Indian Penal Code Offences Relating Document Property Marks LLB Notes
Indian Penal Code Offences Relating Document Property Marks LLB Notes:- LLB 1st Semester / 1st year Indian Penal Code IPC 1860 Chapter 18 of Offences Relating to Documents and to Property Marks Notes Study Material in PDF Download Hindi English and all Languages for LLB Law Student, LLB Law Notes For Student in PDF Free Download Latest Syllabus, Indian Law Delhi and Meerut University LLB 1st Year 1st Semester Important Previous Year Mock Test Papers Questions Sample With Answer.
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अध्याय 18
दस्तावेजों और सम्पत्ति-चिन्हों सम्बन्धी अपराधों के विषय में
(OF OFFENCES RELATING TO DOCUMENTS AND TO PROPERTY MARKS)
दस्तावेजों के विषय में
463. कूट रचना-1[जो कोई किसी मिथ्या दस्तावेज या मिथ्या इलेक्ट्रानिक अभिलेख या दस्तावेज अथवा इलेक्ट्रानिक अभिलेख के किसी भाग को इस आशय से रचता है कि लोक को या किसी व्यक्ति को नुकसान या क्षति कारित की जाए] या किसी दावे या हक का समर्थन किया जाए, या यह कारित किया जाए कि कोई व्यक्ति सम्पत्ति अलग करे या कोई अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा करे या इस आशय से रचता है कि कपट करे, या कपट किया जा सके, वह कूट-रचना करता है।
464. मिथ्या दस्तावेज रचना-2[उस व्यक्ति के बारे में यह कहा जाता है कि वह व्यक्ति मिथ्या दस्तावेज या मिथ्या इलेक्ट्रानिक अभिलेख रचता है
पहला-जो बेईमानी से या कपटपूर्वक इस आशय से
(क) किसी दस्तावेज या दस्तावेज के भाग को रचित, हस्ताक्षरित, मुद्रांकित या निष्पादित करता है,
(ख) किसी इलेक्ट्रानिक अभिलेख या किसी इलेक्ट्रानिक अभिलेख के भाग को रचित या प्रेषित करता
(ग) किसी इलेक्ट्रानिक अभिलेख पर कोई 3[इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर] करता है,
(घ) दस्तावेज का निष्पादन या अंकीय हस्ताक्षर की प्रामाणिकता द्योतन करने वाला कोई चिन्ह लगाता। है, कि यह विश्वास किया जाए कि ऐसी दस्तावेज या दस्तावेज के भाग, इलेक्ट्रानिक अभिलेख या [इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर] की रचना, हस्ताक्षरण, मुद्रांकन, निष्पादन, प्रेषण, ऐसे व्यक्ति द्वारा या ऐसे व्यक्ति के प्राधिकार द्वारा किया गया था, जिसके द्वारा या जिसके प्राधिकार द्वारा उसकी रचना, हस्ताक्षरण, मुद्रांकन, निष्पादन या हस्ताक्षर न होने की बात वह जानता था; अथवा
दूसरा-जो किसी दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख के किसी तात्विक भाग में परिवर्तन उसके द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा, चाहे ऐसा व्यक्ति ऐसे परिवर्तन के समय जीवित हो या नहीं, उस दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख के रचित, निष्पादित या [इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर किये जाने के पश्चात् उसे रद्द करने द्वारा या अन्यथा विधिपूर्वक प्राधिकार के बिना, बेईमानी से या कपटपूर्वक करता है, अथवा
तीसरा- जो किसी व्यक्ति द्वारा, यह जानते हुए कि ऐसा व्यक्ति किसी दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख की विषय वस्तु को, परिवर्तन के रूप को चित्तविकृति या मत्तता की हालत में होने के कारण जान नहीं सकता या उस प्रवंचना के कारण, जो उससे की गयी है, जानता नहीं है, उस दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख को बेईमानी से या कपटपूर्वक हस्ताक्षरित, मुद्रांकित, निष्पादित या परिवर्तन किया जाना या किसी इलेक्ट्रानिक अभिलेख पर [इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर] कराया जाना कारित करता है।]
1. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 तथा प्रथम अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित.
2. ‘परोक्त
3. सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम, 2008 (2009 का अधिनियम संख्या 10) की धारा 51 (ड.) द्वारा शब्द। “अंकीय हस्ताक्षर’ के स्थान पर प्रतिस्थापित।
दृष्टान्त
(क) क के पास य द्वारा ख पर लिखा हुआ 10,000 रुपए का एक प्रत्ययपत्र है। ख से कपट करने के लिए के 10,000 रुपए में एक शुन्य बढा देता है और उस राशि को 1,00,000 इस आशय से बना देता है कि ख यह विश्वास कर ले कि य ने वह पत्र ऐसा ही लिखा था। क ने कूटरचना की है।
(ख) क, इस आशय से कि वह य की सम्पदा ख को बेच दे और उसके द्वारा ख से क्रय धन अभिप्राप्त कर ले, य के प्राधिकार के बिना य की मुद्रा एक ऐसी दस्तावेज पर लगाता है, जो कि य की ओर से क की सम्पदा का हस्तान्तर-पत्र होना तात्पर्यित है। क ने कूटरचना की है।
(ग) एक बैंकार पर लिखे हुए और वाहक को देय चैक को क उठा लेता है। चैक ख द्वारा हस्ताक्षरित है, किन्तु उस चैक में कोई राशि अंकित नहीं है, क दस हजार रुपए की राशि अंकित करके चैक को कपटपूर्वक भर लेता है। क कूटरचना करता है।
(घ) क अपने अभिकर्ता ख के पास एक बैंकार पर लिखा हुआ, क द्वारा हस्ताक्षरित चैक, देय धनराशि अंकित किए बिना छोड़ देता है। ख को क इस बात के लिए प्राधिकृत कर देता है कि वह कुछ संदाय करने के लिए चैक में ऐसी धनराशि, जो दस हजार रुपए से अधिक न हो, अंकित कर के चैक भर ले । ख कपटपूर्वक चैक में बीस हजार रुपए अंकित करके उसे भर लेता है। ख कूटरचना करता है।
(ङ) क, ख के प्राधिकार के बिना ख के नाम में अपने ऊपर एक विनिमय पत्र इस आशय से लिखता है। कि वह एक बैंकार से असली विनिमयपत्र की भांति बट्टा देकर उसे भुना ले, और उस विनिमयपत्र को उसकी परिपक्वता पर ले ले। यहाँ क इस आशय से उस विनिमयपत्र को लिखता है कि प्रवंचना करके बैंकार को यह अनुमान करा दे कि उसे ख की प्रतिभूति प्राप्त है, और इसलिए वह उस विनिमयपत्र को बट्टा लेकर भुना दे। क कूटरचना का दोषी है।
(च) य की विल में ये शब्द अन्तर्विष्ट है कि “मैं निदेश देता हूँ कि मेरी समस्त शेष सम्पत्ति क, ख और ग में बराबर बांट दी जाए।” क बेईमानी से ख का नाम इस आशय से खुरच डालता है कि यह विश्वास कर लिया जाए कि समस्त सम्पत्ति उसके स्वयं के लिए और ग के लिए ही छोड़ी गई थी। ख ने कूटरचना की है।
(छ) क एक सरकारी वचनपत्र को, पृष्ठांकित करता है और उस पर शब्द “य को या उसके आदेशानुसार दे दो” लिखकर और पृष्ठांकन पर हस्ताक्षर करके उसे य को या उसके आदेशानुसार देय कर देता है। ख बेईमानी से ‘‘य को या उसके आदेशानुसार दे दो” इन शब्दों को छीलकर मिटा डालता है, और इस प्रकार उस विशेष पृष्ठांकन को एक निरंक पृष्ठांकन में परिवर्तित कर देता है। ख कूटरचना करता है।
(ज) क एक सम्पदा य को बेच देता है और उसका हस्तान्तर-पत्र लिख देता है। उसके पश्चात् क, य को कपट करके सम्पदा से वंचित करने के लिए उसी सम्पदा का एक हस्तान्तर-पत्र, जिस पर य के हस्तान्तर-पत्र की तारीख से छह मास पूर्व की तारीख पड़ी हुई है, ख के नाम इस आशय से निष्पादित कर देता है कि यह विश्वास कर लिया जाए कि उसने अपनी सम्पदा य को हस्तान्तरित करने से पूर्व ख को हस्तान्तरित कर दी थी। क ने कूटरचना की है।
(झ) य अपनी विल क से लिखवाता है। क साशय एक ऐसे वसीयतदार का नाम लिख देता है जो कि उस वसीयतदार से भिन्न है, जिसका नाम य ने कहा है, और य को यह व्यपदिष्ट करके कि उसने विल उसक अनुदेशों के अनुसार ही तैयार की है, य को विल पर हस्ताक्षर करने के लिए उत्प्रेरित करता है। कूटरचना की है।
(ज) क एक पत्र लिखता है और ख के प्राधिकार के बिना, इस आशय से कि उस पर के प्राधिकार के बिना, इस आशय से कि उस पत्र के द्वारा य से और
अन्य व्यक्तियो से भिक्षा अभिप्राप्त करे, ख के नाम के हस्ताक्षर यह प्रमाणित करते हुए देता है कि क पाते हैं और अनवेक्षित दुर्भाग्य के कारण दीन अवस्था में है। यहाँ क ने य को सम्पत्ति अलग करने प्रारत करने की मिथ्या दस्तावेज रची है, इसलिए क ने कूटरचना की है। शील का व्यक्ति है और अनः के लिए उत्प्रेरित करने की
(ट) ख के प्राधिकार के बिना क इस आशय से कि उसके द्वारा य के अधीन नौकरी अभिप्राप्त करे, क के शील को प्रमाणित करते हुए एक पत्र लिखता है और उसे ख के नाम से हस्ताक्षरित करता है। क ने कूटरचना की है क्योंकि उसका आशय कूटरचित प्रमाणपत्र द्वारा य को प्रवंचित करने का और ऐसा करके य की सेवा की। अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा में प्रविष्ट होने के लिए उत्प्रेरित करने का था।
स्पष्टीकरण 1-किसी व्यक्ति का स्वयं अपने नाम का हस्ताक्षर करना कूटरचना की कोटि में आ सकेगा।
दृष्टान्त
(क) के एक विनिमयपत्र पर अपने हस्ताक्षर इस आशय से करता है कि यह विश्वास कर लिया जाए कि वह विनिमयपत्र उसी नाम के किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखा गया था। क ने कूटरचना की है।
(ख) के एक कागज के टुकड़े पर शब्द ‘‘प्रतिगृहीत किया” लिखता है और उस पर य के नाम के हस्ताक्षर इसलिए करता है कि ख बाद में इस कागज पर एक विनिमयपत्र, जो ख ने य के ऊपर किया है, लिखे और उस विनिमयपत्र का इस प्रकार परक्रामण करे, मानो वह य के द्वारा प्रतिगृहीत कर लिया गया था। के कूटरचना का दोषी है, तथा यदि ख इस तथ्य को जानते हुए क के आशय के अनुसरण में, उस कागज पर विनिमयपत्र लिख देता है, तो ख भी कूटरचना का दोषी है।
(ग) के अपने नाम के किसी अन्य व्यक्ति के आदेशानुसार देय विनिमयपत्र पड़ा पाता है। क उसे उठा लाता है और यह विश्वास कराने के आशय से स्वयं अपने नाम पृष्ठांकित करता है कि इस विनिमयपत्र पर। पृष्ठांकन उसी व्यक्ति द्वारा लिखा गया था जिसके आदेशानुसार वह देय है। यहाँ, क ने कूटरचना की है।
(घ) क, ख के विरुद्ध एक डिक्री के निष्पादन में बेची गई सम्पदा को खरीदता है। ख सम्पदा के अभिगृहीत किए जाने के पश्चात् य के साथ दुस्संधि करके क को कपट वंचित करने और यह विश्वास कराने के आशय से कि वह पट्टा अभिग्रहण से पूर्व निष्पादित किया गया था, नाममात्र के भाटक पर और एक लम्बी कालावधि के लिए य के नाम उस सम्पदा का पट्टा कर देता है और पट्टे पर अभिग्रहण से छह मास पूर्व की तारीख डाल देता है। ख यद्यपि पट्टे का निष्पादन स्वयं अपने नाम से करता है, तथापि उस पर पूर्व की तारीख डालकर वह कूटरचना करता है।
(ङ) क एक व्यापारी अपने दिवाले का पूर्वानुमान करके अपनी चीजवस्तु ख के पास क के फायदे के लिए और अपने लेनदारों को कपटवंचित करने के आशय से रख देता है, और प्राप्त मूल्य के बदले में, ख को एक धनराशि देने के लिए अपने को आबद्ध करते हुए, एक वचनपत्र उस संव्यवहार को सच्चाई की रंगत देने के लिए लिख देता है, और इस आशय से कि यह विश्वास कर लिया जाए कि यह वचनपत्र उसने उस समय से पूर्व ही लिखा था जब उसका दिवाला निकलने वाला था, उस पर पहले की तारीख डाल देता है। क ने परिभाषा के प्रथम शीर्षक के अधीन कूटरचना की है।
स्पष्टीकरण 2-कोई मिथ्या दस्तावेज किसी कल्पित व्यक्ति के नाम से इस आशय से रचना कि यह विश्वास कर लिया जाए कि वह दस्तावेज एक वास्तविक व्यक्ति द्वारा रची गई थी, या किसी मृत व्यक्ति के नाम से इस आशय से रचना कि यह विश्वास कर लिया जाए कि वह दस्तावेज उस व्यक्ति द्वारा उसके जीवनकाल में रची गई थी, कूटरचना की कोटि में आ सकेगा।
दृष्टान्त
क एक कल्पित व्यक्ति के नाम कोई विनिमय पत्र लिखता है, और उसका परक्रामण करने के आशय से उस विनिमयपत्र को ऐसे कल्पित व्यक्ति के नाम से कपटपूर्वक प्रतिगृहीत कर लेता है। क कूटरचना करता है। 43(स्पष्टीकरण 3-इस धारा के प्रयोजनों के लिए, 5[इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर] करना” अभिव्यक्ति का। वही अर्थ होगा, जो उसे सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 2 की उपधारा (1) के खण्ड (घ) में समनुदेशित है।] । 4. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 तथा प्रथम अनुसूची द्वारा अन्तः
4. स्थापित. इसने इस धारा के विस्तार को बढ़ा दिया है.
5. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2008 (2009 का अधि० सं० 10) की धारा 51 (ङ) द्वारा शब्द ‘अंकीय हस्ताक्षर” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
टिप्पणी
कूटरचना (Forgery) की परिभाषा, इस संहिता की धारा 463 में दी गयी है। किसी मिथ्या दस्तावेज या उसके किसी भाग की धारा 463 में वर्णित किसी भी आशय से रचना करना, कूटरचना का सृजन करता है। धारा 464 में उन कृत्यों का वर्णन किया गया है जिसके द्वारा मिथ्या दस्तावेज का निर्माण होता है।
अवयव-कूटरचना के अपराध में निम्नलिखित तत्व हैं
(1) किसी मिथ्या दस्तावेज या उसके किसी भाग की रचना करना
(2) ऐसी रचना निम्नलिखित में से किसी आशय से की जानी चाहिये
(क) (i) जन साधारण, या (ii) किसी व्यक्ति को क्षति या उपहति कारित करने के आशय से, या
(ख) किसी दावे या हक का समर्थन करने के आशय से, या
(ग) किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति से अलग करने के आशय से, या
(घ) किसी व्यक्ति को किसी अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा में भागीदार बनाने के आशयं से, या।
(ङ) कपट करने या कपट किये जाने के आशय से।
मिथ्या दस्तावेज की रचना करना (Making of a false document)-कूटरचना” नामक अपराध की संरचना ‘‘मिथ्या दस्तावेज की साधारण रचना” जैसा कि धारा 464 में स्पष्ट किया गया है, द्वारा ही होती है। यह आवश्यक नहीं है कि दस्तावेज की रचना अथवा उसका प्रकाशन किसी विद्यमान व्यक्ति के नाम में हो। यह स्पष्टीकरण 2 द्वारा सुस्पष्ट है किन्तु दस्तावेज आशयित कपट को क्रियान्वित करने में या तो। विधित: सक्षम हो या अपने स्वरूप में ऐसा हो कि यदि वह सही होता तो इसे विधिक वैधानिकता प्राप्त होती।6 कोई लेखन भले ही वह अभिव्यक्त विषय का विधि का साक्ष्य न हो, फिर भी वह एक दस्तावेज होगा यदि उसकी रचना करने वाले पक्षकार ने इसके विषय में ऐसा विश्वास किया था और उसका आशय भी नहीं था कि वह दस्तावेज साक्ष्य के रूप में प्रयोग होगा। अत: किसी वसीयत विलेख (will deed) का कूटकरण कूटरचना के अपराध का गठन करता है यद्यपि, सांविधिक अपेक्षा के अन्तर्गत विलेख का विशिष्ट प्रारूप में होरा एवं कुछ आवश्यकताओं की सम्पुष्टि करना आवश्यक है, और वस्तुतः यह विलेख न तो उस प्रारूप में है और न ही उन आवश्यकताओं की सम्पुष्टि करता है।8।
स्टेट ऑफ यू० पी० बनाम रनजीत सिंह9 के मामले में प्रत्यर्थी जो कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश का स्टेनोग्राफर था, के ऊपर अभियुक्त खेलावन के पक्ष में एक कूटकृत जमानत आदेश की साक्ष्य गढ़ने का आरोप था। उच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षित किया कि चूंकि अभियुक्त ने जमानत आदेश पर हस्ताक्षर नहीं किया था, उसे एक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता है और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 466 और 468 के अन्तर्गत अपराधों के आवश्यक तत्व पूर्ण नहीं होते हैं। प्रश्नगत जमानत आदेश अभियुक्त द्वारा लिखा गया था। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि इन तथ्यों के आलोक में कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 464 के अन्तर्गत कोई व्यक्ति फर्जी दस्तावेज की संरचना किये तब कहा जाता है जबकि वह बेईमानीपूर्वक अथवा कपट पूर्वक किसी दस्तावेज या उसके किसी भाग को रचित, हस्ताक्षरित मुद्रांकित या निष्पादित करता है, उच्च न्यायालय का यह तर्क कि हस्ताक्षर के बिना जमानत का आदेश दस्तावेज नहीं कहा जा सकता है और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 464 के उपबन्ध लागू नहीं होंगे, पूर्णतया संपोषणीय नहीं है।
आगे यह भी प्रेक्षित किया गया कि ऐसा मिथ्या दस्तावेज तैयार करना जिसे कि न्यायालय के दस्तावेज के रूप में माना जा सके और ऐसे दस्तावेज के कारण जो व्यक्ति जमानत पर छटने का अधिकारी नहीं है उसे
6. बदन सिंह, (1922) 3 लाहौर 373.
7. शिफत अली, (1868) 2 बंगाल लॉ रि० 12 (क्रि०).
8. लायन का वाद, (1813) रस्स एण्ड री 255.
9.1999 क्रि० लॉ ज० 1890 (एस० सी०).
जमानत पर रिहा कर दिया जा सके तब ऐसी दशा में नि:सन्देह रूप में लोक (सामान्य जनता) को क्षति या नुकसान कारित हुआ है और इसलिये ऐसा कोई कारण नहीं है कि क्यों ऐसी परिस्थिति में जबकि अभियुक्त जिसने कि ऐसे मिथ्या दस्तावेज की रचना की है तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 466 के अधीन अपराध हेतु दोष न ठहराया जाय। किसी व्यक्ति द्वारा कोई कार्य कपटपूर्ण किया गया तब कहा जाता है जबकि वह उस कार्य को कपट के आशय से न कि अन्यथा रूप में करता है। कपट में दो तत्व सम्मिलित हैं प्रवंचित किये गये व्यक्ति के साथ कारित प्रवंचना एवं उसे होने वाली क्षति। क्षति का अर्थ आर्थिक हानि से भिन्न अभिप्रेत है। और इसमें ऐसी कोई हानि शामिल है जो किसी व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, प्रतिष्ठा या इस प्रकार की अन्य हानि के रूप में हो।
प्रवंचक को होने वाला कोई लाभ या प्रसुविधा लगभग सदैव किसी प्रवंचित किये गये व्यक्ति को हानि या क्षति (detriment) कारित करेगी। किसी ऐसे कूटकृत जमानत आदेश को तैयार करना जिसका उपयोग कर सम्बन्धित व्यक्ति न्यायालय तथा सामान्य जनता को प्रवंचित कर रिहाई का लाभ उठाता है उसे केवल यही कहा जा सकता है कि उसने उस दस्तावेज को कपटपूर्वक रचित किया है और उसे भारतीय दण्ड संहिता की। धारा 466 के अन्तर्गत दण्डित किया जायेगा।
लोक या किसी व्यक्ति को नुकसान या क्षति कारित करना (To cause damage or injury to the public or to any person)–मिथ्या दस्तावेज द्वारा लोक या किसी व्यक्ति को क्षति या उपहति कारित किया जाना आशयित होना चाहिये। अतः आशय ही इस अपराध का सार है। वास्तविक क्षति, उपहति, या कपट कारित किया जाना आवश्यक नहीं है।10 एक पुलिस अधिकारी जो इस आशय से अपनी डायरी में परिवर्तन करता है जिससे यह स्पष्ट हो वह कुछ व्यक्तियों को अपने अभिरक्षण (Surveillance) में नहीं रखे था। इस अपराध का दोषी नहीं है क्योंकि किसी व्यक्ति को क्षति अथवा उपहति का जोखिम यहाँ नहीं है तथा कपट के तत्व जैसा कि इस संहिता की धारा 25 में वर्णित है, विद्यमान नहीं है।11
किसी दावे या हक का समर्थन (To Support any claim or title)–दृष्टान्त (च), (छ), (ज) तथा (झ) यह स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि भले ही व्यक्ति किसी सम्पत्ति पर वैध दवा पर हक रखता हो वह इस अपराध के लिये दण्डनीय होगा यदि वह अपने दावे को समर्थन प्रदान करने हेतु दस्तावेज का कूटकरण करता है। किसी अवैध अथवा संदेहास्पद दावे को वैध दावे से परिवर्तित करने का वास्तविक आशय बेईमानी है तथा यह कूट रचना से अपराध का गठन करता है।12 यहाँ प्रयुक्त दावा” शब्द का आशय केवल सम्पत्ति के दावे से नहीं अपितु इसके अन्तर्गत पत्नी अथवा बच्चों की अभिरक्षा का दावा या किसी परीक्षा में परीक्षार्थी या विषय में विद्यार्थी के रूप में प्रवेश का दावा भी आता है।13
अ एक चैक 1000 (एक हजार) रुपये का ब से प्राप्त करता है और उस चेक में आगे शून्य जोड़कर नकद भुगतान प्राप्त करने हेतु बैंक में जमा करता है। बैंक अधिकारी ने लिखावट के विषय में कुछ सन्देह व्यक्त किया जिस पर अ ने चैक वापस ले लिया और उसे नष्ट कर दिया। इस मामले में अ कूट रचना के लिये दोषी। होगा, क्योंकि एक हजार के आगे शून्य बढ़ाकर उस चैक की राशि को दस हजार बनाकर उसने मिथ्या दस्तावेज की रचना किया जिसका आशय बैंक से चैक में दी गई राशि से अधिक राशि का धन प्राप्त करना था। उसने चैक बैंक में भुगतान प्राप्त करने के इरादे से जमा किया और बैंक अधिकारी द्वारा सन्देह व्यक्त किये जाने पर ही उसने उसे वापस किया। अतएव इस प्रकरण में अ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 465 के अधीन कुट। रचना के अपराध तथा धारा 415 के अन्तर्गत बैंक को छलने के प्रयत्न के अपराध का भी दोषी है।
यह कारित करना कि कोई व्यक्ति सम्पत्ति अलग करे (To cause अलग कर (To cause any person to part with property)-जहाँ कोई मिथ्या दस्तावेज इस आशय से बनाया जाता है कि दस्तावेज के आधार पर कोई
10. कल्यान मल, (1937) नागपुर 45. ।
11. संजीत रत्नप्पा बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1932 बाम्बे 545.
12. महेश चन्द्र प्रसाद, (1943) 22 पटना 292.
13. शशि भूषन, (1893) 15 इला० 210.
व्यक्ति अपनी सम्पत्ति से विरत हो जाये तो दस्तावेज को तैयार करने वाला व्यक्ति इस अपराध का दोषी होगा। इस अवयव हेतु यह आवश्यक नहीं है कि सम्पत्ति उस समय अस्तित्व में हो जिस समय मिथ्या दस्तावेज तैयार किया था। उदाहरण के लिये यदि ब, स को यह आदेश देता है कि वह ब के लिये एक चाँदी का टी सेट (tea set) तैयार करे और टी-सेट तैयार किये जाने के पूर्व ही अ, स को एक पत्र लिखता है और मिथ्या रूप से यह दर्शाता है कि पत्र पर ब के दस्तखत हैं। पत्र में वह स को यह निर्देश देता है कि टी-सेट तैयार हो जाने के बाद द को सौंप दिया जाये। अ इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी है क्योंकि पत्र लिखने के पीछे उसका यही आशय था कि स अपनी सम्पत्ति से विरत हो जाये।14
कपट करने का आशय (Intent to commit fraud)- इस धारा में वर्णित अपराध उस समय पूर्ण हुआ समझा जाता है जबकि कोई दस्तावेज, जो वस्तुत: मिथ्या है, कपट करने के आशय से रचा जाता है। दस्तावेज तैयार करते समय यह आवश्यक नहीं है कि धारा 463 में वर्णित अन्य आशय भी विद्यमान हो कपट गठित करने हेतु प्रवंचना का आशय और प्रवंचना के माध्यम से कोई लाभ प्राप्त करना होना आवश्यक है। और यदि दस्तावेज इस आशय से गढ़ा जाता है तो कूटरचना का अपराध कारित हुआ माना जायेगा।16 डाक्टर विमला17 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारण प्रदान किया कि पदावली परिवंचना (defraud) शब्द की अभिव्यक्ति में दो तत्व समाहित हैं-छल तथा प्रवंचित व्यक्ति को क्षति । क्षति, आर्थिक क्षति से भिन्न है। इसके अन्तर्गत चल अथवा अचल सम्पत्ति या रुपये पैसे से वंचित किया जाना नहीं आता अपितु इसके अन्तर्गत शरीर, मस्तिष्क, ख्याति या ऐसी अन्य क्षतियाँ सम्मिलित हैं। यह एक अनार्थिक (noneconomic) तथा गैर धनविषयक (non-pecuniary) क्षति है। प्रवंचक को कोई लाभ या फायदा सदैव प्रवंचित व्यक्ति को क्षति या हानि पहुँचाता है। उन मामलों में भी जिनमें प्रवंचक को कोई लाभ या फायदा होता है परन्तु प्रवंचित व्यक्ति को कोई तद्नुरूप नुकसान नहीं होता, फिर भी यह माना जाता है कि क्षति कारित हुई
किसी व्यक्ति विशेष को प्रवंचित करने का आशय इस अपराध के लिये आवश्यक नहीं है, इस अपराध के लिये प्रवंचित करने का साधारण आशय ही पर्याप्त है।18 किन्तु प्रत्येक दशा में कूट रचना से किसी व्यक्ति के प्रवंचित होने की सम्भावना आवश्यक है।19 एक व्यक्ति का प्रवंचित करने का आशय हो सकता है फिर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जो उसके कार्य से प्रवंचित हो। अतः कूटरचना के अगराध हेतु दो वस्तुयें आवश्यक हैं-प्रवंचित करने का आशय तथा किसी व्यक्ति के प्रवंचित होने की सम्भाव्यता। उदाहरण के लिये ब का बैंक में कोई खाता नहीं है किन्तु अ यह मान लेता है कि ब का खाता है। इस विश्वास के आधार पर वह ब के नाम का जाली हस्ताक्षर करता है। यहाँ अ का आशय प्रवंचित करने का है यद्यपि इस कार्य से कोई व्यक्ति प्रवंचित नहीं हो सकता 20
यदि अ नामक एक व्यक्ति ब का खाली (Blank) स्वीकृति पत्र अपने पास लिये हुये है और उसे प्राधिकृत किया जाता है कि वह उसे 2000 रुपये की हुण्डी में बदल दे किन्तु वह उसे 5000 रुपये की हुण्डी में इस आशय से बदल देता है कि वह हुण्डी को लेने वाले या किसी अन्य व्यक्ति को प्रवंचित कर। सकेगा। अ, कूटरचना के अपराध का दोषी होगा 21 जहाँ अ स्वयं अपने द्वारा बनायी गयी एक पेंटिंग पर किसी जाने-माने चित्रकार का दस्तखत कर देता है तथा एक दूकान में विक्रय हेतु उसे रख देता है, अ इस धारा के अन्तर्गत दोषी होगा क्योंकि वह यह प्रभाव उत्पन्न कर कपट करता है कि विक्रय हेतु रखी गयी पेंटिंग एक विख्यात चित्रकार द्वारा तैयार की गयी है जबकि वह चित्र वस्तुत: उसी व्यक्ति द्वारा तैयार किया गया था।
14. शशि भूषन, (1893)
15 इला० 210. 15. कोटमराजू, वेंकटरायडू, (1905) 28 मद्रास 90.
16. मुहम्मद सईद खान, (1898) 21 इला० 113.
17. (1963) 2 क्रि० लॉ ज० 434.
18. धूनमकाजी, (1882) 9 कल० 53.
19. मर्कस, (1846) 2 सी० एण्ड के० 356.
20. नैश का वाद, (1882) 2 डेन क्रि० के० 493.
21. हार्ट, (1836) 7 सी० एण्ड पी० 652.
प्रतिलिपि बनाना (Making of a copy)–यदि एक व्यक्ति मिथ्या दस्तावेज इस आशय से तैयार करता है जिससे वह एक दूसरे दस्तावेज की प्रतिलिपि प्रतीत हो तथा जिसे साक्ष्य हेतु प्रयोग में लाया जा सके। तो यह माना जायेगा कि उसने कूट रचना का अपराध कारित किया है। जहाँ भूमि पर कब्जा पाने हेतु चल रहे वाद में अपनी वंशावली (pedigree) के समर्थन में अ एक महर विलेख तथा एक प्रतिभूति विलेख को एक पूर्ववर्ती वाद में जमा मूल दस्तावेजों की प्रतिलिपियों के रूप में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है परन्तु यह पाया जाता है कि दोनों ही प्रतिलिपियों में दो ऐसे गवाहों के नाम हैं जिनके नाम मूल दस्तावेज में नहीं हैं। अ. कूटरचना का अपराधी होगा 22
बनाता या रचना करता है (Makes) धारा 464 से यह स्पष्ट किया गया है कि किस कार्य द्वारा मिथ्या दस्तावेज की रचना होगी। किसी दस्तावेज की रचना करने या बनाने में तात्पर्य यह नहीं है कि दस्तावेज को लिखा जाये या छापा जाये, अपितु हस्ताक्षर या अन्य रूप में निष्पादन करने से भी दस्तावेज की रचना होती है।”बनाता” या ‘‘रचना करता है” शब्द का अर्थ है सृजन करता है या अस्तित्व में लाता है 23 किसी दस्तावेज के तैयार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि उसे संलेख के रूप में लिखा जाये अपितु विलेख या नोट की तरह उस पर मुहर लगाना या हस्ताक्षर करना भी पर्याप्त होगा। किसी दस्तावेज का अर्थ यह नहीं है कि किसी ऐसे शब्द का प्रयोग किया जाए, जो स्वत: निर्दोष हो अपितु इसका अर्थ है दस्तावेज पर किसी अन्य व्यक्ति की यह जानते हुये मुहर लगाना या दस्तखत करना कि मुहर पर दस्तखत उस व्यक्ति की नहीं है। और न ही उसने इसे लगाने की अनुमति दिया था। असत्यता दस्तावेज या उसके किसी भाग में सम्मिलित रहती है क्योंकि इस पर किसी व्यक्ति के जिसने यथार्थतः दस्तावेज पर न तो हस्ताक्षर किया था और न ही मुहर लगाया था, नाम की मुहर लगाई जाती है या हस्ताक्षर किया जाता है।24
हस्ताक्षर करता है, मुहर लगाता है या निष्पादित करता है- किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने या उस पर मुहर लगाने से ही उसका निष्पादन (execution) पूर्ण हो जाता है। किसी दस्तावेज पर किये गये। असली दस्तखत पर मुहर लगाना कूटरचना के तुल्य है यदि दस्तखत मुहर के बिना अवैध होती है।25
बेईमानी से या कपटपूर्वक-कूटरचना के अपराध के गठन हेतु दस्तावेज की रचना बेईमानी से या कपटपूर्वक की जानी चाहिये 26 यदि अ स्वयं द्वारा न्यायालय में दायर किये गये किसी लिखित वक्तव्य को हटा कर उसके स्थान पर दूसरा लिखित वक्तव्य इस आशय से रख देता है जिससे यह स्पष्ट हो कि बाद में रखा गया लेख ही मूलतः दायर किया गया था तो अ का कार्य बेईमानी या कपटपूर्वक मिथ्या दस्तावेज की रचना करने के तुल्य होगा 27 यदि कोई व्यक्ति पावती (receipt) पर अपना हस्ताक्षर कर अपने लाभ हेतु रेलवे अधिकारियों से दुग्ध पाउडर का अभिदान प्राप्त कर लेता है तो वह बेईमानी से या कपटपूर्वक मिथ्या दस्तावेज की रचना करने के अपराध का दोषी होगा 28 जहाँ अ अपने पोस्ट आफिस, राष्ट्रीय बचत पत्रों को राशन विभाग के पक्ष में पृष्ठांकित (endorsed) कर देता है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी, ब, उन बचत पत्रों को पुनः अ के नाम में अन्तरित करा लेता है तथा उन पर अ के नाम की दस्तखत कर एवं प्रमाणित कर बचत पत्रों को भुना (Encash) लेता है तो ब कूटकरण के लिये दण्डनीय होगा, क्योंकि वह बेईमानी से या कपटपूर्वक रुपये प्राप्त करता है।29
कोटम राजू वेंकट नायडू30 के बाद में विश्वविद्यालय की मैट्रिकुलेशन परीक्षा के लिये एक अभ्यर्थी ने कल सचिव को अपना चरित्र प्रमाण-पत्र तथा एक और प्रमाणपत्र इस आशय का भेजा कि उसने बीस वर्ष
22. सुरेन्द्र नाथ घोष, (1910) 14 सी० डब्ल्यू० एन० 1076.
23. प्राविंस ऑफ बिहार बनाम सुरेन्द्र प्रसाद, ए० आई० आर० 1951 पटना 86.
24. रियासत अली, (1818) 7 कल० 352 के वाद में गार्थ, सी० जे० का मत.
25. कालिन्स, (1844) 1 काक्स 52. ।
26. संजीव बनाम इम्परर, ए० आई० आर० 1932 बाम्बे 545.
27. धर्मेन्द्रनाथ बनाम रेक्स, ए० आई० आर० 1949 इला० 353.
28. 1969 केरल लॉ टाइम्स 1 (एस० सी०).
29. जी० एस० बन्सल बनाम दिल्ली प्रशासन, ए० आई० आर० 1963 सु० को० 1577.
30. (1905) 28 मद्रास 90.
की आयु पूर्ण कर लिया है। अभ्यर्थी के अनुसार प्रमाण-पत्र मान्यता प्राप्त एक स्कूल के प्रधानाध्यापक के हस्ताक्षर से जारी हुआ था। परन्तु प्रमाण-पत्र प्रधानाध्यापक द्वारा वस्तुत: हस्ताक्षरित नहीं था अपितु अभ्यर्थी ने प्रमाण-पत्र पर स्वयं हस्ताक्षर किया था। प्रमाण-पत्र कूटकृत दस्तावेज माना गया तथा अभियुक्त को कूटकरण के लिये दण्डित किया गया।
धारा 464 खण्ड (2)– धारा 464 खण्ड (2) के अन्तर्गत किसी दस्तावेज के किसी तात्विक भाग में विधिपूर्ण प्राधिकार के बिना बेईमानी से या कपटपूर्वक दस्तावेज के रचित होने या निष्पादित किये जाने के पश्चात् परिवर्तन करना या उसे रद्द करना अपेक्षित है। इस प्रकार परिवर्तन करने या रद्द करने के समय दस्तावेज की रचना करने वाला या उसे निष्पादित करने वाला व्यक्ति जीवित हो सकता है अथवा नहीं। यदि किसी बाण्ड में लिखित तिथि में परिवर्तन कर दिया जाता है भले ही परिवर्तन दावे की अवधि31 (limitation) के अन्तर्गत लाने के लिये अपेक्षित न हो या वाद हेतु इसे प्रयोग कर रहे पक्षकार के लिये यह दस्तावेज आवश्यक न हो32 तब भी यह माना जायेगा कि कूटरचना का अपराध कारित हुआ है। जहाँ कोई अभियुक्त यात्रा भत्ता के बिलों में अप्राधिकृत परिवर्तन करता है किन्तु उसका न तो बेईमानी का आशय था और न ही कपट का तो कूटरचना का अपराध कारित हुआ नहीं माना जायेगा।33
परमिन्दर कौर बनाम उ० प्र० राज्य33क के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 464 का द्वितीय खण्ड आकर्षित करने/लागू करने हेतु अभिलेख का बेईमानी और कपटपूर्वक परिवर्तन किया जाना आवश्यक है। अतएव खण्ड ‘द्वितीय” को आकर्षित करने के लिए यदि अभिलेख में परिवर्तन किया जाता है तो ऐसा परिवर्तन अभियुक्त के लाभ के लिए अथवा किसी ऐसे प्रयोजन/उद्देश्य से होना चाहिए। मात्र किसी अभिलेख को बदल देने से अभिलेख मिथ्या दस्तावेज नहीं हो जाता है। अतएव मान लीजिए कि अंक ”1” तारीख में जोड़ा गया प्रश्नगत अभिलेख की तारीख में ”1” जोड़ा गया जैसा कि वर्तमान मामले में किया गया है, यह नहीं कहा जा सकता है कि अभिलेख मिथ्या हो गया क्योंकि ऐसा करके अपीलांट अभियुक्त को इससे कुछ लाभ नहीं होने वाला है और इससे वह परिसीमा की बाधा भी नहीं बचा सकती है अर्थात् यदि वह सीमा बाधित (time barred) अभिलेख है तो रहेगा ही।
धारा 464 खण्ड ( 3 )- धारा 464 खण्ड (3) ऐसे मामलों से सम्बन्धित है जहाँ दस्तावेज की रचना करने वाला व्यक्ति चित्त विकृत्ति या मत्तता की हालत में होने के कारण या प्रवंचना के कारण दस्तावेज की विषय-वस्तु को जान नहीं पाता।
एक वाद में अभियुक्त अ, अपने अधिकारी ब का हस्ताक्षर एक मिथ्या दस्तावेज पर कागज के एक बण्डल में रखकर प्राप्त कर लेता है। अ कूटरचना का अपराधी नहीं माना जायेगा, क्योंकि उसने ब पर किसी प्रवंचना का प्रयोग इस आशय से नहीं किया था कि वह दस्तावेज की प्रकृति को न समझ पावे 34
स्पष्टीकरण 1-यह स्पष्टीकरण पर्याप्त रूप से यह स्पष्ट करता है कि उस अवस्था में भी पर्याप्त मिथ्या हो सकता है जब कि कोई व्यक्ति अपने नाम का हस्ताक्षर इस आशय से करता है कि यह मान लिया जाये कि हस्ताक्षर उसी नाम के किसी अन्य व्यक्ति ने किया है। यदि ब या उसके आदेश द्वारा देय कोई चैक अ के हाथ में पड़ जाता है जो पावती के ही नाम का एक दूसरा व्यक्ति है और अ यह जानते हुये कि वह असली व्यक्ति नहीं है जिसके पक्ष में चेक लिखा गया है, चेक पर अपना हस्ताक्षर करता है, अ, कूट रचना के अपराध का दोषी होगा 35
31. रामनारायण, पी० आर० नं० 14 सन् 1881.
32. दयाराम, (1885) पी० आर० नं० 16 सन् 1885.
33. (1955) 8 सौराष्ट्र लॉ रि० 226. । 33क. (2010) 1 क्रि० ला ज० 895 (एस० सी०).
34. नजीबुतोल्लाह, (1861) 7 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 20.
35. मीड बनाम यंग, (1790) 4 टी० आर० 28.
क्या किसी व्यक्ति का स्वयं अपने नाम का हस्ताक्षर करना कूट रचना की कोटि में आ सकता है? धारा 464 के स्पष्टीकरण एक द्वारा इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है और उसके अनुसार किसी व्यक्ति का स्वयं अपने नाम का हस्ताक्षर करना भी कूट रचना की कोटि में आयेगा। इस स्पष्टीकरण के साथ दिये गये दृष्टान्तों से यह तथ्य स्पष्ट है कि किन परिस्थितियों में किसी व्यक्ति द्वारा अपना स्वयं का हस्ताक्षर करना मिथ्या दस्तावेज रचना या कूट रचना कहा जायेगा।
स्पष्टीकरण 2-स्पष्टीकरण 2 का यह स्पष्ट करता है, कि कोई दस्तावेज कूटकृत होगा यदि यह एक मिथ्या दस्तावेज है भले ही यह किसी कल्पित व्यक्ति के नाम में हो। यदि अभियुक्त एक विज्ञापन देता है कि अंग्रेजी मुहावरों पर राबर्ट एस० विलियम्स द्वारा लिखित एक पुस्तक विक्रय हेतु तैयार है तथा पुस्तक की कीमत भेजने पर पुस्तक ग्राहक को भेजी जायेगी। राबर्ट एस० विलियम्स के हस्ताक्षर द्वारा हस्ताक्षरित एक पत्र लिखकर उसने डाक अधिकारियों से यह अनुरोध किया कि आर० एम० विलियम्स के नाम में आने वाले सभी रुपयों का भुगतान शेषगिरि राव नामक एक व्यक्ति को कर दिया जाये तथा रसीदों पर शेषगिरि राव के रूप में स्वयं हस्ताक्षर कर रुपया प्राप्त कर लिया। खोज करने पर यह पता चला कि आर० एस० विलियम्स तथा शेषगिरि राव दोनों ही काल्पनिक व्यक्ति थे। अभियुक्त छल (cheating) तथा कूट रचना (forgery) दोनों ही अपराधों का दोषी माना जायेगा।36
मूर्ति एक न्यायिक व्यक्ति मानी जाती है अत: किसी दस्तावेज में मूर्ति के मिथ्या हस्ताक्षर से कूटरचना के अपराध का गठन होता है।37
संयुक्त कार्य (Joint act)–यदि एक से अधिक व्यक्ति किसी दस्तावेज की कूट रचना करने के लिये संयुक्त होते हैं तथा उनमें से प्रत्येक व्यक्ति कूट रचना के एक अंश को स्वयं निष्पादित करते हैं और जिस वक्त दस्तावेज पूर्ण होता है, वे एक साथ नहीं होते हैं तब भी सही सहकर्मी मुख्य अपराधी की तरह दण्डनीय होंगे 38 उनमें से प्रत्येक व्यक्ति मुख्य अपराधी है, यद्यपि वह यह नहीं जानता है कि दस्तावेज के अन्य अंशों को किन व्यक्तियों ने निष्पादित किया है और यह भी कि अन्य व्यक्तियों की अनुपस्थिति में इसे एक ही व्यक्ति ने पूर्ण किया है।39 । दुष्प्रेरण (Abetment)–जहाँ अ इस उद्देश्य से एक कूटकृत दस्तावेज को अभिप्रमाणित करता है जिससे आज्ञप्ति ऋण (decree-debt) का मोचन (discharge) हो जाये और दस्तावेज अस्तित्व में आ जाये। अ, कूट रचना के अपराध के दुष्प्रेरण का दोषी होगा, क्योंकि दस्तावेज तब तक पूर्ण नहीं हुआ था जब तक कि उसने अपना हस्ताक्षर नहीं किया था।40
अ ने ब से ऋण लिया था उस कर्ज का अ भुगतान कर चुका था परन्तु उसकी रसीद उससे खो गई थी। अतएव भविष्य में उससे पुन: कर्ज का भुगतान न मांगा जाय और इस दोहरी अदायगी से बचने के उद्देश्य से उसने दूसरी रसीद तैयार कर ली और उस पर ऋणदाता ब का हस्ताक्षर बना लिया। जब ब ने उसके खिलाफ कर्ज के रुपयों की अदायगी हेतु दावा किया तो अ ने वह रसीद न्यायालय के समक्ष साक्ष्य में प्रस्तुत किया। इस मामले में चूंकि अ का आशय बेईमानीपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह ब को कर्ज के रुपये पहले ही अदा कर चुका था अतएव अ किसी अपराध का दोषी नहीं है। अ का कार्य कूट रचना का अपराध गठित नहीं करता है। क्योंकि ब को प्रवंचित करने का उसका आशय नहीं था क्योंकि कर्ज का वह पहले ही भुगतान कर चुका था। अतएव ब को किसी प्रकार की सदोष हानि कारित करने अथवा अपने को सदोष लाभ प्राप्त करने का उसका
36. क्वीन इम्प्रेस बनाम पेरा राजू, (1890) 13 मद्रास 27.
37. इन रे बाडीवेलू, ए० आई० आर० 1944 मद्रास 77.
38. विंगले का वाद, (1821) रूस एण्ड री० 446.
39. किर्कवुड का मत, (1831) 1 मूड० 304.
40. इन 3 री, रा – २ — —
आशय नहीं था। इस मामले में किसी को प्रवंचित किया ही नहीं जा सकता था क्योंकि कर्ज का रुपया अदा किया जा चुका था।
यदि अ, ब से लिये गये ऋण का भुगतान कर रसीद प्राप्त कर लेता है किन्तु वह रसीद उससे कहीं खो। जाती है। यह भविष्य में मांग किये जाने वाले किसी दायित्व से अपने को बचाने के उद्देश्य से एक दूसरी रसीद तैयार करता है और उस पर ब का दस्तखत करता है। अ, कूटरचना के अपराध के लिये दण्डनीय नहीं। होगा, क्योंकि उसका न तो बेईमानी से युक्त कपट करने का आशय है और न ही इससे किसी व्यक्ति के साथ यथार्थतः कपट किया जा सकता है क्योंकि ऋण का भुगतान पहले ही हो चुका था।
स्पष्टीकरण 3-डिजिटल हस्ताक्षर का जोड़ा जाना (affixing) शब्दावली सूचना तकनीकी अधिनियम, 2000 में परिभाषित है। उक्त अधिनियम की धारा 2 की उपधारा (1) खण्ड (घ) के अनुसार डिजिटल हस्ताक्षर का जोड़ा जाना (affixing) शब्दावली से अपनी व्याकरणिक विभिन्नताओं (grammatical variations) और सजातीय अभिव्यक्तियों (cognate expression) के साथ किसी व्यक्ति द्वारा किसी। इलेक्ट्रानिक रिकार्ड को डिजिटल हस्ताक्षर द्वारा प्रमाणित करने (authenticating) के प्रयोजन से अपनाई गई प्रणाली (methodology) या प्रक्रिया अभिप्रेत है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति द्वारा किसी इलेक्ट्रानिक रिकार्ड को प्रमाणित करने के प्रयोजन से उस इलेक्ट्रानिक रिकार्ड पर डिजिटल हस्ताक्षर करने की जो प्रणाली या प्रक्रिया अपनाई जाती है उसे डिजिटल हस्ताक्षर का जोड़ा (affix) जाना कहते हैं।
465. कूटरचना के लिए दण्ड- जो कोई कूटरचना करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
466. न्यायालय के अभिलेख की या लोक रजिस्टर आदि की कूटरचना-41[जो कोई ऐसी दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] की, जिसका कि किसी न्यायालय का या न्यायालय में अभिलेख या कार्यवाही होना, या जन्म, बप्तिस्मा, विवाह या अन्त्येष्टि का रजिस्टर, या लोक सेवक द्वारा लोक सेवक के नाते रखा गया रजिस्टर होना तात्पर्यत हो, अथवा किसी प्रमाण-पत्र की या ऐसी दस्तावेज की जिसके बारे में यह तात्पर्यित हो कि वह किसी लोक सेवक द्वारा उसकी अथवा किसी प्रमाणपत्र की या ऐसी दस्तावेज की जिसके बारे में यह तात्पर्यित हो कि वह किसी लोक सेवक द्वारा उसकी पदीय हैसियत से रची गई है, या जो किसी वाद को संस्थित करने या वाद में प्रतिरक्षा करने का, या उसमें कोई कार्यवाही करने का, या दावा संस्वीकृत कर लेने का, प्राधिकार हो या कोई मुख्तारनामा हो, कूटरचना करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी, दण्डनीय होगा।
42[स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिए, “रजिस्टर” के अन्तर्गत कोई सूची, आँकड़ा या इलेक्ट्रानिक रूप में, जैसा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 2 की उपधारा (1) के खण्ड (द) द्वारा परिभाषित है, रखी गयी किसी प्रविष्टि का अभिलेख शामिल है।]
टिप्पणी
यह धारा उन मामलों में लागू होती है जिनमें एक व्यक्ति इस विचार से एक प्रमाण-पत्र या अभिलेख की कूटरचना करता है ताकि ऐसा प्रतीत हो कि वे लोक आफिस द्वारा जारी किये गये हैं। उदाहरण के लिये विवाह प्रमाण-पत्र की कूटरचना ।43
41. सूचना प्रौद्योगिकी अधि० 2008 (2009 का अधिनियम संख्या 10) की धारा 51 (ङ) द्वारा शब्द ”अंकीय हस्ताक्षर” के स्थान पर प्रतिस्थापित.
42. सूचना प्रौद्योगिकी अधि० 2000 की धारा 91 तथा प्रथम अनुसूची द्वारा अन्त:स्थापित.
43. जुग्गल लाल, (1880) 7 सी० एल० आर० 356.
कपटपूर्ण आशय केवल कूटरचना करने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क में हो– एक व्यक्ति जो एक दस्तावेज की जालसाजी करता है जिससे वह डिप्टी कलेक्टर की सील और हस्ताक्षर के तहत सचना (notice) के रूप में स्वीकार की जा सके तथा ऐसे व्यक्ति को सूचना दी जाती है कि एक दूसरा व्यक्ति नोटिस की माँग कर रहा है ताकि उसका प्रयोग लम्बित वाद (pending suit) में किया जा सके, वह कूटरचना (forgery) का दोषी है। इस अपराध के लिये यह आवश्यक नहीं है कि दस्तावेज का कपटपूर्ण रीति से प्रयोग करने का आशय दस्तावेज की जालसाजी करने वाले व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के मस्तिष्क में भी हो ।44
सरकारी कागजातों में परिवर्तन या रद्दो बदल-बल्लभ राम45 के वाद में एक उच्च अधिकारी के आदेश से एक सरकारी पत्रावली को एक लिपिक के अभिरक्षण में रखा गया था। अभियुक्त नं० 2 तथा 3 इस पत्र में अभिरुचि रखते थे। जब वह लिपिक अपने घर में नहीं था तब अभियुक्त नं० 1 ने जो उसी कार्यालय का एक दूसरा लिपिक था बिना उसकी अनुमति के उस पत्रावली को वहाँ से हटा दिया। यह पत्रावली अभियुक्त नं० 2 तथा 3 के प्लीडर के पास पहुँच गयी तथा कुछ समय तक उसके पास रखी रही और इसके पश्चात् उस पत्रावली को उसी स्थान पर पहुँचा दिया गया जहाँ से हटाया गया था। कुछ समय पश्चात् यह ज्ञात हुआ कि पत्रावली से कुछ पत्रों को गायब कर दिया गया है और शेष को या तो विकृत कर दिया गया है या परिवर्तित। यह निर्णय दिया गया कि दस्तावेजों में परिवर्तन करने के लिये अभियुक्त नं० 2 और 3 इस धारा तथा धारा 193 के अन्तर्गत दण्डनीय हैं।
467. मूल्यवान प्रतिभूति, विल, इत्यादि की कूटरचना- जो कोई किसी ऐसी दस्तावेज की, जिसका कोई मूल्यवान प्रतिभूति या विल या पुत्र के दत्तकग्रहण का प्राधिकार होना तात्पर्यित हो, अथवा जिसका किसी मूल्यवान प्रतिभूति की रचना या अन्तरण का, या उस पर के मूलधन, ब्याज या लाभांश को प्राप्त करने का, या किसी धन, जंगम सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति को प्राप्त करने या परिदत्त करने का प्राधिकार होना तात्पर्यित हो, अथवा किसी दस्तावेज को, जिसका धन दिए जाने की अभिस्वीकृति करने वाला, निस्तारणपत्र या रसीद होना, या किसी जंगम सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति के परिदान के लिए निस्तारणपत्र या रसीद होना तात्पर्यित हो, कूटरचना करेगा, वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
टिप्पणी
इस धारा में वर्णित अपराध पूर्वोक्त धारा में वर्णित अपराध का गुरुतर स्वरूप है। कूटकृत दस्तावेज इस धारा में वर्णित दस्तावेजों में से एक होना चाहिये। एक अपंजीकृत दस्तावेज यद्यपि तब तक मूल्यवान प्रतिभूति नहीं है जब तक कि उसका पंजीकरण न हो जाये, फिर भी इस धारा के अभिप्राय के अन्तर्गत एक मूल्यवान प्रतिभूति माना जाएगा 46 एक सादा कागज अथवा ऐसा बाँड (Bond) जो परिसीमन विधि के अन्तर्गत बाधित (Barred) हो चुका है, इस धारा में उल्लिखित दस्तावेज की कोटि में नहीं आता।+7 मूल्यवान प्रतिभूति की कोटि में आने वाले किसी दस्तावेज की प्रतिलिपि की कूटरचना इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय नहीं है।48 एक व्यक्ति यदि मिथ्या व्यपदेशन (False representation) के माध्यम से किसी पोस्टमैन से आदाता | (Pavee) के नाम पर रुपया प्राप्त कर लेता है जब कि वह यथार्थ आदाता नहीं है तो वह, इस धारा के अन्तर्गत
44. हरधन मैती, (1887) 14 कल० 513 फु० बॅ०.
45. वल्लभ राम, (1925) 27 बाम्बे लॉ रि० 1391.
46. काशी नाथ नाइक, (1897) 25 कल० 207.
47. रघुनन्दन पत्रौनवीस, (1871) 15 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 19.
48. गोविन्द प्रसाद, (1962) 1 क्रि० एल० जे० 316.
दण्डित किया जाएगा 49 यदि एक व्यक्ति कपटपूर्ण रीति से एक पंजीकृत विक्रय विलेखपत्र तैयार करता है। 735 और कहता है कि यह विलेख-पत्र एक व्यक्ति की विधवा ने निष्पादित किया है और इस कार्य द्वारा वह उस व्यक्ति के उत्तरभोगियों (reversioners) को धोखा देने तथा उन्हें क्षति पहुँचाने का आशय रखता है तो वह व्यक्ति इस अपराध का दोषी होगा 50
468, छल के प्रयोजन से कूटरचना- जो कोई कूटरचना इस आशय से करेगा कि 51[वह। दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख जिसकी कूटरचना की जाती है, छल के प्रयोजन से उपयोग में लाई। जाएगी, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी, दण्डनीय होगा।
टिप्पणी
यह धारा छल के प्रयोजन से की गयी कूटरचना को दण्डित करती है, उदाहरण के लिये प्रवंचना हेतु लेखा पुस्तिकाओं का मिथ्याकरण32 अथवा सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिये किसी विद्यालय की उपस्थिति-पंजिका की कूटरचना।53 इस धारा का आवश्यक तत्व यह नहीं है कि अभियुक्त यथार्थत: छल करे। अभियुक्त को आशय या उसका उद्देश्य इस अपराध के लिये महत्वपूर्ण है।54
जहाँ कूटकृत मेडिकल बिल प्रस्तुत करके सरकार के साथ छल करने का प्रयत्न किया जाता है, वह वैद्य जो पूर्व तिथि डालकर प्रमाण-पत्र तैयार करता है तथा एक दूसरा व्यक्ति जो विभिन्न तिथियाँ डालकर उस पर अपना हस्ताक्षर करता है यह सिद्ध करने के लिये लोकसेवक विभिन्न तिथियों को उसके दवाखाने में आया था, दोनों ही व्यक्ति ‘‘मिथ्या दस्तावेज” तैयार करने की परिभाषा के अन्तर्गत आएंगे। वे संयुक्त मत से दस्तावेज के विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग तैयार करते हुये माने जायेंगे। वे इस धारा के अन्तर्गत सपठित धारा 120-ख के अन्तर्गत दण्डनीय होंगे।
469. ख्याति को अपहानि पहुँचाने के आशय से कूटरचना-जो कोई कूटरचना 56[इस आशय से करेगा कि वह दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख, जिसकी कूटरचना की जाती है,] किसी पक्षकार की ख्याति की अपहानि करेगा, या यह सम्भाव्य जानते हुए करेगा कि इस प्रयोजन से उसका उपयोग किया जाए, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
470. कूटरचित 57[ दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख ]- वह मिथ्या 58[दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] जो पूर्णत: या भागत: कूटरचना द्वारा रची गयी है, “कूटरचित 59[दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख”] कहलाती है।
471. कूटरचित 6 दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख ] का असली के रूप में उपयोग में लाना- जो कोई किसी ऐसी 61 [दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] को, जिसके बारे में वह यह जानता
49. जोगीदास (1927) 24 बाम्बे एले० जे० 99.
50. गंगा दिव्य, (1942) 22 पटना 95.
51. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 91 व प्रथम अनुसूची द्वारा अंत:स्थापित।
52. बनेस्सुर विश्वास, (1872) 18 डब्ल्यू० आर० (क्रि०) 46.
53. कुप्पन पिल्लई, (1885) वेयर (तीसरा संस्करण) 336. ।
54. शिवजी नारायण, (1970) 73 बाम्बे एल० आर० 215.
55. नारायन लाल निराला तथा अन्य बनाम राजस्थान राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 1495 (राज०).
56. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 तथा प्रथम अनुस 57. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
58. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
59. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
60. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
61. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
या विश्वास करने का कारण रखता हो कि वह कूटरचित 02[दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख है। कपटपर्वक या बेईमानी से असली के रूप में उपयोग में लाएगा, वह उसी प्रकार दण्डित किया जाएगा, मानो। उसने ऐसी 63[दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] की कूटरचना की हो।
टिप्पणी
धारा 470 में कूटरचित दस्तावेज की परिभाषा दी गई है तथा कूटरचित दस्तावेज को वास्तविक दस्तावेज के रूप में प्रयुक्त करने की क्रिया को यह धारा दण्डनीय बनाती है। इस धारा के अन्तर्गत अपराध गठित करने के लिये यह आवश्यक है कि दस्तावेज उस व्यक्ति द्वारा उपयोग में लाया गया हो जिसे दस्तावेज के कूटरचित होने का या तो ज्ञान था या ऐसा विश्वास करने का आधार प्राप्त था। यह धारा तब लागू होती है जब निम्नलिखित शर्ते पूर्ण होती हैं
1. कपटपूर्वक या बेईमानी से किसी दस्तावेज को वास्तविक (genuine) दस्तावेज के रूप में प्रयुक्त करना ।
2. दस्तावेज को उपयोग में लाने वाले व्यक्ति को यह बात ज्ञात हो या विश्वास करने का कारण हो कि प्रश्नगत दस्तावेज कूटकृत है।
कपटपूर्वक या बेईमानी से–जिबरियाल बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र64 के बाद में महाराष्ट्र राज्य के मंत्री श्री अजहर हुसैन द्वरा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें कतिपय कलाकारों को आमंत्रित किया गया। मंत्री महोदय के लेटर पैड पर दो निमंत्रण पत्र एक पटेल नामक व्यक्ति द्वारा तैयार किये गये जिसके द्वारा राजा मुराद और जावेद खाँ नामक व्यक्तियों को इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया। ये पत्र जाली थे क्योंकि इन पर मंत्री महोदय के हस्ताक्षर नहीं थे। श्री पटेल द्वारा तैयार किये गये दोनों निमंत्रण पत्र अपीलांट द्वारा दोनों आमंत्रित व्यक्तियों को परिदत्त किये गये और उन लोगों ने कार्यक्रम में भाग भी लिया। पटेल नामक व्यक्ति जिसने उन निमंत्रण पत्रों को तैयार किया था, उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया परन्तु अपीलांट को दोषसिद्ध किया गया। अपीलांट ने स्वयं उन जाली निमंत्रण पत्रों को तैयार नहीं किया था और वह कूट रचनाकार नहीं था। यह अभिनित किया गया कि धारा 471 के अधीन अपराध के लिये आवश्यक है कि किसी व्यक्ति के कार्य द्वारा किसी अन्य को कोई हानि (disadvantage) हो जो कि यदि छल न किया गया होता तो छला गया व्यक्ति उस कार्य को न किये होता। इस मामले में जाली निमंत्रण पत्रों को परिदत्त करने में न तो किसी को सदोष लाभ हो रहा है और न किसी अन्य व्यक्ति को कोई सदोष हानि ही हो रही है। अतएव अपीलांट द्वारा किये गये कार्य को बेईमानी से किया गया नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता है कि अपीलांट का आशय किसी व्यक्ति को छलना था, क्योंकि उसके कार्य के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति को हानि नहीं कारित हुई जो कि यदि यह छल न किया गया होता तो वैसा कार्य न करता। अतएव कार्य के मूल आवश्यक तत्व ”बेईमानी से” अथवा ‘‘कपटपूर्बक” इस कार्य में अनुपस्थित होने के फलस्वरूप अपीलांट की धारा 471 और 465 के अधीन दोषसिद्धि को उचित नहीं कहा जा सकता
वास्तविक दस्तावेज के रूप में उपयोग में लाना-इस धारा के अन्तर्गत अपराध गठित करने हेतु यह आवश्यक है कि कूटरचित दस्तावेज को यथार्थ दस्तावेज के रूप में प्रयुक्त किया गया हो। मात्र यह कहना कि दस्तावेज यथार्थ था, इसे यथार्थ दस्तावेज के रूप में उपयोग में लाने के तुल्य नहीं माना जायेगा।65 मद्रास उच्च न्यायालय के इस विचार से भिन्न कलकत्ता उच्च न्यायालय का कथन है कि जहाँ कोई व्यक्ति कपटपूर्वक
62. सचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 तथा प्रथम अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित.
63. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
64. 1997 क्रि० लाँ ज० 4070 (एस० सी०).
65. मुठिया सेट्टी, (1911) 36 मद्रास 392.
या बेईमानी से यह दस्तावेज किसी दूसरे व्यक्ति को प्रदर्शित करता है तथा उसे यह ज्ञात या ज्ञात होने का कारण था कि दस्तावेज कूटरचित है तो इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत दस्तावेज को यथार्थ के रूप में उपयोग में लाया हुआ माना जायेगा। यह महत्वपूर्ण नहीं होगा कि क्या अभियुक्त ने इसे स्वयं प्रस्तुत किया था या न्यायालय के आदेश के अन्तर्गत, यदि वह इसे यथार्थ दस्तावेज के रूप में उपयोग में लाता है।66 एक दूसरे वाद में इसी उच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया था कि दस्तावेज किसी रूप में उपयोग में लाया गया था, यह महत्वपूर्ण नहीं है।67 यह भी आवश्यक नहीं है कि दस्तावेज को प्रभावशाली ढंग से उपयोग में लाया गया हो। दस्तावेज का अपराधी द्वारा उपयोग में लाना ही पर्याप्त है, यह आवश्यक नहीं है कि जिस पार्टी के समक्ष दस्तावेज रखा गया था उसने उसे यथार्थ दस्तावेज के रूप में ग्रहण किया था अथवा नहीं।68 न्यायालय द्वारा ऐसे दस्तावेज की स्वीकृति आवश्यक नहीं है।69 बंशी शेख70 के बाद में अभियुक्त जो कि बन्धकी प्रतिवादी था यह आरोप लगाया कि मूलतः यह किरायेदार के रूप में सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त किये हुये था किन्तु बाद में उसने संपत्ति को पंजीकृत करार द्वारा खरीद लिया था। इस करार को विचारण न्यायालय में दाखिल नहीं किया गया था फिर भी न्यायालय ने डिक्री प्रदान कर दिया। अभियुक्त ने बाद में इसे अपनी अपील ज्ञापिका के साथ दाखिल कर दिया। करार एक कूटरचित दस्तावेज था। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह सुस्पष्ट किया कि अभियुक्त ने इस दस्तावेज को यथार्थ दस्तावेज के रूप में प्रयोग किया था इसलिये वह धारा 471 में वर्णित अपराध का दोषी है।
इस धारा के अन्तर्गत दस्तावेज का अपेक्षित उपयोग स्वेच्छया होना चाहिये। इसका प्रदर्शन मात्र न्यायालय के किसी आदेश के अनुपालन के रूप में नहीं होना चाहिये, क्योंकि न्यायालय के आदेश का अनुपालन आवश्यक है।71 वाद के साथ कूटरचित दस्तावेज का दाखिल करना दस्तावेज को प्रयोग में लाने के तुल्य है।72 किसी कूटकृत चेक को यथार्थ (असली) चेक के रूप में इस आशय से उपयोग में लाना जिससे ऋण के पुनर्भुगतान हेतु समय मिल जाये इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय है, भले ही ऋण का पुनर्भुगतान कर दिया गया हो तथा ऋणदाता ने चेक लौटा दिया हो और यह ज्ञात नहीं था कि किसने कूटरचना की थी।73 पुलिस छानबीन के दौरान यदि कोई व्यक्ति जाँच पड़ताल अधिकारी को एक कूटरचित दस्तावेज देता है जिससे वह अधिकारी कोई ऐसा कार्य करता है जिसे वह अन्यथा न किये होता, इस धारा के अन्तर्गत दोषी होगा।74 ‘स’ नामक एक व्यक्ति ने किसी प्रतियोगितात्मक परीक्षा में सम्मिलित होने के उद्देश्य से सर्टीफिकेट की एक प्रमाणित प्रतिलिपि को मूल प्रति की सत्य प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में आवेदन पत्र के साथ लगा दिया। जब उससे मूल प्रति की माँग की गयी तो उसने इसे प्रस्तुत किया। मूल सर्टीफिकेट में जन्म तिथि को 5 जनवरी, 1901, से बदलकर 15 जनवरी, 1904 कर दिया गया था ताकि वह परीक्षा में बैठ सके। यह अभिनिर्णीत हुआ कि मूल दस्तावेज कूटरचित था तथा स को यह ज्ञात था कि मूल दस्तावेज कूटकृत है। स को इस धारा में वर्णित अपराध का दोषी घोषित किया गया।75
तुलसी भाई जिवा भाई चन्गानी बनाम गुजरात राज्य76 के वाद में अभियुक्त/अपीलांट ने प्रमाण-पत्र की डुप्लीकेट प्रति में परिवर्तन करके सही प्रमाण-पत्र के तौर पर यह जानते हुये कि यह तात्विक रूप से
66. मोहित कुमार मुकर्जी, (1925) 52 कल० 881.
67. सुपरिन्टेंडेंट एण्ड रिमेम्ब्रेसर ऑफ लीगल अफेयर्स बंगाल बनाम दौलतराम मूडी, (1932) 50 कल० 1233.
68. शिवजी नारायण, (1970) 73 बाम्बे एल० आर० 215.
69. बंशी शेख, (1923) 51 कल० 469.
70. उपरोक्त सन्दर्भ.
71. केदारनाथ, ए० आई० आर० 1935 इला० 940.
72. इन्दू जोलाहा, ए० आई० आर० 1918 पटना 274.
73. 3 सौराष्ट्र लॉ रि० 8.
74. एस० सी० विश्वास, ए० आई० आर० 1920 पटना 800.
75. इम्परर बनाम चरन सिंह, ए० आई० आर० 1929 लाहौर 152.
76. 2001 क्रि० लॉ ज० 741 (एस० सी०).
गलत है प्रयोग किया और उसके आधार पर पालीटेक्निक कोर्स में प्रवेश लिया। विचारण न्यायालय द्वारा उसे भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 198, 420 और 471 के अधीन दोषसिद्ध पाया गया। विचारण न्यायालय ने यह कहा था कि वह सिद्ध नहीं किया गया कि मार्कशीट अपीलांट द्वारा कूटकृत (forged) की गई परन्तु उसे कम से कम इतनी जानकारी अवश्य थी कि वह सही अंकपत्र (मार्कशीट) नहीं थी फिर भी उसने प्रवेश पाने के लिये उसका उपयोग किया। अतएव उसे दोषसिद्ध किया गया। उच्चतम न्यायालय ने उसकी दोषसिद्धि में हस्तक्षेप नहीं किया परन्तु अपराध की प्रकृति तथा इन तथ्यों पर कि अपीलांट का भूत एवं वर्तमान रिकार्ड अच्छा रहा है तथा उसने अपना भविष्य खो दिया है और अब शादी भी हो गई है उसकी सजा को जितना यह भुगत चुका था उसी अवधि तक कम कर दिया।
यदि कूटरचित दस्तावेज का उपयोग किसी ऐसे न्यायालय के समक्ष किया जाता है जिसे उस कार्यवाही को जिसमें दस्तावेज प्रस्तुत किया गया था, सम्पादित करने का अधिकार ही नहीं है तो इस धारा के अन्तर्गत कोई अपराध कारित हुआ नहीं माना जायेगा।77
मोहम्मद इब्राहिम और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य77क के बाद में अभियुक्त पर एक मिथ्या विक्रय पत्र निष्पादित करने का आरोप था। अभियुक्त ने विक्रय विलेख इस सदभाविक विश्वास पर निष्पादित किया था कि वाद की सम्पत्ति का वही मालिक है। उसने अपने को किसी अन्य के रूप में मिथ्या व्यपदेशित नहीं किया था अथवा यह नहीं व्यपदेशित किया था कि वह किसी अन्य द्वारा अधिकृत किया गया है अतएव ऐसे विलेख का निष्पादन (जिसके द्वारा कोई सम्पत्ति किसी को अन्तरित की जाती है जिसका वह मालिक नहीं है) भारतीय दण्ड संहिता की धारा 464 के अधीन परिभाषित मिथ्या दस्तावेज रचना का निष्पादन नहीं है। यदि जो कुछ निष्पादित किया गया है वह मिथ्या दस्तावेज नहीं है तो कोई कूटरचना नहीं है। यदि कोई कूट रचना नहीं है तब न तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 467 और न तो धारा 471 ही आकर्षित होती है।
जानता हो या विश्वास करने का कारण रखता हो कि वह कूटरचित दस्तावेज है– ये साधारण प्रयुक्ति के शब्द हैं। जो भी व्यक्ति किसी कूटरचित दस्तावेज को असली के रूप में उपयोग में लाता है। वह यह निश्चयत: जानता हो या विश्वास करने का कारण रखता हो कि दस्तावेज कूटकृत है। केवल यह तथ्य कि दस्तावेज सन्देहात्मक प्रकृति का प्रतीत होता है, अभियुक्त के दोषपूर्ण ज्ञान का प्रथमदृष्ट्या साक्ष्य नहीं माना जा सकता कि वह असली नहीं है अपितु कूटरचित है।78 कूटरचित दस्तावेज का कब्जा ही पर्याप्त नहीं है।79 यदि कोई व्यक्ति एक दस्तावेज दाखिल करता है तथा दस्तावेज के तथ्यों को सत्यापित करना चाहता है। तो केवल इस तथ्य से यह अवधारणा उत्पन्न नहीं होती कि उसे यह ज्ञात था कि दस्तावेज कूटरचित था। अभियुक्त का आचरण उसके दोषपूर्ण ज्ञान की कसौटी है।80
कटरचित दस्तावेज की प्रतियाँ उपयोग में लाता है- किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा कूटरचित मूल प्रति की प्रमाणित प्रतिलिपियों को उपयोग में लाना जिसे यह ज्ञात है कि मूल प्रति कूटरचित है, इस धारा के अन्तर्गत कटरचित दस्तावेज को उपयोग में लाने के तुल्य है।81 मात्र यह तथ्य कि दस्तावेज कूटरचित है, दोषसिदि को न्यायोचित ठहराने के लिये पर्याप्त नहीं होगा। दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने हेतु यह सिद्ध करना आवश्यक है कि दस्तावेज का उपयोग कपटपूर्वक किया गया था तथा उपयोग में लाने वाला व्यक्ति यह जानता था या यह विश्वास करने का कारण रखता था कि मूल प्रतियाँ कूटकृत थीं 82 उच्चतम न्यायालय के
77. सुमत प्रसाद, (1942) इला० 42. 77क. (2010) 2 क्रि० ला ज० 2223 (एस० सी०).
78 के० बी० गनी बनाम दी कस्टोडियन ऑफ इवाकू प्रापटी, हैदराबाद, ए० आई० आर० 1972 हैदराबाद 152.
79. इन रे रामास्वामी शेट्टी, ए० आई० आर० 1949 मद्रास 434.
80. मुबारक अली बनाम किंग इम्परर, 17 एल० डब्ल्यू० एन० 94.
81. भुलई सिंह, (1906) 28 इला० 402.
82. मथुरा प्रसाद बनाम किंग इम्परर, ए० आई० आर० 1926 अवध 255.
अनुसार यह धारा कूटरचित दस्तावेज को असली के रूप में प्रयुक्त किये जाने के लिये दण्ड का प्राविधान प्रस्तुत करती है किन्तु जहाँ कोई प्रमाणित प्रतिलिपि कूटरचित मूल दस्तावेज के उद्देश्य की पूर्ति करती है, ऐसी प्रति का प्रस्तुतिकरण कूटरचित मूल दस्तावेजों को असली के रूप में उपयोग में लाने के तुल्य । होगा।83
केवल यह तथ्य कि दस्तावेज कूटरचित था, इस धारा के अन्तर्गत दोषसिद्धि प्रदान करने के लिये पर्याप्त नहीं है। यह सिद्ध किया जाना चाहिये कि अभियुक्त कूटकरण की कार्यवाही में साझीदार था।84 अत: इस धारा के अन्तर्गत जो कुछ अभिनिश्चित किया जाता है वह यह कि क्या दस्तावेज का उपयोग में लाया जाना इसे असली के रूप में उपयोग में लाने के प्रयत्न के तुल्यमात्र है? यदि प्रयत्न सफल नहीं होता है तो उपयोग कवल प्रयत्न मात्र होगा। दस्तावेज को प्रयोग में लाते समय अभियुक्त को प्राप्त सफलता की मात्रा महत्वपूर्ण नहीं है।85
गल्ला नागेश्वर राव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य86 के बाद में अभियुक्त ने अपनी नौकरी से अवकाश प्राप्त के पहले कुछ और वर्षों की सेवा का लाभ उठाने के उद्देश्य से अपनी जन्म-तिथि परिवर्तित कराने के लय एक जन्म प्रमाण-पत्र ‘विद्यालय द्वारा निर्गत किया’ बताते हुये दाखिल किया। भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक द्वारा अभियुक्त का आवेदन-पत्र उसके जन्म प्रमाण-पत्र के साथ उसकी सत्यता की जाँच हेतु नियुक्त एक जाँच अधिकारी को अग्रसारित कर दिया गया। जाँच के बाद प्रमाण-पत्र जाली पाया गया। यह निर्णय दिया गया कि यह माना जायेगा कि अभियुक्त को इस बात का ज्ञान था कि प्रमाणपत्र जाली है। ऐसे मामले में यह प्रकल्पना की जायेगी कि अभियुक्त ने बेईमानीपूर्ण आशय से जाली भिलेख का उपयोग कर लाभान्वित होने का प्रयास किया। यह तथ्य कि जाली अभिलेख के आधार पर कोई कार्यवाही नहीं की गई, महत्वपूर्ण नहीं है। धारा 471 के अन्तर्गत दोषसिद्धि हेतु जाली अभिलेख का प्रभावकारी प्रयोग आवश्यक नहीं है।
दण्ड- मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार जो व्यक्ति दस्तावेज की कूटरचना करता है तथा इसे असली के रूप में उपयोग में लाता है, उसे दोनों ही अपराधों के लिये दण्डित किया जाना चाहिये।87 जो व्यक्ति बेईमानी से किसी कूटरचित दस्तावेज को असली के रूप में प्रयोग करता है, धारा 467 में उपबन्धित दण्ड के साथ धारा 471 के अन्तर्गत दण्डित किया जा सकता है।88 उच्चतम न्यायालय के अनुसार जहाँ कूटरचित परमिट का उपयोग आम बात है वहां भयोत्पादक (deterrent) दण्ड न्यायोचित है।89
472. धारा 467 के अधीन दण्डनीय कूटरचना करने के आशय से कूटकृत मुद्रा, आदि का बनाना या कब्जे में रखना- जो कोई किसी मुद्रा, पट्टी या छाप लगाने के अन्य उपकरण को इस आशय से बनाएगा या उसकी कूटकृति तैयार करेगा कि उसे कोई ऐसी कूटरचना करने के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाए, जो इस संहिता की धारा 467 के अधीन दण्डनीय है, या इस आशय से, किसी ऐसी मुद्रा, पट्टी या अन्य उपकरण को, उसे कूटकृत जानते हुए अपने कब्जे में रखेगा, वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
83. बुधुराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, (1953) 3 एस० सी० आर० 376. |
84. एम० एम० त्रिवेदी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1960 म० प्र० 269.
85. 1970 इला० वीकली रिपोर्ट (एच० सी०) 734.
86. 1992 क्रि० लाँ ज० 2601 (आ० प्र०).
87. श्रीरामुलू नायडू, (1928) 52 मद्रास 532. 88. ए० आई० आर० 1927 अवध 630.
89. गज्जन सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1965 सु० को० 1921.
473. अन्यथा दण्डनीय कूटरचना करने के आशय से कूटकृत मुद्रा, आदि का बनाना या कब्जे में रखना- जो कोई किसी मुद्रा, पट्टी या छाप लगाने के अन्य उपकरण को इस आशय से बनाएगा, या उसकी कुटकृति तैयार करेगा, कि उसे कोई ऐसी कूटरचना करने के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाए। जो धारा 467 से भिन्न इस अध्याय की किसी धारा के अधीन दण्डनीय है, या इस आशय से किसी ऐसी मुद्रा पट्टी या अन्य उपकरण का, उसे कूटकृत जानते हुए अपने कब्जे में रखेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
474. धारा 466 या 467 में वर्णित 9 दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख ] को, उसे कूटरचित जानते हुए और उसे असली के रूप में उपयोग में लाने का आशय रखते हुए कब्जे में रखना-91[जो कोई किसी दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख को, उसे कूटरचित जानते हुए और यह आशय रखते हुए कि वह कपटपूर्वक या बेईमानी से असली के रूप में उपयोग में लायी जायेगी, अपने कब्जे में रखेगा, यदि वह दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख इस संहिता की धारा 466 में वर्णित भांति की हो, ] तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा, तथा यदि वह दस्तावेज धारा 467 में वर्णित भांति की हो तो वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो। सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
475. धारा 467 में वर्णित दस्तावेजों के अधिप्रमाणीकरण के लिए उपयोग में लाई जाने वाली अभिलक्षणा या चिन्ह की कूटकृति बनाना या कूटकृत चिन्हयुक्त पदार्थ को कब्जे में रखना-जो कोई किसी पदार्थ के ऊपर, या उसके उपादान में, किसी ऐसी अभिलक्षणा या चिन्ह की, जिसे इस संहिता की धारा 467 में वर्णित किसी दस्तावेज के अधिप्रमाणीकरण के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाता हो, कूटकृति यह आशय रखते हुए बनाएगा कि ऐसी अभिलक्षणा या ऐसे चिन्ह की, ऐसे पदार्थ पर उस समय कूटरचित की जा रही या उसके पश्चात् कूटरचित की जाने वाली किसी दस्तावेज को अधिप्रमाणीकृत का आभास प्रदान करने के प्रयोजन से उपयोग में लाया जाएगा या जो ऐसे आशय से कोई ऐसा पदार्थ अपने कब्जे में रखेगा, जिस पर या जिसके उपादान में ऐसी अभिलक्षणा की या ऐसे चिन्ह की कूटकृति बनाई गई हो, वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा, और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
476. धारा 467 में वर्णित दस्तावेजों से भिन्न दस्तावेजों के अधिप्रमाणीकरण के लिए उपयोग में लाई जाने वाली अभिलक्षणा या चिन्ह की कूटकृति बनाना या कूटकृत चिन्हयुक्त पदार्थ को कब्जे में रखना- जो कोई किसी पदार्थ के ऊपर, या उसके उपादान में, किसी ऐसी अभिलक्षणा या चिन्ह को, जिसे इस संहिता की धारा 467 में वर्णित दस्तावेजों से भिन्न किसी 92[दस्तावेज या इलेक्ट्रानिक अभिलेख] के अधिप्रमाणीकरण के प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाता हो, कूटकृति यह आशय रखते हुए बनाएगा कि वह ऐसी अभिलक्षणा या ऐसे चिन्ह को, जो ऐसे पदार्थ पर उस समय कुटरचित की जा रही या उसके पश्चात् कूटरचित की जाने वाली किसी दस्तावेज 93[या इलेक्ट्रानिक अभिलेखों को अधिप्रमाणीकत का आभास प्रदान करने के प्रयोजन से उपयोग में लाया जाएगा या जो ऐसे आशय से कोई ऐसा पदार्थ अपने कब्जे में रखेगा जिस पर या जिसके उपादान में ऐसी अभिलक्षणा या ऐसे चिन्ह की कूटकृति बनाई गई हो, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
90. सचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 और प्रथम अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित.
91. उपरोक्त.
92. उपरोक्त.
93. उपरोक्त.
477. विल, दत्तकग्रहण, प्राधिकार-पत्र या मूल्यवान प्रतिभूति को कपटपूर्वक रद्द, नष्ट, आदि करना– जो कोई कपटपूर्वक या बेईमानी से, या लोक को या किसी व्यक्ति को नुकसान या क्षति कारित करने के आशय से, किसी ऐसी दस्तावेज को, जो विल या पुत्र के दत्तकग्रहण करने का प्राधिकार-पत्र या कोई मूल्यवान प्रतिभूति हो, या होना तात्पर्यत हो, रद्द, नष्ट या विरूपित करेगा या रद्द, नष्ट या विरूपित। करने का प्रयत्न करेगा, या छिपाएगा या छिपाने का प्रयत्न करेगा या ऐसी दस्तावेज के विषय में रिष्टि करेगा, वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो । सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
477-क. लेखा का मिथ्याकरण- जो कोई लिपिक, आफिसर या सेवक होते हुए, या लिपिक, आफिसर या सेवक के नाते नियोजित होते या कार्य करते हुए, किसी 94[पुस्तक, इलेक्ट्रानिक अभिलेख, कागज, लेख,] मूल्यवान प्रतिभूति या लेखा को, जो उसके नियोजक का हो या उसके नियोजक के कब्जे में। ९, वा जिस उसने नियोजक के लिए या उसकी ओर से प्राप्त किया हो, जानबूझकर और कपट करने के आशय से नष्ट, परिवर्तित, विकृत या मिथ्याकत करेगा अथवा किसी ऐसी 95[पुस्तक, इलेक्ट्रानिक अभिलेख, कागज, लेख मूल्यवान प्रतिभूति या लेखा में जानबूझकर और कपट करने के आशय से कोई मिथ्या प्रविष्टि करेगा। वा करने के लिए दुष्प्रेरण करेगा, या उसमें से या उसमें किसी तात्विक विशिष्टि का लोप या परिवर्तन करेगा। या करने का दुष्प्रेरण करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण- इस धारा के अधीन किसी आरोप में, किसी विशिष्ट व्यक्ति का, जिससे कपट करना आशयित था, नाम बताए बिना या किसी विशिष्ट धनराशि का जिसके विषय में कपट किया जाना आशयित था या किसी विशिष्ट दिन का, जिस दिन अपराध किया गया था. विनिर्देश किए बिना, कपट करने के साधारण आशय का अभिक्थन पर्याप्त होगा।
टिप्पणी
यह धारा पुस्तक पालन (book keeping) तथा लिखित लेखा (written accounts) से सम्बन्धित है। पुस्तक तथा लेखा का मिथ्याकरण इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय बनाया गया है भले ही किसी विशिष्ट अवसर पर किसी विशिष्ट धनराशि के दुर्विनियोग को प्रमाणित करने के लिये कोई साक्ष्य उपलब्ध न हो।
अवयव– इस धारा के निम्नलिखित अवयव हैं
1. इस धारा के दायरे में आने वाले व्यक्ति का एक लिपिक अधिकारी या सेवक होना आवश्यक है।
या वह एक लिपिक, अधिकारी या सेवक की हैसियत से कार्य कर रहा हो।
2. वह जानबूझ कर (wilfully) तथा कपट करने के आशय से
(क) किसी पुस्तक, कागज, लेख, मूल्यवान प्रतिभूति या लेखा को नष्ट, परिवर्तित, विकृत या मिथ्याकृत कर दे, जो
(i) उसके नियोजक का हो या उसके नियोजक के कब्जे में हो, या
(ii) जिसे उसके नियोजक के लिये या उसकी ओर से प्राप्त किया हो,
(ख) किसी ऐसी पुस्तक, कागज, लेख, मूल्यवान प्रतिभूति या लेखा में मिथ्या प्रविष्टि कर दे या
करने का दुष्प्रेरण करे, या उसमें से या उसके किसी विशिष्ट वस्तु का लोप या परिवर्तन कर दे या करने का दुष्प्रेरण करे।
94. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (2000 का अधिनियम सं० 21) की धारा 91 और प्रथम अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित. |
95. उपरोक्त द्वारा प्रतिस्थापित.
पर्ववर्ती कपट को छिपाने के लिये मिथ्याकरण- एक पूर्ववर्ती कपटपूर्ण या अनुचित कार्य को छिपाने के लिये किसी व्यक्ति द्वारा एक पुस्तक या रजिस्टर में झूठी प्रविष्टियाँ करना इस धारा के अन्तर्गत आता है। इस धारा के दायरे के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को लाने के लिये जो कुछ आवश्यक है वह यह है कि उसने जानबूझ कर तथा कपट करने के आशय से किसी पुस्तक या कागज इत्यादि में परिवर्तन या मिथ्याकरण किया। हो। यदि आशय जिसने कि झूठा दस्तावेज तैयार किया गया है, किसी प्रवंचना अथवा बेईमानी से परिपर्ण कार्य को छिपाता है जिसे पहले ही किया जा चुका है तो इस आशय को कपट करने के आशय से भिन्न नहीं कहा जा सकता। पहले से कारित कपट को छिपाना भी कपट है।96
चूंकि यह धारा लेखा के मिथ्याकरण से सम्बन्धित है, अत: एक दस्तावेज पर से नये कोर्ट फीस टिकट को हटाकर उस स्थान पर पुराने टिकट को लगाना तथा उस पर लिखी गयी संख्या में परिवर्तन करना इस धारा के अन्तर्गत नहीं आता।97 जहां अभियुक्त ने भवन पुनर्निर्माण की माप पुस्तिका का तथा बिल को इस आशय से मिथ्याकृत (Falsified) किया कि किये गये पुनर्निर्माण कार्य के लिये ठेकेदार का बिल बिना वास्तविक माप के ही पारित कर दिया जायेगा यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त का कार्य लेख के कपटपूर्ण मिथ्याकरण के तुल्य है।98
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