किसी दण्ड से दण्डनीय था, परन्तु बाद में अधिक कठोर दण्ड से दण्डनीय घोषित कर दिया जाए। यहाँ तक कि प्रक्रियात्मक परिवर्तन, यदि वे अभियुक्त के लिये गम्भीर रूप में अहितकर हैं तो उन्हें भूतलक्षी प्रभाव से युक्त नहीं किया जा सकता 61 हाब्स के अनुसार, ”किसी कार्य के सम्पादित हो जाने के पश्चात् बनाई गई कोई विधि उसे अपराध नहीं बना सकती, क्योंकि यह विधि की निगाह में विधि का संक्रमण नहीं है।”62 द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अपराधियों को ऐसे अपराधों के लिये वर्धित आर्थिक दण्डों से दण्डित किया गया जो सम्बन्धित अधिनियम के पारित होने के पूर्व कारित हुये थे। ऐसे आदेश असंवैधानिक माने जाएंगे। । फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और अन्य बहुत से देशों के संविधानों में भी ऐसे नियम बनाये गये हैं जो अपराध के क्षेत्र में भूतलक्षी विधियों के प्रवर्तन को प्रतिषिद्ध करते हैं।
मानवाधिकारों की विश्व-व्यापी उद्घोषणा (The Universal Declaration of Human Rights) के अनुच्छेद 11(2) में भी उपरोक्त सिद्धान्त को सम्मिलित किया गया है। मानवाधिकारों के यूरोपीय कन्वेशन (European Convention of Human Rights) के अनुच्छेद 7 में भी इस सिद्धान्त को दुहराया गया है, परन्तु शिष्ट राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य नियमों के अनुसार ऐसे कार्यों के लिये जो आपराधिक है, दण्ड अभिस्वीकृत है। | इंग्लैण्ड में यद्यपि संसद भूतलक्षी विधानों का अधिनियमन करने के लिये सक्षम है परन्तु वह आपराधिक विधि के क्षेत्र में कभी ऐसा नहीं करती है और न ही कभी इंग्लिश न्यायालय दाण्डिक अधिनियमों की इस प्रकार व्याख्या करते हैं जब तक कि संसद द्वारा यह स्पष्ट रूप से आशयित और व्यक्त न हो। अमेरिकी संविधान का अनुच्छेद 9(3) भूतलक्षी विधियों के विरुद्ध विशिष्ट प्रतिबन्ध प्रतिपादित करता है। भारत में इस सिद्धान्त का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 20(1) में किया गया है। अनुच्छेद 20(1) उद्घोषित करता है। कि
“किसी भी व्यक्ति को किसी भी ऐसे अपराध के लिये दोषसिद्धि प्रदान न की जाएगी, जो उस समय, जब वह कार्य किया गया था, और जिसके लिये उसे आरोपित किया गया था, किसी ऐसी विधि का, जो उस समय प्रवर्तन में नहीं था, अतिलंघन न था, और न तो उसे उस दण्ड से अधिक दण्ड ही प्रदान किया जायेगा, जो उस समय जब कार्य किया गया, किसी प्रवर्तित विधि के अन्तर्गत निश्चित था।”
- विलियम्स जी०, क्रिमिनल लॉ (दूसरा संस्करण) पृ० 575.
- हाल, जेरोम, प्रिन्सिपल्स ऑफ क्रिमिनल लॉ, दूसरा संस्करण, पृ० 61.
- एल० हाब्स (1651) अध्याय, 27-28.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(1) में निम्नलिखित दो बातें समाहित हैं
(क) कोई भी विधि भूतलक्षीय प्रचलन द्वारा कोई अपराध गठित नहीं कर सकता;
(ख) कोई भी विधि व्यक्ति को उस दण्ड से अधिक दण्ड से दण्डित नहीं कर सकती जो उस समय, जब कार्य किया गया, विधि के अन्तर्गत निश्चित था।
भारतीय संविधान में उल्लिखित प्रतिषेध विधानांग को भूतलक्षीय प्रक्रियात्मक विधियों के अधिनियम से वंचित नहीं करता जब तक कि विधानांग अभियुक्त को उसके सारवान अधिकारों से जो उसकी प्रतिरक्षा के लिये आवश्यक है, वंचित नहीं करता।63 किन्तु यह आवश्यक है कि प्रक्रियात्मक विधियाँ ऐसे किसी कार्य को अपराध घोषित न करें, जो पहले कभी अपराध नहीं था और न ही पूर्व निश्चित दण्ड की मात्रा में वृद्धि करें 164 कोई भी भूतलक्षीय विधि जो कि अभियुक्त के लिये हितकारी है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(1) के अन्तर्गत प्रतिषिद्ध नहीं है।65
- दाण्डिक विधि की कठोर व्याख्या (Strict construction of penal laws)–नियम यह है। कि दाण्डिक विधि की कठोर व्याख्या की जानी चाहिये।66 चूंकि सभी दाण्डिक विधियाँ प्रजाजनों की स्वतन्त्रता को प्रभावित करती हैं इसलिये उनकी कठोर व्याख्या होनी ही चाहिये ।67 इस नियम का अर्थ यह है कि अभियुक्त के विचारण के समय न्यायालय को यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिये कि क्या वह कार्य या लोप जिसका आरोप उस पर लगाया गया है, उपबन्ध में प्रयुक्त शब्दों, जो उस कार्य या लोप को अपराध घोषित करते हैं, के सपाट अर्थ के अन्तर्गत आता है? उपबन्ध में प्रयुक्त शब्दों को तोड़-मरोड़ कर उनकी व्याख्या नहीं की जानी चाहिये। आरोपित व्यक्ति को यह तर्क प्रस्तुत करने का अधिकार होता है कि आरोपित कार्य या लोप यद्यपि सम्बन्धित उपबन्ध में प्रयुक्त शब्दों के अन्तर्गत है, किन्तु अधिनियम की आत्मा (spirit) के अन्तर्गत नहीं है। दाण्डिक संविधि का विस्तार व्याख्या द्वारा नहीं किया जा सकता। संविधि में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द को पूर्णतया प्रभावी बनाया जाना चाहिये। दाण्डिक अधिनियम की व्याख्या में प्रयुक्त कठोरता की मात्रा बहुतायत से संविधि की कठोरता पर निर्भर करती है। दाण्डिक विधियों की व्याख्या करते समय यह ध्यान में रखना चाहिये कि यदि संविधि में प्रयुक्त अस्पष्ट शब्दावली उसके अर्थ और विस्तार के संदर्भ में सन्देहास्पद है तो इस सन्देह का लाभ अभियुक्त को मिलना चाहिये। लिवरसिज बनाम एन्डर्सन68 के वाद में लार्ड एटकिन ने यह मत व्यक्त किया कि किसी मामले में जिसमें किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता विचाराधीन है, इस संविधि की प्राकृतिक व्याख्या से परे नहीं जा सकते।”
कठोर व्याख्या का सिद्धान्त संविधि के केवल उस अंश पर लागू होता है जो अपराध का सृजन करता है। यह संविधि द्वारा प्रतिपादित किसी उन्मुक्ति या बचाव पर लागू नहीं होता क्योंकि इसकी व्याख्या सदैव अभियुक्त के पक्ष में की जाती है। प्राइस69 के वाद में जज स्टीफेन ने कहा था कि
“आपराधिक विधि का सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि कोई भी चीज अपराध नहीं है जब तक कि वह स्पष्टतया निषेधित न हो…………नि:सन्देह इस नियम के अपवाद हैं..किन्तु वे विरले ही हैं तथा उन्हें अत्यधिक अनिच्छा से स्वीकार किया जाना चाहिये और तब जब इसके लिये अत्यधिक मजबूत आधार
हो।’
। कोई भी न्यायाधीश न्यायिक व्याख्या द्वारा अपराध का विस्तार करने का दावा नहीं कर सकता किन्तु बचाव या न्यायोचितता का विस्तार कर सकता है जहाँ न्यायानुरूप बनाने के लिये यह आवश्यक है।70
- मिलर; हैण्ड बुक आफ क्रिमिनल लॉ, (1934) पृ० 37.
- पी० पी० बनाम अयप्पन, ए० आई० आर० 1953 मद्रास 337.
- रतन लाल बनाम स्टेट आफ पंजाब, ए० आई० आर० 1965 सु० को० 444.
- मैववेल आन कान्स्ट्रक्शन आफ स्टेट्यूट (7वाँ संस्करण) पृ॰ 268.
- जगमोहन बक्शी बनाम राय मथुरा नाथ, 7 डब्ल्यू० आर० (पी० सी०) 18.
- 1942 ए० सी० 206.
- (1884) 12 क्यू० बी० डी० 247.
- विलियम्स जी; क्रिमिनल लॉ, दूसरा संस्करण पृ० 600.
- 3. विधि-व्यवस्था की निश्चितता (Certainty in Legislation)—वैधानिकता (Nutlium erinten) का सिद्धान्त एक प्रकार से विधान-मंडल के लिये निषेधाज्ञा है क्योंकि यह विधानमंडल को इस बात के लिये बाध्य करता है कि वह अपने संविधियों की संरचना इतने व्यापक शब्दों में न करे कि इसके दायरे के अन्तर्गत अभियोजन प्राधिकारी या जज की इच्छा अनिच्छा पर किसी भी व्यक्ति को लाया जा सके। इस सूत्र का अतिलंघन करने वाली संविधियों की व्याख्या इंग्लैण्ड में बहुत ही सावधानी से की जाती है। जबकि संयुक्त राज्य में ऐसी संविधियों को असंवैधानिक तथा शुन्य माना जाता है।72 जो लोग दाण्डिक विधियों से प्रभावित होते हैं उनके लिये इनका पर्याप्त रूप से सुनिश्चित होना आवश्यक है। लोगों को अपने दायित्व का ज्ञान होना चाहिये तथा यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कौन से कार्य विधि द्वारा प्रतिषिद्ध किये गये। हैं यह भी तभी सम्भव है जब विधि निर्धारित तथा सुनिश्चित हो। लार्ड मैकाले के अनुसार भी दाण्डिक विधियों का सुनिश्चित होना आवश्यक है। इसका सुनिश्चित होना इसलिये आवश्यक है ताकि लोगों को पहले। से ही यह ज्ञात रहे कि कौन से आचरण आपराधिक हैं और कौन नहीं? भारतीय दाण्डिक विधि अधिनियमित है। अतः वह पूर्णतया सुनिश्चित है। बहुत से अन्य देशों की भाँति, भारतीय दाण्डिक विधि उन कार्यों को घोषित करती है जिन्हें वह आपराधिक समझती है और उन्हें दण्डनीय बनाती है। कोई व्यक्ति तभी दण्डित किया जाएगा जब वह दण्ड संहिता में वर्णित कोई अपराध कारित करे। विधि व्यवस्था की निश्चितता का केवल यह अर्थ नहीं है कि अपराध का गठन विधि द्वारा होना चाहिये, इसका अर्थ यह भी है कि प्रतिषेध स्पष्ट, निश्चित तथा अभ्रामक शब्दों में वर्णित होना चाहिये।
- विधि की अधिगम्यता (Accessibility of the law)–दाण्डिक विधि का सुगम्य और सुबोध (accessible and intelligible) होना आवश्यक है क्योंकि यह सम्पूर्ण समाज के लिये सम्बोधित रहता है।
और समाज का प्रत्येक नागरिक दण्ड के भय से इसका अनुपालन करने के लिये बाध्य होता है।73 लगभग । सभी देशों में दाण्डिक विधियाँ अधिनियमित हैं। किन्तु अधिनियमित विधियाँ भी प्राधिकृत व्याख्या के अध्यधीन होती हैं। विधि के सम्बन्ध में यह कहना सर्वथा अनुपयुक्त है कि प्रत्येक नागरिक इसे जानता है। परन्तु यह महत्वपूर्ण है कि उसमें इसका अभिनिश्चयन करने की क्षमता होनी चाहिये।74 विधि की महत्ता के लिये उसका समुचित प्रचार आवश्यक है। विधि के प्रचार एवं प्रसार पर अपना विचार व्यक्त करते हुये उच्चतम न्यायालय ने हरला बनाम राजस्थान राज्य75 के वाद में कहा कि “नागरिकों को किसी ऐसी विधि के अन्तर्गत दण्डित करना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त के विरुद्ध होगा जिसका कि उन्हें न तो ज्ञान था और न ही समुचित उद्यम के बावजूद भी जिसका ज्ञान उन्हें हो सकता था। नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त यह प्रतिपादित करता है कि किसी भी विधान का क्रियान्वयन उद्घोषणा तथा प्रकाशन के बाद ही न्यायोचित होता है।”
विधि में यह अपेक्षित है कि दाण्डिक विधि का संक्षिप्त एवं प्राधिकृत वक्तव्य नागरिकों के लिये सामान्यतया उपलब्ध होना चाहिये। इसकी आवश्यकता वहाँ नहीं होती जहाँ नैतिकता के सामान्य नियमों को केवल विधिक स्वरूप प्रदान किया जाता है या विभिन्न अपराधों के बीच अन्तर स्पष्ट किया जाता है। किसी साधारण व्यक्ति के लिये यह आवश्यक नहीं है कि उसे हत्या और आपराधिक मानव वध के बीच अन्तर स्पष्ट हो, किन्तु उसे यह अवश्य ज्ञात होना चाहिये कि वह यदि किसी दूसरे व्यक्ति पर प्रहार करेगा तो दण्डित होगा।
| फिर भी, जैसा कि ग्लैनविल विलियम्स ने स्पष्ट किया है, कुछ प्रमुख अपराधों के सम्बन्ध में दायित्व को लेकर सन्देह उत्पन्न हो जाता है। उदाहरण के लिये, हत्या करना अपराध है, फिर भी कुछ अपराधों को निवारित करने या कुछ अपराधियों को पकड़ने के लिये हत्या करना वैध है। प्रश्न यह है कि वे कौन से अपराध हैं या वे कौन से अपराधी हैं जिनमें हत्या वैध है? इस प्रश्न का उत्तर न तो किसी विधान में दिया
- विलियम्स जी; क्रिमिनल लॉ, दूसरा संस्करण पृ० 578.
- एग्लर 21 मिशीगन लॉ रिव्यू 831 : 38 हार्वर्ड लॉ रिव्यू, 963.
- विलियम्स जी; क्रिमिनल लॉ (दूसरा संस्करण) पृ० 582.
- स्टैल ब्रास ; माडर्न अप्रोच टू क्रिमिनल लॉ पृ० 66.
- 1952 एस० सी० आर० 110.
गया है और न ही इन्हें निर्णय विधि द्वारा स्पष्ट किया गया है। अतः यह अपेक्षित है कि यदि कोई विधान कोई अपराध गठित करता है तो वह सभी के लिये सुलभ होना चाहिये। ‘सुलभ होने से तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति इसे जानना चाहे तो वह इसे जान सके।
बिना विधि के अपराध नहीं” (Nullum Crimen) के सिद्धान्त की आलोचना-किसी विधि के अन्तर्गत अपराध की उद्घोषणा एवं बिना विधि के किसी व्यक्ति को दण्डित न किया जाना (Nutta Poehd sine lege, Natlium Crimen sine lege) दोनों ही सिद्धान्त आलोचना से उन्मुक्त नहीं हैं। इनके पक्ष में प्रस्तुत किये गये कुछ तर्क इस प्रकार हैं
(1) यदि दण्ड भयकारक न होकर नैतिक दोष के लिये प्रतिकारक है, तो इसका अर्थ है कि न्यायाधीश को समुचित दण्ड के अन्तर्गत उन व्यक्तियों को दण्डित करने का अधिकार होना चाहिये जो नये किस्म के दोष का सृजन करते हैं। नैतिकता के तहत उन लोगों को विशेष उन्मुक्ति नहीं दी जा सकती जो “प्राचीनतम पोप नवीनतम तरीके से करते हैं”। किन्तु यदि दण्ड केवल भयकारक है तो नवीन किस्म के दुराचरण विधान मण्डल द्वारा केवल भविष्यलक्षी रूप में दण्डित हो सकेंगे न कि न्यायाधीश द्वारा भूतलक्षीय रूप में क्योंकि यदि प्रथम दोषकर्ता को यह आभास नहीं था कि वह दण्डित होगा तो दण्ड का भय उसे कभी विचलित नहीं कर सकता था और दण्ड निरर्थक हो जायेगा। जहाँ तक भविष्य का प्रश्न है अपराधकर्ता नवीन गुरुतर दण्ड से उसी प्रकार का भयभीत होगा जिस प्रकार कोई अपराधकर्ता नवीन अपराध के लिये भूतलक्षी रूप में दण्डित होकर भयभीत होता है।
(2) शास्ति अधिरोपण द्वारा अभियुक्त को कारित पीड़ा केवल उपयोगितावादी उद्देश्य की पूर्ति कर सकती है यदि इसकी परिणति किसी सामाजिक लाभ में होती है। किन्तु यदि निर्णय वर्तमान विधि के अनुरूप न होकर अन्यथा दिया जाता है तो यह सम्भव न होगा।
इस सूत्र से सम्बन्धित कुछ प्रतिक्रियायें इस प्रकार हैं77
(1) यह सूत्र तभी विधिमान्य होगा जब सभी भावी अपराधी वकील रहे हों। वस्तुतः साधारण आदमी यह नहीं जानता कि कौन से आचरण आपराधिक विधि द्वारा निश्चयतः दण्डनीय हैं और कौन से नहीं? साधारण अपराधी अपराध करने के पूर्व अपराध की निश्चित सीमा जानने हेतु अपने वकील से सलाह मशविरा नहीं करता। अतः यह अवधारणा कि लोग विधान जानते हैं और उसके सारवान उपबन्धों से भयभीत रहते हैं, मात्र मिथ्या है।
(2) आपराधिक विधि साधारणतया इसलिये जानी जाती है क्योंकि या तो इससे प्रचलित नैतिकता। प्रतिबिम्बित होती है या तो दोषसिद्धि प्रेस को सूचित कर दी जाती है। प्रथम कथन के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति जानबूझ कर किसी नैतिक सिद्धान्त का उल्लंघन करता है तो उसे यह ज्ञात रहता है कि उसके आचरण से किसी आपराधिक विधि का उल्लंघन हो सकता है। यदि वह आपराधिक नहीं है तो वह भाग्यशाली है। द्वितीय कथन के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि विधि द्वारा प्रतिषिद्ध चीज साधारण व्यक्ति तक पहुँच जाती है, क्योंकि प्रतिषिद्ध चीज प्रेस को संसूचित कर दी जाती है। यदि किसी नवीन अपराध का सृजन होता है तो उन लोगों को जो सर्वप्रथम इसके अन्तर्गत दण्डित होते हैं यह ज्ञात नहीं रहता है। कि उनका आचरण दण्डनीय था। प्रेस को संसूचित होने के पश्चात् यह सामान्य ज्ञान के रूप में उपलब्ध हो । जाता है।
| (3) न्यायाधीशों का यह अधिकार कि वे आपराधिक विधि का विस्तार कर सकते हैं न्याय-निर्णय के अध्यधीन है। यदि कोई कार्य किसी नामांकित अपराध की सीमा के बाहर है तो अपराधी उस नामांकित अपराध से भयभीत नहीं होगा। वह केवल लोक रिष्टि से भयभीत हो सकता है। स्पिनोजा कहते हैं कि कोई विधि के माध्यम से प्रत्येक चीज को अभिनिश्चित करना चाहता है वह अपराध को कम करने के बजाय जो
- विलियम्स जी; क्रिमिनल लॉ (दूसरा संस्करण) पृ० 601.
- उपरोक्त, सन्दर्भ, पृ० 601-5.
उसे बढ़ावा देता है।”78 आपराधिक विधि के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या किसी नैतिक दोष को दण्डनीय अपराध में परिवर्तित किया जाये? इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं है। |
(4) जज निर्मित विधि के सिलसिले में (Nilla Poena sine lege) सिद्धान्त के प्रवर्तन को लेकर भी आपत्ति उठाई जाती है क्योंकि इस सिद्धान्त के प्रवर्तन हेतु व्याख्या तथा नवीन खोज के बीच एक अविरल रेखा का सृजन आवश्यक है? यदि किसी जलयान पर किसी को कार्य करना संविधि द्वारा आपराधिक घोषित कर दिया जाता है तो प्रश्न यह उठता है कि क्या कोई उडनशील नौका जलयान होगी? यदि न्यायालय इस नौका को जलयान मानता है तो यह कहा जाएगा कि वह आपराधिक विधि को वर्धित रूप में व्यक्त करता है।
इस सूत्र को निम्न कारणों से स्वीकार किया गया है
(क) आपराधिक नीति से सम्बन्धित प्रश्नों को न्यायाधीशों की अपेक्षा संसद को सौंपने की इच्छा क्योंकि न्यायाधीशों के बीच प्रबल मतभिन्नता उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।
(ख) इस बात की सम्भावना रहती है कि न्यायाधीश उन नियमों से प्रभावित हो सकते हैं जिनका सृजन वे अपराधियों के सामान्य दुराचरण से करते हैं।
Follow me at social plate Form
|
 |
 |
 |
 |