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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 9 LLB Notes

  Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 9 LLB Notes:- LLB Law 1st Year / Semester Notes eBooks Semester Wise PDF Study Material in Hindi English Download Online, LLB Book Notes For All Semester Online in PDF Download Official Website All University.

 
 

कर्नाटक राज्य बनाम डेविड रजेरियो।1 वाले मामले में मृतका, जो वृद्धा महिला थी, जिसके तीन बच्चे थे, जो विदेश में रहते थे, वह अकेली स्टीफेन रोड बंगलौर में रहती थी। एवं नौकरानी तायम्मा (अभि० सा० 5) उसके घर में काम करती थी और साथ ही वह होम्स की पत्नी ज्वायस ( अभि० सा० 10) के घर भी काम करती थी। दिनांक 20-12-1986 को नौकरानी ने उसे काफी बनाकर दिया और अभि० सा० 10 के घर काम करने चली गई। लगभग 8.00 बजे रात्रि जब वह मृतका के घर के पास से अपने घर वापस जा रही थी उसने देखा कि मृतका के घर में बिजली की रोशनी जल रही थी। उसने यह भी देखा कि सामने का दरवाजा बन्द था, किन्तु पीछे का दरवाजा खुला था। वह पीछे के दरवाजे से घर में गई और हाल में आई, उसने देखा, मृतका एक कुर्सी पर बैठी है और उसके पूरे शरीर पर खून फैला था। मृतका के सिर पर चोट थी। जिससे रक्त बह रहा था। नौकरानी अभि० सा० 5 चीखती हुई होम्स की पत्नी ज्वायस (अभि० सा० 10) के घर की ओर भागी। अभि० सा० 10 अभि० सा० 7 के साथ मृतका के घर गई और उसे विक्रम चांद अभि० सा० 14 के नर्सिंग होम ले गई। चूंकि उसे सिर में गंभीर चोट आई थी, अत: उसे एक एम्बुलेंस में निम्हन्स अस्पताल अतिरिक्त चिकित्सा हेतु ले जाया गया, जहाँ आधी रात के आस पास उसकी मृत्यु हो गई। चिकित्सक द्वारा पुलिस को सूचना दी गई और अन्वेषण आरंभ हुआ। 26-12-1986 को अन्वेषण अधिकारी ने जानकारी एकत्र की, जिसमें एक विदेशी निर्मित टेपरिकार्डर घर से गायब पाया गया। इस घटना से कुछ दिनों के बाद अभियुक्तों को टी० वी० सेट चोरी के एक अन्य मामले में गिरफ्तार किया गया। अभियुक्त सं० 2। अन्वेषण अधिकारी और अन्य को एक टी० वी० की दूकान पर ले गया, जहाँ दिलीप घोटके (अभि० सा० 21) दुकान के मालिक से टेप रिकार्डर लाने को कहा जो उसने उसके हाथ बेचा था। टेप बरामद कर लिया गया और अभियुक्तों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार हथियार अर्थात एक लोहे की छड भी बरामद की गई। राड पर पाया गया रक्त उसी समूह का था जो मृतका की शाल पर पाया गया था। 10ग. (2011) 3 क्रि० लॉ ज० 2935 (एस० सी० ). 10घ. (2011) 2 क्रि० लाँ ज० 1693 (एस० सी०).

  1. 2002 क्रि० लॉ ज० 4127 (सु० को०).

अभियुक्त पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के साथ पठित धारा 302 और धारा 34 के साथ पठित धारा 392 के अधीन आरोप लगाया गया और विचारण हुआ। हत्या के लिये अभियुक्तों को आजीवन कारावास और धारा 392 के अधीन अपराध के लिये 5 वर्ष का कठोर कारावास का दण्डादेश दिया गया। अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने निर्णय अपास्त कर दिया। अभियुक्त ने यह तर्क किया कि बहुत कम मूल्य के सामान के लिये कोई भी व्यक्ति किसी वृद्धा की हत्या नहीं करेगा, विशिष्ट रूप से तब जब कि अधिक मूल्य की वस्तुओं को छुआ भी नहीं गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह अभिवचन अधिसंभावनाओं पर आधारित है। लूट ऐसी वस्तुओं की की जा सकती है, जिन्हें आसानी से बेचा जा सके। अभिलेख पर विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध होते हुये इस बात पर अटकलबाजी करना व्यर्थ है कि अभियुक्तों के मन में क्या था या उन्होंने मूल्यवान वस्तुओं को क्यों नहीं उठाया, इस पर विचार करना व्यर्थ है। अतः उच्च न्यायालय द्वारा अभियुक्त की इस आधार पर दोषमुक्ति उचित नहीं थी कि टेप रिकार्डर का मूल्य बहुत कम था। उच्चतम न्यायालय द्वारा अभियुक्त अपीलार्थियों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 392 के अधीन हत्या और लूट के अपराध के लिये दोषसिद्ध किया। गया। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मुनेश!!क के बाद में अभियुक्त मुनेश पर 11 वर्षीय एक लड़की के साथ बलात्संग करने और उसके बाद उसका गला दबाने का आरोप था। प्रथम सूचना रिपोर्ट करने में कुछ विलम्ब हुआ था। घटना को दो राहगीरों ने देखा था। गवाहों का साक्ष्य मेडिकल साक्ष्य और पीड़िता के पिता के साक्ष्य द्वारा समर्थित था। प्रत्यक्षदशी (Eye-witnesses) गवाहान स्वतंत्र थे। दोनों ही साक्षियों ने न्यायालय में भी अभियुक्त की पहचान किया। साक्षियों द्वारा पुलिस को दिये बयान और न्यायालय में दिये गये बयानों में कुछ विरोधाभास (contradiction) था। अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश/धारा 302 और 376 के अधीन अपराधों के विशेष न्यायाधीश, बुलन्दशहर ने दोनों अभियुक्तों को धारा 302 और 376 के अधीन अपराधों हेतु दोषी पाया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपील मंजूर करते हुये अभियुक्तों को भा० द० संहिता की धारा 302 और 376 के अन्तर्गत दोनों को दोषमुक्त कर दिया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में असामान्य (abnormally) विलम्ब नहीं था। पुलिस को दिये बयान और न्यायालय में दिये गये साक्षियों के बयान में विरोधाभास नगण्य/तुच्छ था। अतएव उनके साक्ष्यों को अस्वीकार (reject) कर अभियुक्तों को मुक्त करना, अनुचित था। आगे यह भी इंगित किया गया कि sperm detection test की रिपोर्ट का न होना घातक (fatal) नहीं था जबकि योनिच्छद (hymen) फटा/भंग पाया गया और गवाहों ने पीड़िता के प्राइवेट अंगों की क्षति और उनसे खून निकलने (00zing)की बात बताया है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि बलात्कार की घटनाओं में अत्यधिक (devastating) बढ़ोत्तरी को दृष्टिगत रखते हुये न्यायालय को साक्ष्य के मूल्यांकन में अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है और अभियुक्त को तुच्छ/सारहीन (preliminary) आधार पर दोषमुक्त नहीं किया जाना चाहिये। कृष्णमूर्थी और अन्य बनाम राज्य द्वारा पुलिस इन्स्पेक्टर12 के वाद में दिनांक 5-10-1996 को मृतक धनावाग्यम अपने खेत गयी थी। एक स्थानीय निवासी महादेवन अभि० सा० 2 जो कि एक निकट के ही खेत में काम कर रहा था, मृतक के खेत की तरफ उसने कुछ शोर सुना और अभियुक्त-1 विजयन को उस खेत से भागते हुये देखा। जबकि लगभग 12 बजे दोपहर उसी गांव के मनवालन अभि० सा० 6 ने उधर से सायकिल से जाते समय दो लोगों को हाथ में पत्थर लिये हुये पूर्व से पश्चिम की ओर दौड़ते हुये देखा। उस समय उसे नहीं ज्ञात था कि कोई दुर्घटना घट गई है। लगभग 2.30 बजे अपरान्ह मृतक का पुत्र सुरेश कुमार अपनी माता का खाना लेकर खेत में गया और अपनी माँ को वहाँ न पाकर उसका नाम लेकर पुकारा और उसकी खोज किया परन्तु उसे पा नहीं सका। वह वापस घर आ गया और उसका पता लगाने लगा। लगभग चार से साढ़े चार बजे अपरान्ह वह पुन: पदमा से साथ खेत गया और अपनी माता की खोज किया। तब उसने अपनी माता को खेत में पीठ के बल मृत पड़ी हुई पाया। उसने देखा कि सर में चोटें लगी हैं और उससे खून 11क. (2013) I क्रि० ला ज० 194 (एस० सी०).

  1. 2007 क्रि० लॉ ज० 1803 (एस० सी०).

निकल रहा है। उसके मंगल सूत्र और कान की बाली गायब थी। मंगल सूत्र खींचने के के निशान उसकी गर्दन पर दिखाई पड़ रहे थे और उसका कान फट गया था। अभि० सा । cा ने चार लोगों को घटना के दिन मतक के खेत के पास देखा था और उन्हें जानता है । सभी पड़ोस के गांव के ही थे। वे साक्षीगण जो बगल के खेत में थे और जिन्होंने अभियुक्त को देखा था , उन्हें पहचान परीक्षण परेड में पहचाना था और आभूषण अभियुक्त की सूचनानुसार बरामद किये गये थे। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि इस बात का यथेष्ट पारिस्थितिक साक्ष्य था कि अधिक गण ने मृतक की खेत में हत्या करने के पहले उसके आभूषण लूट लिये थे। सभी अभियुक्तगण मृतक के के पास जहाँ उसका शव पड़ा पाया गया था, देखे गये थे। उसकी गर्दन पर पाये गये बन्धन के निशान । सिर की चोटों से यह सिद्ध था कि यह मानवघाती मृत्यु है। यह भी अभिधारित किया गया कि अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर की गयी बरामदगी उसके अपराध को सिद्ध करती है। जिन साक्षियों ने अभियों को भागते हुये देखा था उन्होंने भी उनकी पहचान किया था। आभूषणों का प्रथम सूचना रिपोर्ट में उल्लेख न करना महत्वपूर्ण नहीं होगा और चूंकि आभूषण बहुत कीमती नहीं थे, कि उसके लिये हत्या की जाय, अत: उन्हें गलत फंसाया गया था यह तर्क भी मान्य नहीं है। अतएव भारतीय दण्ड संहिता की धारा 392/300 के अधीन दोषसिद्धि और दण्डादेश को उचित अभिधारित किया गया। अपूर्व में अपूर्वतम मामला- अशोक कुमार पाण्डेय बनाम दिल्ली राज्य13 के मामले में अपीलार्थी/अभियुक्त का श्वसुर दयाकान्त पाण्डेय अपीलांट के घर अपनी पुत्री का कुशलक्षेम जानने गया था। अपीलाण्ट जो कि अमेरिकी दूतावास में कर्मचारी था, लगभग 7.00 बजे सायं अपने घर लौटा। अपीलांट जिसकी शराब पीने की आदत थी और जो कभी-कभी अपनी पत्नी नीलम वो मारता पीटता भी था, सायं भोजन पर शराब पिया। भोजनोपरान्त दयाकान्त पाण्डेय अभियोजन गवाह नं० 2 और अपीलांट का पिता बचाव पक्ष गवाह नं० 1 सोने के लिये छत पर चले गये। कुछ समय बाद लगभग 9.30 बजे रात्रि दयाकान्त पाण्डेय ने सीढ़ियों के नीचे हो रहा कुछ शोर सुना। उसने अपनी पुत्री की चीख पुकार भी सुनी जिसके बाद वह तत्काल नीचे दौड़ा और देखा कि अभियुक्त उसकी पुत्री नीलम पर चाकू से चोटें पहुँचा रहा था जबकि उसके बुरी तरह खून बह रहा था। उसने यह भी देखा कि उसकी दाहिनी ओर अन्नू जमीन पर घायल पड़ी थी और खून बह रहा था। अपीलांट क्रोध में अपने हाथ में चाकू लिये हुये दयाकान्त पाण्डेय की ओर आया और दयाकान्त ने अपने कदम पीछे हटा लिये। ऐसी स्थिति में अपीलांट सीढ़ी से नीचे दौड़ा। अपीलांट तब चिल्लाया और मकान मालिक तथा अन्य लोग वहाँ इकट्ठा हो गये। दयाकान्त पाण्डेय और अपीलांट के पिता घायल नीलम और अन्नू को अस्पताल ले गये जहाँ डाक्टर ने दोनों को मृत घोषित कर दिया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी साक्षी, जो कि मृतकों का पिता और नाना था, का साक्ष्य सुसंगत (consistent) विश्वसनीय और अन्य साक्ष्यों द्वारा सम्पुष्ट पाया गया। घटनास्थल पर उसकी उपस्थिति सिद्ध पाई गई। यह तथ्य कि वह पुलिस स्टेशन जाने के बजाय घायलों को लेकर अस्पताल गया अथवा उसने जब मृतकों को अभियुक्त द्वारा चाकू से अन्धाधुंध चोटें पहुँचाते देखा तो उन्हें बचाने का प्रयास नहीं किया, को न्यायालय द्वारा सहज मानवीय आचरण अभिनिर्धारित किया गया और इसमें कोई विपरीत निष्कर्ष (inference) नहीं निकाला जा सकता है। मात्र इस कारण कि वह मृतक का सम्बन्धी था उसके साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। इन तथ्यों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह मामला अपर्व में अपूर्वतम (rarest of the rare) की कोटि में नहीं आता है और कठोरतम दण्ड मृत्यु दण्ड देना। उचित नहीं है। अतएव अभियुक्त को आजीवन कारावास से दण्डित किया गया। रमेशभाई चन्दूभाई राथोड बनाम स्टेट ऑफ गुजरात13 के वाद में अभियुक्त रमेश भाई उम्र लगभग 28 वर्ष सरत के संदीप अपार्टमेण्ट में चौकीदार के रूप में नियोजित था। इस अपार्टमेण्ट के फ्लैट नं० 2 में। शिकायतकर्ता नरेश भाई, उसकी पत्नी, एक पुत्र बृजेश उम्र लगभग 16 वर्ष और कक्षा-IV की विद्यार्थी मृतक । पुत्री रहते थे। निकट के ही एक कमरे में अपीलाण्ट अभियुक्त अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था। 17 दिसम्बर, 1999 को शिकायकर्ता और उसकी पत्नी एक धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने बाहर गये थे और वापस लौटने पर उन्हें अपनी पुत्री गायब मिली। जब पूछताछ के पश्चात् भी लड़की का कुछ पता नहीं

  1. 2002 क्रि० लाँ ज० 1844 (एस० सी०). |

13क. (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 1458 (एस० सी०). अभियुक्त पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के साथ पठित धारा 302 और धारा 34 के साथ पठित धारा 392 के अधीन आरोप लगाया गया और विचारण हुआ। हत्या के लिये अभियुक्तों को आजीवन कारावास और धारा 392 के अधीन अपराध के लिये 5 वर्ष का कठोर कारावास का दण्डादेश दिया गया। अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने निर्णय अपास्त कर दिया। अभियुक्त ने यह तर्क किया कि बहुत कम मूल्य के सामान के लिये कोई भी व्यक्ति किसी वृद्धा की हत्या नहीं करेगा, विशिष्ट रूप से तब जब कि अधिक मूल्य की वस्तुओं को छुआ भी नहीं गया।यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह अभिवचन अधिसंभावनाओं पर आधारित है। लूट ऐसी वस्तुओं की की जा सकती है, जिन्हें आसानी से बेचा जा सके। अभिलेख पर विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध होते हुये इस बात पर अटकलबाजी करना व्यर्थ है कि अभियुक्तों के मन में क्या था या उन्होंने मूल्यवान वस्तुओं को क्यों नहीं उठाया, इस पर विचार करना व्यर्थ है। अतः उच्च न्यायालय द्वारा अभियुक्त की इस आधार पर दोषमुक्ति उचित नहीं थी कि टेप रिकार्डर का मूल्य बहुत कम था। उच्चतम न्यायालय द्वारा अभियुक्त अपीलार्थियों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और 392 के अधीन हत्या और लूट के अपराध के लिये दोषसिद्ध किया। गया। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मुनेश!!क के बाद में अभियुक्त मुनेश पर 11 वर्षीय एक लड़की के साथ बलात्संग करने और उसके बाद उसका गला दबाने का आरोप था। प्रथम सूचना रिपोर्ट करने में कुछ विलम्ब हुआ था। घटना को दो राहगीरों ने देखा था। गवाहों का साक्ष्य मेडिकल साक्ष्य और पीड़िता के पिता के साक्ष्य द्वारा समर्थित था। प्रत्यक्षदशी (Eye-witnesses) गवाहान स्वतंत्र थे। दोनों ही साक्षियों ने न्यायालय में भी अभियुक्त की पहचान किया। साक्षियों द्वारा पुलिस को दिये बयान और न्यायालय में दिये गये बयानों में कुछ विरोधाभास (contradiction) था। अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश/धारा 302 और 376 के अधीन अपराधों के विशेष न्यायाधीश, बुलन्दशहर ने दोनों अभियुक्तों को धारा 302 और 376 के अधीन अपराधों हेतु दोषी पाया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपील मंजूर करते हुये अभियुक्तों को भा० द० संहिता की धारा 302 और 376 के अन्तर्गत दोनों को दोषमुक्त कर दिया। अपील में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में असामान्य (abnormally) विलम्ब नहीं था। पुलिस को दिये बयान और न्यायालय में दिये गये साक्षियों के बयान में विरोधाभास नगण्य/तुच्छ था। अतएव उनके साक्ष्यों को अस्वीकार (reject) कर अभियुक्तों को मुक्त करना, अनुचित था। आगे यह भी इंगित किया गया कि sperm detection test की रिपोर्ट का न होना घातक (fatal) नहीं था जबकि योनिच्छद (hymen) फटा/भंग पाया गया और गवाहों ने पीड़िता के प्राइवेट अंगों की क्षति और उनसे खून निकलने (00zing)की बात बताया है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि बलात्कार की घटनाओं में अत्यधिक (devastating) बढ़ोत्तरी को दृष्टिगत रखते हुये न्यायालय को साक्ष्य के मूल्यांकन में अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है और अभियुक्त को तुच्छ/सारहीन (preliminary) आधार पर दोषमुक्त नहीं किया जाना चाहिये। कृष्णमूर्थी और अन्य बनाम राज्य द्वारा पुलिस इन्स्पेक्टर12 के वाद में दिनांक 5-10-1996 को मृतक धनावाग्यम अपने खेत गयी थी। एक स्थानीय निवासी महादेवन अभि० सा० 2 जो कि एक निकट के ही खेत में काम कर रहा था, मृतक के खेत की तरफ उसने कुछ शोर सुना और अभियुक्त-1 विजयन को उस खेत से भागते हुये देखा। जबकि लगभग 12 बजे दोपहर उसी गांव के मनवालन अभि० सा० 6 ने उधर से सायकिल से जाते समय दो लोगों को हाथ में पत्थर लिये हुये पूर्व से पश्चिम की ओर दौड़ते हुये देखा। उस समय उसे नहीं ज्ञात था कि कोई दुर्घटना घट गई है। लगभग 2.30 बजे अपरान्ह मृतक का पुत्र सुरेश कुमार अपनी माता का खाना लेकर खेत में गया और अपनी माँ को वहाँ न पाकर उसका नाम लेकर पुकारा और उसकी खोज किया परन्तु उसे पा नहीं सका। वह वापस घर आ गया और उसका पता लगाने लगा। लगभग चार से साढ़े चार बजे अपरान्ह वह पुन: पदमा से साथ खेत गया और अपनी माता की खोज किया। तब उसने अपनी माता को खेत में पीठ के बल मृत पड़ी हुई पाया। उसने देखा कि सर में चोटें लगी हैं और उससे खून 11क. (2013) I क्रि० ला ज० 194 (एस० सी०).

  1. 2007 क्रि० लॉ ज० 1803 (एस० सी०).

निकल रहा है। उसके मंगल सूत्र और कान की बाली गायब थी। मंगल सूत्र खींचने के के निशान उसकी गर्दन पर दिखाई पड़ रहे थे और उसका कान फट गया था। अभि० सा । cा ने चार लोगों को घटना के दिन मतक के खेत के पास देखा था और उन्हें जानता है । सभी पड़ोस के गांव के ही थे। वे साक्षीगण जो बगल के खेत में थे और जिन्होंने अभियुक्त को देखा था , उन्हें पहचान परीक्षण परेड में पहचाना था और आभूषण अभियुक्त की सूचनानुसार बरामद किये गये थे। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि इस बात का यथेष्ट पारिस्थितिक साक्ष्य था कि अधिक गण ने मृतक की खेत में हत्या करने के पहले उसके आभूषण लूट लिये थे। सभी अभियुक्तगण मृतक के के पास जहाँ उसका शव पड़ा पाया गया था, देखे गये थे। उसकी गर्दन पर पाये गये बन्धन के निशान । सिर की चोटों से यह सिद्ध था कि यह मानवघाती मृत्यु है। यह भी अभिधारित किया गया कि अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर की गयी बरामदगी उसके अपराध को सिद्ध करती है। जिन साक्षियों ने अभियों को भागते हुये देखा था उन्होंने भी उनकी पहचान किया था। आभूषणों का प्रथम सूचना रिपोर्ट में उल्लेख न करना महत्वपूर्ण नहीं होगा और चूंकि आभूषण बहुत कीमती नहीं थे, कि उसके लिये हत्या की जाय, अत: उन्हें गलत फंसाया गया था यह तर्क भी मान्य नहीं है। अतएव भारतीय दण्ड संहिता की धारा 392/300 के अधीन दोषसिद्धि और दण्डादेश को उचित अभिधारित किया गया। अपूर्व में अपूर्वतम मामला- अशोक कुमार पाण्डेय बनाम दिल्ली राज्य13 के मामले में अपीलार्थी/अभियुक्त का श्वसुर दयाकान्त पाण्डेय अपीलांट के घर अपनी पुत्री का कुशलक्षेम जानने गया था। अपीलाण्ट जो कि अमेरिकी दूतावास में कर्मचारी था, लगभग 7.00 बजे सायं अपने घर लौटा। अपीलांट जिसकी शराब पीने की आदत थी और जो कभी-कभी अपनी पत्नी नीलम वो मारता पीटता भी था, सायं भोजन पर शराब पिया। भोजनोपरान्त दयाकान्त पाण्डेय अभियोजन गवाह नं० 2 और अपीलांट का पिता बचाव पक्ष गवाह नं० 1 सोने के लिये छत पर चले गये। कुछ समय बाद लगभग 9.30 बजे रात्रि दयाकान्त पाण्डेय ने सीढ़ियों के नीचे हो रहा कुछ शोर सुना। उसने अपनी पुत्री की चीख पुकार भी सुनी जिसके बाद वह तत्काल नीचे दौड़ा और देखा कि अभियुक्त उसकी पुत्री नीलम पर चाकू से चोटें पहुँचा रहा था जबकि उसके बुरी तरह खून बह रहा था। उसने यह भी देखा कि उसकी दाहिनी ओर अन्नू जमीन पर घायल पड़ी थी और खून बह रहा था। अपीलांट क्रोध में अपने हाथ में चाकू लिये हुये दयाकान्त पाण्डेय की ओर आया और दयाकान्त ने अपने कदम पीछे हटा लिये। ऐसी स्थिति में अपीलांट सीढ़ी से नीचे दौड़ा। अपीलांट तब चिल्लाया और मकान मालिक तथा अन्य लोग वहाँ इकट्ठा हो गये। दयाकान्त पाण्डेय और अपीलांट के पिता घायल नीलम और अन्नू को अस्पताल ले गये जहाँ डाक्टर ने दोनों को मृत घोषित कर दिया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी साक्षी, जो कि मृतकों का पिता और नाना था, का साक्ष्य सुसंगत (consistent) विश्वसनीय और अन्य साक्ष्यों द्वारा सम्पुष्ट पाया गया। घटनास्थल पर उसकी उपस्थिति सिद्ध पाई गई। यह तथ्य कि वह पुलिस स्टेशन जाने के बजाय घायलों को लेकर अस्पताल गया अथवा उसने जब मृतकों को अभियुक्त द्वारा चाकू से अन्धाधुंध चोटें पहुँचाते देखा तो उन्हें बचाने का प्रयास नहीं किया, को न्यायालय द्वारा सहज मानवीय आचरण अभिनिर्धारित किया गया और इसमें कोई विपरीत निष्कर्ष (inference) नहीं निकाला जा सकता है। मात्र इस कारण कि वह मृतक का सम्बन्धी था उसके साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। इन तथ्यों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह मामला अपर्व में अपूर्वतम (rarest of the rare) की कोटि में नहीं आता है और कठोरतम दण्ड मृत्यु दण्ड देना। उचित नहीं है। अतएव अभियुक्त को आजीवन कारावास से दण्डित किया गया। रमेशभाई चन्दूभाई राथोड बनाम स्टेट ऑफ गुजरात13 के वाद में अभियुक्त रमेश भाई उम्र लगभग 28 वर्ष सरत के संदीप अपार्टमेण्ट में चौकीदार के रूप में नियोजित था। इस अपार्टमेण्ट के फ्लैट नं० 2 में। शिकायतकर्ता नरेश भाई, उसकी पत्नी, एक पुत्र बृजेश उम्र लगभग 16 वर्ष और कक्षा-IV की विद्यार्थी मृतक । पुत्री रहते थे। निकट के ही एक कमरे में अपीलाण्ट अभियुक्त अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता था। 17 दिसम्बर, 1999 को शिकायकर्ता और उसकी पत्नी एक धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने बाहर गये थे और वापस लौटने पर उन्हें अपनी पुत्री गायब मिली। जब पूछताछ के पश्चात् भी लड़की का कुछ पता नहीं

  1. 2002 क्रि० लाँ ज० 1844 (एस० सी०). |

13क. (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 1458 (एस० सी०). चला तो 18 दिसम्बर, 1999 को लगभग 2.30 बजे शिकायतकर्ता ने एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी। तथापि शिकायतकर्ता ने अपनी पुत्री की खोज जारी रखा और उसको एक दोस्त ने यह बताया कि शिकायतकर्ता के पुराने नौकर विष्णभाई ने उसे यह बताया है कि उसने अपीलाण्ट को अपनी साइकिल पर बैठाकर ले जाते हुये देखा था। 19 दिसम्बर, 1999 को इस बात की सूचना पुलिस को दी गयी और 19 दिसम्बर, 1999 को ही चन्द्रभान पटेल ने उसे सब्जी बाजार में बैठे हुये पता लगा लिया। अपीलार्थी ने न्यायेतर स्वीकारोक्ति में कहा कि उसने बच्ची के साथ बलात्कार कर उसे मार डाला है। इस सूचना के बाद पुलिस ने उसे अभिरक्षा में ले लिया और अन्त में उसका शव भी अभियुक्त द्वारा बताये गये स्थान से पाया गया। उसके पश्चात् अभियुक्त को भा० ३० संहिता की धाराओं 363, 366, 376, 302 और 397 के अन्तर्गत आरोपित कर विचारण किया गया। विचारण न्यायालय ने आरोपों को सिद्ध पाया और यह अभिनिर्धारित किया। कि आरोप सन्देह से परे सिद्ध है और धारा 302 के अधीन मृत्युदण्ड से तथा अन्य अपराधों हेतु अलग-अलग कारावास से दण्डित किया गया। अपील में उच्च न्यायालय ने भी इस मामले को विरल में विरलतम श्रेणी में कहा। यह अभिनिर्धारित किया गया कि चूंकि अभियुक्त 27 वर्षीय एक युवा है और उसे पुनर्वास की सम्भावना तथा भविष्य में वह पुन: ऐसा अपराध नहीं करेगा इस आशा से मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया। तथापि अपराध की गम्भीरता, अभियुक्त का व्यवहार और ऐसी घटनायें समाज में भय तथा चिन्ता उत्पन्न करती हैं को दृष्टि में रखते हुये यह निर्देश दिया कि आजीवन कारावास अभियुक्त के पूरे जीवनकाल तक रहेगा बशर्ते दण्ड सरकार द्वारा उचित कारणों के आधार पर माफी या लघुकरण के अधीन होगा। शेख जकाउल्ला बनाम एखलाक एवं अन्य13 के वाद में मृतक अपने लॉटरी के पैसे लेने के लिये अभियुक्त से मिलने गया था। मृतक का भाई उसे खोजने के लिये गया था क्योंकि वह घर वापस नहीं लौटा था। भाई जिसने दुकान पर उसकी प्रतीक्षा किया अपीलाण्ट और अभियुक्त को अभियुक्त के एक कमरे से नीचे आते हुये देखा। अभियुक्त से मिलने पर उसने मृतक के बारे में पूछा परन्तु उसे आनाकानी का उत्तर मिला। दूसरे दिन उसने पुन: मृतक के बारे में फिर पूछतांछ किया और अभियुक्त से अपना कमरा दिखाने को कहा। उसके पश्चात् अभियुक्त अधीर (nervous) हो गया और अपना कमरा दिखाने में बहाना बनाने लगा। अतएव मृतक का भाई अभियुक्त के कमरे के ऊपर चढ़ गया और उसने यह देखा कि मृतक टुकड़े-टुकड़े में काट डाला गया था। अभियुक्त के कमरे के पड़ोस की दुकान के मालिक ने साक्ष्य में यह प्रमाणित किया कि घटना की रात में उसने अभियुक्त के कमरे से इन्सान की चीखने की आवाज सुना था। अपीलाण्ट के पास से फंसाने वाली वस्तुयें भी बरामद हुई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त के द्वारा चलाये जा रहे लॉटरी के धन्धे में अपीलार्थीगण भी शामिल थे अतएव मृतक जो पैसों की मांग कर रहा था उसे समाप्त करने का उनका हेतु (motive) भी था। अतएव अभियुक्त के साथ अपीलार्थियों को भी दोषसिद्ध किया जाना उचित था। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि जहां तक मामले के विरल में विरलतम कोटि में आने का प्रश्न है। अभियुक्त द्वारा मृतक के शरीर को टुकड़ों-टुकड़ों में काट डालना कायर (dastardly) काम था और वह नृशंस तरीके से कारित की गयी हत्या थी और चुपके से (stealthily) की गयी थी और उसका कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। इसके अतिरिक्त प्रत्येक अभियुक्त की भूमिका का पता नहीं लगाया जा सकता। इन परिस्थितियों में अभियुक्त आजीवन कारावास के दण्ड हेतु दायित्वाधीन था क्योंकि यह मामला विरल में विरलतम कोटि में नहीं आता। | महाराष्ट्र राज्य बनाम गोरक्षा अम्बाजी असुल13ग के वाद में अभियुक्त पर अपने पिता सौतेली माता (sten mother) और सौतेली बहन को जहां मिश्रित मिठाई खिलाने के बाद गला दबाकर मार डालने का आरोप था। उसने उपशामक (sedative) विषैले पदार्थयुक्त मिठाइयां अपनी पत्नी को भी खिलाया था। अपराध के पीछे हेतुक (motive) खेतिहर भूमि के बंटवारे का विवाद था। सम्पत्ति के बंटवारे को लेकर अक्सर झगड़ा होता था। समय के साथ यह झगड़ा बढ़ गया और सम्भवत: यही निराशा (frustration) अपराधी द्वारा 13ख. (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 1639 (एस० सी०). 13ग. (2011) 4 क्रि० लॉ ज० 4286 (एस० सी०). ऐसा घृणित (heinous) अपराध कारित होने की सीमा तक पहुंच गयी। यह अभिनिर्धारित किया जिस प्रकार से अपराध कारित किया गया है यद्यपि दुखद (सोचनीय) है परन्तु विद्यमान या । (attendant) परिस्थितियां और यह तथ्य कि उसने अपनी पत्नी की भी हत्या कर दी यह दर्शाती है। सम्भवत: यह नैराश्य (या कुण्ठा) और सम्भवत: सम्पत्ति की लालच ज्वालामुखी की सीमा तक पहुंच परिवार के सदस्यों के मध्य मतभिन्नता की गहराई प्रतिशोध और प्रतिकार या बदला (retaliation) की भावना ने उसे इस सीमा तक निराशा को पहुंचा दिया कि उसने ऐसा जघन्य अपराध कर डाला। इस अपराध करने में लगातार की किचकिच (nagging) को एक उपशमनीय (mitigating) परिस्थिति के रूप में समझा जाना चाहिये। अतएव इस मामले को विरल में विरलतम कोटि में आने वाला नहीं माना गया। अतएव आजीवन कारावास के दण्ड को मृत्यु दण्ड में नहीं बदला जा सकता है। मृत्युदण्ड देने हेतु विशेष कारणों को अभिलिखित करना होगा। महाराष्ट्र राज्य बनाम भरत फकीरा धिवर14 के बाद में मृतक लगभग 3 वर्ष की लड़की के गायब होने की माता पिता द्वारा शिकायत थी। दूसरे दिन उसका मृत शरीर गाँव के गन्ने के एक खेत में पाया गया। डाक्टर की राय में मृत्यु कारित किये जाने के पहले लड़की के साथ बलात्संग किया गया था। दो छोटे-छोटे बच्चे घटना की जानकारी होने के बाद मृतका की दादी के घर गये और सूचित किया कि 23 अक्टूबर, 1995 को जिस दिन लड़की गुम (गायब) हुई थी उस दिन जब वे लोग सड़क पर पटाखे जला रहे थे उन लोगों ने अभियुक्त को अपने कंधे पर एक झोला लिये हुये देखा था और झोले से खून रिस रहा था। यह सूचना पाने के बाद मृतका की दादी सबसे पहले अभियुक्त के घर गई परन्तु अभियुक्त के घर पर न मिलने के बाद वह पुलिस स्टेशन (थाने) गई और रिपोर्ट दर्ज कराया जिसे प्रथम सूचना रिपोर्ट माना गया। साक्षी बच्चों ने यह बयान दिया कि उन लोगों ने अभियुक्त को नहर की ओर जाते देखा था और कुछ समय बाद उन लोगों ने उसे वहाँ से वापस लौटते हुये देखा और उस समय उसकी कमीज पर खून के धब्बे थे और उन लोगों को देखकर अभियुक्त ने अपनी कमीज को उतार कर पाकेट (जेब) में रख लिया। विचारण न्यायालय, जिसको साक्षियों का व्यवहार (demeanour) और आचरण देखने का अवसर था, ने उनके कथन को सत्य पाया तथा साक्षीगण प्रतिपरीक्षण में भी खरे उतरे और उनके साक्ष्य का अन्य परिस्थितियों द्वारा भी समर्थन हो रहा था जैसे उन वस्तुओं की बरामदगी, जो अभियुक्त की निशानदेही पर खून से सनी बरामद हुई थीं, अभियोजन द्वारा सिद्ध की गई थीं। विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को दोषी पाया और मृत्यु दण्ड अधिनित किया गया परन्तु उच्च न्यायालय ने उन परिस्थितियों की उपेक्षा (अवगणन) करते हुये एवं बच्चों के साक्ष्य को अविश्वसनीय मानते हुये अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्ति उचित नहीं थी। अतएव विचारण न्यायालय द्वारा निर्णीत दोषसिद्धि को पुनस्र्थापित कर दिया परन्तु मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास के दण्ड में परिवर्तित कर दिया, क्योंकि मामला अपूर्व में अपूर्वतम की कोटि में नहीं आता परन्तु अन्य अपराधों हेतु दण्ड को यथावत रखा गया। राम अनूप सिंह और अन्य बनाम बिहार राज्य15 वाले मामले में अपीलार्थी राम अनूप सिंह और मदन सिंह भाई थे। मदन के कोई पुत्र नहीं था। उसने अपनी भू-सम्पत्ति अपनी पुत्री सीता देवी और दामाद शंभू शरण दुबे को दान कर दिया। दोनों भाइयों में पिछले 10 वर्ष से संबंध तनावपूर्ण थे। उनके बीच भूमि विवाद को सिविल मुकदमेबाजी से सुलझा लिया गया था और इसके बाद उनके बीच सहयोगपूर्ण संबंध हो गये। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अपीलार्थी संतुष्ट नहीं था और कई बार विवाद सुलझाने के लिये पंचायत बुलाई गई। घटना के दिन भी पंचायत होनी थी और कुछ पंचायती जो पहुँच गये थे, घटना के प्रत्यक्षदर्शी साक्षी बने । मदन सिंह की पुत्री और दामाद मदन सिंह के साथ रहते थे और मदन सिंह तथा उसकी पत्नी की देखभाल करते थे और भूमि की खेती करते थे। घटना लगभग 6.30 बजे प्रातः घटी और यह अफवाह पुलिस को मिली कि दिमान छपरा गांव में कोई हत्या हुई है, अन्वेषण अधिकारी गांव पहुँचा और शंभू शरण दुबे के पिता द्वारा लिखाये जाने पर लगभग 8.15 बजे पूर्वान्ह रिपोर्ट दर्ज किया। चूंकि घटना के दिन पंचायत होने वाला थी, इसलिये शंभू शरण दुबे के पिता बाबू नन्द दुबे अपने पुत्र और कुछ अन्य लोगों के साथ दिलमान छपरा

  1. 2002 क्रि० लॉ ज० 218 (एस० सी०).
  2. 2002 क्रि) लॉ ज० 3927 (सु० को०).

लगभग 6.20 बजे पूर्वान्ह आए थे। लगभग 6.30 बजे पूर्वान्ह जब वे भागेश्वर राउत की किराने की दुकान के पास थे, बब्बन सिंह और लल्लन सिंह देसी पिस्तौल और राम अनूप सिंह अपनी लाइसेंसी बंदूक लेकर किराने । की दुकान पर आर। राम अनूप सिंह ने अपनी बंदूक से एक हवाई फायर किया, जिसके परिणामस्वरूप आस पास खड़े लोग वहाँ से हट गये और यहाँ वहाँ छुप गये। इसी बीच गोली चलने की आवाज सुनकर शंभू शरण बाहर आया। उसे देखकर एक अभियुक्त ने उसे पकड़ लिया और उसे मारने लगे। राम अनुप सिंह ने अपने पुत्रों को ललकारा कि पूरे परिवार को खतम कर दो। इस पर बब्बन सिंह ने शंभू शरण को जमीन पर गिरा दिया और उसके सीने पर गोली मार दी, जिससे कारित क्षति से उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इसके बाद अभियुक्तगण मदन सिंह के घर की ओर बढे । सूचनादाता की पुत्र वधू सीता देवी घर से बाहर निकली लल्लन सिंह ने उसे पकड़ लिया और उसके सिर पर गोली मार दी, जिसके परिणाम स्वरूप वह भी मौके पर ही मर गई। इसके बाद मदन सिंह और उसकी पत्नी शिवजी देवी अपने घर से बाहर आए, बच्चन सिंह ने मदन सिंह पर गोली चलाया और वह गिर पड़ा और मर गया। लल्लन सिंह ने शिवजी देवी पर गोली चला दी और वह भी मर गई। विचारण न्यायालय द्वारा राम अनूप सिंह को धारा 302/34 तथा धारा 109 के अधीन मृत्यु दण्ड दिया गया और अन्य दोनों अभियुक्तों को धारा 302 के अधीन मृत्यु दण्ड दिया गया। उच्च न्यायालय ने राम अनूप सिंह के मृत्यु दण्ड को पुष्ट करने से इन्कार कर दिया और उसे आजीवन कारावास से दण्डित किया, क्योंकि उसके पास बन्दूक होते हुये भी उसने गोली नहीं चलाया। अपील किये जाने पर उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि तथ्यों और साक्ष्य को ध्यान में रखते हुये अपीलार्थियों द्वारा मृतक के पूरे परिवार को गोली से उड़ाने का हेतु कायम होने योग्य नहीं है। पिछले कृत्यों से भी ऐसा आभास नहीं होता कि अपीलार्थीगण समाज के लिये आतंक बने थे। बजाय इसके अपीलार्थीगण मध्यम परिवार के किसान हैं। इसलिये, यह मामला विरल से विरलतम मामले के प्रवर्ग में नहीं आता कि इसमें मृत्यु दण्ड दिया जाय और उसे आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया। । धर्मेन्द्र सिंह बनाम गुजरात राज्य!6 के वाद में अपीलांट अभियुक्त ने अपनी पत्नी से डेरी पर दूध पहुँचाने को कहा। जब वह घर से चली गई तो अभियुक्त और दो बच्चे जो सो रहे थे उनके अतिरिक्त घर पर अन्य कोई नहीं था। डेरी से लौटने के बाद उसकी पत्नी ने अभियुक्त को एक तेज धार के हथियार से मारते हुये देखकर चिल्लाने लगी। उसके बाद उसका पति दूसरे दरवाजे से घर छोड़कर चला गया। अभियुक्त का पिता, भाई और पड़ोसी भी आ गये। उसने उन्हें घटना के बारे में बताया और दोनों पुत्र की चोटों के परिणामस्वरूप मृत्यु हो गयी। अभियुक्त अपनी पत्नी के चरित्र पर सन्देह के कारण तनावग्रस्त था। उसकी पत्नी ने न्यायालय के समक्ष यह स्वीकार किया था कि बहुधा उन दोनों के बीच इस बात को लेकर झगड़ा होता था। घटना की प्रत्यक्षदर्शी साक्षी अभियुक्त की पत्नी से प्रतिपरीक्षा के दौरान यह पूछा गया था कि क्या उसका पति उससे कहता रहता था कि उसके दोनों पुत्र उसके नहीं हैं परन्तु पत्नी ने इससे इंकार किया। यह सत्य है कि अपराध कारित किये जाने के ठीक पहले कोई तात्कालिक कारण नहीं था तथापि यह तथ्य अपनी जगह पर सत्य है कि सही अथवा गलत अपीलांट को काफी समय से ऐसा दुखदायी विश्वास मन में था और उन दोनों के बीच इस बात को लेकर झगड़े हुआ करते थे। अभियुक्त/अपीलांट का पिता यद्यपि उसी घर में रहता है और उसका भाई जो पड़ोस में ही अलग मकान में रहता था चिल्लाहट सुनकर आ गये थे परन्तु दोनों में से किसी ने पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखाई। मृत बच्चों की माँ ने स्वयं प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाई थी। साक्षियों के कथन से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि अभियुक्त किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित था। अस्पताल में किये गये उसके उपचार से सम्बन्धित पर्यों को अभिलेख के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया। अभियक्त की मानसिक बीमारी के समर्थन में जो डाक्टर उसका उपचार कर रहा था उसे भी न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था। चूंकि अभियुक्त/अपीलांट को अपनी पत्नी के चरित्र पर सन्देह था और कभी-कभी इस कारण आपस में झगड़ा भी होता था अतएव उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि स्पष्टतया अपीलांट/अभियुक्त अवश्य ही उस विचार से चिन्तामग्न (चिंतित) रहता रहा होगा, जिसे सम्भवत: वह और अधिक अपने मन में नहीं रख पाया। अभियुक्त द्वारा प्रयुक्त हथियार ऐसे थे जो घरों में बहुधा रहते हैं। और उसे अभियुक्त ने उठा लिया और अपराध किसी लालच अथवा शक्ति (power) या अन्यथा या किसी

  1. 2002 क्रि० लाँ ज० 2631 (एस० सी०).

सम्पत्ति को हड़पने के लिये, अथवा किसी संगठित आपराधिक या असामाजिक क्रिया-कलाप के अनसरण में नहीं कारित किया गया। उसका कोई पूर्व आपराधिक रिकार्ड भी नहीं था अतएव उसका मामला अपर्व । अपर्वतम मामलों की कोटि में नहीं आता है। इसलिये मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्ति दिया गया। इन परिस्थितियों में अभियुक्त की हत्या हेतु दोषसिद्धि उचित थी। स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम विश्वेसर कोल16क के बाद में अभियुक्त पर अपनी पत्नी और चा लडकियों को जब वे सो रही थीं, मिट्टी का तेल डालकर जला देने का आरोप था। सबसे बड़ी पुत्री जिसने अपने को बचाने का प्रयास किया उसे अभियुक्त द्वारा ऐसा करने से रोका गया। इस दरमियान अभियुक्त को भी जलने से चोटें आयीं। बड़ी पुत्री द्वारा घटना का मृत्युकालिक वर्णन विश्वसनीय माना गया। यह तथ्य कि अभियुक्त को भी जलने की चोटें हैं उसकी डाक्टर द्वारा पुष्टि की गयी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त की इस आधार पर दोषमुक्ति कि अभियोजन द्वारा कमरे में जलती हुयी चिमनी के होने की बात छिपायी गयी और यह कि आग की शुरुआत कमरे में दुर्घटनावश जलती चिमनी के टूट जाने से हुयी। अभिलेख पर मौजूद साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं है अनुचित था। यह घटना विरल में विरलतम की कोटि में आती है। परन्तु न्यायालय ने मृत्युदण्ड की सजा नहीं दिया क्योंकि अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया था और लगभग 6 वर्षों से अधिक समय तक छूटा था। मामले की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अभियुक्त को मृत्युदण्ड के बजाय आजीवन कारावास के दण्ड से दण्डित करने का आदेश दिया। आनन्दमोहन बनाम बिहार राज्य16ख के वाद में मृतक की मृत्यु भीड़ (mob) की उत्तेजना और अभियुक्त द्वारा दिये गये प्रबोधन (exhortation) के कारण संयोगवश हुई थी। अभियुक्त स्वयं आक्रमणकारी । (assailant) नहीं था। यह कहा गया कि यह मामला विरल में विरलतम की कोटि में नहीं आता है। अतएव यह अधिनिर्णीत किया गया कि मृत्युदण्ड देना उचित नहीं कहा जायेगा। वह मात्र आजीवन कारावास का दोषी था। प्रजीत कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य17 के वाद में अभियुक्त सूचनादाता के घर में रह रहा था। उसका मकान का किराया और बोर्डिंग का चार्ज बकाया था। उसने तीन बच्चों की हत्या कर दी और एक को चोट पहुंचायी। सूचनादाता और उसकी पत्नी, जो शोरशराबा सुनकर घटना के कमरे में पहुंचे, को भी चोट पहुंचायी गयी। अभियुक्त मृतक के परिवार के साथ वर्षों से रह रहा था। उसने बिना किसी प्रकोपन के बच्चों की हत्या कर दिया। आवाज सुनकर जो अन्य सदस्य घटनास्थल पर आये उन्हें भी अभियुक्त द्वारा गम्भीर रूप से घायल किया गया। पीड़ितों को जब वे अपने को बचाने के लिये इधर-उधर भाग रहे थे बहुविध (multiple) चोटें पहुंचायी गयीं। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उपरोक्त सभी बातें कार्य कारित करने के तरीके में क्रूरता दर्शाती हैं अत एव अभियुक्त का कार्य उच्च श्रेणी का अवधारण में राक्षसी (diabolic) और क्रियान्वयन में क्रूर था। यह सब ऐसे मस्तिष्कीय स्थिति की ओर संकेत करता है जिसका किसी भी प्रकार से सुधार सम्भव नहीं है। अतएव यह मामला विरलों में विरलतम कोटि का अभिधारित किया गया जिसके लिये मृत्यु दण्ड उचित था। प्रकाश कदम बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता17क के बाद में अपीलार्थीगण पुलिसकर्मी हैं जिस पर संविदा पर मृत्यु कारित करने का आरोप है। अपीलार्थीगण भा० द० संहिता की धाराओं 312/34, 120-ख, 364/34 और अन्य मामूली अपराधों हेतु आरोपित हैं। अभियोजन का यह कथन है कि अपीलार्थी, एक प्राइवेट व्यक्ति द्वारा मृतक को समाप्त करने के लिये ठेके पर थे। एक समय मृतक रामनारायण गुप्ता और अभियुक्त जनार्दन भार्गव अच्छे मित्र थे। परन्तु बाद में व्यापार के सम्बन्ध में दोनों के आपस में मतभेद हो गया और तब यह आरोप है कि अभियुक्त जनार्दन ने फर्जी पुलिस मुठभेड़ में मृतक को समाप्त करने का निश्चय किया। अतएव उसने इस काम के लिये अभियुक्त को ठेका दिया और इस षड्यन्त्र के निष्पादन (pursuance) में मतक रामनारायण गप्ता और उसका मित्र अनिल मेडा का एक दूकान से चार पांच लोगों द्वारा दिनांक 11-11-2006 को अपहरण कर लिया गया जो पुलिस के ला 16क. (2011) 2 क्रि० लाँ ज० 2172 (एस० सी०). 16ख. (2013) III क्रि० लॉ ज० 2644 (एस० सी०).

  1. (2008) 3 क्रि० लाँ ज० 3596 (सु० को०).

17क. (2011) 3 क्रि० लाँ ज० 3585 (एस० सी०). लगते थे और उसके बाद जबर्दस्ती एक कार में बिठा लिये गये। शिकायका तक के भाई ने उस अधिकारियों से अपहरण की शिकायत किया उसने यह शंका भी जताई कि उन्हें अपनी जान का भी खतरा यह आरोप लगाया गया कि मृतक को मार डाला गया और उसके शव को एक नाले के पास फेंक दिया गया ताकि ऐसा प्रतीत हो कि उसे पुलिस मुठभेड़ में मारा गया है। बम्बई उच्च न्यायालय ने मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को जांच कर रिपोर्ट देने का निर्देश दिया और मजिस्ट्रेट ने यह रिपोर्ट दिया रामनारायण गुप्ता को पुलिस अभिरक्षा में मार डाला गया। यह भी रिपोर्ट किया गया है कि उसकी मृत्यु पुलिस के बताये स्थान पर नहीं कारित की गयी थी। यह भी रिपोर्ट में कहा गया कि वह पुलिस अभिरक्षा से मृत्यु कारित किये जाने से पहले गायब भी नहीं हुआ था वरन् उसका पुलिस द्वारा अपहरण किया गया था। इस प्रकार यह मामला फर्जी मुठभेड़ का था। अभियुक्तगण बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा दोषी अभिधारित किये गये और इसलिये उन्होने उच्चतम न्यायालय में अपील किया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पुलिस के लोगों द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हुई मत्य की। दशा में इसे विरल में विरलतम का मामला मानते हुये अभियुक्तों को मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिये। यदि अपराध पुलिस द्वारा कारित किया जाता है तो उन्हें अधिक कठोर दण्ड दिया जाना चाहिये क्योंकि वे ऐसा कार्य एकदम अपने कर्तव्यों के विपरीत करते हैं। न्यायालय ने पुलिस को यह चेतावनी भी दिया कि मुठभेड़ के नाम पर हत्या कारित करने की दशा में क्षमा नहीं किया जायेगा इस बहाने के कारण कि वे अपने उच्च अधिकारियों या राजनीतिज्ञों के आदेश का पालन कर रहे थे चाहे जितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो। । सुशील मुरमू बनाम झारखण्ड राज्य18 वाले मामले में 11 दिसम्बर 1996 की शाम को सोमलाल बेसरा नामक व्यक्ति को पता चला कि उसका पुत्र चिरकू बेसरा (मृतक) आयु लगभग 9 वर्ष घर से गायब है। उसने अनेक लोगों से पूछते हुये उसे खोजना आरंभ किया। बाद में प्राप्त सूचनाओं से पता चला कि उसके लड़के की अपीलार्थी द्वारा काली देवी के समक्ष बलि दे दी गई है। यह बताया गया कि इस जघन्य हत्या में उसकी पत्नी और माँ भी शामिल थीं। अभियोजन का मामला बड़ी भीड़ के सामने अभियुक्त द्वारा की गई न्यायिकेतर संस्वीकृति, अभियुक्त अपीलार्थी की पहल पर शव की बरामदगी और एक साक्षी के साक्ष्य जिसने साइकिल पर एक बोरी ले जाते और तालाब में फेंकते हुये और बैग को फेंकने के बाद अभियुक्त को साइकिल से लौटते हुये देखा था, पर आधारित था। अलग किया गया सिर तालाब में फेंके गये बोरी से बरामद किया गया। सभी तीनों अभियुक्तों का विचारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 और धारा 201 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये किया गया। विचार के बाद न्यायालय ने अपीलार्थी को हत्या का दोषी पाया और उसे हत्या के अपराध के लिये मृत्यु दण्ड दिया और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201 के अधीन 7 वर्ष का कठोर कारावास दिया। अन्य सह अभियुक्तों को सन्देह का लाभ दिया गया और उन्हें दोषमुक्त कर दिया गया। उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित करते हुये मृत्युदण्ड को पुष्ट कर दिया कि हत्या जघन्य रूप से की गई और मृत्यु दण्ड पूर्णत: उपयुक्त है। अपील किये जाने पर उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह अपीलार्थी द्वारा अपनी संपन्नता के लिये मूर्ति के समक्ष 9 वर्ष के बच्चे की बलि देने का उदाहरणात्मक मामला है। यह भी एक तथ्य है कि घटना के समय अपीलार्थी का भी उसी आयु का एक लड़का था, उसमें सामान्य मानवता भी नहीं थी, उसका मस्तिष्क पूर्णत: शून्य हो गया था और किसी प्रकार के सुधार से परे था। जिस जघन्यता और क्रूरता से उस असहाय बच्चे का सिर काटा गया, वह अपीलार्थी द्वारा किये गये कृत्य की पशुता। को दर्शित करता है। यह भी उल्लेख किया गया कि उस निरीह बच्चे का दयनीय चेहरा और करुण क्रन्दन सुनकर भी अपीलार्थी के मन में दया नहीं आई। जिस निर्भीकता से वह बच्चे का सिर बोरी में ले गया और बिना कोई त्रुटि किये उसे तालाब में फेंक दिया, यह दर्शित करता है कि उसका कार्य जघन्यतम दुस्साहसपूर्ण आपराधिक कृत्य को अंजाम देना था। इस प्रकार की हत्या के लिये अंधविश्वास का होना कोई न्यायोचित तर्क नहीं है, जबकि यह अपराध नियोजित और दुस्साहसिक रूप से किया गया है। अभियुक्त अपने सगे भाई के बलिदान के लिये विचाराधीन था। अत: इन परिस्थितियों में यह मामला विरल से विरलतम प्रवर्ग में आता है और अधिरोपित मृत्यु दण्ड में हस्तक्षेप

  1. 2004 क्रि० लॉ ० 658 (सु० को०).

की आवश्यकता नहीं है। इस मामले में विरल से विरलतम होने की कसौटी भी उपदर्शित की गई थी । माछी सिंह बनाम पंजाब राज्य, वाले मामले के समान है। उ० प्र० राज्य बनाम श्री कृष्ण19 वाले मामले में यह आरोपित किया गया कि जब मृतक अपनी पत्नी का इलाज कराने के लिये उसके साथ शाहजहाँपुर जाने के लिये बस का इंतजार कर रहा था, उसी समय अभियुक्त अचानक वहाँ आए और चाकुओं से हमला कर दिया, जिससे उसकी वहाँ तत्काल मृत्यु हो गयी। उसकी पत्नी ने घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराया। अन्वेषण अधिकारी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन उसका बयान 13 दिन बाद दर्ज किया। बयान दर्ज करने में हुये विलम्ब के बारे में। अन्वेषण अधिकारी ने बताया कि वह मानसिक रूप से परेशान हालत में थी और बयान देने की स्थिति में नहीं थी। अभि० सा० 5 पुलिस उपनिरीक्षक घटनास्थल पर घटना से एक घण्टे के भीतर लगभग 10 बजे पहुंच गया था और शव की जाँच रिपोर्ट तैयार किया और उसे शव परीक्षण के लिये भेजा। प्रत्यर्थी और दो अन्य का विचारण किया गया और उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/34 के अधीन दोषसिद्ध किया गया। अभियोजन पक्ष ने तीन प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों की परीक्षा कराया था, जिनमें अभि० सा० 1 मृतक की पत्नी, अभि० सा० 2 सूरज प्रकाश चाय के स्टाल वाला और अभि० सा० 3 राम स्वरूप व्यापारी दोनों की दुकाने घटना स्थल के पास थी। अभि० सा० 2 और अभि० सा० 3 पक्षद्रोही हो गये। पहचान परीक्षा परेड नहीं कराई गई थी, इसलिये उच्च न्यायालय ने अपील किये जाने पर अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया। राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया। अपील खारिज करते हुये उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट अभि० सा० 1 ने विस्तारपूर्वक दर्ज कराया जो मृतक की पत्नी है। उच्च न्यायालय ने सन्देह प्रकट किया है कि रिपोर्ट अभि० सा० 1 द्वारा ही लिखाई गई थी और यह नहीं कहा जा सकता कि वह मानसिक रूप से इतना परेशान थी कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अधीन अपना बयान देने की वह स्थिति में नहीं थी। इसके अतिरिक्त संपूर्ण रिपोर्ट एक ही स्याही से तैयार की गयी थी जबकि जांच रिपोर्ट में सूचनादाता का नाम भिन्न स्याही से लिखा था, जिससे यह संदेह उत्पन्न होता है कि जब जाँच रिपोर्ट तैयार की गई, उस समय प्रथम सूचना रिपोर्ट अस्तित्व में नहीं आई थी और यह निश्चित नहीं किया गया कि प्रथम सूचनादाता किसे बनाया जाए। बाद में सूचनादाता का नाम जाँच रिपोर्ट में डाल दिया गया। इससे एक बड़ा सन्देह उत्पन्न होता है कि प्रथम इत्तिला रिपोर्ट क्या उसी व्यक्ति द्वारा दर्ज कराई गई, जिसका नाम उसमें दर्ज किया गया है। यह भी निष्कर्ष दिया गया कि अभियोजन यह साक्ष्य से नहीं साबित कर सका कि मृतक की पली शाहजहाँपुर के लिये बस स्टाप पर बस की प्रतीक्षा कर रही थी। यह घटनास्थल पर उसकी उपस्थिति पर सन्देह उत्पन्न करता है, क्योंकि वह शाहजहाँपुर में उसका इलाज करने वाले चिकित्सक का नाम भी नहीं बता सकी। पहचान परीक्षा परड नहीं कराई गई, यद्यपि उस आशय का आदेश पारित किया गया था। इन परिस्थितियों में पहचान परीक्षा परेड न कराया जाना अभि० सा० 1 की मौके पर उपस्थिति के बारे में और अभियोजन के पक्षकथन को सत्यता के बारे में संदेह उत्पन्न करता है। अत: उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोषमुक्ति के आदेश में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। | ओम प्रकाश बनाम उत्तरांचल राज्य20 वाले मामले में अपीलार्थी श्यामलाल खन्ना के घरेलू नौकर के रूप में काम करता था और बंगले में नौकरों के कमरे में रहता था। वह घटना से लगभग छह मास। पहले नियोजित किया गया था। इस दौरान वह अविश्वसनीय साबित हुआ, क्योंकि उसने कुछ रुपया। चुरा लिया। उसने श्रीमती खन्ना अर्थात् रमा खन्ना की पालतू चिड़िया भी मार दिया था। इसलिये उन लोगों ने 1 दिसम्बर, 1994 से उसे काम से हटाने का निर्णय कर लिया था और अभियुक्त को घटना के दिन से एक दिन पूर्व यह बात बता दी गई थी। दुर्घटना के दिन अभियुक्त ने लगभग 8 बजे श्री खन्ना, उनकी पत्नी आर पत्नी की बहन को चाय दिया। उनका पुत्र सन्त उस समय कमरे में सो रहा था। चाय पीकर श्री खन्ना सुबह टहलने चले गये और उनकी पत्नी तथा उनकी बहन बाथरूम चले गये, जो एक दूसरे से सटे थे। जब श्रीमती खन्ना बाथरूम से बाहर आने लगी तो उन्होंने पाया कि बाथरूम में बाहर से कुंडी लगी है। बाथरूम 2005 क्रि० ला ज० 892 (सु० को०).

  1. 2003 क्रि० ला ज० 483 (सु० को०)।

की खिड़की से उन्होंने अपनी बहन को सूचित किया कि कुंडी खोल दे। जैसे ही उनकी बहन बाथरूम से बाहर निकली अभि० सा० 1 ने लगभग 5 मिनट तक उनकी चीख सुना, फिर एकदम शांत हो गई। इसके बाद अभियुक्त ने स्वयं बाथरूम खोला, किन्तु पूरा दरवाजा खोलने से पहले अभि० सा० 1 ने देखा कि अभियुक्त एक हाथ में मिर्च का पाउडर लिये था और दूसरे हाथ में उनके पति की तलवार लिये था। अभियुक्त ने मिर्च का पाउडर फेंका और तलवार से हमला किया। भाग्य से तलवार उसको चूड़ी पर लगी और उनके बायां हाथ की हड्डी टूट गई और चूड़ी में निशान पड़ गया। उसने किसी तरह दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। इसी बीच उनके पति श्री एस० एल० खन्ना भी सुबह की सैर से वापस आ गये और अपनी पत्नी की डरावनी आवाज सुनकर वे उस कमरे में आए, जहाँ से बाथरूम अटैच था। उन्होंने दरवाजा खोलने को कहा, क्योंकि राजा ( अभियुक्त) कुछ रिष्टि कर रहा है। उनके पति ने उत्तर दिया, राजा यहाँ नहीं है, किन्तु इसके तत्काल पश्चात् उसने अपने पति की चीख सुनी, क्योंकि अभियुक्त ने श्री खन्ना पर हमला आरंभ कर दिया था। उन्होंने अपने पति को यह कहते सुना कि ऐसा क्यों कर रहे हो। हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। थोड़ी देर में खन्ना की भी आवाज बंद हो गई। इसके बाद अभियुक्त ने श्रीमती खन्ना को बाथरूम की खिड़की से एक डंडे से क्षति पहुँचाने का प्रयास किया, इसी बीच उनके पति ने थोड़ा शक्ति बटोरा और बाथरूम का द्वरवाजा बाहर से खोल दिया तब श्रीमती खन्ना घर के मुख्य द्वार की ओर भागी और भीतर की ओर से उसे बंद कर दिया. क्योंकि अभियुक्त बाहर की ओर खड़ा था। इसके बाद अभियुक्त बाहर की ओर से मुख्य दरवाजे पर बार-बार प्रहार करने लगा। जब श्रीमती खन्ना (अभि० सा० 1) बेडरूम में आईं तो देखा कि उनके पति घायल पड़े थे और बहुत अधिक रक्त बह रहा था। उन्होंने देखा, उनकी गर्दन पर घाव था और मिर्च पाउडर चेहरे पर फैला था, तब वह बेटे के कमरे में गई और उसे खून से लथपथ मृत पाया, उसकी गर्दन शरीर से अलग थी। उसके पैरों को पत्थर की चटिया से दबाया गया था। बहन के कमरे में गई तो वह भी मृत पड़ी थी और मिर्च पाउडर पूरे कमरे में बिखरा था। ड्राइंग रूम की खिड़की के पास जाने पर उन्होंने देखा कि सफाई वाला राज अभि० सा० 4 घर में आ रहा था। वह चिल्लाई और कहा कि मुख्य दरवाजा खोल दे और बताया कि उसके नौकर राजा ने घर के लोगों की हत्या कर दी है। इसके बाद पड़ोसी एकत्र हुये और श्रीमती खन्ना तथा पति ब्रिगेडियर एस० एल० खन्ना को ओ० एन० जी० सी० अस्पताल ले गये, जहां श्री खन्ना को मृत घोषित कर दिया गया, श्रीमती खन्ना को प्राथमिक चिकित्सा दी गई और उन्हें घर वापस छोड़ा गया। पुलिस को लगभग 10.30 बजे पूर्वान्ह खबर दी गई पुलिस आई फोटोग्राफ लिया और शवों को पोस्टमार्टम के लिये भेजा। अभि० सा० 1 को पुन: अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसकी कलाई का एक्स-रे किया गया और उसका उपचार किया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से दर्शित होता है कि अपराध की योजना बहुत चालाकी से बनाई गई थी और नृशंस और जघन्य रूप में की गई। चौथे बचे हुये सदस्य की भी हत्या करने का प्रयास किया गया। उनके पुत्र को इतनी क्रूरता से मारा गया कि उसकी गर्दन धड़ से अलग हो। गई। अन्य लोगों के संवेदनशील अंगों पर बहुमुखी क्षतियाँ कारित की गई। अभियुक्त के पूर्वतर कृत्य जिसमें अभियुक्त ने पालतू पक्षी को मार डाला, मुर्गी के नाक के समक्ष पंखे नोच डाले, इससे उसके क्रूर व्यवहार एवं आपराधिक आचरण का पता चलता है। अभियुक्त द्वारा किया गया अपराध समाज और न्यायालय के अंत:करण को सदमा पहुँचाने वाला है। इससे यह अपरिहार्य रूप से यह अनुभव होता है कि अभियुक्त युवा होने पर भी सुधार से परे है और वह समाज के लिये खतरा है। घटना के सभी सुसंगत और आवश्यक विवरण प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में दिये गये हैं। साक्षी जिसने प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया, उसने अपने साक्ष्य में कुछ और विवरण दिया, जिस पर इस कारण से सन्देह नहीं किया जा सकता कि यह सुधार किया गया है। प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में घटना के व्यापक विवरण नहीं दिये जा सकते। यह मामला विरल से विरलतम मामले के प्रवर्ग में आता है और हत्या के अपराध में उसे मृत्यु दण्ड दिया जाना समुचित दण्ड होगा। बुसी केसवारा राव और अन्य बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य20क के बाद में यह अभिधारित किया गया कि जहां अभियुक्त को 50 झोपड़ियों में आग लगाते पाया गया जिससे पूरा इलाका (locality) प्रभावित हुआ तो दण्ड की अवधि 7 वर्ष से घटाकर 3 वर्ष करना वांछित नहीं था। 20क. (2013) I क्रि० ला ज० 418 (एस० सी०). हुकम चंद बनाम हरियाणा राज्य21 वाले मामले में 6 मई, 1989 को लगभग 7 बजे किशोरी , अभि० सा० 12 पत्र देवी सहाय और उसका भाई उदय चंद दोनों चतुर्भुज के खेत पर गये, जहाँ गेहूँ की । के लिये थेसर लगा था। पास में किशोरी लाल की एक ठेलिया खड़ी थी, जहाँ से मनीराम और तहिया । वीरेन्दर ने एक खेस उठाया और खेस बिछा कर उसमें भूसा भर कर ट्रैक्टर ट्राली में भरने लगे। परिवाद । ने खेस वापस करने को कहा और दोनों पक्षों के बीच कुछ कहा सुनी हो गई। जब झगड़ा चल रहा था, । मनीराम ने अपने पुत्र तुहिया से कहा कि वह अपने चाचा को खबर कर दे। उस बुलावे पर हुकम चन्द्र फ। लेकर आ गया और उसने उदय चंद के सिर पर फरसे से प्रहार कर दिया जो गिर गया। तब मनीराम ।। किशोरी लाल पर लाठी से प्रहार किया। मनीराम के पुत्र तुहिया ने किशोरी लाल के दाएं कंधे पर बदछ । प्रहार किया। हुकुम चंद की पत्नी दयावती ने भी किशोरी लाल पर बल्लम से प्रहार किया। शोर गुल मुनका कुछ अन्य लोग वहाँ आ गये और उदय चंद को सरकारी अस्पताल फरीदाबाद और वहाँ से 9-5-1989 को सफदरजंग अस्पताल नई दिल्ली ले जाया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त हत्या के अपराध का दायी है, क्योंकि अभियुक्त को घटनास्थल पर बुलाया गया, तो वह फरसा लेकर आया, जो घातक हथियार है और उसी हथियार से मृतक के सिर पर प्रहार किया। प्रहार गंभीर और मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त था। मृतक को लगी चोट संयोगवश लगी चोट नहीं थी और मृतक और अभियुक्त के परस्पर भिड़ने से चोट नहीं आई थी। यह तथ्य कि अभियुक्त घटनास्थल पर सशस्त्र गया, यह दर्शित करता है कि वह उसका प्रयोग करने और हत्या करने का आशय रखता था। अभियुक्त ने यह अभिवचन किया कि मृतक पक्ष हमलावर था, किन्तु अभियुक्त पक्ष को कोई गंभीर चोट आई हो, ऐसा दर्शित नहीं कर सके। यह अभिवचन कि मृतक को अपने ही हथियार से गंभीर चोट आई थी, न्यायालय द्वारा स्वीकार करने योग्य नहीं पाया गया। इन तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अभियुक्त द्वारा व्यक्तिगत प्रतिरक्षा की कहानी अस्वीकार कर दी गई और हत्या का अपराध कायम रखा गया और उसे मानव वध जो हत्या के समतुल्य नहीं है मानने से इन्कार कर दिया गया। सुरेन्द्र कोली बनाम स्टेट ऑफ य० पी०21 के वाद में गौतमबद्ध नगर नोएडा के सेक्टर-31 से मन 2005 के बाद से दो सालों तक कई बच्चे गायब थे। यह वाद छोटी लड़कियों को कामवासना की लालच देने के बाद गला दबाकर मार डालने का मामला है। अपीलाण्ट द्वारा ऐसे अनेक बच्चों को मार डालने का आरोप था। अपीलाण्ट पर यह आरोप भी था कि वह बच्चों को काटकर उनके शरीर को पका कर खा डालता था। अपीलाण्ट सुरेन्द्र कोली अभियुक्त नं० 1 मोहिन्दर सिंह का नौकर था और वे डी-5 सेक्टर-31 नोएडा में एक साथ रहते थे। अभियुक्त ने अपने द्वारा कारित कई हत्यायें करना स्वीकार किया था। शरीर के कुछ अंग और अन्य वस्तुयें पुलिस द्वारा उसके घर और नाला के पीछे की गैलरी से बरामद की गयी थी। अभियुक्त के घर से चाकू भी बरामद किया गया था। एक लड़की के शरीर के अंग का डी० एन० ए० परीक्षण जिसके गायब होने की रिपोर्ट थी वह उसके माता-पिता से मिलता-जुलता पाया गया था। यद्यपि कि ये सभी साक्ष्य परिस्थितिजन्य थे तो भी परिस्थितियों की कड़ी से अभियुक्त को अपराध से जोड़ने की बात सिद्ध होती है।। यह अभिनिर्धारित किया गया कि लैंगिक सम्बन्ध के पश्चात् छोटी लड़कियों को मार डालना बर्बरतापूर्ण और संत्रस्त करने वाला है और इसलिये अभियुक्त का कृत्य विरल में विरलतम कोटि का है। अतएव वह दया का पात्र नहीं है और मृत्युदण्ड देना उचित है। अमित बनाम महाराष्ट्र राज्य-2 के मामले में मृतक और अपीलार्थी के पिता एक ही कार्यालय में कार्यरत थे। मृतक और अपीलार्थी एक दूसरे को जानते थे। मृतक का पिता (अभि० सा० 5) अपनी पुत्री को। और रोज की तरह 28 मार्च 2001 को भी उसने 7.30 बजे पूर्वान्ह उसे स्कूल छोड़ा। स्कूल से वह दोपहर 12.00 बजे के लगभग लौटती थी। चूंकि उस दिन वह समय से नहीं लौटीं इसलिये उसकी माँ ने टेलीफोन। पर अपने पति को सूचित किया। वह कार्यालय से घर पहुंचे और उन्होंने अपनी पुत्री की खोजबीन किया । अंतत: उसके न मिलने पर अभि० सा० 5 ने गुमशुदगी की रिपोर्ट पलिस में दर्ज कराई । अपीलार्थी 28 मात्र, 2001 को 11.30 बजे अपरान्ह मृतक के घर गया था और जैसा कि मृतक के बड़े भाई अभि० सा० 6 नब” दिया, मृतक के बारे में पूछा था, (अभि० सा० 6 ने अपीलार्थी को बताया कि मृतक स्कूल से वापस

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 57 (सु० को०).

21क. (2011) 3 क्रि० लॉ ज० 3137 (एस० सी०).

  1. 2003 क्रि० लाँ ज० 3873 (सु० को०).

आया) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन अपने बयान में अपीलार्थी ने यह स्वीकार किया था कि वह मतक के घर गया था। तारीख 29 मार्च, 2007 को अभि० सा० 1 अजय के साथ चारागाह के रूप में ज्ञात । गोमुख के पिछले भाग में भैंसें चराने गया था। उनमें से एक भैंस टूटे फूटे भवन में चली गयी, जो पास में ही था। जानवर को निकालने के लिये जब वह भीतर गया तो वहाँ उसने स्कूल के यूनिफार्म में एक स्कूली लडकी का शव देखा, जो चित (चेहरा ऊपर) स्थिति में पड़ी थी। उसने पुलिस को सूचित किया। दो पुलिस वाले उसके साथ मौके पर पहुँचे। उस लड़की को अभि० सा० 1 और अभि० सा० 11 ने एक दिन पहले उस जंगल में उस क्षेत्र में जहाँ वह आमतौर पर जानवर चराता है, उस समय लड़की को एक लड़के के साथ जो लगभग 20 वर्ष का था देखा गया था। उसके पास स्कूल बैग भी था। लड़के के पास साइकिल थी। नाम पूछे जाने पर लड़के ने गांधी बताया था और लड़की का नाम उसने पूछे जाने पर विद्या बताया था और कहा कि वह मेरी बहन है, जिसे वह स्कूल से सीधे लाया है। वाद में दोनों उसी साइकिल से चले गये थे। अभि० सा० 1 और अभि० सा० 11 द्वारा देखी गई लड़की वही है जिसका शव पाया गया है। अपीलार्थी 29 मार्च, 2001 को 11.00 बजे रात्रि में गिरफ्तार किया गया। शव परीक्षा रिपोर्ट के अनुसार उसकी मृत्यु गला घोंटने से हुई थी। मृत्यु से पूर्व मृतक के साथ लैंगिक बल प्रयोग भी किया गया था। प्रतिरक्षा द्वारा शव परीक्षा रिपोर्ट स्वीकार कर ली गई। अभियुक्त के विरुद्ध आरोप यह था कि वह स्कूली बच्ची को एकान्त में ले गया और उसके साथ बलात्कार किया और गला घोंट कर उसकी हत्या कर दिया। मृतक को अन्तिम बार अभियुक्त अपीलार्थी के साथ देखा गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभि० सा० 1 और अभि० सा० 11 का साक्ष्य जिसने अभियुक्त को मृतका के साथ देखा था, सच और विश्वसनीय है। साक्ष्य की परीक्षा से मृतका की हत्या का समय सिद्ध हो चुका है। अभियुक्त को मृतका के साथ देखे जाने और उसकी मृत्यु के बीच समय में पर्याप्त निकटता है। अभियुक्त द्वारा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया, कि कैसे और किन परिस्थितियों में घटना की शिकार लडकी की मृत्यु हुई । इसलिये धारा 300 और 376 के अधीन अभियुक्त को दोषसिद्धि उचित थी। । तथापि, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि अभियुक्त एक युवा है और जघन्य अपराध कारित करने जैसा उसका कोई इतिहास नहीं है, उसने 12 वर्ष की स्कूली लड़की के साथ बलात्कार और हत्या की है। यद्यपि वह गंभीर दण्ड का अधिकारी है, किन्तु तथ्यों और परिस्थितियों को पूरी तरह ध्यान में रखने पर मामला विरल से विरलतम मामले के प्रवर्ग में नहीं आता। अत: विचारण न्यायालय द्वारा दिया गया मृत्युदण्ड उच्चतम न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास में उपान्तरित कर दिया गया।23। सुरेन्द्रपाल शिवबालक पाल बनाम गुजरात राज्य-4 वाले मामले में अपीलार्थी शिकायतकर्ता केवलापति जो तीन बच्चों की माँ और विधवा थी, के मकान में एक कमरा किराये पर लेकर रहता था। दिनांक 11.9.2002 को लगभग 10.00 बजे रात अपीलार्थी अभि० सा० 2 केवलापती के पास गया और उसके साथ लैंगिक सम्पर्क करने के लिये 150 रु० दिये। केवलापति नाराज हो गई और उसे चले जाने को कहा, किन्तु अपीलार्थी ने वहाँ से हटने से इन्कार कर दिया। जब उसने अपने भाई राजाराम और पुत्र मनोज को सूचित किया तो उन्होंने अपीलार्थी को डॉट फटकार लगाई और वह वहाँ से चला गया। रात में केवलापति अपनी दो अवयस्क पुत्रियों के साथ कमरे के बाहर सो रही थी। आधी रात को वह कमरे के भीतर चली गई और जब 1.00 बजे बाहर आई तब देखा कि उसकी एक पुत्री सावित्री उर्फ साजू गायब थी। राजाराम और मनोज ने साजू की खोज आरंभ किया और उसे न पाकर उन्हें सन्देह हुआ और वे अपीलार्थी को खोजने उसके घर पहुँचे, परन्तु वह वहाँ नहीं मिला। रामबरन अभि० सा० 7 ने उन्हें बताया कि उसने अपीलार्थी को देखा था। जो लड़की को अपने कंधे पर लिये जा रहा था। आसपास के लोग इकट्टे हो गये और लगभग 4.00 बजे रात्रि उन्होंने अपीलार्थी को सड़क के पास से आते हुये देखा। केवलापति अभि० सा० 2 और अन्य लोग उसे पुलिस थाने ले गये, जहां मामला दर्ज किया गया। साजू का शव एक तालाब में तैरता हुआ पाया गया, जिसे रिश्तेदारों ने पहचाना। शवपरीक्षा रिपोर्ट से पता चला कि मृतका के शरीर पर अनेक क्षतियाँ थीं और उसके कपड़ों पर खून के दाग थे और उसकी योनि आवरण पूर्णत: क्षतविक्षत थी और गुप्तांग में रक्तरंजित घाव पाये गये और उसकी मृत्यु दम घुटने से हुई थी। विचारण न्यायालय ने शव की बरामदगी, अपीलार्थी की संस्वीकृति, और रामबरन अभि० सा० 7 के साक्ष्य पर विश्वास किया। अपीलार्थी के कपड़े रासायनिक परीक्षण के लिये भेजे

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 3873 (सु० को०).
  2. 2004 क्रि० लाँ ज० 4642 (सु० को०).

गये थे, अपीलार्थी  इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सका कि उसके कपड़ों पर वीर्य के साथ खन के कैसे लगे। सत्र न्यायालय ने उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363, 376 और 302 के अधीन अपरा दोषी पाया और उसे मत् दण्ड दिया। उच्च न्यायालय ने भी प्रत्येक मुद्दे पर दण्ड को पुष्ट कर दिया। उपयतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्त अपने कपड़ों पर वीर्य सहित लगे रक्त दाग का सपकरण नहीं दे पाया और साक्षी ने उसे कंधे पर बच्चे को लेकर रात में जाते हुये देख लिया पौर अभियुक्त का पर्व आचरण यद्यपि वह साक्ष्य में अनुज्ञेय नहीं है यह साबित करता है कि ऐसा आप करने की प्रवृत्ति उसमें थी, अतः भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363, 376 और 302 के अधीन उसकी दोषसिद्धि उचित है। आगे यह अभिनिर्धारित किया गया कि घटना के समय अभियुक्त की आयु 36 वर्ष थी। इससे पूर्व उसके किसी अपराध में शामिल होने का कोई साक्ष्य भी नहीं है। वह एक विस्थापित श्रमिक था जो विषम परिस्थितियों में रह रहा था, मामला विरल से विरलतम कोटि में नहीं आता, अत: मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। शिबू बनाम रजिस्ट्रार जनरल कर्नाटक हाईकोर्ट25 के बाद में दो युवा अभियुक्त उम्र लगभग 20 और 22 वर्ष ने दो बार गांव की बालिकाओं के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया। शिकायत होने पर गांव में पंचायत हुई और दोनों को डांट लगायी गयी। इन दो घटनाओं में सजा पाने से बच जाने से उनकी हिम्मत बढ़ जाने से उन्होंने एक 18 वर्ष की बालिका के साथ बलात्कार किया और पकड़े जाने से अपने को बचाने के लिये उसकी निर्मम एवं जघन्य हत्या भी कर दी। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिधारित किया गया कि मामले की परिस्थितियों के अनुसार यह मामला विरलों में विरलतम हत्या की कोटि में आता है अतएव अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा मृत्यु का दण्डादेश उचित था। बबलु हुसेन बनाम राजस्थान राज्य26 के वाद में दिनांक 10-12-2005 को लगभग 5.00 बजे प्रातः । अपीलांट/अभियुक्त बबलू अपने घर से बाहर यह चिल्लाता हुआ आया कि उसने सभी पांचों दोगलों को एक के बाद एक गला दबाकर मार डाला है। अभियुक्त ने अपनी पत्नी, तीन लड़कियों और एक लड़के को मार डाला था। इन सब के शवों को प्रत्येक शव के प्रत्येक पैर के अंगूठे को तागे से बांधकर गद्दे के ऊपर रखा पाया गया। अभि० सा० 1 अलादीन द्वारा पुलिस को प्रेषित लिखी रिपोर्ट में उपरोक्त तथ्यों का उल्लेख किया गया था। अपीलांटअभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अधीन कारित अपराध हेतु आरोपित और विचारित किया गया। पत्नी के कान की बाली अभियुक्त के पास से बरामद की गयी। उन साक्षियों का साक्ष्य । जिनके समक्ष अभियुक्त द्वारा आरोपित न्यायेतर संस्वीकृति की गयी थी उसे भी निश्चायक (Cogent) और प्रशंसनीय पाया गया। उस घर में जिस में घटना घटी थी अभियुक्त की उपस्थिति स्वाभाविक है। अभियुक्त के कब्जे से पत्नी के कान की बाली की बरामदगी भी सिद्ध की गयी थी। इस प्रकार अपराध से सम्बन्धित घटनाओं की श्रृंखला (Chain) भी पूरी है और इसलिये अभियुक्त की दोषसिद्धि भी उचित ठहरायी गयी। जहां तक हत्या की घटना के समय मत्तता के तर्क का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि अभियुक्त द्वारा किये गये बर्बर कृत्य परिकल्पना में राक्षसी और क्रियान्वयन में क्रूर हैं। कृत्यों को न केवल बर्बर/पाशविक बल्कि अमानवीय भी धारित किया गया जिनके लिये अभियुक्त को कोई पश्चाताप भी नहीं था। मात्र इस कारण कि अभियुक्त अपने को घटना के समय मत्तता की हालत में होने का तर्क देता है। उससे अपराध में कमी नहीं आती है क्योंकि एक के बाद एक पाँच जान ली गयी और उनमें चार शिशुओं की। अतएव न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि यह मामला विरल से विरलतम कोटि में आता है जिसका। उचित दण्ड मृत्यु दण्ड है। यह भी अभिधारित किया गया कि मत्तता का बचाव केवल उन्हीं मामलों में मान्य होता है जहाँ मत्तता ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती है कि अभियुक्त का अपराध कारित करने का आशय नहीं जाता है। ऐसी मत्तता, जिसके कारण अभियुक्त विशेष प्रकार का ज्ञान जो अपराध के आशय हेतु आवश्यक उससे वंचित हो जाता है, के सिद्ध करने एवं सबूत का भार अभियुक्त पर होता है। इस मामले में न्याय

  1. 2007 क्रि० लॉ ज० 1806 (एस० सी०).
  2. 2007 क्रि० लॉ ज० 1160 (एस० सी०).

डी० पी० पी० बनाम बियर्ड27 के वाद में प्रतिपादित तीन सिद्धान्तों (Propositions) की उच्चतम न्यायालय ने भी पुनरावृत्ति की। उन तीन सिद्धान्तों को अभिकथन करते हुये उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि वर्तमान मामले में मत्तता का तर्क अभियुक्त के नृशंस राक्षसी कृत्यों हेतु क्षमा का आधार नहीं हो सकता है। अतएव न्यायालय ने यह अभिधारित किया कि इस मामले को विरल से विरलतम हत्या की कोटि में रखना मृत्यु दण्ड के आदेश को पूर्णतया उचित ठहराता है। पंजाब राज्य बनाम गुरमेज सिंह,28 के मामले में प्रत्यर्थी गुरमेज सिंह और जगजीत सिंह भाई-भाई थे। दोनों भाईयों में पैसे के लेन देन को लेकर झगड़ा होता रहता था। अभिकथित रूप से गुरमेज सिंह ने जो धन दुबई से जगजीत सिंह के नाम भेजा था, वह बार-बार मांगने पर भी लौटाया नहीं गया। जगजीत सिंह ने गुरमेज सिंह को बताया कि धन घर पर खर्च कर दिया गया। जगजीत सिंह का श्वसुर दलीप सिंह (अभि० सा० 5) 1 नवम्बर 1993 को जगजीत सिंह के गांव गया था। जब वह लगभग 5 बजे अपरान्ह वहाँ पहुँचा तो दोनों भाई झगड़ रहे थे। दलीप सिंह ने उन्हें समझाया कि वे लड़ाई न करें। किन्तु गुरमेज सिंह अपने भाई से बहुत नाराज था और उस पर प्रहार करने की योजना बना रहा था। इसी दिन करीब 11.00 बजे रात्रि में गुरमेज सिंह ने अपने भाई जगजीत सिंह, उसकी पत्नी चरंजीत कौर, उनके पुत्र स्वर्णजीत सिंह, पुत्री गुरमीत कौर, चिरंजीत कौर की बहन की पुत्री अमरजीत कौर को उनके घर में हमला कर मारा पीटा। जगजीत सिंह के ससुर दलीप सिंह जो उस रात जगजीत सिंह के घर में रुके थे, शोर गुल सुन कर उठे और गुरमेज सिंह को हमला करने से मना किया, जिस पर गुरमेज सिंह ने दलीप सिंह पर भी हमला किया। यह कहा जाता है कि चूंकि कृपाण का हत्था टूट गया था, इसलिये गुरमेज सिंह ने एक दाह उठा लिया और उसी से प्रहार करता रहा। पिटने वालों की चीख पुकार सुनकर अन्य लोग वहाँ पहुँचे। इस हमले के परिणामस्वरूप तीन व्यक्ति अर्थात् जगजीत सिंह, उसकी पत्नी चरंजीत कौर और पुत्र स्वरन जीत सिंह की मृत्यु हो गई, जबकि अन्य को क्षतियाँ आईं। इसके बाद दलीप सिंह (अभि० सा० 5) ने रिपोर्ट दर्ज कराई। अन्वेषण के बाद गुरमेज सिंह और उसकी पत्नी दोनों को आरोप-पत्र दिया गया। विचारण के बाद गुरमेज सिंह को धारा 302 के अधीन तीन हत्याओं के लिये तीन बार दोषसिद्ध किया गया। अनेक तथ्यों पर जिन पर मृत्यु दण्ड अधिरोपित करते समय विचार किया गया था, विचार करने के पश्चात् उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया गया कि घटना दो भाइयों के बीच रुपये को लेकर जो अभियुक्त ने मृतक को भेजा था, अविश्वास होने के कारण घटी, अतः मृत्यु दण्ड उचित नहीं है, क्योंकि यह मामला विरल से विरलतम मामलों में नहीं आता। यह भी उल्लेख किया गया कि अभियुक्त को समय से पूर्व छोड़े जाने की संभावना भी मृत्यु दण्ड का आधार नहीं है। इसके अतिरिक्त मृत्यु दण्ड अधिनिर्णीत करते समय अपराध के हेतु, आक्रमण की रीति, अपराध का पूरे समाज पर पड़ने वाला प्रभाव, अभियुक्त का व्यक्तित्व, मामले के तथ्य और परिस्थितियां अर्थात् किया गया अपराध किसी वासना या लोभ की संतुष्टि के लिये किया गया था अथवा संगठित रूप से असामाजिक क्रियाकलाप के अनुसरण में अथवा संगठित अपराध, नशीले पदार्थ के धंधे अथवा ऐसे ही अपराधपूर्ण कृत्य से समाज को प्रभावित करना अर्थात् अभियुक्त के हाथों भविष्य में समाज के सदस्यों को पीड़ित होने की संभावना अथवा ऐसी हत्या करना जिससे समाज का अंत:करण क्षोभ से भर जाए आदि बातों को ध्यान में रखा जाता है। | दयानिधि बिसो बनाम उड़ीसा राज्य29 के मामले में अपीलार्थी मृतक अनिरुद्ध साहू का भतीजा था जो जेयपोर में रहता था। अपीलार्थी व्यापार करता था और नीरांगुडा ग्राम में रहता था। अपीलार्थी कभी-कभी मृतक के घर जाता था और वहां प्राय: रुकता भी था। मृतक का विवाह लता से हुआ था और उसके तीन वर्ष की एक बेटी पूजा थी। अपीलार्थी को व्यापार में घाटा हो गया और उसे निरंतर आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी। अपीलार्थी का आना मृतक की पत्नी लता को अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि उसे उसके चरित्र पर सन्देह था। इस बात की शिकायत उसने अपने पति के भाई (अभि० सा० 15) से भी की थी जिसने ।

  1. 1920 ए० सी० 479.
  2. 2002 क्रि० लॉ ज० 3741 (सु० को०).
  3. 2003 क्रि० लॉ ज० 3697 (सु० को०).

मृतक से अपीलार्थी को अनिरुद्ध और उसके परिवार के साथ रुकने के औचित्य के बारे में। किन्त मतक अपीलार्थी की आवभगत अपनी पत्नी और भाई की इच्छा के विरुद्ध भी करता रहा दिनांक 3 जून 1998 को अपीलार्थी मृतक के घर गया, जब मृतक की पत्नी अपने पड़ोसी वाव घर अपनी पुत्री पूजा को बुलाने गई तब बाबू लंका की मां ने थोड़ी देर रुकने को कहा। उसने उत्तर गाँव से कोई मेहमान आए हैं, उसे रात का खाना बनाना है, ऐसा कहते हुये वह घर से अपनी पुत्री को लेकर चली गई। उस इलाके के एक पान की दूकान के मालिक ने भी लगभग 9.00 बजे अपरान्ह मृतक को अपीलार्थी के साथ देखा था। दोनों उसकी दूकान पर गये थे। उसने अपीलार्थी को दूसरे दिन अर्थात 4 जन 1998 को भी सुबह मृतक के घर की ओर से जाते हुये देखा था। दिनांक 4 जून, 1998 को पड़ोसियों ने मृतक के परिवार वालों को देर सुबह तक नहीं देखा तो पड़ोसियों को सन्देह हुआ और मृतक का पता लगाने लगे। इस प्रक्रिया में एक पड़ोसी (अभि० सा० 9) मृतक के घर के सामने वाले पेड़ पर चढ़ गया और देखा कि मृतक उसकी पत्नी लता और पुत्री पूजा मरे पड़े हैं। इसके बाद पड़ोसी एकत्र हुये और फ्लैट का दरवाजा तोड़ दिया जिसमें बाहर से ताला लगा था और घर के भीतर गये, जहाँ तीनों की लाश मिली और उनके गर्दन पर चोटें थीं। उन्होंने यह भी देखा कि लता और पूजा द्वारा सामान्य रूप से पहने जाने वाले आभूषण भी गायब थे। उन्होंने देखा आलमारी भी खुली थी। और सभी घरेल सामान अस्त व्यस्त थे। कुछ साक्षियों ने जिन्होंने पिछली शाम को मृतक को अपीलार्थी के साथ देखा था, उन्होंने पाया कि अपीलार्थी गायब था। इसलिये बाबू लंका (अभि० सा० 1) मृतक के पड़ोसी ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराया। विचारण न्यायालय द्वारा अपीलार्थी को हत्या के अपराध के लिये दोषसिद्ध किया गया और उसे निचले न्यायालय ने मृत्यु दण्ड दिया।। मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित है। उच्चतम न्यायालय ने यह निष्कर्ष दिया कि अभियुक्त मृतक के घर प्राय: आता था और मृतक अंतिम बार उसके साथ देखा गया। उस दुर्भाग्यपूर्ण रात के बाद सुबह अभियुक्त को घर से दूर जाते देखा गया था। मृतक का मानव वध हुआ, क्योंकि कारित क्षतियाँ दो धार वाले हथियार से कारित की गई, जिसे अभियुक्त ने बरामद कराया। एक मृतक के रक्त समूह से मिलता हुआ रक्त उस पर पाया गया। अभियुक्त के कब्जे से मृतक की सोने की घड़ी और कलाई घड़ी बरामद हुई, अभियुक्त के उंगलियों के रक्त सहित निशान घटना के तत्काल बाद मौके पर पाये गये थे। अभियुक्त के नाखुन के पोरों में भी रक्त पाया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि परिस्थितियों की संपूर्ण श्रृंखला से अभियुक्त का दोष सिद्ध होता है। अपीलार्थी प्राय: मृतक के घर आतिथ्य प्राप्त करता रहा, किन्तु एक रात उसने मृतक के पूरे परिवार की, जिसमें 3 वर्ष की बच्ची भी थी, हत्या कर दी। हत्या उस समय की गई जब सभी लोग सोए हुये थे और उनकी ओर से कोई प्रकोपन भी नहीं था। इस प्रकार शान्तियुक्त हत्या का प्रयोजन आर्थिक लाभ प्राप्त करना था। परिस्थितियाँ दर्शित करती हैं कि अभियुक्त का इरादा ठंडे दिमाग से पूर्व नियोजित रूप से बना था। यह मामला विरल से विरलतम मामलों के प्रवर्ग में आता है और उसे मृत्युदण्ड दिया। यह तथ्य कि अभियुक्त की आयु 35 वर्ष है और उसके माता-पिता और अवयस्क पुत्री भी हैं तथा उसके पुनर्वास की संभावना भी है आजीवन कारावास के दण्ड का औचित्य नहीं प्रस्तुत करते।। दिलीप प्रेम नारायण तिवारी बनाम महाराष्ट्र राज्य29 के मामले में एक युवा लड़की सुषमा ने अपने परिवार वालों की इच्छा के विपरीत प्रभु नामक युवक से अन्तर जातीय विवाह किया था। उसके भाई दिलीप एवं दो अन्य द्वारा कई लोगों की हत्या कर दी गयी थी। यह एक अन्तर्जातीय विवाह था और यही हत्या का मुख्य कारण था। सुषमा उत्तर प्रदेश के एक ब्राह्मण परिवार की थी और उसका प्रेमी प्रभु केरलाइट था। मृतक प्रभु एक युवा लड़की सुषमा का प्रेमी था। दिलीप गलत परन्तु विशुद्ध असली जाति के सोच विचार का ही शिकार हो गया। घटना के समय परिवार बम्बई में ही रह रहा था। हत्यायें जघन्य थीं परन्तु पैशाचिक। (diabolic) नहीं थीं और न तो अभियुक्त ने मस्तिष्क के भ्रष्टता या चरित्रहीनता के कारण ही ऐसा कार्य किया। था। अभियुक्तों में से एक मनोज (A-3) मुख्य अभियुक्त के साथ इसलिए हो गया क्योंकि वह उसी मकान में रह रहा था। दूसरा अभियुक्त सुनील (A-2) का रोल कम था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उन्हें मृत्यु दण्ड देना उचित नहीं था। अतएव उच्चतम न्यायालय ने मुख्य अभियुक्त और मनोज (A-3) के मृत्यु दण्ड के 25 वर्ष के लिए आजीवन कारावास और सुनील (A-2) का आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया। लोगों की हत्या की गयी थी यह तथ्य अपने आप में मत्य दण्ड को उचित ठहराने हेतु यथेष्ट नहीं था। मृत्यु 29क. (2010) 1 क्रि० लॉ ज० 905 (एस० सी०). दण्ड देने के लिए अपराध की प्रकृति मात्र ही विचारणीय नहीं होती बल्कि अपराधी की पृष्ठभूमि, उसका मनोविज्ञान, उसकी सामाजिक हैसियत उसके मस्तिष्क की अपराध कारित करते समय स्थिति ये सभी महत्वपूर्ण एवं विचारणीय हैं। मुल्ला बनाम उ० प्र० राज्य29 का वाद पांच व्यक्तियों एवं एक मध्यम आयु की महिला की निष्ठुर या नृशंस (Cold blooded) हत्या से सम्बन्धित है। अभागे पीडितों द्वारा किसी प्रकार का प्रकोपन अथवा प्रतिरोध भी नहीं किया गया था। हत्या बूटी के लिए की गयी थी और अभियुक्तगण पीड़ितों की असमर्थता और गरीबी के बारे में भलीभांति परिचित थे। अभियुक्तों में से एक 65 वर्ष की उम्र का था और दोनों गत 14 वर्षों से जेल में थे। साथ ही दोनों ही अभियुक्तगण अत्यन्त गरीब पृष्ठभूमि वाले थे। उपर्युक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुये उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि सामाजिक आर्थिक तथ्य दण्ड के अल्पीकरण के कारण हो सकते हैं अर्थात् दोषी के सुधार की योग्यता के कारण हो सकते हैं। अतएव अपराध की प्रकृति के बावजूद अल्पीकरण की परिस्थितियां मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करने की अनुमति देती हैं जो दण्ड उनके पूरे जीवन तक का होगा बशर्ते कि सरकार उचित कारणों के आधार पर दण्ड क्षमा कर सकती है। सुभाष राम कुमार वैद बनाम महाराष्ट्र राज्य0 वाले मामले में 13 जून, 1995 को 8 बजे अपरान्ह मृतक और उसके परिवार के सदस्य टेलीविजन देख रहे थे। किसी ने दरवाजे की घंटी बजाया, आवाज सुनकर मृतका की नौकर और उसके पीछे अंजना यह देखने गये कि किसने घंटी बजाई है। पूछने पर अंजना को बताया गया कि सीढ़ी पर खड़े दो व्यक्तियों में से एक अरविन्द था जो अपने को मृतक का मित्र बता रहा। था। इसी बीच मृतक हरीश भी ग्रिल के पास आ गया। ग्रिल के पास सीढ़ी पर खड़ा व्यक्ति बहुत धीमी आवाज में बातें कर रहा था। वह व्यक्ति क्या बात कर रहा था, यह सुनने के लिये मृतक हरीश ग्रिल से चिपक गया और उस व्यक्ति ने तत्काल अपना हाथ ग्रिल के भीतर डाला और हरीश का कुर्ता पकड़ लिया और तेजी से झटका दिया फिर उसने अपना दूसरा हाथ ग्रिल के भीतर डाला। इस बार अंजना ने देखा कि वह दाएं हाथ में पिस्तौल लिये था और हरीश के पेट पर निशाना लगाया था और गोली चला दिया। इस बार दूसरा व्यक्ति ग्रिल पर चढ़ गया। उसके हाथ में भी पिस्तौल थी, उसने हरीश के सिर पर गोली चलाया। इसके बाद हरीश गिर गया और मर गया। इसके बाद यह सब देखकर अंजना स्तब्ध रह गई, वह चीखते हुये एक मिनट में भीतर की ओर भागी। वह पश्चिम की ओर की बालकनी के भाग पर उन्हें देखने गई, जहाँ उसने देखा कि अभियुक्त सं० 2 और 3 घटनास्थल से एक यान पर बैठ कर भागे। हरीश को अस्पताल ले जाया गया, जहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया। अंजना ने उसी दिन लगभग 10.00 बजे रात्रि में प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज करा दिया। घटनास्थल से खाली कारतूस और गोलियाँ बरामद किये गये। शव के अन्त्यपरीक्षणोपरान्त 17 चोटें पाई। गईं और कुछ आंतरिक चोटें भी मिलीं। बाद में अभियुक्तों से पिस्तौल और रिवाल्वर बरामद किये गये। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के साथ पठित धारा 302 के अधीन दिया गया मृत्युदण्ड उच्चतम न्यायालय द्वारा उपान्तरित किया गया, क्योंकि उसने इस मामले को विरल से विरलतम मामले के प्रवर्ग में नहीं माना। यह अभिनिर्धारित किया गया कि घटना के समय घटना का शिकार व्यक्ति नि:शस्त्र था और अभियुक्तों ने गोली चला कर उसकी हत्या कर दिया। क्रूरता ऐसी प्रकृति की नहीं थी कि मृत्युदण्ड पारित करने के विवेकाधिकार का प्रयोग करना पड़े। क्रूरता बरती गई है। इसमें कोई सन्देह नहीं है किन्तु मात्र क्रूरता के आधार पर ही यह विरल से विरलतम मामला नहीं बन जाता। मृत्युदण्ड उपान्तरित कर आजीवन कारावास में बदल दिया गया। आगे यह अभिनिर्धारित किया गया कि हत्या के प्रत्येक मामले में क्रूरता अन्तर्वलित होता है। क्रूरता। एसा तथ्य है जो स्पष्ट रूप से विद्यमान होता है किन्त करता कैसे बरती गई, यह आवश्यक और सुसंगत तत्व वचार किया जाना चाहिये। हमारा समाज एक सभ्य समाज होने के नाते आंख के बदले आँख 1 के बदले दात का मानदण्ड नहीं होना चाहिये और इसलिये मत्य दण्ड देने के मामले में जल्दबाजी। से काम करने का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारा विधिशास्त्र न्यायालयों को इस दिशा में और  इस परिप्रेक्ष्य में अपराध की जघन्यता और उसके लिये दण्ड के बीच युक्तियुक्त अनुपात ” चाहिये। जबकि यह सच है कि आनपातिक रूप से कठोर दण्ड नहीं पारित किया जाना चाहिये, 29ख. (2010) 2 क्रि० लॉ ज० 1440 (एस० सी०).

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 443 (सु० को०).

इससे न्यायालय को यह भी अधिकार नहीं मिल जाता कि वह अपराध की प्रकृति को ध्यान में न अपर्याप्त दण्ड दे, क्योंकि अपर्याप्त दण्ड देने से समाज में न्याय का हित पूरा नहीं होगा।3।। | भारत संघ बनाम देवेन्द्र नाथ राय2 के वाद में प्रत्यर्थी अभियुक्त, जो सशस्त्र बलों का सदस्य । कोर्ट माशल कार्यवाही में सेना के दो जवानों की मानवघाती (homicidal) मृत्यु और दो अन्य की हत्या के आशय से घोर उपहति कारित करने के लिये मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गयी थी। कोर्ट मार्शल के मत्यदण्ड की सजा को सेना अधिनियम, 1950 के अधीन केन्द्र सरकार द्वारा अनुमोदित कर दिया गया। अभियक्त ने उक्त आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल किया। उच्च न्यायालय ने अभियुक्त की दोषसिद्धि को उचित ठहराया परन्तु यह मत व्यक्त किया कि यह मामला मृत्यु दण्ड को। उचित ठहराने हेतु अपूर्व में अपूर्वतम कोटि में नहीं आता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया। गया कि उच्च न्यायालय द्वारा उक्त निष्कर्ष अभिलिखित करने के समर्थन में मामले की शमनकारी और गुरुतरकारी परिस्थितियों का उल्लेख नहीं किया गया है। अतएव उच्च न्यायालय द्वारा मामले का-अपूर्व में अपूर्वतम कोटि में न आने का आकस्मिक निष्कर्ष उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों के स्पष्टतया विरुद्ध है। अतएव मामले पर नये सिरे से विचार कर उचित दण्ड का निर्णय लेने के निर्देश के साथ मामले को । उच्चतम न्यायालय को वापस प्रेषित कर दिया गया। क्या राजनीतिक हत्या विरल से विरलतम हत्या में आती है। तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी एवं अन्ट,,32क के वाद में आपराधिक षडयंत्र के अग्रसरण में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गयी। मुख्य अभियुक्तों में से एक शिक्षित महिला थी जिसकी सहायता के बिना यह अपराध कारित करना संभव नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया। कि मात्र यह कारण कि अभियुक्त एक महिला थी और एक ऐसे शिशु की मां थी जिसका जन्म तब हुआ जब वह अभिरक्षा में थी। न्यायालय की दृष्टि में उसे मृत्यु का दंडादेश न दिये जाने का कोई आधार नहीं था। अन्य मुख्य अभियुक्तों की भूमिका मुख्यत: प्रत्यक्ष और सक्रिय थी जिनकी सहायता के बिना उक्त अपराध को कारित किया जाना संभव नहीं था। अपराध को कम गम्भीर मानने की परिस्थितियों के अभाव में उनके विरुद्ध मृत्यु के दण्डादेश के साथ हस्तक्षेप करने का कोई उचित कारण नहीं था। परन्तु ऐसे अभियुक्त जो हत्या किये जाने के निर्णय के केन्द्र बिन्दु में शामिल नहीं थे मृत्यु दण्ड से दण्डित नहीं किए जा सकते हैं और उनके दण्डादेश को आजीवन कारावास में परिवर्तित किया जाना उचित है। क्या किसी स्त्री को मृत्यु का दण्डादेश दिया जा सकता है समाज में पुरुषों की अपेक्षा हत्या की अभियुक्त महिलाओं की संख्या कम है। इसका कारण स्पष्ट है। परन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या किसी स्त्री अभियुक्त को भी मृत्यु दण्ड दिया जा सकता है। न्यायालय के समक्ष महिलाओं द्वारा हत्या के मामले विचारार्थ आते हैं और विधि के अनुसार न्यायालय उन पर अपना निर्णय देते हैं। वैसे भी भारत में मृत्यु दण्ड दिए जाने के मामले बहुत कम हैं। तमिलनाडु राज्य बनाम नलिनी एवं अन्य,32ख का मामला उसी श्रेणी में आता है जबकि एक महिला को मृत्यु दण्डादेश दिया गया। मृत्युदण्ड का लघुकरण-शत्रुघन चौहान और अन्य बनाम भारत संघ2 के बाद में यह अधिनिर्णीत किया गया कि मृत्यु दण्ड के क्रियान्वयन में अनावश्यक विलम्ब की दशा में सिद्धदोषी व्यक्ति दण्ड के लघुकरण हेतु उच्चतम न्यायालय के पास जा सकता है। यह भी स्पष्ट किया गया कि राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल द्वारा दया याचिका के निस्तारण हेतु कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है। यह कि विलम्ब की दशा में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप संविधान के अनुच्छेद (Article) 72 अथवा 161 के अन्तर्गत शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं है। यह दोषसिद्ध व्यक्ति को प्राप्त मूलाधिकार को संरक्षित रखने के लिये आवश्यक है। अनिल उर्फ एन्थनी अनिल स्वामी जोजेफ बनाम महाराष्ट्र राज्य32घ के वाद में मृतक 10 वर्ष की उम्र का बालक अपनी माता का इकलौता पुत्र था। यह सिद्ध किया गया कि उसे अन्तिम बार अभियुक्त के साथ।

  1. 2003 क्रि० लाँ ज० 443 (सु० को०).
  2. 2006 क्रि० लॉ ज० 967 (सु० को०).

32क, 1999 क्रि० लॉ ज० 3124 (एस० सी०). 32ख. 1999 क्रि० लाँ ज० 3124 (एस० सी०). 32ग. (2014) II क्रि० लॉ ज० 1327 (एस० सी०). 32घ (2014) II क्रि० लॉ ज० 1608 (एस० सी०). ही देखा गया था। पोस्टमार्टम और डी० एन० ए० परीक्षण यह दर्शाता था कि मृत्यु के पहले उसके साथ अप्राकृतिक सम्भोग (Sex) किया गया था। लड़के का जीवन वीभत्स और बर्बरतापूर्ण तरीके से समाप्त किया गया था। यह एक अप्राकृतिक दैहिक (carnal) सम्भोग का मामला था अर्थात् एक मनुष्य और अवयस्क लड़के या लड़की के साथ सम्भोग का मामला था। यह अधिनिर्णीत किया गया कि यह केवल न्यायिक अन्त: करण को ही नहीं बल्कि समाज के अन्त:करण को भी चुभता (pricks) है। अतएव अभियुक्त की बिना किसी छूट के जितनी सजा वह भुगत चुका है उसके अतिरिक्त 30 वर्षों तक की बन्दी का दण्ड मृत्युदण्ड के बजाय यथेष्ट होगा।

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