Indian Penal Code General Introduction Nature and Definition of Crime LLB 1st Year Notes
भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code)
सामान्य प्रस्तावना (GENERAL INTRODUCTION)
अपराध की प्रकृति और परिभाषा
(NATURE AND DEFINITION OF CRIME)
Indian Penal Code General Introduction Nature and Definition of Crime LLB 1st Year Notes Study Material : Indian Panel Code Chapter 1 Nature and Definition of Crime Most Important part for LLB Notes Study material 1st Year 1st Semester Book PDF Download in Hindi (English), Indian Panel Code LLB Book Use for CCS University Meerut and Delhi University and Other State University Compulsory.
भूमिका– यह सत्य है कि समाज में अपराध एवं अपराधी दोनों ही घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि आपराधिक विधि का अध्ययन एवं शोध मानव सभ्यता के आदि से ही विधिशास्त्र की आकर्षक शाखा रहा है। आपराधिक विधि वास्तव में उतनी ही पुरानी है जितनी की सभ्यता। जब कहीं और जहाँ कहीं भी लोगों ने अपने को संगठित किया वहाँ पर संगठन के सदस्यों के आपसी सम्बन्धों को विनियमित करने हेतु कुछ नियमों की आवश्यकता महसूस की गयी और जहाँ कहीं सामाजिक नियम थे उनका व्यतिक्रमण अवश्यम्भावी था। यहीं पर सामाजिक नियमों को भंग करने वाली प्रवृत्तियों को रोकने के लिये कुछ रास्ते एवं उपायों की आवश्यकता महसूस होती है। प्रत्येक संगठित समाज में कुछ ऐसे कार्य होते हैं जिन्हें लोग दण्ड के भय से नहीं करते हैं। जहाँ एक व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति को क्षति पहुँचायी हो तथा क्षति की पूर्ति यथायोग्य धन द्वारा की जा सकती हो, वहाँ पर दोषकर्ता उस व्यक्ति को जिसे कि क्षति पहुँचायी गयी है, क्षतिपूर्ति या प्रतिकर देने के लिये बाध्य किया जाता था। परन्तु कुछ मामलों में क्षतिपूर्ति या प्रतिकर के अतिरिक्त दोषकर्ता पर राज्य द्वारा दण्ड भी लगाया जाता था, जिसका उद्देश्य समाज में शान्ति व्यवस्था तथा एक दूसरे के प्रति एवं समस्त समुदाय के प्रति सद्व्यवहार का सम्वर्धन था।
परन्तु प्रश्न उठता है कि कौन से कार्य निषिद्ध किये जाने चाहिये अथवा कौन से कार्य समाज या राज्य द्वारा दण्ड के लिये चुने जाने चाहिये? दूसरे शब्दों में कौन से कार्य अपराध घोषित किये जाने चाहिये? टेरेन्स मारिस के अनुसार ‘अपराध वह है जिस कार्य को समाज आपराधिक विधि के अतिक्रमण के रूप में स्थापित कर अपराध कहे । विधि के बिना अपराध कदापि नहीं हो सकता यद्यपि रोष हो सकता है जिसकी परिणति विधि के अधिनियम में होती है।”
अपराध की अवधारणा सदैव लोकमत पर आधारित होती है जैसा कि हम जानते हैं कि विधि सदैव अपने समय के लोकमत को दिग्दर्शित करती है। विधि की किसी अन्य शाखा की अपेक्षा आपराधिक विधि लोकमत को यथातथ्य प्रदर्शित करती है। अपराध के स्वरूप तथा उसकी अवधारणा को समझने के लिये सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि विधि क्या है, क्योंकि अपराध एवं विधि का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है। कि बिना एक को जाने दूसरे को नहीं समझा जा सकता। राजनीतिक दृष्टि से श्रेष्ठ अथवा प्रभुता सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के लिये बनाये गये नियमों का समूह विधि कहलाता है। विधि एक व्यादेश (command) है जो समाज के सभी सदस्यों द्वारा अनुपालनीय व्यवहार का निर्देशन करता है तथा जो दण्ड द्वारा समर्थित है। व्यादेश किसी प्रभुता सम्पन्न का अथवा राजनीतिक दष्टि से श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के लिये अथवा विधिक रूप से गठित संस्था का अथवा विधिक रूप से गठित विधानाग द्वारा अधिनियमित विधान का तथा जो समाज के सदस्यों को सामान्य रूप से सम्बोधित किया गया हो, हो। सकता है। जैसा कि हम जानते हैं
- क्लेयर एच० जे०, “चेन्जिंग कान्सेप्ट्स आफ क्राइम एण्ड इट्स ट्रीटमेंट”, पृ० 17.
विधि राजनीतिक प्रक्रिया द्वारा निर्धारित होती है………यह लोगों द्वारा मान्य न्युनतम मानकों (Minimun Standards) के अनुरूप होती है। विधिया का केवल प्रवर्तन ही नहीं अपित व्यवहार की
आपराधिक रूप में परिभाषा भी राजनीतिक प्रक्रिया का एक भाग है, अपराधियों द्वारा विधि का अस्वीकार किया जाना एक प्रकार का सामाजिक विरोध है जिसका उन्हें मात्र धुंधला ज्ञान हो सकता है।’2
| इस प्रकार विधि समाज में लोगों द्वारा अनुपालनीय व्यवहार के कुछ मानकों (Standards) को निर्धारित करता है। इन मानकों को साधारणतया समाज का अनुमोदन प्राप्त होता है। इन निश्चित मानकों से विचलन (deviation) समाज द्वारा दण्डनीय होता है। अतः ऐसा आचरण जो निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं होता अपराध कहलाता है।
विधि की इस परिभाषा के अनुसार विधि की अवज्ञा को अपराध कहा जा सकता है, परन्तु विधि की प्रत्येक अवज्ञा अपराध नहीं है, क्योंकि संविदा विधि, पारिवारिक विधि तथा व्यवहार विधि का उल्लंघन तब तक अपराध नहीं हो सकता, जब तक कि ऐसा उल्लंघन किसी विधि द्वारा अपराध न घोषित कर दिया जाए। एक साधारण व्यक्ति के लिये अपराध वह कार्य है, जिसे समाज में लोग घोर निन्दा के योग्य समझते हैं।” अपराध विधि द्वारा निषिद्ध भी है तथा समाज की नैतिक मान्यताओं के विरुद्ध भी है। हत्या, लूट, चोरी, जालसाजी तथा छल इत्यादि ऐसे कार्य हैं जिन्हें सभ्य समाज में लोग स्वीकार नहीं करते, अत: वे अपराध हैं। फलतः किसी कार्य को अपराध होने के लिये आवश्यक है कि वह विधि के उल्लंघन के रूप में किया गया हो तथा समाज की नैतिक मान्यताओं के विरुद्ध हो। परन्तु हम जानते हैं कि आचार (morals) सापेक्ष (relative) होते हैं जब कि नैतिकता (Morality) परिवर्तनशील अवधारणा है, क्योंकि यह लोकमत में परिवर्तन होने के साथ-ही-साथ बदलती रहती है। लोकमत स्वयं भी समय-समय पर बदलती समाज की। आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। नैतिक मूल्य एक देश से दूसरे देश, एक ही देश के अलग-अलग स्थानों तथा समय-समय पर भिन्न-भिन्न होते हैं। यह इस बात से स्पष्ट है कि एक ही कार्य विभिन्न देशों में अपराध नहीं घोषित किया गया है। उदाहरणार्थ-जारता, सती, बहुविवाह इत्यादि को भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अपराध माना गया है जबकि यूरोप के कुछ भू-भागों में इन्हें अपराध नहीं मानते। कुछ शताब्दी पूर्व सती होना भारत में एक पुण्य माना जाता था, परन्तु अब भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत इसे अपराध माना जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अन्तर्गत बहुविवाह हिन्दुओं के लिये निषिद्ध कर दिया गया है। परन्तु ईसाइयों तथा मुसलमानों के लिये ऐसा कोई नियम नहीं है। ईसाइयों पर सम्भवतः उनकी वैयक्तिक विधि द्वारा बहुविवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है, पर मुसलमान आज भी एक समय में चार पत्नियाँ रख सकता है। अत: अपराध के तत्वों के परिवर्तनशील होने के कारण उनको पूर्ण रूप से परिभाषित करने के सारे प्रयास विफल हो चुके हैं। रसेल ने ठीक ही कहा है कि
‘अपराध को परिभाषित करने का कार्य कोई भी लेखक सन्तोषजनक रूप से अभी तक निष्पादित नहीं कर सका है। वास्तव में आपराधिक कृत्य मुख्यत: आपराधिक नीति की उपज है जिसे समय-समय पर समाज का शक्तिशाली या अपनी सुरक्षा तथा अपने हित की रक्षा करने में समर्थ वर्ग राज्य शक्ति द्वारा उन कार्यों को दबाकर स्वीकार करता है जिन्हें वह अपनी स्थिति के लिये खतरनाक समझता है।”5
अत: अपराध की ऐसी परिभाषा निरूपित करना बहुत कठिन है जो कि सभी देशों में सदैव सत्य प्रतीत हो। “अपराध पाप की तरह स्थिर नहीं है क्योंकि पाप को परिभाषित किया जा सकता है और जिसका अस्तित्व मनुष्य को सोचने तथा कार्य करने की सीमा के परे भी हो सकता है परन्तु अपराध व्यवहार की मुख्यत: सापेक्ष परिभाषा है जो लगातार परिवर्तित हो रही है।”6
- क्लेयर एच० जे०, “चेन्जिंग कान्सेप्ट्स आफ क्राइम एण्ड इट्स ट्रीटमेंट”, पृ० 19.
- हुदा, दी प्रिंसिपल्स आफ दि लॉ आफ क्राइम्स, पृ० 1.
- स्टीफेन, जनरल व्यू आफ क्रिमिनल लॉ आफ इंगलैण्ड, पृ० 3.
- रसेल आन क्राइम, वाल्यूम I (11वाँ संस्करण) पृ० 98.
- टेरेन्स मारिस, ‘दी सोशल टालरेशन आफ क्राइम” जो क्लेयर एम० जे० द्वारा सम्पादित ‘चेजिंग न्सेप्ट्स ऑफ क्राइम एण्ड इट्स ट्रीटमेंट” में प्रकाशित है, पृ० 16.
अपराध की परिभाषा-इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया है-* अपराध विधि द्वारा दण्डनीय कार्य है क्योंकि यह अधिनियम द्वारा निषिद्ध है या लोकहित के लिये हानिकारक है।” यह परिभाषा बहुत विस्तृत है, क्योंकि ऐसी कोई भी चीज जो लोकहित के लिये हानिकारक है अपराध हो सकती है। आधुनिक जटिल समाज में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो लोकहित के लिये हानिकारक कही जा सकती हैं। दूषित खाद्य पदार्थ बेचना, बच्चों और औरतों के साथ छेडछाड तथा गुमराह करने वाले विज्ञापन आदि ऐसे उदाहरण हैं जो लोकहित के लिये हानिकारक हैं।
बेन्थम के अनुसार ”अपराध वह है जिन्हें विधानांग ने अच्छे या बुरे कारणों से निषिद्ध कर दिया है। यदि उपयोगिता के नियमों के अनुसार सर्वश्रेष्ठ सम्भावित विधि के अन्वेषण के लिये प्रश्न सैद्धान्तिक शोध से सम्बन्धित है तब ऐसे कार्यों को जो किसी बुराई के कारण अथवा उसे उत्पन्न करने की सम्भावना के कारण निषिद्ध किये जाने चाहिये, हम अपराध की संज्ञा दे सकते हैं।”
ब्लैकस्टन ने अपनी पुस्तक ‘‘कमेन्ट्रीज आन दी लॉज आफ इंग्लैण्ड” (Commentaries on the Laws of England) में अपराध को इस प्रकार परिभाषित किया है
“निषिद्ध या समादेशित (Forbiding or Commanding) करने वाली सार्वजनिक विधि के अतिक्रमण (Violation) के रूप में किया गया कार्य या लोप अपराध कहलाता है।”7
इस प्रकार ब्लैकस्टन के अनुसार सार्वजनिक विधि के विरोध में किया गया कार्य अपराध है। परन्तु प्रश्न उठता है कि सार्वजनिक विधि क्या है? इसके अनेक अर्थ हैं। आस्टिन की परिभाषा के अनुसार सार्वजनिक विधि’ ‘संवैधानिक विधि’ के अनुरूप है। ऐसा होने पर अपराध का अर्थ संवैधानिक विधि का उल्लंघन होगा। इस प्रकार की परिभाषा केवल राजनीतिक कुकृत्यों को ही शामिल करेगी और अन्य आपराधिक आचरण इसके दायरे से बाहर हो जायेंगे। जर्मन्स के अनुसार सार्वजनिक विधि’ संवैधानिक तथा आपराधिक दोनों विधियों को शामिल करता है। इस परिभाषा में अपराध को परिभाषित करने के लिये आपराधिक विधि’ शब्द का प्रयोग कर के हम सीमाबद्ध हो जाते हैं। अन्य लोगों के अनुसार सार्वजनिक विधि’ का तात्पर्य ‘निश्चयात्मक (positive) विधि’ से है। निश्चयात्मक विधि राज्य द्वारा बनायी गयी विधि को कहते हैं। अस्तु, निश्चयात्मक विधि के अतिक्रमण में किया गया कार्य अपराध होगा, परन्तु यह सदैव सत्य नहीं है, क्योंकि विधि के अतिक्रमण के रूप में किये गये बहुत से कार्य अपराध नहीं होते। अत: हम यह कह सकते हैं कि सार्वजनिक विधि का जो भी अर्थ हम लगायें ब्लैकस्टन की परिभाषा सन्तोषजनक नहीं प्रतीत होती है। एक सन्दर्भ में यह अति संकीर्ण है तथा दूसरे में अति विस्तृत है।
ब्लैकस्टन अपराध को निम्न प्रकार से भी परिभाषित करते हैं-“सम्पूर्ण समुदाय के सार्वजनिक अधिकारों एवं कर्तव्यों के उल्लंघन के रूप में किया गया कार्य अपराध है जब कि समुदाय को उसके विस्तृत रूप में देखा जाय।”8 किन्तु स्टीफेन ने जो
ब्लैकस्टन के सम्पादक हैं, इस परिभाषा को थोड़ा संशोधित कर दिया है जो इस प्रकार है-“सम्पूर्ण समाज के अधिकारों के अतिक्रमण के रूप में किसी अधिकार का उल्लंघन अपराध है।”
ब्लैकस्टन के अनुसार सार्वजनिक अधिकारों एवं कर्तव्यों के अतिक्रमण के रूप में किया गया कार्य अपराध है, परन्तु स्टीफेन के अनुसार मात्र सार्वजनिक अधिकारों का उल्लंघन अपराध है। स्टीफेन की परिभाषा में त्रुटि है, क्योंकि वह सार्वजनिक कर्तव्यों के अतिक्रमण के रूप में किये गये कार्य को यथासम्भव अपराध की परिधि से बाहर रखते हैं यद्यपि बहुत से ऐसे कार्य हैं जो सार्वजनिक कर्तव्यों के अतिक्रमण के रूप में होते हैं और अपराध माने जाते हैं। उदाहरणार्थ-घर में सेंध लगाने, औजारों तथा कूटकृत (counterfeit) सिक्कों का पास में होना। तब भी विधि का समाज के लिये हानिकारक हर उल्लंघन अपराध नहीं है जैसे यदि किसी कम्पनी का निदेशक उसका प्रबन्ध सुचारु रूप से करने में असमर्थ हो जाता है जो मिल या कम्पनी बन्द कर दी जाती है। कर्मचारी कार्यविहीन हो जाते हैं तथा समाज के लिये आवश्यक सामग्री का उत्पादन बन्द हो जाता है। क्या यह कार्य समाज के लिये हानिकारक नहीं है? पर क्या निदेशक को किसी अपराध के लिये अभियोजित (prosecute) कर सकते हैं? इस प्रश्न का जवाब सम्भवतः होगानहीं। फलतः विधि के उन अतिक्रमणों को जो समाज के लिये हानिकारक हैं अपराध मानकर हम इसके असली स्वरूप को नहीं समझ सकते।
- 4 ब्लैक कमेन्ट्रीज, पृ० 4.
- 4 ब्लैक कमेन्ट्रीज, पृ० 5.
अत: ‘‘उस प्रकार के विधिक अपकृत्यों, जो विधि द्वारा पूरे समाज के लिये हानिकारक माने जाते हैं, को अपराध के रूप में स्वीकार करना उसका बोधात्मक (instructive) सामान्य वर्णन हो सकता है परन्तु अपराध की पूर्ण परिभाषा नहीं।”
स्टीफेन के अनुसार अपराध विधि द्वारा निषिद्ध तथा समाज के नैतिक मूल्यों के लिये अरुचिकर एक कार्य है। 10 यदि हम विभिन्न देशों की दण्ड संहिताओं को देखें तो पाते हैं कि कुछ कार्य ऐसे हैं जो अनैतिक न होते हुये भी घोर आपराधिक हैं तथा ऐसे कार्य भी हैं जो घोर अनैतिक हैं परन्तु आपराधिक नहीं हैं। उदाहरण के लिये, राजद्रोह (Treason) के प्रकरण में कोई चीज अनैतिक नहीं प्रतीत होती, परन्तु लगभग सभी देशों की दण्ड संहिताओं में इसे घोर अपराध माना गया है। दूसरा उदाहरण हम एक ऐसे व्यक्ति का ले सकते हैं जो माना-जाना तैराक है। वह नदी के किनारे खड़ा हुआ किसी बच्चे को नदी में डूबते हुये देख रहा है परन्तु बच्चे को डूबने से बचाने के लिये कोई प्रयास नहीं करता है, उसका कार्य घोर अनैतिक हो सकता है। परन्तु वह न तो अपराध है और न ही अपकृत्य।
आस्टिन कहते हैं एक अपकार (wrong) जिसमें पैरवी क्षतिग्रस्त पक्ष या उसके प्रतिनिधियों के स्वविवेक पर की जाती है, व्यावहारिक अपकृत्य है, एक अपकार जिसकी पैरवी शासन या उसके अधीनस्थ व्यक्तियों द्वारा की जाती है, अपराध है।”
| अत: आस्टिन के अनुसार व्यावहारिक दोष (civil wrong) के प्रकरण में राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता है जब तक कि दोष होने के पश्चात् कार्यवाहियाँ क्षतिग्रस्त पक्षकार या उसके बदले में कार्यरत किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ न कर दी गयी हों। आपराधिक प्रकरणों में प्रक्रियायें प्रभुता-सम्पन्न (Sovereign) या उसके अधीनस्थ व्यक्तियों द्वारा ही शुरू की जाती हैं। भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें अभियोजन तब तक शुरू नहीं किया जा सकता जब तक कि असन्तुष्ट पक्ष (aggrieved party) द्वारा शिकायत न कर दी जाए। केवल गम्भीर प्रकरणों में ही राज्य कार्यवाही आरम्भ करने की प्राथमिकता ले सकता है। उदाहरण के लिये, धारा 497, जारता के मामले में या धारा 498, आपराधिक गुप्त पलायन (Criminal elopement) के मामले में असन्तुष्ट पक्ष द्वारा शिकायत आवश्यक है। इन धाराओं के अन्तर्गत न्यायालय तब तक कार्यवाही आरम्भ नहीं करेगा जब तक कि पति द्वारा शिकायत नहीं कर दी जाती।
कुछ लोग व्यावहारिक अपकृत्य (civil wrong) तथा अपराध (crime) में अन्तर इन मामलों में राज्य हस्तक्षेप को लेकर करते हैं। परन्तु हम जानते हैं कि लगभग प्रत्येक राज्य में अपराध को रोकने के लिये तथा शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिये बड़ी मात्रा में पुलिस की व्यवस्था रहती है। साधारणतया व्यावहारिक दोष के मामले में प्रक्रियायें दोष घटित होने के बाद ही आरम्भ की जाती हैं, परन्तु अपराध के मामले में कार्यवाहियाँ अपराध घटित होने के पूर्व भी यदि अपराध घटित होने का भय उत्पन्न हो गया हो, तो आरम्भ की जा सकती हैं।
परन्तु यह कहना कि व्यवहार प्रक्रिया (Civil Proceeding) दोष घटित होने के पूर्व शुरू नहीं की जा सकती तथा आपराधिक प्रक्रिया क्षतिग्रस्त पक्ष के सहयोग के बिना भी आरम्भ की जा सकती है, उचित नहीं है, क्योंकि व्यवहार प्रक्रियायें पूर्वानुमानित दोष के विरुद्ध व्यादेश (injunction) प्राप्त करने के लिये आरम्भ की जा सकती हैं। इसी तरह ऐसे भी अपराध हैं जिनको रोकने के लिये पुलिस हस्तक्षेप नहीं करती।
केनी के अनुसार ‘अपराध ऐसे दोष हैं जिनमें अनुशास्ति (sanction) दण्डात्मक (punishable) होती हैं। जो किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा क्षम्य नहीं है तथा यदि वह क्षम्य है तो केवल सम्राट द्वारा।।1।।
यदि हम इस परिभाषा की सत्यता को परखें तो यह भी उपयुक्त परिभाषा नहीं है, क्योंकि भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत बहुत से ऐसे अपराध हैं जो समाधानीय अपराध (compoundable offences) की श्रेणी में रखे गये हैं जिनमें समझौता न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना हो सकता है। तात्पर्य यह है कि दण्ड किसी भी गैर सरकारी व्यक्ति द्वारा क्षमा किया जा सकता है।
- केनी, आउटलाइन्स आफ क्रिमिनल लॉ (11वाँ संस्करण) 1922, पृ० 8.
- स्टीफेन, जनरल व्यू आफ क्रिमिनल लॉ ऑफ इंग्लैण्ड, पृ० 3.
- केनी, आउटलाइन्स आफ क्रिमिनल लॉ (11वाँ संस्करण) 1922, पृ० 15-16.
कीटन के अनुसार ”अपराध कोई भी अवांछनीय कार्य है जिसे राज्य दण्ड आरोपित करने के लिये कार्यवाही आरम्भ कर सबसे उपयुक्त ढंग से परिशुद्ध करता है, न कि क्षतिग्रस्त व्यक्ति के स्वविवेक पर उपचार छोड़कर देता है।” ।
मिलर अपराध को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-“विधि द्वारा दण्ड के भय से निषिद्ध या आदेशित किसी कार्य को करना या उसकी अपेक्षा करना अपराध है जिसे राज्य अपने नाम में कार्यवाही आरम्भ कर आरोपित करता है।”12 ।
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पैटन के अनुसार “अपराध के सामान्य लक्षण हैं राज्य द्वारा कार्यवाही को नियन्त्रित करना, दण्ड को क्षमा करना तथा दण्ड देना।” इस प्रकार हम पाते हैं कि सभी देशों के लिये सदैव उपयुक्त प्रतीत होने वाली अपराध की परिभाषा देना एक दुष्कर कार्य है। अत: अपराध को उसके आवश्यक लक्षणों द्वारा जानना अधिक श्रेयस्कर है। अपराध के तीन लक्षण हैं
(1) किसी मनुष्य के असामाजिक कार्य द्वारा क्षति पहुँचना जिसे शासन रोकने को इच्छुक है।
(2) शासन द्वारा किये गये निरोधक उपाय दण्ड या दण्ड की धमकी के रूप में होते हैं।
(3) विधिक कार्यवाहियाँ जिनमें अभियुक्त के अपराध को विनिश्चित किया जाता है, विशिष्ट प्रकार की होती हैं तथा विशिष्ट प्रकार के साक्ष्य नियमों द्वारा नियंत्रित होती हैं।
अपराध तथा व्यवहार-दोष या अपकृत्य में अन्तर (Distinction between Crime and Tort or Civil wrong)—कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें सभ्य समाज में लोग अनुमोदित नहीं करते हैं क्योंकि वे मानव सुख को कम करने की प्रवृत्ति से युक्त होते हैं जिसे अक्षुण्ण रखना विधि का चरम उद्देश्य है। ऐसे कार्य-दोष होते हैं जैसे कूटरचना (Forgery), छल करना (Cheating), चोरी करना (Stealing) तथा मानव वध (Homicide) इत्यादि। इन कार्यों की दुष्प्रवृत्तियाँ (evil tendencies) मात्रा में भिन्न-भिन्न होती हैं। इनमें से कुछ विधि का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये पर्याप्त गम्भीर होती हैं और अन्य का समाज द्वारा अनुमोदन नहीं होता। बाद वाली दुष्प्रवृत्तियाँ केवल नैतिक दोषों के अन्त में स्वीकार की जाती हैं तथा सामुदायिक अथवा धार्मिक नियमों द्वारा संशोधित की जाती हैं। समाज की प्रतिक्रिया प्रथम प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों में पर्याप्त गम्भीर होती है और यह या तो दोषकर्ता द्वारा क्षतिग्रस्त व्यक्ति की क्षतिपूर्ति के लिये कहकर या उसे दण्ड प्रदान कर व्यक्त की जाती है। तात्पर्य यह है कि विधि या तो अपराधी को क्षतिपूर्ति के लिये आदेश देता है या उसे दण्डित करता है। जिन प्रकरणों में क्षतिपूर्ति हेतु आदेश होता है वे प्रकरण व्यवहार दोष (civil wrong) कहे जाते हैं, जिन प्रकरणों में दण्ड दिया जाता है, वे अपराध होते हैं।
(1) अपराध अपकृत्य या दोष से गम्भीरतर कार्य है क्योंकि अपराध दूसरों के सुख में अपेक्षाकृत अधिक हस्तक्षेप करते हैं और क्षतिग्रस्त व्यक्ति को ही नहीं, समूचे समुदाय को प्रभावित करते हैं। दूसरे, अपराध करने का मनोवेग प्राय: प्रबल होता है। दोषपूर्ण कार्यों से होने वाले लाभ इतने पर्याप्त होते हैं तथा उनके पता लगने के अवसर इतने कम होते हैं कि मानव स्वभाव उनको करने के लिये आकर्षित हो जाता है। उदाहरण के लिये, जेब काटना (Pick-Pocketing), जुआ खेलना (Gambling) आदि। तीसरे, सामान्यतया अपराध जानबूझकर (intentional) एवं स्वेच्छा से किये गये कार्य हैं जो बुरे मस्तिष्क की उपज हैं तथा बुरे उदाहरण स्थापित कर समाज के लिये हानिकारक साबित होते हैं।
| (2) ब्लैकस्टोन के अनुसार अपराध सार्वजनिक अपकृत्य हैं जो पूरे समुदाय से सम्बन्धित हैं। व्यावहारिक क्षतियाँ (civil injuries) वैयक्तिक अपकृत्य हैं जो व्यक्ति से अधिक सम्बन्धित हैं किन्तु हुदा का कहना है कि सार्वजनिक एवं वैयक्तिक अपकृत्य एक दूसरे से अलग नहीं है, क्योंकि जो कुछ किसी व्यक्ति से सम्बन्धित है, वह निश्चित रूप से उस समुदाय से भी सम्बन्धित है जिसका वह व्यक्ति एक इकाई है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य जो समुदाय को प्रभावित करता है या उससे सम्बन्धित है उन व्यक्तियों को भी प्रभावित करेगा जो उस समुदाय को गठित करते हैं।13
- मिलर, क्रिमिनल लॉ, पृ० 15.
- हुदा, क्राइम्स पृ० 2.
(3) अपराध के प्रकरण में अभियुक्त के साथ होने वाला व्यवहार, व्यवहार दोषों में प्रतिवादी के साथ होने वाले व्यवहार से अधिक कृपापूर्ण होता है। दण्डात्मक कार्यवाहियों में साक्ष्य की प्रक्रियाओं एवं नियमों में निर्दोष व्यक्ति को दण्ड से बचाने हेतु परिवर्तित कर दिया जाता है। इन कार्यवाहियों में अभियुक्त न तो किसी वस्तु को साबित करने और न न्यायालय में कोई बयान देने के लिये बाध्य है। उसे किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिये भी विवश नहीं किया जा सकता।।
(4) अपराध के प्रकरण में अभियुक्त के गुनाह को न्यायालय की पूर्ण सन्तुष्टि तक साबित करने का दायित्व अभियोजन पर होता है और यदि अभियुक्त के गुनाह के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाता है तो उसे सन्देह का लाभ अवश्य मिलना चाहिये। परन्तु व्यावहारिक कार्यवाहियों में प्रतिवादी ऐसे किसी सन्देह का लाभ उठाने का अधिकारी नहीं है।
(5) अपराध तथा व्यवहार दोष सामान्यतया अलग-अलग न्यायाधिकरणों द्वारा निर्णीत किये जाते हैं। अपराध दण्ड न्यायालय द्वारा तथा व्यवहार दोष दीवानी अदालत द्वारा निर्णीत किये जाते हैं।
(6) व्यावहारिक प्रकरणों में दण्ड, यदि विस्तृत सन्दर्भ में लिया जाए तो, बहुत ही नम्र प्रकृति (mildest nature) का होता है तथा विधि पुनस्र्थापन या पूर्ण क्षतिपूर्ति तक ही सीमित रहता है, क्योंकि ऐसे प्रकरणों में क्षतिग्रस्त व्यक्ति को क्षतिपूर्ति करना तथा यथा साध्य उस स्थिति में ले जाना जिसमें वह दोष से प्रभावित होने के पूर्व था, ही विधि का उद्देश्य है। इसलिये वह मामले में समझौता कर सकता है। आपराधिक प्रकरणों में सामान्यतया राज्य अपनी प्रजा के अधिकारों के रक्षक के रूप में स्वयं अभियुक्त के विरुद्ध पैरवी करता है परन्तु इस नियम के अपवाद भी हैं। दण्ड प्रक्रियाओं में कुछ विशेष मामलों में समझौते की स्वीकृति प्रदान की गई है।
(7) एक ही कार्य अपराध भी हो सकता है तथा व्यवहार दोष (civil wrong) भी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कार्य दुर्भावना से किया गया है या नहीं। एक आपराधिक कार्य होने के लिये उसका
आपराधिक आशय (criminal intent) से किया जाना आवश्यक है। व्यवहार-दोषों के मामले में ऐसा कोई दुर्भाव या दुराशय आवश्यक नहीं है। | अपराध तथा व्यवहार-दोष के प्रकरण में दोषयुक्त कार्य की प्रकृति में कोई आन्तरिक भेद नहीं है। भेद केवल इनमें की जाने वाली वैधिक कार्यवाहियों में है। चूंकि विधि दोनों प्रकार के मामलों में एक ही तरह की कार्यवाही की अनुमति दे सकता है, अत: एक ही कार्य अपराध तथा व्यवहार-दोष दोनों हो सकता है।14 |
अपराध के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण-व्यवहार के कुछ मानक या नैतिक सिद्धान्त, जिन्हें समाज अनुपालित कराना चाहता हो तथा जिनका उल्लंघन क्षतिग्रस्त व्यक्ति ही नहीं अपितु पूरे समाज के लिये अपराध हो, आपराधिक विधि का आधार है।15 सैद्धान्तिक रूप से अपराध समाज के प्रत्येक सदस्य के लिये एक भय है यद्यपि वास्तविक रूप में यह किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध अपराध हो सकता है।16 आपराधिक विधि के कार्यों को बुल्फेन्डन कमिटी की रिपोर्ट (1956) द्वारा दिग्दर्शित किया गया है। कमिटी के अनुसार आपराधिक विधि का कार्य लोक व्यवस्था और शिष्टाचार को सुरक्षित रखना, नागरिकों को आक्रामक या हानिकारक कृत्यों से बचाना और दूसरों के शोषण एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध उपयुक्त सुरक्षा प्रदान करना है, मुख्यत: उन लोगों के लिये जो युवक हैं, मानसिक एवं शारीरिक रूप से अस्वस्थ हैं, अनुभवविहीन हैं तथा शारीरिक एवं आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर हैं। विधि का कार्य नागरिकों के वैयक्तिक जीवन में न तो हस्तक्षेप करना है और न ही उपर्युक्त वर्णित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक आचरण (behaviour) के अतिरिक्त किसी विशेष आचरण को आरोपित करना है। किसी व्यक्ति द्वारा वैयक्तिक रूप में किया गया कार्य तब तक विधि का विषय-वस्तु नहीं बनेगा जब तक यह न साबित कर दिया जाय कि उसके द्वारा किया गया कार्य लोकहित के इतना विरुद्ध है कि लोकहित के अभिभावक के रूप में विधि को उसके कार्यों में हस्तक्षेप
- केनी, आउटलाइन्स आफ क्रिमिनल लॉ (17वाँ संस्करण) 1922 पृ० 18.
- पेट्रिक डेवलिन, दि इन्फोर्समेंट आफ मारल्स, (1965), पृ० 6-7.
- क्लेयर एच० जे०, चेजिंग कान्सेट आफ क्राइम एण्ड इट्स ट्रीटमेंट, पृ० 20.
करना चाहिये।7 इसके अतिरिक्त ऐसे किसी कार्यकलाप के लिये जिसको सन्तोषजनक रूप में नियन्त्रित नहीं किया जा सकता नियम बनाकर कोई महत्वपूर्ण उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सकता। बुल्फेन्डन रिपोर्ट में । अपराध तथा पाप के बीच के वर्गीकरण को स्पष्ट करने के लिये किसी एक सिद्धान्त की खोज के कारण त्रुटि प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि रिपोर्ट इस भावना पर आधारित है कि विधि व्यक्तियों की सुरक्षा के लिये अस्तित्ववान है। परन्तु वास्तविक सिद्धान्त यह है कि विधि समाज की सुरक्षा के लिये अस्तित्ववान । है। यह अपना कार्य व्यक्तियों को क्षति, संताप, भ्रष्टाचार तथा शोषण आदि से सुरक्षा प्रदान कर ही नहीं समाप्त करता, अपितु विधि के लिये यह भी आवश्यक है कि वह संस्थाओं, नैतिक तथा राजनैतिक आदर्शों की भी सुरक्षा करे, जिसके बिना मनुष्य एक साथ नहीं रह सकता। समाज व्यक्तियों की नैतिकता की अपेक्षा उसी प्रकार नहीं कर सकता जिस प्रकार उसकी निष्ठा की, क्योंकि इसका विकास दोनों से होता है और किसी एक के बिना उसकी मृत्यु हो जाती है।”
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