Indian Penal Code Offences Against Property Criminal Breach of Trust LLB Notes
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(OF CRIMINAL BREACH OF TRUST (LLB 1st Year / Semester Notes Study Material)
405. आपराधिक न्यासभंग- जो कोई सम्पत्ति या सम्पत्ति पर कोई भी अख्त्यार किसी प्रकार अपने को न्यस्त किए जाने पर उस सम्पत्ति का बेईमानी से दुर्विनियोग कर लेता है या उसे अपने उपयोग में संपरिवर्तित कर लेता है या जिस प्रकार ऐसा न्यास निर्वहन किया जाता है, उसको विहित करने वाली विधि के किसी निदेश का, या ऐसे न्याय के निर्वहन के बारे में उसके द्वारा की गई किसी अभिव्यक्त या विवक्षित वैध संविदा का अतिक्रमण करके बेईमानी से उस सम्पत्ति का उपयोग या व्ययन करता है, या जानबूझकर किसी अन्य व्यक्ति का ऐसा करना सहन करता है, वह ‘‘ आपराधिक न्यासभंग” करता है।
31 स्पष्टीकरण 40[1]- जो व्यक्ति, 41 [ किसी स्थापन का नियोजक होते हुए, चाहे वह स्थापन कर्मचारी भविष्य-निधि और प्रकीर्ण उपबन्ध अधिनियम, 1952 (1952 को 19) की धारा 17 के अधीन छूट प्राप्त है या नहीं,] तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा स्थापित भविष्य निधि या कुटुम्ब पेंशन-निधि में जमा करने के लिए कर्मचारी-अभिदाय की कटौती कर्मचारी को संदेय मजदूरी में से करता है, उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसके द्वारा इस प्रकार कटौती किए गए अभिदाय की रकम उसे न्यस्त कर दी गई है। और यदि वह उक्त निधि में ऐसे अभिदाय का संदाय करने में, उक्त विधि का अतिक्रमण करके व्यतिक्रम करेगा तो उसके बारे में यह समझा जायेगा कि उसने यथापूर्वोक्त विधि के किसी निदेश का अतिक्रमण करके उक्त अभिदाय की रकम का बेईमानी से उपयोग किया है।
42[ स्पष्टीकरण 2- जो व्यक्ति, नियोजक होते हुए, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 (1948 का 34) के अधीन स्थापित कर्मचारी राज्य बीमा निगम द्वारा धारित और शासित कर्मचारी राज्य बीमा निगम निधि में जमा करने के लिए कर्मचारी को संदेय मजदूरी में से कर्मचारी-अभिदाय की कटौती करता है, उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसे अभिदाय की वह रकम न्यस्त कर दी गई है, जिसकी उसने इस प्रकार कटौती की है और यदि वह उक्त निधि में ऐसे अभिदाय के संदाय करने में, उक्त अधिनियम का अतिक्रमण करके, व्यतिक्रम करता है, तो उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसने यथापूर्वोक्त विधि के किसी निदेश का अतिक्रमण करके उक्त अभिदाय की रकम का बेईमानी से उपयोग किया है।
दृष्टान्त
(क) क एक मृत व्यक्ति की विल का निष्पादक होते हुए, उस विधि की, जो चीजबस्त को विल के अनुसार विभाजित करने के लिए उसको निदेश देती है, बेईमानी से अवज्ञा करता है, और उस चीजबस्त को अपने उपयोग के लिए विनियुक्त कर लेता है। क ने आपराधिक न्यासभंग किया है।
39. 1973 के अधिनियम सं० 40 की धारा 9 द्वारा अन्त:स्थापित.
40. 1975 के अधिनियम सं० 38 की धारा 9 द्वारा स्पष्टीकरण 1 के रूप में संख्यांकित किया गया।
41. 1988 के अधिनियम सं० 33 की धारा 27 द्वारा अन्त:स्थापित.
42. 1975 के अधिनियम सं० 38 की धारा 9 द्वारा अन्त:स्थापित.
(ख़) क भाण्डागारिक है। ये यात्रा को जाते हुए अपना फर्नीचर क के पास उस संविदा के अधीन न्यस्त कर जाता है कि वह भाण्डागार के कमरे के लिए ठहराई गई राशि के दे दिए जाने पर लौटा दिया जाएगा। क उस माल को बेईमानी से बेच देता है। क ने आपराधिक न्यासभंग किया है।
(ग) क, जो कलकत्ता में निवास करता है, य का, जो दिल्ली में निवास करता है, अभिकर्ता है। क और य के बीच यह अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा है कि य द्वारा क को प्रेषित सब राशियां क द्वारा य के निदेश के । अनुसार विनिहित की जाएंगी। य, क को इन निदेशों के साथ एक लाख रुपये भेजता है कि उसको कम्पनी पत्रों में विनिहित किया जाए। क उन निदेशों की बेईमानी से अवज्ञा करता है और उस धन को अपने कारबार के उपयोग में ले आता है। क ने आपराधिक न्यासभंग किया है।
(घ) किन्तु यदि पिछले दृष्टान्त में क बेईमानी से नहीं प्रत्युत सद्भावपूर्वक यह विश्वास करते हुए कि बैंक आफ बंगाल में अंश धारण करना य के लिए अधिक फायदाप्रद होगा, य के निदेशों की अवज्ञा करता है, और कम्पनी पत्र खरीदने के बजाय य के लिए बैंक आफ बंगाल के अंश खरीदता है, तो यद्यपि य की हानि । हो जाए और उस हानि के कारण, वह क के विरुद्ध सिविल कार्यवाही करने का हकदार हो, तथापि यत: क ने, बेईमानी का कार्य नहीं किया है, उसने आपराधिक न्यासभंग नहीं किया है।
(ङ) एक राजस्व आफिसर, क के पास लोक धन न्यस्त किया गया है और वह उस सब धन को, जो उसके पास न्यस्त किया गया है, एक निश्चित खजाने में जमा कर देने के लिए या तो विधि द्वारा निदेशित है। या सरकार के साथ अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा द्वारा आबद्ध है। क उस धन को बेईमानी से विनियोजित कर लेता है। क ने आपराधिक न्यासभंग किया है।
(च) भूमि से या जल से ले जाने के लिए य ने क के पास, जो एक वाहक है, सम्पत्ति न्यस्त की है, क उस सम्पत्ति का बेईमानी से दुर्विनियोग कर लेता है। क ने आपराधिक न्यासभंग किया है।
टिप्पणी
इस अपराध के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं
(1) किसी व्यक्ति में कोई सम्पत्ति या सम्पत्ति का कोई स्वत्व न्यस्त किया गया हो
(2) सम्पत्ति पर अख्त्यार रखने वाला व्यक्ति,
(क) उस सम्पत्ति को बेईमानी से दुर्विनियोग कर ले, या अपने उपयोग के लिये संपरिवर्तित कर ले,
या (i) ऐसे न्यास के निर्वहन हेतु प्रक्रिया विहित करने वाली विधि के किसी निर्देश का, या
(ii) ऐसे न्यास के निर्वहन के बारे में उसके द्वारा की गई किसी वैध संविदा का अतिक्रमण करके।
(ख) बेईमानीपूर्वक उस सम्पत्ति का उपयोग या व्ययन कर ले अथवा जानबूझकर किसी अन्य व्यक्ति का ऐसा करना सहन कर ले,
किसी प्रकार किसी सम्पत्ति का न्यस्त किया जाना– इस धारा के प्रवर्तन के लिये संपत्ति का सौंपा जाना आवश्यक है। ”न्यस्त” शब्द का तात्पर्य है, किसी प्रयोजन हेतु सम्पत्ति पर कब्जा प्रदान करना किन्तु जिसमें स्वामित्व सम्बन्धी अधिकारों का प्रदान किया जाना अन्तर्विष्ट नहीं होता 43 इस धारा के अन्तर्गत अपराध संरचित करने के लिये यह आवश्यक है कि सम्पत्ति का दुर्विनियोग बेईमानी से किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाये जिसमें सम्पत्ति के संरक्षण या प्रबन्ध के सम्बन्ध में विश्वास किया गया हो। जिस सम्पत्ति के सम्बन्ध में आपराधिक न्यासभंग का अपराध कारित किया गया है उसका स्वामित्व या लाभप्रद हिता अभियुक्त से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति में होना चाहिये और अभियुक्त उस सम्पत्ति को किसी व्या किसी प्रकार उसके लाभ के लिये धारण करे 44 साझेदारी फर्म का कोई साझीदार, साझीदारी सम्पत्ति के
43. लेक बनाम सिम्मन्स, (1927) ए० एल० जे० 487 में लार्ड हेल्डेन का मत।
44. सी० एम० नारायण, ए० आई० आर० (1953) एस० सी० 478.
सम्बन्ध में आपराधिक न्यासभंग का दोषी हो सकता है 45 एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति में विश्वास या आस्था सृजित करना ही न्यास में अन्तर्विष्ट है। ऐसा विश्वास स्वेच्छया तथा स्वतन्त्रतापूर्वक सृजित होना चाहिये। यदि इस विश्वास के पीछे किसी तरह के छल या कपट का प्रयोग हुआ है तो ऐसी सम्मति स्वतन्त्र सम्मति नहीं होगी और ऐसा न्यस्त वास्तविक न्यस्त नहीं होगा। अभियुक्त व्यक्ति में रकम न्यस्त होने के लिये उन परिस्थितियों में उसे हस्तान्तरित होनी चाहिये जो यह स्पष्ट करें कि रकम परिदत्त किये जाने के बावजूद भी अभियोजक उसका वास्तविक स्वामी है और अभियुक्त उपनिहिती (Bailee) की हैसियत से रकम को अपने आधिपत्य में रखता है। इतना ही नहीं न्यस्त सम्पत्ति समयानुसार अभियोजक को उपनिधाता के रूप में या तो लौटा दी जायेगी या उसके निर्देशों के अनुसार उसका स्तेमाल हो जायेगा 46 यदि कोई व्यक्ति यह दर्शाता है कि वह खरीद पर काम करने वाला है और ऐसा विश्वास दिलाकर बर्तन ले जाता है कि उसकी मरम्मत कर उसी दिन लौटा देगा, किन्तु वह बर्तन लौटाता नहीं है और यह प्रमाणित हो जाता है कि वह खरीद पर काम करने वाला नहीं था तो वह छल के अपराध का दोषी होगा न कि इस धारा में वर्णित अपराध का 47 पुष्पा कुमार बनाम सिक्किम राज्य48 के वाद में अभियुक्त एक बस का परिचालक था। बस सिक्किम राष्ट्रीयकृत परिवहन से सम्बन्धित थी। परिचालक की हैसियत से उसने किराये और भाड़े के रूप में 2000 रुपये इकट्ठा किया था। वह परिवहन अधिकारियों को न तो कोई हिसाब देता था और न ही अनेक अनुस्मारकों के बावजूद उसने पैसा जमा किया। उच्च न्यायालय ने अभिनित किया कि न्यस्त किये जाने का एक सबसे महत्वपूर्ण अवयव यह है कि वह सम्पत्ति जिसके सम्बन्ध में आपराधिक न्यासभंग का आरोप लगाया जाता है, व्यथित व्यक्ति द्वारा जो बराबर उसका मालिक रहता है, अभियुक्त को सौंपी गयी हो। इस प्रकरण में सम्पत्ति सौंपी नहीं गयी थी और न ही उसके पक्ष में अन्तरित की गयी थी। अतएव परिचालक दोषी नहीं है। उच्चतम न्यायालय द्वारा सोभनाथ बनाम राजस्थान राज्य49 के वाद में व्यक्त किये गये विचार के प्रकाश में उपरोक्त विचार अयुक्त है। सोभनाथ के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि यदि एक व्यक्ति के बदले में दूसरा व्यक्ति रुपया इकट्ठा करने के लिये प्राधिकृत किया गया है तो वह व्यक्ति न्यस्त किया गया माना जायेगा यदि रुपये का भुगतान उसे कर दिया जाता है। जैसे ही प्राधिकृत व्यक्ति के पास रुपया जमा होता। है वह व्यक्ति जिसके लिये रुपया जमा होता है, उस रुपये का स्वामी बन जाता है। अतः उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के प्रकाश में बस परिचालक ने रुपये सिक्किम परिवहन के बदले में इकट्ठा किया था।
प्रतिभारानी बनाम सूरज कुमार50 के वाद में अपीलार्थी का अभिकथन था कि उनकी स्त्रीधन सम्पत्ति सास-श्वसुर को न्यस्त कर दी गयी थी जिसका उन लोगों ने दुर्विनियोग कर लिया। अपीलार्थी ने स्पष्ट विशिष्ट और असंदिग्ध रूप में अपनी बात व्यक्त किया था और परिवाद में उल्लिखित तथ्यों से आपराधिक न्यास भंग का अपराध गठित होता था। यह अभिनिर्णीत हुआ कि यह आपराधिक न्यासभंग का अपराध है। जिसे सिद्ध करने का अपीलार्थी को पूरा अधिकार है। उच्च न्यायालय यदि परिवाद को रद्द करता है तो उच्च न्यायालय का आदेश न्यायोचित नहीं होगा।
सम्पत्ति– इस धारा के प्रयोजन हेतु सम्पत्ति चल या अचल किसी भी प्रकार की हो सकती है क्योंकि इस धारा में सम्पत्ति शब्द का प्रयोग बिना किसी विशेषण के हुआ है। किन्तु सम्पत्ति परिवादकर्ता की ही होनी चाहिये। यदि सम्पत्ति न्यस्त कर दी गयी है तो यह महत्वपूर्ण नहीं होगा कि परिवादकर्ता जिसके बदले में सम्पत्ति न्यस्त की गयी है, सम्पत्ति का स्वामी है या नहीं 51 ।
सम्पत्ति पर संरक्षण-इस धारा में वर्णित अपराध के लिये यह आवश्यक है कि अभियुक्त को या तो। सम्पत्ति न्यस्त की गयी हो या उस पर उसे संरक्षण प्रदान किया गया हो। कोई सम्पत्ति किसी व्यक्ति के संरक्षण
45. देवकी नन्दन (1958) 60 बाम्बे लॉ रि० 1413.
46. ठाकरवी, (1949) नागपुर 620.
47. कुन्दन टिल्लूमल, (1942) कर० 288.
48. 1978 क्रि० लॉ ज० 1379.
49. 1972 क्रि० लाँ ज० 897. 50. 1985 क्रि० लॉ ज० 817 सु० को०.
51. डहयालाल दलपतराम, (1959) 61 बाम्बे लॉ रि० 885.
में तब मानी जाती है जब उस सम्पत्ति पर वह व्यक्ति देखभाल या नियन्त्रण के अधिकार का प्रयोग करता है। 685 या वह सम्पत्ति उसके अख्तियार में होती है। जब संस्थान का कोई इन्सपेक्टर जिसका कार्य म्युनिसिपल जल संस्थान से जल के वितरण का निरीक्षण करना तथा उस पर नियन्त्रण रखना है, अपने स्वामी के जल पर संरक्षण रखता हुआ कहा जायेगा। अत: यदि इन्सपेक्टर जानबूझकर कर अपने या अपने किरायेदारों के उपयोग के लिये ऐसे जल का दुर्विनियोग करता है जिसके लिये वह न तो कर अदा करता है और न ही अपने नियोजकों को जिसकी सूचना देता है, आपराधिक न्यास भंग के अपराध का दोषी होगा 52
जहाँ तक आपराधिक दायित्व का प्रश्न है उस व्यक्ति जिसे सम्पत्ति न्यस्त की गयी है और जो सम्पत्ति पर नियन्त्रण या प्रभार रखे हुये है, दोनों में अन्तर है। न्यस्त के मामले में यदि सम्पत्ति गायब हो जाती है तो वह व्यक्ति जिसे सम्पत्ति सौंपी गयी थी, वास्तविक दुर्विनियोग के किसी अतिरिक्त प्रमाण के बिना भी उत्तरदायी होगा। ऐसे प्रकरण में वह तभी उत्तरदायी होगा जब यह सिद्ध हो जाये कि उसने सम्पत्ति का दुर्विनियोग किया। या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उपयोग या व्ययन में भागीदार था 53 ।
प नामक एक लड़की का विवाह स के साथ हुआ था और उसे विवाह के समय आभूषण तथा कपड़ों आदि के रूप में 60000 (साठ हजार) रुपये से अधिक की राशि दहेज में प के पिता द्वारा दी गई थी। दहेज की समस्त सामग्री स, उसके पिता और भाई के कब्जे में थी, बाद में प को स, उसके माता पिता और भाई ने बिना उसके आभूषण और कपड़े उसे वापस लौटाये घर से बाहर निकाल दिया। आभूषण तथा कपड़ों की मांग बार-बार की गई परन्तु उन लोगों ने उसे वापस देने से इंकार कर दिया। प ने एक शिकायत दर्ज कराया कि स और उसके माता-पिता जानबूझ कर उसके सारे सामान जिसमें आभूषण और कपड़े शामिल हैं, और जो प के पिता द्वारा विवाह के समय उन्हें दिये गये थे अपने पास रख लिया है और बेईमानीपूर्वक उसका प्रयोग कर रहे हैं और सामान को अपने प्रयोग में सम्परिवर्तित कर लिया है और वे अभी भी उन्हीं लोगों के कब्जे में है। यद्यपि वह सामान एकमात्र प का है। बचाव में यह तर्क दिया गया कि अभियुक्तगण उस सामान के सहस्वामी हैं अतएव वे उसे लौटाने के लिये दायित्वाधीन नहीं हैं। इस मामले में चूंकि आभूषण और वस्त्र प को उसके पिता द्वारा विवाह के समय दहेज के रूप में दिये गये थे अतएव वे उसकी स्त्रीधन सम्पत्ति हैं जिसकी वह स्वयं स्वामी है और वह सम्पत्ति अभियुक्तगण को मात्र न्यस्त की गई है जिस पर उसका संरक्षण है अत: यदि वे अपने प्रयोग हेतु उसका सम्परिवर्तन करते हैं तो वे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 405 के अधीन आपराधिक न्यासभंग के दोषी होंगे। | अनिल सरन बनाम बिहार राज्य के वाद में विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या किसी फर्म के भागीदार को फर्म की सम्पत्ति के दुर्विनियोग हेतु आरोपित किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिमत व्यक्त किया गया कि साझेदारी फर्म विधिक व्यक्ति नहीं है वरन् सभी भागीदारों द्वारा व्यापार करने का । एक तरीका है, जब तक तर्क विधिसम्मत तरीके से फर्म का विघटन न हो जाय और खातों का समाधान न हो जाय तब तक फर्म की सम्पत्ति और कोष पर सभी साझेदारों का सम्मिलित नियंत्रण रहता है। खातों के समाधान के पश्चात् प्रत्येक के शेयरों का आवंटन हो जाने के पश्चात् ही साझेदारी अपने शेयर के स्वामी होते हैं। अतएव जहां किसी विशेष संविदा के अधीन किसी साझेदारी को सम्पत्ति न्यस्त की जाती है, यह ऐसी सम्पत्ति उसके द्वारा न्यासीय हैसियत से धारण की जाती है और यदि वह उस सम्पत्ति का दुर्विनियोग करता है। तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406 के अधीन आपराधिक न्यासभंग का दोषी होगा। | बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग करता है या अपने उपयोग के लिये संपरिवर्तित करता है-‘बेईमानीपूर्ण आशय’ इस अपराध का सार है किन्तु किसी मांग को प्रभावशील बनाने के आशय से सम्पत्ति का दुर्विनियोग भले ही यह युक्तियुक्त न हो इस धारा के अन्तर्गत कोई अपराध संरचित नहीं करता। किसी व्यक्ति द्वारा सम्पत्ति को दुर्विनियोग के बिना केवल कब्जे में रखना आपराधिक न्यास भंग के तुल्य नहीं
है 55 यदि कोई व्यक्ति ऐसी रकम अभिप्राप्त करता है जिसका हिसाब देने के लिये वह बाध्य है परन्तु हिसाब।
52. विमला चरन राय, (1913) 35 इला० 361.
53. केसर सिंह, (1969) क्रि० लाँ ज० 1595.
54. (19
96) क्रि० लॉ ज० 408 (एस० सी०).
55. निर्मला बाई, (1953) नागपुर 813.
नहीं देता है, इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय होगा भले ही कोई निश्चित समय निर्धारित न किया गया हो। जिस समय वह रकम हस्तान्तरित करने के दायित्वाधीन रहा हो 56 एक प्रकरण में अ अपना बक्स च के मकान में छोड़ आया तथा ब ने अ को बक्स हटाने की स्वीकृति तब तक नहीं दी जब तक कि ब को अ द्वारा देय ऋण का भुगतान नहीं कर दिया गया। यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि आपराधिक न्यासभंग का अपराध कारित नहीं हुआ था 57 अ, ब से 5000 रुपये सुरक्षित रखने के लिये प्राप्त करता है। परन्तु सुरक्षित रखने के बजाय यह उस रुपये को अपने व्यापार में लगा देता है। एक वर्ष बाद ब अपने रुपयों की मांग करता है जिसे अ तुरन्त लौटा देता है। यहाँ अ आपराधिक न्यासभंग का दोषी नहीं है यद्यपि अ ने उन रुपयों का इस्तेमाल किया था। परन्तु उसने मांग किये जाने पर तुरन्त रुपये लौटा दिये थे अत: बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग का उसका आशय नहीं था।
कैलाश कुमार सनवातिया बनाम बिहार राज्य58 वाले मामले में अपीलार्थी भारतीय स्टेट बैंक से दो बैंक ड्राफ्ट 75000 रुपये मूल्य के लेने गया। उसका नौकर इन्दर राम भी उसके साथ था। अपीलार्थी के पास 1,50,200 रु० थे, जिसमें से 75100 रुपये महावीर भण्डार का था जिसका वह मालिक था, जबकि शेष। 75100 रु० स्वस्तिक भण्डार का था जो अपीलार्थी के भाई का था। कुल रकम अभियुक्त गौतम बोस हेड खजांची के कहने पर अभियुक्त गनौरी साब को गिनती करने के लिये सौंप दी गई । खजाने के चपरासी ने कहा कि वह रुपये गिन देगा और वह झोला जिसमें 2 बजे रुपये लाये गये थे, वापस कर देगा। सूचनादाता ने पूरी तरह भरे हुये कैश बाउचर बैंक के अधिकारी अमित कुमार बनर्जी को सौंप दिया और जब उसको यह बताया गया कि लगभग अपरान्ह 2.00 बजे ड्राफ्ट सौंपे जाएंगे तब वह अपनी दूकान पर वापस आ गया । लगभग 1.00 बजे अपरान्ह बैंक का चपरासी जगदीश उसकी दूकान पर आया और बोला कि उसके द्वारा सौंपा गया धन कैश काउण्टर से गायब हो गया। यह सुनने पर सूचनदाता और उसका भाई दोनों बैंक पहुँचे, जहाँ उन्हें बताया गया कि रुपये गायब होने की बाबत बैंक के प्रबंधन ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी है। पुलिस आ गई थी, गन्नोरी साव ने स्वीकार किया कि सूचनादाता द्वारा सौंपे जाने पर वह रुपये गिन रहा था, किन्तु जब वह थोड़ी देर के लिये बाहर गया, इसी बीच कोई वहाँ से रुपये लेकर चला गया।
अपीलार्थी के विद्वान काउंसेल ने तर्क दिया कि भले ही यह साबित हो गया हो, कि धन सौंप दिया गया। था, यह तथ्य इस स्वीकृत मामले से प्रकट है कि रुपये बैंक के कैश काउण्टर से गायब हुये थे। एक तथ्य जिसके निर्णय की आवश्यकता है, यह है कि क्या अभियुक्त ने सौंपी गई संपत्ति का बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग किया है या अपने निजी उपयोग में लगा दिया है या उसका निपटान कर दिया है। जैसा कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत किया गया है, रुपये कैश काउन्टर से उठाये गये। अभियोजन का यह पक्षकथन नहीं है कि जो धन अभियुक्त गौतम और चपरासी बोस को बैंक ड्राफ्ट के लिये सौंपा गया था, उसे गौतम बोस या कैश चपरासी गन्नौरी साव ने ले लिया। इस दुविधा की स्थिति में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा धन की चोरी के मामले में बैंक ड्राफ्ट नहीं बन सके और अपीलार्थी को नहीं सौंपे जा सके। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि धन की हानि भी हुई है तो भी आपराधिक न्यास भंग का अपराध गठित करने वाले तत्व नहीं हैं। यदि दुविधा या मध्यवर्ती परिस्थिति के कारण कोई व्यक्ति जिसे धन सौंपा गया है, कार्य पूरा करने में अक्षम रह जाता है तो इससे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 405 या 409 लागू नहीं होगी, जब तक कि संपत्ति का दुर्विनियोग या व्यक्तिगत उपयोग हेतु संपरिवर्तन या संपत्ति का व्ययन स्थापित नहीं हो गया हो 59
उस सम्पत्ति का बेईमानीपूर्वक उपयोग या व्ययन करता है-इस धारा के अन्तर्गत कोई अपराध चार धनात्मक कार्यों में से किसी एक द्वारा संरचित होता है। चार धनात्मक कार्य हैं दुर्विनियोग, सम्परिवर्तन, उपयोग या व्ययन । उपयोग इस धारा के अन्तर्गत तभी अपराध होता है व सम्पत्ति के स्वामी को कोई सारवान या महत्वपूर्ण उपहति कारित होती है या अभियुक्त को लाभ पहुँचता है। कोई प्रिंटर जो परिवादकर्ता द्वारा
56. बेल्च केस, (1846) 1 डेन 199.
57. आदि नारायण अय्यर, (1907) 17 एम० एल० जे० 413.
58. 2003 क्रि० लॉ ज० 4313 (सु० को०).
59. कैलाश कुमार सनवातिया बनाम बिहार राज्य, क्रि० लॉ ज० 4313 (सु० को०).
न्यस्त ठप्पा का प्रयोग विरोधी फार्म का सूचीपत्र छापने के लिये करता है, वह जो उसने अपना सूचीपत्र छापने 687 हेतु दिया था, आपराधिक न्यास-भंग का दोषी होगा 60
न्यास-न्यास एक ऐसा आभार का दायित्व है जो किसी सम्पत्ति के स्वामित्व से अनुबद्ध है और जो उस विश्वास अथवा प्रतीति से उत्पन्न होता है जिसे सम्पत्ति के स्वामी ने दूसरों के लाभ के लिये या दूसरों और स्वयं स्वामी के लाभ के लिये उदघोषित और स्वीकार किया है। विश्वास या न्यास का अतिक्रमण उस समय नहीं होता जबकि सम्पत्ति न्यस्त नहीं की गयी है। न्यास का इसी वैध उद्देश्य को अग्रसारित करने के लिये होना आवश्यक नहीं है।
साझीदार-एक साझीदार इस धारा में वर्णित अपराध के लिये दण्डनीय होगा यदि यह प्रमाणित हो जाये कि उसे यथार्थतः फर्म की सम्पत्ति न्यस्त की गयी थी या सम्पत्ति पर संरक्षण प्रदान किया गया था और उसने बेईमानी से उसका दुर्विनियोग कर लिया था या अपने उपयोग में संपरिवर्तित कर लिया था।61 रामकृष्ण डालमियाँ बनाम दिल्ली प्रशासन62 के वाद में एक साझीदार ने दूसरे साझीदार को फर्म की सम्पत्ति और रकम एकत्र करने का अधिकार प्रदान किया था। उसे उस सम्पत्ति पर संरक्षण भी प्रदान किया गया था। किन्तु उसने बेईमानीपूर्वक सम्पत्ति का दुर्विनियोग कर लिया। यह साझीदार इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय घोषित किया गया।
बन्धकी-नेमचन्द पारिख63 के वाद में अभियुक्त ने कम ऋण के रूप में देने के अपने व्यवसाय के दौरान उन सम्पत्तियों को बन्धक के रूप में अन्तरित कर दिया जिनका वह स्वयं बन्धकी था। उसने उसी तिथि को तथा उसी मूल्य पर सम्पत्ति का सब बन्धक किया जिस मूल्य तथा तिथि पर सम्पत्ति उसे बंधक में प्राप्त हुई थी। इस कार्य द्वारा वह कम ब्याज पर मूलधन एकत्र करना चाह रहा था। बन्धककर्ता तथा बन्धकी के बीच कोई ऐसी संविदा नहीं थी जो उपबन्धक पर प्रतिबन्ध लगाती थी। कोई ऐसा भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं था जिससे यह स्पष्ट हो कि उपबन्धक बेईमानीपूर्ण आशय से किया गया था। इस धारा के अन्तर्गत अभियुक्त को दोषी नहीं माना गया। न्यायालय का यह भी विचार था कि यद्यपि अभियुक्त को बन्धक करने का अधिकार नहीं था फिर भी यह माना जा सकता है कि उसने बन्धकी के रूप में अपने अधिकार की सीमा के भ्रमपूर्ण विश्वास के अन्तर्गत ईमानदारी से कार्य किया था। अतः उसके द्वारा किया गया उपबन्धक आपराधिक न्यासभंग के अपराध के तुल्य नहीं है।
किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ऐसा किया जाना जानबूझ कर सहन करता है- इस पदावली का अर्थ है कि आपराधिक न्यासभंग का अपराध जानबूझ कर या साशय कारित किया गया हो न कि दुर्घटना या उदासीनता वश 64
उदाहरण-गुरुमहन्ती अप्पलसामी65 के वाद में अभियुक्त की एक जोड़ी कान की बालियाँ न्यस्त की गयीं जिससे वह उन पर 7 रुपये की व्यवस्था परिवादकर्ता के उपयोग के लिये कर सके। उसने सात से अधिक रुपयों पर उनको बन्धक रख दिया किन्तु 7 रुपये परिवादकर्ता को देकर शेष रुपये अपने उपयोग के लिये रख लिया। अभियुक्त ने परिवादकर्ता को इस तथ्य के विषय में कुछ भी नहीं बताया उसे इस धारा में वर्णित अपराध के लिये दोषी घोषित किया गया।
जागे राम66 के वाद में परिवादकर्ता की सायकिल अभियुक्त दो या तीन दिन में लौटा देने की शर्त पर ले गया। वह अपनी शर्त के अनुसार सायकिल वापस करने में विफल रहा। इतना ही नहीं, उसने सायकिल भी बेच दिया और जो रकम इस कार्य द्वारा प्राप्त हुई उसे अपने उपयोग के लिये रख लिया। यह अभिनिर्धारण
60. केशव चन्द बोराल बनाम नित्यानन्द विश्वास, (1901) 6 सी० डब्ल्यू० एन० 203.
61. अक्षय कुमार शा, (1974) 13 बंगाल लॉ रि० 307.
62. ए० आई० आर० 1962 सु० को० 1821.
63. 1938 मद्रास 639.
64. केदारनाथ, ए० आई० आर० 1965 इला० 233.
65. (1984) 1 वेयर 464.
66. (1951) 4 पंजाब 286.
प्रदान किया गया कि परिवादकर्ता और अभियुक्त के बीच उपनिधाता तथा उपनिहिती का प्रबन्ध था, क्योंकि अभियुक्त को परिवादकर्ता ने अपनी सायकिल विशिष्ट प्रयोजन तथा विशिष्ट समय के लिये दिया था और उस प्रयोजन के पश्चात् सायकिल परिवादकर्ता को वापस की जानी थी। किन्तु अभियुक्त ने बेईमानी से उस सायकिल को बेच दिया और जो भी रकम उसे प्राप्त हुई उसने उपयोग के लिये रख लिया। अतः अभियक्त आपराधिक न्यासभंग के अपराध का दोषी है। |
सैलेन्द्रनाथ मित्तर67 के वाद में एक बैंक मैनेजर ने अपने ही एक घटक से सरकारी प्रामिजरी नोट प्रतिभ के रूप में प्राप्त किया क्योंकि घटक को ओवरड्राफ्ट मंजूर कर दिया गया था। किन्तु ओवर डाफ्ट का भुगतान होने के पूर्व मैनेजर ने प्रामिजरी नोटों को वापस कर दिया। घटक ने उन्हीं नोटों को पुन: दूसरे बैंक के पास गिरवी रख दिया। यद्यपि नोटों को वापस कर दिया गया था किन्तु बैंक की बही में अब भी नोटों का जमा ही दिखाया गया था। मैनेजर को आपराधिक न्यासभंग के अपराध का दोषी घोषित किया गया तथा घटक को इस अपराध के दुष्प्रेरण का अपराधी माना गया।
एक प्रकरण में एक स नामक व्यक्ति से कुछ स्वर्णाभूषण भारतीय स्टेट बैंक की छुनुगंड शाखा में 1500 रुपये का ऋण लेने के लिये गिरवी रखा था। जब गिरवी की अवधि समाप्त हो गयी तो वह रुपये लौटा कर अपनी सामग्री लेने आया किन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहा जब उसने पाया कि जो सामग्री उसने बैंक को गिरवी रखा था वह सामग्री उसे नहीं लौटायी जा रही है अपितु भिन्न सामग्री लौटायी जा रही है। उसने बैंक पर न्यासभंग का आरोप लगाया। प्रश्न यह था कि न्यासभंग की जिम्मेदारी किस पर है? कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अभिनित किया कि बैंक मैनेजर को बैंक के बदले संव्यवहार करने का अधिकार है तथा उसे ही गिरवी रखी गई वस्तुओं पर आधिपत्य है। एकाउन्टेन्ट तथा कैशियर साधारण कार्यकर्ता हैं जो मैनेजर के माध्यम से अपना कार्य करते हैं। अत: मैनेजर न्यासभंग का दोषी है 68
वैध संविदा का उल्लंघन-सामान्य नियम यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी समझौते के अन्तर्गत इस आधार पर वस्तु लेता है कि वस्तु में सम्पत्ति उसे तभी प्राप्त होगी जब वह अपने विकल्प का प्रयोग करेगा। उसने कुछ वस्तुओं के लिये पूर्णतया नकद भुगतान किया तथा कुछ के लिये आंशिक। न्यास तब तक अस्तित्व में रहेगा जब तक विकल्प का प्रयोग किया जायेगा तथा नकद भुगतान होगा। ऐसा व्यक्ति आपराधिक न्यासभंग के अपराध का दोषी होगा यदि वह वस्तुओं को उनके मूल्य का भुगतान किये बिना बेचेगा।69 मोसेज70 के वाद में अभियुक्त ने ब की मोटरकार भाड़ा क्रय करार पर अभिप्राप्त किया। करार के अन्तर्गत यह पूर्णतया सुनिश्चित था कि जब तक अभियुक्त कार का पूर्ण भुगतान नहीं करेगा, वह ब की पूर्ण सम्पत्ति होगी। अभियुक्त कार को अभिप्राप्त करते समय इस शर्त से पूर्णतया सहमत था कि वह कार न तो किसी को अन्तरित करेगा, न तो किसी आधार पर देगा और न तो किसी प्रकार कब्जा छोड़ेगा। इस समझौते के लागू रहने के दौरान ही उसने कार तीन भिन्न अवसरों पर तीन भिन्न व्यक्तियों को गिरवी रखा। अभियुक्त आपराधिक न्यास भंग का दोषी ठहराया गया क्योंकि कार का गिरवी रखना उसके द्वारा की गई वैध संविदा के अतिक्रमण स्वरूप था तथा अतिक्रमण बेईमानीपूर्ण आशय के तुल्य था। अ, ब से उसका स्कूटर किराये पर अपने प्रयोग हेतु सात दिनों के लिये लेता है और अपने मित्र स को प्रयोग हेतु दे देता है। स, अ को बिना बताये वह स्कूटर द के यहाँ 500 रुपये तक गिरवी रख देता है। अ बड़ी मुश्किल से स्कूटर को द से छुड़ाता है तथा किराये पर लिये जाने की तिथि से लगभग एक माह बाद ब की स्कूटर अधिक दर से किराये का भुगतान कर वापस लौटाता है। इस प्रकरण में अ आपराधिक न्यासभंग के लिये दोषी है क्योंकि उसने ब से हुयी संविदा का उल्लंघन करके जानबूझकर स को स्कूटर चलाने को दिया था।
माधो सिंह बनाम कमला देवी71 के मामले में प्रत्यर्थी का पति एक गृह समिति का सदस्य था। उसके साथ सोसायटी ने 3600 वर्ग फिट का एक प्लाट 12200 रुपये में देने का करार किया था। धनराशि अदा कर
67. (1943) 1 कल० 493.
68. एम० जी० महन्त बनाम शिवपुत्रप्पा तथा अन्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 969 कर्नाटक,
69. क्षितिश चन्द्र देव राय, (1924) 51 कल० 769.
70. (1915) 17 बाम्बे लॉ रि 670. |
71, 1992 क्रि० लॉ ज० 1858 (बम्बई).
दी गयी। अपने पति की मृत्यु के पश्चात् कमला देवी अपने पति के स्थान पर सोसायटी की स्थानापन्न सदस्य 689 हो गयी। सोसायटी ने आधा प्लाट एक अन्य पक्षकार के हाथ बेच दिया और शेष केवल आधे प्लाट की। प्रस्तावित विक्रय संविदा का प्रस्ताव कमला देवी को दिया। कमला देवी ने धारा 405 के अन्तर्गत एक। शिकायत दर्ज करायी। यह निर्णय दिया गया कि यद्यपि इस मामले में सिविल उपचार उपलब्ध है परन्तु इस धारा के अन्तर्गत अपराध का संज्ञान लेने से न्यायालय’ पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है।
बलराम सिंह बनाम सुखवन्त कौर72 के वाद में प्रत्यर्थी (रेसपान्डेन्ट) के पति ने उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया और उसने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (2) (ग) के अन्तर्गत विहित मियाद की अवधि-व्यतीत हो जाने के बाद अपनी स्त्रीधन सम्पत्ति की वापसी की मांग किया। परन्तु उसके बार-बार के निवेदन के बावजूद उसके पति और नातेदारों को न्यस्त स्त्रीधन उसे वापस नहीं किया गया। यह निर्णय दिया गया कि धारा 406 के अन्तर्गत आपराधिक न्यास भंग का अपराध एक निरन्तरित अपराध है और उसमें उपचार का कारण तब तक रहता है जब तक कि स्त्री धन वापस नहीं मिल जाता है।
स्पष्टीकरण 1- यह स्पष्टीकरण नियोजक को दण्डनीय बनाता है यदि वह भविष्य निधि, या कुटुम्ब पेंशन निधि में अभिदाय रकम का बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग करता है क्योंकि यह समझा जायेगा कि । इस प्रकार कटौती किये गये अभिदाय की रकम उसे न्यस्त कर दी गई है।
स्पष्टीकरण 2-स्पष्टीकरण 2 नियोजक को दण्डनीय बनाता है यदि वह राज्य कर्मचारी बीमा निधि में देय रकम का बेईमानीपूर्वक दुर्विनियोग करता है क्योंकि यह समझा जायेगा कि इस प्रकार कटौती किये गये अभिदाय की रकम उसे न्यस्त कर दी गई है।
आपराधिक दुर्विनियोग तथा आपराधिक न्यासभंग में अन्तर–
(1) आपराधिक न्यासभंग में किसी व्यक्ति के पास वैश्वासिक हैसियत में जो सम्पत्ति रहती है उसका वह संपरिवर्तन करता है अर्थात् सम्पत्ति उसे न्यस्त की गई रहती है। आपराधिक दुर्विनियोग में जिस सम्पत्ति को अपने उपयोग में लाया जाता है उसका कब्जा किसी भी प्रकार से प्राप्त हो सकता है। |
(2) आपराधिक न्यासभंग में पक्षकारों के मध्य किसी प्रकार का संविदात्मक सम्बन्ध रहता है चाहे वह सम्बन्ध अभिव्यक्त हो या विवक्षित परन्तु आपराधिक दुर्विनियोग में ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं होता है।
(3) आपराधिक न्यास भंग में सम्पत्ति अपराधी को विधिपूर्ण ढंग से न्यस्त की जाती है और वह उसे बेईमानीपूर्ण आशय से उपयोग कर लेता है अथवा जानबूझकर किसी उस सम्पत्ति से सम्बन्धित न्यास का अनुपालन न कर उसे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसका उपयोग किये जाने की अनुमति देता है। आपराधिक दुर्विनियोग में सम्पत्ति अपराधी के कब्जे में आकस्मिक रूप से आती है अर्थात् सम्पत्ति दुर्घटनावश या अन्यथा अपराधी के कब्जे में आती है और उसके बाद उसके द्वारा वह अपने उपयोग में लाई जाती है।
406. आपराधिक न्यासभंग के लिए दण्ड- जो कोई आपराधिक न्यासभंग करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जायेगा।
टिप्पणी
के० नीलाबेनी बनाम राज्य द्वारा इन्स्पेक्टर आफ पुलिस और अन्य72क के बाद में अपीलांट नीलाबेनी का विवाह अभियुक्त शिवकुमार के साथ 3-9-1997 को हुआ था और उसके माता-पिता द्वारा विवाह में स्वर्ण आभूषण तथा अन्य वस्तुएं दी गयी थीं। उसने अपनी रिपोर्ट में यह आरोप लगाया कि उसका पति शराब के नशे में उसे और उसके परिवार के सदस्यों को गाली दिया करता है और 50,000 (पचास हजार) रुपये की उसके माता-पिता से मांग किया था। जब वह गर्भवती थी और परीक्षण (Scanning) करने पर यह पाया गया कि उसके गर्भ में लड़की का भ्रण है तो उसका पति और उसके परिवार के सदस्य ने उस प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और बच्चे का गर्भ नष्ट करा देने पर जोर देना शुरू कर दिया। गर्भ गिराने से |
72. 1992 क्रि० लाँ ज० 792 (पं० एवं ह०).
72क. (2010) 3 क्रि० ला ज० 2819 (एस० सी०).
उसके इंकार करने पर उसका पति, सास, ननद और देवर ने उस पर प्रहार किया (assaulted) और ससराल के घर से बाहर निकाल दिया। उसका पति उसे उसके माता-पिता के घर के रास्ते में छोड़ गया। उसे 251998 को एक कन्या पैदा हुई । आगे यह भी आरोपित किया गया कि उसके पति ने बिना उसकी सहमति के अन्य अभियुक्तगणों की उपस्थिति में और उनकी सहायता से भारथी नामक दूसरी महिला से शादी कर लिया। है। यह आरोप था उसके पति से उसके एक लड़की भी पैदा हुई है। इन तथ्यों के आधार पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406, 494 और 498-क के अन्तर्गत अभियुक्तगणों के विरुद्ध मामला पंजीकृत किया गया।
उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में लगाये गये आरोपों का परिशीलन (perusal) करने पर उन्हें इस स्थिति के सत्य के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और इस प्रकार लगाये गये आरोप प्रथम दृष्ट्या भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406 और 494 के अधीन अपराध गठित करते हैं। यह मस्तिष्क में ध्यान में रखना चाहिए कि आरोप पत्र को निरस्त करने की प्रार्थना पर विचार करते समय प्रथम सूचना रिपोर्ट में लगाये गये आरोप और अन्वेषण के दौरान एकत्र की गयी सामग्री पर विचार किया जाना आवश्यक है। आरोपों की सत्यता अथवा असत्यता पर इस स्थिति में विचार नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह सदैव विचारण का प्रश्न है। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित करने में त्रुटि किया है कि आरोपपत्र से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 और 406 के अन्तर्गत अपराध के आवश्यक तत्व प्रदर्शित नहीं होते हैं। अतएव उच्च न्यायालय का निर्णय रद्द कर दिया। गया। |
एस० के० अलघ72ख के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहां ड्राफ्ट कम्पनी के नाम में बनाया गया हो वहां भले ही अपीलार्थी उस कम्पनी का प्रबन्ध निदेशक (मैनेजिंग डायरेक्टर) हो उसे भा० द० संहिता की धारा 406 के अधीन अपराध कारित करने का अपराधी नहीं कहा जा सकता है। यदि और जब भी कोई संविधि इस प्रकार के आपराधिक दायित्व के सृजन की ऐसी विधिक कल्पना (fiction) करता है तो उसका विनिर्दिष्टतया प्रावधान किया जाता है। संविधि में ऐसे प्रावधान के न होने की स्थिति में किसी कम्पनी का डायरेक्टर या कर्मचारी स्वयं कम्पनी द्वारा कारित किये गये किसी अपराध हेतु, प्रतिनिहित रूप से दायित्वाधीन नहीं ठहराया जा सकता है।
407. वाहक, आदि द्वारा आपराधिक न्यासभंग- जो कोई वाहक, घाटवाल या भाण्डागारिक के रूप में अपने पास सम्पत्ति न्यस्त किए जाने पर ऐसी सम्पत्ति के विषय में आपराधिक न्यासभंग करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा। __408. लिपिक या सेवक द्वारा आपराधिक न्यासभंग-जो कोई लिपिक या सेवक होते हुए, या लिपिक या सेवक के रूप में नियोजित होते हुए, और इस नाते किसी प्रकार सम्पत्ति, या सम्पत्ति पर कोई भी अख्त्यार अपने में न्यस्त होते हुए, उस सम्पत्ति के विषय में आपराधिक न्यासभंग करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
टिप्पणी
यह धारा उस लिपिक या सेवक को दण्डित करती है जिसे लिपिक या सेवक के नाते कोई सम्पत्ति न्यस्त की गयी थी और वह उस सम्पत्ति के विषय में आपराधिक न्यासभंग करता है। धारा 381 किसी लिपिक या सेवक को चोरी के लिये दण्डित करती है। इस धारा के अन्तर्गत चूंकि लिपिक या सेवक को सम्पत्ति न्यस्त रहती है और यदि वह उस सम्पत्ति का दुरुपयोग करता है तो वह आपराधिक न्यासभंग के लिये दण्डनीय होगा।
लिपिक-लेखन कार्य करने वाला कोई श्वेत कालर व्यक्ति लिपिक कहलाता है।
सेवक-सामान्यतया अनेक प्रयोजनों हेतु जहाँ कि स्वामी की कला और उसका श्रम कार्य सम्पादन हेतु पर्याप्त नहीं है वह कुछ अन्य व्यक्तियों की सहायता लेता है जिन्हें सेवक के नाम से पुकारा जाता है। उनके
72ख. ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 1731
बीच स्वामी सेवक का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फलत: सेवक वेतन के बदले कार्य करता है तथा स्वामी कार्य प्रणाली को नियन्त्रित या पर्यवेक्षित करता है। यदि सेवक अपने द्वारा दी गई प्रतिभू को हिसाब ठीक होने के पूर्व ही बलपूर्वक वापस ले लेता है तो सेवक आपराधिक न्यासभंग का दोषी होगा।73 यदि कोई सेवक अपने स्वामी के लिये खाते के लिये रकम प्राप्त करता है और उस रकम को गायब कर देता है तो वह महापराध (felony) का दोषी होगा, भले ही उसका स्वामी उस रकम को पाने के लिये वैधत: प्राधिकृत न हो और यदि उसे अभिप्राप्त करता तो इस अपराध का दोषी होता।74 |
अ, एक कोआपरेटिव सोसायटी में वेतनभोगी सुपरवाइजर था। उसने एक झाडू लगाने वाली स्त्री के नाम के समक्ष अपने रजिस्टर में यह प्रविष्ट किया कि दो रुपये उस स्त्री को वेतन के रूप में प्रदान कर दिया गया है। इतना ही नहीं उसने उस स्त्री के नाम के समक्ष अपने भतीजे के अंगूठे का निशान लगवा कर यह प्रमाणित कर दिया कि यह निशान उस स्त्री के ही हैं। और इस प्रकार उन दो रुपयों को अपने उपयोग के लिये उसने रख लिया। अ को इस धारा के अन्तर्गत आपराधिक न्यासभंग के अपराध का दोषी माना गया तथा धारा 467 के अन्तर्गत कूटरचना और धारा 47 ‘अ’ के अन्तर्गत लेख मिथ्याकरण का दोषी माना गया 75
स्वामी के बदले में भुगतान करते समय सेवक को दिये गये कमीशन तथा उपहार के सम्बन्ध में-इस सम्बन्ध में विधि का नियम यह है कि यदि खाता एक खुला खाता है जिसमें विभिन्न मदों की छानबीन नहीं की गई थी या उनका निर्धारण नहीं हुआ और यदि संव्यवहार बिल पर प्रभार लगाने के तल्य है एवं सेवक द्वारा मूल्य में ह्रास किया जाता है तो यह माना जायेगा कि सेवक द्वारा अभिप्राप्त मूल्य में ह्रास उसके स्वामी के लिये है तथा उसके पास वह रकम मालिक की ही सम्पत्ति होती है यदि वह उसका दुर्विनियोग करता है तो ऐसा माना जायेगा कि उसने चोरी की है। किन्तु यदि स्वयं स्वामी ने ही व्यापारी से एक निश्चित धनराशि के लिये मूल्य अभिनिश्चित कर दिया था और सेवक को उस धन की राशि के साथ भेजता है तथा भुगतान होने के पश्चात् यदि सेवक को व्यापारी द्वारा कोई कमीशन दिया जाता है या उपहार दिया जाता है और सेवक उस उपहार या रकम को अपने पास रख लेता है तो यह कार्य चोरी नहीं होगा क्योंकि उपहार या रकम की चोरी करने का उसका आशय नहीं था। यद्यपि चान्सरी न्यायालय के अनुसार सेवक अपने स्वामी को पूरे संव्यवहार का हिसाब देने के लिये बाध्य है किन्तु यदि वह हिसाब देने में किसी प्रकार का लोप करता है तो उसे आपराधिक न्यासभंग का दोषी नहीं माना जायेगा। चान्सरी न्यायालय द्वारा प्रतिपादित साम्या का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।
409. लोक सेवक द्वारा या बैंकर, व्यापारी या अभिकर्ता द्वारा आपराधिक न्यासभंग- जो कोई लोक सेवक के नाते अथवा बैंकर, व्यापारी, फेक्टर, दलाल, अटर्नी या अभिकर्ता के रूप में अपने कारबार के अनुक्रम में किसी प्रकार सम्पत्ति, या सम्पत्ति पर कोई भी अख्त्यारे अपने को न्यस्त होते हुए उस सम्पत्ति के विषय में आपराधिक न्यासभंग करेगा, वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी, दण्डनीय होगा।
टिप्पणी
ऐसे व्यक्तियों जिनके बीच वैश्वासिक (fiduciary) सम्बन्ध है, उन पर ईमानदारी के लिये अधिक पत्व सौंपा गया है, क्योंकि न्यस्त सम्पत्ति पर उनका अधिक नियन्त्रण होता है। इस धारा के अन्तर्गत अधिक दण्ड का प्रावधान प्रस्तुत किया गया है तथा वैश्वासिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों का वर्गीकरण
कि, बैकर, व्यापारी, आढतिया, दलाल तथा अभिकर्ता के रूप में किया गया है।
लोक-सेवक, बैंकर, व्यापारी, आढ़तिया,
73. सुरेन्द्र नाथ बसु, (1938) 2 कल० 257.
74. वीकाल, (1924) 1 सी० एण्ड पी० 454.
75 केशव राय, (1934) 36 बाम्बे लॉ रि० 1120.
76. इम्दाद खान, (1885) 8 इला० 120 के वाद में पेथराम सी० जे० का मत ।
लाल राव जी77 के वाद में यह अभिनिर्धारण प्रदान किया गया कि खजाने सम्बन्धी नियमों के अनपालन में बरती गयी असावधानी मात्र से ही कोई व्यक्ति आपराधिक न्यासभंग का दोषी नहीं होगा। धारा के अन्तर्गत अपराध के लिये असावधानी से कुछ अधिक की अपेक्षा की गयी है। दूसरे शब्दों में, सरकार को रकम से वंचित करने का बेईमानीपूर्ण आशय होना चाहिये। जहाँ किसी नियम के अन्तर्गत कोई लोक सेवक किसी सरकारी रकम को खजाने में जमा करने के लिये बाध्य है यदि सरकारी रजिस्टर में दर्शित रकम की राशि से अधिक रकम किसी अधिकारी के हाथ में है और लोक सेवक इस अधिक रकम को हटा लेता है। तो वह दुर्विनियोग का दोषी होगा।78
किसी पोस्ट मास्टर को मनीआर्डर के प्रयोजन हेतु सौंपी गयी रकम लोक सेवक की होती है। जैसे ही रकम पोस्ट मास्टर को सौंपी जाती है, भेजने वाले का अधिकार समाप्त हो जाता है। ऐसी रकम का दुर्विनियोग इस धारा के अन्तर्गत अपराध है।79 इस धारा के अन्तर्गत यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि वह सम्पत्ति जिसके सम्बन्ध में अपराध कारित किया जाता है राज्य की सम्पत्ति है। रेकार्ड रूम के एक लिपिक ने अपने अभिरक्षण में रखी एक दस्तावेज को एक ऐसे व्यक्ति को प्रदान किया जो उसे पाने का अधिकारी तो था। किन्तु दस्तावेज पाने के लिये उसे एक आवेदन स्टाम्प पेपर पर प्रस्तुत करना था जिससे दस्तावेज की वापसी को सुरक्षित किया जा सके। लिपिक को इस अपराध का दोषी माना गया।80 यदि कोई पोस्ट मास्टर किसी। नकद प्रमाण-पत्र धारक को देय रकम का भुगतान अभिनिश्चित से कम दर पर करता है और शेष रकम का दुर्विनियोग अपने प्रयोजन हेतु कर लेता है तो इस धारा के अन्तर्गत आपराधिक दुनियोग के अपराध का दोषी होगा।81 यदि कोई सैनिटरी इन्सपेक्टर विष्ठा का दुर्विनियोग करता है तो वह इस अपराध का दोषी होगा।82
अपने उपयोग या लाभ हेतु किसी वस्तु का दुर्विनियोग कर उसे नष्ट करने के लिये दिये गये किसी आदेश का उल्लंघन इस धारा के अन्तर्गत आता है। किसी वस्तु को नष्ट करने के आशय तथा उसके परित्याग में अन्तर है। इसी प्रकार यथार्थता नष्ट किये जाने तथा परित्याग में भी अन्तर है। प्रथम प्रकरण में सम्पत्ति का स्वामी अपने स्वामित्व सम्बन्धी अधिकार को तब तक धारण किये रहता है जब तक कि उसका परित्याग नहीं कर दिया जाता या पूर्णतया नष्ट नहीं कर दिया जाता जिससे नष्ट करने के लिये न्यस्त व्यक्ति द्वारा सम्पत्ति का अनुचित उपयोग उसे आपराधिक न्यासभंग के अपराध का दोषी बना देता है।83 चावल एक पारेषण (Consignment) गोदी में बिना दावेदार के पड़ा हुआ था जिसके विक्रय हेतु गोदी कमिश्नर ने एक विज्ञापन निकाला। किन्तु कलकत्ता कारपोरेशन के स्वास्थ्य अधिकारियों ने उस चावल को मानव उपयोग हेतु अनुपयुक्त घोषित कर दिया और अभियुक्तों को जो स्वास्थ्य विभाग में इन्सपेक्टर थे, यह आदेश दिया गया कि वे उस चावल को नष्ट कर दें। उन लोगों ने चावल एक तीसरे व्यक्ति के हाथों बेच दिया और इस विक्रय द्वारा जो आमदनी हुई अपने पास रख लिया। इन पदाधिकारियों को इस संहिता के अन्तर्गत किसी अपराध का दोषी नहीं पाया गया, यद्यपि वे विभागीय नियमों के अतिक्रमण के दोषी हो सकते थे।84 निर्देशिका द्वारा किसी अशुद्ध तुलनपत्र (Balance sheet) का पारित किया जाना इस धारा के अन्तर्गत अपराध नहीं है।85
यदि किसी व्यक्ति पर आपराधिक न्यास भंग का आरोप लगाया गया है तो यह तथ्य सन्देह से परे सिद्ध होना चाहिये कि रुपये जिनके सम्बन्ध में न्यासभंग हुआ था, अभियुक्त को न्यस्त किये गये थे। किन्तु यदि
77. (1928) 30 बाम्बे एल० आर० 624.
78. दयाशंकर (1926) 1 लखनऊ 345. |
79. ज्वाला प्रसाद, (1884) 7 इला० 174 फु० बेंच,
80. गंगा प्रसाद, (1904) 27 इला० 260.
81. सीताराम, (1919) 42 इला० 204.
82. । होरी लाल, (1922) 45 इला० 281.
83. जंग बहादुर सिंह, (1950) नाग० 957.
84. विल्किन्सन, (1898) 2 सी० डब्ल्यू० एन० 216. ।
85. गाइल्स सेडी बनाम लोन, (1910) 17 डब्ल्यू एल० जे० 624.
यह कहा जा रहा हो कि कम्पनी के कैशियर ने रुपये अभियुक्त को दिये थे तो रुपये की कैशियर द्वारा सुपुर्दगी न्यस्त किये जाने के तुल्य नहीं होगी क्योंकि कैशियर कम्पनी का मालिक नहीं है और इस धारा के लिये सम्पत्ति का उनके स्वामी द्वारा न्यस्त होना आवश्यक है। यदि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि कम्पनी के । मालिक ने नकद रुपये न्यस्त किये थे तो अभियुक्त आपराधिक न्यासभंग के अपराध का दोषी नहीं माना। जायेगा।86
अपीलार्थी जो एक लोक सेवक था, रामनगर, चौकी का इन्चार्ज था। उसे कुछ सरकारी मुद्रायें सौंपी गयी थीं जिनका प्रयोग उसने अपने लिए किया। जब यह पाया गया कि उसने हिसाब-किताब में कुछ गड़बड़ी की है तो उसने रुपये जमा कर दिये। यह अभिनिर्णीत हुआ कि उसने उस रुपये के सन्दर्भ में आपराधिक न्यासभंग किया जिस पर उसका पूर्व नियन्त्रण था, क्योंकि उन रुपयों का प्रयोग उसने अपने लिये किया। न्यासभंग का पता चलने के बाद रुपया जमा कर देने से वह अपने अपराध से मुक्त नहीं हो जाता।8।।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम प्रेम पाल88 के मामले में प्रेम पोस्ट आफिस की गिलोर शाखा में पोस्ट मास्टर था। उस डाकघर में गोकुल प्रसाद नामक व्यक्ति का बचत खाता था। 19 अप्रैल, 1980 को गोकुल प्रसाद के खाते में 675 रुपये अवशेष थे जिसका पोस्ट मास्टर ने विधिवत् लेखा रखा था। उसके पश्चात् गोकुल प्रसाद ने अलग-अलग तारीखों को कुल मिलाकर 2328 रुपये जमा किया था जिसे उसके खाते में जमा नहीं किया। गया था। यह धनराशि पोस्टमास्टर ने चालान किये जाने से पहले जमा कर दिया। यह निर्णय दिया गया कि पोस्टमास्टर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अन्तर्गत आपराधिक न्यास भंग का दोषी है और उसे इस कारण दोषमुक्ति प्रदान नहीं की जा सकती है कि चालान किये जाने के पहले उसने उपभोग की गयी धनराशि जमा कर दिया था।
बग्गा सिंह बनाम पंजाब राज्य89 के वाद में अपीलकर्ता म्युनिसिपल कमेटी संगरूर में कर क्लर्क था। उसने करदाताओं से कर की बकाया रकम वसूल किया था परन्तु वसूली गयी धनराशि कमेटी के कोष में जमा । नहीं की गयी थी बल्कि लगभग पाँच माह बाद जमा की गयी। अपीलकर्ता ने यह तर्क दिया कि उक्त धनराशि सह अभियुक्त मदन लाल जो खजांची था, के पास जमा की गयी थी और उसी ने उसका गबन कर लिया। परन्तु खजांची ने विचारण न्यायालय के समक्ष यह सिद्ध कर दिया कि उसे यह धनराशि नहीं प्राप्त हुई अत: दोषमुक्त कर दिया गया। बग्गा सिंह ने यह धनराशि खजांची के पास जमा करने सम्बन्धी कोई रसीद नहीं प्राप्त की थी। यह अभिमत व्यक्त किया गया कि म्युनिसिपल कमेटी में बिना रसीद प्राप्त किये खजांची के पास धन जमा करने की कोई प्रथा नहीं थी और अभियुक्त बग्गा सिंह ने ऐसी कोई रसीद नहीं प्राप्त की थी। अतएव मात्र यह तथ्य कि खजांची जो कि सह अभियुक्त था उसका दोषमुक्त कर दिया जाना अपने आप अभियुक्त बग्गा सिंह को दोषमुक्त करने हेतु पर्याप्त नहीं था जब तक कि इस बात का प्रामाणिक साक्ष्य न हो कि उसने अपेक्षित न्यास का पालन किया है। अतएव अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन दोषी है।
पंजाब नेशनल बैंक बनाम सुरेन्द्र प्रसाद सिन्हा90 के वाद में बैंक की कटनी शाखा ने श्रीमन्नारायण दूबे को 5 मई, 1984 को 15,000 रुपये का कर्ज दिया और रेसपान्डेन्ट तथा उसकी पत्नी अन्नपूर्णा उसके जामिन्दार थे। उन दोनों ने सिक्यूरिटी बान्ड भरकर 24,000 रुपये की सावधि जमा रसीद जो 1 नवम्बर, 1988 को देय हो रही थी जमा कर दिया। देय तिथि को इसकी कीमत 41,292 रुपये थी। कर्जा लेने वाला कर्ज अदा नहीं कर पाया। सावधि जमा के देय होने पर मैनेजर ने उसमें से ऋणी द्वारा देय 27,037 रुपये 60
86. उ० प्र० राज्य बनाम के० पी० जैन, इत्यादि, 1984 क्रि० लाँ ज० 76 इला०,
87. विश्वनाथ बनाम जम्मू तथा कश्मीर राज्य, 1983 क्रि० लाँ ज० 231 सु० को.
88. 1991 क्रि० लॉ ज० 2878 (म० प्र०).
89. 1996 क्रि० लॉ ज० 2883 (एस० सी०).
90. 1992 क्रि० लॉ ज० 2916 (एस० सी०).
पैसे मजरा कर शेष 14,254 रुपये 40 पैसे जमाकर्ता के बचत खाता में जमा कर दिया। रेसपान्डेन्ट का यह कथन था कि ऋण की मियाद मई 1987 में समाप्त हो गयी थी। चूंकि रेसपान्डेन्ट का दायित्व मुख्य देनदार के दायित्व का सहगामी (Co-extensive) है, इसलिये मई 1987 में वह भी दायित्व से मुक्त हो गया। ऋणी से ऋण वसूली की बिना कोई कार्यवाही किये हुये ऋण की ब्याज सहित धनराशि जामिन्दार के सावधि जमा। (Fixed deposit) से समायोजित कर ली गयी। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मियाद व्यतीत हो जाने के कारण उपचार के बाधित होने के बावजूद ऋण की रकम पाने का अधिकार बना रहता है। अतएव जब मुख्य ऋणी ने बैंक को ऋण अदा नहीं किया तो बैंक को जामिन्दार की सावधि जमा की रकम में से समायोजित करने का अधिकार था। यद्यपि कि ऋण सावधि जमा की देय तिथि के समय मियाद द्वारा बाधित हो गया था तथापि कर्ज की वसूली के लिये वाद दायर किया जाना अनिवार्य नहीं है। ऋण का इस प्रकार समायोजन संहिता की धारा 109, 114 और 409 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध नहीं है।
बच्चू सिंह बनाम स्टेट आफ हरयाणा91 के वाद में अपीलांट आठ पंचायतों के ग्राम सचिव के रूप में। कार्य कर रहा था। उसने तीन ग्रामवासियों रो 648/00 रुपये गृह कर वसूल किया और इसके लिये उन्हें रसीदें भी प्रदान किया, उसके विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन आरोप लगाया गया। चूंकि वह एक लोक सेवक था और उस हैसियत से उसने गृहकर के रूप में रुपया वसूला परन्तु उसे जमा नहीं किया। अतएव यह अभिनित किया गया कि अपीलांट ने बेईमानीपूर्ण ढंग से उसका दुर्विनियोग किया अथवा उस धनराशि को अपने उपयोग में लगा लिया और उच्चतम न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन उसकी दोषसिद्धि की पुष्टि की गई।
एल० चन्द्रेया बनाम आ० प्र० राज्य92 वाले मामले में अ-1 अप्रैल, 1986 से 8 मई 1987 तक उपडाकपाल था। उसका स्थान बाद में अ-2 ने लिया जो 16 नवम्बर, 1987 तक रहा। उसी डाकघर में अ-3, सहायक और अ-4 पोस्टमैन के रूप में नियुक्त किये गये थे। अ-5 पहले डाक विभाग का कर्मचारी था और 1987 में त्यागपत्र दे दिया था। अ-6 एक छात्र है जो अ-3 का संबंधी है और उसके साथ ही रह रहा है। प्रबंधतंत्र द्वारा मेसर्स श्रृंगवेनी कोइलारी लि० के कर्मकारों के सावधि जमा खाते खोले गये थे और सारी रकम एक ही चैक द्वारा जमा कराई गई थी और डाक विभाग के कर्मचारियों ने पत्र के साथ संलग्न सूची के अनुसार प्रत्येक खाते में प्रविष्टियाँ कर दी थी। किसी रकम की निकासी के लिये प्रबंधन निकासी वाउचर पर सील लगाने के बाद उसे पोस्टमास्टर के पास भेजेगा और सम्बद्ध कर्मकार वाउचर पर पोस्टमास्टर के सामने हस्ताक्षर करेगा, उसके बाद ही निकासी की अनुमति दी जानी थी।
इस मामले में प्रश्नगत अवधि के दौरान बड़ी संख्या में निकासी (आहरण) किया गया और अनुमानतः 91,280 रु० अभियुक्त कर्मचारियों की मिलीभगत या षड्यंत्र के कारण निकाले गये। यह अभिकथन किया गया कि प्रबंधन के नाम पर कूटरचित वाउचर और सील बनवाई गई और जाली हस्ताक्षर किये गये और उक्त जाली वाउचर के आधार पर निकासी की गई। वाउचर अ-3, और अन्य अभियुक्त/अपीलार्थियों द्वारा बनाये गये जो सुसंगत अवधि के दौरान उप-डाकपाल के रूप में कार्य कर रहा था और यह सत्यापित करने में अपेक्षित सतर्कता नहीं बरती कि वाउचर असली हैं या जाली हैं। इस प्रकार उसने कूटरचित वाउचरों के माध्यम से बड़ी संख्या में कपटपूर्ण निकासी में सहायता किया।
यह अभिनिर्धारित किया गया कि भले ही यह कहा जाए, कि अभियुक्त अपीलार्थी ने असावधानीपूर्वक कार्य किया है, और यदि ठीक सावधानी बरतते तो वे कपट का पता लगा लेते, किन्तु मात्र इतने से ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन अपराध का गठन नहीं होता यद्यपि इसके कारण उनके विरुद्ध सुसंगत नियमों के अधीन अनुशासनिक कार्यवाही की जा सकती है।
91, 1999 क्रि० लॉ ज० 3528 (एस० सी०).
92. 2004 क्रि० लॉ ज० 365 (सु० को०).
इसलिये किसी साक्ष्य के अभाव में जिससे यह दर्शित हो कि अ-3 अपीलार्थियों के साथ षड्यंत्र में शामिल था या यह कि अपीलार्थियों को इस तथ्य की जानकारी थी कि अ-3 ने कपटपूर्वक और बेईमानी से कूटरचित बाउचर बनवाए जिसके जरिये धन की निकासी की गई। अत: अपीलार्थियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 467, 471 या 409 के अधीन अपराध साबित नहीं होते। इसलिये अपीलार्थियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के उपबंधों के अधीन भी अपराध नहीं बनते । अत: अपीलार्थी लगाये गये आरोपों से दोषमुक्त किये जाते हैं।
आर० साई० भारथी बनाम जे जयललिता93 वाले मामले में तमिलनाडु स्माल स्केल कारपोरेशन लि० (टी० ए० एन० एस० आई०) ने अपने बंद इकाइयों को टेन्डर की सबसे बड़ी बोलने वाली एक व्यावसायिक फर्म को बेचा था जिसकी पार्टनर मुख्यमंत्री जे जयललिता थीं। यह अभिकथन किया गया कि प्रश्नगत सम्पत्ति जानबूझ कर ऐसी फर्म को आर्थिक लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से कम मूल्य पर बेची गई जिसमें मुख्यमंत्री भी हैं, जिससे सरकारी निगम को दोषपूर्ण हानि हुई। विचारण न्यायालय ने सभी अभियुक्तों को दोषसिद्ध किया किन्तु उच्च न्यायालय द्वारा सभी दोषमुक्त कर दिये गये। अपील किये जाने पर उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य की परीक्षा से उपदर्शित होता है कि साक्षियों ने यह स्वीकार किया है कि प्रश्नगत संपत्तियों के बारे में कोई मार्गदर्शक मूल्य नहीं था, अत: सम्पत्ति को मार्गदर्शक-मूल्य से कम में बेचने का आरोप विफल होता है।
आगे यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियोजन द्वारा यह दर्शित करने में विफल रहने पर कि 7.32 लाख रु० प्रति ग्राउण्ड का मार्गदर्शक मूल्य था और यह दर्शित करने हेतु सकारात्मक साक्ष्य के होते हुये कि तांसी फाउण्डरी इकाई की भूमि की कीमत 3.00 लाख रु० प्रति ग्राउण्ड था, विशेष रूप से उस समय जबकि विक्रय निविदा के माध्यम से किया गया था, युक्तियुक्त सन्देह से परे रूप में यह नहीं कहा जा सकता कि सम्पत्ति को कम मूल्य पर बेचा गया और तांसी को हानि हुई है। उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया मत युक्तियुक्त था।
उच्च न्यायालय ने सही मूल्य को सुनिश्चित करने हेतु कतिपय विशेषताओं पर विचार किया है। प्रधम यह कि फर्म द्वार। विज्ञापन के अधीन विज्ञापन निविदा के अनुसरण में कीमत प्रस्तावित की गई हो। निविदा की प्रक्रिया पारदर्शी हो। दूसरे यह कि 7.32 लाख प्रति ग्राउण्ड कीमत को मार्गदर्शक मूल्य के रूप में अपनाया जाना तमिलनाडु स्टाम्प ऐक्ट के अनुसार होना चाहिये और 3 लाख रु० प्रति ग्राउण्ड का मूल्य जितने में टी० ए० एन० एस० आई० (तांसी) द्वारा पहले एक भूमि खण्ड बेचा गया था बाजार दर पर है। उक्त भूमि भी उसी भूमि का एक भाग है जो अभियुक्त की फर्म को बेची गई थी। अतएव उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण असंगत या नकारात्मक नहीं माना जा सकता।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम करन वीर94 के बाद में शिकायतकर्ता राजबीर जो अध्यापक था, ने रेस्पाडेन्ट को जो पोस्ट मास्टर था 8000 रुपये राष्ट्रीय बचत पत्र खरीदने के लिये दिया। लगभग एक माह व्यतीत हो जाने के बाद भी जमाकर्ता को बचत प्रमाण पत्र नहीं दिये गये। अतएव उसने पोस्ट आफिस अधिकारियों से जाँच किया तो उसे पता चला कि ऐसे कोई प्रमाणपत्र जारी नहीं किये गये हैं। यह पता चलने पर कि मामले में जाँच का आदेश दिया गया है रेस्पान्डेन्ट ने दिनांक 30.11.1989 को 4200 रुपये और दिनांक 11.12.1989 को 4000 रुपये जमा कर दिया। इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि दिनांक 30.11.1989 को 200 रु० अधिक जमा की गयी धनराशि ब्याज के रूप में थी। दिनांक 27.6.1990 की। त्रम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी गयी और रेस्पान्डेन्ट को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अचान अभियोजित कर विचारण किया गया। विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को भारतीय दण्ड से
93. 2004 क्रि० लॉ ज० 286 (सु० को०).
94. 2006 क्रि० लाँ ज० 2917 (एस० सी०).
409 के अधीन दोषसिद्ध और दण्डित किया। पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि चंकि अभियोजन रेस्पान्डेन्ट द्वारा दुर्विनियोग किया जाना सिद्ध करने में सफल नहीं रहा है दोषसिद्धि का निर्णय और दण्ड अमान्य था।
उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि किस आधार पर उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश ने यह राय व्यक्त किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 405 का द्वितीय तत्व अर्थात् रेस्पाडेन्ट द्वारा धनराशि के दुर्विनियोग को सिद्ध नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायालय का यह स्पष्ट मत था कि उच्च न्यायालय यह मत व्यक्त करने में एकदम गलत था कि राजवीर सिंह अभि० सा० 3 अथवा ब्रिजपाल अभि० सा० 4 का यह दायित्व था कि वे अपनी शिकायत में यह उल्लेख करते कि अभियुक्त ने धनराशि को अपने व्यक्तिगत उपभोग के आशय से अपराधिक दर्विनियोग कारित किया। यह स्पष्ट किया। गया कि यदि उसने धनराशि का उपयोग उस प्रयोजन के लिये नहीं किया जिस हेतु उसे जमा किया था तो अपराध कारित किया गया धारित किया जायेगा। यह भी इंगित किया गया कि अभियोजन द्वारा दुविनियोग का । वास्तविक तरीका (manner) सिद्ध किये जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि यह सिद्ध कर दिया जाता है कि धन की सुपुर्दगी की गयी तो यह सिद्ध करना अभियुक्त का दायित्व है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 405 के परिप्रेक्ष्य में उसे सुपुर्द की गयी सम्पत्ति का किस प्रकार उपयोग किया गया। यदि इस प्रयोजन के लिये रेस्पान्डेन्ट कोई सामग्री दाखिल नहीं करता है तो उससे अभियोजन पक्ष पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। यदि अभियुक्त ने सुपुर्द की गयी धनराशि का प्रयोग उस प्रयोजन से नहीं किया है जिसके लिये उसे जमा किया गया था तब अपराध सिद्ध माना जायेगा।
दण्ड और दण्ड की मात्रा के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि चूंकि अभियुक्त की आयु 60 वर्ष की है और अपराध 15 वर्ष पहले कारित किया गया था, वह पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया तो कुछ समय तक अभिरक्षा में अवश्य रहा होगा। अतएव मामले के विधिक तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुये कि अभियुक्त ने दुर्विनियोजित धनराशि ब्याज सहित प्रथम सूचना रिपोर्ट दाखिल किये जाने के पहले ही जमा कर दिया था, न्यायालय ने कहा कि यदि कोई तात्विक दण्ड नहीं भी दिया जाता और केवल आर्थिक दण्ड दिया जाता है तब भी न्याय हित पूर्ण हो जाता है। अतएव विचारण न्यायालय द्वारा लगाये गये 1000 (एक हजार) रुपये के अलावा 4000 (चार हजार) रुपये अर्थदण्ड और लगा दिया गया और अर्थदण्ड जमा न करने की दशा में रेस्पान्डेन्ट तीन माह की साधारण सजा काटेगा।
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