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Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 6 LLB Notes

  Indian Penal Code 1860 Offences Relating Religion Part 6 LLB Notes:- Law LLB 1st Semester / 1st Year Important Book Indian Penal Code 1860 Notes Study Material in PDF File Download Online Website.

 
 
 

 

 

सुख मृत्यु Euthanasia | सुख मृत्यु का अर्थ है मार डालना या मारना। यह एक तुलनात्मक रूप से हाल में उत्पन्न प्रतिभास है। इसके अनुसार पीड़ित व्यक्ति अथवा उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति अपने लिये मृत्यु को चुनता है। मुख्यत: पीड़ित की बीमारी की दशा के कारण और तब वह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मार डाला जाता है। पीड़ित व्यक्ति मुख्य रूप से इतने लम्बे समय से बीमार रहता है कि वे अपनी बीमारी से परेशान होकर मर जाना बेहतर समझते हैं। ऐसे मामलों में मर्यादा पूर्वक मर जाने का संप्रत्यय या विचार आवेष्टित है। सन् 1984 में जर्मनी में एक वृद्ध महिला जो घोर शारीरिक पीड़ा से पीड़ित थी क्योंकि वह प्रचण्ड कैंसर (acute cancer) का रोग था उसका लगभग पूरा मुंह, एक तरफ का गाल और एक आंख खा डाला था और तेरह रेडिएशन (radiation) उपचारों ने उसके शरीर को एक विधिपूर्ण घालमेल (mess) में बदल दिया था। उसने अपने डाक्टर से यह प्रार्थना किया कि वे मरने में उसकी सहायता करें और इस मामले पर डाक्टर ने उससे काफी लम्बे समय तक बातचीत किया और उसने इस मामले को अपने अन्य साथी डाक्टरों, वकीलों और मित्रों से भी विचार-विमर्श किया और अन्तत: शंखिया (cynide) की एक खुराक उसे दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पश्चात् । इस विषय पर बहस की बाढ़ आ गयी68a मरने के अधिकार का प्रश्न वियतनाम युद्ध के समय काफी जोरदार हो गया। युद्ध के समय जीवन एकदम असहनीय (unbearable) हो गया था परिणामस्वरूप काफी संख्या में मनुष्यों या लोगों का अंग-भंग कर दिया गया था और वे अपंग हो गये थे। फ्रान्स के एक सुप्रसिद्ध कैंसर विशेषज्ञ ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा किया कि उसने काफी बड़ी संख्या में मरणान्तक रोगग्रस्त लोगों की मृत्यु जल्द कारित कर दिया (hastened the death) था68b समाचार पत्र की एक रिपोर्ट यह कहती है कि यद्यपि सुख मृत्यु को चीन में मान्यता नहीं हैं तथापि काफी बड़ी संख्या में गत वर्षों में ऐसी मृत्यु चीन के अस्पताल में हुई है। इनमें से अधिकतर मृत्यु निष्क्रिय सुख मृत्यु हुई है जिनमें पीड़ित के रिश्तेदारों या मित्रों के निवेदन पर मरणान्तक (Terminally ill) बीमार व्यक्ति के शरीर से जीवनरक्षक (Life sustaining) यंत्रों को हटा दिया (discontinuing) गया।68c न्यूजर्सी की सुप्रीम कोर्ट ने यह अभिनिर्धारित (held) किया कि ‘मरीज का एकान्तता का संवैधानिक अधिकार में उसे जीवन रक्षक उपचार कराने से मना करने का अधिकार

  1. ए० आई० आर० 1956 मद्रास 97.
  2. शरदविरधी चन्द्र सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 1738 सु० को०.

68a. Edward Hughes Dying with Dignity. The hard choice, Taking case of strangers. 68b. Robert Abert ‘Taking care of strangers the rule of law in Doctor Patient Relations. 68c. The Times of India : Jaipur Edn., July 14, 1980. 68d शामिल है। मरीज के नजदीकी सम्बन्धी को भी ऐसा इलाज करने से इंकार करने का अधिक की मृत्यु हो जाय।” 68e सन् 1984 में लंदन में एक व्यक्ति को न्यायालय द्वारा 9 माह के लिए कारावास में बी (imprisoned) गया क्योंकि उसने एक मरणान्तक बीमार वृद्ध महिला को जिसने आत्महत्या करने में मदद मांगा था, की सहायता करने का प्रयास किया था। न्यायालय ने यह माना (admi अभियुक्त मात्र सहानुभूति या करुणा (compassion) से प्रेरित हुआ था।

 

इन गतिविधियों (developments) ने भारत में भी सुख मृत्यु पर बहस (debate) को प्रेरित किया। दि इन्डियन सोसायटी फॉर राइट टू डाई (ISRD) नई दिल्ली और सोसायटी फॉर राइट टू डाई विथ डिगनिटी (S.R.D.D.), बाम्बे पहले ही से सुखमृत्यु के समर्थन में अस्तित्व में आ गयीं जबकि दि रेस्पेक्ट लाइफ सोसाइटी (R.L.S.), बाम्बे जो सुखमृत्यु की विरोधी है पार्लियामेन्ट में सन् 1980 में बिल पेश किया गया परन्तु इसका निष्कर्ष कुछ नहीं निकला। कुछ समय बाद निष्क्रिय सुख मृत्यु (Passive Euthanasia) का समर्थन करने वाला एक प्राइवेट बिल (Bill) महाराष्ट्र विधान परिषद् (Legislative Council) में पेश किया गया परन्तु ऐसा लगता है कि इसका भी वही हाल हुआ। अतएव, भारत में विधि वही है जैसा कि यह पहले हमेशा रहा करती थी। सहमति से मृत्यु कारित करना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अपवाद 5 द्वारा शासित है। यह कहना उचित है कि नीदरलैण्ड और बेल्जियम ने सुखमृत्यु को पहले ही मान्यता दी है और यह सम्भावना है कि निकट भविष्य में कुछ और देश इसे मान्यता देंगे। संयुक्त राज्य अमेरिका में स्टेट ऑफ ओरेगन ने पहले ही सुखमृत्यु को मान्यता दी है और वाशिंगटन दूसरा राज्य है जो इसे मान्यता देने की अनुमति चाहता है 68f एक्जिट इण्टरनेशनल (Exit International) जो सुखमृत्यु समर्थक ग्रुप है और जो आस्ट्रेलिया के एक डॉक्टर फिलिप नित्सचके (Philip Nitjchke) (सुखमृत्यु में सहायता किया) द्वारा प्रारम्भ किया गया। एक्जिट इण्टरनेशनल (Exit International) नामक एक सुखमृत्यु समर्थक ग्रुप ने यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के 250 व्यक्तियों/लोगों की एक ड्रग येन्टो बार विटल जो कि मेक्सिको में जानवरों को शांतिपूर्वक मृत्यु के लिए लगाई जाती है, का प्रयोग किया।68g साउथ कोरिया की एक अपील न्यायालय ने हाल में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्णय दिया जिससे देश की पहली सुख मृत्यु को मान्यता दी गयी।68h सुख मृत्यु को विधिक मान्यता हेतु प्रथम कदम उठाते हुये भारत के विधि आयोग (ला कमीशन) ने भारत सरकार को मरणान्तक (terminally ill) बीमार लोगों को उन्हें लम्बी बीमारी जैसे असाध्य रोग से मुक्ति दिलाने हेतु, सुखमृत्यु को मान्यता प्रदान करने की संस्तुति किया ताकि उनकी घोर व्यथा (agony) का अन्त हो जाय अथवा वे यंत्रणा से मुक्त हो जाय। । जग्गा सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब68i के वाद में अभियोजनकर्ता ने अभियुक्त पर यह आरोप लगाया कि वह मृतक को उसके घर से ले गया और उसके 15-20 मिनट बाद तीन-चार गोलियां चलने की आवाज सुनायी पड़ी और मृतक की लाश दूसरे दिन पायी गयी। मेडिकल रिपोर्ट में मृतक के शरीर पर कोई गोली लगने की चोट नहीं पायी गयी थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में अभियुक्त जहां तक हत्या के आरोप का सम्बन्ध है, सन्देह का लाभ पाने का अधिकारी है परन्तु जहां तक गोली चलाने और गोली द्वारा चोट कारित करने का प्रश्न है अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 325 के अधीन एक अन्य व्यक्ति के पैर पर गोली दागने जिसे उसने स्वीकार किया है, हेतु दोषसिद्धि का दायित्वाधीन है। 68d. 70 NJ. 10. 68e. John C. Fletcher : Ins. Euthanasia even Justifiable. 68f. देखें, टाइम्स ऑफ इण्डिया, जयपुर संस्करण अक्टूबर 13, 2008, पृ० 13. 68g. देखें, टाइम्स ऑफ इण्डिया, जयपुर संस्करण जून 1, 2008, पृष्ठ 13. 68h. देखें, टाइम्स ऑफ इण्डिया जयपुर संस्करण फरवरी 11, 2009, पृ० १. 68i. (2011) 2 क्रि० लॉ ज० 1457 (एस० सी०). कल्पना मजूमदार बनाम उड़ीसा राज्य69 वाले मामले में चितरंजन मोहन्ती (अभि० सा , दुनिला रिपोर्ट दर्ज कराया। उन्होंने यह रिपोर्ट किया कि चार अपीलार्थीगण और या के भतीजे का 30 अप्रैल, 1997 को अपहरण कर लिया और बाद में उसकी हत्या कर दी। यह कथन किया गया कि 1 मई, 1997 को प्रात: तड़के जब अभि० सा० 7 शौच के लिये गया था, तो उसने उस व्यक्ति को अपने कंधे पर कुछ लेकर जाते हुये देखा था और वह तालाब की ओर गया। वह व्यक्ति अभियक सं. २ था। अभि० सा० 7 ने उसे पकड़ा और शोर मचाया। लोग वहाँ एकत्र हो गये। वहाँ एकत्र लोगों में से कुछ = उधम सचना रिपोर्ट में दर्ज कराये गये हैं। उन्होंने देखा कि अ-3 मृतक का शव लिये जा रहा था और पछे जाने पर उसने बताया कि उसने अकेले बच्चे की हत्या नहीं की है। हत्या में कुछ और लोग भी शामिल हैं जिन्हें वह पहचान सकता है। वह सभी व्यक्तियों को अभियुक्त सं० 2 (अ-2) के घर पुनः ले गया, जिसने अ-3 और अन्य लोगों को देखकर सब को मारने की धमकी दी और उसका नौकर भी लाठी और टांगी लेकर आ गया। उस समय वे लोग चले गये किन्तु कुछ और ग्रामीणों को लेकर अ-2 के घर पुनः गये तब पाया कि घर में कोई नहीं है। घर के पूजा घर में मृत बच्चे का रक्तसहित नाखून और बाल उन्हें मिला। अ-3 ने बताया कि पूजा घर में बच्चे के नाखून, बाल और जीभ काट कर सुमांचल पाधी ने प्रार्थना किया। इसके बाद वे जिन बच्चे को अ-2 की जीप में अभियुक्त सं० 1 (अ-1) के घर ले गये, वहाँ बच्चे के हाथ-पैर पकड़कर गला घोंट कर हत्या की गई। सुमाचल पाधी, अ-1 और अ-2 ने अ-3 से कहा कि वह बच्चे को फेंक दे, इसके लिये उसे वे 25000/-रु० देंगे। जब वह बच्चे को तालाब में फेंक रहा था, तभी अभि० सा० 7 द्वारा रंगे हाथों पकड़ा गया। इतना सुनकर सभी लोग अ-1 के घर गये। वहाँ सुमांचल पाधी तांत्रिक ने कहा कि उसने बच्चे को मारा है और वह उसे जिन्दा कर सकता है। पाधी ने शव के पास तीन घंटे तक प्रार्थना किया और सभी से इंतजार करने को कहा किन्तु वह बच्चे को जीवित न कर सका और घर से भाग निकला किन्तु अपने सहयोगियों के साथ पकड़ा गया और पुलिस को सौंप दिया गया। हरीचन्द साहू (अभि० सा० 14) जो अ-1 का कर्मचारी था संपूर्ण घटना का प्रत्यक्षदर्शी साक्षी था। अभि० सा० 14 ने घटना के दूसरे दिन प्रकथन किया कि जब अ-1 ने अभि० सा० 14 को लगभग 7 बजे अपरान्ह अपने घर पर बुलाया, उस समय अ-3 एक बच्चे को लाया, जो कपड़े में लिपटा हुआ था। उसके बाद अ-1, अ-2, अ-3, अभि० सा० 14 और तांत्रिक सभी जीप में अ-2 के घर गये। वे एक कमरे में रुके. बाकी सभी दूसरे कमरे में रुके। आधी रात को सभी उस स्थान पर गये, जहाँ एक गड्ढा तैयार किया गया और वहाँ अभि० सा० 14 को टार्च देकर रखवाली करने को कहा गया। उसने बयान दिया कि कल्पना मजूमदार ने लड़के का पैर पकड़ा, अ-1 ने उसका पेट दबाया, अ-2 ने छाती पकड़ा, और तांत्रिक मंत्र पाठ कर रहा था, अ-3 ने बच्चे की गर्दन पकड़ा और बच्चा मर गया। वे सभी लोग जीप से जहाँ देवताओं को प्रसन्न करने के लिये बच्चे की बलि दी गई थी वहाँ से वापस आए। उसने यह सब डर वश किया। उसने 19 दिन तक घटना के बारे में किसी को नहीं बताया, यद्यपि वह अपने गाँव गया था। । यह अभिनिर्धारित किया गया कि एकमात्र अभि० सा० 14 का परिसाक्ष्य, जिसे संपुष्ट नहीं किया गया था, यदि इसका आश्रय न लिया जाए तो अ-3 को छोड़कर अपीलार्थीगण को अपराध कारित करने से जोड़ने वाला कोई अन्य साक्ष्य नहीं है। इन परिस्थितियों में अ-1, अ-2 और अ-4 सन्देह का लाभ पाने के हकदार हैं। तथापि अ-3 की स्थिति भिन्न है। अ-3 मृतक की लाश तालाब के किनारे फेंकते हुये रंगे हाथ पकड़ा गया। अभि० सा० 7 का साक्ष्य उसके विरुद्ध है। अभि० सा० 1, अभि० सा० 2. अभि० सा० 3 और आभ० सा० 6 का परिसाक्ष्य भी इसी प्रभाव का है कि अ-3 मृतक का शव फेंकते समय रंगे हाथों पकड़ा गया था। अ-3 ने अभियोजन साक्षियों के समक्ष न्यायिकेतर संस्वीकृति की थी, जो प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में दर्ज की गई। है। वह रंगे हाथों पकड़ा गया था और इस बाबत कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि शव उसके कब्जे में कैसे आया। यह सभी परिस्थितियाँ अ-3 के विरुद्ध जाती हैं, अतः यह उपधारणा अ-3 के विरुद्ध का जा सका । उसने हत्या कारित की है और उसकी दोषसिद्धि सही हुई है। चूंकि अन्य अभियुक्तों का सन्दर गया है, इसलिये अ-3 को दिया गया मृत्यु दण्ड आजीवन कारावास में परिवर्तित किया जाना उचित है |

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 3756 (सु० को०).
  2. कल्पना मजूमदार बनाम उड़ीसा राज्य, 2002 क्रि० लॉ ज० 3756 (सु० को०).

खीमा विकामशी बनाम गुजरात राज्य। वाले मामले में 11 नवम्बर, 1982 को मृतक सामन्त नारायण अपनी बहू (अभि० सा० 4) के साथ चिकित्सक के पास जा रहा था। कुछ शत्रुता के कारण अपीलार्थीगण ने एक अवयस्क अभियुक्त के साथ विधि विरुद्ध जमाव करते हुये रास्ते में घेरकर मृतक को कुल्हाड़ी और लाठियों से मार कर गिरा दिया जिससे मृतक सामन्त को कई चोटें आईं, जिनसे रक्त स्राव हो। रहा था। आभ० सा० 4 बह का मतक को बचाने का प्रयास विफल हो गया। घटना के बाद सभी अधि पटनास्थल से भाग निकले। अभि० सा० 4 की गुहार सुन कर मृतक का भाई (अभि० सा० 5) जो उधर से (९) या, घटनास्थल पर आया और एक बैलगाडी का प्रबंध कर सामन्त नारायण को घर लाया। उस का उसकी पत्नी, पुत्र और परिवार के अन्य सदस्य मौजूद थे। घायल को उपचार के लिये दूसरे गांव ले जाया ग और उसका दूसरा भाई (अभि० सा० 3) भी साथ गया। उस गाँव के चिकित्सक ने घायल को उपचार हेतु जाम नगर ले जाने का परामर्श दिया। घायल को उक्त चिकित्सक और अभि० सा० 3, 4 और 5 एक साथ एक टेम्पो में, जामनगर के लिये लेकर चल पड़े, किन्तु घायल की रास्ते में मृत्यु हो गई। यह निष्कर्ष दिया गया कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षी बहू अभि० सा० 4 पर्दानशीन महिला है। घटना के समय मृतक के साथ अकेले उसका वहाँ होना ही एक संदिग्ध परिस्थिति है। उसने बयान दिया कि उसने अभियुक्तों को पहली बार देखा, जब वे मृतक पर प्रहार करने लगे। यह बात अत्यन्त अस्वाभाविक है, क्योंकि घटनास्थल की भौगोलिक बनावट समतल है और दूर तक दिखाई देता है। दूसरे यह कि साक्षियों के शरीर या कपड़ों पर खून के निशान नहीं पाए गये, जब कि उन्होंने मृतक को पकड़ रखा था। घटनास्थल पर रक्त से सनी मिट्टी भी नहीं मिली। गाँव की पुलिस चौकी पर रिपोर्ट नहीं दर्ज कराई गई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह लोप और कमियाँ अभियोजन मामले की सत्यता पर युक्तियुक्त सन्देह उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त हैं। अत: अभियुक्त सन्देह का लाभ पाने के हकदार हैं और उन्हें दोषमुक्त किया जाता है। मध्य प्रदेश राज्य बनाम बद्री प्रसाद72 के वाद में सह-अभियुक्त को संदेह का लाभ देते हुये दोष मुक्त कर दिया गया था क्योंकि उसके नाम का प्रथम सूचना रिपोर्ट में उल्लेख नहीं था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि रेस्पान्डेन्ट (प्रत्यर्थी) जिसका नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में एक हमलावर के तौर पर दिया गया था और जिसकी अभियोजन साक्षी द्वारा पहचान भी की गयी थी, के साथ भी वही मापदण्ड नहीं लागू किया जा सकता है। बिरेन्दर पोद्दार बनाम स्टेट ऑफ बिहार72क के बाद में साक्षियों की सुसंगत (consistent) साक्ष्य थी कि अभियुक्त को अपने भाई की पत्नी के साथ अवैध सम्बन्ध था और मृतक पत्नी को प्रताड़ित करने और पीटने का काम अभियुक्त ने ही किया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह स्पष्ट था कि मृतक की मृत्यु जैसा आक्षेपित था, पीलिया के कारण नहीं अभियुक्त द्वारा कारित चोटों के कारण हुयी थी। पीलिया का बचाव प्रस्तुत करने में कोई भी रोगात्मक (Pathological) डॉक्टरी जांच प्रस्तुत नहीं की गयी थी। इस मामले में केवल पारिस्थितिक साक्ष्य था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि हत्या के मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर तभी विश्वास करना चाहिये यदि यह बिना किसी त्रुटि के अभुियक्त के दोष (guilt) की ओर संकेत करती हो और मात्र इस कारण कि साक्षी मृतक का सम्बन्धी है, यह उसके साक्ष्य को अमान्य करने का आधार नहीं होना चाहिये । सम्बन्धी साक्षी के साक्ष्य को उचित देखभाल और सतर्कतापूर्वक जांच करना (Scrutinize) चाहिये। अतएव अभियुक्त को हत्या का दोषी अभिनित किया गया क्योंकि वह अपना बचाव सिद्ध नहीं कर सका। साक्ष्य का अभाव-अभियुक्त पर आरोप लगाया गया था कि उसने अपनी पत्नी की हत्या किया है। उसकी पत्नी की हत्या के पूर्व यह पाया गया कि दोनों के बीच सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। किन्तु हत्या काई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं था। प्रत्यक्ष प्रमाण के अभाव में अभियोजन को परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ा। न्यायालय को यह अभिनिर्णीत करना था कि इन परिस्थितियों में अभियुक्तों को हत्या का दोषी ठहराया जा

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 2025 (सु० को०).
  2. 2006 क्रि० लॉ ज० 2128 (एस० सी०).

72क (2011) 3 क्रि० लाँ ज० 3120 (एस० सी०). सकता है अथवा नहीं 173 इस प्रश्न का निर्धारण करते समय बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि हत्या के मामले में प्रयोजन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है परन्तु विधि यह नहीं है कि प्रयोजन के प्रमाण के भाव में अन्य परिस्थितियाँ चाहे जितनी भी सुस्पष्ट एवं अन्तिम हों अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराया जा पकता क्योंकि प्रयोजन एक ऐसी चीज है जो अपराधी के हृदय में बन्द रहती है और कभी-कभी इसका पता लाना भी असम्भव होता है। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के सम्बन्ध में भी विधि सुस्पष्ट है। सभी परिस्थितियाँ बना किसी सन्देह के अपराधी के अपराध को सिद्ध करें, उन्हें सुसंगत होना चाहिये। अपराधी के अपराध को गत होना चाहिये तथा उसकी निर्देषिता के विपरीत होना चाहिये। जो कुछ महत्वपूर्ण है वह है सभी स्थितियों का सम्मिलित प्रभाव। यह नहीं कहा जा सकता है कि चूंकि प्रयोजन को सत्यापित नहीं किया। गया है, इसलिये अपराध को सत्यापित करने वाली कड़ी अपूर्ण रह गयी और अभियोजन सफल नहीं। होगा।74 जहाँ यह आरोप लगाया गया हो कि मृतक ने आत्महत्या कर लिया था और आत्महत्या गले में फाँसी लगा कर किया गया था, परन्तु चिकित्सीय साक्ष्यों से यह पता चलता है कि मृतक के पेट तथा गुर्दे में गम्भीर चोटें आयी थीं तथा उसके लिये यह सम्भव नहीं था कि उसने अपने आप को फन्दे पर लटकाया होगा, एवं उसके ससुर तथा सास का आचरण अपराध में उनके सक्रिय रूप से अन्तर्ग्रस्त होने की ओर संकेत करता है। ऐसी स्थिति में अभियुक्त हत्या के दोषी होंगे। ऐसे मामले में यदि वधू संहार से सम्बन्धित है तो उनमें न्यायालय अभियुक्तों के प्रति कठोर रवैया अपनाते हैं तथा भयकारी दण्ड करते हैं अन्यथा वह बुराई पूरे समाज को अपनी लपेट में ले सकती है।75 | मेनपाल बनाम हरियाणा राज्य76 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि मात्र इसलिये कि मृतक के पिता के साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि उसने अस्वाभाविक रूप से कृत्य किया कि जब अपने पुत्र पर प्रहार होते देखा तो घटनास्थल से हट गया और बड़ी देर तक नहीं लौटा, यह प्रथमतः निर्णायक तत्व नहीं है, जिसके कारण अभियोजन पक्ष के अन्य निश्चायक साक्ष्य को नकार दिया जाय। हर व्यक्ति किसी विशिष्ट या एक ही ढंग से क्रिया या प्रतिक्रिया नहीं करता। यह स्पष्ट कर दिया गया कि मौके पर एक विशिष्ट रूप से उसकी प्रतिक्रिया को उस व्यक्ति के मानसिक व्यक्तित्व और उसके मन से उत्पन्न हुये भय को ध्यान में रखकर देखना चाहिये। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों का साक्ष्य जो सत्य और मूल्यवान (विश्वसनीय) है उसे संबंधी होने के कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि चिकित्सक के साक्ष्य को विवक्षित स्वीकृति की बजाय अन्य साक्षियों के साक्ष्य के समान ही उसका विश्लेषण और परीक्षण किया जाना चाहिये। डॉ० वी० के० सक्सेना बनाम उत्तर प्रदेश राज्य77 के मामले में एक डाक्टर के ऊपर यह आरोप लगाया गया था कि उसने अपनी पत्नी की हत्या किया था। डाक्टर का बयान था कि उसकी पत्नी ने आत्महत्या किया था तथा उसने फाँसी लगाकर आत्महत्या किया था। किन्तु जिन आत्महत्या की परिस्थितियों का विश्लेषण किया गया तो यह पाया गया कि अभिकथित आत्महत्या के समय मृतक का डाक्टर पति तथा उसको दो वर्षीय पुत्र घर में मौजद थे। तत्समय घर में कोई रस्सा भी नहीं था जिससे वह फांसी लगा सकती। थी। इन परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने इसे हत्या का मामला माना। न्यायालय ने यह भी प्रेक्षित किया। कि यदि इन परिस्थितियों में अभियक्त का आचरण सामान्य नहीं था जैसे उसने एक बक्स खरीदा। उस बक्स में अपनी पत्नी का मृत शरीर बन्द किया तथा उस बाक्स को उसने चलती ट्रेन से पुल पर फेंका ताकि वह बक्स नदी में गिर जाये, तो इन तथ्यों से इस बात की और भी पुष्टि होगी कि वह एक हत्या का मामला है, उसने हत्या स्वयं किया है और उसे हत्या के लिये दोषसिद्धि प्रदान की जाएगी।78 ।

  1. तुलसीराम बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1984 क्रि० ला ज० 209 (बाम्बे).
  2. सरबजीत सिंह एवं अन्य बनाम उ० प्र० राज्य, 1983 क्रि० लॉ ज० 961 (एस० सी०).
  3. वीरभान सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1985 क्रि० लॉ ज० 1635 सु० को०.
  4. 2004 क्रि० लाँ ज० 3036 (सु० को०). ।

77 1983 क्रि० लॉ ज० 1731 सु० को०. ।

  1. डाक्टर वी० के० सक्सेना बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1983 क्रि० लॉ ज० 1731 (सु० को०) (पूर्ण पीठ).

पवन कुमार बनाम हरियाणा राज्य?9 वाले मामले में 9 जुलाई, 1994 को दो अभियों पवन और बलविन्दर सिंह ने अमृतसर से भटिण्डा जाने के लिये भाड़े पर टैक्सी लिया। वे एक अज्ञात लडकी साथ टैक्सी में बैठे, जिसे शमशेर सिंह उर्फ शेरा चला रहा था। रात में वे सहारन होटल में रुके। दिनांक जुलाई, 1999 को जब महावीर सिंह (अभि० सा० 6) होटल का मालिक 8.00 या 8.30 बजे पूर्वान्ह हो आया, तब बैरा विजय कुमार ने उसे बताया कि लगभग 1.15 बजे पूर्वान्ह तीन ग्राहकों ने होटल का कम। सं० 5 भाड़े पर लिया और उनमें से दो लगभग 4.30 बजे यह कहकर चले गये कि उनका चाचा अर्थात ड्राइवर कमरे में सो रहा है और जो कुछ वह मांगे होटल के कर्मचारी उसे देते रहें और वे शीघ्र ही वापस आ रहे हैं पर वे नहीं लौटे। लगभग 11.30 बजे होटल मालिक महावीर सिंह ने विजय से कहा कि उस कमरे का दरवाजा खटकाओ और जब भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला तब महावीर सिंह ने कूलर के एक छिद्र में से देखा कि बिस्तर पर कोई सो रहा है। उक्त कमरे को दोहरी चाभी से खोला गया और उन्होंने देखा कि बिस्तर पर पड़ा व्यक्ति घायल और मृत है। महावीर सिंह ने 2.55 बजे अपरान्ह अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया। पुलिस ने अन्वेषण के दौरान कमरा सं० 5 से कुछ फंसाने वाली सामग्री बरामद किया, जिसके आधार पर दो व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया गया। कतिपय साक्षी परिस्थितियों को साबित करने के लिये दर्शित किये गये, क्योंकि यह प्रत्यक्ष साक्ष्य वाला मामला नहीं था। विचारण न्यायालय ने दोनों को दोषसिद्ध किया और उच्च न्यायालय द्वारा उनकी अपील खारिज कर दी गई, किन्तु उनमें से एक ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि होटल के मालिक का साक्ष्य केवल अनुश्रुत साक्ष्य है क्योंकि उसने वही अभिकथन किया है जो उसको वेटर ने बताया और इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। विशेष रूप से तब जबकि वेटर का अभियोजन द्वारा परीक्षण नहीं किया गया है। और यह भी कि वेटर की मौजूदगी में अभियुक्त द्वारा रजिस्टर में की गयी प्रविष्टि सम्बन्धी अभिलेखीय साक्ष्य को साबित नहीं किया गया था। अभियुक्त द्वारा अपनी माता को लिखा गया पत्र जिसमें अभियुक्त द्वारा अपने अपराध की स्वीकृति आरोपित थी को भी सिद्ध नहीं किया गया था। साथ ही मृतक की सोने की अंगूठी और जंजीर की अभियुक्तगणों के पास से उनके बयान के आधार पर बरामदगी भी विश्वसनीय नहीं थी। अतएव सभी बातों के परिप्रेक्ष्य में अभियोजन अभियुक्तगणों के विरुद्ध परिस्थितियों, केवल इस बात के सिवाय कि उन्होंने एक टैक्सी किराये पर लिया था अन्य को साबित करने में विफल रहा है और केवल यह एक बात दोनों अभियुक्तों की दोषसिद्धि का आधार नहीं हो सकता है। इस प्रकार दोनों अभियुक्त दोषमुक्त किए जाने के अधिकारी हैं। मन्जूर तथा अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य80 के मामले में अपीलार्थियों को उच्च न्यायालय ने हत्या के अभियोग में दण्डित किया था। अपीलार्थियों तथा मृतक के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। वे एक मेले में गये हुये थे। घटना की रात को अपीलार्थी मृतक को एक चूने के भट्टे के पास जो कि रेलवे लाइन के नजदीक था, ले। गया। एक अपीलार्थी ने उस पर गोली चलायी जिससे उसके पेट में चोट आयी। मृतक की चीखें सुनकर चार होमगार्ड के सिपाही जो उस समय अपने रात्रि पहरे पर उधर से गुजर रहे थे, अपनी-अपनी टार्यों को जलाया, और अभियुक्तों को भागते देखा। वे सिपाही मृतक को पुलिस स्टेशन ले गये जहाँ से उसे अस्पताल ले जाया गया और अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि इन परिस्थितियों में अभियुक्त को दण्डित किया जाना उचित नहीं है, क्योंकि अभियुक्तों का अपराध युक्तियुक्त सन्देह के परे सन्तोषजनक रूप में सिद्ध नहीं हो पाया है यद्यपि मृतक ने अपनी मृत्यु घोषणा में घटना का वर्णन किया था।81 हत्या के विचारण में अभियुक्त को मात्र एक साक्षी के साक्ष्य पर दोषसिद्धि प्रदान की जा सकती है। यदि साक्षी विश्वसनीय है तो उसके साक्ष्य के पुष्टिकरण की भी आवश्यकता नहीं होगी।82 हत्या के विचारण में

  1. 2003 क्रि० लॉ ज० 3552 (सु० को०).
  2. 1983 क्रि० लॉ ज० 441 (सु० को०).
  3. उपरोक्त सन्दर्भ.
  4. उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सतीश चन्द्र तथा अन्य, 1985 क्रि० लॉ ज० 1921.

न्यायालय को सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिये। हत्या के सन्दर्भ में उत्पन्न जन आक्रोश से न्यायालय को प्रभावित नहीं होना चाहिये। यह जन आक्रोश चाहे न्यायालय के बाहर उत्पन्न हुआ हो या समाचार के माध्यमों से लोगों की बातचीत से उत्पन्न हुआ हो।83 । इन्दरजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य84 के मामले में गुरबक्स सिंह नामक व्यक्ति की लाश नहर के घाट पर पायी गयी और मृतक को अन्तिम बार मृत्यु के पहले इन्दरजीत सिंह तथा मोहन सिंह के साथ देखा गया था। अभियुक्त और मृतक में किसी प्रकार की दुश्मनी नहीं थी। अभियुक्त को मृतक की मृत्यु कारित करने के अपराध से सम्बद्ध करने हेतु कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था। यह निर्णय दिया गया कि मात्र यह तथ्य कि मृतक को मृत्यु के पहले अन्तिम बार अभियुक्तों के साथ देखा गया, अपने आप में अभियुक्त दोषसिद्धि हेतु यथेष्ट नहीं है। ऐसे मामलों में जो पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित हों अभियोजन पक्ष को सभी परिस्थितियों को स्वतन्त्र साक्ष्य द्वारा सिद्ध करना चाहिये और इस प्रकार स्थापित परिस्थितियाँ अपराधी के दोष के सबूत में समस्त युक्तिसंगत सन्देहों से परे एक पूर्ण कड़ी के रूप में होनी चाहिये। इस प्रकार सिद्ध की गयी परिस्थितियाँ अभियुक्त के अपराध से सुसंगत (Consistent) होनी चाहिये। संजय बनाम राज्य (एन० सी० टी० दिल्ली )85 के बाद में अभियुक्त से थाने पर लगभग 8 बजे रात्रि पूछताछ की गई और तत्पश्चात् उसे छोड़ दिया गया। उसे दूसरे दिन सुबह 10 बजे पुनः आने के लिये कहा। गया। उसी दिन रात्रि 9 बजे एक स्वतन्त्र साक्षी का बयान जिसने अभियुक्त के अपराध में सम्मिलित होने की बात कही लेख बद्ध (रिकार्ड) किया गया। इस मामले में हत्या का अपराध कारित करने का आरोप था। विचारणीय प्रश्न अभियुक्त अपीलांट संजय द्वारा स्वतन्त्र साक्षी के समक्ष न्यायेतर संस्वीकृति (confession) के विषय में था। यह अभिनित किया गया कि स्वतन्त्र गवाह का साक्ष्य विश्वसनीय था तथा उसमें किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं था। घटना की रात्रि में अभियुक्त को गिरफ्तार करने में लोप मात्र को उक्त साक्षी के साक्ष्य को निर्मूल करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है। इस मामले में दूसरे अभियुक्त की खून से भीगी पैंट और कमीज उसके प्रकटीकरण (disclosure) बयान के फलस्वरूप बरामद की गई थी। यह अभिनिर्णीत किया गया कि उक्त कपड़ों पर खून के धब्बों के मूल कारणों का अभियोजन द्वारा सिद्ध न कर पाने का कोई लाभ अभियुक्त को नहीं प्रदान करेगा। । श्री राम बनाम मध्य प्रदेश राज्य86 वाले मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह कोई कठोर नियम नहीं है कि अभियोजन उसी घटना में अभियुक्त को आई चोटों के बारे में स्पष्टीकरण दे। यदि अभियोजन की ओर से परीक्षा कराये गये साक्षियों का अभियुक्त के दोष के बारे में सन्देह से परे न्यायालय द्वारा विश्वास किया जाता तो अभियोजन द्वारा अभियुक्त को आई चोटों के बारे में स्पष्टीकरण देने की बाध्यता का प्रश्न नहीं उठता। जब अभियोजन का यह निश्चित पक्ष कथन हो कि अभियुक्त द्वारा अपराध किया गया है। और वह अपना पक्षकथन युक्तियुक्त सन्देह से परे साबित कर देता है तब अभियोजन के लिये यह आवश्यक नहीं रह जाता कि यह साबित करे कि कैसे और किन परिस्थितियों में अभियुक्त को चोटें आईं। ऐसा उस समय विशेष रूप से जब चोटें साधारण और ऊपरी प्रकृति की हैं। प्रस्तुत मामले में मामूली और वाह्य किस्म की चोटें जो अभियुक्त को आई हैं उनसे अभियोजन के मामले की सत्यता पर सन्देह करने के लिये कोई आधार नहीं बनता। गुरप्रीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य87, वाले मामले में अपीलार्थी और उसकी पत्नी मृतक कल्पना ने प्रेम विवाह किया था। वे गुड़गांव में फ्लैट ले कर रहते थे। चूंकि पति-पत्नी आपस में ठीक तालमेल से नहीं रह रहे थे अतः 14-12-1993 को उन्होंने परस्पर सहमति से विवाह विच्छेद की मांग करते हुये हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13-ख के अधीन संयुक्त आवेदन फाइल किया।

  1. स्टेट (दिल्ली प्रशासन) बनाम लक्ष्मण कुमार, 1986 क्रि० लॉ ज० 155 (सु० को०).
  2. 1991 क्रि० लॉ ज० 2191 (एस० सी०).
  3. 2001 क्रि० लाँ ज० 1231 (एस० सी०).
  4. 2004 क्रि० लॉ ज० 610 (सु० को०).
  5. 2002 क्रि० लॉ ज० 4688 (सु० को०).

आवेदन फाइल करने से पूर्व उन्होंने पलैट खरीदा था, जिसमें आवेदन फाइल करने से पूर्व उन्होंने गं नाम से फ्लैट खरीदा था, जिसमें वे साथ साथ रहते थे। मृतक का फ्लैट में 50 प्रतिशत भाग था। विवाह-विच्छेद के सहमति पर्ण आवेदन ने अपीलाथी पर पत्नी को 3,00,000 (तीन लाख रुपये भगतान करने की बाध्यता डाल दिया। दिनांक 13/14-2-1994 की रात को 11.00 या 11.30 बजे रात्रि में गुरप्रीत सिंह के घर से कराहने और चीखने की आवाज आई। पड़ोस में रहने वाले अशोक मजूमदार की नींद खुल गई, और उसने खिड़की से देखा कि अपीलार्थी के फ्लैट से धुआं निकल रहा था। उसने देखा कि अपीलार्थी और उसका नौकर वहाँ मौजूद थे। पड़ोसी व्यवहार के नाते मजूमदार ने पुलिस और फायर ब्रिगेड दोनों को फोन कर दिया। जब पुलिस उप निरीक्षक वहाँ पहुँचा, तब उसने देखा, अपीलार्थी अपने कमरे में बैठा था, जब कि घटना की शिकार कल्पना दूसरे कमरे में जली हुई हालत में पड़ी थी। जिस कमरे में अपीलार्थी बैठा था, वहाँ जलने के कोई निशान नहीं थे। उप-निरीक्षक ने एक रुक्का भेजा कि कल्पना को जला। कर उसकी हत्या कर दी गई है जिसके आधार पर प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज की गई। निरीक्षक (अभि० सा० 7) मुरारी लाल ने मृतका के जले कपड़ों के अवशेष अपने कब्जे में ले लिये । दिनांक 16-2-94 को अपीलार्थी को गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि अशोक मजूमदार अभि० सा० 1 ने अपने बयान में यह उल्लेख किया कि घटना से 15-16 दिन पहले उसने अपीलार्थी गुरप्रीत सिंह को अपनी पत्नी कल्पना की पिटाई करते हुये देखा था और उसके मुंह से रक्त बह रहा था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह उल्लेखनीय है कि घटना का कोई चश्मदीद (प्रत्यक्षदर्शी) विवरण नहीं है, किन्तु उप-निरीक्षक ने अपीलार्थी को अन्य कमरे में बैठा पाया और उसकी पत्नी का शरीर बैठी। हालत में पूरी तरह जल गया था, यह बात चिकित्सीय विधि शास्त्र के अनुकूल है कि गर्मी के कारण अकड़न हुई होगी और मांस पेशियों के खिंचाव से बाहों में लोच आया होगा और घुटने मुड़ गये होंगे। न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये फोटो ग्राफ से आग की प्रचण्डता दर्शित होती है, जिसे देख कर यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि ऐसा प्रयास था कि किसी भी दशा में बचने की कोई गुंजाइश न रहे। अपीलार्थी अभियुक्त ने कोई कारण या स्पष्टीकरण नहीं दिया। उसने अन्यत्र उपस्थित होने का अभिवचन किया, जो झूठा साबित हुआ। घटनाक्रम किसी संदेह को दूर कर देता है और पर्याप्त अभिलेखीय साक्ष्य है जिससे अभियुक्त अपीलार्थी को अपनी पत्नी की निर्मम हत्या करने से जोड़ा जा सकता है। अत: अपीलार्थी की हत्या के अपराध में दोषसिद्धि और आजीवन कारावास के दण्डादेश को उच्चतम न्यायालय ने कायम रखा।88 हरिसिंह एम० वसारा बनाम गुजरात राज्य89 के मामले में, अपीलार्थी/अभियुक्त पर अपनी रखैल मृतक को चाकू से कई चोट पहुंचाने का आरोप था। घटना परिवादी के घर में जो मृतका का किरायेदार था, हुई थी। अभियुक्त और मृतक दोनों ही गत 7-8 वर्षों से पति एवं पत्नी के रूप में रह रहे थे। घटना के दो माह । पूर्व अपीलार्थी पर कुल्हाड़ी से हमला कर मृतका की हत्या करने का प्रयास का आरोप था जिसके लिये मृतका ने पुलिस में शिकायत (परिवाद) दाखिल किया था। घटना के दिन मृतका अपने किरायेदार परिवादी के घर गई । वह अपने घर के कमरे के सामने कुर्सी पर बैठा था। उसी मुहल्ले की दो लड़कियाँ न और स भी एक चारपाई पर बैठी थीं। मृतका से कुछ विवाद होने के बाद उसने एक चाकू/कटारी से मृतका पर कई चोटें पहुंचाई जिससे उसकी मृत्यु हो गई। मृतका के किरायेदार ने दूसरे दिन पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। अभियुक्त स्वयमेव पुलिस के समक्ष अपराध में प्रयुक्त हथियार के साथ उपस्थित हुआ जो हथियार जब्त कर लिये गये। अपीलार्थी को गिरफ्तार कर लिया गया और खून से लथपथ उसके कपड़े और अपराधी के हथियार भी जब्त किये गये। डाक्टरी साक्ष्य से स्पष्ट था कि अपीलार्थी द्वारा प्रयुक्त हथियार से कई चोटें पहुँचाई गई हैं। यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी के साक्ष्य की पूर्णरूपेण परिपुष्टि हो रही थी। अभियुक्त का पुलिस के समक्ष कटार तथा खून से लथपथ कपड़ों के साथ प्रकट होना अभियोजन साक्ष्य की पूर्णरूपेण परिपुष्टि करता है। यह भी सिद्ध किया गया था कि खून से लथपथ कपड़े और अपराध में प्रयुक्त हथियार में लग खून का ग्रुप वही था जो ग्रुप मृतका का था। प्रथम सूचना रिपोर्ट भी यथेष्ट विस्तृत विवरण के साथ शीघ्र

  1. गुरप्रीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य, 2002 क्रि० लॉ ज० 4688 (सु० को०).
  2. 2002 क्रि० लॉ ज० 1771 (एस० सी०).

(promptly) दी गई थी। घटना के सहज और प्रत्यक्षदर्शी साक्षी परिवाद के साक्ष्य की परिपुष्टि डाक्टरी साक्ष्य तथा अन्य साक्षियों के साक्ष्य से भी हो रही थी। यह तथ्य कि घटनास्थल पर एकत्र हुये अन्य व्यक्तियों के नाम का उल्लेख प्रथम सूचना रिपोर्ट में नहीं था और घटना स्थल पर उपस्थित अन्य साक्षियों को प्रतिकल। (hostile) साक्षी घोषित कर दिया गया था, ये परिवादी के साक्ष्य को अग्राह्य नहीं बनाएंगी। यह भी स्पष्ट किया गया कि परिवादी की मृतका की जान बचाने के लिये हस्तक्षेप करने में विफलता उसके साक्ष्य को अमान्य करने का आधार नहीं हो सकता है विशेष रूप से तब जबकि उससे यह पूछा ही नहीं गया हो कि किन कारणों से उसने हस्तक्षेप नहीं किया। अतएव इन परिस्थितियों में अभियुक्त की दोषसिद्धि में हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है। राजस्थान राज्य बनाम धूलसिंह90 वाले मामले में थाने में यह अभिकथन करते हुये एक रिपोर्ट दर्ज कराई गई कि पिछले दिन लगभग 9 बजे रात्रि इस मामले में प्रत्यर्थी धूल सिंह ने धारदार हथियार जिसे तलवार कहा गया है, के जरिये अमर सिह पुत्र शंकर सिंह को पहाड़ा नामक खेत में गंभीर क्षतियाँ कारित की है, शिकायत के अनुसार घटना को (अभि० सा०-1) रमेश ने देखा था। अभिकथित रूप से हमला प्रत्यर्थी की भूमि पर मृतक द्वारा अपने जानवर चराने के अधिकार सम्बन्धी विवाद के कारण किया गया। पुलिस ने अन्वेषण के बाद प्रत्यर्थी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये आरोप-पत्र फाइल किया। साथ ही साथ आयुध अधिनियम की धारा 4 और 25 के अधीन भी आरोप-पत्र फाइल किया। विचारण न्यायालय ने प्रत्यर्थी को आरोपित अपराध का दोषी पाया, किन्तु अपील किये जाने पर उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दोषी नहीं पाया, बल्कि धारा 304 भाग II के अधीन अपराध का दोषी पाया। इसलिये राज्य ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल किया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि अभियुक्त ने मात्र धारदार हथियार से शरीर के मर्मस्थल अर्थात् गर्दन पर एक ही प्रहार किया था, परन्तु कृत्य भले ही गणना के हिसाब से एकमात्र था, किन्तु इसने स्टर्न ओक्लीनाइड धमनी और बाहरी जगलर धमनी तथा भीतरी जगलर धमनी को काट दिया था और समान कास्टाइड नाड़ी पूरी तरह काट दिया था जिससे तत्काल मृत्यु हो गई। कोई भी विवेकी व्यक्ति किसी भी उपधारणा के आधार पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि शरीर के ऐसे मर्मस्थल पर इस प्रकार की क्षति जो धारदार हथियार से कारित की गई थी, वह न केवल घटना के शिकार पर उसकी मृत्यु कारित करने के आशय से की गई थी, बल्कि हमलावर को इस बात की जानकारी भी थी कि इस प्रकार के प्रहार का परिणाम घटना के शिकार की मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि आशय सुनिश्चित करने के लिये प्रहार की संख्या पर सदैव विचार नहीं किया जा सकता। यह तो प्रमुख रूप से क्षति की प्रकृति, शरीर का भाग जहाँ क्षति कारित की गई और हथियार जिसका प्रयोग क्षति कारित करने के लिये किया गया के आधार पर निश्चित होगा, जिनसे यह उपदर्शित होता है कि अभियुक्त ने मृतक की हत्या उसकी मृत्यु कारित करने के आशय से की या नहीं। इस मामले में चिकित्सक ने यह राय व्यक्त किया था कि मृत्यु का कारण गर्दन पर गहरा घाव था, जिससे अत्यधिक रक्तस्राव हुआ और परिणामस्वरूप हृदय बंद हो गया। यह नहीं कहा जा सकता कि चिकित्सक ने यह नहीं कहा था कि क्षति प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त नहीं थी। उच्च न्यायालय का यह निर्णय कि यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त द्वारा ऐसी क्षति कारित की गयी थी, जिससे मृत्यु हो सकती थी, चिकित्सीय साक्ष्य के गलत अर्थान्वयन पर आधारित थी, अतः वह अपास्त किये जाने योग्य है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि यद्यपि तलवार द्वारा कारित क्षति साक्ष्य द्वारा साबित नहीं की गई थी, किन्तु इस बात का स्पष्ट साक्ष्य था कि अभियुक्त द्वारा मृतक की गर्दन पर गंभीर रूप से काटने का घाव पहुँचाया गया था, जिससे अत्यधिक रक्तस्राव हुआ और मृत्यु हो गई। क्षति के बारे में विवाद नहीं है और सो क्षति मात्र तेज धार वाले हथियार से ही कारित की जा सकती है। यह तथ्य कि तलवार का प्रयोग हुआ साबित नहीं किया गया है, खास महत्व नहीं रखता।

  1. 2004 क्रि० लॉ ज० 931 (सु० को०).

विकास बनाम राजस्थान राज्य। वाले मामले में नीता का विवाह 10 मार्च, 1988 को विका हुआ था। नीता का पति और उसके परिवार के सदस्य नीता को मिले दहेज से संतुष्ट नहीं थे। इसलिये उस साथ दुर्व्यवहार और उत्पीड़न होता था। उसने अपने माता पिता के घर एक बच्ची को जन्म दिया। दिनांक जून, 1990 को जब नीता अभि० सा० 3 श्रीमती कमला बाई (पिता की बहन) बुआ के घर गई थी तो विका वहां गया और दोनों मोटर साइकिल पर निकले। अगले दिन सुबह अभि० सा० 10 संजीव को विकास के नीता को दवाइयाँ पहुंचाने भेजा गया, किन्तु उसे अपीलांट द्वारा बताया गया कि नीता वहाँ घर पर नहीं है उसने दवाइयाँ लेने से भी मना कर दिया। संजीव वापस लौट कर गया और अपने पिता को सारी बात बताया। नीता की खोज आरंभ की गई किन्तु इसका कोई परिणाम नहीं निकाला। इसलिये, नरेन्द्र लाल (अभि० सा, 9) ने 29-6-1990 को प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज कराया। प्रथम इत्तिला रिपोर्ट में यह लिखा गया कि 26-61990 को नीता अपीलार्थी और चार अन्य द्वारा टी० वी० की मांग को पूरा करने के लिये हमारे घर आई थी और यह कि वे लोग दहेज को लेकर उसे परेशान कर रहे थे। तारीख 28 जून, 1990 को नीता कमला बाई ( अभि० सा० 3) के घर गई थी। विकास वहाँ एक अवयस्क बच्चे को लेकर लगभग 7 बजे शाम आया। नीता घर से बाहर गई और तीन मिनट के भीतर लौट कर अपनी बुआ कमलाबाई को बताया कि विकास उसे विक्की पर ले जाने के लिये आया है। अगले दिन वह नहीं लौटी। अभि० सा० 10 उसका पुत्र संजीव अपनी बहन नीता के लिये दवाईयां पहुँचाने गया। अपीलार्थी ने उसे बताया कि नीता वहाँ नहीं आई है और उन्होंने नीता को चार दिन से नहीं देखा है। यह भी उल्लेख किया गया कि 24-6-1990 को जब नीता को गन खोंडा कालोनी की ओर लेकर जा रहा था, तो रास्ते में उसे एक परिचित व्यक्ति मिला और अपीलार्थी ने उसे उसके घर पर छोड़ दिया था। नीता की खोजबीन की गई पर कोई परिणाम नहीं निकला। सूचनादाता ने विकास और उसके परिवार के सदस्यों पर सन्देह व्यक्त किया। इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 364/498क के अधीन विकास उसके पिता, माता और दो विवाहिता बहनों के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया। बाद में उसके पति विकास के बताने पर नीता का शव बरामद किया गया। उसके गहने जो उसने उस समय पहने हुये थे। जब अभियोजन साक्षी के घर गयी थी अभियुक्त पति के घर से बरामद किये गये। अभियुक्त ने किसी को यह नहीं बताया था कि उसकी पत्नी लापता है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि मृतका अभियोजन साक्षियों में से एक के घर जाती रहती थी और दहेज की मांग के बारे में बताया करती थी। साक्षियों ने अभियोजन के इस कथन को पुष्ट किया कि मृतका को अभियुक्त व्यक्तियों अर्थात् पति और सास ससुर द्वारा दहेज की मांग पूरा न करने के कारण प्रपीड़ित किया जाता। था और मृतका को उसकी ससुराल से निकाल दिया गया था। इसलिये साक्षियों के साक्ष्य को ध्यान में रखते हुये अभियोजन को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि अभियुक्त पति मोटर साइकिल का स्वामी था, जिस पर उसे वह अभियोजन साक्षी के घर ले गया था। इसके अतिरिक्त साक्षियों के साक्ष्य से यह भी स्पष्ट है कि नीता को दो तीन बार घर से निकाला गया था, किन्तु उसे पुन: उसकी ससुराल भेज दिया गया था। उसके माता-पिता की यह इच्छा कि उनकी पुत्री अपनी ससुराल में शांतिपूर्वक रहे इस घटना का कारण बनी। अपील खारिज कर दी गई और अपीलार्थी विकास को धारा 302 के अधीन हत्या के अपराध के लिये दोषसिद्ध किया गया। उसे उच्च न्यायालय ने धारा 304-ख और 498-क के अधीन अपराधों से पहले ही दोषमुक्त कर दिया गया था। कारावास की अवधि जो वे पहले पूरी कर चुके हैं, कायम रखी गई। अपीलार्थी को उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 364 के अधीन अपराध से भी दोषमुक्त कर दिया गया था। लिछमा देवी बनाम राजस्थान राज्य92 के मामले में द का विवाह प के साथ हुआ था। उसकी सास में। उसे दहेज के लिये परेशान और प्रताडित करती रहती थी। द इस दुर्व्यवहार एवं प्रताड़ना से दुखी होकर कुछ दिनों के लिये अपने पिता के घर चली गयी थी। जिस दिन द की हत्या की गई उसके चार पाँच दिन पहले ही वह अपने पिता के घर से ससुराल आई थी। उस दिन शाम को वह छत पर बर्तन साफ कर रही थी तो उसका सास ने उसके मुंह पर भगोने से मारा और कहा कि ”मन कहता है कि तुझे जिन्दा जला डालें”। रात को

  1. 2002 क्रि० लॉ ज० 3760 (सु० को०).
  2. 1988 क्रि० लाँ ज० 1812 (एस० सी०).

रसोईघर से उसकी चीख सुनकर जब पड़ोस के लोग आये तो उन्होंने देखा कि रसोई घर का दरवाजा बाहर से लोहे की जंजीर से बांध कर बन्द कर दिया गया था। दरवाजा खोलने पर उन लोगों ने देखा कि द जल रही। है। जब पड़ोसियों ने घरवालों से द को अस्पताल पहुँचाने में सहायता माँगी तो उन्होंने मना कर दिया। घर पर मृतक का पति, उसके पति का बड़ा भाई और सास मौजूद थे। पड़ोसियों ने मृतक के पति के बड़े भाई ‘ब’ को रसोई के पीछे से सीढ़ियों की ओर उतरते उस समय देखा था जब मृतक अग्नि की लपटों में जल रही थी। मृतक के पति प ने न तो उसे अस्पताल ले जाने में सहायता किया और न मृतक के उपचार हेतु खून का प्रबन्ध किया। मृतक ने मरने के पहले डाक्टर तथा अपने पिता से यह कहा था कि उसकी सास ने उसे जला कर मार डाला। इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मृतक की सास म तथा उसके पति के भाई ‘ब’ ने मिलकर उसकी हत्या की है। यह मृत्यु दहेज हेतु कारित की गयी थी। अतएव म तथा ब हत्या के दोषी हैं क्योंकि जला कर कमरे को बाहर से बन्द करना ऐसा कार्य है जिससे वह जानते थे कि उसका कार्य ऐसे आसन्न संकट से युक्त है। जिसमें मृत्यु होनी सम्भाव्य थी अथवा ऐसी उपहति सम्भाव्य थी जिससे मृत्यु की सम्भावना थी। मृतक का पति ‘प’ ने जानबूझ कर अपने को ऐसा अलग कर रखा था कि मानों उसे अपनी पत्नी से कोई मतलब ही नहीं है। घटनाक्रम में उसकी चुप्पी से ऐसा लगता है कि जिन लोगों ने ‘द’ की हत्या की है उनसे उसकी मौन सांठ-गांठ थी। अतएव ‘प’ भी हत्या के दुष्प्रेरण का दोषी होगा। पंजाब राज्य बनाम जुगराज सिंह93 के मामले में यह आरोपित किया गया था कि अभियुक्तगण ने दो नली बन्दूक और गंड़ासा से सज्जित होकर मृतक पर हमला किया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों ने यह साक्ष्य दिया कि अभियुक्तगण ने बन्दूक से दो फायर किया जो गोलियाँ मृतक को लगीं। डाक्टरी साक्ष्य से भी यह दर्शित था कि मृतक व्यक्ति को लगी चोटें बन्दूक की गोली से लगी थीं। बन्दूक की खाली गोलियाँ जो पाई गईं वह यह दर्शाती हैं कि गोलियों के छरें चारों तरफ पड़े हुये थे। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मृतक के एक या दो से अधिक चोटें नहीं लग सकती थीं क्योंकि साक्षीगण घटनास्थल से अपने जीवन को बचाने के लिये भाग गये थे। प्रथम सूचना रिपोर्ट भी यथाशीघ्र दे दी गई थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट का तत्काल दिया जाना और उसे मजिस्ट्रेट को भेजना इस मत का समर्थन करते हैं कि किसी गलत व्यक्ति को फंसाये जाने की संभावना नहीं थी। प्रत्यक्षदर्शी साक्षी भी स्वाभाविक साक्षी साबित किये गये थे। चोटों की प्रकृति के सम्बन्ध में न्यायालय के समक्ष डाक्टर के साक्ष्य पर भी मात्र इस कारण कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बन्दूक की चोटों का जिक्र नहीं था अविश्वास नहीं किया जा सकता है। मात्र अस्त्र विज्ञान विशेषज्ञ का परीक्षण न किये जाने से प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के बयान की विश्वसनीयता प्रभावित हुयी नहीं मानी जा सकती है। अतएव उच्च न्यायालय द्वारा मृतक के शरीर पर कई चोटें पाये जाने पर भी, प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों पर अविश्वास करते हुये अभियुक्त की दोषमुक्ति को उचित नहीं कहा जा सकता है।

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