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Indian Penal Code Cruel Husband Relatives Husband LLB Notes

 

Indian Penal Code Cruel Husband Relatives Husband LLB Notes:- LLB Law Notes 1st Year Semester Topic Wise Study Material in Hindi English PDF Download Free Online Best Website, Chapter 20A of Cruelty By Husband or Relatives of Husband Topic For The Indian Panel Code 1860.

 
 

अध्याय 20-क

पति या पति के नातेदारों द्वारा क्रूरता के विषय में

(OF CRUELTY BY HUSBAND OR RELATIVES OF HUSBAND)

498-क. किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उसके प्रति क्रूरता करना-जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का नातेदार होते हए, ऐसी स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजन के लिए, “क्रूरता” से निम्नलिखित अभिप्रेत है

(क) जानबूझकर किया गया कोई आचरण जो ऐसी प्रकृति का है जिससे उस स्त्री को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने की या उस स्त्री के जीवन, अंग या स्वास्थ्य को (जो चाहे मानसिक हो या शारीरिक) गम्भीर क्षति या खतरा कारित करने की सम्भावना है, या

(ख) किसी स्त्री को इस दृष्टि से तंग करना कि उसको या उसके किसी नातेदार को किसी सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की कोई मांग पूरी करने के लिए प्रताड़ित किया जाए या किसी स्त्री को इस कारण तंग करना कि उसका कोई नातेदार ऐसी मांग पूरी करने में असफल रहा है।

टिप्पणी

यह धारा सन् 1983 के संशोधन अधिनियम द्वारा स्त्रियों के दहेज मृत्यु सम्बन्धी अपराधों से निपटने हेतु निर्मित की गयी। इस धारा का मुख्य उद्देश्य किसी महिला को उसके पति अथवा पति के सम्बन्धियों द्वारा दहेज हेतु प्रताड़ित किये जाने से सुरक्षा प्रदान करना है। इस धारा के उद्देश्यों हेतु पति अथवा उसके सम्बन्धियों द्वारा किसी महिला को दहेज हेतु प्रताड़ित करना क्रूरता कहा जायेगा जो इस धारा के अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध है।

बी० एस० जोशी बनाम हरियाणा राज्य1 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क का उद्देश्य पति या उसके सम्बन्धियों द्वारा दहेज की मांग को लेकर किसी महिला को प्रपीडन से रोकना था। यह धारा ऐसे पति या उसके सम्बन्धियों को दण्डित करने के लिये जोड़ी गई थी जो पत्नी को परेशान या प्रताड़ित करते हुये उसे या उसके रिश्तेदारों पर दबाव डालते हैं कि उनकी दहेज संबंधी अवैध मांग को पूरा करे । इसका अति तकनीकी मत अपनाना अनुपयोगी होगा और महिलाओं के हित के विपरीत होगा और उस उद्देश्य के विरुद्ध होगा, जिसके लिये इस धारा को जोड़ा गया है। प्रस्तुत मामले में पत्नी द्वारा पति और उसके सम्बन्धियों के विरुद्ध धारा 498-क के अधीन कार्यवाही आरंभ की गई थी और बाद में उसने पति के साथ विवाद का समझौता कर लिया और परस्पर सहमति से विवाह-विच्छेद के लिये सहमत हो गई। बाद में उसने आवेदन देकर पति और उसके रिश्तेदारों के विरुद्ध आरंभ की गई कार्यवाहियों को भी अभिखण्डित करने के लिये आवेदन दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उच्च न्यायालय द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन न्याय का उद्देश्यपूर्ण करने के लिये कार्यवाहियों को खण्डित करने के लिये अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने से इनकार करने से महिलायें कम समय में ही मामला सुलझाने से वंचित रह जायेगी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क का यह उद्देश्य नहीं है। ।

आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हये दाण्डिक कार्यवाही या प्रथम इत्तिला रिपोर्ट या शिकायत को अभिखण्डित कर सकता है। दण्ड प्रक्रिया

1: 2003 क्रि० लाँ ज० 2028 (सु० को०).

संहिता की धारा 320 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन शक्तियों को सीमित या प्रभावित नहीं कर रही है।

धारा 498-क की संवैधानिकता- इन्दर राज मलिक बनाम सुनिता मलिक के मामले में यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 20 (2) का अतिक्रमण करने के कारण असंवैधानिक है। दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 भी इसी प्रकार के मामलों से सम्बन्धित है अतएव एक ही विषय पर दोनों विधियाँ मिलकर खतरे के सिद्धान्त जैसी स्थिति पैदा करती है । परन्तु दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस तर्क को मानने से इन्कार कर दिया। यह निर्णय दिया गया कि धारा 498-क तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 में अन्तर है क्योंकि धारा 4 के अन्तर्गत मात्र दहेज की माँग करना दण्डनीय है। इस धारा में अपराध के गठन हेतु क्रूरता का अस्तित्ववान होना आवश्यक नहीं है। धारा 498-क इस अपराध के गुरुतर (aggravated) को अपराध घोषित करता है। यह धारा पत्नी अथवा उसके सम्बन्धियों से ऐसी सम्पत्ति की माँग को दण्डित करती है जो उसके प्रति क्रूरतापूर्ण होते हैं। अतएव यह धारा असंवैधानिक नहीं है।

इन्दर राज मलिक बनाम सुनिता मलिक3 के वाद में यह प्रेक्षित किया गया कि जहाँ परिवादकर्ता द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि उसे बार-बार यह कहकर डराया जाता रहा है कि यदि वह अभियुक्त की माँग को अपने पति पर सम्पत्ति बेचने का दबाव डालकर नहीं मनवाती है तो उसके पुत्र को उठा ले जाया जायेगा, ऐसी धमकी धारा 498-क के अन्तर्गत आती है। इस धारा के स्पष्टीकरण में क्रूरता शब्द को परिभाषित किया गया है। किसी स्त्री को इस दृष्टि से तंग करना कि वह अथवा उसका कोई सम्बन्धी प्रपीड़न के कारण सम्पत्ति अथवा मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग मान ले, क्रूरता कहा जायेगा।

सम्बन्धियों ( रिश्तेदारों ) का अर्थ-यू० सीवेथा बनाम राज्य द्वारा इन्सपेक्टर पुलिस और एक अन्य3क में यह अभिनिर्धारित किया गया कि सम्बन्धी/रिश्तेदार शब्दावली की कोई सांविधिक परिभाषा न होने की दशा में इसका वही अर्थ समझा जाना चाहिये जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है। साधारणतया इसमें किसी व्यक्ति या विवाहिता के पिता, माता, पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, भतीजा, भतीजी, पौत्र या पौत्री शामिल होंगे। सम्बन्धी/रिश्तेदार शब्द का अर्थ संविधि की प्रकृति पर निर्भर करेगा। प्रमुखतया इसमें ऐसे व्यक्ति शामिल माने जाते हैं जिनसे रक्त अथवा विवाह या दत्तक द्वारा सम्बन्ध हो। किसी भी प्रकार की कल्पना द्वारा इसमें बालिका मित्र या व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में पति की रखैल सम्बन्धी नहीं मानी जायेगी। पत्नी के साथ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन क्रूरता के सम्बन्ध में धारा 498-क में जुड़ी व्याख्या में परिभाषित क्रूरता का कोई भी अन्य अर्थ नहीं लगाया जा सकता है। किसी अन्य महिला के साथ पति का निवास करना पति द्वारा न्यायिक पृथक्करण अथवा विवाह समापन के प्रयोजन हेतु पति द्वारा क्रूरता का कृत्य हो सकता है परन्तु इस आधार पर धारा 498-क का दोष आकर्षित नहीं माना जायेगा। साथ ही यह भी कि धारा 498-क दाण्डिक प्रावधान होने के कारण इसका कठोर अर्थान्वयन किया जाना चाहिए। अतएव पति की एक महिला मित्र या रखैल को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अन्तर्गत आरोपित नहीं किया जा सकता है।

क्रूरता का अर्थ

कालिया पेरूमल बनाम तमिलनाडु राज्य4 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख और 498-क दोनों ही धाराओं के अधीन आने वाले अपराधों में क्रूरता एक आवश्यक तत्व के रूप में है। दोनों धारायें परस्पर एक दूसरे में प्रविष्ट (inclusive) नहीं हैं, किन्तु दोनों सभिन्न रूप से पृथक अपराध हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन दहेज मृत्यु के अपराध से। दोषमुक्त व्यक्ति संहिता की धारा 498-क के अधीन अपराध के लिये दोषसिद्ध किया जा सकता है। क्रूरता का

2. 1986 क्रि० लॉ ज० 1510 (दिल्ली). |

3. 1986 क्रि० लॉ ज० 1510 (दिल्ली). 3क. (2009) 3 क्रि० लॉ ज० 2974 (एस० सी०).

4. 2003 क्रि० लॉ ज० 4321 (सु० को०).

परिभाषा धारा 498-क के स्पष्टीकरण में दी गई है। धारा 304-ख में उसका अर्थ नहीं दिया गया है, कि क्रूरता या प्रताड़ना धारा 498-क में दिया गया है जो धारा 304-ख में भी लागू होता है। भारतीय दण्ड संहित की धारा 498-क के अधीन क्रूरता अपने आप में अपराध के समान है। जबकि धारा 304-ख के अधीन अपराध दहेज मृत्यु का है और मृत्यु सात वर्ष के भीतर होनी चाहिये। किन्तु धारा 498-क के अधीन ऐसी कोई अवधि नहीं दी गई है।

विरेन्द्र भट्टी बनाम राज्य5 के मामले में यह मत व्यक्त किया गया कि आत्म-हत्या विवाह के सात वर्ष के अन्दर हुयी है तथा अभियुक्त (पति) के द्वारा मृतक (पत्नी) के साथ की गयी क्रूरता के सम्बन्ध में विश्वसनीय साक्ष्य रिकार्ड पर उपलब्ध है तो यह उपधारणा कि पति ने अपनी पत्नी द्वारा आत्म-हत्या कारित किये जाने को दुष्प्रेरित किया है, उचित होगी। ऐसी दशा में धाराओं 306 और 498-क के अन्तर्गत दोषसिद्धि भी उचित होगी।

पी० विक्षापथी बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य6 के मामले में 19 वर्षीय राजलक्ष्मी ने आत्महत्या कर लिया था क्योंकि उसके पति या पति के माता-पिता उसे सोने की जंजीर और टी० वी० अपने से दहेज में लाने हेतु लगातार तंग करते थे और उसके साथ दुर्व्यवहार करते थे। उसके पति को शराब पीने की लत थी और कभी-कभी वह अधिक शराब पीने से बेहोश होकर गिर पड़ता था। वह रात्रि में बहुधा अत्यन्त विलम्ब से आता था और पत्नी के आपत्ति करने पर उसे मारता पीटता था। उसके इन कृत्यों से परेशान होकर उसने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगाकर आत्महत्या कर ली। यह निर्णय दिया गया कि शराब पीना तथा रात्रि में विलम्ब से आना चाहे वह पत्नी की इच्छा के एकदम विपरीत ही क्यों न हो स्वयमेव क्रूरता नहीं कहा जा सकता है परन्तु इन कार्यों के साथ-साथ पत्नी को मारना और दहेज की मांग करना और रुपया लाने के लिये तंग करना धारा 498-क के अन्तर्गत क्रूरता गठित करता है। इस मामले में मृत्यु की तिथि के पहले पति और उसके माता-पिता द्वारा दुर्व्यवहार किये जाने के कारण ही राजलक्ष्मी ने आत्म-हत्या किया था अतएव अभियुक्तगण धारा 306 के अन्तर्गत अपराधी हैं।

माधुरी मुकुन्द चिटनिस बनाम मुकुन्द मारतण्ड चिटनिस7 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ पर पति के द्वारा पत्नी के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण और तंग करने वाली मुकदमेबाजी प्रतिशोधात्मक भावना से की जाती है और पत्नी को तलाशी के वारण्ट के निष्पादन तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति के अभिग्रहण द्वारा उत्पीड़ित और अवमानित किया जाता है वहाँ भा० ० संहिता की धारा 498-क के अन्तर्गत इस प्रकार की मुकदमेबाजी की प्रक्रिया द्वारा कारित करना भी सम्मिलित है। यह मत भी व्यक्त किया गया कि यद्यपि कारागार का दण्ड देना आवश्यक नहीं है तथापि चाहे अर्थदण्ड ही क्यों न लगाया जाये उसे अपराध की गम्भीरता के अनुरूप होना चाहिये।

वडेरामा राव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य8 के मामले में रामाराव अपनी पत्नी के साथ अपने श्वसुर के घर अतिरिक्त दहेज की मांग करने गया था। श्वसुर के द्वारा अपनी असमर्थता व्यक्त करने पर वह वापस अपने घर रवाना हुआ। साथ में उसकी पत्नी भी स्वेच्छा से उसकी पीछे चल पड़ी। उसके साथ ससुर बस स्टेशन तक भेजने भी आये। बस अड्डे पर वह पेशाब करने के लिये गया और लौटकर आया तो पत्नी को वहाँ न पाकर उसे खोजता हुआ अपने श्वसुर के घर भी गया। उसने अपने श्वसुर और उनके रिश्तेदार के साथ पत्नी की खोज किया और अन्त में पत्नी का शव एक कुयें में तैरता हुआ मिला। इन तथ्यों के आधार पर यह निर्णय दिया गया कि धारा 304-ख के अधीन अपराध नहीं कारित हुआ है क्योंकि अभियुक्त के कृत्यों से यह स्पष्ट है कि जिस समय उसकी पत्नी कुयें के निकट गयी उस समय वह उपस्थित नहीं था। अभियोजन पक्ष इस सम्भावना को नकारने में सफल नहीं रहा है कि उसकी पत्नी की मृत्यु किसी ऐसी दुर्घटना का परिणाम भी हो

5. 1989 क्रि० लाँ ज० (एन० ओ० सी०) 196 (दिल्ली) पृष्ठ 84.

6. 1989 क्रि० लाँ ज० 1186 (आं० प्र०).

7. 1992 क्रि० लॉ ज० 111 (बम्बई).

8. 1990 क्रि० लाँ ज० 1666 (आं० प्र०).

सकती जिससे वह फिसल कर कुये में गिर पड़ी हो। परन्तु चूंकि पत्नी के साथ दहेज की माँग को लेकर क्रूर यवहार का यथेष्ट प्रमाण उपलब्ध था अतएव अभियुक्त भा० द० संहिता की धारा 498-क के खण्ड (ख) के अन्तर्गत दोषी है।

संकर प्रसाद शाँ बनाम राज्य9 के मामले में यह अभिनिर्धारण किया गया कि दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 4 के अन्तर्गत दहेज की केवल मांग करना अपराध नहीं हो सकता है परन्तु भा० द० संहिता की धारा 498-क के अन्तर्गत यह एक अपराध है। दहेज की मांग करना संहिता की धारा 498-क के स्पष्टीकरण के उपखण्ड (ख) के अन्तर्गत आता है।

रमेशचन्द्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य10 के बाद में यह प्रेक्षित किया गया कि धारा 498-क के अन्तर्गत परिवाद में सफलता तभी मिलेगी जब यह सिद्ध किया जायेगा कि पति के द्वारा धन की अवैध मांग की गयी। है। विवाह के समय बिना दहेज के तय किये केवल माँग अपराध नहीं है। ससुर के द्वारा माँग को मानने से मात्र इन्कार करना माँग को अवैध नहीं बनाता जब तक कि उक्त माँग दहेज की परिभाषा के अन्दर न आये।

बलराम प्रसाद अग्रवाल बनाम स्टेट ऑफ बिहार11 के वाद में रेस्पाण्डेण्ट नं० 2 परन प्रसाद अग्रवाल (अभियुक्त नं० 1) का विवाह मृतका किरन देवी के साथ सन् 1977 में हुआ था। परन्तु विवाह के लगभग पांच छ: वर्ष बाद भी उसे कोई सन्तान नहीं पैदा हुयी। अतएव मृतका के पति का बड़ा भाई (अभियुक्त नं० 3) और उसकी सास (अभियुक्त नं० 2) दोनों ही रेस्पाण्डेण्ट नं० 2 का विवाह किसी अन्य लड़की के साथ करना चाहते थे। परन्तु मृतका का पिता वर्तमान अपीलाण्ट किसी विशेषज्ञ चिकित्सक द्वारा अपनी पुत्री का इलाज कराया और तत्पश्चात् उसने दो पुत्रों को जन्म दिया। परन्तु दहेज की मांग के सम्बन्ध में किरन देवी के साथ क्रूरता और प्रपीड़न का व्यवहार निरन्तर चलता रहा और दहेज की मांग पूरी न किये जाने के कारण अभियुक्त ने किरन देवी को मारना पीटना शुरू कर दिया। इस प्रपीड़न (Torture) से तंग आकर उसने कुएँ में कूदकर

आत्महत्या का प्रयास किया परन्तु वह पड़ोसियों द्वारा बचा ली गयी। इस सम्बन्ध में स्वयं किरन देवी ने पुलिस में एक रिपोर्ट किया और तत्पश्चात् वह अपने पिता के साथ रहने लगी परन्तु उसके पिता की पहल पर किये गये एक आपसी समझौते के फलस्वरूप वह अपने ससुराल वापस आ गयी और सास ससुर के घर रहने लगी। 30 अक्टूबर, 1988 की रात्रि में किरन देवी जिस घर में वे लोग रह रहे थे उसी के अहाते में स्थित एक कुयें में गिर पड़ी और 31 अक्टूबर को लगभग 10 बजे उसके पति ने अपीलाण्ट को सूचित किया कि उसकी पुत्री कुये में गिर कर मर गयी है। वह आया और उसने कुयें के पास उसके मृत शरीर को देखा 12 नवम्बर, 1988 को अपीलाण्ट अपने नाती से मिलने अपने दामाद के घर गया। उस दिन पड़ोसियों ने उसे सूचना दिया कि घटना के पहले वाली रात में घर में झगड़ा हुआ था और उन लोगों ने किरन देवी को रोते और चिल्लाते हुये सुना है और वह अपने सास ससुर द्वारा प्रताड़ित की जा रही थी। इस सूचना के बाद 12 नवम्बर, 1988 को एक प्रथम सूचना रिपोर्ट हत्या के बारे में लिखायी गयी। अभियुक्तगणों को भा० द० संहिता की धारा 498-क, 302 और 102-ख के अधीन आरोपित एवं निवारित किया गया अभियोजन पक्ष भा० द० संहिता की धारा 302/34 के अधीन आरोप सिद्ध करने में असफल रहा परन्तु धारा 498-क के अधीन आरोप सिद्ध कर दिया। उपरोक्त वर्णित तथ्यों के आलोक में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अधीन यह उपधारणा की जा सकती है कि मृतका के साथ अभियुक्त द्वारा पूर्व में किया जा रहा क्रूर व्यवहार अन्त समय तक जबकि मृतका को मजबूर हो कर उस रात आत्महत्या कर लेना पड़ा इस प्रकार का क्रूर व्यवहार निरन्तर चलते रहना जो कि रिकार्ड के आधार पर सिद्ध था कि उपधारणा अभियुक्त की ओर सन्देह की उंगली उठाती है। अतएव मृतका का पति तथा उसका बड़ा भाई दोनों भा० दे० संहिता की धारा 498-क के अधीन दोषसिद्ध किये गये। |

मिलिन्द भगवान राव गोडसे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य12 के वाद में मृतक पत्नी द्वारा अपीलाण्ट पति के द्वारा क्रूरता का बर्ताव किये जाने के कारण आत्महत्या करना आरोपित था। अभियुक्त ने अपने बचाव में यह तर्क दिया कि मृतक उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त महिला थी और जीवन के सभी विलासोपकरण प्राप्त न कर पाने के कारण कुण्ठाग्रस्त थी। परन्तु उसके पिता, बहन और पड़ोसी के साक्ष्य द्वारा घोर मानसिक क्रूरता का मामला सिद्ध होता था। मृतका द्वारा अपने पिता को लिखे गये पत्रों से यह स्पष्ट था

9. 1991 क्रि० लॉ ज० 639 (कल०).

10. 1992 क्रि० लॉ ज० 1444 (इला०).

11. 1997 क्रि० लॉ ज० 1640 (एस० सी०),

12. (2009) 2 क्रि० लाँ ज० 1736 (सु० को०).

कि अपीलाण्ट को अपनी पत्नी के साथ क्रूरता का व्यवहार करने थी। अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य यह भी संकेत करता था कि अतिशय मानासक क्रूरता और उत्पी (harassment) के कारण मतका अपना जीवन समाप्त करने के लिये बाध्य हो गया था। अतएव अपीला की दोषसिद्धि उचित पायी गयी।।

सतीश कुमार बात्रा एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य13 के वाद में पति अपने चार रिश्तेदारों के साथ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अन्तर्गत अपराध हेतु आरोपित था। प्रथम सूचना रिपोर्ट में पीरि के पति के चाचा एवं चाची के विरुद्ध जोर दिया गया था। पीड़िता एवं उसके सम्बन्धियों के साक्ष्यों में विरोध और सुधार करना पाया गया। प्रथमतया चाचा एवं चाची की अपेक्षा पति के सम्बन्धियों से सम्बन्धित साक्ष्य में अधिक सुधार करना पाया गया। तथापि पति के चाचा एवं चाची को दोषमुक्त किया गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र पति के चाचा एवं चाची की दोषमुक्ति अनुचित थी। साक्ष्य कि दृष्टि सभी सम्बन्धी दोषमुक्ति के अधिकारी हैं। जहाँ तक पति का सम्बन्ध है उसके विरुद्ध साक्ष्य स्पष्ट और अकाट्य (Cogent) है और इस कारण पति की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी।

यह भी इंगित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन दहेज हत्या के अपराध की अपेक्षा धारा 498-क के अधीन पत्नी के साथ क्रूरता भिन्न अपराध है। परन्तु क्रूरता दोनों ही अपराधों का उभयनिष्ठ (common) तत्व है। यह भी स्पष्ट किया गया कि पत्नी के साथ क्रूरता आत्महत्या के दुष्प्रेरण से सुभिन्न है और दोनों में भेद आशय का है।

अरुण व्यास बनाम अनिता व्यास14 के बाद में यह अभिनित किया गया कि भा० द० संहिता की धारा 498-क के अधीन परिभाषित क्रूरता इसके साथ संलग्न व्याख्या के साथ पढ़ते हुये, एक निरन्तरित अपराध है और इसलिये ऐसे प्रत्येक अवसर पर जब पत्नी के साथ क्रूरता की जाती है तो उसे परिसीमा की दृष्टि से नया अवसर मिल जाता है।

कान्तिलाल मारताजी पण्डोर बनाम गुजरात राज्य और अन्य14क के बाद में अभियुक्त की दो पत्नियां थीं। अभियुक्त ने पहली पत्नी को दूसरी के घर में नवजात शिशु (new born child) के साथ प्रवेश करने की अनुमति दिया। यह अधिनिर्णीत किया गया कि अभियुक्त का दूसरी पत्नी को पहली के घर में प्रवेश करने की अनुमति देना दूसरी पत्नी के साथ, धारा 498-क के अधीन क्रूरता का व्यवहार नहीं कहा जा सकता है। अर्थात् वह क्रूरता कारित करने हेतु दायित्वाधीन नहीं होगा।

पवन कुमार बनाम हरियाणा राज्य15 के वाद में मृतक की मृत्यु जलने के कारण कारित चोटों से हुयी। थी। इस बात का साक्ष्य था कि मृतक के पति ने दहेज में नकद के साथ ही मारुति वैन की भी मांग अपने साले से किया था जिसे उसके साले ने बुक भी कराया था। मृत्युकालिक कथन में यह कहानी बनायी गयी थी कि स्टोव में मिट्टी का तेल खत्म हो गया था और मृतक जब स्टोव में मिट्टी का तेल भर रही थी तभी उसके कपड़ों में आग लग गयी। यह अभिनित किया गया कि मृत्युकालिक कथन की असत्यता इस तथ्य से सिद्ध होती है कि जब स्टोव में मिट्टी का तेल खत्म हो जायेगा तो उसका जलना बन्द हो जायेगा और वह बुझ जायेगा। अतएव दुर्घटनात्मक मृत्यु की कहानी अविश्वसनीय है। दहेज की मांग और दहेज हेतु प्रताड़ना के साक्ष्य पर विचारोपरान्त साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 के अधीन उपधारणा की जा सकती है। अतएव पति और उसके पितामह की भा० द० संहिता की धारा 306 और 498-क के अधीन दोषसिद्धि उचित है।

कष्णागिरि मंगलगिरि गोस्वामी बनाम गुजरात राज्य!6 के वाद में अभियुक्त पर भा० द० संहिता की धाराओं 306, 498-क और दहेज प्रतिषेघ अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराध करने का आरोप था। उस पर अपनी पत्नी को दहेज हेतु प्रताड़ित करने का आरोप था जिसके कारण पत्नी ने आत्महत्या कर लिया। उस पर यह भी आरोप था कि उसने अपने सास-श्वसुर को भी रुपये की मांग करते हुये पत्र लिखा था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन दोषसिद्ध करने हेतु मात्र क्रूरता।

13. (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 2447 (सु० को०).

14, 1999 क्रि० लॉ ज० 3479 (एस० सी०), 14क. (2013) II क्रि० लॉ ज० 3866 (एस० सी०).

15. 2001 क्रि० लॉ ज० 1679 (एस० सी०).

16. (2009) 2 क्रि० लॉ ज० 1720 (सु० को०).

का प्रमाण ही यथेष्ट नहीं था। तथापि पति द्वारा सास-श्वसुर को लिखे पत्रों के आलोक में अभियक्त भारतीय संहिता की धारा 498-क और दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 के अधीन दोषसिद्ध किये जाने के लिये दायित्वाधीन अभिनिर्धारित किया गया।

गिरिधर शंकर तबाडे बनाम महाराष्ट्र राज्य17 के वाद में अभियुक्त की शादी हुयी थी और उसकी पहली पत्नी जिसकी मृत्यु हो गयी थी, से एक पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। उसकी मृत्यु के बाद उसने अपनी दसरी शादी फरवरी, 1984 में शोभा नाम की महिला जिसके माता-पिता नहीं थे और एक भाई चन्द्रकान्त कटकर और एक चचेरा भाई विष्णु कटकर था, से विवाह कर लिया। विवाह के बाद लगभग 6 माह तक शोभा के साथ उसके पति ने अच्छा व्यवहार किया परन्तु अभियुक्त का उसके बाद शोभा के साथ व्यवहार निन्दनीय (reprehensible) हो गया और वह मामूली सी बातों पर भी मारने पीटने लगा। कतिपय अवसरों पर जब शोभा अपने भाइयों के घर गयी तो उसने अपनी दुर्दशा (plight) की घृणित (sordid) कहानियाँ अपने। चचेरे भाई परिवादी विष्णु जो उसके सगे भाई चन्द्रकान्त के घर के विपरीत रहता था, से बताया। वह अपने दोनों भाइयों को अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार के विषय में पत्र लिखती रहती थी। एक अवसर पर यह जानकारी मिलने पर कि शोभा को ऐसी चोट जिसमें खून बह रहा था, पारित की गयी है परिवादी विष्णु, अबाराव इन्गले के साथ अभियुक्त के घर गया ताकि शोभा के साथ भविष्य में इस प्रकार का व्यवहार न किया जाये।

यह कहा गया था कि दिनांक 12-8-1988 को लगभग 6 बजे शाम को दिबा दुधे परिवादी के पास आया और सूचित किया कि शोभा जल गयी थी और घाटी अस्पताल में भर्ती की गयी थी और सुबह उसकी मृत्यु हो गयी। उसने यह सूचना दी कि शोभा के पति ने उसके शव का दाह संस्कार भी कर दिया है। इस सूचना पर शोभा के चचेरे भाई विष्णु ने दिनांक 12-8-1988 को रिपोर्ट दर्ज करायी जिसमें उसने यह कहा कि गिरधर ने परिवादी और उसके भाई को शोभा के जलने सम्बन्धी चोट के और अस्पताल में भर्ती किये जाने के बारे में कोई सूचना नहीं दी थी और निकट सम्बन्धियों की प्रतीक्षा किये बिना उसका दाह संस्कार भी कर दिया। परिवाद से ऐसा भी प्रतीत होता है कि शोभा ने अपने पति के दुर्व्यवहार के कारण आत्महत्या कर लिया था। इस परिवाद के आधार पर दिनांक 13-8-1988 को अन्वेषण प्रारम्भ किया गया और भा० द० संहिता की धारा 306 और 498-क के अधीन अभियुक्त के विरुद्ध मामला पंजीकृत किया गया। अन्वेषण अधिकारी ने घटनास्थल का निरीक्षण किया और स्टोव तथा पीड़ित के कपड़े कुर्क कर लिये गये। मृत शरीर (शव) को अस्पताल में भेज दिया गया जहाँ उसका अन्त्य परीक्षण (post mortem) किया गया। मृतका के दोनों भाइयों के बयान को अभिलिखित करने के पश्चात् पंचनामा के अधीन तीन पत्रों को कुर्क कर लिया गया। दिनांक 11-1-1989 को अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया और अन्वेषण पूरा होने के पश्चात् अभियुक्त के विरुद्ध भा० द० संहिता की धाराओं 306 और 498-क के अधीन आरोप-पत्र दाखिल किया गया। अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य दोनों भाइयों का मौखिक कथन है परन्तु सन् 1986, 1987 और 1988 में मृतका द्वारा लिखे गये तीन पत्रों को अधिक विश्वसनीय माना गया। मृतका का चचेरा भाई एक बार उसके घर गया था। अभि० गवाह 1 ने यह कहा कि वह 1986 में वहाँ गया था; विष्णु का कथन है कि यह मई, 1988 में गया था परन्तु दोनों इस बात की पुष्टि करते हैं कि पत्र मृतका की मृत्यु के 2-3 माह पहले प्राप्त हुये थे।

यह अभिनित किया गया कि मृतका के भाई और चचेरे भाई कि दो विरोधाभासी बयान थे और इसलिये उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। मृतका द्वारा अपने भाई और चचेरे भाई को लिखे गये तीन पत्र अभिलेखीय साक्ष्य धारा 498-क के आवश्यक तत्वों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं करते हैं। यदि यह मान भी लिया जाये कि अभिलेख में उपलब्ध मौखिक साक्ष्य में विरोधाभास नहीं है, चचेरा भाई दुर्भाग्यग्रस्त लड़की के सास सुसर के घर जाता है और उसके पते से अच्छा व्यवहार करने का निवेदन करता है। यह अपने आप में धारा 498-क के अधीन आरोप को सिद्ध नहीं करता है। दहेज की मांग सिद्ध नहीं हो पायी। विर न्यायालय द्वारा यह विशिष्ट निष्कर्ष था जिसका उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदन किया गया था। आत्महत्या नहीं वरन दुर्घटना के कारण थी। अतएव यदि आत्महत्या को छोड़ दिया जाये तो उस दशा 498-क के आवश्यक तत्वों को पूरा करने का प्रश्न नहीं उठता है क्योंकि धारा 498-क के अधीन आरोप को

17. 2002 क्रि० लॉ ज० 2814 (एस० सी०).

सिद्ध करने के लिये जानबूझ कर कार्य अथवा आचरण घटना का तात्कालिक कारण होना चाहिये। कुछ समय पूर्व घटी कोई घटना धारा 498-क के अधीन आरोप को सिद्ध करने हेतु महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है। धारा ३०० के की व्याख्या (ख) के विशेष सन्दर्भ में विधायिका का आशय स्पष्ट है कि इस व्याख्या (ख) के अधीन किये जाने के कार्य के लिये कार्यों की एक श्रृंखला (Series) होनी चाहिये। पत्र अपने आप में निन्दनीय का है परन्तु धारा 498-क के अधीन अभियुक्त के विरुद्ध आरोप को सिद्ध करने के लिये य है। आग यह अभिमत भी व्यक्त किया गया कि धारा 306 के अधीन किसी आरोप से मुक्ति यद्यपि अपने में धारा 498-के के अधीन आरोप से दोषमुक्ति का आधार नहीं है परन्तु धारा 498-क के अधीन आरोप सिद्धि के लिये कुछ निश्चायक (cogent) साक्ष्य आवश्यक हैं जिसके बिना आरोप सिद्ध नहीं माना जा सकता। परन्तु इस तरह का कोई साक्ष्य अभिलेख में उपलब्ध नहीं है। अतएव अभियुक्त धारा 498-क के अधीन आरोप से दोषमुक्त किये जाने का अधिकारी है।18

के० प्रेमा एस० राव बनाम यादला श्रीनिवास राव19 के मामले में मृतका के पति अभियुक्त ने विवाह के समय स्त्रीधन के रूप में मृतका को प्राप्त भूमि को अंतरित करने का दबाव डाला । अभियुक्त ने उसके डाक से भेजे गये पत्र भी छुपा लिये जो बाद में मृतका ने अपने पिता को दे दिये थे। एक दिन अभियुक्त और उसके माता-पिता ने उसे घर से बाहर निकाल दिया और यह चेतावनी दी कि उन पत्रों को वापस लाए, जो मृतका ने अपने पिता को दे दिया था। मृतका द्वारा भूमि पति के नाम अंतरित करने से इन्कार करने के कारण उसके साथ अभियुक्त पति द्वारा क्रूरता और प्रपीड़न का व्यवहार किया जाने लगा। जब उसे उसके ससुराल से निकाल दिया गया तब उसने जहरीली कीटनाशक औषधि खा लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त पति और उसके माता-पिता पर धारा 304-ख के अधीन आरोप लगाया गया और विचारण किया गया जो साबित नहीं हो सका, क्योंकि ऐसा कोई सबूत नहीं था कि मृतका के साथ मृत्यु से तत्काल पूर्व दहेज की मांग से संबंधित क्रूरता या प्रपीड़न किया गया। उसके साथ क्रूरता का व्यवहार दहेज की मांग को लेकर नहीं था, जबकि मृतका ने आत्महत्या इसलिये की थी कि उसके साथ क्रूरता और प्रपीड़न का व्यवहार होता था। इसलिये यह अभिनिर्धारित किया गया कि उसी साक्ष्य पर उन्हें धारा 304-ख के अधीन दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता था, किन्तु उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन क्रूरता के अपराध के लिये दोषसिद्ध किया जा सकता है।

अभियुक्तों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 221 की सहायता से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन आत्महत्या के दुष्प्रेरण के लिये भी दोषसिद्ध किया जा सकता है।

विनिर्दिष्ट रूप से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन अभियुक्त पति के विरुद्ध आरोप विरचित न किए जाने के तथ्य के आधार पर अन्यथा साबित हुये अपराध के लिये न्यायालय को उसे दोषसिद्ध करने से निवारित नहीं किया जा सकता।

आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त के माता-पिता अपराध के दोषी नहीं हैं, क्योंकि अभियक पति के साथ मिलकर सास ससुर द्वारा मृतका को घर से निकालने का अरोप पहली बार मृतका के पिता दारा न्यायालय में अपने परिसाक्ष्य में लगाया गया था। मृतका के पिता के मौखिक परिसाक्ष्य के अतिरिक्त सास-ससुर के विरुद्ध कोई अन्य साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इसलिये उनकी दोषमुक्ति को उचित समझा गया।

हंसराज बनाम हरियाणा राज्य20 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि मात्र यह तथ्य कि किसी महिला ने विवाह के सात वर्ष के भीतर आत्महत्या कर लिया और उसके पति द्वारा उसके साथ करता और प्रपीडन का व्यवहार किया गया था, इस उपधारणा को अपने आप जन्म नहीं देता कि उसके पति दारा आत्महत्या के लिये उसे दुष्प्रेरित किया गया था। न्यायालय को मामले के अन्य सभी पहलओं को देखना

18. गिरधर शंकर तवाड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2002 क्रि० लॉ ज० 2814 (एस० सी०).

19. 2003 क्रि० लॉ ज० 434 (सु० को०).

20. 2004 क्रि० लॉ ज० 1759 (सु० को०).

होता है | न्यायालय द्वारा विचार में लाई जाने वाली परिस्थितियों में से एक यह है कि क्या अभिकथित क्ररता इस प्रकृति की थी, जिससे कोई महिला आत्महत्या करने के लिये अथवा अपने शरीर, अंग या स्वास्थ्य के गंभीर क्षति कारित करने अथवा संकट में डालने के लिये मजबूर हो सकती है या नहीं।

आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि जब किसी आपराधिक विचारण में जिसमें पति द्वारा पत्नी को आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया गया हो वहाँ अभियोजन अपने पक्षकथन (मामले) को एक के बाद एक प्रक्रम पर इन अभिकथनों के साथ सुधार करता है कि अभियुक्त मृत पत्नी को अपने साथ नहीं रखना चाहता था, क्योंकि वह देखने में सुन्दर नहीं थी या कि वह (पति) शराबी था अथवा मृतका ने अपने मातापिता और अन्य लोगों को इन बातों के बारे में बताया था अथवा यह कि अभियुक्त पुनर्विवाह करना चाहता है। और अपनी पत्नी को इसके बारे में बताया है अथवा यह कि मृतका एक बार घायल अवस्था में अपने मायके गई थी या मारपीट करने के बारे में अभिकथन अन्वेषण के दौरान पुलिस द्वारा दर्ज बयान में नहीं दर्ज किये गये हैं और ऐसे अभिकथन प्रथम बार विचारण के दौरान किये जा रहे हैं और वह सब बातें जो प्रथम इक्लिा रिपोर्ट में अथवा अन्वेषण के दौरान कही गई थीं वह यह कि पति-पत्नी के बीच प्रायः झगड़ा होता था और कभी-कभी मारपीट की नौबत पति के भांग पीने का अभ्यासी होने के कारण आ जाती थी और अन्य आरोप जैसे कि अभियुक्त इस तथ्य से क्षुब्ध था कि उसकी बहन के साथ जो मृतका का भाई था अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था भी असत्य प्रतीत होता है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-क के अधीन उपधारणा का अवलम्ब अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन दोषी ठहराने के लिये नहीं लिया जा सकता है।

आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुये यद्यपि अभियोजन भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध सिद्ध करने में विफल रहा फिर भी अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन दोषसिद्धि न्यायोचित है।

कोपी सेट्टी सुब्बाराव उर्फ सुब्रमणियम बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य,20क के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क में ‘पति’ शब्द ऐसे ही लोगों तक सीमित नहीं है। जिन्होंने विधिपूर्ण ढंग से विवाह किया हो। धारा 498-क महिला का उत्पीड़न करने पर बल देता है। ठीक उसी प्रकार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304-ख के अधीन अपराध दहेज मृत्यु पर बल देता है। फलतः नियंत्रित की जाने वाली बुराई आपराधिक कृत्यों को करने वाले व्यक्तियों से सुमिन्न और स्पष्ट है और विधि में अपराध कारित करने वाले व्यक्तियों से सम्बन्धित शब्दों और अभिव्यक्तियों (Expressions) का उदारता पूर्वक अर्थान्वयन करने में कोई बाधा नहीं हो सकती है ताकि उसमें न केवल विधि के रूप से विवाहित व्यक्ति शामिल हो बल्कि कोई ऐसे अन्य व्यक्ति भी जिन्होंने किसी अन्य प्रकार से भी वैवाहिक सम्बन्ध बनाया। है और इस प्रकार अपने लिए पति की हैसियत से साथ रहने, सहवास करने और दूसरी महिला के साथ ऐसे अन्य अधिकार का प्रयोग करने की हैसियत प्राप्त कर लिया है।

मोहम्मद हुसैन बनाम आ० प्र० राज्य21 के वाद में मृतक राजवाना परवीन का विवाह अपीलार्थी सं० 1 के साथ 26-4-1987 को हुआ था। 9.3.1988 को लगभग 9.30 बजे रात्रि मृतका को अपीलार्थियों के घर में जहाँ वह रह रही थी, जलने से क्षति कारित हुई। उसे उसमानिया जनरल अस्पताल भेज दिया गया जहाँ वह 12-3-1988 को क्षतियों के कारण मर गई। यह अभिकथन किया गया कि मृतका ने आत्महत्या इसलिये किया, क्योंकि विवाह के बाद से अपीलार्थीगण उसके साथ क्रूरता का व्यवहार कर रहे थे और अपेलिार्थी उस दौरान दहेज मांगता रहा। विवाह के बाद 11 मास की अवधि के दौरान दो माह छोड़कर अधिकांशतः वह अपने माता पिता के पास रही। यह अभिकथन किया गया कि अभियुक्त पति और सास-ससुर द्वारा किसी न तो बहानै निरन्तर व्यंग बोलने या चिढाने के कारण उसने अपने आप को जला कर आत्महत्या कर लिया। अभियुक्त ने घर में मौजूद होते हुये उसे बचाने की कोशिश नहीं किया।

20क. (2009) 3 क्रि० लॉ ज० 3480 (एस० सी०).

21. 2002 क्रि० लॉ ज० 4124 (सु० को०).

अभियोजन का मामला सिद्ध करने के लिये कोई भी प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है। अभियोजन ने मुख्य रूप से अभि० सा० 3 से 7 के साक्ष्य का अवलम्ब लिया, जो मृतका के भाई, पिता और माँ हैं और एक अन्य अधि. साक्षी न० 7 था। मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया मृत्युपूर्व कथन और हेड कांस्टेबल द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर भी विश्वास किया गया। विचारण न्यायाधीश ने अभियोजन के इस पक्षकथन को स्वीकार नहीं किया कि अपीलार्थियों द्वारा मृतका को ठीक से खाना न बनाने या वह देखने में अच्छी नहीं है, कह कर डाँटने या ताना मारने की बात, उस कोटि की क्रूरता में नहीं आती, जो उसे आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करे। विचारण न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया, किन्तु अपील में उच्च न्यायालय ने दोषमुक्ति आदेश को उलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि भिन्न मत अपनाते हुये उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्ति आदेश को उलटना अनुचित नहीं था और अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 और 498क के अधीन अपराधों के लिये दोषसिद्धि का दायी है।

आगे यह अभिनिर्धारित किया गया कि कोई दम्पति दूसरे के प्रति कठोरता के व्यवहार का दोषी है या नहीं यह आवश्यक रूप से तथ्य का प्रश्न है। शिकायतों, आरोपों या तानों का प्रभाव किसी व्यक्ति पर क्रूरता के समतुल्य पड़ता है या नहीं, यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे सम्बद्ध व्यक्ति की संवेदनशीलता, सामाजिक पृष्ठभूमि, वातावरण, शिक्षा आदि। इसके अतिरिक्त मानसिक क्रूरता का प्रत्येक व्यक्ति पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है जो उसकी संवेदना या संवेग पर तथा ऐसी क्रूरता को सहने के उसके साहस या दृढ़ता पर निर्भर करती है।

दहेज के लिये उत्पीड़न (Harassment)-प्रीति गुप्ता और अन्य बनाम झारखण्ड राज्य21 क के वाद में पत्नी द्वारा पति और उसके सम्बन्धियों जैसे, शिकायतकर्ता की ननद और अविवाहित देवर के विरुद्ध उत्पीड़न और दहेज की मांग के सम्बन्ध में शिकायत दर्ज करायी गयी। दोनों सम्बन्धियों के विरुद्ध कोई विशिष्ट आरोप नहीं लगाये गये थे। अपीलांट अन्य स्थान पर रहते थे। वे न तो शिकायतकर्ता और उसके पति के साथ रहते थे और न घटना (incident) स्थल पर आये। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इन तथ्यों के आलोक में शिकायत में सम्बन्धियों को फंसाने का उद्देश्य पति के सम्बन्धियों का उत्पीडन और अवमानित (humiliation) करना था। अतएव शिकायतकर्ता को ऐसी शिकायत को आगे बढ़ाने या जारी रखने की अनुमति देने का अर्थ विधि की प्रक्रिया (process) का दुरुपयोग होगा। अतएव इसे निरस्त करने योग्य अभिनिर्धारित किया गया। साथ ही यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि अधिवक्ता परिषद् के सदस्यगण ऐसी शिकायतों को एक मूलभूत (Basic) मानवीय समस्या के रूप में समझें और उन्हें पक्षकारों को ऐसी समस्या का आपसी बातचीत से समाधान करने में हर गम्भीर प्रयास करने में सहायता करना चाहिये।

सुरेन्दर बनाम हरयाणा राज्य22 के वाद में मृतक पुष्पा की अपीलांट सुरेन्द्र के साथ 1994 में शादी हुई थी। विवाह के समय यथेष्ट मात्रा में दहेज दिया गया था परन्तु अपीलांटगण दिये गये दहेज से संतुष्ट नहीं थे। उन लोगों ने उसको परेशान करना (Harassing) प्रारम्भ कर दिया। उन लोगों को प्रसन्न करने के लिये पुष्पा के पिता जब कभी वह पिता के घर जाती थी उसे कुछ धनराशि दे देते थे परन्तु अभियुक्तगणों की मांग निरन्तर बढ़ती गयी। वे उसकी पिटाई करते थे। पुष्पा अपने ऊपर किये गये अत्याचारों को जब कभी पिता के यहां जाती थी, उनसे बताया करती थी। लगभग ढाई वर्ष बाद पुष्पा ने एक कन्या को जन्म दिया और उस समय भी पुष्पा के पिता दिलबाग सिंह ने काफी उपहार दिया था। परन्तु अपीलान्ट संतुष्ट नहीं थे। लगभग तीन माह पीछे अपीलांट सुरेन्दर अभि० सा० 4 पुष्पा के मामा सोमबीर के पास ट्रैक्टर खरीदने के लिये 80,000 (अस्सी हजार) रुपये की मांग करने गया। परन्तु सोमवीर ने उसे पैसे देने से मना कर दिया और इसके विषय में दिलबाग सिंह से बता दिया। उसने भी सोम वीर से अपीलांट को पैसे देने से मना कर दिया क्योंकि सुरेन्दर और उसके पिता पैसे का शराब पीने में दुरुपयोग कर डालेंगे । तत्पश्चात् अपीलांट और उसके परिजन पुष्पा के

21क, (2010) IV क्रि० लाँ ज० 4303 (एस० सी०).

22. 2007 क्रि० लाँ ज० 779 (एस० सी०).

प्रति और कठोर हो गये और उसे मारने पीटने लगे जिसके बारे में उसने अपने पिता से बताया। वह अपने पिता के घर लगभग तीन माह तक रही और इसके बाद घटना के लगभग 10 दिन पूर्व सुरेन्दर उसे यह आश्वासन देकर ले आया कि उसके साथ सद्व्यवहार किया जायेगा।

दिनांक 23.4.2002 को पुष्पा की माता प्रेमा को लगभग 6-7 बजे शाम को टेलीफोन से अभि० सा० 3 कशन के द्वारा यह सूचना मिली कि पुष्पा ने लटक कर आत्महत्या कर ली है। यह सूचना पाने के बाद अभि० पा०-10 दिलबाग सिंह अपनी पत्नी अभि० सा०-2 प्रेमा, साले सोमबीर अभि० सा०-4 और अन्य लोगों के साथ सुरेन्दर के गांव पहुंचा और पुष्पा की लाश उनके मकान के प्रथम तल पर एक कमरे में पड़ी पाया। उसकी चूड़ियों के टूटे टुकड़े और चप्पल भी वहाँ पड़े थे।

पुष्पा ने अपीलांट और उसके परिजनों द्वारा दहेज की मांग के लिये परेशान किये जाने के कारण लटक कर आत्महत्या कर लिया था। सुरेन्दर का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क और 306/34 के अधीन। अपराध हेतु विचारण किया गया। अभि० सा० 2, अभि० सा० 10 और अभि० सा० 4 का इस तथ्य का यथेष्ट । साक्ष्य था कि पुष्पा को दहेज के लिये परेशान, उत्पीडित किया गया था, यहाँ तक कि अपीलांट पुष्पा के मामा सोमवीर के पास 80,000 रुपये की मांग करने गया था, परन्तु उसने देने से मना कर दिया था। साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि सुरेन्दर ने पुष्पा को इतना अधिक मारा पीटा कि वह चलने लायक नहीं रह गयी। आत्महत्या करते समय मृतका गर्भवती थी। विचारण न्यायालय ने तीनों ही अभियुक्तों को धारा 306/34 और 498क/34 के अधीन दोषसिद्ध किया परन्तु अपील में उच्च न्यायालय ने केवल अपीलांट की दोषसिद्धि मान्य किया और उसके माता-पिता को दोषमुक्त कर दिया।

अपीलांट की ओर से यह तर्क दिया कि मृतका को आत्महत्या करने के दुष्प्रेरण का आशय सिद्ध करने का कोई आधार नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि उकसाने के लिये स्पष्ट शब्दों के प्रयोग का होना आवश्यक नहीं है। दुष्प्रेरण का अपराध दुष्प्रेरित किये गये व्यक्ति के द्वारा कारित कार्यों पर नहीं वरन् । दुष्प्रेरित करने वाले व्यक्ति के आशय पर निर्भर करता है।

इसी प्रकार बचाव पक्ष का यह तर्क कि मृतका ने गर्भवती होने के तनाव के कारण आत्महत्या किया यह भी उच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष कि एक गर्भवती युवती अपने गर्भ में शिशु धारण किये हुये सामान्यतया आत्महत्या नहीं करेगी जब तक कि वह ऐसा करने हेतु बाध्य न कर दी जाय के आलोक में मान्य नहीं किया जा सकता है। अतएव अभियुक्त की धारा 306/34 और धारा 498-क/34 के अधीन दोषसिद्धि उचित धारित की गयी क्योंकि दहेज के लिये उत्पीड़न का यथेष्ट साक्ष्य था।

सुनील कुमार शम्भू दयाल गुप्ता एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य23 के वाद में अपीलार्थी संख्या 1 का विवाह मृतक नीरुगुप्त संग दिनांक 1-12-1998 को हुआ था और इस समझौता विवाह (arranged marriage) के पश्चात् सन् 1981 में एक लड़की पैदा हुयी। मामूली मामलों के सम्बन्ध में पति-पत्नी के बीच कुछ आपसी विवाद हुये थे। दिनांक 28-9-1985 को नीरू ने अपने को स्नानघर में लटकाकर आत्महत्या कर लिया। उस समय घर के अन्य सदस्य घर के बाहर गये थे। मृतका के भाई राजेश ने दिनांक 30-9-1985 को अपीलाण्ट पति, सास और श्वसुर के विरुद्ध यह शिकायत दाखिल किया कि वे लोग दहेज की मांग कर रहे थे और मृतका के साथ दुर्व्यवहार करते थे और इसी कारण नीरू ने आत्महत्या कर लिया। सभी तीनों अभियुक्तों के विरुद्ध दिनांक 9-1-1986 को भा० द० सं० की धारा 306 सपठित धारा 34 और धारा 498-क सपठित धारा 34 के अधीन आरोप-पत्र दाखिल किया गया। विचारणोपरान्त सेशन न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मृतका ने आत्महत्या की है परन्तु किसी अपीलार्थी की उसमें कोई भागीदारी या रोल नहीं कहा गया और अभियोजनकर्ता किसी भी आरोप को अपीलाण्ट के विरुद्ध सन्देह से परे सिद्ध करने में असफल रहा। अभियोजक द्वारा पेश किये गये साक्षियों ने दहेज में सोने के आभूषण की मांग को और मृतका के साथ दुव्र्यवहार के सम्बन्ध में अपना बयान बार-बार बदला। न्यायालय ने यह निष्कर्ष दिया कि मृतका ‘मगा, मनोविक्षिप्ति और अवसाद से पीडित थी और इन सबके लिये उसका निरन्तर इलाज चल रहा था। अतएव यह मामला दहेज की मांग अथवा क्रूरतापूर्ण व्यवहार का नहीं था।

अतएव इस निर्णय के विरुद्ध अपील की गयी। इस मामले में अभियुक्त पति के और एक पारिवारिक मित्र के बीच अवैध सम्बन्ध होने का सन्देह करते थे इससे पारिवारिक प्रतिष्ठा दांव पर

23. (2011) I क्रि० लॉ ज० 705 (एस० सी०).

थी। अभियुक्त ने इस पर अपना विरोध जताया और मृतका को उस मित्र से दूर रहने को कहा। ऐसा कहना अवांछित नहीं था। मेडिकल साक्ष्य यह दर्शाता था कि मृतका सनकी/उन्मत्त अवसाद और कुछ मिर्गी मनो विकृति की समस्या से पीड़ित थी। निकट सम्बन्धियों का साक्ष्य विरोधाभासों से परिपूर्ण था और पूर्व में दिये गये बयानों के पश्चात् उसमें सुधार किया गया था। प्रथम सूचना रिपोर्ट में मृतका के भाई ने यह आरोप लगाया था कि अभियुक्तगणों से सोने के आभूषणों की मांग की गयी थी परन्तु उसका कोई कारण नहीं दिया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त के लिये मृतका के विवाह के 6 वर्ष से अधिक समय बाद लालच कर दहेज की मांग करना स्वाभाविक नहीं था। मामूली सोने की जंजीर की मांग के लिये यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलार्थीगण मृतका के साथ ऐसा क्रूर व्यवहार करेंगे जिससे कि वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाये।।

इस वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहां तक उस चिकित्सक के साक्ष्य का सम्बन्ध है जिसने मृतका का इलाज किया है उसमें भी न्यायालय में दिया बयान काफी कुछ सुधारा गया, परिष्कृत और बनावटी है। उसके पूर्व में अभिलिखित बयान और न्यायालयों में दिये बयान में काफी विरोधाभास है। अतएव यह अभिनिर्धारित किया गया कि चिकित्सक के साक्ष्य पर विश्वास करना सुरक्षित (safe) नहीं है। अतएव अभियुक्त की दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया गया।24

दहेज की मांग के लिये क्रूरता और हत्या-बलबीर सिंह बनाम पंजाब राज्य25 के वाद में मृतक अमरजीत कौर का अपीलांट के साथ विवाह हुआ था। अपने साथ पति और सास-ससुर के द्वारा दुर्व्यवहार की वह शिकायत करती रहती थी। जब उसका पति दो माह के अवकाश पर घर आया था तो विवाद को हल करने के लिये किसी समय पंचायत भी हुई थी परन्तु दुर्व्यवहार निरन्तर होता रहा। एक समझौते के तहत वह 12.10.1995 को अपनी ससुराल आई। उसका शरीर 90 प्रतिशत जलने से क्षति हुई। उसने डाक्टर के समक्ष अपने मृत्युकालिक कथन में कथन किया था कि उसके पति ने उसके ऊपर मिट्टी का। तेल डाल कर आग लगा दी और आग लगा देने के बाद कमरे के दोनों दरवाजों में बाहर से ताला लगा दिया। पीडिता को पड़ोसियों ने बचाया। पीड़िता ने अन्वेषण अधिकारी के समक्ष अपने दूसरे मृत्युकालिक कथन में केवल अपने पति को ही नहीं बल्कि अपनी सास ससुर को भी इस दुर्घटना में हाथ होने का कथन किया। साक्षी में साक्षियों ने बताया कि किस प्रकार अभियुक्तगणों के द्वारा उनकी दहेज की मांग को पूरा न करने के कारण, मृतका के साथ दुर्व्यवहार किया जाता था।

उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि पीड़िता को उसके पड़ोसियों द्वारा बचाया गया आत्महत्या के मामले का वर्जन किया जाना चाहिये और अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि उचित धारित की गयी। तथापि दोनों मृत्युकालीन कथनों में असंगतियों के कारण जहाँ तक धारा 302 के अपराध का सम्बन्ध है। मृतका की सास को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिये। तथापि दोनों ही अभियुक्तों का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498क के अधीन दोषसिद्धि को सही कहा गया। चूंकि सास पहले ही चार वर्षों तक अभिरक्षा में रही है, उसे तत्काल उन्मुक्त करने का आदेश दिया गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि मात्र इस कारण कि मृत्य कालिक कथन मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित नहीं किया गया यह अपने आप समस्त अभियोजन मामले पर अविश्वास करने का आधार नहीं माना जा सकता।

धारा 498-क की संवैधानिकता-सतीश कुमार बात्रा एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य26 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र इस कारण कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के अधीन पत्नी के प्रति क्रूरता के अपराध का दुरुपयोग किये जाने की सम्भावना है इस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किये जाने का आधार नहीं है।

24. (2011) I क्रि० लॉ ज० 705 (एस० सी०).

25.  2006 कि० लाँ ज० 4646 (एस० सी०).

26. (200g) 2 क्रि० लॉ ज० 2447 (सु० को०)

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