Indian Penal Code Of Defamation LLB Notes
Indian Penal Code Of Defamation LLB Notes:- You are now welcoming all the candidates in this new post of PDF Download today you are going to read LLB Law Of Defamation Chapter 21 which is taken from Indian Panel Code 1860 IPC Books.
अध्याय 21 मानहानि के विषय में
(OF DEFAMATION)
LLB Notes Study Material
499. मानहानि- जो कोई बोले गए या पढ़े जाने के लिए आशयित शब्दों द्वारा या दृश्य रूपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि की जाए या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, एतस्मिन्पश्चात् अपवादित दशाओं के सिवाय उसके बारे में कहा जाता है कि वह उस व्यक्ति की मानहानि करता है।
स्पष्टीकरण 1- किसी मृत व्यक्ति को कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि में आ सकेगा, यदि वह लांछन उस व्यक्ति की ख्याति की, यदि वह जीवित होता, अपहानि करता, और उसके परिवार या अन्य निकट सम्बन्धियों की भावनाओं को उपहत करने के लिए आशयित हो।।
स्पष्टीकरण 2-किसी कम्पनी या संगम या व्यक्तियों के समूह के सम्बन्ध में उसकी वैसी हैसियत में कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि में आ सकेगा।
स्पष्टीकरण 3-अनुकल्प के रूप में, या व्यंग्योक्ति के रूप में अभिव्यक्त लांछन मानहानि की कोटि में आ सकेगा।
स्पष्टीकरण 4-कोई लांछन किसी व्यक्ति की ख्याति की अपहानि करने वाला नहीं कहा जाता जब तक कि वह लांछन दूसरों की दृष्टि में प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षतः उस व्यक्ति के सदाचारिक या बौद्धिक स्वरूप को हेय न करे या उस व्यक्ति की जाति के या उसकी आजीविका के सम्बन्ध में उसके शील को हेय न करे या उस व्यक्ति की साख को नीचे न गिराए या यह विश्वास न कराए कि उस व्यक्ति का शरीर घृणोत्पादक दशा में है या ऐसी दशा में है जो साधारण रूप से निकृष्ट समझी जाती है।
दृष्टान्त
(क) क यह विश्वास कराने के आशय से कि य ने ख की घड़ी अवश्य चुराई है, कहता है, “य एक ईमानदार व्यक्ति है, उसने ख की घड़ी कभी नहीं चुराई ।” जब तक कि यह अपवादों में से किसी के अन्तर्गत न आता हो, यह मानहानि है।
(ख) क से पूछा जाता है कि ख की घड़ी किसने चुराई है। क यह विश्वास कराने के आशय से कि य ने ख की घड़ी चुराई है, य की ओर संकेत करता है। जब तक कि यह अपवादों में से किसी के अन्तर्गत न आता हो, यह मानहानि है। ।
(ग) क यह विश्वास कराने के आशय से कि य ने ख की घड़ी चुराई है, य का एक चित्र खींचता है। जिसमें वह ख की घड़ी लेकर भाग रहा है। जब तक कि यह अपवादों में से किसी के अन्तर्गत न आता हो, यह मानहानि है।
पहला अपवाद-सत्य बात का लांछन जिसका लगाया जाना या प्रकाशित किया जाना। लोक कल्याण के लिए अपेक्षित है- किसी ऐसी बात का लांछन लगाना, जो किसी व्यक्ति के सम्बन् में सत्य हो, मानहानि नहीं है, यदि यह लोक कल्याण के लिए हो कि वह लांछन लगाया जाए या ! किया जाए। वह लोक कल्याण के लिए है या नहीं यह तथ्य का प्रश्न है।
दूसरा अपवाद-लोक सेवकों का लोकाचरण-उसके लोक कृत्यों के निर्वहन में लोक सेवक के आचरण के विषय में या उसके शील के विषय में, जहाँ तक उसका शील उस आचरण से प्रकट होता है, न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।
तीसरा अपवाद-किसी लोक प्रश्न के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति का आचरण- किसी लोक प्रश्न के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति के आचरण के विषय में, और उसके शील के विषय में, जहाँ तक कि उसका शील उस आचरण से प्रकट होता हो, न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।
दृष्टान्त
किसी लोक प्रश्न पर सरकार को अर्जी देने में, किसी लोक प्रश्न के लिए सभा बुलाने के अपेक्षण पर हस्ताक्षर करने में ऐसी सभा का सभापतित्व करने में या उसमें हाजिर होने में, किसी ऐसी समिति का गठन करने में या उसमें सम्मिलित होने में, जो लोक समर्थन आमन्त्रित करती है, किसी ऐसे पद के किसी विशिष्ट अभ्यर्थी के लिए मत देने में या उसके पक्ष में प्रचार करने में, जिसके कर्तव्यों के दक्षतापूर्ण निर्वहन से लोक हितबद्ध है, य आचरण के विषय में क द्वारा कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।
चौथा अपवाद-न्यायालयों की कार्यवाहियों की रिपोर्टों का प्रकाशन-किसी न्यायालय की कार्यवाहियों की या किन्हीं ऐसी कार्यवाहियों के परिणाम की सारत: सही रिपोर्ट को प्रकाशित करना मानहानि नहीं है।
स्पष्टीकरण- कोई जस्टिस ऑफ दी पीस या अन्य आफिसर, जो किसी न्यायालय में विचारण से पूर्व की प्रारम्भिक जांच खुले न्यायालय में कर रहा हो, उपरोक्त धारा के अर्थ के अन्तर्गत न्यायालय है।
पांचवां अपवाद-न्यायालय में विनिश्चित मामले के गुणागुण या साक्षियों तथा संपृक्त अन्य व्यक्तियों का आचरण-किसी ऐसे मामले के गुणागुण के विषय में, चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक, जो किसी न्यायालय द्वारा विनिश्चित हो चुका हो, या किसी ऐसे मामले के पक्षकार, साक्षी या अभिकर्ता के रूप में किसी व्यक्ति के आचरण के विषय में या ऐसे व्यक्ति के शील के विषय में, जहाँ तक कि उसका शील उस आचरण से प्रकट होता हो, न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।
दृष्टान्त
(क) क कहता है “मैं समझता हूँ कि उस विचारण में य का साक्ष्य ऐसा परस्पर विरोधी है कि वह अवश्य ही मूर्ख या बेईमान होना चाहिए। यदि क ऐसा सद्भावपूर्वक कहता है तो वह इस अपवाद के अन्तर्गत आ जाता है, क्योंकि जो राय वह य के शील के सम्बन्ध में अभिव्यक्त करता है, वह ऐसी है जैसी कि साक्षी के रूप में य के आचरण से, न कि उसके आगे प्रकट होती है।
(ख) किन्तु यदि य कहता है ‘‘जो कुछ य ने उस विचारण में दृढ़तापूर्वक कहा है, मैं उस पर विश्वास नहीं करता क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह सत्यवादिता से रहित व्यक्ति है,” तो क इस अपवाद के अन्तर्गत नहीं। आता है, क्योंकि वह राय जो वह य के शील के सम्बन्ध में अभिव्यक्त करता है, ऐसी राय है, जो साक्षी के रूप में य के आचरण पर आधारित नहीं है।
छठा अपवाद–लोक कृति के गुणागुण-किसी ऐसी कृति के गुणागुण के विषय में, जिसको उसके कर्ता ने लोक के निर्णय के लिए रखा हो, या उसके कर्ता के शील के विषय में, जहाँ तक कि उसका शील ऐसी कति में प्रकट होता हो, न कि उसके आगे, कोई राय सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।
स्पष्टीकरण-कोई कृति लोक के निर्णय के लिए अभिव्यक्त रूप से या कर्ता की ओर से किए गए ऐसे मार्यो दारा जिनसे लोक के निर्णय के लिए ऐसा रखा जाना विवक्षित हो, रखी जा सकती है। (क) जो व्यक्ति पुस्तक प्रकाशित करता है, वह उस पुस्तक को लोक के निर्णय के लिए रखता है।
दृष्टान्त
(ख) वह व्यक्ति, जो लोक के समक्ष भाषण देता है, उस भाषण को लोक के निर्णय के लिए रखता है।
(ग) वह अभिनेता या गायक, जो किसी लोक रंगमंच पर आता है, अपने अभिनय या गायन को लोक के निर्णय के लिए रखता है।
(घ) क, य द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक के सम्बन्ध में कहता है ‘‘य की पुस्तक मुर्खतापूर्ण है, य अवश्य कोई दर्बल पुरुष होना चाहिए। य की पुस्तक अशिष्टतापूर्ण है, य अवश्य ही अपवित्र विचारों का व्यक्ति होना चाहिए”। यदि क ऐसा सद्भावपूर्वक कहता है, तो वह इस अपवाद के अन्तर्गत आता है क्योंकि वह राय जो वह, य के विषय में अभिव्यक्त करता है, य के शील से वहीं तक, न कि उससे आगे, सम्बन्ध रखती है जहाँ तक कि य का शील उसकी पुस्तक से प्रकट होता है।
(ङ) किन्तु यदि क कहता है “मुझे इस बात का आश्चर्य नहीं है कि य की पुस्तक मूर्खतापूर्ण तथा अशिष्टतापूर्ण है क्योंकि वह एक दुर्बल और लम्पट व्यक्ति है।” क इस अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता क्योंकि वह राय, जो कि वह य के शील के विषय में अभिव्यक्त करता है, ऐसी राय है जो य की पुस्तक पर आधारित नहीं है।
सातवां अपवाद-किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर विधिपूर्ण प्राधिकार रखने वाले व्यक्ति द्वारा सद्भावपूर्वक की गई परिनिन्दा- किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा, जो किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर कोई ऐसा प्राधिकार रखता हो, जो या तो विधि द्वारा प्रदत्त हो या उस अन्य व्यक्ति के साथ की गई किसी विधिपूर्ण संविदा से उद्भूत हो, ऐसे विषयों में, जिनसे कि ऐसा विधिपूर्ण प्राधिकार सम्बन्धित हो, उस अन्य व्यक्ति के आचरण की सद्भावपूर्वक की गई कोई परिनिन्दा मानहानि नहीं है।
दृष्टान्त
किसी साक्षी के आचरण की या न्यायालय के किसी आफिसर के आचरण की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला कोई न्यायाधीश, उन व्यक्तियों को, जो उसके आदेशों के अधीन है, सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला कोई विभागाध्यक्ष, अन्य शिशुओं की उपस्थिति में किसी शिशु की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला पिता या माता, अन्य विद्यार्थियों की उपस्थिति में किसी विद्यार्थी की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला। शिक्षक, जिसे विद्यार्थी के माता-पिता से प्राधिकार प्राप्त है, सेवा में शिथिलता के लिए सेवक की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला स्वामी, अपने बैंक के रोकड़िए के रूप में ऐसे रोकड़िये की, ऐसे रोकड़िये के आचरण के लिए सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला कोई बैंकार इस अपवाद के अन्तर्गत आते हैं।
आठवां अपवाद-प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष सद्भावपूर्वक अभियोग लगाना- किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अभियोग ऐसे व्यक्तियों में से किसी व्यक्ति के समक्ष सद्भावपूर्वक लगाना, जो उस व्यक्ति के ऊपर अभियोग की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विधिपूर्ण प्राधिकार रखते हों, मानहानि नहीं है।
दृष्टान्त
यदि क एक मजिस्ट्रेट के समक्ष य पर सद्भावपूर्वक अभियोग लगाता है, यदि क एक सेवक आचरण के सम्बन्ध में य के मालिक से सद्भावपूर्वक शिकायत करता है, यदि क एक शिशु य य के पिता से सद्भावपूर्वक शिकायत करता है, तो क इस अपवाद के अन्तर्गत आता है।
यादव मोतीराम पाटिल बनाम राजिव जी० घोडन्कर1 के वाद में सोसायटीके अनेक सदस्यों को डाक द्वारा गुमनामी पत्र मिले जिनमें अभियुक्त सं० 1 की पुत्री के चरित्र के विरुद्ध गम्भीर और अश्लील आरोप
1. (2011) I क्रि० लॉ ज० 528 (एस० सी०).
लगाये गये थे। अभियुक्त और सोसायटी के अन्य सदस्य पथ प्रदर्शन हेतु पुलिस के पास गये। शिकायकर्ता के विरुद्ध यह आरोप लगाया गया था कि उसने उक्त पत्रों को लिखा था। यह आरोप अभियुक्त के परिवार के हित एवं संरक्षा हेतु सदाशय से लगाये गये थे। पुलिस ने एक असंज्ञेय मामला भा० द० संहिता की धारा 507 के अधीन शिकायतकर्ता प्रत्यर्थी संख्या 1 के विरुद्ध वाद रजिस्टर किया और यह भी चेतावनी दिया कि वह कोई भी संज्ञेय अपराध न करे अन्यथा उसके विरुद्ध कार्यवाही की जायेगी। इसके अतिरिक्त आगे पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी और न तो अभियुक्त संख्या 1 या अन्य किसी के द्वारा ही प्रत्यर्थी संख्या 1 के विरुद्ध न्यायालय में किसी अपराध के लिये जिसमें धारा 507 भा० द० संहिता का अपराध भी शामिल है, कोई शिकायत की गयी। तथापि प्रत्यर्थी संख्या 1 ने अभियुक्त संख्या 1 से अभियुक्त संख्या 6 तक के विरुद्ध भा० द० संहिता की धारा 500 और 501 के अधीन सपठित धारा 34 के अधीन शिकायत दाखिल किया। भा० द० संहिता की धारा 202 के अन्तर्गत जांच के पश्चात् मजिस्ट्रेट ने अभियुक्तों के विरुद्ध समन की प्रक्रिया जारी किया। अभियुक्तगणों द्वारा पुनरीक्षण दाखिल कर इस आदेश को चुनौती दी गयी जो अस्वीकृत कर दिया गया। उसके पश्चात् प्रक्रिया को रद्द करने का निवेदन करते हुये रिट याचिका दाखिल की गयी। । यह तर्क दिया गया कि अभियुक्त/याचिकादाता ने प्रत्यर्थी संख्या 1 के विरुद्ध न तो कोई कार्यवाही किया और न कोई शिकायत ही किया है। उन लोगों ने पुलिस से मात्र उचित मार्गदर्शन और संरक्षा हेतु निवेदन किया था। इन परिस्थितियों में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भा० द० संहिता की धारा 499 के अधीन मानहानि का मामला नहीं बनता है क्योंकि मामला धारा 499 के अपवाद संख्या 8 एवं 9 के अधीन आता है। अतएव प्रक्रिया जारी किये जाने का आदेश रद्द किये जाने योग्य घोषित किया गया।
नौवां अपवाद-अपने या अन्य के हितों की संरक्षा के लिए किसी व्यक्ति द्वारा सद्भावपूर्वक लगाया गया लांछन-किसी अन्य के शील पर लांछन लगाना मानहानि नहीं है परन्तु यह तब जब कि उसे लगाने वाले व्यक्ति के या किसी अन्य व्यक्ति के हित की संरक्षा के लिए, या लोक कल्याण के लिए, वह लांछन सद्भावपूर्वक लगाया गया हो।
दृष्टान्त
(क) क एक दुकानदार है। वह ख से, जो उसके कारबार का प्रबन्ध करता है, कहता है, “य को कुछ मत बेचना जब तक कि वह तुम्हें नकद धन न दे दे, क्योंकि उसकी ईमानकारी के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है।” यदि उसने य पर यह लांछन अपने हितों की संरक्षा के लिए सद्भावपूर्वक लगाया है, तो क इस अपवाद के अन्तर्गत आता है।
(ख) क, एक मजिस्ट्रेट अपने वरिष्ठ आफिसर को रिपोर्ट देते हुए, य के शील पर लांछन लगाता है। वहाँ, यदि वह लांछन सद्भावपूर्वक और लोक कल्याण के लिए लगाया गया है, तो क इस अपवाद के अन्तर्गत आता है।
दसवां अपवाद–सावधानी, जो उस व्यक्ति की भलाई के लिए, जिसे कि वह दी गई है। या लोक कल्याण के लिए आशयित है- एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध सद्भावपूर्वक सावधान करना मानहानि नहीं है, परन्तु यह तब जबकि ऐसी सावधानी उस व्यक्ति की भलाई के लिए जिससे वह व्यक्ति हितबद्ध हो, या लोक कल्याण के लिए आशयित हो।
टिप्पणी
इंगलिश विधि के अन्तर्गत वैयक्तिक अपमानजनक लेख (libel) के प्रकाशन से शान्ति-भंग होने की सम्भावना रहती है। किन्तु भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत मानहानि को एक स्वतन्त्र अपराध के रूप में स्वीकार किया गया है और इसके लिये यह प्रदर्शित करना आवश्यक नहीं है कि इससे अवैध हिंसा कारित होने की सम्भावना थी। अपमानित व्यक्ति को कारित मानसिक पीड़ा ही इस अपराध का मूल तत्व है। इंगलिश विधि में अपमानजनक लेख (libel) तथा अपवचन (slander) में अन्तर स्वीकार किया गया है किन्तु भारतीय विधि में ऐसा नहीं है।
अवयव-इस धारा के निम्नलिखित प्रमुख अवयव हैं
(1) किसी व्यक्ति के बारे में किसी लांछन का लगाया जाना या लांछन का प्रकाशन,
(2) ऐसे लांछन,
(क) शब्दों द्वारा या तो बोलकर अथवा इस आशय से कि वे पढ़े जायें, या
(ख) संकेतों द्वारा, या ,
(ग) दृश्यरूपणों द्वारा लगाये जायें।
(3) ऐसे लांछन अपहानि पहुँचाने के आशय से लगाये जायें या इस ज्ञान का विश्वास से लगाये जाये। कि ये उस व्यक्ति को अपहानि कारित करेंगे जिनके विषय में लगाये गये हैं।
किसी व्यक्ति के विषय में कोई लांछन लगाना या प्रकाशित करना- ऐसे सभी व्यक्ति जो किसी अपमानजनक लेख (libel) या मुद्रायोजन (Composing) करते हैं, श्रुतलेखन कराते हैं, लिखते हैं, या इसके प्रकाशन में किसी अन्य रूप में सहयोग करते हैं, अपमानजनक लेख के निर्माता हैं। जहाँ कोई विषय किसी एक व्यक्ति द्वारा लिखाया जाता है और कोई दूसरा व्यक्ति उसे लिखता है तो दोनों ही व्यक्ति इस अपराध के दोषी होंगे। इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति बोलता है, दूसरा लिखता है तथा तीसरा इसे अनुमोदित करता है तो तीनों ही इस अपराध के दोषी होंगे। इसका कारण यह है कि वह प्रत्येक व्यक्ति जो किसी अवैध कृत्य के करने में अपनी सम्मति देता है या सहायता करता है इस अपराध का दोषी होगा।
मानहानिकारक विषय का प्रकाशन- मानहानि के अपराध के लिये अपमानजनक विषय का प्रकाशन आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, अपमानजनक वस्तु सम्बन्धित व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को सूचित की जानी चाहिये । उदाहरण के लिये, लिपिक को पत्र लिखाना, पत्र को प्रकाशित करना है। यदि अपमानजनक विष! अपमानित व्यक्ति को ही संसूचित किया जाता है तो ऐसी संसूचना प्रकाशन के तुल्य नहीं होगा। तकी हुसैन के वाद में एक व्यक्ति ने डाक द्वारा एक सूचना एक पुलिस अधिकारी के पास भेजा। सूचना लिफाफे में बन्द थी। सूचना में प्राप्तकर्ता के चरित्र पर लांछन लगाया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अनुसार इस मामले में मानहानि का अपराध संरचित नहीं हुआ क्योंकि अपमानजनक वस्तु का प्रकाशन नहीं हुआ था। जहाँ किसी म्युनिसिपल कमेटी का अध्यक्ष अपने ही विषय में लिखे गये अपमानजनक पत्र को ऑफिशियल फाइल में रख दिया और उस पत्र को कमेटी के अन्य सदस्यों ने भी पढ़ा वहाँ अपमानजनक पत्र का पर्याप्त प्रकाशन माना जायेगा। एक प्रकरण में अ ने एक कागज के टुकड़े पर ब के सम्मान एवं इज्जत के सम्बन्ध में गन्दी गालियाँ तथा अपमानजनक बातें लिखीं तथा पंजीकृत लिफाफे में ‘‘व्यक्तिगत” के संकेत के साथ भेज दिया। पत्र प्राप्त करने के बाद ब ने उस पत्र को पढ़ा तथा उसका जवाब उसी पत्र के दूसरी तरफ लिखकर भेज दिया किन्तु ब ने अपना जवाब साधारण डाक से भेजा। पत्र को स ने खोला तथा अ और ब द्वारा लिखी गयी बातों को पड़ा। इस प्रकरण में न तो अ और न ही ब मानहानि के लिए। दण्डनीय होगा क्योंकि अपमानजनक बातों का प्रकाशन नहीं हुआ है और इस बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा कि पत्र पंजीकृत डाक द्वारा या साधारण डाक द्वारा भेजा गया था क्योंकि दोनों ही मामलों में पत्र सम्बन्धित व्यक्तियों को ही भेजा गया था।
अपमानजनक विषय, यदि किसी पोस्टकार्ड पर लिखा गया है या किसी कागज पर छपा है तो वितरित किये जाने पर या प्रचारित किये जाने पर यह प्रकाशन संरचित करेगा। यदि कोई अपमानजनक याचिका किसी वरिष्ठ लोक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत की गयी थी और वह उस व्यक्ति को किसी कनिष्ठ लोक अधिकारी का
2. वेकन्स, (अब्रिज्ड) जिल्द IV, पृ० 457.
3. वी० इल्लथ बनाम के० केशवन, (1900) 1 वेयर 579.
4. सदाशिव आत्माराम, (1893) 18 बाम्बे 205.
5. (1884) 7 इला० 205 (एफ० बी०).
6. सुखदेव, (1932) 55 इला० 253.
7. थियागाराया बनाम कृष्णासामी, (1892) 15 मद्रास 214.
पास सामान्य अनुक्रम में छानबीन के लिये भेज देता है तो इस कार्य द्वारा याचिका का पर्याप्त प्रकाशन हो जायेगा। इसी प्रकार यदि पत्नी के विरुद्ध अपमानजनक पत्र पति के पास भेज दिया जाता है या पति के विरुद्ध अपमानजनक पत्र पत्नी के पास भेज दिया जाता है तो ऐसी संसूचना प्रकाशन के तुल्य होगी । किन्तु पति द्वारा। पत्नी को या पत्नी द्वारा पति को किसी अपमानजनक बात का सम्प्रेषण प्रकाशन नहीं होगा क्योंकि विधि के दृष्टिकोण में पति-पत्नी दोनों एक होते हैं (10 छपे लेख की प्रत्येक प्रति का विक्रय एक स्वतन्त्र प्रकाशन संरचित करता है, अत: अभियुक्त अनेक प्रतियाँ प्रकाशित करने के लिये दण्डित किया जायेगा ।।।
किसी लांछन का लेखक तथा प्रकाशक दोनों समान रूप से दोषी होते हैं। प्रकाशक को यह कहने की अनुमति नहीं दी जायेगी कि उसने लांछन को स्वयं नहीं लिखा था।12
किन्तु कुछ संसूचनायें या पत्र व्यवहार ऐसे होते हैं जो कार्यक्रम के सामान्य अनुक्रम में प्रकाशन के तुल्य नहीं होते क्योंकि वे विशेषाधिकार प्राप्त संसूचना की कोटि में रखे गये हैं। अत: विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुये कोई व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को कोई वस्तु संसूचित कर सकता है और वह इस धारा में वर्णित अपराध के लिये दण्डनीय नहीं होगा। कोई अधिवक्ता या सालिसिटर जो अपने लिपिक को किसी व्यक्ति को सन्दर्भित करते हुये अपमानजनक पत्र लिखाता है, मानहानि के लिये दण्डनीय नहीं है।।3।
पुनरावृत्ति- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 में मानहानि के प्रकाशन तथा इसकी पुनरावृत्ति में कोई अन्तर स्वीकार नहीं किया गया है। कोई प्रकाशन अपमानजनक विषय के प्रकाशन के लिये निश्चित रूप से दायित्वाधीन होगा चाहे वह अपमानजनक लेख का प्रारम्भकर्ता हो या केवल उसकी पुनरावृत्ति करने वाला।14
अपमानजनक लेख का समाचार-पत्र में प्रकाशन- मानहानि के मामलों में समाचार-पत्र की वही स्थिति होती है जो साधारण जनता की। समाचार-पत्र का प्रकाशक समाचार-पत्र में प्रकाशित अपमानजनक वस्तु के लिये दायित्वाधीन होगा चाहे वह उसके विषय में जानता हो या नहीं।15 किन्तु सम्पादक की स्थिति कुछ भिन्न होती है। वह अपने दायित्व से उन्मुक्ति पा सकता है यदि वह यह सिद्ध करने में सफल हो जाये कि अपमानजनक विषय का प्रकाशन उसकी अनुपस्थिति में तथा उसके ज्ञान के बिना हुआ था एवं उसके सद्भाव में अपनी अनुपस्थिति के दरम्यान समाचार-पत्र का अस्थायी प्रबन्ध किसी सक्षम व्यक्ति को सौंप दिया था।16
किसी समाचार-पत्र या जर्नल का मालिक, केवल मालिक के रूप में उत्तरदायी नहीं होता।17 समाचारपत्र में किसी सूचना का प्रकाशन जिसमें यह लांछन लगाया गया हो कि परिवादकर्ता एक बेईमान व्यक्ति है, उसने कम्पनी के प्रबन्ध में धाँधली किया है अपनी बेईमानी को छिपाने के लिये ऐसे तरीकों का सहारा लेता है। जो अनुचित है, मानहानि के तुल्य है।18
अशोक कुमार जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य19 के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई मानहानिकारक बयान किसी समाचार-पत्र में प्रकाशित किया जाता है तो उस समाचार-पत्र के सम्पादक, मुद्रक और प्रकाशक दायित्वाधीन होंगे। जहाँ यह आरोपित है कि कम्पनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स के अध्यक्ष और उसके महाप्रबन्धक ने समाचार-पत्र के विक्रय में भाग लिया है, यह इस तथ्य का स्पष्ट संकेत
8. राजा शाह, (1889) पी० आर० नं० 14 सन् 1889.
9. वेनमैन बनाम ऐश, (1853) 13 सी० वी० 836.
10. वेन्नहाक बनाम मॉरगन, (1888) 20 क्यू० बी० डी० 635.
11. पंडित मोकन्दराम, (1883) पी० आर० न० 12 सन् 1883.
12. जे० डी० दीक्षित, (1894) 19 बाम्बे 703.
13. वाक्सस बनाम गावलेट फेरर्स, (1884) 1 क्यू० बी० 842.
14. हरभजन सिंह, ए० आई० आर० 1961 पंजाब 215.
15. मैक्लियोड, (1880) 3 इला० 342. ।
16. रामासामी बनाम लोक नेद्दा, (1886) 3 मद्रास 387.
17. भगत सिंह बनाम लक्षमन सिंह, ए० आई० आर० 1968 कल० 296.
18. एम० जी० चिटनवीस बनाम एन० बी० खरे, (1926) 27 क्रि० लाँ ज० 1119.
19. 1986 क्रि० लॉ ज० 1987 (बम्बई).
है कि उन्हें समाचार-पत्र के मानहानिकारक विषयवस्तु का पूर्व ज्ञान है और उसे प्रकाशित होने से वे रोक सकते थे परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, वे इस धारा के अन्तर्गत दोषी होंगे जब तक कि वे अपने पक्ष में किसी अपवाद को सिद्ध नहीं कर देते हैं।
शत्रुघ्न प्रसाद सिन्हा बनाम रामभाउ सूरजमल राठी20 के वाद में मारवाड़ी समाज के एक सामाजिक कार्यकर्ता रेस्पाण्डेण्ट ने अपीलाण्ट के विरुद्ध उसके द्वारा दिये गये एक साक्षात्कार जो ‘‘स्टार डस्ट” नामक फिल्मी पत्रिका में छपा था, के सम्बन्ध में एक परिवाद दाखिल किया। इस साक्षात्कार के सम्बन्ध में यह छपा। था कि अपीलाण्ट ने यह कहा है कि मारवाड़ी समाज को अपनी मातृभूमि भारत के प्रति निष्ठा और प्रेम नहीं है। रेस्पाण्डेण्ट द्वारा पुणे और नासिक में परिवाद दाखिल की गयी थी। परिवाद में यह आरोप लगाया गया कि यह बयान मारवाड़ी समाज की धार्मिक भावनाओं को जानबूझ कर और विद्वेषपूर्ण आशय से आघात पहुँचाने (Outraging) के लिये प्रकाशित किया गया था और इससे मारवाडी समुदाय के लोगों की एक वर्ग के रूप में मानहानि कारित हुयी। पुणे के मजिस्ट्रेट ने इसका संज्ञान लिया और सम्मन जारी किया। रेस्पाण्डेण्ट के अनुसार ये आरोप भा० द० संहिता की धारा 295-क और धारा 500 सपठित धारा 34 के अधीन आरोप गठित करते हैं। उच्च न्यायालय ने यह अभिलिखित किया कि धारा 295-क के अधीन कोई अपराध नहीं बनता है परन्तु आरोपों से प्रथम दृष्टया भा० द० संहिता की धारा 500 के अधीन अपराध बनता है।
जहाँ तक दाखिल किये गये परिवाद का सम्बन्ध है यह अभिनित किया गया कि इसमें ऐसा कोई आरोप नहीं है जिससे धारा 499 में परिभाषित मानहानि का अपराध गठित होता हो। पुणे के मजिस्ट्रेट द्वारा अपीलाण्ट के विरुद्ध सम्मन जारी किया जाना उचित नहीं था अतएव उसे निरस्त कर दिया गया।
परन्तु जहाँ तक नासिक में दाखिल किए गये परिवाद का सम्बन्ध है, यह अभिनित किया गया कि यह देखना उच्चतम न्यायालय का काम नहीं है कि क्या परिवाद के आधार पर धारा 499 भा० द० संहिता के अधीन कोई अपराध गठित होता है अथवा नहीं। नासिक के मजिस्ट्रेट ने यह निष्कर्ष निकाला था कि परिवाद । में दर्शाये आरोपों के आधार पर धारा 499 भा० ० संहिता के अधीन अपराध बन सकता है। तथ्यों का मूल्यांकन करना विचारण की अवस्था में मजिस्ट्रेट का काम है अतएव वर्तमान अवस्था में उच्चतम न्यायालय के लिये परिवाद को निरस्त करना उचित नहीं है।
एस० खुशबू बनाम कन्नी अम्मल और अन्य21 के बाद में यह शिकायत की गयी थी कि अभियुक्त द्वारा एक समाचार पत्रिका में दिये गये बयान से उसकी मानहानि हुई है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त का बयान समाचार पत्रिका में दिया गया था जिसमें विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध की समाज द्वारा स्वीकृति की अपेक्षा की गयी थी। उसने किसी व्यक्ति विशेष की ख्याति पर कोई टिप्पणी नहीं किया था। उससे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 के अन्तर्गत अवमानना का अपराध नहीं गठित होता है। साथ ही शिकायतकर्ता व्यथित व्यक्ति नहीं है। अतएव शिकायत को निरस्त करने योग्य अभिनिर्धारित किया गया। ।
किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में लांछन-किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में लांछन अपरोक्ष रूप में या प्रश्न के रूप में अटकल के रूप में, आश्चर्य या विस्मय के रूप में या व्यंग्योक्ति द्वारा लगाया जा सकता है ।22 किसी को भीरु, बेईमान या इन दोनों से भी गया बीता बताना या अभियुक्त के विरुद्ध मिथ्या आरोप लगाने का लांछन मानहानि के तुल्य है।23 किन्तु यह आवश्यक है कि लांछन किसी विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों, जिनकी पहचान सम्भव हो, के सम्बन्ध में लगाया गया हो। लांछन किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के एक वर्ग से। सम्बन्धित हो सकता है।
अ ने किसी थाने में पदस्थ चार आरक्षकों में से दो आरक्षकों द्वारा उस थाने की सीमा में एक महिला पर किये गये अत्याचार का विवरण अपने समाचार-पत्र में प्रकाशित किया। उक्त आरोप किसी आरक्षक परिचय संकेत करके नहीं किया गया। आरक्षियों द्वारा मानहानि का आरोप लगाया गया। इस प लगाया गया। इस मामले में जो
20. 1997 क्रि० लॉ ज० 212 (एस० सी०).
21. (2010) 3 क्रि० लॉ ज० 2228 (एस० सी०).
22. आर्चवाल्ड, 35वाँ संस्करण, पृ० 3635.
23. मैक्वार्थी (1887) 9 इला० 420.
लांछन लगाया गया है वह चार में से दो आरक्षियों के विरुद्ध है परन्तु वे दो आरक्षी उनमें कौन से हैं यह स्पष्ट नहीं है। मानहानि के लिये आवश्यक है कि लांछन किसी विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों जिनकी पहचान सम्भव हो, के सम्बन्ध में लगाया गया हो। चूंकि इस मामले में उन आरक्षियों की जिनके विरुद्ध आरोप लगाया गया है। पहचान सम्भव नहीं है अतएव मानहानि का मामला नहीं बनता है। अतएव अ मानहानि कारित करने के अपराध का दोषी नहीं होगा। क्योंकि उसके प्रकाशन से किसी निश्चित व्यक्ति की ख्याति को अपहानि कारित नहीं हो रही है। भा० द० संहिता की धारा 499 के अपवाद 3 के अधीन यह भी तर्क दिया जा सकता है कि थाने में पदस्थ आरक्षक लोक सेवक हैं और उनका आचरण एक लोक प्रश्न है। अतएव लोक प्रश्न के सम्बन्ध में उन आरक्षकों के आचरण के विषय में समाचार-पत्र में सद्भावपूर्ण प्रकाशन को मानहानि नहीं कहा जा सकता है।
समाचार-पत्र चूँकि व्यक्ति नहीं है कि अत: इसके विरुद्ध कुछ लिखना कोई अपराध नहीं है। किन्तु कुछ विशिष्ट दशाओं में समाचार-पत्र की मानहानि उन व्यक्तियों की मानहानि होती है जो उसके प्रकाशन के लिये उत्तरदायी होते हैं।24।
ख्याति एवं चरित्र-एन० एल० शाह बनाम पटेल मगनभाई रेवाभाई एवं अन्य25 के मामले में गुजरात राज्य में उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्तियों तथा तबादले को लेकर अधिवक्ताओं का आन्दोलन चल रहा था। आन्दोलन के फलस्वरूप न्यायालय की कार्यवाहियों में वे लोग भाग नहीं ले रहे थे। तथा ‘‘सत्याग्रह” कर रहे थे। एक समाचार-पत्र के सम्पादकीय में इस विषय को लेकर एक लेख छपा जिसमें उनके सत्याग्रह की भर्त्सना की गयी तथा उन लोगों को ‘‘काजिया दलाल” के रूप में सम्बोधित किया गया। समाचार-पत्र के सम्पादक के विरुद्ध एक मानहानि का मुकदमा दायर हुआ। गुजरात उच्च न्यायालय ने अभिनित किया कि सम्पादकीय में प्रत्यक्ष तौर पर वादी को इंगित नहीं किया गया है और न किसी अन्य व्यक्ति को। सम्पादकीय पूरे अधिवक्ता समुदाय को इंगित कर रहा है, विशेषकर गुजरात के अधिवक्ताओं को। न्यायालय ने आगे कहा कि लेख में प्रयुक्त ‘‘काजिया दलाल” शब्द अधिवक्ताओं को एक समुदाय के रूप में इंगित करता है न कि उनके एक वर्ग को, विशेषकर उन अधिवक्ताओं को जो सत्याग्रह में भाग ले रहे हैं। सम्पादकीय में केवल इस बात पर बल दिया गया है कि अधिवक्ताओं को हड़ताल नहीं करनी चाहिये थी। विधिक व्यवसाय के लोगों से हड़ताल नहीं अपेक्षित थी। ‘‘काजिया दलाल” शब्द अपने आप में अपमानजनक नहीं है क्योंकि इसके चार भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। इसे यदि उचित सन्दर्भ में पढ़ा जाये तो वह अधिवक्ताओं के पूरे समुदाय को इंगित करता है।
इसी मामले में न्यायालय ने मानहानि के अवयवों की भी व्याख्या किया। मानहानि के तीन अवयव हैं-(1) व्यक्ति; (2) उसकी ख्याति; तथा (3) उसकी ख्याति को उपहति जिसमें आवश्यक मन:स्थिति अपेक्षित है। वक्तव्य देने वाला व्यक्ति यह निश्चित तौर पर जानता हो कि वक्तव्य से उस व्यक्ति की ख्याति को आघात पहुँचेगा जिसके सन्दर्भ में वक्तव्य दिया जा रहा है। स्पष्टीकरण मृत व्यक्ति को भी सम्मिलित करता है। इस अपराध का सारांश है, किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में घातक लांछन का प्रचार 26 ।
इसी सन्दर्भ में न्यायालय ने ‘‘चरित्र” तथा ‘‘ख्याति” के बीच अन्तर सुस्पष्ट किया है। ‘ख्याति” शब्द का आशय है, व्यक्ति या वस्तु के सम्बन्ध में जो कुछ सामान्यतया कहा जाता है या विश्वास किया जाता है। इसके विपरीत ‘‘चरित्र” शब्द से अभिप्रेत है, नैतिक संरचना या धैर्य या किसी व्यक्ति की सामर्थ्य । एक व्यक्ति के विषय में दूसरों के विश्वास या राय से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। अत: एक व्यक्ति जो कुछ वस्तुत: है’ वह उसका चरित्र है तथा जो कुछ पड़ोसी या अन्य लोग उसके विषय में कहते हैं वह उसकी ख्याति है। एक व्यक्ति का चरित्र अच्छा हो सकता है पर यह आवश्यक नहीं है कि उसकी ख्याति भी अच्छी हो या इसके विपरीत भी हो सकता है। किन्तु अपने ही विषय में अपनी राय किसी भी दशा में ख्याति नहीं हो सकती 27
24. माउंग सीन, (1926) 4 रंगून 462.
25. 1984 क्रि० लाँ ज० 1790 (गुजरात).
26. नरोत्तम दास एल० शाह बनाम पटेल मगनभाई रेवाभाई एवं अन्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 1790 गुज०. 27. उपरोक्त सन्दर्भ.
लांछन शब्दों द्वारा बोलकर अथवा इस आशय से कि वे पढ़े जायें या संकेतों द्वारा या संकेतों द्वारा या द्रश्यरूपणों द्वारा लगाये जायें- भारत में किसी व्यक्ति को केवल लेखन द्वारा ही अपमानित नहीं किया जा सकता अपितु उसे बोले गये शब्दों द्वारा भी अपमानित किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में भारतीय तथा | इंगलिश विधि में महत्वपूर्ण अन्तर है। इंगलिश विधि के अन्तर्गत मानहानि की संरचना केवल लिखित मद्रित, अंकित अथवा किसी अन्य प्रक्रिया द्वारा होती है। बोले गये शब्दों द्वारा कभी भी मानहानि संरचित नहीं होती। बोले गये शब्दों द्वारा केवल सिविल कार्यवाही के लिये आधार तैयार होता है। किन्तु भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अपमानजनक लेख (libel) तथा अपमान वचन (slander) दोनों ही मानहानि के अन्तर्गत आते हैं। ‘‘दृश्यरूपण” (visible representation) शब्द के अन्तर्गत मानहानि के सभी स्वरूप, जिसका सृजन मानव मस्तिष्क कर सकता है, आते हैं। अत: बोले गये शब्दों के अतिरिक्त किसी मूर्ति, किसी व्यंग्य चित्र (caricature), किसी पुतले (effigy), दीवाल पर खड़िया से अंकित किन्हीं चिन्हों, संकेतों या तस्वीरों द्वारा भी मानहानि की संरचना होती है 28 एक ग्रुप फोटोग्राफ का प्रकाशन जिसका शीर्षक है “गुंडा” मानहानि होगा यदि शीर्षक मिथ्या है।29
अपहानि कारित करने के आशय से या इस ज्ञान या विश्वास से कि ऐसे लांछन अपहानि कारित करेंगे, लांछन लगाना- लांछन लगाते समय अभियुक्त का यह आशय होना चाहिये कि इससे परिवादकर्ता की ख्याति को क्षति पहुँचेगी या उसे यह ज्ञात हो कि लांछन से उसकी ख्याति को अपहानि पहुँचेगी 30 वास्तविक अपहानि का कारित होना आवश्यक नहीं है ।।31
इस तथ्य के निर्धारण हेतु कोई वक्तव्य मानहानिकारक है अथवा नहीं यह परीक्षण लागू किया जाता है। कि क्या जिन परिस्थितियों में लेखन का प्रकाशन हुआ था कोई युक्तियुक्त प्रज्ञा वाला व्यक्ति, जिसके समक्ष प्रकाशन हुआ था, उसे अपमानजनक वस्तु के रूप में स्वीकार करेगा 32 ।
अत: यदि किसी समाचार-पत्र में कोई लेख प्रकाशित होता है जिसमें किसी कॉलेज के महिला विद्यार्थियों के विरुद्ध अपमानजनक दोषारोपण किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि लड़कियाँ स्वभावत: लेख में उल्लिखित दुर्व्यवहार की अपराधिनी हैं, तो यह माना जायेगा कि प्रत्येक महिला विद्यार्थी की ख्याति को व्यक्तिगत तौर पर क्षति पहुँची है, फलत: कुछ लड़कियाँ मानहानि हेतु मुकदमा दायर करने के लिये सक्षम होंगी।33 ब के विरुद्ध अपमानजनक वक्तव्य छापने के लिये अ पर आरोप लगाया जाता है। ब घोषित करता है कि उसके विरुद्ध छापा गया वक्तव्य असत्य है। यहाँ यदि वक्तव्य सद्भाव में बिना उपहति कारित करने के किसी आशय के या यह जानते हुये या यह विश्वास करने का कारण रखते हुये कि इससे कोई उपहति कारित नहीं होगी, प्रकाशित किया जाता है तो अ दण्डनीय नहीं होगा। | अपहानि से तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति के चरित्र पर लांछन लगाना तथा उसे दूसरों के समक्ष व्यक्त करना जिससे लांछित व्यक्ति उनके आकलन में नीचे गिर जाये। कोई वस्तु जिससे कोई व्यक्ति अपने ही आकलन में नीचे गिर जाता है, मानहानि की संरचना नहीं करती।34 जहाँ अ, ब के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर करता है तथा ब यह प्रदर्शित करता है कि अ के पास कोई सम्मान नहीं है वहाँ ब का यह तर्क सफल नहीं होगा क्योंकि हर व्यक्ति के पास कुछ-न-कुछ सम्मान अवश्य होता है। अत: यह मानहानि का मामला अन्यथा सिद्ध हो जाता है तो ब इस धारा के अन्तर्गत दण्डनीय होगा।
जहाँ अभियुक्त परिवादकर्ता के विरुद्ध किसी विद्वेष या दुर्भावना से प्रेरित नहीं था और न ही इस बात का कोई सुसंगत साक्ष्य था कि परिवादकर्ता ने अभियुक्त को बिना टिकट सिनेमा में प्रवेश करने से रोका था जिससे
28. मोनसन बनाम तुसन्दस लिमिटेड, (1894) 1 क्यू० बी० डी० 671.
29. सी० पिल्लई बनाम करंजिया, (1962) 2 क्रि० लाँ ज० 142.
30. म्युनिसिपल बोर्ड कोंच, ए० आई० आर० 1932 इला० 114.
31. टी० जी० गोस्वामी, ए० आई० आर० 1952 पेप्सू 165.
32. लक्ष्मी नारायण, ए० आई० आर० 1931 इला० 126.
33. वहीद उल्ला अन्सारी, ए० आई० आर० 1935 इला० 743.
34. तकी हुसैन, (1889) 17 इला० 205.
कि वह अपमानित हुआ हो, तथा प्रस्तुत किये गये साक्ष्य अभियोजन के वक्तव्य में सन्देह उत्पन्न करते हैं तो ऐसी दशा में अभियुक्त उन्मुक्त किये जाने का हकदार है।35 ।
मानहानिकारक लेख-एम० पी० नारायन पिल्लई एवं अन्य बनाम एम० पी० चाको एवं अन्य-36 के मामले में यह प्रेक्षित किया गया कि यदि कोई लेख कई भागों में प्रकाशित किया जाता है जिसमें से कुछ में मानहानिकारक सामग्री है और अन्य में नहीं तो ऐसे मामले में पूरे लेख को पढ़ा जाना चाहिये। लांछनों के प्रभाव पर लेख में वर्णित समस्त तथ्यों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना चाहिये। यदि अशोभनीय भाग को अन्य भागों और निष्कर्षों से पृथक किया जा सकता है तो केवल अशोभनीय भाग को ही चुनकर मानहानि के लिये अभियोजित नहीं किया जा सकता है। जिन परिस्थितियों में तथा लेख के जिन भागों में आरोपित मानहानिकारक लांछन पाये जाते हैं और पूरे लेख को पढ़कर पाठक के मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिये।।
स्पष्टीकरण 1- यह स्पष्टीकरण तब लागू होता है जब
(1) लांछन से मृतक व्यक्ति की ख्याति को उपहति कारित हुई होती।
(2) इससे मृतक के परिवार तथा सम्बन्धियों को उपहति कारित हुई होती।
एक प्रकरण में एक मृतक व्यक्ति के उत्तराधिकारी तथा नजदीकी सम्बन्धी ने मानहानि के लिये वाद दायर किया। अपमानजनक शब्दों का प्रयोग मृतक व्यक्ति के विरुद्ध किया गया था। अपीलकर्ता का अभिकथन था कि उस परिवार का सदस्य होने के नाते उसे क्षति पहुँची है। यह निर्णीत हुआ कि वाद उपयुक्त नहीं है।7
स्पष्टीकरण 2-किसी निगमित व्यापारिक द्वारा अपनी व्यापारिक ख्याति के प्रतिकूल प्रकाशित अपमानजनक लेख के लिये अभियोजन की कार्यवाही प्रारम्भ की जा सकती है।38 किसी व्यापारिक कम्पनी की सम्पत्ति अथवा व्यापार ही उसकी सम्पत्ति है। व्यक्तिगत लांछन के लिये कोई कम्पनी या प्रतिष्ठान वाद दायर नहीं कर सकता। इस स्पष्टीकरण के अन्तर्गत व्यक्तियों का एक समूह ही आता है किन्तु वह समूह ऐसा होना चाहिये जिसकी शिनाख्त हो सके। कोई भी व्यक्ति निश्चित रूप से यह कह सके कि पूरे समुदाय से भिन्न व्यक्तियों के इसी समूह को अपमानित किया गया है।
एम० पी० नारायन पिल्लई एवं अन्य बनाम एम० पी० चाको एवं अन्य39 के वाद में यह प्रेक्षित किया गया कि किसी संघ अथवा व्यक्तियों के समूह पर लगाये गये लांछन तभी मानहानिकारक माने जायेंगे यदि ऐसे लोग निश्चित और निर्धार्य व्यक्ति हैं। यदि कोई निश्चित संघ अथवा व्यक्तियों का ऐसा समूह है। जिसकी पहचान की जा सकती है तभी यह कहा जायेगा कि इसके विरुद्ध लगाये गये लांछन उन सबको प्रभावित करते हैं और तब उस वर्ग का कोई भी सदस्य यह कह सकता है कि लांछन व्यक्तिगत रूप से उसके विरुद्ध हैं जिस हेतु वह मानहानि की शिकायत करने का अधिकारी है। यूं किसी समुदाय (community) के विरुद्ध मानहानि नहीं हो सकती है।
स्पष्टीकरण 3-कोई निर्दोष (innocent) कथन यदि व्यंग्यपूर्ण है तो मानहानि की कोटि में आता है।40
स्पष्टीकरण 4-इस स्पष्टीकरण के अन्तर्गत लांछन तभी मानहानि की कोटि में आता है जब यह किसी व्यक्ति को दूसरों के आंकलन में नीचे गिरा दे। यदि लांछन दूसरों के आंकलन में नीचे नहीं गिराता है तो वह मानहानि की कोटि में नहीं आयेगा । किसी महिला के लिये यह कहना कि वह जहाँ जाती है वहीं उसके आशिक हैं अपने आप में मानहानिकारक है 42
35. कान्ती प्रसाद शर्मा बनाम सुमेद कुमार गुप्ता, 1984 क्रि० लॉ ज० (एन० ओ० सी०) 134 (इला० ). 36. 1986 क्रि० लॉ ज० 2002 (केरल).
37. लुकुमसे पूँजी बनाम हरवंश नसी, (1881) 5 बाम्बे 580.
38. एस० एच० कोल कं० बनाम एन० ई० एच० एसोसिएशन, (1894) 1 क्यू० बी० 133.
39. 1986 क्रि० लाँ ज० 2002 (केरल).
40. आर० शंकर, ए० आई० आर० 1959 केरल 104.
41, अमर सिह, (1962) 2 क्रि० लाँ ज० 698.
42. जे० चेलिया बनाम राजेश्वरी, (1969) क्रि० लॉ ज० 571.
यह लांछन कि यदि अमुक व्यक्ति अपना चमड़े का कारोबार बरकरार रखता है तो उसे समाज से
बाहिष्क्रत कर दिया जायेगा यदि वह सामाजिक उत्सवों में भाग लेता है या भोजन ग्रहण करता है तो भी उसे बहिष्कृत कर दिया जायेगा और अपने और निश्चयत: ऐसा है जो उस व्यक्ति के नैतिक चरित्र को = अपने आप में ही नहीं अपितु उसके कारोबार के सम्बन्ध में भी 43
अपवाद 1-इस अपवाद के निम्नलिखित अवयव हैं
(1) यह सिद्ध किया जाना चाहिये कि कथित वक्तव्य सत्य है; तथा
(2) वक्तव्य का प्रकाशन लोकहित के लिये आवश्यक है।
इस अपवाद तथा अपवाद 4 के अन्तर्गत यह अपेक्षित है कि लांछन सत्य हो, अन्य अपवादों के अन्तर्गत या अपेक्षित नहीं है। इसके अन्तर्गत केवल यह अपेक्षित है कि लांछन सद्भाव में लगाया गया हो। यह भी विष्यक है कि यदि सत्य को बचाव का आधार बनाया गया है तो वह मानहानि की पूर्ण सीमा तक विस्तारित हो, केवल उसके अंश तक ही विस्तारित होना पर्याप्त नहीं 44 ।
सत्य की कोई मात्रा अपमानजनक लेख को न्यायोचित नहीं ठहरा सकती जब तक यह न स्पष्ट हो जाये। कि लोकहित के लिये इसका प्रकाशन आवश्यक है। जहाँ लांछन युक्तियुक्त था किन्तु उसे लोकहित में प्रकाशित नहीं किया गया था, अपितु उसे केवल किसी वर्ग विशेष या समुदाय के लिये प्रकाशित किया गया था, ऐसा प्रकाशन युक्तियुक्त नहीं माना जायेगा +5 यदि अभियोग अपने आप में अपमानजनक है तथा उसके सत्य होने का कोई प्रमाण भी नहीं है तो उचित टीका टिप्पणी का कोई प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होगा। कोई टिप्पणी अतिशयोक्ति मात्र से ही अनुचित नहीं हो जाती +6 बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार अपमानजनक लेख को पूर्णत: पढ़ा जाना चाहिये और न्यायालय इस बात का निर्धारण करे कि किसी पक्षपात रहित पाठक पर उस लेख का क्या प्रभाव होगा 47 एक प्रकरण में अ तथा ब टाउन एरिया कमेटी के चेयरमैन के पद के लिये विरोधी उम्मीदवार थे। अ ने ब के नामांकन पर इस आधार पर कि वह पियक्कड़ (Drunkard) है, आपत्ति उठाया। मानहानि के आरोप में अ यह तर्क प्रस्तुत कर सकता है कि उसका वक्तव्य सच था तथा लोकहित हेतु सद्भाव में किया गया था। इस तर्क को वह इस धारा के अपवाद के अन्तर्गत उठा सकता है।
अपवाद 2-लोक पद को ग्रहण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको आलोचना हेतु पद पर आसीन रहते हुये अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुये प्रस्तुत करता है। ऐसी आलोचना सद्भाव में की जानी चाहिये तथा लोक सेवक के कार्यों से सम्बन्धित होनी चाहिये। सद्भाव का अर्थ है, लांछन लगाते समय युक्तियुक्त सावधानी बरतना। इसका अर्थ केवल ईष्र्या भावना के अभाव से ही नहीं है। कोई टिप्पणी न्यायोचित होगी|
(1) यदि वह सत्यतापूर्वक वर्णित तथ्य पर आधारित है;
(2) जिस व्यक्ति के आचरण की आलोचना की जा रही हो, उसके विरुद्ध भ्रष्ट या अपमानपूर्ण प्रयोजन अध्यारोपित न किया गया हो जब तक कि ऐसा लांछन आवश्यक न हो;
(3) टिप्पणी लेखक के विचारों का यथार्थ प्रदर्शन कर रही हो और सद्भाव में व्यक्त की गयी हो;
(4) टिप्पणी का प्रकाशन लोकहित के लिये आवश्यक हो।
यदि कोई लेखक किसी के व्यक्तिगत जीवन की आलोचना करता है तो वह उचित आलोचना के अन्त नहीं आयेगा, किन्तु कभी-कभी व्यक्तिगत प्रश्न लोक प्रश्न बन जाते हैं यदि इसे अनुसमर्थित क
43. पोखई बनाम दीना तथा अन्य, 1984 क्रि० लॉ ज० (एन० ओ० सी०) 157 इला०.
44. चन्द्रशेखर बनाम कार्थिकेयान, ए० आई० आर० 1964 केरल 277.
45. विनायक, 43 क्रि० लॉ ज० 174.
46. मुरलीधर, 16 क्रि० लॉ ज० 141.
47. एस० एम० वी० मेहता, ए० आई० आर० 1917 बाम्बे 62.
पब्लिक को बुलाया जाता है।48 जब किसी व्यक्ति के लोक चरित्र का केवल एक पहलू विचारणीय है तो उसका सम्पूर्ण चरित्र लोक अवलोकन हेतु उपलब्ध नहीं हो सकता।
इन रि अरुन्धती राय-49 के वाद में यह अभिनित किया गया कि व्यापक और सामान्य प्रतिज्ञप्ति (proposition) कि किसी अवमानना नोटिस के सम्बन्ध में प्रेषित उत्तर भा० द० संहिता की धारा 499 के अपवाद 2 के आलोकन में किसी भी दशा में न्यायालय की अवमानना नहीं होता है। उस विधि के जिसे समय-समय पर न्यायालयों द्वारा अधिनिर्णीत किया गया है और अधिनियम द्वारा विहित सीमाओं तथा न्यायिक विनिश्चयों के जो सभी युक्तियुक्त नागरिकों के पूर्ण ज्ञान में है, के प्रतिकूल है। भा० द० संहिता के अधीन मानहानि सम्बन्धी विधि को सामान्य अर्थों में न्यायालय के अवमानना विधि के समतुल्य नहीं माना। जा सकता है।
यह भी अभिनित किया गया कि भा० द० संहिता की धारा 499 के अपवाद 2 के लाभ का दावा करने वाले व्यक्ति को भी यह सिद्ध करना पड़ता है कि उसके द्वारा व्यक्त की गयी राय एक लेखक के लोक कर्तव्य अथवा उसका चरित्र जहाँ तक कि उस कार्य से प्रकट होता, के सम्बन्ध में सद्भावपूर्वक व्यक्त की गयी थी। अवमानना विधि के अधीन पक्षकारों, अभिवचनों (pleadings), याचिकाओं (petitions) और शपथ-पत्रों में दिये गये बयान, कई वादों में मानहानिकाक कथन भा० द० संहिता की धारा 499 के अधीन अपराध अभिनिर्णीत किये गये हैं जब तक कि वे किसी अपवाद के अन्तर्गत सिद्ध नहीं किये जाते हैं। यदि राज्य की किसी संस्था के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणियां की जाती हैं और वे व्यक्तियों के चाहे एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह तक ही सीमित नहीं है तो अवमानना कार्यवाही तो दूर यहाँ तक कि मानहानि सम्बन्धी विधि के अधीन अपवाद का लाभ भी उपलब्ध नहीं है।
अपवाद 3-किसी लोक प्रश्न के विषय में, किसी व्यक्ति के आचरण के विषय में जहाँ तक उसका शील उस आचरण से प्रकट होता हो न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है। रंगून उच्च न्यायालय के अनुसार यदि किसी अखबार का सम्पादक म्युनिसिपल कार्यालय में घटी घटनाओं पर टिप्पणी व्यक्त करते हुये यह कहता है कि प्रतिवादी का आचरण असंगत एवं अव्यवस्थित था, तो सम्पादक द्वारा इस प्रकार दिया गया वक्तव्य अनुचित होगा और वह धारा 500, भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दण्डनीय होगा।50
अपवाद 4– इस अपवाद के अनुसार किसी न्यायालय की कार्यवाहियों की या किन्ही ऐसी कार्यवाहियों के परिणाम की सारतः सही रिपोर्ट को प्रकाशित करना मानहानि नहीं है। इस अपवाद के लिये सद्भाव की आवश्यकता नहीं होती। यह केवल निर्णयों या आदेशों तक सीमित नहीं है, अपितु इसके अन्तर्गत प्लीडिंग्स भी आती हैं, चाहे वे न्यायसंगत हों या न हों 51 उच्चतम न्यायालय के अनुसार
‘‘चौथा अपवाद यह कहता है कि किसी न्यायालय की कार्यवाहियों की सारत: सही रिपोर्ट प्रकाशित करना मानहानि नहीं है किन्तु विधान मण्डल या संसद् की कार्यवाहियों के सम्बन्ध में इस तरह की छूट नहीं देता।”52 ।
टी० सतीश वी० पई बनाम नारायण नागप्पा नायक53 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि एक बार जब भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराध कारित करने की बाबत प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज करा दी जाती है; और लोक प्राधिकारी उसका संज्ञान कर लेते हैं और आवश्यक कानूनी कार्यवाही आरंभ कर देते हैं, तो समाचार पत्रों में अपराध की बाबत प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के तथ्यों को प्रकाशित करना अवमानना के
48. मैक्लीयोड, आई० एल० आर० 3 इला० 342.
49. 2002 क्रि० लॉ ज० 1792 (एस० सी०).
50. यू० पी० ह्वीगन, ए० आई० आर० 1940 रंगून 21.
51. के० हरेन्द्र, 1973 क्रि० लॉ ज० 1637.
52. डॉ० जे० सी० घोष, ए० आई० आर० 1961 सु० को० 613.
53. 2002 क्रि० लाँ ज० 4416 (कर्ना०).
समतुल्य नहीं होगा। ऐसे समाचार के रूप में न्यायालय की कार्यवाहियों का प्रकाशन निश्चित रूप से भारतीय संहिता की धारा 499 के चौथे अपवाद के अधीन आएगा और पत्रकार के विरुद्ध विधिक कार्यवाही कायम नही होगी
अपवाद 5-न्याय-प्रशासन सम्पूर्ण जनता के हि जरी के विचारों तथा साक्षियों के साक्ष्यों पर उचित टिप्पणी आवश्यक चरित्र का हनन नहीं होना चाहिये और न ही उनके विरुद्ध अपराध पत्रकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने टा भी जायेगा।54
अपवाद 6-किसी ऐसी कृति के गुणागुण के विषय में जिसे उसके कर्ता ने लोक के निर्णय के लिये रखा हो, या उसके कर्ता के शील के विषय में जहाँ तक कि उसका शील ऐसी कृति में प्रकट होता है, न कि
यसे आगे कोई राय, सदभावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है। इसके अन्तर्गत साहित्य, कला, चित्रकारी, पब्लिक में दिये गये भाषण, ऐक्टिंग, गायन इत्यादि विषयों पर प्रकाशित पुस्तकों की आलोचनायें भी आती हैं। किन्तु यह आवश्यक है कि आलोचना सदभाव में की गयी हो तथा उचित हो।
अपवाद 7-किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर कोई प्राधिकार रखता हो, जो या तो विधि द्वारा प्रदत्त हो या उस अन्य व्यक्ति के साथ की गयी किसी विधिपूर्ण संविदा से उद्भूत हो, ऐसे विषयों में जिनसे कि ऐसा विधिपूर्ण प्राधिकार सम्बन्धित हो, उस अन्य व्यक्ति के आचरण की सद्भावपूर्वक की गयी कोई परिनिन्दा मानहानि नहीं है। एक प्रकरण में एक म्युनिसिपल इन्जीनियर ने म्युनिसिपैलिटी को यह सूचना दिया कि खाद्य पदार्थ का पूरा स्टाक ठीकेदार उठा ले गया है। यह अभिनिर्णीत हुआ कि यदि यह सूचना सद्भावपूर्वक दी गयी थी तो अपवाद 7 का लाभ इंजीनियर को मिलेगा।55 पुलिस द्वारा की जा रही छानबीन के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा किया गया वक्तव्य जिसमें किसी व्यक्ति के किसी अपराध में हिस्सा लेने के सम्बन्ध में सन्देह व्यक्त किया गया था मानहानि के तुल्य नहीं होगा।6।
हर्ष मेन्दीरत्ता बनाम महाराज सिंह57 के वाद में अर्जुन लाल मेन्दीरत्ता संयुक्त राष्ट्र संघ के दिल्ली स्थित खाद्य और कृषि संगठन के दिल्ली स्थित कार्यालय में प्रोजेक्ट निदेशक के सहायक के रूप में कार्यरत था और वादी उसकी पत्नी थी। वादी ने प्रतिवादी प्रोजेक्ट निदेशक पर यह आरोप लगाया कि उसने उसके पति को निदेशक के सहायक के रूप में कार्य भार नहीं दिया और उसे अनेक प्रकार प्रताड़ित करता था। यह भी आरोपित है कि प्रतिवादी महाराज सिंह ने यह मत व्यक्त किया था कि श्री मेन्दीरत्ता को स्वीकार करने के अलावा उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था जिसे उसने अत्यन्त अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया था और प्रतिवादी का यह कथन अर्जुन लाल मेन्दीरत्ता की दक्षता को कमतर आंकने वाला है अतएव मानहानिकारक है जिससे वादी एवं उसके परिवार को मानसिक उत्पीड़न, वेदना और घोर व्यथा (agony) कारित हुयी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी अधिकारी द्वारा अपने अधीनस्थ की दक्षता पर सामान्य टिप्पणी करना भा० द० संहिता के अधीन मानहानि गठित नहीं करता है क्योंकि प्रतिवादी का यह कथन मेन्दीरत्ता अथवा वादी के कार्य, चाल चलन, ख्याति अथवा चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि वादी का आरोप नहीं है कि प्रतिवादी ने मेन्दीरत्ता के विरुद्ध उसके व्यक्तिगत चरित्र अथवा नैतिक अध:पतन के सम्बन्ध में टिप्पणी नहीं की है। अतएव प्रतिवादी का कथन मानहानि का श्रेणी में नहीं आता है।
अपवाद 8-इस अपवाद के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक हैं
54. वुडगेट बनाम राइड आउट, (1865) 4 एम० एण्ड एफ० 202, 216.
55. जे० एन० मुकर्जी, ए० आई० आर० 1934 पटना 548.
56. जी० आर० डी० अग्रवाल, ए० आई० आर० 1950 नाग० 20.
57. 2002 क्रि० लॉ ज० 1894 (दिल्ली).
1. यह कि जिस व्यक्ति के समक्ष अभियोग लगाया गया था, वह उस व्यक्ति के ऊपर जिसके विरुट अभियोग लगाया गया था, विधिपूर्ण प्राधिकार रखता हो,
2. यह कि अभियोग सद्भाव में लगाया गया था।58 ।
इस अपवाद के लिये आवश्यक है कि शिकायत वास्तविक हो तथा किसी को उपहति कारित करने के आशय से न की गयी हो। किसी सिपाही से की गयी शिकायत विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है अत: इस अपवाद के अन्तर्गत नहीं आयेगी।59 प्रथम सूचना रिपोर्ट में दिया गया कोई वक्तव्य इस अपवाद के अन्तर्गत तभी आयेगा जबकि अभियोग लगाने वाले व्यक्ति ने सद्भाव में ऐसा अभियोग लगाया हो ।60 किसी समाचार-पत्र में लगाया गया अभियोग इस अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता।6।।
अपवाद 9- जहाँ अपने या अन्य किसी व्यक्ति के हित की संरक्षा के लिये किसी व्यक्ति द्वारा सद्भावपूर्वक लगाया गया लांछन, इस अपवाद के अन्तर्गत आता है, लांछन लगाने वाले व्यक्ति का हित वास्तविक तथा विधिक होना चाहिये।62 जहाँ किसी हिन्दू विधवा के बदले कोई नोटिस जारी की जाती है। जिसमें अभियुक्त के विरुद्ध आपराधिक न्यास भंग का आरोप लगाया गया है और अभियुक्त का यह जवाब है। कि वह विधवा अनैतिक जीवन व्यतीत कर रही है ऐसी स्थिति में यह अपवाद लागू होगा।63 यदि लांछन आधार रहित तथा सत्यविहीन है परन्तु लोक कल्याण हेतु सद्भाव में लगाया जाता है तो अभियुक्त को इस अपवाद का लाभ मिलेगा।64 ।
एल० सी० रणधीर बनाम गिरधारी लाल65 के बाद में गिरधारी लाल इण्डियन ब्यूरो आफ माइन्स का सेवाच्युत कर्मचारी था। उसने ब्यूरो कण्ट्रोलर को एक पत्र लिखा जिसमें उसने अपीलार्थी की आर्थिक स्थिति तथा उसके क्रिया-कलापों का उल्लेख किया। अपीलार्थी के मतानुसार इस पत्र द्वारा उसकी मानहानि की गयी थी क्योंकि पत्र विद्वेष के कारण उसके सम्भावित पदोन्नति के अवसर को नष्ट करने के उद्देश्य से लिखा गया था। पत्र में उसके चरित्र पर लांछन लगाया गया था। पत्र से जाहिर था कि अपीलार्थी भ्रष्टाचार का सहारा लेकर धन संग्रह कर रहा है। लांछन को लोकहित के लिये उपयोगी माना जा सकता है क्योंकि वह एक सरकारी समुत्थान में निरीक्षक के पद पर कार्यरत था और यह सदैव लोकहित में है कि पद बिना किसी धब्बे के हो एवं उस पद को कोई ऐसा व्यक्ति धारण न करे जो भ्रष्ट है। यह सिद्ध करने के लिये कि लांछन सत्य है। तथा सद्भाव में लगाया गया था केवल यह सिद्ध करना पर्याप्त नहीं है कि अभियुक्त इसे सत्य समझता था। अभियुक्त का ऐसा विश्वास किसी उचित आधार पर आधारित होना चाहिये और यदि लांछन लगाने के लिये पूर्व अभियुक्त ने उचित ध्यान नहीं दिया था या सावधानी नहीं बरती थी तो उसका सद्भाव का तर्क विफल हो जायेगा। इस प्रकरण में अपीलार्थी के वरिष्ठ अधिकारी को जिन परिस्थितियों में अभियुक्त ने पत्र लिखा था तथा यह तथ्य कि अभियुक्त विद्वेष से अभिप्रेरित था, का सिद्ध न हो पाना एवं अपीलार्थी की यह संस्वीकृति कि अधिकांश सामान जो उसने खरीदा था; पत्र में उल्लिखित तिथियों के बीच खरीदे गये थे, इस बात की ओर संकेत करते हैं कि उसने पर्याप्त सावधानी बरतते हुये पत्र लिखा था। अभियुक्त किसी भी दशा में दूरदर्शी नहीं कहा जा सकता। इस बात की पूर्ण सम्भाव्यता है कि उसने सद्भाव में कार्य किया था। अभियुक्त मानहानि के लिये दण्डनीय नहीं होगा।
अपवाद 8 तथा 9 में अन्तर– अपवाद 8 में जिस व्यक्ति के समक्ष अभियोग चलाया जाता है उसे विधिपर्ण प्राधिकार से युक्त होना चाहिये जिससे वह अभियोग की विषय-वस्तु पर अपना निर्णय दे सके। जबकि अपवाद 9 के अन्तर्गत ऐसे किसी तथ्य.की आवश्यकता नहीं होती। अपवाद 9 के अन्तर्गत इतना ही पर्याप्त होगा कि अपने, या किसी दूसरे या लोक-कल्याण हेतु सूचना दी गयी है 66
58. इन रे० के० अंजनीयालू; 17 क्रि० लॉ ज० 381.
59. उपरोक्त सन्दर्भ,
60. संघवी चम्पक लाल ओगंड, ए० आई० आर० 1955 सी० 10.
61. चन्द्र शेखर पिल्लई, (1964) 2 क्रि० लॉ ज० 549.
62. चमन लाल, ए० आई० आर० 1970 सु० को० 137.
63. । सन्कम्मा, ए० आई० आर० 1925 मद्रास 246.
64. इन रि हरीनारायण, 1963 एम० पी० 60.
65. 1978 क्रि० लाँ ज० 879.
66. कंवललाल, ए० आई० आर० 1963 सु० को० 1317.
अधिवक्ता-अधिवक्ता के वक्तव्य में यदि स्पष्ट विद्वेष या मर्यादाविहीनता या वैयक्तिक प्रयोजन नास्थित है तो अधिवक्ता इस अपवाद के अन्तर्गत प्रतिक्षित है। सामान्यतया न्यायालय यह उपधारित करते हैं कि अधिवक्ता द्वारा अपमानजनक विषय का प्रकाशन सद्भाव में हुआ था।
साक्षी-किसी साक्षी को उसके द्वारा दिये गये वक्तव्य के सम्बन्ध में पूर्ण उन्मक्ति नहीं प्राप्त है। सीमित उन्मक्ति अपवाद 1 या 9 के अन्तर्गत प्राप्त है ।08 यदि किसी साक्षी को कोई जवाब देने के लिये ला किया जाता है और वह बाध्य होकर जवाब देता है तो उसे इस अपवाद का लाभ मिलेगा 69
पक्षकार-वाद के पक्षकार यदि अपने हितों की रक्षा हेतु सद्भावपूर्वक लांछन लगाते हैं तो उन्हें इस अपवाद का संरक्षण मिलेगा 170 ।
न्यायाधीश-न्यायिक कार्यवाही सम्पादित करते समय न्यायाधीश धारा 77 के अन्तर्गत संरक्षित है। यदि न्यायाधीश किसी साक्षी के आचरण की भर्त्सना सद्भाव में करता है तो वह प्रतिरक्षित होगा। किसी न्यायाधीश के विरुद्ध मानहानि के लिये कोई कार्यवाही प्रारम्भ नहीं की जा सकती भले ही न्यायिक कार्यवाही के दौरान उसके द्वारा प्रयुक्त शब्द विद्वेषपूर्ण एवं असत्य हो तथा बिना युक्तियुक्त कारण के कहे गये हों।71
क्लब कमेटी-किसी सामाजिक क्लब के सदस्य इस अपवाद के अन्तर्गत संरक्षित हैं भले ही उनके द्वारा प्रकाशित वस्तु असत्य हो क्योंकि ऐसे संरक्षण के अभाव में इन संस्थाओं के लिये कार्य करना असम्भव होगा।
प्रतिवेदन- यदि कोई अधिकारी अपने उच्चाधिकारी के आदेश से अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कोई प्रतिवेदन करता है और प्रतिवेदन यदि सावधानीपूर्वक तथा उचित कारण से किया गया है तो वह अधिकारी इस अपवाद के अन्तर्गत प्रतिरक्षित है। किन्तु पूर्णतया असत्य प्रतिवेदन संरक्षित न होगा।72
विधायक-संसद या राज्य विधान-मण्डल में दिये गये भाषणों को पूर्ण उन्मुक्ति प्रदान की गयी है। धारा 499 के अपवाद पूर्णतया विस्तृत हैं, उन्हें परिवद्धित नहीं किया जा सकता।73
अपवाद 10- एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध सद्भावपूर्वक सावधान करना मानहानि नहीं है, परन्तु यह तब जबकि ऐसी सावधानी उस व्यक्ति की भलाई के लिये हो जिसे वह दी गयी हो, या किसी ऐसे व्यक्ति की भलाई के लिये जिससे वह व्यक्ति हितबद्ध हो या लोक-कल्याण के लिये आशयित हो।74 यह आवश्यक है कि लांछन सद्भाव में लगाया गया हो।
500. मानहानि के लिए दण्ड– जो कोई किसी अन्य व्यक्ति की मानहानि करेगा, वह सादा कारावास से जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
टिप्पणी
यह धारा मानहानि के अपराध हेतु दण्ड का विधान करती है। रेखाबाई बनाम दत्तात्रेय75 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि जहाँ मानहानि का अपराध एक पत्र के द्वारा कारित किया जाता है वहाँ मामले का विचारण, चाहे वहाँ जहाँ पत्र लिखा गया और डाक में डाला गया है अथवा जहाँ वह प्राप्त हुआ और पढ़ा गया। है, किया जा सकता है।
67. उपेन्द्र नाथ बागची, 9 क्रि० लॉ ज० 165.
68. ई० पी० रेड्डी, ए० आई० आर० 1926 मद्रास 236.
69. नारायण अय्यर, ए० आई० आर० 1951 मद्रास 34.
70. सयीद अली, ए० आई० आर० 1925 रंगून 360.
71. रमन नायर बनाम सुब्रमनियम अय्यर, (1893) 17 मद्रास 87.
72. राजनारायन सेन, (1870) 6 बंगाल लॉ रि० 42.
73. (1969) 1 एस० सी० सी० 37.
74. एच० पी० वैद्य, ए० आई० आर० 1930 कल० 645.
75. 1986 क्रि० लाँ ज० 1797.
501. मानहानिकारक जानी हुई बात को मुद्रित या उत्कीर्ण करना- जो कोई किसी बात को यह जानते हुए या विश्वास करने का अच्छा कारण रखते हुए कि ऐसी बात किसी व्यक्ति के लिए मानहानिकारक है, मुद्रित करेगा या उत्कीर्ण करेगा, वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
टिप्पणी
यह धारा किसी अपमानजनक वस्तु के मुद्रक या उत्कीर्णक को दण्डनीय बनाती है। ऐसे व्यक्ति प्रमुख अपराधी के रूप में दण्डनीय होते हैं न कि दुष्प्रेरक के रूप में। इस धारा के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि मुद्रक या उत्कीर्णक यह जानता हो या विश्वास करने का कारण रखता हो कि मुद्रित या उत्कीर्ण वस्तु अपमानजनक है। इस धारा के अन्तर्गत प्रकाशक भी दण्डनीय है।76 इस अपराध के दो तत्व हैं
(1) किसी मानहानिकारक विषयवस्तु का मुद्रण या उत्कीर्णन;
(2) अभियुक्त यह जानता हो या ऐसा विश्वास करने का कारण रखता हो कि विषय-वस्तु
मानहानिकारक है।
502. मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ का बेचना– जो कोई किसी मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ का, जिसमें मानहानिकारक विषय अन्तर्विष्ट है, यह जानते हुए कि उनमें ऐसा विषय अन्तर्विष्ट है, बेचेगा या बेचने की प्रस्थापना करेगा, वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से दंडित किया जाएगा।
टिप्पणी
यह धारा, धारा 501 की प्रतिपूर्ति करती है। इसके अन्तर्गत मानहानिकारक विषय-वस्तु के विक्रेता को दण्डनीय बनाया गया है।
अवयव-इसके निम्नलिखित अवयव हैं
(1) किसी मुद्रित या उत्कीर्ण पदार्थ को बेचना या बेचने का प्रस्ताव करना,
(2) यह ज्ञान कि ऐसे पदार्थ में मानहानिकारक विषय अन्तर्विष्ट है।
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