Indian Penal Code Mental Element in Crime LLB 1st Year Notes
Indian Penal Code Mental Element in Crime LLB 1st Year Notes:- Mental Element in Crime Part for Indian Penal Code LLB 1st Year 1st Semester Book Important topic Notes Study Material in Hindi and English Language Online PDF Download. LLB Books for CCS and Delhi University Online PDF Download.
III
अपराध में मानसिक तत्व (MENTAL ELEMENT IN CRIME)
दुराशय का अर्थ-हमारी विधि पद्धति की प्रमुख विशेषताओं में एक यह है कि किसी व्यक्ति को अपराध के लिये दिया जाने वाला अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ मानसिक स्थितियों पर भी निर्भर करता है। जहाँ वे अपेक्षित हैं वहाँ उनकी अनुपस्थिति दायित्व को शून्य कर देती है। इन दशाओं को नकारात्मक रूप में भली-भाँति व्यक्त किया जा सकता है-यथा क्षमाकरणीय दशायें।24। किसी व्यक्ति की दोषसिद्धि उसके कुछ बाह्य कार्यों जिन्हें विधि निषिद्ध करता है पर निर्भर नहीं करती, अपितु उसकी दोषसिद्धि कृत्य को एक निश्चित मन:स्थिति या मनोभाव से करने के कारण होती है।25 आपराधिक विधि में इन्हें मानसिक तत्व (Mental element) के रूप में जाना जाता है अर्थात् किसी विशिष्ट ढंग से कार्य करते हुये उसने किसी परिणाम को सोच लिया था या उस जैसे परिणाम की सम्भाव्यता का उसे पूर्वानुमान हो गया था। अत: किसी कार्य को अपराध होने के लिये दूषित मन से उसका किया जाना आवश्यक है। मात्र कृत्य किसी व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता जब तक उसका आशय ऐसा न रहा हो (Actus non facit reum zist mens sit rea), यह प्राकृतिक न्याय (natural justice) का एक सुविदित सिद्धान्त है। कोई व्यक्ति आपराधिक प्रकृति की कार्यवाही में तब तक दण्डित नहीं किया जा सकता जब तक यह न साबित कर दिया जाय कि उसका मन दूषित था।26 प्राचीन काल में विचारण (Trial) इस मौलिक उपधारणा पर आधारित हुआ करता था कि लगभग प्रत्येक प्रकरण में ऐसा माना जाना चाहिये कि अभियुक्त ने जो कुछ किया है उसे करने का उसका आशय अवश्य रहा होगा। प्राचीन आंग्ल दण्ड विधि का प्रारम्भ कठोर दायित्व (strict liability) के सिद्धान्त से हुआ था, क्योंकि उन दिनों अपराध (Crime) तथा अपकृत्य (Tort) में सुस्पष्ट भेद नहीं किया गया था तथा दण्ड मुख्यत: अपकारित (wronged) व्यक्ति को प्रतिकर स्वरूप देय धन हुआ करता था। अत: किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति, जहाँ तक विचारण तथा दण्ड का सम्बन्ध है, अनावश्यक विषय थी। किन्तु वाद में प्रतिकर का स्थान दण्ड ने ले लिया और तब से ही अपराध करते समय अपराधी के मनोभाव को महत्व दिया जाने लगा। समय बीतने के साथ ही साथ अपराध के एक अनिवार्य तत्व के रूप में आपराधिक मनोभाव (Mens-rea) की अवधारणा दृढ़तर होती गयी। इस प्रकार कृत्य (act) और आशय (intention) का समुच्चय अपराध कहलाता है। अतः कार्य तथा आशय दोनों का संगामी होना आवश्यक है।27 कृत्य अपने आप में दोषमुक्त नहीं है परन्तु यदि कार्य निषिद्ध है तथा विशिष्ट आशय से किया गया है तो वह अपराध होगा। दुराशय (evil intent) के अभाव में कोई भी
- हार्ट, एच० एल० ए०; पनिशमेन्ट एण्ड रेस्पान्सिबिलिटी, लॉ, प० 28.
- हार्ट, एच० एल० ए०; दि मौरलिटी आफ दि क्रिमिनल लॉ, पृ० 6.
- क्रिशोल्म बनाम डोल्टन, 22 क्वीन्स बेन्च डिवीजन, १० 739.
- फाउलर बनाम पैजेट. (1789) 7 टी० भारत ए० ८।।
कार्य चाहे छोटा हो या बड़ा, अपराध नहीं हो सकता।28 अपराध के लिये दायित्व किसी इच्छित (willed) या ऐच्छिक (voluntarv) कार्य तथा उस कार्य के पीछे निहित विशिष्ट आशय पर ही निर्भर होना चाहिये 29 बहुत अधिक निष्ठा तथा स्वेच्छा से किया गया कार्य किसी विशिष्ट परिणाम या निष्कर्ष की ओर निर्दिष्ट हुआ। करता है। जब कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट परिणाम हेत कार्य करता है तो उसे उस आशय से कार्य करता हुआ कहा जाता है। यदि परिणाम पूर्ण इच्छित नहीं है तो कार्य ऐच्छिक हो सकता है, साभिप्राय (intentional) नहीं है क्योंकि किसी भी आपराधिक दायित्व के लिये ऐच्छिक कार्य का होना आवश्यक है। यह प्रस्थापना इस उक्ति से व्युत्पन्न होती है-”मेरे द्वारा मेरी इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मेरा नहीं है।” यह उक्ति मनोभाव के सिद्धान्त का समर्थन करती है क्योंकि कोई भी व्यक्ति भय या विवशता के अधीन किये गये कार्य के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उदाहरण के लिये, यदि ‘अ’ ‘ब’ को पकड़ लेता है तथा उसे बन्दूक दिखाकर ‘स’ के घर का ताला तोड़ने के लिये बाध्य करता है तो यहां ‘ब’ का कार्य न तो इच्छित है और न ही साभिप्राय। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत क्लिष्ट प्रकरण वे हैं जो ऐच्छिक हैं और जिनमें दुराशय के तथ्यों की वास्तविक स्थिति के बारे में भूल या भारतीय दण्ड संहिता के अध्याय 4 में वर्णित गुणों के आधार पर नकार दिया जाता है। आप सड़क पर टहल रहे हैं। कोई व्यक्ति यकायक आप की ओर दौड़ता है तथा लाठी से प्रहार करता है जिससे आप घायल हो जाते हैं। बाद में जब आप पाते हैं कि वह व्यक्ति विकृत मस्तिष्क का था तो आप की बदले की भावना स्वतः कम हो जाती है क्योंकि आप जानते हैं कि उसकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी तथा उसमें यह सोचने की क्षमता नहीं थी कि यह आप पर प्रहार कर आप को घायल कर रहा है। परन्तु आप की भावना उस व्यक्ति के विरुद्ध अलग किस्म की होगी जिसने जानबूझ कर आप पर प्रहार किया है। कार्य वही हो सकता है, परिणाम भी वही हो सकता है परन्तु फर्क आशय में होता है। अतः क्षति पहुंचाने का आशय महत्वपूर्ण होता है। मनोभाव के सिद्धान्त की मूल आवश्यकता यह है कि अभियुक्त अपने कृत्य के उन सारे तत्वों से अवगत हो जो उसे अपराध बनाते हैं तथा जिसका वह अभियुक्त होता है।31 अर्थात् उसने कार्य के बारे में निश्चयतः सोचा था या वह असावधान था, चाहे उसने कोई कृत्य किया हो या नहीं परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि इस बात को भी जाने कि जिस कार्य को वह करने जा रहा है, एक अपराध है। साधारणतया कोई व्यक्ति आपराधिक रूप में अपने कृत्य के उन परिणामों के लिये जिन्हें उसने पहले से ही भाँप लिया था, उत्तरदायी है। ऐसे परिणामों के लिये दायित्व जिन्हें उसे पहले ही जान लेना चाहिये था पर वह न जान सका, असावधानी या उपेक्षा के लिये दायित्व कहते हैं। केवल कुछ प्रकरणों में भी। असावधानी के लिये आपराधिक दायित्व होता है, आमतौर पर मन:स्थिति को साबित करना आवश्यक होता मन:स्थिति या मनोभाव किसी अपराध के लिये आवश्यक मानसिक तत्व को इंगित करती है। किसी कार्य को करने की इच्छा या किसी परिणाम को लाना या कुछ प्रकरणों में परिणाम के प्रति अदूरदर्शिता मानसिक तत्व हो सकता है।32 यह मस्तिष्क की वह दोषपूर्ण स्थिति है जिसमें कृत्य का ज्ञान तथा परिणाम का पूर्वानुमान होता है। मन:स्थिति से तात्पर्य मन के एक विशिष्ट कृत्य का ज्ञान तथा परिणाम का पूर्वानुमान होता है। मन:स्थिति से तात्पर्य मन की एक विशिष्ट स्थिति से नहीं है बल्कि यह भिन्न-भिन्न वातावरणों में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है 33 सत्य तो यह है कि मस्तिष्क की एक विशिष्ट स्थिति सभी अपराधों में एक जैसी नहीं होती इसके बावजूद भी वास्तविक अपराध के लिये यह उतनी ही आवश्यक है जितनी अच्छाई के लिये समझ सकें।34
- बिशप, क्रिमिनल लॉ (7वाँ संस्करण), पृ० 287.
- सामंड, जुरिस्थूडेन्स (10वाँ संस्करण) पृ० 366.
- हुदा, प्रिन्सिपल्स आफ क्राइम्स इन ब्रिटिश इण्डिया, पृ॰ 172.
- जे० सी० स्मिथ, दि गिल्टी माइण्ड इन दि क्रिमिनल लॉ, (1960) 76 एल० क्यू० आर० पृ० 1.
- विलियम्स जी०, क्रिमिनल लॉ, पृ० 29.
- सायर, मेन्स रिया, 45 हार्वर्ड लॉ रिव्यू, (1932) पृ० 402.
- पूर्वोक्त सन्दर्भ।
प्रवृत्ति या चेष्टा (Volition)- प्रत्येक कार्य के पूर्व जिसे हम अपनी चेतना में करते हैं, एक । मानसिक अवस्था कार्य करती है। कोई भी शारीरिक कृत्य शारीरिक गति के बिना सम्भव नहीं है को जन्म देने वाली हर शारीरिक गति के पूर्व उस गति के लिये एक इच्छा होती है। आस्टिन के गतियाँ इच्छाओं का अनुसरण करती हैं। वे तभी गतिशील होती है जब हम उनके गतिशील होने की करते हैं। कामना ही चेष्टाएँ हैं और इच्छा के फलस्वरूप हुई गतिया कृत्य है। ऐसा माना जाता है कि चेष्टा तथा कत्य के अतिरिक्त एक इच्छा भी है जो दोनों की जननी है। अभिलाषा या कामना (desire) को इच्छा की एक कति माना जाता है। जब हम किसी गति की इच्छा करते हैं तो हम उसकी कामना करते हैं और जब अभिलाषा के पूर्ण होने की कल्पना करते हैं तो हम आशा करते हैं कि कल्पित गति प्राप्त होगी। अभिलाषायें । जिनका कि कृत्य अनुसरण करता है मात्र ऐसी अभिलाषायें हैं जो बिना किसी बाहरी साधन के अपना लक्ष्य पूरा करती हैं। कार्य की हमारी अभिलाषा जिसके तत्काल बाद कार्य कारित होता है, वह अभिलाषा चेष्टा है, जिस कार्य की हम इच्छा करते हैं उसके परिणाम की भी हम कल्पना करते हैं। यह काल्पनिक इच्छा प्रयोजन द्वारा कार्य के लिये निश्चित होती है। अभिलाषा जो गति को आरम्भ करती है चेष्टा कही जाती है। जहाँ यह अभिलाषा भय या विवशता के कारण नहीं उत्पन्न होती, कार्य को स्वैच्छिक (voluntary) कार्य कहते हैं। “अभिलषित उद्देश्य के लिये उत्सुकता जो चेष्टा को गतिशील बनाती है प्रयोजन (motive) कहलाती है।” ‘अभिलषित गतियाँ किसी विशिष्ट परिणाम को जन्म देंगी इस तथ्य की सम्भावनायें ही आशय है।”35 हम कार्य की इच्छा करते हैं तथा परिणामों की संकल्पना। इच्छा (Will) स्टीफेन के अनुसार, ”इच्छा, चेष्टा की पर्यायवाची के रूप में बहुधा प्रयुक्त होती है जो किसी स्वैच्छिक कृत्य की पूर्वगामी या उसकी संगामी है।” इच्छा से उनका तात्पर्य या तो किसी विशिष्ट कार्य की चेष्टा जो स्वैच्छिक कार्यवाहियों में एक अवस्था होती है या तर्क स्थायी निर्णय के आचरण का एक विशिष्ट रूप अपेक्षित है, से है और इसका अनुसरण करने के आशय (intention) से युक्त है जो समय-समय पर कम या अधिक संख्या में विशिष्ट चेष्टाओं को जारी करता है। आशय और प्रयोजन (Intention and Motive)—स्टीफेन के अनुसार, “आशय इच्छा की वह कार्यवाही है जो किसी प्रत्यक्ष कार्य को निर्देशित करता है।” ‘प्रयोजन वह संवेग है जो इच्छा की कार्यवाही को प्रोत्साहित करता है या इच्छुक व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य है। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति, दूसरे को मार डालता है तो यहाँ आशय उस कृत्य को नियंत्रित करता है जिसके कारण मृत्यु हुई, प्रयोजन वह उद्देश्य है। जो अपराधकर्ता के मस्तिष्क में था यथा किसी अभिलाषा की तुष्टि जैसे बदला इत्यादि।”36 आशय किसी। मनुष्य की वह मानसिक दशा है, जिसके माध्यम से वह अपने आचरण से सम्भाव्य प्रतिफल का न केवल पूर्वानुमान करता है वरन् वह उसकी कामना (desire) भी करता है 37 | आशय वह प्रयोजन या अभिकल्पना है जिससे कोई कार्य किया जाता है। यह कृत्य का पूर्व ज्ञान है जो अभिलाषा से संलग्न होता है। ऐसे पूर्व ज्ञान तथा अभिलाषायें कृत्य के आधार हैं जो अपनी पूर्ति इच्छा की कार्यवाही द्वारा करते हैं। आशय में कर्ता किसी व्यक्ति को विशिष्ट क्षति पहुँचाने के लिये चुनता है, निर्णय लेता है तथा संकल्पना करता है और उस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उत्कृष्ट तरीकों को नियोजित करता है।38 कोई कृत्य यदि और जहाँ तक तथ्यतः अस्तित्ववान है आशयित है, आशय संगामी अभिलाषा के कारण अपने को तथ्य के रूप में चरितार्थ करता है।39 आशय के लिये यह भी कहा जाता है कि वह किसी प्रत्यक्ष कार्य को निदेशित करने वाली इच्छा का प्रवर्तन (operation) है, प्रयोजन वह भावना है जो इच्छा के प्रवर्तन को प्रोत्साहन करता है-इच्छुक व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य 40 बेन्थम के अनुसार प्रयोजन कोई वह वस्तु है जो
- हुदा, एस० प्रिन्सिपल्स आफ क्राइम्स इन ब्रिटिश इंडिया, पृ० 172.
- स्टीफेन, हिस्ट्री आफ दि इंगलिश क्रिमिनल लॉ, वाल्यूम II.
- चान्सलर बनाम डी० पी० पी०, (1964) ए० सी० 763 एच० एल०,
- हाल, जेरोम; प्रिंसिपल्स आफ क्रिमिनल लॉ (द्वितीय संस्करण) 112.
- सामण्ड जूरिस्पूडेन्स (11वाँ संस्करण) 410.
- स्टीफेन, हिस्ट्री आफ इंगलिश क्रिमिनल लॉ, वाल्यूम II.
किसी संवेदनशील व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित कर उसे किसी अवसर पर कार्य करने दृढत दान – के साधन के रूप में उपयोगी होता है। आशय निकटस्थ उद्देश्य को इंगित करता है जबकि प्रयोजन आशय के मूल में स्थित ट्रष्ट दृष्ट द्र इंगित करता है। दूसरे शब्दों में आशय साधन है और प्रयोजन साध्य है कि जहाँ छ । प्रयोजन की निर्दोषता क्षमा नहीं कर सकता। दुष्प्रयोजन दण्डित नहीं करता, और प्रयोजन क्षमा न त । ‘अ’ ‘ब’ की गाय को वध (slaughter) से बचाने के लिये हटा लेता है। यहाँ ‘अ’ का प्रशन टन है किन्तु वह क्षम्य नहीं है क्योंकि उसने अवैधानिक रूप में ‘ब’ को उसकी गाय से दंचित क्रिस जे धान्छ रूप में उसकी थी। इसी प्रकार यदि कोई निष्पादक (executioner) न्यायालय र प्र – फाँसी देकर अपनी दुर्भावना को सन्तुष्ट करता है, तो वह इस कृत्य के लिये नग्दा न ग न्द्र उसने यह कार्य वैधानिक कर्तव्य के पालन में किया है। इस प्रकार हम देते कि आधि धट | प्रयोजन को महत्व नहीं देता अपितु उसके आशय को । सामण्ड के अनुसार प्रत्छ र क्रन्ट त छ आशय के सन्दर्भ में दो स्पष्ट प्रश्नों को उठाते हैं। इनमें से प्रथम यह है-उसने यह झटं – – से अथवा दुर्घटनावश, तथा दूसरा यह-अगर उसने आशय से किया है तो यों किया? अन्न – – निकटस्थ आशय के छानबीन से सम्बन्धित है-दूसरा उसके दूरस्थ आशय या प्रयोजन केन्द्र है
आस्टिन के अनुसार ‘‘आशय कार्य का लक्ष्य है प्रयोजन जिसका स्रोत है।”८- दृष्ट नट प्रयोजन है।43 निकटस्थ आशय दोषपूर्ण कार्य का सहगामी है। दूरस्थ आशय या प्रयोजन == == == का वह भाग है जो दोषपूर्ण कृत्य की परिधि से बाहर है। वास्तव में प्रयोजन प्राशय क्र ३८- विलियम्स के अनुसार “आपराधिक विधि में ‘आशय’ शब्द का प्रयोग आपराधिक कृय ३२ ः में साधारणतया उपयुक्त माना जाता है और प्रयोजन इस आशय के सन्दर्भ में जिस टर – – किया गया।”46 दुराशय अथवा मन:स्थिति की उत्पत्ति एवं विकास (Origi sad Devel-en Mesrea)–अपराध दुराशय के बिना नहीं हो सकता। लगभग प्रत्येक विधि प्रणाली (L: — * ; सिद्धान्त है कि अपराध के लिये दुराशय आवश्यक है जिसके बिना व्इ – – – – colos “actus non facit reum nisi mens sit rea” 3ft i rift S t e reom linguam non facit nisi mens rea” À And die zur (Leges Henrici) ness किसी मध्यकालीन रचना से प्राप्त किया जिसमें “Linguam” सम्भवतः यः इ ८ ८ *** * इस उक्ति का लाभ बहुत से आंग्ल निर्णयों में उठाया गया। लार्ड केन्यन के अनुसार इ के छ र (natural justice) तथा आंग्ल विधि (English law) का एक सिद्धान्त है – आर० – ३ प्रकरण में लार्ड अरबिंजर ने कहा था कि यह उक्ति कि, कोई व्यक्ति अपराधी नहीं है । – अपराधी न हो, आंग्ल विधि से भी पुरानी है। प्रारम्भिक आंग्ल विधि में दायित्व पूर्ण हुआ करते थे। वहाँ हर व्यक्ति अपने प्रत्येक इरे कर के दिन उसके आस-पास के लोगों पर असर डालता था, विधि के अन्तर्गत उत्तरदायी था. इन ने के कार्य के लिये, चाहे उसने उसे अज्ञानवश या असावधानी से किया हो, उत्तरदादो के इकन थ
- सामण्ड; जूरिस्थूडेन्स, 523.
- आस्टिन, लेक्चर्स आन जूरिसपूडेन्स (4था संस्करण 1879) 165.
- सामण्ड; जूरिस्थूडेन्स 398.
- हाल, जेरोम, जनरल प्रिन्सिपिल्स आफ क्रिमिनल लॉ (द्वितीय संस्करण) :
- हिशलर, दि लॉ आफ क्राइम्स 87 (1939).
- विलियम्स, जी; क्रिमिनल लॉ, 42.
- विशप, क्रिमिनल लॉ (9वाँ संस्करण) 287.
- फाउलर बनाम पैजेट, (1798) 7 टी० आर० 504, पृ० 541.
- (1837) 8 सी० एण्ड पी० 136 पृष्ठ 136.
- पोलक एण्ड मेटलैण्ड, हिस्ट्री आफ इंगलिश लॉ, 470.
- विगमोर, हारवर्ड लॉ रिव्यू, 1894 पृ० 1.
मन:स्थिति की आधुनिक अवधारणा बारहवीं शताब्दी तक अस्तित्ववान नहीं थी, यद्यपि कुछ अ में दण्ड देते समय आपराधिक आशय की पूर्णत: उपेक्षा नहीं की जाती थी। तेरहवीं शताब्दी की आंग्ल । रोमन विधि के ‘अपराध’ (Culpa) तथा ‘करने योग्य’ (Dolus) से प्रभावित हुई। एडवर्ड प्रथम के समय तक शैशव (Infancy) तथा विक्षिप्तता (Insanity) के फलस्वरूप उत्पन्न अयोग्यताओं को बचाव के लिये स्वी कर लिया गया था। एडवर्ड III के शासनकाल तक अवपीड़न (Coercion) को देशद्रोह (Treason) के कुछ मामलों में बचाव के लिये स्वीकार कर लिया गया था तथा यह भी निश्चित हो चुका था कि किसी पशु का मालिक पशु द्वारा की गई क्षति के लिये तभी उत्तरदायी होगा जब यह सिद्ध कर दिया जाय कि पशु की खूखारता (Ferocity) का उसे ज्ञान था। | 15वीं तथा 16वीं शताब्दी के दौरान अपराध के आवश्यक तत्व के रूप में मन:स्थिति को स्वीकार कर लिया गया था यद्यपि इसके विपरीत कुछ उदाहरण मिलते हैं। सामान्य विधि (Common Law) नैतिक दोष पर बल देती थी। बैक्टन लिखते हैं कि ”हमें विचार करना चाहिये कि न्यायिक रूप में या तथ्यत: कोई कृत्य किस आशय से किया गया है ताकि किस प्रकार की कार्यवाही हो तथा कैसा दण्ड हो इसका निरूपण तदनुरूप किया जा सके। यदि इच्छा को अलग कर दिया जाय तो प्रत्येक कार्य तटस्थ हो जायेगा, क्योंकि मन:स्थिति ही कार्य को अर्थ प्रदान करती है। जब तक क्षति पहुँचाने का आशय हस्तक्षेप न करे चुराने के आशय के अभाव में कृत्य चोरी नहीं हुआ।” यद्यपि उक्ति (maxim) मन:स्थिति (Mens rea) लेगिस हेनरीकी (Leges Henrici) में प्रकट हुई थी परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि बैक्टन ने इसका प्रयोग नहीं किया। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द -Voluntas, Nocendi, Animo and Maleficid है। मिरर (Mirror) में इसके समतुल्य नार्मन फ्रेंच का प्रयोग हुआ है जिसमें कहा गया है, “अपराध का पाप कलुषित इच्छा के बिना नहीं हो सकता।”52 हाल ने सर्वप्रथम मन: स्थिति का क्रमबद्ध अध्ययन प्रस्तुत किया। उनके अनुसार दाण्डिक दायित्व के दो प्रमुख विषय समझ या इच्छा की स्वतन्त्रता पर आधारित है 53 कोई व्यक्ति यदि किसी अन्य व्यक्ति को शारीरिक क्षति पहुंचाने के आशय के बिना कार्य करता है तो वह दण्ड के लिये दायी नहीं है।54 वास्तव में दुर्भावना किसी अन्य व्यक्ति को शारीरिक क्षति पहुँचाने के लिये सोद्देश्य आशय (Deliberate Intention) बन गया है 55 हाल स्पष्ट करते हैं कि “इच्छा की स्वीकृति वह है जो मानवीय कृत्य को श्लाघ्य या दोषपूर्ण बनाती है।”56 मन:स्थति के दो तत्व हैं-(क) किसी कार्य को करने का आशय, (ख) उन दशाओं का ज्ञान जो उस कृत्य को दोषपूर्ण बना देती है 57 अत: मन:स्थिति का अर्थ दोषपूर्ण कृत्य करने के आशय और सहगामी आवश्यक तथ्यों के ज्ञान से है 28 अधिकृत रूप में मन:स्थिति का अर्थ सोद्देश्य किया गया कार्य है जो नैतिक रूप से दोषपूर्ण है। जिसमें आवश्यक तथ्यों का सहगामी ज्ञान अन्तर्निहित होता है। यह अर्थ वर्षों तक अस्तित्ववान रहा 59 परन्तु मन:स्थिति की अवधारणा सामान्य रूप से विधि तथा नैतिकता के विकास के साथ बदल गयी। इंग्लैण्ड में सामान्य विधि मन:स्थिति के सिद्धान्त को बहुत से अधिनियमित अपराधों को ध्यान में नहीं रखा गया। प्रारम्भिक अधिनियमों के अन्तर्गत सामान्य दोषों में यह उक्ति अब भी लागू होती है परन्तु आधुनिक अधिनियमित दोषों में इसका व्यापक प्रयोग नहीं हुआ है क्योंकि वे मानसिक तत्व को निर्धारित करते हुये प्रतीत होते हैं जो सजा की पूर्वावश्यकता है 60 परन्तु उपरोक्त स्पष्टीकरण अब सही नहीं प्रतीत होता है। मन:स्थिति के सिद्धान्त को न्यायालयों की कुछ बहसों में देखा जा सकता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि क्षणिक अतिक्रमण के पश्चात् यह सिद्धान्त अधिक
- दि मिरर आफ जस्टिस 138 (सेल्डन सोसाइटी संस्करण, 1893) जेरोम हाल की पुस्तक जनरल प्रिंसिपुल्स ऑफ क्रिमिनल लॉ (द्वितीय संस्करण), पृ० 81 में उद्धृत।
53, 1 हेल पी० सी० 14 (1736).
- पूर्वोक्त सन्दर्भ पृ० 39.
- पूर्वोक्त सन्दर्भ पृ० 451.
- पूर्वोक्त सन्दर्भ पृ० 14-15.
- डेवलिन पैट्रिक, स्टैच्युटरी आफेन्सेज, दि जनरल आफ दि सोसाइटी आफ पब्लिक टीचर्स आफ लॉ, पृ० 213.
- हाल, जेरोम, जनरल प्रिंसिपल्स ऑफ क्रिमिनल लॉ (2 रा० संस्करण) पृ० 83.
59, पूर्वोक्त,
- स्टैलीब्रास, (1936) 52 एल० क्यू० आर० 60.
शक्तिशाली रूप में पुनर्जीवित हुआ है जैसे कि लार्ड गोडार्ड, सी० जे० के कथन से स्पष्ट है-आपराधिक प्रकरणों में सामान्य रूप से प्रयुक्त नियम यह है कि कार्य स्वयं अपराध नहीं होता, जब तक कि उसे आपराधिक आशय से न किया जाय। प्रजा की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कि न्यायालय इस बात को हमेशा ध्यान में रखे कि जब तक कोई अधिनियम या तो स्पष्ट (express) या । विवक्षित (implied) रूप में मन:स्थिति को अपराध के घटक के रूप में अस्वीकार न कर दे तब तक न्यायालय किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिये दोषी न साबित करे जब तक कि उसका मस्तिष्क दूषित न रहा हो।”61 रोड ट्रेफिक अधिनियम, 1930 की धारा 22(2) निर्धारित करती है कि किसी गाड़ी का चालक जो किसी अन्य गाड़ी से लड़ जाती है, दुर्घटना के तथ्य को उपयुक्त अधिकारी के ध्यान में लाये। अपीलकर्ता की गाड़ी का ट्रेलर दूसरी मोटरकार से लड़ गया। इस भिड़न्त की सूचना चालक को नहीं थी फिर भी मजिस्ट्रेट ने उसे दुर्घटना की सूचना न देने के कारण सजा दे दी। इस सजा को रद्द करते हुये लार्ड गोडार्ड ने हार्डिंग बनाम प्राइस के बाद में कहा, “इन दिनों जब अपराधों को अनेक आदेशों एवं विनियमों द्वारा इस हद तक निष्प्रभावी कर दिया जाता है कि अत्यधिक विधि अनुपालनीय प्रजा को भी कभी-कभी विधि के अतिक्रमण को बचाने में कठिनाई होने लगती है, अत: पूर्वापेक्षया इस सिद्धान्त का अनुसरण करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।”62 दुराश्य् तथा सांविधिक अपराध (Mens Rea and Statutory Offences)—क्या इंगलिश कामन लॉ (Common Law) के मन:स्थिति के तत्वों को अधिनियम में परिभाषित प्रत्येक अपराध मुख्य रूप से वहाँ जहाँ इसे एक तत्व के रूप में स्पष्टतः वर्णित नहीं किया गया है, में स्वीकार किया जाना चाहिये? यह प्रश्न इंग्लैण्ड तथा भारत दोनों में ही विवाद का विषय है। इस विषय पर आर० बनाम प्रिंस63 तथा क्वीन बनाम टाल्सन64 के दो महत्वपूर्ण निर्णय हैं। मन:स्थिति की अवधारणा को सांविधिक अपराधों में न्यायाधीशों ने विरचना (Construction) के माध्यम से संसद की संस्तुति के बिना शामिल किया था। इस विषय पर दो विचारधारायें हैं। प्रथम शेराज बनाम रूटजन65 के बाद में न्यायाधीश राइट के निर्णय में शामिल हैं-“प्रत्येक अधिनियम में मन:स्थिति अन्तर्निहित है जब तक कि इसके प्रतिकूल न सिद्ध कर दिया जाय” तथा दूसरी विचारधारा होब्स बनाम विन्चस्टर कारपोरेशन06 के वाद में न्यायाधीश केनेडी के निर्णय में है-“अधिनियम की हमें शाब्दिक रूप में (literally) व्याख्या करनी चाहिये जब तक कि कोई चीज यह न स्पष्ट करे कि मन:स्थिति आवश्यक है।” दोनों ही के अनुसार कुछ परिस्थितियों में मन:स्थिति विवक्षित होती है परन्तु कुछ में नहीं, यद्यपि अधिनियम स्वयं में कोई शब्द ऐसा नहीं है जो मन:स्थिति की स्वीकृति को जाहिर करे किन्तु न्यायाधीश अपने अधिकार से इसे शामिल करते हैं।7। | इस विषय को अच्छी तरह से समझने के लिये कुछ मामलों का विस्तृत अध्ययन लाभप्रद सिद्ध होगा। पहला मामला आर० बनाम प्रिन्स का है। इस प्रकरण में कैदी हेनरी प्रिन्स, अफेन्सेज अगेन्स्ट दि परसन्स ऐक्ट, 1861 की धारा 55 के अन्तर्गत 16 वर्ष से कम उम्र की अविवाहित लड़की एनी फिलिप्स को उसके। पिता की इच्छा के विरुद्ध उसके स्वामित्व से बाहर ले जाने का अभियुक्त है। इंग्लैण्ड में किसी अविवाहित लड़की जो 16 वर्ष से कम उम्र की हो, को उसके पिता या माता या किसी अन्य व्यक्ति जो उसका वैधिक संरक्षक हो, के स्वामित्व से अवैधानिक रूप से अलग करना या इसका प्रयास करना अपराध है। इसमें यह साबित किया गया कि कैदी लडकी को उसके पिता की इच्छा के विरुद्ध उसके स्वामित्व से बाहर ले गया था। या लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम थी। सजा को साबित करने वाली लड़की के स्वयं बयान के अतिरिक्त सार तत्व माजूद थे, यद्यपि पिता ने यह सिद्ध किया था कि लड़की की उम्र 14 वर्ष की थी, परन्तु देखने से
- ब्रेन्ड बनाम वुड, (1946) 62 टी० एल० आर० 462-463.
- हार्डिंग बनाम प्राइस, (1948) आल० ई० रि० 283.
- (1875) एल० आर० 2 सी० सी० आर० 154.
- (1889) 23 क्यू० बी० डी० 168.
- (1895) 1 क्यू० बी० 918.
- (1910) 2 के० बी० 471. ।
- डेवलिन पैट्रिक-“स्टेट्यूटरी पाक-“स्टेट्यूटरी आफेन्सेज” दी जनरल आफ दि सोसाइटी आफ पब्लिक टीचर्स आफ लॉ, 1958 पृ० 208.
वह् इससे अधिक उम्र की प्रतीत होती थी तथा जूरी ने भी समुचित साक्ष्याभाव के आधार पर यह पाया कि बडो ने इतिवादी को अपनी उम्र 18 वर्ष बतायी थी, जिस पर उसने विश्वास किया और ऐसा विश्वास समुचित भी था। यह तर्क दिया गया कि यद्यपि अधिनियम की धारा 55 के अधीन यह अपराध नियत हुआ था, अपराध होने के लिये इस तत्व के ज्ञान पर बल नहीं देती कि लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम थी, इसके बावजट १ कासन लों का मन:स्थिति का सिद्धान्त लागू होगा, क्योंकि दुराशय के अभाव में सजा नहीं हो सकती। ऐसा माना गया कि कैदी का यह विश्वास कि लड़की 18 वर्ष की है उसे किसी प्रकार का बचाव नहीं प्रदान कर सकता। ब्लैकबर्न जज ने निम्नलिखित निर्णय दिया-“इस प्रकरण में जैसा जूरी ने पाया है हमें वैसा हो स्वीकार करना चाहिये कि कैदी ने एक अविवाहित लड़की को उसके पिता की इच्छा के विरुद्ध उसके स्वामित्व से हटाया और वास्तव में वह लड़की 16 वर्ष से कम उम्र की थी, किन्तु कैदी ने समुचित आधार पर सद्भावना से विश्वास किया था कि लड़की की उम्र 18 वर्ष की है। यह प्रश्न नहीं उठता है कि कौन सा ऊत्य उसके पिता के स्वामित्व से हटाना होता है और न ही वे कौन सी परिस्थितियाँ हैं जो यह साबित कर सकती हैं कि इस तरह हटाना अवैध नहीं है और न ही कहाँ तक एक ईमानदार किन्तु भ्रमित विश्वास कि। ऐसी परिस्थितियाँ जो हटाने को उपयुक्त साबित करेंगी, अस्तित्ववान थीं, क्षमा प्रदान कर सकती हैं। चूंकि मामला सुरक्षित कर लिया गया है, अत: हमें यह साबित हुआ मान लेना चाहिये कि लड़की अपने पिता के स्वामित्व में थी और उसने उसे यह जानते हुये भी हटाया। किन्तु उसने उसके पिता के अधिकारों का। अतिचार (Tresspass) किया तथा इस तरह की कार्यवाही करने के लिये क्षमा किये जाने का उसके पास कोई बहाना नहीं था।” यहाँ प्रश्न इस तक सीमित हो गया है कि क्या धारा 55 के शब्द ”जो कोई किसी अविवाहित लड़की जो 16 वर्ष से कम उम्र की है, को उसके पिता के स्वामित्व से हटाया है” को इस प्रकार पढ़ा जाना चाहिये कि वह 16 वर्ष के अन्दर थी तथा वह जानता था कि वह उस उम्र से कम थी। अधिनियम में इस प्रकार का कोई शब्द नहीं है और न ही दोषपूर्ण’ या जानबूझ कर या उसी तरह का अर्थ रखने वाले किसी शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः कैदी के पक्ष में तर्क पूर्णतः इस पर आधारित होना चाहिये कि सामान्य रूप में अपराध के लिये दूषित मस्तिष्क का होना आवश्यक है और जहाँ अधिनियम कोई अपराध कायम करता है वहाँ यह माना जाना चाहिये कि विधानांग का आशय जानबूझकर” को सम्मिलित करना था तथा अधिनियम को इस प्रकार गढ़ा जाना चाहिये जैसे वह शब्द इसमें शामिल हो जब तक कि इसके विपरीत आशय न स्पष्ट हो। इस अवसर पर हमें यह छानबीन नहीं करनी है कि अर्थान्वयन (Construction) के सिद्धान्त ऊपर कही गयी पर्याप्त दूरी तक जाते हैं, क्योंकि हमारा यह विचार है कि विधानांग यह अपेक्षा करता है कि इस तरह के अपहरण के लिये पर्याप्त दण्ड मिलना चाहिये जब तक कि लड़की की उम्र ऐसी न हो कि उसकी सहमति इस कृत्य को क्षमाकर दे इसकी अपेक्षा के बिना कि वह जानता था कि लड़की प्रभावकारी सहमति देने के लिये बहुत हो छोटी उम्र की है। परन्तु जिसकी अधिनियम परिकल्पना करता है और जिसे हम दोष कहते हैं किसी नाजुक उम्र की महिला जिसे लड़की कहना उपयुक्त होगा, को वैधानिक संरक्षण से हटाना है तथा उसे दूसरे के स्वामित्व एवं संरक्षण में कहा जा सकता है। इसे सिद्ध करने के लिये तर्क की आवश्यकता नहीं है; यह मामले को स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है। अधिनियम में विधानांग ने अधिनियमित किया है कि यदि कोई व्यक्ति यह कृत्य करता है तो वह इस जोखिम से करता है कि लड़की की उम्र 16 वर्ष से कम हो सकती है। यह विचार मन स्थिति के सिद्धान्त को पूर्णतः स्पष्ट करता है। यदि अपहरणकर्ता को विश्वास है कि उसने पिता का सह प्राप्त किया था, यद्यपि गलत ढंग से ही तो उसका मनोभाव वैसे ही अस्तित्ववान नहीं होगा, जो नहीं जानता कि लड़की किसके स्वामित्व या संरक्षण में है। ऐसे मामलों में वह यह नहीं ज वह अधिनियम द्वारा निषिद्ध कार्य कर रहा है। एक ऐसा कार्य जिसे, यदि वह जानता कि स्वामित्व और संरक्षण या नियन्त्रण में है, वह जानेगा कि अपराध है या नहीं, उसी तरह जस, वह 16 वर्सकी है या नहीं। उसे नहीं मालूम होगा कि वह स्वयं में दोषपूर्ण कृत्य कर रहा है, यदि वैधिक कारण के अभाव में कार्य किया गया हो तो कर्ता का आशय चाहे जो भी हो कृत्य अपराध होगा। इस प्रकरण में न्यायालय ने उन कृत्यों, जो स्वयं में निर्दोष थे, परन्तु अधिनियम द्वारा दण्डनीय घोषित किये गये हैं तथा उन कृत्यों, जो पुर्णतः दूषित तथा नैतिकता के विरुद्ध थे, के अन्तर को स्पष्ट किया है। पहले वाले में तथ्यों के अस्तित्ववान होने में एक समुचित विश्वास, यदि सत्य है तो मामले को अधिनियम के दायरे से बाहर कर देगा और वह एक उत्तम बचाव साबित होगा। परन्तु बाद वाले में ऐसा विश्वास महत्वहीन है जब तक कि विधि उसे वस्तुतः अन्यथा नहीं बना देता। वह व्यक्ति जो इस प्रकार के भ्रमित विश्वास के अधीन कार्य करता है, अपने कृत्य के परिणामों को भोगने के लिये बाध्य है। दूसरे मामलों में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। एक व्यक्ति जो किसी पुलिस अधिकारी को उसके कार्य के निष्पादन में यह जाने बिना कि वह पुलिस अधिकारी है, उस पर प्रहार करता है, प्रहार के लिये उत्तरदायी होगा। क्यों? क्योंकि कृत्य स्वयं में दोषपूर्ण है। इस प्रकार सेंधमारी (Burglary) के प्रकरण में अभियुक्त क्या इस आधार पर कि जिस समय उसने घर में प्रवेश किया उसका विश्वास था कि 6 बज चुके हैं, रिहाई की माँग कर सकता है? जहाँ कोई व्यक्ति किसी लड़की को यह जाने बिना कि वह 16 वर्ष की है या उससे कम उम्र की है, उसके पिता के स्वामित्व से निकालता है, यह कहना कि वह दोषी नहीं है, उसी प्रकार असंभव प्रतीत है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति भ्रमित रूप में यह विश्वास करता है कि लड़की इतनी सयानी हो चुकी है कि वह सुरक्षापूर्वक दोषपूर्ण कृत्य कर सकता है। मैं ऐसा मानता हूँ कि सजा की पुष्टि कर देनी चाहिये।। इस विषय पर क्वीन बनाम टाल्सन68 दूसरा महत्वपूर्ण वाद है। इस वाद में कैदी का विवाह टाल्सन नामक व्यक्ति के साथ 11 सितम्बर, सन् 1880 को हुआ था। टाल्सन ने 13 दिसम्बर, सन् 1881 को उसका परित्याग कर दिया। कैदी तथा उसके पिता ने टाल्सन के बारे में छानबीन किया तथा उसके बड़े भाई व अन्य सूचनाओं से पता चला कि अमेरिका जाने वाले जहाज के साथ वह डूब गया। 10 जनवरी, सन् 1887 को अपने को विधवा मान कैदी ने एक दूसरे व्यक्ति के साथ विवाह कर लिया। दूसरा पति सारी परिस्थितियों से अवगत था तथा विवाह खुले रूप में सम्पन्न हुआ। सन् 1887 के दिसम्बर महीने में टाल्सन अमेरिका से वापस लौट आया तथा कैदी पर द्वि-विवाह के लिये आफेन्सेज अगेन्स्ट दि परसन्स एक्ट, 1861 की धारा 57 के अधीन दोषारोपण किया, क्योंकि उसने अपने पति द्वारा परित्यक्त होने के सात वर्ष के भीतर ही दूसरा विवाह कर लिया था। जूरी ने तथ्यों की छानबीन के पश्चात् यह पाया कि दूसरी शादी के समय समुचित आधारों पर सद्भाव से उसने विश्वास किया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। धारा 57 निर्धारित करती है कि जो कोई, विवाहित होते हुये” दूसरे व्यक्ति से अपने पूर्व पति या पत्नी के जीवनकाल में विवाह करेगा आततायिता (felony) का दोषी होगा।” उसी धारा की परन्तुक प्रतिपादित करती है, इस अधिनियम में कुछ भी पुनः विवाह करने वाले किसी व्यक्ति पर लागू नहीं होगा जिसका पति या पत्नी ऐसे व्यक्ति से लगातार 7 वर्षों तक अनुपस्थित रहा हो तथा उसके द्वारा इस अवधि में जीवित न जाना। गया हो।’ न्यायालय ने कहा कि दूसरे विवाह के समय समुचित आधारों पर सद्भाव से किया गया विश्वास सजा से उचित बचाव प्रदान करता है, तथा सजा गलत थी। इस वाद में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये (1) प्रथमत: और सामान्य रूप से यद्यपि अपराध होने के लिये दुराशय का होना आवाश्यक है, यह कोई अनम्य नियम नहीं है और अधिनियम ऐसे विषय-वस्तु से सम्बन्धित हो सकता है और इस तरह तैयार किया जा सकता है कि कोई कृत्य अपराध हो जाए, चाहे विधि के उल्लंघन द्वारा या अन्यथा रूप में उसका यह आशय रहा हो या नहीं। आज बहुत-सी म्युनिसिपल विधियाँ हैं जो इस प्रकार कल्पित हैं।
- (1889) 23 क्यू० बी० डी० 168.
(2) प्रत्यक्षतः अधिनियम तब सन्तुष्ट हो जाता है जब मामले को इसकी सीमा के अन्तर्गत लाते हैं और तब पतिवाटी का दायित्व होता है जहाँ तक उसका अपना सम्बन्ध है वह साबित करे, विधि का उल्लंघन दर्घटनावश या बिना किसी गलती के हुआ है। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति दो एक जैसी समानभार वाली टोकरियों, जिसमें एक में उसकी अपनी सामग्री रखी हुई है तथा दूसरे पर सरकारी गोदाम की महर लगी हुई है, में से एक उठा लेता है और बाद में पता चलता है कि उसने गलत टोकरी उठा लिया है। वह अपने ही कृत्यों द्वारा अपने को अधिनियम की सीमा में ले आया है, कौन उसे सजा देने की सोच सकता | (3) कामन लॉ (Common Law) में परिस्थितियों के अस्तित्ववान होने के बारे में सत्य तथा समुचित विश्वास, यदि सत्य है तो उस कार्य, जिसके लिये कैदी पर आरोप है, को दोषरहित बना देगा, इसे सदैव अच्छे बचाव के रूप में स्वीकार किया गया है। यह सिद्धान्त उक्ति ‘‘कार्य स्वयं में दोषी नहीं बनाता जब तक कि दोषी आशय से न किया जाए” में अन्तर्निहित है। सत्य और समुचित भूल वास्तव में उसी धरातल पर स्थित है जिस पर विवेक शक्ति का अभाव-जैसे शैशव में या विकृत विवेक शक्ति जैसे पागलपन में। ये अपवाद अधिकतर अपराधों में समान रूप से लागू होते हैं जब तक कि स्पष्ट या विवक्षित रूप में इनका लागू होना निषिद्ध न कर दिया जाये। (4) यह सामान्य नियम है कि ऐसा माना जाना चाहिये कि अभियुक्त ने उन तथ्यों के अन्तर्गत कार्य किया जिन्हें उसने सद्भाव एवं समुचित विश्वास के आधार पर आरोपित अपराध को करते समय अस्तित्ववान समझा था। इस वाद में अभियुक्त ने समुचित तथा सम्भावित आधारों पर विश्वास कर सद्भाव में बिना किसी अदूरदर्शिता या उपेक्षा से कार्य किया। अतः उसे अपराधी नहीं माना जाना चाहिये क्योंकि वह भ्रमित पाई गई। द्विविवाह के अपराध में अभियुक्त लगातार सात वर्ष की अनुपस्थिति साबित कर अपना बचाव कर सकता है। परन्तु यह अनुपस्थिति भी अक्षम होगी, यदि अभियोजक वह साबित कर दे कि अभियुक्त को सात वर्ष के भीतर अपने प्रथम पति या पत्नी, जो भी हो, के जीवित होने का ज्ञान था। आर० बनाम प्रिंस69 के वाद में कैदी को ज्ञात था कि किसी लड़की को उसके पिता के स्वामित्व से ले जाना लडकी की उम्र के प्रश्न के अतिरिक्त एक अनुचित तथा अनैतिक कार्य भी है। जबकि क्वीन बनाम टाल्सन के वाद में कैदी के पुनर्विवाह में कोई बुराई नहीं थी जिसने उपर्युक्त आधारों पर अपने को विधवा समझा था। द्विविवाह पर रेक्स बनाम थामस स्वीट तथा रेक्स बनाम मेरिया स्टाक्स70 दो अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। प्रथम वाद में ह्वीट की पत्नी ने जारता (adultery) का अपराध किया था। मई, सन् 1919 में ह्वीट ने अपने वकील को आदेश दिया कि वह उसकी पत्नी से तलाक की डिक्री प्राप्त करे। 23 अप्रैल, सन्। 1920 को वकील ने उसे लिखा, “हम अब विषय के साथ आगे बढ़ सकते हैं और आप की पेटीशन (Petition) पर समय नहीं बर्बाद करेंगे।” और ह्वीट द्वारा भेजे गये तार जिसकी शर्ते साक्ष्य में नहीं थीं के जवाब में वकील ने 1 जुलाई, सन् 1920 को लिखा “हमें आप का तार मिल गया है तथा हम आशा करते हैं। कि एक या दो रोज में आप की दस्तखत हेतु कागजात आपके पास भेज दिये जाएंगे।” ह्वीट एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति था। अत: इस पत्र से उसने समझा कि उसे तलाक मिल गया है। ह्वीट पर कैदी मेरियास्टाक्स के साथ 21 जुलाई सन् 1920 को विवाह करने के कारण दोषारोपण किया गया, क्योंकि उसकी पत्नी जीवित थी तथा कैदी मेरियास्टोक्स पर ह्वीट द्वारा इस अपराध को करने में सहायता देने तथा दुष्प्रेरणा (abetting) के लिये दोषारोपण किया गया। जूरी ने पाया कि समुचित आधारों पर सद्भाव में कैदी ने विश्वास किया कि ह्वीट को उस समय तलाक मिल गया था जिस समय उसने स्टाक्स के साथ वैवाहिक कार्यवाहियाँ सम्पन्न किया। यह माना गया कि ‘‘विधि में द्विविवाह की सजा के लिये यह बचाव नहीं है कि कथित द्विविवाह समय कैदी ने समुचित आधारों पर सद्भाव में विश्वास किया कि वह अपने प्रथम वैवाहिक बन् प्राप्त कर चुका था यद्यपि वास्तव में वह तलाकशुदा नहीं था।”
- (1875) एल० आर० 2 सी० सी० आर० 154
70, (1921) 2 के० बी० 119. वस्तुत: नाममात्र की सजा देने के लिये यह एक अच्छा आधार प्रदान कर सकता है। यह निर्णय आर० बनाम टाल्सन में दिये गये निर्णय के विरुद्ध नहीं है। टाल्सन के बाद में अभियुक्त ने समुचित आधारों पर विश्वास किया कि उसके पति की मृत्यु हो गयी है, अत: दूसरे विवाह के समय विधि द्वारा निषिद्ध किसी कृत्य को करने का उसका आशय नहीं था-प्रथम पति के जीवनकाल में दूसरा विवाह करना। जस्टिस स्टीफेन ने इस वाद में मुख्यत: परन्तुक पर बल दिया जो यह स्पष्ट करता था कि सात वर्षों तक अलगाव का वही प्रभाव है जो मृत्यु के बारे में अन्य साक्ष्यों द्वारा उत्पन्न समुचित विश्वास का किसी अन्य समय होता है। रोल्सन के बाद में यद्यपि निर्णय पर्याप्त मात्रा में परन्तुक (Proviso) से प्रभावित था किन्तु मुख्यत: यह उक्ति। (Actus non facit reum nisi mens sit rea) 3 a 11 काम बनाम प्रेस्वी71 के वाद में मन:स्थिति के सिद्धान्त को एक अमेरिकी अधिनियम में मान्यता मिली यद्यपि अपराध की परिभाषा में दुराशय ध्वनित नहीं होता था। इस प्रकरण में प्रेस्वी प्रतिवादी, जो एक पुलिस अधिकारी था, ने एक व्यक्ति हरफोर्ड को, जो एक सार्वजनिक स्थान में नशे में पाया गया, कैदी बनाया। परन्तु वाद में यह पाया गया कि वह नशे में नहीं था। अधिनियम के अन्तर्गत मात्र मदोन्मत्त व्यक्तियों को ही कैदी बनाया जा सकता था। अत: कैदी को दोषपूर्ण कैद के लिये अभियोजित किया गया था। यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि यदि कैदी व्यक्ति मदोन्मत्त नहीं था तो मात्र यह विश्वास कि वह मदोन्मत्त था चाहे कितना ही उपयुक्त क्यों न हो, सजा से बचाव के लिये अभिकथित (Pleaded) नहीं किया जा सकता। इस सामान्य नियम की विधि का उल्लंघन अपराध करने के आशय के बिना नहीं हो सकता” का विवेचन करने के पश्चात् होर जज (Hoar J.) ने कहा कि, अब नशे के तथ्य यद्यपि निर्धारण में आसान हैं परन्तु अधिकतर मामलों में यह पूर्ण निश्चितता से प्रदर्शन योग्य नहीं है। यदि एक पहरेदार किसी व्यक्ति को नाली में बेहोश अवस्था में स्प्रिट की बदबू से युक्त पाता है। सम्भव है, वह व्यक्ति बेहोशी की हालत में उसमें गिर गया हो तथा कोई अन्य व्यक्ति किसी उत्तेजक का प्रयोग कर उसे इस बेहोशी से छुटकारा दिलाने का प्रयत्न किया हो और सहायता की खोज में उसे इसी हालत में छोड़ गया हो। या दूसरे रूप में कैदी व्यक्ति आनन्द या रिष्टि (Mischief) हेतु मदिरापान तथा उत्तेजक आचरण को प्रदर्शित कर रहा हो तो क्या वह अधिकारी जो अपने विवेक का प्रयोग करने के पश्चात् भी तथ्य की भूल कर बैठता है, दोषी कहलाएगा? यह एक अद्भुत स्थिति होगी कि एक व्यक्ति जो विवेकहीन है, आपराधिक दायित्व से मुक्त हो जाए और दूसरा व्यक्ति जो उपस्थित साक्ष्य के आधार पर निर्णीत करने को बाध्य है तथा सद्भाव में जिसने अपने विवेक एवं सामर्थ्य का प्रयोग किया दोषी ठहराया जाए। अत: हम निर्णीत करने को बाध्य हैं कि प्रतिवादी ने समुचित एवं उपयुक्त विश्वास पर सद्भाव में बिना अदूरदर्शिता एवं उपेक्षा के कार्य किया तो वह अपराधी नहीं माना जा सकता मात्र इसलिये कि वह भ्रमित था। महाराष्ट्र राज्य बनाम एम० एच० जार्ज72 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने सांविधिक अपराध के प्रकरण में मन:स्थिति के सिद्धान्त को लागू करने के प्रश्न पर विचार किया गया। अभियुक्त एम० एच० जार्ज स्विस वायुयान से जुरिच से मनीला की यात्रा कर रहा था। जब जहाज 28 नवम्बर, सन् 1962 को बम्बई हवाई अड्डे पर उतरा तो उसके सामान की खोजबीन करने पर पता चला कि उसके पास 34 किलो की सोने की सिल्लियाँ हैं जो वह अपने साथ ले जा रहा था। परन्तु जहाज के ‘‘घोषणापत्र’ (Manifesto) में उसे घोषित नहीं किया गया था। सन् 1948 की केन्द्रीय सरकार की एक विज्ञप्ति के आधार पर सोने का भारत की सीमा के अन्दर रिजर्व बैंक की स्वीकृति के बिना लाना निषिद्ध कर दिया गया था। किन्तु रिजर्व बैंक की एक अन्य विज्ञप्ति के अनुसार भारत के बाहर किसी स्थान से तथा भारत के बाहर किसी स्थान को सोना भेजते समय यदि उसे जहाज से मात्र नावांतरण छोड़कर, हटाया नहीं जाता है तो इस प्रकार के पारगमन (Transit) पर केन्द्रीय सरकार की अधिसूचना लागू नहीं होती। 8 नवम्बर, सन् 1962 को भारतीय रिजर्व बैंक ने एक दूसरी विज्ञप्ति | जारी कर प्रथम उन्मुक्ति को संशोधित कर दिया और यह आवश्यक कर दिया कि जहाज के घोषणा-पत्र । (Manifesto) में सोने की घोषणा अवश्य कर दी जाए। प्रतिवादी विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 (Foreign Exchange Regulation Act, 1947) की धारा 8(1) तथा इसके अन्तर्गत जारी विज्ञप्ति का
- 14 ग्रे 65.
- ए० आई० आर० 1965 सु० को० 722.
उल्लंघन कर भारत में सोना लाने के लिये अभियोजित किया गया तथा धारा 23(1-क) के अन्तर्गत उसे सजा से दी गयी। प्रेसीडेंसी मैजिस्ट्रेट ने उसे दोषी पाया जबकि बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि वह मन:स्थिति जो अपराध का आवश्यक तत्व है, के आधार पर दोषी नहीं है, क्योंकि जिस समय सोना भारत में लाया गया अभियुक्त को ज्ञान नहीं था कि सोने के यातायात पर इस प्रकार की शर्त लगा दी गयी है जो मामले को उपरोक्त अधिनियम के अन्तर्गत लाती है। मामला अपील में उच्चतम न्यायालय में पहुँचा और न्यायालय ने उसे धारा 8(1) तथा इसके अन्तर्गत जारी विज्ञप्ति का उल्लंघन करने का दोषी पाया। इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये। (1) यह अधिनियम विदेशी मुद्रा को सुरक्षा प्रदान करने तथा उसे सुरक्षित रखने के उद्देश्य से बनाया गया है जो विकासशील देशों के आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है। अत: इसके उपबन्धों का कठोर होना आवश्यक है और इसकी इस प्रकार व्याख्या (construct) न किया जाना चाहिये ताकि अनियमित व्यवहारों, जो इस योजना के तहत नियन्त्रणों को निष्क्रिय बना दे, को रोका जा सके। विस्तृत रूप से दाण्डिक उपबन्धों का उद्देश्य तस्कर व्यापार (smuggling) को समाप्त करना है जो माल एवं सिक्कों के स्वतंत्र लेन-देन पर लगे नियंत्रण का सहवर्ती है। (2) इस अधिनियम का उद्देश्य और लक्ष्य तथा तस्कर व्यापार के निवारण हेतु एक उपाय के रूप में इसकी प्रभावकारिता विफल हो जायेगी यदि धारा 8(1) तथा 23(1-क) में ऐसी शर्त को पढ़ा जाए जो अधिनियम के स्पष्ट शब्दों को प्रभावहीन बनाती है। इसके पूर्व कि अभियुक्त उपबन्धों के उल्लंघन हेतु दोषी सिद्ध हो, यह सिद्ध करना आवश्यक है कि उसे इस तथ्य का ज्ञान था कि वह अधिनियम के उपबन्धों का उल्लंघन कर रहा है। | (3) ‘लाने’ तथा ‘भेजने’ की अवधारणा अनैच्छिक रूप से लाने तथा भेजने को बहिष्कृत करती है किन्तु यदि भारत में लाने का कार्य अवचेतन (conscious) रूप में हुआ था तथा भारत में लाने के उद्देश्य से किया गया था उस स्थिति में लाना’ ही अपराध नियत करता है, और धारा 8(1) के उल्लंघन के लिये शारीरिक कृत्य के अतिरिक्त किसी अन्य कृत्य की आवश्यकता नहीं होती। यदि धारा 8(1) में मात्र ‘लाने’ का संज्ञान शारीरिक कृत्य अपराध नियत करता है, तो धारा 23(1-क), धारा 8(1) के लिये सिद्ध की गयी। आवश्यकताओं के अतिरिक्त किसी अन्य शर्त पर बल नहीं देती।। | (4) अधिनियम जब तक स्पष्टत: या विवक्षित रूप में एक अपराध के आवश्यक तत्व के रूप में मनः स्थिति को अस्वीकार नहीं कर देता प्रतिवादी को किसी अपराध के लिये दोषी नहीं माना जाना चाहिये जब तक कि उसका मस्तिष्क दूषित न हो। पूर्ण दायित्व की अवधारणा शीघ्र ही नहीं बना लेनी चाहिये, इसे । स्पष्टतः स्थापित होना चाहिये। (5) धारा 8 तथा अनुज्ञप्तियाँ भारत में सोना लाने या भेजने पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगाती । ये मन:स्थिति को स्पष्टत: अपवर्जित नहीं करते। जहाँ तक मन:स्थिति को विवक्षित (Implied) रूप में अपवर्जित करने का प्रश्न है विधि निष्प्रभावी नहीं होती यदि मन:स्थिति के तत्व को इसमें पढ़ा जाये, क्योंकि तब भी ऐसे व्यक्ति होंगे जो भारत में सोना, इस ज्ञान के बावजूद कि वे विधि का उल्लंघन कर रहे हैं, ला रहे होंगे। ऐसी परिस्थिति में विवक्षित अवधारणा द्वारा मन:स्थिति को अपवर्जित करने का प्रश्न ही नहीं उठता।। (6) फारेन एक्सचेंज रेग्युलेशन ऐक्ट, 1948 की धारा 8(1) तथा धारा 23(1-क) के अन्तर्गत अपराध होने के लिये वास्तविक ज्ञान का कृत्य विधि विरुद्ध है, ऐसा दुराशय होना आवश्यक नहीं है। अत: रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना स्वेच्छा से भारत में सोना लाना अपराध है। इस सिद्धान्त के विरुद्ध जस्टिस सुब्बाराव ने अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा-“कामन ला (Common Law) का यह एक दृढ़ सिद्धान्त है कि दाण्डिक अपराध के लिये मन:स्थिति एक आवश्यक तत्व है। नि:सन्देह एक अधिनियम इस तत्व को अपवर्जित (exclude) कर सकता है, किन्तु विरचना का यह एक स्वस्थ नियम है जो इंग्लैण्ड तथा भारत दोनों में स्वीकार्य है कि ऐसे अधिनियमित उपबन्धों को जो अपराध नियत करते हैं कामन लॉ के अनुरूप विरचित करना चाहिये कि इसके विरुद्ध, जब तक कि । अधिनियम स्पष्टत: या विवक्षित रूप में मन:स्थिति को अपवर्जित (exclude) नहीं करता। दूसरे शब्दों में यह मान्यता है कि अधिनियमित अपराधों में मन:स्थिति एक आवश्यक तत्व है परन्तु इसे अपराध नियत करने वाले अधिनियमों में प्रयुक्त स्पष्ट या विवक्षित शब्दों द्वारा खण्डित किया जा सकता है। परन्तु मात्र यह तथ्य कि अधिनियम का उद्देश्य कल्याणकारी कार्यवाहियों को प्रोत्साहित करना या घोर सामाजिक बुराईयों को समाप्त करना है. अपने आप में इस प्रश्न का निर्णायक नहीं है कि क्या अपराध के आवश्यक तत्वों से। आपराधिक मन:स्थिति को अपवर्जित कर दिया गया है। इस तथ्य की भी छानबीन करना आवश्यक है कि क्या एक अधिनियम किसी व्यक्ति को पूर्ण दायित्व (Strict liability) के अधीन रखकर विधि के प्रवर्तन में राज्य को कोई सहायता कर सकता है, क्या वह विधि के अनुपालन को प्रोत्साहित करने हेतु कुछ कर सकता। है? मन:स्थिति के आवश्यक आशय द्वारा केवल उन प्रकरणों में अपवर्जित किया जा सकता है जहाँ यह पूर्णत: स्पष्ट हो कि अधिनियम के उद्देश्य का प्रवर्तन अन्यथा विफल हो जाएगा और इसका अपवर्जन उनकी सहायता करता है जो अपने कृत्य (act) या लोप (ommission) द्वारा विधि के विकास में सहायता करने हेतु पूर्ण दायित्वाधीन है। अपराध नियत करने वाले अधिनियम में अन्तर्निहित मन:स्थिति का स्वरूप अधिनियम के उद्देश्य तथा उसके उपबन्धों पर निर्भर करता है।” नाथू लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य के बाद में उच्चतम न्यायालय ने जस्टिस सुब्बाराव द्वारा महाराष्ट्र राज्य बनाम एम० ए० जार्ज के बाद में यः राय को मान्यता प्रदान किया। नाथूलाल एक अनाज व्यापारी था। उसे बिना लाइसेंस के बिक्री हेतु गेहूँ का भण्डार रखने के कारण आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955” को धारा 7 के अन्तर्गत अपराध करने के आरोप में अभियोजित किया गया था। अपने बचाव में उसने तर्क प्रस्तुत किया कि उसने उपरोक अधिनियम के किसी प्रावधान के आशय का उल्लंघन नहीं किया है, क्योंकि गेहूँ का भण्डार खने के पूर्व ही उसने लाइसेन्स के लिये आवेदन-पत्र दे दिया था और यह विश्वास करता था कि उस समय पर लाइसेन्स जारी कर दिया जायेगा। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि“दुराशय के अपराध का आवश्यक तत्व तब तक माना जाय जब तक कि कोई संविधि स्पष्ट शब्दों द्वारा अथवा उसमें निहित आवश्यक भावार्थ द्वारा इस आवश्यक तत्व को स्वीकार करने से इन्कार न कर दे। दुराशय के प्रकृति किसी कार्य को अपराध घोषित करने वाली संविधि के उद्देश्य व उसके प्रावधानों पर निर्भर करती है। प्रस्तुत वाद में अपोलत ने गेहूं के टाक इस सुझाव व निष्कपट विश्वास से किया था, कि उसे लाइसेन्स जारी कर दिया गया है, और यह केवल उसे मिल नहीं पाया है। यह तथ्य भी उसके सद्भाव एवं निपट विश्वास को संपुष्ट करता है कि लाइसेन्स जारी करने वाले अधिकारी ने उसके प्रार्थना-पत्र के सन्दर्भ में अपनी अस्वोकृति सूचित नहीं किया है। इसी विश्वास पर उसने निर्धारित मात्रा में अनाज का संग्रह किया। था और सदैव यही विश्वास करता रहा कि उसका कार्य अवैध नहीं है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्ता ने जानबूझकर “आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की धारा 7 के प्रावधानों अथवा धारा 3 के अन्तर्गत निर्गत आदेशों का उल्लंघन किया है। अतएव अपीलकर्ता की अपील स्वीकार करते हुये न्यायालय ने उसे दोषमुक्त कर दिया। स्वीट बनाम पार्सले के मामले में यह अभिमत व्यक्त किया गया है कि जहाँ किसी अपराध का सृजन किसी संविधि के अन्तर्गत किया गया हो वहां संविधि को मात्रा को इस निराकरणीय परिकल्पना (rebuttable presumption) के साथ पद जाना चाहिये कि विधि के इस सामान्य नियम को कोई भी अपराध बिना दराशय के नहीं किया जा सकता” स्वयं अधिनियम विशेष द्वारा समाप्त नहीं किया गया है। उच्चतम । न्यायालय के गुजरात बनाम आचार्य देवेन्द्र प्रसाद जो पांडेय के बाद में इसी प्रकार का अभिमत व्यक्त करते हुये कहा कि यदि किसी अपराध का सृजन किसी संविधि द्वारा किया गया है तो संविधि की भाषा चाहे।
- ए0 आइ0 आर0 1966 सु0 को 4.
- ए0 आइ0 आर0 1966 सु0 को0 722.
- (1969) 2 द्ब्ल्यु एल0 आर0 470 एच0 एल0 देखे लिम्चिन ब्नाम क्विन, (1963) ए0 सी0 160.
- ए0 आइ0 आर0 1971 सु0 को0 466
जितनी विस्तृत एवं निबंध क्यों न हो, सामान्य रूप से यही समझा जाता है कि दुराशय अपराध का एक आवश्यक अंग है, जब तक कि अभिव्यक्त अथवा अभिनिहित रूप से दुराशय को उस अपराध के आवश्यक तत्व के रूप में अस्वीकार नहीं कर दिया जाता। आर० एस० जोशी बनाम अजीत मिल्स लिमिटेड/7 के मामले में उच्चतम न्यायालय का कथन है। कि किसी व्यक्ति को अपने किये गये कार्यों के लिये दाण्डिक परिणामों को भोगना पड़ सकता है, चाहे उसने कार्य को दोषी मन से किया हो अथवा नहीं। यह एक सामान्य ज्ञान की बात है कि विधि के विभिन्न प्रावधानों के समुचित प्रवर्तन हेतु कठोर दायित्व (strict liability) का सृजन किया जाता है और इस उत्तदायित्व के अन्तर्गत दुराशय विहित कार्यों को भी दण्डित किया जाता है। यूनियन आफ इण्डिया बनाम जे० अहमद78 के मामले में प्रश्न यह था कि क्या सेवाओं के सन्दर्भ में अनुशासनात्मक कार्यवाहियों के अन्तर्गत विवादग्रस्त कर्मचारी का दुर्व्यवहार दुराशय अथवा दोषी मन (guilty mind) की श्रेणी में रखा जा सकता है? इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुये उच्चतम न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि कर्तव्य के निष्पादन में की गई गम्भीर अथवा आभ्यासिक उपेक्षा (habitual negligence) दुराशय युक्त नहीं हो सकती, परन्तु अनुशासनात्मक कार्यवाहियों के सन्दर्भ में यह दुराचरण हो सकता है। मन:स्थिति के अपवाद (Exceptions to Mens Rea)–यद्यपि अधिनियम इस विषय पर चुप है, सामान्य नियम यह है कि मन:स्थिति की अपेक्षा विवक्षित है। ‘‘संसद के अधिनियम की इस प्रकार व्याख्या (construe) करना चाहिये ताकि कोई भी व्यक्ति यथा निर्दोष या क्षति या दोष से मुक्त शाब्दिक अर्थान्वयन (literal construction) के कारण न दण्डित किया जा सके और न ही उससे खतरा उत्पन्न हो।”79 कभी-कभी सामान्य मन:स्थिति से कुछ कम क्लिष्ट और कम दोषी मस्तिष्क भी अधिनियमित अधिनियमों द्वारा परन्तु शायद ही कामन लॉ द्वारा, दाण्डिक दोषों के लिये पर्याप्त मानसिक तत्व बना दिया जाता है।80 ऐसे अपराधों को पूर्ण दायित्व या कठोर दायित्व के अपराध के नाम से जाना जाता है। ऐसे अधिनियमित अपराध की संख्या तथा महत्व दोनों में ही बढ़ोत्तरी हो रही है। परन्तु वे विरले हैं। विधानांग निम्न मामलों में छोड़कर, इन अपराधों को नियत करने के विरुद्ध हैं-(1) जहां दण्ड गम्भीर नहीं है परन्तु (2) पब्लिक को पहुँची क्षति दण्ड की तुलना में बहुत अधिक होती है, और उसी समय (3) अपराध ऐसा होता है कि सामान्यत: मन:स्थिति के बारे में साक्ष्य प्राप्त करने में कठिनाई होती है यदि उसी मात्रा के दोष की अपेक्षा हो।81 सभी सभ्य देशों में ऐसी म्युनिसिपल विधियाँ हैं जो एक कृत्य को आपराधिक घोषित करती हैं। उस कृत्य को करते समय आपराधिक आशय चाहे रहा हो या नहीं। ऐसे अतिक्रमण यथार्थत: अपराध नहीं है। वरन् व्यावहारिक दोष है और विशिष्ट कारणों से इन्हें अपराध कहा जाता है। अत: कुछ आपवादिक (exceptional) अपराधों में सामान्य मन:स्थिति से कम भी पर्याप्त माना जाता है। शेराज बनाम डी रुटजेन82 इस विषय पर श्रेष्ठ उदाहरण है। अपीलकर्ता, एक सार्वजनिक घर का लाइसेंसधारी (licensee), लाइसेंसिंग अधिनियम, 1872 की धारा 16(2) के अन्तर्गत एक पुलिस सिपाही को उसके अधिकारी की आज्ञा के बिना अवैध रूप से शराब देने के लिये अभियोजित था। 16 जुलाई, सन् 1894 को प्रश्नगत पुलिस सिपाही तत्समय ड्यूटी पर होते हुये अपीलकर्ता के घर में प्रवेश किया तथा अपीलकर्ता की लड़की ने उसकी उपस्थिति में पीने को शराब दिया। घर में प्रवेश करने के पूर्व ही सिपाही ने अपना आर्मलेट (armlet) उतार दिया था जो इस बात का प्रतीक था कि वह अपनी ड्यूटी समाप्त कर मुक्त हो चुका है। वह अक्सर ही अपीलकर्ता के घर आया-जाया करता था। न तो अपीलकर्ता ने और न ही उसकी पुत्री ने उससे पूछा कि वह ड्युटी पर है या नहीं, अपितु उन लोगों ने यह सोचा कि वह
- (1977) 4 एस० सी० सी० 94.
- (1979) 2 एस० सी० सी० 286.
- मारगेट पियर कम्पनी बनाम हन्नाम, (1819) 3 बी० एण्ड एल्ड पृ० 270.
- केनी, आउटलाइन्स आफ क्रिमिनल लॉ 43.
81, पूर्वोक्त संदर्भ, पृ० 43-44.
- (1895) एल० आर० 1 क्यू० बी० डी० 918.
चूंकि आर्मलेट नहीं पहने है अतः वह ड्यूटी पर नहीं है तथा इस विश्वास में उसे शराब दी गई। अपीलकर्ता। ने अपनी सजा के विरुद्ध क्वार्टर सेसंश (Quarter Sessions) में अपील किया। | क्वार्टर सेसंश न्यायालय ने सजा को स्वीकार कर लिया परन्तु उसे न्यायालय की सम्पति के लिये भेज दिया। डे जज का विचार था कि अपीलकर्ता का आशय किसी दोषपूर्ण कृत्य को करना नहीं था, उसने इस विश्वास से कार्य किया कि सिपाही ड्यूटी पर नहीं हैं। अत: यह कहना कि उसने एक अपराध किया है। बिल्कुल ही गलत है। राइट जज ने भी यही विचार व्यक्त किया और कहा कि “यह अवधारणा है कि मन:स्थिति, एक दूषित आशय या कृत्य के दोषपूर्ण होने का ज्ञान, प्रत्येक अपराध का एक आवश्यक तत्व है परन्तु यह अवधारणा अपराध नियत करने वाले अधिनियम में प्रयुक्त शब्दों द्वारा या उस विषय-वस्तु जिससे यह सम्बन्धित है, या दोनों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है, निकोल्स बनाम हाल।”84 अधिनियमित अपराधों में दुराशय की आवश्यकता के प्रश्न को प्रिवी कौंसिल ने बैंक आफ न्यू साउथ वेल्स बनाम पाइपर85 के वाद में पुनरीक्षित करने का प्रयास किया। यह माना गया कि एक अपराध को नियत करने के लिये, चाहे कामन लॉ हो या यह संविधि अभियुक्त में दुराशय की उपस्थिति होना आवश्यक है कि यद्यपि वह सजा से अपने को दुराशय की अनुपस्थिति को सिद्ध कर बचा सकता है। यह भी कहा गया यह प्रश्न कि क्या किसी विशिष्ट आशय को एक अधिनियमित अपराध का तत्व बनाया गया है, और जब वैसा प्रकरण नहीं है तो क्या अभियुक्त में दुराशय की अनुपस्थिति पूर्णत: अलग किस्म का प्रश्न है तथा विभिन्न अपेक्षाओं पर निर्भर करता है? जिन मामलों में अधिनियम प्रयोजन को अपराध के आवश्यक तत्व के रूप में सिद्ध हुआ मानता है, इसका सिद्ध होना आवश्यक है अन्यथा अभियोजन विफल हो जायेगा। दूसरी तरफ दुराशय की अनुपस्थिति किसी तथ्य के अस्तित्ववान होने के बारे में अभियुक्त द्वारा महसूस किया गया एक सत्य एवं समुचित विश्वास है, जो यदि सत्य है तो उस कृत्य जिसका वह अभियुक्त है को निर्दोष बना देगा।86 भारतीय दाण्डिक विधियों में दुराशय की प्रवर्तनीयता (Applicability of Mens Rea to Indian Penal Laws) भारत में सामान्यतया इंग्लिश कामन ला में प्रचलित दुराशय का सिद्धान्त लाग नहीं होता, क्योंकि यहाँ आपराधिक विधि संहिता बद्ध है। अपराधों को सावधानीपूर्वक परिभाषित किया गया है। और जहाँ कहीं भी दुराशय की आवश्यकता है, परिभाषा में ही उसे स्पष्ट कर दिया गया है। यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता में अपराधों को बहुत सावधानी से तथा सुस्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है और साधारण अपवाद (General Exception) का अध्याय भी बहुत विस्तृत है फिर भी विभिन्न अवसरों पर अपूर्ण तथा त्रुटिपूर्ण परिभाषाओं में सुधार हेतु या उनकी व्याख्या (construe) करने में या जहाँ अधिनियम द्वारा इसे स्पष्टत: अपवर्जित (excluded) नहीं किया गया है, इस सूत्र का प्रयोग लाभकारी सिद्ध हो सकता है। दुराशय के सिद्धान्त को भारतीय दण्ड संहिता दो प्रकार से प्रभावी बनाती है, प्रथम साधारण अपवाद से सम्बन्धित अध्याय जो संहिता में परिभाषित सारे अपराधों को नियन्त्रित करता है, साथ-ही-साथ विशिष्ट एवं स्थानीय विधियों के अन्तर्गत अपराध सामान्य परिस्थितियों से सम्बन्धित है जो दुराशय को नकार आपराधिक दायित्व से मुक्ति हेतु पर्याप्त आधार प्रदान करते हैं। इस प्रकार संहिता नकारात्मक रूप में दुराशय को प्रभावकारी बनाती हैं क्योंकि इन अपवादों के अन्तर्गत बहुत से मामले अपवर्जित हैं जिनमें दुराशय किसी न किसी प्रकार अनुपस्थित है। दूसरा-भारतीय दण्ड संहिता में प्रत्येक अपराध को सावधानीपूर्वक परिभाषित किया गया है। ताकि उसमें दुराशय, जो एक अपराध के लिये आवश्यक है, को निश्चयतः सम्मिलित किया जा सके, इस तथ्य को स्पष्ट एवं विशिष्ट शब्दों का प्रयोग कर दर्शाया गया है। जैसे स्वेच्छा से (voluntarily), आशय से
- धारा 16(2) के अन्तर्गत किसी सिपाही को शराब, दान या विक्रय के रूप में जब वह ड्यूटी पर हो, अधिकारी की। सहमति के बिना देना दण्डनीय है।
- (1873) एल० आर० 8 सी० पी० 322.
- (1897) ए० सी० 383 पृ० 389-90.
- ये विचार रेनाल्ड्स बनाम जी० एच० आस्टीन एण्ड सन्स लि०, (1951) 2 के० बी० पृ० 135 में अनुमोदित किये गये।
(intentionally), जानबूझकर (knowingly इत्यादि। ये विशिष्ट शब्द कृत्य स्वयं को प्रभावित न कर उसके रेन के प्रभावित करते हैं। भारतीय दण्ड सोहेला में कुछ धारायें ऐसी हैं जिनमें दुराशय को प्रकट करने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। ऐसे मामले दो प्रकार के हैं (३) कुछ क्रत्य् तथा उनके परिणाम पूरे समाज अथवा राज्य के लिये इतने हानिकारक हैं कि उनको रित करने के आशय के अभाव में भी दण्ड देना उचित एवं श्रेयस्कर समझा गया जैसे भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना, राजद्रोह (sadition) और व्यपहरण एवं अपहरण (kidnapping and abduction); (ख) जहाँ क्रत्य् अपने आप में इस प्रकार हैं जिससे एक प्रबल विश्वास उत्पन्न होता है कि जिसने कार्य इङ किया था उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचा होगा। जैसे-सिक्कों एवं स्टाम्पों का कूटकरण (counterfeiting of coins and stamps): सहित में वर्णित तमाम परिभाषाओं के विश्लेषण पर हमें निम्नलिखित तत्व प्राप्त होते हैं—(1) एक ऊ (मानव), (2) दुराशय अथात् ऐसे व्यक्ति का आशय कि समाज या किसी अन्य व्यक्ति को क्षति पहुँचायी जाय, (३) इच्छित कार्य, (३) फलस्वरूप उत्पन्न परिणाम, (5) ऐसे तथ्यों के अस्तित्ववान होने का ज्ञान-इस तत्व को आवश्यकता केवल वहाँ पड़ती है जहाँ आशयित परिणाम अपने आप में हानिकारक नहीं है बल्कि किसी अन्य तथ्य के साथ मिलकर हानिकारक होता है। | दुसरा अर्थात् दुराशय सामान्यतया आशय से (intentionally), जानबूझकर (knowingly), स्वेच्छा से (voluntarily), धोखे से (fraudulently), बेईमानी से (dishonestly), विद्वेषपूर्वक (maliciously), असावधानी से (recklessly), उपेक्षा से (negligently), स्वैरिता (wantonly), भ्रष्टतापूर्वक malignantly), इर्षित राति से (corruptly) आदि शब्दों द्वारा स्पष्ट किया जाता है। दुराशय को दशाने वाले शब्द Words denoting Mens Rea)–भारतीय दण्ड संहिता में दुराशय के दराने वाले बहुत से शब्दों में से कुछ शब्द-स्वेच्छा से87 विश्वास करने का कारण (reason to believe 33 देईनान २ (dishonestly)39. और धोखे से (fraudulently)90, आदि को संहिता में ही। परिभाषित कर दिया गया है। अन्य शब्दों का यद्यपि अधिनियम में बहुतायत से प्रयोग हुआ है किन्तु उन्हें परिभाषित नहीं किया गया है। जिन शब्दों को संहिता में परिभाषित किया गया है उनके अर्थ को उचित धारा ३ टंक के साथ ही अध्ययन करेंगे। परन्तु जिन शब्दों को संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। उनके अर्थ के हम यह करेंगे। भ्रष्टतापूर्वक (Corruptly)-भारतीय दण्ड संहिता की धारा 196, 198, 200, 219 तथा 220 में टेत पूर्व रद के प्रयोग हुआ है। शब्द‘भ्रष्टतापूर्वक, घूस, अनुचित प्रभाव आदि द्वारा उत्पन्न अयोग्यता ॐ जाहिर करता है जिसको परिणति उन कृत्यों में होती है जो सरकारी कर्तव्य या दूसरे के अधिकारों के उचित निवांह के अनुरूप नहीं है। शब्दभ्रष्ट” और ”भ्रष्टतापूर्वक” का यहाँ पर लगभग एक ही अर्थ है। अर्थात् अनुचित लाभ या फायदे के हेतु बेईमानी से बिना निष्ठा के किया गया एक कार्य। इसमें नैतिक भ्रष्टाचार Moral uptude) और सोद्देश्य धोखा (Intentional fraud) भी सम्मिलित है। यह इच्छा से किये गये। टप्पू कृत्य के समान है! प्रिद्वेश त्थ विद्वेश (Malignantly and Maliciously)–“परिद्वेष” शब्द भारतीय दण्ड संहिता की धारा 152 तथा 153 में आया है। यह विद्वेष (maliciously) का पर्यायवाची है। विद्वेष शब्द का प्रयोग
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा ३९.
- पूर्वोक धारा 26.
- पूर्वोक्त धारा 24.
- पूर्वोक्त धारा 25.
- बर्डविक, दि लॉ ऑफ़ क्राइम, भाग १, प्र० 143-44,
संहिता की धारा 219, 200 तथा 260 में हुआ है। एक कार्य विद्वेष से किया हुआ होता है यदि उसे दुष्टता से (wickedly), दुराचार से या परिद्वेष की भावना से या सामाजिक दायित्व की भावना को ध्यान में रखकर या जानबूझ कर अथवा कुचेष्टा करने की भावना से किया जाता है। रसेल ‘‘विद्वेष” को ‘‘कुचेष्टा करने की कोई निश्चित अभिकल्पना” के रूप में परिभाषित करते हैं। स्टीफेन इसे केवल एक अस्पष्ट सामान्य शब्द मानते हैं जिसे विधि में समावेशित कर लिया गया है।92 मिलर इसे बिना किसी उचित आधार या कारण के इच्छा से किया गया एक दोषपूर्ण कृत्य मानते हैं।93 साधारण अर्थ में कोई दुष्टतापूर्ण या शरारती आशय या कुचेष्टा के लिये भ्रष्ट प्रवृत्ति या दूसरों के अधिकार एवं सुरक्षा की जानबूझ कर उपेक्षा करना विद्वेष है। साधारण भाषा में इसका अर्थ वैमनस्य (spite) या दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध एवं दुर्भावना है परन्तु विधि में इसका अर्थ भिन्न है। स्वैरिता (Wantonly)—इस शब्द का प्रयोग धारा 153 में हुआ है। इसका प्रयोग है किसी कार्य को अदूरदर्शिता से या कृत्य के परिणाम के बारे में सोचे बिना कृत्य को करना। यह मस्तिष्क की एक अवस्था है। अर्थात् असावधानी से, बिना कारण, दूसरों के अधिकार के बारे में ध्यान दिये बिना, अदूरदर्शिता तथा विकृत 95 किसी गाय को एक खुले स्थान में मारना एक अदूरदर्शी तथा विचारहीन कृत्य है। अत: यह एक स्वैरित कृत्य है। परन्तु यदि कृत्य अवैधानिक नहीं है तो चाहे कितनी ही स्वैरित या अवांछनीय यह क्यों न हो धारा 153 के अधीन अपराध नहीं होगा।96 इसी तरह यदि अभियुक्त बम्बई में सन् 1883 में हुये हिन्दूमुस्लिम दंगे का वर्णन करते हुये एक कविता प्रकाशित कर हिन्दू समुदाय के लोगों द्वारा मुसलमान दंगाइयों के बहादुरी से किये गये मुकाबले की तारीफ करता है और उन्हें पुन: लड़ने तथा मृत्यु से न डरने के लिये प्रोत्साहित करता है तो यहाँ अभियुक्त धारा 153 के अन्तर्गत दायित्वाधीन नहीं है क्योंकि उसकी रचना को अवैध कृत्य नहीं कहा जा सकता और न ही इसका प्रकाशन धारा 153 के अन्तर्गत परिद्वेषपूर्ण या स्वैरित था।97 असावधानी तथा उपेक्षा (Rashly and Negligently)—इन शब्दों का प्रयोग भारतीय दण्ड संहिता में धनात्मक दुराशय को दर्शाने हेतु नहीं अपितु उस सावधानी के अभाव को दर्शाना है जिससे सामान्य ज्ञान वाले व्यक्तियों द्वारा कार्य करने की अपेक्षा की जाती है तथा जिसकी अनुपस्थिति दण्डनीय होती है। असावधानी तथा परिद्वेषपूर्ण कृत्य सामान्यतः ऐसे कृत्य हैं जो जल्दबाजी में बिना उचित विचार और सावधानी के किये जाते हैं। वे पहले से ही विचारित (premeditated) नहीं होते हैं। गौड़ इन दोनों के बीच के अन्तर को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-यह एक ऐसा परिणाम उत्पन्न करती है जिसकी अपराधी ने कभी कल्पना नहीं किया था और जिसके लिये वह खेद भी व्यक्त कर सकता है परन्तु वह उत्पन्न प्रभाव जिसका उसे पूर्वानुमान नहीं था, के लिये दण्डित नहीं किया जाता है अपितु कार्य करने की प्रणाली के लिये जो खतरे से युक्त थी। इन दोनों शब्द “असावधानी” और ”उपेक्षा” में घनिष्ठ सम्बन्ध है फिर भी उन्हें एक दूसरे से अलग किया जा सकता है। उपेक्षा के मामले में पार्टी कोई कार्य जिसे करने के लिये वह बाध्य है नहीं करती है। वह एक धनात्मक कर्तव्य का उल्लंघन करता है और जिस कार्य को उसे करना है उस पर ध्यान नहीं देता है। असावधानी में पार्टी जिस कार्य को बचाने के लिये बाध्य है उसे नहीं बचा पाती। यह एक नकारात्मक दायित्व को भंग करती है। यहाँ वह कार्य पर ध्यान तो देती है पर उसके परिणाम पर नहीं; असावधानी तथा उपेक्षा दोनों में ही कृत्यों में परिणाम पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। एक में परिणाम का ज्ञान होता है परन्तु अत्यधिक विश्वास के कारण इसके घटित होने की सम्भावना में विश्वास नहीं होता है। दूसरे में परिणाम पर कभी ध्यान दिया ही नहीं जाता।98
- स्टीफेन, हिस्ट्री आफ इंग्लिश क्रिमिनल लॉ भाग 2 पृ० 118-19.
- मिलर, हैण्डबुक आफ क्रिमिनल लॉ पृ० 69.
- होम्स, कामन लॉ पृ० 52.
- वर्डविक, दि लॉ आफ क्राइम, भाग 1 पृ० 142-43.
- कारी, ए० आई० आर० 1952 पटना 138.
- कहन जी, 18 बम्बई 758.
- गौड़ एच० एस०, पेनल लॉ, वाल्यूम 1 (4था संस्क०) पृ० 1389.
इन दोनों शब्दों का प्रयोग भारतीय दण्ड संहिता की बहुत सी धाराओं में हुआ है।99 इनके बीच का अन्तर व्यावहारिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि बहुधा इन दोनों शब्दों का प्रयोग इस संहिता में एक साथ हुआ है। इन सभी धाराओं का एक समान गुण है कि कृत्य पूर्वनिर्धारित नहीं होते। उपेक्षा के लिये दायित्व का प्रश्न तब तक नहीं उठता जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि वह व्यक्ति जो असावधान था, उस व्यक्ति को जो उसे उपेक्षा के लिये सिद्धदोष करना चाहता है, के प्रति कर्तव्याधीन था। साधारण असावधानी जो सिविल दायित्व को नियत करती है पर्याप्त नहीं है। आपराधिक विधि में आततायिता (Felony) साबित करने के लिये घोर उपेक्षा आवश्यक है।2 आंग्ल विधि में दण्डनीय असावधानी तब होती है जब इस अवचेतना से कार्य किया जाए कि अहितकारी तथा अवैधानिक परिणाम उत्पन्न होंगे परन्तु यह आशा की जाती है कि ऐसा नहीं होगा तथा बहुधा इस विश्वास के साथ कि कर्ता उनके घटित होने को रोकने के लिये पर्याप्त सावधानियाँ ले चुका है।”3 । उदाहरण के लिये, ‘क’ एक सर्जन, फिजीशियन तथा दाई के रूप में कार्य करते हुये अनुचित उपचार द्वारा एक रोगी की मृत्यु कर देता है। मृत्यु अज्ञान तथा असावधानी के कारण होती है। इस प्रकरण में ‘क’ तब तक अपराधी नहीं जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि वह अनभिज्ञ या असावधान था या उसका दुस्साहस इस प्रकार का था कि जूरी हर परिस्थिति में इसे दण्डनीय मानता है। ‘क’ योग्यता प्राप्त चिकित्सक है या नहीं, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।।
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